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छेद सूत्रों में निर्वाणोत्तर कालीन श्रमण संघ की व्यवस्था का विस्तृत रूप से विवरण उपलब्ध होता है । धर्म संघ का श्रमण-श्रमणीवर्ग सुदृढ संगठन एवं पूर्ण अनुशासन में रहते हुए सम्यग् रीति से ज्ञानाराधना तथा साधना का निरन्तर-उत्तरोत्तर विकास, धर्म का प्रचार-प्रसार-प्रभावना-अभ्युत्थान और निर्दोष रूप से अपने संयम एवं जीवन का निर्वाह कर सके, इस प्रकार धर्मसंघ की व्यवस्था सहज भाव से सम्यक रूपेण चल सके, इस उद्देश्य से श्रमण संघ में निम्नलिखित पदों की व्यवस्था किये जाने के उल्लेख स्थानांग सूत्र की वृत्ति' एवं वृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त होते हैं :
१. प्राचार्य, २. उपाध्याय, ३. प्रवर्तक, ४. स्थविर, ५. गगी, ६. गणधर, ७. गणावच्छेदक
श्रमण समूह के समान श्रमणी समूह भी प्राचार्य का ही प्राज्ञानुवर्ती रहता था। पर श्रमणीवर्ग की दैनन्दिन-व्यवस्था समीचीनतया चलती रहे, श्रमरणों तथा श्रमणियों का अवांछनीय अतिसम्पर्क न हो और समलैंगिकता के कारण श्रमरिणयों की व्यवस्था भी थमणों की अपेक्षा श्रमणियां सुविधापूर्वक कर सकें, इस दृष्टि से श्रमणीवन्द के लिये प्रवर्तिनी महत्तरा, स्थविरा और गणावच्छेदिका पदों की व्यवस्था निर्धारित की गई है। इन पदों पर अधिष्ठित किये जाने वाले महा श्रमणों की कायिक, वाचिक एवं आध्यात्मिक सम्पदाओं, योग्यताओं, उत्तरदायित्वों, पुनीत कर्तव्यों और उनके द्वारा वहन किये जाने वाले गुरुतर कार्यभार प्रादि का यहां शास्त्रीय एवं पुरातन आधार पर संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्राचार्य :- भगवान्-महावीर के धर्मसंघ में प्राचार्य (धर्माचार्य) का पद अप्रतिम गौरव-गरिमापूर्ण और सर्वोपरि माना जाता है। जैन धर्म संघ के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्द्धन, अनुशासन एवं सर्वतोमुखी विकास-प्रभ्युत्थान का सामूहिक एवं मुख्य उत्तरदायित्व प्राचार्य पर रहता है। समस्त धर्म संघ में उनका आदेश अन्तिम निर्णय के रूप में सर्वमान्य होता है। यही कारण है कि जिनवाणी का यथातथ्य रूप से निरूपण करने वाले प्राचार्य को तीर्थकर के समान और सकल संघ का नेत्र बताया गया है।'
आवश्यक चूर्णिकार ने 'प्राचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए लिखा ' म्यामांग सूत्र, ४. ३., ३२३ (वृत्ति) २ बृहत्कल्प सूत्र, ४. १२३ ३ तित्थयर समो सूरि, समं जो जिणमयं पयासेई ।
भारणं महक्कमंतो, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो।। स एव भवसत्ताणं, वायुभूए वियाहिए । दंसेई जो जिरगुदिट्ट, प्रणुारणं जहाहियं ।।।
[गच्छाचार पयन्ना, अधि० १]
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