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वर्ग के लिये ही नहीं अपितु संघ के प्रति निष्ठा-प्रेम रखने वाले साधारण से साधारण सदस्य के कर्तव्यों एवं कार्यकलापों के लिये मार्ग दर्शक विधिविधान था। उसमें निर्दिष्ट विधि के अनुसार इस धर्म-संघ का प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करता था। ___वीर नि० सं० १६० के आस-पास पाटलिपुत्र में हुई प्रथम आगम-वाचना के समय दृष्टिवाद की रक्षार्थ संघ द्वारा साधुओं के एक संघाटक को भद्रबाहु की सेवा में नेपाल भेज कर उन्हें मेधावी साधुनों को चौदह पूर्वो की वाचना देने की प्रार्थना करना, भद्रबाहु द्वारा प्रथमतः संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करना और अन्ततोगत्वा बारह प्रकार के संभोगविच्छेद की संघाशा के समक्ष झुक कर स्थूल भद्र अदि को पूर्वज्ञान की वाचना देने के उल्लेख' से भी यह अनुमान किया जाता है कि पूर्वकाल में जैन संघ का एक सर्वांग सम्पन्न संविधान था, जिसमें श्रमण संघ की ही तरह साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इन चारों बगों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक जैन संघ के कर्तव्यों एवं दायित्वों के सम्बन्ध में स्पष्ट एवं विशद प्रावधान थे। चतुर्विध तीर्थ का प्रतिनिधित्व करने वाला इस प्रकार का संघ विशिष्ट प्रकार के संकट के समय विचार-विमर्श के पश्चात किसी विकट समस्या के समाधान के लिये निर्णय लेता था। यदि इस प्रकार की व्यवस्था संविधान में नहीं होती, तो न तो संघ ही एक प्राचार्य को इस रूप में प्राज्ञा देने का अधिकारी हो सकता था और न प्राचार्य भद्रबाहु ही उस संघाज्ञा को मानने के लिये बाध्य होते । वह संधाज्ञा केवल श्रमणवर्ग की ही हो, यह भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि भद्रबाहु प्राचार्य होने के नाते समस्त श्रमण वर्ग के शास्ता ये और श्रमरण समूह उनका शासित वर्ग। शासित वर्ग शास्ता को प्राज्ञा दे, यह मुक्तिसंगत नहीं लगता। विद्वान् इतिहासज्ञ इस विषय में गवेषणा करेंगे ऐसी अपेक्षा है।
पहली प्रागम-वाचना के समय के उपरिवरिणत उल्लेख के अतिरिक्त पार्य वच की माता द्वारा अपने पुत्र वज़ को पुनः उसे लौटाने के लिये राज्य के न्यायालय में की गई प्रार्थना, प्रार्य रक्षित का उत्तराधिकारी घोषित करने विषयक उलझन जैसे अनेक प्रसंगों पर संघमुख्यों के हस्तक्षेप. विचार विनिमय, सहयोग मादि के उदाहरण भी जैन वाङमय में उपलब्ध होते हैं। इनसे यही प्रकट होता है कि संघमुख्यों के भी परम्परा से कुछ कर्तव्य, कतिपय दायित्व रहे हैं और उनका उल्लेख कहीं न कहीं था, जिसे माज की, भाषा में संविधान की संभा दी जा सकती है।
श्रुत केवली प्राचार्य भद्रबाहु ने दृष्टिवाद के नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से, श्रमण. संघ के लिये प्रावश्यक विधि विधानों को निर्यढ-उद्धत कर, चुन चुन कर दशाश्रुत स्कन्ध, कल्प, व्यवहार इन तीन छेद सूत्रों तथा प्राचार-कल्प (निशीय)
' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. ३७७
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