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इन आगमों का निर्माण किया' यही एक सर्वसम्मत ऐतिहासिक घटना इस बात का विश्वास करने के लिये पर्याप्त एवं प्रबल प्रमाण है कि भगवान् महावीर के धर्म-संघ का प्राचीन काल में एक विशाल एवं प्रपने प्राप में सर्वत: परिपूर्ण संविधान था ।
इस प्रकार की सर्वांगपूर्ण समीचीन व्यवस्था के कारण भगवान् महावीर का धर्म-संघ तत्कालीन क्रमागत प्राचार्यों के नेतृत्व में सुसंगठित रूप से चलता रहा । समय समय पर अनेक प्रतिकूल परिस्थितियां आई, आपत्कालीन स्थितियां भी उत्पन्न हुई, इस धर्म-संघ पर अनेक वार विपत्तियों के घने काले बादल भी मंडराए पर दूरदर्शी अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न, तपोधन प्राचार्यों के कुशल नेतृत्व में यह धर्म-संघ सुसंगठित रहने के कारण उन परीक्षा की घड़ियों में सदा उत्तीर्ण हुआ । उसने अपने अस्तित्व को ही नहीं अपितु अपनी प्रतिष्ठा को भी बनाये रखा ।
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इस धर्मसंघ की वह सर्वांगपूर्ण एवं छिद्रविहीन सुव्यवस्था किस प्रकार की थी ? इस धर्मसंघ का संविधान क्रमबद्ध एवं पृथक् रूप से एकत्र प्रथित था अथवा प्राज जिस प्रकार विविध छेद सूत्रों, भाष्यों एवं महाभाष्यों श्रादि में विकीर्ण रूप में दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार विभिन्न भागमों में निहित था ? आज श्रागम साहित्य में मुख्यतः केवल श्रमण-श्रमरणीवर्ग की दैनिकचर्या, दीक्षित होने के समय से लेकर प्रारणोत्सर्ग - कालपर्यंत श्रमण श्रमणियों के सभी उत्तरदायित्वों, श्रावश्यक कर्तव्यों प्रचार-विचार, श्राहार-विहार- प्रायश्चित प्रादि के सम्बन्ध में विधान उपलब्ध होता है । श्रावकवर्ग के प्राचार-विचार के सम्बन्ध में तो कुछ स्थलों पर प्रत्यक्ष और कतिपय स्थलों पर अप्रत्यक्ष रूप में थोड़ा बहुत उल्लेख विद्यमान है किन्तु धर्मसंघ के प्रति उनके दायित्वों, धर्मसंघ के प्रभ्युत्थान हेतु उनके कर्त्तव्यों आदि का क्रमिक एवं विस्तृत उल्लेख कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । तो वस्तुतः : श्रावक श्राविका वर्ग के लिये भी इस धर्मसंघ के पूर्वकालवर्ती संविधान में विधिविधान, किसी प्रकार का निती निर्देश था प्रथवा / नहीं ? साधु-साध्वी वर्ग और श्रावक-श्राविकावर्ग के बीच का भी कोई वर्ग था अथवा नहीं? यदि था तो उसका स्वरूप क्या था और उस वर्ग के दायित्व क्या क्या थे ? इन सब प्रात्यन्तिक महत्व के प्रश्नों के यत्किचित् उत्तर तो माज हमें उपलब्ध जैन वाङ्मय में खोजने पर मिल जाते हैं पर उन्हें पूर्ण संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता । इस संबन्ध में गहन शोध के साथ-साथ शास्त्रीय प्राधार पर जैन संघ के संविधान के निर्माण की भी आवश्यकता है, जो सभी दृष्टियों से पूर्ण और स्पष्ट हो ।
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(क) वन्दामि भद्दवाहु, पाईणं चरिम सगलसुयनारिंग । सुत्तस्स कारगमिसि, दसासुकप्पे य ववहारे || १|| (ख) तत्तोच्चिय णिज्जूढं, भरणुगहट्ठाए संपयजतीगं । तो सुतकारगो खलु, स भवति दसकप्प ववहारे ।। ११ ।। (ग) तेरण भगवया प्रायार पकप्प-दसा- कप्प-वबहारा य नवमपुव्यनी संदभूता निज्जूढ़ा
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[ दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति ]
[ पंचकल्प महाभाष्य ]
[ पंचकल्प चूरिंण, पत्र १]
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