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अर्थ समझ में नहीं आसकता, क्योंकि भगवान तीर्थङ्कर ने, तथा गणधरों ने अर्धमागधी भाषा में उन सूत्रों का प्रस्ताव किया है, जो कि सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ विलक्षण है । पूर्व समय में तो लोग परिश्रम करके प्राचार्यों के मुख से सूत्रपाठ और उसका अर्थ सुनकर कण्ठस्थ करते थे तभी वे कृतकार्य जी होते थे (इसका संक्षिप्त विवरण पहिले भाग के 'अहासंदिय' शब्द पर देखो) किन्तु आजकल ऐसी परिपाटी के प्रायः नष्ट होजाने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अत्यन्त हास होगया है। इस दशा को देखकर हमारे गुरुवर्य श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय कलिकालसर्वज्ञकप जट्टारक १००० श्रीमद्विजयराजेमसूरीश्वरजी महाराज को वमी चिन्ता उपस्थित हुई कि दिनों दिन जैन धर्म के शास्त्रों का हास होता जाता है, इसीलिये बहुत से लोग उत्सूत्र काम भी करने लग गये हैं और अपने धर्मग्रन्थों से बिल्कुल बेखबर से होगये हैं। ऐसी दशा में क्या करना चाहिये। क्योंकि संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने अपने धर्म की यथाशक्य उन्नति की, अन्यथा-'असंपादयतः कश्चि-दर्थ जातिक्रियागुणैः। यदृच्छाशब्दवत् पुंसः, संज्ञाय जन्म केवलम्' की तरह हो जाता है। ऐसी चिन्ता हृदय में बहुत दिन रही, किन्तु एक दिन रात्रि में ऐसा विचार हुवा कि-एक ऐसा ग्रन्य नवीन रूदि से बनाना चाहिये जिसमें जैनागम की मागधी भाषा के शब्दों को अकारादि क्रम से रखकर संस्कृत में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति,
और अर्थ लिखकर फिर नस शब्द पर जो पाउ मलमूत्र का आया है उसको लिखना और टीका यदि उस न मिले तो उसको देकर स्पष्ट करना और यदि ग्रन्थान्तर में भी वही विषय आया हो तो उसकी सूचना (भलावन) दे देना चाहिये । इससे प्रायः अपने मनोऽनुकूल संसार का उपकार होगा । तदनन्तर प्रातःकाल होते ही पूर्वोक्त सूरी जी महाराज ने अपनी नित्य क्रिया को करके इस कार्य का भार उठाया, औरै दत्तचित्त होकर बाईस वर्ष पर्यन्त घोर परिश्रम करने पर इस कार्य में सफल हुए, अर्थात् 'अनिधानराजेन्ड' नाम का कोष मागधीभाषा में रचकर चार भागों में विभक्त कर दिया। इसके बाद कितने ही श्रावकों ने और शिष्यों ने प्रार्थना की कि यदि यह अन्य भी और ग्रन्थों की तरह भएकार में ही पमा रह जायगा तो कितने मनुष्य इससे लाज उठा सकेंगे। इसलिये अनेक देश देशान्तरों में जिस तरह इसका प्रचार हो वह काम झेना चाहिये। इसपर सूरीजी महाराज ने उत्तर दिया कि मेरा कर्तव्य तो पूर्ण होगया अब जिसमें समस्त संसार का उपकार हो वैसा तुम लोगों को करना चाहिये, मैं इस विषय में तटस्थ हूँ । तदनन्तर श्रीसय ने इस ग्रन्थ के विशेष प्रचार होने के लिये छपवाना ही निश्चय किया । तब इस ग्रन्थ के शोधन का भार सूरीजी महाराज के विनीत शिष्य मुनिश्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने ग्रहण किया, जो इस कार्य के पूर्ण अभिज्ञ हैं।
जैनधर्म का ऐसा कोई भी साधु--साधी--श्रावक-श्राविका-संबन्धी विषय नहीं है जो इस कोश में आया न हो,किन्तु सायही साथ विशेषता यह है कि मागधीनाषा के अनुक्रम से शब्दों पर सब विषय रक्खे गये हैं। जो मनुष्य जिस विषय को देखना चाहे वह नसी शब्दपर पुस्तक खोलकर देख ले । जो विषय जहाँ जिस जगह पर आया है उसकी
लावन (सूचना) भी उसी जगह पर दी है। और वझे शब्दों पर विषयसूची जी दी हुई है जिससे विषय जानने में सुगमता हो । तथा प्रमाण में मूल सूत्र १,और उनकी नियुक्ति,भाष्य ३, चर्णिप,टीका ५ तथा और जीप्रामाणिक माचार्यों के बनाये हुए प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों का संग्रह है। जिसशब्द पर या उसके विषय पर किसी प्राचार्य या श्रावक की कथा मिली है उसे भी उस शब्दपर संग्रह कर ली है। तथा प्रसिकार तीर्थों की और सनी तीर्थकरों की कई पूर्वभवों से लेकर निर्वाण पर्यन्त कथायें दी हुई हैं; इत्यादि विषय आगे दी हुई संक्षिप्त सूची से समझना चाहिये।
इस ग्रन्थ में जो संकेत (नियम) रक्खे गये हैं वे इस तरह हैं१-मागधीभाषा का मूवशब्द, और उसका संस्कृत अनुवाद, तथा पूल की गाथा, और मूलसूत्र, [जिसकी टीका है] मोटे ( ग्रेट ) अक्षरों में रक्खा है।
२-यदि कोई गाथा टीका में भी आई है और उसकी जीटीका है तो उसे दो लाइन ( पङ्क्ति ) में रक्खा है । और मोटे अहरों में न रखकर गाथा के आदि अन्त में ("") ये चिह्न दे दिये हैं । फिर उसके नीचे से उसकी टीका चलाई गयी है। अन्य स्थल में तो मूल मोटे अक्षरों में, और टीका गेटे (पाइका) अक्षरों में दी गई है।
३-जहाँ कहीं उदाहरण में प्राकृत वाक्य या संस्कृत श्लोक आया है उसके आद्यन्त में '' यह चिह्न दिया गया है, किन्तु एक से ज्यादा गाथा या श्लोक जहाँ कहीं विना टीका के हैं वहाँ पर भी दोश् बैन करके उनको रक्खा है। और यदि एकही है तो उसी बैन में रखा है। और जहाँ टीका अनुपयुक्त है वहाँ पर मूलमात्र ही मोटे अक्षरों में रक्खा है।
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