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३१ - 'चैहय' शब्द पर चैत्य का अर्थ, प्रतिमा की सिद्धि, चारणमुनिकृत वन्दनाधिकार, चैत्य शब्द का अर्थ जो ज्ञान मानते हैं उनका खण्डन, चमरकृतवन्दन, देवकृत चैत्यवन्दन, सावद्य पदार्थ पर भगवान् की अनुमति नहीं होती, और मौन रहने से भगवान् की अनुमति समझी जाती है क्योंकि निषेध न करने से अनुमति ही होती है इसपर दृष्टान्त, हिंसा का विचार, साधू को स्वातन्त्र्य से चैत्य में अनधिकार, द्रव्यस्तव मे गुण, जिनपूजन से वैयावृत्य, तीन स्तुति, जिन भवन के बनाने में विधि, प्रतिमा बनाने में विधि, प्रतिष्ठाविधि, जिनपूजाविधि, जिनस्नात्रविधि, आभरण के विषय में दिगम्बरों के मत का प्रदर्शन और खण्डन, चैत्यविषयक प्रश्नों पर हीरविजय सूरिकृत उत्तर इत्यादि अनेक विषय हैं ।
३२- 'चेइयवंदण' शब्द पर नैषेधिकत्रिय, पूजात्रिक, भावनात्रिक, त्रिदिनिरीक्षण प्रतिषेध, प्रणिधान, अभिगम, चैत्यवन्दनदिक्, अवगाह, ३ वन्दना, ३ या ४ स्तुति, जघन्यवन्दना, अपुनर्बन्धकाऽऽदिक अधिकारी हैं, नमस्कार, प्रणिपातदण्डक, २४ स्तव, सिद्धस्तुति, वीरस्तुति, वैयावृत्य की चौथी स्तुति, १६ आकार, कायोत्सर्ग इत्यादि अनेक विषय आये हैं ।
तृतीय जाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली‘एगत्तभावणा, ' ‘एलकक्ख, 'एसखासमिइ,' 'कम्मायणीय,' 'कम्मीरह, 'कत्तिय, "कप्प, "कप्पच, "कय एणू 'कवड्डिजक्ख, ''कंडरिय, ' 'कंबल, "करंड, 'काकंदिय, ' 'कायगुत्ति, 'काल, 'कालसोच्चरिय, ' ' कासीराज, ''किइकम्म, ' ‘कुबेरदत्त,' ‘कुबेरदत्ता,’‘कुबेरसेगा, ' 'कोडिसिला, ' 'गंगदत्त, ' 'गयसुकुमाल,' 'गुणचंद, ' 'गुणसागर,' 'गुत्तसूरि, ''गुरुकुलवास, ' 'गुरुणिग्गह, ' 'गोड्डामाहिल, ' चंडरुद, ' 'चंदगुत्त, ' 'चंदप्पभसूरि, ' 'चंपा, ' 'चक्कदेव,' 'चेइयवंदण' | चतुर्थभाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय
१ - ' जीव ' शब्द पर जीव की व्युत्पत्ति, जीव का लक्षण, जीव का कथञ्चिन्नित्यत्व, और कथञ्चित् अनित्यत्व, इस्ति और कुन्थु का समान जीव है इसका प्रतिपादन, जीव और चैतन्य का भेदाभेद, संसारी और सिद्ध के भेद से Tata के दो भेद, संसारियों का सेन्द्रियत्व, सिद्धों का अनिन्द्रियत्व इत्यादि विषय वर्णित हैं ।
२ - ' जोइसिय' शब्द पर जम्बूद्वीपगत चन्द्र सूर्य की सङ्ख्या, तथा लवण समुद्र के, धातकी खण्ड के, कालोदसमुद्र के, पुष्करवर द्वीप के, और मनुष्यक्षेत्रगत समस्त चन्द्रादि की संख्या का मान, चन्द्र-सूर्यों की कितनी पङ्क्तियाँ हैं और किस तरह स्थित हैं इसका निरूपण, चन्द्रादिकों के भ्रमण का स्वरूप, और इनके मण्डल, तथा चन्द्र से चन्द्र का और सूर्य से सूर्य का परस्पर अन्तर इत्यादि अनेक विषय हैं जिनका पूरा २ निरूपण यहाँ नहीं किया जा सकता । ३- ' जोग' शब्द पर योग का स्वरूप, तथा योग के भेद, और योग का माहात्म्य आदि अनेक बृहत् विषय हैं । ४- ' जोनि ' शब्द पर योनि का लक्षण, और उसकी संख्या, और भेद, तथा स्वरूप आदि अनेक विषय हैं। ५-' झाण ' शब्द पर ध्यान का अर्थ ध्यान के चार भेद, शुक्लध्यानादि का निरूपण, ध्यान का आसन, ध्यातव्य और ध्यानकर्ताओं का निरूपण, ध्यान का मोचहेतुत्व इत्यादि विषय हैं ।
६-‘ठवण्णा' शब्द पर स्थापनानिक्षेप, प्रतिक्रमण करते हुए गणधर स्थापना करते हैं, स्थापनाचार्य का चालन, स्थामना कितने प्रदेश में होती है इसका निरूपण, स्थापना शब्द की व्युत्पत्ति, और स्थापना के भेद इत्यादि विषय हैं।
७- ठाण' शब्द पर साधु और साध्वी को एक स्थल पर कायोत्सर्ग करने का निषेध, स्थान के पंद्रह भेद, बादर पर्याप्त तेजस्कायिक स्थान, पर्याप्तापर्याप्त नैरयिक स्थान, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वों का स्थान, भवनपति का स्थान, और स्थान शब्द की व्युत्पत्ति इत्यादि विषय हैं ।
E-' ठिई' शब्द पर नैरयिकों की स्थिति, पृथिवीविभाग से स्थितिचिन्ता, देवताओं की स्थिति, तथा देवियों की, भवनवासियों की, भवनवासिनियों की, असुरकुमारों की, अभुरकुमारियों की, नागकुमारों की, नागकुमारियों की, सु
कुमारों की, सुवर्णकुमारियों की पृथिवीकायिकों की, सूक्ष्म पृथिवीकायिकों की, आउकायिकों की, बादर आउकायिकों की, ते कायिकों की, सूक्ष्म तेउकायिकों की, बादर तेउकायिकों की, वायुकायिक-सूक्ष्म वायुकायिक-वादर वायुकायिकों की. वनस्पतिकायिक- सूक्ष्म वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिकों की, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, संमूर्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्, जलचरपञ्चेन्द्रिय, संमूर्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय, चतुष्पद स्थलचरपश्चेन्द्रिय, संमूर्छिम चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय, गर्भापक्रान्तिक चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय, उरः परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, संमूर्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय
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