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ही दिन के बाद परमोपकारी धर्मप्रजावक याचार्यवर्य्य श्रीमान् श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वर महाराजजी ने अपने इस अनित्य शरीर का सम्वत् १७६३ पौष शुक्ल ७ शुक्रवार मुताबिक २१ दिसम्बर सन् १९०६ ई० को समाधियुक्त परित्याग किया, अर्थात् इन नाशवान् संयोगों को छोड़ कर स्वर्ग में विराजमान हुए ।
उपसंहार
महानुजाव पाठकवर्ग ! इस समय जीवनचरित्र लिखने की प्रथा बहुतदी बढ़ गयी है इसलिये प्रायः बहुत से सामान्य पुरुषों के जी जीवनचरित्र मिलते हैं किन्तु जीवनचरित्र के लिखने का क्या प्रयोजन है यह कोई जी नहीं विचार करता, वस्तुतः सत्पुरुषों की जीवनघटना देखने से सर्व साधारण को लाभ यह होता है कि जिस तरह सत्पुरुष क्रम क्रम से उच्चकोटी वाली व्यवस्था को प्राप्त हुआ है वैसी ही पाठक भी अपनी व्यवस्था को उच्चकोटी वाली बनावे और दुर्जन पुरुषों की जीवनघटना देखने से जी यह लाज होता है कि जिसतरह अपने कुकर्मों से दुर्जन अन्त में दुरवस्था को प्राप्त होता है वैसा वाचक न हो, किन्तु दुर्जन की जीवनघटना की अपेक्षा से सत्पुरुष के ही जीवनचरित्र पढ़ने से शीघ्र लाभ हो सकता है, इसीलिये पाठकों को महानुभाव सूरीश्वरजी का यह जीवनपरिचय कराया गया है, जिससे व्यापजी ऐसी व्यवस्था को प्राप्त होकर सदा के सुखजागी बनें, क्योंकि सूरीजी का जीवन इस संसार में केवल परोपकार के वास्ते ही था, नकि किसी स्वार्थ के वास्ते । यदि रागद्वेषरहित बुद्धि से विचारा जाय तो हमारे उत्तमोत्तम जैन धर्म की उन्नति ऐसेही प्रभावशाली क्रियापात्र सद्गुरुओं के द्वारा हो सकती है। आपका जो जीवनपरिचय बहुत ही अद्भुत और आश्चर्यजनक है, उसका यह दिग्दर्शनमात्र कराया गया है, किन्तु बड़ा जीवनचरित्र ' जो बना हुआ है उसमें प्रायः बहुत कुछ सूरीजी महाराज का जीवनपरिचय दिया गया है, इसलिये विशेष जिज्ञासुधों को बढ़ा जीवनचरित्र देखना चाहिये, उसके द्वारा संपूर्ण आपका जीवनपरिचय हो जायगा और इन महानुभाव महापुरुष के जीवनचरित्र पढ़ने से क्या लाज हुआ सो जी सहज में मालूम पड़ जायगा । इत्यलं विस्तरेण ।
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नवरसनिधिविधुवर्षे यतीन्द्र विजयेन वागरानगरे । आश्विनशुक्लदशम्यां जीवनचरितं व्यलेखि गुरोः ॥ १ ॥
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