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श्विनशुक्ल विजय दशमी को कूकसीनगर में श्री हेमचन्द्राचार्य रचित प्रकृतसूत्रों की वृत्तिरूप इस प्राकृतव्याकरण को अच्छे छन्दों में मैनें रचा ।
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चौमासे के उतार पर गाँव ' ' में बाग विमलनाथ स्वामी जी ' की अञ्ज नशलाका ( प्रतिष्ठा ) करायी; फिर माह महीने में शहर ' राजगढ़' में खजानची ' चुन्नीलाल जी के वनवाये हुए ' अष्टापद जी के मन्दिर की अञ्जनशलाका ( प्रतिष्ठा ) करायी । और शहर ' राणापुर ' में ' श्री धर्मनाथस्वामी की अञ्जनशलाका ( प्रतिष्ठा ) करायी । तदनन्तर ' खाचरोद ' शहर में पधारे। यहाँ कुछ दिन ठहर कर शहर जावरे में 'लक्खा जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की, और सम्वत् १९६२ का चौमासा शहर ' खाचरोद ' में किया । इस चौमासे में आपने चीरोलावालों को बड़े संकट ( दुःख ) से छुड़ाया । ' चीरोला ' मालवे में एक बोटासा गाँव है, यह गाँव ढाईसौ वर्षों से जातिबाहर था, कारण यह था कि शहर 'रतलाम' और 'सीतामऊ ' की दो बातें एकदम एकड़ी लड़की पर आयीं, जिसमें सीतामऊ वाले व्याह (परण) गये और रतलाम वाले योहीं रहगये । इससे इन्होंने क्रोधित हो चीरोलावालों को जाति बाहर कर दिया। फिर वह ऊगड़ा चला तो बहुत वर्षों तक चलता ही रहा परन्तु जाति में वे लोग न सके, यहाँ तक कि मालवे जर में सब जगह चीरोलावाले जातिबादर दो गये। कई मरतबा चीरोलावालों ने रतलामवाले पंचों को एक २ लाख रुपया दएक देना चाहा लेकिन ऊगड़ा नहीं मिटसका, तब बासठ १९६२ के चौमासे में चीरोलावाले सव श्रावक लोग श्राकर विनंती की और सब दाल कह सुनाया, तब आपने दया कर खाचरोदयादि के श्रीसंघ को समजाया और सबके हस्ताक्षर कराकर बिना दम लिये दी जाति में शामिल करादिया । यह कार्य असाधारण था, क्यों कि इसके लिये पहिले बड़े साहूकार और साधूलोग परिश्रम कर चुके थे किन्तु कोई जी सफलता को नहीं प्राप्त हुआ था । आपके प्रजाव ने सहज ही में इस कार्य को पार लगा दिया। इसी से आपकी उपदेशप्रणाली कितनी प्रबल थी यह निःसंशय मालूम प सकती है; यह एकही काम आपने नहीं किया किन्तु ऐसे सैकड़ों काम किये हैं ।
सम्वत् १९६३ का चौमासा शहर ' बड़नगर ' में हुआ, यहाँ चारो महीना धर्मध्यान का बाजारी श्रानन्द रहा और अनेक प्रशंसनीय कार्य हुए। इस प्रकार क्रियाउद्धार करने के बाद आपके ३९ उनतालीस चौमासा हुए। इन सब चौमासाओं में अनेक कार्य प्रशंसनीय हुए और श्रावकों ने स्वामीभक्ति अष्टादिकामहोत्सव आदि सत्कार्यों में खूब द्रव्य लगाया । कम से कम प्रत्येक चौमासे में ५००० हजार से लेकर २०००० हजार तक खरचा श्रावकों की तरफ से किया गया है, इससे अतिरिक्त शेष काल में जी आपने उलटे मार्ग में जाते हुए अनेक भव्यवर्गों को रोक कर शुद्ध सम्यक्त्वधारी बनाया । आपके उपदेश का प्रजाव इतना तीव्र था कि जिसको सुनकर कट्टर द्वेषी जी शान्त स्वभाव वाले होगये ।
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