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॥ श्रहम् ॥
|| प्रस्तावना ॥
इस संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो दुःख से मुक्त होने की अभिलाषा नहीं करता, किन्तु जबतक उन दुःखों से मुक्त होने के सत्य उपाय उसको मालूम न हों तबतक वह कैसे कृतकार्य ( सफल ) हो सकता है; इसलिये सभी को दुःख से मुक्त होने के सत्य उपाय जानने की बड़ी अभिलाषा रहती है, कि इस अपार संसार समुद्र में निरन्तर भ्रमणकरने वाले प्राणियों को प्राप्त होते हुए प्रत्युत्कट [ जन्म-जरा-मरणादि] दुःखों से छूटने का कौनसा उपाय है ?। यद्यपि विचारशाली और तीक्ष्ण बुद्धि वाले मनुष्य इसका उत्तर अवश्य देंगे, कि धर्म के सिवाय और कोई ऐसा दूसरा उपाय इन दुःखों से मुक्त होने का नहीं है; कितु धर्माधर्म का विवेक करना ही सर्व साधारण को अतिदुष्कर है अर्थात कौन धर्म है और कौनसा धर्म है इसका समऊना जी कुछ सहज काम नहीं है, क्यों कि इस दुनिया में अनेक धर्मनामधारी मत प्रचलित हो रहे हैं, जिनकी गिनती करना भी बहुत कठिन है तो फिर उनमें किसको धर्म और किसको धर्माजास कहा जाय ? | हाँ महानुभावों के आदेशानु सार इतना अवश्य कह सकते हैं कि इस पञ्चमकाल में - श्रर्थात् दुःषम आरा में, धर्माजासों का प्रायः प्रचार विशेष होना चाहिये और धर्म की अवनति दशा विशेष होनी चाहिये । इस पर फिर यह जिज्ञासा होगी कि वैसा धर्म कौन है ? | इसका उत्तर यह कि जिस धर्म के प्रवर्तक पुरुष किसी के द्वेषी अथवा रागी न हों और जो धर्म किसी जीव के [ अत्यन्त प्रिय ] प्राण का विघातक न हो अर्थात् जिससे सभी जीवों को सुख ही प्राप्त हो उसे ही धर्म कहना चाहिये । यदि ऐसा धर्म वस्तुगत्या देखा जाय तो जैन धर्म ही दिखाई देता है क्योंकि उसके प्रवर्तक जिन भगवान् भी रागद्वेष-विजेता हैं और उस ' का 'अहिंसा परमो धर्मः ' यह सिद्धान्त भी है । यद्यपि अन्य धर्माजासों में भी अहिंसा की महिमा है किन्तु प्रधानरूप से उसकी कारणता [ जन्मादि ] दुःखों से मुक्त होने में नहीं मानी हुई है; और उनमें यदि एकाध अंश में दया है तो अन्यांश में हिंसा भी है। जैसे किसी मत का मन्तव्य है कि यदि कोई पशु पक्षी प्राणी इस भव में दुःख महता हो तो उसको इस जन्म से मुक्त करदेना ही दया है । अथवा जब कभी अवसर प्राप्त हो तो यज्ञ में प्राणियों को मारकर उनको उत्तमगति वाला बना देना । अस्तु विशेष विस्तार इसका इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में ' अद्दकुमार ' और ' अहिंसा' शब्द पर जिज्ञासुओं को देखना चाहिये । इसीलिये कहा हुआ है कि 'पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमत् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १ ॥ और 'प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ' इत्यादि ॥
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यह जैनधर्म — दयाधर्म, आचारधर्म, क्रियाधर्म, और वस्तुधर्म से चार भागों में विजक्त है । और इस धर्म का मुख्य कारण शासन है, जो समवसरण में बैठेदृए देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवान् श्री तीर्थङ्कर के उपदेश से आविर्भूत होता है और पीछे उन्हीं उपदेशों को श्री गौतमादि गणधर द्वादशाङ्गी अथवा एकादशाङ्गी रूप में संदर्भित करते हैं, जिनका 'सूत्र' नाम से व्यवहार किया जाता है। ये प्रत्येक तीर्थङ्करों के शासन काल में विद्यमान दशा को प्राप्त होते हैं । पि पूर्वकाल में चौदह पूर्वधर, तथा दश पूर्वधर, श्रुतकेवली आदि महात्माओं को तो किसी पुस्तकपत्रादि की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उनके अतिशय से उन्हें मूल से ही अर्थज्ञान हो जाता था परन्तु श्रामे वाले जीवों के ज्ञान में दुर्वता होने से और जैन धर्म के विषय प्रति गहन होने से उनको स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति-भाष्यचूर्णि - टीका आदि रचने पड़े। परन्तु इस समय में जैन ग्रन्थों का इतना विस्तार हो गया है कि थोड़ीसी आयुष्य में
कोई मनुष्य सांसारिक कार्य करता हुआ गृहस्य क्या विरक्त जी इस जैनशासन सागर के पार को प्रायः नहीं जा सकता। कारण यह है कि पहिले तो सब ग्रन्थों की उपलब्धि सब कहीं नहीं होती और जो मिलते जी हैं उनमें कौन विषय कहाँ पर है यह प्रायः ठीक २ पता हर एक को नहीं लगता और यदि किसी ग्रन्थ में पता भी लग जाय तो वह विषय दूसरी जगह या दूसरे ग्रन्थों में कहाँ कहाँ पर आया है यह पता नहीं लग सकता। यह कारण तो एक तरफ रहा, दूसरी बात यह भी है कि जिस जाषा में जैनदर्शन बना है, वह जाषा वही है कि जिसने प्राचीन समय में मातृभाषा से और राष्ट्रजाषा से जारतभूमि में स्थान पाया था, और जिसका सर्वज्ञों से और गणधरों सबमा आदर किया गया, उसी भाषा का प्रचार इस समय बिलकुल नहीं है और जो नाटकों में जहाँ कहीं दिखाई देता है उसको जी उसके नीचे दी हुई बाया से ही लोग समऊ लेते हैं, और यदि किसी ने उसका कुछ अभ्यास जी कर लिया तो उससे जैन धर्म के मूलसूत्रों का अथवा निर्यू क्तिगाथाओं का
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