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प्रमारण उपलब्ध होते हैं कि जैन धर्म सुदूरवर्ती प्रदेशों तथा देशों में फैला, फला. फूला और एक लम्बे समय तक उत्तरोत्तर अभिवृद्धि को प्राप्त होता रहा । जहां अन्य अनेक बड़े-बड़े धर्म-संघ विषम परिस्थितियों में विशृंखल एवं संक्रान्तिकाल की चपेट से चकनाचूर हो धरातल से तिरोहित हो गये, वहां जन-धर्म प्रभु महावीर द्वारा दी गई अहिंसा, अस्तेय, अचौर्य, प्रब्रह्मनिवृत्ति और अपरिग्रह रूपी अमर, अनमोल, महान् सिद्धान्तों की धरोहर को सुरक्षित रखे हुए प्राज भी अनवरुद्ध गति से एक अजस्त्र धारामयी सौख्य-सरिता के समान चल रहा है। काल प्रभाव से यह धारा पूर्वापेक्षया परिक्षीण तो अवश्य हुई है पर उसके शिवसोख्य प्रदायी मूल गुण में किसी प्रकार की किचित्मात्र भी न्यूनता नहीं पा पाई है।
माजीवक प्रभृति अनेक विशाल धर्म-संघ विलुप्ति की घोर अन्धकारपूर्ण गुफा में विलीन होगये। आज उन धर्म संघों का अनुयायी तो दूर, चिन्ह तक कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन धर्म पर भी अनेक बार विपत्ति के बादल मंडराये, द्वादशवार्षिकी दुष्कालियों, राजनयिक उथल-पुथल, वर्ग विद्वेष, धर्मांधताजन्य गृह कलह आदि संक्रान्तिकाल के अनेक दौर आये और चले गये। अनेक धर्म संघों का सर्वनाश करने वाले वे विप्लव भी जैन धर्म को समाप्त नहीं कर सके । अतीत की उन अति-विकट संकटापन्न घड़ियों में भी जैन धर्म किन कारणों से अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल हमा? इस प्रश्न की गहराई में उतरने और खोज करने पर इसके कतिपय प्रबल कारण उभर कर सामने पाते हैं। सबसे पहला और प्रबल कारण तो यह था कि सर्वज्ञ प्रणीत धर्म होने के फलस्वरूप इस धर्म संघ का संविधान सभी दृष्टियों से सुगठित और सर्वांगपूर्ण था। अनुशासन, संगठन की स्थिरता, सुव्यवस्था, कुशलता पूर्वक संघ के संचालन की विधा आदि संघ के उस संविधान की अपनी अप्रतिम विशेषताएं थीं। दूसरा मुख्य कारण था इस धर्म संघ का विश्वबन्धुत्व का महान् सिद्धान्त, जिसमें प्राणिमात्र के कल्याण की सच्ची भावना सन्निहित थी। इन सब से बढ़ कर इस धर्म संघ की घोरातिघोर संकटों में भी रक्षा करने वाला था इस धर्मसंघ के कर्णधार महान् प्राचार्यों का त्याग-तपोपूत अपरिमेय प्रात्मबल । इस प्रकार ये ३ प्रमुख कारण थे, जिनके बल पर सघन काली मेघ घटाओं के विच्छिन्न हो जाने पर जिस प्रकार सूर्य पुनः अपनी प्रखर किरणों के प्रचण्ड तेज से जगती. तल को प्रकाशित करने लगता है, ठीक उसी प्रकार जैन धर्म-संघ भी समय-समय पर पाये संकटों से उभर कर अपने अलौकिक ज्ञानालोक से जन-जन के मनमन्दिर और मुक्ति पथ को प्रकाशित करता रहा।
. जैन वाङ्मय के कतिपय अति प्राचीन प्रामाणिक उल्लेखों और पुरातन काल से चली आ रही पारम्परिक मान्यता के आधार पर यह अनुमान करने के अनेक कारण विद्यमान हैं कि श्रुतकेवली प्राचाय भद्रबाहु के समय तक जैन धर्मसंघ का एक सर्वांगपूर्ण एवं अतिविशाल संविधान विद्यमान था। उस संविधान में संभवतः पंच महाव्रतधारी साधु-साध्वी, अणुव्रतधारी श्रावन धाविका
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