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जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराज - विरचितयाऽऽचारचिन्तामणि–च्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दीगुर्जर भाषाऽनुवादसहितम् -
आचाराङसूत्रम्।
( प्रथमो भागः अध्य० १ ) [ मथमः श्रुतस्कन्धः ]
ACHARANGA SUTRA
PART 1
CHAPTER 1
नियोजकः
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि -
पण्डित- मुनिश्रीकन्हैयालालजी - महाराजः
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प्रकाशकः
अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः
श्रेष्ठि- श्री - शान्तिलाल - मङ्गलदास भाई - महोदयः मु० राजकोट
द्वितीय आवृत्ति वीर संयत प्रति १०००
२४८४
विक्रम संवत ईस्वीसन
२०१४
मूल्यम् - रू० १२-०-०
१९५८
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મળવાનું ઠેકાણું : શ્રી અ. ભા છે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઠે. ગરેડિયા કૂવાડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકેટ. (સૌરાષ્ટ્ર)
બીજી આવૃત્તિ: પ્રત ૧૦૦૦
વીર સંવત : ૨૪૮૪ વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૪ ઈસ્વી સન : ૧૯૫૮
* સુદ્રક :
મણિલાલ છગનલાલ શાહ ધી નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ ઘીકાંટા રેડ :: અમદાવાદ,
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રૂ. ૧૦૦૦૦) આપનાર આઇ મુરી સમિતિના પ્રમુખ
દાનવીર શેઠશ્રી,
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શેઠ શાંતિ લા લ મ ગ ળ દા સ ભાઈ
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શ્રી-વધુ માન-શ્રમણુ-સંઘના આચાર્ય શ્રી
પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ
આપેલ
સમ્મતિપત્ર
ઉપરાંત
પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ-રચિત
ખીજા સૂત્રાની ટીકા માટે તેઓશ્રીના મતખ્યા
*
તેમજ
અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કાલેજના પ્રોફેસરી
તેમજ
શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકોના અભિપ્રાયા
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सम्मतिपत्र (भापान्तर)
श्रीवीरनिर्वाण सं० २४५८ आसोज
शुक्ल १५(पूर्णिमा) शुक्रवार लुधियाना मने और पंहितमनि हेमचन्दजीने पंडितरत्नमनिश्री घासीलालजीकी रची ई उपासकदशांग सत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानाम तधागुणचाली-अच्छी बनी है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली-ही है। टीकाकार ने मृलमत्र के भावको सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेप धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टोकामें अच्छे ढंगसे पतलाया है। स्थाढादका स्वरूप, कर्म-पुम्पार्थ-चाद और श्रावकोंको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रग्बना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भलीभांति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खुव झलकती है। ऐतिहामिक दृष्टिसे अमण भगवान् महावीरके समय जैनधर्म किस जाहोजहाली पर था और वर्तमान समय जैनधर्म किस स्थितिमें पहुंचा इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है। फिर संस्कृत जाननेवालोंको तथा हिन्दीभापाके जाननेवालोंको भी पूरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है, उसकी सरल हिन्दी कर दी गई है। इसके पढनेसे कर्नाकी योग्यताका पता लगता है कि घृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय है। इस मत्रको मध्यस्थ भावसे पढने चालोको परम लाभकी प्राप्ति होगी। क्या कहें! श्रावकों (गृहस्थों) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अतः टीकाकारको कोटिशः धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने :अत्यन्त परिश्रमसे जैनजनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमें श्रावक के बारह नियम प्रत्येक पुरूपके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है, तथा भवितव्यतावाद और पुरुषकार
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जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामी महाराज तथा न्यायव्याकरणके ज्ञाता परम पण्डित मुनिश्री १००७ श्री हेमचन्द्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाह सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है
सम्मइवत्तं सिरि-चीरनिव्याण-संवच्छर २४५८ आसोई
(पुण्णमासी) १५ सुक्यारो लुहियागाओ। मए मुणिहेमचंदेण य पेडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगसुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचन्दवासाओ अज्जोवंत सुया, समीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सच्च अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण) दाई एव अस्थि । वित्तिकत्तुणा मूलमुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसट्ठधाओ, समणोवासयस्स धम्मदढया य, इचाइविसया अस्सि फुडरीइओ वपिाया, जेण कत्तुणो पडिहाए मुटुप्पयारेण परिचो होइ, तह इइहासदिहिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स समए चट्टमाणभरहवासस्स य कत्तुणा विसयप्पयारेण चित्तं चित्तियं, पुणो सकयपाढीणं, वट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीग य परमोवयारो कडी, इमेण कत्तुगो अरिहत्ता दीसइ, कत्तुणो एवं कर्ज परमप्पसंसणिज्जमत्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पय, अवि उ सावयस्स तु (उ) इमं सत्थं सबस्समेव अत्यि, अओ कत्तुणो अणेगकोडिसो धनवाभो अत्थि, जेहिं अन्चंतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोवयारो कडो, अह य सावयस्स वारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढणिज्जा अत्थि, जेसि पहावओ वा गहणाओ आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भवियव्ययावाओ परिसकारपरकमवाओ य अवस्समेव दंसणिज्जो, किंबहुणा इमोए वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसद्देहि यण्गग कयं, जइअनोविएवं अम्हागं पमुत्तप्पाए समाजे विज* मवेज्ना तया नाणस्स चरित्तस्स तहा संघरस य खिप्पं उदयो भविस्सइ, एवं हं मन्ने।।
___ मवईओउवज्झाय-जइणमुणि-आयाराम-पंचनईओ,
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રૂ. ૬૦૦૦) આપનાર આધ મુરબ્બીશ્રી
શેઠ હરખચંદ કાળી દાસ વારીયા
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पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये। कहां तक कहें, इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकारसे घताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय (सोई हुई सी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान, चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूँ।
आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजावी.
इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान मुनिश्री १००८
श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं० मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी ___ महाराजके दिये हुए, श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रके
प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार हैश्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज-कृत श्री उपासकदशाङ्ग सत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने बडे परिश्रम व पुरुषार्थसे तय्यार किया है, सो आप धन्यवादके पात्र हैं। आप जैसे व्यक्तियोंकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढ कर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे यह एक हमारे लिये बडे गौरवकी बात है।
चि. सं. १९८९ मा, आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर.
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श्री ज्ञाताधर्मकथासूत्र की 'अनगारधर्माऽमृतपपिणी' टीका पर जेनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र
लुधियाना, ता. ४-८-५१ मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्माऽमृत-वर्पिणी' टीका वाले श्री माताधर्मक्याह्न सूत्रका मुनिश्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया । . ___यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म० ने बडे परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रमाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं । मूल स्थलों को सरल बनाने में काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकोंको लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है ।
में स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूंगा कि वे दृत्तिकारके परिश्रम को सफल बना कर शासमें दी गई अनमोल शिक्षाओं से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे।
श्रीमान्जी जयवीर _ आपकी सेवामें पोप्टद्वारा पुस्तक मेज रहे हैं और इस पर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं, पहुंचने पर समाचार देवें ।
श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म० ठाने ६ सुखशान्तिसे विराजते हैं । पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर मुखशाता पूर्छ।
पूज्यश्री घासीलालजी म. जीका लिखा हुआ (विपाकमूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं। इसलिये १ कापी आप भेजनेकी कृपा करें; फिर आपको वापिस भेन देवेंगे । आपके पास नहीं हो तो जहांसे मिले वहांसे १ कापी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें। योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१
निवेदक प्यारेलाल जैन
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॥श्रीः॥ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजीमहाराजानां पञ्चनद-(पंजाब) स्थानामनुत्तरोपपातिकमूत्राणा
मर्थबोधिनीनामकटोकायामिदम्
सम्मतिपत्रम् __ आचार्यवर्यः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकमूत्राणामर्थयोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुप्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पप्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेको धन्यवादानईन्ति ते। यथा चेयं रत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीप्सुभिनिर्वाणपदमनुसरदिनि-दर्शन-चारित्रेपु प्रयतमानमुनिभिः श्रावकैच ज्ञानदर्शन-चारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र मवर्तयिष्यन्ते । __आशासे श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुपां विदुषां मनस्तोपाय जैनागममूत्राणां सारावयोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरला मुस्पप्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति ।
अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रम सफलयितुं सरलां सुबोधिनी चेमां सूत्रवृत्ति स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः ॥ इत्याशास्ते
विक्रमान्द २००२ ) श्रावणकृष्णा मतिपदा
लुधियाना
उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः
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जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-उपाध्याय-पण्डित-मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाय) का आचारागसत्र की
आचारचिन्तामणि टीका पर
सम्मतिपत्र मैने पूज्य आचार्यचर्य श्री घासीलालजी (महाराज)की पनाई हुई श्रीमद् आचारागसूत्रके प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी।
यह टीका, न्यायसिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसङ्ग २ पर क्रमसे अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है।
टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयोंका विशेषरूप से संस्कृत भापा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवादके पात्र हैं। ___ मैं आशा करता हूं कि जिज्ञासु महोदय इसका भलीभांति पठन-द्वारा जैनागमसिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्पित करेंगे, और इसके मनन से, दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पायेंगे। तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमोंके विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ । जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर मुदि १ । लुधियाना (पंजाब), शुभमस्तु ।।
थीकानेरवासी समाजभूपण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठियाका अभिप्राय
आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह यडा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनताको काफी लाभ पहुंचेगा। (ता. २८-३-५६ के पत्रमेंसे) ।
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રૂ. ૫૫) આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી
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કે ઠારી હર ગેવિંદ ભાઈ જે ચંદ
રાજકેટ,
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(श्री दशवेकालिकत्रा सम्मतिपत्र ) ॥ श्री वीरगीतमाय नमः ॥ सम्मतिपत्रम्
मए पंडितमुणि हेमचंदेण य पंडिय-मूलचन्दवासवारा पत्ता पंडिय - रयण-मुणि- घासीलालेण विरया सक्कय- हिन्दी-भाषाहि जुत्ता सिरि- दसवेयालिय-नामसुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलो इया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सदाणं असयजुत्तो अन्धो वण्णिओ, विरजणाणं पायजणा य परमोवयारिया इमा वित्ती दीसह । आधारeिer वित्तीकसारेण असयपुण्यं उल्लेहो कहो, तहा अहिंसाए सरूवं जे जहा तहा न जाणंति सिंहमा वित्तीए परमलाहो भविस्सह, कणा पत्तेयविसयाणं फुडवेण वण्णणं कडे, तहा मुणिणो अरहन्त्ता इमाए वित्तीए अवलोयगाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ । सकयछाया सुत्तपयाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अस्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दट्टव्या । अम्हाणं समाजे एरिसचिज्ज- मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अत्थि, किं उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओं, जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ अम्हकेरं साहिच्चं च लत्तप्पार्य अस्थि, तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सइ ? जस्म कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भविता पुणो निव्वाणं पाविहिह । अओहं आयारमणिमंजूसाए कसुणो पुणो पुणो धन्नवार्य देमि- ॥
वि. सं. १९९० फाल्गुन शुक्लत्रयोदशी महले (अलवरस्टेट)
इ६
उवज्जाय जण मुणी, आयारामो (पंचनईओ)
ऐसे ही :--
मध्यभारत सैलाना - निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि
श्रीमान् की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है, यह ग्रन्थ सर्वाङ्गसुन्दर एवम् उच्च कोटि का उपकारक है।
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निरयावलिकासूत्रका सम्मतिपत्र आगमवाराधि-सर्वत्रन्त्रस्वतन्त्र-जैनाचार्य पूज्यश्री आस्मारामजी महाराजकी तरफका आया हुवा सम्मतिपत्र
लुधियाना ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबन्दजी पानाचंदजी ! सादर जयजिनेन्द्र ॥
पत्र आपका मिला, निरयावलिका विषय पूज्यश्रीका स्वास्थ्य ठीक न होनेसे उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मतिपत्र लिख दिया है, आपको भेज रहे हैं, कृपया एक कोपी निरयावलिका की और भेज दीजिये, और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें। !
भवदीय.
गूजरमल-बलवंतराय जैन । सम्मति ॥ (लेखक जैनमुनि पण्डित श्री हेमचंद्रजी महाराज) मुन्दरबोधिनीटीकया ममलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भापानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकास्त्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृदं मेऽभिमतम् , संस्कृतटीकेयं सरला सुयोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्योधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकैपा संकृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाचिनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी-गुर्जरभापानुवादावपि एतभाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् संभावयामि । __ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजानां परिश्रमोऽयं प्रशंसनीयो, धन्यवादाश्चि ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्रीसमीरमलजी-श्रीकन्हैलालजी-मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाही स्तः।।
सुन्दरप्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोपोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकता सर्वेऽप्यन्वेपकविढांसोऽनुभवन्ति ।
पाठकाः सूत्रस्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । .
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(१०) सेलाना-ना. २०-११-३६ फा पत्र, शास्त्रोंके जाता यीमान्
रतनलालजी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ मुभावक
श्रीयुत् माधवलालजी. सादर जय जिनेन्द्र __आपका भेजा हुवा उपासकदशांग मत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांति में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी बन्दना अर्ज कर सुख शांति पूजें, आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मति मंगाई, उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराजने फरमाया है कि वर्तमानमें स्थानकवासी समाजमें अनेकानेक विद्वान् मुनि महाराज मौजूद है मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचनेका साहस जैसा घासीलालजी महाराजने किया है वैसा अन्यने किया हो ऐसा नजर नहीं आता। दुसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है ही, संस्कृत प्राकृत हिंदी और गुजराती भापा होने से चारों भापा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं। जैनसमाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे, यही शुभ कामना है । आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेप शुभ
भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती
आगरा से
श्री जैनदिवाकर प्रसिद्ध वक्ता जगदल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस प्रस्तक को अतीव पसन्द की है।
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श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैनसमाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूपण महान विद्वान् संतोए तेमन विद्वान् श्रावकोए सम्मतिओ समी
छे, तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे(१) लुधियाना-संवत् १९८९, आश्विन पूर्णिमाका पत्र, श्रुतज्ञान के
भंडार आगमरस्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिप्य
श्री मुनि हेमचन्द्रजी महाराज. (२) लाहौर-वि० सं० १९८९ आश्विन यदि १३ का पत्र, पण्डित श्री
१००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डितरत्न श्री १००७
श्री त्रिलोकचंदजी महाराज. (३) खीचन-से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८
श्री भारतरत्न श्री समरथमलंजी महाराज. - (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परमप्रसिद्ध भारतरत्न श्री
१००८ श्री शतावधानी श्री रत्लचंदजी महाराज. (५) बम्बई-ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री
कवि नानचंद्रजी महाराज. (६) आगरा-ता. १८-१२-३६, जगत्-वल्लभ श्री १००८ जैनदिवाकर
श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी
श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद-(दक्षिण) ता. २५-११-३६ का पत्र, स्थविरपदभूपित
भाग्यवान पुरुप श्री ताराचंदजी महाराज, तथा मसिद्धवक्ता श्री १००७
भी सोभागमलजी महाराज, (८) जयपुर-ता. २७-११-३६ का पत्र, संमदाय के गौरववर्धक शांत
स्वभावी श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अभ्याला-ता. २९-११-३६ का पत्र, परममतापी पंजावकेशरी श्री
१००८ श्री पूज्य श्री काशीरामजी महाराज,
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(१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शाखौंके माता श्रीमान
रतनलालजी डोसी. (११) ग्वीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ मुश्रावक
श्रीयुत् माधवलालजी. सादर जय जिनेन्द्र
आपका भेजा हुवा उपासकदशांग मत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांति में विराजमान हैं आपके यहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर सुख शांति पूजें, आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मति मंगाई, उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराजने फरमाया है कि वर्तमानमें स्थानकवासी समाजमें अनेकानेक विद्वान् मुनि महाराज मौजूद है मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचनेका साहस जैसा घासीलालजी महाराजने किया है वैसा अन्यने किया हो ऐसा नजर नहीं आता। दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है ही, संस्कृत प्राकृत हिंदी और गुजराती भापा होने से चारों मापा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं । जैनसमाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे, यही शुभ कामना है । आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेप शुभ
__ भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती
आगरा से
श्री जैनदिवाकर प्रसिद्ध वक्ता जगदल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज च पंडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है।
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न न्यायतीर्थ पण्डित : ।
माधवलालजी खीचनसे लिखते हैं किउन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधविगवेषणा के विषय में में नगण्य क्या सम्मति दे सकता है।
मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की है, रतव में ऐसे उत्तम व सयके समझने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है, और इस समाज का तो ऐसे ग्रन्थ ही गौरव ढा कते हैं। ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम हैं। ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्र
से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकारमें दीपावली का अनुभव नी हुई, महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति 'अग्रसर होती रहेगी।
ता. २९-११-३६
अम्बाला (पंजाब) पत्र आपका मिला। श्री श्री १००८ पंजायकेसरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ़ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासदशास्त्र तथा गृहिधर्मकल्पतरुकी एक २ प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तके अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं। ऐसे ग्रन्धरत्नों के प्रकाशित करवानेकी बड़ी आवश्यकता है। इन पुस्तफों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है।
आपका शशिभूपण शास्त्री अध्यापक जैन हाईस्कूल
अम्याला शहर
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રૂ. ૫૦૦થ આપનાર આદ્ય મુરબીશ્રી
પy
(વ.) શેઠ ધાર સી ભાઈ જીવણભાઈ
સે લાપુર,
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श्रीमान न्यायतीर्थ पण्डित
माधवलालजी खीचनसे लिखते हैं कि----
उन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतवगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं ।
परन्तु -
मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढ़ा है बहुत सराहना की है, वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है, और इस समाज का तो ऐसे ग्रन्थ ही गौरव वढा सकते हैं। ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम हैं । ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुमकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई, महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी ।
ता. २९-११-३६ अम्बाला ( पंजाब )
पत्र आपका मिला। श्री श्री १००८ पंजायकेसरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ़ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासदशासूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरुकी एक २ प्रति भी प्राप्त हुई । दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं। ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाने की बड़ी आवश्यकता है । इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है । आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है ।
आपका
शशिभूषण शास्त्री अध्यापक जैन हाईस्कूल
अम्बाला शहर
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B
शान्तस्वभावी वैराग्यमृर्ति तत्ववारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचंदजी महाराज साहेबने मंत्र श्री उपासक दशागजी को देखा | आपने फरमाया कि पण्डित मुनि श्री घासीलालजी महाराज ने उपासकदशाह सूत्रकी टीका लिखनेमें बडा ही परिश्रम किया है। इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रकी संशोधनपूर्वक सरळ टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होनेसे भगवान निर्ग्रन्यों के प्रवचनों के अपूर्व रसका लाभ मिल सकता है।
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बालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पण्डित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि -
उत्तरोत्तर जोतां मूलमुनी संस्कृत टीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यो छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेवा जेतुं छे, वळी करांचीना श्री संधे सारा कागळमां अने सारा टाईपमा पुस्तक छपावी मगट क छे जे एक मकारनी साहित्य सेवा बजावी के.
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चम्पई शहरमें विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है ।
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खीचन से स्थविर क्रियापात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरत्न मुनि श्री समर्थमळजो फरमाते हैं कि - विद्वान महात्मा पुरुषों का प्रयत्न सराहनीय है, जैनागम श्रीमद् उपासकदशाङ्गसूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुवोधिनी शुद्ध हिन्दी भाषा बडी ही सुंदरता से लिखी है।
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इतयारी याजार
नागपुर ता. १९-१२-५६ प्रखर विद्वान् जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोदारा हुआ और हो रहा है सचमुच महाराज श्री का यह स्तुत्य कार्य है। हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रोंका सेट देखा और कह मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पड़ी।
वास्तवमें मुनिरान श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी गहरा उपकार कर रहे हैं। ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है, जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घरमें होना आनश्यक है।
साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन
SABY
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श्री वीतरागाय नमः।
श्री श्री श्री १००८ जैनधर्मदिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जेनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज घरणवन्दन स्वीकार हो ।
अपरञ्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शान मास्टर शोभालालजी के द्वारा प्रास हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्यने नहीं किया।
आपने स्थानकवासीजै नसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा।
हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनीको उत्तरोत्तर शक्तिप्रदान करें ता कि आप जैनसमाज से ऊपर और भी उपकार करते रहें, और आप चिरञ्जीवी हों।
हम हैं आपके मुनि तीन मुनि सत्येन्द्रदेव, मुनि लखपतराय, मुनि पनसेन,
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શ્રમણ સંઘના પ્રચારમંત્રી પંજાબકેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ શ્રી રાજકોટમાં પધારેલ હતાં ત્યારે તેઓને તરફથી શાસ્ત્રોને માટે મળેલ અભિપ્રાય.
શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાઅવારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જનસમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવાવાળું છે.
એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશકિત ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે.
દરીયાપુર સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના
સૂત્રે સંબંધે વિચારે
નમામિ વીર ગિરિસારધીરે પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવર શ્રી ઘાસીલાલ મહારાજ તથા પંડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણુ છની સેવામાં–
અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત.
આપ સર્વે થાણાએ સુખ સમાધિમાં હશે નિરંતર ધર્મધ્યાન ધમરાધનામાં લીન હશે.
સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરિત થાય એવી ભાવના છે દશવકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે, ટીકા ખુબ સુંદર, સરળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે, અને પૂજ્ય આચાર્ય ગુરૂદેવને આંખે મોતીયો ઉતરાવ્યો છે અને સારું છે એજ. આ સુદ ૧૦, મંગળવાર, તા. રપ-૧૦-૧પ
પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયામુનિના પ્રણિપાત,
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શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિપત્ર
શમણું સંઘના મહાન આચાર્ય આગમ વારિધિ સવતત્વસ્વતંત્ર નાચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિપત્રને ગુજરાતી અનુવાદ,
મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પંડિત મુલચંદ વ્યાસ (ામી માલવા) દ્વારા મળેલી પંડિત રત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચારમણિમંજૂષા ટીકાનું અવલોકન કર્યું. આ ટી સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દને અર્થ સારી રીતે વિશેષભાવ લઈને સમજાવવામાં આવેલ છે.
તેથી તે વિદ્વાને અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયને ઉલ્લેખ સારે કરેલ છે. જે આધુનિકમતાવલંબી અહિંસાના સ્વરૂપને નથી જાણતા, દયામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે “અહિંસા શું વસ્તુ છે તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલોકનથી વૃત્તિકારની અતિશય ગ્યતા સિદ્ધ થાય છે.
આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલસૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હોવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પછેદ સુબેધદાયક બનેલ છે.
પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલેકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શું કહેવું? અમારી સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિરત્નનું દેવું એ સમાજનું અહેભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિરત્નના કારણે સુપ્તપ્રાય-સુતેલ સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલું સાહિત્ય એ બન્નેને ફરીથી ઉદય થશે. અમે વૃત્તિકારને વારંવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ.
વિક્રમ સંવત ૧૯૦ ફાલ્ગન શુકલ ] ઈતિ તેરસ મંગળવાર
ઉપાધ્યાયજેનમુનિ આત્મારામ (અલવર સ્ટેટ) કવર સ્ટ) J
(પંજાબી)
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લીંબડી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી છોટાલાલજી
મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે જ્ઞાન પ્રચારને તીર્થંકર-નામ-ગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર, જ્ઞાનાવરણીય કમને લય કરી કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદના અધિકારી બને છે. શાસ્ત્ર, પરમ શાન્ત અને અપ્રમાદી પૂજ્યશ્રી વાસીલાલજી મહારાજ પોતે અવિઝાન્તપ જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગોમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનીય છે. તેમની જ્ઞાનપ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિએને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાન પ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના કાર્યવાહકો પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે.
એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સુચના છે કે –
શાસ્ત્રોદ્વાર પ્રવર પંડિત અપ્રમાદી સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે ચાદ્વારકનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે-પડિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચા થઈ રહેલ છે તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સુચના છે કે–શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે-જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણે જણાએ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બર બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે.
જો કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભાવિત ગૃહ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે.
આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ ત્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાનશકિતને જેટલો લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે, કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવા વિનંતિ કરી અમદાવાદ પધરાવવા, અને ત્યાં અનુકૂળતા મુજબ બે-ત્ર વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ.
ઘડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધારકમીટી મળવાની છે, તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક.
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દરિયાપુર સંપ્રદાયના પંડિતરત્ન ભાઈચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય
રાણપુર તા. ૧–૧૨–૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિ મુનિવરની સેવામાં, આપ સર્વ સુખસમાધીમાં હશે.
સૂત્રપ્રકાશનનું કામ સુંદર થઈ રહ્યું છે તે જાણું અત્યંત આનંદ આપના પ્રકાશિત થયેલાં કેટલાંક સૂત્રો મેં જોયાં. સુંદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પંડિતરત્નને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્રપ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના.
લી. પંડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી પૂ શ્રી ભાઈચંદ મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનીના પાયવંદન સ્વીકારશે.
તા. ૧૧–૫–૫૬
વિરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, દિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરયમલજી મહારાજને અભિપ્રાય.
ખીચનથી આવેલ તા. ૧૨-૨-૧૬ના પત્રથી ઉદ્ધત.
પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે તે સાહિત્ય, પંડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ સમય ઓછો મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જોઈ શકયા નથી. છતાં જેટલું, સાહિત્ય જોયું છે, તે બહુ જ સારું અને મનન સાથે લખાયેલું છે, તે લખાણ શાસ્ત્ર-આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે. આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળું. જેને વાંચવા છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરૂપણું અને ફરસણાની દઢતા શાસ્ત્રાનુકૂળ છે. આચાર્યશ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે.
લી, કિશનલાલ પૃથવીરાજ ચાલુ
મુ. ખીચન,
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લીંબડી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી છોટાલાલજી
મહારાજનો અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થંકર-નામ-ગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર, જ્ઞાનાવરણીય કર્મને ક્ષય કરી કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદના અધિકારી બને છે. શાસણ, પરમ શાન્ત અને અપ્રમાદી જયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિત અવિશ્રા તપ જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગોમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનીય છે. તેમની જ્ઞાનપ્રભાવનાની ધગશ ધણી પ્રમાદિએને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાન પ્રચાર માટે અવિશાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજ શાએધારસમિતિના કાર્યવાહકો પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે.
એ સમિતિના કાર્યકરેને મારી એક સુચના છે કે –
શાસ્ત્રોદ્વાર પ્રવર પંડિત અપ્રમાદી સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્વારકનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે-કિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સુચના છે કેક્શાસ્ત્રોદારસમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે-જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરે બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે.
જે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભાવિત ગૃહસ્થો પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે.
આર્થિક અનુકુળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણુ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાનશકિતને જેટલો લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે, કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવા વિનતિ કરી અમદાવાદ પધરાવવા, અને ત્યાં અનુકૂળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની રિથરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ.
થોડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધારકમીટી મળવાની છે, તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક
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ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરીરાદિને સશકત અને દીર્ધાયુ રાખે જેથી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે છે અd.
ચાતુર્માસ રથળ લીંબડી ! સ. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરૂ સદાનંદી જૈનમુનિ છેટાલાલજી
લી.
શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્યશ્રી પુનમચંદ્રજી
મહારાજને અભિપ્રાય , શાઅવિશાદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી વાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જેન આગમ ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગમો ઉપરની સ્વતંત્રટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગોરવ વધાર્યું છે, આગ ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દષ્ટિએ ઘણી જ સુંદર છે. સંસ્કતરચના માધુર્યો. તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણોથી યુક્ત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્રો ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃતરચનાની કદર કરવી જોઈએ. અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપે જોઈએ.
આ મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીઘ સફળ થાય એ જ શુભેચ્છા સાથે. અમદાવાદ તા. ૨૨-૪-૫૬ રવીવાર
મુનિ પુનમચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ
ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય
લખતર તા. ૨૫-૪-પદ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ. પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત ૦ થા. જૈન શાદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ
અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ. મા. આપની સમિતિ દ્વારા અન્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રોનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીનાં સમાંથી ઉપાસકદશાંગસૂત્ર, આચારાંગસૂત્ર, અનુત્તરપપતિકસુત્ર
મતિ
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દશવૈકાલિકસૂત્ર વિગેરે સૂત્રો નેયાં તે સૂત્ર સ ંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાઓમાં હાવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણું જ લાભદાયક છે. તે વાંચન ઘણું જ સુંદર અને મનેારજન છે. આ કાર્યમાં પુજ્ય આચાશ્રી જે અગાધ પુરૂષાથ કાય કરે છે તે માટે વારવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રેાથી સમાજને ઘણુા લાભ થવા સંભવ છે.
હંસ સમાન બુદ્ધિવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાષનાએ અવલાક કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગોરવ લેવા જેવું છે. દરેક ભવ્ય આત્માને સૂચન કરૂ છુ કે આ સૂત્રેા પાતપાતાના ઘરમાં વસાવવાની સુંદર તકને ચૂસા નહિ. કારણુ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરપરાને પુષ્ટિરૂપ સત્ર મળવાં બહુમુશ્કેલ છે. આ કાર્યમાં આપશ્રી તયા સમિતિના અન્ય કાર્યકરો જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે. તેમાં મહાન નિર્જરાનુ કારણુ જેવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એ જ.
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લી, શારદાબાઈ સ્વામી ખભાત સંપ્રદાય.
બરવાળા સપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય
શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ
પ્રમુખ અ॰ ભા॰ વે॰ સ્થા॰ જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ રાજકાટ
ધંધુકા તા. ૨૭–૧-૫૬
અત્રે ખીરાજતા ૩૦ ગુના ભંડાર મહાસતીજી વિદુષી મોંઘીબાઇ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિઠાણાં અન્ને સુખશાતમાં ખીરાજે છે. આપને સૂચન છે · અપ્રમત્ત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશે એજ આશા છે.
વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલાં સૂત્રેા ભાઈ પાપટ ધનજીભાઇ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં તે સૂત્રેા તમામ આઘોપાન્ત વાંચ્યાં મનન કર્યો અને વિચાર્યું છે તે સૂત્રો સ્થાનકવાસી સમાજને અને વીતરાગમાગ ને ખુબ જ ઉન્નત મનાવનાર છે. તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાયરૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવુ છે. હું સ સમાન
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આત્માઓ જ્ઞાનઝરણાઓથી આત્મરૂપવાડીને વિકસિત કરશે, ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરોને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે.
એજ લિ. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી
મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામી ને ફરમાનથી લી. ખેડીદાસ ગણેશભાઈ-ધંધુકા
સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ
અદ્યતન પદ્ધતિ અપનાવનાર વડેદરા કેલેજના એક વિદ્વાન
- પ્રોફેસરને અભિપ્રાય સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ જૈનશાના સંસ્કૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતર કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઈ શક્યો છું, મુનિશ્રી પિતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિંદી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે. એ એમને ટુંક પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પિતાના શિષ્ય વગને અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતેને સહકાર મળે છે. તે જોઈ મને આનંદ થ.સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસરેએ પંડિતેને સહકાર મેળવી આપી,મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વત્તા; ઘણી ઓછી છે, તે દિગંબર મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું વિરોધના ભય વગર કહી શકું. પૂ. મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણે સારાં આપવામાં આવ્યાં છે, ભાષા શુદ્ધ છે એમ ચેકસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાંતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ રસ્તુત્ય પ્રયાસને જૈનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરને વાચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ, વડોદરા
કામદાર કેશવલાલ હિંમનરામ તા. ૨૭-૨-૧૯૫૬ -
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રહ
મુંબઈની બે કલેજેના પ્રોફેસરેને અભિપ્રાય
મુંબઈ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તિલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ શ્રી અખિલ ભારત . રસ્થા. જૈનશાદ્વારસમિતિ, રાજકેટ.
પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂત્ર અમે જોયાં. આ સૂત્રે ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે, અને સાથે હિંદી અને ગુજરાતી ભાષાંતરે પણ આપવામાં આવ્યાં છે. સંસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિંદી ભાષાંતરો જોતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એક સરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચોટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વત્તા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હિંદીમાં થયેલાં ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે. એથી વિદ્વજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતેષ આપે એવી એમની લેખનની પ્રતીતિ થાય છે. ૩ર સૂત્રોમાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રે પ્રગટ થયાં છે. બીજાં ૭ સૂત્રે લખાઈને તૈયાય થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રે જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જેનસૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રીને આ મહાન કર્યને જૈન સમાજને વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ.
પ્રો. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કેલેજ, મુંબાઈ.
પ્રો. તારા રમણલાલ શાહ સેફીયા, કલેજ, મુંબાઈ
રાજકેટ ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય
જયમહાલ
જાગનાથ પ્લેટ
રાજકેટ, તા. ૧૮-૪--૫૬ પૂજ્યાચાર્ય પં. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈનસમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએતિયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકકૃત વિ. મેં જોયાં.
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રઢ
આ સૂત્રો ોતાં પડેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષા ઉપરના અસાધારણુ કાણુ જણાઇ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણી નથી. આપણે જોઈએ છીએ કે એ સૂત્રેા ઉચ્ચ અને પ્રથમ કાટીના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પર્શી છે, એટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂત્રાનું ભાષાંતર પૂ॰ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કોટીના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણાં અહેભાગ્ય છે, યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મ ભાવનાં એસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રેાનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જિજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માદક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ. સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રે લખવામાં આવ્યાં છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈ એ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સકળાયેલા જોઈ એ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે. તેમનું જીવન સૂત્રેામાં વણાઈ ગયું છે.
મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પેાતાના શિષ્યાનેા તથા પડિતાના સહકાર મળ્યા છે. અને આશા છે કે જો દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકાને પોતાના ઘરમાં વસાવશે અને પેાતાના જીવનને સાચા સુખને માગે વાળો તા મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલા શ્રમ સંપૂર્ણપણે સફળ થશે.
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પ્રો. રસીકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી
એમ. એ. એલ. એલ. મી ધર્મેન્દ્રસિહજી કાલેજ રાજકાટ (સૌરાષ્ટ્ર )
મુંબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાસર કન્ફરેન્સ તથા સાધુસંમેલનમાં મેાકલાવેલ ઠરાવ
હાલ જે વખત શ્રી શ્વેતાંમર સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ સા ધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુંભાવેએ આ વાત દીર્ઘદૃષ્ટિથી પહેલી પેાતાના મગજમાં લઇ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ 'ડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્યમંત્રી નીમ્યા છે, તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ, ભા, વે, સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેાટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે. જેને પ્રધાનાચાર્ય શ્રી તથા પ્રચારમ’ત્રીશ્રી
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ર
તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવાએ પેાતાની પસંદગીની મહેર છાપ આપી છે. અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડાદરા યુનિવર્સીટીના પ્રોફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ. એ. પેાતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે. તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સંમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનદન આપે છે. અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે–૫તેિાની અને નાણાંની તે તે પેાતાની પાસેના કુંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે.
આ શાઓ અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશંસાપૂર્વક પસંદગી મળી છે, ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કાન્ફરન્સ પેાતાની ફરજ માને છે અને જે કોઈ ત્રુટી હાય તે ૫. ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાંનિધ્યમાં જઈ, ખતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરવેા. આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કાઈ પણ કામ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જેવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે.
(થા. જૈન પત્ર તા. ૪-૫-૫૬)
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સ્વતંત્રવિચારક અને નિડર લેખક · જૈતસિદ્ધાંત 'ના તંત્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલના અભિપ્રાય
શ્રી સ્થાનકવાસી શાશ્ત્રાદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં ખેલાવી તેમની પાસે ખત્રીસે સૂત્રેા તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઇ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલેલે ત્યારે શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઈએ તેમના એક પત્રમાં મને લખેલુ કે—
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આપણા સૂત્રના મૂળ પાઠતપાસી શુદ્ધ કરી સંસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કેઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જોવામાં આવતા નથી. લાંખી તપાસને અંતે મે' મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીને પસદ કરેલા છે.”
શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઈ પોતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શિક્ષા વાંચના લેતા, તેમ જ્ઞાનચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસંદગી યથાથ જ હોય એમાં
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નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી વાસીલાલજીના બનાવેલાં સૂત્રે જતાં સૌ bઈને ખાત્રી થાય તેમ તે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફળીભૂત થયેલ છે. , શ્રી વર્ધમાન શ્રમણુસંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રે માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. ના સૂત્રની ઉપગિતાની ખાત્રી થશે.
આ સૂત્ર વિદ્યાર્થીને. અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકે ને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થઈ પડે છે. વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે. ત્યારે સામાન્ય હિંદી વાંચકને હિંદી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સમજાય છે.
કેટલાકને એવો ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાંચવાનું કામ આપણું નહિ, સૂત્ર આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદ્દન ખૂટે છે. બીજા કોઈ પણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં આ સૂત્ર સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભગવાન મહાવીરે તે વખતની લોકભાષામાં (અર્ધમાગધી ભાષામાં) સૂત્રે બનાવેલાં છે. એટલે સૂત્રો વાંચવા તેમજ સમજવામાં ઘણું સરળ છે.
માટે કઈ પણ વાંચકને એને ભ્રમ હોય તે તે કાઢી નાંખવે અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રે વાંચવાને ચૂકવું નહિ. એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સૂત્રે જ વાંચવાં.
સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થાજૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામે ક' છે. અને કરી રહી છે તેવું કોઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી.
સ્થા. જૈન શાદ્વાર સમિતિના છેલ્લા રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજા છ સૂત્ર લખાચેલ પડયા છે, બે સૂત્ર-અનુગદ્વાર અને કાણુગ સૂત્ર–લખાય છે તે પણ થોડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીના સૂત્રો હાથ ધરવામાં આવશે..
તયાર સૂત્રો જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઇચ્છીએ છીએ અને સ્થા. બંધુઓ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ.
જૈન સિદ્ધાંત પત્ર-મે ૧૯૫૫
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શ્રુત-ભક્તિ (પૂ. આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ૦ સાની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) દ. સ. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ
તા. ૨૩-૬-પદ શાહપુર, અમદાવાદ આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધય પરમપૂજ્ય. જ્ઞાનદિવાકર પં. સુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિધ સ્વરૂપ કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના ઘાતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે, તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વાત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે, અને જિનવાણીને પ્રમશ સંસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ, સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે. એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદને વિષય છે.
ભ. મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પરંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજેએ શ્રુતપરંપરાએ સાચવી રાખે શ્રુતપર પરાથી સચવાતું જ્ઞાન ત્યારે વિરમૃત થવાને સમય ઉપસ્થિત થવા લાગે ત્યારે શ્રી દેવદ્વિગણિ ક્ષમાશ્રમ વભીપુર-વળામાં તે આગમોને પુસ્તક રૂપે આરૂઢ કર્યો. આજે આ સિદ્ધાંતે આપણી પાસે છે. તે અર્ધમાગધી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવોની તથા જનગણની ધર્મભાષા છે. તેને આપણુ શ્રમ અને શ્રમણીઓ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે, પરંતુ તેને અર્થ અને ભાવ ઘણા થોડાઓ સમજે છે. - જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્રો છે. એ આપણી આંખો છે. તેને અભ્યાસ કરવો એ આપણું સોની-જૈન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણા સદભાગ્યે જ્ઞાનદિવાકર શ્રી ઘાસીલાલ મહારાજે સત સંકલ્પ કર્યો છે અને તે લિખિત સૂત્રને પ્રગટાવી શાદ્વાર સમિતિ દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જૈનોને સહકાર અવશ્ય હો ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ન કરવા ઘટે.
ભ૦ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય ? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રતની આરાધનાથી જીવેના અજ્ઞાનને નાશ થાય છે, અને તેઓ સંસારના કલેશથી નિવૃત્તિ મેળવે છે, અને સંસાર કલેશેથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મેક્ષની ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે
આવા જ્ઞાનકાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈનો, દિગંબરો અને અન્ય ધર્મિઓ હજારો અને લાખો રૂપીયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડે નહિ પણ હજારો ટીકા દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ બાઈબલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વ
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ભાષામાં ભાષાંતર કરી તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મસૂત્રાના પ્રચાર કરે છે. મુસ્લિમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પરના મેહુ ઉત્તારી ભગવાનના સિદ્ધાંતાના પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમપ ણુ કરવાં જોઇએ. અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જેઈ એ. આવા પવિત્ર કાર્ય માં સાંપ્રદાયિક મતભેદે સૌએ ભૂલી જવા જોઇએ, અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂ. ૨૫૧] ભરી સમિતિના સભ્ય બનવું એઇએ. ધાર્મિક અનેક ખાતા એના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનુંજ્ઞાનપ્રચારનું આ ખાતુ સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવુ જોઈએ.
આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમે–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણુ આપણે હરહ ંમેશ તત્પર રહેવુ' જોઇએ, જેથી પરમ શાંતિ અને જીવનસિદ્ધિ મેળવી શકાય. ( સ્થા. જૈન તા. ૫-૭-૫૬ )
શ્રી. અ. ભા, વે. સ્થા. જૈત શાસ્ત્રાદ્ધાર સમિતિનાં પ્રમુખ શ્રી વગેરે.
રાણપુર
પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાંત શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાગ્નિ પૂજ્ય આચાય મહારાજ શ્રી ચાસીલાલજી મહારાજનાં પુનીત પગલાં ચયાં છે ત્યારથી ઘણા લાંખા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણીય કમનાં પડળ ઉતારવાના શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કામાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે. તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામેના જનતા લાભ લે છે, મને તે સમજાય છે કે સાધુજી ઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તા મહુધા સાતમે અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત્ત માત્ર પાંચ-સાત સાધુએ ને સ્થાનકવાસી જૈનસમાજમાં હાયતા સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે સમાજાકાશમાં સ્થા. જૈન સ ́પ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે પણ વા દિન.........
શ્રી શાસ્ત્રાદ્ધારસમિતિને મારી એક નમ્ર સુચના છે કે-પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા ચુવાનાને શરમાશે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવું અને શાસ્ત્રાદ્ધારનું કાર્ય કરવુ તેમાં ધણાં શારીરિક માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે, તે કઈ ચાગ્ય સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવક ભક્તિ વાળા હાય. વાડાનાં રાગના વિષથી અલિપ્ત હાય. એવા ફાઈ સ્થળે શાસ્ત્રાદ્ધારનુ કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થિરતા કરી શકે એના માટે પ્રખધ કરવા જોઇએ. બીજા કાઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં યાગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડ કરી અપાય તે વધુ સારૂં. મ્હારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકને મારા અભિનદન પાઠવુ છું તે સ્વીકારશે. લી. સદાન દી જૈનમુનિ છેટાલા
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જેનસિદ્ધાંતના તંત્રીશ્રીને અભિપ્રાય થાનકવાસીઓમાં પ્રમાશ્વભૂત સૂત્રો બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે, અને એના આ છેલા રિપિટ ઉપરથી જણાય છે કે-તેણે ઘણું સારી પ્રગતી કરી છે તે જોઈ આનંદ થાય છે.
મૂળ પાઠ, ટીકા, હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્ર બહાર પડવાં એ કાંઈ સહેલું કામ નથીએ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણું ગૌરવ વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે.
સમિતિ તરફથી નવસૂત્ર બહાર પડી ચુક્યાં છે, હાલમાં ત્રણ ક્ષેત્રે છપાય છે. નવ સૂત્રો લખાઈ ગયાં છે અને જંબુંદીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસત્ર તૈયાર થઈ રહ્યાં છે.
હાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આ વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે. તેમના અંત માટે ધન્યવાદ.
અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વૃદ્ધ પંડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ. મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે. મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે. એ ઉપકારનો બદલે તે વાળી શકાય તેમ નથી.
પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની તેના બહાર પડેલાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું થોડું ઋણ અદા કર્યું ગણાય.
ભગવાને કહ્યું છે કે દi તો હુ પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મ યથાર્થ સમજે છે તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણા સૂત્રો વાંચવાં જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ સમજ જોઈએ.
એટલા માટે શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના સર્વ સૂત્રે દરેક સ્થા. જેને પોતાના ઘરમાં વસાવવાં જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણા સુમાંજ સમાયેલું છે અને સૂત્રો સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્રે વાંચે એ ખાસ જરૂરનું છે.
“જૈન સિદ્ધાંત” ડિસેમ્બર–પ૬
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શ્રી ઉપાસકદશાંગસૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત.
પ્રકાશક-અ. ભા. ૨. સ્થાનકવાસી જૈનશાસ્ત્રદ્ધારસમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, બીન લેજ પાસે, રાજકેટ, (સૌરાષ્ટ) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (૮) કદ, પાકું પુછું, જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત રૂા. ૮૮-૦
આપણું મૂળ બાર અંગ સૂત્રોમાંનું ઉપાસકદશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર : છે. એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે-શ્રાવકોનાં જીવનચરિત્રો આપેલાં છે, તેમાં પહેલું ચારિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે.
આનંદશ્રાવકે જૈનધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બાર વ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે, તેની અંતર્ગત અનેક વિષયો જેવા કે, અભિગમ, લોકલકસ્વરૂપ, નવતત્વ નરક, દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે.
આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બાર વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે.
આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં રારિ શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન બેટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ બે અર્થ બંધ બેસતે જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને રિફંફાને અર્થ સાધુ થાય છે. તે બતાવી આપેલ છે.
આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકની ઋદ્ધિ, રહેઠાણ. નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે.
એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ, એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ.
પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્ધમાન શ્રમણસંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિપત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકોના સંમતિપત્રો આપેલ છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે.
“જે સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી-૫૭
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સેંકડ સર્ટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલ
કેટલાક તાજા અભિપ્રાય શાસ્ત્રો દ્વારના કાર્યને વેગ આપે
સ્થાનેથી (જૈનજ્યોતિ) તા. ૧૫-૬-૧૭ પૂસ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ ઠાણુ ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસપુરના સ્થા. જૈન ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે. તેઓ શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય ખૂબ જ ખંત અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધવ પણ કરી રહ્યા છે. તેઓશ્રી વૃદ્ધ છે તાં પણ આખો દિવસ શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી રહ્યા છે. આજ સુધીમાં તેમણે લગભગ ૨૦ જેટલાં શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને બાકીનાં સૂાની ટીકા જેમ બને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી તેવા મરથ સેવી રહેલ છે. સ્થા. જૈન સમાજમાં શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવાને આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સંપૂર્ણ બને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાર્થના કરીએ છીએ. આજ સુધી ઘણુ મુનિવરેએ શાસ્ત્રોનું કામ શરૂ કરેલ છે પણ કેઈએ પૂર્ણ કરેલ નથી. પૂજ્યશ્રી અમુલખત્રાપજી મહારાજે બત્રીસ શા ઉપર હિંદી અનુવાદ કરેલ અને સંપૂર્ણ બનેલ, ત્યારબાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિંદી ટીકા કેટલાક શા ઉપર લખેલ પણ ઘણું શાસ્ત્રો બાકી રહી ગયાં. પૂણ્ય હતિમલજી મહારાજે એક બે શા ઉપરની ટીકાઓના અનુવાદ કરેલ. પૂજ્ય શ્રી જવાહિરલાલ મહારાજશ્રીએ સૂયગડાંગસૂત્ર ટીકા સહિત હિન્દી અનુવાદ સાથે કરેલ. શ્રી સૌભાગ્યમલજી મહારાજે આચારાંગની હિંદી ટીકા લખેલ. પણ સંપૂર્ણ શા ઉપર સંસ્કૃત ટીકા હજી સુધી સ્થા. જૈન સાધુઓ તરફથી થયેલ નથી. જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શા ઉપર સંસ્કૃત ટીકા તેને હિંદી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે આથી હવે આશા બંધાય છે કે તેઓશ્રી બત્રીસે બત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવામાં સફળ થશે અને શદ્વાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શા છપાવી પણ દીધાં છે અને હજી પણ તે શાસ્ત્ર વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાસ્ત્રોદ્વાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધન્યવાદને પાત્ર છે.
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના રૂ. ૨૫ ભરીને લાઈફ મેમ્બર થનારને તમામ શાસ્ત્રો શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છે. આ રીતે એક પંથ અને દે કાજ, અને રીતે લાભ થાય તેમ છે. રૂ. ૨૫૧ માં ૫૦૦ રૂપિયાની કિંમતમાં શાસ્ત્રો મળે એ પણ મેટે લાભ છે અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાને ધર્મ લાભ પણ મળે છે.
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શ્રી ઉપાસદશાંગસૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત.
પ્રકાશક-અ. ભા. . સ્થાનકવાસી જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, બીન લેજ પાસે, રાજકોટ, (સૌરાષ્ટ) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ એવી (મોટું કદ, પાકું પઠું, જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત રૂા. ૮-૮-૦
આપણા મૂળ બાર અંગ સૂત્રોમાંનું ઉપાસકદશાંગ એ સાતમું અંગ સત્ર છે. એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસક-શ્રાવકોનાં જીવનચરિત્રો આપેલાં છે, તેમાં પહેલું ચારિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે.
આનંદ શ્રાવકે જૈનધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બાર વત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે, તેની અંતર્ગત અનેક વિષયો જેવા કે, અભિગમ, લોકાલોકરવરૂપ, નવતત્વ નરક, દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે.
આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બાર વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજાનવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે.
આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અતિ શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેનો અર્થ અરિહંતનું ચય (પ્રતિમા એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન ખેટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ બે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને અરિહંતને અર્થ સાધુ થાય છે. તે બતાવી આપેલ છે.
આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકેની છદ્ધિ, રહેઠાણ. નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતોની માહિતી મળે છે.
એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ, એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ.
પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્ધમાન મણસંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિપત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકેના સંમતિપત્રો આપેલ છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે.
નસિદ્ધાંત જાન્યુઆરી-પછા
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કું
રાતાવધાની મુનિશ્રી ન્ય'તિલાલજી મહારાજશ્રીના અમદાવાદને પત્ર “ સ્થાનક્વાસી જૈન ‰ તા. ૫-૯-૫૭ ના અંકમાં છપાએલ છે જે નીચે મુજબ છે.
સૂત્રેાના મૂળ પાઠામાં ફેરફાર હાઈ શકે ખરી ?
તા. ૭-૮-૫૭ના રાજ અત્રે બિરાજતા શાસ્ત્રોદ્ધારક આચાય મહારાજશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્ર લઈને હું ગયે હતા, તે સમયે મારે પૂ. મ. સા. સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જાણુ કરાવા સારૂ લખું છું.
‘ શાઓનું કામ એક ગહન વસ્તુ છે. અપ્રમાદી થઈ તેમાં અવિરત પ્રયત્ન કરવા એઇએ. સંપૂર્ણ શાસ્ત્રોનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાનું જ્ઞાન હાય તાજ આગમે દ્ધારકનું કાર્ય સફળતાથી થાય છે. આ પ્રકારના પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જૈન સ્થાનકમાં ખિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્રલેખનનું આ કાર્ય થઈ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યક્તિને અનેક પ્રકારનો શંકાએ થાય છે તેમાં શાઓના મૂળ પાડંમાં ફેરફાર થાય છે? કરવામાં આવે છે? એવા પ્રશ્ન પણ કેટલાકને થાય છે અને તેવા પ્રશ્ન થાય તે સ્વાભાવિક છે; કેમકે અમુક મુનિરાજે તરફથી પ્રગટ થયેલ સૂત્રેાના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે. જેથી આ કાર્યમાં પણ સમાજને શંકા થાય,
પણ ખરી રીતે જોતાં, અત્યારે જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રિ આપવામાં આવે છે કે, શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલાં આગમાના મૂળ પાઠમાં જરાપણ ફેરફાર કરવામાં આવેલ નથી અને ભવિષ્યમાં જે સૂત્રેા પ્રગટ થશે તેમાં ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નોંધ લ્યે.
લી. શતાવધાની શ્રી જ્યંત મુનિઅમદાવાદ
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આ સાથે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય ૫. મુિનશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોના મેમ્બરી કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા મળવી રહ્યા છે. અને અત્યાર સુધીમાં મુંબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થા લાઇક્ મેમ્બર બની ગયા છે અને મુખઈમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરે થાય તે ઈચ્છવા ચેગ્ય છે. શ્રીમંત ગૃહસ્થો હજારા રૂપિયા પોતાના ઘર ખર્ચંમાં તેમજ મેાજશાખના કામેામાં તેમજ વ્યવહારિક કામામાં વાપરી રહ્યા છે તે આવા શાઓદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્ય માં રૂપિયા વાપરશે તા ધર્મની સેવા કરી ગણાશે. અને બદલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી બની જશે. જેનુ વાંચન કરવાથી આત્માને શાંતિ મળશે અને શાસ્ત્રજ્ઞા પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે.
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શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉગાસકદશાંગ સૂ ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલાં પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી ઉપરોક્ત બે સૂત્રો જૈન ધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં હેવા જ જોઈએ. તે વાંચવાથી શ્રાવક ધર્મ અને શ્રમણ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવલ અને એણિય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે. વર્તમાનકાળે શ્રાવકોમાં તે જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે અંધશ્રદ્ધાએ શ્રમણ વર્ગની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે. પરંતું “ક૯૫ શું અને અક૯૫શું” એનું જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે પિતે સાવદ્ય સેવા અર્પે પોતાના સ્વાર્થને ખાતર શ્રમણ વગને પિતાને સહાયક થવામાં ઘસડી રહ્યા છે, અને શ્રમણ વર્ગની પ્રાયઃ કુસેવા કરી રહ્યા છે. તેમાંથી બચી લાભનું કારણ થાય અને શમણને યથાતથ્ય સેવા આપી તેમને પણ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહા યક થઈ પિતાના જ્ઞાનદશન ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે. શમણુની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે.
પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. શાસ્ત્રોદ્ધારનું અનુવાદન ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપીયા ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થનારતે રૂા. ૪૦૦-૫૦૦ ની લગભગ કીંમતના બત્રીસે આગ ફ્રી મળી શકે છે તે તે રૂ ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમ દરેક શ્રાવક ઘરે મેળવવા જોઈએ. બત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકે મળશે. તે તે લાભ પિતાની નિર્જરા માટે પુન્યાનુંબંધી પુન્ય માટે જરૂર મેળવે. ઉપરોક્ત બંને સૂત્રોની કીંમત સમિતિ કંઈક ઓછી રાખે હરકે ગામમાં શ્રીમંત હોય તે સૂત્રો લાવી અરધી કીમતે, મફત અથવા પૂરી કીંમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે.
–એક ગૃહસ્થ નેધ-ઉપરની સુચનાને અમે આવકારીએ છીએ. આવાં સૂત્રો દરેક ઘરમાં વસાવવા યોગ્ય તેમજ દરેક શ્રાવકે વાંચવા યોગ્ય છે. તંત્રી
રત્નજ્યોત પત્ર તા. ૧–૧૦–૧૭
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શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને ટુંક પરિચય
રથાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સંસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમાં તેર સૂત્ર છપાવી બહાર પાડી દીધાં છે. સાત સૂત્ર છપાય છે અને બીજા કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂક્યા છે.
આ પ્રમાણે આ સંસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટુંક પરિચય આ પત્રિકામાં આપેલ છે તે વાંચી જઈ સવ રથા. જૈન ભાઈબહેનોએ આ સંસ્થાને યથાશક્તિ મદદ કરી તેના કાર્યને હજુ વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે.
ખાલી ઘડે વાગે ઘણે એમ સ્થા. કેન્ફરન્સ જેમ બેટાં બણગાં કુંકનારી સંસ્થાની કિંમત નથી, ત્યારે નક્કર કામ કરનારી આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાનકવાસી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે.
અને આ સર્વ સૂત્રો તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણે મહાન ઉપકાર છે. વયેવૃદ્ધ હવા છતાં તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્ર તૈયાર કરાવે છે તેવું કામ હજુ સુધી બીજા કેઈએ કર્યું નથી અને બીજું કંઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શંકાભર્યું છે. પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન ઉપકારને કિંચિત બદલે સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને બની શકતી સહાય કરીને વાળવાને છે. સ્થાનકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામાં પાછા હઠે તેમ નથી એવી અમો આશા રાખીએ છીએ.
જેનસિદ્ધાંત પત્ર ઓકટોમ્બર ૧૫૭
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શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉગાસદશાંગ સૂત્રો
ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલાં પૂજ્ય શ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી ઉપરોક્ત બે સૂત્રે જેન ધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં હેવા જ જોઈએ. તે વાંચવાથી શ્રાવક ધર્મ અને શમણુ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવધ અને એષણિય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે. વર્તમાનકાળે શ્રાવકમાં તે જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે અંધશ્રદ્ધાએ શ્રમણ વર્ગની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે. પરંતું “કલ્પ શું અને અકલ્પ શું” એનું જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે પિતે સાવધ સેવા અપ પિતાના સ્વાર્થને ખાતર શ્રમ વગને પિતાને સહાયક થવામાં ઘસડી રહ્યા છે, અને શ્રમણ વર્ગની પ્રાયઃ કુસેવા કરી રહ્યા છે. તેમાંથી બચી લાભનું કારણ થાય અને શ્રમણને યથાતથ્ય સેવા અર્ધી તેમને પણ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહા યક થઈ પિતાના જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે. શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવસ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે.
પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. શાસ્ત્રોદ્ધારનું અનુવાદન ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપીયા ૨૫૧] ભરી મેમ્બર થનારતે રૂા. ૪૦૦-૫૦૦ ની લગભગ કીંમતના બત્રીસે આગ ફ્રી મળી શકે છે તે તે રૂ. ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમ દરેક શ્રાવક ઘરે મેળવવા જોઈએ. બત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકો મળશે. તે તે લાભ પિતાની નિર્જરા માટે પુન્યાનુંબંધી પુન્ય માટે જરૂર મેળવે. ઉપરોક્ત બંને સૂત્રોની કીંમત સમિતિ કંઈક ઓછી રાખે તે હરકેઈ ગામમાં શ્રીમંત હોય તે સૂત્રો લાવી અરધી કીમતે, મફત અથવા પૂરી કીંમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે.
-એક ગૃહરથ નેધ-ઉપરની સુચનાને અમે આવકારીએ છીએ. આવાં સૂત્રો દરેક ઘરમાં વસાવવા એગ્ય તેમજ દરેક શ્રાવકે વાંચવા યોગ્ય છે. તંત્રી
રત્નજ્યોત પત્ર તા. ૧-૧૦-૧૭
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પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં
બનાવેલાં સૂત્રો કાશમીરથી.... કન્યાકુમારી
તેમજ કરાંચીથી ... કલકત્તા
સુધી દરેક સ્થળે હેશથી વંચાય છે.
કારણ કે આવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનું અનેખું કાર્ય
હજુ સુધી કેઈ કરી શક્યું નથી
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સમાજ
ઉપરાંત શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્ય શ્રી રામવિજયસૂરીજી
તથા અન્ય મુનિવરોએ
તેમજ
તેરાપંથી મહાસભા કલકત્તાવાળાઓએ આ સૂત્રો અપનાવ્યાં છે.
દેશ-પરદેશના મેમ્બરે સૂવે વાંચી જૈન ધર્મના શ્રુતજ્ઞાનને અણમેલે
લાભ લઈ રહ્યા છે. હમjજ લંડનની ઈન્ડિઆ ફીસ લાયબ્રેરીએ આ સૂત્રો મંગાવ્યાં છે.
આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ એકલી મેમ્બર તરીકે નામ નંધાવી હપ્તે હપ્ત લગભગ રૂપીઆ પાંચ સુધીની કિંમતનાં શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છે.
વધુ વિગત માટે લખે છે. ગ્રીન લોજ પાસે, 3
મંત્રી ગરેડીઆકુવા રાહ
શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન રાજકેટ.
શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ
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श्री आचारागसूत्र प्रथमश्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययनका
विपयानुक्रम विपयमगलाचरण अवतरणा
३-१५९ भगवान् के वचनों में कल्पवृक्ष के फूलों
के पच्चीस (२५) गुणोंकी उपमा ४-१३ (२) भगवान् की वाणी के ३५ अतिशय १४-१९ (३) अनुयोग (४)
२०-२५८ (१) चरणकरणानुयोग
२०-२३ (२) धर्मकथानुयोग
२३-२४ (१) आक्षेपाप्यादिधर्मकथा (४) ६५-३१ (२) धर्ममहिमा
३२-३४ (३) गणितानुयोग
३५-५३ प्रवज्यादानसमयनिर्णय ३६-५३ (१) मासविचार (२) पक्षविचार (३) तिथिविचार
(४) वारविचार (५) नक्षत्रविचार (६) योगविचार (७) करणविचार (८) लग्नविचार (९) ग्रहविचार (१०) शीघ्रप्रव्रज्यासमयनिरूपण
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विषय -
. (११) केशलुञ्चन
(१२) प्रथमगोचरीविचार
(१३) नूतनपात्र व्यापारण (१४) आचार्यादिपदप्रदानसमय
(४) द्रव्यानुयोग
द्रव्यलक्षण
पर्यायलक्षण
द्रव्यविभाग (भेद - ६ )
[१] धर्मास्तिकायस्वरूप
[२] अधर्मास्तिकायस्वरूप
[३] आकाशास्तिकायस्वरूप
[४] कालनिरूपण
कालशब्दव्युत्पत्ति
कालसिद्धि
काललक्षण
कालस्वरूप
[५] पुद्गलास्तिकाय
पुद्गलशब्दार्थ
पुद्गललक्षण पुद्गलपदेशसंख्या
पुद्गल क्षेत्र स्थिति
पुद्गलभेद
परमाणुस्वरूप
स्कन्धस्वरूप और उसके भेद
परमाणुबन्धकारण परमाणुबन्धव्यवस्था -कोष्टक
पृष्ठाङ्क
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५३
५३ - १५९
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३
पृष्ठाङ्क
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१२७
१२७
१२८
१३०
१३२ १३४
विषय[६] जीवास्तिकाय
जीवशब्दार्थ जीच स्वरूप भाव और उसके भेद-५ (१) औपशमिक भाव (२) क्षायिक भाव (३) क्षायोपथमिक भाव (४) औदयिक भाव (५) पारिणामिक भाव
जीव का स्थितिक्षेत्र जीव की हास-वृद्धि जीव की ऊर्ध्वगति जीवलक्षण इवि जीवास्तिकाय पद्रव्य विचार जीवस्कन्ध विचार पडूद्रव्यों का सक्रियनिष्क्रिय विचारव्यवहारनय को लेकर पद्रव्य विचार-~ पडूद्रव्यों के विषय मेंकर्तृत्वाकर्तृत्वनिरूपण
व्यवहार नय-(६) (१) शुद्धन्यवहार नय (२) अशुद्धव्यवहार नय (३) शुभव्यवहार नय (१) अशुभव्यवहार नय
१४५
१४७
१४८
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पृष्ठाङ्क १५२ १५४
१५६ १५९
१५९ १६० १६१ १६४-१९५
विषय- . (५) उपचरितव्यवहार नय (६) अनुपचरितव्यवहार नय
जीव के स्वरूप में सदृशविसदृश विचार इति अवतरण सम्पूर्ण सूत्र का उपक्रम सूत्र प्रथम 'भग' शब्दार्थ सूत्र द्वितीय (संज्ञा) संज्ञा के भेद (१६) (१) आहारसंज्ञा (२) भयसंज्ञा (३) मैथुनसंज्ञा (४) परिग्रहसंज्ञा (५) क्रोधसंज्ञा (६) मानसंज्ञा (७) मायासंज्ञा । (८) लोभसंज्ञा
(९) लोकसंज्ञा (१०) ओघसंज्ञा (११) सुखसंज्ञा (१२) दुःखसंज्ञा (१३) मोइसंज्ञा (१४) विचिकित्सासंज्ञा (१५) शोकसंज्ञा (१६) धर्मसंज्ञा
ज्ञानसंज्ञा के मेद--(५)
१६७ १६९ १६९-१७०
१७१
१७१ १७२ १७२ १७२-१७३ १७३.
१७३
१७४ १७४ १७४-१७५ १७५ १७५-१७६ १७६
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विषय(१) मतिज्ञान
(२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान ( ४ ) मन:पर्ययज्ञान (५) केवलज्ञान
मतिज्ञान के भेद (५)
ईहा
अपोह
मीमांसा
मार्गणा
गवेपणा
संज्ञा
स्मृति
मति
प्रज्ञा
सूत्र तृतीय (संज्ञा) तीन प्रकार का जन्म
(१) संमूर्च्छनजन्म (२) गर्भजन्म
(३) उपपातजन्म
सूत्र चतुर्थ (संज्ञा )
सूत्र पञ्चम
आत्मवादिप्रकरण
आत्मशब्दार्थ
आत्मास्तित्व सिद्धि
आत्म का द्रव्यत्व
आत्माका स्वरूप (१३)
पृष्ठाङ्क
१७६
१७७
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१८१
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१८५-१९०
१८५-१८६
१८६-१८७
१८७
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१८८
१८८
१८८-१८९
१९०
१९०
१९५-२०२
१९८
१९८-१९९
१९९-२००
२०१
२०२-२०८
२०९-३९७
२१०-२६८
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२१३
२२८
२३३
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पृष्ठांक२३३ २३७
२४३ २४४
२४७ २४८
२५०
२५३
२५५ २५९
२६३
विषय(१) जीवत्वनिरूपण (२) नित्यत्वनिरूपण (३) चेतनायत्त्वनिरूपण (४) उपयोगवत्वनिरूपण (५) परिणामित्वनिरूपण (६) प्रभुत्वनिरूपण (७) कर्तृत्वनिरूपण (८) भोक्तृत्वसिद्धि (९) शरीरपरिणामत्वसिद्धि (१०) अमूर्त्तत्वनिरूपण (११) प्रतिशरीरभिन्नत्वसिद्धि (१२) पौद्गलिककर्मसयुक्तत्वसिद्धि (१३) ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वसिद्धि
इति आत्मवादि प्रकरण लोकवादिप्रकरण
पड्जीवनिकाय (१) पृथिवीकायभेद (२) अफायभेद (३) तेजस्कायभेद (४) वायुकायभेद (५) वनस्पतिकायभेद
(६) सकायभेद (१-४) द्वित्रिचतुरिन्द्रियभेद (६) पञ्चेन्द्रियभेद (४)
मनुष्यभेद अकर्मभूमि देवनिकाय (४)
२६३
२६८
२६८
२६९-२९९ २७०-२७१
२७१ २७३
२७४
२७४-२७५ २७५-२७६ २७६ २७७-२७८ २७९
२८०
२८३
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विषय
(१) भवनपतिदेवमेद (२) व्यन्तरदेवभेद
(३) ज्योतिष्कदेवभेद (४) वैमानिकदेवभेद
कल्पातीत
पड्जीवनिकाय मेदसंकलन
जीवसंख्या
कर्मवादिप्रकरण
(१) कर्मस्वरूप
(२) कर्मसिद्धि (३) कर्म का मूर्चस्व
(४) जीव और कर्म का संबन्ध
(५) कर्म का अनादित्व
(६) अकर्मवादिमत निराकरण
(७) बन्धस्वरूपनिरूपण (८) बन्धकारण निरूपण
(१) प्रकृतिवन्ध
७
आठ कर्मों के लक्षण
(२) स्थितिबन्ध स्थितिबन्धकोष्ठक
(३) अनुभाववन्ध पुण्यपापकर्मनिरूपण
सर्वधाति प्रकृतियाँ (२०)
देशघाति प्रकृतियाँ
(२५)
अघाति प्रकृतियाँ (७५) उत्तरप्रकृतिसंख्या (१४८)
पृष्ठाङ्कः
२८४
२८६
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३००
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३५६ ३५८-३७४
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३७४
३८३
३८३-३९७ ३८६ ३८८ ३८९
३९०
३९१
३९२ ३९२-३९७
विपयकर्मक्षयविचार इति कर्मवादिप्रकरण क्रियावादिप्रकरण माणातिपातक्रिया मृगध में उद्यत की क्रिया कुमूल में लोह डालने वाले की क्रिया धनुप से वींधने वाले की क्रिया प्टिज्ञान के लिये हस्तादिफैलाने वाले की क्रिया ताड पर चह कर उसके फल तोडनेवाले की क्रिया
अठारह पापस्थान (१) प्राणातिपात (२) मृपावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन (५) परिग्रह (६-१८) क्रोध से मिथ्यादर्शनशल्यतक
इति क्रियावादि प्रकरण छठा सूत्र (कर्मसमारम्म) सूत्र सप्तम (अपरिज्ञात कर्मजीव) सूत्र अष्टम (जीव का योनिसंधान) योनिभेद (९) चोरासी लाख योनिया सूत्र नवम (परिज्ञा) सूत्र दशम (फर्मसमारम्भ) सूत्र एकादश (उपसंहार) सूत्रद्वादश ( उपसंहार)
३९४
३९४-३९५
३९५-३९७
३९७-४०१ ४०२-४०३
४०४ ४०७
४११ ४१५
४१६
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विषय
पृष्ठाडू
प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशकी समाप्ति ४१७ दूसरे उद्देशका उपक्रम
४१८
जीव के विशिष्ट ज्ञानके अभावका कारण ४२० पृथिवीकाय की हिंसा में तदाश्रित
जीवों की हिंसा
पृथिवीकायलक्षण
पृथिवीकायमरूपणा पृथिवीकायजीव परिणाम पृथिवीकायवधद्वार-शस्त्रद्वार
पृथिवीकाय का उपभोग पृथिवीकायसमारम्भप्रयोजन पृथिवीकायसमारम्भफल दृष्टान्तद्वारा पृथिवी जीवसिद्धि पृथिवीका यसमारम्भनिवृत्ति
उपसंहार - उद्देशसमाप्ति -
तृतीय उद्देश
उपक्रम और हृष्टान्त
अनगारलक्षण
अनगारकर्त्तव्य
श्रद्धास्वरूप (१) यथामत्तिकरण (२) अपूर्वकरण
(३) अनिवृत्तिकरण (४) अधिगमश्रद्धा
कायद्धीपदेश अकाय की हिंसा में
तदाश्रित अन्य जीवों की हिंसा
अकायशत्र
अप्कायरक्षोपदेश अकायभोग
४२३
४२५
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४७४-४९८
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४९९-५०३
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५०५
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५१९
५३२ ५३४
... विपय
पृष्ठाङ्कअकायसचिंत्तता " . " . , . :
_ ५१४ अफायजीवलक्षण अकायमरूपणा.. " ...
५२० अप्कायजीवपरिमाण. . :
५२२ अप्कायशस्त्र
५२४ धावनजल-धावनपानी-(२१)
५२८ अप्कायविराधनादोप
५३० अप्काय के विषय में अन्यमत समीक्षा अन्यमतागमविरोध उपसंहार
४३७ चतुर्थोद्देशक
५३८ उपक्रम अग्निकाय के अभ्याख्यान में आत्मा का अभ्याख्यान अग्निकायलक्षण अग्निकायसचित्तता
५४२ अग्निकायप्ररूपणा अग्निकायजीवपरिणाम
५४६ अग्निकायापलाप दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय ) काखेदज्ञ दीर्घलोकशब्दार्थ अग्निकायशस्त्र
अग्निकायसमारम्भनिवृत्तिप्रतिज्ञा । :अग्निविराधनादोप
अग्निकायोपभोग अग्निसमारम्भदोप, .. अग्निसमारम्भ में उसके आश्रित अन्य जीवों की हिंसा उपसंहार
५४१
५४३
५४८
५५०
५५३
५५५
५६०
५६२
५६७ ५७०
५७३ ५७९
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१०
५८१.
• ५८२
५८२
..'विपयउद्देशकसमाप्ति पञ्चमोद्देशक (वनस्पति) उपक्रम अनगारलक्षण वनस्पतिकायसचित्तता ( लक्षणद्वार) वनस्पतिप्ररूपणा ( भेद) वनस्पतिपरिमाण वनस्पतिकायोपमर्दन संसार का
५८४ ५८६ ५९१ ६०९
६१२
६१७
६२१
६२२
६२६
६३० ६३२
रूपादि गुण में मूर्छा संसार का कारण है-- रूपादिगुणमूर्छादोप वनस्पतिशस्त्रसमारम्भ में तदाश्रित अनेक जीवहिंसावनस्पतिविराधक साधाभास उपभोगद्वार वनस्पतिविराधनाफल मनुष्यशरीर के साथ वनस्पतिकी सचित्तता की सिद्धिउपसंहार उद्देशसमाप्ति पष्ठोद्देश (सकाय) उपक्रम उसों के भेद त्रसंकायलक्षण त्रसकायमरूपणा त्रसकायपरिणाम प्रत्येक त्रस जीवों के मुख दुःख अलग अलग है-..
६४१ ६४३ ६४४ ६४४ ६४५
६५२
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विषयप्रत्येक दिशा विदिशा में पृथिवी आदि माश्रित प्रसजीवों को परिताप
११.
देने से संसार भ्रमणकाय के समारम्भ में
अन्य प्राणियों की हिंसा काय की हिंसा में
परिज्ञा ( सकाय समारंभदोष )
उपभोगद्वार वेदनाद्वार
सजीव विराधनाफल सजीवहिंसामयोजन
उपसंहार
उद्देशसमाप्ति
सप्तम उद्देश (वायुकाय ) वायुकायविराधनविवेक
वायुकायलक्षण
वायुकाय प्ररूपणा वायुकायपरिमाण
वायुकामशास्त्र
वायुकाय की हिंसा में पड़जीवनिकायरूप लोक की हिंसा
द्रव्यलिङ्गिकृत वायुकाय विराधना
वायुकायोपभोग
वायुविराधनादोप
वायुविराधनापरिहार
मुखवस्त्रिकाविचार पइनिकायारम्भदोप पहजीवविराधनापरिहार
प्रथम अध्ययन समाप्ति .
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[ोभाचाच विनयचन्द्र धान मण्डार)
संचालक:श्रीश्वे. म्यानमालीन धारक संघ
जयपुर।
श्रीवीतरागाय नमः
जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजीमहाराजविरचिता
ऽऽचारचिन्तामणिटीकासमलङ्कृतम् आचारागसूत्रम् ।
[प्रथमः श्रुतस्कन्धः]
मङ्गलाचरणम्. अर्थमदं वीरजिनं प्रणम्य,
लन्धेर्धर गौतम-माप्तशक्तिम् । गणीश्वरं पूर्वधरं च चित्ते,
सन्धाय जैनी गिरमुज्ज्वलन्तीम् ॥१॥
आचारागसूत्रकी आचारचिन्तामणिटीका का हिन्दीभाषानुवाद ।
मङ्गलाचरण
--
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-
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-
भव्य जीवोके मनोरथ पूर्ण करते जो जुदा,
उन वीताराग जिनेन्द्र के चरणाम्बुनों मे नति सदा ।
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आचारानमत्रे
-
आचारसूत्रे मुनिघासिलाल,
प्रयत्नतः साधुननेएसिद्धथै । आचारचिन्तामणिमादधेऽहं,
भव्याः सदने हृदि धारयन्तु ॥ २ ॥ अनेक लब्धिपाहि चौदह पूर्वधारक जो तथा,
___ ..अध्यात्मशक्ति विभूतियुक्त विराजते हैं जिन यथा ॥
.
(२)
आचार्य गणधर लोक हित गौतमपदाम्बुज में नती,
मेरी विराजे सर्वदा देवे विमल मति शुभ गती। निदोपतत्वनिरूपिणी उनकी समुज्ज्वल भारती,
धरते उसे हिय में सदर जो भन्यजन को तारती ।
विनीत 'घासीलाल' मुनि जनता तथा मुनि के लिये,
भगवत्सुभाषितरत्न 'आचाराङ्ग गुणगुंफित किये। मणिमालिका के रूपमें करते प्रकाशित हैं अभी,
आचारचिन्तामणि हृदयगृह में रखे जनता सभी ।
जड द्रव्य चिन्तामणि हृदयर्षे बाहिरे जाते धरे,
'आचारचिन्तामणि' (टीका) हृदयमै धारिता तमको हरे । सब भन्यजन संसार वन में घूमते इसको गहे,
• जिससे प्रकाशित मार्ग हो निज उदय पद सत्वर लहे ।।
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
इह सार्द्धत्तीयद्वीपाभ्यन्तरे पञ्चदशक्षेत्रात्मकनन्दनकानने सम्यक्त्वालवालमध्ये आत्मरूपाः कलम्बा विशतिस्थानकपुनःपुनःसमाराधनसलिलेन संवर्द्धिताः सन्तस्तीर्थङ्कस्वरूपा अभिनवकल्पपादपाः प्रादुर्भवन्ति ।
भव्यजीवों के समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाले श्री वीर भगवान् को प्रणाम करके, तथा विविध प्रकार की लब्धियों के धारक चौदह १४ पूर्वी के ज्ञाता आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न श्री गौतम गगधर को नमस्कार करके समस्त दोपों से रहित होने के कारण, तथा वास्तविक वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करने के कारण उज्ज्वल जिनवाणीको हृदय में धारण करके
मैं 'घासीलाल' मुनि प्रयत्न करके भव्य पुरुषों की तथा मुनिजनों की इष्टसिद्धि के लिये आचाराङ्ग रूप सूत्र (दोरे) में भगवद्भापित विविध आचाररूप मणियां मालारूपमें पिरोता हूँ। भन्यजन इसे सदैव अपने हृदयमें धारण करें। जडव्यरूप चिन्तामणि हृदय पर अर्थात् वक्षःस्थल पर धारण किया जाता है किन्तु यह आचारचिन्तामणि (टीका) हृदय में धारण करने योग्य है ॥ २॥
V इस अढाई द्वीप के भीतर पन्द्रह कर्मभूमि रूप नन्दनवन में सम्यक्त्वरूप क्यारीमें आत्मारूपी कलम्ब, तीर्थकर गोत्र बांधने के कारणभूत बीस स्थानों की वारंवार आराधना रूपी जलसे वृद्धिको प्राप्त होकर तीर्थकररूप नूतन कल्पवृक्ष उत्पन्न होते हैं । આચારાંગ સત્રની આચારચિન્તામણિ ટીકાને ગુજરાતી અનુવાદ,
भगवाय२५. ભવ્ય જીના તમામ મને રથ પૂર્ણ કરવાવાળા શ્રી વીર ભગવાનને પ્રણામ કરીને, તથા વિવિધ પ્રકારની લબ્ધિઓના ધારક, ચૌદ પૂર્વેના જ્ઞાતા, આધ્યાત્મિક શક્તિથી સમ્પન્ન શ્રી ગૌતમ ગણધરને નમરકાર કરીને સકલ દેથી રહિત હેવાના કારણે તથા વાસ્તવિક વસ્તુસ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાના કારણે ઉજજવલ જિનવાણને હૃદયમાં ધારણ કરીને–
હું ધાસીલાલ મુનિ પ્રયત્ન કરીને, ભવ્ય પુરૂ–જીની તથા મુનિજનેની ઈષ્ટ સિદ્ધિ માટે, શ્રી આચારાંગરૂપ સૂત્ર (દોરા)માં ભગવભાષિત-વિવિધ આચાર રૂપ મણિને માલારૂપમાં પરેવું છું. ભવ્ય મનુષ્ય તેને હમેશાં હૃદયમાં ધારણ કરે. જડદ્રવ્ય રૂ૫ ચિન્તામણિ હૃદય પર અર્થાત્ વક્ષસ્થળ ઉપર ધારણ કરાય છે. કિન્તુ આ આચારચિન્તામણિ (ટકા) હૃદયમાં ધારણ કરવા એગ્ય છે. ૨.
' આ અઢી દ્વીપની અંદર, પંદર કર્મભૂમિરૂપી નન્દન–વનમાં સમ્યકત્વરૂપ ક્યારીમાં આત્મરૂપી કલમ્બ-કલમ (ડાળી), તીર્થકરનેત્ર બાંધવામાં કારણભૂત વીસ સ્થાનની વારંવાર આરાધનારૂપી જલથી વૃદ્ધિ પામીને તીર્થકરરૂપ નૂતન-નવીન ४६५वृक्ष उत्पन्न थाय छ.
. ।
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आचारागसूत्रे तद्ववनेषु हि कल्पतरुकुसुमगतसौन्दर्यादिगुणाः समुपलभ्यन्ते । यथा
(१)-सौन्दर्यम् , (२)-मुगन्धः, (३)-त्रिदोषनाशकत्वम् , (४)-सप्तधातुपौष्टिकत्वम् , (५)-त्यगोमवलकरत्वम् , (६)-हृदयासदकत्वम् , (७)-तापशमनत्वम् , (८) शोभाकारित्वम् , (९) उत्साहकत्वम् , (१०) स्फूर्तिकारकत्वम् , (११) वीर्यपर्द्धकत्वम् , (१२)-श्रमहारित्वम् , (१३)-मधुरत्वम् , (१४)-स्निग्धत्वम् , (१५)वहुदलत्वम् , (१६)-विपविनाशकत्वम् , (१७)-मकरन्दधारित्वम् , (१८)व्याधिनाशकत्वम्, (१९)-विकशनशीलत्वम् , (२०)-तृष्णानिवारकत्वम् ,
जैसे कल्प वृक्षों के फूलों में सौन्दर्य आदि गुण पाये जाते हैं उसी प्रकार तीर्थकरोके वचनोंमें भी सौन्दर्य आदि सभी गुण पाये जाते हैं । दोनोमें समान रूपसे पाये जाने वाले गुण इस प्रकार हैं
(१) सौन्दर्य, - (२)-सुगन्ध, (३)-त्रिदोषनाशकता, (४)-सप्तधातुपुष्टिकरता, (५)-स्वक्-रोम-बलकारित्व, (६) हृदयाह्लादकत्व, (७) तापशमनत्व, (८) शोभाकारित्व, (९)-उत्साहकता, (१०)-स्फूर्तिजनकता, (११)-वीर्यवर्धकता, (१२)-श्रमहारित्व, (१३)मधुरता, (१४)--स्निग्धता, (१५)-बहुदलता, (१६)-विषविनाशकता, (१७)-मकरन्द(पुष्परस) धारित्व, (१८)-व्याधिविनाशकता, (१९)-विकसनशीलता, (२०)-तृष्णा
જેવી રીતે કલ્પવૃક્ષેના ફૂલમાં સૌન્દર્ય આદિ ગુણે દેખાય છે, તે પ્રમાણે તીર્થકરના વચનેમાં પણ સૌન્દર્ય આદિ તમામ ગુણ દેખાય છે. બંનેમાં સમાન રૂપથી દેખાતા ગુણે આ પ્રકારના છે –
(१)-सौन्दर्य, (२)-सुध, (3)-त्रिघोषनाश, (४)-सात घातुनी पुष्टि ४२२, (५)--0451, १५-4300, (६)-ध्यने मान २४, (७)-तापर्नु शमन ४२११५, (८)- INषe, (८)-Geसापा', (१०)-भूdिris', (११)वी ', (१२)-श्रमनिवारा , (१3)-मधुरता (१४)- Duit-fixey!पा, (१५)-Heal, (१६)-विषविनाश', (१७)-भ४२४-५०५२स-पा२४ता, (१८)-व्याधिविनाशsal, (१८)-विसनशlean, (२०)-greyानिपाता,
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां (२१) मूर्खाहारकत्वम् , (२२) पथ्यत्वम् , (२३) मेध्यत्वम् , (२४) उत्कृष्टभावोत्पादकत्वम् , (२५) अवयवसन्निवेशविशेषवत्वम् । __ तत्र सौन्दर्यादिकं यथा कल्पतस्कुरुसुमेषु भगवद्वचनेषु च विद्यते, तथा प्रदर्शयाम :सं. गुणाः कल्पतरुकुसुमपक्षे भगवद्वचनपक्षे १ सौन्दयम् मनोहराकृतिमत्त्वम्, माधुर्यप्रसादगुणवत्वम् , २ सुगन्धः घाणेन्द्रियप्तिजनकत्वम् । दिव्यध्वनिरूपत्वेन भगवद्वचन
स्यार्यानार्यद्विपदचतुप्पदादीनां निवारकता, (२१)-मूछीहारिस्व, (२२)-पथ्यता, (२३) मेव्यता (२४)-उत्कृष्टभावोत्पादकता, (२५)-अवयवसनिवेशविशेषवत्व ।
ये पचीस गुण कल्प वृक्षके फूलों में तथा भगवान् के वचनों में किस प्रकार समानरूप से पाये जाते हैं यह बतलाते हैं. ___ सं. गुण कल्पवृक्षके फूलों के पक्षमें भगवानके वचनोंके पक्षमें ।
(१) सौन्दर्य, मनोहर आकृति वाला, माधुर्य और प्रसाद गुण वाला (२) सुगन्ध, घाणेन्द्रियको तृप्तकरने वाला, दिव्यत्वनिरूप होने के कारण
आर्य, अनार्य, द्विपद, तथा (२१)-भूनिवा२४ता, (२२)-प्यता, (२३)-मध्यता, (२४)-Segoe सावन Grules Y भने (२१)-244सन्निवेशविशेष
આ પચીસ ગુણે કલ્પવૃક્ષના ફૂલેમાં તથા ભગવાનના વચનમાં કેવી રીતે સમાનપણે દેખાય છે તે બતાવે છે– સ. ગુણ કલ્પવૃક્ષના કુલના પક્ષમાં ભગવાનના વચનના પક્ષમાં (१) सौन्हय, भना२ मातिाया, મધુર અને મોહક શબ્દ
सौन्दया. (२) सुगन्ध, नासिने तृप्त ४२॥२, દિવ્યધ્વનિરૂપ હોવાથી
આર્ય, અનાર્ય, બે પગવાળાં તથા ચાર પગવાળાં
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६
३ त्रिदोषनाशकत्वम् चात-वित्त-कफ नाश
कत्वम्,
४ सप्तधातुपौष्टिक - रसासृह- मांसमेदोऽस्थिम ज्जाशुक्र-वर्द्धकत्वम्,
त्वम्
}
(३) त्रिदोषनाशकत्व, वात पित्त और कफ इन तीन दोषों को दूर करने वाला |
आचाराग्रसत्रे स्वस्वभाषापरिणतत्वेन तृप्ति
जनकत्वम् ।
मिध्यात्वमिश्रसम्यक्त्वमोहनीय
दोपनाशकत्वम् ।
द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक-नयाभ्यां स्यादस्त्यादिसप्तभङ्गानां
पुष्टिकरत्वम् ।
चतुष्पद आदि की अपनी २ भाषा में परिणत होजानेके कारण तृप्तिकारक ।
(४) सप्तधातुपोष्टि- रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी और वीर्य, इन सात धातुओं को बढाने वाला |
कल्व,
(४) सातधातुने युष्ट, કરવાપણુ
(3) त्रिदोषनाशक्त्य, वात, पित्त भने ४५, यात्रा દાયાને દુર કરવા વાળા
मिष्यात्य, मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय इन तीन कर्मों को नष्ट - करने वाला ।
रस, रक्त भांस, भेट, हाउभं મજા અને વીય, આ સાત ધાતુને બલવાન કરનાર.
कथंचित्
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्यता आदि सात भंगो का पोषक ।
જીવાને પાત પેાતાની ભાષામાં પરિણત હાવાના કારણે तृप्तिमर४.
मिथ्यात्व, मिश्र ने सभ्यકત્વ માહનીય, આ ત્રણકમાના
નાશ કરનાર
द्रव्यार्थि भने पर्यायाथि :નયની અપેક્ષાએ કથચિત્ નિત્યતા કચિત અનિત્યતા આદિ સાત ભગાના પેાષક
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
५ त्वगरोमबलकरत्वम्, शारीरिक विकारहारकत्वम्
६ हृदयाढादकत्वम्, दर्शनमात्रेण हृदयमुखजन
आत्मवर्तिन आर्त्तरौद्रध्यानात्मकविकारस्य निवारकत्वम् । श्रवणमात्रेण सर्वेषां प्राणिना - मन्दानन्दजनकत्वम् |
कत्वम्
७ तापशमनत्वम्,
शैत्यगुणवत्त्वेन तापहारक- शान्त रसवत्त्वेन कपायानलताप
त्वम्,
हारकत्वम् ।
८ शोभाकारित्वम्, भूपणरूपेण द्युविवर्द्धकत्वम्, मिथ्यात्वादिकालुप्यापहरणपूर्वकमात्मतेजःप्रकाशकत्वम् ।
(५) त्वग् रोमबलकरत्व, शरीरसंबंधी विकार दूर करने
आत्मा के आर्तव्यानं और रौद्रव्यानरूप विकारोंका नाशक । दृष्टि पड़ते ही हृदयको आनन्दित कानमें पडतेही प्राणिमात्र करने वाला । को अत्यन्त
वाला |
आनन्द देने
(६) हृदयाह्लादकत्व,
(७) तापशमनत्व,
(८) शोभाकारित्व,
शीतल होने से सन्ताप हरने
वाला |
आभूषणरूप होने के कारण शोभा बढाने वाला |
(૫) ચામડી અને વાળને શરીરસંબંધી વિકાર દૂર
ખળકારક.
४२नार.
(८) शोभाभरीप
(६) हृदयने मानहारी दृष्टि पडतां हृहयने આનંદ આપનાર
(૭) તાપનિવારણ કરનાર, શીતલ હેાવાથી સંતાપ
हरनार,
ઘરેણાંરૂપ હેાવાથી શેશભા
વધારનાર
वाला ।
शान्तरसमय होने के कारण 'कपायजनित सन्तापको नष्ट करने वाला । मिथ्यात्व आदि की मलीनता दूर करके आत्माका तेज चमकाने वाला |
આત્માના આર્ત્ત ધ્યાન અને રૌદ્ર ધ્યાનરૂપ વિકારોને નાશ
કરનાર
કાનમાં પડતાં જ પ્રાણી માત્રને અત્યન્ત આનંદૅ આપનાર शान्तरसभय होवाथी उपायનિત તાપને નાશ
३२नार.
મિથ્યાત્વ આદ્ધિની મિલનતા દૂર કરીને આત્માના તેજને પ્રકાશિત કરનાર,
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आचाराङ्गवत्रे प्रमादपञ्चकनिवारकत्वेन धर्मा
राधने योगत्रयोत्तेजकत्वम् ।
।
१० स्फूर्तिकारकत्वम्, इर्पोत्पादकत्वेन स्वेप्टला - मोक्षाय पराक्रमस्फोटनस्त्रम् । भाय प्रवृत्तिजनकत्वम्,
११ वीर्यवर्द्धकत्वम्,
सकलेन्द्रियशक्तिदायकत्वम्, तपः संयमाभ्यामात्मत्रलोत्कर्ष
कत्वम् ।
८
९ उत्साहकत्वम्,
(९) उत्साहकत्व,
(१०) स्फूर्तिकारकत्व,
(११) वीर्यवर्धक
(e) उत्साह पा
(१०) स्थूर्ति उत्पन्न अश्वायल .
(११) वीर्यवर्ध४.
उत्साहजनकत्वम्,
उत्साह उत्पन्न करने वाला |
हर्षजनक होने के कारण अपनी इष्ट सिद्धि के लिये प्रवृत्ति
कराने वाला ।
पांच प्रमादों का निवारण
करके धर्म की आराधना में
तीनों योगों को उत्तेजित करने वाला ।
હ ઉત્પન્ન કરનાર હાવાથી પેતાની ઇચ્છાનુસાર સિદ્ધિ માટે પ્રવૃત્તિ કરાવનાર
તમામ ઇન્દ્રિયાને શક્તિ
આપનાર
मोक्ष के लिये पराक्रम फोडने को प्रेरणा करने वाला ।
सब इन्द्रियों को शक्ति देने तप, और संयम द्वारा आध्या
वाला ।
त्मिक बल बढाने वाला ।
ઉત્સાહ ઉત્પન્ન કરનાર
પાંચ પ્રમાદેશનુ નિવારણ
કરીને ધર્મની
આરાધનામાં
ત્રણેય ચોગાને ઉત્તેજન
मापनार.
મેાક્ષ માટે પરાક્રમ કરવાની પ્રેરણા કરનાર.
તપ અને સંચમ દ્વારા આધ્યાત્મિક મૂળ વધારનાર.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा १२ श्रमहारित्वम् , सौगन्ध्यादिविविधगुणोत्क- चतुर्गतिपरिभ्रमणेन श्रान्तानां
Lण तत्तदिन्द्रियाणां शैथि- भवभ्रमणोपरमेण खेदात्यन्तिक
ल्यनिवारकत्वम् , विध्वंसकत्वम् । १३ मधुरत्वम् , मधुररसवत्त्वम् , अपूर्वाक्षयशिवसुखानुभवात्मक
रसत्वम् । ___१४ स्निग्धत्वम् , मुखदस्पर्शकत्वम् , श्रवणमात्रेणाऽऽत्मनः प्रतिप्रदेश
धर्मानुरागजनकत्वम् । (१२) अमहारित्व, मुगन्ध आदि अनेक गुणों चार गतियों में भ्रमण करके
की अधिकता होनेसे उससे थके हुए प्राणियों का भवइन्द्रियों की शिथिलता दूर भ्रमण मिटाकर उनके खेदको करने वाला।
सर्वथा नाश करने वाला। (१३) मधुरत्व, मधुर रस वाला।
अपूर्व अविनाशी मोक्षसुखकी
अनुभूति रस वाला। (१४) स्निग्धत्व चिकनापन।
कान में पडते ही आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में धर्मानुराग जगाने वाला।
(૧૨) શ્રમનિવારણ
કરવામાણું.
(१3) मधुराः
સુગંધ આદિ અનેક ગુણેની ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ કરીને વિશેષતા હોવાથી તે તે થાકી ગયેલા જીના ભાવ ઇંદ્રિયની શિથિલતા દૂર ભ્રમણને નિવારણ કરીને તેના ४२ना२.
ખેદ સર્વથા નાશ કરનાર મધુર રસવાળા.
અપૂર્વ, અવિનાશી મિક્ષ
સુખના અનુભવ રૂપ રસવાળા ચિકણાપણું.
કાનમાં પડતાં જ આત્માના हरे-४२४ प्रदेशमा धानुરાગ જગાડનાર
___ (१४) स्निग्धा .
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आचारागसूत्रे १५ बहुदलत्यम् , शतपत्रसहस्रपत्रादिरूपेणा- स्वपरसमयस्वरूपप्रदर्शकबहुवि
ऽधिकपत्रवत्वम् , धप्रमाणनयनिक्षेपादिवत्त्वम् । १६ विषविनाशकत्वम्, स्थावरजङ्गमविपहारकत्वम् , विषयवासनाऽपहारकत्वम् । १७ मकरन्दधारित्वम् , परागवत्वम् , अनित्यादिभावनाजनितरा
ग्यवत्वम् । (१) (१५) बहुदलत्व, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि रूपसे स्वसमय और परसमय के बहुत पत्तोंवाला। स्वरूपका प्रकाशक होने के
फारण भांति-भांति के प्रमाण, नय, निक्षेप, आदि से युक्त ।
(१६) विपविनाशकत्व, स्थावर और जङ्गम विप का नाश विषय वासनारूप विषका नाश करने वाला।
करने वाला।
(१७) मकरन्दधारित्व, पुष्परसवाला ।
अनित्य आदि बारह भावनाओं से उत्पन्न वैराग्यजनित शान्त
रस वाला। (१५) मा . સે પત્ર, હજાર પત્ર આદિ સ્વસમય અને પરસમયના
રૂપથી ઘણાં પત્રો (પાંદડા) સ્વરૂપને પ્રકાશક હેવાના વાળા
કારણે જુદી જુદી જાતના પ્રમાણ, નય, નિક્ષેપ આદિથી
युत. (૧૬) વિષનાશકણું, સ્થાવર અને જંગમ વિષને વિષયવાસનારૂપ વિષને-ઝેરને નાશ કરનાર
નાશ કરનાર, (१७) म४२-६-धारित्व. सोना २स पा. અનિત્ય આદિ બાર ભાવના
એથી ઉત્પન્ન વૈરાગ્ય જનિત
.. शांतरस प्रगटापनार. . १....वैराग्यवत्त्वम्-प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावसम्बन्धेन ।
-
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणां
११
१८ व्याधिनाशकत्वम्, क्षतक्षयादिसकलातङ्कनिवा- सर्वघातिप्रभृतिसकलकर्मनाशक -
रकत्वम् ,
त्वम् ।
१९ विकसनशीलत्वम्, मुकुलितपत्रस्फुटन स्वभाव- अनन्तकाल प्रसुप्तात्मगुणविका
त्वम्,
सित्यम् ।
२० तृणानिवारकत्वम्, अभिलापापहारकत्वम्,
२१ मूर्च्छाहारकत्वम्, नष्टचेष्टानिवारकत्वम्,
(१८) व्याधिनाशकत्व,
भय आदि समस्त व्याधियों को
हटानेवाला |
(१९) विकसनशीलत्व,
(२०) तृष्णा निवारकत्व, लालसा हटानेवाला |
(२१) मूर्च्छाहारकत्व,
(१८) व्याधि विनाश
पायें .
(१८) विश्ासवापासु
क्रमशः विकसित होता जानेवाला । अनादिकालसे सोये पडे आत्मा
के गुणोंका विकास करनेवाला ।
(२०) तृष्णानिवारञ्ज्य. सासव्य दूर कुरनार,
+
विषयाभिलाप निवर्त्तकत्वम् |
मोहविनाशकत्वम् ।
(२१) भूर्छानिवार पशु मेलानयायें भटाउनार
सर्वघाति आदि समस्त कर्मोंका
नाश करने वाला |
मूर्च्छा (बेहोशी) मिटाने वाला ।
ભય આદિતમામ વ્યાધિઓને સદ્યાતિ નિવારણ કરનાર.
ક્રમશઃ વિકાસ પામવાવાળા.
विषयों की अभिलापा दूर
करने वाला ।
मोह का नाशक ।
પ્રકૃતિ આદિ
તમામ કર્મોના નાશ કરનાર.
અનાદિ કાલથી સુતા પડેલા આત્માના ગુણ્ણાના વિકાસ
३२ना२.
વિષયાની અભિલાષા ક્
डरनार.
માહ નાશ કરનાર
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१०
आचारागसूत्रे १५ बहुदलत्वम् , शतपत्रसहस्रपत्रादिरूपेणा- स्वपरसमयस्वरूपप्रदर्शकबहुवि
ऽधिकपत्रवत्त्वम् , धप्रमाणनयनिक्षेपादिवत्त्वम् । १६ विपविनाशकत्वम्, स्थावरजङ्गमविपहारकत्वम् , विषयवासनाऽपहारकत्वम् । १७ मकरन्दधारित्वम् , परागवत्त्वम् , अनित्यादिभावनाजनितयंरा
ग्यवत्वम् । (१) (१५) बहुदलत्व, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि रूपसे स्वसमय और परसमय के बहुत पत्तोंवाला ।
स्वरूपका प्रकाशक होने के कारण भांति-भांति के प्रमाण, नय, निक्षेप, आदि से युक्त ।
(१६) विषविनाशकत्व, स्थावर और जङ्गम विप का नाश विषय वासनारूप विपका नाश करने वाला।
करने वाला। (१७) मकरन्दधारित्व, पुष्परसवाला ।
अनित्य आदि बारह भावनाओं से उत्पन्न वैराग्यजनित शान्त
रस वाला। (१५) गणता. સે પત્ર, હજાર પત્ર આદિ સ્વસમય અને પરસમયના રૂપથી ઘણુ પત્રો (પાંદડા) સ્વરૂપના પ્રકાશક હોવાના
કારણે જૂદી જૂદી જાતના પ્રમાણ, નય, નિક્ષેપ આદિથી
युडत. (૧) વિષનાશકશું. સ્થાવર અને જંગમ વિષને વિષયવાસનારૂપ વિષને-ઝેરને નાશ કરનાર
નાશ કરનાર, (१७) भ४२-४-धारिस्प. सोना २स . અનિત્ય આદિ બાર ભાવના
એથી ઉત્પન્ન વૈરાગ્યજનિત
શાંતરસ પ્રગટાવનાર. १....वैराग्यवत्त्वम्-प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावसम्बन्धेन ।
વાળા
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
२५ अवयवसंनिवेश- सकलावयवपूर्णत्वम्, विशेषवत्त्वम्
सकलाङ्गोपाङ्गपूर्णत्वम् ।
(२५) अवयवसन्निवेश- सब अवयवों से परिपूर्ण ।
विशेषवच्च,
१३
तीर्थङ्करकल्पपादपानां वचनप्रसूनानि गणधराः श्रद्धासूत्रे संग्रन्थ्य गद्यपद्यात्मकविविधाङ्गोपाङ्गरूपा माला व्यरीरचन् । अथ ता माला हृदये निधाय तत्तद्रुतमहत्त्वं स्वात्मनि भावयन्तो भावितात्मानः सन्तो ज्ञानक्रियाभ्यां कर्मरजोऽपनीय वाधापीढाऽपवर्जितम पुनरावृत्ति सिद्धिगतिनामधेयं शिवपदं समाश्रयन्ति, भवभीरून भव्यानपि तत्पदं प्रापयन्ति ।
सब असों और उपासि युक्त |
L-- तीर्थङ्कररूपी कल्पवृक्षों के वचनरूपी पुष्पों को गणथरंनि श्रद्धारूपी सूतमें गूंथकर गद्यपद्यरूप विविध अङ्गउपाद्गमय मालाएँ रचीं, उन मालाओं को धारण करके उनकी महत्ता का अन्तःकरण में विचार करते हुए भावितात्मा पुरुष ज्ञान और क्रिया के द्वारा कर्मरजको हटाते हैं । तथा सब प्रकार की बाधा और पीडासे रहित, जिलें पाकर फिर कभी आना नहीं पडता, ऐसे सिद्धिगतिरूप शिवपद प्राप्त करते हैं, साथ ही भवभीरु अन्य भव्य जीवों को भी उसी पढ़ की प्राप्ति कराते हैं ।
(૨૫) અવયવસન્નિવેશનું. સર્વ અવયવેાથી પરિપૂર્ણ. સર્વ અંગે અને ઉપાંગોથીયુક્ત विशेषपशु
તીર્થંકરરૂપી કલ્પવૃક્ષોના વચનરૂપ પુષ્પાને, ગણધરોએ શ્રદ્ધારૂપી સૂતર-દોરામાં ગુથી કરી ગદ્યપદ્યરૂપ વિવિધ અંગ-ઉપાંગમય માળા રચી. તે માળાએને હૃદયમાં ધારણ કરીને, તેની મહત્તાનેા અંતઃકરણમાં વિચાર કરનાર ભાવિતાત્મા પુરૂષજ્ઞાન અને ક્રિયા દ્વારા કરજકણને દૂર કરે છે. તથા સર્વ પ્રકારની ઉપાધિ અને પીડાથી રહિત, - જેને પ્રાપ્ત કરીને ફરીથી કેાઈ વખત આવવુ પડતુ નથી. એવી સિદ્ધિગતિરૂપ શિવપદને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમજ ભવભીરૂ અન્ય ભવ્ય જીવોને પણ તે પદ ( શિવપદ )ની પ્રાપ્તિ
उरावे छे.
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आचारागसूत्रे २२ पथ्यत्वम् हितकरत्वम् ,
ऐहिकपारत्रिकसुखोत्पादकत्वे.
नात्मनो नितान्तोपकारित्वम् । २३ मेध्यत्वम् , पवित्रत्वम् , मिथ्यात्वमलाभावेन नैर्मल्यम् । २४ उत्कृष्टभावोत्ता- दैन्यशोकादिजनितदुश्चिन्त- विभावपरिणामजन्यदुर्वासनाप- . दकत्वम् नापनयेन विशुद्धविचारा- नयनेन तीर्थङ्करगोत्रोपार्जन
ऽऽविष्कारकत्वम् । . योग्यविशिष्टभावनाजनकत्वम् । (२२) पथ्यत्व, हितकर ।
इहलोक और परलोक सम्बन्धी सुखजनक होनेसे आत्मा का
अत्यन्त उपकारी। (२३) मेध्यत्व, पवित्रता वाला। मिथ्यात्वादि पांच मानव रूपी
मल से रहित होने के कारण
निर्मल । (२४) उत्कृष्टभावोत्पा- दैन्यशोक आदि से उत्पन्न विभाव परिणति द्वारा जनित दकत्व, हुई चिन्ता को दूर करके दुर्वासना को दूर करके तीर्थङ्कर
विशुद्ध विचार उत्पन्न । गोत्र बांधने के योग्य विशिष्ट करने वाला।
भावनाको उत्पन्न करने वाला। (२२) पथ्यता डित४२.
આ લેક અને પરલેક સંબંધી સુખ ઉત્પન્ન કરનાર હેવાથી,
આત્માને અત્યંત ઉપકારી. (२३) भेध्यता. પવિત્રતા કરનાર. મિથ્યાત્વ આદિ પાંચ આશ્રવ
રૂપી મળથી રહિત રહેવાના
કારણે નિર્મલ. (૨૪) ઉત્કૃષ્ટ ભાવ ઉત્પન્ન દેખ્યક આદિથી ઉત્પન્ન વિભાવપરિણતિ દ્વારા ઉત્પન્ન કરવાપણું. થનાર ચિંતાને દૂર કરીને થયેલી દુર્વાસનાને દૂર કરીને વિશુદ્ધ વિચાર ઉત્પન્ન કરનારું તીર્થકર ગાત્ર બાંધવા ગ્ય*
વિશિષ્ટ ભાવના ઉત્પન્ન
४२ना२.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
(१) संस्कारवत्त्वम् = प्रकृतिपत्ययलिङ्गवचनादियुक्तत्वम् । (२) उदात्तत्वम् = श्रोतमुवेद्यत्वम् (३) उपचारोपेतत्वम् = अप्राज्ञजनभापावदश्लीलादि दोपरहितत्वम् । (४) गम्भीरध्वनित्यम् = मेघवद् गम्भीरनादवत्वम् । (५) अनुनादित्वम् = प्रतिशब्दोपेतत्वम् । (६) दक्षिणत्वम् = ऋजुत्वम् । (७) उपनीतरागत्वम् = मालकोशरागगुणवत्त्वम् , यथा मालकोशरागः मस्तरानपि द्रावयति, तथा कठिनचेतसोऽपि जनान् भगवद्वचनं द्रावयतीति हृदयद्रावकत्वमिति भावः । (८) महार्थत्वम् = मोक्षमार्ग____ यहाँ सत्य वचन का अर्थ है---भगवान के वचन, क्योंकि वे सबके हित करने वाले हैं। उन वचनों के-वाणीके अतिशय अर्थात् गुण पैंतीस हैं । परम्परा के अनुसार वाणीके पैतीस गुण इस प्रकार माने जाते हैं---
(१) संस्कारवत्व-प्रकृति, प्रत्यय, लिङ्ग, वचन आदि से युक्त होना (२) उदात्तता-श्रोताओं के लिये सुगम । (३) उपचारोपेतता-गवारो की भाषा में पाये जाने वाले अश्लीलता आदि दोपों से रहित । (४) गंभीरवनित्व-मेघकी समान गम्भीर नाद .. होना। (५) अनुनादित्व-प्रतिध्वनिसे युक्त होना । (६) दक्षिणता-सरलता। (७) उपनीतरागवत्व-मालकोश राग सरीखा गुण होना, अर्थात् जैसे- मालकोश राग पापाण को भी पिघला देता है, उसी प्रकार भगवान् के वनन कठोर हृदय को भी पिघला देते हैं। तात्पर्य यह है कि---भगवान के वचन बड़े ही हृदयद्रावक होते हैं। (८) महार्थता-भगवान के वचन मोक्ष-मार्ग के प्रतिपादक होने से महत्वपूर्ण और अर्थ
(१) सारवाय-प्रकृति, प्रत्यय,लिंग, पयन पाहिथीयुत मन. (२) Gradeશ્રેતાઓ માટે સુગમ. (૩) ઉપચારપતતા–મૂર્ણ–જંગલી માણસેની ભાષામાં જોવામાં આવતા અલીલ-ખરાબ, શરમ આવે તેવા ભાષાના દોષ રહિત. (૪) ગંભીરધ્વનિત્વમેઘના वाली२०७१. (५) मनुनाहिल-प्रतिध्वनियुश्त (५७।३५ य). (६) क्षिता . સરલતા (૭) ઉપનીતરાગ–--માલકેશ રાગ જે ગુણ હેવું. અર્થાત જેવી રીતે માલકેશ રાગ પથ્થરને પણ પિગળાવી દે છે. તે પ્રમાણે ભગવાનના વચને કઠોર હૃદયવાળા માણસને પણ પિગલાવી દે છે, તાત્પર્ય એ છે કે–ભગવાનના વચન મહાન હૃદય દ્રાવક હોય છે. (૮) મહાWતા–ભગવાનના વચન મોક્ષમાર્ગનું પ્રતિપાદન કરનારા છે તેથી મહત્વપૂર્ણ અને અર્થથી યુક્ત હોય છે. (૯) અવ્યાહતપૌર્વાપર્યપૂર્વાપર
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आचाराङ्गमत्रे ___ कल्पपादपा हि ऐहिकमेवाध्रुव क्षणभङ्गुरं मुखं प्रदातुमीशते, इमे तु लोकोत्तरमक्षयं शाश्वतं सुखं वितरन्ति । लौकिकनखं तु मृतरां सिद्धमेव, न पुनस्तत्र प्रदानापेक्षेति भावः।
भगवद्वचनेषु पश्चत्रिंशद् अतिशया लोकोत्तराः सर्वैरनुभूयन्ते, पञ्चत्रिंशतोऽतिशयानां समवायागमने निर्देशात् । तथा च मूत्रम्-"पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पनत्ता" इति । पञ्चत्रिंशत् सत्यवचनातिशेपाः प्रज्ञप्ताः, इति च्छाया। सत्यवचन - भगवद्ववचनं सकल हितकरत्वात् , तस्य अतिशेपाः = अतिशयाः पञ्चत्रिंशत् प्रज्ञप्ताः कथिताः, इत्यर्थः। तत्रैते पञ्चत्रिंशदविशयाः-परंपरयाऽवगम्यन्ते
कल्पवृक्ष तो इसी लोकसम्बन्धी सुख दे सकते हैं और वह सुख भी अध्रुव और 'क्षणभद्र होता है, किन्तु तीर्थकर भगवान् लोकोत्तर अक्षय और शाश्वत सुख प्रदान करते हैं । लौकिक सुख तो किसान के लिये भूसे के समान स्वतः सिद्ध है ही वह आनुपगिक है ।
भगवान् के वचनों में पतीस लोकोत्तर अतिशयो का सभी प्राणियों को अनुभव होता है। श्री समवायाङ्गसूत्र में पैंतीस अतिशयों का उल्लेख पाया जाता है । मूल पाठ इस प्रकार है-"पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता।"
अर्थात् सत्य वचन के पैंतीस अतिशय-गुण कहे गये है।
કલ્પવૃક્ષ તે આ લેક સંબંધી સુખ આપી શકે છે અને તે સુખ પણ અધવ અને ક્ષણભંગુર હેય છે, પરંતુ તીર્થકર ભગવાન લેકેત્તર અક્ષય અને શાશ્વત-નિત્ય સુખ આપે છે; લૌકિક સુખ તે ખેડુતો માટે મુશકા (અનાજ વિનાનાં ફેંતરાં) સમાન સ્વાભાવિક સિદ્ધજ છે.
ભગવાનના વચનેમાં પાંત્રીશ લેકોત્તર અતિશયેને સર્વ પ્રાણીઓને અનુભવ થાય છે, શ્રી સમવાયાંગ સૂત્રમાં એ પાંત્રીશ અતિશને ઉલ્લેખ જોવામાં આવે છે.. भी पा 21 मारे छ- " पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता"
અર્થાત–સત્ય વચનના પાંત્રીશ અતિશય ગુણ કહેવામાં આવ્યા છે. અહિં સત્ય વચનને અર્થ છે-ભગવાનના વચન, કેમકે તે સર્વ હિત કરનાર છે. તે વચનેને અતિશય અર્થાત ગુણ પાંત્રીશ છે. પરંપરાના નિયમ પ્રમાણે પાંત્રીશ અતિશય આ પ્રમાણે માનવામાં આવ્યા છે
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(१) संस्कारवत्त्वम् = प्रकृतिमत्ययलिङ्गवचनादियुक्तत्वम् । (२) उदात्तत्वम् = श्रोत्सुवेद्यत्वम् (३) उपचारोपेतत्वम् = अप्राज्ञजनभापावदश्लीलादि दोपरहितत्वम् । (४) गम्भीरध्वनित्वम् = मेघवद् गम्भीरनादवत्त्वम् । (५) अनुनादित्वम् = प्रतिशब्दोपेतत्वम् । (६) दक्षिणत्वम् = ऋजुत्वम् । (७) उपनीतरागत्वम् = मालकोशरागगुणवत्त्वम् , यथा मालकोशरागः मस्तरानपि द्रावयति, तथा कठिनचेतसोऽपि जनान् भगवद्वचनं द्रावयतीति हृदयद्रावकत्वमिति भावः । (८) महार्थत्वम् = मोक्षमार्ग
यहाँ सत्य वचन का अर्थ है-भगवान के वचन, क्योंकि वे सबके हित करने वाले हैं । उन वचनों के–वाणीके अतिशय अर्थात् गुण पैंतीस हैं । परम्परा के अनुसार वाणीके पैतीस गुण इस प्रकार माने जाते हैं
(१) संस्कारवत्व-प्रकृति, प्रत्यय, लिङ्ग, वचन आदि से युक्त होना (२) उदात्तता-श्रोताओं के लिये सुगम । (३) उपचारोपेतता-गवारो की भाषा में पाये जाने वाले अश्लीलता आदि दोपों से रहित । (४) गंभीर वनित्य-मेघकी समान गम्भीर नाद .. होना । (५) अनुनादित्व-प्रति घनिसे युक्त होना । (६) दक्षिणता-सरलता। (७) उपनीतरागवत्व-मालकोश राग सरीखा गुण होना, अर्थात् जैसे- मालकोश राग पापाण को भी पिघला देता है, उसी प्रकार भगवान् के वचन कठोर हृदय को भी पिघला देते हैं। तात्पर्य यह है कि--भगवान के वचन बडे ही हृदयद्रावक होते हैं । (८) महार्थता-भगवान् के वचन मोक्ष--मार्ग के प्रतिपादक होने से महत्वपूर्ण और अर्थ
(१) सं पत्य-प्रकृति, प्रत्यय, लिंगा, पयन माहियायुत मनपु. (२) Garddtશ્રોતાઓ માટે સુગમ. (૩) ઉપચારપતતા–મૂર્ખ–જંગલી માણસેની ભાષામાં જોવામાં આવતા અશ્લીલ-ખરાબ, શરમ આવે તેવા ભાષાના દે રહિત. (૪) ગભરધ્વનિત્વમેઘના वाली२७६. (५) मनुनाहिल-प्रतिध्वनियुता (५४ा३५ थy). (१) क्षिताસરલતા (૭) ઉપનીતરાગત્વ-માલકેશ રાગ જે ગુણ હોવું. અર્થાત્ –જેવી રીતે માલકોશ રાગ પથ્થરને પણ પિગળાવી દે છે. તે પ્રમાણે ભગવાનના વચને કઠેર હૃદયવાળા માણસને પણ પિગલાવી દે છે, તાત્પર્ય એ છે કે-ભગવાનના વચન મહાન હૃદય દ્રાવક હોય છે. (૮) મહાર્થતા–ભગવાનના વચન મોક્ષમાર્ગનું પ્રતિપાદન કરનારા છે તેથી મહત્વપૂર્ણ અને અર્થથી યુક્ત હોય છે. (૯) અવ્યાહત પૌર્વાપર્ય–પૂર્વાપર
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आचारास्त्रे प्रतिपादकत्वेन महत्वविशिष्टार्थकत्वम् (९) अव्याहतपौर्वापर्यत्वम् । = पूर्वापरविरोधराहित्यम् । (१०) शिष्टत्वम् = शिष्टाभिमततत्चयोधकच्चम् । (११) असंदिग्धत्वम् = अभिधेयार्थानां स्फुटतया प्रतिपादनेन संशयाजनकत्वम् । (१२) अपहृतान्योत्तरत्वम् = सकलगुणपूर्णत्वेन परकृतदोपान्वेषणाऽविषयत्वम् । (१३) हृदयग्राहित्वम् = सर्वेषां प्राणिनां श्रवणमात्रेण हृदयहारित्वम् । (१४) देशकालाव्यतीतत्वम् = द्रव्यक्षेत्रकालभावानुकूलत्वम् । (१५) तत्त्वानुरूपत्वम् = विवक्षितवस्तुद्रव्यपर्यायस्वरूपप्रकाशकत्वम् । (१६) अपकीर्णप्रसृतत्वम् = प्रसङ्ग. विनान विस्तीर्णत्वं नातिसंक्षिप्तत्त्रम् (१७) अन्योन्यप्रगृहीतत्वम् = पदानामर्थानां वा से युक्त होते हैं । (९) अव्याहतपौर्वापर्य-पूर्वापर विरोध से रहित होते हैं। (१०) शिष्टता-शिष्ट पुरुषों द्वारा स्वीकृत तत्व का बोध कराते हैं । (११) असंदिग्धता-अभिधेय अर्थ का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करने के कारण संशयजनक नहीं होते । (१२) अपहृतान्योत्तरस्व-समस्त गुणों से युक्त होने के कारण दूसरे वादी उनमें कोई दोष नहीं निकाल सकते। (१३) हृदयग्राहित्य-समस्त श्रोतागणों के हृदय को हरण करने वाले। (१४) देशकालाव्यतीतत्व-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुकूल । (१५) तत्वानुरूपत्व-विवक्षित वस्तुके द्रव्य और पर्याय का स्वरूप प्रकाशित करने वाले (१६) अप्रकीर्णप्रसृतत्वવિરોધથી રહિત હોય છે. (૧૦) શિષ્ટ પુરૂ દ્વારા સ્વીકારેલા તત્વને બંધ કરાવે છે. (૧૧) અસંદિગ્ધતા–અર્ભિધેયવાદ્યાર્થીનું સ્પષ્ટ રૂપથી પ્રતિપાદન કરવાના કારણે સંશય ઉત્પન્ન થતું નથી. (૧૨) અપહતા ત્તરત્વ-સમસ્ત ગુણોથી યુક્ત હોવાથી બીજા પક્ષના વાદી તેમાં કઈ પણ પ્રકારનો દોષ કાઢી શકતા નથી. (૧૩) હૃદયગ્રાહિત્વ—તમામ શ્રોતાવર્ગના હૃદયને હરણ કરવાવાળા (૧૪) દેશકાલાવ્યતીત્વ—દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર કાલ અને ભાવને અનુકૂળ. (૧૫) તત્ત્વાનુરૂપ–––વિવક્ષિત-વસ્તુ એટલે બેલવા માટે મનમાં નક્કી કરેલ, તેના દ્રવ્ય અને પર્યાયના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળા. (૧૬) અપ્રકીર્ણ પ્રસૃતત્વ પ્રસંગ વિના વિસ્તાર સહિત નહિ કહેવું, તથા સંક્ષેપમાં નહિ કહેવું. (૧૭) અન્ય પ્રગૃહતત્વપૂર્વાપર પની અને અર્થોની અપેક્ષા રાખવા વાળા, અર્થાત પ્રકરણ સંગત.
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आधारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
१७ पूर्वापरसापेक्षत्वम् । (१८)-अभिजातत्वम् = मूक्ष्मस्यापि जीवादिस्वरूपस्य चाक्षुषप्रत्यक्षीकरणवत्पतिपादकत्वम् । (१९) अतिस्निग्धमधुरत्वम्-अमृतवत्तृप्तिजनकत्वम् । (२०)-अपरमर्मवेधित्वम् = परमर्मोद्धाटनरहितत्वम् । (२१) अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वम् पारमार्थिकार्यधर्मवोधकत्वम् (२२)-उदारत्वम् सर्वमाणिकल्याणकारित्वं, तुच्छार्यानभिधायफत्वं चा। (२३)-परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वम् - परोत्क्षेपात्मप्रशंसाहीनत्वम् (२४)-उपगतश्लाघत्वम् = सकलहितकरत्वेन समादृतत्वम् (२५)
प्रसङ्ग के विना न कहना, न विस्तारयुक्त और न संक्षिप्त कहना, (१७) अन्योन्यप्रगृहीतत्व पूर्वापर पदों की और अर्थ की अपेक्षा रखनेवाले, अर्थात् प्रकरणसङ्गत, (१८) अमिजातता - जीव आदि के अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूपको भी इतना स्पष्ट निरूपण करने वाले जैसे कि आंखों से देख रहे. हो, (१९) अतिस्निग्धमधुरता -- अमृत के समान तृप्तिकारक, (२०) अपरममवेधित्व - दूसरों के मर्म को न प्रगट करने वाले, अथवा प्रतिपक्षियों के मर्म ( हेतुओं एवं युक्तिओं) का निराकरण करने वाले, (२१) अर्थ- .. धर्माभ्यासानपेतता - परमार्थ अर्थात् मोक्ष तथा मोक्ष के साधनरूप धर्म का बोध कराने वाले, (२२) उदारता – प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले अथवा तुच्छ अर्थों का प्रतिपादन न करने वाले, (२३) परनिन्दाऽऽत्मोत्कर्षविप्रमुक्तता ~ परनिंदा और आत्मप्रशंसा रहित, (२४) उपगतश्लाघत्व ~ सर्वहितकारी होने के कारण सभी
(૧૮) અભિજાતા–જીવ આદિ તના અત્યન્ત સુકમ સ્વરૂપનું પણ એટલું સ્પષ્ટ નિરૂપણ કરવાવાળા જેમકે નેત્રથી જોઈ રહ્યા હોય. (૧©અતિસ્નિગ્ધ મધુરતા-અમૃત સમાન તૃપ્તિ કરવા વાળા. (૨૦) અપરમયિત્વ—-બીજાના મર્મને પ્રગટ નહિ કરવા વાળા, અથવા પ્રતિપક્ષીઓના મર્મ (હેતુઓ-યુક્તિએ)નું નિરાકરણ કરવા વાળા. (૨૧) અધર્માભ્યાસનતિતા–પરમાર્થ–અર્થાત્ મોક્ષ તથા મોક્ષના સાધનરૂપ ધર્મને બંધ કરવાવાળા. (૨૨) ઉદારતા–પ્રાણીમાત્રનું કલ્યાણ કરવા કરાવાવાળા, અથવા તુચ્છ અર્થોનું પ્રતિપાદન નહિ કરવા વાળા (ર૩) પરનિન્દાડત્કર્ષવિપ્રમુક્તતા-પર નિન્દા અને આત્મપ્રશંસાથી રહિત (૨૪) ઉપગતશ્લાઘત્વ-સર્વહિતકારી હેવાને
म. आ.-३ .....
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आचाराने अनपनीतत्वम् = श्रुतिकटुत्वादिवचनदोपापेतत्वम् (२६)-उत्पादिताच्छिनकौतूहलत्वम् = नवनवार्थप्रतिपादकत्येन पुनः पुनः श्रवणाभिलापजनकस्यम् । (२७)अद्रुतत्वम् = शीघ्रतारहितत्वम् । (२८)-अनतिविलम्बितत्वम्याक्यापरिसमाप्त विश्रीमरहितत्वम् । (२९)-विभ्रमविक्षेपरोपावेशादिराहित्यम् = विभ्रमो-भ्रान्तिः, विक्षेपः विवक्षितार्थ प्रत्यनासक्तता, रोपावेश:-क्रोधावेगस्तैर्विमुक्तत्वम् । (३०)विचित्रत्वम् = वर्णनीयवस्तुस्वरूपमकाशनेन लोकोत्तरत्वम् । (३१)-आहितविशेषत्वम् -द्रव्य-पर्याय-विशेषप्रतिपादकत्वम् । (३२)-साकारत्वम् हेतुकारणादिमिः स्फुटतया
के लिये उपादेय, (२५) अनपनीतत्व - कर्णकटुकता आदि दोपों से रहित, (२६) उत्पादिताच्छिनकौतूहलत्य -- नूतन नूतन अर्थ का निरूपण करने के कारण वार चार सुनने की अभिलापा उत्पन्न करनेवाले, अर्थात्-भगवानके वचनोंको बार बार सुनने की इच्छा होती है । (२७) अद्रुतत्व-शीघ्रता से रहित, (२८) अनतिविलम्बितत्व-बहुत विलम्ब से उच्चारण न किये जाने वाले, अर्थात् वाक्य समाप्त होने से पहले विश्राम लिए विना हो बोले जाने वाले । (२९) विभ्रम-विक्षेप-रोपाऽऽवेशादिराहित्य, विभ्रम अर्थात् भ्रान्ति, विक्षेप अर्थात् प्रतिपाद्य वस्तु के प्रति असावधानी, रोप अर्थात् क्रोध, के आवेश से रहित, (३०) विचित्रता वर्णन की जाने वाली वस्तु का स्वरूप प्रकाशित करने के कारण लोकोत्तर, (३१) आहितविशेषता - द्रव्य और पर्याय की विशेषता का प्रतिपादन करने वाले,
કારણે સર્વને માટે ઉપાય-બહણ કરવા ગ્ય. (૨૫) અનપનીતત્વ–કાનને અપ્રિય લાગે એવા દેથી રહિત. (૨૬) ઉત્પાદિતાછિન્નકૌતુહલત્વ–નવાનવા અર્થનું નિરૂપણ કરવાના કારણે વારંવાર સાંભળવાની અભિલાષા ઉત્પન્ન કરવાવાળા, અર્થાત્ ભગવાનના क्यनाने वारपार Aienा मलिलाषा-२७ थायछ, (२७) मद्तत्व- ताथी २डित (૨૮) અનતિવિસ્મિતત્વ–બહુજ વિલંબથી ઉચ્ચારણ નહિ કરવાવાળા, અર્થા-વાક્ય સમાપ્ત થયા પહેલાં વિશ્રામ લીધા વિના જ બોલવાવાળા. (ર) વિભ્રમ-વિલેપ-રાષાવિશાદરહિતત્વ-વિભ્રમ અર્થાત-જાતિ, વિક્ષેપ-અથાત્ પતિપાદ્ય વસ્તુ તરફ ગફલત, રેષ-અથૉત્ કૈધના આવેશથી રહિત (૩૦) વિચિત્રતા-વર્ણન કરવા ગ્ય વસ્તુને સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાના કારણે લેકેનર (૩૧) આહિતવિશેષતા-દ્રવ્ય અને પર્યાયની
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. आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणां
.१९
प्रकाशनेनार्थानां साक्षात्कारजनकत्वम् । ( ३३ ) - सत्त्वपरिगृहीतत्वम् - उत्पादव्ययघ्रौव्ययुक्तसत्तयाऽर्थप्रकाशकत्वम् । (३४) - अपरिखेदितत्वम् = स्वपरखेदानुत्पादकत्वम् । (३५) - अव्युच्छेदित्वम् = वर्णनीयपदार्थनिर्णयं यावदविच्छिन्नत्त्रम् ।
।
वृद्धसमदायविद्भिरप्युक्तम्
(१) - सकारवत्तं, (२) - उदत्तत्तं, (३) - उत्रयारोवेयत्तं (४) -गंभीरज्झणित्तं, (५) - अणुणादित्तं, (६) - दक्खिणतं, (७) - उवणीय रागचं, (८) - महत्यत्तं, (९)'अन्यायपुव्यावज्जतं, (१०) - सिङ्घत्तं, (११) - असंदिद्धत्तं, (१२) - अवहरियअनुत्तरत्तं, (१३) -हिययग्गाहित्तं, (१४) - देसकाल अव्यईयत्तं, (१५) - तत्ताणुरूवत्तं, (१६) - अण्णपइण्णसरियत्तं, (१७)- अन्नुन्नप्पग्गही यत्तं, (१८) - अहिजायत्तं, (१९) - अइणिद्धमहुरत्तं, (२०) - अवरम मवेहित्तं, (२१) - अत्यधम्मभासाणवेयत्तं, (२२) -उपारतं, (२३) - परनिंदा अप्पुक्करिस विप्पजुत्तत्तं, (२४) - उबगय सिलाघत्तं, (२५) - अणवणीयत्तं, (२६) - उप्पाइयच्छिन्नकोउहलत्तं, (२७) - अदुयत्तं, (२८) - अणइविलंवियत्त, (२९)विग्भम विक्खेव रोसावे साइरा हिचं, (३०) - विचित्तत्तं, (३१) - आहिय विसेसच, (३२)सागारतं, ( ३३ ) - सत्तपरिग्गहीयत्तं, (३४) - अपरिखेइयत्तं, (३५) - अन्वच्छेत्तं ।
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(३२) साकारता - हेतु कारण आदि के द्वारा स्पष्ट रूप से प्रकाशित करके पदार्थों का साक्षात्कार कराने वाले, (३३) सत्वपरिगृहीतत्व - उत्पाद व्यय और धौव्यमय सत्ता के रूपमें अर्थ के प्रकाशक (३४) अपरिखेदितत्व स्व को और पर को खेद ेन पहुँचाने वाले, (३५) अत्र्युच्छेदित्व - प्रतिपाय विषय का निर्णय हुए बिना न रुकने वाले, अर्थात् विवक्षित वस्तु का पूर्ण निर्णय करने वाले ।
1
વિશેષતાનું પ્રતિપાદન કરવા વાળા (૩૨) સાકારતા——હેતુ, કારણ આદિ વડે સ્પષ્ટ રૂપથી પ્રકાશિત કરીને પદાર્થોને સાક્ષાત્કાર કરાવવા વાળા. (૩૩) સત્ત્વપરિગ્રહીતત્વ—, उत्पाद, व्यय, अने धौव्य-भय सत्ताना ३५भां अर्थना अाश (३४) अपरमेहितत्व પેાતાને અને પારકાને ખેદ નહિ પહેાંચાડનાર (૩૫) અવ્યુચ્છેદિલ—પ્રતિપાદ્ય વિષયના નિર્ણય થયા વિના નહિ અટકનારા, અર્થાત્ વિક્ષિત વસ્તુના પૂર્ણ નિર્ણય કરવા વાળા
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आचाराजको - भगवद्वचनानि चतुर्विधेनुयोगे प्रविभक्तानि, स चेत्यम्(१)-चरणकरणानुयोगः,(२)-धर्मकथानुयोगः, (३)-गणितानुयोगः, (४)-द्रव्यानुयोगश्च ।
युज्यते-संवध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योगः = गणधरकयनरूपः, अनु = अनुकूलो योगोऽनुयोगः । भगवद्वचनानुरूपा गगधरोक्तिरित्यर्थः । (१)
(१) अय चरणकरणानुयोगः(१) चर्यते = गम्यते = माप्यते भवोदधेः परं कूलं चतुर्दशगुणस्थाना
भगवान् के वचनों में ये पैंतीस अतिशय अर्थात् गुण होते हैं। प्राचीन आचार्यों ने भी कहा है —'सकारवत्त' इत्यादि ३५ ।
(वाणी के पैंतीस गुण पहले कह चुके हैं अतः यहाँ इनका अर्थ कहने की आवश्यकता नहीं।
भगवान् के वचन चार अनुयोगों में विभक्त हैं ! चार अनुयोग ये हैं :--
१ चरणकरणानुयोग, २ धर्मकथानुयोग, ३ गणितानुयोग, और ४ द्रव्यानुयोग । - भगवानके वचनों के अनुकूल गणघरों का व्याख्यान अनुयोग कहलाता है।
(१) चरणकरणानुयोगजिसके द्वारा भव-सागर का किनारा अर्थात् चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त किया आय
ભગવાનના વચનેમાં આ પ્રમાણે પાંત્રીશ અતિશય અર્થાત ગુણ હોય છે. પ્રાચીન मायायाय ५५ छ:- “ सकारवत्त" त्या . (पांत्रीश पाएना शुधे पडसा કહી ગયા છીએ જેથી અહિં એને અર્થે કહેવાની આવશ્યક્તા નથી.)
ભગવાનના વચન ચાર અનુગમાં વહેંચાયેલા છે. ચાર અનુગ આ છે(१) A२५१४२ानुयोग. (२) धर्मानुयोग, (3) गणितानुयामाने (४) द्रव्यानुयोग
ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત અર્થની સાથે ગણધરના વચનને વેગ હોય તે અનુગ કહેવાય છે, તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાનના વચનેને અનુકૂળ ગણુધરેએ કરેલું વ્યાખ્યાન તે અનુગ કહેવાય છે.
(१) सरणानुयोगજેનાથી ભવસાગરને કિનારે અર્થાત ચૌદમું ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરી શકાય, તેને અર્થાત મૂલગુણને ચરણ” કહે છે, અથવા વ્રત આદિ ચરણ કહેવાય છે. તે સિત્તેર (७०) छ. ४यु पषु छ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां वस्यास्वरूपमनेनेति चरणं = मूलगुणरुपम् । यद्वा चरणंत्रतादि, तच्च सप्ततिसंख्यकम् , उक्तश्च
"वय५ समणधम्म१० संजम१७, वेयावचं१० च बंभगुत्तीओ ९ । णाणाइवियं३ तव१२ कोहनिग्गहाई४ चरणमेयं ॥ १॥” इति ।
क्रियते चरणस्य पुप्टिरनेनेति करणम् = उत्तरगुणरूपम् । यद्वा करणंपिण्डविशुद्धधादि, एतदपि सप्ततिसंख्यकम् , उक्तञ्चउसे अर्थात् मूलगुणको 'चरण' कहते हैं । अथवा व्रत आदि 'चरण' कहलाते हैं । वे ७० सत्तर हैं । कहा भी है -
पांच महाव्रत, दश श्रमणधर्म, सत्रह संयम, दश वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियां, रत्नत्रय - (सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र), बारह प्रकारका तप, चार क्रोधादिविजय-(क्रोधविजय, मायाविजय, मानविजय, लोभविजय), यह ७० सत्तर प्रकारका 'चरण' कहलाता है।
चरण की पुष्टि करने वाला 'करण' कहलाता है । करण का अभिप्राय है• उत्तर गुण । अथवा पिण्डविशुद्धि आदिको करण कहते हैं। इसके भी सत्तर ७० भेद हैं। कहा भी है :
પાંચ મહાવ્રત, દસ શ્રમણધર્મ, સત્તર સંયમ, દશ વૈયાવૃત્ય, નવ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિએ, રત્નત્રય-સમ્યજ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર) બાર પ્રકારને તપ, ચાર ક્રોધાદિવિજય,-(ક્રોધવિજય, માનવિજય, માયાવિજય, લોભવિયે) આ પ્રમાણે सित्तर (७०) २॥ १२५ ४उपाय छे. ॥ १ ॥
ચરણની પુષ્ટિ કરવા વાળા કરણ કહેવાય છે. કરણને અભિપ્રાય છે-ઉત્તર ગુણ, અથવા પિંડવિશુદ્ધિ આદિને કરણ કહે છે, તેના પણ સિત્તેર ભેદ છે. કહ્યું પણ છે –
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"पिंडपिसोही४ समिई५, भावण१२.पडिमा१२ प इंदियनिरोहो५। . पडिलेहण२५ गुत्तीभो३, अभिग्गहा४ चेव करणं तु ॥ १ ॥” इति । :
तयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः (१)। धर्मकथानुयोगादयश्चरणकरणयोर्भव्यजीवान् भवर्तयन्तीति तेपां. चरणकरणागतंया प्राधान्यमेतस्यानुयोगस्य, अत एवास्य प्राथम्यम् । उक्तञ्चआत्मन् ! जानीहिं पूर्व चरणकरणयोराश्रये यन्महत्त्वं '
मोहं दूरीकरोति प्रकटयति पर निश्चयात्मस्वरूपम् । ' " चार पिण्डविशुद्धि, पांच समितियां, बारह भावना, ' चारह पडिमा, पांच इन्द्रियनिरोध, पचीस प्रतिलेखना, तीन गुप्तियां, चार अभिग्रह, यह सत्तर ७० प्रकारका करण कहलाता है।
इस तरह चरण और करण के अनुयोग को, अर्थात् भगवान् की वाणी के अनुकूल व्याख्यान को चरणकरणानुयोग कहते हैं। तात्पर्य यह है कि---जिस शास्त्र में चारित्र सम्बन्धी निरूपण है, वह चरणकरणानुयोग समझना चाहिए।
धर्मकथानुयोग आदि शेष तीन अनुयोग' भन्यजीवों को चरण और करण में प्रवृत्त करते हैं, अतः वे इसी अनुयोग के अङ्ग हैं। इस प्रकार चारों अनुयोगो में 'चरणकरणानुयोग ही प्रधान है । प्रधान होने के कारण ही इस की गणना सर्वप्रथम की गई है। कहा भी है--
हे आत्मन् ! चरण और करण में जो महत्त्व है, उसे पहले समझ ले । वह मोह को निवारण करता है, भात्मा के निश्चय अर्थात् वास्तविक स्वरूप को प्रकट करता है, वह सब
“ચાર પિડવિશુદ્ધિ, પાંચ સમિતિએ, બાર ભાવના, બાર, ડિમા પાંચ ઈન્દ્રિય નિષેધ, પચીશ પ્રતિલેખના, ત્રણ ગુપ્તિએ, ચાર અભિગ્રહ, આ સર્વ કરવું ४वाय छे." ॥१॥ * આ પ્રમાણે ચરણ અને કરણના અનુગને અર્થાત્ ભગવાનની વાણીને અનુકૂલ વ્યાખ્યાનને ચરણકરણાનુગ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-જે શાસ્ત્રમાં ચારિત્રસઍધી , નિરૂપણ છે તે ચરકરણનુગ સમજવું જોઈએ. તે
ધર્મકથાનુગ આદિ બાકીના ત્રણ અનુગ ભવ્ય જીને ચરણ અને કરણમાં પ્રવૃત્ત કરે છે તેટલા માટે તે પણ એ અનુગનું અંગ છે. આ પ્રકારે'ચારેય અનુગોમાં ચરણકરણનુયાગ પ્રધાન-મુખ્ય છે.
ખ્ય હોવાના કારણે જે તેનીં ગણના સૌથી પ્રથમ કરી છે. કહ્યું પણ છે – • છે આમની ચરણ અને 'કરણમાં જે મહવા છે, તેને પ્રથમ સમજી લે તે
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा आधारोऽयं गुणानामपनयति सदाऽनांदिमिथ्यात्वदोपं, .
हेतुर्योऽयं विशुद्धेर्दमयति नितरामिन्द्रियाणि द्रुतं यः ॥ १॥.. सम्यग्ज्ञानस्य दाता शिवसुखजनकः कर्मधूलेश्च हर्ता,
कर्ता विद्योतनस्याऽऽत्मनि सकलगुणस्याऽद्वितीयः प्रकाश। आत्मन्नेवात्मनीनश्चरणकरणयोराश्रयः काऽत्र शङ्का ?, . शङ्कारो नैप लोकः परिणतिविरसः किं सुखाशां करोपि ? ॥२॥
(२) अथ धर्मकथानुयोगःभवनलनिधी निपतन्तं भन्यजातं धारयति-तरिरिव तारयति शुभस्थान मापयतीति धर्मः, तस्य कथा भगवद्देशनालक्षणो वाक्यमवन्धः धर्मकथा । अहिंसादिप्ररूपणा वा धर्मकथा। अथवा श्रुतचारित्रलक्षणधर्मप्रधानकथा-धर्मकथा। यद्वा गुणों का आधार है, और अनादिकालीन मिथ्यात्व दोप को दूर करता है, विशुद्धि का कारण है, और इन्द्रियों को शीत्र ही दमन करने वाला है ॥ १ ॥ ___सम्यग्ज्ञान का दाता है, मोक्षसुख उत्पन्न करने वाला है, कर्मरूपी धूलको दूर करने वाला है, आत्मामें उद्योत-प्रकाश करने वाला है और समस्त गुणों का अद्वितीय प्रकाशक है, हे आत्मन् ! चरण और करण का आश्रय लाभकारी है, इस विषयमें शंका (को स्थान ही कहां है ? अर्थात् निश्चितरूपसे ही वह कल्याण करने वाला है, यह लोक (संसार) तो परिणाम में एकदम नीरस है, तू इस से सुख की अभिलापा क्यों करता है ॥ २ ॥
(२) धर्मकथानुयोग .... संसाररूपी सागरमें डूबते हुए भन्य जीवों को धारण करनेवाला-नौका के समान મોહનું નિવારણ કરે છે, આત્માના નિશ્ચય અર્થાત્ વાસ્તવિક સ્વરૂપને પ્રગટ કરે છે, તે સર્વ ગુણેને આધાર અને અનાદિ કાલના મિથ્યાત્વ દોષને દૂર કરે છે, વિશુદ્ધિનું કારણ અને ઈન્દ્રિયેના શીઘ્ર દમન માટે તે સહાયક છે ૧ ૬. સમ્યગજ્ઞાન દેનાર છે અને મોક્ષસુખ ઉત્પન્ન કરવાવાળું છે. કર્મરૂપી ધૂળને ६२. ४२वावाणुछ. मात्मामा द्योत- श ४२१., वाणु.छ. अने, समस्त . गुयोनी અદ્વિતીય પ્રકાશક છે. હે આત્મન ! ચરણ અને કરણને આશ્રય કલ્યાણકારી છે આ વિષયમાં શંકાને સ્થાન જ ક્યાં છે ? અર્થાત્ નિશ્ચિત રૂપથી જ તે કલ્યાણ કરવાઘાળું છે; આ લેક (સંસાર) તે પરિણામે એકદમ નીરસ-રસરહિત છે, તું તેમાં सुमनी मलिहा! ॥ भाटे ४२ छ ? ॥ २ ॥ ..., . . . (२) धर्भयानुयार ' . ... ... .
સંસારરૂપી સાગરમાં ડુબતા ભવ્ય જીને ધારણ કરવાવાળી, વહાણ પ્રમાણે
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भाषारामले शुभाशुभकर्मविपाकोपदर्शनं धर्मकथा । किन - तिर्थरचक्रवादिचारित्रवर्णनं धर्मकथा । तस्या अनुयोगः धर्मकथानुयोगः।
धर्मकथा चतुर्विधा-(१)-आक्षेपणी-(२)-विक्षेपणी- (३)-संवेदनी(४)-निवेदनीभेदात् ।
आक्षेपण्यादिधर्मकथाभिराक्षिप्ताः विक्षिप्ताः संवेदिता निवेदिताः सन्तो भव्यप्राणिनश्चारित्रं प्राप्नुवन्ति ।
किनारे लगादेने वाला, अर्थात् शुभस्थानमें पहुंचा देनेवाला धर्म कहलाता है। उस धर्म की कथा अर्थात् भगवान की देशना जिसमें पाई जाय उसे धर्मकथा कहते हैं । अथवा अहिंसा आदि की प्ररूपणा धर्मकथा कहलाती है । अथवा श्रुत और चारित्र की प्रधानता वाली कथा को धर्मकथा कहते हैं। अथवा शुभ और अशुभ कर्मफल को प्रकाश करना धर्मकथा है । या तीर्थकर चक्रवती आदि महापुरुषों का चरित्र वर्णन करना धर्मकथा है। उसके अनुयोग-व्याख्यान को धर्मकथानुयोग कहते हैं।
___ धर्मकथा चार प्रकार की है:-(१) आक्षेपणी (२) विक्षेपणी (३) संवेदनी और (१) निवेदनी।
आक्षेपणी आदि धर्मकथाओं से आक्षिप्त संवेदित और निर्वेदित (विरक्त) हुए भन्म जीव चारित्र प्राप्त करते हैं।
કિનારે લઈ જનારી, અર્થાત શુભ સ્થાનમાં પહોંચાડી દેવા વાળી વસ્તુને ધર્મ કહેવામાં આવે છે. તે ધર્મની કથા અથત ભગવાનને ઉપદેશ જેમાં જોવામાં આવે છે. તેને ધર્મકથા કહે છે. અથવા અહિંસા આદિની પ્રાણા તે ધર્મકથા કહેવાય છે. અથવા તે શ્રત અને ચારિત્રની પ્રધાનતાવાળી કથાને ધર્મકથા કહે છે, અથવા શુભ અને અશુભ કર્મફલને પ્રગટ કરવું તે ધર્મકથા છે. અથવા તીર્થકર, ચક્રવર્તી આદિ મહાપુરૂના ચરિત્રનું વર્ણન કરવું તે ધર્મકથા છે. તેના અનુગ-વ્યાખ્યાનને ધર્મકથાનુગ કહે છે.
ધર્મકથા ચાર પ્રકારની છે. (૧) આક્ષેપણી (૨) વિક્ષેપણ (૩) સંવેદની અને (४) निवेनी.
આપણી આદિ ધર્મકથાએથી આક્ષિપ્ત, વિક્ષિપ્ત, સંવેદિત અને નિર્વેદિત (વિરક્ત થયેલા ભવ્ય જીવ ચારિત્ર પ્રાપ્ત કરે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
(१) आक्षेपणी- . आतिप्यते-मोहं निराकृत्य चारित्रं प्रति समाकृष्यते श्रोताऽनयेति-आक्षेपणी,
उक्तञ्च
"स्थाप्यते सत्पथे श्रोता, यया साऽऽक्षेपणी कथा।
यथेषुकार कमला,-चती धर्मे व्यतिष्ठिपत् ॥ १॥" वाल्यावस्थतनयद्वयसमन्वितः सपत्नीको भृगुपुरोहितः सर्वस्वं परिहाय दीक्षार्थ सदनान्निर्ययौ । तदीयं सकलं बमु परिगृहीतं पत्येति विदित्वा कमलावती राज्ञी वैराग्यमुपगता स्वपतिमिपुकारं नृपति प्रत्यवोधयत् । 'राजन् ! कि वान्ताशिवद्
..' (१) आक्षेपणी - जिस कथा के द्वारा श्रोता मोह से हटकर चारित्र के प्रति आकर्षित होते हैं, वह आक्षपणी धर्मकथा कहलाती है, कहा भी हैं -
"जिस के द्वारा श्रोता सन्मार्ग में स्थापित किये जाते हैं, उसे आक्षेपणी कथा- कहते हैं। जैसे कमलावतीने इपुकार को धर्म में स्थिर किया ॥१॥"
छोटी उम्र वाले अपने दो बालकों के साथ पत्नीसहित भृगु पुरोहित सर्वस्व त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने के लिये अपने घर से निकला । उस पुरोहित का समस्त धन मेरे पति (राजा) ने ले लिया है, ऐसा जान करके रानी कमलावती को वैराग्य हो गया. और उसने अपने पति राजा इपुकार को समझाया-" महाराज ! जिस धनका भृगु पुरोहित ने
(१) माक्षेपी. જે કથા દ્વારા શ્રોતા મહિથી હઠી જઈને ચારિત્ર તરફ આકર્ષિત થાય છે. તે આક્ષેપણી ધર્મકથા કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે –
* જેનાથી શ્રોતાને સન્માર્ગમાં સ્થાપિત કરી શકાય છે તેને આક્ષેપણ કથા કહે છે, જેવી રીતે મલાવતીએ પુકારને ઘર્મમાં સ્થિર કર્યો. ૧ -
નાની ઉમરવાળા પિતાના બે બાળકેની સાથે તથા પત્ની સહિત ભગુ પુહિત સર્વસ્વ ત્યાગ કરીને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે પિતાના ઘેરથી નીકળ્યા, તે પુરોહિતનું તમામ ધન મારા પતિ (રાજા) એ લઈ લીધું છે. એવું જાણીને રાણી કમલાવતીને વૈિરાગ્ય ઉત્પન્ન થઈ ગયા અને તેણે પિતાના પતિ રાજા ઈષકારને સમજાવ્યા
A
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आचाराको
२६
भोगमाशंससे ?' इत्यादि । अथ कमलावतीवचनश्रवणक्षणसंजातमतिबोध इषुकारः कमलावती च दीक्षार्थ सदेव निष्क्रान्तौ ।
(२) विक्षेपणी
विक्षिप्यते =सम्यग्वादगुणोत्कर्पप्रदर्शनेन मिथ्यावादादपसार्यते श्रोताऽनयेति विक्षेपणी । उक्तञ्च -
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" सम्यग्वादप्रकर्षेण, मिथ्यावादस्य खण्डनम् ।
यया विक्षेपणी सैव यथा केशी मदेशिनम् " ॥ २ ॥
मिथ्यावादादपसारयामासेति शेषः ।
वमन कर दिया, वह धन भोगोगे ? आप वमन का सेवन करने वालों को तरह भोग की लालसा क्यों करते हैं ? " इत्यादि । इपुकार को कमलावती के वचन सुनते ही वैराग्य हो आया और राजा तथा रानी दोनों साथ-साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ॥ १ ॥
(२) विक्षेपणी
सम्यग्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद या सिद्धान्त के गुणों का दिग्दर्शन कराकर श्रोताओं को मिथ्यावाद अर्थात् एकान्तवाद स हटाने वाली कथा विक्षेपणी कहलाती हैं। कहा भी है .
-
“મહારાજ ! જે ધનને ભૃગુ પુરાહિત વમન કરી નાખ્યુ છે તે ધનને આપ ભોગવશે ? આપ વમનનું સેવન કરવાવાળાની પેઠે ભાગની લાલસા શા માટે કરી છે ? ? ઈત્યાદિ
રાજા ઇંકાર પૈાતે કમલાવતીના વચન સાંભળતાં જ વૈરાગ્ય પામ્યા અને રાજા તથા રાણી અને સાથે-સાથે દીક્ષા ગ્રહણ કરી. ।। ૧ ।।
(२) विक्षेपायी
સમ્યવાદ અર્થાત્ અનેકાન્તવાદ, અથવા સત્યસિદ્ધાંતના ગુણાનુ દિગદર્શન કરાવીને શ્રોતાઓને મિથ્યાવાદ અર્થાત્ એકાન્તવાદથી દૂર કરાવનારી કથા તે વિક્ષેપણી था देवाय छे. पशु छे:--
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आचारचिन्तामणि- टीका अबतरणों
રહે
केशिभ्रमणतः करुणारसपरिपूर्णमास्तिकतावादमाकर्ण्य प्रदेशी नाम भूपालो नास्तिकतावादं परित्यज्य द्वादशव्रतधारी श्रावको भूत्वा मृत्वा च मथमकल्पे सूर्याभनामा देवो वभूव ।
(३) संवेदनी -
संवेद्यते = संसारासारतामदर्शनेन मोक्षाभिलाप उत्पाद्यते ऽनयेति संवेदनी ।
उक्तश्व-
" यस्याः श्रवणमात्रेण, मुक्तिवाञ्छा प्रजायते ।
संवेदनी यथा मल्ली, पड् नृपान् प्रत्यबोधयत् || ३॥ "
सम्यग्वाद का उत्कर्ष दिखला कर मिथ्यावाद अर्थात् मिथ्यामान्यता का खण्डन करने वाली विक्षेपणी कथा है । जैसे - केशी श्रमणने प्रदेशी राजा को मिथ्यावाद से हटाया था " ॥ २ ॥
""
श्री केशी श्रमण के श्रीमुखसे करुणा-रस से परिपूर्ण आस्तिकवाद सुन कर प्रदेशी नामक राजा नास्तिकवाद त्याग कर बारह व्रतधारी श्रावक हो कर मरकर प्रथम सौधर्म कल्प में सूर्याम नामक देव हुआ ।
(३) संवेदनी
नो धर्मकथा संसार की असारता प्रदर्शित करके भव्य जीवों में मोक्षकी अभिलाषा जागृत करती है, वह संवेदनी धर्मकथा है । कहा भी है
“ સમ્યવાદના ઉત્કર્ષ બતાવીને મિથ્યાવાદ અર્થાત્ મિથ્યા માન્યતાનું ખંડન કરવાવાળી વિક્ષેપણી કથા છે. જેવી રીતે કેશી શ્રમણે પ્રદેશી રાજાને મિથ્યાવાદથી भुत र्ध्या ता ॥ २ ॥”
શ્રી કેશી શ્રમણના શ્રીમુખથી કરૂણારસથી પરિપૂર્ણ આસ્તિકવાદ સાંભળીને પ્રદેશી નામના રાજાએ નાસ્તિકવાદ ત્યાગ કર્યાં, ખાર વ્રતધારી શ્રાવક થઈને મરીને પ્રથમ સૌધ કલ્પમાં સૂયૅભ નામના દેવ થયા.
( 3 ) सवेहनी
જે કથા સસારની અસારતા બતાવીને ભવ્યજીવામાં મૈાક્ષની અભિલાષા ‘જાગ્રત रे छे, ते सहनी धर्मस्था छेउ पशु छे:--
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भोगमाशंससे ?' इत्यादि । अथ कमलावतीचचनश्रवणक्षणसंजातमतिबोध इपुकारः कमलावती च दीक्षार्थी सहेव निष्क्रान्तौ ।
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(२) विक्षेपणीविक्षिप्यते =सम्यग्वादगुणोत्कर्पमदर्शनेन मिथ्यावादादपसार्यते श्रोताऽनयेति विक्षेपणी । उक्तञ्च -
"
सम्यग्वादमकर्पेण, मिथ्यावादस्य खण्डनम् ।
यया विक्षेपणी सैव, यथा केशी प्रदेशिनम् " ॥ २ ॥
मिथ्यावादादपसारयामासेति शेषः ।
वमन कर दिया, वह धन भोगोगे ? आप वमन का सेवन करने वालों की तरह भोग की लालसा क्यों करते हैं ? " इत्यादि । इपुकार को कमलावती के वचन सुनते ही वैराग्य हो आया और राजा तथा रानी दोनों साथ-साथ दीक्षा ग्रहण कर लो ॥ १ ॥
(२) विक्षेपणी
सम्यग्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद या सिद्धान्त के गुणों का दिग्दर्शन कराकर श्रोताओं को मिथ्यावाद अर्थात् एकान्तवाद स हटाने वाली कथा विक्षेपणी कहलाती हैं । कहा भी है।
“મહારાજ ! જે ધનને ભૃગુ પુરાહિતે વમન કરી નાખ્યુ છે તે ધનને આપ ભાગવશે ? આપ વમનનું સેવન કરવાવાળાની પેઠે ભેાગની લાલસા શા માટે કરા છે? ઈત્યાદિ
રાજા ઈક્ષુકાર પાતે કમલાવતીના વચન સાંભળતાં જ વૈરાગ્ય પામ્યા અને રાજા तथा रार्थी' भन्ने साथै साथै दीक्षा ग्रहषु पुरी. ॥१॥
(२) विक्षेप
સમ્યવાદ માઁત અનેકાન્તવાદ, અથવા સત્યસિદ્ધાંતના ગુણાનુ દિગદર્શન કરાવીને શ્રોતાઓને મિથ્યાવાદ અર્થાત્ એકાન્તવાદથી દૂર કરાવનારી કથા તે વિક્ષેપણી था उवाय छे. पशु छे:--
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणों - कमलकोमलकान्ताकारः शालिभद्रकुमारः श्रीमहावीरतीर्थङ्करकथितधर्मदेशनाश्रवणसमनन्तरं त्वरया वैराग्यमुपगतश्चारित्रं प्राप । उक्तश्च- . "भवस्य सर्वे क्षणभद्रं मुख,
विदन्ति ये धर्मकथानुरागिणः। विहाय ते भोगमनन्तदुःखद,
चरन्ति चारित्रवने विरागिणः" ॥ ४ ॥ उत्तराध्ययनमूत्रस्यैकोनत्रिशेऽध्ययने धर्मकथाफलमाह
"धम्मकहाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? । धम्मकहाए णं जीवे निज्जर जणयइ । धम्मकहाए णं पथयणं पभावेइ । पवयणपभावणेणं जीवे आगमेसस्स भदताए कम्म निबंधई।"
कमल के समान कोमल और कान्तिमान आकृति वाला शालिभद्र कुमार श्री महावीर भगवान् को धर्मदेशना सुनते ही वैराग्य को प्राप्त हुआ, और उसने चारित्र धारण कर लिया। कहा भी है :
"धर्मकथा में अनुराग रखने वाले जो पुरुष संसार के सुख क्षणभर समझ लेते हैं, वे अनन्त दुःख देने वाले भोगका त्याग करके, विरागी हो कर चारित्ररूपी बगीचे में विहार करते हैं । ॥ १ ॥
उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में धर्मकथा का फल बतलाया गया है। वह इस भांति है
| કમલના જેવા કેમલ અને કાન્તિમાન આકૃતિવાળા શાલિભદ્રકુમાર શ્રી મહાવીર ભગવાનની ધર્મદેશના સાંભળતાં જ રાજ્યને પ્રાપ્ત થયા અને ચારિત્ર ધારણ કર્યું
ધર્મકથામાં પ્રીતિ રાખવાવાળા જે પુરૂષ સંસારના સુખને ક્ષણભંગુર સમજી લે છે તે અનન્ત દુઃખ આપવાવાળા ભેગને ત્યાગ કરીને વૈરાગ્ય ધારણ કરી चारित्र३थी या विडार ४२. छ. ॥ १ ॥" : ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ઓગણત્રીસમાં અધ્યયનમાં ધર્મકથાનું ફલ બતાવ્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે--
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, मल्लीकुमारी पड़ भूमिपालान् स्वस्मिन्ननुरक्तान् विज्ञाय, तेभ्यः संसारासारतां प्रदय मोक्षामिलापं जनयामास ।। .
(४) निवेदनीनिर्वेधते-विषयभोगेम्यो विरज्यते श्रोताऽनयेति निवेदनी, उक्तञ्च... " यदाऽऽकर्णनमात्रेण, वैराग्यमुपजायते ।
निर्वेदनी यथा शालि,-भद्रो वीरेण वोधितः "॥४॥
"जिस कथा को श्रवण करने मात्र से ही मोक्ष की आकांक्षा उत्पन्न होती है, वह संवेदनी धर्मकथा है । जैसे-मल्ली नामक.राजकन्याने छह राजाओं को बोध दिया"||३||
छह राजा मेरे उपर अनुरक्त हैं, यह जानकर मल्लीकुमारीने उन्हें संसारकी निःसारता समझाई और उन में मुक्ति की अभिलापा उत्पन्न कर दी । मल्ली कुमारी का वह उपदेश संवेदनी धर्मकथा है ॥ ३ ॥
(४) निर्वेदनी . . . . . . . . : जो कथा श्रोताओं को विषयभोगसे विरक्त बनाती है, वह निर्वेदनी धर्मकथा कहलाती है। कहा भी है :__ "जिसका श्रवण करते ही वैराग्य उत्पन्न होता है, वह निर्वेदनी धर्मकथा है। जैसे भगवान् महावीरने शालिभद्र को प्रतिबोध दिया" ॥ ४ ॥
“જે કથા સાંભળવામાત્રથી જ મેક્ષની ઈરછા ઉત્પન્ન થાય છે તે સંવેદની ધર્મકથા છે. જેવી રીતે મલ્લી નામની રાજકન્યાએ છ રાજાઓને બેધ આપે. ”
છ રાજા મારા ઉપર આસક્ત-પ્રેમવાળા છે. એવું જાણીને મંત્રી કુમારીએ તેઓને સંસારની નિસારતા સમજાવી અને તેમાં મુક્તિની અભિલાષા ઉત્પન્ન पुश, भीमाशनात पढेश सहनी धर्मथा छ. . . .
(४) निवनी જે કથા શ્રોતાઓને વિષય ભેગથી વિરક્ત બનાવે છે તે નિવેદની કહેવાય છે.
छ:
જે વણું કરતાં જ વૈરાગ્યે ઉત્પન્ન થાય છે, તે નિજની ધર્મકથા છે. २वीरीत पान महावीरे शासिलदने प्रतिमा माच्या ॥४॥" .
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा सम्यक्त्वमुपस्थापयन्, कर्मकोटि क्षपयति । उत्कृष्टरसायनपरिणाममसौ लभेत चेत् , त्रैलोक्यपवित्र तीर्थङ्करनामगोत्रं समुपार्जयति। ।
अपि चासौं स्वतःमकाशस्वभावस्यापि जिनशासनस्य 'मिथ्यात्वादिविमिरातदेशकालादिषु यथोचितमचारलक्षणाराधनतः मभावकपदं विभर्ति । उक्तञ्च
" पावयणी धम्मकही; वाई लद्धीसरो तपस्सी य।
विज्जासिद्धो य कवी, अद्वैव पभावगा भणिया ॥ १" और सम्यक्त्व की उपस्थापना करता हुआ कर्मकोटि को खपाता है । कदाचित् परिणाम में उत्कृष्ट रसायन आ जाय तो वह त्रिलोक में पवित्र तीर्थकर गोत्र का भी उपार्जन करता है।
जिन भगवान का शासन स्वतः उज्ज्वल है, तथापि जिस देशविशेष और काल विशेप में मिथ्यात्व का अन्धकार फैल जाता है, वहां भगवान के शासन का प्रचाररूप आराधन करके धर्मकथाकार प्रभावक पद प्राप्त करता है । कहा भी है :
"प्रभावक आठ प्रकार के हैं :- (१) प्रावचनिक, (२) धर्मकथी, (३) वादी, (8) लब्धियों का स्वामी, (५) तपस्वी, (६) विद्यावान्-रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्या के धारक, (७) सिद्ध-वचनसिद्धि आदि सिद्धियों वाला, (८) कवि"।
તે ધર્મકથા કહેનાર અનેક–અનેક ભવ્ય જીને દીક્ષિત કરે છે અને સંસાર રૂપી કુવામાં પડવાવાળા પ્રાણીઓને રક્ષણ કરવાનું આશ્વાસન દેવાવાળા જિનશાસનને મહિમા વધારતા થકા સમસ્ત જગતને જિનશાસનમાં પ્રીતિવાળા બનાવી મિથ્યાત્વ નિવારણ અને સમ્યકત્વની સ્થાપના કરી કમેકેટીને ખપાવે છે. કદાચિત પરિણામમાં ઉત્કૃષ્ટ રસાયન આવી જાય તો ત્રિલોકમાં પવિત્ર તીર્થકર ગોત્રની પણ પ્રાપ્તિ
જિન ભગવાનનું શાસન પતે ઉજ્જવલ છે તે પણ જે દેશવિશેષ અને કાલવિશેષમાં મિથ્યાત્વને અધિકાર ફેલાઈ જાય છે, ત્યાં ભગવાનના શાસનપ્રચારરૂપ આરાધન કરીને ધર્મકથાકાર “પ્રભાવક”નું પદ પ્રાપ્ત કરે છે. કહ્યું પણ છે
"प्रमा४ मा ४२॥ छ. .(१) प्रापयनि:, (२) धर्म था।२ (3) पाही, (४) सन्धिमानी थी, (५) तपस्वी, (९) विधावान-शक्षिी -प्रज्ञप्ति माहिविधान। धा२४, (७) सिद्ध-पयनसिद्धिमाहिसिद्धिमावा, (८) वि" ॥१॥
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. . .. आधाराने आक्षेपण्यादिचतुर्विधधर्मकथासंचारोदावितानन्दधारातरङ्गसमुल्लसितस्त्रान्तर भूतभव्यभावितात्मा धर्मकथी . जन्मजरामरणादिभीपणपीनपाठीनमीनमा गणसंक्रमणमियवियोगाप्रियसंयोगवडवानलाकुलितापारसंसारसागरात् स्वयं तरति, परानपि तारयति ।
स च प्रभूतभव्यान् प्रवाजयन् भवकूपपतत्माणत्राणसमाश्वासनजिनशासनमहिमानमुपहयन् समस्तमेव जगत् जिनशासनरसिकं कुर्वन् , मिथ्यात्वमुत्यापयन् ।
" भगवन् ! धर्मकथा से जीव को क्या लाभ होता है ? उत्तर-धर्मकथा से जीव को निर्वाण की प्राप्ति होती है । धर्मकथा से जीव प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना से आगे के लिये भद्र (शुभ) कर्मों का वध करता है" ॥ ४ ॥
आक्षेपणी आदि चार प्रकार की धर्मकथा से उत्पन्न होने वाली आनन्द की धाराओं की तरङ्गों से जिन का अन्तःकरण उल्लास को प्राप्त हुआ है, ऐसे अनेक भावितात्मा भव्य धर्मकथा करने वाले पुरुष जन्म जरा और मरण रूपी भयानक और विशाल मगरमच्छोसे व्याप्त, एवं इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग रूपी वडवानल से आकुल च्याप्त अपार संसार सागर से स्वयं भी पार होते हैं और दूसरों को भी पार करते हैं।
___ वह धर्मकथाकार अनेकानेक भव्य जीवों को दीक्षित करता हुआ, संसाररूपी कूप में पडनेवाले' प्राणियों को त्राण करने का आश्वासन देने वाले जिनशासन की महिमा बढाता हुआ समस्त जगत् को जिनशासन का रसिक अनुरागी बनाता हुआ मिथ्यात्व की उत्थापना
ભગવન્! ધર્મકથાથી જીવને શું લાભ થાય છે ?
કે, ઉત્તરધર્મકથાથી જીવને નિજ રાની પ્રાપ્તિ થાય છે, ધર્મકથાથી જીવ પ્રવચનની પ્રભાવના કરે છે, પ્રવચનની પ્રભાવનાથી આગળ શુભ કર્મોને બંધ કરે છે.”
આપણી આદિ ચાર પ્રકારની ધર્મકથાથી ઉત્પન્ન થનારા આનન્દની ધારાઓના તરંગોથી જેનું અંતઃકરણ ઉલ્લાસને પ્રાપ્ત થયું છે, એવા અનેક ભાવિતાત્મા. ભવ્યધર્મકથા કરવાવાળા પુરૂષ જન્મ. જરા અને મરણરૂપી ભયાનક અને વિશાલ મગરમચ્છથી વ્યાપ્ત એ પ્રમાણે ઈષ્ટ–વિગ અને અનિષ્ટ સંયોગરૂપી વડવાનલથી સહિત અપાર સંસારસાગરથી પિતે પણ પાર ઉતરે છે, અને બીજાને પણ પાર तारे ,
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आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा
विणा सिद्धंजणं भूमि - णिहाणं क्षेत्र लभ । सुयचारितधम्मेण, विणा णो णाणमप्पणो ॥ ३ ॥
अप्पणाणं विणा णेव
तत्तातत्तविणिच्छओ । जायएऽमियभावणा ॥ ४ ॥ तराऽमियभावणं ।
खरगस्सेणिरप्पई ॥ ५ ॥
तं विणा णेव भन्त्राणं विमुद्धज्झाणसंपत्ती,
विणा विसृद्धझाणं णो,
अन्नोवारण केणावि, खवगस्सेगिणा विणा । वितीयपाओ झुकम्स, झाणस्स नहि लभई ॥ ६ ॥
छाया-
श्रुतचारित्रधर्मेण विना नो ज्ञानमात्मन ॥ ३ ॥ आत्मज्ञानं विना नैव, तस्वा तत्त्वविनिश्वयः ।
तं विना नैव भव्यानां जायतेऽमृतभावना ॥ ४ ॥ विशुद्धध्यान संमाप्ति, नन्तराऽमृतभावनाम् ।
विना विशुद्धध्यानं नो, क्षपकश्रेणिराप्यते ॥ ५ ॥ अन्योपायेन केनापि, क्षपकथेणिना विना ।
द्वितीयपादः शुक्लस्य, ध्यानस्य नहि लभ्यते ॥ ६ ॥
-
३३
सिद्धञ्जन के अभाव में पृथ्वी के भीतर का खजाना नहीं प्राप्त किया जा सकता, इसी प्रकार श्रुत चारित्र के बिना आत्मा को सम्यज्ञान नहीं होता ॥ ३ ॥
आत्मज्ञान के अभाव में तत्त्व-अतत्व का निश्चय नहीं हो सकता, और तत्व अतत्त्व का निश्चय हुए विना भव्य जीवों को अमृतभावना नहीं हो सकती ॥ ४ ॥
अमृतभावना के अभाव में विशुद्ध ध्यान की प्राप्ति नहीं होती, और विशुद्ध ध्यान के बिना क्षपकश्रेणी पर आरोहण नहीं हो सकता ॥ ५ ॥
क्षपक श्रेणी के सिवाय किसी अन्य उपाय से शुक्ल-ध्यान का एकत्ववितर्क अविचार नामक दूसरा पाया नहीं प्राप्त किया जा सकता || ६ ||
સિદ્ધાંજન વિના પૃથ્વીની અંદરના પાને પ્રાપ્ત કરી શકાતા નથી, એવી જ रीते श्रुतयारित्र विना आत्मज्ञान थतुं नथी. ॥ 3 ॥
આત્મજ્ઞાનના અભાવથી તત્ત્વ-મતત્ત્વને નિશ્ચય થઈ શકતે નથી, અને તત્ત્વ– तत्त्वनो निश्चय र्या विना लव्य लवाने अमृतलावना थती नथी ॥ ४ ॥ અમૃતભાવનાના અભાવથી વિશુદ્ધ ધ્યાનની પ્રાપ્તિ થતી નથી; અને વિશુદ્ધ
प्र. मा-.५.
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आधाराने __ अथ धर्ममहिमोच्यते
"जम्मतरेवि मुलहा, पिउभाउमुयाइया। . परंतु मुपचारित्त, - धम्मो णो मुलहो भुवि ॥१॥ . . __. वारसंगावणे · धम्म, णिच्छपव्यवहारिणो। ... लहंते संजया भन्ना, मत्तिपण्णेण ननहा ॥ २ ॥
- संस्कृतच्छायाजन्मान्तरेऽपि सुलभा, -पिट-भाव-मुतादयः ।
परन्तु श्रुतचारित्र, -- धर्मो न मुलभो भुवि ॥१॥ द्वादशाङ्गापणे धर्म, निश्चयव्यवहारिणः ।
लभन्ते संयता भव्या,-भक्तिपण्येन नान्यथा॥२॥ तथा-विना सिद्धाञ्जनं भूमि,-निधानं नैव लभ्यते
धर्म-महिमा--- : "पिता, भ्राता और पुत्र आदि तो जन्मान्तर में आगामी भव में भी सुलभ हैं किन्तु संसार में श्रुत-चारित्र धर्म सुलभ नहीं है" ॥ १ ॥
. ..."बादशाहीरूपी दुकान में निश्चयनय और व्यवहारनय को जानने वाले संयमी पुरुष भक्तिरूपी मूल्य चुकाकर धर्म प्राप्त कर सकते हैं, ऐसे किये विना धर्म की प्राप्ति नही हो सकती" ॥ २ ॥
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महिमा
“પિતા ભાઈ અને પુત્ર વગેરે તે આગલા ભવમાં--હવે પછીના ભાવમાં પણ સુલભ છે, પરંતુ સંસારમાં કૃત-ચરિત્ર ધર્મ સુલભ નથી” ૧n : . .
દ્વાદશાંગીરુપી દુકાનમાં નિશ્ચયનય અને વ્યવહારનયને જાણવાવાળા સંચમી પુરુષ ભક્તિરૂપી મૂલ્ય આપીને ધર્મ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. એમ કર્યા વિના ધમની 'आशि थती नथी." ॥ २॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
अथ गणिवानुयोगःगणितं = संख्यानं तस्यानुयोगो-गणितानुयोगः--
जीवाजीवादिपद्रव्यतत्पर्यायपरिगणनं गणितानुयोगसाध्यम् । तेन जिनोक्तपदार्थानां यथावस्थितं परिगणनात् सम्यक्त्वशुद्धिस्ततश्चारित्रशुद्धि ।
__ पूर्वानुपूर्व्यादीनां भङ्गजालादीनां च परिगणनया चित्तस्थैर्यम् , ततश्च कपायानलप्रशमनम् , तेन चारित्रनैमल्यम् ।
अपि च गणितानुयोगेन भगवतः केवलज्ञानादिगुणपर्यायाणामानन्त्यमावेदयति । संख्यानमतिक्रान्तानां तेपां संख्यातुमशक्यता संख्याज्ञान विना नैव
(३) गणितानुयोगगणित अर्थात् संख्याका अनुयोग गणितानुयोग कहलाता है।
जीव, पुद्गल आदि छह द्रव्यों की गणना करने के लिए, तथा द्रव्यों की पर्यायों की गिन्ती करने के लिए गणितानुयोग की आवश्यकता होती है । गणितानुयोगसे जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट पदार्थों की ठीक-ठीक गणना होने से सम्यक्त्व की शुद्धि होती है, और सम्यक्त्व की शुद्धि से चारित्र की शुद्धि होती है ।
पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी तथा अनानुपूर्वी आदि से, तथा भङ्ग-जाली की गणना करनेसे चित्तमें स्थिरता आती है, और चित्तकी स्थिरता से कपायरुपी अग्नि शान्त होती है और उससे चारित्र निर्मल होता है।
गणितानुयोग ही भगवान के केवलज्ञान आदि गुण एवं पर्यायाँकी. अनन्तता को प्रगट करता है, 'संख्यातीत गुणों एवं पर्यायों की संख्या का ज्ञान मुश्किल है' यह बात
(3) आलितानुयोगગણિત અર્થાત્ સંખ્યાને અનુગ તે ગણિતાનુગ કહેવાય છે. જીવ પુદ્ગલ આદિ છ દ્રવ્યની ગણના કરવા માટે, તથા દ્રવ્યોના પર્યાની ગણતરી કરવા માટે ગણિતાનુગની આવશ્યકતા હોય છે, ગણિતાનુગથી જિન ભગવાન દ્વારા કહેલા પદાર્થોની ઠીક ઠીક ગણના થઈ શકતી હોવાથી સમ્યકત્વની શુદ્ધિ થાય છે, અને સમ્યકત્વની શુદ્ધિથી ચારિત્રની શુદ્ધિ થાય છે.
પૂર્વાનyવી પદ્યાનુપૂવી તથા અનાનુપૂર્વી આદિથી, અને બંગાળની ગણના કરવાથી ચિત્તમાં સ્થિરતા આવે છે, અને ચિત્તની સ્થિરતાથી કપાયરૂપી અગ્નિ શાંત થાય છે. અને તેથી ચારિત્ર નિર્મલ થાય છે.
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सुकझाणस्स पायं च, वितीय पप्प संजमी।
केवलण्णाणलाहेण, केवलित्ति णिगज्जई ॥७॥ अवस्था णहि सेलेसी, फेवलण्णाणमंतरा।
भवई समणिदस्स, सन्चकम्मक्खओ तो ॥८॥ सच्चफम्मक्खए सिद्धी,-तओ सिद्धो हि सासओ। मोक्वट्ठी मुयचारित्त, - धम्म वम्हा समायरे ॥ ९ ॥
छायाशुक्लध्यानस्य पादं च, द्वितीय प्राप्य संयमी ।
केवलज्ञानलाभेनं, केवलीवि निगद्यते ॥ ७ ॥ अवस्था नहि शैलेशी, केवलज्ञानमन्तरा । ___भवति श्रमणेन्द्रस्य, सर्वकर्मक्षयस्ततः ॥ ८ ॥ सर्वकर्मक्षये सिद्धि, - धर्म तस्मात्समाचरेत् ।
मोक्षार्थी श्रुतचारित्र,-धर्म तस्मात्समाचरेत् ॥९॥ संयमी पुरुप शुक्ल ध्यान का दूसरा पाया प्राप्त करके, केवल ज्ञान प्राप्त करता है और केवली कहलाता है । ॥ ७ ॥
केवल ज्ञान के विना शैलेशी अवस्था प्राप्त नहीं होती । शैलेशी अवस्था जब प्राप्ति हो जाती है तो मुनिराज समस्त कमों का क्षय कर डालता है ॥ ८॥
समस्त कर्मों का क्षय होने पर सिद्धि प्राप्त होती है । सिद्धि लाभ होने पर शाश्वत सिद्ध होजाता है, अतःमोक्षार्थी पुरुष को श्रुत-चारित्ररूप धर्म का आचरण करना चाहिये ॥९॥ ધ્યાન વિના ક્ષપકશ્રેણી ઉપર આરોહણ થઈ શકતું નથી. પ |
ક્ષપકશ્રેણી વિના બીજા કોઈ ઉપાયથી શુકલ ધ્યાનને એકત્વ-વિતર્ક-અવિચાર नाम माने पायो प्राप्त ४२॥ शत नथी. ॥१॥
સંયમી પુરુષ શુકલ ધ્યાનનો બીજો પા પ્રાપ્ત કરીને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે छ, भने पक्षी उपाय छे. ॥७॥
કેવલજ્ઞાન વિના શૈલેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત થતી નથી, શેલેશી અવસ્થા જ્યારે પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, ત્યારે મુનિરાજ સંકલ કર્મોનો ક્ષય કરી નાખે છે. | ૮ |
સકલ કર્મો ક્ષય થયા પછી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, સિદ્ધિ લાભ થયા પછી શાશ્વત સિદ્ધ થાય છે, એ માટે મુક્ષાર્થી પરુએ શ્રુત-ચારિત્ર ૫ ધર્મનું આચરણ ४२ नये. ॥६॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
(१) तत्र मासविचारः पोप-चैत्र-ज्येष्ठा-पाह-मासान् विहाय शेपा मासाः प्रशस्ताः ।
विशेषतो मासफलमाह(१) श्रावणे-शुभम् । (७) माघे-शानदृद्धिः। (२) भाद्रपदे-शिष्याल्पता। (८) फाल्गुने-सुख-सौभाग्य-यशोद्धिः। (३) आधिने-सुखम् । (९) चैत्रे-अल्पसुखम् । (४) कार्तिके-विद्यावृद्धिः। (१०) वैशाखे-रत्नत्रयलामः । (५) मागशी-शुभम् । (११) ज्येप्ठे-सामान्यम् , तत्रान्यवलसत्त्वे शुभम् । (६) पौपे-विद्याद्ययभावः। (१२) आपाढे-गुरुबन्धुना सह प्रेमाल्पता ।
(१) मास-विचार पौप, चैत्र, ज्येष्ठ और आषाढ मास को छोडकर शेष महीनों में दीक्षा देना प्रशस्त है।
विशेष मास-विचार (१) श्रावण - शुभ। (७) माघ - ज्ञान की वृद्धि (२) भाद्रपद - शिष्यों कमी। (८) फाल्गुन-सुख-सौभाग्य और यश की वृद्धि (३) आश्विन - सुख । (९) चैत्र - अल्प सुख (४) कार्तिक - विद्यावृद्धि । (१०) वैशाख – रत्नत्रय का लाभ (५) मार्गशीर्ष - शुभ। (११) ज्येष्ठ – साधारण, यह मास दूसरे नक्षत्र आदि
का बल हो तो शुभ है। (६) पौष-विद्यावृद्धि का अभाव। (१२) आषाढ-गुरुभाइयों के साथ प्रेम की कमी।
(1) भास-वियारપિષ, ચૈત્ર, જેઠ અને આષાઢ માસને ત્યજીને બાકીના બીજા મહિનાઓ દીક્ષા આપવા માટે ઉત્તમ છે.
विशेष भास-विचार(१) श्राप-शुभ.
(७) भाध-शाननी वृद्धि. (२) माद्रप-शिष्यानी भी. (८) शगुन-सुम सोमाय भने यशनी वृद्धि. (3) सास-सुम.
(6) थैत्र-म६५ सुभ. (४) ति:-विधावृद्धि. (१०) वैशाम--२त्नत्रयन। साल. (५) भार्गशीर्ष-शुभ. (११) 8-साधार, मामासभा मीत नक्षत्र
વગેરેનું બલ હોય તે શુભ છે. (6) पौष-विद्याद्धिन समाप. (१२) अषा८-२३मामानी साथै प्रेमनी भी.
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आधाराचे विज्ञातुं शक्यते, तद्धि गणितानुयोगगम्यम् । भगवद्गणानुस्मरणेन भगवतः स्तुतिः संपद्यते, तया च दर्शनशुद्धिस्ततम्यारित्रशुद्धिः।
प्रव्रज्याप्रदानादयोऽपि शोभनतिथिनक्षत्रादियुक्तसमय एव विधेया इति तादृशसमयावयोधकतया गणितानुयोगस्यापि चरणमाप्ति प्रति साधनता सिद्धयति । तथा चास्यापि फलं चारित्ररक्षणमेव ।
अथ प्रसङ्गाज्ज्योतिकविषयः किश्चित्प्रदर्श्यते
तत्र पूर्व प्रव्रज्यामदानसमयो निर्णीयते-- भी संख्या का ज्ञान किये विना जानी नहीं जा सकती है। भगवान के गुणों का वारंवार स्मरण करने से भगवान की स्तुति होती है, उससे दर्शन--शुद्धि होती है, दर्शन-शुद्धि के होने से चारित्र की शुद्धि होती है ।।
शुम तिथि तथा शुभ नक्षत्र से युक्त समय में ही दीक्षा मादि देना चाहिए, इस प्रकार के समय का बोध कराने वाला होने से गणितानुयोग भी चारित्रकी प्राप्ति का कारण है, ऐसा सिद्ध होता है, उससे गणितानुयोग का फल भी चारित्र की रक्षा करना ही है । यहां प्रसङ्ग होनेसे कुछ ज्योतिष का विषय दिखलाया जाता है.---
दीक्षादानसमयका निर्णय
ગણિતાનુયોગ જ ભગવાનના કેવલજ્ઞાન આદિ એ ગુણે એ પ્રમાણે પર્યાની અનંતતા પ્રગટ કરે છે. “સંખ્યાતીત ગુણો અને પર્યાની સંખ્યા જાણવી અશક્ય છે તે વાત પણ સંખ્યાનું જ્ઞાન કર્યા વિના જાણી શકાતી નથી, તે ગણિતાનુગ દ્વારા જાણી શકાય છે. ભગવાનના ગુણેનું વારંવાર સ્મરણ કરવાથી ભગવાનની સ્તુતિ થાય છે, અને તેથી દર્શન-શુદ્ધિ થઈ શકે છે, અને દર્શન વિશુદ્ધ થવાથી ચારિત્રની શુદ્ધિ થાય છે.
શુભ તિથિ તથા શુભ નક્ષત્રથી યુક્ત સમયમાં જ દીક્ષા આદિ આપવી જોઈએ, આ પ્રકારના સમયનું જ્ઞાન કરાવવાવાળો હોવાથી ગણિતાનુયોગ પણ ચારિત્રની પ્રાપ્તિનું કારણ છે એમ સિદ્ધ થાય છે. તેથી ગણિતાગનું ફલ પણ ચારિત્રની રક્ષા કરવી એજ છે. અહીં પ્રસંગથી ડે જ્યોતિષને વિષય બતાવવામાં આવે છે–
દીક્ષા આપવાના સમયને નિર્ણય
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आचारंचिन्तामणि-टीका अवतरणा
___ नव तिथयश्च वर्जनीयाः(१) शुक्ला चतुर्दशी (२) अमावास्या (३) यस्यां तिथी रविसंक्रमण, सा। (४) द्वितीया, (५) चतुर्थी, (६) पष्टी, (७) अष्टमी, (८) नवमी, (९) द्वादशी ।
(४) वार-विचार:रवि ~ चन्द्र - बुध - गुरु - बाराः प्रशस्ताः
(५) नक्षत्र-विचार:दीक्षायां त्रयोदश नक्षत्राणि प्रास्तानि- (१) अश्विनी, (२) रोहिणी, (३) मृगशिरः, (४) पुप्यम् , (५) उत्तरफाल्गुनी, (६) हस्तः (७) अनुराधा, (८) ज्येष्ठा, (९) उत्तरापाढा , (१०) अभिजिन् , (११) श्रवणम् , (१२) उत्तरभाद्रपदा, (१३) रेवती।
__ नौ तिथियां त्याज्य हैं(१)-शुक्ला चतुर्दशी, (२)-अमावास्या, (३)-जिस तिथि में सूर्य-संक्रमण हो वह, (४)-द्वितीया (५)-चतुर्थी (६)-पष्ठी (७)-अष्टमी (८)-नवमी (९) द्वादशी ।
(४) चार-विचाररवि, सोम, बुध, गुरु, और शनिवार प्रशस्त हैं।
(५) नक्षत्र-विचारदीक्षा के विषय में तेरह १३ नक्षत्र प्रशस्त हैं । (१)-अश्विनी, (२)-रोहिणी, (३)मृगशीर्ष, (४)-पुष्य. (५)-उत्तराफाल्गुनी (६)-हस्त, (७)-अनुराधा, (८)-ज्येष्ठा, (९)उत्तरापाढा, (१०)-अभिजित् , (११)-श्रवण, (१२)-उत्तराभाद्रपद, (१६)-रेवती ।
આ નવ તિથિઓ ત્યાજ્ય છે– (१) शुस यतु:20, (२) आभावाश्या (3)२ तिथिमा सूर्य-सभर थाय ते, (४) द्वितीया, (५) तुथी, (6) ५०डी, (७) २मष्टमी (८) नवमी (6) द्वाशी
(४) पा२ विद्यार२वि, सोम, बुध, १३ मने शनिवार उत्तम छे.
(५) नक्षत्र-विचारदीक्षा विषयमा ते२ नक्षत्र उत्तम छ:- (१) मश्विनी, (२) डिवी, (3) भृगौ4, (४) पुण्य, (५) उत्तराशगुनी, (6) ७२त, (७) मनुराधा (८) ज्येष्ठ (6) Fत्तराषाढा, (१०) मलिलित (११) (१२) उत्तरमाद्रपद, (१३) रेवती.
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आचाराभूत्रे (२) पक्ष-विचार:-- कृष्णपक्षे-प्रतिपद आरभ्य पञ्चमी यावत्तिथयः शुभाः। पप्ठीतः समारभ्य दशमी यावचिधयो मध्यमाः । एकादशीतः प्रारभ्यामावास्यां यावदशुमाः।
शुक्लपक्षे तु पतिपत्तिथितः पञ्चमी पर्यन्तमशुभाः। पष्ठीतो दशमी यावन्मध्यमाः। एकादशीतः समारभ्य पूर्णिमान्तास्तिथयः शुभाः।
(४) तिथि-विचार:दीक्षायां प्रतिपत् (१), तृतीया (३), पञ्चमी (५), सप्तमी (७), एकादशी (११), त्रयोदशी (१३) च प्रशस्ता ।।
(२) पक्ष-विचारकृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से लेकर पञ्चमी पर्यन्त तिथिया शुभ हैं। पष्ठी से लेकर दशमी तक की तिथियां मध्यम है, और एकादशीसे लेकर अमावास्या तक अशुभ तिथियां हैं।
शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से लगाकर पञ्चमी तक अशुभ हैं, पष्ठी से दशमी तक मध्यम है और एकादशी से पूर्णिमा तक की तिथियां शुभ हैं ।
(३) तिथि-विचारदीक्षा के विषयमें प्रतिपदा, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, एकादशी और त्रयोदशी प्रशस्त हैं।
(२) पक्ष-वियारકૃષ્ણ પક્ષમાં પડવેથી પાંચમ સુધીની તિથિઓ અશુભ છે. છઠ્ઠથી લઈને દશમ સુધીની તિથિઓ મધ્યમ છે, અને એકાદશી-અગીયારસથી લઈને અમાવાસ્યા સુધીની તિથિઓ અશુભ છે.
શુકલ પક્ષમાં–પડવેથી લઈને પાંચમ સુધીની તિથિઓ અશુભ છે. છટ્રથી દશમી સુધી મધ્યમ છે, અને એકાદશીથી પુનમ સુધીની તિથિએ શુભ છે. '
(8) तिथि-वियार-- દીક્ષાના વિષયમાં પડ, ત્રીજ, પાંચમ, સાતમ, એકાદશી અને તેરસ, આ तिथिमा उत्तम छे.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
(७) ग्रहभिन्नम्-यत्र त्रयो ग्रहास्तिष्ठन्ति तादृशं नक्षत्रम् ।
(६) योग-विचार:योगास्तु नाम्नैव शुभाशुभफलाः, यथा-विष्कम्भादिपु दैनिकयोगेषु पीत्यादयः शुभफलाः, विष्कम्भादयोऽशुभफलाः। आनन्दादिपु सांयोगिकेपुवारनक्षत्रसंयोगजनितेपु योगेषु आनन्दादयः शुभाः, कालदण्डादयोऽशुभाः।
(७) अथ करण-विचार:करणानि एकादश सन्ति; यथा-(१) वचम् , (२) वालवम् , (३) कौलवम् , (७) ग्रह-भिन्नजिस में तीन ग्रह ऐसा नक्षत्र ।
(६) योग-विचारयोगों के नामसे ही शुभ अशुभ फल प्रतीत हो जाता है । जैसे-विष्कम्भ, आदि दैनिक योगो में से प्रीति आदि योग शुभफल वाले, और विष्कम्भ आदि योग अशुभ फल वाले हैं। आनन्द आदि सायोगिक (वार नक्षत्र के संयोग से बनने वाले) योगो में से आनन्द आदि योग शुभफलदाता हैं, और कालदण्ड आदि अशुभफलदायक हैं।
(७) करण-विचार करण ११ ग्यारह होते हैं, जैसे-~-(१) बव, (२) वालव, (३) कौलव, (७) अमिन-मा अY अा डाय, मेवु नक्षत्र
(5) योग-वियाગોના નામથી જ શુભ-અશુભ ફળની પ્રતીતિ થઈ જાય છે. જેમકે -વિષ્કભ આદિ દૈનિક પેગમાંથી પ્રીતિ આદિ શુભ ફળવાળાં છે, અને વિષ્કભ આદિ ગ તે અશુભ ફળ આપનારા છે. આનન્દ આદિક સાંગિક (વાર-નક્ષત્રના સંગથી બનવાવાળા) વેગમાં આનન્દ આદિ ગ શુભ ફળ દેનારા છે, અને કાળદંડ આદિ અશુભ ફળ આપનારા છે.
(७) ४२६५-वियार४२५ भगिमार डाय ®. (१) ४५ (२) ५ (3) होस (४) श्रीपaina
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आचाराचे
नक्षत्रेषु सप्त दोपाः सन्ति, यथा(१) संध्यागतम्-यत्र नक्षत्रे सूर्योऽनन्तरं स्थास्यति तादृशं नक्षत्रम् । यथा हस्ते रविवर्त्तते चेत् तदा दैनिकं चित्रानक्षत्रं संध्यागतं योध्यम् ।
(२) रविगतम्- यत्र रविस्तिष्ठति तादृशं दैनिकं नक्षत्रं रविंगतं वोध्यम् । (३) दुर्गतम्-यत्रोन्मार्गगामी चक्री ग्रहो भवति, तादृशं नक्षत्रम् । (४) सग्रहम्-यत्र क्रूरो ग्रहस्तिष्ठति, वादृशं नक्षत्रम् । (५) विलम्बितम्-सूर्येण परिभुज्य मुक्तं नक्षत्रम् ।
(६) राहुगतम्-यत्र चन्द्र-सूर्योपरागः संजातस्तादृशं नक्षत्रम् । ईदृशे नक्षत्र पण्मासान् थावत् प्रव्रज्या न देया।
नक्षत्रों में सात दोए (१) सन्ध्यागत-जिस नक्षत्र में सूर्य आगे जाने वाला है वह नक्षत्र । जैसे-अगर हस्त नक्षत्र में सूर्य हो तो दैनिक चित्रा नक्षत्र सन्ध्यागत कहलाता है ।
(२) रविगत-जिस नक्षत्र में रवि हो, वह दैनिक नक्षत्र रविगत आनना चाहिए । (३) दुर्गत-जिस में उन्मार्गगामी-वक्र ग्रह हो वह नक्षत्र दुर्गत कहलाता है। (४) सग्रह-जिस नक्षत्र में क्रूर ग्रह हो । (५) विलम्बित-सूर्य-द्वारा भोग कर छोडा हुआ नक्षत्र ।
(६) राहुगत-जिस नक्षत्र में चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण हुआ हो। ऐसे नक्षत्र में छह मास तक दीक्षा देना वर्जनीय है।
નક્ષત્રમાં સાત ફેષ– (૧) સંધ્યાગત–જે નક્ષત્રમાં સૂર્ય આગળ આવવાવાળે છે તે નક્ષત્ર, જેવી રીતે કે હસ્ત નક્ષત્રમાં સૂર્ય હોય તે દેનિક ચિત્રા નક્ષત્ર સંસ્થાગત કહેવાય છે.
(૨) રવિગત-જે નક્ષત્રમાં રવિ હોય તે દેનિક નક્ષત્ર રવિગત જાણવું જોઈએ. (૩) દુગત-જેમાં ઉન્માર્ગગામી–વક–ગ્રહ હોય તે નક્ષત્ર દુર્ગત કહેવાય છે. (४) सह-रे नक्षत्रमा दूर अह डाय. (५) विसस्मित-सूर्यास लावीनछुटु ४राये नक्षत्र
() રાહગત-જે નક્ષત્રમાં ચંદ્રગ્રહણ અથવા સૂર્યગ્રહણ થયું હોય. એવા નક્ષત્રમાં છ માસ સુધી દીક્ષા આપવી વજનીય છે.
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.आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा कइ करणा स्थिरा पण्णता ?, गोयमा सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णता ।" इत्यादि। . . . . . . . '. तत्र दिवाशब्देन तिथेः पूर्वार्द्धभागः, रात्रिशन्देन तिर्थरुत्तरार्द्धभागो गम्यते ।
एकादशम करणेसु ववम् , बालयम् , कौलवम् , वणिजम्, एतानि चत्वारि शुमफलानि ।
विष्टिकरणस्य नामान्तरं भद्रा । इयं दीक्षादौ वर्जनीया । उक्तम्- - .
"यदि भद्राकृतं कार्य, प्रमादेनापि सिद्धयति । गया है । वहां कहा है -
"हे भदन्त ! इन ग्यारह करणों में कितने करण चर और कितने करण स्थिर कहे गये हैं !, हे गौतम : सात करण चर और चार करण स्थिर कहे गये हैं ।" इत्यादि। ..
यहां दिन शब्द का अर्थ है-तिथिका पूर्वार्ध भाग और रात्रि शब्द का अर्थ है-- तिथि का उत्तरार्ध भाग।
इन ग्यारह करणो में से वय, वालव, कौलव, और वणिज, ये चार करण शुभ फल दायक है।
__विष्टि करण का दूसरा नाम भद्रा, है । दीक्षा आदि कार्यों में यह वर्जनीय है । कहा भी है - રૂપથી કરેલું છે, ત્યાં કહ્યું છે –
હે ભદંત આ અગ્યાર કરામાં કેટલા કરણ ચર અને કેટલા કરણ "સ્થિર કહેવામાં આવ્યા છે ?, હે ગૌતમ! સાત કરણ ચર અને ચાર કરણ સ્થિર डेपामा माया छ” ऽत्या.
આ સ્થળે દિન શબ્દને અર્થ છે કે-તિથિને પૂર્વાર્ધ ભાગ, અને રાત્રી Avant अर्थ छ डे-तिथिन। उत्तरा भास.
એ અગિયાર કરમાંથી બવ, બાલવ, કૌલવ અને વણિજ, આ ચાર કરણ “शुभसाहाय. छे. .
વિષ્ટિકરણનું બીજું નામ ભદ્રા છે. દીક્ષા આદિ કાર્યોમાં તે ભદ્રા ત્યજવા 'योग्य छ. धुप छ
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(४) स्त्रीविलोचनम् , इदं तैतिलमिति, कोचदाहुः, (५) गरादि, इदं गरंमित्याहुरन्ये, (६) वणिजम् , (७) विष्टिः, (८) शकुनिः, (९) चतुष्पदं, (१०) नागम् , (११) किंस्तुघ्नम् , इति ।
" . ...... .......: : : म अत्र ययादिविष्टयन्तानि सप्तःकरणानि चराणि, शकुन्यादीनि चत्वारि स्थिराणि वेदितव्यानि। : : :::
ववादिविष्टयन्तानां सप्तानां कस्यांश्चिदेकस्यां तियो नियमतःस्थित्यभावात्तानि सप्तचराणि, शकुन्यादीनां कृष्णपक्षीयचतुर्दश्यमावस्याशुक्लप्रविपतिथिपु. नियतस्थित्या तानि चत्वारि स्थिराणि मोच्यन्ते । स्पष्टं चेदं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती सप्तमवक्षस्कारे। उक्तश्च तत्र-"एएसिणं भंते ! एकारसहं करणाण कर करणा चरा? (४) स्त्रीविलोचन (कोई कोई इसे 'तैतिल' मी नहते हैं), (५) गरादि ('गर' नाम भी है। (६) वणिज, (७) विष्टि, (८) शकुनि, (९) चतुष्पद, (१०), नाग, (११); किंस्तुन्न ।
ही इन ग्यारह. फरणो में नव से लेकर विष्टि तक सात करण चर है, मोर अन्त के शंकुनि आदि चार स्थिर है।
बब से लेकर विष्टि तक सात करण किसी एक तिथि में नियम से नहीं रहते इस कारण ये चर कहलाते हैं, शकुनि 'आदि अन्तिम चार करण कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, अमावास्या तथा शुलंपक्ष की प्रतिपदा तिथि में नियम से होते हैं, अत एव ये स्थिर कहलाते हैं । इस विषय का जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सातवें वक्षस्कार में स्पष्ट रूप से , विवेचन किया ( मेने alle' पy ४३), (५) 16 ( तेनु २' नाम ५५ छ) (6). .(७) विष्टि (८) शनि (e)..यतु०५६ (१२) नाम (११) नि . . . 0 मनियार ४ामा मयी साधन विष्ट सुधा सात ४२ यर छ; अने वा शनि माहि-यार स्थिर छ.: . . .
: : : બવથી લઈને વિષ્ટિ સુધીના સાત કરણ કેઈ એક તિથિમાં નિયમિત રહેતા નથી તે કારણથી તેને ચર કહે છે, શકુનિ આદિ છેલ્લાં ચાર, કૃષ્ણ પક્ષની ચૌદસ, અમાવાસ્યા તથા શુકલ પક્ષની પ્રતિપદ-પ તિથિમાં નિયમિત રહે છે એટલે તે સ્થિર કહેવાય છે. આ વિષયનું વિવેચન જંબૂતી પ્રકૃતિના સાતમા વણકરમાં સ્પષ્ટ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
शकुनि-चतुष्पद-नाग-किंस्तुननामानि करणानि तु कृष्णचतुर्दश्यमावास्याशुलप्रतिपद्योगभावित्वात्याच्यानि । अवशिष्ट दे. करणे त्रीविलोचनगरादिसजक सामान्ये, इति साम्प्रदायिकाः।
यत्तु गणिविद्याप्रकीर्णककृतचतुप्पद नागं चेति द्वे करणे निष्क्रमणे प्रशंसन्ति, यथा--"नागे चउप्पए यावि, सेहनिक्रसमणं करे " इति ।
तन्न समीचीनम् , निष्क्रमणेऽमावास्यायाः प्रतिपिद्धत्वेन नियमतस्तद्योगभाविनीस्तयोः प्राशस्त्याऽसंभवात् ।
शकुनि, चतुष्पद, नाग भोर किंस्तुन्न नामक करण कृष्ण पक्षको चतुर्दशी, अमावास्या, शुपक्षकी प्रतिपदा के योगसे भावित होने के कारण त्याज्य हो जाते हैं। शेष दो करण स्त्रीविलोचन और गरादि नामक साधारण है । परम्परा को जानने वालों का यह मत है।
गणिविधाप्रकीर्णककारने दीक्षा के विषय में चतुष्पद और नाग नामक दो करण प्रशस्त माने है, उन्हों ने कहा है कि-"नागे चउप्पए यावि सेहनिकखमण करे" अर्थात् नाग और चतुष्पद नक्षत्र में निष्क्रमण करना चाहिये, अर्थात् शिष्यको दीक्षा देना चाहिए, उनका यह कथन समीचीन नहीं है, कारण यह है कि निवामण में अमावास्या निषिद्ध मानी गई है, इसीलिये अमावास्या के योग से भावित उक्त दोनों करणों का प्रशस्त होना असम्भव है।
શકુનિ, ચતુ૫૬, નાગ અને કિમ્બુન નામના કરણ કૃષ્ણ પક્ષની ચૌદશ, અમાવાસ્યા, શુકલ પક્ષના પડવાના એગથી ભાવિત હોવાથી ત્યાજ્ય બની જાય છે. બાકી બે કરણ વિલોચન અને ગરાદિ નામના સાધારણ છે. પરમ્પરા જાણવાવાળાને આ પ્રમાણે મત છે.
ગણિવિદ્યાપ્રકીર્ણકકારે દિક્ષાના વિષયમાં ચતુષ્પદ અને નાગ નામના બે ४२वाने त्तम मान्या छे. ते धुंछे :-"नागे चउपए यावि सेहनिक्खमणं करे। નાગ અને ચતુપદ નક્ષત્રમાં નિષ્ક્રમણ કરવું જોઈએ, અથૉત્ શિષ્યને દીક્ષા આપવી જોઈએ. તેમનું આ કથન બરાબર નથી, કારણ એ છે કે–નિષ્ક્રમણમાં-દીક્ષામાંઅમાવાસ્યા નિષિદ્ધ માની છે, એટલા માટે અમાવાસ્યાના ચોગથી ભાવિત ઉપર કહેલા બને કરણે ઉત્તમ હેય તે વાત અસંભવ છે.
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মাথায়
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माप्ते तु पोडशे मोसे, समूलं तद्विनश्यति ॥ १ ॥" इति ।
शुक्लपक्षे भद्रा चतुमेिकादश्यां च तिथिपराईभागस्यायिनी, अष्टम्या पूर्णिमायां च तिथिपूर्वाद्धभागस्थायिनी मरति, कृष्णपक्षे तु सा तृतीयायां दशम्या च विधिपरार्द्धमागस्थायिनी, सप्तम्यां चतुर्दश्यां च तिथिपूर्वार्द्धमागस्यायिनी भवति।
तत्र तिथिपश्चाभागस्थायिनी भद्रा दिवस न्यानोति, तथा तिथिपूवार्दमाग स्थायिनी रानि व्यामोति चेत्तदा न दोपायहा। .
भद्रायास्त्रिंशटिकामानेन पश्चिम घटिकाप्रयं पुच्छमित्यभिधीयते । तद भद्रापुच्छं शुभम् ।
"भद्रा करण में किया हुआ कार्य प्रथम तो सिद्ध ही नहीं होता, कदाचित् सिद्ध भी होजाय तो सोलहवा महीना आने पर उसका समूल विनाश हो जाता है" ॥१॥
भदा शुक्लपक्ष में चौथ तथा एकादशी तिथि के उत्तरार्ध में रहती है, और अटमी तथा पूर्णिमा के दिन तिथि के पूर्वार्ध में रहती है।
कृष्णपक्ष में तृतीया और दशमी के दिन तिथि के उत्तरार्ध में और सप्तमी एवं चतुर्दशी को तिथि के पूर्वार्ध में रहती है।
तिथि के उत्तरार्ध में रहने वाली मदा दिनको व्याप्त करती हो और पूवार्धभाग में रहने वाली रात्रिको व्याप्त करती हो तो कोई दोष नहीं है।
तीस घडीकी भद्रा की अन्तिम तीन घड़िया पंछ कहलाती हैं। भद्राको यह पूछ
“ભદા કરણમાં કરેલું કામ પ્રથમ તે સિદ્ધ થતું નથી, કદાચિત્ સિદ્ધ પણ થાય તે સેળભે મહિને આવતાં તેને સમૂળ વિનાશ થાય છે. ૧
ભદ્રા શુકલ પક્ષમાં ચોથ તથા એકાદશી તિથિના ઉત્તરાર્ધમાં રહે છે, અને આઠમ તથા પૂનમના દિવસે તિથિના પૂર્વાધમાં રહે છે.
કૃષ્ણપક્ષમાં ત્રીજા અને દશમીના દિન તિથિના ઉત્તરાર્ધમાં અને સાતમ તથા ચૌદશના દિન તિથિના પૂર્વાધમાં રહે છે.
તિથિને ઉત્તરાર્ધમાં રહેવાવાળી ભદ્રા દિવસને વ્યાન કરતી હિય, અને પૂર્વ ભાગમાં રહેવાવાળી રાત્રીને વ્યાપ્ત કરતી હોય તે કોઈ દેવ નથી. * શ્રી ઘડીની ભદ્રાની છેલ્લી ત્રણ ઘડીએ પૂછ કહેવાય છે, અને ભદ્રાની તે ५७ शुल छे.
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आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा
चन्द्रनो लगतश्च सप्तमे स्थाने रविकुजमार्गवास्त्याज्योः, तत्र त्रयाणां संगमे दीक्षणीयः प्रतिपाती भवति । एष त्रिपु द्वापन्यतमो वा तत्र तिष्ठति चेत्तदा कुशीलः क्रोधादिवशगच भवति । यदि सप्तमं स्थान:रिक्त, चन्द्रश्च ग्रहान्तरवर्जितस्तदा. दीक्षा शुभा । यदि चन्द्रस्य गुरु-युधयोरल्यतरेण संगमस्तर्हि शुभम् ।। . . (१०) अथ त्वरितफर्तव्यदीक्षासमयनिरूपणम्।
(क) सिद्धच्छायालमम् । चन्द्रमासे तथा लग्न से सातवें स्थान पर सूर्य, कुज (मङ्गल) भार्गव, (शुक्र) हो तोत्याज्य हैं। अगर इन तीनों का साम हो तो दीक्षा लेने वाला प्रतिपाती (पडिवाई ) हो जाता है। अगर इन तीनों में से दो अथवा कोई भी एक वहां हो तो दीक्षा लेने याला. कुशील और क्रोध आदि दुर्गुणों का धारक होता है । अगर चन्द्र दूसरे ग्रहों से वर्जित हो तो दीक्षा शुभ समझनी चाहिए । अगर गुरु और बुध में से किसी एक के साथ चन्द्रमाका सङ्गम हो तो शुभ है । .
(१०) तुरन्त दीक्षा देनेका समय
(क) सिद्धच्छाया लग्नત્રીજ, છઠા, નવમા અને અગિઆરમા સ્થાનમાં સ્થિત શુક્ર નિર્બલ હોય છે, તેથી કરી શુક્ર અસ્ત હોય તે પણ દીક્ષા ગ્રહણ કરવી તે ઉત્તમ માનવામાં આવ્યું छ. सवाई मायायनो मत छ. .
* ચંદ્રમાથી તથા લગ્નથી સાતમા સ્થાનમાં સૂર્ય, મંગલ શુક્ર હોય તે ત્યાય છે. અથવા એ ત્રણેયને સંગમ હોય તે દીક્ષા લેનાર પ્રતિપાતી (પડિવાઈ) થઈ જાય છે, અથવા એ ત્રણમાંથી બે અથવા કોઈ પણ એક ત્યાં હોય તે દીક્ષા લેવાવાળો કુશીલ અને કોલ આદિ દુર્ગાને ધારણ કરનાર બને છે, અથવા ચન્દ્ર તથા લગ્નથી સાતમું સ્થાન ખાલી હોય અથવા ચંદ્રમા બીજા ગ્રહથી વર્જિત હોય તે દીક્ષા શુભ સમજવી જોઈએ, અથવા ગુરૂ અને બુધમાંથી કઈ પણ એકની સાથે ચંદ્રને સંગમ હોય તે શુભ છે.
' (10) तुतीक्षा मापन संभय:
(क) सिद्धछायान- '
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... . . , , , अब लमविचार:- .... .. .. निष्क्रमणे मिथुन-सिंह-कन्या-पथिक-धनु-मकर-कुम्भ-मीनानि लपानि शुभानि । अन्यानि पत्यारि वर्जनीयानि । . . . . . . . . . .
(९) ग्रहविचार:- . . . . . ... दीक्षालग्ने शनवरं मध्यमवलं, गुरु बलीयांसं, शुक्र बलहीनं विधाय दीक्षा देया। द्वितीये, पञ्चमे, पप्ठे, सप्तमे, एकादशे स्थाने निर्मध्यमवली भवति । त्रिकोणे केन्द्र एकादशे च स्थानेऽवस्थितो गुरुयलीयान् भवति ।, उतीये, पाठ, नयमे, द्वादशे च स्थाने स्थितः शुक्रो बलहीनो भवति, अत एव शुक्रास्तेऽपि दीक्षा ग्राहोति संप्रदायविदः ।
(८) लग्न-विचारदीक्षा अङ्गीकार करने में-मिथुन, सिंह, कन्या, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन, लग्न शुभ हैं। शेष चार वर्जनीय हैं।
(९)ग्रह-विचारदीक्षालग्न में शनैश्वर मध्यम बल वाला, गुरु बलशाली और शुक्र बलहीन हो तो दीक्षा देनी चाहिए । दूसरे पांचवें, छठे, सातवें और ग्यारहवें स्थान में शनि मध्यम बल वाला होता है। त्रिकोण में केन्द्र में और ग्यारवें स्थान में रहा हुआ, गुरु (बृहस्पति.) बलशाली समझा जाता है । तीसरे, छठे, नौवें और ग्यारहवें स्थान में स्थित शुक्र निर्बल होता है । अत एव शुक्र का अस्त होने पर भी दीक्षा ग्रहण करना प्रशस्त माना गया है,. ऐसा कई आचार्यों का कथन है।
(८) MP-विधार.. ... . । । દીક્ષા અંગીકાર કરવામાં મિથુન, સિંહ, કન્યા, વૃશ્ચિક, ધનુ, મકર, કુંભ અને भीन-सन शुर छ. All AIR Clarय छे. .
(e)-वियाः . . . દીક્ષાલનમાં શનૈશ્ચર મધ્યમ બળવાળો ગુરૂ બલશાળી અને શુક બલહીન હોય તો દીક્ષા આપવી જોઈએ, બીજા, પાંચમ, છઠા, સાતમા અને અગિઆરમા સ્થાનમાં શનિ મધ્યમ બળવાળે હેય છે, ત્રિકોણમાં કેન્દ્રમાં અને અગિઆરમાં स्थानमा रहेसो १ (पति), Acी सभामा भाव, छ. .....
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
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नक्षत्राणि तिथिर्वारा-स्ताराचन्द्रबलं ग्रहाः । दुष्टान्यपि शुभ भावं भजन्ते सिद्धछायया ॥ १ ॥
न तिथिर्न च नक्षत्रं, न वारा न च चन्द्रमाः । ग्रहा नोपग्रहाथैव, छायालग्नं प्रशस्यते ॥ २ ॥
न योगिनी न विष्टिव, नशूलं न च चन्द्रमाः । एपा चत्रमयी सिद्धि - रभेद्या त्रिदशैरपि ॥ ३ ॥
"सिद्धच्छाया उम हो तो दूषित तिथि नक्षत्र, चार, तारा, चन्द्र तथा दूषित ग्रह भी शुभफलदायक हो जाते हैं, अर्थात् सिच्छायाम की विद्यमानता में नक्षत्र आदि का दोश
नहीं माना जाता है ॥ १ ॥
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.
एक मात्र छाया उम ही उत्तम है, उसकी समानता न तिथि कर सकती है, न नक्षत्र कर सकता है, न वार कर सकता है, न चन्द्रमा, न ग्रह कर सकते हैं और न उपग्रह ही
कर सकते हैं || २ ||
योगिनी उसके सामने कुछ नहीं है, विष्टि (भद्रा ) कोई चीज नहीं है, शूल और चन्द्रमा भी उस की विद्यमानता में कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । सिद्धच्छाया लग्न एक ऐसी वज्रमयी सिद्धि है, किसे देवता भी नहीं भेद सकते || ३ ||
'सिद्धछायासन्न होय तो हृषित नक्षत्र, तिथि, वार, तारा, चंद्र तथा કૃતિ ગ્રહ પણ શુભ થઇ જાય છે, અર્થાત્ સિદ્ધછાયાલગ્નની હાજરીમાં નક્ષત્ર माहिनो होष मानवामां आवतो नधी ॥१॥"
એક માત્ર છાચાલન જ उत्तम छे. तेनो भुभ्रमसेो तिथि, नक्षत्र, वार, ચંદ્રમાં ગ્રહે અને ઉપગ્રહ કાઇ પણ કરી શકતા નથી. 1॥ ૨ ॥
ચેગિનીનું તેના સામે ખળ નથી. વિષ્ટિનું પણ ખળ નથી, શૂળ અને ચન્દ્ર પશુ છાયાલગ્નની હાજરીમાં કોઈ પ્રકારે કાંઇ પણ બગાડી શકતા નથી. સિદ્ધ છાયાલગ્ન એક એવી વામી સિદ્ધિ છે જેને દેવતા પણ ભેદ્દી શકતા નથી. }}}}'
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४८.
आचारास्त्र
शुभतिथिवारनक्षत्रलग्नादीनामभावे त्वरितकर्त्तव्येषु कार्येषु सिद्धच्छायालग्नपादेयम् | यदि समतल भूमी स्वशरीरच्छाया चन्द्र-शुक्र-शनिवासरेषु सार्द्धाऽष्टपदप्रमाणा, भौमे नवपदममाणा, बुधेऽप्टपदप्रमाणा, रवावेकादशपदममाणा, गुरौ सप्तपदप्रमाणा भवेत्तदा सा सिद्धच्छायाख्यं लग्नं प्रोच्यते । तत्र दीक्षादिशुभकार्य विधेयम् । अस्मिन् सिद्धच्छाया लग्ने संमाप्ते तिथिवारनक्षत्र भद्रालग्नादिचिन्तनमनावश्यकम् । उक्तञ्च
शुभ तिथि, वार, नक्षत्र और लग्न आदि के अभाव में तुरन्त करने योग्य कार्यों में सिद्धच्छायलग्न हो उपादेय है ।
समतल भूमि पर अपने शरीर की छाया सोमवार, शुक्रवार और शनिवार के दिन साढे आठ पैर बराबर हो, मङ्गलवार को नौ पैर बराबर हो, बुधवार को आठ पद प्रमाण हो, रविवार को ग्यारह पद प्रमाण हो, और गुरुवार को सात पैर छाया हो तो उसे सिद्धच्छाया लम कहते हैं, उस में दीक्षा आदि शुभ कार्य किये जा सकते हैं । यह सिद्धच्छायाला प्राप्त हो तो तिथि, वार, नक्षत्र, भद्रा और लग्न आदि का विचार करने की आवश्यकता नहीं है । कहा भी हे
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શુભ તિથિ, વાર, નક્ષત્ર અને લગ્ન આદિના અભાવમાં તુરત કરવા ચેાગ્ય કાર્યોંમાં સિદ્ધછાયાલગ્ન જ ગ્રહુણુ કરવા ચેાગ્ય છે.
સમતલ ભૂમિ ઉપર પેાતાના શરીરની છાયા, સેામવાર શુક્રવાર અને શનિવારના દિવસે સાડા આઠ પગ પ્રમાણુ હોય, મંગળવારના દિવસે નવ પગ પ્રમાણ હોય, બુધવારે આઠ પગ પ્રમાણુ, રવિવારે અંગિમાર પગ, ગુરૂવારે સાત પગલાં છાયા હાય તા તેને સિદ્ધ છાયાલગ્ન કહે છે. આ લગ્નમાં દીક્ષા સ્માદિ શુભ કાર્ય કરી શકાય છે. આ સિદ્ધછાયાલગ્ન પ્રાપ્ત હેાય તે તિથિ, વાર, નક્ષત્ર, ભદ્રા અને લગ્ન આદિને! વિચાર કરવાની આવશ્યકતા નથી. કહ્યુ પણ છે—
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां नलवनितान्तमातुरः सन् निस्तरङ्गमहोदधिकल्प शान्तरसार्णवं द्रव्यक्षेत्रकालभावविदं निग्रन्यमवचनमर्मज्ञ गुरुं दीक्षादानार्थ प्रार्थयते तदा तस्मै तदानीमेव प्रवज्यामदानं मम्, नहि तत्र तिथिवारनक्षत्रादीनां विचारापेक्षा ।
(११) अघ केशलुचनम् --- दीक्षाग्रहणानन्तरं यदा कदापि केशलुचनं कर्तुमिच्छेत्तदा शनिमङ्गल दिवसी त्याज्यो, कृतिका, विशाखा, मघा, भरणी, एतानि चत्वारि नक्षत्राणि च वर्जनीयानि । सामरक्षा का अन्य उपाय न देखकर एकमात्र दीक्षा को ही शरण समझने वाला तोत्र वैराग्य की प्रभा से चमकता हुआ मोक्षाभिलापी शिष्य, रोम-रोम में जिस के आग लगी हो ऐसे पुरप की भाति अत्यन्त आतुर होकर तरङ्गरहित समुद्र के समान, शान्त रस के सागर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञाता और निम्रन्थ प्रवचन के मर्मज्ञ गुरुसे दीक्षा देने के लिये प्रार्थना करे तो उसको उसी समय दीक्षा दे देना शुभ है, ऐसे प्रसंग पर तिथि, वार, नक्षत्र मादि के विचार की आवश्यकता नहीं है।
(११) केशलोचदीक्षा धारण करने के पश्चात् केशलोच करने में शनिवार और मंगल वार त्यज्य है, तथा कृत्तिका, विशाखा. मघा, और भरणी, ये चार नक्षत्र वर्जनीय हैं।
થઈ ગયું છે એવા પુરૂષની જેમ, આત્મરક્ષાને અન્ય કેઈ ઉપાય નહિ દેખવાથી એક માત્ર દીક્ષાને જ શરણુ-આશ્રય સમજવાવાળા, તીવ્ર વૈરાગ્યની પ્રભાતેજથી ચમક માભિલાષી શિષ્ય રામ-રોમમાં જેને અગ્નિ લાગી છે, એવા પુરુષની જેમ અત્યન્ત આતુર બનીને તરંગરહિત સમુદ્ર પ્રમાણે શાન્ત રસના સાગર, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવના જાણનાર અને નિગ્રંથ પ્રવચનના મર્મજ્ઞ ગુરૂથી દીક્ષા દેવા માટે પ્રાર્થના કરે, તે તેને તે જ વખતે દીક્ષા આપવી શુભ છે એવા પ્રસંગે તિથિ, વાર, નક્ષત્ર આદિને વિચાર કરવાની જરૂર નથી.
(११) शाय દક્ષિા ધારણ કર્યા પછી કેશલેચ કરવામાં શનિવાર અને મંગળવાર ત્યાય છે તથા કૃત્તિકા, વિશાખા, મઘા, અને ભરણી, આ ચાર નક્ષત્ર ત્યજવા ગ્ય છે.
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आचारास
(ख) शङ्कुच्छायालनम्--- द्वादशाङ्गुलपरिमितशङ्को छाया रवि सोम - भौम-बुध-गुरु-शुक्र-शनि-वासरेषु क्रमेण विंशति-पोडश-पञ्चदश- चतुर्दश- त्रयोदश-द्वादश-द्वादशाङ्गलपरिमिता, तथा शनिवासरे द्वादशाङ्गुलममाणा चेतर्हि सा शङ्कच्छायाख्यं लग्नं प्रोच्यते । तत्र दीक्षादि
4
कार्य शुभम् ।
(ग) अत्युत्कण्ठितयोग्यशिष्यार्थ दीक्षा समय:
विपयाटवीदावदहनज्वालामालाकलितस्यान्तो ऽनन्तजन्मजरामरणादिभयोद्विग्निः समन्ततः प्रज्वलिते सद्मनि सुप्तमिवादीप्तप्रदीप्तसंसारान्तः सरन्तमात्मनं रक्षितुमुपायान्तरमनवलोक्य प्रव्रज्यामात्रशरणदर्शी तीव्रवैराग्यप्रभाभासमानः प्रतिरोमोज्ज्वलिता
(ख) शङ्कुच्छापालन
बारह अङ्गल लम्बी कोली को परछाई अगर रविवार को बीस अंगुल, सोमवार को सोलह अंगुल, मंगलवार को पन्द्रह अंगुल, बुधवार को चौदह अंगुल, गुरुवार को तेरह अंगुल, शुक्रवार को चारह अंगुल, तथा शनिवार को भी बारह अंगुल हो उसे शङ्कुच्छाया लग्न कहते हैं । इस लग्न में दीक्षा आदि कार्य शुभ हैं ।
(ग) तीव्र उत्कण्ठा वाले दीक्षार्थी का दीक्षासमय -- विषयवासना की विषय अटवी में व्याप्त दावानल की विकट ज्वालाओं से जिसका अन्तःकरण झुलस गया है, और जो अनन्त जन्म जरा मरण आदि के भय से उद्विग्न है, चारों ओर से मकान में आग लग जाने पर जिस का सर्वस्व भस्म हो गया है ऐसे पुरुष की भांति
(ख) शछायासन
માર આંગળ લાંખી ખીલીના પડછાયા રવિવારે વીશ માંગળ, સીમવારે સેાળ આંગળ, મંગળવારે પંદર આંગળ, બુધવારે ચૌદ આંગળ, ગુરૂવારે તેર આંગળ, શુક્રવારે ખાર આંગળ, તથા શનિવારે પણ ખાર આંગળ હાય તા તેને શકુાયાલગ્ન કહે છે. તે લગ્નમાં દીક્ષા આદિ કાર્ય શુભ છે.
(ग) तीव्र वासा दीक्षार्थीना सभय
વિષયવાસનાની વિષમ અટવી ( વન)માં વ્યાપ્ત દાવાનલની વિકટ જ્વાલાએથી જેનું અંતઃકરણ ખળી ગયું છે, અને જે અનન્ત જન્મ, જરા, મરણુ વગેરેના લયથી ચિંતાતુર છે, ચારે બાજુથી મકાનમાં આગ લાગવાથી જેનુ સર્વસ્વ ભસ્મ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
___ (१३) अब नूतनपानच्याति:गोपर्यादिनिमित्तं नूतनपाचव्यापृतिश्च, मृगशिरःपुप्याश्विनीहस्तानुराधाचित्रारेवतीपु, सोमगुरुवासरयोश्च शुभदा ।
(१४) आचार्यादिपदप्रदानसमय:---- आचार्यादिपदप्रदाने-श्रवणं, ज्येष्ठा, पुष्यम् , अभिजित् , हस्तः, अश्विनी, रोहिणी, उत्तरात्रय, मृगशिरः, अनुराधा, वती, एतानि नक्षत्राणि शुभानि शोमनतिथिवारादयोऽपि द्रष्टव्याः ।
अथ () द्रव्यानुयोग:द्रवति गच्छति प्रामोति मुञ्चति या तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम् । अथवा
(१३) नूतन पात्र का प्रयोग गोचरी आदि के लिए नयीन पात्र का उपयोग मृगशिर, पुप्य, अश्विनी, हस्त, अनुराधा, चित्रा और रेवती नक्षत्रों में, तथा सोमवार और गुरुवार के दिन करना शुम है ।
(१४) आचार्य आदि पदवीदान का समय माचार्य आदि पदवी देने में अवग, ज्येष्टा, पुण्य, अभिजित्, अश्विनी, रोहिणी, उत्तरात्रय, ( उत्तरापाढा उत्तराभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी) मृगशिर, अनुराधा और रेवती, ये 'नक्षत्र शुभ हैं । इस प्रसङ्ग पर शुभ तिथि और शुभ वार आदि भी देखना चाहिए।
(४) द्रव्यानयोग-- आगे की पर्याय प्राप्त करने वाला और पूर्व पर्यायों का त्याग करने वाला द्रव्य
(૧૩) નવા પાત્રને ઉપયોગ ગેચરી આદિ માટે નવા પાત્રનો ઉપયોગ મૃગશીર્ષ, પુષ્ય, અશ્વિની, હસ્ત, અનુરાધા, ચિત્રા, અને રેવતી નક્ષત્રોમાં, તથા મવાર અને ગુરૂવારના દિવસે કરે तेशुम छे.
(૧) આચાર્ય આદિ પદવીદાન સમયमाथार्य मा ५वी भाषामा अy, 201, पुष्य, मलित, स्त, अश्विनी शडिली, हत्तात्रय (त्त२१-पाटी, Grat-माद्र ५४. तस-सुनी) મૃગશિર, અનુરાધા અને રેવતી, આ નક્ષત્રો શુભ છે. આ પ્રસંગ ઉપર શુભ તિથિ અને શુભ વાર વગેરે પણ જેવું જોઈએ.
(४) यानुयोઆગળની પર્યાય પ્રાપ્ત કરનારા અને પ્રથમની પર્યાયનો ત્યાગ કરવાવાળાને
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आचारायंत्रे
(१२) अथ नवदीक्षितस्य प्रथमगोचरीविचारः-
प्रथमगोचरीविषये तीक्ष्णोग्रमिश्रनक्षत्राणि शनिमङ्गलदिवसौ च वर्जयेत् ।
आर्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूलम् एतानि चत्वारि तीक्ष्णनक्षत्राणि । भरणी, पूर्वात्रयं, मघा, एतानि पञ्चग्रनक्षाणि । कृत्तिका, विशाखा, इमे द्वे मिश्रनक्षत्रे ।
रिक्ताऽमावास्याक्षयतिथयस्त्याज्याः । शनिमङ्गलवारयोगे रिक्ताऽपि प्रशस्ता
विज्ञेया ।
(१२) नव दीक्षित की प्रथम गोचरी
पहली बार गोचरी के विषय में तीक्ष्ण उम्र और मिश्र नक्षत्र एवं शनि तथा मङ्गल चार व्याज्य हैं ।
आर्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल, ये चार नक्षत्र तीक्ष्ण हैं । भरणी, पूर्वात्रय - ( पूर्वापाढा पूर्वभाद्रपदा और पूर्वाफाल्गुनी ) और मघा, ये पाँच उम्र नक्षत्र हैं । कृत्तिका और विशाखा, ये दो नक्षत्र मिश्र कहलाते हैं ।
रिक्ता तिथि, अमावास्या और क्षय तिथि व्याज्य है, हाँ यदि शनि और मंगल वार का योग हो तो रिक्ता तिथि भी प्रशस्त है ।
(१२) नवदीक्षितनी प्रथम गोयरी
પહેલીવાર ગાચરીના વિષયમાં તીક્ષ્ણ, ઉગ્ર અને મિશ્ર નક્ષત્ર તથા શિન અને મંગળવાર ત્યાજ્ય છે.
*
मार्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा, भने भूस, भा यार नक्षत्र तीक्ष्णु छे, लरी, त्रयु पूर्वा (पूर्वाषाढा, पूर्वालद्रायह, भने पूर्वाशल्गुनी ) अने भधा से पांय नक्षत्र, ઉગ્ર નક્ષત્ર છે. કૃત્તિકા અને વિશાખા, આ એ નક્ષત્ર મિશ્ર કહેવાય છે.
રિક્તા તિથિ, અમાવાસ્યા અને ક્ષય તિથિ ત્યાજ્ય છે, પરન્તુ જો શિન અને મગલવારના ચોગ હાય તે રિક્તા તિથિ પણ ઉત્તમ છે.
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
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दयः सामान्यगुणाः सन्ति । एवं गतिहेतुत्वं धर्मे, स्थितिहेतुत्वमधर्मे, अवकाशदानहेतुत्वमाकाशे, वर्त्तन हेतुत्वं काले, रूपादिमचं पुनले विशेषगुणाः सन्तीति
द्रव्यलक्षणसमन्वयः ।
कथित्तु 'सद् द्रव्यलक्षणम्' इति सूत्रयित्वा ' उत्पादव्ययव्ययुक्तं सद्' इति सूत्रेण सच्छन्दविवरणं कुर्वन् द्रव्यसामान्यलक्षणमुच्या विशेषविज्ञानजननाय विशेषलक्षणमवोचत्- 'गुणपर्यायवद्द्रव्यम्' इति । तदपि प्रकृत
अस्तित्व (जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कभी विनाश न हो ) वस्तुव - द्रव्यत्व (जिस शक्ति के निमित्त से पर्याय सदैव बदलती रहे ) और प्रमेयत्व -- ज्ञेयत्व (जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य किसी न किसी के ज्ञान का विषय हो) आदि सामान्य गुण हैं । इसीप्रकार धर्मास्तिकाय में गतिहेतुत्व ( गतिकारणता ) अधर्मास्तिकाय में स्थितिहेतुत्व ( स्थितिकारणता) माकाश में भवकाशदानहेतुत्व (अवकाशदायिता) काल में वर्तनाहेतुत्व, ( नवपुराणकारणता) आदि, और पुल में रूपादिमत्त्व विशेष गुण हैं ? अतः इन सब में द्रव्य के लक्षण की संगति होजाती है।
किसी आचार्यने 'सद् ब्रव्यलक्षणम्' ऐसा सूत्र रचकर 'उत्पाद-व्यय-धौन्य- युक्तं सत्' अर्थात् जिस में उत्पाद विनाश और धौम्य युगपत् पाये जायें, वह सत् है, इस सूत्र के द्वारा सत् की व्याख्या करते हुए सामान्य दव्य का स्वरूप बतला कर विशेष बोध
અસ્તિત્વ (જે શક્તિના નિમિત્તથી દ્રવ્યને કયારેય પણ નાશ ન હેાય. ) વસ્તુíદ્રષ્યત્વ (જે શક્તિના નિમિત્તથી પર્યાય હુંમેશાં બદલતી રહે) અને પ્રમેયત્વ જ્ઞેયત્વ ( જે શક્તિના નિમિત્તથી દ્રવ્ય કાઈ ન ફેઈ જ્ઞાનના વિષય હાય ) આદિ સામાન્ય ગુણ છે. એ પ્રમાણે ધર્માસ્તિકાયમાં ગતિહેતુત્વ (તિકારણતા ) અધર્માસ્તિકાયમાં સ્થિતિહતુત્વ ( સ્થિતિકારણુતા ) આકાશમાં અવકાશદાનહેતુત્વ (અવકાશદાચિત્વ ) કાલમાં વર્તનાહેતુત્વ (નવપુરાણકારણતા ) આદિ, અને પુદ્ગલમાં રૂપાદિમત્ત્વ વિશેષ ગુણુ છે. તેથી એ સર્વાંમાં દ્રવ્યના લાણુની સતિ થઇ જાય છે.
अर्ध सायायें "सद् द्रव्यलक्षणम्" भेषु सूत्र स्थीने 'उत्पाद व्यय-धौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् मां उत्पाद, विनाश भने मौग्य मे अणे लेवामां आवे ते "सत्" છે. આ સૂત્ર દ્વારા સતની વ્યાખ્યા કરતા થકા સામાન્ય દ્રવ્યનું સ્વરૂપ ખતાવીને
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आचाराने द्रयते = पाप्यते मुच्यते वा तैस्तैः पर्यायैरिति द्रव्यम्। द्रव्यस्य - अनुयोगः द्रव्यानुयोगः।
द्रव्यानुयोगो हि द्रव्याणां यथावस्थितस्वरूपाक्योधने समीचीनयुक्ति प्रदर्शयति । तया दर्शनस्य नैर्मल्यम् । ततश्च सम्यक् चारित्रं संपद्यते । तथा चायमपि चरणकरणानुयोगं पोपयतीति वोध्यम् ।
द्रव्यलक्षणम्अथ किं तावद् द्रव्यम् ? उच्यते- "गुणाश्रयो द्रव्यम्" । यथा जीवे ज्ञानदर्शनचारित्रमुखोपयोगादयो विशेषगुणाः, अस्तित्व-द्रव्यत्व-क्षेयता कहलाता है । अथवा जो पर्यायों के द्वारा प्राप्त हो, अथवा पर्यायों से मुक्त हो उसे, द्रव्य कहते हैं। ऐसे द्रव्य के अनुयोग को द्रव्यानुयोग कहते हैं ।
द्रव्यानुयोग द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप समझाने के लिए समीचीन मार्ग प्रदर्शित करता है । उस से सम्यग्दर्शन निर्मल होता है, और सम्यग्दर्शन की निर्मलता से सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है । इस प्रकार यह अनुयोग भी चरणकरणानुयोग का पोषक है। '
द्रव्य का लक्षणद्रव्य किसे कहते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-जो गुणों का आधार हो वह द्रव्य है, जैसे जीवन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और उपयोग आदि विशेष गुण हैं। દ્રવ્ય કહે છે, અથવા જે પર્યાય દ્વારા પ્રાપ્ત હોય અથવા પર્યાયેથી યુક્ત હોય તેને દ્રવ્ય કહે છે. એવા દ્રવ્યના અનુયેગને દ્રવ્યાનુગ કહે છે.
દ્રવ્યાનુગ દ્રના યથાર્થ સ્વરૂપને સમજાવવા માટે બરાબર સાચો માર્ગ પ્રદર્શિત કરે છે, તેથી સમ્યગ્દર્શન નિર્મલ થાય છે, અને સમ્યગ્દર્શનની નિર્મલતાથી સમ્યફ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ પ્રમાણે આ અનુયાગ પણ ચરણ કરણાનુગને પિષક છે.
२०यनुरक्षદ્રવ્ય કેને કહે છે? એ પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે–જે ગુનો આધાર હેયતે દ્રવ્ય છે, જે પ્રમાણે જીવમાં જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર સુખ અને ઉપગ આદિ વિશેષ ગુણ છે.
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५७
Ramanane
आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा सुखवीर्यादयः, पुद्गलस्य वर्णगन्धरसस्पर्शादयो गुणाः । 'मात्र' शब्दोपादनं पर्यायेऽतिमसनवारणाय ।
द्रव्यस्वरूपविचारेण 'गुणसमुदायो द्रव्य' -मिति प्रतीयते, यथा मूलस्कन्धशाखामशाखादीनां समुदायो वृक्षः, तथैवास्तित्व-परिणामित्ववस्तुत्व - क्षेयत्व -- ममेयत्व - मदेशवत्वादिसामान्यगुणानां चेतनत्व-गतिहेतुत्वस्थितिहेतुला - ऽवकाशदानहेतुत्व - वनाहेतुत्व - वर्ण -- गन्ध - रस - स्पर्शलक्षण है, जैसे-जीव के गुण-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि हैं, तथा पुद्गल के गुण वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि हैं । उपर जो 'मात्र' (सिर्फ) शब्द का प्रयोग किया गया है। वह पर्याय में अतिप्रसग निवारण करते के लिए है । अर्थात् गुण केवल द्रव्य में होते हैं, पर्याय में नहीं होते।
द्रव्य के स्वरूप पर विचार करने से प्रतीत होता है कि गुणोका समुदाय ही द्रव्य है। जसे मूल, स्कन्ध, शाखा और प्रशाखा आदि का समूह हो वृक्ष है, उसी प्रकार अस्तित्व, परिणामित्व, वस्तुत्व, ज्ञेयत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्व आदि सामान्य गुणों का, तथा चेतना, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवकाशदानहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्शवत्व आदि विशेष गुणों का समूह ही द्रव्य है । यही यह स्मरण रखना चाहिए कि-विभिन्न द्रव्यों के
રહેવું તે ગુણુનું લક્ષણ છે. જેવી રીતે જીવન ગુણ-જ્ઞાન, દર્શન, સુખ અને વર્ષ આદિ છે. તથા પુદ્ગલના ગુણ-વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ આદિ છે. ઉપર જે માત્ર શબ્દનો પ્રવેગ કર્યો છે તે પથમાં અતિપ્રસંગ નિવારણ કરવા માટે છે, અથૉત્ ગુણ કેવલ દ્રશ્યમાં હોય છે, પર્યાયમાં હોય નહિ.
દ્રવ્યના સ્વરૂપ પર વિચાર કરવાથી જણાય છે કે ગુણેને સમુદાય જ દ્રવ્ય છે. જે રીતે-મૂલ, સકંધ, શાખા અને પ્રશાખા આદિને સમૂહ તે વૃક્ષ છે. એ પ્રમાણે અસ્તિત્વ, પરિણામિત્વ વસ્તૃત્વ, યત્વ, પ્રમેયત, પ્રદેશવત્વ આદિ સામાન્ય ગુને, તથા ચેતના ગતિ હેતુત્વ, સ્થિતિ હેતુત્વ, અવકાશદાનહેતુત્વ, વતના હેતુત્વ, વર્ણ, રસ, ગંધ, સ્પર્શવત્વ આદિ વિરોષ ગુણેને સમૂહ તે દ્રવ્ય છે. અહિં એ યાદ
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'. आचारास लक्षणे समाविष्टमेवेति गुरुतरलक्षणं नावश्यकमिति ज्ञेयम् । . परमार्थतस्तु पर्याया न गुणतो भिन्नाः कार्यकारणयोरभेदात् । यथा कटककुण्डलादीनि कनकतो न भिन्नानि, घटशरावादीनि मृदो नातिरिक्तानि, तथा गुणजन्मनां पर्यायाणां न भेदो गुणेभ्य इति द्रव्यलक्षणे पर्यायशब्दमवेशो नावश्यक इत्यवसेयम् ।
गुणलक्षणम्- . . द्रव्यस्याऽऽश्रयायिभावेन नित्यसवर्तिनी धर्मा गुणाः, ते द्रव्यस्य शक्तिविशेषाः। द्रव्यमानाश्रितं गुणस्य लक्षणम् । यथा जीवस्य ज्ञानदर्शन: कराने के लिये विशेष लक्षण यह बतलाया है-'गुणपर्याययं द्रव्यम्' यह लक्षण भी प्रकृत लक्षण 'गुणाश्रयो द्रव्यम् । में समाविष्ट है, इस लिये उनका वडा लक्षण करने, की आवश्यकता नहीं है।
वास्तव में तो पर्याय, गुण से मिन्न नहीं है, क्योंकि कार्य और कारण में भेद नहीं होता। जैसे-कटक, कुण्डल आदि पर्याय सुवर्ण से भिन्न नहीं है, अतः गुणों से उत्पन्न होने वाले गुणों से भिन्न नहीं हैं । ऐसी अवस्था में द्रव्य के लक्षण में पर्याय शब्द डालना आवश्यक नहीं है।
गुण का लक्षण' द्रव्य के आश्रय आश्रयी रूपसे अथवा कथञ्चित् तादात्म्यरूपसे निय सहवर्ती धर्म,. 'गुण' कहलाते हैं। 'गुण' द्रव्य की शक्तिविशेष है। सिर्फ द्रव्याश्रित होना गुण का विशेष माघ ४२११वा भाट विशेष सक्षए में 'रताव्यु छ:-"गुणपर्यायवद् द्रव्यम्"
मा.संक्षण प प्रत (यासू) सक्ष) (गुणाभयो द्रव्यम्) मा समाविष्ट छ . तेथी વિશેષ લક્ષણ કરવાની આવશ્યકતા નથી.
- વાસ્તવમાં તે પર્યાય, ગુણથી ભિન્ન નથી, કારણ કે કાર્ય અને કારણમાં ભેદ નથી, જેવી રીતે કડાં અને કુંડલ આદિ પર્યાય સુવર્ણથી ભિન્ન નથી ઘટ અને કેર આદિ પર્યાય મૃત્તિકા-માટીથી ભિન્ન નથી, કારણ કે ગુણેથી ઉત્પન્ન થવા વાળા પર્યાય, ગુણથી ભિન્ન નથી, એવી અવસ્થામાં દ્રવ્યના લક્ષણમાં પર્યાય શબ્દ નાખ તે જરૂરી નથી.
शुधना सक्ष* દ્રવ્યના આશ્રય–આશ્રયી–રૂપથી અથવા કંચિત્ તાદાભ્યરૂપથી નિત્ય સહવત ધર્મ ગુણ કહેવાય છે. ગુણ એ દ્રવ્યની શક્તિવિશેષ છે. માત્ર દ્રવ્યાશ્રિત
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणों क्रमेण द्वादशाङ्गतत्त्वं विज्ञाय ज्ञानधारां प्रवर्द्धयति । तत्र तस्य बालसंयमिनो ज्ञानं प्रतिक्षणं विलक्षणतामापद्यमानमपूर्वमपूर्व जायमानं ज्ञानं पर्यायशब्दवाच्यतां भजति । एवं दर्शनचारित्रादीनामपि पर्याया ज्ञातव्या । जीवस्य मानुपत्ववाल्यादयोऽपि पर्यायाः। पुदगलस्य तु एकगुणकालवादयो पर्याया ज्ञेयाः। एवं च द्रव्यगुणाश्रितत्वं पर्यायस्य लक्षणमिति निधीयते । तया चोक्तमुत्तराध्ययने-(अ. २८) पहले-पहल आवश्यक मात्र का अध्ययन करता है, फिर समिति और गुप्ति का ज्ञान सम्पादन करता है। तदनन्तर क्रम से द्वादशाक्ष का तत्व जान कर ज्ञान की धारा में वृद्धि करता है, उस बाल मुनि का ज्ञान क्षण-क्षण में विलक्षण होकर नवीन नवीन रूपों में उत्पन्न होता हुआ 'पर्याय' शब्द द्वारा कहा जाता है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्र आदि गुणों के पर्याय भी समझ लेना चाहिए । मनुष्यता, बालकपन आदि जीव के पर्याय हैं और एक-गुणकालापन आदि पुद्गल के, वर्ण-गुण के पर्याय हैं । इस प्रकार यह निश्चित होता है कि पर्याय द्रव्य और गुण दोनों में ही रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- ...
"गुणों का जो आश्रय हो उसे द्रव्य कहते हैं, गुण एक मात्र द्रव्य में ही रहते हैं। पर्यायों का लक्षण उभयाश्रित होना है, अर्थात् पर्याय, द्रव्य और गुण दोनों में ही पाये जाते हैं"।
કમળાની સેવા કરતા થકા પ્રથમ આવશ્યક માત્રનું અધ્યયન કરે છે.. પછી સમિતિ અને ગુપ્તિનું જ્ઞાન સંપાદન કરે છે, ત્યાર પછી કમથી દ્વાદશાંગનું તવ જાણી જ્ઞાનની ધારામાં વૃદ્ધિ કરે છે, તે બાલમુનિનું જ્ઞાન ક્ષણ-ક્ષણમાં વિલક્ષણ-તરેહવાર બની નવીન રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેને પર્યાય શબ્દથી ઓળખવામાં આવે છે, એ પ્રમાણે દર્શન અને ચારિત્ર આદિ ગુણના પર્યાય પણ સમજી લેવા જોઈએ. મનુષ્યતા, બાલકપણું આદિ જીવના પર્યાય છે, અને એક ગુણકાળાપણું આદિ પુદગલના વર્ણગુણને પર્યાય છે. આ પ્રમાણે આ નિશ્ચિત થાય છે કે-પર્યાય, દ્રવ્ય એને ગુણ એ બનેમાં રહે છે. ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રમાં કહ્યું છે
ગુણેને જે આશ્રય હોય, તેને દ્રવ્ય કહે છે; ગુણ એક માત્ર દ્રવ્યમાં જ રહે છે, અને પર્યાનું લક્ષણ ઉભયશ્રિત હોય છે, અર્થાત્ પર્યાય, દ્રવ્ય અને ગુણ બન્નેમાં જોવામાં આવે છે.
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- आचाराम यंत्वादिविशेषगुणानां च समुदायो द्रव्यम् । एवं 'द्रव्यपर्यायस्वरूपमपी-स्पनुपदमेव चक्ष्यते।
... . पर्यायलक्षणम्... परियन्ति-उत्पादविनाशी प्राप्नुवन्ति न सर्वदा तिष्ठन्तीति पर्यायाः। यदापरि सर्वथा अयन्ते गच्छन्ति द्रव्यगुणो समाश्रयन्तीति पर्यायाः। . द्रव्यस्योत्पादविनाशशालिनो धर्माः पर्यायाः । पर्याया हि द्रव्यं गुणं चाश्रित्य वर्तन्ते । कालभेदादेकमेव ज्ञानं जीवस्यान्यदन्यद्रूपं दधन पर्यायशब्दवाच्यं भवति, यथा कश्चिदप्टवीयो विनयी प्रमादविकयावर्जितो वालमुनिगुरुचरणसरोज सेवमानः पूर्वमावश्यफमात्रमधीत्य समितिगुप्तिज्ञानं संपादयति, विशेष गुणों का समूह नहीं बन सकता है। ऐसे द्रव्य और पर्याय के विषय में भी समझना चाहिए, वह अभी आगे बतायेंगे।
पर्याय का लक्षण'- जिनके निस्तर उत्पाद और व्यय होता है, जो सदैव स्थिर नहीं रहते उन्हें पर्याय फहते हैं । अथवा द्रव्य और गुण का आश्रय लेने वाले पर्याय कहलाते हैं।
द्रव्य के उत्पाद और विनाश--शील धर्म पर्याय कहलाते हैं। पर्याय, द्रव्य में भी रहते हैं और गुण में भी रहते हैं। जीवका एक ही ज्ञानगुण काल के भेदसे भिन्न-भिन्न रूप धारण करता हुआ पर्याय कहलाता है। जैसे एक आठ वर्ष का विनयी प्रमाद और. विकथा से दूर रहने वाला बाल मुनि अपने गुरु के चरण कमलों की सेवा करता हुआ રખવું જોઈએ કે વિભિન્ન દ્રવ્યના વિશેષ ગુણોનો સમૂહ બની શકતો નથી. એવી રીતે દ્રવ્ય અને પર્યાયના વિષયમાં પણ સમજવું જોઈએ. વિશેષ આગળ બતાવીશું.
___ पर्याय सक्षજેની અંદર હંમેશાં ઉત્પાદ અને વ્યય થયા કરે છે. અને જે હંમેશાં–સદાકાળ સ્થિર રહેતું નથી તેને પર્યાય કહે છે, અથવા દ્રવ્ય અને ગુણને આશ્રય લેનાર તેને પર્યાય કહેવામાં આવે છે. * દ્રવ્યને ઉત્પાદ અને વિનાશ-શીલ ધર્મ તે પર્યાય કહેવાય છે. પર્યાય, દ્રવ્યમાં પણ રહે છે અને ગુણમાં પણ રહે છે. જીવને એક જ જ્ઞાનગુણ કાલના ભેદથી ભિન્ન ભિન્ન રૂપ ધારણ કરીને પર્યાય કહેવાય છે. જેવી રીતે કે એક આઠ વર્ષના વિનયવંત, પ્રમાદ અને વિકથાથી દૂર રહેવાવાળા બાલમુનિ પિતાના ગુરૂના ચરણ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां
द्रव्यविभाग:द्रव्यं पड्विधम्-धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवभेदात् । उक्तञ्च भीभगवतीसूत्रे___"कइणं भंते ! दन्या पण्णता ?, गोयमा ! छ दन्या पण्णत्ता, तं जहा-- धम्मंत्यिकार, अधम्मत्थिकाए, आगासस्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवस्थिकाए, अंदासमये" ॥
उत्तराध्ययनसूत्रेऽपि-(म. २८) "धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदसिहं ॥ ७॥
द्रव्य के भेदद्रव्य उह प्रकार का है-(१) धर्म (२) अधर्म (३) आकाश (४) काल (५) पुद्गल और (६) जीव । श्री भगवत्तीसूत्र में कहा है -
"भगवान् । द्रव्य कितने कहे गये हैं :, गौतम ! छह द्रव्य कहे गये हैं, वे इस प्रकार-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और अद्धा-समय"।
उक्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है
"धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव को सर्वज्ञ, सर्वदशी जिन भगवान् ने लोकसंज्ञा दी है ।। ७॥
દ્રવ્યના ભેદ– द्रव्यना ७ २ छ-(१) धर्म (२) मधर्म (8) माश (४) (५) પુદ્ગલ અને (૬) જીવ. શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે
ભગવાન ! દ્રવ્ય કેટલાં કાાં છે? ગૌતમ! છ દ્રવ્ય કહેલા છે. તે આ પ્રમાણે-ધમસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય આકાશાસ્તિકાય, પુદગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય सन अद्धा-समय,
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે- “ધર્મ અધર્મ, આકાશ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવને સર્વજ્ઞ સર્વદશા જિજ भगवान सा माया छ” ॥७॥
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আদায় "गुणाणमासमो दवं, एगदव्यस्सिया गुणा। लक्खणं पंज्जवाणं तु, दुइओ अस्सिया भवे ॥ ६॥" इति ।
छाया
"गुणानामाश्रयो द्रव्यम् , एकद्रव्याश्रिता गुणा: लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता भवेयुः" ॥ ६ ॥ इति ।
द्रव्यलक्षणे पर्यायानुल्या कार्यकारणयोरमेदविवक्षया पर्यायाणां गुणेषु समावेश इति भगवदभिमायो गम्यते । “एकद्रव्याश्रिता गुणाः" इति, एकं केवलं द्रव्यमाश्रित्य गुणा वर्तन्त इत्यर्थः । अनेन गुणलक्षणमुक्तम् । 'पर्यवाणां लक्षणं तु उभयोराश्रिता भवेयुः' इत्यन्वयः । पर्यवः, पर्ययः, पर्यायः, इति समानार्थकाः । उभयो व्यगुणयोराश्रिताः पर्यायाः, इति पर्यायलक्षणं वोध्यमित्यर्थः । पर्यायास्तु द्रव्यं गुणं चोभयमाश्रित्य वर्तन्त इति भावः ।
द्रव्य के लक्षण में 'पर्याय' पद का समावेश न करने के कारण भगवान् का अभिप्राय यह है कि कार्य कारण के अभेदसे गुण में ही पर्याय का समावेश हो जाता है । 'एगदबस्सिया गुणा' इस वाक्य का अर्थ यह है कि गुण केवल द्रव्य में ही होते हैं। इस कथनद्वारा गुण का लक्षण भी कह दिया गया है।
पर्याय का लक्षणं उभयाश्रित होना है, दोनो में अर्थात् द्रव्य में भी और गुण में भी पर्याय रहते हैं । पर्यव, पर्यय और पर्याय ये सभी समानार्थक हैं।
દ્રવ્યના લક્ષણમાં પર્યાય પદને સમાવેશ નહિ કરવાથી ભગવાનને અભિપ્રાર્થ એ છે કે-કાર્ય-કારણના અભેદથી ગુણમાં જ પર્યાયને સમાવેશ થઈ જાય છે. 'एगदव्वस्सिया गुणा' मा पायन म मे छ ?-गुष्ठ डेस द्रव्यमा में राय છે. આ કથન દ્વારા ગુણનું લક્ષણ પણ કહી આપ્યું છે.
પર્યાયનું લક્ષણ ઉભયશ્રિત હોય છે, બન્નેમાં અર્થાત્ દ્રવ્યમાં અને ગુણમાં પણ પર્યાય રહે છે. પર્યાવ, પર્યય અને પર્યાય શબ્દ સમાન અર્થવાળા છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अववरणां
द्रव्यविभाग:द्रव्यं पड्वियम्-धर्माधर्माकाशकालपुद्गलनीवभेदात् । उक्तञ्च भीभगवतीमत्रे~___"कइणं भंते ! दल्या पण्णत्ता ?, गोयमा ! छ दव्या पणत्ता, तं जहाधम्मंत्यिकाए, अधम्मत्यिकाए, आगासस्थिकाए, पुग्गलत्यिकाए, जीवत्यिकाए, अंदासमये ॥
उत्तराध्ययनसूत्रेऽपि-(अ. २८) "धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदसिहि ॥ ७॥
द्रव्य के भेददन्य छह प्रकार का है-(१) धर्म (२) अधर्म (३) आकाश (४) काल (५) पुद्गल और (६) जीव । श्री भगवतीसूत्र में कहा है -
"भगवान् । द्रव्य कितने कहे गये हैं :, गौतम ! छह द्रव्य कहे गये हैं, वे इस प्रकार-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, नीवास्तिकाय और सदा-समय।
उक्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है-- __"धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव को सर्वज्ञ, सर्वदशी जिन भगवान् ने लोकसंज्ञा दी है ॥ ७॥
દ્રવ્યના ભેદ
व्यन छ र छ-(१) धर्म (२) अधर्म (3) मा (४) ४ (५) પુદ્ગલ અને (૬) જીવ. શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે
ભગવાન ! દ્રવ્ય કેટલાં કહ્યાં છે ? ગૌતમ? છ દ્રવ્ય કહેલા છે. તે આ પ્રમાણે-ધમસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય આકાશાસ્તિકાય, પુદગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય भने मद्धा-समय,"
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે- ધર્મ અધર્મ, આકાશ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવને સર્વજ્ઞ સવેદશી જિન
पानी माछ" ॥७॥
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आवारा "गुणाणमासो दवं, एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पंज्जवाणं तु, दुइओ अस्सिया भवे ॥ ६॥" इति ।
छाया
"गुणानामाश्रयो द्रव्यम् , एकद्रव्याश्रिता गुणा :
लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता भवेयुः ॥ ६॥ इति ।
द्रव्यलक्षणे पर्यायानुत्या कार्यकारणयोरभेदविवक्षया पर्यायाणां गुणेषु समावेश इति भगवदभिमायो गम्यते । “एकद्रव्याश्रिता गुणाः" इति, एकं केवलं द्रव्यमाश्रित्य गुणा वर्तन्त इत्यर्थः । अनेन गुणलक्षणमुक्तम् । 'पर्यवाणां लक्षणं तु उभयोराश्रिता भवेयुः' इत्यन्वयः । पर्यवः, पर्ययः, पर्यायः, इति समानार्यकाः । उभयो द्रव्यगुणयोराश्रिताः पर्यायाः, इति पर्यायलक्षणं वोध्यमित्ययः । पर्यायास्तु द्रव्यं गुणं चोभयमाश्रित्य वर्तन्त इति भावः ।
द्रव्य के लक्षण में 'पर्याय' पद का समावेश न करने के कारण भगवान् का अभिप्राय यह है कि कार्य कारण के अभेदसे गुण में ही पर्याय का समावेश हो जाता है । 'एगदयस्सिया गुणा' इस वाक्य का अर्थ यह है कि गुण केवल द्रव्य में ही होते हैं। इस कथनद्वारा गुण का लक्षण भी कह दिया गया है ।
पर्याय का लक्षणं उभयाश्रित होना है, दोनो में अर्थात् द्रव्य में भी और गुण में भी पर्याय रहते हैं । पर्यव, पर्यय और पर्याय ये सभी समानार्थक हैं।
દ્રવ્યના લક્ષણમાં “પર્યાય પદને સમાવેશ નહિ કરવાથી ભગવાનને અભિપ્રાર્થ એ છે કે-કાર્ય-કારણના અભેદથી ગુણમાં જ પર્યાયને સમાવેશ થઈ જાય છે, 'एगदवस्सिया गुणा' मा पायनेअर्थ छ ॐ--- ३१६ द्रव्यमा राय છે, આ કથન દ્વારા ગુણનું લક્ષણ પણ કહી આપ્યું છે.
પર્યાયનું લક્ષણ ઉભયાશ્રિત હોય છે, બનેમાં અથત કવ્યમાં અને ગુણમાં પષ પથય રહે છે. પર્યાવ, પર્યય અને પર્યાય શબ્દ સમાન અર્થવાળા છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां
द्रव्यविमाग:द्रव्यं पड्विधम्-धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवभेदात् । उक्तञ्च भीभगवतीसूत्रे___"कइण भंते ! दव्या पण्णत्ता ?, गोयमा! छ दव्या पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्यिकाए, अधम्मस्थिकाए, आगासस्थिकाए, पुग्गलस्थिकाए, जीवत्यिकाए, अंदासमये" ॥
उत्तराध्ययनसूत्रेऽपि-(प. २८) "धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदसिहि ॥७॥
द्रव्य के भेदद्रव्य छह प्रकार का है-(१) धर्म (२) अधर्म (३) आकाश (४) काल (५) पुद्गल और (६) जीव । श्री भगवतीसूत्र में कहा है -
"भगवान् ! द्रव्य कितने कहे गये हैं !, गौतम ! छह द्रव्य कहे गये हैं, वे इस प्रकार-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और अद्धा-समय"।
उक्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है
"धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव को सर्वज्ञ, सर्वदशी जिन भगवान् ने लोकसंज्ञा दी है ॥७॥
व्यता :द्रव्यना ७ घार छ-(१) धर्म (२) अधर्म (3) आश (४) ६ (५) ઉદ્દગલ અને (૬) જીવ. શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે
“ભગવાન ! દ્રવ્ય કેટલાં કહ્યાં છે ? ગૌતમ! છ દ્રવ્ય કહેલા છે. તે આ પ્રમાણે-ધમસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય આકાશાસ્તિકાય, પુદગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય भने मद्ध-समय,"
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે* “ધર્મ અધર્મ, આકાશ, કાલ, પુદ્દગલ અને જીવને સર્વજ્ઞ સર્વદશી જિન लगवाने संशा भाषी छ" ॥७॥
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...'आचाराम धम्मो अहम्मो आगासं, दवं इकिकमाहियं ।
अणताणि य दन्नाणि, कालो पुग्गल जंतयो ।। ८॥" . .. अत्र कालमात्रं विहाय धर्मादयोऽस्तिकाया उच्यन्ते । 'अस्ती' ति तिङन्त'प्रतिरूपकमव्ययं प्रदेशवाचकम् । प्रदेशः स्वस्थानादनपायिं निर्विभाग खण्डम् । इदं निर्विभागं खण्डं यदा पुद्गलम्य गलनस्वभावात्तदीयस्कन्धदेशाम्यामवयुत्य- . पृथग्भूत्वा वर्तते तदा ‘परमाणुनाम्ना व्यवहियते । यावदपृथग्भूत्वा वर्तते तावत्तदेव निर्विभागं खण्डं प्रदेश इत्युच्यते । अनेनैवाशयेन पुद्गलास्तिकायस्य चत्वारो भेदा भगवता कथिता:-स्कन्धः,' देशः, प्रदेशः, परमाणुश्चेति । काया
धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीन द्रव्य एक एक है, काल, पुद्गल, जीव, अनन्त अनन्त द्रव्य है" ॥ ८॥ .. . . . .
, - काल को छोड कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं । 'अस्ति' यह तिङन्तरूप प्रतीत होने वाला एक अव्यय है और प्रदेश का वाचक है। जो अपने स्थान .से घ्युत न होने वाला, अर्थात् जो द्रव्य के साथ ही जुडा हुआ निर्विभाग-जिस का फिर विभाग-न हो सके वह खण्ड, प्रदेश कहलाता है। पुद्गल गलनस्वभाव वाला है अत एव जब यह निर्विभाग खण्ड पुद्गल के स्कन्ध या देश से विछुड कर अलग हो जाता है तब वही खण्ड परमाणु कहलाता है। जब वही परमाणु पुद्गल के स्कन्ध या देश में फिर मिल जाता है तब
ધર્મ અધર્મ અને આકાશ આ ત્રણ દિવ્ય એક–એક છે, કાલ, પુદગલ અને ७१ अनन्त-मनन्त द्रव्य छे." ॥८॥
सिपायना मान पाय द्रव्य मतिय उपाय छे.. मस्ति' में તિડો જપ જણાતું એક અવ્યય છે, અને પ્રદેશનું વાચક છે. જે પોતાના સ્થાનથી
ચુત નહિ થવા વાળા, અર્થાત્ દ્રવ્યની સાથે જ જોડાઈ રહેલા નિર્વિભાગ-જેને ફરી ભાગ ન થઈ શકે તે ખંડ, પ્રદેશ કહેવાય છે. પુદ્ગલ ગલનસ્વભાવ વાળા છે, તે કારણે જ્યારે તે નિવિભાગ ખંડ પુદ્ગલના સ્કંધ અથવા. દેશથી છુટા થઈ જાય છે. ત્યારે તે ખંડ પરમાણુ કહેવાય છે. જ્યારે તે પરમાણુ પુદ્ગલના સ્કંધ અથવા દેશમાં ફરીને મળી જાય છે ત્યારે તે પરમાણુના બદલે ફરી પ્રદેશ કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
६३ समूहः अस्ति-पदेशानां कायः सम्हो यत्र यस्य या स अस्तिकायः, प्रदेशसमृहवान, धर्मश्वासावस्तिकायश्चेति धर्मास्तिकायः । एवं च धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः, जीवास्तिकायः, इति नामानि सन्ति तेपाम् । कालस्तु प्रदेशाभावादस्तिकायो न भवतीत्यतः कालः कालास्तिकायशब्देन न व्ययहियते।
धर्मास्तिकायलक्षणम्. स्वभावतो गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गति प्रति सहकारि कारणं धर्मास्तिकायः । जीवाः पुद्गलाश्च स्वभावतो गच्छन्ति, तत्रोपादानकारणस्वरूपास्ते वह परमाणु के बदले फिर प्रदेश कहलाने लगता है, इसी अभिप्राय से भगवान् ने पुद्गलास्तिकाय के चार भेद बतलाये हैं (१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश और (४) परमाणु । - काय का अर्थ है समूह । जिसमें या जिसके प्रदेशों का समूह है वह अस्तिकाय कहलाता है । अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशों का समूहवाला । धर्मरूप अस्तिकाय धर्मास्तिकाय समझना चाहिए । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय, ये अस्तिकायों के नाम हैं। कालद्रव्य प्रदेशों का समूहरूप न होने के कारण अस्तिकाय नहीं है अतः काल 'कालास्तिकाय' नहीं कहलाता है ।
धर्मास्तिकायका लक्षणस्वाभाव से या प्रयोग से गतिक्रिया परिणत हुए जीव और पुद्गलों की गति में जो सहकारी कारण हो उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जीवों और पुद्गलों का गमन करना स्वभाव ही है। આ અભિપ્રાયે ભગવાને પગલાસ્તિકાલયના ચાર ભેદ બતાવ્યા છે. (૧) સ્કંધ, (૨) हेश, (3) प्रदेश मन (४) ५२मार. • કાયને અર્થ છે-સમૂહ, જેમાં અથવા જેનાં પ્રદેશોના સમૂહ હોય તે અસ્તિકાય કહેવાય છે, અસ્તિકાય અર્થાત પ્રદેશના સમૂહ વાળા, ધર્મઅપ અસ્તિકાય ધમાં સ્તિકાય સમજવું જોઈએ. એજ પ્રમાણે અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, પગલાસ્તિકાય અને જીવાસ્તિકાય, એ અસ્તિકાનાં નામ છે.
કાલદ્રવ્ય-પ્રદેશોના સમૂહ૫ નહિ હોવાથી અસ્તિકાય નથી તેથી કાલ એ 'ardsti! वाय नडि.
ધર્માસ્તિકાયનું લક્ષણ- • સ્વભાવથી , અથવા પ્રયોગથી ગતિક્રિયામાં પરિણત થયેલા છે અને -પુદ્ગલેની ગતિમાં જે સહકારી કારણ હોય, તેને ધર્માસ્તિકાય કહે છે. જી અને
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६४
ST
आधाराचे गति प्रति, पुनस्तस्यामेव गति-क्रियायां धर्मास्तिकायः सहायरूपं निमित्तकारणे भवति ।
(१) यथा सरित्समुद्राघवगाहनशीलानां मत्स्यानां स्वत एव निगमिता गतिश्च जायते, तत्र तेषां गमनं प्रति सहायरूपं निमित्तकारणं वारि। स्वयं तिता तु मत्स्यानां न तत् प्रेरकं गमनाय । . (२) यथा वा मृत्परिणामभूतस्य घटस्य दण्डो निमित्तकारणम् । ।
(३) यथा वा स्वत एवावगाहमानस्य द्रव्यस्यावगाहनं प्रति गानम् , न. पुनरवगाहमानं द्रव्यं बलादयगाइयति तत् । इस गमनक्रिया में उपादान कारण वह स्वयं ही होते हैं, धर्मास्तिकाय सहायकमात्र होने से निमित्त कारण है।
(१) जैसे-नदी अथवा समुद्रमें अवगाहन करनेवाले मच्छो में गमन करने की इच्छा स्वयं ही उत्पन्न होती है और स्वयं ही वे गति करते हैं, जल उन की गति में सहायक रूप निमित्त कारण होता है। हाँ, मच्छ अगर ठहरे तो जल उन्हें गमन करने के लिये प्रेरित नहीं करता।
(२) अथवा जैसे—मृत्तिका से बनने वाले घडे में डंडा निमित्त कारण होता है।
(३) अथवा जैसे--स्वयं ही अवगाहन करने वाले द्रव्य की अवगाहना में आकाश निमित्त कारण होता है। મુદ્દાને ગમન કરવું તે સ્વભાવ જ છે, એ ગમન-ક્રિયામાં ઉપાદાન કારણ તે પિતે જ હોય છે, ધર્માસ્તિકાય સહાયકમાત્ર હોવાથી તે નિમિત્ત કારણ છે. '
(૧) જેવી રીતે નદી અથવા સમુદ્રમાં અવગાહન કરવાવાળા મચ્છમાં ગમન કરવાની પિતાની જ ઈચ્છા ઉત્પન્ન થાય છે, અને પોતે જ તે ગતિ કરે છે, પરંતુ જલ તેની ગતિમાં સહાયરૂપ નિમિત્તે કારણે થાય છે પરંતુ મછ જે સ્થિર રહેવાની ઈચ્છા કરે તે જલ તેને ગમન કરવા માટે પ્રેરણા ४२ नथी.
(૨) અથવા જેવી રીતે-માટીથી તૈયાર થતા ઘડામાં ઉંડા અને ચાક નિમિત્ત કારણ હોય છે.
(8) અથવા જેવી રીતે-તે જ અવગાહન કરનારા દ્રવ્યના અવગાહનમાં આકાશ નિમિત્ત કારણ છેય છે.
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• “आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
(४) यया वा-जलवृप्टौ सत्यां स्वयमेव कृपिकर्मारम्भं कुर्वतां कृपीवलानां कृपिकर्मारम्म प्रति वृष्टिः सहकारि कारणं भवति । - (५) अपरोऽपि शास्त्रीयो दृष्टान्तो दृष्टिपथमवतरति, यथा-'सिद्धस्वरूपोऽ. हम् , अनन्तसुखभाजनोऽहम्' इत्यादिभावनया व्यवहारनयेन शुद्धसिद्वस्वरूपध्यानकर्तृणां, निश्चयनयेन निर्विकल्पध्यानपरिणामिनां स्वयं तदुपादानकारणस्वरूपाणां भव्यानां स्वयमेव जायमानां सिद्धगति प्रति प्रेरणारहितो निष्क्रियो मूर्तिरहितोऽपि सिद्धभगवान सहायकः सन् सहकारि कारणं भवति, तद्वदमों निष्क्रिया प्रेरणारहितश्च धर्मास्तिकायो जीवानां पुद्गलानां च गतिरूपे परिणाम सहायकः सन्निमित्तकारणं भवति ।
(४) अथवा जैसे-जल की वर्षा होने पर स्वयं ही कृषिकार्य आरम्भ करने वाले किसानों के कृषिकार्य के भारम्भमें वृष्टि सहकारी कारण होती है।
(५) एक शास्त्रीय दृष्टान्त और भी दृष्टिगोचर होता है-'मे सिद्धस्वरूप है, में अनन्त मुख का माजन हूँ। इस प्रकार की भावनापूर्वक व्यवहार नय से शुद्ध सिद्ध परमात्मा का ध्यान करने वालों को, और निचय नय से निर्विकल्प ध्यान में परिणत होने वालों को जो सिद्धगति की प्राप्ति होती है उस में उपादान कारण स्वयं ध्यान करने वाला भन्यात्मा है, और प्रेरणारहित, निष्क्रिय, तथा अमूर्तिक होते हुए भी सिद्ध भगवान् उसमें सहायक होने से निमित्त कारण हो जाते हैं। इसी प्रकार अमूर्तिक, निष्क्रिय और प्रेरणारहित धर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गलों के गतिरूप परिणाम में सहायक होता हुआ निमित्त कारण होता है।
(૪) અથવા જેવી રીતે પાણી વરસવાથી ખેડુત પિતે જ ખેતીના કામને આરંભ કરે છે, ખેતીને આરંભ કરવાવાળા ખેડુતના ખેતી કાર્યના આરમ્ભમાં વૃણિ (વરસાદ) સહકારી કારણ હોય છે.
(૫) એક શાસ્ત્રીય દષ્ટાંત બીજું પણ દષ્ટિગોચર થાય છે –
" सिद्ध स्व३५ धुएं मनन्त सुमनु लान-पात्र छु" मा अरनी ભાવનાપૂર્વક, વ્યવહાર નયથી શુદ્ધ સિદ્ધ ભગવાન-પરમાત્માનું ધ્યાન કરવાવાળા અને નિશ્ચયનયથી નિવિ૫ ધ્યાનમાં પરિણત થવા વાળાને જે સિદ્ધ-ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે તેમાં ઉપાદાન કારણ ધ્યાન કરવાવાળા પોતે ભવ્યાત્મા છે; અને પ્રેરણારહિત નિષ્ક્રિય તથા અમૂર્તિક હોવા છતાં પણ સિદ્ધ ભગવાન તેમાં સહાયક હોવાથી નિમિત્ત કારણ થઈ જાય છે. • એ પ્રમાણે અમતિક, નિષ્ક્રિય અને પ્રેરણારહિત ધર્માસ્તિકાય પણ જીવ અને પુદગલનાં ગતિરૂપ પરિણામમાં સહાયક હેવાથી નિમિત્ત કારણ છે. •
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.' आचाराने ननु धर्मास्तिकायस्य दण्डादिवनिमित्तकारणता नोपपद्यते, सव्यापार हि कारणं भवति, निर्व्यापारस्य कारणत्वे युक्त्यभावादिति चेन, .
धर्मास्तिकायस्य हि स्वाभाविकव्यापारसत्त्वात् कारणत्वं भूपपादम् । उक्तं च धर्मास्तिकायलक्षणं भगवता---
" गइलवरवणो उ धम्मो " इति,
'गतिलक्षणस्तु धर्मः' इति छाया (उत्तराध्ययनमने २८ अ.) गतिकार्यानुमेयो धर्मास्तिकाय इति भावः ।
शङ्का-धर्मास्तिकाय डंडा आदि के समान निमित्त कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह व्यापार नहीं करता, कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करने वाला ही कारण होता है । कार्य की उत्पत्ति में व्यापार न करने पर भी अगर किसी को कारण मान लिया जाय तो चाहे जो वस्तु चाहे जिस कार्य में कारण हो जायगी। ऐसी दशा में नियत कार्य-कारण भाव का अभाव हो जायगा।
समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ हेतु असिद्ध है । गतिरूप कार्य में धर्मास्तिकाय व्यापाररहित नहीं है, किन्तु धर्मास्तिकायका स्वाभाविक व्यापार विद्यमान होने के कारण उसे कारण मानना युक्तिसङ्गत है । भगवान् ने धर्मास्तिकायका लक्षण इस प्रकार बतलाया है--
“गइलक्रवणो उ धम्मो" धर्मास्तिकाय गति लक्षण वाला है । .(उत्तराध्ययनसूत्र अ० २८) अर्थात् गतिरूप कार्य से धर्मास्तिकायका अनुमान होता है ।
શકા-ધર્માસ્તિકાય દંડ આદિ પ્રમાણે નિમિત્ત કારણ થઈ શકતું નથી, કેમકે તે વ્યાપાર કરતું નથી, કાર્યની ઉત્પત્તિમાં વ્યાપાર કરનાર જ કારણ હોય છે. કાર્યની ઉત્પત્તિમાં વ્યાપાર નહિ કરવા છતાં ય જે કંઈને કારણ માનવામાં આવશે તે ગમે તે વસ્તુ ગમે તે કાર્યમાં કારણ થઈ જશે. એવી દશામાં નિયત કાર્ય કારણે ભાવને અભાવ થઈ જશે.
સમાધાન–આ શંકા ઠીક નથી, કારણ કે અહિં હેતુ અસિદ્ધ છે. ગતિરૂપ કાર્યમાં ધમસ્તિકાય વ્યાપારરહિત નથી, ધમસ્તિકાયને સ્વાભાવિક વ્યાપાર વિદ્યમાન હોવાથી તેને કારણે માનવું તે યુક્તિસંગત છે. ભગવાને ધર્માસ્તિકાયનું લક્ષણ આ પ્રમાણે બતાવ્યું છે—
___“गइलक्षणो उ धम्मो" धमस्तिसय तिलक्षवाणुः छ (उत्तराध्ययन સૂત્ર અ. ૨) અર્થાત્ ગતિષ કાર્યથી ધમસ્તિકાયનું અનુમાન થયું છે. -
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आंचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
अस्य-(१) अरूपित्वम् , (२) अचेतनत्वम् , (३) अक्रियत्वम् , (४) गतिसहायकत्वं चेति गुणाः । (१) स्कन्धः, (२) देशः, (३) प्रदेशः, (४) अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः । अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चधा ज्ञायते, यथा-द्रव्यत एको धर्मास्तिकायः, क्षेत्रतो लोकममाणः, कालत आद्यन्तरहितः, भावतो रूपरहितःवर्णगन्धरसस्पर्शवर्जित इति । गुणतश्वलनगुणः ।
- अधर्मास्तिकायस्वरूपम् - स्वभावतः स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थिति प्रति सहकारि कारणत्वमधर्मास्तिकायस्य लक्षणम् ।
(१) अरूपिच, (२) अचेतनाव (३) अक्रियाव (४) गतिसहायकत्व, ये धर्मास्तिकाय के गुण हैं । (१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश और (४) अगुरुलधुत्व, ये उसके पर्याय हैं । धर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण, इस तरह पांच भेदो से जाना जाता है। जैसे-द्रव्य से धर्मास्तिकाय एक है, क्षेत्रसे लोकप्रमाण है, कालसे आदि-अन्तरहित है, भावसे रूपादिरहित है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श उस में नहीं है, और गुण से चलन-गुण वाला है ।
अधर्मास्तिकायका स्वरूप• स्वभाव से स्थितिरूप परिणत हुए. जीव और पुद्गलोंकी स्थिति में सहकारी होना अधर्मास्तिकायका लक्षण है।
(१) पिन (२) अयेतना (3) मयित्व (४) गतिसहायत. ये सब मास्तियना शु। छ, (१) २४५ (२) देश (3) प्रदेश मने (४) अशु३लघुत्प, से તેના પર્યાય છે. ધર્માસ્તિકાય--દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને ગુણ, એ પાંચ ભેદોથી જાણી શકાય છે. જેવી રીતે-દ્રવ્યથી ધમસ્તિકાય એક છે, ક્ષેત્રથી લોકપ્રમાણ છે. કાલથી આદિ-અન્ત રહિત છે, ભાવથી રૂપાદિરહિત છે–રૂપ-રસ–ગંધ-સ્પર્શ તેમાં નથી, અને ગુણથી ચલન-ગુણવાળા છે.
અધર્માસ્તિકાયનું સ્વરૂપ– સ્વભાવથી સ્થિતિરૂપ પરિણત થયેલા છે અને પુદ્ગલેની સ્થિતિમાં સહકારી થવું તે અધમસ્તિકાયનું લક્ષણ છે.
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. आचाराम जीवाः पुद्गलाच स्वभावतः स्वयं तिष्ठन्ति, तत्रोपादानकारणस्वरूपास्ते स्थिति प्रति, पुनस्तस्यामेव स्थितिक्रियायामधर्मास्तिकायः सहायरूपं निमित्तकारणं भवति ।
(१) यथा-स्वयं तिष्ठतां पथिकानां स्थितो छाया सहकारि कारणं भवति । अतिष्ठतस्तु स्थातुं न पुनः सा प्रेरयति ।।
(२) यथा वा स्वयं तिष्ठतो देवदत्तस्य स्थिति प्रति पृथिवी सहकारि कारणं भवति । अतिष्ठन्तं तु देवदत्तं न पृथिवी स्थापयति ।
(३) यथा-समितिगुप्तिधारिणो रत्नत्रयाराधिनः समरसकन्दाः समाहितमतयो महात्मानो निश्चयनयेन निजात्मस्वरूपं चिन्तयन्तः क्षपकवणि समारुहा समुत्पन्न
जीव और पुद्गल जब स्वभाव से ही स्थित होते हैं, अपनी स्थिति में उपादान कारण तो स्वयं वही हैं, पर अधर्मास्तिकाय उस में सहायक होता है, अतः वह निमित्त कारण है ।
(१) जैसे--स्वयं ठरने वाले पथिकों की स्थिति में छाया सहकारी कारण होती है । अगर कोई न ठहरे तो वह ठहरने की प्रेरणा नहीं करती।
(२) अथवा जैसे स्वयं ठहरने वाले देवदत्त की स्थिति में पृथिवी सहकारी कारण है। मगर देवदत्त को न ठहरना हो तो पृथ्वी जबर्दस्ती नहीं ठहराती।
(३) अथवा जैसे-समिति गुप्तिके धारक, रत्नत्रय की आराधना करने वाले, समभाव के रस में निमग्न समाधियुक्त मति वाले महात्मा निश्चय नय से आत्मस्वरूपका चिन्तन करते
જીવ અને પુદ્ગલ જ્યારે સ્વભાવથી જ સ્થિત થાય છે તે પિતાની સ્થિતિમાં ઉપાદાને કારણે તે પિતે જ છે, પરંતુ અધર્માસ્તિકાય તેમાં સહાયક થાય છે, તેથી તે નિમિત્ત કારણ છે.
(૧) જેવી રીતે–પોતે ઉભા રહેવા વાળા મુસાફરોની સ્થિતિમાં છાયા સહકારી કારણ હોય છે. અગર કંઈ ઉભા ન રહે તો તે ઉભા રહેવાની પ્રેરણ નથી કરતી.
(૨) અથવા-જેવી રીતે પોતે જ ઉભા ન રહેવા વાળા દેવદત્તની સ્થિતિમાં પૃથ્વી સહકારી કારણ છે, પરંતુ જે દેવદત્તને ઉભા ન રહેવું હોય તે પૃથ્વી દેવદત્તને બળજબરીથી ઉભું રાખી શકતી નથી.
(3) अथवा-या शेते समिति-अस्तिनापा२४, रत्नत्रयनी माराधना ४२वाવાળા, સમભાવના રસમાં નિમગ્ન, સમાધિયુક્ત મતિવાળા મહાત્મા નિશ્ચયનયથી
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
केवलज्ञान-केवलदर्शनभृतः सन्तः सकलकर्मक्षयं कृत्वा, शरीरमादारिकमिह परित्यज्य, सिद्विगतिनामधेयं स्थानं गतास्तिष्ठन्ति तेषां निश्रयनयेन स्वतः स्थितिपरिणतानां तत्र साद्य पर्यवसितां स्थितिं प्रति तत्स्थानं सहकारि कारणं भवति । न तु तत् स्थानं तानवस्थातुं प्रेरयति ।
(४) यथा व्यवहारनयेन सिद्धभक्त्या स्वयं समुत्पन्नसविकल्पध्यानावस्थितानां महात्मनां सविकल्पय्याने स्थिति प्रति निष्क्रियो मूर्तिरहितः प्रेरणारहितोऽपि सिद्धभगवान् सहायः सन् सहकारि कारणं भवति । न त्वसौ तान् तद्ध्याने स्थातुं प्रेरयति ।
हुए क्षपकश्रेणी पर आरूढ हो कर उत्पन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले हो कर समस्त कर्मों का क्षय करके औदारिक शरीर को यहीं त्याग कर सिद्धिगति नागक स्थान को प्राप्त हो कर स्थिर हो जाते हैं । निश्रयनय से स्वयं स्थिति में परिणत हुए उन सिह जीवों को सादि - अनन्त स्थिति में वह स्थान सहकारी कारण होता है, किन्तु वह स्थान उन्हें ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता ।
(४) अथवा जैसे - व्यवहारनय से सिद्ध भगवान् की भक्ति से स्वयं उत्पन्न हुए सविकल्प ध्यान में अवस्थित महात्मा पुरुषों को सविकल्प में जो स्थिति है, उस में अक्रिय अमूर्ति और प्रेरणारहित भी सिद्ध भगवान् सहायक होने से निमित्त कारण होते हैं, किन्तु उन्हें ध्यान में स्थित होने की प्रेरणा नहीं करते ।
આત્મસ્વરૂપનું ચિંતન કરતા થકા ક્ષપકશ્રેણી પર આરત થઇને ઉત્પન્ન કેવલજ્ઞાન અને કેવલદનને ધારણ કરવા વાળા થઈને સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય કરીને ઔદ્વારિક શરીરને અહિં જ ત્યાગ કરીને સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત થઈ સ્થિર થઈ જાય છે. નિશ્ચયનયથી સ્વયં સ્થિતિમાં પરિણત થયેલા તે સિદ્ધ જીવાની સાદિ અનંત સ્થિતિમાં તે સ્થાન સહકારી કારણ હોય છે; પર ંતુ તે સ્થાન તેને ચાલવા માટે પ્રેરણા નથી કરતુ.
(૪) અથવા-જેવી રીતે વ્યવહારનયથી સિદ્ધ ભગવાનની ભક્તિથી સ્વયં ઉત્ત્પન્ન થયેલા સવિકલ્પ ધ્યાનમાં અવસ્થિત મહાત્મા પુરૂષોની સવિકલ્પ ધ્યાનમાં જે સ્થિતિ છે, તેમાં નિષ્ક્રિય, અમૂર્તિક અને પ્રેરણારહિત સિદ્ધ ભગવાન સહાયક હોવાથી નિમિત્ત કાણુ હોય છે; પણ સિદ્ધ ભગવાન તેને ધ્યાનમાં સ્થિત થવાની પ્રેરણા કરતા નથી.
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आचारागमूत्रे इदमेवाभिप्रेत्य भगवताऽभिहितम्-- " अहम्मो ठाणलक्षणो" इति ( उत्तरा. अ. २८) .
'अधर्मः स्थानलक्षणः' इति च्छाया । लक्ष्यते दृश्यते परिचीयते अनेनेति लक्षण-परिचायकं ज्ञापकम्। स्थान=स्थितिरेव लक्षण-ज्ञापकं यस्याऽसाविति स्थानलक्षणः । स्थितिकार्यानुमेयोऽधर्मास्तिकाय इत्याशयः ।
अधर्मास्तिकायस्य-(१) अरूपित्वम् , (२) अवेतनत्वम् , (३) अक्रियत्वम् । ' (४) स्थितिसहायकत्वमिति गुणाः ।
(१) स्कन्धः, (२) देशः, (३) प्रदेशः, (४) अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः।
इसी अभिप्राय से भगवान ने कहा-~-"अहम्मो ठाणलक्षणो" अधर्मास्तिकाय स्थिति लक्षण वाला है । (उत्तरा० अ० २८) जिस के द्वारा कोई वस्तु लखी जाय (देखी जाय) या जो, वस्तु का परिचायक (परिचय कराने वाला) हो वह लक्षण कहलाता है। स्थान अर्थात स्थिति ही जिस का लक्षण है, अर्थात् स्थितिरूप कार्य से जिस का अनुमान होता है उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं ।
अधर्मास्तिकाय के गुण-(१) अरूपित्व (२) अचेतनत्व (३) अक्रियत्व और स्थितिसहायकत्व है। (१) स्कन्ध, (२) देश (३) प्रदेश, और :(४) अगुरुलधुत्व, अधर्मास्तिकाय के पर्याय हैं।
में लिप्रायथी मापाने खुछ है-" अहम्मो ठाणलक्खणो" अपमास्तिय स्थिति सक्ष पाणा छे. (उत्तराध्ययन. म. २८) ...
- જેના દ્વારા કઈ વસ્તુ લખી શકાય (દેખી શકાય) અથવા જે વસ્તુને પરિચય કરાવનાર હોય તે લક્ષણ કહેવાય છે. સ્થાન અર્થાત્ સ્થિતિ જ જેનું લક્ષણ છે અર્થાત્ સ્થિતિરૂપ કાર્યથી જેનું અનુમાન થાય છે, તેને અધમસ્તિકાય કહે છે. · मायना गुY-(१) पित्य (२) मयेतनत्य (3) अश्यिय भने (४) स्थितिसहाय४त्व छ. .
(१) अध, (२) देश, (3) प्रदेश, भने (४) भJ३वधुत्व, मे मस्ति . કાયના પર્યાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
__ अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चधा कायते, यथा-अधर्मास्तिकायो द्रव्यत एकः, क्षेत्रतो लोकपमागः, फालत ओघन्तरहितः, भावतो रूपरहितः-वर्णगन्ध-रस-स्पर्शवर्जित इति, गुणतः स्थितिगुणः ।
ननु धर्माधर्मशब्दाभ्यां पुण्ययापरूपी शुभाशुभफलदो धर्माधी कथ नात्र गृह्यते ? इति चेत् , उच्यते-नयोर्गुणत्वेन द्रव्यप्रकरणे समावेशासंभवात् । किञ्च तो धर्माधमौं पुण्यपापरूपी पुगळत्वेनाभिमती पुद्गलद्रव्यान्तभृतो, ततस्तयोर्न धर्माधर्मास्तिकायमध्ये समावेशः।
अधर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण के भेदसे पांच प्रकार से जाना जाता है। जैसे-अधर्मास्तिकाय द्रव्य से एक है, क्षेत्र से लोकप्रमाण है, काल से आदि अन्त रहित है, भावसे अरूपी अर्थात् रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श से रहित है, और गुण से स्थितिगुण वाला है।
शा-धर्म शब्द से शुभ फल देने वाले पुण्य का और अधर्म शब्द से अशुभ फल देने वाले पाप का ग्रहण क्यों नहीं किया गया !
समाधान-पुण्य और पाप, द्रव्य नहीं, गुण हैं, इसी लिये इनका द्रव्यके प्रकरण में समावेश नहीं हो सकता । अथवा पुण्य--पाप रूप धर्म और अधर्म पुद्गल हैं, अतः उनका समावेश पुद्गल में ही हो जाता है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय में उन्हें गर्भित नहीं किया जा सकता।
અધમસ્તિકાય દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ ભાવ અને ગુણના ભેદથી પ્રાંચ પ્રકારે જાણી શકાય છે. જેમકે–અધમસ્તિય દ્રવ્યથી એક છે, ક્ષેત્રથી લોકપ્રમાણ છે, કાલથી આદિ-અન્ત રહિત છે, ભાવથી અપી અર્થાત્ ૧૫, રસ ગંધ અને સ્પર્શથી રહિત છે, અને ગુણથી સ્થિતિગુણવાળા છે.
શંકા–ધર્મ શપદથી શુભ ફલ આપવા વાળા પુણ્ય અને અધર્મ શબ્દથી અશુભ ફલ આપવા વાળા પાપનું ગ્રહણ શા માટે કરવામાં આવતું નથી ?
સમાધાન-પુણ્ય અને પાપ, દ્રવ્ય નથી, ગુણ છે એટલા માટે દ્રવ્યનાં પ્રકરણમાં તેને સમાવેશ થઈ શકતું નથી અથવા પુણ્ય-પાપ ધર્મ અને અધમ પુદગલપ છે, તેથી તેને સમાવેશ પુદગલમાં જ થઈ જાય છે. ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાયમાં તેને ગર્ભિત નથી કરી શકતા. .
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७२
आचारायंत्र
अथाकाशस्वरूपम्आ-समन्तात् काशते अवगाहदानेन प्रतिभासते इत्याकाशम् , यहा आकाशन्ते दीप्यन्ते धर्माधर्मकालपुद्गलजीयाः स्वस्वरूपेण यत्र तत् ।
धर्माधर्मादिसर्वद्रव्याणामाधारतयाऽवकाशं ददातीत्यवकाशदायिलं लक्षणमाकाशास्तिकायस्य । अत्रावकाशदायित्वं व्यवहारनयेनौपचारिकम् । अस्तिकायशब्दः प्राग् व्याख्यातः । उक्तं चोत्तराध्ययनमूत्रे (२८ अध्ययने)- . "भायणं सव्वदव्याण, नहं ओगाइलक्षणम् ।" इति ।
__ आकाशका स्वरूप'आकाश' शब्द में 'आ' और 'काश' दो हिरसे हैं । 'आ' का अर्थ है-सभी ओर से सर्वत्र, और काश' का अर्थ है-प्रकाशित होने वाला । तात्पर्य यह है कि अपने अवगाहदाननामक गुणसे सर्वत्र प्रभासित होता है, वह आकाश है। अथवा जहाँ धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव अपने-अपने स्वरूप से प्रकाशित होते हैं, उसे आकाश कहते हैं।
धर्म, अधर्म, आदि समस्त द्रव्यों का आधार होकर जो उन्हें आश्रय देता है, वही आकाश है । अवकाश देने वाला ही आकाश कहलाता है । यहाँ 'अवकाश देना' आकाश का जो लक्षण बतलाया गया है, वह व्यवहारनयसे उपचरित' कथन है । 'अस्तिकाय' शब्द की व्याख्या पहले ही की जा चुकी है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २८) में कहा है:"भायण सव्वदवाणं नहं ओगाहलक्षणं" इति ।
આકાશનું સ્વરૂપश' मा 'L' मन में मास छ. न -याश्य કેરથી–સર્વત્ર, અને “કાશને અર્થ છે પ્રકાશિત થવા વાળા, તાત્પર્ય એ છે કેપોતાના અવગાહદાન ( અવકાશ આપ) નામના ગુણથી જે સર્વત્ર પ્રતિભાસિત હોય છે તે આકાશ છે, અથવા જ્યાં ધર્મ, અધમ, કાલ, પુદગલ અને જીવ પિતાપિતાના સવરૂપથી પ્રકાશિત હોય છે–પ્રતીત થાય છે તેને આકાશ કહે છે.
ધમ, અધમ આદિ તમામ દ્રવ્યોને આધાર બની છે તેને આશ્રય આપે છે તે આકાશ છે. અવકાશ આપનાર જ આકાશ કહેવાય છે. અવકાશ આપે તે આકાશનું લક્ષણ બતાવવામાં આવ્યું છે, તે વ્યવહારનયથી ઉપચારરૂપ કથન છે. અતિકાય શબ્દની વ્યાખ્યા પ્રથમ જ કહી દીધી છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર (અ.૨૮)માં ना छ :- “भायणं सव्यदव्वाणं नई ओगाहलक्खणं" id. . .
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आवारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
'भाजनं सर्वद्रव्याणां, नभोनगाहलक्षणम् । इति च्छाया । सर्वद्रव्याणां भाजनम् = आधारः, इति हेतुगर्भविशेषणम् । यतः सर्वद्रव्याणां भाजनम्, अतः अवगाहलक्षणं नम इति भावः ।
७३
धर्माधर्मकालानामन्तः समावेशेन जीवपुद्गलानामौपचारिकसंयोगविभागाभ्यां चावगाहः । अगाध तत्तदेशरूपोपाधिभेदादवगाहस्य नानात्वेन संयोगविभागा उपपद्यन्ते ।
अनगाहोऽवकाशः, स एव लक्षणं ज्ञापकं यस्य तद् अवगाहलक्षणं नमः आकाश कभ्यते, इत्यर्थः । अवगाहदानकार्यानुमेयमाकाशमित्याशयः ।
धर्माधर्मादिद्रव्याणामाधारान्यथाऽनुपपत्तेराकाशमस्तीति
निःशङ्कं विश्व
'Here' Report का आधार है । सारांश यह है कि आकाश सव्यों का आधार होनेसे अवगाह-लक्षण वाला है ।
'धर्मास्तिकाय' 'आधर्मास्तिकाय' और काल का आकाश में ही समावेश होने से जीव और पुलों के औपचारिक संयोग और विभाग के द्वारा अवगाह होता है । अवगाह होने पर देश के भेद से अवगाह भी भिन्न हो जाता है और संयोग तथा विभाग उत्पन्न होते हैं ।
तात्पर्य यह है कि --- अवगाह या अवकाश ही जिस का लक्षण है, अर्थात् अवगाह से जिस का अनुमान होता है वह द्रव्य आकाश है।
आकाश न होता तो धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों की स्थिति कहां होती ! अर्थात् उनका कोई आधार ही नहीं रहता, अत एव आकाश का अस्तित्व, किसी प्रकार की शङ्का किये આકાશ સદ્રષ્યેના આધાર છે. સારાંશ એ છે કે આકાશ સર્વ ચૈાને આધાર હાવાથી અવગાહન લક્ષણુવાળું છે.
ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય અને કાલના આકાશમાં સમાવેશ હોવાથી જીવ અને પુદ્ગલાને ઔપચારિક સચાગ અને વિભાગ દ્વારા અવગાહ થાય છે, અવગાહ થવાથી દેશના ભેદથી અવગાહ પણ ભિન્ન થઈ જાય છે, અને સ ંચાગ તથા વિભાગ
ઉત્પન થાય છે.
તાત્પર્ય એ છે કે અવગાહ અથવા અવકાશ જ જેનું લક્ષણ છે, અર્થાત અવગાહથી જેનું અનુમાન થાય છે તે દ્રવ્ય આકાશ છે. અથવા આકાશ ન હેાય તે ધર્મ, અધમ આદિ દ્રવ્યેની સ્થિતિ ફર્યાં હોય? અર્થાત્ તેનાફાઈ માધાર જ
५. आ.-१०
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आचारात्सूत्रे
७४.
सनीयम्, इत्यपि भगवता चोधितम् । आकाशसिद्ध्यर्थं 'भाषणं सव्वदव्वाणं'' ओगाहलक्खणं' इति च विशेषणद्वयमुपात्तम् ।
इति
आकाशं द्विविधम्-लोकालोकमेदात् उक्तं च स्थानाङ्गसूत्रे --
"
(6
'दुविहे आगासे पन्नत्ते, तंजहा लोगागासे चेत्र अलोगागासे चेत्र " इति । द्विविध आकाश: मशप्तस्तद्यथा-लोकाकाशचैव अलोकाकाशचैवं इति च्छाया । धर्मादिसर्वद्रव्याणामाधारभूतमसंख्यातमदेशात्मकमाकाशखण्डं लोकाकाशम् । तद्भिनमनन्तमदेशात्मकमलोकाकाशम् ।
नतु धर्माधर्मद्रव्यस्वीकारे प्रयोजनं न किमपि पश्यामः, जीव- पुद्गलानां गतिस्थितिकार्ययोः सहायरूपं कारणं त्वाकाशमेव स्यात् ? | 1 विना विश्वास करने योग्य है, यह भी भगवान् ने उक्त कथन से ध्वनित कर दिया है । आकाश की सिद्धि के लिये ' भायणं सव्वदव्वाणं ' और 'ओगालवखणं' ये दो विशेषण लगाये गये हैं ।
आकाश दो प्रकार का है-लोकाफाश, और अलोकाकाश । स्थान में कहा है"दुविहे आगासे पनते तं जहा लोगागासे चैव अलोगागासे चेव"
धर्म आदि सब द्रव्यों का आधार और असंख्यातप्रदेशरूप आकाशखण्ड, लोकाकाश कहलाता है | amrata से भिन्न अनन्तप्रदेशी लोकाकाश है ।
शङ्का-जब कि आकाश ही जीव और पुलों की गति एवं स्थिति में सहायक कारण हो सकता है तो फिर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यों को स्वीकार करने का कोई
ન રહેત, એટલા માટે આકાશના અસ્તિત્વ, કાઈ જાતની પણ શ`કા કર્યા વગર વિશ્વાસ કરવા યોગ્ય છે; એ પણ ભગવાને ઉક્ત કથનથી ધ્વનિત કર્યું છે, आाशनी सिद्धि भाडे 'भायणं सव्वदव्वाणं' ' 'ओगाहलवणं' था मे विशेष
सगावेसा छे.
स्माद्वाश मे प्रभारना छे. (१) सोमाइश ाने (२) गोदाअंश स्थानांश सूत्रभां उछे " दुविहे आगासे पन्नत्ते, तंजहा- लोगागासे चैव अटोगrma da' ધર્મ આદિ તમામ દ્રવ્યાના આધાર અને અસ`ખ્યાતપ્રદેશરૂપ આકાશમ તે લેાકાકાશ કહેવાંય છે. લેાકાકાશથી ભિન્ન અનતપ્રદેશી અલેાકાકાશ છે.
શાને કે આકાશ જ જીવ અને પુદ્ગલાની ગતિ અને સ્થિતિમાં સહાયક કારણુ થઈ શકે છે તેા પછી ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાય દ્રવ્યનો સ્વીકાર
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आचार चिन्तामणि- टीका अवतरणा
अत्रोच्यते - धर्मश्चाधर्मश्रेति
दोषचाहुल्यप्रसङ्गात् ।
द्रव्यमवश्यमङ्गीकरणीयम्,
७५
अन्यथा
(१) आकाशस्यतितृत्वस्वीकारे जीवपुद्गलानामलोकाकाशगमनापत्तिः ।
(२) अलोकाकाशस्यापि जीवपुहलपूर्णत्वे लोकत्वमसंगः, तथा चालोकाकाशस्य नामाऽपि बन्ध्यापुत्रवदेव स्यात् ।
(३)
भगवत्मरूपिताऽऽकाशद्वैविध्यव्यवस्थाऽपि न सिद्धयेत् ।
प्रयोजन दिखाई नहीं देता ।
समाधान-धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य अवश्य स्वीकार करना चाहिये। उन्हें स्वीकार न करने से बहुतसे दोप आते हैं । वे इस प्रकार -
(१) आकाश को ही गति का कारण मान लिया जाय तो जीवों और पुद्गलों का अलोकाकाश में भी गमन मानना पडेगा, क्योंकि अलोकाकाश भी तो आखिर आकाश ही है ।
(२) अलोकाकाश अगर जीवों और पुलों से व्याप्त मान लिया जाय तो वह लोकाकाश न रहकर लोकाकाश ही हो जायगा । ऐसी स्थिति में अलोकाकाश तो बन्व्यापुत्र के समान हो जायगा, अर्थात् अलोकाकाश का अस्तित्व नहीं रहेगा |
(३) भगवान् ने दो प्रकार का आकाश बतलाया है, वह व्यवस्था भङ्ग हो जायगी ।
કરવાનું કઈ પણ પ્રયાજન જોવામાં આવતું નથી.
સમાધાન-ધર્મ દ્રવ્ય અને અશ્વદ્રવ્યના અવશ્ય સ્વીકાર તેના સ્વીકાર નહિ કરવાથી બહુ જ દોષ આવે છે, તે આ પ્રમાણે
वो लेामे,
(૧) આકાશને જ ગતિનું કારણુ માની લેવામાં આવે તે જીવે અને પુદ્ગલાનું અલાકાકાશમાં પણ ગમન માનવું પડશે; કેમકે અલકાકાશ પણ છેવટે તે
આકાશ જ છે.
(૨) અથવા અલેાકાકાશ જીવા અને પુદ્ગલાથી વ્યાપ્ત માની લેશે તે તે અલેકાકાશ નહિં રહેતાં લેાકાકાશજ થઈ જશે; એવી સ્થિતિમાં અલાકાકાશ તે વન્ધ્યા પુત્રના સમાન થઈ જશે, અર્થાત્ અલેાકાકાશનું અસ્તિત્વ જ રહેશે નહિ.
(૩) ભગવાને બે પ્રકારના આકાશ ખતાવ્યાં છે, તે વ્યવસ્થા ભંગ થઈ જશે.
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. आचारा (४) अपिच-सिद्धभगवान् ऊर्थ गत्वा लोकाग्रेऽवस्थित इति मर्यादाऽपि खपुष्पायमानैव स्यात् ।
(५) भवन्मते गतिकारणीभूतस्पाकाशस्योदेशे विद्यमानत्वाचस्य (सिद्धस्य) गतेवरोधाभावो भवेत् ।
धर्माधर्मद्रव्पयोराकाशतः पृथक् स्वीकारे तु लोकाकाशत उर्ध्वमलोकाकाशस्य सत्त्वेन तत्र गतिहेतोधर्मस्याभावान्न गतिर्भवति। स्थितिहेतोरधर्मद्रव्यस्य लोकान्तर्वतित्वेन लोकमध्य एवोपरिमागे गतिहेतोधर्मद्रव्यस्य साहाय्येन गला तत्रैवाधर्मद्रव्यसाहाय्येन तिष्ठति । एवं च लोकाग्रे भगवानवस्थितो जले
wwmumm
(१) सिद्ध भगवान् उपर जाकर लोक के अप्र भाग में स्थित हो जाते हैं, यह मागम की मर्यादा भी आकाशपुष्प के समान हो जायगी।
(५) आप के मत के अनुसार गतिका कारण आकाश है और वह उर्च देश में लोकाकाश के अग्रभाग से भी आगे विधामान है, अतः सिद्धा की गति में रुकावट नहीं होगी।
धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को आकाश से भिन्न मान लेने से लोकाकाश से उपर अलोकाकाश में गति का कारण धर्मद्रव्य नहीं है, अतः लोकाकाश से आगे गति भी नहीं होती, तथा स्थिति का कारण अधर्मद्रव्य लोक के अन्तर्गत ही है, अतः धर्मद्रव्य की सहायतासे सिद्ध जीव, लोक के अन्त तक पहुँच कर अधर्म की सहायता से वहीं अर्थात् लोकाकाशके
(૪) સિદ્ધ ભગવાન ઉપર જઈને લેકના અગ્રભાગમાં સ્થિત થાય છે, તે આગમની મર્યાદા પણ આકાશ-પુષ્પને સમાન થઈ જશે.
(૫) આપના મત પ્રમાણે ગતિનું કારણ આકાશ છે અને તે ઉર્ધ્વ—ઉપરના દેશમાં કાકાશના અગ્રભાગથી પણ આગળ વિદ્યમાન-હેયાત છે. તેથી સિદ્ધોની ગતિમાં રૂકાવટ-રોકાણ નહિ થાય.
ધમ દ્રવ્ય અને અધર્મદ્રયને આકાશથી ભિન માની લેવાથી કાકાથી ઉપર અકાકાશમાં ગતિનું કારણ ધર્મદ્રવ્ય નથી, તેથી લોકાકાશથી આગળ ગતિ પણ થતી નથી, તથા સિથતિનું કારણ અધર્મદ્રવ્ય લોકના અન્તર્ગતજ (અંદર) છે. તેથી ધર્મદ્રવ્યની સહાયતાથી સિદ્ધ લોકના અંત સુધી પહોંચીને અધર્મની
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा तुम्बीवदिति मर्यादा मृत्तरामुपपद्यते । उक्तं चौपपातिकमूने . .
"कहिं पडिहया सिद्धा, कर्हि सिद्धा पहिया। कहिं बादि चइत्ता ण, कत्य गंतण सिझइ ॥ १ ॥ अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पाठिया। इह घोदि चहत्ता णं, तत्य गण सिजाइ ॥२॥" इति ।
छाया
"कुत्र प्रतिहताः सिद्धाः, कुत्र सिद्धाः प्रतिष्ठिताः । कुत्र योन्दि (शरीर) त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिद्धयति ॥१॥ अलोके प्रतिहताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः।
इड यादि (शरीर) त्यवत्वा, तत्र गत्वा सिद्धयति ।। २ ।। इति अन्तर्गत हो रहर जाता है। इस प्रकार जलके अग्रभाग पर टहरे हुए तुवे के समान सिद्ध भगवान् लोकाकाश के अप्रभाग पर स्थित है, यह मर्यादो स्वतः सिद्ध हो जाती है।
औषपातिकमूत्र में कहा है -~--
"सिद्ध भगवान् कहाँ रुक जाते है ! कहाँ स्थित होते हैं ! ! कहाँ शरीर का त्याग करके कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ! ॥१॥
सिद्ध भगवान अलोक में रुक जाते हैं, लोकके अग्रभाग में स्थित होते हैं । यह। दशरीर का त्याग करके वहाँ जाकर सिद्ध हो जाते हैं ॥२॥"
સહાયતાથી ત્યાં જ અર્થાત્ કાકાશના અંદરજ ભી જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જલના અગ્રભાગ ઉપર સ્થિત રહેલા તુંબડાની પેઠે સિદ્ધ ભગવાન કાકાશના અગ્રભાગ ઉપર સ્થિત છે. આ મર્યાદા સ્વતઃ સિદ્ધ થઈ જાય છે. પાતિક સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે...
“સિદ્ધ ભગવાન કયાં રોકાઈ જાય છે ? કયાં સ્થિત થાય છે ? કયાં શરીરને ત્યાગ કરીને, કયાં જઈને સિદ્ધ થાય છે? તે ૧છે.
સિદ્ધ ભગવાન અલકમાં રોકાઈ જાય છે, લેકના અગ્રભાગમાં સ્થિત થાય छ, मणि शरीरनो सार ४शन धन सिद्ध 5.1 2. ॥ २ ॥
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..आचाराने
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नन्वेवं धर्माधर्मद्रव्ये एव समाद्रियेताम् , किमाकाशद्रव्यावलम्बनेन, आकाश कार्यावगाहसाहाय्यं धर्माधर्मद्रव्याभ्यामेय संपद्येत ?, इति चेत् , उच्यते-सिद्धान्त तयोर्जीवादिगतिस्थितिसाधकत्वेन सिद्धान्तितत्वादवकाशं दातुं तो न प्रभवतः । अन्यसाध्यं कार्यमन्यो न साधयति, अन्यथाऽतिमसंगात् । लोकेऽपि चधुस्साध्यं दर्शनकार्य न श्रोत्रं साधयति ।
ननु केवलज्ञानस्य योऽनन्ततमो भागस्तत्ममाणमेव नभौद्रव्यम् , तस्य चानन्ततममागपरिमितं लोकाकाशम् , एतादृशेऽल्पतमरूपे लोकाकाशे लोकाकाश
शङ्का-यदि ऐसा हो तो धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ही स्वीकार करलेने चाहिये, फिर आकाश की क्या आवश्यकता है ? आकाश का कार्य अवगाह देना है सो वह कार्य धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य से ही सम्पन्न हो जायगा ।
समाधान--आगम में धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को गति और स्थिति में ही सहायक बतलाया है, इस लिए. वह अवकाश देने में समर्थ नहीं है, और का,कार्य कोई और नहीं कर सकता । अगर ऐसा होने लगे तो सर्वत्र गडबड हो जायगा। लोक में चक्षुका देखना कार्य कान नहीं कर सकता।
शङ्का केवल ज्ञान का जो अनन्तवा भाग हैं उसी के बराबर आकाशद्रव्य है, और आकाश-द्रव्य का भी अनन्तवा भाग लोकाकाश है तो इतने छोटे से लोकाकाश में समस्त लोकल्यापी और असंख्यात प्रदेशवाले धर्मद्रव्य' का, अधर्मद्रव्य का, अनन्तानन्त जीवों का
શંકા-જે એ પ્રમાણે છે તે ધર્મદ્રવ્ય અને અધર્મદ્રવ્યનો સ્વીકાર કરી લેવું જોઈએ, ફરીને આકાશની શું આવશ્યકતા છે? આકાશનું કાર્ય અવગાહઅવકાશ આપ તે છે, તે કાર્ય ધર્મદ્રવ્ય અને અધમ દ્રવ્યથી જ સંપન્ન થઈ જશે.
સમાધાન-આગમમાં ધર્મદ્રવ્ય અને અધર્મદ્રવ્યને ગતિ અને સ્થિતિમાં સહાયક બતાવ્યા છે, એટલા માટે તે અવકાશ આપવામાં સમર્થ નથી: બીજાનું કાર્ય કઈ બીજે નહિ કરી શકે, જે એમ થવા લાગશે તે સર્વત્ર ગડબડ થઈ જશે. જગતમાં નેત્રથી જોવાનું કાર્ય કાન કરી શકતા નથી.
શંકા-કેવલજ્ઞાનને જે અનંત ભાગ છે તેના બરાબર આકાશદ્રવ્ય છે, અને આકાશદ્રવ્યને પણ અનંત ભાગ લોકાકાશ છે, તે એવડા નાના સરખા લેાકાકાશમાં સમસ્ત લેકવ્યાપી અને એસંખ્યાત પ્રદેશવાળા ધર્મદ્રવ્યને, અધર્મ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
७९ व्यापिनोः प्रत्येकमसंख्यातपदेशात्मकयोधर्माधर्मास्तिकाययोरनन्तजीवानां तेभ्योऽ. प्यनन्तगुणपुद्गलानां च कथं समावेशः, एकस्य लोकाकाशस्य सर्चद्रव्यावकाशदानासंभवात् १, इति चेदुच्यते----
लोकालाशस्यावकाशशक्तिर्हि महीयसी विलक्षणा चिन्तयितुमशक्या च, अत एव भगवता-"मायणं सम्बदन्वाणं नहं ओगाहलक्खणं" इत्युक्तम् ।
नमसोऽवकाशशक्ति केवलालोकेनावलोक्य सर्वद्रव्याणामाधारत्वं भगवता प्रतियोधितम् । महीयसी नभसोऽवकाशशक्तिः, मुकरोऽत्र सर्वद्रव्याणां समावेश इति तदाशयः। ___यथा-वतासानामधेयं मधुरद्रव्यं दुग्धपरिपूरितेऽपि भाजने निहितं सत् और उन से भी अनन्तगुने पुद्गलोका समावेश किस प्रकार हो सकता है ! एक लोकाकाश समस्त द्रव्यों को अवगाह दे सके, यह असम्भव है ।
समाधान-लोकाकाश को अवकाश देने की शक्ति महान् है, विलक्षण है, और अचिन्त्य है, इसीलिये तो भगवान ने कहा है-" भायणं सम्बदन्वाणं नहं ओगाहलक्खणं" अवगाहलक्षण वाला आकाश सब द्रव्यों का आधार है।
भगवान् ने अपने केवलज्ञान में आकाश की अवगाहदानशक्ति को देखकर उसे सत्र । द्रव्यों का आधार निरूपण क्रिया है । भगवान् के कथन का अभिप्राय यही है कि आकाश. को अवगाहनाशक्ति बहुत बडी है, उस में सब द्रव्यों का समावेश सरलता से हो जाता है।
जैसे-दूध से परिपूर्ण पात्र में बतासे डाल दिये जायें तो वे उसी में समाविष्ट हो દ્રવ્યને, અન્તાન્ત જીવોને અને તેનાથી પણ અનન્તગણ પગલે સમાવેશ કેવી રીતે થઈ શકે ? એક કાકાશ સમસ્ત દ્રવ્યને અવગાહ-અવકાશ આપી શકે, એ અસંભવ છે.
સમાધાન—લોકાકાશાનો અવકાશ આપવાની શક્તિ મહાન છે, વિલક્ષણ છે भने मथित्य छ भेटमा भाटे मावाने छे..--" भायणं सव्वव्वाण नई ओगाहलक्षणं " साक्षशुपा माश सर्प द्रव्योना आधार छ. सापाने પિતાના કેવલ જ્ઞાનમાં આકાશની અવગાહદાન-અવકાશ આપનારી–રાક્તિ જોઈને તેને “સર્વ દ્રવ્યને આધાર છે' એમ નિરૂપણ કર્યું છે. ભગવાનના વચનને અભિપ્રાય એ છે કે–આકાશની અવગાહનશકિત બહુ જ મેટી છે, અને તેમાં સર્વ દ્રવ્યોને સમાવેશ સરલતાથી થઈ જાય છે.
જેવી રીતે દૂધના પરિપૂર્ણ પાત્રમાં પતાસાં નાખવામાં આવે છે તે તેમાં
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आचारागसूत्रे तस्मिन् समाविशति । यथा वा मित्ती शोः समावेशस्तथैवानन्तद्रव्याणां लोकाकाशे समावेश इति बोध्यम् ।
नवलोकाकाशस्य कर्य सिद्धिः, नासौ हि द्रव्याणामाधारः, नाप्ययकानदायित्वं तस्य ?, इति चेत्, उच्यते--गतिस्थितिकारणयोधर्माधर्मयोरभावादेव तत्र विद्यमानापि द्रव्याधारताशक्तिरवकाशदानशक्तिश्च नाभिव्यक्ता भवति । तदस्वीकारे तु जीवद्गलानां कर्मनिगडविमुक्तसिद्धानां चोर्ध्वगतिविरामो न स्यात् , भगवत्पतिबोधितलोकालोकव्यवस्थाऽपि न तिष्ठेत् , एवं चागमयुक्तिप्रमाणाभ्यामलोकाकानं सिद्धम् ।
जाते हैं, अथवा जैसे दीवाल में कील का समावेश हो जाता है उसी प्रकार लोकाकाश में अनन्त द्रव्यों का समावेश हो जाता है।
शा- अलोकाकाश की सिद्धि कैसे होती है ! न तो बह द्रव्यों का आधार है, न अवकाशदानरूप लक्षण ही उस में घटित होता है ।।
समाधान----गति और स्थिति के कारण धर्म और अधर्मद्रव्य का अभाव होने के कारण ही अलोकाकाशकी द्रव्याधारता की शक्ति और अवकाशदानशक्ति प्रकट नहीं होती है । अगर अलोक्राकाश न माना जायतो जीवों और पुद्गलों की, तथा धर्मरूपी बेडी से मुक्त हुए सिद्ध जीवों की गति का अन्त हो न होगा, और भगवान् की कही हुई लोक अलोक की व्यवस्था भी कायम नहीं रहेगी । इस प्रकार आगम और युक्ति प्रमाणों से अलोकाकाश की सिद्धि होती है। (દૂધમાં સમાવિષ્ટ-ઓતપ્રોત થઈ જાય છે, અથવા જેવી રીતે દીવાલમાં કીલ-ખીલીને સમાવેશ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે કાકાશમાં અનન્ત દ્રવ્યને સમાવેશ થઈ જાય છે.
શકા-–અલકાકાશની સિદ્ધિ કેવી રીતે હેઈ શકે? તે દ્રને આધાર નથી અને અવકાશદાનરૂપ લક્ષણ તેનામાં ઘટી શકતું નથી.
સમાધાન–ગતિ અને સ્થિતિના કારણ ધર્મ અને અધમ દ્રવ્યનો અભાવ હોવાના કારણે જ અલોકાકાશની દ્રવ્યાપારતાની શકિત અને અવકાશદાન-શક્તિ પ્રગટ થતી નથી. અથવા અલકાકાશ માનવામાં નહિ આવે તે જીવે અને પદગલોની, તથા કર્મરૂપી બેડીથી મુકત થયેલા સિદ્ધ જીવની ગતિને કયાંય અન્ત-છેડા જ નહિ આવે, અને ભગવાને કહેલી લોક-અલકની વ્યવસ્થા પણ કાયમ નહિ રહે. એ પ્રમાણે આગમ અને યુકિત પ્રમાણેથી અલોકાકાશની સિદ્ધિ થાય છે,
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
अन्यसकलद्रव्यापेक्षया महत्परिमाणमाकाशस्य, अनन्तमदेशित्वात् । तेनाकाशं महास्कन्धरूपम् । ____ आकाशास्तिकायस्य (१)-अरूपित्वम् , (२)-अचेतनत्वम् , (३)-अक्रियत्वम् , (१)-अवगाहदायित्वं चेति गुणाः । (१)-स्कन्धः, (२)-देशः, (३)-प्रदेशः, (४)-अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः।
अयं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-गुण-भेदेन पञ्चधा ज्ञायते, यथा-द्रव्यत एक आकाशास्तिकायः, क्षेत्रतो लोकालोकप्रमाणः, कालत आद्यन्तरहितः, भावतो रूपरहितः वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शवजित इति । गुणतोऽवकाशदायी।
आकाश का प्रमाण अन्य सब द्रव्यों की अपेक्षा बडा है, क्योंकि यह अनन्तप्रदेशी है, अतः आकाश महास्कन्धरूप है।
(१) अरूपित्य, (२) अचेतनाथ, (३) अक्रियत्व, (४) अवगाहदायित्व, ये आकाशास्तिकाय के गुण हैं। (१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश तथा (४) अगुरुलधुत्व, उसके पर्याय हैं।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुणके भेदसे आकाश द्रव्य पाँच प्रकार से जाना जाता है । जैसे द्रव्य से आकाशास्तिकाय एक है, क्षेत्र से लोकालोकप्रमाण है, काल से आदिभन्त रहित है-भावसे अरूपो है, उस में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं पाये जाते ।, गुणसे अवकाश देने वाला है।
આકાશનું પરિમાણ બીજાં સર્વ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ મોટું છે, કેમકે તે અનcપ્રદેશ છે. એટલે કે આકાશ મહાત્કંધરૂપ છે.
(1) ३पित्त (२) भयतनाव (3) मठिया (४) समाहायित्व, से ___ शास्तियना शुछ, गने (१) २४५, (२) ३२, (3) प्रदेश, तथा म. सधुत्प, सेना पर्याय छे.
દવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી આકાશ દ્રવ્ય પાંચ પ્રકારથી જાણી શકાય છે. જેમકે–દ્રવ્યથી આકાશસ્તિકાય એક છે, ક્ષેત્રથી કલેકપ્રમાણ છે, કાલથી આદિ-અન્તરહિત છે, ભાવથી અરૂપી છે તેમાં વર્ણ, ગંધ, રસ અને પર્શ નથી, ગુણથી અવકાશ આપવાવાળું છે.
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आचारास्त्रे फालनिरूपणम्-~
तत्र कालशब्दस्य व्युत्पत्तिःकल्यते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कालः । करणे घन् । 'मासिकोऽयं वाला, वार्षिकोऽयं वालः, वासन्तिकमिदं पुप्पम् ' इत्यादिरूपेण वस्तूनां परिच्छेदो-निणेयः कालमाश्रित्य भवति ।
अथवा स्वभावतः परिणमद्भिः पदार्थनातैः, कल्यते-गम्यते-माप्यते निमित्तत्वेनासौ, इति कालः । सकलवस्तुपरिणतिहेतुः काल इत्यग्रे वक्ष्यते।
कालनिरूपण
काल शब्द की व्युत्पत्तिजिस के द्वारा वस्तु कली जाय अर्थात् जानी जाय वह काल है । यहाँ करण, 'घञ्' प्रत्यय हुआ है । यह बालक मासिक (एक मासका) है, यह बालक वार्षिक (वर्ष भरका) है, यह फूल वासंतिक (वसन्तऋतुसम्बन्धी है, इस रूपमें वस्तुओं का ज्ञान काल के द्वारा ही होता है।
__ अथवा स्वभावसे परिणत होने वाले पदार्थ समूहों द्वारा निमित्त रूपमें जो प्राप्त किया जाय वह काल कहलाता है। 'काल, समस्त वस्तुओं के परिणमन का हेतु है यह बात आगे बतलाई जायगी।
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नि३५-- કાલ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ
જેના દ્વારા વસ્તુ જાણી શકાય તે કાલ છે. અહિં કરણમાં “ઘ' પ્રત્યય થશે છે “આ બાલક માસિક–એક માસને છે, આ બાલક વાર્ષિક–એક વર્ષને છે, આ ફૂલ વાસંતિક-વસંતઋતુસંબંધી છે” એ રૂપમાં વસ્તુઓનું જ્ઞાન કાલ દ્વારા જ याय छे.
અથવા સ્વભાવથી પરિત થવાવાળા પદાર્થસમૂહ દ્વારા નિમિત્તરૂપમાં જે પ્રાપ્ત કરી શકાય તે કાલ કહેવાય છે. “કાલ સમસ્ત વસ્તુઓના પરિણમનનું કારણ છે” એ આગળ બતાવવામાં આવશે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
कालस्य सिद्धिः-- _ 'पदार्थाः सन्ति, अथवा पदार्था वर्तन्ते' इति व्यवहारो वर्तनामूलः । "अनुदात्तेतश्च हलादे"-रिति पाणिनिम्त्रेण वृतधातोर्युच्प्रत्ययः। वर्तनशीला वर्तना । उत्पत्तिः, अमच्युतिः, विद्यमानताख्या वृत्तिः क्रिया वर्तना। इयं वर्तना सर्वेषु भावेषु विद्यते । वर्तना-पदार्थानां परिणामविशेपः । पदार्थानां वर्तनारूपं कार्य नोपपद्यते विना केनचिनिमित्तकारणेन, तस्माद् वर्तनारूपकार्योत्पत्ती 'यनिमित्तं धर्मद्रव्यमित्र गती, स एव काल इत्युच्यते ।
काल की सिद्धि‘पदार्थ है, या पदार्थ वर्त रहे हैं। इस प्रकार के व्यवहार का कारण वर्तना है। 'अनुदात्तेतच हलादेः' पागिनि के इस सूत्र से 'तु' धातु से 'युच' प्रत्यय हुआ है। वर्तनशील हो उसे वर्तना कहते हैं। उत्पत्ति, अपच्युति, और विधमानतारूप वृत्ति अर्थात् क्रिया वर्तना कहलाती है । यह वर्तना समी पदायों में विद्यमान है । वह पदार्थों का विशेष परिणाम है । पदार्थों का वर्तनारूप कार्य किसी निमित्त कारग विना नहीं हो सकता अतः वर्तनारूप कार्यको उत्पत्ति में जो निमित्त कारग है, वही काल-द्रव्य है, जैसे गति का निमित्त कारण धर्म द्रव्य है।
કાલની સિદ્ધિ– પદાર્થ છે અથવા પદાર્થ વ રહેલ છે એ પ્રકારના વ્યવહારનું કારણ पनि छ 'अनुदात्तेतश्च हलादेः' पाणिनिन AAL सूत्रधी 'वृतु' धातुथी 'युच्' प्रत्यय થયે છે. જે વર્તનશીલ હોય તેને વર્તન કહે છે. ઉત્પત્તિ, અકસ્મૃતિ, અને વિદ્યમાનતારૂપ વૃત્તિ, અર્થાત્ કિયા વના કહેવાય છે. વર્તના સર્વ પદાર્થોમાં વિદ્યમાન છે. તે, પદાર્થોનું વિશેષ પરિણામ છે. પદાર્થોનું વર્તનારૂપ કાર્ય કઈ નિમિત્ત કારણ વિના થઈ શકતું નથી. તેથી વતનારૂપ કાર્યની ઉત્પત્તિમાં જે નિમિત્ત કારણ છે તે કાલ દ્રવ્ય છે. જેવી રીતે ગતિનું નિમિત્ત કારણ ધર્મ-દ્રવ્ય છે.
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___ आचारागवे तस्मात्सर्वेषां परिणामानां नियामकं निमित्तकारणं काल इति सिद्धम् । यथा कर्तरी वस्वकृन्तने निमित्तकारणं तथा द्रव्याणां पर्याये निमित्तकारणं कालः ।
क्रियान्द्रव्यपरिणामः । तस्या अपि नियामक निमित्तकारणं कालः। यथा-'आकाशदेशे-अङ्गलिरस्ति, आसीत् , भविष्यति च' इत्ययं व्यवहारः काल मवलम्व्य संपद्यते, कालस्यासत्त्वे त्वतीत एव वर्तमानोऽनागतच स्यात्, क्रियानियामकाभावात् , एवमतीतादिविभागाभावे व्यवहारोच्छदापतिः, तस्मात् “अस्ति । काल: यमाश्रित्यातीतादिव्यवहाराः सुस्पष्टं प्रसिध्यन्ति" इति, मन्तव्यम् ।। नयापन, पुरानापन, और प्रनष्टरूप परिणमन एक साथ नहीं होते हैं, अत एव समस्त परिणामों का नियामक निमित्त कारण काल ही सिद्ध होता है। जैसे कैंची वस्त्र काटने में निमित्त कारण होती है, उसी प्रकार द्रव्यों के परिणमन में काल निमित्त कारण होता है।
क्रिया द्रव्य का परिणामविशेष है। उसका निमित्त कारण भी काल ही है। जैसे 'आकाश में अंगुली है, थी और होगी' इस प्रकार का व्यवहार काल के आश्रित है। काल की सत्ता न मानी जाय तो अतीत ही वर्तमान और अनागत ( भविष्य ) हो जायगा, क्योंकि क्रिया का कोई नियामक नहीं है। इस प्रकार अतीत आदि.. कालों का विभाग न रहने से व्यवहार का लोप हो जायगा, अतः "काल अवश्य है, जिस के सहारे अतीत आदि के व्यवहार स्पष्ट रूप से सिद्ध होते हैं" ऐसा मानना - ही समुचित है।
કારણુ કાલ જ સિદ્ધ થાય છે જેમકે કાતર, વસ્ત્રને કાપવામાં નિમિત્તે કારણે થાય છે, તે પ્રમાણે દ્રવ્યના પરિણમનમાં કાલ નિમિત્ત કારણ થાય છે.
ક્રિયા એ દ્રવ્યનું પરિણામ વિશેષ છે. તેનું નિમિત્ત કારણ પણ કાલ જ છે. જેમ આકાશમાં આંગળી છે, હતી અને હશે આ પ્રકારને વ્યવહાર કાલને આશ્રિત છે. કાલની સત્તા ન માનવામાં આવે તે અતીત–ભૂતકાળ જ વર્તમાન અને ભવિષ્ય કાળ થઈ જશે, કેમકે ક્રિયાને નિયામક કેઈ નથી, આ પ્રમાણે અતીત ભૂતકાળ આદિ કાળને વિભાગ નહિ રહેવાથી વ્યવહારને લેપ થઈ જશે. એટલા માટે કાલ અવશ્ય છે, જેની સહાયતાથી ભૂતકાળ આદિને વ્યવહાર સ્પષ્ટપથી સિદ્ધ થાય છે એમ માનવું તે જ પેશ્ય છે.
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__ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
प्रतिदिवसमुभयकालिकसकलवस्त्रपात्रादिपतिलेखनं, प्रत्यहोरात्रमुभयकालिकमावश्यक, चतुष्कालिकं स्वाध्यायकरणं मुनीनां कर्तव्यतया भगवतोपदिष्टं, तच्च कालस्यासत्त्वे तद्विभागज्ञानाभावेन यथाकालमनुष्ठातुमशक्यं मुनिभिरिति शाखानर्थक्यमापयेत।
भिक्षार्थमकालवर्जनपूर्वककालानुरोधेन निष्क्रममतिक्रमकर्तव्यता भगवत्प्ररूपिता गृहीतप्रवज्यानां भिक्षणां नप्टमाया स्यात् ।
प्रतिदिन दोनों वक्त समस्त वस्त्र पात्र आदि का प्रतिलेखन करना, प्रत्येक दिन और रात्रि के अन्त में आवश्यक करना, चौकालीन स्वाध्याय करना भगवान्ने मुनियों का कर्तव्य बतलाया है। अगर कालद्रव्य की सत्ता न मानी जाय तो दिन रात आदि के मेद का पता ही नहीं चलेगा और समय पर उक्त सब कार्य नहीं किये जा सकेंगे। एसी अवस्था में शास्त्रों का यह उपदेश निरर्थक हो जायगा ।
. "अकाल का त्याग कर के समुचित समय पर मुनियों को भिक्षा के लिए जाना ___ और आना चाहिए " भगवान् ने मुनियों का यह कर्तव्य बतलाया है, कालद्रव्य न . मानने पर यह सब कर्तव्य, और उनका उपदेश भी नष्टप्राय हो जायगा।
પ્રતિદિન બન્ને વખત સમસ્ત-તમામ વસ્ત્ર, પાત્ર આદિનું પ્રતિલેખન કરવું, પ્રત્યેક દિવસ અને રાત્રિના અન્તમાં આવશ્યક કરવું, ચૌકાલીનચારેય કાલ સ્વાધ્યાય કરે. તે ભગવાને મુનિઓનું કર્તવ્ય બતાવ્યું છે. અગર કાલદ્રવ્યની સત્તા નહિ માને તે દિવસ રાત વગેરે ભેદને પત્તો મળશે નહિ, અને સમય પર આગળ કહેલાં સર્વ કાર્યો કરી શકાશે નહિ, એવી અવસ્થામાં શાસ્ત્રોને એ ઉપદેશ નિરર્થક थशे.
અકાલને ત્યાગ કરીને એગ્ય સમય પર મુનિઓએ ભિક્ષા માટે જવું–આવવું જોઈએ” ભગવાને મુનિઓનું એ કર્તવ્ય કહ્યું છે. કાલદ્રવ્યને નહિ માનવામાં આવે તે આ સર્વ કર્તવ્ય અને તેમને ઉપદેશ પણ નષ્ટપ્રાય થઈ જશે.
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. आचाराम किञ्च-ग्रीप्मादिपु संयतानामतापनादयो धर्माः भगवदुक्ताः कालसत्त्व एवोपपद्यन्ते । अन्यथा ग्रोप्मादिधातुज्ञानाभावाद् भगवदुपदिप्रक्रियाहानिः प्रसज्येत ।
एवं च वर्तना, परिणामः, क्रियाश्च द्रव्यस्वभावाः कालमाश्रित्य भवन्तीति निरूपितम् ।
परापरव्यतिकरज्ञानमपि कालेनैव संपद्यते । विभकृष्टः कनिष्ठपर्यायो मुनिः क्षेत्रेण परोऽपि कालेनापरः, संनिकृष्टो ज्येप्ठपर्यायो मुनिः क्षेत्रेणापरोऽपि
इसके अतिरिक्त ग्रीष्म आदि ऋतुओं में साधुओं के लिये भगवान्ने आतापना आदि धर्मोंका उपदेश दिया है, काल के होने पर ही यह उपदेश बन सकता है । काल के अभाव में प्रीष्म ऋतु का ही ज्ञान नहीं होगा और भगवान् द्वारा उपदिष्ट क्रिया की हानि हो जायगी।
यहां तक यह बतलाया जा चुका कि वर्तना, परिणाम और क्रिया, जो कि द्रव्य के स्वभाव हैं, काल के सहारे ही होते हैं।
परत्व और अपरत्व का मिला-जुला सा ज्ञान भी काल द्वारा ही होता है। दूरवर्ती छोटीदीक्षापर्यायवाला मुनि दूर होने के कारण क्षेत्र से पर होने पर भी ( दीक्षा में छोटा होने के कारण ) काल से अपर कहलाता है। समीपवर्ती है, मगर ज्येष्ठदीक्षापर्यायवाला मुनि क्षेत्र से अपर होने पर भी काल से पर, कहलाता है। यहाँ 'पर' भी 'अपर' हो गया है और 'अपर' भी 'पर' बना गया है ।
તે સિવાય ગ્રીષ્મ આદિ ઋતઓમાં સાધુઓ માટે ભગવાને આતાપના આદિ ધર્મોને ઉપદેશ આપે છે, કાલ દ્રવ્યને માનવામાં આવે તે જ, અથવા કાલ દ્રવ્ય હોય તે જ એ ઉપદેશ ઘટી શકે છે. કાલના અભાવમાં ગ્રીષ્મ ઋતુનું જ્ઞાન થશે નહિ, અને ભગવાને કહેલી ક્રિયાની હાનિ થઈ જશે.
અહિં સુધી બતાવી ચૂક્યા કે વર્તન, પરિણામ અને ક્રિયા, જે કે દ્રવ્યને સ્વભાવ છે, કાલની સહાયતાથી જ થાય છે.
પરત્વ અને અપરત્વનું મિલા-જુલા જેવું જ્ઞાન પણ કાલદ્વારા જ થાય છે. દરવત, નાની દીક્ષા-પર્યાયવાળા મુનિ દર હોવાના કારણે ક્ષેત્રથી પર હેવા છતાંય પણ દીક્ષામાં નાના હોવાના કારણે) કાલથી અપર કહેવાય છે, સમી પવતી છે પણ ઠ–મેટી દીક્ષા પર્યાયવાળા મુનિ ક્ષેત્રથી અપર હોવા છતાંય કાળથી પર કહેવાય છે. અહિં પર પણ “અપર' થઈ ગયેલ છે. અને “અપર પણ “પર” બની ગયેલ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणाकाठेन पर इत्युच्यते। अत्र परस्यापरत्वम् ; अपरस्य परत्वमिति परापरव्यतिकरार कारणं विना न संभवति, यत्र कारणं स एव कालः ।
योगपघायोगपधप्रत्ययेनापि कालव्यस्यास्तित्वं सिध्यति । 'आभ्यां युगपदधीतो दृष्टिवादः 'एभिस्तु मुनिभिरयुगपत् पठिता द्वादशाही' इति वाक्यतोऽध्ययनगतयोगपद्यायोगपद्यमतीतो कालमन्तरेणान्यनिमित्तं नोपलभ्यते, यच्च निमित्तं स कालः।
x परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । पर और अपरका यह व्यतिकर+ कारणा के विना संभव नही है, अत एव इस व्यतिकर में जो कारण है, बस वही काल है।
योगपथ (एक साथ) और अयोगपथ (आगे-पीछे ) का जो ज्ञान होता है उस से भी कालद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है । " इन दोनों मुनियोंने ऐक साथ दृष्टिवाद का अध्ययन किया" और "इन मुनियोंने बारह मग एक साथ नहीं पंढेआंगे पीछे पड़े हैं," इस वाक्य से योगपच और अयोगपद्य का एक साथ का और आगे पीछे का-जो ज्ञान होता है उसमें काल के अस्तित्व के सिवाय और कोई कारण नहीं पाया जाता। जो कारण है वही काल है। _ + ' परस्परविषयगमनं व्यतिकर ', अर्थात् एक का विषय दूसरे में चला जाना व्यतिकर कहलाता है, जैसे--पर का अपर हो जाना और अपर का पर हो जाना।
પર અને અપરનાં એ વ્યતિકર કારણ વિના સંભવ નથી, તેથી એ વ્યતિકરમાં જે કારણ છે, બસ તેજ કાળ છે.
યોગપદ્ય-એક સાથે અને અયોગપદ્ય-આગળ-પાછળનું જે જ્ઞાન થાય છે. તેમાં પણ કાલદ્રવ્યનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. “એ બને મુનિઓએ એક સાથે દષ્ટિવાદનું અધ્યયન કર્યું” અને “એ મુનિઓએ બાર અંગેનું એક સાથે અધ્યયન કર્યું નથી-આગળ-પાછળ અધ્યયન કર્યું છે આ વાક્યથી યૌગદ્ય અને અયોગપદ્યનું એક સાથેનું અને આગળ-પાછળનું જે જ્ઞાન થાય છે. તેમાં કાલ વિના બીજું કઈ કારણ દેખાતું નથી. જે કારણ છે તે જ કાળ છે.
+परस्परविषयगगनं व्यतिकरः" अर्थात्-सेना विषय पीतमा यस्य तय તે વ્યતિકર કહેવાય છે. જેવી રીતે-પરનું અપર થઈ જવું અને અપરનુ પર થઈ જવું. प्र. मा.-१२
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काही आजारान
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चिरक्षिमप्रत्ययोऽपि कालमा साचैव जागर्ति । यथा- अनेन महात्मना -:: चिरं तपचरितम्, गजसुकुमा लेन, क्षिप्रमात्मकल्याणं कृतम् इत्यादिवाक्यैस्तपः धरणकल्याणसाधनादीनां विलम्बाविलम्बप्रतीतिः कालाभाचे सति नोपपद्येत 'ह्यः श्वोऽद्य परश्वः’-इत्यादयः कालाभिधायिनः ''शब्दाः” कालारूपमर्थ गमयन्ति । सर्वज्ञेन भगवतोच्चारितत्वादिमे 'शब्दा यथार्थवस्तुबोधकाः रूपशब्दवत् 'असमस्तपदत्वात् शुद्वैपदत्वाच प्रसिद्धं सद्भूतमर्थमावेदयन्ति कालशब्दादयः वर्तनाहेतुत्वाऽस्तित्व ज्ञेयत्वादिगुणाश्रयतया, अतीतानागतवर्तमानादिपर्या
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जल्दी और देर का ज्ञान भी काल के कारण ही होता है, जैसे- " इस महात्मा ने चिरकाल तक तप किया, गजमुकुमाल मुनिने शीघ्र ही आत्मकल्याण कर लिया । इत्यादि वाक्यों से तपधरण और कल्याण साधन नदिमें "विलम्ब और अविलम्ब का ज्ञान काल के अभाव में नहीं हो सकता ।
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'कल आज, परसो' इत्यादि कालवाचक शब्द भी कालनामक द्रव्य को प्रकट करते हैं । सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा: उच्चारण: किये हुए. ये काल आदिशन्द वास्तविक वस्तु के बोधक है, क्योंकि यह समासरहित: पद है और शुद्ध एक पद है । जो पद समासरहित और शुद्ध एक पद होते हैं वे वास्तविक पदार्थ केही बोधक होते हैं, जैसे रूप आदि ।
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वर्तनाहेतुत्व, अस्तित्व, ज्ञेयत्व, आदि गुणों का आधार होने से, तथा अतीत, अनागत ( भविष्यत् ) और वर्तमान आदि पर्यायों का आश्रय होने से काल का
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1 ही तुरंत ने ढीसनु- ज्ञान पशु असना अरथी ४ थाय छे. प्रेम- "मा મહાત્માએ લાંખા સમય સુધી તપ કર્યું, ગજસુકુમાલ મુનિએ તુરતમાં આત્મકલ્યાણ કરી લીધું.' ઇત્યાદિ વાકયોથી તપશ્ચરણ અને કલ્યાણસાધન વગેરેમાં વિલમ્બ અને अविसभ्यनुज्ञान असना अभावमा थशशे ि
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'गई शस, भावंती' असे, 'खा, 'परम' हिवसे, "छत्याहि प्रतिवयि शब्द प કાર્લ નામનાં દ્રવ્યને પ્રગટ કરે છે, ‘સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા કહેવામાં આવેલા એ કાલ દિ શબ્દ વાસ્તવિક વસ્તુના ખેાધક છે, કેમકે એ સમાસહિત પદં છે અને શુદ્ધ એક પદ્ય છે. જે પદ સમાસરહિત અને શુદ્ધ એક પદ હેય છે, તે વાસ્તવિક चहार्थना ४ बोध होय छे. भरू
वर्तनाहेतुत्व, अस्तित्व, सेयत्व आहि गुलाना आधार होवाथी, तथा भूतभस, ભવિષ્યકાલ અને વર્તમાનકાલ આદિ પર્યાયના આશ્રય હોવાથી કાલનું દ્રવ્યપણુ
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आचार चिन्तामणि- टीका अवतरणां
'याश्रयतया च तस्य द्रव्यत्वं सिद्धयति, तस्मात् 'पष्टं द्रव्यं कालः' इति युक्त्योपपत्त्या च सिद्धम् ।
ninister प्रमाणमिति चक्षुरुद्वाटच पश्य
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'कड़ णं भते ! दव्वा, पण्णत्ता ?, गोयमा छ दव्या पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्किाए, अस्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए, " इति ।
कति खलु भदन्त ! हव्याणि प्रज्ञप्तानि १, गौतम ! पड् द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि, तानि यथा - धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्रलास्तिकायः, जीवास्तिकायः, अद्धासमयः । इति च्छाया ।
'कविहाणं भंते! सच्चदन्या पण्णत्ता ?, गोयमा ! छन्विा सव्वदच्चा पण्णत्ता, तेजा - धम्मत्थिकाए, जाव अद्धासमए' इति । (भगवती श० २५ ३०४) द्रव्यपन सिद्ध होता है, अतएव युक्ति तथा उपपत्ति से कालनामक छठा द्रव्य सिद्ध हुआ ।
आंख खोल कर देखो, इस विषय में आगम- प्रमाण भी विद्यमान है
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'कणं भेते ! दव्वा पण्णत्ता ! गोयमा ! छ दवा पत्ता, तंजाधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्यिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए ।
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સિદ્ધ થાય છે. એટલા કારણથી યુક્તિ તથા ઉપપત્તિ (પુરાવા–પ્રમાણુ)થી કાલ નામનું છઠ્ઠું દ્રશ્ય સિદ્ધ થાય છે.
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આંખ ઉઘાડીને તું, આ વિષયમાં આગમ-પ્રમાણ પણ વિદ્યમાન છે-" कई णं भंते ! दव्या पण्णत्ता ?, गोयमा ! छ दव्या पण्णत्ता, तंजाधम्मfree, अधम्मथिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए
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शार्थात्-'लगवन्' द्रव्य प्रेटसां छे ? गोतम । द्रव्य छ छे धर्मास्तिय અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, પુદ્દગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય અને અદ્ધાસમય अर्थात् अर्थ. ''
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तथाविहाणं हे ! सव्वदच्या पण्णत्ता ?, गोयमा ! छच्विहा सव्वदव्वा पण्णा, तंजा - घम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, जाव अद्धासमए ।"
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आचाराङ्गको कतिविधानि खलु · भदन्त ! सर्वदन्याणि प्राप्तानि ?, गौतम । पडविधानि सर्वद्रव्याणि प्राप्तानि, तानि यथा-धर्मास्तिकाय:, अधर्मास्तिकाया, यावत्-अद्धासमयः, इति च्छाया।
"धम्मो अधम्मो आगासं, दवं इकिकमाहिये। अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल जंतयो"८(उत्त० अ० २८) धर्मोऽधर्मः आकाशः, द्रव्यमेकैकमाख्यातम् अनन्तानि च द्रव्याणि, कालः पुद्गला जन्तवः । इति गया।
फालस्य स्वरूपम्-- अर्धत्तीयद्वीपव्यापी, निर्विभागोऽनावपर्यवसितः, एकोवर्तमान समयः कालपदार्थः । एकत्वादेवास्तिकायो नायम् ।
अर्थात्-'भगवन् ! सब द्रव्य कितने हैं?' 'गौतम ! सब द्रव्य यह हैधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् अद्धा-समय' (भगवत्तीसूत्र श. २५ उ. ४)
उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २८) में भी कहा है:- "धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक एक कहे गये है। काल, पुद्गल और जीव अनन्त-अनन्त है " इति ।
काल का स्वरूपसमयक्षेत्रव्यापी, निर्विभाग, आद्यन्तरहित, एकप्रदेशरूप वर्तमान समय को 'काल' कहते है। यह एक होने के कारण अस्तिकाय नहीं है।
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અર્થાત્ ભગવદ્ ! સર્વ દ્રવ્ય કેટલાં છે? ગૌતમ! સર્વદ્રવ્ય છે છે-ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય યાવત્ અદ્ધાસમય (ભગવતી. શ. :૨૫. ઉં. ૪). ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર (७.२८) भां ५ घुछ-भ, अभी, मन मा४११ द्रव्य मे 2 छ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવ અનંત-અનંત છે.
કાલનું સ્વરૂપ-- समयक्षेत्र (मढीवी4) व्याधी, निविला (नो ना न पडत), आन्तરહિત, એકપ્રદેશરૂપ વર્તમાન સમયને કાલ કહે છે, આ એક હેવાના કારણથી 'स्तिय' नयी.
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा
सूर्यचन्द्रादिज्योतिष्काणां गतिमाश्रित्य कालविभागो भवति, गतिव मनुष्यलोकाभ्यन्तर एव तेषाम् । दिवसरात्रिमुहूर्त पक्षमा सऋत्वय नवयुगादीनां विभागः सूर्यादिगत्यैव लोके भवति । एवमतीतवर्तमानादयो विभागाः । यस्तु संख्यातुमशक्य उपमानमात्रावगम्यः कालः सोऽसंख्येयः, यथा - पल्योपमः, सागरोपम इत्यादि । असंख्येयादिकाळज्ञानमपि भगवता मनुष्यलोकम सिद्धोपमानप्रदर्शनेन प्ररूपितम् ।
सूर्यचन्द्र आदि ज्योतिकी की गति का आश्रयण कर काल का विभाग होता है। सूर्य चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति मनुष्यलोक के अन्दर में ही होती है। दिन रात, मुहूर्त, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग आदि का विभाग सूर्य आदि की गति से ही लोक में होता है । इसी प्रकार अतीत, वर्तमान आदिका विभाग भी समझना चाहिये। जिसकी संख्या नहीं हो सकती, जो उपमान मात्र से गग्य है, वह काल असंख्येय है, जैसे-- पच्योपग, सागरोपम, इत्यादि । असंख्येय आदि 'काल का ज्ञान भी मनुष्यलोकप्रसिद्ध उपमान का प्रदर्शन करके भगवान ने प्ररूपित किया है, समय आचलिका आदि सूक्ष्म काल तो सूर्यादिज्योतिष्कों की गति से नहीं जाना जाता है, क्यों कि वह अति सूक्ष्म है । इस लिये कालका व्यवहार समयक्षेत्र के भीतर ही होता है । समयक्षेत्र के बाहर जीवों के आयुष्य आदि की गणना मनुष्यक्षेत्रप्रसिद्ध प्रमाण से ही होती है ।
સૂર્ય ચન્દ્ર આદિ જ્યાતિષ્કાની ગતિના આશ્રયથી કાલના વિભાગ થાય છે, સૂર્ય ચન્દ્ર સ્માદિ ન્યાતિષ્કાની ગતિ મનુષ્ય લેાકમાં જ હોય છે. દિન, રાત, भुईत, पक्ष, भास, ऋतु, मयन, धर्म, युग माहिना विलाश सूर्य माद्दिनी गतिथी લેાકમાં થાય છે. આ પ્રકારે અતીત (ભૂતકાળ) વર્તમાન આદિના વિભાગ પણ સમજવા જોઇએ, જેની ગણુતરી ન થઈ શકે, જે ઉપમાન માત્રથી ગમ્ય (સમજી शाय तेवु ) छे, ते अस असं ध्येय छे, नेमडे पहयेोयम, भागशेषभ, त्यिाहि અસંખ્યેય આદિ કાળનું જ્ઞાન પણ ભગવાને મનુષ્યલેાકપ્રસિદ્ધ ઉપમાનનું પ્રદર્શન કરી પ્રરૂપિત કર્યું છે. સમય, આવલિકા આદિ સૂક્ષ્મ કાલ તે સૂર્યાદિ ઐતિની ગતિથી પણ જાણી શકાતું નથી, કેમકે તે અતિ સૂક્ષ્મ છે, આથી કાલને વ્યવહાર સમયક્ષેત્ર-અઢી દ્વીપની અંદર જ થાય છે, સમયક્ષેત્રથી બહાર જીવેાની અાયુષ્ય આદિની ગણના આય છે તે મનુષ્યક્ષેત્રપ્રસિદ્ધ પ્રમાણથી જ થાય છે, એમ સમજી લેવું.
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હું છું
आचाराने
।। समयावलिकादिसुक्ष्मकालस्तु सूर्यादिव्योतिष्काणां ॥ गत्या नात्रगम्यः, अतिसूक्ष्मत्वात् । तस्मात् कालव्यवहारोऽर्धतृतीयद्वीप एव । अर्द्धतृतीयद्वीपावरजीवानामायुष्कादिगणना तु मनुष्यक्षेत्रमसिद्धप्रमाणेनैव भवतीति ज्ञेयम् ।
एकोऽपि कालोऽतीतानागतपर्यायभेदैरनन्तः, अत एव भगवता - "अणताणि यदव्याणि कालो पुग्गल जंतवा" इत्युपदिष्टम् । वर्तमानसमयस्य तु पर्यायत्वेऽपि नानन्त्यम्, एकरूपत्वात् ।
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निश्चयनयेन तु " लोकव्यापी कालः' इत्यवसीयते, अत एव भगवता - “धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोति पन्नत्तों जिणेहिं वरदंसिहिं ” । इत्यभिहितम् । धर्मोऽधर्म आकाशः कालः पुद्गला जन्तवः । एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनर्वरदर्शिभिः । इति च्छाया ।
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काल यद्यपि एक ही है, तो भी वह भूत-भविष्यपर्याय भेद से, अनन्त है, इसीलिये भगवानने कहा है--' अणताणि य द्रव्वाणि कालो पुग्गल जंतवो ' इति |काल, पुद्गल और जीव, ये सभी अनन्त हैं। वर्तमान समय पर्यायसहित होते हुए भी अनन्त नहीं है, क्योंकि वह एक ही है ।
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જો કે કાલ એક જ છે તે પણ ભૂત ભવિષ્યના ભેદથી છે, : તેથી लगवाने छुछे-'अणताणि य दव्वाणि, कालो, पुग्गल जंतवो' इति, अस युद्दगल અને જીવ એ દ્રવ્યેા અનન્ત છે. વર્તમાન સમય પર્યાયસહિત હાવા અનન્ત નથી કેમકે તે એક જ છે.'
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નિશ્ચયનયથી તે! કાલ લેાકવ્યાપી માનવામાં આવે'છે આથી ભગાને કહ્યું છે કે" धम्मो अधम्मो आगास कालो पुग्गल जंतवो ॥ । Ary
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Aasmananews
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ___ एप सामान्यरूपेण : :प्रसिद्धो -- लोकः-अनन्तरोक्तद्रव्यपट्कसमुदायरूप इति भाव ।
कालस्य-(१) अरूपित्वम् , (२.)-अचेतनत्वम् , (३)-अक्रियत्वम् , (४)-वर्तनाहेतुत्वं चेति गुणाः । (१)-अतीतत्वम् , अनागतत्वम् , (२)-वर्तमानत्वं, (३)-अगुरुलधुत्वं चेति पर्यायाः ! .
. ... .. ..... अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चया ज्ञायते । यथा-द्रव्यत - एकः कालः क्षेत्रतः-अद्धतृतीयद्वीपप्रमाणः, कालत:-आयन्तरहितः, भावतः-अरूपीवर्णगन्धरसस्पर्शवर्जित इति, गुणतःवर्तनालक्षणः, इति ।
वरदर्शी-लोकालोक को देखनेवाले जिन भगवानने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय; इन सबको अर्थात् इनके समुदाय को लोक कहा है।
:: ‘उपरिनिर्दिष्ट छ द्रव्यों के समुदाय को भगवानने सामान्यतया लोक कहा है।
काल के अरूपित्व, अचेतनत्व, अक्रियत्व, वर्तनाहेतुल्ल, ये चार गुण हैं। अतीतत्व, अनागतत्व, वर्तमानल्य, अगुरुलधुन्य, ये चार पर्याय हैं।
यह काल-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भात्र और गुण के भेद से पांच प्रकार से जाना जाता है। जैसे-~~-~ष्य से काल एक है, क्षेत्र से समयक्षेत्रप्रमाणवाला, काल से आधन्तरहित, भाव से अनुपी, अर्थात् वणे-गन्ध-रस-स्पर्श-रहित, और गुण से वर्तनालक्षणवाला है।
. ઉપર દર્શાવેલા છ દ્રવ્યોના સમુદાયને ભગવાને સામાન્ય રીતે લોક કહેલ છે. - કેળના-અરૂપિત્ત, અચેતનત્વ, અયિત્વ અને વર્તના હેતુત્વ, એ ચાર ગુણ છે. અને અતીતત્વ, અનાગતતત્વ, વર્તમાનત્વ, તથા અગુરુલઘુત્વ એ ચાર પર્યાય છે.
આ કાળ-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી પાંચ પ્રકારે જણાય છે, જેમકે દ્રવ્યથી કાળ એક, ક્ષેત્રથી અઢીદ્વીપ પ્રમાણુ, કાલથી આદ્યન્તરહિત, ભાવથી 24३५-4g --21-4-२४-२५हित छ, भने गुथी पक्षिया छ..
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___ ::.. चारामले ... समयावलिकादिक्ष्मकालस्तु · मर्यादिज्योतिप्काणां ।। गत्या । नावगम्यः, अतिसूक्ष्मत्वात् । तस्मात् कालव्यवहारोऽर्धत्तीयद्वीप एवं | अतृतीयद्वीपाहिजीवानामायुप्कादिगणना तु मनुष्यक्षेत्रमसिद्धप्रमाणेनैव भवतीति ज्ञेयम् । }}} ..., एकोऽपि कालोऽतीतानागतपर्यायभेदैरनन्ता, अत एव भगवता-"अणताणि य दयाणि कालो पुग्गल जंतवो", इत्युपदिप्टम् । वर्तमानसमयस्य तु पर्यायत्वेष नानन्त्यम् , एकरूपत्वात् ।
निश्चयनयेन तु "लोकव्यापी काला' इत्यवसीयते, अत एव भगवता"धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवों । एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहि वरदसिहिं" । इत्यभिहितम् । धर्मोऽधर्म आकाशः कालः पुद्गला जन्तवः । एप लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनवरदर्शिभिः । इति च्छाया।
काल यद्यपि एक ही है, तो भी' वह भूत-भविष्यपर्याय भेद से अनन्त है, इसीलिये भगवानने कहा है--' अणताणि य द्रयाणि कालो पुग्गल जंतयो' इति ।काल, पुद्गल और जीव, ये सभी अनन्त हैं। वर्तमान समय पर्यायसहित। होते हुए भी अनन्त नहीं है, क्योंकि वह एक ही है। ... ॥ । I '. .. .. निश्चयनय से तो काल लोकव्यापी माना जाता है, अतएवं भगवान ने कहा है--..."
"धम्मो अधम्मो आगास, कालो पुग्गल नंतवो । ...
एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहि ..!! . . . .. । છે , જે કે કાલ એક જ છે તે પણ ભૂત ભવિષ્યના ભેદથી અનન્ત, છે, તેથી भगवान - अणताणि य दव्याणि, कालो पुग्गल जंतवो'.. इति, ६ पुस અને જીવ એ પ્રત્યે અનન્ત છે. વર્તમાન સમય મર્યાયસહિત હોવા છતાં અનન્ત નથી કેમકે તે એક જ છે.'
-, નિશ્ચયનયથી તે કાલ લેકવ્યાપી માનવામાં આવે છે આથી ભગવાને કહ્યું છે કે" धम्मो अधम्मो आगास कालो. पुग्गल जंतवो।। ।। ... .. ! !
एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदसिहि ॥ . :. | . . ! ! • ' ' વરદ_કાલકને જેવાવાળાં જિને ભગવાને ધમસ્તિક, અધમસ્તિકાય, આકાશસ્તિકાય, કાલ, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને જીવાસ્તિકાય, એજ લેક છે એમ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा
एप सामान्यरूपेण । प्रसिद्धो: लोक:-अनन्तरोक्तद्रव्यपटकसमुदायल्प इति भाव।
: - कालस्य-(१)-अरूपित्वम् , (२)-अचेतनत्यम् , (३) अक्रियत्वम् , (४)-वर्तनाहेतुत्वं चेति गुणाः । (१) अतीतत्त्रम् ; - अनागतत्वम् , (२)-वर्तमानलं, (३)-भगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः । ... अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चधा ज्ञायते । यथा-द्रव्यत - एकः कालः क्षेत्रतः-अततीयद्वीपप्रमाणः, कालतः-आधन्तरहितः, भावतः-अरूपीवर्णगन्धरसस्पर्शवजित इति, गुणत:-वर्तनालक्षणः, इति ।।
वरदर्शी-लोकालोक को देखनेवाले जिन भगवानने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुट्लास्निकाय और जीवास्तिकाय; इन सबको अर्थात् इनके समुदाय को लोक कहा है।
- उपरिनिर्दिष्ट छ द्रव्यों के समुदाय को भगवानने सामान्यतया लोक कहा है।
काल केअरूपित्व, अचेतनत्व, अक्रियत्व, वर्तनाहेतुल, ये चार गुण हैं। अतीतत्य, अनागतत्व, वर्तमानत्व, अगुरुलधुत्व, ये चार पर्याय हैं।
" ' येह काल-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण के भेद से पांच प्रकार से जाना जाता है। जैसे----न्य से काल एक है, क्षेत्र से समयक्षेत्रप्रमाणवाला, काल से आयन्तरहित, भाव से अरूपी, अर्थात् वर्णान्ध-रस--स्पर्श-रहित, और गुण से वर्तनालक्षणवाला है। 3 ઉપર દર્શાવેલા છ દ્રવ્યોના સમુદાયને ભગવાને સામાન્ય રીતે લોક કહેલ છે. : ३पित्य, अयेतनाव, मयित्व भने पतनातुप, मे यार सुए छ, भने અતીતત્વ, અનાગતતત્વ, વર્તમાનત્વ, તથા અગુરુલઘુત્વ એ ચાર પર્યાય છે.
આ કાળ-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી પાંચ પ્રકારે જણાય છે, જેમકે-દ્રવ્યથી કાળ એક, ક્ષેત્રથી અઢીદ્વીપ પ્રમાણે, કાલથી આદ્યન્તરહિત, ભાવથી અરૂપીવણું–ગત્પ-રસ-પર્શ-રહિત છે, અને ગુણથી વર્તનલક્ષણવાળે છે.
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::: ...आगाराने 1. समयावलिकादित्मकालस्त । सूर्यादिन्योतिष्काणां। गत्या ‘नावगम्यः, अतिसूक्ष्मत्वात् । तस्मात् · कालव्यवहारोऽर्धतृतीयद्वीप एव । अतृतीयद्वीपारिजीवानामायुप्कादिगणना तु मनुप्यक्षेत्रप्रसिद्धप्रमाणनेव भवतीति ज्ञेयम्। '' .., ' एकोऽपि कालोऽतीतानागतपर्यायभेदैरनन्तः, अत एव भगवता-"अणताणि य दव्याणि कालो पुग्गल जंतवो". इत्युपदिष्टम् । वर्तमानसमयस्य तु पर्यायत्वं नानन्त्यम् , एकरूपत्वात् ।
निश्चयनयेन तु "लोकव्यापी काला' इत्यवसीयते, अत एव भगवता"धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवों । एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहि वरदसिहि " । इत्यभिहितम् । धर्मोऽधर्म आकाशः कालः पुद्गला जन्तवः । एप लाक इति प्रज्ञप्तः, जिनवरदर्शिभिः । इति च्छाया । . काल यद्यपि एक ही है, तो भी वह भूत-भविष्यपर्याय भेद से अनन्त है, इसीलिये भगवानने कहा है-'अणंताणि य द्रयाणि कालो पुग्गल जंतवो' इति । काल, पुद्गल और जीव, ये सभी अनन्त हैं। वर्तमान समय पर्यायसहित होते हुए भी अनन्त नहीं है, क्योंकि वह एक ही है। । । । । ..
. निश्चयनय से तो काल लोकव्यापी माना जाता है, अतएवं 'भगवानने कहा है "
__ "धम्मो अधम्मो आगास, कालो पुग्गल जंतवो । .. ,
' एस लोगोत्ति पनत्तो जिणेहिं वरदंसिहि." ॥ १ ॥ .. : .. ! , કે કાલ એક જ છે તો પણ ભૂત ભવિષ્યના ભેદથી અનન્ત), છે, તેથી लगवान घुछ- अणताणि य दव्याणि, कालो,पुग्गल जंतवो', इति, 6 અને જીવ એ દ્રવ્યે અનન્ત છે. વર્તમાન સમય ૫ર્યાયસહિત હોવા છતાં પણ અનન્ત નથી કેમકે તે એક જ છે.'
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, નિશ્ચયનયથી તે કાલ લેકવ્યાપી માનવામાં આવે છે આથી ભગવાને કહ્યું છે કે
धम्मो अधम्मो आगास कालो पुग्गल जंतवो।। .. ! . एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदसिहि ॥ 1.11 1 1. . : ' १२६श-arsnalsa daitin Cr पाने Eleisiय, भारतीय, આકાશસ્તિકેય, કાલ, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને છેવસ્તિકાય, એજ લેક છે એમ કહે છે:
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
पुद्गललक्षणम्
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रूपवत्वं पुद्गलानां लक्षणम् अत्र रूपं मूर्तत्ववर्णादिकम् । यद्यपि परमाणुमभृतयः सूक्ष्माः पुद्गलास्तेषां गुणाश्रावीन्यतया नेन्द्रियैगृह्यन्ते तथापि ararties परिणामविशेषे तेषामेवेन्द्रियग्राद्यतया रूपवत्त्वं प्रतीयते ।
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अतीन्द्रिये परमाणुप्रभृतिपुद्गलेऽतीन्द्रिये धर्मास्तिकायादौ धर्मास्तिकायादौ चैतावान् विशेष:- धर्मास्तिकायादीनामिन्द्रियविषयत्वाभावादतीन्द्रियत्वमरूपित्वं च परमाणुमभृतिपुद्गलानां त्वतीन्द्रियत्वेऽपि रूपित्यमिति ।
पुद्गल का लक्षण-
पुद्गलोका लक्षण 'रूपवत्व ' है । जिस में रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाया जाय अर्थात् जो मूर्तिक हो, वह पुदगल है । यद्यपि परमाणु आदि पुद्गल बहुत सूक्ष्म हैं, और अतीन्द्रिय होने के कारण उनके गुण इन्द्रियों द्वारा नहीं ग्रहण किये जाते, तथापि जब उन पुलों का चादर स्कन्ध के रूपमें परिणमन होता है तब वे इन्द्रियोंद्वारा प्राय हो जाते हैं और उनका रूपवत्व प्रतीत होने लगता है ।
"
परमाणु आदि अतीन्द्रिय पुद्गलों में और धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय द्रव्यों में इतना अन्तर है कि-धर्मास्तिकाय आदि अरूपी द्रव्य कभी इन्द्रियों के विषय नहीं होते, अतः वे अतीन्द्रिय और अरूपी हैं, किन्तु परमाणु आदि पुद्गल अतीन्द्रिय होने पर भी रूपी हैं।
પુદ્દગલનું લક્ષણ
પુદ્ગલાનું લક્ષણ રૂપવત્ત્વ છે; જેમાં રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શી જોવામાં આવે અર્થાત્ જે મૂર્તિમાન હોય તે પુદ્ગલ છે, જો કે પરમાણુ આદિ પુદ્ગલ હુ જ સૂક્ષ્મ છે અને અતીન્દ્રિય હોવાના કારણે તેના ગુણ મુન્દ્રિયે દ્વારા ગ્રહેણ કરી શકાતા નથી; તે પણ જ્યારે તે પગલેનું માદર કધના રૂપમાં પરિણમન થાય છે, ત્યારે તે ઇન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રહણુ થઈ જાય છે, અને તેનુ રૂપવત્ત્વ પ્રતીત થવા લાગે છે.
પરમાણુ આદિ અતીન્દ્રિય પુદ્ગલામાં અને ધર્માસ્તિકાય વગેરે 'અતીન્દ્રિય દ્રવ્યોમાં એટલું અંતર ફેરફાર છે કે ધર્માસ્તિકાય આદિ અરૂપી દ્રવ્ય કયારેય પણ ઇન્દ્રિયોના વિષય થતા નથી, તેથી તે અતીન્દ્રિય અને અરૂપી છે, પરન્તુ પરમાણુ આદિ પુદ્દગલ અતીન્દ્રિય હેાવા છતાંય રૂપી છે.
प्र. मा.-१३
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आचारागलो अथ पुद्गलास्तिकायः।
तत्र-पुद्गलशब्दार्थः। पूर्यते संहन्यते-परस्परं संयुज्य संघीभूय नूतनघनघटावदेकीभवति, गलति चविच्छिन्नमुक्तावलीमणिवद् विकीर्णो भवति इति पटलः । पूरण-गलनधर्म इत्यर्थः । पुद्गलवासावस्तिकायश्चेति पुद्गलास्तिकाया। ।
पुद्गलास्तिकायस्य घटादिकार्यान्यथानुपपत्तेः प्रत्यक्षदर्शनाचं सत्ता सिदैव ।
पुद्गलास्तिकाय-- -
'पुद्गल' शब्द का अर्थआपस में मिलकर इकट्ठे होकर नवीन घरपटादि के रूप में जो एकमेक हो जाते है, और जो गल जाते हैं अर्थात् टूटी हुई मोतियों की माला की भांति बिखर जाते हैं, वे पुद्गल कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि-जिसमें पूरण और गलन धर्म हो वह पुद्गल है, पुद्गलरूप अस्तिकाय 'पुद्गलास्तिकाय' कहलाता है।
-
Rawun
अगर 'पुद्गलास्तिकाय ' न होता तो घर आदि कार्य नहीं बन सकते थे। इस कारण, तथा प्रत्यक्ष दिखाई देने के कारण भी पुद्गलास्तिकाय की सत्ता भलीभांति
પગલાસ્તિકાય-~પુદગલ શબ્દને અર્થ
પરસ્પર મળીને એકત્ર થઈને નવીન ઘન-ઘટાદિના રૂપમાં જે એક-એક થઈ જાય છે, અને જે ગળી જાય છે અર્થાત્ તુટી ગએલી મોતીઓની માળા પ્રમાણે વિખાઈ જાય છે, તે મુદ્દગલ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જેમાં પૂરણ અને ગાલન ધમ હેય તે પુદ્ગલ છે, પુદગલરૂપ અસ્તિકાય તે મુદ્દગલાસ્તિકાય કહેવાય છે.
અગર પુદગલાસ્તિકાય ન હેત તે ઘટ આદિ કાર્ય બની શકેત નહિ. આ કારણથી, તથા પ્રત્યક્ષ દેખી શકાય છે તે કારણથી પણ પુદ્ગલાસ્તિકાયની સત્તા
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकायं गाहते । द्वथणुकस्कन्धश्च तस्यैकस्मिन् प्रदेशे, द्वयोश्च प्रदेशयोरवग़ाहते । तथा त्र्यणुकस्कन्धो लोकाकाशस्यैकस्मिन् प्रदेशे, द्वयोः प्रदेशयोखिषु मदेशेषु चावगाहते । एवं चतुरणुकादीनां संख्यातपदेशाऽसंख्यातमदेशानन्तप्रदेशानों स्कन्धानामवगाहनं लोकाकाशस्यैकप्रदेशमारभ्य संख्याताऽसंख्यातपदेशपर्यन्तेषु
भवति। ।
नन्वे मस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽल्पीयसि कथमनन्तप्रदेशिनः स्कन्धाः स्थान कभन्ते, न हि कलशे सिन्धोः समावेशं पश्यामः ? अवगाहना होती है। द्वयणुक अर्थात् दो परमाणु वाला स्कन्ध लोकाकाश के एक प्रदेश में या दो प्रदेशों में अवगाहन करता है । इसी प्रकार तीन परमाणुओं वाला स्कन्ध लोकाकाश के एक प्रदेश में, दो प्रदेशों में अथवा तीन प्रदेशों में अवगाहन करता है। इसी भांति चतुरणुक ( चार अणुओं वाले ) आदि स्कन्धों की अवगाहना, तथा संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी तक के स्कन्धो की अवगाहना लोकाकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात तथा असंख्यात प्रदेशों में होती है।
शंका--आकाश के एक छोटे से प्रदेश में अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का समावेश किस प्रकार हो सकता है, गागर में सागर का समावेश होना तो कहीं दिखाई नहीं देता।
અવગાહના હેય છે તયાણુક અર્થાત્ બે પરમાણુવાળા સ્કંધ લેકાકાશના એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશોમાં અવગાહન કરે છે. એ પ્રમાણે ત્રણ અણુઓવાળા સ્કંધ લોકાકાશના એક પ્રદેશમાં, બે પ્રદેશોમાં અથવા ત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહન કરે છે. એ પ્રમાણે જ ચાર આશુઓવાળા આદિ ધોની અવગાહના, તથા સંખ્યાતપ્રદેશી, અસંખ્યાતપ્રદેશ અને અનન્તપ્રદેશી સુધીના સ્કંધેની અવગાહના
કાકાશના એક પ્રદેશથી લઈને સંખ્યાત તથા અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં હોય છે.
શંક–-આકાશના એક નાના પ્રદેશમાં અનન્ત પ્રદેશ સ્કંધને સમાવેશ કેવી રીતે થઈ શકે, ગાગરમાં સાગરને સમાવેશ થયેલે કઈ ઠેકાણે દેખાતું નથી ?
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भाचाराचे पुद्गलानां प्रदेशसंख्या--- परमाणुमारभ्याचित्तमहास्कन्धपर्यन्ताः पुद्गला विविधपरिणामा भवन्ति । तेपां प्रदेशाः संख्याता असंख्याता अनन्ताय यथासंभवं भवन्ति। तत्र-संख्यातपरमाणुसंयोगसंगातः स्कन्धः संख्यातप्रदेशी, असंख्यातपरमाणुघटितः स्कन्धोऽसंख्यातप्रदेशी, अनन्तपरमाणुसंहतिसमुद्भुत स्कन्धोऽनन्त प्रदेशी भवति । परमाणोस्तु निरंशत्वान्नास्ति प्रदेश इति ।...
पुद्गलानां क्षेत्रस्थिति:परमाणो विभागाभावादेकस्मिन्नेवं प्रदेशे लोकाकाशस्य परमाणुरव
' पुद्गलों की प्रदेशसंख्या-- .. परमाणुसे लेकर अचित्त महास्कन्ध तक सब पुद्गल विविध परिणमन वाले होते हैं। उनके प्रदेश यथासम्भव संख्यात असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं । संख्यात परमाणुओं के संयोग से बना हुआ स्कन्ध संख्यातप्रदेशी कहलाता है । असंख्यात परमाणुओंसे बना हुआ स्कन्ध असंख्यातप्रदेशी और अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न स्कन्ध अनन्त प्रदेशी कहलाता है। परमाणु निरंश होता है-~~-उसके : अनेक भाग नहीं हो सकते, अत एव वह अप्रदेशी है।
पुद्गलों की क्षेत्रस्थिति परमाणु के विभाग न होने के कारण लोकाकाश के एक ही प्रदेश में उसको
- Yगानी प्रशस ज्याપરમાણુથી લઈને અચિત્ત મહાત્કંધ સુધી સર્વ પુદગલ વિવિધ પરિણુમનવાળા હેય છે. તેના પ્રદેશ યથાસંભવ સંખ્યાત, અસંખ્યાત અથવા અનન્ત હોય છે. સંખ્યાત પરમાણુઓના સંગથી બનેલા સ્કંધ સંખ્યાતપ્રદેશી કહેવાય છે, અસંખ્યાત પરમાણુઓથી બનેલા સ્કંધ અસંખ્યાત પ્રદેશ અને અનન્ત પરમાણુઓથી નિષ્પન્ન સ્કંધ અનન્ત--દેશી કહેવાય છે. પરમાણુ નિરંશ હોય છે, તેના અનેક ભાગ થઈ शता नयी तथा ते, मदेशी छ. . . . . . . . . . .
યુગલની ક્ષેત્રસ્થિતિ– * પરમાણુમાં વિભાગ નહિ હેવાના કારણે લોકાકાશના એક જ પ્રદેશમાં તેની
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
यथा वा एकमदीपप्रभायामनेकमदीपमभासमावेशः। यथा वा एककर्षपरिमितपारदे शतकर्पपरिमितमुवर्णसमावेशो भवति ।। - अनन्तमदेशिरूपोऽचित्तमहास्कन्धः केवलिसमुद्धातवत् सकललोकव्यापी भवति । स च विस्रसागत्या प्रथमसमयेऽसंख्यातयोजनविस्तरेण दण्डाकारेण परिणमति। द्वितीयसमये कपाटरूपेण, तृतीयसमये मन्यानरूपेण, चतुर्थसमये मतरमापूर्य सकललोकं व्याप्नोति, पञ्चमसमये प्रतरं संहरति, पष्ठसमये मन्यानं भनक्ति, सप्तमसमये कपाटं च, अप्टमसमये दण्डाकारं संहृत्य खंडशः प्रविकीर्णो भवति ।
अथवा-एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है।
अथवा एक कप-मासा (मापविशेष ) परिमित पारे में सौ कर्ष परिमित सोने का समावेश हो जाता है।
अनन्तप्रदेशी अचित महास्कन्ध केवलिसमुद्धात के समान समस्तलोकव्यापी होता है । वह स्वाभाविक गति से, प्रथम समय में असंख्यातयोजनविस्तृत दण्ड के आकार में परिणत होता है । दूसरे समय में वह कपाट के रूप में परिणत होता है,
और तीसरे समय में मंथान के रूप में हो जाता है, चौथे समय में प्रतर पूर्ण करके सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। फिर पांचवें समय में प्रतर को सिकोडता है, छठे समय में मंथान को, सातवें समय में कपाट को, और आठवें समय में दण्डाकार को यह सिकोडता है । उसके अनन्तर वह खण्ड खण्ड होकर विखर जाता है ।
અથવા–એક દીપકના પ્રકાશમાં અનેક દીપકેના પ્રકાશ સમાઈ જાય છે. અથવા એક કઈ (માપવિવ) પરિમિત પારામાં એક કઈ પરિમિત સોનાને સમાવેશ થઈ જાય છે.
અનન્તપ્રદેશી અચિત્ત મહાત્કંધ, કેવલિસમુદ્દઘાતની સમાન સમસ્તલોક વ્યાપી હોય છે, તે સ્વાભાવિક ગતિથી, પ્રથમ સમયમાં અસંખ્યાતજનવિસ્તૃત દંડના આકારમાં પરિણત થાય છે. બીજા સમયમાં તે કપાટના રૂપમાં પરિણત થાય છે, અને ત્રીજા સમયમાં મંથાન (દહીં વલોવવાને ર)ના રૂપમાં થાય છે, ચોથા સમયમાં પ્રતર પૂર્ણ કરીને લોકમાં વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. ફરી પાંચમા સમયમાં પ્રતરને સકેચે છે, છઠ્ઠા સમયમાં મંથાનને, સાતમા સમયમાં કયાટને અને આઠમા સમયમાં દંડાકારને એ સિકેડે છે, ત્યાર પછી તે ખંડ–ખંડ થઈને વિખેરાઈ જાય છે.
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. . . . . . . . - आचारास्त्रे • अत्र ब्रूमः-पुद्गलस्य परिणमनशक्तिरेव तादृशी यतः परमसूक्ष्मस्तादृशः परिणामो जायते, . येनानन्तप्रदेशिनः स्कन्धाः प्रदेशमेकं नमसः , प्रविशन्ति । . अथवा गगनस्य ताशी विचित्राऽवगाहदानशक्तियतोऽनन्तपदेशिनां स्कंधानां
तस्यैकस्मिन् प्रदेशे समावेशः सिध्यति । यथा अविघनीभूतलोहगोलकावगाह'नान्निरवकाशे किलाकाशदेशे भखानिलसमुद्भताः पावकावयवाः समाविशन्ति । यदि रन्ध्ररहिताऽयोगोलकं शीतलीकर्तुं वारि निक्षिप्पते, तदा तदयोगोलकपरिपूरितनिरन्तराकाशदेशे तस्मिन्नेव वारिकणा अव्याहतं प्रविशन्ति । '.
समाधान—पुद्गल में परिणमनशक्ति ही ऐसी है, जिससे उसका अत्यन्त सूक्ष्म परिणमन होता है । इसी कारण अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी आकाश के एक प्रदेश में समा जाते हैं । अथवा आकाश में ऐसी कुछ विचित्र अवकाशदान करने की शक्ति है कि उसके कारण अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का भी आकाश के एक ही प्रदेश में समावेश हो जाता है । जैसे- अत्यन्त सघन लोहे के गोले के अवगाहन से निरवकाश आकाशप्रदेश में धौंकनी की वायु से वृद्धि पाये हुए अग्नि के अवयव प्रवेश कर जाते हैं । तात्पर्य यह है कि लोहे का गोला बहुत ठोस होता है, वह आकाश के जिन प्रदेशों में मौजूद है, वहां जगह दिखाई नहीं देती, फिर भी यकिनी की वायु की प्रेरणासे उन्हीं आकाश प्रदेशों में अग्नि का प्रवेश हो जाता है, तत्पश्चात् छिद्ररहित उस लोहे के गोले को ठंडा करने के लिये उस पर पानी डाला जाय तो जिन आकाश प्रदेशों में लोहे का गोला और पावक-अग्नि है, उन्हीं में जल के कण भी वेरोकटोक प्रवेश कर जाते हैं।
સમાધાન-પુદગલમાં પરિણમનશક્તિ જ એવી છે જેથી તેનું અત્યન્ત સૂમ પરિણમન હેાય છે. એ કારણે અનન્તપ્રદેશી સ્કંધ પણ આકાશના એક પ્રદેશમાં સમાઈ જાય છે. અથવા આકાશમાં એવી કોઈ વિચિત્ર અવકાશદાન કરવાની શક્તિ છે કે–તે કારણથી અનન્તપ્રદેશી ઔધને પણ આકાશના એક જ પ્રદેશમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. જેમકે–અત્યન્ત સઘન સેઢાના ગેળાના અવગાહનથી નિરવકાશ આકાશ પ્રદેશમાં ધમણના વાયુથી વૃદ્ધિ પામેલા અગ્નિના અવયવે પ્રવેશ કરી જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-લેઢાને ગેળો બહુ જ ઠોસ (પિલાણ વિનાને) હેય છે, તે આકાશના જે પ્રદેશોમાં મોજુદ છે, ત્યાં જગ્યા દેખાતી નથી. તો પણ ધમણના વાયની પ્રેરણાથી તે આકાશ પ્રદેશોમાં અગ્નિને પ્રવેશ કરી જાય છે. તે પછી રિહિત તે લેવાના ગેળાને ઠડ કરવા માટે તેના ઉપર પાણી નાખવામાં આવે તો જે આકાશ-પ્રદેશમાં લેઢાને ગેળે અને અગ્નિ છે, તેમાં પાણીનાં ટીપાં પણ २४-टरी (मटाच्या) विना प्रवेश श जय छे.
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आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
. . पुद्गलानां विशेषगुणाःवर्णगन्धरसस्पर्शाः पुद्गलानां विशेपगुणाः सहभाविनः परिणामाः । शब्द-बन्ध-सौम्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तम-छाया-ऽऽतपो-द्योतादिभिः पर्यायैः पुद्गला लक्ष्यन्ते ज्ञायन्ते, इत्याशयेन भगवता पुद्गलानां लक्षणतया शब्दादयः प्रोक्ताः । तथाहि
"सईधयार उज्जोओ, पमा छायाऽऽत्तवृत्ति वा वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१॥" (उत्त० अ० २८) .
पुद्गलों के विशेष गुण---- वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गलो के विशेष ( असाधारण) गुण हैं-सहभावी परिणाम हैं । शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान (आकार ), भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत आदि पर्यायों के द्वारा पुद्गल लखा जाता है-~-जाना जाता है । इस आशय से भगवान् ने शब्द आदि को पुद्गलों का लक्षण कहा है, वह इस प्रकार"सबंधयार उज्जोओ, पभा-छाया-ऽऽतयुत्ति वा, वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं" शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श, ये सब पुद्गलों के लक्षण हैं । गाथा में 'छायाऽऽतयुत्ति' यहाँ 'इति' शब्द आदि के अर्थ में है। इस आदि शब्द से वर्ण आदि का ग्रहण हो सकता था फिर भी उन्हें अलग कहने का कारण यह है कि वे नित्य सहभावी गुण हैं।
सना विशेष गुणવર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ પુદગલના વિશેષ (અસાધારણ ) ગુણ છે— सहलावी परिणाम छ श, मध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान (आ४२) लेह, तम, છાયા, આતપ, ઉદ્યોત આદિ પર્યાથી લખી શકાય છે—જાણે શકાય છે. તે આશયથી ભગવાને શદ આદિ પુદ્ગલેનું લક્ષણ કર્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે– " सबंधयार उज्जोओ, पमा छाया-ऽऽतवुत्ति वा, वण्णरसगंधफासा; पुग्गलाणं तु लक्खणं" Avt, A २, धोत प्रमा, छाया, मात५, प, रस, गंध मन स्पर्श, से पुगतानु लक्ष छ. मायामां-'छायाऽऽतवुत्ति' महि 'इति' श६ माहिना मथभा छ, એ પ્રમાણે “ િશબ્દથી વર્ણ વગેરેનું ગ્રહણ થઈ શકે છે તે પણ તેને અલગ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે નિત્ય સહભાવી ગુણ છે. '
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. . . . आचारायचे
पुद्गलानामुपकारःशरीरवाङ्मनःप्राणादयः. पुद्गलपरिणामा गमनाऽऽदान-वचन-चिन्तनप्राणनादिभावेन जीवानुपकुर्वन्ति, अतः शरीराधाकारेण पुद्गला जीवानामुपकार कुर्वन्ति । तत्र शरीरं पञ्चविधम् , औदारिक, वैक्रियम्, आहारकं, तैनस, फार्मणं चेति ।
अथ जीवानां ये मुखदुःखजीवितमरणरूपाः परिणामा भवन्ति तत्र सुखादिरूपेण जीवपरिणामे निमित्तं पुद्गला इति सिद्ध जीवोपकारित्वं पुद्गलानाम् ।
पुद्गलों का उपकार
शरीर, वचन, मन और प्राण आदि पुद्गलों के परिणामविशेष-गमन, आदान, वचन, चिन्तन और प्राणन ( सांस लेना) आदिरूप से जीवों का उपकार करते हैं अतः शरीर आदि के रूप में पुद्गल ही जीवों का उपकार करते हैं । इनमें शरीर पांच प्रकार का है(१) औदारिक (२) वैक्रिय (३) आहारक (४) तैजस और (५) कार्मण ।
प्राणियों में सुख दुःख जीवन और मरण रूप जो परिणाम होते हैं, उन सब परिणामों में पुद्गल कारण है, अतः यह सिद्ध हुआ कि पुद्गल जीवों का उपकार करते हैं।
પુદગલેને ઉપકાર
શરીર, વચન, મન અને પ્રાણ આદિ પુદ્ગલેના પરિણામવિશેષ-ગમન, આદાન, વચન, ચિંતન અને પ્રાણન (શ્વાસ લેવે) આદિ રૂપથી જીવને ઉપકાર કરે છે, એટલે શરીર આદિના રૂપમાં પુદ્ગલ જ જીવેને ઉપકાર કરે છે, તેમાં શરીર પાંચ
न छ-(१) मोहारिश, (२) वैष्ठिय, (3) माहार४, (४) तेरस भने (५) म.
પ્રાણીઓમાં સુખ, દુઃખ, જીવન અને મરણરૂપ જે પરિણમન થાય છે, તે સર્વ પરિણામમાં પુદ્ગલ કારણરૂપ છે. તેથી એ સિદ્ધ થાય છે કે પુદ્ગલ જીને ઉપકાર કરે છે.
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__ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
परमाणुस्वरूपम्तत्र परमाणुश्च सकलविभागान्तवर्ती निरंशः परस्परासंयुक्तः, सूक्ष्मत्वादिन्द्रियव्यापारातीतः, एकैफवर्ण-गन्ध-रस-द्विस्पर्शयुक्तः, द्वथणुकस्कन्धाधचित्तमहास्कन्धपर्यन्तानां स्थूल-सूक्ष्म-स्कन्धकार्याणां कारणरूपो नित्यश्चेति । -
उक्तञ्च भगवता भगवतीसूत्रे-(श. २० उ०५)
__ परमाणु का स्वरूपपरमाणु, पुद्गल का अन्तिम विभाग है। वह निरंश है। परस्पर असंयुक्त है। सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों की उसमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पोंसे युक्त है। द्वयणुक स्कन्धसे लेकर अन्तिम महास्कन्ध पर्यन्त स्थूल एवं सूक्ष्म स्कंधरूप कार्य का कारण है और निरय है। भगवानने भगवतीसूत्र (श. २०, उ० ५) में कहा है
प्रश्न-भगवन् ! परमाणु पुद्गल कितने वर्णवाला, कितने गंध वाला, कितने रसवाला, और कितने स्पर्शवाला कहा गया है ।
उत्तर-गौतम ! एक वर्णयाला, एक गंध वाला, एक रसवाला और दो स्पर्शवाला कहा गया है। एक वर्णवाला होता है तो कदाचित् काला, कदाचित् नीला, कदाचित् लाल,
५२भानु स्व०५પરમાણુ, એ પુદ્ગલને અંતિમ વિભાગ છે. તે નિરંશ (અંશરહિત) છે. પરસ્પર અસંયુક્ત છે. સૂમ લેવાના કારણે ઇન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ તેમાં થઈ શકતી નથી. એક વર્ણ, એક ગંધ, એક રસ અને બે સ્પર્શથી યુક્ત છે. પ્રયાગુક સ્કંધથી લઈને અચિત્ત મહાકંધ પર્યન્ત સ્થૂલ અને સમસ્કંધરૂપ કાર્યનું કારણ છે, અને नित्य छे. सपान मसती सूत्र (२२. २० 6. ५.)मा युछे:
પ્રશ્ન-“ભગવદ્ ! પરમાણુ યુગલ કેટલા વર્ણવાળું, કેટલા ગંધવાળું, કેટલા રસવાળું, અને કેટલા સ્પર્શવાળું કહ્યું છે?
ઉત્તર-ગૌતમ! એક વર્ણવાળું, એક ગંધવાળું, એક રસવાળું, અને બે સ્પર્શવાળું કહ્યું છે.”
“ वा डाय छ त आथित् ४४, ४ायित बा, यित्वास, કદાચિત્ પીળું અને કદાચિત શ્વેત હોય છે. એક ગંધવાળું હોય છે તે કદાચિત प्र. आ.-१४
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· · आचाराने
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शब्दोऽन्धकार उद्योतः प्रभा छाया आतप इति या । वर्णरसगन्धस्पर्शाः पुद्गलानां तु लक्षणम् । इति च्छाया ।
"छायाऽऽतयुत्ति" इत्यत्र इति' शब्द आयर्थकः । तेनैव वर्णादीनां ग्रहणेऽपि पुनरुपादानं नित्यसहभावित्ववोधनार्थम् । ____ तत्र वर्णः पञ्चधा, कृष्ण-नील-लोहित-पीत-शुक्र-भेदात् । गन्धो द्विविधः-सुरभिरसुरभिश्च । रसः पञ्चविधः-तिक्त-कटु-कपापा-म्ल-मधुर-भेदाद । स्पर्शोऽष्टधा-कठिन-मृदु-गुरु-लघु-शीवो-ग्ण स्निग्ध-रुक्ष-भेदात् । संस्थान पञ्चविधम्-वृत्त-व्यस-चतुरस्र-ऽऽयत-परिमण्डल-भेदात् ।
पुद्गल विभाग:पुद्गलः संक्षेपतो द्विविधः-परमाणु-कंधभेदात् । ___ वर्ण पांच प्रकार का है-काला, नीला, लाल, पीला, और सफेद । सुगन्ध दुर्गन्ध के भेद से गन्ध दो प्रकार का है । रस के पांच भेद हैं--तीखा, कडुआ, कषैला, खट्टा, और मीठा । स्पर्श के आठ भेद हैं-~-कठिन, कोमल, भारी, हल्का, शीत, उष्ण, चिकना, और रूखा। संस्थान पांच प्रकार का है-वृत्त ( गोल ), त्र्यख (तिकोना), चतुरस्त्र (चौकोर ), आयत (लम्बा ) और परिमण्डल-(गोल-मटोल ).
पुद्गल के भेदसंक्षेप से पुद्गल के दो भेद हैं-परमाणु और स्कन्ध ।
વર્ણ પાંચ પ્રકારના છે-કાળ, લીલો, લાલ, પીળે અને છે. સુગંધ અને દુધના ભેદથી ગંધ બે પ્રકારના છે. રસના પાંચ ભેદ છે-તી, , કષાયેલો, भारी भने भाठा, २५र्शना मा से छे-४, म, मारी, सी, शत, g, ચિકણે અને રૂક્ષ. સંસ્થાન પાંચ પ્રકારનાં છે-વૃત્ત-ગળ, ત્રિકેણ, ચતુષ્કોણ, सांमु भने भटोग.
पुगतान . सपथी पुसिना मे मे छ-(१) परभा भने (२) २४.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
१०७ असौ शस्त्रादिना लवादिवदच्छेयः, मूच्यादिना चर्मपदभेद्यः, अग्निना काप्ठवददायः, इस्तादिना वस्त्रपात्रबदग्राह्यश्च । उक्तश्च भगवता भगवतीस्त्रे (श०-२० उ०५)
"दन्बपरमाणू णं भंते। कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा! चउन्विहे पण्यत्ते, तनहा-अच्छेज्जे, अभेज्जे, अडझे, अगेज्हो ।" इति । द्रव्यपरमाणुः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः?, गौतम ! चतुर्विधः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अच्छेद्यः, अभेद्यः, अदाहाः, अग्रायः । इति च्छाया ।
__ यद्यपि परमाणुः पुद्गलत्वान्मर्तस्तथाऽप्यसौ खण्डशः कर्तुमशक्यः, आकाशमदेशवत्परमाणोः पुद्गलपरमजघन्यांशरूपत्वात् , सर्वपरिमाणेभ्योऽपकृष्टं परिमाणं परमाणोरेव तस्मात्सोऽखण्ड एव ।
परमाणु, शस्त्र के द्वारा लता आदि की भाँति छेदा नहीं जा सकता, चमडे की तरह मुई आदि से भेदा नहीं जा सकता, काष्ठ के समान अग्नि भादि से जल नहीं सकता और वस्त्र पात्र आदि पदार्थो की तरह हाथ आदिसे पकडा नहीं जा सकता। भगवान्ने भगवतीस्त्र (श. २०, उ० ५) में कहा है---
प्रश्न-भगवन् ! द्रव्य परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर--गौतम ! चार प्रकारका कहा गया हैं-अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य ।
परमाणु, पुदगल होने के कारण मूर्तिक है, फिर भी उस के खण्ड नहीं किये जा सकते । जैसे आकाश का एक प्रदेश जघन्य अंशरूप है और उसका परिमाण सभी
પરમાણુ, શસ્ત્ર દ્વારા લતા આદિના પ્રમાણે છેદી શકાતું નથી, ચામડાની જેમ સોય વગેરેથી વીંધી શકાતું નથી, કાષ્ઠની જેમ અગ્નિ આદિથી બાળી શકાતું નથી, અને વસ્ત્ર પાત્ર આદિ પદાર્થોની જેમ હાથ વગેરેથી પકડી ABI नथी.
भगवाने मसलतीसूत्र--(२. २०-९. ५) मा ह्यु छ:~~ પ્રશ્ન-“ભગવન્! દવ્ય પરમાણુ કેટલા પ્રકારનું કહ્યું છે?
उत्तर-गौतम! यार प्रानु ४,छे-"अछेध, अलेध, महामने माग ( છેદી શકાય નહિ, ભેદી શકાય નહિ, બળી શકે નહિ, અને ગ્રહણ થઈ શકે નહિ).
પરમાણ, પુદગલ હોવાના કારણે મૂતિક છે તો પણ તેના ખંડ–ભાગ થઈ શકતા નથી જેમકે --આકાશને એક પ્રદેશ જઘન્ય અંશય છે, અને તેનું પરિમાણ
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AARAN
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आचारासो "परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिबन्ने, कतिगंधे, फतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते ?, गोपमा ! एगवन्ने, एगगंधे, एगरसे, दुप्फासे पनसे, तंजा-जर एगवन्ने-सिय कालए, सिय नीलए, सिय लोहिए, सिय हालिदे, सिय मुकिल्ले । जइ एगगंधे-सिय मुभिगंधे, सिय दुन्भिगंधे । जाएगरसे-सिय वित्त सिय कहुए सिय कसाए, सिय अंबिले, सिय महुरे । जइ दुप्फासे-सिय सीए य निद्ध य १, सिय सीए य लुक्खे य २, सिय उसिणे य निदे य ३, सिय उसिणे ये लुक्से य४" इति ।
परमाणुपुद्गला भदन्त ! कतिवर्णः, कतिगन्धः, कतिरसः, कतिस्पर्शः प्रशतः ? गौतम ! एकवर्णः, एकगन्धः, एकरसा, द्विस्पर्शः प्राप्तः। तद्यथा-यदि एकवर्णः -स्पात् कालकः, स्यात् नीलकः, स्यात् लोहितः, स्यात् हारिद्रः, स्यात् शुलः । यदि एकगन्धः-स्यात् सुरभिगन्धः, स्यात् दुरभिगन्धः, यदि एकरसः स्यात्तिक्तः स्यात् कटुका, स्पात् कपाय:, स्यात् अम्लः, स्यात् मधुरः। यदि द्विस्पर्शः-स्पात शीतच स्निग्धश्च १, स्यात् शीतश्च रूक्षश्च २, स्यात् उष्णश्व स्निग्धश्च ३, स्यात् उष्णश्च रूक्षश्च ४, । इति च्छाया, कदाचित् पीला, और कदाचित् शुक्ल होता है। एक गन्धवाला होता है तो कदाचित् सुरभिगंधवाला, कदाचित् दुरभिगंधवाला होता है। यदि एक रसवाला होता है तो कदाचित् तिक्त, कदाचित् कटुक, कदाचित् कपायला, कदाचित् खटा, और कदाचित् मोठा होता है। यदि दो स्पर्शवाला होता है तो कदाचित् शीत और स्निग्ध. (चिकना) १, कदाचित् शीत और रूक्ष २, कदाचित् उष्ण और स्निग्ध ३, तथा कदाचित् उष्ण और रूक्ष होता है ४ }
સુરભિગધ (સારી ગધ) વાળું અને કદાચિત દુરભિગંધવાળું હોય છે. જે એક રસવાળું હોય છે તે કદાચિત્ તીખું, કદાચિત્ કડવું, કદાચિત્ કષાથલું, કદાચિત ખાટું અને કદાચિત મધુર-મીઠું-ય છે. જે બે સ્પર્શવાળું હોય છે તે કદાચિત શીત અને સિનગ્ધ-(ચિકણા) ૧, કદાચિત શત અને રૂક્ષ ૨, કદાચિત ઉષ્ણ અને નિય રૂ, તથા કદાચિત ઉષ્ણ અને રૂક્ષ હોય છે. ”
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
१०९ __ यद्यपि धर्माधर्माकाशजीवा अपि पुद्गलवत्स्कन्धरूपास्तथापि स्कन्धरूपपुद्गलादयं विशेषः-तेपाम्-धर्मादीनां चतुणी भदेशाः स्वस्वस्कन्धान खण्डशः पृथग् भवितुमर्हन्ति, तेपाममूर्त्तत्वात् । पुद्गलपदेशास्तु खण्डशः पृथग् भवन्ति, तेषां मूर्तत्वात् , आश्लेपविश्लेपाभ्यां मूर्त्तवस्तुनि संमिलन-पृथग्भाव-शक्तः सर्वानुभवगोचरत्वात् , अतः स्कन्धपुद्गलानां स्थूलः मूक्ष्मो वा भागोऽवयवउच्यते । अवयौति-पृथग्भवतीत्यत्रयवशब्दव्युत्पत्त्या विभाज्य एवांशोऽवयवशब्दार्थस्तस्मात्पुद्गलप्रदेश एवावयव इत्युच्यते ।
यद्यपि धर्म-द्रव्य अधर्म-द्रव्य आकाश और जीव भी पुद्गलके समान स्कन्धरूप हैं, फिर भी स्कन्धरूप पुद्गल से उनमें यह भिन्नता है-धर्म आदि चार द्रव्यों के प्रदेश अपने २ स्कन्धसे कभी अलग नहीं हो सकते, क्योंकि धर्म आदि चार द्रव्य अमूर्त हैं । पुद्गल द्रव्य के प्रदेश खण्ड२ होकर अलग हो जाते हैं, क्योंकि पुद्गल मूर्त हैं। आ'लेप और विश्लेप के द्वारा मूर्त वस्तु में मिलने और विछुडने की शक्ति है, यह बात सभी के अनुभव से सिद्ध है, अतः स्कन्ध-पुद्गलों का स्थूल या सूक्ष्म भाग अवयव कहलाता है, 'अवयौति' इति-अवयवः अर्थात् जो पृथक् हो सके उसे अवयव कहते है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार विभक्त हो सकने योग्य अंश को ही अवयव कहा जा सकता है, अतः पुद्गल का प्रदेश ही अवयव कहलाता है ।
- જો કે ધર્મ-દ્રવ્ય, અધર્મ-દ્રવ્ય, આકાશ અને જીવ પણ પુદગલના સમાન સકંધરૂપ છે, તે પણ સ્કંધરૂપ પુદ્ગલથી તેમાં એ ભિન્નતા છે-ધર્મ આદિ ચાર દ્રવ્યના પ્રદેશ પિત–પિતાના સ્કંધથી કયારેય પણ અલગ થઈ શકતા નથી. કેમકે ધર્મ આદિ ચાર દ્રવ્યો અમૂર્ત છે. પુદ્ગલ દ્રવ્યના પ્રદેશ ખંડ ખંડ થઈને અલગ થઈ જાય છે, કેમકે પુગલ મૂર્ત છે. આશ્લેષ (મળવું) અને વિશ્લેવ (જુદા થવું) દ્વારા મૂર્ત વસ્તુમાં મળવું અને છૂટા થવું તે શક્તિ છે, આ વાત સર્વને અનુભવથી સિદ્ધ છે. એટલા કારણથી સ્કંધ પુદ્ગલોનું સ્થૂલ અથવા सूक्ष्म अवयव ४पाय छ 'अवयौति' इति-अवयवः अर्थात् थ य श तेने અવયવ કહે છે, એ વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે વિભક્ત થવા એગ્ય અંશને જ અવયવ કહે છે. આ કારણથી પુદ્ગલ દ્રવ્યને પ્રદેશ જ અવયવ કહેવાય છે.
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आचारात्सूत्रे
स च प्रत्यक्षदृश्यैरनेकविधैर्वादरपरिणामस्पैः स्कन्धैरनुमीयते । उक्त" कारणमेव तदंत, सुमो णिचो य होड़ परमाणु । एगरसगंधवण्णो, दुष्फासो कज्जलिंगो य ॥ १॥ इति
छाया - कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरaira, द्विस्पर्शः कार्यळिख ||१||" इति | स्कन्धस्वरूपं तद्भेदाथ
परस्परसंमिलितबद्धपरमाणुसमुदायः स्कन्धः । स्कन्धान्तवर्ती निरंशोऽवयवः प्रदेश इत्युच्यते ।
परिमाणोंसे होनतम है, इसी प्रकार परमाणु भी जघन्य अंशरूप है - उसके अंश नहीं हो सकते, वह अखण्ड है ।
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प्रत्यक्ष से दिखाई देनेवाले अनेक प्रकार के बादररूप परिणत स्कन्धों से परमाणु का अनुमान होता है । कहा भी है---
" परमाणु कारणरूप है, अन्तिम अंशरूप है, सूक्ष्म है और नित्य है । एक रसवाला, एक गंधवाला, एक वर्णवाला और दो स्पर्शवाला होता है । स्कंधरूप कार्य देखने से उसका अनुमान होता है । "
स्कन्ध का स्वरूप और भेद
परस्पर मिले हुए - आपसमें बद्ध - परमाणु का समूह स्कंध कहलाता है । स्कंधमें रहा हुआ निरंश अवयव प्रदेश कहलाता है ।
તેનાં
સર્વ પરિમાણાથી હીનતમ છે, એ પ્રમાણે પરમાણુ પણુ જઘન્ય અંશરૂપ છે, अंश-विभाग थर्ध शत्रुता नथी, ते अखंड छे.
બાદરરૂપ પરિણત સ્પધાથી
પ્રત્યક્ષથી જોવામાં આવતા અનેક પ્રકારના પરમાણુનું અનુમાન થાય છે, કહ્યું પણ છે~~
પરમાણુ કારણરૂપ છે, અન્તિમ અંશરૂપ છે, સૂક્ષ્મ છે અને એક રસવાળુ છે, એક ગંધવાળુ, એક વણુ વાળુ અને બે સ્પર્ધા વાળુ સ્કંધરૂપ કાર્યના દેખાવથી તેનું અનુમાન થાય છે.
સ્કંધનું સ્વરૂપ અને ભેદ——
નિત્ય છે,
હોય છે.
}
પરસ્પર મળેલાદર અંદર અદ્ધ-પરમાણુઓના સમૂહ તે સ્કંધ કહેવાય છે. સ્કંધમાં રહેલા નિરશ અવયવ તે પ્રદેશ કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय स्कन्धस्य परमाणोश्च संयागे सति त्रिपदेशी स्कन्धो भवति । संख्यातपरमाणनां संघातात् संख्यातप्रदेशी स्कन्धः, असंख्यातपरमाणूनां संयोगाद् असंख्यातपदेशी स्कन्धः, अनन्तपरमाणनां संघाताज्जातोऽनन्तप्रदेशी स्कन्धः, अनन्तप्रदेशिनां स्कन्धानां योगे त्यनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्धो जायते । संख्यातप्रदेश्यादिषु स्कंधेपु संयोगपरिणामः पूर्वोक्तरीत्या भावनीयः ।
दृष्यणुकादिक्रमेणानन्तानन्तमदेशिपर्यन्ता ये स्कन्थाः संयोगपरिणाम-- जास्तेभ्यः परमाणुः पृथग भवति चेत्तदैकपरमाणुन्युनः स्कन्धो जायते । एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिपरमाणुपृथग्भावक्रमेण न्यूनान्यूनो द्विपदेशी स्कन्धः समुत्पद्यते ।
और एक परमाणु का संयोग होने पर विप्रदेशी स्कन्ध बनता है, संख्यात परमाणुओं के संघात से संन्यातप्रदेशी स्कन्ध बनता है और असंख्यात परमाणुओं के संयोग से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध बनता है । अनन्त परमाणुओं के मिलने से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध बनता है, अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का संयोग होने पर अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है । संख्यातप्रदेशी आदि स्कन्धों में संयोगरूप परिगमन पूर्वोक्तप्रकार से समझ लेना चाहिए।
द्वयक आदि के क्रम से अनन्तानन्तप्रदेशी पर्यन्त जो स्कन्ध संयोगपरिणाम से बने हैं, उन में से अगर एक परमाणु अलग हो जाता है तो वह एक परमाणुहीन स्कंध रह जाता है । इसी प्रकार दो तीन चार पांच आदि परमाणुओं के अलग होने पर अन्त में द्विप्रदेशी स्कंध ही बचता है।
અને એક પરમાણને સંગ થવાથી વિદેશી સ્કંધ બને છે, સંખ્યા પરમાણુઓના સંઘાતથી (મળવાથી) સંખ્યાતપ્રદેશ સ્કંધ બને છે. અને અસંખ્યાત પરમાઓના સંયોગથી અસંખ્યાતમદેશી સ્કંધ બને છે. અનન્ત પરમાણુઓના સંગથી અના પ્રદેશ સ્કંધ ઉત્પન્ન થાય છે. અનન્તપ્રદેશી ઔધોને સંગ થાય તે અનન્તાનન્તપ્રદેશી ધ ઉત્પન્ન થાય છે. સં યાતપ્રદેશી આદિ ધોમાં સંગરૂ૫ પરિણમન પૂર્વના પ્રકારથી સમજી લેવું જોઈએ.
ચણક આદિના કમથી અનન્તાનન્તપ્રદેશી પર્યન્ત જે કંધ છે, તે સંગ પરિણમનથી બન્યા છે, તેમાંથી જે એક પરમાણુ અલગ થઈ જાય તે તે એક પરમાણુહીન સ્કંધ રહી જાય છે. એ પ્રમાણે બે, ત્રણ, ચાર, પાંચ આદિ પરમાણુઓ અલગ થઈ જાય તે અન્તમાં દ્વિદેશી સ્કંધ જ બચે છે.
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आनाराज संघाता, भेदात् , संघातभेदाम्यां च द्विपदेशिमभृतयः स्कन्धाः समु. त्पधन्ते । उक्तञ्च भगवता स्थानासूत्रे
"दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहणति, तनहा-सयं वा पोग्गला साहन्नति, परेण वा पोग्गला साहन्नति । सयं वा पोग्गला मिज्नति परेण वा पोग्गला भिज्जति" इति।
छाया-" द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः संहन्यन्ते । तद्यथा-स्वयं वा ।' पुद्गलाः सहन्यन्ते, परेण वा पुद्गलाः संहन्यन्ते । स्वयं या पुद्गला मिद्यन्ते, परेण वा पुद्गला भियन्ते । इति।
'स्वयंवे'-ति स्वभावतो वा अभ्रादिविव संहन्यन्ते सम्बध्यन्ते । (कमणः कत्तृत्वविवक्षायांप्रयोगोऽयम् ) परेण वा अन्येन वा पुरुषादिना सहन्यन्तेसंहताः क्रियन्ते । (कर्मणि वाच्ये प्रयोगोऽयम्)। एवं भिद्यन्ते-विकीर्यन्वे ।
द्वयोः परमायोः संघाताद् द्विप्रदेशी स्कन्धः समुद्भवति । द्विप्रदेशिनः
संघात (मिलने) से, भेद (बिछुड़ने ) से तथा संघातभेदसे द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं।
भगवानने स्थानाङ्गसूत्र में कहा है"दो स्थानों से पुद्गल आपस में मिलते हैं, वह इस प्रकार--या तो पुद्गल स्वयं बादल आदि की तरह मिल जाते हैं, या दूसरे पुरुष आदि के द्वारा मिलाये जाते है, इसी प्रकार पुद्गल स्वयं अलग हो जाते हैं, या दूसरे के द्वारा अलग किये जाते हैं। .
दो परमाणुओं के संघात से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है, द्विप्रदेशी स्कन्ध
સંઘાત (મેલાપ)થી ભેદ (જુદા પડવાથી તથા સંઘાત-ભેદથી હિપ્રદેશ विशेरे ४ 64-1 थाय छे. लपाने स्थानागसूत्रमा ढुंछ---
બે સ્થાનેથી પુગલ પરસ્પર મળે છે. તે આ પ્રમાણે-પુદગલ પિતે જ વાદળ આદિ પ્રમાણે મળી જાય છે, અથવા બીજો પુરુષ આદેિના દ્વારા મેળવાય છે. એ પ્રમાણે પુદગલ પોતે જ અગલ થઈ જાય છે, અથવા તો બીજાના દ્વારા અલગ કરી શકાય છે.
બે પરમાણુઓના સંધાતાથી મળવાથી) દ્વિદેશી સ્કંધ બને છે. ઢિપ્રદેશ સ્કંધ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
जघन्यगुणस्निग्धयोर्द्वयोः, जघन्यगुणस्निग्धानां वा बहूनां परमाणुनां परस्परं बन्धो न भवति । तथा जघन्यगुणस्क्षयोः, जघन्यगुणरूक्षाणां वा परस्परं वन्धो न भवति । जघन्योऽपकृष्टतमः, गुणशब्दोऽत्र संख्याकः । यथा एकगुणं, द्विगुणमित्यादिपदम्-एकसंख्यकद्विसंख्यकाद्यर्थबोधकम् । स्नेहादिगुणानां मकर्पापकौं लोकमसिद्धौ । यथा-पानीयादजादुग्धं स्निग्धम् , अजादुग्धाद् गव्यं दुग्धम् , ततश्च महिपोदुग्धमित्युत्तरोत्तरं स्नेहप्रकर्षः। __एपामेव पूर्व पूर्व स्नेहापकर्षः। तथा चैकगुणस्निग्धस्यैकगुणस्निग्धेन, द्वयोहूनां परमाणनां परस्परं बन्धो न भवति । एकगुणरूक्षस्यैकगुणरुक्षेण च
जघन्यगुण स्निग्ध दो परमाणुओं का, अथवा बहुत परमाणुओं का परस्परमें बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार जघन्यगुण रूक्ष दो या बहुत परमाणुओं का भी परस्पर में बन्ध नहीं होता। जघन्य का अर्थ यहाँ हीनतम समझना चाहिए। गुणशब्द यहां संख्या (डिगरी) का वाचक है, जैसे-एकगुना, दोगुना आदि पद एकसंख्यक द्विसंख्यक आदि अर्थ के वाचक हैं। स्निग्यता (चिकनाई ) आदि गुणों को अधिकता आर न्यूनता लोक में प्रसिद्ध है । जैसे पानी की अपेक्षा बकरी का दूध चिकना होता है। बकरी के दूधसे गा का दूध अधिक चिकना होता है, और गौ के दूध की अपेक्षा भैंस का दूध अधिक चिकना होता है । इस प्रकार पानी आदिमें उत्तरात्तर चिकनेपन की अधिकता है। इन्ही पानी आदि में पहले२ वालों में चिकनेपनकी न्यूनता है। इस प्रकार एक गुण स्निग्ध का, एक गुण स्निग्ध के साथ, दो या अधिक परमाणुओं का
જઘન્ય ગુણ સ્નિગ્ધ બે પરમાણુઓને અથવા બહુ પરમાણુઓને પરસ્પર બંધ થતું નથી, જઘન્યને અર્થ અહિં હીનતમ સમજે જોઈએ. ગુણ શબ્દ અહિં સંખ્યા (ડિગ્રી)ને વાચક છે. જેવી રીતે એક ગણા બે ગણુ આદિ પદ એક સંખક, દ્વિસંખ્યક આદિ અર્થનું વાચક છે. સ્નિગ્ધતા (ચિકણાપણું) આદિ ગુણોની અધિકતા અને ન્યૂનતા લોકમાં પ્રસિદ્ધ છે. જેમાં પાણીની અપેક્ષાએ બકરીનું દૂધ ચિકણું હેય છે. બકરીને ડ્રધથી ગાયનું દૂધ અને ગાયના દૂધની અપેક્ષાએ ભેંસનું દૂધ વધારે સ્નિગ્ધ (ચિકણું) હોય છે. એ પ્રમાણે પાણી આદિમાં ઉત્તરોત્તર ચિકણાપણની અધિકતા છે.
એ પાણી આદિમાં પહેલા–પહેલાનામાં ચિકણાપણાની ન્યૂનતા છે. એ પ્રમાણે એક ગુણ સ્નિગ્ધને, એક ગુણ નિષ્પની સાથે, તથા બે અથવા અધિક પરમાણુઓને प्र. भा. १५
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आचारासो सन्धाद् वहिर्गतस्य परमाणोरन्येन परमाणुना संयोगे द्वयणुकस्कन्ध उत्पद्यते । एवं संयोग-विभागाभ्यामपि विविधाः स्कन्धा भवन्ति ।
परमाशूनां पन्धस्य कारणम्परमाणुद्वयस्य परमाणूनां चा परस्परानुप्रवेशो न भवति, छिद्राभावात्, किन्तु तयोस्तेपां वा विखसागत्या परस्परं संयोगे सति स्निग्धरूक्षत्वगुणसद्भावे परस्परं बन्धो भवति । ऐक्यपरिमाणो बन्धः। वत्रायं विशेषा
स्कंध से अलग हुआ परमाणु जब दूसरे परमाणु के साथ मिलता है तो दोनों के मेलसे नवीन द्वयणुक उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार संयोग और विभाग के द्वारा भाँति-भाँति के स्कन्ध उत्पन्न होते ही रहते हैं।
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परमाणुओं के बन्ध का कारण , दो या अधिक परमाणु एक दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकते, क्योंकि परमाणुओं में छिद्र नहीं होता, अलबत्त स्वाभाविक गति से दो या दो से अधिक परमाणुओं का परस्पर में संयोग होने पर उन में विद्यमान स्निग्धता और रूक्षता गुण के कारण उन का आपस में बन्ध हो जाता है । एकतारूप परिणमन को बन्ध कहते हैं । वध के सम्बन्ध में इतना विशेष समझना चाहिए
સ્કંધથી અલગ થયેલા પરમાણુ જ્યારે બીજા પરમાણુની સાથે મળે છે, તે બંનેના મળવાથી નવીન પ્રયણક ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણે સંગ અને વિભાગ દ્વારા તરેહતરેહના સ્કંધ ઉત્પન થયા કરે છે.
પરમાણુઓના બંધનું કારણ બે અથવા અધિક પરમાણુ એક બીજામાં પ્રવેશ કરી શકતા નથી, કેમકે પરમાણુઓમાં છિદ્ર નથી. અલબત સ્વાભાવિક ગતિથી બે અથવા બેથી અધિક પર માણને પરસ્પર સંગ થવાથી તેમાં વિદ્યમાન સ્નિગ્ધતા અને રૂક્ષતાના ગુણના કારણે તેને આપસમાં બંધ થઈ જાય છે. એક્તાપ પરિણમનને બંધ કહે છે. બંધના સંબંધમાં એટલું વિશેષ સમજવું જોઈએ કે –'
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११५ एवं द्विगुणतः समारभ्य यावत् संख्यातासंख्यातानन्तगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य द्विगुणतः समारभ्य यावत् संख्यातासंख्यातानन्तगुणम्निग्धेन सर्वेण समगुणेन पुद्गलेन परस्परं बन्धो न भवति । तथा द्विगुणादिक्षस्य द्विगुणादिरुक्षेण सर्वेण समगुणेन यावदनन्तगुणरूक्षेण पुद्गलेन सह परस्परं वन्धो न भवति । यथा तुल्यवलगुणमल्लयोरुभयोर्मध्ये परस्परं कोऽपि कश्चिदभिहन्तुं न प्रभवति ।
इत्यं च तुल्यसंख्यके स्निग्धत्वे सति स्निग्धस्य स्निग्धेन सह बन्धो न भवति, तुल्यसंख्यके रूक्षत्वे सति रूक्षस्य रुक्षेण सह बन्यो न भवतीति सारांशः। ___ अथ जघन्यसिग्धस्य कीोन स्निग्धेन सह परस्परं वन्धो भवति ?
इसी प्रकार द्विगुण से लेकर संख्यात असंख्यात और अनन्तगुण स्निग्ध पुद्गलका द्विगुण से लेकर संड्यात असंख्यात और अनन्तगुण स्निग्धतावाले समगुण पुद्गल के साथ आपस में बन्ध नहीं होता । तथा द्विगुण आदि रूक्ष समगुणवाले किसी भी पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है । जैसे--समान बलवाले दो मल्लों में से कोई किसी को पराजित नहीं कर सकता।
इस प्रकार समान स्निग्धता होने पर स्निग्ध पुद्गलका स्निग्ध पुदगल के साथ बन्ध नहीं होता है, और समान सुक्षता होने पर रुक्षका रूक्षके साथ भी बन्ध नहीं होता है।
__शंका-जघन्य स्निग्ध का किस प्रकार के स्निग्ध पुद्गल के साथ परस्पर यन्ध होता है ।
એ પ્રમાણે દ્વિગુણથી લઈને સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનંતગુણ સ્નિગ્ધ પુદ્ગલને દિગુણથી લઈને સંખ્યાત, અસંખ્યાત, અને અનંતગુણ સ્નિગ્ધતાવાળા સમગુણ પુદ્ગલની સાથે આપસમાં બંધ થતું નથી. તથા દ્વિગુણ આદિ રૂક્ષ પુદ્ગલને દ્વિગુણ આદિ રૂક્ષ સમગુણવાળા કઈ પણ પુદ્ગલની સાથે બંધ થતા નથી. જેમ સમાન બળવાળા બે મલેમાંથી કેઈ કોઈને પરાજિત કરી શકતા નથી.
એ પ્રમાણે સમાન સ્નિગ્ધતા હોવા છતાંય, સ્નિગ્ધ પુદગલને સ્નિગ્ધ પુદ્ગલની સાથે બંધ થતું નથી, અને સમાન રૂક્ષ હોવા છતાંય રૂક્ષને રૂક્ષની સાથે પણ બંધ થતા નથી.
શંકા-જઘન્ય સ્નિગ્ધ પુગલને ક્યા પ્રકારના સ્નિગ્ધ પુદગલની સાથે પરસ્પર બંધ થાય છે?
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द्वयोहूनां या परमाणूनां परस्परं यन्धो न मयतीति फलितम् ।। - ननु परमाणुनां सत्यपि संयोगे बन्धकारणीभूतस्निग्धस्वरुक्षध्वयोच सद्भावे कथं न जायते परस्परमेकत्वपरिणतिलक्षणो बन्धः ? इति ।
परमाणोस्तादृशपरिणमनशक्तेरभावात् । परिणामशक्तयश्च द्रव्यागां विचित्र रूपाः क्षेत्रकालाधनुरोधेन प्रयोगविलसापेक्षाः प्रभवन्ति। जघन्यगुणत्वेन दौर्बल्यादेव स्नेहो रुक्षो वा कश्चिद् पुद्गलं परिणामयितुं न समर्थः । यथातुल्यदुर्वलगुणमल्लयोरुभयोमध्ये परस्परं कोऽपि कश्चिदमिहन्तुं न प्रभवति, तस्माज्जधन्यगुणानां परस्परं बन्धों न भवतीति सिद्धम् । परस्पर बन्ध नहीं होता, और एक गुण रूक्षका एक गुण रुक्ष के साथ दो या अधिक परमाणुओं का परस्पर बन्ध नहीं होता, यह सिद्ध हुआ।
शंका-परमाणुओं का संयोग मौजूद होने पर भी, और बन्ध के कारणभूत स्निग्धत्व तथा रूक्षत्व के विद्यमान होने पर भी बन्ध-एकतारूप परिणमन क्यों नहीं होता !
समाधान-परमाणु में इस प्रकार के परिणमन की शक्ति का अभाव है। द्रव्यों की परिणमन शक्तिया क्षेत्र और काल के अनुरोध से प्रयत्न तथा स्वभाव की अपेक्षा रखती हुई नाना प्रकार की होती हैं। जघन्य गुणवाला होने के कारण निर्बल होने से स्निग्ध या रूक्ष परमाणु किसी पुद्गल को परिणत करने में समर्थ नहीं होता; जैसे समान दुर्बलतावाले दो मल्लों में से कोई किसी को पराजित नहीं कर सकता । अत एव यह सिद्ध हुआ कि जघन्य गुणवालों का परस्पर में बन्ध नहीं होता। પરસ્પર બંધ થતું નથી, અને એકગુણ રૂક્ષને એક ગુણ રૂક્ષની સાથે બે અથવા અધિક પરમાણુઓને પરસ્પર બંધ થતું નથી.
શકા-પરમાણુઓને સંગ મજદ હેવા છતાંય પણ, અને બંધના કારણભૂત નિગ્ધત્વ (ચિકણાપણું) તથા રૂક્ષત્વ (ખાપણું) વિદ્યમાન હોવા છતાંય બંધએકતારૂપ પરિણુમન કેમ થતું નથી ?
સમાધાન-પરમાણમાં એ પ્રકારની પરિણમનની શક્તિને અભાવ છે, દ્રવ્યની પરિણમન શક્તિઓ ક્ષેત્ર અને કાલના અનુરોધથી, પ્રયત્ન તથા સ્વભાવની અપેક્ષા રાખતી થકી નાના પ્રકારની થાય છે. જઘન્ય ગુણવાળા હેવાના કારણે, નિલ હોવાથી સ્નેહ અથવા રૂક્ષ પરમાણુ કેઈ પુદ્દગલને પરિણુત કરવામાં સમર્થ થતું નથી. જેવા રીતે સમાન દુર્બળતાવાળા બે મલેમાંથી કેઈ કેઈને પરાજિત કરી શકતા નથી. એટલા કારણથી સિદ્ધ થયું કે-જઘન્ય ગુણવાળાઓને પરસ્પર બંધ થતા નથી.
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आचारचिन्तामणि- टीका अबतरणा पुद्गलास्तिकाय
११७
एवमुक्तयुक्त्या द्विगुणादिस्निग्धस्य स्वस्वापेक्षयैकाधिकगुण स्निग्धेन सह बन्धो न भवति । द्विगुणस्निग्धस्यैकाधिकत्रिगुणस्निग्धः त्रिगुणस्निग्धस्य चतुर्गुणस्निग्ध एकाधिकः, इति हेतोर्द्विगुणस्निग्धस्य त्रिगुणस्निग्वेन सह बन्धो न भवति । इत्थं च स्निग्धपुद्गलस्यैकाधिकगुणस्निग्धपुद्गलेन सह बन्धो न भवतीति सारः ।
द्विगुणादिस्निस्य यधिकादिगुण स्निग्वेन वन्धो भवति । यथा द्विगुण स्निग्धस्य द्वद्यधिकशतुर्गुणस्निग्धः । त्र्यधिकः पञ्चगुण स्निग्धः, चतुरधिकः
पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार विगुण आदि स्निग्ध का अपनी अपनी अपेक्षा से एक गुण अधिक स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता । द्विगुण स्निग्ध से एक अधिक का अर्थ है— त्रिगुण स्निग्ध, त्रिगुण स्निग्ध से एक अधिक चतुर्गुण स्निग्ध सुनना चाहिये । इस रीति से अनन्त गुण स्निग्ध भी अपने से एक गुण हीन स्निग्ध की अपेक्षा एक गुण अधिक स्निग्ध है | अतः त्रिगुण स्निग्ध का त्रिगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता । सारांश यह है कि स्निग्ध पुद्गल का एक गुण अधिक पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता ।
द्विगुण स्निग्ध आदि का दो गुण अधिक अर्थात् चार गुण स्निग्ध के साथ बन्ध हो जाता है, जैसे दो गुण स्निग्ध से दो गुण अधिक स्निग्ध का
પૂર્ણાંકત યુક્તિ પ્રમાણે દ્વિગુણુ આદિ સ્નિગ્ધને પાત-પોતાની અપેક્ષાથી એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ સાથે બધ થતા નથી. દ્વિગુણ સ્નિગ્ધથી એક અધિકના અથ છે-ત્રિગુણ સ્નિગ્ધ, અને ત્રિગુણ સ્નિગ્ધથી એક અધિક ચતું ગુણુ સ્નિગ્ધ સમજવ જોઇએ. એ પ્રમાણે અનન્ત ગુણ સ્નિગ્ધ પy, પેાતાનાથી એક ગુણુ હીન સ્નિગ્ધની અપેક્ષાથી એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ છે. તેથી દ્વિગુણુ સ્નિગ્ધને ત્રિગુણ સ્નિગ્ધની સાથે મધ થતા નથી, સારાંશ એ છે કે સ્નિગ્ધ પુદ્ગલના એક ગુણુ અધિક સ્નિગ્ધ પુગલની સાથે બંધ થતા નથી,
દ્વિગુણુ સ્નિગ્ધ આદિના એ ગુણ અધિક અર્થાત્ ચાર ગુણુ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થઈ જાય છે. જેમ-બે ગુણુ સ્નિગ્ધથી એ ગુણ અધિક સ્નિગ્ધને! અથ ચાર
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आचारास्त्रे अत्रोच्यते-जघन्यस्निग्धस्य द्वयधिकव्यधिकादिना स्निग्धेन बन्यो भवति, यथा एकगुणस्निग्धर । परमाणुपुद्गलस्य त्रिगुणस्निग्धेन परमाणुपुद्गलेन सह संयोगे सति बन्यो भवति । एवं एकगुणस्निग्धस्य चतुर्गणपश्चगुणयावसंख्यातासंख्यातानन्तगुरु स्निग्धेन सह बन्धः ।
एकगुणस्निग्धस्यकाधिकगुणस्निग्धेनं (द्विगुणस्निग्धेन) तु न बन्धः, द्वघधिकादिगुणस्निग्धेन च स्निग्धपुद्गलस्य बन्धविधानात् । एकाधिकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य प्रतिविशिष्टपरिणमनशक्तेरभावात् । एकगुणस्निग्धस्यकाधिको द्विगुणस्निग्धः ।
समाधान--जघन्य स्निग्ध पुद्गल का दो गुण (डिगरी) या तीन गुण अधिक स्निग्धतावाले पुद्गल के साथ बन्य होता है। जैसे एक गुण स्निग्यतावाले परमाणु का तीन गुण स्निग्धता वाले परमाणु के साथ संयोग होने पर बन्ध हो जाता है। इसी प्रकार एक गुण ( एक अंश ) स्निग्धका चार, पांच, यहाँ तक कि संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त गुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है ।
___ एक गुण स्निग्धका एक अधिक गुण स्निग्ध अर्थात् द्विगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, क्योंकि दो गुण अधिक स्निग्धका स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध बतलाया गया है। एक गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल में विशेष प्रकार के परिणमन की शक्ति नहीं है। एक गुण स्निग्धतावाले की अपेक्षा एक गुण अधिक स्निग्ध जहाँ कहा जाय वहाँ दो गुण स्निग्धतावाला पुद्गल समझ लेना चाहिये ।
સમાધાન-જઘન્ય સ્નિગ્ધ યુગલના બે ગુણ (ડિગ્રી અથવા ત્રણ ગુણ અધિક સ્નિગ્ધતાવાળા પુદ્ગલની સાથે બંધ થાય છે જેમકે -એક ગુણ (ડિગ્રી નિગ્ધતાવાળા પરમાણુને ત્રણ ગુણ (ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળા પરમાણુની સાથે સંગ થઈ જાય તે ॥ जय छ. तेवी शते थे शुरु (प्री) (A) स्निग्यताना यार, पांय, ત્યાં સુધી કે સંખ્યાત અસંખ્યાત એ પ્રમાણે અનંત ગુણ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ थाय छे.
એક ગુણ સ્નિગ્ધતાને એક અધિક ગુણ સ્નિગ્ધ અર્થાત દ્વિગુણ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થતું નથી, કેમકે બે ગુણ અધિક સ્નિગ્ધના સ્નિગ્ધ પુલની સાથે બંધ બતાવ્યા છે, એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ પુગલમાં વિશેષ પ્રકારનાં પરિણમનની શક્તિ નથી. એક ગુણ (ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળાની અપેક્ષા એક ગુણ (ડિગ્રી) અધિક નિશ્વ જ્યાં કહેવાય ત્યાં બે ગુણ ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળા પુદગલ સમજી લેવા જોઇએ.
Panamam
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आचार चिन्तामणि- टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय
११९
जघन्यगुण (एकगुण) स्निग्धस्य अजघन्यगुण ( द्विगुणाद्यनन्तगुणपर्यन्त ) - स्निग्धस्य वा स्वस्वापेक्षयैकाधिकगुणरूक्षेण, पुनः स्वस्वापेक्षया यधिक त्र्यधिक चतुरधिकादिगुणरूक्षेणापि बन्धो भवति । उक्तञ्च भगवता प्रज्ञापनामुत्रे - (१३) - त्रयोदशे परिणामपदे - " बंधणपरिणामे णं भंते ! कड़विहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, जहा - गिद्धयंधणपरिणामे य लुक्खवंधणपरिणामे य । " समद्धिया बन्धो, न होड़ समलुक्खयाएवि ण होड़ । माणिक्ख-तणेण बंधो उधाणं ॥१॥
छाया -- बन्धन परिणामो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?, गौतम 1 द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - स्निग्धवन्धनपरिणामश्र, रूक्षबन्धनपरिणामश्च । समस्निग्धतायां बन्धो न भवति, समरूक्षतायामपि न भवति । विमात्र स्निग्धरूक्षत्वेन, बन्धस्तु स्कन्धानाम् || १ ||
नहीं होता । जघन्य गुण ( एकगुण ) स्निग्ध का अथवा अजघन्य गुण ( दो से लगाकर अनन्त गुण तक ) स्निग्ध का, अपने से एक गुण अधिक रूक्ष के साथ बन्ध होता है । और अपने अपने से दो अधिक, तीन अधिक, चार अधिक आदि रूक्ष पुद्गल के साथ भी बन्ध होता है | भगवान् ने प्रज्ञापना सूत्र के १३ वें परिणाम पढ़में कहा हैंप्रश्न---" भगवान् ! बन्ध परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर --- गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है - ( १ ) स्निग्धबन्धनपरिणाम और (२) रूक्षबंधनपरिणाम ।
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समान स्निग्धता या समान रूक्षता होने पर बन्ध नहीं होता है, किन्तु विभात्र-अर्थात् अधिक का होनके साथ, और होनका अधिक के साथ, चाहे वे स्निग्ध हो या रूक्ष हो बन्ध हो जाता है ॥ १ ॥
નથી. જઘન્ય ગુણ (એક ગુણ) સ્નિગ્ધના ચાથવા અજઘન્ય, (એથી લઈ ને અનન્ત ગુણ સુધી) સ્નિગ્ધને પેાતાનાથી એક ગુણુ અધિક રૂક્ષની સાથે બંધ થાય છે. અને પોતપોતાથી એ અધિક, ત્રણ અધિક, ચાર અધિક આદિ રૂક્ષ પુદ્ગલની સાથે પણ બંધ થાય છે, ભગવાને પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ૧૩મા પિરણામ પદમાં કહેલ છે.
प्रश्न--“ लगवन्! अन्धन - परिशुभ डेटला प्रशरनां द्यां छे ? ઉત્તર—ગૌતમ! બે પ્રકારનાં કહેલાં છે–(૧) સ્નિગ્ધમ ધનપરિણામ અને (१) ३क्षण धनपरिलाभ.
31
થતા
વિમાત્ર અર્થાત્ અધિકના હુીનની સાથે અને હાનના અધિકની સાથે, નવરંતુ
स्निग्ध होय में रूक्ष होय, बंध यह लय हे ॥ १ ॥
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पड्गुणस्निग्धः, इत्यादि। त्रिगुणस्निग्धस्य द्वयधिकः पञ्चगुणस्निग्धः, ञ्यधिक: पड्गुणस्निग्धः, चतुरधिका सप्तगुणस्निग्धः, इत्यादि । चतुर्गुगस्निग्धस्य दूधिक: पाणस्निग्धः, व्यधिकः सप्तगुणस्निग्धः चतुरधिक:- अप्टगुणस्निग्धः । एवं पञ्चगुणस्निग्धादिसंख्यातासंख्यातानन्तगुणस्निग्यपर्यन्तस्य द्वयधिकादिगुणस्निग्धेन सह बन्धो भावनीयः। एवं जघन्यगुणरूलस्य, अजघन्यगुणरूक्षस्य च बन्धव्यवस्था योध्या।
विसदृशपुद्गलबन्ध:---- अथ विसदशपुद्गलयोन्धेि कीदृशी व्यवस्था ?
उच्यते-जघन्यगुणस्निग्धस्य, जघन्यगुणरूक्षेण सह बन्धो न भवति । अर्थ चार गुण स्निग्ध, तीन गुण अधिक का अर्थ पांच गुण स्निग्ध, चार गुण अधिक का अर्थ छह गुण स्निग्ध, इत्यादि समझना चाहिए। चतुर्गुण स्निग्ध से दूयधिक- ' षड्गुण स्निग्ध, त्र्यधिक-सप्तगुण स्निग्ध, चतुर्राधक--अष्टगुण स्निग्ध समझना चाहिए। इस प्रकार पञ्चगुण स्निग्ध आदि से संख्यात, असंख्यात अनन्त गुण स्निग्ध का दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ अन्ध होता है । इस प्रकार जघन्य गुण रूक्ष का अजघन्य गुण सक्ष के साथ बन्ध की व्यवस्था जाननी चाहिए।
mmaana
विसदृश पुद्गलो का वन्धप्रश्न-~-विसदृश अर्थात् परस्पर विरोधी पुद्गलों के बन्ध की क्या व्यवस्था है ?
उत्तर-~~-जघन्य गुण स्निग्ध का जपन्य गुण वाले रूक्ष पुद्गलके साथ बन्ध ગુણ સ્નિગ્ધ, ત્રણ ગુણ અધિકાને અર્થે પાંચ ગુણ સ્નિગ્ધ, ચાર ગુણ અધિકને અર્થ છ ગુણ સ્નિગ્ધ, એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. ચતુર્ગણ સ્નિગ્ધથી દ્વચધિક વગુણ સ્નિગ્ધ, વ્યધિક સપ્તગુ સ્નિગ્ધ ચતુરધિક અષ્ટગુણ સ્નિગ્ધ સમજવું
જોઈએ, એ પ્રમાણે પાંચ ગુણ સ્નિગ્ધ આદિથી સંખ્યાત, અસંખ્યાત અનન્તગુણ સ્નિગ્ધના બે ગુણ અધિક સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થાય છે એ પ્રમાણે જઘન્ય ગુણ ૩ની અજઘન્ય ગુણ રૂક્ષની સાથે બંધની વ્યવસ્થા જાણવી જોઈએ
વિસદશ પુદગલને બંધ--- પ્રશ્ન-
વિદેશ અથત પરસ્પરવિરોધી પુદ્ગલના બંધની શું વ્યવસ્થા છે ? ઉત્તર-જઘન્ય ગુણ સ્નિગ્ધને જઘન્ય ગુણવાળા યુગલની સાથે બંધ થતા
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___ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पगलास्तिकाय
॥ परमाणुबन्धव्यवस्थाकोष्टकम् ।। जघन्यगुण-(एकगुण )-स्निग्धक्षयोन्धिव्यवस्था। समानाम्
विसदृशानाम् स्निग्धरूक्षसंख्या स्निग्धस्य+ । समस्य+ स्निग्धस्य+
स्निग्धेन सह क्षेण सह । जपन्यस्य (एकगुपास्य)
। चन्धाभावः बन्धाभावः वन्याभाव: जघन्येन (एकगुणेन) सद्द जंघन्यस्य (एकगुणेन)+
बन्धाभावः । बन्धो भवति । बन्धो भवति एकाधिकेन (द्विगुपोन) सह । जघन्यस्य (एकगुणस्य)+ द्वयधिकादिगुणेन-(त्रिगुण
बन्यो भवति । बन्धो भवति । वन्धो भवति | चतुर्गुणतः समारभ्य यावद अनन्तगुणेन) सह अजघन्यगुण-(द्विगुणादि)-स्निग्धरूक्षयोन्धिव्यवस्था
सदृशानाम्
| विसदृशानाम् स्निग्धरूम-: संख्या | स्निग्धस्य+ रूक्षस्य+ स्निग्यस्य+
स्निग्धेन सद्द क्षेण सह रुक्षेण सह | द्विगुणस्य+द्विगुणेन सह । चन्धाभाष: बन्धाभावः वन्धो भवति | द्विगुणस्य+ एकाधिकेन
वन्याभावः वन्थामावः बन्धो भवति (त्रिगुणेन) सह द्विगुणस्य +घधिकादिगुणेन 1(चतुर्गणपञ्चगुणतः समारभ्य / बन्धो भवति । बन्यो भवति । चन्धो भवति यावद् अनन्तगुणेन) सह
एवम् अजघन्यगुण-(त्रिगुणचतुर्गुणतः समारभ्यानन्तगुणपर्यन्त)-स्निग्धरूक्षयोः · समगुणेन, एकाधिकगुणेन, द्रयधिकादिगुणेन च सह बन्धव्यवस्था भावनीया ||
प्र. आ-१६.
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मिस्स णिद्वेण दुयाहिएण, लुक्स लक्खेण दुयाणि ।
गिद्धस्स लुक्खेण उबेर बन्धो,
जहण्णवज्जो बिसमो समो वा ॥२॥
(मज्ञा० पद - १३ )
छाया - स्निग्धस्य स्निग्धेन द्विकाधिकेन, रूक्षस्य रूक्षेण द्विकाधिकेन ।
ferrate रूक्षेण उपैति बन्धो,
जघन्यवर्जो विषमः समो वा ॥२॥ इति, विसदृशस्य वन्धमाह - " गिद्धस्स लुक्वेण" इत्यादि ।
आचारापत्रे
स्निग्धस्य रूक्षेण सह बंध उपैति उपगतो भवति जायत इत्यर्थः । यदि परमाणुर्जघन्यवर्जी विषमो समो वा भवेत् | ॥२॥ परमाणूनां वन्धव्यवस्थाकोष्ठकमग्रेऽवलोकनीयम् ।
दो गुण अधिक के साथ स्निग्ध का बन्ध होता है । और दो गुण अधिक रूक्ष के साथ रूक्षका बन्ध होता है। अब विस बन्धको कहते हैं-" गिद्धस्स लक्खेण " इत्यादि । जघन्य गुणवाले परमाणु को छोडकर फिर चाहे वह विषम हो या सम हो स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होता है ।
परमाणुओं की बन्धव्यवस्था का कोष्टक पृष्ट १२१ देख लेवें ।
એ ગુણુ અધિક સ્નિગ્ધ સાથે સ્નિગ્ધને બંધ થાય છે. અને એ ગુણ અધિક इक्षनी साथै इक्षनो जन्म थाय छे. हुवे विसदृश अन्ध हे छे-“द्धिस्स लुक्खेण" ઈત્યાદિ. જધન્ય ગુણવાળા પરમાણુને છેડીને બીજા ગમે તે વિષમ હાય અથવા સમ હાય તે સ્નિગ્ધને રૂક્ષની સાથે અધ થાય છે.
પરમાણુઓની અધવ્યવસ્થાનું કાષ્ટક પેજ ૧૨૧માં જેઈ લેવું.
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आंचारचिन्तामणि टीका अवतरणा जीवास्तिकायं
१२३ इन्द्रियपंचकम्५, मनोवाक्कायबलत्रयम्३, श्वासोच्छासरूपः१, आयुश्चेति१ । एते दश माणाः संसारिणां यथासंभवं भवन्ति । नारकतिर्यगादयः संसारिणो द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः । व्यपगतसमस्तकर्मसम्बन्धाः सिद्धास्तु केवलभावप्राणैरेव प्राणिनः सन्ति । भावमाणाश्चतुर्विधाः अनन्तज्ञानम् १, अनन्तवीर्यम् २, अनन्तसुरवम् ३, अनाधनन्तस्थितिश्च४ । तत्रानन्तज्ञानात् क्षायोपशमिकपञ्चेन्द्रियाणि, अनन्तवीर्यरूपभावमाणस्यानन्तांशेन मनोवाक्कायवलत्रयम् , अनन्तसुखाचश्वासोच्छासरूपः प्राणः समुद्भवति, तथा अनाघनन्तस्थितिरूप-भावमाणतः सादिसान्वरूप आयुःमाणो जायते । एवं द्रव्यमाणानां कारणं भावप्राणा इत्यवधेयम् । दशमेद हैं-पांच इन्द्रियार, तीन बल-मनोवल, वचनवल और कायबल३, श्वासोच्छवास १ तथा आयु १, ये दश द्रव्यप्राण यथासम्भव संसारी जीवों के होते हैं । नारकी, तिथंच आदि संसारी जीवों में भी द्रव्यप्राण पाये जाते हैं, किन्तु सब प्रकार के कर्म-संबंध से रहित सिद्धो में सिर्फ भावप्राण ही होते हैं । सिद्ध जीव भावप्राणों के कारण ही प्राणी कहलाते हैं।
भाव प्राणके चार भेद हैं-अनन्तज्ञान१, अनन्तवीर्यर, अनन्तसुख३, और अनादिअनन्तस्थिति४ । क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली पांच इन्द्रियाँ अनन्त ज्ञान का विकार (वैभाविक परिणमन) है, मन, वचन और काय-बल, अनन्तवीर्यरूप भावप्राणका विकार है, श्वासोच्छास अनंतसुखरूप भावप्राणका विकार है, और सादिसान्त आयुरूप द्रव्यप्राण अनादि-अनंतस्थितिरूप भावप्राणका विकार है । इस प्रकार भावप्राण द्रव्यप्राणों के कारण है। દસ ભેદ છે–પાંચ ઈન્દ્રિપ, ત્રણ બળ અર્થાત્ મનેબલ, વચનબેલ અને કાયલબ૩, શ્વાસેચ્છાસન, તથા આયુ, આ દસ દ્રવ્યપ્રાણુ સાધારણ રીતે સંસારી જીને હેય છે. નારકી તિર્યંચ આદિ સંસારી જીવોમાં પણ દ્રવ્યપ્રાણ દેખાય છે, પરંતુ • સર્વ પ્રકારના કમ~સંબંધથી રહિત સિદ્ધોમાં માત્ર ભાવપ્રાણુ જ હોય છે, સિદ્ધ જીવ ભાવપ્રાણેના કારણથી જ પ્રાણી કહેવાય છે.
ભાવપ્રાણના ચાર ભેદ છે-અનન્તજ્ઞાન, અનન્તવીર્ય, અનન્ત સુખ અને અનાદિ. અનન્ત સ્થિતિ, પશમથી ઉત્પન્ન થવા વાળી પાંચ ઈન્દ્રિયે અનન્ત જ્ઞાનને વિકાર (વભાવિક પરિણમન) છે, મન, વચન અને કાયખલ, અનંત વીર્યરૂપ ભાવ પ્રાણને વિકાર છે, શ્વાસોચ્છાસ તે અનંતસુખરૂપ ભાવપ્રાણને વિકાર છે અને સાદિ-સાન્ત આયુરૂપ દ્રવ્યપ્રાણુ, અનાદિ અનંત સ્થિતિરૂ૫ ભાવપ્રાણુને વિકાર છે. એ પ્રમાણે ભાવપ્રાણ, કન્યપ્રાણના કારણ છે.
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अथ जीवास्तिकायः - जीवशब्दार्थ:
Here
जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः । न च सिद्धानां माणसम्बन्धाभावादजीवत्वापत्तिरिति वाच्यम् ' माणान् धारयती - त्यत्र प्राणसामान्यविवक्षया पञ्चेन्द्रियमभृतिदशविधद्रव्यमाणानामसत्वेऽपि सिद्धानां भावमाणसद्भावेन जीवत्वसिद्धेरन्याहतत्वात् । प्रतिविशिष्टमाणसम्बन्धे सति जीवनाज्जीवशब्दः प्रवर्तते ।
माणा द्विविधा :- द्रव्यमाणाः, भावमाणाथ । तत्र द्रव्यमाणा दशविधाः
जीवास्तिकाय - जीवशब्दका अर्थ
गई हैं। सिद्धों
जो जीता है अर्थात् प्राणों को धारण करता है, वह जीव कहलाता है । 'सिद्धो में प्राणों का अभाव होने से वे अजीब हो जायेंगे' यह कहना ठीक नही है । 'जो प्राणों को धारण करता है ' इस कथन में प्राण – सामान्य की विवक्षा की में यद्यपि पांच - इन्द्रिय आदि दस प्रकार के द्रव्यप्राण नहीं हैं, पाये जाते हैं, और इन भाव-प्राणों के कारण सिद्ध भगवान् का नाता है । विशिष्ट प्रकार के प्राणों का सम्बन्ध होने पर जीने वाले को जीव कहते हैं ।
भाव - प्राण
सिद्ध हो
प्राण दो प्रकार के हैं - (१) द्रव्यप्राण और ( २ ) - भावप्राण । द्रव्यप्राणों के
बास्तिय
शब्द। अर्थ
तथापि जीवन
• सिद्धोमां
જે જીવે છે અર્થાત પ્રાણાને ધારણ કરે છે, તે જીવ કહેવાય છે. પ્રાણેાના અભાવ હાવાથી તે અજીવ થઇ જશે,' એમ કહેવું તે ઠીક નથી. ૮ જે પ્રાર્થેાતે ધારણ કરે છે' એમ કહેવામાં પ્રાણ-સામાન્યની વિવક્ષા કહી છે. સિદ્ધોમાં જે કે પાંચ ઇન્દ્રિયેા આદિ દસ પ્રકારના દ્રવ્ય-પ્રાણ નથી, તેા પણ ભાવ-પ્રાણ હાય છે, અને તે ભાવ–પ્રાણાના કારણે સિદ્ધ ભગવાનનું જીવપણું સિદ્ધ થાય છે. વિશિષ્ટ પ્રકારના પ્રાણાના સબંધ હોવાના કારણે જીવવા વાળાને જીવ કહે છે.
!! आयु मे प्रभारना छे - (१) द्रव्यं - आयु भने (२) लाव-आलु, द्रव्य आशना
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकायं
१२५ भवन्ति, अत एवात्मपर्यायवर्ती भावः पञ्चविधो भवति-(१) औपशमिका, (२) क्षापिकः, (३) भायोपशमिकः, (४) औदयिकः, (५) पारिणामिकश्चेति ।
(१) औपशमिकभावः(१) मोहनीयकर्मणो भस्मायच्छन्नवनिवदनुद्रेकावस्था, प्रदेशतोऽप्युदयाभावश्च उपशमः । उद्रेकरूपेण मदेशरूपेण च द्विविधस्याप्युदयस्य यथाशक्ति निरोधः। इत्यम्भूतश्योपशमः सर्वोपशम उच्यते । उपशमेन नियत औपशमिकाक्रोधादिकपायोदयाभावरूपोपशमस्य फलस्पो जीवस्य परमशान्तावस्थालक्षणपरिणामविशेषः । स चात्मनः शुद्धिविशेषः । यथा-कतकचूर्णप्रक्षेपेण पङ्कादिपांच प्रकारका है-(१)-औपशमिक, (२)-क्षायिक, (३) क्षायोपशमिक, (४)-औदायिक और (५)-पारिगामिक ।
(१) औपशमिक भावराख से ढंकी हुई अग्नि के समान मोहनीय कर्म को अनुदेक अवस्था, एवं प्रदेश की अपेक्षा भी उदय न होना उपशम कहलाता है। अर्थात् उद्रेकरूप से, तथा प्रदेशरूप से दोनों प्रकार के उदय का यथाशक्ति रुकना उपशम है। इस प्रकार का . उपशम सर्वोपशम कहलाता है। जो उपशम से हो उसे औपशमिक कहते हैं। अर्थात् क्रोध आदि कपायो के उदयाभावरूप उपशम का फलरूप जीव, उसका परमशान्त अवस्थारूप परिणाम औपशमिक कहलाता है । यह आत्मा की एक प्रकार की शुद्धि है। जैसे कि-कतकचूर्ण (निर्मलीफल का चूरा ) तथा फिटकडी आदि का चूरा डालने से जलका
२॥ छ (१) भोपशभि (२) क्षायि(3) क्षायपिशभिः (४) मौयि भने (५) पारिवाभि
(१) मोपशभिमाરાખથી ઢાંકેલા અને સમાન મેહનીય કમની અનુદ્રક અવસ્થા, એવું પ્રદેશની અપેક્ષા પણ ઉદય ન હેય તે ઉપશમ કહેવાય છે. અર્થાત ઉકપથી તથા પ્રદેશ૫થી–બંને પ્રકારના ઉદયનું યથાશક્તિ રેકાવું તે ઉપશમ છે. આ પ્રકારનો ઉપશમ સર્વોપશમ કહેવાય છે. જે ઉપશમથી હોય તેને પરામિક કહે છે. અર્થાત્ ક્રોધ આદિ કથાના ઉદયાભાવરૂપ ઉપશમના ફલરૂપ જીવ, તેને પરમ શાન્ત અવસ્થારૂપ પરિણામ ઔપશમિક કહેવાય છે.
એ આત્માની એક પ્રકારની શુદ્ધિ છે, જેમકે કનકસૂર્ણ (નિર્મલફિલનું ચૂર્ણ) તથા
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आचांगाने अथ जीवस्य स्वरूपम्औपशमिकादिभाववान् , असंख्यातमदेशी, परिणामी, लोकाकाशव्यापी प्रदीपवत् संकोचविकासशीला, व्यक्तिरूपेणानन्तोऽखण्डः, क्रियाशीला, प्रदेशसमुदायरूपो, नित्यो, रूपरहितोऽवस्थितोऽमूर्तः सन्नपि संसारायस्थायां मूर्त इन प्रतीयमानः, ऊर्ध्वगतिशील आत्मा जीवः ।
अथ भावस्तद्भदाय'अयौपशमिकादिभाववान् जीवः' इत्युक्तम् , तत्र फस्तावद्भाव ? श्रृयताम्आत्मपर्यायाणामवस्थैव भावाः । आत्मपर्यायाश्वावस्थाभेदेन विविधरूपा
. जीव का स्वरूपऔपशमिक आदि भावोवाला, असंख्यातप्रदेशी, परिणामी, प्रदीपप्रभाके समान संकोच-विकास स्वभाव वाला, व्यक्तिरूप से अनंतसंख्यक, क्रियाशील, प्रदेशसमुदायरूप, नित्य, अरूपी, अवस्थित, अमूर्त होने पर भी संसारी अवस्था में मूर्त जैसा प्रतीत होने वाला, ऊर्ध्वगमनस्वभाववाला आत्मा जीव कहलाता है।
भाव और भाव के भेदप्रश्न-जीव का स्वरूप बतलाते हुए उसे औपशमिक आदि भावो वाला कहा है सो भाव क्या वस्तु है !
उत्तर-सुनिये, मात्मा के पर्यायो को अवस्था ही भाव कहलाती है। आत्मा के पर्याय, अवस्थाओं के भेद से नाना प्रकार के होते हैं, अतः आत्मपर्यायवर्ती भाव
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MAMAAMA
- જીવનું સ્વરૂપ ઓપશમિક આદિ ભા વાળા, અસંખ્યાતપ્રદેશી, પરિણમી. પ્રદીપપ્રભાના સમાન સંકોચ-વિકાસ સ્વભાવવાળા, વ્યતિપથી અનંતસંખ્યક, ક્રિયાશીલ, પ્રદેશ સમુદાયરૂપ, નિત્ય, અરૂપી, અવસિથત, અમૂર્ત હોવા છતાંય સંસારી અવસ્થામાં મૂર્ત જેવા દેખાવાવાળા, ઉર્ધ્વગમન સ્વભાવવાળા આમ જીવ કહેવાય છે.
माय मसापना लेह- . પ્રશ્ન-જીવનું સ્વરૂપ બતાવતા થકા તેને ઓપશમિક આદિ ભાવાળા કહેલ છે; તે ભાવ શું વસ્તુ છે ?
ઉત્તરસાંભળે, આત્માના પર્યાની અવસ્થા જ ભાવ કહેવાય છે. આત્માની પર્યાય. અવસ્થાઓના ભેદથી નાના પ્રકારના હોય છે, તેથી આત્મપર્યાયવતી ભાવ પાંચ
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___ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय
१२७ (३) बायोपशमिक-भाव:___ (३) मिथ्यात्वमोहनीयादिकर्मणामुदीर्णस्यांशस्य नाश:-क्षयः, अनुदीर्णस्यांशस्य विपाकोन्मुखत्वाभावः-उपशमः, यत्र एतद्वयं स क्षयोपशमः, स एव क्षायोपशमिकः । अस्य भावस्य 'मिश्रः' इति नामान्तरम् । ईपविध्यातावच्छन्नवहिवद । यद् उदयावलिकाप्रविष्टं कर्म, उद क्षीणम् , ततोऽवशिष्टं कर्म, उद्रेकक्षयोभयरहितावस्थम् , इमामुभयीमवस्थामवलम्व्य क्षायोपशमिको भावः प्रजायते ।
(४) औदयिकमाव:-- ___ (४) कर्मविपाकाविर्भाव उदयः । तेन निवृत्तो भाव औदयिकः । स
(३) क्षायोपथमिक भावमिथ्यात्वमोहनीय आदि कमों के उदीर्ण (उदय में आये हुए) अंश का नाश हाना क्षय है । और अनुदीर्ण अंग का फल देने में उन्मुख न होना उपशम है। इन्हीं दोनों अवस्थाओं को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। इस भाव का दूसरा नाम 'मिश्रभाव' भी है। थोडी२ बुझी हुई और ढंकी हुई अग्नि के समान को फर्म उदयावलिका में आचुके हैं उनका क्षय होना, तथा शेष कमों का उदेक और क्षय-दोनों अवस्थाओं से रहित होना, इन दोनों के आधार पर क्षायोपशमिक भाव उत्पन्न होता है।
(४) औदायिक भावकर्म का विपाक (फल) देना उदय कहलाता है। उदय से होनेवाला
(3) शमि सापમિથ્યાત્વ મેહનીય આદિ કર્મોના ઉદીર્ણ (ઉદયમાં આવેલા) અંશને નાશ
તે ક્ષય છે, અને અનુદી અંશનું ફલ દેવામાં ઉન્મુખતે તરફ નહિ થવું તે ઉપશમ છે, એ બને અવરથાઓને લાપશર્મિક ભાવ કહે છે. આ ભાવન બીજું નામ “મિશ્રભાવ પણ છે. ડી ડી ઠંડી થયેલી અને ઢકેલી અગ્નિ પ્રમાણે જે કમ ઉદયાવલિમાં આવી ચૂક્યાં છે તેને ક્ષય થ, તથા શેલ કર્મોને ઉદ્રક અને ક્ષય, બંને અવસ્થાએથી રહિત થવું, આ બન્નેનાં આધાર ઉપર ક્ષચોપરામિક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે.
(४) मोय माप- કર્મને વિપાક (ફલ) મળવું તે ઉદય કહેવાય છે. ઉદયથી ઉત્પન્ન થવાવાળે ભાવ તે ઔદયિક છે. દયિક ભાવ આત્માની મલિનતા રૂપ છે. જેમકે કીચડ–
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भाचाराने मलनिचयस्याधोदेशे निपाते सति जलस्य स्वच्छता । मोहनीयकर्मण उपसमाद यद् दर्शनं श्रद्धानरूपं, चरण वा विरतिरूपं जायते तदप्योपशमिकशन्देनोच्यते ।
(२) क्षायिकभावः-- (२) सकलकर्मणामत्यन्तोच्छेदः क्षयः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकाअप्रतिपाति-ज्ञानदर्शनचास्त्रिलक्षणो जीवस्य परिणतिविशेषः । स चात्मनः परमविशुद्धिः। यथा-सर्वथा निःशेपपङ्कादिमलव्यपगमे जलस्य परमस्वच्छता। कीचड आदि मैल नीचे बैठ जाता है, और जल स्वच्छ हो जाता है। मोहनीय कर्म के उपशम से श्रद्वानरूप जो दर्शन उपन्न होता है. या विरतिरूप जो चारित्र उत्पन्न होता है, वह औपशमिक सम्यादर्शन और औपशमिक चारित्र कहलाता है।
(२) क्षायिक भाव--- कर्म का अन्यन्त उच्छेद हो जाना क्षय कहलाता है । क्षय से होने वाला भाव क्षायिक भाव है । अर्थात् एक वार उत्पन्न हो कर फिर नष्ट न होने वाले ज्ञान, दर्शन
और चारित्र रूप जीव के परिणाम को क्षायिक भाव कहते हैं। क्षायिक अवस्था जीव की परम विशुद्धि है, जैसे पूर्ण रूप से समस्त कीचड़ आदि मैल के हट जाने पर जल की परम स्वच्छता होती है।
ફટકડી આદિનું ચૂર્ણ નાખવાથી કચરે અને મેલ નીચે બેસી જાય છે, અને જલ સ્વચ્છ થાય છે. મોહનીય કમના ઉપશમથી શ્રદ્ધારૂપ જે દર્શન ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા વિરતિય જે ચારિત્ર ઉત્પન્ન થાય છે, તે પથમિક સમ્યગ્દર્શન અને ઔપથમિક ચારિત્ર કહેવાય છે.
(२) क्षायिक साय કર્મને અત્યન્ત ઉદ થઈ જશે તે ક્ષય કહેવાય છે. ક્ષયથી થવાવાળો ભાવ સાયિક ભાવ છે. અર્થાત્ એકવાર ઉત્પન્ન થઈને ફરી નાશ નહિ થવાવાળા જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ જીવના પરિણામને ક્ષાયિક ભાવ કહે છે. ક્ષાચિક અવસ્થા જીવની પરમ વિશુદ્ધિ છે. જેમ-પૂર્ણરૂપથી સમસ્ત કીચડ–કાદવ આદિ મેલના દર થવાથી જલની પરમ સ્વચ્છતા થાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय यामनिवृत्तो जीवो निर्वृतः स्यात् । एवं चादिमत्त्वपसंगः । कथमसन् आकाशकुमुमकल्प आत्माऽऽयत्यां संभवे ?-दिति युक्तिविरोधश्च ।
न हि परिणामेन विना कश्चिद्भावो भवतीति भावानां मध्ये परिणामस्यैव पाधान्यम् । आत्मनः स्वाभाविक स्वरूपपरिणमनमेव पारिणामिको भाव उच्यते । यश्चात्मनः सत्तया स्वयमेव परिणामो भवति, स एव पारिणामिको भावः । उक्तञ्च• "यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च।।
संसर्ता परिनिर्धाता, स यात्मा नान्यलक्षणः ॥१॥"
अष्टविधकर्मणां कर्ता, कर्मफलभोक्ता, चतुर्गतिभ्रमणकर्ता, कर्मक्षयकरणेन मोलगन्ता यः, स एवात्मा, अन्यरूपो नेत्यर्थः । प्रकार जीवको सादि (आदिवाला) मानना पडेगा, परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकिजो आत्मा भूतकालमें नहीं था तो आकाशपुष्पके समान भविष्यत् कालमें उसका होना कैसे संभव हो सकता है । इस प्रकार युक्तिसे भी विरोध आता है।
विना परिणाम के कोई भाव नहीं हो सकता अतः भावों में परिणामको प्रधानता है । आत्मा का स्वाभाविक परिणमन ही 'पारिणामिक' भाव कहलाता है, अर्थात् मात्मा का जो अनादिपरिणमनसत्ता का कारण है उसे पारिणामिक भाव समझना चाहिए । कहा भी है :
जो फर्म के मेदों का कर्ता है, जो कर्मफल का भोक्ता है। संसारभ्रमण करने वाला है, निर्वृति (मोक्ष) प्राप्त करने वाला है वही आत्मा है, मामा का अन्य लक्षण नहीं है ॥१॥ માનવામાં આવે તે પૂર્વકાળમાં જીવ નહિ હ તે હવે થયેલ છે. આ પ્રકારે જીવને સાદિ (આદિવાળે) માને પહશે, પરંતુ એમ થઈ શકે નહિ, કારણ કે જે જીવ ભૂતકાળમાં નહીં હતો ત્યારે તેનું આકાશપુષ્પની સમાન ભવિખ્યત્ કાળમાં થવું કેમ સંભવે? એમ યુક્તિથી પણ વિરોધ આવે છે.
વગર પરિણામે કઈ પણ ભાવ નથી થઈ શકત, એટલા માટે ભાવમાં પરિણામની પ્રધાનતા છે. આત્માનું સ્વાભાવિક પરિણમન જ પારિમિક ભાવ કહેવાય છે. અર્થાત આત્માની અનાદિપરિણમનસત્તાનું જે કારણ છે, તેને પરિણામિક ભાન સમજવું જોઇએ કહ્યું પણ છે—–
“જે કર્મના ભેદને કર્તા છે, જે કર્મના ફળને ભેકતા છે; સંસારભ્રમણ કરવાવાળે છે, નિવૃતિ (મેક્ષ) પ્રાપ્ત કરવા વાળો છે તે આત્મા છે. આત્માનું मीनु सक्षY नथी." ||१|| प्र. पा.-१७
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आचाराङ्गमुत्रे
चात्मनोमालिन्यम्, यथा पकसंगाज्जलस्य मालिन्यं । तथा - नरकगत्यादिनामकर्मणो विपाकाविर्भावान्नरकगत्याद्याख्य औदयिको भावः । कषायमाहनीयकर्मणो विपाकाविर्भावाच क्रोधी, -मानी - ध्यादिरौदयिको भावः । एवं सर्वत्रौदयिको भावः समालोचनीयः ।
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(५) परिणामिक - भावः --
(५) परिणमनं - सर्वथा - अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य रूपान्तरेण भवनं - परिणामः, स एव पारिमाणिकः । अत्र स्वार्थे ठकू मत्ययः, न तु निर्वृत्यर्थे जीवस्यादिमत्त्वापत्तेः । यदि ' परिणामेन निर्वृत्तः ' इत्यर्थे पारिणामिको जीव इति मन्यते, तदा प्रागवस्था
भाव भयिक है | भाव भाग्मा का मालिन्यरूप है, जैसे कि कीचड के संसर्ग से जल में मलिनता आ जाती है | नरकगतिनामकर्म आदि के उदय से नरक गति आदि औदयिक भाव कहलाते हैं । कषायमोहनीय कर्म के उदय से कोध, मान आदि औदयिक भाव होते हैं । इसी प्रकार सभी जगह औदयिक भाव का विचार कर लेना चाहिये । (५) पारिणामिक भाव -
पूर्व अवस्था का सर्वथा त्याग न कर के रूपांतर में होना परिणाम है, और वही पारिणामिक कहलाता है। यहां स्वार्थमें ठक् प्रत्यय हुआ है, न कि निर्वृत्ति अर्थ में, निर्वृत्ति अर्थ में प्रत्यय होनेसे जीवका आदिमान् होनेका प्रसङ्ग भाजाता है । यदि "परिणामेन निर्वृत्तिः पारिणामिक:- जीवः " अर्थात् परिणामसे होनेवाला पारिणामिक-जीव कहलाता है, ऐसी व्युत्पत्ति मानली जाय तो 'किसी पूर्व काल में जीव नहीं था वह अब हुआ है' इस
ફાદવના સંસર્ગથી જલમાં મલિનતા આવી જાય છે. નરકતિ નામકર્મ આદિના ઉદયથી નરકતિ આદિ ઔયિક ભાવ કહેવાય છે. કષાય–મેહનીય કર્મીના ઉદયથી ક્રોધ, માન થ્યાદિ તે ઔયિક ભાવ છે. આ પ્રમાણે તમામ સ્થળે ઔયિક ભાવના વિચાર કરી લેવા.
(4) पारिशुभिः भाव
પૂર્ણ અવસ્થાના સર્વથા ત્યાગ નહિ કરતાં રૂપાંતર થવુ' તે પરિણામ છે, અને પરિણામ તેજ પારિણામિક કહેવાય છે. અહીં સ્વાર્થીમાં ફ્ પ્રત્યય થયા છે પરન્તુ નિવૃત્તિ અર્થમાં નથી થયા. નિવૃત્તિ અર્થમાં પ્રત્યય થવાથી જીવના આદિમાન ( आदिवाणो ) थवानो असंग भावी लय हे ले" परिणामेन निर्वृत्तः परिणामिकः-जीवः " अर्थात् 'परियामथी थवावाजे पारिभिः लव हेवाय छे' भावी व्युत्पत्ति
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आचारचिन्तामणि- टीका अयंतरणा जीवास्तिकाय
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ईति । यदा जीवः केवलिसमुद्रातावस्थां माप्नोति तदा समस्तलोकाकाशमेकजीवerrधारक्षेत्रं भवति । सकलजीवराश्यपेक्षया तु जीवानामाधारक्षेत्रं संपूर्णमेव लोकाकाशम् ।
arataratasसंख्यातभागे जीवस्य स्थतिरित्यत्रागमवचनं यथा
""
"सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे "
स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे । ( प्रज्ञा० २ पंदे जीवस्थानाधिकारे )
ननु परिमाणस्य न्यूनाधिकत्वे किं कारणम् ? उच्यते - जीवस्यानादिकालतोऽनन्तानन्ताणुमचयरूपेण कार्मण - शरीरेण सम्बन्धादेकस्यैव जीवस्य परिमाणं जीव का आधारक्षेत्र लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकतक हो सकता है । जब जीव केवलसमुद्रात करता है उस समय वही एक जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है । समस्त जीवराशि की अपेक्षासे सम्पूर्ण लोकाकाश aat का आधारक्षेत्र है ।
जीव का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में होता है; इस विषय में आगम का प्रमाण इस प्रकार है
"सहाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे" (प्रज्ञापना २ पद जीवस्थानाधिकार) स्वस्थान को अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में (जांव की स्थिति है) ।
शङ्का - जीवों के परिमाण की न्यूनाधिकता का क्या कारण है ?
समाधान - अनन्तानन्त परमाणुओं के प्रचयरूप कार्मण शरीर के साथ જ્યારે જીવ કેલિસમુદ્દાત કરે છે, તે સમય તે એક જીવ સપૂર્ણ લેાકાકાશમાં વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. સમસ્ત જીવરાશિની અપેક્ષાથી સંપૂર્ણ લેાકાકાશ છવાતુ
આધારક્ષેત્ર છે.
જીવને અવગાહ લેાકાકાશના અસખ્યાતમા ભાગમાં હાય છે, આ વિષયમાં આગમનું પ્રમાણુ આ પ્રમાણે છે.
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सट्टाणेण लोयस्स असंखेज्जइभागे " स्वस्थाननी अपेक्षा बोङना असण्यातभा लागभां (नी स्थिति छे) प्रज्ञापना, २ पद जीवस्थानाधिकार )
શકા-જીવેના પરિણામની યૂનાધિકતાનું શું કારણ છે ?
સમાધાન~~અને તાનત પરમાણુઓના પ્રચય (સમૂહ) રૂપ કાણુ શરીર
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P
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जीवस्य स्थितिक्षेत्रम्-- लोकाकाशस्याऽसंख्यामागतः समारभ्य, समस्तलोकामारी जीवोऽवगाइते। जीवमदेशानां प्रदीपवन संकोचविस्तारस्वमावत्याद । आत्मनः परिगाणं न गगनवन्महत् , नापि परमाणुवदणु, किन्तु मध्यमम् ।
यद्यपि मदेशसंख्यापेक्षया समानमेव सर्वेपामात्मनां स्वस्वपरिमाणम् , तथापि दैय-विस्तारादि सर्वेषां विसदृशमेव । अतः प्रत्येकजीवस्याऽऽधारक्षेत्रं जघन्यतो लोकाकाशस्याऽसंख्यातमागतः समारभ्य समग्रभागपर्यन्तं भवितुम
जीत्र का स्थितिक्षेत्रलोकाकाश के असंन्यात भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश में जीव का अवगाहन हो सकता है। कारण यह है कि जीव के प्रदेश दीपक की प्रभा के समान संकोच-विस्तार स्वभाव वाले हैं, अर्थात् कमी सिकुड़ जाते हैं और कभी फैल जात हैं। आत्मा का परिमाण न तो आकाश के समान महान् (सर्वव्यापी) है और न परमाणु के बराबर ही है किन्तु आत्मा मध्यम परिमाण वाला है।
प्रदेशों की संख्या की अपेक्षा समस्त आत्माओं का परिमाण बराबर है, अर्थात् सब आत्मा लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेश पाले हैं किन्तु प्राप्त शरीर के अनुसार उनके विस्तार में (परिमाण में) अन्तर पडजाता है, अतः प्रत्येक
उपस्थितिक्षेत्रકાકાશના અસંખ્યામાં ભાગથી લઈને સંપૂર્ણ કાકાશમાં જીવનું અવગાહન થઈ શકે છે. કારણ એ છે કે—જીવના પ્રદેશ દીપકની પ્રજાની સમાન સંકેચ-વિસ્તાર સ્વભાવવાળા છે, અર્થાત કઈ વખત સંકુચાઈ જાય છે અને કઈ વખત ફેલાઈ જાય છે. આત્માનું પરિમાણ આકાશપ્રમાણે મહાન નથી. અને પરમાણુના બરાબર પણ નથી પરંતુ આત્મા મધ્યમ પરિમાણુ વાળે છે.
પ્રદેશની સખ્યાની અપેક્ષાએ સમસ્ત આત્માનું પરિમાણ બરાબર છે. અર્થાત સર્વ આત્મા કાકાશના બરાબર અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા છે, પરંતુ પ્રાપ્ત શરીરના અનુસાર તેના વિસ્તારમાં (પરિમાણમાં) અંતર પડી જાય છે. તેટલા કારણથી પ્રત્યેક જીવને આધાર-ક્ષેત્ર કાકાશના અસંખ્યાતમ ભાગથી લઈને સંપૂર્ણ લેક સુધી થઈ શકે છે.
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चन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय शे चावस्थितः प्रकाशपुनरूपः प्रदीपः स्वाश्रयमात्रावभासी क्वचित् तः क्वचित् विततश्च भवति । अतः शरीरपरिमाणानुसारं परिमाणं दधान 1 मूर्त इव विज्ञायते । उक्तञ्च राजप्रश्नीयमत्रे
"पएसी! जहाणामए-कूड़ागारसाला सिया जाव गंभीरा, अहण केई से जोई व दीवं व" इत्यारभ्य "एवामेव पएसी ! जीवेवि जं जारिसयं
कम्मनिबद्धं चोदि णिवत्तेइ तं असंखेन्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तं करेइ-खुट्वियं न महालियं वा" इति पर्यन्तम् । मु० ८४ ॥ इति ॥
प्रदेशिन तद् यथानामकम्-ऋटागारशाला स्यात् यावद् गम्भीरा. अथ खलु कोऽपि पुरुषः ज्योतिर्वा दीपं वा (इत्यारभ्य) एवमेव प्रदेशिन् ! जीवोऽपि यां याशिकां पूर्वकर्मनिवद्धां वोदि निवर्तयति तामसंग्व्येयैर्जीवमदेशः सचित्तां करोति शुद्रिकां वा महालयां वा ।" इति च्छाया । महल में और खुले आकाश में रक्खा हुआ प्रकाश का पुनरूप दीपक अपनी जगह पर मालम होता हुआ कहीं संकुचित होता है और कहीं विस्तृत होता है। इसी प्रकार शरीर के परिमाण के अनुसार परिमाणवाला आत्मा मूर्त जसा माइम होता है । राजप्रश्नीय सूत्र में कहा है :--
___ "हे प्रदेगी राजा ! जैसे कोई कूटागार शाला हो और वह ( यावत् ) गंभीर हो और कोई पुरुप जोत या दीपक उस में रक्खे तो वह उसे पूर्णरूप से प्रकाशित करता है, इसी प्रकार है प्रदेशी ! आत्मा अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के अनुसार जैसा शरीर पाता है; उसे असख्यात आत्मप्रदेशों से सजीय वना देता है, चाहे वह शरीर बडा हो चाहे क्षुल्ल (छोटा) हो"। જેવી રીતે ઘરમાં. મહેલમાં અને ખુલ્લા આકાશમાં રાખેલે પ્રકાશ–પંજરૂપ દીપક પિતાની જગ્યાએ દેખાતે થકો કઈ જગ્યાએ સંકુચિત હોય છે અને કઈ જગ્યા વિસ્તૃત હોય છે. એ પ્રમાણે શરીરના પરિમાણ અનુસાર પરિમાણ વાળો આ भूत वो माय छे. राजप्रश्नीय सूत्रमा घुछ -
“५२३शी लत ! म अ टागार शाणा डाय ते (यावत) गार' અને કઈ પુરુષ જ્યાત અથવા દીપક તેમાં રાખે છે તે એને પૂર્ણપથી પ્રકા કરે છે, એ પ્રમાણે છે પરદેશી ! આત્મા પોતાના પૂર્વોપાર્જિત કર્મો પ્રમાણે શરીર પ્રાપ્ત કરે છે, તેને અસંખ્યાત આત્મપ્રદેશથી સજીવ બનાવી દે છે શરીર ગમે તે મોટું હોય અથવા નાનું હોય.”
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आचारसूत्रे
बहूनां वा जीवानां परिमाणं विविधं जायते । कार्मण- शरीरं हि सर्वदाऽनेकरूपेणावतिष्ठते । तत्सम्बन्धादोदारिकाद्यपि शरीरं तदनुसारि न्यूनाधिकपरिमाणभाग् भवति ।
जीवम्य मूर्तवद् हासवृद्धि:
वस्तुतो रूपरहितोऽपि जीवः शरीरसम्बन्धान्न्यूनाधिकपरिमाणं दधन्मूर्त वापचयोपचयौ मामोति । स हि स्वभावतः प्रदीपवनिमित्तमासाद्य संकोचविकाशशीलः स्वाश्रयमात्रेऽवमासते । यथा - कलशे मासादमदेशे निरा
अनादि काल से जीव का सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध के कारण एक हो जीव का अनेक कालों में, और अनेक जीवों का एक ही काल में भिन्न२ प्रकार का परिमाण होता है । कार्मण शरीर सदा विभिन्न रूपों में परिणमन करता रहता है । उसके संयोग से औदारिक आदि शरीर भी कार्मण शरीर के अनुसार न्यूनाधिकपरिमाणबाले होते हैं ।
जोव की हास-वृद्धि
जीव वास्तव में अरूपी है, फिर भी शरीर के साथ सम्बन्ध होने के कारण वह छोटे-मोटे परिमाग को धारण करता है, अतः उस में मूर्त पदार्थ की भाँति अपचय ( ह्रास ) और उपचय ( वृद्धि ) होता है । स्वभाव से संकोच विकासवाला जीव निमित्त पाकर दीपक की तरह अपने आश्रय (शरीर ) में प्रतिभासित होता है। जैसे घट में,
સાથે અનાદિ કાલથી જીવનેા સંબધ છે; એ સખ'ધના કારણે એકજ જીવના અનેક કાલેામાં, અને અનેક જીવાના એકજ કાલમાં ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારનું પરિમાણુ થાય છે, કાણુ શરીર સદાય વિભિન્ન રૂપેામાં પરિણમન કરી રહે છે, તેના સંચેગથી ઔદારિક આદિ શરીર પણ કાણુ શરીર પ્રમાણે ન્યૂનાધિક પરિમાણવાળા હાય છે.
જીવની હાસ વૃદ્ધિ—
જીવ વાસ્તવમાં અરૂપી છે, તેા પણ શરીરની સાથે સબંધ હાવાના · કારણે તે નાના-મોટા પરિમાણુને ધારણ કરે છે, તે કારણુથી તેમાં મૂર્ત પદાર્થની જેમ અપચય (हास) भने उपशय (वृद्धि) थाय छे. स्वलावधी स अय-विासवाणे व निमित्त પ્રાપ્ત કરી દીપકની પ્રમાણે પેાતાના આશ્રય (શરીર)માં પ્રતિભાસિત થાય છે—(દેખાય છે).
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय
१३५ कर्मणामत्यन्तोच्छेदे सति कर्मसङ्गाभावात् कर्मबन्धनोच्छेदाच नास्त्येवोर्ध्वगतिप्रतिबन्धकं तदा स्वस्वभावानुसारेणोर्ध्वगमनावसरः सिद्धानामुपतिष्ठते ।
___ जीवस्य लक्षणम्उपयोगयत्वं जीवस्य लक्षणम् । उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीयोऽनेनेत्युपयोगः करणे घञ् । बोधरूपो व्यापार उपयोगः । ज्ञानं, संवेदनं, प्रत्ययः, इति नामान्तराणि ।
सामान्यविशेषरूपबोधद्वयदर्शनान्निश्चयो भवति-विद्यते खलु जीवः, यस्येमी सामान्यविशेपाययोधी, न च तादृशः कश्चिदस्ति जीवो, यस्य साकाकर्मों का संसर्ग नहीं रहता, कर्मवन्धन का उच्छेद होने से ऊर्ध्वगति का कोई प्रतिबन्धक नहीं रहता, तब सिद्ध जीवों को ऊर्च गमन का अवसर प्राप्त होता है ।
जीव का लक्षणजीव का लक्षण उपयोग है । जो जीव को वस्तु के बोध में व्याप्त करता है उपयुक्त बनाता है उसे उपयोग कहते हैं। तात्पर्य यह है कि-बोधरूप व्यापार उपयोग कहलाता है । ज्ञान संवेदन, प्रत्यय, ये उपयोग के पर्यायवाची शब्द हैं ।
सामान्य बोध (दर्शन) और विशेष योघ (ज्ञान) अनुभवसिद्ध है । इन दोनों योधों से यह निश्चय होता है कि जीव अवश्य है; जिस में यह सामान्य और विशेष बोध पाया जाता है । ऐसा कोई जीव नहीं है जिस में सामान्य-बोध (निराकार જાય છે, અને કમને સંસમાં રહેતા નથી, ત્યારે કર્મબંધનને ક્ષય થવાથી ઉર્ધ્વગતિ થવામાં કોઈ પ્રતિબંધક (અંતરાય કરનાર) રહેતું નથી, ત્યારે સિદ્ધ ને ઉ. ગમન કરવાને અવસર પ્રાપ્ત થાય છે.
नु सक्षજીવનું લક્ષણ ઉપગ છે, તે જીવને વસ્તુના બેધમાં વ્યાકૃત-વ્યાપારયુક્ત કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-બધ૫ વ્યાપાર ઉપગ કહેવાય છે. જ્ઞાન, સંવેદન, પ્રત્યય, આ સર્વ ઉપયોગના પર્યાયવાચી શબ્દો છે,
સામાન્ય બાધ (દર્શન) અને વિશેષ બેધ (જ્ઞાન) અનુભવ સિદ્ધ છે. એ બંને બોધથી એમ નિશ્ચય થાય છે કે જીવ અવશ્ય છે, જેમાં આ સામાન્ય તથા વિશેષ ધ જોવામાં આવે છે એ કેઈ જીવ નથી કે જેમાં સામાન્ય બોધ
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१३४
आचाराङ्गो जीवस्य ऊर्ध्वगतिः-- सकलकर्मणां क्षये सति सपदि जीयो मुक्तः सन्नूचं गच्छति, न च 'जीवस्यामूतत्वाद् गतेरसंभवः' इति वाच्यम् , स्त्रमावत एव पुद्गलद्रव्यवद् जीवस्य गतिशीलत्वात् ।
इयान विशेषः पुद्गलेभ्यः-पुद्गलाः स्वभावादधोगतिशीला:, जीवास्तु स्वभावादर्ध्वगतिशीलाः । प्रतिबंधद्रव्यसझाद् ऊर्ध्वगमनस्त्रमावा जीवा अवस्तिर्यग् वा गच्छन्ति, गन्तुमक्षमा चा भवन्ति । तच तद्गतिप्रतिवन्धक कर्मत्र । यदा सकल
जीव की ऊर्ध्वगतिसकल कर्मों का क्षय होने पर तत्काल मुक्त हुभा जीव ऊपर की ओर गमन करता है । जीव अमूर्त है और इस कारण यह गति नहीं कर सकता' ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्यों कि पुद्गल-द्रव्य के समान जीव स्वभाव से ही गतिशील है ।
गति के विषय में जीव और पुद्गल में इतना भेद है--पुद्गल अधोगतिशील हैं और जीव ऊर्ध्वगतिशील हैं, अर्थात् पुगलों का स्वभाव नीचे जाने का है और जीव का स्वभाव उपर की ओर जाने का है मगर रुकावट डालने वाले द्रव्यों के निमित्त से ऊर्ध्वगतिशील जीव भी नीचे की ओर अथवा तिरछा गमन करता है। या कभी गमन करने में असमर्थ हो जाता है। जीव की स्वाभाविक गति का प्रतिबन्धक (रुकावट डालने वाला) कर्म ही है। जब समस्त कर्मों का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है और
જીવની ઉર્ધ્વ ગતિ—સકલ કર્મોનો ક્ષય થયા પછી તત્કાલ મુક્ત થયેલે જીવ ઉપર તરફ ગમન ४२. 04 अभूत छ, गने रथी त ति ४१ शत नथीम કહેવું તે ઠીક નથી. કેમકે પુદ્ગલનો પ્રમાણે જીવ સ્વભાવથી જ ગતિશીલ છે.
ગતિના વિષયમાં જીવ અને પુદગલમાં એટલે ભેદ છેઃ-પુદ્ગલ અધોગતિશીલ છે. અને જીવ ઉર્ધ્વગતિશીલ છે. અર્થાત પગલોને સ્વભાવ નીચે જવાનું છે, અને જીવને સ્વભાવ ઉપર તરફ જવાને છે. પરંતુ તેમાં અંતરાય નાંખવાવાળા દ્રવ્યોના નિમિત્તથી ઉર્ધ્વગતિશીલ જીવ પણ નીચે તરફ અથવા તિછ ગમન કરે છે. અથવા
ઈ વખત ગમન કરવામાં અસમર્થ થઈ જાય છે. જીવની સ્વાભાવિક ગતિને પ્રતિબંધ (અટકાયત) કરનાર કર્મ જ છે. જ્યારે સકલ કર્મોને અત્યન્ત ક્ષય થઈ
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय
१३७. तिरोहितो भवति। तथा : पृथिवीकायादिजीवानामुपयोगांशः स्फुरत्येचः सर्वदा । यदि : लोकव्यापिनः । पुद्गलाः संघीभूयापि कर्मवर्गणारूपेण · सर्वतोभावेन ज्ञान तिरोदध्युस्तहिं निर्जीवतापत्तिरात्मनो दुर्वारा स्यात् ।। तस्मात् - पृथिव्यादिजीवेपु.. बोधांशः स्वभावतोऽभारतस्तिष्ठत्येवेति सिद्धम् । उक्तं चागमे--
"सव्यजीवाणं पि य णं अक्खरस्स. 'अणंतभागो निच्चुग्याडिओ। जइ. पुण सोऽवि आवरिजा तो णं जीयो अजीवत्तं पाविज्जा" __मुटुवि मेहसमुदए, होइ पभा चंद-भूराणं " इति । ___ छाया-सर्वजीवानामपि च खलु अक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटितः। यदि पुनः सोऽपि आरियेत तर्हि खलु जीवः अजीवत्वं प्राप्नुयात् । " सृष्टपि मेघसमुदये, भवति प्रभा चन्द्रमूरयोः" इति । तिरोहित नहीं हो सकता, इसी प्रकार पृथिवीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों के उपयोग का अंश · सदा स्फुरायमान रहता ही है। अगर लोकव्यापी पुद्गल इकट्ठे हो कर्मवर्गणा-.. रूप परिणत हो कर ज्ञान को पूरी तरह आन्गदित कर डाले तो जीव अजीव : बन जाय, मगर ऐसा होना असम्भव है, अत एव यह सिद्ध है कि-पृथिवीकाय आदि .. एक इन्द्रिय वाले जीवों में भी ज्ञान का किंचित् अंश स्वभाव से अनावृत (आवरण . रहित) रहता है। आगम में भी कहा है-~"सबजीवाणं पिय णं अक्खरस्स... अणंतभागो निच्चुग्याडिओ, जइ पुण सोवि आवरिज्जा तो णं जीवो अजीवत्तं .. पाविज्जा" "महवि मेहसमुदए होइ पभा चंदमुराणं" પ્રકાશ કયારેય પૂર્ણપણે તિરોહિત-આચ્છાદિત થતું નથી. એ પ્રમાણે પૃથિવીકાય આદિ એકેન્દ્રિય જીના ઉપયોગ” અંશ પણ સદા કુરાયમાન રહે છે. અગર લેકવ્યાપી પુદ્ગલ એકઠા થઈને કર્મવર્ગણ૫ પરિણત થઈને જ્ઞાનને પૂરી તરેહથી આચ્છાદિત કરી નાખે (ઢાંકી દે) તે જીવ અજીવ બની જાય, પણ એમ બનવું અસંભવિત છે. એટલા કારણથી એ સિદ્ધ છે કે-પૃથિવીકાય આદિ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીમાં પણ જ્ઞાનને કિચિત અંશ સ્વભાવથી અનાવૃત–આવરણરહિત રહે છે. भागममा ५४. ४ढुंछ-" सव्यजीवाणं पियणं अक्खरस्स अणतभागो निच्चुग्धाडि मो.। . जइ पुण सोचि आपरिजा तो णं जीयो अजीवत्तं पाविजा" “ सुटुंचि मेहसमुदाए होइ । पभा चंदसूराणं"
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१३६
आचाराङ्गसूत्रे
रानाकारोपयोगी न स्तः । अत एवोक्तं भगवता - "जीवो उपभोगलक्खणो" इति । लक्ष्यते ज्ञायतेऽनेनेति लक्षणम् । उपयोगो लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणः । ज्ञानावगम्यो जीव इत्यर्थः ।
पृथिवीकायादिसर्वसंसारिजीवानां बोधस्यानन्ततमो भागः सदा प्रकाशमानोऽनावृतस्तिष्ठत्येव । नहि सकललोकान्तवर्तिनः पुद्गलाः कर्मरूपतया परिणता अपि कस्यापि जीवस्य सर्वतोभावेन ज्ञानमावरीतुं प्रभवन्ति । यथाअतिनिविडघनघटाऽऽच्छादितस्यापि सूर्यस्य प्रकाशलेशः प्रकाशत एव, नच सर्वथा उपयोग) और विशेष बोध (साकार उपयोग ) विद्यमान न हो, इसी कारण भगवान्ने कहा है- "जीवो उबओगलक्खणो" जीव उपयोग लक्षण वाला है।
जिस के द्वारा वस्तु लखी जाय जानी जाय वह लक्षण कहलाता है । उपयोग जिस का लक्षण हो उसे उपयोगलक्षण कहते हैं । तात्पर्य यह है कि--ज्ञान लक्षण के द्वारा जीव मालूम होता है ।
पृथिवीकाय आदि समस्त संसारी जीवों के ज्ञान का अनन्त भाग सदैव प्रकाशमान और आवरणरहित बना रहता है । सम्पूर्ण लोकाकाश के पुल कदाचित् कर्मरूप में परिणत हो जाएँ तो भी वह किसी एक जीव के ज्ञान को पूर्णरूप से आवृत नहीं कर सकते । सूर्य चाहे कितनी ही सघन घनगा से आच्छादित क्यों न हो जाए, उसका थोडा बहुत प्रकाश बना ही रहता है, प्रकाश कभी पूरी तरह
( निसार उपयोग ) भने विशेष मोध (सार उपयोग) विद्यमान न होय, से अरसुधी लगवाने उछु छे है:-" जोचो ओगल+खणो " લક્ષણવાળો છે.
જીવ ઉપયાગ
જેના દ્વારા વસ્તુ લખી શકાય-જાણી શકાય તે લક્ષણ કહેવાય છે. ઉપયેગ જેનું લક્ષણ હૅય, તેને “ ઉપયેગલક્ષણ” કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે“જ્ઞાનલક્ષણ દ્વારા જીવ માલૂમ પડે છે.
C
પૃથ્વિીકાય આદિ તમામ પુ સારી જીવાના જ્ઞાનના અન તમે ભાગ હમેશાં પ્રકાશમાન અને આવરણહિત બની રહે છે. સંપૂર્ણ લેાકાકાશના પુગલે કદાચ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય તે પણ તે કંઈ એક જીવના જ્ઞાનને પૂર્ણ રૂપથી આવૃત્ત કરી ( ઢાંકી ) શકે નહિ. સૂર્ય ગમે તેટલી ધનઘટા ( મેઘાડંબર )માં આચ્છાદિત થઇ જાય તે પણ સૂર્યના થાડેજા પ્રકાશ તેમની જ રહે છે,
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जावा
आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय प्राप्य, केवलज्ञानसंनां पामोति ।
जीवा द्विविधाः-सिद्धा असिद्धाश्च । तत्र निर्द्धताशेषकर्माणः सिद्धाः, असिद्धाः संसारिणः । द्रव्यभावबंन्धः संसारः। कर्माप्टकसम्बन्धी द्रव्यवन्धः, रागद्वेपादिपरिणामसंवन्धो भाववन्धः। द्विविधवन्धरूपः संसारोऽस्ति येषां ते संसारिणः। संसारिणो द्विविधाः सस्थावरभेदात् । तत्र पृथिव्यवनस्पतयः स्थावराः। तेजोवायूदारास्त्रसाः । तेजोवायू गत्यैव त्रसो, न तु लब्ध्या । तत्रोदाराश्चतुर्विधाः-द्वि-त्रि-चतुः-प्रश्चन्द्रियभेदात् । तत्र पञ्चेन्द्रियाः पुनर्हि विधाः समनस्का अमनस्काश्च । को जानने योग्य विशुद्धता प्राप्त करके केवल ज्ञान संज्ञा को पाता है।
जीव दो प्रकार के हैं :-सिद्ध जीव और असिद्ध जीव । सकल कर्मों से रहित जीव सिद्ध कहलाते है, और संसारी जीव असिद्ध कहलाते हैं। द्रव्यबन्ध और भावबन्ध को संसार कहते हैं। आठ कर्मोका सम्बन्ध द्रव्यबन्ध है, और राग देप आदि परिणामों का सम्बन्ध होना भाववन्ध है। यह दो प्रकार का बन्धरूप संसार जिन के हो वे संसारी जीव कहलाते हैं। संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेदसे दो प्रकार के हैं । पृथ्वी जल और वनस्पति, ये स्थावर हैं, तेज वायु और उदार जीव त्रस हैं । इन में तेज और वायु गतित्रस है, लब्धि से स्थावर हैं ।
___ उदार के चार भेद हैं-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । पञ्चेन्द्रिय जीवों के संज्ञी और असंज्ञी, ये दो भेद हैं। ક્ષય થવાથી સમસ્ત રેય પદાર્થોને જાણવા યોગ્ય વિશુદ્ધતા પ્રાપ્ત કરીને કેવલજ્ઞાન સંજ્ઞા પામે છે.
જીવ એ પ્રકારના છેઃ-સિદ્ધ જીવ અને અસિદ્ધ જીવ, સકલ કર્મોથી રહિત જીવ સિદ્ધ કહેવાય છે, અને સંસારી જીવ અસિદ્ધ કહેવાય છે. દ્રવ્યબંધ અને ભાવબંધને સંસાર કહે છે. આઠ કર્મોને સંબંધ તે દ્રવ્યબંધ છે, અને રાગ-દ્વેષ આદિ પરિણમેને સંબંધ થાય તે ભાવબંધ છે. એ બે પ્રકારના બંધરૂપ સંસાર જેને હોય છે તે સંસારી જીવ કહેવાય છે. સંસારી જીવ ત્રસ અને સ્થાવરના ભેદથી से मारना छे. पृथ्वी, पाएी, अने वनस्पति र स्था१२ छ, तर, वायु, ઉદાર જીવ ત્રસ છે. તેમાં તેજ અને વાયુ ગતિત્રસ છે, લબ્ધિથી સ્થાવર છે. ઉદારના ચાર ભેદ છે. હીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય. પંચેન્દ્રિય એના સંજ્ઞી અસંજ્ઞી, એ બે ભેદ છે.
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आचारात्सूत्र
तस्माद् यश्च यावानुपयोगांशः सर्वसंसारिजीयेषु यथासंभवं स्वभावतोऽनाटतो वर्तते, तत्र सर्वतो जघन्य उपयोगांश: near पर्याप्तानां सूक्ष्मनिगोदानामेव भवति । ततः परं स एवोपयोगांशः अवशिष्टकेन्द्रिय द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदात् भिद्यमानः संभिन्नस्रोतस्त्वादिलच्धसमूहेन च लब्धिनिमित्तकरणदशरीरेन्द्रियवाइमनांसि समाश्रित्य प्रवर्धमानो विविधक्षायोपशमकृतवैचित्र्ययतामवग्रहादीनां भेदेन ततोऽप्यधिकतरं वर्धमानः सकलघातिकर्मक्षयं कृत्वा सकलज्ञेयग्राहिकां परां विद्धि “सर्व जीवों के अक्षर का arari भाग ज्ञान देव उपाडा (निरावरण) बना रहता है, अगर वह भी ढक जाय तो जीव अजीव हो जाय । "
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"मेघों का खूब समुदाय होने पर भी चन्द्रमा और सूर्य को प्रभा तो बनी ही रहती है। "
उपयोग का जो सर्व जघन्य अंश समस्त संसारी जीवोंमें सर्वदा अनावृत बना रहता है, वह जघन्य अंश उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीवों में भी होता है । तत्पश्चात् वही उपयोग का अंश एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय के भेद से भिन्न होता हुआ संभिन्नस्रोतस्त्व आदि लब्धियों के समूह से लब्धि, निमित्त, करण, शरीर, इन्द्रिय चचन और मन का आश्रय लेकर बढता जाता है । यहां तक कि विविध प्रकार के क्षयोपशम की विचित्रता वाले जीवों के अवग्रह आदि के भेद से और उस से भी अधिक बढकर समस्त घाती कर्मों का क्षय होने पर समस्त ज्ञेय पदार्थों
“સર્વ જીવાને અક્ષરના અન તમે ભાગ જ્ઞાન સદૈવ ઉધાડું (નિરાવરણ) રહે છે. અગર તે પણુ તે ઢકાઈ જાય તે જીવ અવ થઈ જાય.”
૮ મેઘના મુખ સમુદાય હાય તા પણ ચંદ્ર અને સૂર્યની પ્રભા બની રહે છે.”
ઉપયેગના જે સર્વ જઘન્ય અંશ તમામ સંસારી જીવેામાં સદા અનાવૃત (ઉઘાડા) ખની રહે છે. તે સ જઘન્ય અ’શઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં વત્ત્ત માન, અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ નિગેાદના જીવેામાં પણ હોય છે. તે પછી તે ઉપયેગના અંશ એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય શ્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિયના ભેદથી ભિન્ન થઇને, સભિન્નસ્રોતત્વ ચ્યાદિ લબ્ધિએના समूहथी, सम्धि, निमित्त, उरांशु, शरीर, इन्द्रिय, पन्थन भने भनन। माश्रय ने વધતા જાય છે, અહીં સુધી કે વિવિધ પ્રકારના ક્ષયપશ્ચમની વિચિત્રતાવાળા જીવાને અવગ્રહ માદિ ભેદથી અને તેનાથી પણ અધિક વધીને સમસ્ત ધાતી કર્મોને
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- आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा परद्रव्यविचार
अथ पद्रव्यविचारः
- १४१
पट्स इष्येषु वियद् द्रव्यं क्षेत्रम्, इतरे धर्मादयः पञ्च क्षेत्रवर्तित्वात् क्षेत्रिणः । देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रवर्तियांगलिकैककेशस्य खण्डशः करणे पर्यन्ततो यस्य खण्डस्य पुनः खण्डो न भवितुमईति तादृशखण्डपरिमाणं यावदाकाशक्षेत्रं व्याप्नोति तावति भागे वियतोऽसंख्यातप्रदेशाः, धर्मास्तिकायस्यासंख्यातमदेशाः, अधर्मास्तिकायस्य चा संख्यातप्रदेशाः असंख्याता निगोदानां गोलकाच तिष्ठन्ति ।
3
तत्र
सूच्यग्रभागपरिमिते निगोदखण्डेऽप्यसंख्याताः श्रेणयः सन्ति । प्रत्येक श्रेण्यामसंख्याताः प्रतराः प्रतरे च प्रत्येकमसंख्याताः गोलकाः, गोलके
पद्रव्यविचार
छहयों में से आकाश क्रय, क्षेत्र है, और शेष धर्म आदि पांच व्य क्षेत्रवती होने के कारण क्षेत्री हैं । देव कुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों के जुगलिया के एक केश के ऐसे टुकडे किये जाएँ कि फिर उनका दूसरा टुकडा न हो सके। इन में से एक टुकडा जितने आकाश क्षेत्र को व्याप्त करता है उतने भाग में आकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं । उसी में धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, और निगोद के असंख्यात गोलक विद्यमान हैं ।
सुई की नोंक बराबर निगोद के खण्ड में भी असंख्यात श्रेणियां विद्यमान हैं । एक २ श्रेणी में असंख्यात - असंख्यात प्रतर हैं, एक २ प्रतर में असंख्यातर गोलक हैं, પદ્ભવ્ય વિચાર
છ દ્રવ્યોમાં આકાશ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર છે, અને બાકીના ધર્મ આદિ પાંચદ્રશે ક્ષેત્રવતી હાવાથી ક્ષેત્ર છે; દેવકુરૂ અને ઉત્તરકુર્ં ક્ષેત્રોના જુલિઆના એક કેશવાળના એવા ટુકડા કરવામાં આવે કે ફરીને તેને બીજો ટુકડો થઈ શકે નહિં, તેમાંથી એક ટુકડા જેટલા આકાશક્ષેત્રને વ્યાપ્ત કરે છે તેટલા. ભાગમાં આકાશના ૬. અસંખ્યાત પ્રદેશ કહેવાય છે. તેમાં ધર્માસ્તિકાયના અસંખ્યાત પ્રદેશ છે, અધર્મોસ્તિકાયના અસ ંખ્યાત પ્રદેશ છે, અને નિગેાદના અસ ંખ્યાત ગેાલક વિદ્યમાન છે.
સોયની અણી અરેખર નિગોદના ખંડમાં પણુ અસંખ્યાત શ્રેણીએ વિદ્યમાન छे थे ये श्रेणीमां असंख्यात असंख्यात प्रतर है ये. अतरसां
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आवारागसत्र जीवास्तिकायस्य (१)-अनन्तज्ञानम् , (२)-अनन्तदर्शनम् (३)-अनन्त मुखम् , (४)-अनन्तीय चेति गुणाः। (१)-अन्यायाधयत्रम् , .(२)-अनवगाहवत्वम् , (३) अमूर्तिकत्वम् (४)-अगुरुलघुपचं चेति पर्याया।
...अयं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-गुण-भेदेन पत्रधा : मायते-(१)-द्रव्यतःअनन्ता जीवाः, (२)-क्षेत्रतो लोकप्रमाणाः, (३). कालत आद्यन्तरहिताः, (४)भावतः अरूपिणः-वर्णगन्धरसस्पर्शवनिता इति, (५)-गुणतवेतनालक्षणा? इति ।
। इति जीवास्तिकायः सम्पूर्ण:जीवास्तिकाय के गुण ये है- (१) अनन्त ज्ञान :(२) अनन्त दर्शन (३) अनन्त सुग्म और (४) अनन्त वीर्य ।
(१) अन्यावाधवत्व (२) अनवगाहनावत्व (३) अमूर्तिकाय और .(४) अगुरुलघुत्व, . ये जीव की पर्याय हैं।
द्रव्य क्षेत्र काल भाव और गुण के भेद से पांच प्रकार से जीवास्तिकाय का ज्ञान होता है । (१) द्रव्य से--जीव अनन्त हैं, (२) क्षेत्र से--लोकप्रमाण हैं (३) काल
से-आदि-अन्त रहित हैं (४) भाव से--अरूपी है-रूप, रस, गन्ध, "और स्पर्श से • रहित हैं (५) गुण से चेतनालक्षण है ।।
। इति जीवास्तिकाय। पास्तियन गुप मा (1) मनशान, (२) मनत शन (3).भनत સુખ અને (૪) અનંત વીર્ય.
(૧) અવ્યાબાધવત્વ (૨) અનવગાહનાવવ (૩) અમૂતિકત્વ અને (૪) • सगुलधुत्व, में अपनी पर्याय छे.
દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી પાંચ પ્રકારે જીવાસ્તિકાયનું જ્ઞાન ..याय. छ. (१) द्रव्यथी--04. मनात छे. (२) क्षेत्रथी- प्रभाए. (3) सथी-मा
અન્ત રહિત છે. (૪) ભાવથી–અરૂપી છે રૂપ-રસ–ગંધ અને સ્પર્શથી- રહિત છે । (५) मुगुथी-येतनालक्ष छे.
ઈતિ છવાસ્તિકાય–
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माचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा पट्टद्रव्यविचार
१४३
परमाणुनां द्वौ भेदौ स्तः वद्धा अवद्धाय । तत्र चद्धाः स्कन्धरूपाः । नबद्धाः परस्परसंयुक्ताः । स्कन्धानां पुनहीं भेदौ - जीवसहिताः, जीवरहिताश्च । घटपटादिरूपा अजीवस्कन्धाः ।
अथ जीवस्कन्ध-विचारः मस्तूयते -
द्वयोः परमाण्वोः संयोगे द्विप्रदेशी स्कन्धः । त्रयाणां परमाणूनां संयोगे त्रिमदेशी स्कन्धः । एवमसंख्यातानां परमाणुनां संयोगादसंख्यातप्रदेशी स्कन्धो जायते । एतावत्पर्यन्ताः स्कन्धा जीवानां ग्राद्या न भवन्ति ।
परमाणु दो प्रकार के हैं- वज्र और अद्र | स्कन्वरूप परमाणु बद्र कहलाते हैं, और आपस में असंयुक्त परमाणु अवद्ध कहलाते हैं ।
स्कन्ध के भी दो भेद हैं- जीवसहित और जीवरहित, इन में घट पट आदि स्कन्ध अजीवस्कन्ध कहलाते हैं ।
अब जीवस्कन्ध का विचार करते हैं-
दो परमाणुओं का संयोग होने पर द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है, और तीन परमाणुओं के संयोगसे त्रिप्रदेशी स्कन्ध । इसी प्रकार असंख्यात परमाणुओं के संयोग से असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है । यहाँ तक के स्कन्ध जीवों द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते ।
परमाणु मे प्रारना - (१) जद्ध भने (२) मा. सुधरूप परमाणु मद्ध કહેવાય છે, અને આપસમાં અસંયુક્ત પરમાણુ અખદ કહેવાય છે.
સ્કંધના પણ એ ભેદ છે--જીવહિત અને જીવત, તેમાં ઘટ પર આદિ સ્કંધ અાવકધ કહેવાય છે.
હવે જીવસ્ક ધના વિચાર કરવામાં આવે છે
એ પરમાણુઓના સમૈગ થવાથી દ્વિપ્રદેશી કાઁધ બને છે, અને ત્રણ પરમાણુએના સચેગથી ત્રિપ્રદેશી સ્મુધ અને છે, એ પ્રમાણે અસંખ્યાત પરમાણુઓના સંચાગથી અસંખ્યાતપ્રદેશી કોંધ ઉત્પન્ન થાય છે, અહિં સુધીના સ્કંધ, જીવા દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાતાં નથી,
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आंचाराम घ प्रत्येकमसंख्यावानि निगोदशरीराणि सन्ति । तत्र च प्रत्येकारीरेऽनन्ता निगोदजीवाः सन्ति । __अथ कियन्तोऽनन्ता जीवास्तत्र सन्ती ?-त्युच्यते-अतीतकालोऽनन्तः, तथा भविष्यत्कालोऽप्यनन्तः, वर्तमानकाल कसमयमात्र, कालत्रयस्यापि यावन्तः समयाः सन्ति, ते पुनरनन्तेन गुणिता यावन्तो भवेयुस्ततोऽप्यनन्त गुणाधिका एकस्मिन् निगोटे निगोदिका जीवाः सन्ति ।
तत्रैकजीवस्यासंख्याताः मदेशाः सन्ति । एकैकपदेशेऽनन्ताः कर्मवर्गणाः संलग्नाः । तत्रैकस्यां वर्गणायामनन्ताः परमाणुपुद्गलाः सन्ति । एक २ गोलक में असंख्यात २ निगोदशरीर हैं, और एक २ निगोदशरीर में अनन्त २ निगोदजीव हैं।
शा-अनन्त के अनन्त भेद होते हैं, ऐसी स्थिति में एक निगोदशरीर में कितने अनन्त जीव होते हैं ?
समाधान-अतीत काल के अनन्त समय हैं, भविष्य कालके भी अनन्त समय हैं, और वर्तमान काल एक समय मात्र है। इन तीनों फालों के जितने समय है उनका अनन्त से गुणाकार कर देने पर जितने समय हो उन से भी अनन्त गुणा अधिक निगोदजीव एक निगोदशरीर में होते हैं ।
एक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं। एकर प्रदेश में अनन्त २ कर्मवर्गणाएँ लगी हुई हैं, और एक २ वर्गणा में अनन्तर पुद्गलपरमाणु हैं અસંખ્યાત ગોલક છે. એક એક ગોલકમાં અસંખ્યાત નિગદ શરીર છે, અને એક એક નિગોદ શરીરમાં અનંત અનંત નિગોદ જીવ છે.
શકે--અનંતના અનંત ભેદ હોય છે, એવી સ્થિતિમાં એક નિગદ શરીરમાં કેટલા અનંત જીવ હોય છે?
સમાધાન—-અતીતકાલ (ભૂતકાલીના અનન્ત સમય છે, ભવિષ્યકાલના પણ અનંત સમય છે, અને વર્તમાન કાલ એકસમયમાત્ર છે, એ ત્રણે કાલેમાં જે સમય છે, તેને અનંતથી ગુણાકાર કરવાથી જે ગુણાકાર (રાશિ) થાય તેટલા સમયથી પણ અનંત ગુણ અધિક નિગદ જીવ એક નિગેદ-શરીરમાં હોય છે.
એક જીવના અસંખ્યાત પ્રદેશ થાય છે. એક-એક પ્રદેશમાં અનંત-અનંત કવણાઓ લાગી છે, અને એક-એક વર્ગણામાં અનંત અનંત પુદ્ગલપરમ ણ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पइद्रव्यविचारः
१४५ वर्गणागतानन्तपुद्गलपरमाणुघटितस्कन्धा जीवानो ग्राह्या भवन्ति ।।
रागद्वेपरूपाशुद्धप्रवृत्त्याऽऽत्मनः प्रतिपदेशमनन्तानन्वकर्मवर्गणा अयोगोलकवहिवल्लोलीभूताः सन्ति, अत एवानन्तज्ञानादयो .गुणा जीवस्य तिराहिता भवन्ति । एवं च जीवोपेक्षयाऽनन्तगुणाधिकाः पुद्गला ज्ञातव्याः। ते च पुद्गला रूपिणोऽचेतनाः सक्रियाः पूरणमलनस्वमाया वेदितव्याः। .
पद्र्व्येषु सक्रिय-निष्क्रियविचार:- . पडद्रव्येषु निश्चयनयेन सर्वाणि द्रव्याणि सक्रियाणि । व्यवहारनयतो धर्माधर्माकाशकालाख्यानि चत्वारि द्रव्याणि क्रियारहितानि । जीवपुद्गलों सक्रियौ परमाणुओं से बने हुए स्कन्ध जीवों द्वारा ग्रहण करने योग्य होते हैं ।
___ राग और द्वेषरूप अशुद्ध प्रवृत्ति के कारण आत्मा के एक एक प्रदेश में अनन्तानन्त कर्मवर्गणाएँ इस प्रकार एकमेक हो रही है, जैसे लोहे का गोला और अग्नि एकमेक
हो जाते हैं, इसी कारण जीव के अनन्त ज्ञान आदि गुण ढक जाते है। इस प्रकार ___ जीवों की अपेक्षा पुदल अनन्त गुणा अधिक जानने चाहिए। ये पुद्गल-रुपी, अचेतन, सक्रिय, और पूणगलनस्वभाववाले हैं।
___ छर द्रव्यों में सक्रिय-निष्क्रियका विचारनिधय नय से छहों द्रव्य सक्रिय हैं, किन्तु व्यवहारनयसे धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाश और काल नामक चार द्रव्य क्रिया रहित हैं, जीव और पुल द्रव्य सक्रिय અના પુગલ પરમાણુઓથી બનેલા કંધ જીવે દ્વારા ગ્રહણ કરવા ગ્ય હોય છે.
રાગ અને દ્વેષ રૂપ અશુદ્ધ પ્રવૃત્તિના કારણે આત્માના એક-એક પ્રદેશમાં અનંતાનંત કર્મ વર્ગણુએ એ પ્રમાણે એકમેક થઈ રહી છે કે-જેમ લેઢાને ગોળ અને અગ્નિ એકમેક થઈ જાય છે, એ કારણથી જીવના અનંત જ્ઞાન આદિ ગુણ ઢંકાઈ જાય છે. એ પ્રમાણે જીવની અપેક્ષા પુદગલ અનંતગુણા અધિક જાણવા જોઈએ. તે મુદ્દગલ, પી, અચેતન સક્રિય અને પૂરણગલનસ્વભાવવાળા છે.
છ માં સક્રિય નિષ્ક્રિય વિચારનિશ્ચયનય પ્રમાણે છે સક્રિય છે, પરંતુ વ્યવહારનયથી ધમસ્તિકાય અધમસ્તિકાય આકાશ અને કાલ નામના ચાર દ્રવ્યે કિયારહિત છે, જીવ અને म. आ.-१९
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आचाराजला. __ अथ कीदृशाः स्कन्धा जीवानां ग्राधा मवन्ती ?-त्युच्यते--अभव्यराशिचतुःसप्ततितमः, तद्गतजीवापेक्षयाऽनन्तगुणाधिकाः परमाणवो यदि' संघीभवन्ति तदीदारिकशरीरमाधवर्गणा भवति । औदारिकवर्गणापेक्षयाऽनन्तगुणाधिका वैक्रियशरीरप्रायवर्गणा। ततोऽनन्तगुणाधिकाऽऽदारकवर्गणा । आहारकवर्गणापेक्षयाऽनन्तगुणाधिका तैनसशरीरावर्गणा । ततोऽनन्तगुणाधिका एकभापाग्राह्यवर्गणा । एकभाषाग्राह्यवर्गणापेक्षयाऽनन्तगुणाधिका एकश्वासोच्छ्वासवर्गणा । ततोऽनन्तगुणाधिका एकमनसो वगंगा । तदपेक्षयाऽनन्तगुणाधिका कार्मणवर्गणा भवति । ततोऽनन्तगुणाधिकाः पुद्गलपरमाणुस्कन्धा नेयाः। कार्मण
किस प्रकार के स्कन्ध जीवों द्वारा ग्राह्य होते हैं ! यह बतलाते हैं : अमत्र्य राशि चोहतरची है। इस अभव्य राशि के जीवों की अपेक्षा अनन्त गुणा अधिक परमाणु यदि इकट्ठे हो तो औदारिकशरीरमाहा वाणा होती है। औदारिकवर्गणाकी अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक क्रियशरीरप्राह्य वर्गणा होती है, और इस से भी अनन्त गुणी अधिक आहारकवर्गणा होती है। आहारकवर्गणा से अनन्तगुणी अधिक तेजसशरीरमाह्य वर्गगा होती है, और उस से भी अनन्तगुणी अधिक एकभाषामाह्य वर्गणा होती है। एकभापावर्गण से भी अनन्तगुणी अधिक एक श्वासोच्छासवर्गमा होती है, और उस से अनन्तगुणी अधिक एकमनोवर्गणा होती है, मनोवर्गणा से भी अनन्तगुणी अधिक कार्मणवर्गणा होती है। उस से भी अनन्त गुणा अधिक पुद्गल परमाणु के स्कन्ध समझने चाहिए । इस प्रकार कार्मणवर्गणा के अनन्त पुद्गल
કયા પ્રકારના સ્કંધ દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાય છે? - તે બતાવે છે–અભવ્યરાશિ ચુતેર (૭૪) વી છે. એ અભવ્ય રાશિના જીવોની અપેક્ષા અનંત ગુણ * અધિક પરમાણુ જે એકઠા થાય તે ઔદરિક શરીર ગ્રહણ કરી શકે તેવી વગણ હેય છે, ઔદારિક વગણની અપેક્ષા અનંત ગુણ-અધિક ક્રિયશરીરગ્રાહ્ય વર્ગ હે છે, અને તેનાથી પણ અનંત ગુણી અધિક એક આહારવગણ હોય છે. આહારકવર્ગણાથી અનન્ત ગુણ અધિક તેજસશરીરગ્રાહ્ય વર્ગણ હોય, તેનાથી પણ અનન્ત ગુણી અધિક એક ભાષા ગ્રાહ્ય વગણ હોય છે, અને તેનાથી અનંતગુણી અધિક એક શ્વાચ્છાસવર્ગણ હેય છે, અને તેનાથી અનન્તગુણી અધિક એક મનેવગણ હોય છે. મનોવર્ગથી પણ અનન્તગુણી અધિક કાર્મણવર્ગણ હોય છે. તેનાથી પણ અનન્ત ગુણી અધિક પગલપરમાણુના સ્કંધ સમજવા જોઈએ. એ પ્રમાણે કામણવર્ગણાના:
नसशरारग्राह्य वर्गणा होती है, और उस से भी अनन्तगुणी अधिक Wave
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पइद्रव्यविचारः वर्गणागतानन्तपुद्गलपरमाणुघटितस्कन्या जीवानो ग्राह्या भवन्ति । ___रागद्वेपरूपाशुद्धप्रवृत्त्याऽऽत्मनः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्तकर्मवर्गणा. अयोगोलकवद्भिवल्लोलीभूताः सन्ति, अत एवानन्तज्ञानादयो .गुणा जीवस्य तिरोहिता भवन्ति । एवं च जीवोपेक्षयाऽनन्तगुणाधिकाः पुद्गला ज्ञातव्याः। ते च पुद्गला रूपिणोऽचेतनाः सक्रियाः पूरणगलनस्वभावा वेदितव्याः। .
पद्रव्येषु सक्रिय-निष्क्रियविचार:- .. पडद्रव्येषु निश्चयनयेन सर्वाणि द्रव्याणि सक्रियाणि । व्यवहारनयतो धर्माधर्माकाशकालाख्यानि चत्वारि द्रव्याणि क्रियारहितानि । जीवपुद्गलौ सक्रियौ परमाणुओं से बने हुए स्कन्ध जीवों द्वारा ग्रहण करने योग्य होते हैं ।
___ राग और द्वेषरूप अशुद्ध प्रवृत्ति के कारण आत्मा के एक एक प्रदेश में अनन्तानन्त कर्मवर्गणाएँ इस प्रकार एकमेक हो रही है, जैसे लोहे का गोला और अग्नि एकमेक हो जाते हैं, इसी कारण जीव के अनन्त ज्ञान आदि गुण ढंक जाते हैं । इस प्रकार जीवों की अपेक्षा पुल अनन्त गुणा अधिक जानने चाहिए। ये पुद्गल-रूपी, अचेतन, सक्रिय, और पूरणगलनस्वभाववाले हैं ।
छह द्रव्यों में सक्रिय-निष्क्रियका विचारनिश्चय नय से छहों द्रव्य सक्रिय हैं, किन्तु व्यवहारनयसे धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाश और काल नामक चार द्रव्य क्रिया रहित हैं, जीव और पुद्ल द्रव्य सक्रिय અનન્ત પગલ પરમાણુઓથી બનેલા કંધ જે દ્વારા ગ્રહણ કરવા યોગ્ય હોય છે.
રાગ અને દ્વેષ ૫ અશુદ્ધ પ્રવૃત્તિના કારણે આત્માના એક–એક પ્રદેશમાં અનંતાનંત કર્મ વણાઓ એ પ્રમાણે એકમેક થઈ રહી છે કે-જેમ લેઢાને ગળે અને અગ્નિ એકમેક થઈ જાય છે, એ કારણથી જીવના અનંત જ્ઞાન આદિ ગુણ ઢંકાઈ જાય છે. એ પ્રમાણે છાની અપેક્ષા પુદગલ અનંતગુણા અધિક જાણવા જોઈએ. તે યુગલ, પી, અચેતન સક્રિય અને પૂરણગલનસ્વભાવવાળા છે.
છ દ્રામાં સક્રિય નિષ્ક્રિય વિચાર– 'નિશ્ચયનય પ્રમાણે છે દવે સક્રિય છે, પરંતુ વ્યવહારનયથી ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય આકાશ અને કાલ નામના ચાર દૂ કિયારહિત છે, જીવ અને प्र. आ.-१९
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आवारागसूत्र स्तः। निचयनयाद् धर्मास्तिकायो गतिपरितानां जीवपगलानां गति प्रति सहायदानरूपां क्रियाम् , अधर्मास्तिकायः स्थितिपरिणतजीवपुद्गलानां स्थिति पति सहायदानरूपां क्रियां करोति । तथैवाकाशोऽनकाशदानरूपां .क्रियां, कालय वर्तनारूपक्रिया जीवाजीयेषु विधत्ते । तथैव निश्चयेन जीवः स्वस्वरूपरमणरूप क्रियां करोति । यदि निश्चयनयेन शुभाशुभरूपविभावदशारमणात्मिकां क्रियां कुर्यात्तदाऽऽत्मा कदाप्यविचलपदं नाप्नुयात् , अतः स्वस्वरूपपरिणविरूपामेव क्रियां करोति । निश्चयनयेन पुद्गलोऽप्यनादिकालतः स्वपूरणगलनरूपां क्रिया समाचरति । तस्माद् निश्चयनयेन सर्वाणि द्रव्याणि सक्रियाणीति ज्ञातव्यम् ।
है । निश्चयनय से धर्मास्तिकाय, गतिपरिगत जीवों और पुदलों को गति में सहायकता देने की क्रिया करता है, और अधर्मास्तिकाय स्थितिपरिणत जीवों एवं पुद्गलोकी स्थिति में सहायता देनेकी क्रिया करता है। इसी प्रकार आकाश-अवगाहदानरूप किया करता है, और काल वर्तना आदि में सहायता पहुँचाता हैं । जीव निश्चयनय से निजस्वरूप-स्मणरूप क्रिया करता है । अगर निश्चय नय से जीत्र शुभ और अशुभ रूप विभावदशा में रमण करने की किया करे तो उसे अविचल पद की कदापि प्राप्ति नहीं हो सकती, अत एव जीव अपने स्वभाव में परिणतिरूप क्रिया ही करता है। निश्चय नय की अपेक्षा पुद्गल भी अनादि काल से पूरण गलन रूप क्रिया कर रहा है । इस प्रकार निश्रय नय से सभी द्रव्य सक्रिय है।
પુદગલ દ્રવ્ય સક્રિય છે. નિશ્ચયનયથી ધમસ્તિકાય, ગતિમાં પરિણત છે અને તે પુગલોની ગતિમાં સહાયતા કરવાની ક્રિયા કરે છે, અને અધર્માસ્તિકાય, રિથતિમાં પરિણત છે અને પુદ્ગલની સ્થિતિમાં સહાયતા દેવાની ક્રિયા કરે છે. એ પ્રમાણે આકાશ, અવગાહદાનરૂપ ક્રિયા કરે છે, અને કાલ વત્તના આદિમાં સહાયતા પહોંચાડે છે, જીવ નિશ્ચયનયથી નિજસ્વપ-રમણરૂપ ક્રિયા કરે છે. અગર નિશ્ચયનયથી જીવ શુભ અને અશુભરૂપ વિભાવદશામાં રમણ કરવાની ક્રિયા કરે છે તેને અવિચલ પદની પ્રાપ્તિ કદાપિ પણ થઈ શકે નહિ, એટલા કારણથી છવ પિતાના સ્વભાવમાં પરિણતિરૂપ ક્રિયા જ કરે છે, નિશ્ચયનયની અપેક્ષા એ પુદ્ગલ પણ અનાદિ કાલથી પૂરણ-ગલનરૂપ ક્રિયા કરે છે, એ પ્રમાણે નિશ્ચયનયથી સર્વ દૂબે સક્રિય છે,
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पद्रव्यविचारः
अधुना व्यवहारनयमाश्रित्योच्यते-~~ व्यवहारतो धर्माधर्माकाशकाला निष्क्रियाः, जीव-पुद्गलाश्च सक्रियाः । व्यवहारनयतो जीवो रागद्वेपरूपाशुद्धपरिणत्या प्रतिसमयमनन्तपुद्गलपरमाणुस्कन्धाऽऽदानक्रियां करोति। परमाणुपुद्गला अपि कर्मवर्गणारूपेण जीवस्य सर्वस्मिन् प्रदेशे संलग्ना भवन्ति, अतस्ते संश्लेपक्रियां पूरणगळनादिक्रियां च कुर्वन्ति, तस्माद् व्यवहारनयतो जीव-पुद्गलावेव सक्रियौ ।
पद्रव्यविपये कर्तृत्वाकर्तृत्वनिरूपणम्--- निचयनयेन पड् द्रव्याणि स्वस्वरूपकर्तृणि, तस्मात्तेपा कर्तृत्वमुपपद्यते । ___ अब व्यवहार नय की अपेक्षा से क पन किया जाता है-व्यवहारनय से धर्म अधर्म आकाश और काल क्रियारहित हैं, तथा जीव और पुद्गल सक्रिय हैं । व्यवहार नय से जीव राग-दूपरूप अशुभ परिणति के द्वारा प्रति समय अनन्त पुद्गल परमाणुओं के स्कन्धों को ग्रहण करने की क्रिया करता है। परमाणु पुद्गल भी फर्मवर्गणारूप में परिणत हो कर जीव के समस्त प्रदेशो में बद्ध होते हैं, अतः वह बन्धनरूप क्रिया करते हैं, और पूरण गलन आदि क्रिया भी करते हैं, इस प्रकार व्यवहार नय से जीव और पुद्गल ही सक्रिय हैं।
छह द्रव्यों का कर्तापन और अकर्तापननिय नय से छहों द्रव्य अपने २ स्वरूप के कर्ता हैं, अतः सभी द्रव्या में
હવે વ્યવહારનયની અપેક્ષાઓ કહેવાય છે–વ્યવહારનયથી ધર્મ અધર્મ આકાશ અને કાલ ક્રિયારહિત છે, તથા જીવ અને પુદગલ સક્રિય છે. વ્યવહારનયથી જીવ રાગદ્વેષરૂપ અશુભ પરિણતિ દ્વારા પ્રતિસમય અનન્ત પુદ્ગલ પરમાણુઓના ધોને ગ્રહણ કરવાની ક્રિયા કરે છે. પરમાણુ યુદગલ પણ કર્મચણરૂપમાં પરિણત થઈને જીવના સમસ્ત પ્રદેશોમાં બદ્ધ થઈ જાય છે (સર્વ પ્રદેશને ચૂંટી જાય છે, તેટલા કારણથી તે બંધનરૂપ ક્રિયા કરે છે, અને પૂરણુ-ગલન આદિ કિયા પણ કરે છે. એ પ્રમાણે વ્યવહારનયથી જીવ અને પુદ્ગલ જ સક્યિ છે.
કોનું કર્તાપણું અને અકર્તાપણું– નિશ્ચયનયથી છ દ્રવ્ય, પિતાપિતાના સ્વરૂપમાં કર્તા છે. તેથી સર્વ કામ
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आवाराम व्यवहारनपेन जीवस्य कर्ड, धर्मादिद्रव्यपश्चकस्याकर्तृत्वमिति ।
व्यवहारनयःव्यवहारनपः पड्डिधा-शुद्धाशुद्धशुभाशुमोपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र
(१) शुद्धव्यवहारनयः । यदि जीवः कर्ममलरूपाशुद्धता व्यपनीयाऽनन्तज्ञानादिगुण पशुद्धता मुपार्जयति तर्हि प्रथमशृद्धव्यवहारनयन जीवस्य कर्तृत्वं भवति । तयाहिशुद्धव्यवहारनयेन जीवो यदा शुद्धस्वरूपाननाय प्रयतते, तदा प्रथमगुणस्थाने फर्तापन सिद्ध होता है। व्यवहारनयसे जीव की है और शेष धर्म आदि पांच द्रव्य अकर्ता हैं।
व्यवहारनय
व्यवहार नय छह प्रकार का है-(१) शुद्ध व्यवहारनय, (२) अशुद्ध व्यवहारनय, (३) शुभ व्यवहारनय, (४) अशुभ व्यवहारनय, (५) उपचरित व्यवहारनय और (६) अनुपचरित व्यवहारनय ।
(१) शुद्ध व्यवहारनय-----
अगर जीव कर्ममलरूप अशुद्धता को हटाकर अनन्तज्ञानादिगुणरूप शुद्धता का उपार्जन करता है तो शुद्र व्यवहारनय से जीव में कर्तृत्व होता है। वह इस प्रकार शुद्र व्यवहार नय से नीच जब अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए કર્તાપણું સિદ્ધ થાય છે. વ્યવહારનયથી જીવ કર્તા છે અને બાકીના ધર્માદિ પાંચ દિ અકતો છે.
વ્યવહારનય-~ વ્યવહારનય છ પ્રકાર છે. (૧) શુદ્ધ વ્યવહારનય (ર) અશુદ્ધ વ્યવહારનય, शुल व्यपहारनय, (४) शुभ०५५२नय, (५) ६५यरित व्यपहारनय, (6) अनुपयरित વ્યવહારનય.
(१) शुध व्यपहारन4જીવ કર્મમલય અશુદ્ધતાને હઠાવીને અનંતજ્ઞાનાદિગુણ શુદ્ધતાને ઉપાર્જન કરે છે તો શુદ્ધ વ્યવહારનય પ્રમાણે જીવમાં કર્તુત્વ-કર્તાપણું હોય છે. તે આ પ્રમાણે શદ્ધ વ્યવહારનયથી જીવ પિતાના શુદ્ધ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરવા માટે પ્રયત્ન
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवदारनयः
१४९ ऽनन्तानुवन्धिकपायचतुष्टयं क्षपयित्वा चतुर्थ गुणस्थानं समासाद्य सम्यक्त्वगुणं लभते । अप्रत्याख्येयकपायचतुष्टयक्षयेण देशविरतिरूपं पञ्चमं गुणस्थानं प्राप्नोति । प्रत्याख्येयकपायचतुष्टयक्षयेण जीवस्य पष्ठसप्तमगुणस्थानयोः सर्वविरतिरूपयोरुपलब्धिर्भवति । यद्यप्टमगुणस्थानं लभ्यते तदा तत्र श्रेणिद्वयं समारुह्यते, उपशमश्रेणिः क्षपकणिश्च । तत्रोपशमश्रेण्याऽप्टमगुणस्थानादेकादशगुणस्थानं यावदध्यारोहति । क्षपण्या त्वष्टमादारभ्य दशमं यावत् समारुबैकादशं विहाय द्वादशं गुणस्थानं समारोहति । जीवस्तत्र रागद्वेपस्यमोहनीय. प्रयत्न करता है तब प्रथम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चार कपायाका क्षय करके चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त करता है और सम्यक्त्व गुण पा लेता है। चार अप्रत्याख्यानावरण कपायों का क्षय करके देशविरतिरूप पांचवा गुणस्थान प्राप्त करता है, और प्रत्याख्यानावरण कपाय-चतुष्टय के क्षय से जीव को सर्वविरतिरूप छठे और सात गुणस्थान की प्राप्ति होती है। जीव को यदि आठवां गुणस्थान प्राप्त होता है तो वहाँ से दो श्रेणियाँ आरम्भ होती हैं और जीव उन में से किसी एक श्रेणी पर आरुद्ध होता है। दो श्रेणिया है--उपशमनेगी, और क्षपकश्रेगी। उपशमश्रेणीवाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़ सकता है। क्षपकश्रेणीवाला जीव आठवें से दशवें गुणस्थान तक पहुँचकर ग्यारहवे को छोड़ कर सीधा बारहवं गुणस्थान पर आरुढ हो जाता है। जीव दश गुगस्थान के अन्त में रागद्वेषरूप मोहनीय कर्म का समूल नाम करके,
કરે છે, ત્યારે પ્રથમ ગુણસ્થાનમાં અનન્તાનુબંધી ચાર કલાને ક્ષય કરીને ચતુર્થ (ચોથું) ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, અને સમ્યકતવ ગુણ પામી જાય છે. ચાર અપ્રત્યાખ્યાનાવરણ કરીને ક્ષય કરીને દેશવિરતિરૂપ પાંચમું ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કપાય-ચતુષ્ટયના ક્ષયથી જીવને સર્વવિરતિરૂપ છઠ્ઠા અને સાતમા ગુણસ્થાનની પ્રાપ્તિ થાય છે. જીવને જો આઠમું ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે તે ત્યાંથી બે શ્રેણીઓને આરંભ થાય છે, અને જીવ એ બેમાંથી કેઇ એક શ્રેણી પર આઠ થાય છે. બે શ્રેણી આ પ્રમાણે છે-(૧) ઉપશમણી (૨) ક્ષપકશ્રેણી. ઉપશમણી વાળે જીવ અગિઆરમાં ગુણસ્થાન સુધી ચઢી શકે છે, ક્ષાકર્ણવાળો જીવ આઠમાથી દરામાં ગુણસ્થાન સુધી પહોંચીને અગિઆરમાં ગુણસ્થાને છેડીને સીધે બારમાં ગુણસ્થાન પર આરૂઢ થઈ જાય છે. જીવ દસમા ગુણસ્થાનના અંતમાં
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आचारायचे
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कर्म समूलमुन्मूल्य धातिकर्माणि क्षपयित्वा त्रयोदश गुणस्थानमारोहति । त्रयोदशे गुणस्थाने निर्मलकेवलज्ञानं मामोति । तदनन्तरं पञ्चलध्वक्षरोचारणकालस्थितिकं चतुर्दशगुणस्थानं संप्राप्य निःशेषकर्मनिचयं क्षपयित्वाऽसौ शिवपदं संप्रामोति । । इति जीवस्य शुद्धस्वरूपनिरूपकः शृद्धव्यवहारनयः ।
(२) अशुद्धव्यवहारनयः
अशुद्धव्यवहारयेन
रागद्वेपमिथ्यात्वादयोऽनादिकालतः
शत्रुरूपेण
जीवे संलग्नाः सन्ति, तस्माज्जीवस्याशुद्धस्त्रं ज्ञेयम् । अशुद्धत्वेन च प्रतिसमयऔर बारहवें गणस्थान में शेष तीन घाति कर्मों का क्षय करके तेरहवें गुणस्थान में पहुंचता है । इस गुणस्थान में ( बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ) जीव को निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होता है । तेरहवें गुणस्थान के बाद पांच हूस्व स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ) उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें गुणस्थान में ठहर कर समस्त कर्मों का क्षयकर के मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
जीवके शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाला यह शुद्ध व्यवहारनय है ।
(२) अशुद्ध व्यवहारनय
अशुद्ध व्यवहारनय से राग-द्वेप और मिध्यात्व आदि अनादि काल से शत्रुको तरह जीव के साथ लगे हुए हैं, इसी कारण जीव में अशुद्धता है । इस भशुद्धता के રાગ-દ્વેષરૂપ માહનીય કાઁના સમૂળગા નાશ કરીને અને ખારમા ગુણસ્થાનમાં શેષ ત્રણ ઘાતીકનિ ક્ષય કરીને તેરમા ગુણસ્થાનમાં પહોંચે છે. એ ગુણુસ્થાનમાં ( ખારમા ગુણુસ્થાનના અંતિમ સમયમાં) જીવને નિમલ કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. तेरभा शुशुस्थान पछी यांय स्त्र स्वर- (म-र्ध---) या रतांबो સમય લાગે છે, તેટલેા સમય ચૌદમા ગુરુસ્થાનમાં થેાલીને સમસ્ત કર્મના ક્ષય કરીને મેાક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે.
જીવના શુદ્ધ સ્વરૂપને ગ્રહણ કરવા વાળો આ શુદ્ધ વ્યવહાર નય છે.
(२) अशुध्ध व्यवहारनय
અશુદ્ધ વ્યવહારનયથી રાગ-દ્વેષ અને મિથ્યાત્વ આદિ અનાદિ-કાલથી શત્રુની માર્ક જીવની સાથે લાગ્યાં છે, એ કારણથી જીવમાં અશુદ્ધતા છે. એ અશુદ્ધતાના
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आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा व्यवहारनयः
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मनन्तानन्तकर्मवर्गणाः सत्तारूपेणावगुण्ठिता भवन्ति । एवं चाशुद्धव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तृत्वं सिध्यति ।
(३) शुभव्यवहारनयः —
शुभव्यवहारनयेनात्मा शुभपरिणामतो दानशीलतपोभाव विनयभक्तिवैयावृत्त्यं, श्रमणनिर्ग्रन्यानां मासुकमेपणीयमशनपानखाद्यस्वाद्यवस्त्रकम्बलप्रतिग्रहपादमोञ्छनप्रातिहार्यपीठफलकशय्यासंस्तारकौषधभैषज्यमतिलाभरूपं सुपात्रदानं त्रियमाणजीवरक्षणरूपमभयदानं हीनदीन निःसत्रजीवानां साहाय्यं, साधर्मिक वात्सल्यं, परहितचिन्तारूपां मैत्री, परदुःखनिवारणेच्छारूपां करुणां निःस्वार्थपरोपकारादिकां च कारण प्रतिसमय अनन्तानन्त कर्मवगणाएँ सत्तारूप से बद्ध होती रहती है । इस प्रकार अद्र व्यवहारनय से जीव को कर्ता समझना चाहिए ।
}
(३) शुभ व्यवहारनय
शुभ व्यवहारनय से आत्मा शुभपरिणामद्वारा दान, शील, तप, भाव, विनय, भक्ति, वैयावृत्य रूप शुभक्रिया करता है, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय - अशन पान खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, कम्बल, पात्र, पादप्रच्छन, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध, भेषज का सुपात्रदान देता है । मरते हुए जीव की रक्षारूप अभयदान देता है, हीन दीन और निर्बल जीवों की सहायता करता है । साधर्मी के प्रति वात्सल्य प्रकट करता है, परहितचिन्तनरूप मैत्री भावना, दूसरों का दुःखनिवारणरूप करुणा
કારણે પ્રતિસમય અનન્તાનન્ત કર્મ વણાએ સત્તારૂપથી બદ્ધ થતી રહી છે. આ પ્રમાણે અશુદ્ધ વ્યવહારનયથી છત્રને કર્તા સમજવા જોઈએ.
(3) शुभ व्यवहारनय
शुल व्यवहारनयथी आत्मा हान, शील, तय, लाव, विनय, लड़ित वैयावृत्य ३५ शुल ठिया रे छे. श्रमानिर्थन्थाने आयुः शेषाशीय -अशन, पान, पाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, अभ्णस, पात्र, पाइप्रोछन, पडिहारी थी, इस शय्या, सस्तार, ઔષધ, ભેષજનું સુપાત્ર દાન આપે છે, મરતા જીવની રક્ષારૂપ અભયદાન આપે છે, હીનદીન અને નિર્ભીલ જીવેાની સહાયતા કરે છે; સાધર્મીના ઉપર વાત્સલ્ય પ્રગટ કરે છે, .પરહિતચિન્તનરૂપ મૈત્રીભાવના, ખીજાના દુઃખનિવારણુરૂપ કા તથા નિઃસ્વાથૅ
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आचारायचे शुभक्रियां करोति, तेन शुभव्यबहारनयेन जीवस्य कर्तृत्व जायते ।
(४) अनुमन्याहारनय:--- अशुभन्यबहारनयेन जीयो हास्य-भय-शोफ-रत्य-रति-निद्रा-प्राणातिमातमृपावादा-दत्तादान-मथुन-परिग्रह -क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेषादिषु प्रवर्तते । विषयसुखारम्भादिरूपामगुममियां च करोति तेनाऽशुभन्यवहारनयतो जीवस्य कर्तृलं सिध्यति ।
(५) उपचरितव्यवहारनयः-- उपचरितव्यवहारनयेन जीवो निजमजरामरत्वमनन्तज्ञानदर्शनमच्यावाधतथा निःस्वार्थ परोपकार आदिरूप शुभक्रिया करता है, अतः शुम व्यवहारनय से ___जीव का कर्तापन सिद्ध होता है।
____ (४) अशुभ व्यवहारनय-~अशुभ व्यवहारनय से जीव हास्य, भय, शोक, रति, अरति, निद्रा, प्राणाति पात, मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेप, भादि अशुभ कार्यों एवं भावों में प्रवृत्त होता है, तथा विषयसुख एवं आरम्भ आदि रूप अशुभ किया करता है, अतः अशुभन्यवहारनय से जीच कर्ता सिद्ध होता है।
(५) उपचरित व्यवहारनयउपचरित व्यवहार नय से जीव अपने अजरता अमरता तथा अनन्त ज्ञान પપકાર આદિપ શુભ ક્રિયા કરે છે, તે કારણથી શુભ વ્યવહારનયથી જીવનું કતપણું સિદ્ધ થાય છે.
(४) अशुभ व्यपहारनय~गशुल व्यवहारनयथी ७ स्य, भय, ४, २ति, मरति,निद्रा, प्रातिपात, भपापा, मताहान, भैथुन, परियड ओध, मान, भाया, सोल,
मालि અશુભ કાર્યો એવ ભામાં પ્રવૃત્ત થાય છે,' વિષયસુખ એવં આરંભ આદિપ અશુભ ક્રિયા કરે છે, તેથી અશુભ વ્યવહારનયથી જીવ કર્તા સિદ્ધ થાય છે. •
(५) उपन्यरित व्यवहार-य-. . . ઉપચરિત વ્યવહારનયથી. જીવ પિતાના અજર અમર તથા અનંતજ્ઞાન, દર્શન
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१५३ मुखादिरूपं शुद्धस्वरूपं विस्मृत्य पौद्गलिकविभावपरिणामेऽनन्तदुःखजनकेऽनन्तानन्दमनुमवति, मोहवशेन वाद्यवस्तुपु ममत्वभावं कुरुते। यथा-"इदं मम गृहम् , इमे मम पुत्राः, इमा मम दाराः, इमे मम परिवाराः, इदं मम सर्व धनजनादिकम्"। इत्यं विपरूपं विपयं पीयूपं मन्यमानो विपर्यकतानो क्षणमात्रसुखजनकान् बहुकालदुःखदान् कामभोगान् भुत्रानो विषयमृगतृष्णां पुनः पुनर्धावमानो दीर्घावसंसारे क्षणमपि विश्रान्ति न लभते । ममेति कुर्वनयं जीवः पुत्रदारादीनां मुखेन सुखं, दुःखेन दुःखं मन्यमानस्तदर्थ व्यर्थमेव शोकमनुभवति, तदर्थ प्राणनाशमपि कर्तु समुद्यतो भवति । अनात्मीयमपि स्वीयं मन्यमानो नानाविधपापकार्यकरणेन
दर्शक तथा अन्यावाधमुखरूप शुद्ध स्वरूप को भूल कर पौगलिक विभाव परिणाम में जो अनन्त दुःखों का जनक है अनन्त आनन्द मानता है। मोह के वशीभूत हो कर बाह्य वस्तुओं में ममन्य धारण करता है, जैसे- "यह मेरा घर है, ये मेरे पुत्र हैं, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे कुटुम्बी है, ये सब धन-जन आदि मेरे हैं"। इस प्रकार के विपरूप विपयों को अमृत मानता हुआ, विषयों में तन्मय हो कर, क्षण भर सुख देने वाले और दीर्घकाल तक दुःख देने वाले काम-भोगों को भोगता हुआ, विषयों की मृगतृष्णा की तरफ वारंवार दौडता हुआ. इस दीर्घमार्गवाले संसार में क्षण भर भी विश्राम नहीं पाता है। मेरे मेरे करता हुआ यह जीव, पुत्र और पत्नी वगैरह के मुख में सुख और दुःख में दुःख मानता हुआ व्यर्थ ही उन के लिये शोक करता है, यहाँ तक की उन के लिए प्राणों का नाश तक करने को उद्यत हो जाता है। यह
તથા અવ્યાબાધ સુખરૂપ શુદ્ધ સ્વરૂપને ભૂલી જઇને પૌગલિક વિભાવ પરિણામમાં કે જે અનંત દુઃખને જનક (ઉત્પન્ન કરનાર) છે. તેમાં અનંત આનંદ માને છે, મોહને વશ થઈને બહારની વસ્તુઓમાં મમત્વ ધારણ કરે છે, જેમકે–“આ ઘર મારૂં છે; આ મારા પુત્ર છે, આ મારી સ્ત્રી છે, આ મારૂં કુટુંબ છે, આ સર્વ ધન-જન વગેરે મારું છે એ પ્રમાણે વિષય-વિષયોને અમૃતરૂપ માનીને, વિષમાં તન્મય થઈને ક્ષણમાત્ર સુખ આપવાવાળા અને લાંબા કાલ સુધી દુઃખ આપવાવાળા ભેગને ભેગવતે થક, વિષયોની મૃગતૃષ્ણા તરફ વારંવાર દેતે થકે આ લાંબા માર્ગવાળા સંસારમાં ક્ષણ માત્ર પણ વિશ્રામ પામતે નથી. મારા-મારા કરતે આ જીવ, પુત્ર અને પત્ની વગેરેના સુખમાં સુખ અને દુખમાંદુઃખ માનતે થકે તેના માટે નકામો શેક કરે છે–ત્યાં સુધી કે તેના માટે પ્રાણને નાશ કરવા તૈયાર થઈ જાય છે. આ જીવ પરને પિતાનું સમજીને નાના પ્રકારનાં
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सूत्रे
त्मानमुद्ध न शक्रोति | अविक्षाय च स्वकृतकर्मभारं दुरन्तसंसारमहागर्वपतनं च मुहुर्मुहुस्तादृशान्येव कर्माणि कुर्वन्ति संसारिणः । एवमात्मनोऽत्पन्वभिन्नं शरीरमेव स्वस्वरूपं मत्वा तत्पृष्टिरक्षणार्थं क्रियमाणया क्रियया जीवस्यानुपचरितव्यवहारनयेन कर्तृत्वं सिध्यति । उक्तरीत्या पडविधव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तृत्वं विज्ञेयम् ।
जीवस्वरूप सदृशासदृशविचारः ---
ननु सर्वेषां जीवानां स्वरूपं लक्षणं च सदृशमेव, तर्हि संसारिणी दुःखिनः, सिद्धास्तु सुखिन इति कथम् ? उच्यते-- निश्चयनयेन तु सर्वे जीवाः
में असमर्थ चन जाता है, मगर कर, तथा संसाररूपी महागर्त के लगते है । इस प्रकार आत्मा पोषण और रक्षणके लिए की कर्ता सिद्ध होता है । इस तरह
कर्ता समझना चाहिए ।
संसारी जीव अपने किये कर्मों के भार को न समझ पतन को न जानकर फिर-फिर वैसे ही कर्म करने से भिन्न शरीर को ही अपना स्वरूप समझ कर उसके जानेवाली क्रियासे जीव अनुपचारित व्यवहारनयकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकार से छह तरह के व्वहारनय से जीवको
जीवके स्वरूप में सदृश-विसदृश विचार-~~-~
प्रश्न --- अगर सब जीवोंका स्वरूप और लक्षण समान ही है तो संसारी जीव दुःखी और सिद्ध सुखी क्यों हैं ।
उत्तर -- निश्चय नयसे सभी जीव सिद्धोंके समान ही हैं । उन में से जो जीव સૌંસારી જીવ પોતાનાં કરેલાં કર્મોના ભારને સમજતા નથી, તથા સંસારરૂપી મહાગતમાં પડ્યો છે તે તેને જાણતા નથી. તેથી કુરી-ફરી તેવાં કર્મો કરવા લાગે છે. એ પ્રમાણે આત્માથી ભિન્ન શરીરને જ પોતાનું સ્વરૂપ સમજીને તેનાં પૈણુ તથા રક્ષણ માટે કરવામાં આવતી ક્રિયાથી જીવ અનુપથ્થરત વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ કર્તા સિદ્ધ થાય છે. એ પ્રમાણે પૂર્વ કહેલા પ્રકારથી છ પ્રકારના વ્યવહારનયથી જીવને કન્હેં સમજવે જોઈ એ.
જીવના સ્વરૂપમાં સદેશ-વિસદશ વિચાર
પ્રશ્ન-અગર સર્વ જીવેાતું સ્વરૂપ અને લક્ષણ સમાનજ છે તે પછી સ'સારી જીવ દુઃખી અને સિદ્ધ જીવ સુખી કેમ છે? ઉત્તર-નિશ્ચયનયથી સર્વ જીવે સિદ્ધોની સમાન છે. તેમાંથી
તમામ
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१५३ मुखादिरूपं शुद्धस्वरूपं विस्मृत्य पौलिकविभावपरिणामेऽनन्तदुःखजनकेऽनन्तानन्दमनुमवति, मोहवशेन वाद्यवस्तुपु ममत्वभावं कुरुते । यथा-"इदं मम गृहम् , इमे मम पुत्राः, इमा मम दाराः, इमे मम परिवागः, इदं मम सर्व धनजनादिकम् । इत्थं विपरूपं विपयं पीयूपं मन्यमानो विषयकतानो क्षणमात्रसुखजनकान् बहुकालदुःखदान् कामभोगान् भुञ्जानो विपयमृगतृष्णां पुनः पुनर्धावमानो दीर्घावसंसारे क्षणमपि विश्रान्ति न लभते । ममेति कुर्वनयं जीवः पुत्रदारादीनां सुखेन सुखं, दुःखेन दुःखं मन्यमानस्तदर्थ व्यर्थमेव शोकमनुभवति, तदर्थ प्राणनाशमपि कर्तु समुद्यतो भवति । अनात्मीयमपि स्वीयं मन्यमानो नानाविधपापकार्यकरणेन
दर्शक तथा अव्यावाधसुखरूप शुद्ध स्वरूप को भूल कर पौगलिक विभाव परिणाम में जो अनन्त दुःखों का जनक है अनन्त आनन्द मानता है। मोह के वशीभूत हो कर बाह्य वस्तुओं में ममाव धारण करता है, जैसे- "यह मेरा घर है, ये मेरे पुत्र हैं, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे कुटुम्बी है, ये सब धन-जन आदि मेरे हैं" । इस प्रकार के विपरूप विषयों को अमृत मानता हुआ, विषयों में तन्मय हो कर, क्षण भर सुख देने वाले और दीर्घकाल तक दुःख देने वाले काम-भोगों को भोगता हुआ, विषयों की मृगतृष्णा की तरफ वारंवार दौडता हुआ, इस दोर्धमार्गचाले संसार में क्षण भर भी विश्राम नहीं पाता है। मेरे मेरे करता हुआ यह जीव, पुत्र और पत्नी वगैरह के सुख में सुख और दुःख में दुःख मानता हुआ व्यर्थ ही उन के लिये शोक करता है, यहाँ तक की उन के लिए प्राणों का नाश तक करने को उद्यत हो जाता है। यह
તથા અવ્યાબાધ સુખપ શુદ્ધ સ્વરૂપને ભૂલી જઇને પૌગલિક વિભાવ પરિણામમાં કે જે અનંત દુઃખે જનક (ઉત્પન્ન કરનાર) છે. તેમાં અનંત આનંદ માને છે, મોહને વશ થઈને બહારની વસ્તુઓમાં મમત્વ ધારણ કરે છે, જેમકે-“આ ઘર મારું છે, આ મારા પુત્ર છે, આ મારી સ્ત્રી છે, આ મારૂં કુટુંબ છે, આ સર્વ ધન-જન વગેરે મારું છે એ પ્રમાણે વિષ૫-વિષયને અમૃતરૂપ માનીને, વિષયમાં તન્મય થઈને ક્ષણમાત્ર સુખ આપવાવાળા અને લાંબા કાલ સુધી દુખ આપવાવાળા ભેગને ભગવતે થકો, વિષયેની મૃગતૃeણ તરફ વારંવાર દોડતે થકે આ લાંબા માર્ગવાળા સંસારમાં ક્ષણ માત્ર પણ વિશ્રામ પામતો નથી. મારા-મારા કરતે આ જીવ, પુત્ર અને પત્ની વગેરેના સુખમાં સુખ અને દુઃખમાં– દુઃખ માનતે થકે તેના માટે નામ શોક કરે છે–ત્યાં સુધી કે તેના માટે પ્રાણને નાશ કરવા તૈયાર થઈ જાય છે. આ જીવ પરને પિતાનું સમજીને નાના પ્રકારનાં
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'आचासत्रे
त्मानमुद्धर्त्ते न शक्रोति । अविज्ञाय च स्वकृतकर्ममारं दुरन्तसंसारमहागतपतनं मुहुर्मुहस्तादृशान्येव कर्माणि कुर्वन्ति संसारिणः । एवमात्मनोऽस्यन्तभिन्नं शरीरमेव स्वस्वरूपं मत्वा तत्पृष्टिरक्षणाद्यर्थं क्रियमाणया क्रियया जीवस्यानुपचरितव्यवहारनयेन कर्तृत्वं सिध्यति । उक्तरीत्या पविधव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तृत्वं विज्ञेयम् ।
जीवस्वरूपे सदृशासदृशविचारः---
ननु सर्वेषां जीवानां स्वरूपं लक्षणं च सदृशमेव, तहिं संसारिणो दुःखिनः, सिद्धास्तु सुखिन इति कथम् ? उच्यते - निश्रयनयेन तु सर्वे जीवाः
में असमर्थ बन जाता है, मगर कर, तथा संसाररूपी महागर्त के लगते हैं । इस प्रकार आत्मा से
संसारी जीव अपने किये कर्मों के भार को न समझ पतन को न जानकर फिर-फिर वैसे ही कर्म करने भिन्न शरीर को ही अपना स्वरूप समझ कर उसके पोषण और रक्षण के लिए की जानेवाली कियासे जीव अनुपचारित व्यवहारनयकी अपेक्षा कर्ता सिद्ध होता है । इस तरह पूर्वोक्त प्रकार से छह तरह के व्यहारनय से जीवको फर्ता समझना चाहिए ।
जीवके स्वरूप में सदृश-विसदृश विचार-
प्रश्न -- अगर सब जीवोका स्वरूप और लक्षण समान ही है तो संसारी जीव दुःखी और सिद्ध सुखी क्यों है ।
उत्तर --- निश्चय नयसे सभी जीव सिद्धोंके समान ही हैं। उन में से जो जीव સસારી જીવ પેાતાનાં કરેલાં કર્મોના ભારને સમજતે નથી, તથા સૌંસારરૂપી મહાગમાં પડયો છે તે તેને જાણુ નથી, તેથી ફરી-ફરી તેવાં કર્મો કરવા લાગે છે. એ પ્રમાણે આત્માથી ભિન્ન શરીરને જ પોતાનું સ્વરૂપ સમજીને તેનાં પોષણુ તથા રક્ષણ માટે કરવામાં આવતી ક્રિયાથી જીવ અનુપરિત વ્યવહારનયની અપેક્ષાએ કાં સિદ્ધ થાય છે. એ પ્રમાણે પૂર્વે કહેલા પ્રકારથી છ પ્રકારના વ્યવહારનયથી જીવને કર્તો સમજવા જોઈ એ.
જીવના સ્વરૂપમાં સદેશ-વિસદશ વિચાર્
પ્રશ્ન અગર સર્વ જીવાતું સ્વરૂપ અને લક્ષણુ સમાનજ છે તે પછી સસારી જીવ દુ:ખી અને સિદ્ધ જીવ સુખી કેમ છે ?
ઉત્તર-નિશ્ચયનયથી સર્વ જીવેા સિદ્ધોની સમાન છે. તેમાંથી જે જીવ તમામ
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१५७ सिद्धसदृशा एव, तत्र ये सकलं कर्म क्षपयन्ति ते सर्वे जीवाः सिद्धा भवंति, तस्मात् सर्वेपामेकैव सत्ता विद्यते । यदि सर्वे सिद्धसदृशास्तईि कथमभव्यजीवैः सिद्धगतिभाग्भिन भूयते ? इति श्रूयताम्
अभव्यजीवानामनाद्यनन्तचिकणकर्मसंवन्धात्, परावर्तस्वभावाभावाच्च कर्मक्षपणशक्तिर्नास्ति, भव्यानां तु तादृशचिकणकर्माभावात् , परावर्तस्वभावसद्भावाच देवगुरुधर्मसामग्रीसत्वे ज्ञानादिरत्नत्रयसमाराधनेन, गुणश्रेणिसमारोहणेन च सिद्धपदं लल्धुं शक्यम् । समस्त कमीका क्षय कर डालते हैं वे सब सिद्ध कहलाते हैं। उनका असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। संसारी जीव कर्म के अधीन होने के कारण दुःखी होते हैं। इस प्रकार यद्यपि प्रत्येक जीव की सत्ता पृथक्-पृथक् है, तथापि उन में स्वरूप की समानता है।
'प्रश्न-यदि समस्त जीव सिद्धो के समान हैं तो अभव्य जीव सिद्रिगति क्यों प्राप्त नहीं करते?
उत्तर-मुनिये, अभव्य जीवों में अनादि अनन्त चिकने कर्मों के सम्बन्ध से और अपरिवर्तनशील स्वभाव के कारण कर्मों का क्षय करने की शक्ति नहीं है । भत्र्य जीवों के वैसे चिकने कर्मों के न होने से, और परावर्त स्वभाव से, देव गुरु और धर्मरूप सामग्रीके मिलने पर · ज्ञानादिरत्नत्रय की आराधना करने से, तथा गुणश्रेणी पर आरोहण करने से उनको सिद्धपद प्राप्त करना शक्य है। કર્મોને ક્ષય કરી નાંખે છે, તે સર્વે સિદ્ધ કહેવાય છે. તેનું અસલી સ્વરૂપે પ્રગટ થઈ જાય છે. સંસારી જીવ કર્મને આધીન રહેવાના કારણે દુખી હોય છે. એ પ્રમાણે જો કે પ્રત્યેક જીવની સત્તા પૃથ–પૃથફ-જુદી જુદી છે, તે પણ તેનામાં સ્વરૂપની સમાનતા છે.
પ્રશ્ન–જે સર્વ જીવ સિદ્ધોની સમાન છે તે અભવ્ય જીવ સિદ્ધગતિને કેમ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી?
ઉત્તર-સાંભળે, અભય જેમાં અનાદિ-અનંત ચિકણું કર્મોને સંબંધ હોવાથી અને અપરિવર્તનશીલ સ્વભાવના કારણે કર્મોને ક્ષય કરવાની શક્તિ નથી; ભવ્ય જીને તેવાં ચીકણાં કર્મ ન હોવાથી અને પરાવર્ત–સ્વભાવથી દેવ, ગુરુ અને ધર્મરૂપ સામગ્રીના મળવા પર, જ્ઞાનાદિ રત્નત્રની આરાધના કરવાથી, તથા ગુણ શ્રેણી પર આરોહણ કરવાથી તેઓને સિદ્ધપદ પ્રાપ્ત કરવું શક્ય છે.
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• आचाराम
सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमपरवाय, (मू. १)
(छापा) श्रुतं मया आयुप्मन् ! तेन भगवता एरमाख्यातम् (म. १)
टीका'मुयं मे ' इत्यादि । आयुप्मन् ! हे चिरजीविन ! जम्बूः! आयुष्म नितिपदं शिप्यस्य जम्बूस्वामिनः कोमळवचनामन्त्रणं विनीतताख्यापनार्थम् । किञ्च-तस्याशेपश्रुतज्ञानोपदेश-श्रवण-ग्रहण - धारण - रत्नत्रयाराधन - मोक्षसाधनयोग्यताप्रास्यर्थमेतद्वचनम् । विनाऽऽयुपा श्रुतश्रवणादिमोक्षपर्यन्तसिद्धिन कस्यचित्सभवतीति भावः । एतद्वचनप्रभावादेव जम्यूस्वामी मोक्षपदं तस्मिन्नेव जन्मनि माप।
मूलार्थ-'मुयं में' इत्यादि, हे आयुष्मन् ! मैने सुना है। उन भगवान्ने ऐसा कहा है (सू० १)
टीकार्थ-हे आयुष्मन् ! अर्थात् हे चिरंजीवी जम्बू, 'आयुष्मन्' पद अपने शिष्य जम्बू स्वामीका कोमल वचनरूप सम्बोधन है, और विनीतता प्रकट करने के लिए है। अथवा उनके समस्त श्रतज्ञान, उपदेश का श्रवण, ग्रहण धारण, रत्नत्रयका आराधन, तथा मोक्षसाधन की योग्यता की प्राप्ति के लिए इस पद का प्रयोग किया गया है। आयुक अभाव में श्रुतश्रवण से लेकर मोक्ष तक किसीकी भी सिद्धि नहीं हो सकती। इसी वचन के प्रभाव से जम्बू स्वामीने उत्ती भव में मोक्ष प्राप्त किया था।
'सुर्य मे' त्या . મૂલાઈ – આયુષ્યનું મેં સાંભળ્યું છે, તે ભગવાને આવું કહ્યું છે (-૧)
ટીકાથ– હે આયુશ્મન અર્થાત્ હે ચિરંજીવી જખ્ખ !, “આયુષ્યન’ પદ પિતાના શિષ્ય જન્મે સ્વામીનું કેમલ-વચનરૂપ સંબંધન છે, અને વિનીતપણું પ્રગટ કરવા માટે છે. અથવા તેમના સમસ્ત શ્રુતજ્ઞાન, ઉપદેશનું શ્રવણ, ગ્રહણું, ધારણ, રત્નત્રયનું આરાધન તથા શસાધનની એગ્યતાની પ્રાપ્તિ માટે આ પદને પ્રવેગ કરવામાં આવ્યું છે, આયુના અભાવમાં કૃતના શ્રવણથી લઈને મોક્ષ સુધી કઈ પણ સિદ્ધિ થઈ શકતી નથી આ વચનના પ્રભાવથી જન્મે સવામીએ એ ભવમાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો હતે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवहारनयः सिद्धसदृशा एक, तत्र ये सकलं कर्म क्षपयन्ति ते सर्वे जीवाः सिद्धा भवंति, तस्मात् सर्वेपामेकैव सत्ता विद्यते । यदि सर्वे सिद्धसदृशास्तहि कथमभव्यजीवैः सिद्धगतिभाग्भिन भूयते ? इति श्रूयताम्
अभव्यजीवानामनाधनन्तचिकणकर्मसंबन्धात्, परावर्तस्वभावाभावाच कर्मक्षपणशक्तिर्नास्ति, भव्यानां तु तादृशचिकणकर्मामावात् , परावर्तस्वभावसद्भावाच देवगुरुधर्मसामग्रीसत्वे ज्ञानादिरत्नत्रयसमाराधनेन, गुणश्रेणिसमारोहणेन च सिद्धपदं लब्धुं शक्यम् । समस्त कर्मीका क्षय कर डालते हैं वे सब सिद्ध कहलाते हैं। उनका असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। संसारी जीव कर्म के अधीन होने के कारण दुःखी होते हैं। इस प्रकार यद्यपि प्रत्येक जीव की सत्ता पृथक्-पृथक् है, तथापि उन में स्वरूप की समानता है।
प्रश्न-यदि समस्त जीव सिद्धों के समान है तो अभव्य जीव सिद्धिगति क्यों प्राप्त नहीं करते ?
उत्तर-मुनिये, अमन्य जीवों में अनादि अनन्त चिकने कर्मों के सम्बन्ध से और अपरिवर्तनशील स्वभाव के कारण कर्मों का क्षय करने की शक्ति नहीं है। भव्य जीवों के वैसे चिकने कर्मों के न होने से, और परावर्त स्वभाव से, देव गुरु और धर्मरूप सामग्रीके मिलने पर ज्ञानादिस्नत्रय की भाराधना करने से, तथा गुणश्रेणी पर आरोहण करने से उनको सिद्धपद प्राप्त करना शक्य है। કર્મોનો ક્ષય કરી નાખે છે, તે સર્વે સિદ્ધ કહેવાય છે. તેનું અસલી સ્વરૂપે પ્રગટ થઈ જાય છે. સંસારી જીવ કર્મને આધીન હોવાના કારણે દુઃખી હોય છે. એ પ્રમાણે જો કે પ્રત્યેક જીવની સત્તા પૃથ-પૃથફ-જૂદી જૂદી છે, તે પણ તેનામાં સ્વરૂપની समानता छे.
પ્રશ્ન-જે સર્વ જીવ સિદ્ધોની સમાન છે તો અભવ્ય જીવ સિદ્ધગતિને કેમ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી ?
ઉત્તર-સાંભળે, અભવ્ય જેમાં અનાદિ-અનંત ચિકણું કર્મોને સંબંધ હોવાથી અને અપરિવર્તનશીલ સ્વભાવના કારણે કર્મોને ક્ષય કરવાની શક્તિ નથી; ભવ્ય જીને તેવાં ચીકણું કર્મ ન હોવાથી અને પરાવર્ત–વભાવથી દેવ, ગુરુ અને ધર્મરૂપ સામગ્રીને મળવા પર, જ્ઞાનાદિ રત્નત્રયની આરાધના કરવાથી, તથા ગુણ શ્રેણી પર આરોહણ કરવાથી તેઓને સિદ્ધપદ પ્રાપ્ત કરવું શક્ય છે.
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आचारासो
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सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं, (सू. १)
' (छाया) श्रुतं मया आयुप्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् (स. १)
टीका'सुयं मे' इत्यादि । आयुष्मन् ! हे चिरजीविन ! जम्यूः ! ' आयुष्म'नितिपदं शिप्यस्य जम्बूस्वामिनः कोमळवचनामन्त्रणं विनीतताख्यापनार्थम् । किञ्च-तस्याशेपश्रुतज्ञानोपदेश-श्रवण-ग्रहण - धारण - रत्नत्रयाराधन - मोक्षसाधनयोग्यतामात्यर्थमेतद्वचनम् । विनाऽऽयुपा श्रुतश्रवणादिमोक्षपर्यन्तसिद्धिन कस्यचित्सभवतीति भावः । एतद्वचनप्रभावादेव जम्बूस्वामी मोक्षपदं तस्मिन्नेव जन्मनि
प्राप।
मूलार्थ-'सुयं मे इत्यादि, हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है। उन भगवान्ने ऐसा कहा है ( सू० १)
टीकार्थ-हे भायुष्मन् ! अर्थात् हे चिरंजीवी जम्बू!, 'आयुष्मन्' पद अपने शिष्य जम्बू स्वामीका कोमल वचनरूप सम्बोधन है, और विनीतता प्रकट करने के लिए है । अथवा-उनके समस्त तज्ञान, उपदेश का श्रवण, ग्रहण धारण, रत्नत्रयका आराधन, तथा मोक्षसाधन की योग्यता की प्राप्ति के लिए इस पद का प्रयोग किया गया है। आयुक अभाव में श्रुतश्रवण से लेकर मोक्ष तक किसीकी भी सिद्धि नहीं हो सकती। इसी वचन के प्रभाव से जम्बू स्वामीने उसी भव में मोक्ष प्राप्त किया था ।
'सुयं मे' त्यादि. મૂલાથ– આયુષ્યન્ ! મેં સાંભળ્યું છે તે ભગવાને આવું કહ્યું છે (સૂ-૧)
ટીકાથ હે આયુષ્યન અર્થાત હૈ ચિરંજીવી જબૂ!, “આયુષ્મન ' પદ પિતાના શિષ્ય જખ્ખ સ્વામીનું કેમલ-વચનરૂપ સંબધન છે, અને વિનીતપણું પ્રગટ કરવા માટે છે. અથવા તેમના સમસ્ત કૃતજ્ઞાન, ઉપદેશનું શ્રવણ, ગ્રહણ, ધારણ, રત્નત્રયનું આરાધન તથા મેક્ષસાધનની એગ્યતાની પ્રાપ્તિ માટે આ પદને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યો છે, આયુના અભાવમાં શ્રતના શ્રવણથી લઈને મોક્ષ સુધી કોઈ પણ સિદ્ધિ થઈ શકતી નથી આ વચનના પ્રભાવથી જમ્મુ સ્વામીએ એ ભવમાં મેક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો હતે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ ३.१ सु. १ भगवच्छन्दार्थः
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श्रुतं श्रवणविपयीकृतं मया= साक्षाद् भगवन्मुखात्, न तु परम्परया, यतो गणधराणामनन्तरागमो भवति । 'मया श्रुत - मित्यनेन गुरुकुले निवसता मयेत्यर्थः सुतरां लभ्यते । गुरुकुलनिवासं बिना हि गुरुचरणसरोजस्पर्शपूर्वकाभिवादनं, तन्मुखारविन्दविनिःमृतवचनश्रवणं च नोपपद्यते ।
w
भगवया - भगः = (१) - ज्ञानं = सर्वार्थविषयकम् (२) - माहात्म्यम् =अनुपममहनीयमहिमसंपन्नत्वम्, (३) - यशः - विविधानुकूलप्रतिकूल परी पदोपसर्गसहनसमुद्भूता कीर्तिः, यद्वा-जगद्रक्षणमज्ञासमुत्था कीर्तिः, (४) - वैराग्यम् = सर्वथा काम
मैंने भगवान् के मुखसे साक्षात् सुना है— परम्परा से नहीं, क्यों कि गणधरों का आगम अनन्तरागम होता है । 'मैंने सुना ' इस वाक्य का 'मैंने गुरुकुल में निवास करते हुए सुना ' यह अर्थ स्वतः सिद्ध है । गुरुकुल में निवास किये बिना गुरु के चरणकमलीका स्पर्श करके अभिवादन तथा उनके मुखारविन्द से निकलने वाले वचनों का raण नहीं हो सकता |
, 'भगवान्' शब्द में जो ' भग शब्द है उसके अनेक मर्थ होते हैं । वे इस प्रकार है- (१) सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला ज्ञान (२) महात्म्य अर्थात् अनुपम और महान् महिमा, (३) यश अर्थात् नाना प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल परीपहों और उपसर्गों को सहन करने से फैली हुई कोर्ति, अथवा जगत् की रक्षा (उद्धार) करने की भावना से उत्पन्न हुई कीर्ति, (४) वैराग्य अर्थात् कामभोग की
"
મેં ભગવાનના મુખથી સાક્ષાત્ સાંભળ્યું છે—પરમ્પરાથી નહિ, કેમકે ગણુધરાનાં આગમ मनन्तरागम-होय छे. 'में' सांलज्यु' में शुइसमां નિવાસ કરતા થકા સાંભળ્યુ.' આ અર્થ સ્વતઃ સિદ્ધ છે. ગુરૂકુલમાં નિવાસ કર્યો વિના ગુરુના ચરણુકમલેાને સ્પર્શ કરીને અભિવાદન નમસ્કાર તથા તેના મુખારવિદથી નિકલવાવાળાં વચના શ્રવણુ થઈ શકતાં નથી.
'भगवान' शब्दमां ने 'भग' शब्द छे, तेना अनेह समर्थ थाय छे ते આ પ્રમાણે
(૧) સમ્પૂર્ણ પદાર્થોને જાણુવાવાળું જ્ઞાન, (૨) માહાત્મ્ય અર્થાત્ અનુપમ અને મહાન મહિમાથી યુક્ત હેવું, (૩) યશ-અર્થાત્ નાના પ્રકારના અનુકૂલ અને પ્રતિકૂલ પરીષહે અને ઉપસીને સહન ફરવાથી ફેલાતી કીર્તિ, અથવા જગતની રક્ષા (ઉદ્ધાર ) કરવાની ભાવનાથી ઉત્પન્ન થયેલી કીર્તિ, (૪) વૈરાગ્ય
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आवारागसूत्रे भोगाभिलापराहित्यम् , यहा-क्रोधादिकपायनिग्रहलक्षणम् , (५)-मुक्ति सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, (६) रूपम् सकलहृदयहारिसौन्दर्यम् , (७)-वीर्यम्=अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामयम् , (८)-श्रीपातिककर्मपटल विघटनजनितवानदर्शन सुखवीर्यरूपानन्तचतुष्टयलक्ष्मीः । (९)-धर्म:-अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाधनश्रुतचारित्रलक्षणः (१०)-ऐश्वर्यम् लोकत्रयाधिपत्यम् , चास्यास्तीति भगवान् , तेन भगवता-ज्ञानादियुक्तेन, तेन तीर्थङ्करेण, पक्ष्यमाणार्थस्य तीर्थकरमापितत्वाच । छब्देनात्र तीर्थङ्करपरामर्शः । उक्तञ्च
तनिक भी अभिलापा न होना, अथवा क्रोध आदि कपायोका निग्रह करना, (५) मुक्ति समस्त कर्मोका क्षय रूप मोक्ष, (३) रूप-सत्र का हृदय हरलेनेवाला अनुपम सौन्दर्य (७) वीर्य-अन्तराय कर्मके क्षय से उत्पन्न अनन्तशक्ति, (८) श्री-पाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न अनन्तज्ञान, दर्शन, मुख और वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी (९) धर्म-मोक्षरूपी द्वार के किवाड उघाडने का साधन श्रुतचारित्ररूप धर्म, (१०) ऐश्वर्य-तीन लोक का आधिपत्य । ये दश गुण जिस में विद्यमान हो उसे 'भगवान्' कहते हैं । ऐसे भगवान्ने कहा है। आगे कहा जाने वाला तत्व तीर्थकरभाषित है, अत एव 'तद' शब्द से यहा भगवान् तीर्थकर समझना चाहिए । कहाभी है--
અર્થાત કામગની જરા પણ અભિલાષા નથી, અ થવી ક્રોધ કષાયને નિગ્રહ' ४२३।, (५) भुति -सभा भनि। ६५०५ मा६ (६) ३५-सर्वना यने - उरी લેવાવાળું અનુપમ સૌન્દર્ય, (૭) વીર્ય–અન્તરાય કર્મના ક્ષયથી ઉત્પન્ન અનન્ત શકિત (૮) શ્રી-ઘાતિ કર્મોના ક્ષયથી ઉત્પન અનંત જ્ઞાન, દર્શન, સુખ અને વીર્યપ અનતચતુષ્ટયલમી (૯) ધ–ક્ષી કારનાં કમાડ ઉઘાડવાનું સાધન શ્રત-ચારિત્રરૂપ ધર્મ (૧) અિધર્ય–ત્રણ લોકનું આધિપતિપણું આ દસ ; ગુણ જેમાં હેય તેને ભગવાન કહે છે એવા ભગવાને કહ્યું છે.
આગળ કહેવાશે તે તવ તીર્થકરભાષિત છે, એટલા માટે “a” શબ્દથી તીર્થકર ભગવાનને અર્થે અહિં સમજવું જોઇએ. કહ્યું પણ છે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१.१ भगवच्छब्दार्थः १६३
"अत्थं भासइ अरिहा, मुत्तं गंथति गणहरा गिउगा" इत्यादि ।
अर्थ भापतेऽईन् सूत्रं ग्रनन्ति गणधरा निपुणाः, इति च्छाया।
भगवतीर्थकरोपदिष्टमर्थरूपमागममुपादाय मेधाविनो गणधरा मूलरूपमागर्म निवदन्तीत्यर्थः।
एवं वक्ष्यमणरीत्या आख्यातं कथित द्वादशविधपरिपत्सु ।
भगवत्तीर्थङ्करकथितार्थनातमेव वानुसृत्य वक्ष्यमाणं वाक्यमनुवदिप्यामीति वाक्यार्थः। आगमोक्तार्थस्य काल्पनिकत्वाभावाद् द्रव्यार्थिकनयेनार्यरूपोऽयमागमोऽनादिरिति भावः ।
एपा परंपरा परिपाटी वरीवति सर्वेषां गणधराणां, यद् विनीतः स्वस्वान्तेवासिभिर्मोक्षमार्ग सविनयं पृष्टा गणधराः "सुर्य मे " इतिवाक्यं मथमं वदन्ति । उक्तञ्च---
"अर्हन्त भगवन्त अर्थका निरूपण करते हैं। और गणधर उसे भली-भांति सूत्र रूप में गूंथते हैं । अर्थात् भगवान् तीर्थंकर के द्वारा उपदिष्ट अर्थरूप आगम के आधार पर कुशल गणधर मूलरूप आगमकी रचना करते हैं।"
उन भगवानने बारह प्रकारको परिषद् में इस प्रकार कहा है जो आगे इस सूत्र में निरूपण किया जायगा। आगमोक्त अर्थ काल्पनिक नहीं होता, अतः द्रव्यार्थिकनय से अर्थरूप यह आगम अनादि है।
सभी गणधरों की यह परम्परा परिपाटी है कि अपने २ विनीत शिष्यों द्वारा विनयपूर्वक मोक्षमार्ग पूछे जाने पर गणधर महाराज पहले-पहल 'सुयं में यह वाक्य बोलते हैं। कहा भी है--
અહંત ભગવંત અર્થનું નિરૂપણ કરે છે, અને ગણધર તેને રૂડી રીતે સૂત્ર રૂપમાં ગુંથે છે, અર્થાત્ ભગવાન તીર્થંકર દ્વારા ઉપદિષ્ટ-ઉપદેશેલાં અર્થરૂપ આગમના આધાર પર કુશળ ગણધર મૂલરૂપ આગમની રચના કરે છે.”
તે ભગવાને બાર પ્રકારની પરિષદુ–સભામાં આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે, આગળ આ સૂત્રમાં નિરૂપણ કરવામાં આવશે. આગમકત-આગમમાં કહે અર્થ કાલ્પનિક નથી, તેથી દ્રવ્યાર્થિક નયથી અર્થય આ આગમ અનાદિ છે. | સર્વ ગણુધરોની એ પરંપરા-પરિપાટી છે કે --પિત–પિતાના વિનીત શિષ્ય दास विनयपूर्व भाक्षम पूछपाथी अधर मडा२।४ प्रथम 'सुयं मे' २मा पास्य मा छ. ४ ५ छ:---
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आधाराने (द्रतविलम्वितं छन्दः) "निपुणशिष्यगणैर्विनयान्विते,
विमलमाययुः परिसेवितः। गणधररखिलैः प्रथमं वचः,
खलु 'गुयं म' इति प्रतिमापितम्" ॥१॥ इति । भगवता यदाज्यानं तदाह-~~-'इहमेगेसि' इत्यादि ।
इहमेगेसि णो सम्णा भबइ, तंजहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगो अहमंसि, दाहिणाओ वा दिशाभो आगो अहमंसि, पचत्यिमाओ वा दिसाओं आगओ अहमंसि, उनराओ या दिसामओ आगो अहमसि, उड्डाओ वा दिसाओं आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ या आगो अहमसि । अण्णयरीओ वा दिसा अणुदिसाओ का आगओ अहमसि ॥ ग. २ ॥
___"विनय से युक्त निपुण शिष्यों द्वारा सेवित, तथा निर्मल भावों वाले सब गणघरों द्वारा अपने२ शिष्यों के प्रति सर्व प्रथम मुयं में यह वाक्य कहा गया है ॥१॥
भगवानन्ने जो कहा वह कहते हैं-~~-'इहमेगेसि' इत्यादि ।
मूलार्थ-- किन्हीं २ (जीवी) को संज्ञा नहीं होती कि मैं पूर्व दिशा से आया है, या मैं दक्षिण दिशा से आया हूँ, या मैं पश्चिम दिशा से आया हूँ, अथवा मैं उत्तर दिशा से आया हूँ। अथवा मैं उर्व दिशा से आया है, या अघोदिशासे मै आया हूँ, अथवा मैं दूसरी किसी दिशा या अनुदिशा (विदिशा) से आया हूँ। ॥२॥
“વિનયથી યુક્ત નિપુણ શિષ્યએ સેવિત તથા નિર્મલ ભાવવાળા, સર્વ ગણધર દ્વારા પિતપિતાના શિષ્ય પ્રતિ સર્વ પ્રથમ “કુ મે એ વાક્ય કહેવામાં भाव्यु छ" ॥१॥
भूसाथ:-'इहमेगेसि त्याहि.5-31 (1) साथी जाती है પૂર્વ દિશામાંથી આવ્યે છે, અથવા હું દક્ષિણ દિશામાંથી આવ્યું છું, અથવા હું પશ્ચિમ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું ઉત્તર દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હે ઉર્વ દિશામાથી આવ્યો છું, અથવા હું અધ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા
અન્ય-બીજી કઈ દિશામાંથી અથવા અનુદા (વિદિશા)માંથી આવ્યો છું. મારા
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. १ सू.१ संज्ञावर्णनम्
छाया-
7
इह एकेषां नो संज्ञा भवति, तद्यथा - पूर्वस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि दक्षिणस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, पश्चिमाया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि । उत्तरस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि । ऊर्ध्वाया या दिशाया आगतोऽहमस्मि, अधोदिशाया वा आगतोऽहमस्मि अन्यतरस्या वा दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि ।
દૂધ
1
De
'सि' इति इह चतुर्गतिसंसरणरूपं संसारे एकेपi aratarutraiaani संशिनां जीवानां संज्ञा-स्मृतिरूपो मतिविशेषः नो भवति- न जायते ।
अन्यं प्रतिपेधवाचकं शब्दं विहाय 'नो' शब्दोपादानं विशिष्टसंज्ञाप्रतिपेधयोधनार्थम् | 'नो' शब्दः सर्वनिषेधवाची, देशनिषेधवाची च । उक्तञ्च" प्रतिपेधयति समस्तं प्रसक्तमर्थं जगति नो-शब्दः ।
स पुनस्तदवयवो वा तस्मादर्थान्तरं वा स्यात् ॥ १ ॥ "
'नो' शब्द:- मसंगादागतमर्थं संपूर्ण प्रतिपेधयति, स चार्थः प्रसक्तावयवो वा स्यात् तस्मादन्यो चाऽर्थः स्यात् तमपि प्रतिपेधयतीत्यर्थः ।
टीकार्थ-चार गति में भ्रमण करनेरूप संसार में ज्ञानावरण कर्म के उदय वाले कितनेक संज्ञी जीवों को संज्ञा अर्थात् स्मृति नहीं होती ।
निपेधवाचक दूसरे शब्द को छोड कर यहाँ 'नो' शब्द का प्रयोग किया गया है सो विशिष्ट संज्ञा का अभाव सूचित करने के लिए समझना चाहिए । 'नो' शब्द सर्वfreates भी है और देशनिषेधवाचक भी है। कहा भी है-
"नो' शब्द प्रसङ्ग में आये हुए सम्पूर्ण अर्थ का निषेध करता है । यह अर्थ चाहे उन का एक अवयव हो या उस से भिन्न अर्थान्तर हो उस का भी निषेध करता है" ॥१॥
ટીકા-ચાર ગતિમાં ભ્રમણ કરવા રૂપ સંસારમાં જ્ઞાનાવરણ કરના ઉદયવાળા કેટલાક સન્ની છવાને સંજ્ઞા અર્થાત્ સ્મૃતિ નથી રહેતી. નિષેધક વાચક અન્ય શબ્દો ત્યજીને અહિં ને” શબ્દને પ્રયોગ કર્યો છે, તે વિશિષ્ટ સજ્ઞાન અભાવ સૂચવવા માટે સમજવે જોઈએ ને' શબ્દ સનિષેધવાચક પણ છે અને દેનિષેધવાચક પણ છે. કહ્યું પણ છે
છે ને? શબ્દ પ્રસંગમાં આવેલા સપૂર્ણ અર્થના નિષેધ કરે છે, તે અથ ગમે તે તેનું એક અવયવ હોય અથવા તેનાથી ભિન્ન અર્થાન્તર હોય તેને પણ
निषेध री हे छे" ॥१॥
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'आचारास
या संज्ञाssत्मनो गत्यागत्यादिकं जीवो जानाति तस्या एव प्रतिषेधो
विवक्षितः ।
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अथ संज्ञाभेदा:
संज्ञा च जीवानां बहुविधा । तत्र दशविधा भगवती सूत्रे ( शतक-७, उद्देश ८ ) प्रोक्ता~~
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कणं ते! सनाओ पत्ताओ ? गोयमा ! दस सन्नाओ पन्नताओं, जहा - (१) आहारसन्ना, (२) भयसन्ना, (३) मेडुणसन्ना, (४) परिग्गहसन्ना, (५) कोहसन्ना, (६) माणसन्ना, (७) मायासन्ना, (८) लोभसन्ना, (९) लांगसन्ना, (१०) ओहसना " इति ।
जिस संज्ञा के द्वारा आम की गति और आगति जोव जानता है, यहाँ उसीका निषेध समझना चाहिए ।
संज्ञा के भेद
जीवों की संज्ञा अनेक प्रकार की होती है । भगवतीसूत्र ( श० ६, उ० ८, में दश प्रकार की संज्ञा कही गई है, वह इस प्रकार है;
प्रश्न- भगवान् ! संज्ञाएँ कितनी कही गई हैं ।
उत्तर -- गौतम !
दश संज्ञाएँ कही गई हैं । वे इस प्रकार हैं--- (१) आहार - संज्ञा, (२) भय - संज्ञा, (३) मैथुन -संज्ञा, (४) परिग्रह --संज्ञा, (५) क्रोध- संज्ञा (६) मान-संज्ञा, (७) माया - संज्ञा, (८) लोभ-संज्ञा, (९) लोक-संज्ञा और (१०) ओध-संज्ञा ।
જે સત્તા દ્વારા આત્માની ગતિ અને આતિ જીવ જાણે છે. અહિ અને નિષેધ સમજવા જોઈએ.
મજ્ઞાના ભેદ
लवोनी संज्ञा भने प्राश्नी होय छे, लगवती सूत्र (श. ६. ७. ८ )भां દસ પ્રકારની સજ્ઞાએ કહેવામાં આવી છે. તે આ પ્રમાણે છેઃ-પ્રશ્ન-ભગવાન ! સંજ્ઞાએ કેટલી કહી છે?
ઉત્તર-ગૌતમ! દસસના કહી છે તે આ પ્રમાણે છે.~~~
(१) गाडार--संज्ञा (२) लय-संज्ञा (3) मैथुन - संज्ञा, (४) परिवह-संज्ञा. (घ) डोष-संज्ञा (१) भान-संज्ञा (७) भाया -संज्ञा (८) बोल-संज्ञा (6) सोईसंज्ञा अने (१०) शोध-संज्ञा.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.२ संज्ञावर्णनम्
अथवा--संज्ञानं संज्ञा-चेतना, सा चाशातवेदनीयमोहनीयकर्मोदयजन्यविकारयुक्ता आहारादिसंज्ञादित्वेन व्यपदिश्यते । सा द्विधा अनुभवनसंज्ञा, ज्ञानसंज्ञा च । तत्रानुभवनसंज्ञा पोडशविधा। तत्र भगवतीमत्रोक्तदाविधसंज्ञा उपादायाधिकाः पट् संज्ञाः समिलिताः पोडश भवन्ति । तत्र (१) सुखसंज्ञा, (२) दुःखसंज्ञा, (३) मोहसंज्ञा, (४) विचिकित्सासंज्ञा, (५) शोकसंज्ञा, (६) धर्मसंज्ञा चेति पट् अधिका विजेयाः।
(१) आहारसंज्ञा--- (१) क्षुद्वेदनीयोदयात् कवळाद्याहारार्थ तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया सम्यग् ज्ञायतेऽनयेत्याहारसंज्ञा। यहा-क्षुद्वेदनीयोदयसमुद्भवः आहाराभि
अथवा-संज्ञान-संज्ञा-चेतना, अर्थात् संज्ञा चेतना को कहते हैं । यह जत्र अशातावेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से जनित विकारों से युक्त होती है तब वह आहार आदि संज्ञा कहलाने लगती है । वह दो प्रकार की है-(९) अनुभवनसंज्ञा और (२) ज्ञानसंज्ञा । इन में से अनुभवनसंज्ञा सोलह प्रकार की है । भगवतीसूत्रोक्त दश संज्ञाओ में
छह संज्ञाएँ मिला देने से सोलह हो जाती है। छह संज्ञाएँ ये हैं--(१) सुखसंज्ञा, • (२) दुःखसंज्ञा, (३) मोहसंज्ञा, (४) विचिकित्सासंज्ञा, (५) शोकसंज्ञा, और (६) धर्मसंज्ञा ।
(१) आहारसंज्ञा क्षुधावेदनीय के उदय से कवलाहार आदि के लिए योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने की क्रिया जिस द्वारा सम्यक् प्रकार से जानी जाय वह आहारसंज्ञा कहलाती है।
અથવા--સંજ્ઞાન એટલે સંજ્ઞા, તે ચેતના, અર્થાત ચેતનાને સંજ્ઞા કહે છે તે જ્યારે અસતાવેદનીય અને મેહનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન વિકાર યુક્ત હોય છે, ત્યારે તે આહાર આદિ સંજ્ઞા કહેવાય છે. તે બે પ્રકારની છે-(૧) અનુભવનસંજ્ઞા અને (૨) જ્ઞાનસંજ્ઞા, તેમાં અનુભવનસંજ્ઞા સેળ પ્રકારની છે, ભગવતીસૂત્રોક્ત દસ સંજ્ઞાઓમાં છ મેળવી દેવાથી સેળ થાય છે, છ સંજ્ઞાઓ આ છેઃ-(૧) સુખસંજ્ઞા, (२) संज्ञा, (७) मासा , (४) विििास, (५) का मन (6) भा .
(१) 41PMસુધા (ભૂખ) વેદનીયના ઉદયથી કવલાહાર આદિ માટે ચગ્ય પુદ્ગલોને ગ્રહણ કરવાની ક્રિયા જેના વડે સમ્યફ પ્રફારથી જાણી શકાય, તે આહાર સંજ્ઞા કહેવાય છે.
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आचारानो लापरूप आत्मनः परिणामविशेषः । अमिलापथात्र-'मदर्थमीदृशं वस्तु पुष्टिकर यदीदं लभ्यते तदा मम हित भविष्यती'-त्येवं विचारानुबद्धः स्वपुष्टितुष्टिकारणीभूतप्रतिनियतवस्तुमाप्त्यर्थमात्मनः परिणामः । रिक्तोदरत्वाद् भोजनीयवस्तु श्रवण-दर्शन-संचिन्तनवाहारसंज्ञा जापते । आहारादयः संज्ञाः एकेन्द्रियादिपञ्चन्द्रियपर्यन्तानां सर्वजीवानामासंसारं भवन्ति । जलाद्याहारोपजीवना वनस्पत्यादीनामाहारसंशा विज्ञायते । अथवा क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली आहार की अभिलाषारूप आत्मा की परिणति आहारसंज्ञा कहलाती है। यहां अभिलाषा शब्द से 'इस प्रकार की वस्तु मेरे लिए. पुष्टिकर है, यह यस्तु मिले तो मेरा हित होगा' ऐसे विचार से युक्त अपनी पुष्टि और सन्तोप के कारणभूत पदार्थ की प्राप्ति के लिए होने वाला अमा का परिणाम ग्रहण करना चाहिए। खाली पेट होने पर भोग्य वस्तु के श्रवण दर्शन और चिन्तन से आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है। आहार आदि संज्ञाएं एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रियपर्यन्त सगी जोयों को होती हैं, जब तक संसार का अन्त नहीं होता तब तक बनी रहती हैं। जल आदि आहार पर जीवित रहने के कारण बनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारसंज्ञा का अस्तित्व प्रतीत होता है। અથવા સુધાવેદનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થવા વાળી આહારની અભિલાષા-- રૂચિ-ઈચ્છા રૂપ આત્માની પરિણતિ તે આહારસંશા કહેવાય છે, અહિં અભિલાષા શદથી આ પ્રકારની વસ્તુ મારા માટે પુષ્ટિ કરનારી છે, આ વસ્તુ મળે તો મારૂં હિત થશે એવા વિચારથી યુક્ત પિતાની પુષ્ટિ અને સંતોષના કારણભૂત પદાર્થની પ્રાપ્તિ માટે વિચાર કરનાર આત્માનું પરિણામ, ગ્રહણ કરવું જોઈએ, ખાલી પેટ હેવાના કારણે ભેજ્ય (ભજન કરવા ગ્ય) વસ્તુના શ્રવણ, દર્શન અને ચિન્તનથી આહારસંશા ઉત્પન્ન થાય છે. આહાર આદિ સંજ્ઞાઓ એકેન્દ્રિયથી આરંભીને પંચેન્દ્રિય સુધીના સર્વ જીવોને હોય છે, અને જ્યાં સુધી સંસારને અંત થતું નથી ત્યાં સુધી તે સંજ્ઞાઓ રહે છે. જલ વગેરેના આહાર પર જીવિત રહેવાના કારણે વનસ્પતિ આદિ એકેન્દ્રિય જીમાં પણ આહારસંશાનું અસ્તિત્વ દેખાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ ३.१ सू.२. संज्ञावर्णनम्
(२) भयसंज्ञा. (२) सनिमित्तमनिमित्तं वा भयमोहनीयोदयाद् भयोभ्रान्तस्य मोहनीयान्तर्गतनोकपायल्पा नयनवदनविकृतरोमाञ्चाविर्भावादिक्रियालक्षणा स्वास्मनः परिणतिर्भयसंज्ञा। हीनबलत्वेन, भयवार्ताश्रवणभीपणदर्शनादिजनितबुद्धया, इहलोकादिभयजनकार्थपर्यालोचतेन वा भयसंज्ञा जायते । हस्तस्पर्शादिभीत्या स्वावयवसंकोचनादिना लज्जालुवल्ल्यादीनां भयसंज्ञा विज्ञायते।
(३) मैथुनसंज्ञा(३) पुरुपवेदोदयान्मैथुनाथ वनितालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितगात्र
(२) भयसंज्ञाकिसी कारण से या बिना ही कारण भयमोहनीय कर्म के उदय से भयमीत पुरुपको मोहके अन्तर्गत नोकपायरूप, नेत्रों में और मुख में विकार होना, रोमाञ्च होना आदि क्रियाए जिसका लक्षण है, ऐसी आत्मा की परिणति भयसंज्ञा कहलाती है, दुर्वलता से, भय उत्पन्न करने वाली बात सुनने से, भयकर वस्तु के देखने से, तथा इहलोक आदि में भयजनक वस्तुका विचार करने से भयसंज्ञा उत्पन्न होती है। लजवन्ती आदि वनस्पतियाँ हाथ के स्पर्श के भय से अपने अवयवों को सिकोड लेती हैं, अतः उन में भयसंज्ञा की विद्यमानता प्रतीत होती है।
(३) मैथुनसंज्ञापुरुषवेद-मोहनीय कर्म के उदय से मैथुन के लिए स्त्री को देखना, प्रसन्नवदन
(२) मय ---- કેઈ કારણથી અથવા વિના કારણે ભય , મેહનીય કર્મના ઉદયથી ભયભીત પુરુષની મેહને અંતગત નોકવાયરૂપ, નેત્રમાં અને ચહેરામાં વિકાર થવે, રોમાંચ થવું (રૂંવાડા ઉભાં થવા) વગેરે કિયાઓ જેનું લક્ષણ છે, એવી આત્માની પરિણતિ તે ભયસંશા કહેવાય છે. દુર્બલતાથી, ભય ઉત્પન કરાવનારી વાત સાંભળવાથી, ભયંકર વસ્તુ દેખવાથી, તથા આ લેક વગેરેમાં ભયજનક વસ્તુને વિચાર કરવાથી ભયસંસ ઉત્પન્ન થાય છે. લજાવંતી (લજજાળુ) આદિ વનસ્પતિઓ હાથને સ્પર્શ થવાથી ભય લાગે છેય તેમ પિતાના અવયવોને સંકે છે તેથી તેમાં ભયસંજ્ઞાની વિદ્યમાનતા દેખાય છે.
(3) मैथुन संशपुरुपये--मोहनीभना यथी मैथुन भाटे श्री २५ ने. सतु मुम
प्र. पा.-२२
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भावारामने शैथिल्पोरुकम्पनादिक्रियारूपा आत्मनः परिणतिर्मयुनसंज्ञा । रुधिरमांसोपचयेन, स्त्रीकथाश्रवणादिजनितमत्या, मैथुनचिन्तनेन च मैथुनसंज्ञा जायते। कुरुवकादिवनस्पतीनां कमनीयकामिनीभुजलतापगूहन-चरणाघात-कटाक्षविक्षेपादिम्यः प्रसूनपल्लवादिप्रसवदर्शनान्मधुनसंज्ञा विज्ञायते ।
(४) परिग्रहसंज्ञा(४) लोभमोहनीयोदयाद् धर्मसाधनव्यतिरिक्त-सचित्ताऽचित्तमिश्र- . वस्तूपादानादिमूर्छारूपा आत्मनः परिणतिः परिग्रहसंज्ञा। सचित्तादिवस्तुहोना, शरीर का स्तम्भित हो जाना, तथा उस में शिथिलता पैदा होना उरु (घुटनोंक नीचेका भाग) आदि का कापना आदि क्रियारूप आत्मा की परिणति को मैथुनसंज्ञा कहते हैं। रक्त और मांस की अधिकता से, स्त्रीकथा मादि के श्रवण से उत्पन्न हुई बुद्धि से, और मथुन का विचार करने से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है। कुरुक्क आदि वनस्पतियों में सुन्दरी कामिनी को भुजाओं के आलिगन से, चरणाघात से, तथा कटाक्षपात आदि से फूल, पत्ता आदि उत्पन्न होते हैं, अतः वनस्पति में मैथुनसंज्ञा का अस्तित्व सिद्ध होता है।'
(४) परिग्रहसंज्ञा--- लोभमोहनीय के उदय से धर्म के उपकरणों के अतिरिक्त दूसरे सचित्त अचित्त और मिश्र पदार्थों के ग्रहण आदि मूरूिप आत्मा की परिणति परिग्रहसंज्ञा कहलाती है । થવું, શરીરનું તંભિત થઈ જવું, તથા તેમાં શિથિલતા ઉત્પન્ન થવી, જાંગ વગેરેનું કંપવું આદિ ક્રિયારૂપ આત્માની પરિણતિને મિથુનસંજ્ઞા કહે છે. રક્ત લેહી) અને સાંસની અધિકતાથી, સ્ત્રીકથા વગેરે સાંભળવાથી ઉત્પન્ન થયેલી બુદ્ધિથી, અને મિથુનને વિચાર કરવાથી મથુનસંજ્ઞા ઉત્પન થાય છે. કુરબક (એક જાતનું વૃક્ષો આદિ વનસ્પતિમાં સુંદરી કામિનીના હાથના આલિંગન થતાં, ચરણાઘાતથી તથા કટાક્ષપાત આદિથી કુલ, પત્તાં આદિ ઉત્પન્ન થાય છે, આ કારણથી વનસ્પતિમાં મિથુનસંજ્ઞાનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે.
(४) परिमल साમોહનીયના ઉદયથી ધર્મના ઉપકરણે સિવાય બીજા સચિત્ત, અચિત અને મિશ્ર પદાર્થોનું ગ્રહણ કરવું વગેરે મૂછોરૂપ આત્માની પરિણતિ તે હા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.२. संज्ञावर्णनम्
१७१ परिग्रहदर्शनेन, परिग्रहचिन्तनेन, परिग्रहसंग्रहेण च परिग्रहसंज्ञा जायते । विल्यादिवनस्पतीनां स्वपत्रः पुप्पफलाच्छादनदर्शनात् परिग्रहसंज्ञा विज्ञायते ।
(५) क्रोधसंज्ञा(५) क्रोधमोहनीयोदयाद् जीवस्य जात्यादिमदजनिता कर्तव्यांकर्तव्यविवेकापहारिका स्वपराम्रोतिरूपप्रज्वलनामिका विभावपरिणतिः क्रोधसंज्ञा ।
(६) मानसंज्ञा(६) मानमोहनीयोदयाद् अंहकाररूपा आत्मनो विभावपरिणतिर्मानसंज्ञा । देवगुरुधर्मादोनां महतामनादरणादिना मानसंज्ञा विज्ञायते । सचित्त आदि बस्तुओं का परिग्रह देखने से, परिग्रह का विचार करने से, और परिग्रहका संग्रह करने से परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है। विल्व (वेल) आदि वनस्पतिया अपने पत्तों से फूल फल वगेरह को ढंक लेती हैं, इस से उनमें परिग्रहसंज्ञा का होना प्रतीत होता है।
(५) क्रोधसंज्ञाक्रोधमोहनीय के उदय से जीव में जातिमद आदि से उत्पन्न, तथा कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक नष्ट कर देने वाली स्वपर की अप्रीतिरूप, तथा जलनरूप आत्मा की विभावपरिणति क्रोधसंज्ञा कहलाती है ।
(६) मानसंज्ञामानमोहनीय के उदय से अहङ्काररूप आत्मा की विभावपरिणति मानसंज्ञा कहलाती है । देव गुरु धर्म आदि बडोंका अनादर आदि करने से मानसंज्ञा मालम होती है । કહેવાય છે. સચિત્ત આદિ વસ્તુઓને પરિગ્રહ દેખાવાથી, પરિગ્રહને વિચાર કરવાથી અને પરિગ્રહ સંગ્રહ કરવાથી પરિગ્રહસંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. બિલવ (બીલી) આદિ વનસ્પતિઓ પિતાનાં પાંદડાથી કુલ–ફલ વગેરેને ઢાંકી દે છે, તેથી વનસ્પતિમાં પરિગ્રહસંજ્ઞા દેખાય છે.
(५) ओघसशा_ધમેહનીય કમના ઉદયથી, જીવને જાતિમદ વગેરેથી ઉત્પન્ન, તથા કર્તવ્ય અકર્તવ્યને વિવેક નાશ કરવાવાળી સ્વ–પરની અપ્રીતિરૂપ તથા જવલનશ્ય આત્માની વિભાવપરિણતિ તે ક્રોધસંજ્ઞા કહેવાય છે.
(६) मानसમાનમેહનીય કર્મના ઉદયથી અહંકારરૂ૫ આત્માની વિભાવપરિણતિ માનસંજ્ઞા કહેવાય છે. દેવ, ગુરૂ, ધર્મ આદિ મેટાઓને અનાદર વગેરે કરવાથી માનસંજ્ઞા માલુમ પડે છે.
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आचाराङ्गसूत्रे
शैथिल्योरुकम्पनादिक्रियारूपा आत्मनः परिणतिमैथुनसंज्ञा । रुधिरमांसोपचयेन, स्त्रीकथाश्रवणादिजनितमत्या, मैथुनचिन्तनेन च मैथुनसंज्ञा जायते । कुरुबकादिवनस्पतीनां कमनीयकामिनीभुजलतावगूहन - चरणाघात - कटाक्षविक्षेपादिस्यः प्रसून पल्लवादिप्रसवदर्शनान्मैथुनसंज्ञा विज्ञायते ।
(४) परिग्रहसंज्ञा
( ४ ) लोभमोहनीयोदयाद धर्मसाधनव्यतिरिक्त- सचित्ताऽचित्त मिश्रवस्तूपादानादिमूर्छारूपा आत्मनः परिणतिः परिग्रहसंज्ञा । सचित्तादिवस्तुहोना, शरीर का स्तम्भित हो जाना, तथा उस में शिथिलता पैदा होना उरु ( घुटनोंक नीचे का भाग) आदि का कापना आदि क्रियारूप आत्मा की परिणति को मैथुनसंज्ञा कहते हैं । रक्त और मांस की अधिकता से, स्त्रीकथा आदि के श्रवण से उत्पन्न हुई बुद्धि से, और मथुन का विचार करने से मेथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है । कुरुबक आदि वनस्पतियों में सुन्दरी कामिनी की भुजाओ के आलिङ्गन से, चरणाघात से, तथा कटाक्षपात आदि से फूल, पत्ता आदि उत्पन्न होते हैं, अतः वनस्पति में मैथुनसंज्ञा का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
(४) परिग्रहसंज्ञा -
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लोभमोहनीय के उदय से धर्म के उपकरणों के अतिरिक्त दूसरे सचित्त अचित्त और मिश्र पदार्थों के ग्रहण आदि मूर्च्छारूप आत्मा को परिणति परिग्रहसंज्ञा कहलाती है ।
થવું, શરીરનુ સ્તંભિત થઈ જવું, તથા તેમાં શિથિલતા ઉત્પન્ન થવી, જાંગ વગેરેનુ' કંપવું આદિ ક્રિયારૂપ આત્માની પરિશુતિને મૈથુનસંજ્ઞા કહે છે. રક્ત (લેાહી) અને માંસની અધિકતાથી, સ્ત્રીકથા વગેરે સાંભળવાથી ઉત્પન્ન થયેલી બુદ્ધિથી, અને મૈથુનને વિચાર કરવાથી મૈથુનસ’જ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. કુરખક ( એક જાતનું વૃક્ષ) આદિ વનસ્પતિમાં સુદરી કામિનીના હાથના આલિંગન થતાં, ચરણાઘાતથી તથા કટાક્ષપાત આદિથી કુલ, પત્તાં આદિ ઉત્પન્ન થાય છે, આ કારણથી વનસ્પતિમાં મૈથુનસ’જ્ઞાન અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે.
(४) परिभर संज्ञा
લાભમેાહનીયના ઉદયથી ધર્મના ઉપકરણેા સિવાય ખીજા સચિત્ત, અચિત્ત ...અને મિશ્ર પદાર્થાંનુ અણુ કરવુ વગેરે મૂર્છારૂપ આત્માની પરિણતિ તે પરિગ્રહસ જ્ઞા
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. म. २ संज्ञावर्णनम्
१७३ रूपा आत्मनो विभावपरिणतिर्लोकसंज्ञा । यथा-"अपुत्रस्य गतिर्नास्ती"-त्यादि ।
(१०) ओघसंज्ञा(१०) ज्ञानावरणीयाल्पक्षयोपशमसमुद्भूता, अव्यक्तोपयोगरूपा जीवस्य परिणतिः ओघसंज्ञा । सा लतादीनां मतानारोहणादिना ज्ञायते ।
(११) सुखसंज्ञा(११) संसारिणां सातवेदनीयोदयात् सकलेन्द्रियाणामनुकूलतया शायमाना आत्मनः परिणतिः मुखसंज्ञा । तर्करूप आत्मा की विभावपरिगति लोकसंज्ञा कहलाती है; यथा-"निपूते को सद्गति नहीं मिलती" आदि ।
(१०) ओघसंज्ञाज्ञानावरणीय कर्म के अल्प क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली तथा अव्यक्त (अप्रकट) उपयोगरूप जीव का विभावपरिणमन ओघसंज्ञा कहलाती है । लता वगैरह का मंडप पर चढने आदि से उसका ज्ञान होता है
(११) सुखसंज्ञासंसारी जीवोंको सातावेदनीय के उदय से सब इन्द्रियों के अनुकूल प्रतीत होने वाली आत्मा की एक विशिष्ट परिणतिको सुखसंज्ञा कहते हैं। તકરૂપ આત્માની વિભાવપરિણતિ લોકસંજ્ઞા કહેવાય છે. જેમ-“અપુત્રિયાને સદગતિ મળતી નથી.”
(१०) मासाજ્ઞાનાવરણીય કર્મના અલ્પ પશમથી ઉત્પન્ન થનારી અને અપ્રગટ ઉપયોગ પ જીત્રનું વિભાવપરિણમન તે એuસંજ્ઞા કહેવાય છે, વેલ વગેરેનું મંડપ ઉપર ચઢવું વગેરેથી તેનું જ્ઞાન થાય છે.
(११) सुमसસંસારી જીને સાતવેદનીયના ઉદયથી સર્વ ઈન્દ્રિયોમાં અનુકૂલતાનું ભાન કાવનારી આત્માની એક વિશિષ્ટ પરિણતિને સુખસા કહે છે,
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आचाराने . (७) मायासंज्ञा. (७) मायामोहनीयोदयात् कपटलक्षणा प्रसिर्जीवस्य विभावपरिणतिर्मायासंज्ञा। परवञ्चनेच्छया व्यामोहोत्पादकमनोवाकायव्यापारेण सा विज्ञायते । ।
(८) लोभसंज्ञा(८) लोभमोहनीयोदयेन सचित्तादिवस्तुगृद्धिरूपा जीवस्य विभावः परिणतिर्लोभसंज्ञा । आरम्भपरिग्रहादिप्रवृत्त्या लोभसंज्ञा विज्ञायते ।
(९) लोकसंज्ञा(९) ज्ञानावरणीयक्षयोपशमेन मोहनीयकर्मोदयेन च कुबुद्धिजनिततके.
(७) मायासंज्ञामायामीहनीय के उदय से जीव को कपटरूप विभावपरिणति मायासज्ञा कहलाती है । दूसरे को ठगने की इच्छा से मोहजनक मन, वचन और काय के व्यापार से उस की प्रतीति होती है।
(८) लोभसंज्ञालोभमोहनीय के उदय से सचित्त आदि वस्तुओं में आसक्तिरूप जीवकी विभावपरिणति लोभसंज्ञा कहलाती है। आरम्भ परिग्रह आदि की प्रवृत्ति से लोभसंज्ञा का पता चलता है।
(९) लोकसंज्ञाज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और मोहनीय कर्म के उदय से कुबुद्धिजनित
(७) भायासज्ञाમાયામોહનીય કર્મના ઉદયથી જીવની કપટપ વિભાવપરિણતિ માયાસંજ્ઞા કહેવાય છે. બીજાને ઠગવાની ઈચ્છાથી, મેહજનક મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારથી તેની પ્રતીતિ થાય છે.
... (4)ोला* ભમોહનીય કર્મના ઉદયથી સચિત્ત આદિ વસ્તુઓમાં આસકિતરૂપ જીવની વિભાવપરિણતિ તે લેભસંશા કહેવાય છે. આરંભ-પરિગ્રહ આદિની પ્રવૃત્તિથી લાભ संज्ञान पते साये छ. . -
(e) सा* * નાનાવરણીય કર્મના ક્ષપશમથી અને મેહનીયકર્મના ઉદયથી કુબુદ્ધિજનિત
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू.२ संज्ञावर्णनम्
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विचिकित्सासंज्ञा । यथा दानादिधर्मस्य फलं प्रति संशयः । सा द्विधा - देशतः, सर्ववथ । 'द्वाविंशतिपरिषद्सनब्रह्मचर्य केशोल्लुञ्चनादिक्लेश सहनस्य फलं भविष्यति न वे'- तिरूपा देशतः । ' परलोकादि सत्यं न वै'- तिरूपा, सर्वज्ञमरूपितजीवादितत्त्वं यथार्थ न वे ' - त्यादिरूपा वा सर्वतः ।
(१५) शोकसंज्ञा --
(१५) मोहनीयकर्मोदयादिष्टवियोगजनिता विमलाप - वैमनस्यरूपा आत्मनः परिणतिः शोकसंज्ञा । सा चाक्रन्दनादिना ज्ञायते ।
(१६) धर्मसंज्ञा
(१६) मोहनीयक्षयोपशमेन सर्वविरति - देशविरतिलक्षणा कर्मक्षयजनक - संज्ञा कहलाती है । जैसे - दान धर्म आदि के फल में संदेह होना । यह संज्ञा दो प्रकार की है- देश से और सर्व से। 'बाईस परीपहों के सहने का, ब्रह्मचर्य पालने का, केशलोच आदि क्लेश सहने का फल मिलेगा या नहीं ?' इस प्रकार का संशय होना देशतः विचिकित्सासंज्ञा है । 'वास्तव में परलोक है या नहीं, सर्वज्ञ के द्वारा प्ररूपित जीव आदि तत्व यथार्थ हैं या नहीं ?' इस प्रकार का संशय सर्वतः विचिकित्सा संज्ञा है ।
(१५) शोकसंज्ञा
मोहनीय कर्म के उदय से इष्टवियोग से उत्पन्न होनेवाली विलाप और विमनस्कतारूप आत्मा की परिणति शोकसंज्ञा कहलाती है ।
(१६) धर्मसंज्ञा -
मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से कर्मक्षयजनक सर्वविरति तथा देशविरति વિચિકિત્સા સંજ્ઞા કહેવાય છે. જેમકે દાન ધર્મ આદિના ફૂલમાં સ ંદેહ થવા. આ संज्ञा मे अारनी होय छे - (१) देशथी, (२) सर्वथी, 'मावीश परिषहोनु सहुन કરવુ' તે, બ્રહ્મચર્ય' પાલન કરવું તે, કેશનુ લેાચન કરવું વગેરે કલેશ સહન કરવાનુ ईस भजशे मे नहि ? ' આ પ્રકારના સંશય તે દેશથકી વિચિકિત્સાસંજ્ઞા છે. ‘વાસ્તવમાં પરલેાક છે કે નહિ, સર્વજ્ઞદ્વારા પ્રરૂપિત જીવ આદિ તત્વા યથાર્થ છે કે નહિ’ આ પ્રકારના સંશય તે સથકી વિચિકિત્સાસંજ્ઞા છે.
(१५) शोसंज्ञा
મેહનીય કર્મના ઉદ્દયને લાધે, ઈવિચાગથી ઉત્પન્ન થવા વાલી, વિલાપ અને વિમનસ્કતા ( વ્યાકુલ ચિત્ત) રૂપ આત્માની પરિણતિ શાકસંજ્ઞા કહેવાય છે.
(१९) धर्मसंज्ञा
મેહનીયકમના ક્ષયાપશમથી કર્મક્ષયજનક સ્વરિત તથા દેશવિરતિરૂપ
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आचारास्त्रे (१२) दुःखसंज्ञा(१२) संसारिणामसातवेदनीयोदयात् सकलेन्द्रियाणां प्रतिकूलतया ज्ञायमाना विविधतापानुभवरूपा जीवस्य परिणतिर्दुःखसंज्ञा ।
(१३) मोहसंज्ञा(१३) मोहनीयकर्मोदयाद् मिथ्यादर्शनरूपा ज्ञानादिगुणरोधकसकलपाप-- स्थानहेतुरात्मनो विभावपरिणतिर्मोहसंज्ञा । कुदेवकुंगुरुकुधर्मादौ प्रत्या मोहसंज्ञा विज्ञायते ।
(१४) विचिकित्सासंज्ञा(१४) मोहनीयोदयाद् ज्ञानावरणीयोदयाच संशयरूपा जीवस्य परिणति
(१२) दुःखसंज्ञासंसारी जीवों को असातावेदनीय के उदय से सब इन्द्रियों के प्रतिकूल प्रतीत होने वाली, विविध प्रकार के संतापो का अनुभवरूप जीव की परिणति दुःखसंज्ञा कहलाती है।
(१३) मोहसंज्ञामोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यादर्शनरूप, तथा ज्ञानादि गुणों का निषेध करने वाली, समस्त पापस्थानकों का कारणरूप आत्मा की विभावपरिणति मोहसंज्ञा है। कुदेव कुगुरु और कुधर्म आदि में प्रवृत्ति होने से मोहसंज्ञा का ज्ञान होता है।
(१४) विचिकित्सासंज्ञा-- मोहनीय और ज्ञानावरण कर्म के उदय से संशयरूप आत्मा का परिणमन विचिकित्सा
(१२) मसंज्ञा--- સંસારી જીને અસાતવેદનીયના ઉદયથી સર્વ ઈન્દ્રિમાં પ્રતિકૂળતાનું ભાન કરાવવા વાળી, વિવિધ પ્રકારના સંતાપના અનુભવરૂપ જીવની પરિણતિ તે દુખસંજ્ઞા वाय छे.
(13) मासाમેહનીય કર્મના ઉદયથી મિથ્યાદર્શન, તથા જ્ઞાનાદિ ગુણને નિધિ કરવાવાળી, સમસ્ત પાપસ્થાનના કારણરૂપ આત્માની વિભાવપરિણતિ તે મેહસંજ્ઞા છે. કદેવ, કુગુરુ અને કુધર્મ આદિમાં પ્રવૃત્તિ હોવાના કારણે મેહસંસાનું જ્ઞાન थाय छे.
(१४) वियित्सिासમોહનીય અને જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉદયથી સંશયરૂ૫ આત્માનું પરિણમન તે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ मु.२ ज्ञान (५) ___१७७
- (२) श्रुततानम्श्रुतं श्रुतिः श्रवणं ज्ञानविशेषः । तच्च कीदृशम् ? उच्यते-शब्दस्य श्रवणेन, भाषणादिना वा यज्जानमुत्पद्यते तदेव श्रुतम् ।
अत्र श्रुतशब्देन जानं गृह्यते, ज्ञानमभेदप्रकरणान्तःपातित्वात् । न तु श्रूयते इति व्युत्पत्त्या शब्दार्थकः श्रुतशब्दः । लब्धिरूपे मविज्ञाने सति पश्चात-श्रुतज्ञानमुत्पद्यते, न तु मतिनानाभावे, अतो मतिज्ञानं कारणं श्रुतज्ञानस्य । . ननु मतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानं संपद्यते, यथा-मृत्तिकैव घटः, तन्तुरेव पटः,
(२) श्रुतज्ञानश्रुति या श्रवण (सुनना), यह एक प्रकार का ज्ञान कहलाता है। शब्द के श्रवण से या मापण आदि से वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध के अनुसार जो पदार्थ का ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। _ यहाँ 'श्रुत' शब्द से ज्ञान का ग्रहण किया जाता है, क्यों कि वह ज्ञान के प्रमेदों के अन्तर्गत है, किन्तु 'श्रूयते' इस व्युत्पत्ति से शब्दार्थक श्रुत-शब्द नहीं है। लब्धिरूप मतिज्ञान के होने पर बादमें श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, मतिज्ञान के अभाव में नहीं होता, अत एव मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है।
शङ्का-मतिज्ञान ही श्रुतज्ञानरूप में परिणत हो जाता है, जैसे मिट्टी घटरूप में पलट जाती है, और तन्तु पट (वस्त्र) रूप में बदल जाते हैं, ऐसी स्थिति में भगवान्ने श्रुतज्ञान का पृथक् ग्रहण किम प्रयोजन से किया है ?
(२) श्रुतज्ञान• કૃતિ અથવા શ્રવણ-સાંભળવારૂપ એક પ્રકારનું જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. શ્રુત-જ્ઞાન કેવું હોય છે? શબ્દના સાંભળવાથી અથવા ભાષણ આદિથી, વાચ-વાચક ભાવ સંબધ પ્રમાણે જે પદાર્થનું જ્ઞાન થાય છે, તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે.
અહિં શ્રુત-શબ્દથી જ્ઞાન ગ્રહણ કરી શકાય છે. કેમકે તે જ્ઞાનના પ્રત્યેની અંદર છે, પરંતુ “શ્રયતે” આ વ્યુતપત્તિથી શબ્દાર્થક કૃત–શબ્દ નથી. લબ્ધિરૂપ મતિરાન થયા પછી શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, મતિજ્ઞાનના અભાવમાં થતું નથી તે કારણથી મતિજ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાનનું કારણ છે. * શંકા-મતિજ્ઞાન જ શ્રતજ્ઞાનરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે, જેમકે માટી ઘટ ૨૫માં કરી જાય છે. અને તેનું સ્વરૂપમાં બદલાઈ જાય છે. એવી સ્થિતિમાં ભગવાને શ્રુતજ્ઞાનનું જુદુ ગ્રહણ શું પ્રયોજનથી કર્યું? :
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आचारासंत्रे सर्व विरतिदेशविरतिरूपाऽऽत्मनः स्वभावपरिणतिः धर्मसंज्ञा । सा जीवरक्षणादिव्यापारेण ज्ञायते ।
ज्ञानसंज्ञाभेदाःज्ञानसंज्ञा तु मतिश्रुतादिभेदात् पञ्चधा-(१) मतिज्ञानं, (२) श्रुतज्ञानं, (३) अवधिज्ञानं, (४) मनापर्ययज्ञानं, केवलज्ञानं, चेति ।
(१) मतिज्ञानम् - मननं मतिरववोधः। मतिवासी ज्ञानं च मतिज्ञानम् । अत्र ज्ञानशब्दः सामान्यज्ञानवाचकः । इन्द्रिय-नोइन्द्रिजयन्यं ज्ञानं मतिर्ज्ञानविशेपः, अतः सामान्यविशेपयोनियोः सामानाधिकरण्यम् । रूप आत्मा की स्वभावपरिगति को धर्मसंज्ञा कहते हैं। जीवरक्षा आदि व्यापारों से उसका ज्ञान होता है।
ज्ञानसंज्ञा के भेद मति, श्रुत आदिके भेद से ज्ञानसंज्ञा पांच प्रकार की है। वह इस प्रकार___ (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान, और (५) केवलज्ञान ।
- (१) मतिज्ञान मनन करना मति है, अर्थात् बोध । मतिरूप ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का वाचक है । 'इन्द्रिय और मनसे होनेवाला ज्ञान मति है। ऐसा अर्थ करने से सामान्य और विशेष ज्ञानों में समानाधिकरणता हो जाती है। આત્માની સ્વભાવપરિસ્થતિને ધર્મસંશા કહે છે. જીવરક્ષા આદિ વ્યાપારથી તેનું ज्ञान थाय छे.
જ્ઞાનસંજ્ઞાના ભેદ– મતિ, શ્રત આદિ ભેદ વડે-કરી જ્ઞાનસંજ્ઞા પાંચ પ્રકારની કહી છે તે આ प्रभाये छ-(१) भतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (४) भन:पययज्ञान, मने (५) उपसज्ञान.
(१) भतिज्ञानમનન કરવું તે મતિ છે. અર્થાત્ બેધ છે, મતિરૂપ જ્ઞાન તે મતિજ્ઞાન કહેવાય છે. અહિં જ્ઞાન શબ્દ સામાન્ય જ્ઞાનને વાચક છે. “ઇન્દ્રિયઅને મનથી ઉત્પન્ન નાન તે મતિ છે” એ અર્થ કરવાથી સામાન્ય અને વિશેષ જ્ઞાનમાં સમાનાधिता (समाना ') लय छे.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ स्. २ ज्ञान (५)
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- तस्मिन् पक्षे - श्रुतस्य आप्तवचनस्य ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति पष्ठीतत्पुरुषः । आप्तो= रागादिरहितः सर्वज्ञस्तस्य वचनम् - आप्तवचनम् । तदर्थाध्यवसायरूपं ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति । अध्यवसायो निर्णयः । श्रुतज्ञानं प्रति शब्दस्य निमित्तकारणतया शब्देऽपि श्रुतव्यपदेशो भवति । ज्ञानभेदव्यवस्थायां तु श्रुतशब्दः श्रवणार्थवाचीत्यवधेयम् ।
(३) अवधिज्ञानम् -
अवशब्दोऽधः शब्दार्थः, अव = अधः विस्तृतं वस्तु धीयते ज्ञायतेऽनेनेत्यवधिः । अवधिवासौ तज्ज्ञानं चेति विग्रहः । विस्तृतविषयकं ज्ञानमवधि - वचन का भी ग्रहण होता है । उस पक्ष में श्रुत का अर्थात् आप्तवचन का ज्ञान श्रुतज्ञान है, ऐसा पष्ठीतत्पुरुष समास होगा । आप्त अर्थात् रागादिसे रहित सर्वज्ञ, उनका वचन आप्तवचन कहलाता है । अव्ययसाय अर्थात् निश्चय । ऐसा अध्यवसायरूप अर्थात् पदार्थ का निश्चयात्मक ज्ञान श्रुतज्ञान होता है । शब्द, श्रुतज्ञान में निमित्त कारण है, इस लिये शब्द भी त कहलाता है, किन्तु ज्ञान-भेदकी व्यवस्था में श्रुत-शब्द श्रवण अर्थ का वाचक है ।
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(३) अवधिज्ञान
'अव का अर्थ है 'अधः ' अर्थात् नीचे । तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान अधोदिशा की वस्तु को विस्तार से जानता है वह अवधिज्ञान कहलाता है | अवधिरूप ज्ञान अवधिज्ञान है, अर्थात् विस्तृतविषयक ज्ञान । जैसे- अनुत्तरोपपातिक देव अवधिज्ञान
આમવચનનું ગ્રહણ થઇ શકે છે. તે પક્ષમાં શ્રુતનું અર્થાત્ આમ્રવચનનું જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન છે. એ પ્રમાણે ષષ્ઠીતત્પુરૂષ સમાસ થશે. આપ્ત અર્થાત્ રાગાદિથી રહિત, સર્વજ્ઞ, તેનુ' વચન તે આપ્તવચન કહેવાય છે અધ્યવસાય અર્થાત્ નિશ્ચય, એવા અધ્યવસાયરૂપ અર્થાત્ પદાર્થનું નિશ્ચયાત્મક જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. શબ્દ, શ્રુતજ્ઞાનમાં કારણ છે, એટલા માટે શબ્દ પણ શ્રુત કહેવાય છે, પરં'તુ જ્ઞાન-ભેદ્યની વ્યવસ્થામાં શ્રુત-શબ્દ સાંભળવું' એ અનેા વાચક છે.
(3) अवधिज्ञान---
અવના અર્થ છે ‘ અધઃ' અર્થાત્ નીચે, તા એ છે કે-જે જ્ઞાન અષા દિશાની વસ્તુઓને વિસ્તારથી જાણે છે, તે અવધજ્ઞાન કહેવાય છે. અવિધરૂપ જ્ઞાન અવધિજ્ઞાન છે, અર્થાત્ વિસ્તૃતવિષયક જ્ઞાન, જેમકે:-અનુત્તરપપાતિક દેવ અવિધ
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आचाराङ्गपुत्रे
तर्हि श्रुतज्ञानस्य पृथगुपादानं भगवता / किमर्थं कृतम् ? उच्यते दृष्टान्तद्वयमिदं विपमम्, यथा घटमादुर्भावे पिण्डाकारा मृत्तिका मणश्यति, पटोत्पत्तौ सत्यां तन्तुपुञ्जश्च तथा श्रुतज्ञाने समुपन्ने मतिज्ञानं न प्रणश्यति, उक्तञ्च भगवता' जत्य भई तत्य सुयं, जत्य सुयं तत्य मई' (नन्दी. )
छाया - यत्र मतिस्तत्र श्रुतं यत्र श्रुतं तत्र मतिः ।
श्रुतस्य सद्भावे मतेर्विद्यमानता भगवताऽभिहिता, तस्मादपेक्षाकारणमेव मतिज्ञानं श्रुतज्ञानस्येति मन्तव्यम्, तथा च- मतिज्ञानपूर्वकमिन्द्रियमनोजन्यमाप्तवचनानुसारि ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति निष्कर्ष: । इति ।
' श्रूयते यत् तच्छुत' - मितिव्युत्पत्त्या श्रुतशब्देनाप्तवचनमपि गृखते समाधान- ये दोनों दृष्टान्त विषम हैं, जैसे-घ -घट प्रकट होने पर पिण्डाकार मिट्टी मिट जाती है, और जैसे पटकी उत्पत्ति होने पर तन्तुओं का पुञ्ज नष्ट हो जाता है, उस प्रकार श्रुतज्ञान उत्पन्न होने पर मतिज्ञान नष्ट नहीं होता । भगवानने कहा है-
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“जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुतज्ञान है, जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान है । श्रतज्ञान के सद्भाव में मतिज्ञान का अस्तित्व भगवानने बतलाया है, अत एव मतिज्ञान श्रुतज्ञान का अपेक्षाकारण ही है, ऐसा मानना चाहिए । तात्पर्य यह निकलता है किमतिज्ञानपूर्वक इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होने वाला, तथा आप्तवाक्यका अनुसरण करने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है ।
'जो सुनाजाय वह श्रुत है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'श्रुत' शब्द से आप्त
સમાધાન-એ મને દૃષ્ટાંત વિષમ છે, જેમકે ઘટ પ્રગટ થતાં પિંડાકાર માટી મટી જાય છે, જેમ વસ્રની ઉત્પત્તિ થતાં તંતુઓના જથ્થા નાશ પામે છે, તે પ્રમાણે શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થતાં મતિજ્ઞાન નાશ પામતું નથી. ભગવાને કહ્યું છે કે~
“ જ્યાં મતિજ્ઞાન છે ત્યાં શ્રુતજ્ઞાન છે, જ્યાં શ્રુતજ્ઞાન છે ત્યાં મતિજ્ઞાન છે” શ્રુતજ્ઞાનના સદ્ભાવમાં તિજ્ઞાનનુ અસ્તિત્વ ભગવાને બતાવ્યું છે. એ કારણથી મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાનનું અપેક્ષાકારણુ જ છે. એમ માનવું જોઈએ, તેા તાત્પર્ય એ નીકળ્યું કે મતિજ્ઞાનપૂર્વક, ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉત્પન્ન થવાવાળું, તથા આપ્તવાયનું અનુસરણ કરવાવાળું જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન છે.
· જે સાંભળવામાં આવી શકે તે શ્રુત છે' આ વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે ‘શ્રુત' શબ્દથી
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ . २ ज्ञान (५)
(४) मन:पर्ययज्ञानम् -
पर्ययनं सर्वतः परिच्छेदनम् - अवबोधनं पर्ययः । मनसः पर्ययो मनःपर्ययः, मनोविषयकः, स चासौ ज्ञानं च मन:पर्ययज्ञानम् । यद्वा मनःपर्ययस्य ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानम् ।
मनो द्विविधं द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणाः । संज्ञिना मनोर्गणा गृहीताः सत्यो मन्यमानाचिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते ।
૮.
तत्रेह भावमनः परिगृह्यते । भावमनसः पर्ययाश्च परेषां सार्धतृतीयद्वीपा - भ्यन्तरवर्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां चिन्त्यमान विषयाध्यवसायरूपाः । (४) मन:पर्ययज्ञान -
यथा-अन्यः
पर्यय अर्थात् जानना, मन को सर्वथा जानना मन:पर्ययज्ञान है, अर्थात् मनोविषयक, सम्पूर्ण ज्ञान मनःपर्ययज्ञान कहलाता है । अथवा - मनःपर्यय (मनके पर्यवों) का ज्ञान मन:पर्ययज्ञान कहलाता है ।
मन दो प्रकार का है—- द्रव्य - मन और भाव-मन । मनोवर्गणाओं को द्रव्यमन कहते हैं । संज्ञा जीव द्वारा ग्रहण की हुई मनोवर्गणाएँ जब चिन्तन की जाती हैं वे भावमन कहलाती हैं ।
मन:पर्यय ज्ञान के प्रकरण में भावमन ही लिया जाता है । अढाई द्वीप के अन्तर्गत संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के द्वारा चिन्तन किये जाने वाले, विषयाध्यवसायरूप पर्ययों को मनःपर्यय ज्ञान जानता है । जैसे - कोई दूसरा जीव ऐसा विचार करे-आत्मा कैसा
(४) मन:पर्यय ज्ञान
પય અર્થાત્ જાણવું, મનને જાવું તે મન:પર્યય જ્ઞાન છે. અર્થાત્–મન વિષયકનું સંપૂર્ણ જ્ઞાન મન:પર્યંય કહેવાય છે. અથવા મન:પર્યંયનું જ્ઞાન તે મનઃ
· पर्ययज्ञान अवाय छे.
-
भन के प्रअरनां छे- (१) द्रव्यमन अने (२) लावभन मनोवर्ग लाभोने द्रव्यમન કહે છે, અને સસ્તી જીવ દ્વારા ગ્રડુણુ કરાએલી મનેવગણુાઓનુ જ્યારે ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને ભાવમન કહે છે.
મન:પર્યંચ જ્ઞાનના પ્રકરણમાં ભાવમન જ લેવામાં આવે છે. અઢી દ્વીપના સ'ની પંચેન્દ્રિય જીવેા દ્વારા ચિન્તન કરવામાં આવતા વિષયાધ્યવસાયરૂપ પાને મન:પર્યય જ્ઞાન જાણે છે. જેમ કે--કાઈ ખીજો જીવ એવા વિચાર કરે-આત્મા કુવા
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आचारागसत्रे ज्ञानम् । यथा-अनुत्तरोपपातिका देवा अवधिज्ञानवलेन भगवन्तमापृच्छय जीवादितत्त्वस्वरूपं निर्धारयन्ति ।
यद्वा-' अवधिना ज्ञानम् ' इति तृतीयासमासः । अवधिर्मर्यादा-रूपिद्रव्याण्येव विषयीकरोति नेतराणी'-तिव्यवस्थारूपा, तथा चायमर्थः-अरूपिद्रव्यपरिहारेण रूपिद्रव्यमात्रविषयकं ज्ञानमवधिज्ञानमिति ।
यद्वा-अधोऽधोऽधिकं पश्यति येन तदवधिज्ञानम् । तच चतुर्गतिवर्तिनां जीवानामिन्द्रियमनोनिरपेक्ष प्रतिविशिष्टक्षयोपशमनिमित्तकं रूपिद्रव्यसाक्षात्कारजनकं भवति । एतस्य ज्ञानस्य देव-मनुष्य-तिर्यङ्-नारका अधिकारिणः । के वल से भगवान् से प्रश्न पूछ कर जीवादितत्वों का स्वरूप निश्चित कर लेते हैं ।
अथवा अवधि के साथ जो ज्ञान हो यह अवधिज्ञान कहलाता है । अवधिका अर्थ है मर्यादा । अवधिज्ञान, रूपी द्रव्यों को ही जानता है, अरूपी को नहीं, वह व्यवस्था हो यहाँ मर्यादा समझनी चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि-अरूपी द्रव्यों को छोडकर केवल रूपी द्रव्यों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
अथवा-जिस ज्ञान के द्वारा नीचे नीचे अधिक जाना जाय वह अवधिज्ञान है। यह ज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है। यह, सिर्फ रूपी पदार्थों को साक्षात् जानता है, और विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकी, समी इस ज्ञान के अधिकारी हैं, अर्थात् यह चारों को हो सकता है। . જ્ઞાનના બળથી ભગવાનને પ્રશ્ન પૂછીને જીવાદિ તને નિશ્ચય કરી લે છે. અથવાઅવધિની સાથે જે જ્ઞાન થાય છે તે અવધિજ્ઞાન કહેવાય છે. અવધિને અર્થ છે મર્યાદા. અવધિજ્ઞાન, રૂપી કને જ જાણે છે, અરૂપી દ્રવ્યોને જાણતું નથી, આ વ્યવસ્થા જ અહિં મર્યાદા સમજવી જોઈએ. તાત્પર્ય એ થયું કે અરૂપી-દ્રવ્યોને છેડીને કેવળ રૂપી દ્રવ્યને જાણવાવાળું જ્ઞાન તે અવધિજ્ઞાન કહેવાય છે. અથવા જે જ્ઞાન દ્વારા નીચે નીચે વિશેષ જાણવામાં આવે, તે અવધિજ્ઞાન છે. તે જ્ઞાન ચાર ગતિઓના જીને થઈ શકે છે, માત્ર રૂપી પદાર્થોને સાક્ષાત્ જાણે છે, અને વિશિષ્ટ હથોપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે, દેવ, મનુષ્ય, તિર્યંચ અને નારકી, આ સર્વ તે જ્ઞાનના અધિકારી છે, અર્થાત્ એ ચારેયને અવધિજ્ઞાન થઈ શકે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. मु.२. ज्ञान (५) १८३
तथा मनःपर्ययज्ञानी कस्यचिद् भावरूपं मनः सर्वतोभावेन प्रत्यक्षीकृत्यानुमानेन बाह्य विषयमवयुध्यते-- इदं वस्त्वनेन चिन्त्यते' इति । बाह्यपदार्थचिन्तनसमये हि वाह्यपदार्थाकारसदृशाकारं मनो भवति ।
___ इदं मनापर्ययज्ञानं रूपिविषयत्व-क्षायोपशमिकत्व-प्रत्यक्षत्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानाद् भिन्न, स्वाम्यादिभेदात् । तथाहि-अवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टेरपि भवति, तद् द्रव्यतोऽशेपरूपिद्रव्यविषय, क्षेत्रतो लोकविषयम् , कालतोऽतीतानागतासंख्यातोत्सर्पिण्यवसर्पिणीविषयम् , भावतः सकलरूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसंख्यातपर्यायविपयम् ।
मनापर्ययज्ञानं तु प्रमादरहितस्याऽऽमधन्यतमलब्धिधारिणः संयतस्य भवति । द्रव्यतः-संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यविपयं, क्षेत्रतः-समयक्षेत्रमात्रविषयम् ____ मनःपर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह रूपी पदार्थों को विषय करता है क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, किन्तु अवधिज्ञान से भिन्न है, क्यों कि स्वामी आदिके भेद से दोनों में भेद है, वह इस प्रकार—अवधिज्ञान अविरतसम्यादृष्टि को भी होता है, वह द्रव्यतः समस्त रूपी द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र से समस्त लोक को जानता है, काल से असंख्यात भूत और भावी उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी को विषय करता है, भाव से समस्त रूपी द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य की असंख्यात पर्यायों को जानता है।
मनःपर्ययज्ञान अप्रमत्त संयत को तथा आमर्प आदि किसी लब्धि के धारक को ही होता है । वह द्रव्य से संज्ञो पञ्चेन्द्रिय के मनोद्रव्य को, क्षेत्र से समयक्षेत्रमात्र को
મન:પર્યજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન પ્રમાણે રૂપી પદાર્થોને વિષય કરે છે–જાણ છે મનઃપર્યયજ્ઞાન ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ અવધિજ્ઞાનથી તે ભિન્ન છે, કેમકે સ્વામી આદિના ભેદથી તે બંનેમાં ભેદ છે. તે આ પ્રમાણે-અવધિજ્ઞાન અવિરત સમ્યગદષ્ટિને પણ થાય છે. તે દ્રવ્યથકી સર્વ રૂપી જીવેને જાણે છે, ક્ષેત્રથકી સમસ્ત લોકને જાણે છે, કાલથકી અસંખ્યાત ભૂત અને ભાવી ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણીને જાણી શકે છે, ભાવથી સમસ્ત રૂપી દ્રવ્યોમાંથી પ્રત્યેક દ્રવ્યની અસંખ્યાત પર્યાને જાણે છે.
મનઃપર્યયજ્ઞાન અપ્રમત્ત સંયતને (મુનિને) તથા આમર્ષ આદિ કેઈ લબ્ધિના ધારકને જ થાય છે. તે દ્રવ્યથી સંજ્ઞી પંચેદ્રિનાં મોદ્રવ્યને, ક્ષેત્રથકી સમયક્ષેત્ર
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आचारागसूत्रे कश्चिदेवं चिन्तयेत्-'आत्मा कीदृशः ? अरूपी, चेतनास्त्रमावा, कर्मणां कर्ता, तत्कलभोक्ता चेत्यादयो ये ज्ञानविशेषरूपास्तस्यात्मनः परिणामास्तेषां यद् ज्ञानं तन्मनःपर्ययज्ञानम् ।
मनःपर्ययज्ञानी च मनःपर्ययाने प्रत्यक्षीकरोति न तु वाह्य वस्तु । न च'मनःपर्ययज्ञानिना बाह्य वस्तु न ज्ञायते' इति वाच्यम् , अनुमानतस्तस्य वाद्यवस्तुज्ञानसद्भावात् । यथा-विशिष्टक्षायोपशमिकमतिभाशाली प्रेक्षावान् प्रशान्तः कस्यचिदाकारेगितादिकं विलोक्य तदीयमनोगतं भावं सामथ्र्य चानुमानतो विजानाति । है ? अरूपी, चेतनास्वरूप, कर्मों का कर्ता, कर्मफलभोक्ता, इत्यादि आत्मा के जो ज्ञानविशेषरूप परिणाम हैं; उन्हें जानना मनःपर्ययज्ञान है । मनःपर्ययज्ञानी जीव, मन के पर्यायों को ही प्रत्यक्ष करता है, बाह्य वस्तु को नहीं । परन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि मनःपर्ययज्ञानी बाह्य वस्तुओं को जानता ही नहीं है। मनःपर्ययज्ञानी को अनुमान से बाह्य पदार्थों का ज्ञान होता है। जैसे-विशिष्टक्षयोपशमजन्य प्रतिभा वाला बुद्धिमान् पुरुप किसी के इशारे या चेष्टा को देखकर उसके मनका भाव और उसका सामर्थ्य अनुमान से जान लेता है, इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी दूसरे के भावरूप मन को पूर्णतया प्रत्यक्ष करके अनुमान से बाह्य वस्तु को जान लेता है कि-'इसने अमुक वस्तु का विचार किया है। बाह्य पदार्थों का विचार करते समय उसी पदार्थ के आकार का मन हो जाता है। छ १ २०२०पी, येतना-स्व३५, भान ता, भसatwal, त्या मामाना જ્ઞાન વિશેષરૂપ જે પરિણામ છે, તેને જાણવા તે મનઃ પયય જ્ઞાન છે.
મન પર્યય જ્ઞાની જવ મનના પર્યાયને જ પ્રત્યક્ષ કરે છે બહારની વસ્તુઓને નહિ. પરંતુ એમ કહેવું ઠીક નથી કે-મન પર્યયજ્ઞાની બહારની વસ્તુઓને જાણતા જ નથી, મન:પર્યયજ્ઞાનીઓને અનુમાનથી બહારની વસ્તુઓનું જ્ઞાન હોય છે. જેમકે – વિશિષ્ટપશમ જન્ય પ્રતિભાવાળા બુદ્ધિમાન પુરૂષ કેઈને ઈશારાથી અથવા ચેષ્ટાને જોઈને તેના મનને ભાવ અને તેનું સામર્થ્ય અનુમાનથી જાણી લે છે, એ પ્રમાણે મનપયાની બીજાના ભાવરૂપ મનને પૂર્ણ રૂપમાં પ્રત્યક્ષ કરીને અનુમાનથી બહારની વસ્તુઓને જાણી લે છે કે –“તેણે અમુક વસ્તુને વિચાર કર્યો છે બહારના પદાર્થોને વિચાર કરવાના સમયે તેજ પદાર્થના આકારરૂપ મન થઈ જાય છે.
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• आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ स.२. मतिज्ञानम् (९) १८५
मविज्ञानं चानेकविधम् , ईहादिभेदात् । उक्तञ्च भगवता-- . . - "ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा ।' सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं आभिणियोहियं." ॥ (नन्दी · मति
- , ज्ञानगाथा २७) छाया-ईहा, अपोहः विमर्शः मार्गणा च गवेपणा।।
___ संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्वम् आभिनियोधिकम् ॥
'आभिणियोहियं' इत्यनेन त्रिकालविषयकं मतिज्ञानमुच्यते तथा चोक्तं भगवता-"पंचविहं गाणं पण्णत्तं । तंजहा-(१) आभिणियोहियणाणं, (२) सुयणाणं, (३) ओहिणाण (४) मणपज्जवणाणं (५) केवलणाणं । इति ( नन्दी, १)
(१) ईहाईहाऽपोहादयो मतिज्ञानमभेदाः। तत्र-ईडनम्-ईहा। नामजात्यादि. यहाँ मतिज्ञान का ही प्रसङ्ग है । मतिज्ञान, ईहा आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। __भगवान्ने कहा है :
___ "ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा, यह सब आमिनियोधिक ज्ञान (मतिज्ञान) है " (नन्दीसूत्र मैतिज्ञान गाथा २७)
आमिनियोधिक ज्ञान का अर्थ है-त्रिकालविषयक मतिज्ञान । भगवान्ने कहा है:- "ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-(१) आभिनिबोधिकज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३). अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान और (५) केवलज्ञान" (नन्दी-सू०१)
(१) ईहा• इहा अपोह आदि मतिज्ञान के भेद हैं। नाम और जाति आदि की विशेष મતિજ્ઞાનને જ પ્રસંગ છે, મતિજ્ઞાન ઈહ આદિ ભેદથી અનેક પ્રકારનું છે. ભગવાને
छ :-81, मोर, विभश, भा , गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, भति,. भने પ્રજ્ઞા, એ સર્વ આભિનિબંધક જ્ઞાન–મતિજ્ઞાન છે (નંદીસૂત્ર મતિજ્ઞાનગાથા ર૭) આભિનિબેધિક જ્ઞાનને અર્થ છે-ત્રિકાલવિષયક મતિજ્ઞાન, ભગવાને કહ્યું છે કે"सान पांय २नु छ, त मा प्रमाणे (१) भामिनिमोविज्ञान (२) श्रुतज्ञान, (3) पधिज्ञान (४) भन:पयशान मने-सज्ञान (नन्ही सू०१) - .
(१) हाઈહા તથા અપહ વગેરે મતિજ્ઞાનના ભેદ છે નામ અને જાતિ આદિની વિશેષ प्र. आ.-२४
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आचारायचे कालतोऽतीतानागतपल्योपमासंख्यातभागविषयम् , भावतो मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायविपयकम् ।
(५) केवलज्ञानम् - केवलम्-एकमसहायं ज्ञानावरणीयकर्मात्यन्तक्षयसमुद्भूतम्-अतीताना गतवर्तमानयथावस्थितसकलद्रव्यगुणपर्ययविषयकमप्रतिपाति ज्ञानं केवलज्ञानम् । अत्र ग्रन्थविस्तरभिया विरमामः ।
ज्ञानप्रसङ्गेन मत्यादिभेदपञ्चकं प्रदर्शितं, प्रकृते तु मतिज्ञानस्यैवाधिकारः। (अढाई द्वीप को), काल से पन्योपम के असंख्यातवें भाग-भूत-भविष्यत् कालको और भाव से मनोदव्य की अनन्त पर्यायों को विषय करता है।
(५) केवलज्ञानकेवलज्ञान, केवल अर्थात् एक ही है। उस के साथ दूसरी ज्ञान नहीं होता। वह असहाय है अर्थात् इन्द्रिय मन आदि किसी की सहायता की उसे अपेक्षा नहीं है । वह ज्ञानावरण कर्म के आत्यन्तिक क्षय से उत्पन्न होता है । अतीत, अनागत, वर्तमान काल के समस्त द्रव्यों गुणों और पर्यायों को यथार्थरूप में जानता है, अप्रतिपाती है, अर्थात् एकवार उत्पन्न हो कर कभी नष्ट नहीं होता। ऐसा ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। ग्रन्थविस्तार के भय से अधिक विस्तार नहीं करते ।।
ज्ञान का प्रकरण होने से मतिज्ञान आदि पांच भेद बतलाये जा चुके हैं। માત્રને (અઢી દ્વિીપને) કાલથી પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગે ભૂત-ભવિષ્ય કાલને અને ભાવથી મને દ્રવ્યની અનંત પર્યાને જાણે છે.
(५) सज्ञानકેવલજ્ઞાન, કેવલ અર્થાત્ એકજ છે. તેની સાથે બીજું જ્ઞાન થતું નથી, તે અસહાય છે, અર્થાત ઈન્દ્રિય, મન આદિ કેઈની પણ સહાયતાની તેને અપેક્ષા નથી. અને તે કેવલજ્ઞાન જ્ઞાનાવરણીય કર્મના આત્યંતિક ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે. કેવલજ્ઞાન ભૂતકાલ, ભવિષ્યકાલ અને વર્તમાન કાલના સમસ્ત દ્રવ્ય, ગુણે અને પર્યાને યથાર્થરૂપથી જાણે છે. તે અપ્રતિપાતી છે, અર્થાત્ એક વાર ઉત્પન્ન થઈને ફરી કોઈ પણ વખત નાશ પામતું નથી, એવું જે જ્ઞાન તે કેવલજ્ઞાન કહેવાય છે. ગ્રંથવિરતારના ભયથી અધિક વિસ્તાર અહિં કરતા નથી.
જ્ઞાનનું પ્રકરણ હેવાથી મતિજ્ઞાન આદિ પાંચ ભેદ બતાવ્યા - અહિં
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.२. मतिज्ञानम् (९)
- १८७. सामान्यज्ञानोत्तरं कालं विशेपनिश्चयार्थ विचारणायां प्रवृत्तायां तदनु गुणदोपविचारणाजनितो निश्चयः,. यथा-'किमयं कमलनालस्पर्शः, आहोस्विद् भुजङ्गमस्पर्शः ?' इति विचारणायां 'मृणालस्यैवायं स्पर्शः, अत्यन्तशीतादिगुणवत्त्वादित्यस्यैवाय'-मिति निश्चयोऽन्यं भुजङ्गमस्पर्शमपनुदति, तस्मादयं निश्चयोऽपोहोऽपनोदश्चेति निगद्यते।
(३).मीमांसामीमांसा-मातुमिच्छा, मातुं-जीवादिस्वरूपं जातुमिच्छा ।
(४) मार्गणाजीवादिपदार्थस्य यथावस्थितस्वरूपान्वेपणं मार्गणा।
सामान्य ज्ञान के पश्चात् विशेष का निश्चय करने के लिए विचारणा प्रवृत्त होने पर पश्चात् गुण-दोष की विचारणा से उत्पन्न निश्चय अपोह कहलाता है । यथा'यह कमलनालका स्पर्श है या सर्प का स्पर्श है ?' इस प्रकार की विचारणा होने पर "यह कमलनाल का ही स्पर्श है, क्यों कि इस में अत्यन्त शीतलता है" इस प्रकार का निश्चय होना, और यह निश्चय अन्य का अर्थात् सर्प के स्पर्श का निराकरण करदेता है, अत एव यह निश्चय अपोइ, अपाय और अपनोद भी कहलाता है।
(३) विमर्शजीव आदि के स्वरूप को जानने की इच्छा विमर्श है ।
(४) मार्गणाजीव आदि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का अन्वेषण करना मार्गगा है।
સામાન્ય જ્ઞાન થયા પછી વિશેષને નિશ્ચય કરવા માટે વિચારણું થતાં પછી તેના ગુણ-દેષની વિચારણાથી ઉત્પન્ન નિશ્ચય તેને અપહ કહે છે, જેમ-આ કમલના નાળને સ્પર્શ છે કે સપને સ્પર્શ છે?” આ પ્રકારની વિચારણા થયા પછી નકકી કરવામાં આવે છે. આ સ્પર્શ કમલના નાળને જ છે, કેમકે તેમાં અત્યન્ત શીતલતા છે” એ પ્રકારનો નિશ્ચય થાય છે અને એ નિશ્ચય બીજાને અર્થાત સર્ષના સ્પર્શને નિરાકરણ કરી દે છે. તેથી કરી આ નિશ્ચય. તે અપહ, અપાય અને અપનેદ પણ કહેવાય છે.
(3) विभशજીવ આદિના સ્વરૂપને જાણવાની ઈચછા તે વિમર્શ છે.
(४) भागજીવ આદિ પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપનું અન્વેષણ કરવું તે માર્ગણા છે.
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१८६
आचाराचे विशेषकल्पनारहितसामान्यज्ञानोतरं - विशेषनिश्चयार्थ विचारणा-ईहा। यथास्पर्शनेद्रियेण स्पर्शसामान्ये ! ज्ञाते सति, तदनुः कीदृशोऽयं • स्पर्शः १, कस्यायं स्पर्शः ?किमयं कमलनालस्पर्शः उताहो भुजङ्गमस्पर्शः? इति गाढान्धकारे चक्षुष्मतोऽपि विचारणा मवर्तते।
(२) अंपोह:अपोहनम्-अपोहः निश्चयः । कोऽयमपोहः ? उच्यते-मतिज्ञानस्यावग्रहादि- । भेदचतुष्टये तृतीयभेदो योऽपायः स .. एवापोइंशन्देनोच्यते। अवग्रहादिभेदचतुष्टयं च नन्दीमत्रे भगवतैव प्रदर्शितमस्ति । कल्पना से रहित सामान्यज्ञान के पश्चात् , होने वाली विचारणा ईहा कहलाती है । जैसे-स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा स्पर्शका सामान्य ज्ञान होने के पश्चात् गाढ अन्धकार होने पर चक्षुवाले को भी यह विचारणा होती है कि '.यह स्पर्श कैसा है ? :किसका यह "स्पर्श है ? ' यह कमल' के 'नाल का स्पर्श है या सर्प का स्पर्श है ?, 'इस' प्रकार की विचारणा को ईहा कहते हैं ।११
(२) अपोहअपोह का अर्थ हैं-निश्चय । अपोह क्या है ? कहते ' है-भतिज्ञान के अवग्रह आदि चार 'भेदों में तीसरा भेद जो अपाय' है उसी को यहाँ 'अपोह' शब्द द्वारा कहां है । अवग्रह आदि चार भेद नन्दीसूत्र में भगवान्ने कहें हैं। કલ્પનાથી રહિત, સામાન્ય જ્ઞાનની પછી થવા વાળી વિચારણાને ઈહા કહે છે, જેમકે - 'સ્પર્શનેંદ્રિયના દ્વારા સ્પર્શનું સામાન્ય જ્ઞાન થયા પછી ગાઢ અંધકાર થાય ત્યારે
नेत्रपाणान. पाय-क्यिार थाय छ-सा स्पशवो छ १ मा गरी १५शयो "छ..शेने २५श. छ१, २मा भान नाणना २५श छ) है सपना स्पर्श छ ?, • मा • પ્રકારની વિચારણા તેને ઈહા કહે છે.
' (२). Angઅહિને અર્થ છે નિશ્ચય; એપિUએ શું છે? કહે છે કે–મેતિજ્ઞાનના અવગ્રહ આદિ ચાર ભેદ પિકીને ત્રીજો ભેદ જે અપાય છે, તેને અહિં “અહ” શબ્દથી
से छ. म माहियार ले नासूत्रमा भगवान सा छे.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ २.१ सू.२. मंतिज्ञानम् (९) .. १८९०
चेल्लणा देवी हेमन्त भगवत्समवसरणतः प्रत्यागच्छन्ती मार्गे महारण्ये स्वप्रतिज्ञाऽविनं जिनकल्पिनं कमपि मुनि ध्यानावस्थमालोक्य भक्त्या तदर्शनवन्दनादिकं विधाय स्वप्रासादमागता रात्री मुप्ता । निद्रावस्थायां तस्याः पाणिरावरणयवाद् यहिभूतः शीतेन शिथिलीवभूव । अथाऽसौ जागरिता जडीभूतं स्वहस्तं विलोक्य शीतादिपरिपहपरिगतं महारण्यस्थं मुनि स्मृतवती " कथमहो असौ मुनिस्दिानी बहिर्महावने शीतपरिभूतो भविष्यति"। इति कर्मणां महानिर्जरां महापर्यवसानं चकार ।
चेलना देवी हेमन्त ऋतु में भगवान् के समवसरणसे लौटती हुई, मार्ग में महा-अरण्य में, अपनी प्रतिज्ञा पालने वाले किन्ही जिनकल्पो मुनि को ध्यान में स्थित देखकर, भक्तिपूर्वक उन का दर्शन वन्दन आदि कर के अपने महल में आई और रात्रि में सो गई। निद्रावस्था में उस का हाथ ओढने के वस्त्र से बाहर निकल गया और ठंड के कारण ठर गया। रानी की नींद खुल गई । उसने अपने हाथ को जडीभूत देख कर शीत परिपहों से आक्रान्त, महा-अरण्यवासी मुनिका स्मरण किया। कहने लगी-अहो! महावन में, नगर के बाहर वह मुनि इस समय शीत से कैसा कष्ट पा रहे होंगे ?, ऐसा सोच कर उसने कर्म की महानिर्जरा की।
ચેલના દેવી હેમન્ત વાતુમાં ભગવાનના સમવસરણમાંથી પાછી ફરે ત્યારે માર્ગમાં મહાવનમાં, પિતાની પ્રતિજ્ઞા પાલનારા, કોઈ એક જિનકલ્પી મુનિને ધ્યાનમાં સ્થિત જોઈને, ભક્તિપૂર્વક તેનાં દર્શન, વંદન વગેરે કરીને પિતાના મહેલમાં આવી અને રાત્રીએ સુઈ ગઈ. નિદ્રાવસ્થામાં તેને એક હાથ એઢવાના વસ્ત્રમાંથી બહાર રહી ગયે, અને ઠંડી હોવાના કારણે તે હાથ કરી ગયે, રાણીની નિદ્રા ઉડી ગઈ, ત્યારે તેણે પિતાના હાથને ઠરી જવાથી જડ જે જોઈને શીત આદિ પરથી આક્રાન્ત, મહા-વનવાસી મુનિ સાંભરી આવ્યા અને કહેવા લાગી કે-અહો ! મહાવનમાં નગર બહાર તે મુનિ આ સમયમાં શીતથી કેવું કષ્ટ પામતા હશે ?, એ વિચાર કરીને કમની મહાનિર્જરા કરી.
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. .. आचारांगसूत्र .
(५) गवेपणा• मोर्गणानन्तरमनुपलभ्यस्य जीवादिपदार्थस्य सर्वतः परिभावन-निर्णयाभिमुखविचारपरायणता गवेपणा।
(६) संज्ञाइन्द्रियजन्यज्ञानविषयीभूतस्यार्थस्य पुनर्देर्शनेन " स एवाय"-मिति जायमानं ज्ञानं संज्ञा । यथा-"स एवायमाहारकलब्धिमान् महात्मा, यो मया कानने दृष्टः" ।
. . (७) स्मृतिःअनुभूतार्थविषयकं ज्ञानं स्मृतिः । इदं ज्ञानमतीतविषयकं भवति । अत्रोदाहारणं यथा
(५) गवेपणामार्गणा के पश्चात् उपलब्ध न होने वाला जीवादि पदार्थों का पूरी तरह विचार करना अर्थात् निर्णय के अभिमुख विचारपरायणता गपेपणा है।
. (६) संज्ञाइन्द्रियजन्य ज्ञानके विषयभूत पदार्थ का पुनः - दर्शन होने पर 'यह वही है'. इस प्रकार से उत्पन्न होने वाला ज्ञान संज्ञा कहलाता है। जैसे-"यह वहीं आहारकलब्धि वाले महात्मा हैं जिन्हें मैने वनमें देखा था।
(७) स्मृतिपहले अनुभव किये हुए पदार्थ लो विषय करनेवाला ज्ञान स्मृति कहलाता है । स्मृतिज्ञान अतीतविषयक ही होता है। यहां एक उदाहरण है, जैसे-~
(५) ५९।। . . માગણની ૫છી ઉપલબ્ધ નહિ થવા વાળા જીવાદિ પદાર્થોને પૂરી રીતે વિચાર ४२वो. अर्थात् नियन,अलिभुम-विया२ परायणतान गवेषण! ४ . . . :: .
. : " .. . . . .(६) - . इन्द्रियान्य ज्ञाननाविषयभूत पहायानुश शन, Adi " . छ.". એ પ્રકારે ઉત્પન્ન થવા વાળું જ્ઞાન તે સંજ્ઞા કહેવાય છે. જેમ-“આ તેજ આહારકલવાળા મહાત્મા છે જેને મેં વનમાં જોયા હતા.”
___ . . (७) स्मृतिપ્રથમ અનુભવ કરેલા પદાર્થને વિષય-કરનારૂં જ્ઞાન સ્મૃતિ કહેવાય છે. સ્મૃતિ-જ્ઞાન भतीत विषय ४, (वाती या प्रसंग.) डाय छ माडी 23 GETRY .
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-आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ५.२. मतिज्ञानम् (९) १९१
____ सा संज्ञा किंस्वरूपा, या न भवत्येकेपाम् ? इत्याकाक्षायामाह-" तंजहा" "इति । सा यथा
"पुरत्यिमाओ · वा दिसासो" इत्यारभ्य-"अहोदिसाओ वा आगओ अहमसिं" इत्यन्तेनेदमुक्तं भवति-वर्तमानजन्मनः प्राक् कम्यां दिशि ममावस्थान“ मासीदिति स्वगत्यागत्यवधिविशिष्टपूर्वादिपड्दिशाज्ञानं नास्ति संज्ञिनामपि कियतांचित् । यथा-मदिरामदघूर्णितनयनो मूर्छितः पथि पतितः स्वजनादिना समुत्थाप्य गृहमानीयते । अथ मृर्जापगमेऽप्यसौ न जानाति-काहं पतितः ?, कथमुत्यापितः ?, केन कया रीत्याऽत्र समानीतोऽस्मी ?-ति । तद्वद् विशिष्टसंज्ञाया
वह संज्ञा किस प्रकारकी है जो किन्हीं २ जीवों को नहीं होती है। इस प्रकार. की जिज्ञासा होने पर कहा गया है-तंजडा-अर्थात् वह इस प्रकार
'पुरथिमाओवा वा दिशाओ' से लेकर 'अहोदिशाओवा आगो : अहमंसि ' तक का आशय यह है कि इस वर्तमान जन्म से पहले मैं कहाँ रहता : था !, .. इस प्रकारका अपनी गति-आगति से युक्त छह दिशाओं का ज्ञान कितनेक संज्ञी जीवोंको
भी नहीं होता । जैसे-मदिरा . के मद से छका हुआ, मूर्छित . और रास्ते में पडा __ हुआ पुरुप स्वजन आदि के द्वारा उठाकर घर लाया जाता, है, किन्तु मूर्छा हट जाने · पर भी उसे ज्ञान नहीं होता कि मैं कहाँ गिरा था ?, किस प्रकार उठाया गया ?, कौन -किस प्रकार मुझे यहाँ लाया ?, इसी प्रकार विशिष्ट संज्ञा के अभाव के कारण जीव
. ते सज्ञा पा प्रारनी छ, 5-.७वान नयी जाती ?, मा प्रभारी
- वाथी ,घुछ -'तंजहा' अर्थात ते मा. अरे
"पुरत्यिमाओवा दिसाओ" थी धन " अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि," - સુધીને આશય એ છે કે –આ વર્તમાન જન્મથી પહેલાં હું ક્યાં રહેતે હતે. આ પ્રકારનું પિતાની ગતિ–આગતિથી યુક્ત છ દિશાઓનું જ્ઞાન કેટલાક સંજ્ઞા જીને પણ નથી થતુ. જેમ મદિરાના કેફથી છકેલા મૂઈિત-બેભાન રસ્તામાં પડેલા પુરૂષને સ્વજનદ્વારા ઉઠાવીને પિતાના ઘેર લાવવામાં આવે છે; પરંતુ મૂછ ઉતરી ગયા પછી પણ તેને જ્ઞાન થતું નથી કે-હું ક્યાં પડી ગયું હતું ? કેવી રીતે મને Goय? .पी.शत..मन मडि.साव्या ?, L. Rनी -पशिष्ट सशाना
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आचारास्त्रे (८) मतिःवर्तमानविषयक ज्ञान मतिः । यथा-'मुनिः सपमार्थ भिक्षामटति'।
विशिष्टक्षयोपशमजन्यं प्रभूतपदावर्ति यथावस्थितस्वरूपनिर्णयात्मकं ज्ञानं प्रज्ञा ।
आभिनिवोधिकस्वरूपस्य मतिज्ञानस्य प्रभेदा उक्ता..। ___" हेकेा नो संज्ञा भवती" त्यत्र संज्ञाशब्देनं मविज्ञानान्तर्गतं स्मृतिरूपं विशिष्टं ज्ञानं भगवता नोशब्दनिर्देशेन प्रतिषेधितम् , नतु सर्वविधसंझारूपं सामान्य ज्ञानम् ।
(८) मतिःवर्तमानविषयक ज्ञान मति कहलाता है। जैसे- मुनि संयम पालने के अर्थ मिक्षाके लिए भ्रमण करता है।'
(९) प्रज्ञाविशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला और प्रभूत पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का . निर्णयात्मक ज्ञान प्रज्ञा है।
आभिनिवोधिकरूप मतिज्ञान के प्रभेद कहे गये।
'कितनेक जीवाको संज्ञा नहीं होती' यही संज्ञा शब्द से मतिज्ञान के अन्तर्गत स्मृतिरूप विशिष्ट ज्ञान का भगवान्ने 'नो' शब्द का निर्देशं करके निपेध किया है, किन्तु सब प्रकार की संज्ञारूप सामान्य ज्ञानका निपेव नहीं किया है।
(८) भतिવર્તમાન વિષયનું જ્ઞાન તે મતિ કહેવાય છે; જેમ “મુનિ સંયમપાલન-માટે ભિક્ષા લેવા ભ્રમણ કરે છે.
વિશિષ્ટ પશમથી ઉત્પન્ન થનારૂં પ્રભૂત પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપનું નિર્ણયાત્મક જ્ઞાન તે પ્રજ્ઞા છે.
આમિનિબેધિકરૂપ મતિજ્ઞાનના પ્રભેદ કહેવાયા.*
કેટલાક અને સંજ્ઞા નથી થતી” અહિં સંજ્ઞા શબ્દથી મતિજ્ઞાનના અંતગત અતિરૂપ વિશિષ્ટ જ્ઞાનને ભગવાને “નેશદને નિર્દેશ કરીને નિષેધ કર્યો છે પરંતુ સર્વ પ્રકારની સંજ્ઞાપ સામાન્ય જ્ઞાનને નિષેધ કર્યો નથી :
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१९३.
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.२ मतिज्ञानम् पूर्वा, दक्षिणा, पश्चिमा, उत्तरा चेति चतस्रोः दिशः, एशानी आग्नेयी, नैती, वायवी चेति चतस्रो विदिशः, आसामप्टानामन्तराला अप्टावन्तरदिशः, मिलित्वा पोडश । अथोर्ध्वम् , अघवेति द्वे इति, तयोर्योगेऽष्टादश। द्रव्यदिगेव प्रज्ञापकदिक्शब्देनाप्युच्यने ।
तथा-संमूर्छिममनुष्याः, गर्मजकर्मभूमिमनुष्याः, गर्भजाकर्मभूमिमनुष्याः, पट्पञ्चाशदन्तरद्वीपमनुष्याः, इति चतुर्विधा मनुष्याः, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिय भेदेन चतुर्विधास्तिर्यञ्चः,
पृथिव्यप्तेजोवायुकायभेदाच्चतुर्विधाः स्थावराः। अग्रवीज-मूलबीजपर्यवीज-स्कन्धवीज-भेदाच्चतुर्विधा वनस्पतयः । इति मिलित्वा पोडश । नरकगति
पश्चिम, दक्षिण और उत्तर चार दिशाएँ हैं। ईशान, अग्नेय नर्ऋत्य, वायव्य, ये चार विदिशाएँ हैं। इन आठो के बीच में आठ अवान्तर दिशाएँ हैं। ये सब मिलकर सोलह होती हैं। इन में ऊर्वदिशा और अधोदिशा शामिल कर देने से अठारह व्य-दिशाएँ होती हैं । द्रव्यदिशाको ही प्रज्ञापकदिशा भी कहते हैं।
तथा-संमूच्छिम मनुष्य, गर्मज-कर्मभूमिज मनुष्य, गर्मज-अकर्मजमूमिज मनुष्य, छप्पन अन्तरद्वीपों के मनुष्य, ये चार प्रकार के मनुष्य । द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय के मेद से चार प्रकार के तिर्यत । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के भेद से चार प्रकार के स्थावर, और अप्रवीन, मूलत्रीज, पर्वबीजं, तथा દક્ષિણ અને ઉત્તર. આ ચાર દિશાઓ છે. અગ્નિ, ઈશાન, નેત્ય, અને વાયવ્ય, આ ચાર વિદિશાઓ છે, આ આઠની વચમાં આઠ અવાન્તર દિશાઓ છે. આ સર્વ મળીને સેળ દિશાઓ થાય છે. તેમ ઉર્ધ્વદિશા અને અદિશા શામિલ કરવાથી અઢાર દ્રવ્ય દિશાઓ થાય છે, દ્રવ્ય દિશાને પ્રાપકદિશા પણ કહે છે. તથા-સંમૂર્હિમ મનુષ્ય, ગર્ભ જ કર્મભૂમિ જ મનુષ્ય, ગર્ભ જ-અકર્મભૂમિ જ મનુષ્ય, છપન અન્તરદીપના મનુષ્ય, આ ચાર પ્રકારના મનુષ્ય, કીન્દ્રિય, ત્રિીન્દ્રિય, અતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિયના ભેદથી ચાર પ્રકારના તિર્યંચ, પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજસ્કાય અને વાયુકાયના ભેદથી ચાર પ્રકારના. સ્થાવર, અને અબીજ, મૂલબીજ, પર્વબીજ प्र. ".:२५
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१९२
।
मानता
__ आधारासूत्र अभावानीवः पूर्वभयं न जानाति।।
"अण्णयरीओ वा दिसाओ" इति। यावत्यो दिशः सन्ति तत्र कस्याश्चिदेकस्या दिशः समागतोऽस्मीति स्वागमनावधिदिशं सामान्यरूपेणापि न जानन्ति कतिचन संजिनः, सर्वदिग्ज्ञानामावेनान्यतरदिराज्ञानासंभवादिति भावः ।
"अणुदिसाओवा" इति । ईशानादयः कोणरूपा विदिशोऽनुदिशः । तासां मध्ये कस्याधिदेकस्या अनुदिशः समागतोऽस्मीति सामान्यरूपेण, तर्थशान्या आग्नेय्या इत्यादि विशेषरूपेण च स्वागत्यवधिभूताया अनुदिशो ज्ञानं न भवतीत्यभिमायः।
अथ दिशः कति सन्ति ? उच्यते-संक्षेपतो द्रव्य-भाव-भेदेन दिशा द्विविधा। अपना पूर्व भव नहीं जानता।
'अण्णयरीओ वा दिसाओ' अर्थात् जितनी दिशाएं हैं, उनमें किसी भी एक दिशा से मैं आया हूँ, इस प्रकार अपने आगमन की दिशा को सामान्यरूप से भी कितनेक
संज्ञी नहीं जानते हैं । क्यों कि सभी दिशओं के ज्ञानके अभाव में किसी एक दिशा का ज्ञान • होना असम्भव ही है । 'अणुदिशाओवा' ईशान वगैरह कोगरूप विदिशाओं को अनुदिशा • कहते हैं। उनमें से सामान्यरूप से किसी भी एक दिशा से मैं आया हूँ, या विशेषरूप . से ईशान, आग्नेय आदि विदिशा से मैं आया हूँ, ऐसा ज्ञान नहीं होता। ' प्रश्न-दिशाएँ कितनी हैं ?
उत्तर-संक्षेप से दिशा के दो भेद हैं-द्रव्य-दिशा, और भाव-दिशा । पूर्व, __ मसाथी ७५ पोताना पूर्वसपने तो नथी. . ... - - - - . 'अण्णयरीओ वा दिसाओ' यात सी शाम , तमाथी पy
એક દિશાથી હું આવ્યો છું. આ પ્રમાણે પિતાના આગમનની દિશાને સામાન્ય , રૂપથી પણ કેટલાંક સંજ્ઞી જાણતા નથી. કેમકે સર્વ દિશાઓના જ્ઞાનના અભાવથી
3 से हिशानुं ज्ञान थषु ते मसलप छे. 'अणुदिसाओ वा. शान पोरे आएर , રૂપ વિદિશાઓને અનુદિશા કહે છે. તેમાંથી સામાન્યપે કઈ પ્રણ એક દિશાથી 'હું આવ્યો છું, અર્થવા વિશેષરૂપથી ઈશાને આમેય આદિ વિદિશાએથી હું साये छु. मेj san यतु नथी. ... प्रश्न-शाम सी छ ?
: - . :: 6त्तर-सपथी शान मे ले..द्र०यदिशा अने.शि. , पश्चिम,
उत्तर
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.३ मतिज्ञानम्
_ . . ....१९५ द्रव्यदिविषयकं ज्ञानं न भवत्येकेपामिति विवक्षया-"इहमेगेसि णो सण्णा भवइ" इत्युक्तं भगवता। भावदिशाविषयकं च ज्ञानं न भवत्येकेपामिति वक्ष्यतेऽनन्तरमत्र एव-" एवमेगेसि णो णायं भवड़" इत्यादिना । ।। मू. २ ॥
भावदिशाविषयकं च ज्ञानं भवति संजिनां कियतांचिदित्याह-'एवमेगेसिं' इत्यादि।
मूलम् । एवमेगेसि णो णाय भवइ-अस्थि मे आया ओवयाइए, नत्यि मे आया __ ओववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुए इद पेच्चा भविस्सामि ।। न. ३ ॥
(छाया) एवमेकेपां नो ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपाविकः, नास्ति मे आत्मा औपपातिकः, कोऽहमासम् , को वा इतश्च्युत इह प्रेत्य भविष्यामि ?॥ मू० ३॥
कितनेक जीवों को द्रव्यदिशासम्बन्धी ज्ञान नहीं होता, इस अपेक्षा से भगवानने कहा है कि-' इहमेगेसि णो सण्णा भवइ' । भावदिशाविषयक ज्ञान कितनेको नहीं होता है, यह बात 'एवमेगेसिं णो णायं भवई' इत्यादि अगले सूत्र में कही जायगी ।। सू० २ ॥
कितनेक मंत्री जीवोंको भावदिशाविषयक ज्ञान नहीं होता यह कहते हैं'एवमेगेसि' इत्यादि ।
मूलार्थ-किन्ही जीवोंको यह ज्ञान नहीं होता कि-मेरा आत्मा उत्पत्तिशील है या मेरा आत्मा :उत्पत्तिशील नहीं है । मैं पहले कौन था और यहाँ से मरकर परलोक में कौन होऊँगा ? ॥ सू०३ ॥
કેટલાક જીને દ્રવ્ય દિશાસંબંધી જ્ઞાન નથી થતું. એ અપેક્ષાથી ભગવાને धु छ :-'इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ' लापहि विषयनुज्ञान टा वाने नथी. ये पात 'एवमेगेसिं णो णायं भवइ' छत्यादि न्यासा सूत्रम हीशु. ॥सू० २॥
४ अशी वाने. सापशिाविषयतुं ज्ञान नथी ते ४ छ-'एवमेगेसिं' त्याहि.
મૂલાઈ કઈ કઈ અને એ જ્ઞાન નથી કે મારો આત્મા ઉત્પત્તિશીલ છે, . મારે આત્મા ઉત્પત્તિશીલ નથી, હું પ્રથમ કોણ હતા અને અહિંથી મૃત્યુબાદ
પરભવમાં હું કોણ થઈ? (હં કયાં જઈશ?) (રૂ. )
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१९४
आचाराने देवगतिश्चेति द्वे । सर्वयोगेऽष्टादश भावदिशः सन्ति । . अथ दिशां विदिशां च प्रवृत्तिः कुतः स्थानाद्भवति ? उच्यते
तिर्यग्लोकस्य मध्यभागे रत्नप्रभा भूमिः, तदुपरि मध्यभागे मेरुपर्वताभ्यन्तरे द्वौ लघुतरी प्रतरौ स्तः। तदुपरि गोस्तनाकाराश्चत्वारथस्वारः प्रदेशाः सन्ति । ईशाष्टप्रदेशी चतुष्कोणो रुचकनामा भागोऽस्ति । तत एव दिशां विदिशा च प्रवृत्तिभर्वति । उक्तञ्च
" तिर्यग्लोकस्य मध्ये यो, रुचकोऽष्टमदेशकः ।
दिशामनुदिशां चैव, प्रवृत्तिर्जायते ततः" ॥१॥ स्कन्धबीज के भेद से चार प्रकार की वनस्पति, ये सब मिलकर · सोलह होते हैं। तथा नरकगति और देवगति मिलकर अठारह प्रकार की भाव-दिशाएँ हैं।
प्रश्न-दिशाओं और विदिशाओंकी प्रवृत्ति किस स्थान से होती है ?
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उत्तर-तिर्यगलोक के मध्यभाग में रनप्रभा भूमि है। उसके उपर मध्यभाग में मेरु पर्वत के अन्दर दो छोटे प्रतर हैं। उनके उपर गाय के स्तन के आकारवाले . चार चार प्रदेश हैं। ऐसा अष्टप्रदेशी चौकोना रुनक नामक भाग है। वहां से दिशाओं और विदिशाओ की प्रवृत्ति होती है । कहा भी है
- " तिचे लोक के मध्य में आठ प्रदेशवाला रुचक भाग है । उसी से सब दिशाओं और अनुदिशाओं की प्रवृत्ति होती है ॥ १॥" તથા કંઇબીજના ભેદથી ચાર પ્રકારની વનસ્પતિ, આ સર્વે મળીને સેળ થાય છે, તથા નરકગતિ અને દેવગતિ મળીને અઢાર પ્રકારની ભાવ-દિશાઓ છે.'
प्रश्न-हिशा भने विमानी प्रवृत्ति या स्थानथी डाय ? "
ઉત્તર-તિર્થગલકના મધ્ય ભાગમાં રત્નપ્રભા ભૂમિ છે, તેના ઉપર મધ્ય ભાગમાં મેરૂ પર્વતની અંદર નાના બે પ્રતર છે, તેના ઉપર ગાયના સ્તનના આકાર વાળા ચાર-ચાર પ્રદેશ છે. એવે આઠપ્રદેશી ચાર ખુણાવાળો રૂચક નામને ભાગ છે, તેનાથી દિશા અને વિદિશાઓની પ્રવૃત્તિ થાય છે. કહ્યું પણ છે –
ઇતિછ લેકના મધ્યમાં આઠ પ્રદેશવાળો રૂચક ભાગ છે, ત્યાંથી સર્વ દિશાઓ भने अनुशागानी प्रवृत्ति याय छ,” ॥१॥
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१९७
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ म.३ मतिज्ञानेम् ___"दोण्डं उबवाए पण्णत्ते तंजहा-देवाणां चेव णेरड्याणं चेव" इति । (स्थानाङ्ग० २ स्था० ३ उ०)
द्वयोरुपपातः प्राप्तः, तद्यथा-देवानां चैव नैरयिकाणां चैव । इति च्छाया ।
उपपातादागतः औपपातिकः । देवभवाद नरकभवाद्वा ममायमात्मा समागतोऽस्तीत्यर्थः । नास्ति मे आत्मा औपपातिक इति, अत्र-नगर्थस्यौपपातिकेऽन्वयः। ममात्मा-अनौपपातिकोऽस्तीत्यर्थः । संमूर्छनभवाद् गंभभवाद् वा ममात्मा समागतोऽस्तीति भावः । इममर्थ स्पष्टीकर्तुमाह-कोऽहमासम् ? इति ।
अत्र प्रसङ्गवशेन जन्मतत्प्रभेदाश्च निरूप्यन्ते
" दो प्रकार के जीवों के उपपातजन्म कहा गया है। वह इस प्रकार-देवोंके और नारकों के ।" (स्था० २, उ. ३)
उपपात से उत्पन्न होनेवाला औपपातिक कहलाता है । तात्पर्य यह हुआ कि-मेरा __ आत्मा देवभव या नरकभव से आया है ! इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता।
__ 'णात्थि मे आया उववाइए' यहां निषेध का औपपातिक के साथ अन्वय है अर्थात् मेरा आत्मा औपपातिक नहीं है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए। तात्पर्य यह है किमेरा आत्मा गर्भभव से या समूर्छनभव से आया है । इस अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है-मै कौन था ?
प्रसङ्ग पाकर यहाँ जन्म और जन्मों के भेदी का निरूपण करते हैं--
બે પ્રકારના અને ઉપપાત જન્મ કહે છે. તે આ પ્રમાણે-(૧) દેવેને सने (२) नाहीसाने. (स्था. २९. 3)
ઉપપાતથી ઉત્પન્ન થવા વાળા તે ઔપપાતિક કહેવાય છે, તાત્પર્ય એ થયું કે –મારે આત્મા દેવભવ અથવા નરકભવથી આવ્યો છે? આ પ્રકારનું જ્ઞાન થતું નથી.
__ "णन्थि मे आया उववाइए” मिडि निषेधन। यो५पातिनी साथै अन्य छे. અર્થ-મારે આત્મા પપાતિક નથી. એ અર્થ સમજવું જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે-મારે આત્મા ગર્ભ ભવથી અથવા સંમૂછનભવથી આવ્યા છે ? આ અર્થની સ્પષ્ટતા કરવાને માટે કહેલ છે, કે-“કેણ હતા ?”
પ્રસંગે પ્રાપ્ત થવાથી અહિં જન્મ અને જન્મના ભેદનું નિરુપણ કરે છે
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१९६
आचाराअत्रे टीका। 'एवमेगेसिं' इति, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण एकेषां संज्ञिनां कियतांचित् ज्ञात-ज्ञानम् आत्मनि विपये वर्तमानातीतानागतजन्मविषयकं नो भवति-नो समुत्पद्यते ।
स्विरूपं ज्ञानं नोत्पद्यते तेपाम् ? इति दर्शयति-अस्ति मे आत्मा औपपातिक इत्यादि । औपपातिक इति । उपपतनम्-उपपातः, प्रादुर्भावाचतुर्गतिपु जन्मतो जन्मान्तरे संक्रमणम् । उपपाते भवः-औपपातिकः । मे मम आत्मा-औपपातिको जन्मान्तरसंक्रान्तोऽस्तीति । तथा-नास्ति मे आत्मा औपपातिक इति, ममात्मा वर्तमानजन्मनि कर्मक्षयसंभवाद् माविजन्मान्तरसम्बन्धरहितोऽस्तीति । इदं ज्ञानद्वयं वर्तमानजन्मविषयकम् ।
यद्वा - उपपातः -- गर्भसमूर्छनलक्षणजन्मद्वयविलक्षणो जन्मविशेषः। सच देवनारकाणां भवति । उक्तञ्च
टीकार्थ-आगे कहे अनुसार कितनेक संज्ञी जीवोंको अपने विषय में वर्तमान अतीत और अनागत जन्म सम्बन्धी ज्ञान नहीं होता । उन्हें किस प्रकार का ज्ञान नहीं होता ? इस विषय में कहा गया कि मेरा आत्मा औपपातिक है या नहीं ? अर्थात् चार गतियो में, एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करता है या वर्तमान जन्म में कर्मों का क्षय होने से भावी जन्म के सम्बन्ध से रहित है ?, ये दोनों ज्ञान वर्तमान जन्मसम्बन्धी है।
अथवा-उपपातका अर्थ है-गर्भजन्म और संमूर्छनजन्म से विलक्षण एक तीसरे प्रकार का जन्म । वह देवों और नारकी का होता है । कहा भी है
ટીકા–આગળ કહેવા પ્રમાણે કેટલાક સંશીજીને પિતાના વિષયમાં વર્તમાન, ભૂતકાલ, અને ભવિષ્યકાલના જન્મ સંબંધી જ્ઞાન હોતું નથી. તેને કયા પ્રકારનું જ્ઞાન નથી દેતું તે વિષયમાં કહે છે કે –મારે આત્મા ઓપપાતિક છે કે નહિ? અર્થાત ચાર ગતિઓમાં એક જન્મથી બીજા જન્મમાં ગમન કરે છે, અથવા વર્તમાન જન્મમાં કર્મોને ક્ષય થવાથી ભાવી જન્મના સંબંધથી રહિત છે? તે બંને જ્ઞાન વર્તમાનજન્મસંબંધી છે.
અથવા ઉપપાતને અર્થ છે-ગર્ભજન્મ અને સંપૂઈન જન્મથી વિલક્ષણ એક ત્રીજા પ્રકારને જન્મ છે, તે દે અને નારકીજીને થાય છે. કહ્યું છે કે –
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मु.३ मतिज्ञानम्
१९९ आध्यात्मिकपुद्गलनिमित्तकं जन्म, यथा - जीवितश्वशगालादीनां शरीरेषु जायमानाः कीटादयस्तदीयशरीरान्तर्गतपुद्गलान् स्वशरीरतया परिणमयन्तो जायन्ते । पृथिव्यप्तेजोवायुवनम्पति-द्वित्रिचतुरिन्द्रिय-गर्भजव्यतिरिक्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्-मनुष्याणां संमूर्छननन्म भवति ।
(२) गर्भजन्म___ उत्पत्तिस्थानावस्थितानामागन्तुकशुक्रशोणितपुद्गलानां स्वशरीररूपेण परिणतिकरणं मातृभुक्ताहाररसपरिपुष्टिसापेक्षं च गर्भजन्म । जरायुजानामण्डनानां पोतजानां च गर्भजन्म भवति, जरायुगर्भवेष्टनचर्म, तत्र जाताः जरायुजाः ।
जीवित कुत्ते और शृगाल आदि के शरीरों में उत्पन्न होने वाले कीडे आदि उनके शरीरके अन्तर्गत पुद्गलों को अपने शरीररूप में परिणत करते हैं, वह आध्यात्मिक पुद्गलनिमित्तक ता है, पृथ्वी काय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, श्री.
सिवाय पञ्चेन्द्रिय तिर्यच्चों और मनुष्यों का जन्म
(२) गमजन्म
में स्थित आगन्तुक रज-वीर्य के पुद्गलों को अपने शरीररूप में परिणत कर ., और माता द्वारा भोगे हुए आहार के रस से पोषण की अपेक्षा रखनेवाला गर्मजन्म होता है । जरायुज, अण्डज और पोतन जीवों का जन्म गर्भज होता है, गर्भ को लपेट रखनेवाली चमडे की थैली जरायु कहलाती है, उसमें उत्पन्न होने वाले
જીવતા કુતરા અને શિયાળ આદિનાં શરીરમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા કીડા આદિ તેનાં શરીરની અંદરનાં યુગલને પિતાનાં શરીરમાં પરિણત કરે છે તે આધ્યાત્મિક પુદગલનિમિત્તક જન્મ છે. પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજરકાય, વાયુકાય, વનસ્પતિકાય, કીજિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને ગર્ભ જ સિવાય, પંચેન્દ્રિય, તિર્યંચે અને મનુષ્યને જન્મ સંમૂઈન હોય છે.
(२) गमઉત્પત્તિસ્થાનમાં સ્થિત, આગન્તુક રજ–વીર્યનાં પગલોને પિતાનાં શરીર રૂપમાં પરિણત કરવું, અને માતાએ કરેલા આહારના રસથી પિષણની અપેક્ષા રાખવા વાળા તે ગર્ભ જન્મ કહેવાય છે. જરાયુજ, અંડજ અને પિતજ જીવનું જન્મ ગર્ભેજ હોય છે. ગર્ભને લપેટી રાખનારી ચામડાની થેલી જરાયુ કહેવાય છે. તેમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા જીવ જરાયુજ કહેવાય છે. મનુષ્ય, ગાય, ભેંસ, બકરી.
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. आचाराचे पूर्वभवसम्बन्धि - स्थूलशरीरपरित्यागानन्तरमन्तरालगत्या तैनसकार्मणशरीरमात्रेण सहागतस्य जीवस्य नवीनभवयोग्यस्थलशरीरार्थ प्रथम योग्यपुद्गलानां ग्रहणं जन्म । तच त्रिविधं-संमूर्छन-गर्मो-पपातभेदात् ।
(१) संमूर्छनजन्ममातापित्रोः सम्बन्धं विनयोत्पत्तिस्थानावस्थितानामौदारिकपुद्गलानां बाह्यानामाध्यात्मिकानां वा स्वशरीररूपेण जीवककं परिणतिकरणं संमूर्छनम् । वाह्यपुद्गलनिमित्तकं जन्म, यथा-काप्टत्वपकफलादिपूत्पद्यमानाः कीटादयो जन्तवः काष्ठफलवर्तिनी बाह्यपुद्गलान् स्वशरीररूपेण परिणमयन्त उत्पद्यन्ते ।।
पूर्वभवसम्बन्धी स्थूल शरीर का त्याग करने के अनन्तर विग्रहगतिसे तेजस और कार्मण शरीर के साथ आया हुआ जीव नवीन भव के योग्य स्थूल शरीर के लिए सर्व प्रथम योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही जन्म कहलाता है। जन्म तीन प्रकारका है-संमूर्छन, गर्म, और उपपात ।
(१) संमूर्छनजन्ममाता-पिता के सम्बन्ध विना ही, उत्पत्तिस्थान में रहे हुए बाह्य या आख्यात्मिक औदारिक पुद्गलोका अपने शरीररूप से जीव द्वारा परिणत कर लेना संमूर्छन जन्म कहलाता है । काठ, त्वचा और पके फल आदि में उत्पन्न होने वाले कीडे बगरह जन्तु काठ या फल आदि के बाह्य पुद्गली को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। यह बाह्य पुद्गलनिमित्तक जन्म है,
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પૂર્વભવસંબંધી સ્કૂલ શરીરને ત્યાગ કરીને પછી વિગ્રહગતિથી તૈજસ અને કાર્મણ શરીરની સાથે આવેલે જીવ નવા ભવને એગ્ય સ્કૂલ શરીર માટે સર્વપ્રથમ રેગ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે, તે જન્મ કહેવાય છે. જન્મ ત્રણ પ્રકારના છે(१) समर्छन (२) गर्म, मने (3) Gud.
(१) सभूछन - માતા-પિતાના સંબંધ વિના જ, ઉત્પત્તિસ્થાનમાં રહેલા બહારના અથવા આધ્યાત્મિક દારિક પુદ્ગલેને, પોતાના શરીરરૂપથી જીવદ્વારા પરિણુત કરી લેવું તે સંમઈન જન્મ કહેવાય છે. કાષ્ઠ ત્વચા (છાલ) અને ફળ આદિમાં ઉત્પન્ન થવા તળા કપડા વગેરે જતું કાર્ડ અથવા ફળ આદિમાં બહારના પુદ્ગલેને પિતાના શરીરના રૂપમાં પરિણુત કરી લે છે. તે બહારનાં પુદ્ગલ નિમિત્તક : *
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ भ्र. ३. संज्ञा
उपपातजन्म
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उपपातक्षेत्रमाप्तिमात्रनिमित्तस्थानस्थित वें क्रियपुद्गलानां प्रथमं स्वशरीररूपेण परिणतिकरणम् उपपातजन्म यथा देवानां नारकाणां च । तत्र देवसमुद्भावो यथा- प्रच्छदपटस्योपरिष्टाद् देवदृप्यस्याधस्ताद् उभयोरन्तरालवर्तमानपुद्गलान् वैक्रियशरीरतया गृह्णन देव उत्पद्यते । नारकोत्पत्तिर्यथा-नरकस्थिवातिसंकुटमुखकुम्भीषु स्थितान् वैक्रियशरीरपुद्गलान् वैक्रियशरीरतया गृहन् नारक उत्पद्यते ।
तथा - " अहं कः - चतुर्गतिषु माग्जन्मनि नारको वा तिर्यग्वा नरो
उपपतिजन्म
बीचमें वर्तमान पुनलो
उपपातक्षेत्र में प्राप्तिमात्र निमित्त जिस में है ऐसे उत्पत्तिस्थान में स्थित वैकिय पुलों का पहले-पहल अपने शरीररूप में परिणत करना उपपात - जन्म कहलाता है, देव और नारकों को यह जन्म होता है । देव की उत्पत्ति इस प्रकार होती है - प्रच्छद पटके ऊपर और देवद्रूप्य वस्त्रके नीचे अर्थात् दोनों के को बैंकियशरीररूप ग्रहण करता हुआ इस प्रकार होती है- नरकवर्ती अत्यन्त संकुट ( सकडे ) मुखवाली कुंमियों में स्थित वैकिय शरीरके पुतलों को वैकियशरीर के रूप में ग्रहण करता हुआ नारकी जीव उत्पन्न होता है।
देव उत्पन्न होता है
।
नारकों की उत्पत्ति
तथा—“ मैं कौन था ! चार गतियों में से पूर्वभव में मैं नारक था, तिर्यञ्च था,
(3) उपयातन्भ
ઉપપાત ક્ષેત્રમાં પ્રાપ્તિમાત્ર જેમાં નિમિત્ત છે. એવા ઉત્પત્તિસ્થાનમાં સ્થિત વેકિય પુદ્દગલાને પહેલાં પહેલાં પેાતાના શરીરરૂપમાં પરિદ્યુત કરવુ તે ઉપપાતજન્મ કહેવાય છે. દેવ અને નારકીછવાને આ જન્મ હોય છે.
દેવની ઉત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છેઃ—પ્રચ્છદપટ–ઉત્તરીય વસ્રના ઉપર અને દેવ વસ્રની નીચે, એટલે કે અંનેની વચ્ચમાં વર્તમાન પુદ્ગàાને વૈક્રિયશરીરના રૂપમાં ગ્રહણ કરતા થકા દેવ ઉત્પન્ન થાય છે. નારકીએની ઉત્પત્તિ આ પ્રમાણે છે કેઃ——નરકવતી અત્યન્ત સાંકડા મુખવાળી ભિએમાં સ્થિત વૈક્રિય શરીરનાં પુદ્ગલાને વૈક્સિ શરીરના રૂપમાં ગ્રહણ કરતા થકા નારકી જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા—“ ુ કાણુ હતા? ચાર ગતિએમાંથી પૂર્વભવમાં હું નારકી હતા, તિય ચ
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आचारामंत्र तत्र - मनुष्य - गो-महिप्य-जा- विका-ऽध - खरो-4- मृग-चमर-वराहगवय-सिंह-व्याघ्र--दीपि-ध-गगाल-मार्जारादयो जरायुजाः। सर्प-गोधाकुकलास-गृहगोधिका-(पल्ली)-मत्स्य-कर्म-नक्र-शिशुमारादयः, पक्षिषु यथालोमपक्षाः, हंस-चाप-शुक-गृध्र-व्येन-पारावत-काक-मयूर-मण्ड-चकादयश्चाएडजाः । पोता-जाता इति - पोतजाः शुद्धमसवाः, न तु जरायुजबच्चादिवेष्टिता इति यावत् , यथा - शल्लक-इस्ति-वाविल्लापक-शश-शारिका-नकुलमूपिकादयः, पक्षिषु च चर्मपक्षाः, जलूका-बल्गुलि-भारण्डपक्षि-विरालादयश्चपोतजाः ।
जीव जरायुज कहलाते हैं। मनुष्य, गौ, भैंस, बकरी, मेप, घोडा, गधा, ऊंट, मृग, चमर शूकर, रोझ, सिंह, वाघ, रीछ, द्वीपि, कुत्ता, सियार, बिलाव आदि जरायुज हैं। सर्प, गोहेरा, ककलास, छिपकली, मच्छ, कछुवा, नक, शिशुमार आदि, तथा पक्षियों में लोमपक्षी, हंस, चाप, शुक, गूध, बाज, कबूतर, कौवा, मोर, मण्ड (एक जातका पक्षी), बगुला आदि अण्डज है । जो जरायुज की भाँति चमडे से लिपटे हुए उत्पन्न न हों, वे पोतन कहलाते हैं, जैसे-सेही, हाथी, श्वाविल्लापक, शशक, शारिका, नकुल, मूपिक आदि। पक्षियों में चमपक्षी, जळूका ( जोक), वल्गुली, भारण्डपक्षी विराल आदि पोतज है।
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Ji, घास, अधेस, 12, भृगला, भ२ (हिमालयमा यती मे . पाय विशेष) भू, रो, सिस, पाध, रीछ, छीपा, सुतरा, शियाण, भिक्षाsi, पो३ सयुद्ध छ, स५ घायरा, ४YAai, aगी , भ२छ, आया, न (भा२) शिशुभार (में પ્રકારનું જલચર પ્રાણી) આદિ તથા પક્ષિઓમાં લેમપક્ષી, હંસ, ચાષ (એક ondi alel पांभोवाणु ना रे मी) २४-(पोपट), ध, मान, भूतर, કાગડે, મેર-મંડૂ (એક પક્ષી) બગલા વગેરે. અંડજ છે. જે જરાયુજ પ્રમાણે ચામડીથી વિંટાએલાં ઉત્પન્ન ન થાય તે પિતજ કહેવાય છે. જેમકે-હી-(સાહુડી હાથી, શ્વવિદત્રાપક, શશક, શારિકા, નકુલ–ળીઓ, મૂષિક-ઉંદર વગેરે પક્ષીઓમાં ચર્મપક્ષ(રૂંવાડાં વગરનાં ચામડાની પાંખેવાળા) જલ્કા (જળ) વશુલી ( 43वां) सा-पक्षी, विराल माह बात छे.
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याय आगतः अनुसार इत्यव्ययं मागज्ञानामात्र 'नो
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ २.४ संज्ञा सोचा, तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दिसामी आंगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगो अहमंसि, एवमेगेसिं णायं भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ या संचरई, सन्चाओ दिसाओ सव्याओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोऽहं ।। सू० ४॥ ..
(छाया) अथ यत् पुनर्जानीयात्-सहसंमत्या, परव्याकरणेन, अन्येपामन्तिके वा श्रुत्वा, तद्यथा-पूर्वस्या दिशाया आगतोऽहमस्मि यावत् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । एवमेकेषां ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, योऽस्या दिशाया अनुदिशाया या अनुसंचरति, सर्वस्या दिशायाः सर्वस्या अनुदिशाया य आगतः अनुसंचरति सोऽहम् ॥ ० ४ ॥
से जं पुण' इति । 'से' इत्यव्ययं मागधभापायामधशब्दार्थकम् । 'अथ' इति, अनेन ‘नो सन्ना भवः' इति द्रव्यदिग्ज्ञानाभावं 'नो णाय भवइ ' इति भावदिगज्ञानाभा च प्रदश्य तज्ज्ञानपारम्भ इति घोत्यते । से आया हूँ (यावत् ) अन्यतर दिशा से अथवा विदिशा से मैं आया है। इस प्रकार कितनेक जीवों को ज्ञान होता है कि मेरा आत्मा औपपातिक (जन्म लेने वाला) है; जो इस दिशा से अथवा अनुदिशा से संचार करता है, सभी दिशाओं से, सभी अनुदिशाओं से आया हुआ जो आत्मा भ्रमण करता है, वह मैं हूँ । (सू० ४)
टीकार्थ-मागधी भाषा में 'से' अव्यय 'अ' शब्द के अर्थ में है। यहाँ 'अथ' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि पहले के सूत्राम 'नो सन्ना भवइ' इत्यादि कहकर द्रव्यदिशा के ज्ञानका निषेध करके, और 'नो णाय भवई' इत्यादि कह कर मावदिशासम्बन्धी ज्ञान का निषेध करके अब इस ज्ञान की उत्पत्ति का प्रकार प्रदर्शित करते हैंપૂર્વ દિશાથી આવ્યા છે. યાવતુ બીજી દિશાએથી અથવા વિદિશાઓથી હું આવ્યો છું, આ પ્રમાણે કેટલાક જીવને જ્ઞાન થાય છે કે-મારો આત્મા ઔપપાતિક (જન્મ લેવાવાળા) છે, જે આ દિશાથી અથવા અનુદિશાથી સંચાર કરે છે. સર્વ દિશાઓથી, સર્વ અનુદિશાઓથી, આવેલ જે આત્મા ભ્રમણ કરે છે તે હું છું (સૂ.૪)
ટીકાથ–માગધી ભાષામાં સે અવ્યય “અથ,” શબ્દના અર્થમાં છે. અહિં 'मथ' शपथा मे प्रगट यु छ -प्रथमना सूत्रोमा 'नो सन्ना भवई' इत्याहिहीन द्र०यहिशाना ज्ञान निषध शने मन 'नो णायं भवइ-त्याहि डीने माहिशासनधी જ્ઞાનનો નિષેધ કરીને હવે તે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિને પ્રકાર પ્રદર્શિત કરે છે–
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' . ' आचाराने वा देवो वा आसम् ?," इति पूर्वनन्मस्मृतिस्य शान, तथा-"इत: अस्माल्लोकाद च्युता-पियुक्तमेत्य जन्मान्तरे इह चतुर्गतिरूपे संसारे को भविष्यामि ? चतुः गतिपु कीदृशीं गतिं माप्यामि" इत्यागामिजन्मविषपकं निश्यात्मकं ज्ञानं च न भवतीत्यर्थः । भावदिशाविषयकमपि ज्ञानं नास्ति कियतांचित् संजिनाम् , असंज्ञिनां तु जीवानां नास्त्येव दिशाज्ञानमिति का चार्वा तेपामिति भावः ॥ सू.३॥
संसारिणां स्वगत्यागतिज्ञानं न भवतीत्युक्तम् , संपति तज्ज्ञानं यथा भवति तत् प्रदर्शयितुमाह-' से जं पुण' इत्यादि।
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से जं पुण जाणेजा, सहसम्मड्याए, परवागरणेणं अण्णेसि अंतिए वा मनुष्य था या देव था ?," इस प्रकार की पूर्व जन्म की स्मृति, और "इस भव से च्युत होकर अगले जन्म में चार गतियों में से कौन गति पाऊँगा ," इस प्रकार का आगामी जन्म सम्बन्धी निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता। कितने ही संजियों को भी भावदिशा-विषयक ज्ञान नहीं होता। असंज्ञी जीवों को तो दिशा का ज्ञान होता ही नहीं ॥ सू० ३ ॥
. संसारी जीवों को अपनी गति और आगति का ज्ञान नहीं होता, यह बतलाया जाचुका, अब यह कथन किया जाता है कि वह ज्ञान किस प्रकार हो सकता है ?
-से जं पुण' इत्यादि।
मूलार्थ सहसम्मति से (परोपदेश के बिना ही सहज ज्ञानसे) पर को धागरणा ( स्पष्टीकरण ) से, दूसरों के समीप से सुनकर जाने कि मैं पूर्व दिशा હતે, મનુષ્ય હોત અથવા દેવ હો” આ પ્રમાણે આગલા જન્મની સ્મૃતિ અને “આ ભવથી નીકળીને આગલા હવેના જન્મમાં ચાર ગતિમાંથી હું કઈ ગતિમાં જઇશ. અથવા હું કઈ ગતિ પામીશ ? આ પ્રમાણે આગામી–હવે પછી થવાવાળા જન્મ સંબંધી નિશ્ચયાત્મક જ્ઞાન થતું નથી; કેટલાક સંજ્ઞાઓને (સંસીને ) પણ ભાવદિશા-વિષયનું જ્ઞાન થતું નથી. અસંસી જીવેને દિશાઓ સંબંધીનું જ્ઞાન यतुं नथी. ॥3॥
. સંસારી જીને પોતાની ગતિ અને આગતિ વિશેનું જ્ઞાન નથી થતું, તે બતાવી ગયા છીએ હવે તે કહેવામાં આવે છે કે તે જ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે છે - से जे पुण' त्यादि
મૂલાથ-સહસંમતિથી, (બીજાના ઉપદેશ વિના પણ સહજ જ્ઞાનથી), બીજાની साथी (२५टी २४थी), winni• पालथी - Antan छु
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.४ संज्ञा
सुग्रीवनगरे बलभद्रनामा नृप आसोत् । तस्याग्रमहिपी मृगानाम्नी बभूव । बलभद्रनृपस्य तस्यां पुत्रो जातः । स च मातापितृभ्यां वलश्री-नाम लभ्वाऽपि लोके मृगापुत्र इति नाना मसिद्धो बभूव । अथ मातापित्रोः परमप्रियः कृतयौवराज्याभिपेको मुदितचित्तो मृगापुत्रः प्रासादे दोगुन्दुगदेववत् प्रमदाभिः सह क्रीडतिस्म । ___ स चैवं विलसन् मणिरत्नराजितकुट्टिमतले सर्वोपरिवर्तिनि प्रासाददेशे समुपविष्टः सकुतूहलं चतुष्क-त्रिक-चत्वर-मार्गान् विलोकमानः पथि शीलाइथं गुणसागरं तपोनियमसंयमघरं संयतमनिमिपशाद्राक्षीत् । तमवलोक्य शुभाध्य
सुग्रीव नगर में बलभद्र नामक राजा था । उसकी पटरानी का नाम मृगा था इस मृगारानी से बलभद्र को पुत्र की प्राप्ति हुई । माता-पिताने उसका नाम चलश्री रक्खा, किन्तु वह लोक में मृगापुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ, वह माता-पिता का परम प्रिय था । उसका युवराज पद पर अभिषेक किया गया । वह प्रसन्न-चित्त होकर दोगुन्दुग (विलासी एक देवकी जाति ) देव के समान अपने महलमें क्रीडा करता था ।
__ एक वार मृगापुत्र मणियों और रनों से सुशोभित फर्शवाले महल के सब से ऊपर के मंजिल पर बैठा था । वह कौतूहल के साथ नगर के चौपड त्रिक तथा चत्वर मार्गों का अवलोकन कर रहा था। तब उसे मार्ग में शील से विभूषित गुणों के सागर तप, नियम और संयम धारण करने वाले एक मुनि दृष्टिगोचर हुए। उसने टकटकी लगाकर
સુગ્રીવ નગરમાં બલભદ્ર નામને રાજા હતા. તેની પટરાણીનું નામ-મૃગ હતું, તે મૃગા રાણ થકી બલભદ્રને પુત્રની પ્રાપ્તિ થઈ, માતા-પિતાએ તેનું નામ બલશ્રી રાખ્યું, પરંતુ તે લેકને વિષે મૃગાપુત્ર નામથી પ્રસિદ્ધ થયે. તે માતા-પિતાને પરમપ્રિય હતું, તેને યુવરાજ પદ પર અભિષેક કર્યો. પછી તે પ્રસન્નચિત્ત થઈને
ગુન્ગ (વિલાસી એક દેવની જાતિ) દેવ સમાન પોતાના મહેલમાં કીડા કરતે હતે.
એક વાર મૃગાપુત્ર મણિઓ અને રત્નથી–સુશોભિત ફર્શ—સુંદર તળિયાવાળે મહેલને સૌથી ઉપરને ખંડ હતું, તેના ઉપર બેઠે હતો તે કુતુહલપૂર્વક નગરના ચૌપડ ત્રિક તથા ચવર માર્ગોનું અવલોકન કરી રહ્યો હતો. તે વખતે એ માર્ગમાં શીલથી વિભૂષિત, ગુણેના સાગર, તપ, નિયમ, સંયમ ધારણ કરવાવાળા એક મુનિ દષ્ટિગોચર
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૨૦e
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. “भाचारामसूत्रे
टीका
यत् यदि पुनर्जानीयात् स्वस्वगत्यागत्यादिकं कश्चित् , तत् त्रिविधन कारणेन, तदाइ-सहसंमत्येत्यादि । आत्मना सह वर्तते या सम्यगमतिः, सा सहसंमतिः, परोदेशमन्तरेण समुत्पन्ना जातिस्मरणापधिमनः पर्यपकेवलज्ञानरूपा, तया सहसंमत्या। तत्र जाविस्मरणवान्नियमतः संख्यातमवान् जानाति, अवधिज्ञानी संख्यातभवानसंख्यातभवान् वेत्ति, तथैव मनापर्ययज्ञानी च । केवलज्ञानी तु नियमतोऽनन्तान् भवान् विजानाति । जातिस्मरणज्ञानवानवान्तरे यद्यसंनिभत्र न कुर्यात् , तर्हि स्वकीयसंक्षिपश्चेन्द्रियभवस्योलटतो नवशतभवान् विज्ञातुं शक्नुयात् । जातिस्मरणेन स्वकीयपूर्वमवं विज्ञातुर्दृष्टान्तः प्रदश्यते--
अगर कोई अपनी-अपनी गति और आगति को जाने तो तीन प्रकार के कारण से जान सकता है, उसी को कहते हैं-~~सहसम्मति आदि से, आत्मा के साथ रहने वाली सम्यग्मति कहलाती है, अर्थात् परोपदेश के विना ही उत्पन्न होनेवाली जातिस्मरण, अवधि, मनःपर्यय और केललज्ञान रूप मति सहहम्मति कहलाती है, उनमें जाति स्मरणवाला नियम से संख्यात भवोको जानता है, अवधिज्ञानी संख्यात या असंख्यात भवों को जानता है, इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी भी जानता है, किन्तु केवलज्ञानी नियम से अनन्त भवों को जानता है । जातिस्मरण-ज्ञानवाला बीच में यदि असंज्ञी का भव न करे तो अपने संज्ञी-- पञ्चेन्द्रिय के उत्कृष्ट नौ सौ भवों को जान सकता है। जातिस्मरण से अपना पूर्वभव जानने वाले का घटान्त प्रदर्शित किया जाता है--
અથવા કેઈ પિતાપિતાની ગતિ અને આગતિને જાણે તે ત્રણ પ્રકારના કારણુથી જાણી શકે છે, તેને કહે છે–સહસંમતિ આદિથી, આત્માની સાથે રહેવા વાળી સમ્યગૂ મતિ-બુદ્ધિ અર્થાત્ પરિપદેશ વિનાજ ઉત્પન્ન થવા વાળી જાતિસ્મરણ, અવધિ, મન પર્યય, અને કેવલજ્ઞાનરૂપ મતિ તે સહસંમતિ કહેવાય છે. જાતિસ્મરણ વાળા નિયમથી સંખ્યાત ભને જાણે છે. અવધિજ્ઞાની સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત ભાવેને જાણે છે. એ પ્રમાણે મન પર્યાયજ્ઞાની પણ જાણે છે. પરંતુ કેવલજ્ઞાની નિયમથી અનન્ત ભવને જાણે છે. જાતિ મરણ જ્ઞાનવાળા જીવ વચમાં
અસંસીને ભવ ન કરે તે પોતાના સણી પંચેન્દ્રિયના ઉત્કૃષ્ટ નવ (૯૦૦) ભવને જાણી શકે છે. જતિસ્મરણથી પોતાના પૂર્વભવને જાણનારનું દ્રષ્ટાંત બતાવે છે
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ.१ मृ. ४. संज्ञा
साक्षात्कारेण सम्बोध्य कथनम्, तीर्थङ्करमवचनरूप आगमो वा तेन । परव्याकरणोदाहरणं यथा - साक्षात् भगवतो देशनया मेघकुमारादयो जातिस्मरणं
माप्तवन्तः ।
तया - अन्येषामन्तिके वा श्रुत्वेति, अन्येषां समीपे श्रुत्वा स्वगत्या - गत्यादिबोधकतद्वचनश्रवणेन । तृतीयोदाहरणं यथा- पड् मित्रभूपाश्छद्म स्थावस्थस्य मल्लीनाथ भगवतः समीपे तद्वचनेन जातिस्मरणमंत्रापुः ।
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अवात्मनि विषये यादृशं गत्यागत्यादिज्ञानं भवति, तदेव दर्शयतितया - इत्यादि 'पूर्वया दिशाया आगतोऽहमस्मि यावद् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मीत्यनेन स्वगमनावधि - द्रव्यदिशाज्ञानं, तथापरव्याकरणका उदाहरण जैसे- साक्षात् भगवान् की देशना से मेघकुमार आदिने जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया था ।
तथा -- दूसरों से सुनकर भी गति अगति का ज्ञान होता है । तात्पर्य यह है कि- अपनी गति एवं आगति समझाने वाले दूसरे के बचनों से भी जातिस्मरण हो जाता है । जैसे—छह मित्र - राजाओंने छास्थ - अवस्था वाले भगवान् मल्लिनाथ के बचनों से
1
नातिस्मरण प्राप्त किया था ।
आत्मा के विषय में गति - आगति आदि का ज्ञान जिस प्रकार होता है, उसे दिखलाते हैं- 'मैं पूर्व दिशा से आया हूँ / यावव ) अन्यतर दिशा से अथवा अनुदिशा से मै आया हूँ' इस कथन से अपने गमन तक की द्रव्य-दिशा का ज्ञान सूचित किया है । तथा ' मेरा आत्मा औपपातिक ' है यहाँ से लेकर ' भ्रमण करता है, । પરવ્યાકરણનું ઉદાહરણ, જેમકે-સાક્ષાત્ ભગવાનની દેશનાથી મેઘકુમાર આદિએ જાતિસ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું હતું.
તથા-ખીજા પાસેથી સાંભળીને પશુ ગતિ-આગતિનું જ્ઞાન થાય છે કે:-- પેાતાની ગતિ અને આતિ સમજાવવાવાળા બીજાના વચનાથી પશુ જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થઈ જાય છે. જેમ-છ મિત્ર-રાજાઓએ છદ્મસ્થ અવસ્થા વાળા ભગવાન મલ્લિનાથના વચનાથી જાતિ સ્મરણ પ્રાપ્ત કર્યું હતું.
આત્માના વિષયમાં તિ-આગતિનું જ્ઞાન જે પ્રમાણે હોય છે તેને દેખાડે છે--‘હું પૂર્વ દિશાથી આવ્યેા છું, (યાવતા) અન્યતર દિશાથી અથતા અદિશાથી હું આવ્યો છુ’ આ કથનથી પેાતાના ગમન સુધીની દ્રષ્યદિશાનું જ્ઞાન સૂચિત કર્યું છે,
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आचारामुत्रे
वसायेन मृगापुत्रो मृछमवाप्य जातिस्मरणं प्राप । 'पूर्वजन्मनि प्रवज्यां गृहीत्वा पञ्चमहाव्रत पालनेन स्वर्गसुखं लध्याऽहमिह राजकुले संजातः' इति । अनेन जातिस्मरणेन पुनरात्मकल्याणाय प्रयतते स्म ।
अवधिज्ञानिना मल्लीनाथेन भगवता संसारावस्थायां पूर्व जन्मवृत्तान्तो ऽवलो - कितः । मनः पर्यय - केवलज्ञानयोस्तु दृष्टान्तौ सुमतीतौ ।
तथा-परव्याकरणेन-परस्तीर्थङ्करस्तस्य व्याकरणं
यथावस्थितार्थस्य -
उनको ओर देखा । उन्हें देख कर मृगापुत्र को मूर्छा आ गई और नातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो गया । उससे मालूम हुआ कि -' पूर्व जन्म में दीक्षा धारण करके, पांचमहानतों का पालन करके, पश्चात् स्वर्ग के सुख भोगकर मैं इस राजकुल में उम्पन्न हुआ हूँ।' इस जातिस्मरण से वह फिर आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो गया ।
अवधिज्ञानी भगवान् मल्लीनाथने संसार - अवस्था में अपना पूर्व जन्म का वृत्तान्त देख लिया था । मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान के दृष्टान्तं तो प्रसिद्ध ही हैं ।
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तथा — परके व्याकरण से भी गति - आगति का ज्ञान होता है । पर का अर्थ -चीर्थकर | उनका व्याकरण अर्थात् पदार्थ का स्वरूप यथार्थरूप से जानकर समझाकर कहना, अथवा परुयाकरण का अर्थ तीर्थंकर का ग्रवचनरूप आगम समझना चाहिए ।
થયા, તે વખતે મૃગાપુત્ર એક નજરથી તેમની સામે જોયું, અને તેને જોઇને મૃગાપુત્રને મૂર્છા આવી ગઇ અને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું, તેનાથી માલૂમ પડયુ है-"हुँ पर्व भन्समां दीक्षा धारणु उरीने, पांय महाव्रतानुं पासून झरी, पछी સ્વના સુખા ભાગવીને આ રાજકુલમાં ઉત્પન્ન થયા છું.” આ પ્રમાણે જાતિસ્મરણ થવાથી તે કરીને આત્મકલ્યાણમાં પ્રવૃત્ત થઈ ગયા.
અવધિજ્ઞાની મલ્લીનાથ ભગવાને સંસાર-અવસ્થામાં પોતાના પૂર્વ જન્મના વૃત્તાન્ત જોઈ લીધે હતા. મન:પર્યંયજ્ઞાન અને કેવલજ્ઞાનના દ્રષ્ટાંત તો પ્રસિદ્ધ જ છે.
તથા–પરના વ્યાકરણથી પણ ગતિ-આગતિનું જ્ઞાન થાય છે. પુના અથ છેतीर्थ ४२, तेनु व्यार-मर्थात् पार्थनु स्वरूप यथार्थ रूपथी लगी समलने हेवु, અથવા પરવ્યાકરણના અર્થ-તી કરના પ્રવચનરૂપ આગમ સમજવું જોઈ એ.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मृ.४. संज्ञा
२०७ साक्षात्कारेण सम्बोध्य कथनम् , तीर्थङ्करप्रवचनरूप आगमो वा, तेन। . परव्याकरणोदाहरणं यथा-साक्षात् भगवतो देशनया मेघकुमारादयो जातिस्मरणं माप्तवन्तः। ___तथा-अन्येपामन्तिके वा श्रुत्वेति, अन्येषां समीपे, श्रुत्वा स्वगत्यागत्यादियोधकतद्वचनश्रवणेन । तृतीयोदाहरणं यथा-पड् मित्रभूपाश्छमस्थावस्थस्य मल्लीनाथभगवतः समीपे तद्वचनेन जातिस्मरणमवापुः ।
अथात्मनि विपये यादृशं गत्यागत्यादिज्ञानं भवति, तदेव दर्शयतितद्यया-इत्यादि 'पूर्वस्या दिशाया आगतोऽहमस्मि यावद् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मी'त्यनेन स्वगमनावधि-द्रव्यदिशाज्ञानं, तथापरख्याकरणका उदाहरण जैसे-साक्षात् भगवान् की देशना से मेघकुमार आदिने जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया था।
तथा दूसरों से सुनकर भी गति अगति का ज्ञान होता है । तात्पर्य यह है कि-अपनी गति एवं आगति समझाने वाले दूसरे के बचनों से भी जातिस्मरण हो जाता है । जैसे—छह मित्र-राजाओंने छमस्थ-अवस्था वाले भगवान् मल्लिनाथ के वचनों से जातिस्मरण प्राप्त किया था । ___आत्मा के विषय में गति-आगति आदि का ज्ञान जिस प्रकार होता है, उसे दिखलाते हैं-मैं पूर्व दिशा से आया हूँ ( यावत् ) अन्यतर दिशा से अथवा अनुदिशा से मै आया हूँ' इस कथन से अपने गमन तक की द्रव्य-दिशा का ज्ञान सूचित किया है। तथा मेरा आत्मा औपपातिक ' है यहाँ से लेकर ' भ्रमण करता है। પરવ્યાકરણનું ઉદાહરણ, જેમકે-સાક્ષાત ભગવાનની દેશનાથી મેઘકુમાર આદિએ જાતિસ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું હતું.
તથા–બીજા પાસેથી સાંભળીને પણ ગતિ–આગતિનું જ્ઞાન થાય છે કે – પિતાની ગતિ અને આગતિ સમજાવવાવાળા બીજાના વચનથી પણ જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થઈ જાય છે. જેમ-છ મિત્ર-રાજાઓએ છવાસ્થ––અવસ્થા વાળા ભગવાન મલ્લિનાથના વચનેથી જાતિ સ્મરણ પ્રાપ્ત કર્યું હતું.
આત્માના વિષયમાં ગતિ–આગતિનું જ્ઞાન જે પ્રમાણે હેય છે તેને દેખાડે છે-“હું પૂર્વ દિશાથી આવ્યો છું, (યાવતું) અન્યતર દિશાથી અથતા અનુદિશાથી હું આવ્યો છું” આ કથનથી પિતાના ગમન સુધીની દ્રવ્ય દિશાનું જ્ઞાન સૂચિત કર્યું છે,
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भावाराने 'अस्ति मे आत्मा औपपातिकः' इत्यारभ्य 'अनुसंचरित सोऽहम् 'इत्यन्तेन ट्रव्यभावोभयदिशाज्ञानं भगवता मदर्शितम् ।
सोऽहमस्मी'त्येनेनेदमावेदितं भवति । त्रिविधान्यतमेन कारणेन माने माप्तो जीवः स्वात्मस्वरूपमेवं विशानाति-यदयमात्मा सकलकर्मक्षयावधि चतुर्गति-- भ्रमणकर्ता पुनरपि कस्याञ्चिदेकस्यां दिशायामनुदिशायां या गमिप्यति नास्त्यस्य गतिविरामस्तावदिति । एवमयमात्मा सर्वस्या दिशाया अनुदिशाया आगतःपुनरपि । स्वकर्मवशगः सन् सर्वस्यां दिशायामनुदिशाटां वा परिभ्रमिप्यति । न कदाचिदस्य विश्रान्तिलेशोऽपि तादृशोऽहमस्मीति । मुं०४॥ वह मैं हूँ' यहाँ तक द्रव्यदिशा और भावदिशा, दोनों का ज्ञान भगवान्ने प्रदर्शित किया है।
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वही में है। इस कथन से यह प्रकट होता है कि-तीन में से किसी एक कारण के द्वारा ज्ञान को प्राप्त जीव इस रूप में अपना आत्मस्वरूप जानता है। कि-यह आत्मा जब तक समस्त कर्मों का क्षय नहीं कर देता तब तक चारों गतिया में भ्रमण करता है और फिर किसी एक दिशा में या अनुदिशामें गमन करेगा परन्तु कर्मों का क्षय जब तक न हो तब तक उसकी गति का अन्त नहीं आता है । इस प्रकार यह आत्मा सब दिशाओं से और अनुदिशाओं से आया है और कर्मों के अधीन हो कर फिर सब दिशाओं अथवा विदिशाओं में परिभ्रमण.करेगा, इसे लेशमात्र भी कभी । विश्राम नहीं मिल सकता, ऐसा मैं हूँ || सू० ४ ॥ તથા–“મારે આત્મા ઔપપાતિક છે ત્યાંથી લઈને “ભ્રમણ કરે છે તે હું છું ત્યાં સુધી દ્રવ્ય દિશા અને ભાવદિશા, એ બન્નેનું જ્ઞાન ભગવાને પ્રદર્શિત કર્યું છે.
તે હું છું આ કથનથી એમ પ્રગટ થાય છે કે એ ત્રણમાંથી કોઈ કારણ દ્વારા જ્ઞાનને પામેલે જીવ આ રૂપમાં પોતાના આત્મસ્વરૂપને જાણે છે કે આ આત્મા
જ્યાં સુધી સમસ્ત કોને ક્ષય કરતું નથી, ત્યાં સુધી ચારેય ગતિઓમાં ભ્રમણ , કરતે રહે છે, અને ફરી કઈ દિશામાં અથવા તે અનુદિશામાં ગમન કરશે. પરંતુ
ત્યાં સુધી કમીને ક્ષય નહિ હોય ત્યાં સુધી તેની ગતિને અંત આવતે નથી. એ પ્રમાણે આ આત્મા સર્વ દિશાઓથી અને અનુદિશાએથી આવ્યું છે અને કમીને આધીન થઈને ફરીથી સર્વ દિશામાં અથવા વિદિશાઓમાં પરિભ્રમણ કરશે. તેને લેશમાત્ર પણ વિશ્રામ મલી શકતા નથી એ હું છું, (સૂ) ૮)
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ मृ. ५ आत्मवादिप्र०
आत्मवादिप्रकरणम्यस्तु द्रव्यदिशु भावदिशु चात्मनो गत्यागती अवगत्य स्वमात्मानमेवं विजानाति-'अयमात्मा असिद्धगतिप्राप्तिचतुर्गतिपु घूर्णमानो जन्मान्तरसंक्रान्तत्रिकालवी शरीराद् मिन्नो नित्यपरिणामी ज्ञानसम्यक्त्वचारित्रसुखवीर्यादिगुणवानिति, स एवात्मवादीत्याह--' से आयावादी' इत्यादि ।
मूलम्.: ' से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी ॥ सू० ५ ।।
छायास आत्मवादी, लोकवादी कर्मवादी, क्रियावादी ।। सू० ५ ॥
आत्मवादिप्रकरण- जो जीव द्रव्य दिशाओं में और भावदिशाओं में आत्मा का गमन-आगन जान कर अपनी आत्मा के विषय में इस प्रकार जानता है कि यह आस्मा सिद्धगति को प्राप्तिरहित चार गतियों में भ्रमण करता हुआ एक जन्म से दूसरे जन्म को ग्रहण करता है, त्रिकालवर्ती है, शरीर से भिन्न है, नित्यपरिणामी है, और सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि गुगों वाला है, वही आत्मवादी है । अब इसी विषय का निरूपण किया जाता है :-'से आयावादी' इत्यादि।
मूलार्थ-'से आयावादी' इति । यही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है, कीयावादी है ( सू० ५)
આત્મવાદી પ્રકરણ - જે જીવ દ્રવ્યદિશાઓમાં અને ભાવદિશાઓમાં આત્માનું જવું–આવવું જાણીને પિતાના આત્માના વિષયમાં એ પ્રમાણે જાણે છે કે – આત્મા સિદ્ધગતિની પ્રાપ્તિ વિના બીજી ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ કરતે કરતે એક જન્મથી બીજે જન્મ ગ્રહણ કરે છે, ત્રિકાલવતી છે શરીરથી ભિન્ન છે, નિત્યપરિણામી છે અને સમ્યકત્વ, જ્ઞાન, ચારિત્ર, સુખ, વીર્ય આદિ ગુણો વાળે છે, તે આત્મવાદી છે. હવે આ વિષયનું निय ४२वामां मावे -'से आयावादी' त्यादि.
- भूदाथ-'से अयावादी' पति. ते मात्भपाही छे, काही छे, भी छे मन ठियावाही छे. (स, ५) म. भा.-२७
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आचारायंत्रे
टीका
. .. 'से आयावादी' इति । साइत्यमात्मानं जाता, आत्मवादीआत्मानं वदितुं. शीलमस्येति विग्रहे कर्तरि णिनिः, आत्मस्वरूपकथनस्वभाववान् । अयं भावः-आत्मस्वरूपं वक्तारो जगति बहवः सन्ति, परन्तु स एवात्मवादी वेदितव्यो, यः पूर्वोक्तरीतिमनुसत्यात्मानं विजानातीति ।। ___ आत्मस्वरूपपरिचयं विना बन्धस्वरूपं. ज्ञातुमशक्यम् । . तद् विना न रोचते कस्मैचिदात्मोत्कर्पकरणम् , तद्रुषिमन्तरेण च कस्यचिन्मोक्षोपायभूतनिश्चयव्यवहारलक्षणतानक्रिययोः पतिर्न स्यात् , तस्मादत्रात्मज्ञानमसान किञ्चिदुच्यते
टीकार्थ-जो इस (पूर्वोक्त ) प्रकार से आत्मा को जानता है वही आत्मवादी है, अर्थात् आत्मा के स्वरूप को कहने वाला है। तात्पर्य यह है कि आत्मा का स्वरूप कहने वाले संसार में बहुत हैं किन्तु वास्तव में सच्चा आत्मवादी वही है जो पूर्वोक्त प्रकार से आत्मा का ज्ञाता है।
- आत्मा का स्वरूप समझे विना बन्ध का स्वरूप अशक्यं है। उसके अभाव में किसीको आत्मा का उत्कर्ष करना रुचिकर नहीं होता, और इस रुचि के अभाव में किसीको निश्चय-व्यवहाररूप ज्ञान और क्रिया में--जो मोक्ष के कारण हैं-प्रवृत्ति नहीं होती, अतः आत्मज्ञान का प्रसङ्ग होने से यहाँ कुछ विवेचन किया जाता है
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ટીકાઈ—જે આ (પૂર્વોક્ત) પ્રકારથી આત્માને જાણે છે, તે આત્મવાદી છે, અર્થાત-આત્માના સ્વરૂપને કહેવા વાળા છે; તાત્પર્ય એ છે કે આત્માનું સ્વરૂપ કહેવા વાળા સંસારમાં ઘણા છે. પરંતુ વાસ્તવમાં સાચા આત્મવાદી તે છે કે જે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી આત્માના જ્ઞાતા છે, અર્થાત્ પૂર્વોક્ત પ્રકારે આત્માને જાણે છે.
આત્માના સ્વરૂપને સમજ્યા વિના બંધનું સ્વરૂપ સમજવું અશક્ય છે, તેના અભાવમાં કેઈને આત્મા ઉત્કર્ષ કરવું રૂચિકર થતું નથી. અને તે રૂચિના અભાવમાં કેઈને નિશ્ચય-વ્યવહારરૂપ જ્ઞાન અને ક્રિયામાં જે મોક્ષનું કારણ છે તેમાં પ્રવૃત્તિ થતી નથી. તે કારણથી આત્મજ્ઞાનને પ્રસંગ હોવાથી અહિં ડુ વિવેચન કરવામાં આવે છે –
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ मू.५ आत्मवादिप्र० ।
आत्मशब्दार्थः-- अतति-नित्यं जानातीति आत्मा । 'अत सातत्यगमने' इत्यत्रातधातोगत्यर्थकत्वाद् , गत्यर्थानां च जानार्थकतया स्वीकारादयमर्थों लभ्यते । सिद्धसंसारिभेदेन द्विविधस्यापि जीवस्य सर्वदाऽवयोधसद्भावादात्मनः कस्यां चिदवस्थायामुपयोगवियोगो न जायते । कदाचिदप्यववोधाभावे च जीवत्वमेव व्याहन्येत । अत एव-'जीवो उवओगलक्रवणो' इत्युक्तम् (उत्तरा.२८ अ. १० श्लो.) यद्वा-अतति-सततं गच्छति, निरन्तरं प्राप्नोति स्वकीयान् पर्यायानिति-आत्मा।
आत्मशब्द का अर्थ"अतति'-इति-आत्मा ' अर्थात् जो नित्य जानता रहता है वह आत्मा कहलाता है । ' अत' धातु सतत गमन करने के अर्थ में है और गमनार्थक सभी धातु ज्ञानार्थक होते हैं, अतः उपर्युक्त अर्थ किया गया है। क्या सिद्ध और क्या संसारी, दोनों ही प्रकार के जीवों में सदैव ज्ञान विद्यमान रहता है, और किसी भी अवस्था में उपयोगका वियोग नहीं होता । किसी समय ज्ञान का अभाव हो जाय तो जीव में जीवत्व ही नहीं रहे । इसी कारण उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २८ श्लो. १०) में कहा है :-" जीवो उवओगलक्षणो" जीव उपयोग लक्षण वाला है।
अथवा--अतति अर्थात् जो अपने पर्यायों को सतत प्राप्त होता रहता है वह आत्मा है।
આત્મા શબ્દનો અર્થ– 'अतति' इति आत्मा अर्थात् रे आता २९ छे, ते भत्भा उपाय छे. 'अत' पातु सतत शमन ४२वाना मथमा छे. मन शमनार्थ सर्व पात ज्ञानार्थ પણ હોય છે. (ગમન કરવું એવા અર્થવાળા તમામ ધાતુ જ્ઞાન અર્થવાળા પણ હોય છે) એ કારણથી ઉપર કહેલ અર્થ કર્યો છે. તે શું સિદ્ધ અને સંસારી બંને પ્રકારના છમાં હમેશાં જ્ઞાન વિદ્યમાન રહે છે અને કઈ પણ અવસ્થામાં ઉપયોગને વિગ થતો નથી કેઈ સમય જ્ઞાનને અભાવ થઈ જાય તે જીવમાં જીવત્વ જ ન २७. से २४थी उत्तराध्ययन सूत्र (स. २८ . १०) मा यु छ :"जीवो उवओगंलक्षणो" "०१५ सक्षवाण छ."
અથવા–અતતિ અર્થાત્ જે પિતાના પર્યાને સતત પ્રાપ્ત થતું રહે છે, તે આત્મા છે.
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.२१०
आचाराङ्गमंत्रे
टीका---
से आयावादी' इति । सत्यमात्मानं ज्ञाता, आत्मवादी= आत्मानं वदितुं शीलमस्येति विग्रहे कर्तरि णिनिः, आत्मस्वरूपकथनस्वभाववान् । अयं भावः - आत्मस्वरूपं वक्तारो जगति वहवः सन्ति, परन्तु स एवात्मवादी वेदितव्यो यः पूर्वोक्तरीतिमनुसृत्यात्मानं विजानातीति ।
आत्मस्वरूपपरिचयं विना वन्धस्वरूपं ज्ञातुमशक्यम् । तद् विना न रोचते कस्मैचिदात्मोत्कर्षकरणम्, तद्रुधिमन्तरेण च कस्यचिन्मोक्षोपायभूत निश्चयव्यवड़ा रलक्षणज्ञानक्रिययोः प्रवृत्तिर्न स्यात् तस्मादत्रात्मज्ञानमसन
?
किञ्चिदुच्यते
टीकार्थ - जो इस ( पूर्वोक्त ) प्रकार से आत्मा को जानता है वही आत्मवादी है, अर्थात् आत्मा के स्वरूप को कहने वाला है । तात्पर्य यह है कि आत्मा का स्वरूप कहने वाले संसार में बहुत हैं किन्तु वास्तव में सच्चा आत्मवादी वही है जो पूर्वोक्त प्रकार से आत्मा का ज्ञाता है ।
-
आमा का स्वरूप समझे बिना बन्ध का स्वरूप अशक्य है । उसके अभाव में किसीको आत्मा का उत्कर्ष करना रुचिकर नहीं होता, और इस रुचि के अभाव में किसी की निश्चय-व्यवहाररूप ज्ञान और क्रिया में जो मोक्ष के कारण हैं-प्रवृत्ति नहीं होती, अतः आत्मज्ञान का प्रसङ्ग होने से यहाँ कुछ विवेचन किया जाता है-
टीडअर्थ - आ (यूचे) अस्थी आत्माने लगे छे, ते यात्भवाही छे, અર્થાત આત્માના સ્વરૂપને કહેવા વાળા છે; તાúય એ છે કે આત્માનું સ્વરૂપ કહેવા વાળા સંસારમાં ઘણા છે. પરંતુ વાસ્તવમાં સાચા આત્મવાદી તે છે કે જે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી આત્માના જ્ઞાતા છે, અર્થાત્ પૂર્વોક્ત પ્રકારે આત્માને જાણે છે.
આત્માના સ્વરૂપને સમજ્યા વિના બંધનું સ્વરૂપ સમજવુ અશક્ય છે, તેના અભાવમાં કાઈના આત્મા ઉત્સવ કરવુરૂચિકર · થતું નથી. અને તે ચિના અભાવમાં કોઈને નિશ્ચય-વ્યવહારરૂપ જ્ઞાન અને ક્રિયામાં જે મેક્ષનુ કારણ છે તેમાં પ્રવૃત્તિ થતી નથી. તે કારણથી આત્મજ્ઞાનને પ્રસંગ હોવાથી અહિં ચાહુ વિવેચન કરવામાં આવે છે—
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२१३
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ .५. आत्मसिद्धिः ।
आत्मनोऽस्तित्वसिद्धिःतावत् प्रत्यक्षप्रमाणत एवात्मनः सिद्धिरुच्यते-(१) किमयमात्मा-अस्ति नास्ति वेति संशयादिविज्ञानं स्वस्वात्मनि स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण सिद्धम् , स एवात्मा; संशयादिज्ञानस्यैव तदनन्यत्वेनात्मरूपत्वात् । - (२) तथा-आत्मानमाश्रित्यैव सुखदुःखादयः स्वस्वशरीर एव प्रत्यक्षेण संवेद्यन्ते ।
(३) यद्वा-कृतवानहै, करोम्यहं, करिष्याम्यहम् , इत्यादिप्रकारेण योऽयम्-अहम्प्रत्ययः, एतस्मादपि प्रत्यक्ष एवायमात्मा। कथमसत्यात्मनि
आत्माके अस्तित्वको सिद्धिसर्व प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण से ही आत्मा की सिद्धि कहते हैं:
(१) आत्मा है या नही है, इस प्रकार का संशय आदि ज्ञान अपनी अपनी आत्मा में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध है । वही ज्ञान आत्मा है, अर्थात् संशय आदि ज्ञान आत्मासे अभिन्न होने के कारण आत्मस्वरूप हो है ।
(२) आत्मा को आश्रित करके ही दुःख-सुख आदि अपने२ शरीर में प्रत्यक्ष से जाने जाते हैं।
(३) अथवा-मैं कर चुका, मैं करता हूँ, मैं करूँगा, इत्यादि रूप से जो अहम्प्रत्यय होता है उससे भी आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। आत्मा न होता तो आत्मा के विषय में अहम्प्रत्यय ( मैं का ज्ञान ) किस प्रकार हो सकता था ? आत्मरूप विषय के
આત્માના અસ્તિત્વની સિદ્ધિ– સૌથી પ્રથમ પ્રત્યક્ષ પ્રમાણથી જ આત્માની સિદ્ધિ કહે છે --(૧) આત્મા છે કે નહિ, આ પ્રકારનું સંશય આદિ જ્ઞાન પિત પિતાના આત્મામાં સ્વસંવેદન પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે, તે જ્ઞાન આત્મા છે. અર્થાત્ સંશય આદિ જ્ઞાન આત્માથી અભિન્ન હોવાના કારણે આત્મસ્વરૂપ જ છે.
(૨) આત્માના આશ્રિતપણાથી જ દુઃખ-સુખ આદિ પિત-પોતાના શરીરમાં પ્રત્યક્ષ જાણવામાં આવે છે.
(3) Aथा- ४। यूपया, ई४३. धुः शश, पत्या३ि५थी रे અહંપ્રત્યય થાય છે, તેથી પણ આત્માનું પ્રત્યક્ષપણું થાય છે. આત્મા ન હોય તે આત્માના વિષયમાં અહમ્મત્યય (હું પણાનું જ્ઞાન) કેવી રીતે થઈ શકે? આત્મરૂ૫૯
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૨૨
:: आचारामित्र • नन्वेवं गगनादीनामपि सततं स्वपर्यायप्राप्त्या तत्रात्मशब्दप्रयोगो दुर्वारः, कदापि पर्यायाभावे त्वपरिणामित्वेन तेषां वस्तुत्वमेव न स्यादिति चेन्मैवम् , सततस्वपर्यायप्राप्तिकर्तृत्वमिति व्युत्पत्तिनिमित्तमात्रमात्मशब्दस्य, न तु तत् प्रतिनिमित्तम् । मत्तिनिमित्तं चास्योपयोग एवेति गगनादिपु नात्मशब्दः प्रवर्तते। .
यद्वा-सततं गच्छतीत्ययमर्थोऽपि न विरुध्यते संसारदशायो कर्मवशेन नानागविपु सवतगमनाद , मुक्तावस्थायामपि भूतकालिकसततगमनसद्भावात् ।
शङ्का-आकाश भादि भी अपने अपने पर्यायों को निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं __ तो उनके लिये भी आत्मा शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य होगा। किसी समय उन
में पर्याय का अभाव हो तो वे अपरिणामी ठहरेंगे और तब उन में वस्तुत्व ही नहीं रहेगा।
समाधान-ऐसा मत कहिए । निरन्तर अपने पर्यायों को प्राप्त करना तो आमा शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त मात्र है, वह प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है, प्रवृतिनिमित्त तो उपयोग ही है, अतः आकाश आदि में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता।
अथवा 'निरन्तर गमन करता है। इस अर्थ का भी विरोध नहीं है। क्यों कि संसार-अवस्था में कर्म के अधीन होकर आत्मा नाना गतियों में सदैव गमन करता रहता है, मुक्त अवस्था में भी भूतकालीन सतत गमन विद्यमान है।
શકા–આકાશ આદિ પણ પિત પિતાના પર્યાને નિરંતર પ્રાપ્ત થતા રહે છે, તે તેને માટે પણ આત્મા શબ્દ પ્રયોગ કરે અનિવાર્ય થશે. કેઈ સમય તેનામાં પર્યાયને અભાવ હોય તે તે અપરિણામી ઠરશે ત્યારે તેનામાં વસ્તુત્વ ५ नहि रहे.
• समाधान-2 प्रमाणु न . निरन्तर पोत पर्यायाने आत ४२वुत તે આત્મ શબ્દની વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત માત્ર છે, પરંતુ તે પ્રવૃત્તિનિમિત્ત નથી, પ્રવૃત્તિનિમિત્તે તે ઉપયોગ જ છે, તેથી આકાશ આદિમાં આત્મ શબ્દને પ્રયોગ, થઈ શકતું નથી.
અથવા-નિરન્તર ગમન કરે છે, આ અર્થને પણ વિરોધ નથી. કેમકે-સંસાર અવસ્થામાં કર્મના આધીન બનીને આત્મા અનેક ગતિઓમાં હમેશાં, ગમન કરતે રહે છે. મુક્ત-અવસ્થામાં પણ ભૂતકાલીન સતત ગમન વિદ્યમાન છે. ' . . -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१.५ आत्मसिद्धिः _. . २१५
न च देहोऽत्र गुणीति वाच्यम्, देहस्य मूतवाद: जडत्वाच ज्ञानस्य चामूर्तवाद वोधरूपत्वाच । अहं नाहं वेतिगदतो 'माता मे बन्ध्या' इत्यादिवत् स्ववचनव्याघातः।
(४) यद्वा-आत्मा गुणी प्रत्यक्ष एव, स्मृति-जिज्ञासा-चिकीर्पाजिगमिपा-संशयादिज्ञानविशेपाणां तद्गुणानां स्वात्मनि स्वसंवेदनपत्यक्षसिद्धत्वात् , इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टः, यथा घटः, प्रत्यक्षगुणश्वात्मा, तस्मात्- प्रत्यक्षः। यथा घटोऽपि गुणी रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वादेव प्रत्यक्षः, तथा विज्ञानादिगुणप्रत्यक्षत्वादात्मापीति ।
यहाँ यह कहना ठीक नहीं है कि-'देह गुणी है, क्यों कि देह मूर्त है और जड है जब कि ज्ञान अमूर्त है और चेतनरूप है । मूर्त गुणी का अमूर्त गुण नहीं हो सकता
और न जड का गुण चेतना हो सकता है। इस कारण ' मैं हूँ या नहीं' इस प्रकार कहने वाले को 'मेरी माता वन्ध्या है। ऐसा कहने वाले के समान स्ववचनवाघा दोष आता है।
(४) अथवा आरमा गुणी प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है, क्योंकि स्मृति, जिज्ञासा, करने की इच्छा, गमन की इच्छा, संशय आदि ज्ञान-जो आत्मा के गुण है-अपनी आत्मा में प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं, जिस पदार्थ के गुण प्रत्यक्ष से प्रतीत होते हैं वह पदार्थ भी प्रत्यक्ष माना जाता है, जैसे घट, आमाके गुण भी प्रत्यक्ष से प्रतीत होते हैं इस कारण आत्मा प्रत्यक्ष है । घट के रूप आदि गुणों का प्रत्यक्ष होने से ही गुणी घट का प्रत्यक्ष होना देखा जाता है, इसी प्रकार विज्ञान आदि गुणों का प्रत्यक्ष होने से आत्मा भी प्रत्यक्ष है।
અહી: દેહ ગુણી છે એમ કહેવું તે ઠીક નથી, કારણ કે દેહ મૂર્ત છે અને જડ છે. જ્યારે જ્ઞાન અમૂર્ત છે અને ચેતનરૂપ છે. મૂર્ત ગુણીને અમૂર્ત ગુણ હોઈ શકે નહિ. અને જડને ગુણ ચેતન થઈ શકે નહિ. આ કારણથી. “હું છું કે નહિ” એ પ્રમાણે કહેવાવાળાને “મારી માતા વધ્યા છે” એ પ્રમાણે કહેનારના જે સ્વવચનબાધા નામને દેવ આવે છે.
(४) मथपा-मामा गुणी प्रत्यक्षथी सिद्ध छ, भ-भृति, ज्ञासा, ४२वानी ઈચ્છા, ગમનની ઈચછા, સંશય આદિજ્ઞાન વગેરે જે આત્માના ગુણ છે તે પોતાના આત્મામાં પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે. જે પદાર્થને ગુણ પ્રત્યક્ષથી પ્રતીત થાય છે તે પદાર્થ પણ પ્રત્યક્ષ માનવામાં આવે છે. જેમ-ઘટ, આત્માને ગુણ પ્રત્યક્ષથી પ્રતીત થાય છે. તે કારણથી આત્મા પ્રત્યક્ષ છે. ઘટના રૂપ આદિ ગુણે પ્રત્યક્ષ હોવાથી જ ગુણ ઘટનું પ્રત્યક્ષ હોવું જોવામાં આવે છે. તે પ્રમાણે વિજ્ઞાન આદિ ગુણે પ્રત્યક્ષ હોવાથી मात्मा ५९ प्रत्यक्ष छे.
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आचारायचे अहमिति ज्ञानम् आत्मविषयकं जायते । आत्मरूपविपयामा विपयिणोऽनुत्यानप्रसंगात् । न च देह एवास्य ज्ञानस्य विषय इति वाच्यम् । जीवरहितेऽपि देहे तदुत्पत्तिप्रसंगात् । अस्मिन्नहम्प्रत्यय आत्मविषयके सति तु किमहस्मि नास्मीति संशयो नोपपद्यते, अहम्प्रत्ययविषयस्यात्मनः सदाबादहमस्मीति निश्चय एव संभवति । आत्मास्तित्वसंशये तु फस्यायमहम्मत्ययः स्यात् , निर्मूलत्वेन तदनुत्थानप्रसङ्गात् । यदि संशयी जीव एव नास्ति, तर्हि अस्ति नास्तीति संशयः कस्य भवतु । संशयो हि विज्ञानाख्यो गुण एव, न च गुणिनमन्तरेण गुणः सिध्यति।
अभाव में विषयी अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। शरीर हो इस ज्ञान का विपय है-अर्थात् 'अहम् ' (मैं) का अर्थ आमा नहीं वरन् शरीर है, ऐसा कहना उचित नहीं, क्यों कि-ऐसा होता तो मृत शरीर में भी अहम्प्रत्यय होने लगता। आत्मा को विपय करनेवाले इस अम्हप्रत्यय की विधमानता में ' मैं हूँ या नहीं हूँ', इस प्रकार का संशय ही नहीं होता है, अहम्प्रत्यय के विषयमूत आत्मा का सद्भाव होने से 'मै हूँ ' इस प्रकार का निश्चय ही हो सकता है। आत्मा के अस्तित्व के विपय में संशय किया जाय तो प्रश्न उपस्थित होता है कि यह महम्प्रत्यय किसे होता है । विना कारण के ही तो उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि संशय करने वाला जीव ही नहीं है तो है या नहीं ?' इस प्रकार का संशय' करता कौन है? संशय एक प्रकार का ज्ञान-गुण है और गुण, गुणी के अभाव में नहीं हो सकता। .
વિષયના અભાવમાં વિષથી અર્થાત્ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ નથી થઈ શકતી. શરીર જ આ जानना विषय छ, अर्थात् 'म , ()अर्थ मात्मा नथी म शरीर छ, એમ કહેવું તે ઊંચિત નથી, કેમકે જો એમ હોય તે મૃત શરીરમાં અહમ્મત્યય
४. आत्माने विषय ४२१॥ वाणी मा-मम्प्रत्ययनी, विधमानतामा "छु કે નથી ” આ પ્રકારને સંશય જ થતું નથી અહઋત્યના વિષયભૂત मात्मानो सहला डोपाथी “छु" 2 रन निश्चय १ ईश छ. આત્માના અસ્તિત્વના વિષયમાં સંશય કરવામાં આવે તે પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે આ અહમ્મત્યય કોને થાય છે? કારણ વિના તે તેની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી જે સંશય કરવા વાળે જીવ નથી તે “હું છું કે નહિ” એ પ્રકારને સંશય કરનાર શા છે ? સંશય એક પ્રકારને જ્ઞાન-ગુણ છે, અને ગુણ ગુણીના અભાવમાં થઈ शत। नथी.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ . ५. आत्मसिद्धिः
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रूपादिगुणमात्रस्यैव प्रत्यक्षत्वात् । अन्यस्मिन् ज्ञातेऽन्यज्ज्ञातं न भवति, यथा घटे ज्ञाते पटो न ज्ञायते । गुणाः कदापि द्रव्याद् भिन्नतया सत्तां न लभन्ते, एवं द्रव्यमपि गुणेभ्यो भिन्नतया न सतां लभते । अयं गुणः, अयं गुणीति नाममात्रतो भेदसच्चेऽपि न तत्त्वत्तो भेदः । यथा - अग्निर्गुणी स्वकीयादुष्णत्वगुणादत्यन्तभिन्नः स्यात्तर्हि दाहकार्य कर्तुमसौ न शक्नुयात् ।
तथा - यद्यात्मा ज्ञानगुणादत्यन्तभिन्नो भवेत् तदा तस्य जड़त्वापत्तिः स्यात् । तस्माद् द्रव्यगुणयोदो न कदाचिदासीत्, नाप्यस्ति न च भविष्यतीति सिद्धम् ।
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तुष्यतु दुर्जनन्यायेन तत्र मते गुणेभ्यः भिन्नत्वाङ्गीकारेऽप्यात्मा प्रत्यक्षो मा अन्य का ज्ञान होने से अन्य का बोध नहीं हो जाता । जैसे-घट के जाननेसे पट मालूम नहीं होता । गुण द्रव्य से भिन्न कदापि नहीं रह सकते, और द्रव्य भी गुणों से भिन्न कदापि नहीं रह सकता । ‘यह गुण है, यह गुणी है' इस प्रकारका भेद नाममात्रका है, वास्तव में गुण-गुणी में भेद नही है । अगर अग्नि गुणी अपने उष्णतागुण से अत्यन्त भिन्न होता तो वह दाह - कार्य ( जलाने का कार्य ) करने में असमर्थ होता ।
दूसरी बात यह है कि - आत्मा यदि अपने ज्ञानगुण से भिन्न होता तो आत्मा में नडता आ जाती । अत एव द्रव्य और गुण का भेद न कभी था, न है, और न
होगा ।
दुर्जनसन्तोपन्याय से, तुम्हारे मत के अनुसार कदाचित् यह मान लिया जाय कि आत्मा गुणों से भिन्न है और इस कारण आत्मा का प्रत्यक्ष भले ही न हो ઘટ કયારેય પ્રત્યક્ષ નથી થતા. અન્યનું જ્ઞાન થવાથી અન્યને ખાધ થતા નથી, જેમકે ઘટના જ્ઞાનથી પટ માલૂમ થતે નથી (પટનું જ્ઞાન થતું નથી;). ગુણુ, દ્રવ્યથી ભિન્ન કદાપિ રહી શકતા નથી. આ ગુણ છે અને આ ગુણી છે એ પ્રકારને ભેદ નામમાત્રના છે વાસ્તવિક રીતે ગુણ–ગુણીમાં ભેદ નથી, અગર અગ્નિ ગુણી પેાતાના ઉષ્ણુતાગુણથી અત્યન્ત ભિન્ન થઈ જાય તે તે દાહકાર (ખાળવાનું કાય) કરવામાં અસમર્થ થઈ જાય છે.
ખીજી વાત એ છે કે આત્મા જે પેાતાના જ્ઞાનગુણુથી ભિન્ન હેાય તે આત્મામાં જડતા આવી જાય. એટલા માટે દ્રવ્ય અને ગુણને ભેદ કેઇ પણ વખતે હતા નહિ, છે નહિ અને થશે પણ નહિ.
દુનસતા" ન્યાયથી તમારા મત પ્રમાણે કદાચિત્ એમ માની લઈએ કે આત્મા શુણાથી ભિન્ન છે, અને તે કારણે આત્મા પ્રત્યક્ષ ભલે ન થાય તે પણુ -
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- भाचारात्सूत्रे
१
न चाऽनैकान्तिकोऽयं हेतुः यस्मादाकाशगुणः शब्दः प्रत्यक्षोऽस्ति न पुनराकाशमिति वाच्यम्, शब्दस्याकाशगुणत्वाभावात् । शब्दो हि पुद्गलगुणः ऐन्द्रियकत्वाद् रूपादिवदिति ।
अस्तु, गुणाः प्रत्यक्षाः, गुणिनस्तु प्रत्यक्षत्वे किं मानम् ? उच्यते-गुणेभ्योऽनन्यो गुणीति ज्ञानादिगुणानां प्रत्यक्षत्वा देवात्माऽपि गुणी प्रत्यक्षेण ज्ञायते । यदि गुणेभ्योऽन्यो गुणी स्यात् तदा घटादयोपि गुणिनः प्रत्यक्षा न भवेयुः, शङ्का - आप का दिया हुआ हेतु अनैकान्तिक है, क्यों कि आकाश के गुण शब्द का तो प्रत्यक्ष होता है किन्तु आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता ।
1
समाधान - ऐसा न कहिए, क्यों कि शब्द आकाश का गुण नहीं है । शब्द पुद्गल का गुण है, क्यों कि वह इन्द्रिय ( श्रोत्रेन्द्रिय) का विषय है, जो 'इन्द्रिय का विषय होता है वह पौगलिक हो होता है, जैसे-रूप आदि
शङ्का - गुणों को प्रत्यक्ष मान लें किन्तु गुणी के प्रत्यक्ष होने में क्या प्रमाण है ?
...
समाधान-गुण और गुणी का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध -गुणी, गुणों से अभिन्न होता है, अत एव गुणों का प्रत्यक्ष होने से आत्मा गुणी भी प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है । अगर गुणी, गुणों से भिन्न होता तो गुणी घट आदिका भी प्रत्यक्ष न होता, क्योंकि सिर्फ रूपादि गुणों से भिन्न घट का कभी प्रत्यक्ष नहीं होता ।
શકા—આપે જે હેતુ અહિં આપ્યા છે તે અનેકાન્તિક છે; કેમકે આકાશને ગુણુ શબ્દ તે તે પ્રત્યક્ષ થાય છે, પરંતુ આકાશ પ્રત્યક્ષ થતુ' નથી.
સમાધાન એ પ્રમાણે ન કહા, કેમકે શબ્દ તે આકાશને ગુણુ નથી પણ શબ્દ તે પુદ્ગલને ગુણુ છે. કેમકે તે ઈન્દ્રિય ( શ્રોત્રેન્દ્રિય )ના વિષય છે. જે ઇન્દ્રિયના વિષય હાય છે તે પૌલિક જ હોય છે, જેમ-પ આદિ.
શકા—ગુણાને પ્રત્યક્ષ માની લઈએ. પરંતુ ગુણીના પ્રત્યક્ષપણામાં શું પ્રમાણુ છે?
સમાધાન ગુણ અને ગુણીના કંચિત્ તાદાત્મ્ય સંબંધ છે ગુણી, ગુણાથી અભિન્ન હાય છે, એટલે ગુણ્ણાના પ્રત્યક્ષપણાથી આત્મા ગુણી પણ પ્રત્યક્ષ પ્રતીત થાય છે. અગર જો ગુણી, ગુણેાથી ભિન્ન હેાત તેા ગુણી ઘટ આદિ પણ પ્રત્યક્ષ થઈ શકત નહિં. કેમકે માત્ર રૂપાદિ ગુણૅાજ પ્રત્યક્ષ હાય છે, રૂપાદિ ણાથી ભિન્ન
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ मृ.५ आत्मसिद्धिः
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तस्माद् ज्ञानादिगुणानामनुरूपो यो रूपरहितोऽचाक्षुपश्च गुणी स देहाद् भिन्न आत्माऽस्तीति विज्ञेयः ।
न च ज्ञानादयो गुणा न देहसम्बन्धिन इत्यनुमानं प्रत्यक्षवाधितम्, ज्ञानादिगुणानां देह एव प्रत्यक्षेण ज्ञानसद्भावादिति वाच्यम् अस्य प्रत्यक्षस्या'नुमानवाधितत्वात् । शरीरेन्द्रियभिन्नं ज्ञानादिगुणवत्त्वमनुमानेन सिध्यति । तथाहि - शरीरेन्द्रियभिन्नो ज्ञानादिगुणवान्, तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । यो हि यदुपरमेऽपि यदुपलब्धमर्थमनुस्मरति, स तस्मादन्यो दृष्टः, यथा - पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्ता देवदत्तः, इत्यादि । केनचित् कारणेन दृष्टिशक्तिविधातेऽपि पूर्वदृष्टपदार्थानुस्मरणं भवतीत्यतो देहेन्द्रियादिभिन्न आत्मा गुणी सिध्यति ।
कि- प्रत्यक्षप्रमाण से वे देह में कि यह प्रत्यक्ष ही अनुमान से
ज्ञानादि गुण देहसम्बन्धी नहीं हैं, यह अनुमान, ही प्रतीत होते हैं, यह बाधित है । अनुमान से यह
प्रत्यक्ष से बाधित है, क्यों कथन ठीक नहीं है, क्यों सिद्ध है कि- ज्ञान आदि
गुणों का आधार शरीर और इन्द्रियों से कोई भिन्न पदार्थ ( आत्मा ) ही है । अनुमान इस प्रकार है - ज्ञानादि गुणों का आधार शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है, क्यों कि उनके नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है । जिसके नष्ट हो जाने पर भी, जिसके द्वारा जाने हुए पदार्थ का जो रमरण करता है। वह उस से भिन्न होता है । जैसे- पाच खिडकियों द्वारा जाने हुए पदार्थों को स्मरण करने वाला देवदत्त है, उसको किसी कारण से देखने की शक्ति नष्ट हो जाने पर भी पहले देखे हुए पदार्थ का स्मरण होता है । इस से भलीभाँति सिद्ध है कि - देह और इन्द्रिय आदि से भिन्न आत्मा ही गुणी है ।
જ્ઞાનાદિ ગુણુ દેહસબંધી નથી, કારણ કે તે અનુમાન પ્રત્યક્ષથી ખાષિત છે, કેમકે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણથી તે દેહમાં જ પ્રતીત થાય છે; તે ક્થન ઠીક નથી. કેમકે તે પ્રત્યક્ષ અનુમાનથી માષિત છે. અનુમાનથી એ સિદ્ધ છે કે જ્ઞાન આદિ ગુણાને આધાર શરીર અને ઇન્દ્રિયાથી કાઈ ભિન્ન પદાર્થ (આત્મા) જ છે. અનુમાન આ પ્રમાણે છે—જ્ઞાનાદિ ગુણાના આધાર શરીર અને ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન છે, કેમકે તેના નષ્ટ થવા છતાંય તેના દ્વારા જાણેલા પદાનું સ્મરણ હોય છે. જેના નષ્ટ થયા પછી પશુ, જેના દ્વારા જાળેલા પદાર્થ તેનુ જે સ્મરણ કરે છે તે તેનાથી ભિન્ન હેાય છે. જેમ પાંચ ખડકીએ દ્વારા જોવા વાળા પદાર્થાનું સ્મરણ કરવા વાળા દેવદત્ત છે. તેને કાઈ કારણથી દેખવાની શક્તિ નષ્ટ થઇ જવા છતાંય પ્રથમ દેખેલા પદાર્થોનુ
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२१८
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आचारामने भवतु, अस्तित्वं च तस्य निर्वाधमेव । ज्ञानादिगुणाः सन्ति यस्य स गुणिरूप आत्मा कथमपलप्येत।
ननु देह एव ज्ञानादिगुणाः उपलभ्यन्ते तदाश्रयतया देह एवं रूपादीनां घट इव गुणी सिध्यति, न त्यात्मा । प्रयोगश्चैवम्-देहगुणा एव ज्ञानादयः, तत्रैवोपलभ्यमानत्वाद्, गौरकृशस्थूलतादियदिति चेन्न, ज्ञानादयो गुणा न देहसम्बन्धिनः, अमूर्तत्वाद् , अचाक्षुपत्वाद् वा, गगनवत् । द्रव्यविरहितो गुणो न भवति । तथापि उसके अस्तित्व में कोई बाधा नही आती । जिस के ज्ञानादि गुण मौजुद हैं उस गुणीरूप आत्मा का अपलाप किस प्रकार किया जा सकता है ।
शङ्का-देह में ही ज्ञानादि गुण पाये जाते हैं, अतः इन गुणों का आधार गुणी देह ही है, जैसे-रूपादि गुणों का आधार घट है। आमा ज्ञानादि गुणों का आश्रयभूत गुणी नहीं है । अनुमान इस प्रकार है-ज्ञान आदि देह के गुण हैं, क्यों कि वे देह में ही उपलब्ध होते, जैसे-गौरपन, दुबलापन और स्थूलता आदि।
समाधान-यह कहना ठीक नहीं, ज्ञान भादि गुण देह के नहीं हैं, क्यों कि वे अमूर्त हैं और भचाक्षुप (जो भाखसे नहीं दीखता ) हैं, जो अमूर्त और अचाक्षुप होते हैं वे देहके गुण नहीं होते, जैसे आकाश ।
गुण, द्रव्य के विना रह नहीं सकते अतः ज्ञान आदि गुणोंका आधारभूत कोई द्रव्य अवश्य होना चाहिए । ज्ञानादि गुणोंके अनुरूप जो अरूपी एवं अचाक्षुष गुणी हैं वह देह से भिन्न आत्मा ही है । આત્માના અસ્તિત્વમાં કઈ પ્રકારની હરકત આવતી નથી. જેને જ્ઞાનાદિ ગુણ હૈયાત છે, તે ગુણરૂ૫ આત્માને અપલાપ-(છતી વસ્તુને નથી એમ કહેવું તે) કેમ કરવામાં આવે ?..
શકા–દેહમાં જ જ્ઞાનાદિ ગુણ દેખાય છે, તે કારણથી એ ગુણાને-આધાર ગુણ દેહ જ છે, જેમ રૂપાદિ ગુણેને આધાર ઘટ છે. આત્મા જ્ઞાનાદિ ગુણોને આશ્રયભૂત ગુણ નથી. અનુમાન આ પ્રમાણે છે-જ્ઞાન આદિ દેહના ગુણ છે, કેમકે તે દેહમાં જ ઉપલબ્ધ જણાય છે, જેમકે ગોરાપણું, દુબલાપણું અને ધૂળતા-orej गेरे.
સમાધાન–એ પ્રમાણે કહેવું તે ચગ્ય નથી; જ્ઞાન આદિ ગુણ તે દેહના ગુણ નથી, કેમકે તે અમૂર્ત છે, અને અચાક્ષુષ છે. (જે નેત્રથી દેખાતા નથી). જે અમૂન અને અચાક્ષુષ હોય છે તે દેહના ગુણ થઈ શકતા નથી, જેમ આકાશ. ગણ, દ્રવ્ય વિના રહી શકતા નથી, તે કારણથી જ્ઞાન આદિ ગુણના આધારભૂત' કેઈ દ્રવ્ય હોવું જોઈએ. એટલા માટે જ્ઞાનાદિ ગુણેને અનુરૂપ જે અપી અને અચાક્ષુષ ગુણી છે, તે દેહથી ભિન્ન આત્મા જ છે,
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. १ मृ.५ आत्मसिद्धिः
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तस्माद् ज्ञानादिगुणानामनुरूपो यो रूपरहितोऽचाक्षुपश्च गुणी स देहादू भिन्न आत्माऽस्तीति विज्ञेयः ।
न च ज्ञानादयो गुणा न देहसम्बन्धिन इत्यनुमानं प्रत्यक्षवाधितम्, ज्ञानादिगुणानां देह एव प्रत्यक्षेण ज्ञानसद्भावादिति वाच्यम् अस्य प्रत्यक्षस्या'नुमानवाधितत्वात् । शरीरेन्द्रियभिन्नं ज्ञानादिगुणवत्त्वमनुमानेन सिध्यति । तथाहि-- शरीरेन्द्रियभिन्नो ज्ञानादिगुणवान्, तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । यो हि यदुपरमेऽपि यदुपलब्धमर्थमनुस्मरति, स तस्मादन्यो दृष्टः, यथा - पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्ता देवदत्तः, इत्यादि । केनचित् कारणेन दृष्टिशक्तिविघातेऽपि पूर्वदृष्टपदार्यानुस्मरणं भवतीत्यतो देहेन्द्रियादिभिन्न आत्मा गुणी सिध्यति ।
?
कि- प्रत्यक्षप्रमाण से वे देह में कि यह प्रत्यक्ष ही अनुमान से
ज्ञानादि गुण देहसम्बन्धी नहीं हैं, यह अनुमान, प्रत्यक्ष से बाधित है, क्यों ही प्रतीत होते हैं, यह कथन ठीक नहीं है, क्यों बाधित है । अनुमान से यह सिद्ध है कि -ज्ञान आदि ( आत्मा ) ही है । अनुमान
गुणों का आधार शरीर और इन्द्रियों से कोई भिन्न पदार्थ
इस प्रकार है- ज्ञानादि गुणों का आधार शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है, क्यों कि उनके नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है । जिसके नष्ट हो जाने पर भी, जिसके द्वारा जाने हुए पदार्थ का जो रमरण करता है वह उस से भिन्न होता है । जैसे- पांच खिडकियों द्वारा जाने हुए पदार्थों को स्मरण करने वाला देवदत्त है, उसको किसी कारण से देखने की शक्ति नष्ट हो जाने पर भी पहले देखे हुए पदार्थ का स्मरण होता है । इस से भलीभाँति सिद्ध है कि देह और इन्द्रिय आदि से भिन्न आत्मा ही गुणी है |
જ્ઞાનાદિ ગુણુ દેસળ ધી નથી, કારણ કે તે અનુમાન પ્રત્યક્ષથી આધિત છે, કેમકે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણથી તે દેહમાં જ પ્રતીત થાય છે; તે સ્થન ઠીક નથી. કેમકે તે પ્રત્યક્ષ અનુમાનથી બાધિત છે. અનુમાનથી એ સિદ્ધ છે કે જ્ઞાન આદિ ગુણ્ણાના આધાર શરીર અને ઇન્દ્રિયાથી કોઈ ભિન્ન પદાર્થ (આત્મા) જ છે. અનુમાન આ પ્રમાણે છે——જ્ઞાનાદિ ગુણાને આધાર શરીર અને ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન છે, કેમકે તેના નષ્ટ થવા છતાંય તેના દ્વારા જાણેલા પદાર્થનુ સ્મરણુ હોય છે. જેના નષ્ટ થયા પછી પણ, જેના દ્વારા જાશેલેા પદાર્થ તેનું જે સ્મરણ કરે છે તે તેનાથી ભિન્ન હેાય છે. જેમ પાંચ ખડકીએ દ્વારા જોવા વાળા પદાર્થોનું સ્મરણ કરવા વાળેા દેવદત્ત છે. તેને કઈ કારણથી દેખવાની શક્તિ નષ્ટ થઇ જવા છતાંય પ્રથમ દેખેલા પદાર્થાનુ
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आचारासत्रे (३) इन्द्रियं साधिष्ठातृकं, करणत्वात् , यथा चक्रचीवरमुत्सूत्रदण्डादयः, अस्ति हि चक्रचीवरादीनामधिष्ठाता कुलालः। यच निरधिष्ठातृकं तत् करणमपि न भवति, यथा-आकाशम् , यथेन्द्रियाणामधिष्ठाता स आत्मेति ।
(४) यहा-इन्द्रियविषयाणामादाता संभवति, इन्द्रियविषया शब्दादय आदाहसहिताः आदानादेयभावसद्भावांव , संदंशकलोहवत् । यथा लोके सईशकलोहानामयस्कार आदाताऽस्ति । इन्द्रियविषयाणां चादानादेयभावो विद्यते, । अतस्तेपामप्यादाताऽस्तीत्यनुमीयते । यत्र तु आदाता नास्ति, तत्रादानादेयभावोऽपि न विद्यते, यथा-आकाशे।
(३) इन्द्रिया किसी सधिष्ठाता से युक्त हैं, क्यों कि- करण हैं, जैसे चक्र, चीवर, मृत्तिका, सूत और दण्ड आदि । चक्र, चीवर आदि का अधिष्ठाता कुंभार है, जिस का कोई अधिष्ठाता नहीं होता यह करण भी नहीं होता, जैसे-आकाश । इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता है, वही आत्मा है।
(४) अथवा इन्द्रियों के विपय शब्द आदि आदातायुक्त (ग्रहण करने वाले से युक्त ) है, क्यों कि उन में आदान आदेयभाव मौजूद है, जैसे संडासी और लोहे में, तात्पर्य यह है कि-लोक में संडासी और लोहे में आदान (लेना) आदेयभाव (जो लिया जाय) प्रसिद्ध है और उन का आदाता लुहार है, इसी प्रकार इन्द्रियों तथा विषयों का भी आदानआदेयभाव है, अतः उनका भी कोई आदाता होना चाहिए । जहाँ आदाता नहीं होता वही आदान-आदेयभाव भी नहीं होता, जैसे-आकाश में ।
(૩) ઈન્દ્રિા કઈ પણ અધિષ્ઠાતાથી યુક્ત છે, કેમકે તે કરણ છે; જેમકે ચક, ચવર, મૃત્તિકા, સૂત અને દંડ આદિ. ચક, ચીવર વગેરેને અધિષ્ઠાતા કુંભાર છે, જેને કેઈ અધિષ્ઠાતા હેય નહિ, તે કરણ પણ હેય નહિ; જેમકે–આકાશ. ઈન્દ્રિયને જે અધિષ્ઠાતા છે, તે આત્મા છે.
(૪) અથવા-ઈન્દ્રિયોના વિષય શબ્દ આદિ આદાનયુક્ત-(ગ્રહણ કરવાવાળાચુત) છે, કેમકે તેમાં આદાન-આદેય ભાવ મેજુદ છે. જેમ સાણસી અને લેહમાં તાત્પર્ય એ છે કે લેકમાં સાણસી અને લેહમાં આદાન-આદેય ભાવ પ્રસિદ્ધ છે. અને તેના આદાતા લુહાર છે; આ પ્રમાણે ઇન્દ્રિય તથા વિષયને પણ આદાનઆદેય ભાવ છે તેથી તેને પણ કેઈ આદાતા હે જોઈએ ત્યાં આદાતા નથી, ત્યાં આદાન-આદેય ભાવ પણ હેય નહિ, જેમ આકાશમાં.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ आत्मसिद्धिः
२२३ (५) यद्वा-देहादिकं विद्यमानभोक्तकम् , भोग्यत्वात् , यथा-अन्नवस्त्रादिकम् । अन्नवस्त्रादीनां भोक्ता मनुष्योऽस्ति । यस्य च भोक्ता नास्ति तद् भोग्यमपि न भवति, यथा खरविपाणम् , भोग्यं च शरीरादिकं, तस्माद् विधमानभोक्तकम् ।
(६) यद्वा-अस्ति देहादिकं सस्वामिकं, संघातरूपत्वात् , मूर्तिमत्त्वात् , ऐन्द्रियत्वात् , चारपत्वात् , यथा-गृहादिकम् । गृहादीनां स्वामिनः देवदत्तादयः सन्ति । यत् पुनरस्वामिकं तत् संघातरूपं न भवति, मूर्तिमन्न भवति, ऐन्द्रियं न भवति, चाक्षुपं च न भवति, यथा-गगनकुसुमम् । देहादिकं, चास्ति संघातादिरूपम् , तस्माद् विद्यमानस्वामिकम् । यश्च देहादीनां स्वामी स चात्मेति ।
(५) अथवा-देह आदि का भोक्ता कोई अवश्य है, क्यों कि वे भोग्य हैं, जो भोग्य होते हैं उन का भोक्ता भी होता है, जैसे-~~-अन्न, वस्त्र आदि का । अन्न-वस्त्र आदिका __ भोक्ता मनुष्य है। जिसका भोक्ता नहीं होता वह भोग्य भी नहीं होता, जैसे गधे का सींग । शरीर आदि भोग्य हैं अतः उनका भोक्ता अवश्य है ।
(६) अथवा-देह आदि का कोई स्वामी है, क्यों कि वे संघातरूप हैं, मूर्तिमान् हैं, इन्द्रियों के विषय हैं और चाक्षप हैं, घर आदि के समान । घर आदि के स्वामी देवदत्त आदि हैं। जिसका कोई स्वामी नहीं होता वह संघातरूप नहीं होता, मूर्तिमान् नहीं होता, इन्द्रिय का विषय नहीं होता, और चौक्षुप (आंख से दीखने वाला ) भी नहीं होता, जैसे—आकाशपुष्प । देह आदि संधातरूप हैं, अतः उन का स्वामी अवश्य है। देह आदि का जो स्वामी है यही आत्मा है ।
(૫) અથવા-દેહ આદિને ભેટતા કઈ અવશ્ય છે, કેમકે તે ભગ્ય છે, જે
હોય છે, તેનો ભોકતા પણ હોય છે. જેમકે અન્ન, વસ્ત્ર આદિને. અન્ન-વસ્ત્ર આદિને ભોકતા મનુષ્ય છે. જેને જોતા નથી તે ભેચ પણ નથી, જેમ ગધેડાના શીંગ. શરીર આદિ ભેગ્ય છે, તેથી તેને ભકતા અવશ્ય છે.
(8) अथवा हे माहिना स्वामी छ, भ-ते सात३५ छ, मूर्तिभान छ, ઈન્દ્રિયેનો વિષય છે. અને ચાક્ષુષ છે, ઘર આદિ પ્રમાણે. ઘર આદિને સ્વામી દેવદત્ત આદિ છે. જેને કોઈ સ્વામી નથી તે સંઘાતરૂપ પણ નથી, અને તે મૂર્તિમાન પણ હેય નહિ, ઈન્દ્રિયને વિષય પણ હોય નહિ અને ચાક્ષુષ (નેત્રથી જોઈ શકાય તે) પણ હોય નહિ, જેમકે આકાશપુષ્પ. દેહ આદિ સંઘાતરૂપ છે, તેથી તેને સ્વામી અવશ્ય છે, દેહ આદિને સ્વામી છે, તે આત્મા છે.
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आचारामित्र (३) इन्द्रियं साधिष्ठातृकं, करणत्वाव , यथा चक्रचीवरमरमूत्रदण्डादयः, अस्ति हि चक्रचीवरादीनामधिष्ठाता कुलालः। यच निरधिष्ठाठकं तत् करणमपि न भवति, यथा-आकाशम् , यथेन्द्रियाणामधिष्ठाता स आत्मेति ।
(४) यद्वा-इन्द्रियविषयाणामादाता संभवति, इन्द्रियविषया शब्दादय आदारसहिताः आदानादेयभावसदायांव , संदंशकलोहवत् । यथा लोके संदशकलोहानामयस्कार आदाताऽस्ति । इन्द्रियविषयाणां चादानादेयभावो विद्यत, अतस्तेपामप्यादाताऽस्तीत्यनुमीयते । यत्र तु आदाता नास्ति, तत्रादानादेयमावोऽपि न विद्यते, यथा-आकाशे।
(३) इन्द्रिया किसी सधिष्ठाता से युक्त हैं, क्यों कि-वे करण हैं, जैसे चक्र, चीवर, मृत्तिका, सूत और दण्ड आदि । चक्र, चीवर आदि का अधिष्ठाता कुंभार है, जिस का कोई अधिष्ठाता नहीं होता वह करण भी नहीं होता, जैसे-आकाश । इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता है, वही आत्मा है।
(४) अथवा इन्द्रियों के विषय शब्द आदि आदातायुक्त (ग्रहण करने वाले से युक्त) हैं, क्यों कि उन में आदान आदेयभाव मौजूद है, जैसे संडासी और लोहे में, तात्पर्य यह है कि-लोक में संडासी और लोहे में आदान (लेना) आदेयभाव (जो लिया जाय) प्रसिद्ध है और उन का आदाता लुहार है, इसी प्रकार इन्द्रियों तथा विषयों का भी आदानआदेयभाव है, अतः उनका भी कोई आदाता होना चाहिए । जहाँ आदाता नहीं होता वही आदान-आदेयभाव भी नहीं होता, जैसे-आकाश में ।
(૩) ઈન્દ્રિયે કઈ પણ અધિષ્ઠાતાથી યુક્ત છે, કેમકે તે કરણ છે; જેમકે ચક, ચીવર, મૃત્તિકા, સૂત અને દંડ આદિ. ચક, ચીવર વગેરેને અધિષ્ઠાતા કુંભાર છે, જેને કેઈ અધિષ્ઠાતા હેય નહિ, તે કરણ પણ હોય નહિ; જેમકે-આકાશ. ઇન્દ્રિયને જે અધિષ્ઠાતા છે, તે આત્મા છે.
(४) अथवा-न्द्रियाना विषय ७६ माहि माहानयुत-(अY ४२वावाચુક્ત) છે, કેમકે તેમાં આદાન-આદેય ભાવ મેજુદ છે. જેમ સાણસી અને લોહમાં તાત્પર્ય એ છે કે લોકમાં સાણસી અને લેહમાં આદાન-આદેય ભાવ પ્રસિદ્ધ છે. અને તેના આદાતા લુહાર છે; આ પ્રમાણે ઇંદ્રિ તથા વિષયને પણ આદાનઆય ભાવ છે તેથી તેને પણ કેઈ આદાતા હવે જોઈએ ત્યાં આદાતા નથી, ત્યાં આદાન-આદેય ભાવ પણ હેય નહિ, જેમ આકાશમાં.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ ८.५ आत्मसिद्धिः
२२५ पुगलसंघातोपगूढत्वात् , सशरीरत्वाच कथंचिन्मृतत्वादिधर्मयुक्त एवास्तीति। .
(७) यद्वा-'जीव' इति पदं सार्थकं, व्युत्पत्तिमत्त्वे सति असमासपदत्वाद् एकपदत्वाद् घटादिपदयत् । घटादिपदं व्युत्पत्तिमत् असमासपदमेकपदं लोके दृष्टम् , तथा च जीवपदं, तस्मात् सार्थकम् । यत्तु सार्थकं नास्ति तद् व्युत्पत्तिमत्
असमासपदमेकपदं च नास्ति, यथा-खरविषाणादिकं, डिस्थादिकं च पदम् । 'जीवपदं च न तथा, तस्मात् सार्थकम् ।
. . यद् व्युत्पत्तिमन्न भवति तदेकपदमपि सद् न सार्थकम् , यथा डित्यादिपदम् , इति हेतोरनैकान्तिकस्यापत्तिस्तद्वारणाय व्युत्पत्तिमत्त्व विशेषणमुपात्तम् । हुए हैं, इस लिए कोई दोष नहीं आता । संसारी आत्मा आठ कर्मों के समूह से युक्त होने के कारण तथा सशरीर होने के कारण मूर्तत्व आदि धर्मों से युक्त ही है।
(७) अथवा-'जीव' पद का वाच्य अवश्य है, क्यों कि यह पद व्युत्पत्ति वाला होते हुए समासरहित है, एक पद है, घट आदि पदों के समान । घट वगैरह पद व्युत्पक्तिवाले, असमासपद, एक पद लोक में देखे जाते हैं अतः उनके वाच्य भी अवश्य हैं । 'जीव' पद भी ऐसा ही है, अतः वह भी सार्थक है । जो पद सार्थक नहीं होता वह व्युत्पत्तिबाला असमासपद, एक पद भी नहीं होता, जैसे- स्वरविषाण' पद, अथवा 'डिस्थ' पद, जीव पद ऐसा नहीं है, अतः वह सार्थक है।
___ जो व्युत्पत्ति वाला नहीं होता वह एक पद होते हुए भी सार्थक नहीं होता, जैसे 'डित्थ' आदि पद । इस हेतु में अनेकान्तिकता निवारण करने के लिए व्युत्पत्ति છીએ, એટલા માટે કઈ દોષ આવતો નથી, સંસારી આત્મા આઠ કર્મોના સમૂહથી યુક્ત હોવાના કારણે તથા સશરીર હોવાના કારણે મૂર્તવ આદિ ધર્મોથી યુક્ત જ છે.
(૭) અથવા “જીવ પદને વાચ્ય અવશ્ય છે, કારણ કે આ પદ વ્યુત્પત્તિવાળું હેવા છતાંય સમાસરહિત છે, એક પદ છે, ઘટ આદિ પદને સમાન. 'ઘટ” એ વ્યુત્પત્તિવાળું અસમાસ પદ એક પદ લોકમાં જોવામાં આવે છે, તે કારણથી તેનું વચ્ચે પણ અવશ્ય છે. જીવ પદ, પણ એવું જ છે, તેથી તે પણ સાર્થક છે. જે પદ સાર્થક નથી થતું તે વ્યુત્પતિવાળા અસમાસ પદ એક પદ પણ થતું નથી. सभ भविषा(अधेडाना ) ५४, अथवा उत्थ' ५६. 4-4ह से नथी. तेथी त साथ छे. • જે વ્યુત્પતિવાળું થતું નથી તે એક પદ હોવા છતાંય પણ સાર્થક નથી થતું, रेम हत्थ' मा ५६.
आहेतुमा मनेkिisan निवाए! ४२१॥ • भाट, व्युत्पत्तिका' विशेष प्र' आ-२९
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२२४
आनाराम न च-आदिमत्प्रतिनियताकारत्वादिभिः शरीरादीनां कादय एवं सिध्यन्ति, न तु प्रस्तुत आत्मेति वाच्यम् । अन्यस्येवरादेयुक्त्यसहत्वेन कर्तृलाद्यसंभवाद् देहादीनां फर्ता, अधिष्ठाता, आदाता, भोक्ता, सामी चायमात्मैवेति निश्चयात् । ___ ननु-घटादीनां कादिरूपाः कुलालादयो मूर्तिमन्तः संघातरूपा अनित्यादिस्वभावाच दृष्टाः, इत्यतो जीवोऽध्येतादृश एव सिध्यति, एतद्विपरीतथास्माकं साधनीयः, इत्येवं साध्यविरूद्धसाधकतया हेतुना विरुद्धलापतिरिति चेन्मेवम् , संसा- । रिणमात्मानं साधयितुं मत्तानामस्माकमेतदोपासंभवात् । संसारी चात्माऽष्टविधकर्म
पूर्वोक्त-आदिमान होते हुए नियत आकार वाले होने से ' इत्यादि हेतुओं से शरीर आदि के कर्ता आदि ही सिद्ध होते हैं, प्रस्तुत आमा सिद्ध नहीं होता, ऐसा नहीं कहना चाहिये क्यो कि आत्मा से भिन्न ईश्वर आदिका कर्तापन युक्तिसङ्गत नहीं ठहरता, अतः देह आदिका कर्ता, अधिष्ठाता, आदाता, भोक्ता और स्वामी आत्मा ही है, ऐसा निश्चय हो जाता है।
शडा-घट आदि के कर्ता कुंमार वगैरह मूर्तिक, संघातरूप. और अनित्यआदि स्वभाष वाले देखे जाते हैं, अतः जीव भी ऐसा ही सिद्ध होता है, मगर आपको. इस से विपरीत धर्मोवाला आमा सिद्ध करने के कारण पूर्वोक्त हेतुओं में विरुद्ध दोष आता है। ___ समाधान-ऐसा मत कहो। हम संसारी आरमा सिद्ध करने के लिए उथत
પૂત-આદિમાન હોવા છતાંય નિયત આકારવાળા હોવાથી ઈત્યાદિ હેતુઓથી શરીર આદિના કર્તા આદિ જ સિદ્ધ હેય છે. પ્રસ્તુત આત્મા સિદ્ધ થતું નથી. * એમ નહિ કહેવું જોઈએ, કેમ કે આત્માથી ભિન ઈશ્વર આદિનું કર્તાપણું યુકિત સંગત થતું નથી, તેથી દેહ આદિને કતા, અધિષ્ઠાતા, આદાતા, ભોકતા અને સ્વામી આત્મા જ છે, એમ નિશ્ચય થઈ જાય છે.
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શકા-ઘટ આદિના કર્તા કુંભાર વગેરે મૂર્તિક, સંઘાતરૂપ અને અનિત્ય આદિ સ્વભાવવાળા જેવામાં આવે છે, તેથી જીવ પણ એ જ સિદ્ધ થાય છે પરંતુ તમને તેનાથી વિપરીત ધર્મોવાળે આત્મા સિદ્ધ કરે છે, એવી સ્થિતિમાં સાધ્યથી વિરૂદ્ધ સિદ્ધ કરવાના કારણે પૂર્વોકત હેતુઓમાં વિરૂદ્ધતા દેષ આવે છે.
સમાધાન–એ પ્રમાણે ન કહે, અમે સંસારી આત્મસિદ્ધ કરવા માટે તૈયાર થયા
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૨૭.
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ म.५ आत्मसिद्धि भिन्नता प्रतीयते । प्रकृतेऽपि माणी, भूतः, जीवः, संत्वः, इत्यादयो जीवशब्दस्य पर्यायाः, शरीरं वपुः, कायो, देहः, गात्रमित्यादयस्तु शरीरशब्दपर्याया 'अयं जीवस्तस्मान्न हन्तव्यः' इत्यनेनापि देहस्थितस्य प्राणिन एव हिंसा निषिध्यते ।
. आप्तागमस्तु समस्त एवात्मानं बोधयति, आत्मतत्त्वस्यैव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रार्थ तस्य प्रवृत्तत्वात् । तथापि कानिचिदागमवचनानि प्रमाणतया प्रदर्शयामः
'से आयावादी' इति प्रस्तुतमेव वचनं तावद् गृहाण । ‘से जं पुण शब्द अलग हैं, इस लिए घटका अर्थ और आकाश का अर्थ अलग-अलग है। इसी प्रकार जीव के पर्यायवाचक प्राणी, भूत, जीव, सत्व आदि शब्द अलग हैं और देह के पर्यायवाचक शरीर, वपु, काय, गात्र आदि भिन्न हैं, अतः इन दोनों का अर्थ भी अलग होना चाहिए । 'यह जीव है अतः हनन करने योग्य नहीं है। इस वाक्य द्वारा देह में स्थित प्राणी की ही हिंसा का निपेध किया जाता है ।
__ आगम से आत्मा की सिद्धिआप्त पुरुष द्वारा प्रणीत सम्पूर्ण आगम आत्मा का बोधक है। आत्मतत्त्व के सम्यग् दर्शन, ज्ञान, और चारित्र के लिए हो आगम की प्रवृत्ति होती है फिर भी आगम के कतिपय वाक्य प्रमाणरूप में प्रदर्शित करते है:
सब से पहले-से आयावादी', इस प्रस्तुत वाक्य को ही लीजिए પ્રમાણે જીવન પર્યાયવાચક–પ્રાણી, ભૂત, જીવ સત્વ આદિ શબ્દ અલગ છે. અને દેહના પર્યાયવાચક-શરીર, વ, કાય, ગાત્ર આદિ ભિન્ન છે. તે માટે એ બંનેને અર્થ ૫ણ અલગ થવું જોઈએ. “ આ જીવ છે તેથી હનન કરવા ગ્ય નથી” આ વાકય દ્વારા દેહમાં રહેલા પ્રાણીની જ હિંસાને નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે.
આગામથી આત્માની સિધિ–
આત પુરુષ દ્વારા પ્રણીત સંપૂર્ણ આગમ આત્માનું બેધક છે. આત્મતત્વના સમ્યગદર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્ર માટે જ આગમની પ્રવૃત્તિ હોય છે. તે પણ આગમના કેટલાક વાક્ય પ્રમાણુરૂપમાં પ્રદર્શિત કરે છે –
सौथी प्रथम से आयावादी' मा प्रस्ततयार पायनेर सशसे जं प्रण
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आचारानपत्रे
यच्चैकपदं नास्ति किन्तु सामासिकम्, तदपि व्युत्पत्तिमच्चे सत्यपि सार्थकं नास्ति, यथा खरविषाणादिकमिति । तत्रानैकान्तिकत्त्वापत्तिदोपस्तत्परिहारार्थमेकपदत्यमिति ।
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ननु देह एव जीवपदस्यार्थोऽस्तु कथं पुनरात्मा विज्ञायेत । वेदरूपेऽर्थे जीवशन्दमयोगोऽपि दृष्टः, यथा-' भयं जीवः तस्मान्न हन्तव्यः' इति । अतो देह एवं जीवशब्दार्थतया ग्रहीतव्यः इति चेन्न पर्यायशब्दभेदाद देवजीवशब्दयोरर्थो भिन्न एवेति बोधनात् यथा aarataयोः, तत्र-पट कुम्म कलशादयो
,
?
शब्दस्य पर्यायाः, आकाशनभोव्योमादयस्त्याकाशशब्द पर्यायाः, अतस्तयोरर्थे । चाला ' विशेषण लगाया है। तथा जो एक पद नहीं है किन्तु समासयुक्त पद है वह व्युत्पत्तिवाला होते हुए भी सार्थक नहीं होता । जैसे खरविषाण आदि पद । इस में नैकान्तिकता हटाने के लिए 'एकपद' का प्रयोग किया गया है ।
ן'
शङ्का - जीव पदका अर्थ देह ही क्यों न मान लिया जाय ? मात्मा अर्य कैसे समझा जाय ? देह के अर्थ में जीव शब्दका प्रयोग देखा भी जाता है, जैसे ' यह जीव है, अतः इनन करने योग्य नहीं है । इस लिए ala शब्द का अर्थ शरीर ही लेना चाहिए ।
समाधान- देहके और जीव के पर्यायवाची शब्द अलग अलग हैं, भतः दोनों का अर्थ अलग-अलग ही मानना चाहिए। जैसे घटके पर्यायवाची कुम्भ, कलश आदि शब्द अलग हैं, और आकाश के पर्यायवाची शब्द नभ, व्योम, गगन आदि આપ્યું છે. તથા જે એક પદ નથી. પરંતુ સમાસયુક્ત પદ છે તે વ્યુત્પત્તિવાળું હાવા છતાંય સાર્થક થતુ નથી. જેમ ખવાણુ આદિ પદ્ય, તેમાં અનેકાન્તિકતા હુઠાવવા માટે એક પરના પ્રયાગ કરલે છે.
શકા જીવ' પદના અથ દેહ શા માટે માનવામાં નથી આવતે ? આત્મા અથ કેમ સમજાય છે ? દેહના અર્થમાં જીવ શબ્દના પ્રસેગ જોવામાં પણ આવે છે. જેમ આ જીવ છે, તેથી જીવા ચાગ્ય નથી એટલા માટે જીવ શબ્દને અથ શરીર જ લેવા જોઈ એ.
સમાધાન દેહ અને જીવના પર્યાયવાચી શબ્દ જૂદા જૂદા છે તેથી ખે અંતેના બાધ જૂદા જૂદા માનવા જોઈએ. જેમ ઘટના પર્યાયવાચી કુલ, કલશ આદિ શબ્દ અલગ છે, અને આકાશના પર્યાયવાચી શબ્દનલ, ત્ર્યામ, ગગન આર્ટ શબ્દ અલગ છે. એ કારણથી ઘટના અર્થ અને આકાશને અથ અલગ છે. એ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ आत्मसिद्धिः चेतना चात्मद्रव्यादात्मगतान्यमुखादिगुणतश्चानपायिनो । तामेवाश्रित्य ज्ञानदर्शनादिविविधोपयोगानां भिन्नभिन्नसमयवर्तिनां त्रैकालिका प्रवाहो भवति । तस्याश्वेतनायाः कार्यरूपः पर्यायप्रवाहः स्वरूपेणोपयोग एव । - उपयोगात्मकपर्यायप्रवाह इव सुखदुःखवेदनात्मकपर्यायमवाहस्तथा प्रवृत्त्यात्मकपर्यायप्रवाहादयोऽनन्तपर्यायप्रवाहाः सह-युगपत् प्रवर्तन्ते । अतश्चेतनागुण इवात्मनि आनन्दवीर्यप्रभृत्येकैकगुणस्वीकरणीयतयाऽनन्तगुणाः सिध्यन्ति ।
आत्मनि चेतनाऽऽनन्दवीर्यादिगुणानां भिन्नभिन्ना विविधपर्याया एफस्मिन् समये समुपलभ्यन्ते परन्त्धेकस्य चेतनागुणस्य विविधाउपयोगपर्याया के द्वारा आत्मा नाना प्रकार के उपयोगों के रूप में परिणत होता है किन्तु चेतना, आत्मद्रव्य के रूप में, तथा आत्मा में रहने वाले मुख आदि गुणों के रूप में सदा विद्यमान रहती है-कभी नष्ट नहीं होती, उस के आधार पर ज्ञान दर्शन आदि भिन्न भिन्न समयों में होने वाले अनेक उपयोगों का प्रवाह वहता है। उस चेतना का कार्यरूप पर्याय-प्रवाह स्वरूपसे उपयोग ही है ।
उपयोगात्मक पर्याय-प्रवाह के समान सुख-दुःखसंवेदनरूप पर्याय का प्रवाह है तथा प्रवृत्यात्मक पर्यायप्रवाह आदि अनन्त पर्याय-प्रवाह एक साथ जारी रहते हैं; अतः चेतनागुण के समान आत्मा में आनन्द, वीर्य आदि एक एक गुण स्वीकार करने योग्य होने से अनन्त गुण सिद्ध होते हैं।
आत्मा में चेतना सुख वीर्य आदि गुणों की भिन्नर विविध पर्यायें एक ही समय में उपलब्ध होती हैं, किन्तु एक ही समय में अकेले चेतनागुण की विविध તથા આત્મામાં રહેવાવાળા સુખ આદિ ગુણોના રૂપમાં હમેશાં વિદ્યમાન રહે છે. કઈ વખત પણ નાશ પામતી નથી. તેના આધાર પર જ્ઞાન, દર્શન આદિ ભિન ભિન્ન સમયમાં થવાવાળા અનેક ઉપગેને પ્રવાહ વહેતે રહે છે. તે ચેતનાના કાર્ય પર્યાય પ્રવાહ સ્વરૂપથી ઉપયોગ જ છે.
ઉપગાત્મક પર્યાયમવાહના સમાન સુખદુઃખસંવેદનરૂપ પર્યાયને પ્રવાહ છે. તથા પ્રવૃાાત્મક પર્યાય-પ્રવાહ આદિ અનંત પર્યાયપ્રવાહ એક સાથે જારી રહે છે. તેથી ચેતનાગુણ સમાન આત્મામાં આનંદ વીર્ય આદિ. એક–એક ગુણ સ્વીકાર કરવા ચગ્ય હેવાથી અનંત ગુણ સિદ્ધ થાય છે. • આત્મામાં ચેતના, સુખ, વીર્ય, આદિ ગુણેની ભિન્ન-ભિન્ન વિવિધ પર્યા એકજ સમયમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, પરંતુ એક જ સમયમાં એકલા ચેતનાગુણની
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. . . . . . . आचारामात्र जाणेज्जा' इत्यादि-सोऽहं ' इत्यन्तं प्रागल्याख्यातं च (आचा० १ अ०१ उ०)। 'अत्यि आया' (आत्यात्मा) इति । 'अत्यि जीवा' (सन्ति जीवाः) इति । 'एगे आया' (एक आत्मा) (स्था० १ स्था० १३०) इति ।
"कइविहाणं भंते ! दव्या पण्णता ? गोयमा! दुविहा पण्णता, तंबाजीवदव्या य, अजीवदव्या य" (अनु. सू. १४१) .
इत्यादीन्यनुसन्धेयानि। अन्येऽपि सांख्यादयः प्रायशः स्वीकुर्वन्त्येव शरीराद्भिन्नतयाऽऽत्मनोऽस्तित्वमिति । '
आत्मनो द्रव्यत्वनिरूपणम्--- अयमात्मा द्रव्यमस्ति, चेतनाद्यनन्तगुणवत्त्वात् , ज्ञानदर्शनलक्षणविविधोपयोगायनन्तपर्यायवत्वाच्च । चेतनाद्वारेणात्मा नानारूपोपयोगरूपेण परिणमते । 'से जं पुण जाणेज्जा' से लेकर 'सोऽहं तक पहले व्याख्यान किया जा चुका है। (आचा. १ अ. १ उ.) तथा 'अत्थि आया' 'अत्यि जीवा' 'एगे आया' (स्था. १ स्था. १ उ.) तथा 'काविहा गं भंते दवा :पण्णत्ता १ गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-जीवदन्या य अजीवदव्या य, (अनु. म. १४१) इत्यादि अनेक आगमवाक्य समझ लेने चाहिए । दूसरे सांख्य वगैरह भी प्रायः शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं।
आत्माका द्रव्यत्वनिरूपण- आत्मा द्रव्य है, क्यों कि वह चेतना आदि अनन्त गुणों से युक्त है और वह ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग आदि अनन्त पर्यायो वाला भी है। चेतना जाणज्जा' थी सन 'सोऽह' सुधा पडा व्याज्यान शीधु छ (माया. १-4. १-6) या 'अस्थि आया' 'अस्थि जीवा' 'एगे आया' (स्था.१ स्था.१ 6.) 'कइविहा गं भवे ! व्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-जीवदव्वा य अजीवदवा य' (અનુ. સૂ. ૧૪૧) ઈત્યાદિ અનેક આગમવાકય સમજી લેવાં જોઇએ. બીજા સાંખ્ય શાસ્ત્ર વગેરે પણ પ્રાયઃ શરીરથી ભિન્ન આત્માના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરે છે.
આત્માનું દ્રવ્યત્વનિરૂપણ... આત્મા દ્રવ્ય છે, કેમકે તે ચેતના આદિ અનન્ત ગુણોથી યુક્ત છે, અને તે નાનપગ તથા દર્શને પગ આદિ અનંન્ત પર્યાયે વાળ પણ છે. ચેતના દ્વારા આત્માં નાના પ્રકારના રૂપમાં પરિણુત થાય છે. પરંતુ ચેતના આત્મદ્રવ્યના રૂપમાં
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मु.५ आत्मसिद्धिः
२२९ चेतना चात्मद्रव्यादात्मगतान्यमुखादिगुणतश्चानपायिनो । तामेवाश्रित्य ज्ञानदर्शनादिविविधोपयोगानां भिन्नभिन्नसमयवर्तिनां त्रैकालिका प्रवाहो भवति । तस्याश्वेतनायाः कार्यरूपः पर्यायप्रवाहः स्वरूपेणोपयोग एव। . ____ उपयोगात्मकपर्यायमवाह इव सुखदुःखवेदनात्मकपर्यायप्रवाहस्तथा प्रवृत्त्यास्मकपर्यायप्रवाहादयोऽनन्तपर्यायप्रवाहाः सह-युगपत् प्रवर्तन्ते । अंतश्वेतनागुण इवात्मनि आनन्दवीर्यप्रभृत्येकैकगुणस्वीकरणीयतयाऽनन्तगुणाः सिध्यन्ति ।
___ आत्मनि चेतनाऽऽनन्दवीर्यादिगुणानां भिन्नभिन्ना विविधपर्याया एकस्मिन् समये समुपलभ्यन्ते परन्त्वेकस्य चेतनागुणस्य विविधाउपयोगपर्याया के द्वारा आत्मा नाना प्रकार के उपयोगों के रूप में परिणत होता है किन्तु चेतना, आत्मद्रव्य के रूप में, तथा आत्मा में रहने वाले सुख आदि गुणों के रूप में सदा विद्यमान रहती है-कभी नष्ट नहीं होती, उस के आधार पर ज्ञान दर्शन आदि भिन्न भिन्न समयों में होने वाले अनेक उपयोगों का प्रवाह वहता है। उस चेतना का कार्यरूप पर्याय-प्रवाह स्वरूपसे उपयोग ही है।
उपयोगात्मक पर्याय-प्रवाह के समान सुख-दुःखसंवेदनरूप पर्याय का प्रवाह है; तथा प्रवृत्यात्मक पर्यायप्रवाह आदि अनन्त पर्याय-प्रवाह एक साथ जारी रहते हैं; अतः चेतनागुण के समान आत्मा में आनन्द, वीर्य आदि एक एक गुण स्वीकार करने योग्य होने से अनन्त गुण सिद्ध होते हैं।
___आत्मा में चेतना सुख वीर्य आदि गुणों की भिन्नर विविध पर्यायें एक ही समय में उपलब्ध होती हैं, किन्तु एक ही समय में अकेले चेतनागुण की विविध તથા આત્મામાં રહેવાવાળા સુખ આદિ ગુણોના રૂપમાં હમેશાં વિદ્યમાન રહે છે. કઈ વખત પણ નાશ પામતી નથી. તેના આધાર પર જ્ઞાન, દર્શન આદિ ભિન ભિન્ન સમયમાં થવાવાળા અનેક ઉપયોગોને પ્રવાહ વહેતે રહે છે. તે ચેતનાના કાર્યરૂપ પર્યાયપ્રવાહ સ્વરૂપથી ઉપગ જ છે. * ઉપયોગાત્મક પર્યાય પ્રવાહના સમાન સુખ-દુઃખસંવેદનરૂપ પર્યાયને પ્રવાહ છે. તથા પ્રવૃાાત્મક પર્યા-પ્રવાહ આદિ અનંત પર્યાયપ્રવાહ એક સાથે જારી રહે છે. તેથી ચેતનાગુણ સમાન આત્મામાં આનંદ વીર્ય આદિ. એક–એક ગુણ સ્વીકાર કરવા યોગ્ય હોવાથી અનંત ગુણ સિદ્ધ થાય છે. . मात्मामा येतना, सुम, वाय, या गुणानी मिन्न-भिन्न विविध पर्याय। એક જ સમયમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, પરંતુ એક જ સમયમાં એકલા ચેતનાગુણની
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अचारापत्रे
एकस्मिन् समये न समुपलभ्यन्ते तथैकस्यानन्दगुणस्य वा विविधा मेदनपर्याबा एकस्मिन् समये नोपलभ्यन्ते ।
प्रत्येकगुणस्यैकस्मिन् समये एक एव पर्यायः प्रकटीभवति । यथाजलावस्थितस्यापि नरस्य शीतोष्णोपयोगौ न युगपद् भवतः । उष्णोपयोगसमये शीतोपयोगो नोपलभ्यते, शीतोपयोगसमये चोष्णोपयोगोपि नैवेति ।
आत्मा नित्यः । तस्य चेतनादिगुणा अपि नित्याः । परन्तु चेतनाजन्य उपयोगपर्यायो न नित्यः सतु सदैवोत्पादविनाशशालितया व्यक्तिरूपेणानित्यः । उपयोगपर्यायमवाहस्तु त्रैकालिकतया नित्य इति ।
"
उपयोगरूप पर्यायें उपलब्ध नहीं होती । उसी प्रकार एक ही समयमें अकेले आनन्दगुणकी भी विविध वेदनरूप पर्यायें उपलब्ध नहीं होती ।
प्रत्येक गुण की एक समय में एक ही प्रर्याय प्रकट होती है, परन्तु जैसे- जल में स्थित पुरुष के शीत और उष्ण, दोनों उपयोग एक साथ नहीं हो ते । उष्णोपयोग के समय शीतोपयोग नहीं पाया जाता, और शीतोपयोग के समय उष्णापयोग नही पाया जाता ।
आत्मा नित्य है, उसके चेतना जन्य उपयोग-पर्याय नित्य नहीं है, व्यक्तिरूपसे अनित्य है, कारण नित्य है ।
अतः
आदि गुण भी नित्य हैं, परन्तु चेतना - वह सदैव उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है, उपयोग - पर्याय का प्रवाह त्रिकालवर्ती होने के
વિવિધ ઉપયેાગરૂપ પર્યાયેા ઉપલબ્ધ એજ પ્રમાણે એક જ સમયમાં એકલા આનદ ગુણની પણ વિવિધ વૈદન ૫ પર્યાયે. ઉપલબ્ધ થતી નથી.
થતી નથી.
પ્રત્યેક ગુણની એક સમયમાં એકજ પર્યાય પ્રગટ થાય છે, જેમ જલમાં ઉભા રહેલા પુરૂષને શીત અને ઉષ્ણુ, એ અને ઉપયાગ એક સાથે થશે નહિ, ઉષ્ણેાપયેાગના સમયે શીતેાપયેગ થશે નહિ અને શીતાયેાગના સમયે ઉષ્ણેાપયેગ भाशे नहीं.
આત્મા નિત્ય છે, તેના ચેતના આદિ ગુણુ પણ નિત્ય છે, પરંતુ ચેતનાજન્ય ઉપયેગ-પર્યાય નિત્ય નથી, તે હંમેશાં ઉત્પન્ન અને નાશ થતી રહે છે, તેથી વ્યક્તિરૂપથી અનિત્ય છે, તે પણુ ઉપયાગ—પર્યાયના પ્રવાહ ત્રિકાલવતી હોવાથી नित्यं छे.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १. उ१. सू. ५. आत्मसिद्धिः
२३१ अनन्नगुणानामखण्डसमुदाय एवं द्रव्यम्, तथाप्यात्मनचेतनाऽऽनन्द - चारित्रवीर्यादयो गुणाः परिमिता एव साधारणधियां छद्मस्थानां ज्ञेया भवन्ति, न तु सर्वे गुणाः । इदमत्र कारणम् - विशिष्टज्ञानमन्तरेणात्मनः सर्वे पर्यायप्रवाहा विज्ञातुमशक्याः भवन्ति । यो यः पर्यायमवाहः साधारणबुद्धया ज्ञातुं शक्यते तत्कारणीभूतानां गुणानां व्यवहारः क्रियते, अतस्ते गुणा व्यवहार्या भवन्ति । यथा- आत्मनचेतनाऽऽनन्दचारित्रवीर्यादयो गुणा व्यवहार्याः सन्ति । शेषास्तु सर्वे के लिगम्या इति ।
कालिकानामनन्तपर्यायाणामेकैकमवाहस्य
कारणीभूतस्यैकगुणोऽस्ति, तादृशानन्तगुणानां समुदायो द्रव्यम् । एतदपि कथञ्चिद् भेदविवक्षया । अभेद
अनन्त गुणों का अखण्ड समुदाय ही द्रव्य है फिर भी आत्मा के चेतना सुख, चारित्र, चीर्य आदि गुण साधारणबुद्धि वाले छनस्थों के द्वारा परिमित ही जाने जाते हैं, सब गुण नहीं जाने जाते । इस का कारण यह है कि विशिष्ट ज्ञान के विना आत्मा के समस्त पर्याय - प्रवाहों को जानना अशक्य है । जो जो प्रर्याय - प्रवाह साधारण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है, उसके कारणभूत गुणों का व्यवहार किया जाता है, अत एव वे गुण व्यवहार्य होते हैं, जैसे- आत्मा के चेतना, सुख, चारित्र, और वीर्य आदि गुण व्यवहार्य होते हैं । शेष सब केवलिगम्य हैं ।
तीन काल सम्बन्धी अनन्त पर्यायों के एक-एक प्रवाह का कारण एक-एक गुण है, और ऐसे अनन्त गुणों का समुदाय द्रव्य है । यह कथन क्वचित् भेद
અનન્ત ગુણાના અખંડ સમુદૃાય જ દ્રવ્ય છે, તેા પણ આત્માના ચેતના, સુખ ચારિત્ર, વીય આદિ ગુણુ સાધારણ બુદ્ધિવાળા છદ્મસ્થાદ્વારા પરિમિત—મર્યાદિત જ જાણવામાં આવે છે, પરંતુ સર્વ ગુણુ જાણવામાં આવતા નથી. તેનું કારણ એ છે કે-વિશિષ્ટ જ્ઞાન વિના આત્માના સમસ્ત પર્યાય—પ્રવાહાને જાણવા અશક્ય છે. જે જે પર્યાય–પ્રવાહ સાધારણ બુદ્ધિવાળા દ્વારા જાણી શકાય છે, તેના કારણુભૂત ગુણાના વ્યવહાર કરવામાં આવે છે, એ કારણથી તે ગુણુ વ્યવહાય થાય છે, જેમ આત્માને ચેતના, સુખ, ચારિત્ર અને વીય આદિ ગુણુ વ્યવહાય થાય છે, બાકી સર્વ કેવલિગમ્ય છે.
ત્રણ કાલ સંબધી અનન્ત પર્યાયાના એક એક ગુણ છે. અને એવા અનત ગુણાને સમુદાય તે દ્રવ્ય
પ્રવાહનું . કારણ એક-એક છે. આ કથન કચિત્
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२३२
आचारानडे दृष्टया तु पर्यायाः सस्वकारणीभूतस्य गुणस्य स्वरूपाः, गुणा अपि द्रव्यस्वरूपा इति गुणपर्यायात्मकमेव द्रव्यमित्युच्यते ।
द्रव्येषु सर्वे गुणा एकरूपा न सन्ति । तत्र कतिवन साधारणाः अनेकद्रव्यवर्तिनः सर्वद्रव्यवर्तिनश्च । यथा-अस्तित्व-प्रदेशयत्व-ज्ञेयत्वादयः सर्वव्यवर्तिनः। निष्क्रियत्वाऽचेतनत्याऽरूपित्यादयोऽनेकद्रव्यवर्तिनः। कतिचिदसापारणा गुणा एकद्रव्यमात्रयर्तिनः सन्ति । यथा-आत्मनश्चेतनाऽऽनन्दचारित्रवीर्यादयः। स्वस्थाऽसाधारणगुणानां तज्जन्यपर्यायाणां चापेक्षया मत्येकद्रव्यमन्यद्रव्याद् मिन्नमस्तीति योध्यम् । विविक्षा से ही है । अभेद-विवक्षा से तो पर्यायें अपने कारणमत गुण से अभिन्न हैं और गुण, द्रव्य से अभिन्न हैं, अतः गुणपर्यायरूप ही द्रव्य कहलाता है।
द्रव्य में सभी गुण एकरूप नही हैं। कोई-कोई गुण साधारण हैं, अर्थात् सामान्य रूप से अनेक द्रव्यों में पाये जाते है, या समस्त द्रव्यों में पाये जाते हैं। जैसे-अस्तित्य, वस्तुत्य, प्रदेशवत्व, और ज्ञेयत्व, ये गुण समस्त द्रव्यों में पाये जाते हैं।
निष्क्रियत्व, अचेतनत्व, और अरूपित्व आदि गुण अनेक द्रव्यवर्ती हैं। कोई-कोई गुण असाधारण हैं सिर्फ एक द्रव्य में रहते हैं, जैसे-आत्मा के चैतन्य, सुख, चारित्र, चोर्य आदि गुण । अपने-अपने असाधारण गुणों और गुणों से उत्पन्न पयायों की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य दूसरे द्रव्य से भिन्न है, ऐसा जानना चाहिए। '
ભેદવિવક્ષાથી જ છે. અભેદવિવફાથી તે પથો પિતાના કારણભૂત ગુણથી અભિન્ન છે, અને ગુણ દ્રવ્યથી અભિન છે તેથી ગુણપયયરૂપજ દ્રવ્ય કહેવાય છે. .
દ્રવ્યમાં સર્વ ગુણ એકરૂપ નથી, કઈ કઈ ગુણ સાઘારણ છે, અર્થાત–સામાન્ય રૂપથી અનેક દ્રામાં જોવામાં આવે છે. અથવા સમસ્ત દ્રવ્યોમાં જોવામાં આવે છે. જેમ-અસ્તિત્વ, વસ્તુ, પ્રદેશવત્વ અને યત્વ, એ ગુણ સમસ્ત દ્રવ્યોમાં જોવામાં આવે છે. નિષ્કિયત્વ, અચેતનવં, અને અરૂપિ– આદિ ગુણ અનેક દ્રવ્યવર્તી છે. કઈ કે ગુણ અસાધારણ છે-માત્ર એક દ્રવ્યમાં રહે છે. જેવી રીતે આત્માના ચિતન્ય, સખ, ચારિત્ર, વિય આદિ ગુણ. પિત–પિતાનાં સાધારણ ગુણે અને ગુણેથી ઉત્પન્ન પર્યાયની અપેક્ષા પ્રત્યેક દ્રવ્ય બીજ દ્રવ્યથી ભિન્ન છે, એમ સમજવું જોઈએ. .
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ८.५ आत्मवादिन
आत्मनः स्वरूपम्आत्मनः स्वरूपं तावदुच्यते
आत्मा-(१)-जीवः (२)-नित्यः (३)-चेतनावान् , (४)-उपयोगवान् , (५)-परिणामी, (६)-प्रभुः, (७)-कर्ता, (८)-साक्षाभोक्ता, (९)-स्वशरीरपरिमाणः, (१०)-अमूर्तः, (११)-प्रतिशरीरं भिन्नः, (१२)-पौद्गलिककर्मसंयुक्तः, (१३)-ऊर्ध्वगतिशीलच । तत्राऽऽत्मनो जीवत्वादिस्वरूपं निरूप्यते
- (१) जीवत्वनिरूपणम्--- अयमात्मा निश्वनयेन सत्ता-चैतन्य-ज्ञानादिरूपैः शुद्धमाणैः, · तथा
आत्मा का स्वरूपभब आत्मा का स्वरूप कहते हैं:----
आत्मा-(१)-जीव है, (२)-नित्य है, (३)-चेतनावान् है, (४)-उपयोगवान् है, (५)-परिणामी है, (६)-प्रभु है, (७)-कर्ता है, (८)-साक्षात् भोक्ता है, (8)-अपने शरीर के बराबर है, (१०)-अमूर्त है, (११)-प्रत्येक शरीर से भिन्न है, (१२)-पौगलिक कर्मों से युक्त है, और (१३) ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला है।
उन में भव आत्मा के जीवत्वादि स्वरूप का निरूपण करते हैं- .
(१) जीवत्व का निरूपणआत्मा निश्चयनय से सत्ता चतन्य और ज्ञान आदिरूप शुद्ध प्राणों से, तथा
मात्मा स्व०५~ હવે આત્માનું સ્વરૂપ કહે છે
मात्मा-(१) ७५ छ, (२) नित्य छ, (3) वेतनावत, (४) उपयोगपत छ, (५) परिणामी छ, (6) प्रभु छ, (७) sil छ, (८) साक्षात् लो छ, (4) પિતાના શરીર બરાબર છે, (૧૦) અમૂર્ત છે, (૧૧) પ્રત્યેક શરીરમાં ભિન્ન ભિન્ન છે. (૧૨) પગલિક કર્મોથી યુક્ત છે, અને (૧૩) ઉર્ધ્વગમન સ્વભાવવાળે છે. • તેમાં આત્માના જીવવાદિ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–
(१) सत्य निरूप- ... . ... આત્મા નિશ્ચયનયથી સત્તા, ચિંતન્ય અને જ્ઞાન આદિપ શુદ્ધ પ્રાણથી, તથા
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आचारामने
दृष्टया तु पर्यायाः स्वस्वकारणीभूतस्य गुणस्य स्वरूपाः, गुणा अपि द्रव्यस्वरूपा इति गुणपर्यायात्मकमेव द्रव्यमित्युच्यते। .
द्रव्येषु सर्व गुणा एकरूपा न सन्ति । तत्र कतिचन साधारणाः अनेकद्रव्यवर्तिनः सर्वव्यवर्तिनश्च । यथा-अस्तित्व-प्रदेशवत्व-जेयत्यादयः सर्वेदव्यवर्तिनः निष्क्रियत्वाऽचेतनत्वाऽरूपित्वादयोऽनेकद्रव्यरर्तिनः। फतिचिदसाधारणा गुणा एकद्रव्यमावर्तिनः सन्ति । यथा-आत्मनश्चेतनाऽऽनन्दचारित्रवीर्यादयः । स्वस्याऽसाधारणगुणानां तज्जन्यपर्यायाणां चापेक्षया प्रत्येकद्रव्यमन्यद्रव्याद् मिन्नमस्तीति बोध्यम् । विविक्षा से ही है । अभेद-विवक्षा से तो पर्यायें अपने कारणभूत गुण से अभिन्न है और गुण, द्रव्य से अभिन्न हैं, अतः गुणपर्यायरूप ही द्रय कहलाता है।
द्रव्य में सभी गुण एकरूप नही हैं। कोई-कोई गुण साधारण हैं, अर्थात् सामान्य रूप से अनेक दन्यों में पाये जाते है, या समस्त द्रव्यों में पाये जाते है। जैसे-अस्तित्व, वस्तुत्य, प्रदेशवत्व, और शेयत्व, ये गुण समस्त द्रव्यों में पाये जाते हैं।
निष्क्रियत्य, अचेतनत्व, और अरूपिरव आदि गुण अनेक द्रव्यवर्ती हैं। कोई-कोई गुण असाधारण हैं--सिर्फ एक द्रव्य में रहते हैं, जैसे-आत्मा के चैतन्य, सुख, चारित्र, कार्य आदि गुण । अपने-अपने असाधारण गुणों और गुणों से उत्पन्न पयायों की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य दूसरे द्रव्य से भिन्न है, ऐसा जानना चाहिए ।
ભેદવિવક્ષાથી જ છે. અભેદવિવેક્ષાથી તો પથી પિતાના કારણુભૂત ગુણથી અભિન્ન છે, અને ગુણ દ્રવ્યથી અભિન્ન છે તેથી ગુણપર્યાયરૂપજ દ્રવ્ય કહેવાય છે.
' દ્રવ્યમાં સર્વ ગુણ એકરૂપ નથી, કઈ કઈ ગુણ સાઘારણ છે, અર્થાત-સામાન્ય રૂપથી અનેક દ્રવ્યમાં જોવામાં આવે છે. અથવા સમસ્ત દ્રવ્યમાં જોવામાં આવે છે. જેમ-અસ્તિત્વ, વરતુત્વ, પ્રદેશવત્વ અને યત્વ, એ ગુણ સમસ્ત દ્રવ્યોમાં સેવામાં આવે છે. નિષ્કિયત્વ, અચેતનત્વ, અને અરૂપિત્ર આદિ ગુણ અનેક દ્રવ્યવતી છે. કઈ કઈ ગુણ અસાધારણ છે--માત્ર એક દ્રવ્યમાં રહે છે. જેવી રીતે આત્માના ચિતન્ય, સખ. ચારિત્ર, વીર્ય આદિ ગુણ. પત–પિતાના સાધારણ ગુણે અને ગુણોથી ઉત્પન્ન प्रयायोनी अपेक्षा प्रत्ये४ २०य भी यथी लिन्न छ, म समा. मे. .
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मु.५ आत्मवादिप्र० २३५ दहन-पवन-गगनरूपपञ्चभूतेषु चुल्ह्युपरि मिलितेषु चेतनालक्षण आत्मा कथं नोपलभ्यते ।
यद्वा-मृतशरीरे पञ्चभूतसद्भावेऽपि चेतनालक्षण आत्मा नोपलभ्यते । अतोऽयमात्मा जहरूपपाश्चभौतिकदेहाद् भिन्नो निश्चीयते । ____ अपरश्च-आत्मनो देहरूपत्वस्वीकारे कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्चापद्येत । कृतस्य कर्मणः फलप्राप्तिं विनैव नाशः स्यात् , अकृतस्य कर्मणः फलप्राप्तिश्च । अकर्तुः फलमाप्तिः, कर्तुश्च नेति द्वयमयुक्तम् । तस्मात्-आत्मा देहाद् भिन्नो जन्मान्तरसंक्रान्तोऽपीति निश्चयम् । होता है तो चेतनारूप आत्मा क्यों नही पैदा हो जाता ?, वही पांचों भूतों का संयोग विद्यमान है और उसीसे आत्मा की उत्पत्ति मानते हो?
अथवा-मृत शरीर में पांचों भूतों का सद्भाव होने पर भी चेतनस्वरूप आत्मा क्यों उपलब्ध नहीं होता है, इस से निश्चित होता है कि आत्मा जडरूप पांच भूतो से भिन्न हैं और नित्य है।
और भी आत्मा को देहरूप स्वीकार करने से कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष की प्राप्ति होगी। किए हुए फर्म, फल दिए विना ही नाश हो जायगा,
और अकृत कर्म के फल को भोगना पड़ेगा। कर्म न करने वाला फल भोगे और करने वाला फल से बच जाय, यह दोनों बातें अनुचित है, अत अब यह निश्चय कर लेना चाहिए कि-आत्मा शरीर से भिन्न है और जन्मान्तर में गमन करता है । ચેતનારૂપ આત્મા કેમ પેદા થતો નથી ?, અહિં પાંચ ભૂતને સંગ વિદ્યમાન છે અને તેમાંથી તમે (નાસ્તિકે) આત્માની ઉત્પત્તિ માને છે ?
અથવા–મૃત્યુ પામેલા શરીરમાં પાંચ ભૂતેને સદભાવ હોવા છતાંય ચેતનવરૂપ આત્મા કેમ ઉપલબ્ધ થતું નથી ?, એ કારણથી નિશ્ચય થાય છે કે ––આત્મા જડ સ્વરૂપ પાંચભૂતથી ભિન્ન છે અને નિત્ય છે.
અને બીજું એ પણ છે કે આત્માને દેહરૂપ સ્વીકાર કરવાથી કૃતનાશ અને અકૃતાભ્યાગમ દષની પ્રાપ્તિ થશે, કરેલા કર્મ, ફળ આપ્યા વિના જ નાશ થઈ જશે. અને અકૃત–નહિ કરેલા કર્મનું ફળ ભોગવવું પડશે. કર્મ નહિ કરવાવાળાને કર્મનું ફળ ભેગવવું પડે, અને કર્મ કરનાર ફળ ભેગવવામાંથી બચી જાય. આ અને વાત અનુચિત છે. એ કારણે એ નિશ્ચય કરી લેવું જોઈએ કે આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે, અને જન્માન્તર ગમન કરે છે.
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आचारात्सूत्रे
व्यवहारनयतो यथासंमत्रं क्षायोपशमिकैरिन्द्रियादिद्रव्यमाणेच जीवति जीविष्यति, जीवितवांश्चेत्यतोऽयमारमा ' जीवः" इत्युच्यते ।
'अयमात्मा न देहादन्यः, नापि जन्मान्तरसंक्रान्तः " इति नास्तिकमतं निराकर्तुमुक्तम्- 'अयमात्मा जीवः' इति । पूर्वमवसंस्कारं विना कथमिह प्रमृत एव चालो मातुः स्तन्यपाने प्रवर्तते । मत्ति प्रति स्वकृतिसाध्यत्वस्येष्टसाधनताज्ञानस्य च कारणतया बालस्य तज्ज्ञानजनकपूर्वभवीयसंस्कारोऽस्तीति विज्ञायते । तस्मादात्मनः पूर्वभवसम्बन्धोऽवधार्यते । तेन च देहभिन्नत्यमपि ज्ञायते । '
अयमात्मा यदि पाञ्चभौतिकदेहरूपः स्यात्, तर्हि मृन्मयभाण्ड-सलिलव्यवहारनय से यथासंभव क्षयोपशम-जन्य इन्द्रियादि द्रव्यप्राणी से जीवित है, जीवित रहेगा और जीवित था, इस कारण आत्मा 'जीव' कहलाता है ।
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आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है और न एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है " नास्तिकों के इस मत का निराकरण करने के लिए कहा गया है कि'आत्मा जीव है " । पूर्वभव के संस्कार के बिना इस भव में तत्काल जन्मा हुआ शिशु माता के स्तन-पान में कैसे प्रवृत्त हो सकता है ?, शिशु की इस प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि उम्र में पूर्व भव का संस्कार विद्यमान है । इस से निश्चित हो जाता है कि - आत्मा पूर्व भव में भी था, और इस कारण वह शरीर से भिन्न भी मालूम होता है ।
पांच भूतों से बना हुआ शरीर हो यदि आत्मा है तो मिट्टी का पात्र, पानी, पावक~(अग्नि), पवन और आकाश रूप पांचों भूतों का चूले के ऊपर जब संयोग વ્યવહારનયથી યથાસંભવ' ક્ષયાપશમજન્ય ઇન્દ્રિયાદિ દ્રવ્યપ્રાણાથી જીવિત છે, જીવિત રહેશે અને જીવિત હતા, તેથી આત્મા જીવ' કહેવાય છે. આત્મા શરીરથી ભિન્ન નથી, અને એક જન્મથી બીજા જન્મમાં જતા નથી? નાસ્તિકાને એ પ્રમાણે જે મત છે, તેનું નિરાકરણ કરવા માટે કહ્યું છે કે “ આત્મા જીવ છે.” પૂર્વ ભવના સંસ્કાર વિના આ ભવમાં તત્કાલ જન્મ પામેલુ ખાળક માતાના સ્તનપાનમાં ( ધાવવામાં) પ્રવૃત્તિ કેવી રીતે કરી શકે છે, બાળકની આ પ્રવૃત્તિથી સિદ્ધ થાય છે કે તેનામાં પૂર્વ ભવના સંસ્કાર વિધમાન છે. આ કારણથી નિશ્ચય થાય છે કે આત્મા પૂર્વભવમાં પણ હતા, અને તે કારણથી આત્મા શરીરથી ભિન્ન માલૂમ પડે છે.
પાંચ ભૂતેથી ખનેલું શરીર જ ને આત્મા છે તે માટીનું પાત્ર, પાણી, અગ્નિ, સાથ, પુત્રન વગેરે પાંરા ભૂતાને ચુલા ઉપર જ્યારે સમૈગ થાય છે, તે તે વખતે •
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू.५ आत्मवादिम०
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यथा - जातिस्मरणशक्त्या मृगापुत्रवत् संयमी पूर्वभवं स्मरति, व्याध्यादिकारणेन नप्टदृष्टिः पूर्वानुभृतं रक्तपीतादिवर्ण, नष्टश्रवणश्च शब्दं स्मरति । यथा गेहगवाक्षैः पूर्वदृष्टस्य पूर्वश्रुतस्यान्यत्रानुस्मर्ता देवदत्तः ।
(२) नित्यत्वनिरूपणम् -
अयमात्मा नित्यत्वादपूर्व इति विज्ञायते । अमूर्तत्वाच्च देहादन्य इति निश्चीयते । तथाहि - आत्माऽनुत्पतौ सत्यामविनाशी, तथा सर्वकालावस्थायी । तथा - आत्मा क्षणापेक्षयापि न निरन्वयनाशवान् वस्तुत्वे सति उत्पत्तेरभावात्, ज्ञान से मृगापुत्र को पूर्व भव का स्मरण हुआ था । कोई-कोई संयमी अपने पूर्वभव का स्मरण करता है । रोग आदि किसी कारण से जिस की दृष्टि नष्ट हो गई है, वह पुरुष पहले अनुभव किए हुए लाल पीले आदि रंगों को स्मरण करता है, और जिसके कान नष्ट हो गये हैं वह शब्द का स्मरण करता है । किसी घर की खिड़कियों के द्वारा पहले देखे हुए पदार्थों का या सुने हुए शब्दों का देवदत्त को अन्यत्र स्मरण होता है, अत एव देवदत्त खिडकियों से भिन्न है । उसी प्रकार आत्मा, इन्द्रियों से भिन्न है ।
(२) आत्माकी नित्यता
आत्मा नित्य होने के कारण अमूर्त प्रतीत होता है और अमूर्त होने के कारण देह से भिन्न है । वह इस प्रकार - आत्मा उत्पत्तिरहित और अविनाशी है, तथा सर्वकाल में स्थायी है, तथा आत्मा क्षण की अपेक्षा भी निरन्वय ( समूल) नाशवान् नहीं है, क्यों कि वस्तु होने पर भी उस की उत्पत्ति नहीं होती; जैसे आकाश | જ્ઞાનથી મૃગાપુત્રને પૂર્વભવનું સ્મરણ થયુ હતુ. કાઇ કાઇ સચીને પેાતાના પૂર્વ ભવનુ' સ્મરણ થાય છે. રાગ આદિ કોઈ કારણથી જેની દૃષ્ટિ ( નેત્રથી જોવાની શક્તિ ) નાશ પામી ગઈ છે તે પુરૂષ પ્રથમ અનુભવેલા લાલ, પીળા આદિ રંગાનુ સ્મરણ કરે છે. અને જેના કાન નષ્ટ થઇ ગયા હોય−( સાંભળવાની શકિત નાશ પામી હોય) તે શબ્દનું સ્મરણ કરે છે, કોઇ ઘરની ખડકીએ દ્વારા પ્રથમ જોયેલા પદાર્થાનું અથવા તા સાંભળેલા શબ્દનુ દેવદત્તને અન્યત્ર-ખીજા સ્થળે સ્મરણ થાય છે. એ કારણથી દેવદત્ત ખડકીઓથી ભિન્ન છે. તે પ્રમાણે આત્મા ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન છે. (२) खात्मानी नित्यता
આત્મા નિત્ય હાવાના કારણે અમૂર્ત જણાય છે અને અમૂત્ત હેાવાના કારણે, દેહથી ભિન્ન છે. તે આ પ્રમાણે-આત્મા ઉત્પત્તિરહિત અને અવિનાશી છે, તથા सर्व सभां स्थायी छे, भने क्षगुनी अपेक्षा पशु निरन्वय ( सभूज ) नाशवान् नथी,
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आचाराग्रसत्रे
आत्मा देहे कदाचित्तिष्ठति, कदाचिन्न तिष्ठति, अतः तस्याभावस्तत्र नियतो नास्ति । तस्माद् देहादन्य इति मन्तव्यम् । एवमनुमानयोगः
,
आत्मा - देहादन्यः, तद्भावेऽपि तन तस्यानियमेनाभावात् उपाश्रयगवसाधुश्रावकवत् । ननु देहे जीवस्य गमनागमनं न दृश्यते, तथा च जीवस्य देहे बढ़ा सद्भावसत्त्वेनाभावरूपो हेतुरप्रसिद्ध इति चेन्न, मृतशरीरे तस्यादर्शनात् ।
यद्वा-आत्मा देहेन्द्रियभिन्नः तद्विगमेऽपि उदुपधार्थानुस्मरणात् । आत्मा शरीर में कभी रहता है, कभी नहीं रहता, अतः उसका अभाव वहाँ नियत नहीं है । अत एव मानना चाहिए कि आत्मा देह से भिन्न है । अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए :
आत्मा शरीर से भिन्न है, क्यों कि देह के होने पर भी आत्मा वहाँ नियम से नहीं रहता, उपाश्रय में स्थित साधु श्रावक के समान ।
शंका-- शरीर में जीव का गमन और आगमन दिखाई नहीं देता अतः वह देह में सदैव विद्यमान रहता है । ऐसी अवस्था में आप का यह अभाव सिद्ध करने वाला हेतु असिद्ध है ।
समाधान - ऐसा कहना समीचीन नहीं है, क्यों कि मृत शरीर में आत्मा मालूम नहीं होता ।
अथवा --- आत्मा देह और इन्द्रियों से भिन्न है, क्यों कि उनके नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है । जैसे जातिस्मरण આત્મા શરીરમાં કોઇ વખત રહે છે, કેાઈ વખત નથી રહેતા તેથી તેના અભાવ ત્યાં ચાક્કસ રૂપથી નથી. તેથી માનવું જોઇએ કે-આત્મા દેહથી ભિન્ન છે. અનુમાનના પ્રયાગ આ પ્રમાણે કરવા જોઈએ.-~~
આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે, કૈમકે દેહ હોવા છતાંય આત્મા ત્યાં નિયમથી રહેતા નથી, ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ શ્રાવક પ્રમાણે.
શકા—શરીરમાં જીવનું ગમન-જવું, અને આગમન--આવવુ તે નજરે જોવામાં આવતુ નથી, તેથી તે દેહમાં સદૈવ વિદ્યમાન રહે છે. એવી અવસ્થામાં આપને એ અભાવ સિદ્ધ કરવાના હેતુ અસિદ્ધ છે. એમ કહેવું તે ખરાખર નથી, કેમકે મૃત શરીરમાં આત્મા માલૂમ પડતા નથી,
અથવા-આત્મા દેહ અને ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન છે, કારણ કે–તેને નાશ થયા પછી પણ તેના દ્વારા જાણવામાં આવેલા પદાર્થનું સ્મરણ થાય છે. જેમ જાતિસ્મરણ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ८.५ आत्मवादिप्र० वामूर्त्तत्वयोरात्मन्येकान्ततोऽनङ्गीकारात् ।
यद्वा-आत्मा नित्यः संसारात् , त्रिकालविषयकक्रियापर्यालोचकत्वात् , 'स एपं' इति प्रत्यभिज्ञावत्वात् । अनेन हेतुत्रयेण क्षणिकवादो निरस्तः ।
यत्तु-आत्मा-एकान्तनित्यः 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' इत्यादिवचनप्रामाण्यात् , ___ ‘स एप अक्षयोजः' इत्यादिश्रुतिप्रामाण्याच, इति, तन्न युक्तम् , आत्मन एकस्वभावत्वे संसरणादिव्यवहारोच्छेदापत्तिः स्यात् तस्मात् कथञ्चिन्नित्यः कथञ्चिदनित्य इति . में व्यभिचार को आशङ्का नहीं करना, क्यों कि आत्मा में नित्यत्व और अमूर्तत्व एकान्त रूप से नहीं माना गया है। ___अथवा-आमा नित्य है, क्यों कि वह एक गति से दूसरी गति में जाता है, क्यों कि वह त्रिकालविषयक क्रियाका आलोचक है, और वह प्रत्यभिज्ञान ( यह वही है इस प्रकार का जोडरूप ज्ञान ) वाला है। इन तीन हेतुओं से क्षणिकवादका निराकरण हो गया। . 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' इत्यादि वचन से और ‘स एपः अक्षयोऽजः' इत्यादि श्रुति के प्रमाण से आत्मा एकान्त निन्य सिद्ध होता है। ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्यों कि आत्मा को एकान्त नित्य स्वभाव वाला मानने से संसरण (एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना ) आदि व्यवहारों का नाश हो जायगा । अत एव कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य आत्मा स्वीकार करना चाहिए ।। વ્યભિચારની આશંકા કરવી નહિ. કારણ કે આત્મામાં નિત્યત્વ અને અમૂર્તત્વ એકાન્તરૂપથી માનવામાં આવ્યું નથી.
અથવા–આત્મા નિત્ય છે, કારણ કે તે એક ગતિથી બીજી ગતિમાં જાય છે, કારણ કે તે ત્રિકાળવિષયક ક્રિયાને આલોચક (વિચાર કરનાર) છે, અને તે પ્રત્યભિજ્ઞાન (“આ તેજ છે” એ પ્રકારનું જેડ૫ જ્ઞાન) વાળે છે. આ ત્રણ હેતુઓ વડે કરી ક્ષણિકવાદનું નિરાકરણ થઈ ગયું છે.
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि "त्या क्यनथी अने ‘स एप अभ्योऽजः'त्यादि શ્રુતિના પ્રમાણુથી આત્મા અકાત નિત્ય સિદ્ધ થાય છે. એમ કહેવું તે પણ યુકત નથી, કારણ કે આત્માને એકાન્ત નિત્ય સ્વભાવ વાળો માનવાથી સંસરણ (એક જન્મથી બીજા જનમાં જવું તે) આદિ વ્યવહારને નાશ થઈ જશે, એ કારણથી કથંચિત્ નિત્ય અને કંથચિત અનિત્ય આત્મા છે. એ પ્રમાણે સ્વીકાર કરવો જોઈએ.
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રિટે
পানাম यथा गगनम् । अनुत्पत्ती सत्यामविनाशित्वेन, तथा सर्वकालावस्थायित्वेन, तया क्षणापेक्षयाऽपि निरन्वयनाशाभाववत्वेन चात्मनो नित्यत्वं सिध्यति । देहात्मवादिना परिमितकालावस्थायित्वमात्मनो मन्यते, तथा क्षणिकवादिनापि निरन्वयक्षणिकपरिणाममवाहस्य नित्यत्वं स्वीक्रियते। तो चैवंविधनित्यत्वसाधनेन निराकृतौ । शशशङ्गादावपि जन्मामावसत्वेन हेती साध्पन्पातिर्न स्यादती वस्तुत्वे सतीत्युक्तम् ।
न चामूर्तत्वस्य परमाणौ व्यभिचार आशङ्कनीयः, आहेतमते नित्यउत्पत्तिरहित और अविनाशी होने के कारण, तथा सर्वकाल में विद्यमान रहने के कारण
और क्षण की अपेक्षा भी समूल नाशवान् न होने के कारण आमा की नित्यता सिद्ध होतो है। देह को ही आत्मा मानने वाला कहता है कि-आत्मा परिमित काल तक ठहरता है । तथा क्षणिकवादी भी निरन्वय क्षणिक परिणाम-प्रवाह को नित्य मानता है। इस प्रकार आत्मा की नित्यता सिद्ध करके इन दोनों के मत का निराकरण किया गया है । प्रस्तुत हेतु में 'वस्तु होते हुए भी यह विशेषग इस लिये लगाया है कि शश-विपाण आदि से व्यभिचार (हेतु हो और साध्य न हो) न हो, क्यों कि उत्पत्ति का अभाव तो उन में भी है किन्तु वस्तुत्व उन में नहीं है ।
अमूर्तत्व, परमाणु में नहीं है और वहाँ नित्यत्व हेतु है, इस लिये परमाणु કેમકે વસ્તુ છતાંય તેની ઉત્પત્તિ નથી હોતી, જેમકે આકાશ. ઉત્પત્તિરહિત અને અવિનાશી હોવાના કારણે, તથા સર્વકાલમાં વિદ્યમાન રહેવાના કારણે, અને ક્ષણની અપેક્ષાએ પણ સમૂળગો નાશવાન નહિ હોવાના કારણે આત્માની નિત્યતા સિદ્ધ થાય છે. દેહને જ આત્મા માનવાવાળા કહે છે કે-આત્મા પરિમિત કાલ સુધી લે છે, તથા ક્ષણિકવાદી પણ નિરન્વય ક્ષણિક-પરિણામપ્રવાહને નિત્ય માને છે. આ પ્રમાણે આત્માની નિયતા સિદ્ધ કરીને એ બંને (દેહવાદી અને ક્ષણિકવાદી)ના મતનું નિરાકરણ કર્યું છે. પ્રસ્તુત હેતુમાં “વસ્તુ હેવા છતાય પણ” એ વિશેષણ એ કારણથી આપ્યું છે કે -શશ-વિષાણ--(સસલાનાં શિંગડાં) આદિથી
વ્યભિચાર (હેતુ હોય અને સાધ્ય ન હોય) ન થાય, કારણ કે ઉત્પત્તિને અભાવ તે તેમાં પણ છે, પરંતુ વસ્તુ તેમાં નથી.
અમૂર્તવ, પરમાણમાં નથી, અને ત્યાં નિત્યત હેતુ છે, એ કારણથી પરમાણુમાં
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५. आत्मवादिन० . २४१
यद्वा-आत्मा नित्यः स्वकारणविभागाभावाद् आकाशवत् । आकाशस्य कारणाभावादेव कारणविभागो नास्ति। यस्तु न नित्यः, स न स्वकारणविभागाभाववान् , यथा पटः। दृश्यते हि पटस्तन्तूनां विभागो भवतीति ।
किञ्च-आत्मा नित्यः कारणविनाशाभावाद् आकाशवदेव । कारणाभावादेव हि कारणस्य विनाशाभावः, यथा गगनमेव । यो न नित्यः, स न कारणविनाशाभाववान् अर्थात् कारणविनाशवानेव, यथा पटः। दृश्यते हि पटकारणीभूतस्य तन्तोविनाशो भवतीति । अयं चास्मा स्वकारणाभावेन कारणविनाशाभाववान् , तस्मानित्य इति । नित्यत्वादयममूर्तः, अमूर्तत्वाच्च शरीराद् भिन्न इति निश्चीयते।
अथवा-आत्मा नित्य है, क्यों कि उस के कारणों का विभाग नहीं है, जैसे आकाश । आकाश के कारणों का अभाव है, इसी कारण उसके कारणों का विभाग भी नहीं है । जो नित्य नहीं है, वह अपने कारणों के विभाग का अभाव वाला भी नहीं होता जैसे-पट । पट से तन्तुओं का विभाग होता दिखाई देता है ।
और भी-आत्मा नित्य है, क्यों कि उसके कारणों के विनाश का अभाव है, जैसे-आकाश । कारणों का अभाव होने से ही कारणों के विनाश का अभाव है जैसे आकाश । जो नित्य नहीं होता वह कारण-विनाशभाव वाला भी नहीं होता, जैसे पट, देखा जाता है कि-पट के कारणभत तन्तुओं का नाश हो जाता है। आत्मा के जनक कारणों का अभाव है अतः वह कारणों के विनाशका अभाव वाला है, अर्थात् आत्मा के कारण ही नहीं हैं तो उसके कारणों का अभाव क्या होगा ?
અથવા આત્મા નિત્ય છે, કેમકે તેના કારણે વિભાગ નથી, જેમ આકાશ. આકાશને કારણેને અભાવ છે તેથી જ તેના કારણે ને વિભાગ પણ નથી. જે નિત્ય નથી તે પોતાના કારણોના વિભાગના અભાવવાળે પણ નહિ થાય, જેમ પટ. પટથી તંતુઓને વિભાગ થતે જોવામાં આવે છે.
ફરી પણ- આત્મા નિત્ય છે. કારણ કે તેના કારણેના વિનાશને અભાવ છે, જેમ આકાશ. કારણનો અભાવ હોવાથી જ કારણેના વિનાશને અભાવ છે. જેમ આકાશ જે નિત્ય નથી તે કારણુવિનાશભાવવાળું પણ નથી, જેમ પટ. જોવામાં આવે છે કે-પટના કારણભૂત તંતુઓને નાશ થાય છે. પણ આત્માના જનક કારણેને અભાવ છે, તેથી તે કારણેના વિનાશને અભાવવાળો છે, અર્થાત આત્માને प्र. मा.-३१
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आचाराने स्वीकर्तव्यम् । द्रव्याथिकनयेन नित्यः, पर्यायाथिकनयेन-अनित्य इति । एवमनङ्गीकारे हि 'संसारा'-दित्यायुक्तहेतूनामसंगतिः स्यात् । आत्मन एकस्वभावतस्वीकारे स्वभावान्तरानापत्या वर्तमानकालिकभावातिरिक्तं भावान्तरं न लधुमर्हेत् । एवमनित्यत्वामूर्तत्वयोरपि स्याहाद आलम्बनीयः, अन्यथा व्यवहारोच्छेदप्रसंगः स्यात् , एकान्तामूर्तस्य, तथैकान्ततो देडभिन्नस्य चातिपादिप्रसंगामावे सति हिंसादिनिवृत्तिदेशनादिपरकचरणकरणादियोधकसकलशावानर्थक्यं, तथाऽऽश्मनः संसारगदिनुदारश्च स्यात् । __आत्मा द्रव्यार्थिकनय से नित्य है और पर्यायार्थिकनय से अनित्य है। ऐसा स्वीकार न करने पर 'संसरण करने से' इत्यादि पूर्वोक्त हेतु असात हो जायेंगे । एक स्वभाव वाला आत्मा स्वीकार किया जाय तो उस में · दूसरे स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होगी, और वर्तमानकालीन भाव के अतिरिक्त दूसग भाव कभी प्राप्त नहीं होगा। इसी प्रकार अनित्यत्व और अमूर्तत्व के विषय में भी स्याद्वादका ही आश्रय लेना चाहिए। अन्यथा व्यवहार के अभाव का प्रसङ्ग भाएगा । भात्मा को एकान्त अमूर्त मानने से तथा देह से एकात भिन्न मानने से उस का घात होना असंभव है, और इस दिशा में हिंसा भादि से निवृत्त होने का उपदेश देने वाले चरण-करण आदि के बोधक सब शास्त्र व्यर्थ हो जाएँगे । इस के अतिरिक्त भात्मा का संसाररूपी खड्डे से कभी उद्धार भी नहीं होगा।
આત્મા દ્રવ્યાધેિક નયથી નિત્ય છે, અને પર્યાયાર્થિક નયથી અનિત્ય છે. એ પ્રમાણે સ્વીકાર નહિ કરવાથી “સંસારણ કરવાથી ઈત્યાદિ પૂર્વોકત હેતુ અસંગત થઇ જશે. એક સ્વભાવવાળે આમ સ્વીકાર કરવામાં આવશે તે તેમાં બીજા સ્વભાવની ઉત્પત્તિ નહિ થાય, અને વર્તમાનકાલીન ભાવ વિના બી ભાવ કઈ પણ વખત પ્રાપ્ત નહિ થાય, એ પ્રમાણે અનિયત્વ અમૂત્વના વિષયમાં પણ સ્યાદ્વાદને જ આશ્રય લેવું જોઈએ. અન્યથા વ્યવહારના અભાવને પ્રસંગ આવશે. આત્માને એકાન્ત અમ માનવાથી તથા દેહથી એકાન્ત ભિન્ન માનવાથી તેનો ઘાત થ અસંભવ છે. અને એ દિશામાં હિંસા આદિથી નિવૃત્ત થવાને ઉપદેશ દેવાવાળા ચરણ-કરણ આદિના બાધક તમામ શાસ્ત્ર વ્યર્થ થઈ જશે. તે સિવાય આત્માને સંસારરૂપી ખાવાથી કેાઈ વખત પણ ઉદ્ધાર નહિ થાય,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ म.५..आत्मवादिप्र०
२४३ समालम्बने तु सुखदुःखादयः सर्वे आत्मनोऽमच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वमावतयाऽन्ययात्वरूपपरिणामासंभवानोपपद्येरन् , नारकत्वादिभायो यस्य यादृशो विद्यते, तदन्यरूपतां नासौं प्रपद्येत ।
भावतोऽप्रसन्नस्यात्मनः पूर्वरूपापरित्यागे सति पुनः प्रसन्नरूपताया असंभवः स्यात् । दृश्यते पुनरमसन्नस्य कदाचित् प्रसन्नताऽपि, सा नोपपद्येत । तस्मादेकान्तवादं परित्यज्यानेकान्तवादः समालम्बनीयः।
(३) चेतनाववनिरूपणम्अयमात्मा निश्चयनयेन शुद्धचेतनासहितः, व्यवहारनयेन च कर्मादि स्वीकार करने पर आत्मा अप्रच्युत, अनुम्पन्न और स्थिर एकरूप तथा एक स्वभाव वाला होने के कारण, और उसमें रूपान्तर होना असंभव होने से सुख दुःखादि नहीं होंगे, अतः विभिन्न अवस्थाएँ भी नहीं हो सकेंगी, फिर जो आत्मा नारकवादि जिस रूप में है वह सर्वदा उसी रूप में रहेगी-एक मव से दूसरे भव में नहीं ना सकेगी। जो आत्मा अप्रसन्न है, मगर अप्रसन्न का भी कभी प्रसन्न होना दिखाई देता है, फिर ऐसा न हो सकेगा । अत एव एकान्तवाद का त्याग करके अनेकान्तवाद का आश्रय लेना चाहिए।
(३) चेतनावत्वयह आत्मा निश्चयनय से शुद्ध चेतना से युक्त है और व्यवहारनय से સ્વીકાર કરવાથી આત્મા અપ્રચુત, અનુત્પન્ન અને સ્થિર એકરૂપ તથા એક સ્વભાવ વાળ હોવાના કારણે તેમાં રૂપાન્તર થવું અસંભવિત હેવાથી સુખ-દુઃખદિ નહિ હેય. તે કારણથી વિભિન્ન અવસ્થાઓ પણ થઈ શકશે નહિ. ફરી જે આત્મા નારકત્વાદિ જે કપમાં છે, તે સર્વદા તે રૂપમાં જ રહેશે. એટલે એક ભવમાંથી બીજ ભવમાં જઈ શકશે નહિ. વળી જે આત્મા અપ્રસન્ન છે તે પિતાના પૂર્વરૂપને પરિત્યાગ ન કરે તે તેને ફરી પ્રસન્નતામાં આવવું તે અસંભવ છે, પરંતુ અપ્રસન્ન પણ કઈ વખત પ્રસન્ન હોય એમ દેખાય છે; ફરી એમ નહિ થઈ શકશે. એ કારણથી અનેકાન્તવાદને ત્યાગ કરીને અનેકાન્તવાદને આશ્રય લેવા જોઈએ.
__ (3) येतनाઆ આત્મા નિશ્ચયનયથી શુદ્ધ ચેતનાથી યુક્ત છે અને વ્યવહારનયથી “આત્માને
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- २४२ . . . . . .. आधाराचे
- परन्त्वेकान्तनित्यत्वे, एकस्यात्मनो नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिपरिणामा नोपपोरन्। एकान्तक्षणिकत्वेऽपि साध्यायाध्ययनस्यानादिपरिश्रममत्यभिज्ञान नोपपद्येत । तस्मादात्मा फयश्चिनित्या, फायश्चिदनित्यः, इत्यवश्यं स्वीकरणीयम् ।
यत्तु-" द्रव्यक्षेत्रकालभावैरेकान्तेनैव नित्यः, अविचलितस्वमात्र आत्मे"-ति वदन्ति तत्सर्वमयुक्तम् । तथा सति मुखदुःखसंसारमोक्षाणामनुपपत्तिरापर्यत । तत्र हि आपदानुभवरूपं क्षणं मुखं, तापानुमवरूपं दुःश्वम् , तिर्यामनुप्यनारक देवभवसंसरणरूपः संसारः, अप्टविधर्मवन्धवियोगो मोक्षः। एकान्तवाद इस लिए आत्मा निरय है । :आत्मा निन्य होने के कारण अमूर्त है, और अमूर्त होने के कारण शरीर से भिन्न है।
किन्तु आत्मा को एकान्त नित्य मानने पर एक ही आरमा नरक तिर्यश्च, मनुष्य और देवगतिरूप नाना पर्यायों को प्राप्त नहीं होगा। और एकान्त क्षणिक मानने पर भी स्वाध्याय, अध्ययन, प्यान आदि का परिश्रम वृथा हो जायगा, और प्रत्यभिज्ञान का अभाव हो जायगा । अत एव आत्मा कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है, ऐसा अवश्य स्वीकार करना चाहिए। . जो लोग द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से आरमा को एकान्त नित्य अविचल स्वभाव वाला मानते हैं, यह सब अयुक्त है। ऐसा मानने से सुख, दुःख, संसार और मोक्ष नहीं बन सकते । आह्लाद का अनुभव करनारूप क्षण सुख कहलाता है। संताप का अनुभव करना दुःख है। तिर्यश्च, मनुष्य, नारक और देव भव में जाना संसार है । . आठ प्रकार के कर्मबन्ध का वियोग होनी मोक्ष है। एकान्तवाद કારણ જ નથી તે પછી તેના કારણનો અભાવ શ થશે ? એ કારણથી આત્મા નિત્ય છે. આત્મા નિત્ય હોવાના કારણે અમૂર્ત છે. અને અમૂર્ત હોવાના કારણે શરીરથી ભિન્ન છે.
પરંતુ આત્માને એકાન્ત નિત્ય માનવાથી એક જ આત્મા નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિરૂ૫ નાના પર્યાયે ને પ્રાપ્ત નહિ થાય, એને 'એકાત ક્ષણિક માનવાથી પણ સ્વાધ્યાયઅધ્યયન, ધ્યાન કે આદિને પરિશ્રમ વૃથા થઈ જશે, અને પ્રત્યભિજ્ઞાનને અભાવ થઈ જશે, એ કારણથી આત્મા કંચિત નિત્ય અને કંચિત્ અનિત્ય છે. એ પ્રમાણે જરૂર સ્વીકારવું જોઈએ. . • જે માણસે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવથી આત્માને એકાન્ત નિત્ય, અવિચલ સ્વભાવ વાળો માને છે, તે સર્વ અયુક્ત છે. એ પ્રમાણે માનવાથી સુખ, દુખ સંસાર અને મોક્ષ બની શકશે નહિ. આહલાદને અનુભવ કરવારૂપ ક્ષણ સુખ કહેવાય . સંતાપને અનુભવ કરવો તે દુખ છે. તિર્યંચ, મનુષ્ય, નારકી અને દેવભવમાં જવું તે સંસાર છે. આ પ્રકારના કર્મ બંધને વિયાગ થવું તે મેક્ષ છે એકાતવાદ્ધ
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आचारचिन्तामणि- टोका अध्य. १ उ. १ सू. ५ आत्मवादिम०
अयमात्मा ज्ञानदर्शनोपयोगाम्यां न भिन्न इति बोधयितुमुपयोगवानिति, इदं च ज्ञानात्मनोरेकान्तभेद इति नैयायिकमतं निराकर्तुमुक्तम् । सर्वज्ञसिद्धान्ते तु द्रव्यं वस्तुतो गुणपर्यायेभ्यो न भिन्नम्, अतः कथञ्चिदभेदविवक्षयाऽऽश्रयिभावं परिकल्प्य - उपयोगवानिति निगदितम् ।
२४५
उपयोगो द्विधा - ज्ञानदर्शनभेदात् । सविकल्प उपयोग एव ज्ञानोपयोगः । निर्विकल्प उपयोगो दर्शनोपयोगः । तत्र ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः - मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि पञ्च सम्यग्ज्ञानानि, मति - श्रुत - विभंग-भेदेन त्रीण्यज्ञानानि चेति । अज्ञानान्यपि ज्ञानरूपतया ज्ञानवर्गे निक्षिप्तानि । अत्रैकमेव केवलज्ञानं क्षायिकं सर्वाआत्मा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग से भिन्न नहीं है ' यह बतलाने के लिए उसे उपयोगवान् कहा है । ' ज्ञान और आत्मा का एकान्त भेद है ' ऐसा नैयायिकों का मत है । इस मत का निराकरण करने के लिए यह कथन किया गया है । सर्वज्ञ के सिद्धान्त में द्रव्य वास्तव में गुण और पर्यायों से भिन्न नहीं है, अतः कथञ्चित् भेद की विवक्षा करके आधाराधेय भाव की कल्पना से उपयोगवान् कहा है ।
"
उपयोग के दो भेद हैं— ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । सविकल्प उपयोग को ज्ञानोपयोग कहते हैं और निर्विकल्प उपयोग दर्शनोपयोग कहलाता है । इनमें से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है - (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान, (६) कुमतिज्ञान, (७) कुश्रुतज्ञान और (८) विभङ्गज्ञान, अन्त के तीन अज्ञान कहलाते हैं । ये विपरीतज्ञानरूप होने के कारण इन्हें ज्ञान की कोटि में रक्खा है । इनमें
આત્મા જ્ઞાન પચેગ અને દશનાપયેાગથી ભિન્ન નથી, એ બતાવવા માટે જ તેને ઉપયેગવાન્ કહ્યો છે. ‘ જ્ઞાન અને આત્માના એકાન્ત લેક છે’ એવા તૈયાયિકાના મત છે, એ મતનું નિરાકરણ કરવા માટે એ કથન કરવામાં આવ્યું છે. સર્વજ્ઞના સિદ્ધાન્તમાં દ્રવ્ય એ વાસ્તવમાં ગુણ અને પર્યાયેાથી ભિન્ન નથી, તેથી ક ચિત્ ભેદની વિવક્ષા કરીને આધારાધેય ભાવની કલ્પનાથી ઉપયેગવાન્ કહ્યો છે.
उपयोगना मे लेह छे-(१) ज्ञानोपयोग मते (२) दर्शनोपयोग, सविश्र्दय ઉપયાગને જ્ઞાને પાત્ર કહે છે, અને નિવિકલ્પ ઉપયાગ તે દર્શીનેાપયોગ अडेवाय छे. तेमां ज्ञानोपयोग आई अमरनो छे. (१) भतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्ययज्ञान, (4) उपसज्ञान, तथा (६) मुभतिज्ञान, (७) सुश्रुतज्ञान भने (८) विलज्ञान तेभां छेवटना त्र अज्ञान मुडेवाय छे. પરંતુ વિપરીતજ્ઞાનરૂપ હાવાના કારણે તેને જ્ઞાનની કાટિમાં રાખ્યા છે. એમાં એક
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'आचाराकसूत्रे
पीडयत्यात्मानमिति ज्ञानरूपाशुद्धचेतनया सहित बेतनावानित्युच्यते । चेतनावानिति कथञ्चिदुच्यते ; आत्मा वस्तुतयेनास्वरूप एवास्ति । आत्मनो गुणवेतनेति सर्वेषां मतं, तदभिप्रायेण चेतनावानित्युक्तम् । चेतना द्विविधा -गुद्धा, अशुद्धा चेति । ज्ञानचेतनैव शुद्धचेतना | कर्मचेतना, तथा कर्मफलचेतना चाशुद्धचेतनोच्यते ।
(४) उपयोगवत्वनिरूपणम् ---
अयमात्मा निश्चयनयेन केवलज्ञान केवलदर्शनरूपाभ्यां शुद्धोपयोगाभ्यां सहितो व्यवहारनयेन मतिज्ञानाद्युपयोगयुक्तश्चेत्यतोऽयमुपयोगवानित्युच्यते । आमा को कर्म करते हैं' इस प्रकार के ज्ञानरूप अशुद्ध चेतना से युक्त है, अत एव आत्मा चेतनावान् कहलाता है । आत्मा को किसी अपेक्षा से ही चेतनावान् कहते हैं, वास्तव में तो आत्मा चेतनारूप ही है । 'चेतना आत्मा का गुण है' ऐसा सबका मत है, इसी अभिप्राय से उसे चेतनावान् कह दिया है। चेतना दो प्रकार की है - शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना । ज्ञान चेतना हो शुद्ध है । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना अशुद्ध चेतना है ।
(४) उपयोगरत्त्व -
यह आत्मा निश्वयनय से केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप शुद्ध उपयोगों से युक्त है । व्यवहारनय से मतिज्ञान आदि उपयोगों से युक्त है, अत एव आत्मा उपयोगवान् कहलाता है ।
કર્મો પીડિત કરે છે' એ પ્રકારના જ્ઞાનરૂપ અશુદ્ધ ચેતનાથી યુક્ત છે એટલા માટે આત્મા ચેતનવાન કહેવાય છે. આત્માને કઈ અપેક્ષાથી જ ચેતનવાન કહે છે, વાસ્તવમાં તે આત્મા ચેતનારૂપ જ છે. · ચેતના આત્માના ગુણ છે એ પ્રમાણે સંતા મત છે. એ અભિપ્રાયથી તેને ચેતનાવાન કહી દીધા છે. ચેતના એ પ્રકારની છે. (१) शुद्ध-येतना भने (२) अशुद्ध-येतना. ज्ञानयेतना शुद्ध छे, उभयेतना અને કલચેતના તે અશુદ્ધ-ચેતના છે.
(४) उपयोगवत्थ -
આ આત્મા નિશ્ચયનયથી કૈવલજ્ઞાન અને કૈવલદન ૫શુદ્ધ ઉપયેગાથી યુક્ત છે, વ્યવહારનયથી મતિજ્ઞાન ભાતિ ઉપયાગથી યુક્ત છે, એ કારણે માત્મા ઉપયેગવાન કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि- टोका अध्य. १ उ. १ सू.५ आत्मवादि
अयमात्मा ज्ञानदर्शनोपयोगाम्यां न भिन्न इति बोधयितुमुपयोगवानिति, इदं च ज्ञानात्मनोरेकान्तभेद इति नैयायिकमतं निराकर्तुमुक्तम् । सर्वज्ञसिद्धान्ते तु द्रव्यं वस्तुतो गुणपर्यायेभ्यो न भिन्नम्, अतः कथञ्चिदभेदविवक्षयाऽऽश्रयिभावं परिकल्प्य - उपयोगवानिति निगदितम् ।
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उपयोगी द्विधा - ज्ञानदर्शनभेदात् । सविकल्प उपयोग एव ज्ञानोपयोगः, । निर्विकल्प उपयोगो दर्शनोपयोगः । तत्र ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः - मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि पञ्च सम्यग्ज्ञानानि, मति श्रुत-विभंग-भेदेन त्रीण्यज्ञानानि चेति । अज्ञानान्यपि ज्ञानरूपतया ज्ञानवर्गे निक्षिप्तानि । अत्रैकमेव केवलज्ञानं क्षायिकं सर्वा'आत्मा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग से भिन्न नहीं है' यह बतलाने के लिए उसे उपयोगवान् कहा है । 'ज्ञान और आत्मा का एकान्त भेद है ' ऐसा नैयायिकों का मत है । इस मत का निराकरण करने के लिए यह कथन किया गया है । सर्वज्ञ के सिद्धान्त में द्रव्य वास्तव में गुण और पर्यायों से भिन्न नहीं है, अतः कथञ्चित् भेद की विवक्षा करके आधाराधेय भाव की कल्पना से उपयोगवान् कहा है |
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उपयोग के दो भेद हैं— ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । सविकल्प उपयोग को ज्ञानोपयोग कहते हैं और निर्विकल्प उपयोग दर्शनोपयोग कहलाता है । इनमें से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है- (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान, (६) कुमतिज्ञान, (७) कुश्रुतज्ञान और (८) विभङ्गज्ञान, अन्तके तीन अज्ञान कहलाते हैं | ये विपरीतज्ञानरूप होने के कारण इन्हें ज्ञान की कोटि में रक्खा है । इनमें
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આત્મા જ્ઞાને પગ અને દર્શાનાપયેગથી ભિન્ન નથી, એ મતાવવા માટે જ તેને ઉપયાગવાન કહ્યો છે. જ્ઞાન અને આત્માના એકાન્ત ભેદ છે એવા તૈયાયિકાના મત છે, એ મતનું નિરાકરણ કરવા માટે એ કથન કરવામાં આવ્યું છે. સર્વજ્ઞના સિદ્ધાન્તમાં દ્રવ્ય એ વાસ્તવમાં ગુણ અને પર્યાયેથી ભિન્ન નથી, તેથી કથચિત્ ભેદની વિવક્ષા કરીને આધારાધેય ભાવની કલ્પનાથી ઉપયાગવાન કહ્યો છે.
उपयोगना मे ले! छे-(१) ज्ञानोपयोग भने (२) दर्शनोपयोग, सविश्र्दय ઉપયાગને જ્ઞાને પયાગ કહે છે, અને નિવિકલ્પ ઉપયાગ તે દર્શનાપયેાગ अडेवाय छे. तेमां ज्ञानोपयोग आठ अमरनो छे. (१) भतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्ययज्ञान, (4) ठेवलज्ञान, तथा (९) शुभतिज्ञान, (७) श्रुतज्ञान भने (८) विज्ञान. तेमां छेपटना वायु अज्ञान हवाय छे. પરંતુ વિપરીતજ્ઞાનરૂપ હાવાના કારણે તેને જ્ઞાનની કેટિમાં રાખ્યા છે. એમાં એક
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२४६ . . . . . . आचारागसूत्रे वरणरहितं सर्वतः शुद्धमस्ति । अन्यानि मनिशानादिकानि चत्वारि नानानि क्षायोपशमिकानि देशत आवरणरहितानि देशतः शुद्धानि। श्रीण्यतानान्यशृद्धानि ।
दर्शनोपयोगस्य चत्वारो भेदा:- (१) चक्षुर्दर्शनम् , (२) अचक्षुर्दर्शनम् ।, (३) __ अवधिदर्शनम् , (४) केवलदर्शनं च । त केवलदर्शनं क्षायिकं सर्वतोऽनावरण
सर्वतः शुद्धं च । चक्षुर्दर्शनादीनि त्रीणि क्षायोपशमिकानि देशतोऽनावरणानि देशतः शुद्धानि च सन्ति ।
ज्ञानादिगुणतः सर्वथा भिन्न आत्मे ति नैयायिकाधमिमतं तु न युक्तम् । ज्ञानादिगुणसम्बन्धात् माक् कदाचिद् ज्ञानादिगुणहीनोऽप्यासीदिति तस्य ‘मत एक मात्र केवलज्ञान क्षायिक है, सम्पूर्ण आवरण से रहित और पूर्ण शुद्ध है। शेप मतिज्ञान आदि चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, देशतः आवरणरहित हैं और देशतः शुद्ध हैं । तीना कुज्ञान अशुद्ध हैं।
दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-(१) चक्षुर्दर्शन, (२) अचक्षुर्दर्शन, (३) अवधिदर्शन और (8) केवलदर्शन । इनमें से अकेला केवलदर्शन क्षायिक है, पूर्ण रूप से आवरणरहित है और पूर्णरूप से शुद्ध है। चक्षुर्दर्शन आदि तीन क्षायोपशमिक हैं, देशतः निरावरण हैं, और देशतः शुद्ध हैं।
___ 'आत्मा ज्ञानादि गुणों से सर्वथा भिन्न है' ऐसा नैयायिक आदि का मत युक्त, नहीं है, क्यों कि ज्ञानादि गुणों का सम्बन्ध होने से पहले किसी समय आत्मा को ज्ञानादि गुणों से रहित भी मानना पडेगा और इस प्रकार उन के मत में आत्मा जड માત્ર કેવલજ્ઞાન ક્ષાયિક છે, સંપૂર્ણ આવરણથી રહિત અને પૂર્ણ શુદ્ધ છે. બાકીના મતિજ્ઞાન આદિ ચાર જ્ઞાન લાયોપથમિક છે, દેશ થકી આવરણરહિત છે અને દેશ થકી શુદ્ધ છે, ત્રણ કુશાન અશુદ્ધ છે.
शनापसना यार लेह छ-(१) यक्षुशन, (२) अयक्षुशन, (3) साधદર્શન અને (૪) કેવલદેશન. તેમાંથી એક કેવલદર્શન ક્ષાયિક છે. પૂર્ણપથી આવરણરહિત છે, અને પૂર્ણ રૂપથી શુદ્ધ છે. ચક્ષુર્દશન આદિ ત્રણ લાપશમિક છે, દેશ થકી નિરાવરણ છે અને દેશ થકી શુદ્ધ છે. .
આત્મ જ્ઞાનાદિ ગુણોથી સર્વથા ભિન્ન છે.” એ મિયાયિક આદિને મત યકત નથી-ઉચિત નથી, કારણ કે જ્ઞાનાદિ ગુણેને સંબંધ થયા પહેલાં કેઈ સમય આત્માને જ્ઞાનાદિ ગુણેથી રહિત પણ માનવે પડશે, અને એ પ્રમાણે તેના મતમાં
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५. अतमत्रादिम०
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जडरूपत्वापत्तिः । आत्मनि ज्ञानस्य नित्यानादिसम्बन्ध स्वीकारेऽपि पदार्थद्वयकल्पनायां पुनस्तत्सम्बन्धरूपसमवायस्य कल्पनायां महद् गौरवम्, तस्माद् गुणगुणिनोर्वस्तुतस्तादात्म्यस्वीकार एवौचित्यमर्हति । यदि गुणगुणिनोरभेद एव समवायोऽपीत्युच्येत तर्हि नास्ति काऽपि क्षतिः । उक्तञ्च - " गुणपर्ययतादात्म्य - विशिष्टं द्रव्यमुच्यते ।
उत्पत्तिव्ययनैयत्व - पर्यायास्तस्य शाश्वताः ॥ १ ॥ " इति । (५) परिणामित्वनिरूपणम्
परिणामः,
अयमात्मा परिणामी । प्रतिसमयमपरापरपर्यायेषु गमनं हो जायगा | आत्मा में ज्ञान का नित्य-अनादि सम्बन्ध स्वीकार किया जाय तो दो पदार्थ मानने पडेंगे, और उन दोनों अर्थात् आत्मा और ज्ञान को सम्बुद्ध करने के लिए तीसरा समवाय सम्बन्ध मानना होगा, यह बड़ा गौरव होगा । अत एव गुण और गुणीका वास्तव में तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार करना ही उचित है । अगर गुण और गुणी के अमेद को ही समवाय सम्बन्ध कहते हो तो उसे स्वीकार करने में कोई हानि नहीं है । कहा भी है:
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" जो गुण और पर्याय के तादात्म्य से युक्त हो वह द्रव्य कहलाता है । उस द्रव्य की पर्यायें सदा उत्पत्ति और विनाशवाली हैं, और वे अनादिप्रवाहरूप हैं " ॥ १ ॥ (५) आत्मा का परिणामीपन
आत्मा परिणामी है । प्रत्येक समय एक पर्याय को छोड़कर दूसरा पर्याय આત્મા જડ થઈ જશે. આત્માને વિષે જ્ઞાનના નિત્ય-અનાદિ સંબંધ સ્વીકાર કરવામાં આવે તે એ પદાર્થ માનવા પડશે, અને તે ખને અર્થાત આત્મા અને જ્ઞાન તે મને ને સમ્બદ્ધ કરવા માટે ત્રીજો કેાઈ સમવાય સ ંબધ માનવા પડશે. એ ભારે ગૌરવ થશે. તે કારણથી ગુણુ અને ગુણીના વાસ્તવમાં તાદાત્મ્ય સંબંધ સ્વીકાર કરવા એજ ઉચિત છે. અથવા ગુણ-ગુણીના અભેદને જ સમવાય સઅધ હેા તા તેના સ્વીકાર કરવામાં કોઈ પ્રકારે હાનિ નથી. કહ્યુ પણ છે:—
જે ગુણ અને પર્યાયના તાદાત્મ્યથી યુકત હોય તે દ્રવ્ય કહેવાય છે તે દ્રવ્યની पर्याय सहाय उत्पत्ति भने विनाश वाणी छे भने ते मनाहिप्रवाहरूप छे." ॥१॥ (4) आत्मानुं परिणामीपलु -
આત્મા પરિણામી છે. પ્રત્યેક સમય એક પર્યાયને છેડી બીજે પર્યાય ધારણ ફરવે તે પિરણામ કહેવાય છે, તે પિરણામ જેમાં હાય તે પરિણામી કહેવાય છે.
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आचारासो सोऽस्यास्तीति परिणामी । अनेन 'आत्मा कूटस्थनित्यः' इति मतं निराकृतम् । 'आत्मा कूटस्थनित्यः' इति स्वीकारे पूर्वदशायां यथाविध आरमा, तथाविध एवं ज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवेत् , तदा पूर्वमविशातात्मा फवं पदार्यविज्ञाता स्यात् । प्रतिनियतस्वरूपस्पापच्युतिरूपता कौटस्थ्यमिति स्वीकारा । यदि तदा पदार्थविज्ञातृत्व स्वीक्रियते तदा पूर्वमविज्ञातुर्विज्ञावरूपत्वे परिणामापत्या तन्मते कोंटस्थ्यभङ्गः । तस्मादात्मनः परिणामित्वमवश्यं स्वीकरणीयम् ।।
(६) प्रभुस्वनिरूपणम्--- अयमात्मा निश्चयनयेन मोक्षतत्कारणरूपशुद्धपरिणामायं परिणमनधारण करना परिणाम कहलाता है। यह परिणाम जिस में हो वह : परिणामी । इस विशेषण से आत्मा की कूटस्थनिन्यता का निराकरण किया गया है। आत्मा कूटस्थ नित्य है, ऐसा स्वीकार करने पर आत्मा जैसा पहले अज्ञाता था वैसा ही ज्ञान की उत्पत्ति के समय भी रहेगा । ऐसी दशा में आत्मा पहले अज्ञाता था तो बाद में पदार्थों का ज्ञाता कैसे होगा !, क्यों कि आप के मत के अनुसार प्रतिनियत स्वरूप से घ्युत न होनाजैसा का तैसा ही बना रहना-कूटस्थता है। अगर बाद में आत्मा को पदार्थों का ज्ञाता स्वीकार करते हो तो पहले जो अज्ञाता था, उस का ज्ञाता के रूप में परिणमन हो गया अतः कूटस्थनित्यता नष्ट हो गई। अत एव मामा को परिणामी अवश्य मानना चाहिए । आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं वरन् परिणामी नित्य है ।
(६) आत्मा का प्रभुत्वनिश्चयनय से आत्मा मोक्ष और मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों के लिए આ વિશેષણથી આત્માની કૂટસ્થનિત્યતાનું નિરાકરણ કર્યું છે. “આત્મા ફૂટસ્થ નિત્ય છે” એ સ્વીકાર કરવાથી આત્મા જે પહેલાં હતો તે જ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિના સમયમાં પણ રહેશે, એવી દશામાં આત્મા પહેલાં અજ્ઞાતા હતા તે પછી પદાર્થોને શાતા કેવી રીતે થશે?, કેમકે–આપના મત પ્રમાણે પ્રતિનિયત સ્વરૂપથી ચુત નહિ થતાં જે છે તે જ બની રહે તે ફૂટસ્થતા છે. અગર તે પછીથી આત્માને પદાથીને જ્ઞાતા સ્વીકાર કરે છે તે પ્રથમ જે અજ્ઞાતા હતે તેનું જ્ઞાતાના સૂપમાં પરિણમન થઈ ગયું, તેથી ફૂટસ્થરૂપ નિયતા નાશ પામી ગઈ, આ કારણથી આત્માને પરિણામી અવશ્ય માન જોઈએ. આત્મા ફૂટસ્થ નિત્ય નથી પરંતુ પરિણામી નિત્ય છે.
(७) माभानु प्रभुतનિશ્ચય નય પ્રમાણે આત્મા મેક્ષ અને પક્ષના કારણરૂ૫ શુ ને
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. आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मु.५. आत्मवादिन
२४९ सामर्थ्यात् , तथा व्यवहारनयतः संसारतत्कारणरूपाशुद्धपरिणामार्थ परिणमनशक्तिमत्त्वाच प्रभुरित्युच्यते । ___ अयमात्मा मोक्षमार्गोपदेशकतया, रत्नत्रयेण मोक्षसाधकतया, सर्वज्ञत्वमाप्तिशक्तिमत्तया च प्रभुरित्युच्यते । ." सर्वज्ञो नास्ति कश्चि"-दिति नास्तिकमतं निराकर्तुं सर्वज्ञतयाऽप्यात्मनः प्रभुत्वमस्तीति संवेद्यते । यथा-अभ्रपटलमलाच्छन्नं रविचन्द-ज्योतिः, सुवर्ण रजतं वा क्रमशो नैमल्यं प्राप्नुवत् , सर्वथाऽभ्रपटलमलादिव्यपगमे सर्वतो भावेनापि शुद्धि प्राप्नोति, तथा रागद्वेपादिभिरशुद्ध आत्मा क्रमशः शुद्धिं लभमानः पूर्णशुद्धिमपि प्राप्नोति स एवात्मा 'सर्वज्ञः' इत्युच्यते । परिणमन-सामर्थ्यवाला है, तथा व्यवहार नय से संसार और संसार के कारणरूप अशुद्ध परिणामों के लिए परिणत होने की शक्ति से युक्त है । इस कारण आत्मा प्रभु कहलाता है ।
यह आत्मा मोक्षमार्ग का उपदेश देने की, रत्नत्रय के द्वारा मोक्षसाधन की और सर्वज्ञाताप्राप्ति की शक्ति से युक्त होने के कारण प्रभु है, 'कोई सर्वज्ञ नहीं है। ऐसे नास्तिकमत का निराकरण करने के लिए सर्वज्ञरूप में भी आत्मा का प्रभुत्व सूचित किया गया है। जैसे-मेघपटल तथा मल से आच्छादित सूर्य, चन्द्रमा की ज्योति, सुवर्ण या चांदी, क्रम से निर्मल होते-होते, अभ्रपटल या मल के सर्वथा हट जाने पर पूर्णरूप से शुद्ध हो जाने हैं, उसी प्रकार रागद्वेष आदि से अशुद्र आत्मा धीरे-धीरे शुद्ध होता हुआ पूर्ण शुद्धता प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्मा ही सर्वज्ञ कहलाता है। માટે પરિણમન-સામર્થ્ય વાળે છે. તથા વ્યવહાર નયથી સંસાર અને સંસારના કારણરૂપ અશુદ્ધ પરિણામ માટે પરિણત થવાની શકિતથી યુક્ત છે. આ કારણથી આત્મા પ્રભુ કહેવાય છે.
આ આત્મા મોક્ષમાર્ગને ઉપદેશ દેવાની, રત્નત્રયના દ્વારા મોક્ષસાધનની અને સર્વજ્ઞતાપ્રાપ્તિની શકિતથી ચુકત હોવાના કારણે પ્રભુ છે. “કેઈ સર્વજ્ઞ નથી ? એ જે નાસ્તિકમત છે તેનું નિરાકરણ કરવા માટે સર્વજ્ઞરૂપમાં પણ આત્માનું પ્રભુત્વ સૂચિત કર્યું છે. જેમ–મેઘસમૂહ તથા મળથી આચ્છાદિત સૂર્ય, ચંદ્રમાની તિ, સુવર્ણ અથવા ચાંદી વગેરે ક્રમથી નિર્મલ થતાં થતાં મેઘસમૂહ અથવા મળના ખસી જવાથી પૂર્ણ શુદ્ધ રૂપમાં આવી જાય છે–શુદ્ધ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષ આદિથી અશુદ્ધ આત્મા ધીરે ધીરે શુદ્ધ થઈને પૂર્ણ શુદ્ધતા પ્રાપ્ત કરી લે છે. એ પ્રમાણે પૂર્ણ શુદ્ધ આત્મા જ સર્વજ્ઞ કહેવાય છે. प्र. आ.-३२
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आचारास्त्रे
सोऽस्यास्तीति परिणामी । अनेन 'आत्मा कूटस्थ नित्यः' इति मर्त निराकृतम् । 'आत्मा कूटस्थ नित्यः' इति स्वीकारे पूर्वदशायां यथाविध आत्मा, तथाविध एव ज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवेत् तदा पूर्वमविज्ञातात्मा कथं पदार्थविज्ञाता स्यात्, प्रतिनियतस्वरूपस्यामच्युतिरूपता कौटस्थ्यमिति स्वीकारात् । यदि तदा पदार्थ - विज्ञातृत्व स्वीक्रियते तदा पूर्वमविज्ञातुर्विज्ञातृरूपत्वे परिणामापच्या तन्मते कौटस्थ्यभङ्गः । तस्मादात्मनः परिणामित्वमवश्यं स्वीकरणीयम् ।
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(६) स्त्रनिरूपणम् -
अयमात्मा निश्चयनयेन मोक्षतत्कारणरूपशुद्धपरिणामार्थं परिणमन
धारण करना परिणाम कहलाता है । यह परिणाम जिस में हो वह परिणामी । इस विशेषण से आत्मा को कूटस्थनियता का निराकरण किया गया है। आत्मा कूटस्थ नित्य है, ऐसा स्वीकार करने पर आत्मा जैसा पहले अज्ञाता था वैसा ही ज्ञान की उत्पत्ति के समय भी रहेगा । ऐसी दशा में आत्मा पहले अज्ञाता था तो बाद में पदार्थों का ज्ञाता कैसे होगा ?, क्यों कि आप के मत के अनुसार प्रतिनियत स्वरूप से च्युत न होना - जैसा का तैसा ही बना रहना - कूटस्थता है । अगर बाद में आत्मा को पदार्थों का ज्ञाता स्वीकार करते हो तो पहले जो अज्ञाता था, उस का ज्ञाता के रूप में परिणमन हो गया अतः कूटस्थनित्यता नष्ट हो गई । अत एव आत्मा को परिणामी अवश्य मानना चाहिए | आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं वरन् परिणामी नित्य है ।
(६) आत्मा का प्रभुत्व ---
निचयनय से आत्मा मोक्ष और मोक्ष के कारणरूप
शुद्ध परिणामों के लिए
આ વિશેષણથી આત્માની ફૂટસ્થનિત્યતાનું નિરાકરણ્યું છે. આત્મા ફૂટસ્થ નિત્ય છે” એવા સ્વીકાર કરવાથી આત્મા જેવા પહેલાં હતેા તેવા જ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિના સમયમાં પણ રહેશે, એવી દશામાં આત્મા પહેલાં અજ્ઞાતા હતા તેા પછી પદાર્થોના ક્ષાતા કેવી રીતે થશે?, કેમકે આપના મત પ્રમાણે પ્રતિનિયત સ્વરૂપથી ચુત નહિ થતાં જેવા છે તેવા જ બની રહે તે ફૂટસ્થતા છે. અગર તેા પછીથી આત્માને પદાર્થોના જ્ઞાતા સ્વીકાર કરે છે. તે પ્રથમ જે અજ્ઞાતા હતા તેનુ જ્ઞાતાના રૂપમાં પશુમન થઈ ગયું, તેથી ફૂટસ્થરૂપ નિયતા નાશ પામી ગઈ, આ કારણથી આત્માને પરિણામી અવશ્ય માનવા જોઈએ. આત્મા ફૂટસ્થ નિત્ય નથી પરંતુ પરિણામી નિત્ય છે.
(९) आत्मानुलुलનિશ્ચય નય પ્રમાણે આત્મા મેક્ષ અને મેક્ષના કારણરૂપ
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ . ५. आत्मवादिप्र०
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औदारिकादिशरीरस्य कर्त्ताऽस्ति, आदिमत्प्रतिनियताकारित्वात् कुम्भस्य यथा कुलालः । यत्पुनरकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथाऽभ्रविकारः । यथ शरीरस्य कर्त्ता स आत्मा, इत्येवमात्मनः कर्तृत्वं सिध्यति । अत्रादिमत्त्व विशेषणं मेर्वादीनुपादाय हेतोरनैकान्तिकत्ववारणाय ।
यद्वा-आत्मा
कर्ता, स्वकर्मफलभोक्तत्वात् वणिक्कूपीचलादिवत् । आत्मा स्वकृतकर्मफलभोक्ता तस्मात् कर्ता, यथा वणिक्कृपीवलादयोऽकृतकर्मणः फलं न प्राप्नुवन्ति ।
इस औदारिकादि शरीर का कोई कर्ता है, क्यों कि औदारिकादि शरीर आदिमान् और प्रतिनियत आकारवाला है, जैसे- घडेका कर्ता कुंभार । जो वस्तु विना कर्ता की होती है वह आदिमान् और नियत आकार वाली नहीं होती, जैसे- बादल का विकार । जो शरीर का कर्ता है, वह आत्मा है । इस प्रकर आत्मा का कर्तृत्व सिद्ध होता है । यहाँ " आदिमत् ' विशेषण से मेरु आदि से होने वाले अनेकातिन्क दोषका निवारण किया गया है, क्यों कि वे आदिमान् नहीं है ।
अथवा आत्मा कर्ता है, क्यों कि वह अपने कर्मों का भोक्ता है, जैसे वणिक् या किसान। आत्मा अपने कर्मों के फलका भोक्ता है इस कारण कर्ता है । जैसे - वणिक् या किसान आदि विना किये कर्म का फल नहीं भोगते, इसी प्रकार आत्मा विना किये कर्म का फल नहीं भोगता ।
આ ઔકારિકાદિ શરીરના કેાઇ કર્યાં છે, કારણ કે ઔદારિકાદિ શરીર, આદિમાન્ અને પ્રતિનિયત આકાર વાળુ' છે, જેમ ઘડાના કર્તા કુંભાર. જે વસ્તુ કર્યાં વિનાની હોય છે, તે આદિમાન્ અને નિયત આકાર વાળી હોય નહિ, જેમ વાદળને વિકાર. જે શરીરના કર્તા છે તે આત્મા છે. એ પ્રકારે આત્માનું કર્તૃત્વ સિદ્ધ થાય છે. અહીં' ‘ આદિત્’ વિશેષણથી મેરુ આદિથી થવા વાળા અનેકાન્તિક દોષનું નિવારણ यु" छे, शरयु } ते 'माहिभान्' नथी.
અથવા—આત્મા કર્તા છે, કારણ કે તે પેાતાના કર્મોના ભેાકતા છે. જેમ વર્ણિમ્ અથવા ખેડુત. આત્મા પેાતાનાં કર્મોનાં લને ભેાકતા છે, તે કારણથી કર્તા છે, જેમ વિક્ અથવા ખેડુત આદિ, કર્મ કર્યાં વિના કનુ ફળ ભેાગવતા નથી. તે પ્રમાણે આત્મા કમ કર્યા વિના તેનુ ફળ ભોગવતા નથી.
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आचारात्सूत्रे
किच- आत्मा स्वस्य हितं कर्तुमन्यं नापेक्षते; स्वयमेव स्वहितसाधने क्षमः, अत एवात्मनः प्रभुत्वं सिध्यति, तस्मात् स्वहितमिच्छुना मोक्षप्राप्तिकारणीभूते तपःसंयमाराधने प्रवर्तितव्यम् ।
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(७) कर्तुवनिरूपणम्
अयमात्मा - अदृष्टादिकर्मकरणात्, निश्चयन येन शुद्धभावकर्तृत्वात्, व्यवहारनयतो द्रव्यभावकर्मणा नोकर्मचारीरादीनां कर्तृत्वाच्च कर्तेत्युच्यते । आत्मैकान्तरूपेणाऽकर्तेति सांख्यमतमपाकर्तुमुक्तम् -' आत्मा कर्ते'ति ।
दूसरी बात यह है कि आत्मा अपना कल्याण करने में अन्य की अपेक्षा नहीं रखता । वह स्वकीय कल्याण- साधन में स्वयं समर्थ है। इसी से आत्मा का प्रमुख सिद्ध होता है । अतः आम हित के अभिलापी पुरुष को मोक्षकारणभूत तप और संयम की आराधना में प्रवृत्त होना चाहिए ।
(७) आत्माका कल
यह आत्मा अष्ट आदि कर्म करने से, निश्चयनय की अपेक्षा शुद्ध भावों का कर्चा होने से; तथा व्यवहारनय से द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म - बाह्यशरीर आदिका कर्ता होने से कर्ता कहलाता है,
"
'आत्मा एकान्तरूप से अकर्ता है' सांख्य के इस मत का निराकरण करने के लिए आत्मा को कर्ता विशेषण लगाया है ।
બીજી વાત એ છે કે:-આત્મા પોતાનું કલ્યાણ કરવામાં મીજાની અપેક્ષા રાખતા નથી, તે પોતાના કલ્યાણુસાધનમાં પોતે જ સમય છે, તે કારણથી આત્માનું પ્રભુત્વ સિદ્ધ થાય છે. એ ક્ષરણથી આત્મહિતના અભિલાષી પુરૂષાએ મેાક્ષના કારણભૂત તપ અને સયમની આરાધનામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ.
(१) आत्मानु उ-
આ આત્મા અષ્ટ આદિ કર્મો કરવાથી, નિશ્ચયનયની અપેક્ષાએ શુદ્ધ ભાવાના કર્યાં હાવાથી તથા વ્યવહારનયી દ્રવ્યકમ, ભાવકમ તથા નાકમ-ખાદ્યશરીર આદિના કોં હાવાથી કર્તા કહેવાય છે.
“ આત્મા એકાન્તરૂપથી અકત્તો છે.” સાંખ્યના આ મતનું નિરાકરણ કરવા માટે આત્માને કર્તા વિશેષણ આપ્યું છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ .५. आत्मवादिम० अकर्तृत्वाच्च तस्य सांसारिकविषयसुखानामभोक्तृत्वं च सिध्यति । प्रकृते हि कर्तृशब्देनादृप्टादिजनककर्मण एव कर्तृत्वं विवक्षितम् , तेन मुक्तात्मनि नातिप्रसंगः । तथा च यः सांसारिकमुखदुःखाद्यनुभविता स एव तत्कारणीभूतकर्मणः कर्ता, अकर्तुभॊक्तत्वानुपपत्तेः।
(८) भोक्तत्वसिद्धिःअयमेवात्मा मोहोदयेन शुद्धमात्मस्वभावं विस्मृत्य परवस्तुनि मोहितः सन् रागद्वेपं करोति, रागद्वेपवशोऽहनिशं नवनवविपयसंग्रहार्थ प्रयतमानस्तद्वियोगे सति चिन्ताव्याकुलितचेता आर्तरौद्रध्यानमुपगतः स्वात्मनि कर्मरजः विषयसुख आदि के जनक कर्मों के कर्ता नहीं हैं, इस कारण वे अकर्ता हैं । और अकर्ता होने के कारण वे सांसारिक विषयसुखों के भोक्ता भी नहीं हैं। यहाँ 'कर्ता' शब्द से अदृष्ट आदि के जनक कर्मों का कर्ता ही विवक्षित है, अतः मुक्त आत्मा में अतिप्रसङ्ग नहीं आता, अत एव सिद्ध हुआ कि जो सांसारिक सुख-दुःख आदि का भोक्ता होता है, वही उन के कारणभूत कर्म का कर्ता भी होता है। जो कर्ता नहीं है वह भोक्ता भी नहीं है।
(८) आत्मा का भोर्तृत्व आत्मा मोह के उदय से शुद्ध आत्मस्वरूप को भूलकर पर-पदाथो में मोहित होता हुआ राग-देप करता है। राग-द्वेप के वश हो कर रात-दिन नवीन - नवीन विषयों का संग्रह करने के लिए प्रयत्नशील होता हुआ, और उनका वियोग होने
पर चिन्ता से व्याकुलचित हो कर आर्तध्यान और रौद्रध्यान को प्राप्त होता है, और इस ~ સંસારના વિષય સુખ વગેરેને ઉત્પન્ન કરનાર કર્મોને કર્તા નથી. એ કારણથી તે આત્મા અકર્તા છે, અને અકર્તા હોવાના કારણે તે સંસારના વિષયસુખના ભોકતા પણ નથી. અહિં કિર્તા શબ્દથી અદષ્ટ આદિના જનક કર્મોને કર્તા જ વિવક્ષિત છે. તેથી મુકત આત્મામાં અતિપ્રસંગ આવતું નથી. એ કારણથી એમ સિદ્ધ થયું કે જે સંસારના સુખ-દુખ વગેરેને ભોકતા છે, તે એના કારણભૂત કર્મોને કર્તા પણ હોય છે, જે કર્તા નથી તે ભોકતા પણ નથી.
(८) मात्भानु मायઆત્મા મેહના ઉદયથી શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપને ભૂલી જઈને પર-પદાર્થોમાં મોહિત થઈને રાગ-દ્વેષ કરે છે, રાગ-દ્વેષને વશ થઈને રાત્રી અને દિવસ નવા-નવા વિષયોને સંગ્રહ કરવા માટે પ્રયત્નશીલ રહેતે થક, અને તેને વિગ થતાં ચિત્તાથી વ્યાકુલ– ચિત્ત થઈને આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન ને પ્રાપ્ત થાય છે, અને તે કારણથી પિતાના
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भचारात्सूत्रे
यद्वा - आत्मा सुकृतदुष्कृतकर्मणामकर्ता न भवति, सुकृतदुष्कृतकर्मफलरूपसुखदुःखानुभवात् । अकर्तुरात्मनः सुखदुःखानुभवो न युज्यते, तथा सति अतिमसंगात् । मुक्तानामपि सांसारिकगुखदुःखानुभवापत्तेः, अकर्तृत्वाऽविशेषात् ।
अनुभवितृत्वेन भोक्तृत्वसिद्धिः, भोक्तृत्वेन च कर्तृत्वसिद्धिः । यद्ययमात्मा कर्ता न भवेत्तदाऽनुभविताऽपि न भवेत् । न चानुभवितुः कर्तृत्वस्वीकारे मुक्तस्यापि कर्तृत्वमसङ्गः, इति वाच्यम्, मुक्तात्मनः साक्षिरूपेणानुभवसरवेऽपि द्रव्यभावकर्मरहितत्वादेव सांसारिक विषयमुखादिजनककर्मकर्तृत्वासंमवेनाकर्तृत्वात्,
अथवा - आत्मा सुकृत और दुष्कृतरूप कर्मों का अकर्ता नहीं है, क्यों कि वह अपने सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख का अनुभव करता है । आमा अकर्ता होता तो उसे सुख-दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए था । कर्ता न होने पर भी फल का भोक्ता मानने से गडबडी मच जायगी। फिर तो मुक्त जीवों को भी सांसारिक सुख और दुःख भोगना पडेगा, क्यों कि वे भी अकर्ता हैं ।
आत्मा अनुभव करने वाला होने के कारण भोक्ता सिद्ध होता है और भोका होने के कारण कर्ता सिद्ध होता है । आत्मा कर्ता न होता तो अनुभविता ( अनुभव करनेवाला ) भी न होता । ' अनुभव करनेवाले को कर्ता मानने पर मुक्तात्मा को भी कर्तापन का प्रसङ्ग आयगा ' ऐसा कहना उचित नहीं है, क्यों कि मुक्तात्माओं को साक्षीरूपसे अनुभव होने पर भी, द्रव्य-भाव को से रहित होने के कारण सांसारिक
અથવા આત્મા સુકૃત અને દુષ્કૃત-રૂપ કર્મોના અકર્તા નથી, કારણ કે તે પેાતાના સુકૃત અને દુષ્કૃત રૂપ કના ફલસ્વરૂપ સુખ-દુઃખના અનુભવ કરે છે. આત્મા અકર્તા હોત તે તેને સુખ-દુઃખના અનુભવ નહિ થવા જોઈએ. કર્તાન હાવા છતાંય પણ ફેલના ભાકતા હૈાવાથી ગડબડ થઈ જશે. ફરી તે મુકત જીવાને પણ સ'સારનું સુખ અને દુઃખ લાગવવુ' પડશે, કારણ કે તે પણ અકર્તા છે.
આત્મા અનુભવ કરવા વાળો હાવાથી ભેાકતા સિદ્ધ થાય છે, અને ભેકતા હાવાના કારણે કર્તા સિદ્ધ થાય છે. આત્મા કર્તા ન હોય તે અનુભવતા (અનુભવ કરવા વાળો) ન હોય. ‘અનુભવ કરવા વાળાને કર્તા માનવાથી મુતાત્માને પણું કર્તાપણાના પ્રસંગ આવશે,” એમ કહેવું તે ઉચિત નથી. કારણ કે મ્રુતાત્માઓને સાક્ષીરૂપ અનુભવથી હાવા છતાંય દ્રવ્ય, ભાષ કર્મોથી રહિત હોવાના કારણે તે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ सू.५ आत्मवादिप्र०
२५५ प्रतिविम्बोदयासंभवात् । स्फटिकदर्पणादावपि परिणामेनैव प्रतिविम्योदयसमर्थनात् । तादृशपरिणामाङ्गीकारे च जीवस्य कर्तृत्वं, स्वत एव भोक्तृत्वं च सिद्धम् ।
(९) आत्मनः स्वशरीरपरिमाणत्वम्अयमात्मा स्वशरीरपरिमाणः। निश्चयनयेन लोकाकाशपरिमाणोऽसंख्यातमदेशी च। बहारनयतः शरीरनामकर्मोदयाज्जातेन सूक्ष्मशरीरेण स्थूलशरीरेण वा समानपरिमाणो भवति, तस्मादयं स्वशरीरपरिमाण इत्युच्यते । नहीं पड सकता । स्फटिक तथा दर्पण आदि में जो प्रतिविम्य पडता है सो परिणामी होने के कारण ही पड़ता है। स्फटिक आदि एकान्त अपरिणामी होते तो उन में किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं पड सकता था। इस प्रकार का परिणाम स्वीकार कर लेने पर जीव में कर्तापन सिद्ध हो जायगा और फिर भोक्तापन भी स्वतः सिद्ध हो जायगा।
(९) आत्माका शरीरपरिमाणआत्मा प्राप्त शरीर के बराबर है, अर्थात् शरीर का जो परिमाण है। वही आत्मा का भी परिमाण है। आत्मा निश्चयनय से लोकाकाश के वरावर असंख्यात प्रदेशी है । व्यवहारनय से शरीरनामकर्म के उदय से प्राप्त हुए सूक्ष्म या स्थूल शरीर का जो परिमाण है उसी परिमाणवाला आत्मा है, अत एव आत्मा शरीर परिमाण कहलाता है। તથા દર્પણુ આદિમાં જે પ્રતિબિમ્બ પડે છે, તે પરિણામી હોવાના કારણે પડે છે.
સ્ફટિક આદિ જે એકાન્ત અપરિણામી હેત તો તેમાં કઈ પણ વસ્તુનું પ્રતિબિંબ પંડી શકત નહી. આ પ્રમાણે પરિણામ સ્વીકાર કરી લેવાથી જીવમાં કતોપણું સિધ્ધ થઈ જશે, અને ભકતાપણું પણ સ્વતઃ સિધ્ધ થઈ જશે.
(e) मात्मानु शरी२प्रमाणઆત્મા પ્રાપ્ત શરીરની બરાબર છે, અર્થાત્ શરીરનું જે પરિમાણ છે તે આત્માનું પણ પરિમાણ છે. આત્મા નિશ્ચયનયથી લોકાકાશની બરાબર અસંખ્યાતપ્રદેશી છે. વ્યવહારનયથી શરીર–નામકર્મના ઉદયથી પ્રાપ્ત થયેલ સૂક્ષમ અથવા સ્કૂલ શરીરનું જે પરિમાણ છે. તે પરિમાણ વાળો આત્મા છે. એટલા માટે આત્મા શરીરપરિમાણુ કહેવાય છે.
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आचारागाने समुपादत्ते। यथा कोऽप्यज्ञानी व्याधिनिदानभूतमपथ्यमश्नन्अवान्छितमपि.ज्वरादिकं स्वयमुत्पादयति, तथाऽयमात्मा फर्मवन्धनमवान्छन्नप्यातरीद्रध्यानवशेन कर्मबन्धनं माप्नोति । यथा कर्मबन्धनं स्वयमेवादत्ते, तथा तत्फलमपि चाय कित्रिन्निमित्तमपेक्ष्य स्वयमेवोपभुज्यते । एवं चात्मनो मोक्तृत्व सिध्यति । भोक्तृत्वाच्च कर्तृसमपि तस्य निर्वाधम् ।
सांख्यसिद्धान्ते प्रकृतेः फर्तृलं, न तु जीवस्य, भोक्तृलं चापि जीवस्योपचरितमेव । दर्पणाकारायां बुद्धौ संक्रान्तानां सुखदुःखादीनां स्वात्मनि कारण अपनी आत्मा में कर्म-रज इकट्ठी कर लेता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य रोग के कारणभूत अपथ्य का सेवन करता हुआ न चाहते हुए भी ज्वर आदि को उत्पन्न कर लेता है, उसी प्रकार प्रात्मा कर्मवन्धन की इच्छा न कर के भी आत-रौद्रध्यान के अधीन होकर कर्मवन्ध को प्राप्त होता है। जैसे कर्मबन्ध को आत्मा स्वयं ग्रहण करता है, उसी प्रकार किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा से उसका फल भी स्वयं ही भोगता है। इसी प्रकार आत्मा में भोक्तापन सिद्ध होता है, और भोका होने से उस में कर्तापन भी विना किसी बाधा के सिद्ध हो जाता है ।
सांख्यमत से प्रकृति कर्ता है, जीव नहीं, और भोक्तापन जीव में उपचार से है। दर्पणाकार बुद्धि में प्रतिबिम्बित होने वाले सुख-दुःख आदि का आत्मा में प्रतिबिम्ब આત્માને વિષે કર્મ-રજ (કર્મના રજકણે) એકઠી કરી લે છે, જેમ અજ્ઞાની મનુષ્ય રોગના કારણભૂત અપથ્યનું (રોગ ઉત્પન્ન કરે તેવું) સેવન કરીને, પોતે ઈચ્છતું નથી તે પણ જવર (તાવ) આદિને ઉત્પન્ન કરી લે છે. તે પ્રમાણે આત્મા કર્મબંધનની ઈચ્છા નહિ કરવા છતાંય પણ આ-રૌદ્ર ધ્યાનને આધીન થઈને કર્મ બંધનને પ્રાપ્ત થાય છે. જેવી રીતે કર્મબંધનને આત્મા પિતે જ ગ્રહણ કરે છે, તે પ્રમાણે કઈ બાહ્ય નિમિત્તની અપેક્ષાથી તેનું ફલ પણ પોતે જ ભોગવે છે. એ પ્રમાણે આત્મામાં ભોકતાપણું સિદ્ધ થાય છે. અને ભોકતા હોવાથી તેમાં કોઈ પ્રકારની બાધા વિના કર્તાપણું પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે.
સાંખ્યમત પ્રમાણે પ્રકૃતિ કર્તા છે, જીવ કતો નથી. ભક્તાપણું તે પણ જીવમાં wારથી છે. દર્પણકાર બુદ્ધિમાં પ્રતિબિસ્મિત (પ્રતિબિંબરૂપે) થવાવાળા દેખાવવાવાળા) સુખ-દુઃખ આદિનું પ્રતિબિંબ આત્મામાં પડી શકતું નથી ટિક
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ सू.५ आत्मवादिप्र० । प्रतिविम्बोदयासंभवात् । स्फटिकदर्पणादायपि परिणामेनैव प्रतिविम्योदयसमर्थनात् । ताशपरिणामाङ्गीकारे च जीवस्य कर्तृत्वं, स्वत एव मोक्तृत्वं
च सिद्धम् ।
(९) आत्मनः स्वशरीरपरिमाणत्वम्अयमात्मा स्वशरीरपरिमाणः। निश्चयनयेन लोकाकाशपरिमाणोsसंख्यातमदेशी च। व्यहारनयतः शरीरनामकर्मोदयाज्जातेन मुक्ष्मशरीरेण स्थूलशरीरेण वा समानपरिमाणो भवति, तस्मादयं स्वशरीरपरिमाण इत्युच्यते । नहीं पड सकता । स्फटिक तथा दर्पण आदि में जो प्रतिबिम्ब पडता है सो परिणामी होने के कारण ही पड़ता है। स्फटिक आदि एकान्त अपरिणामी होते तो उन में
किसी भी वस्तु का प्रतिविम्ब नहीं पड सकता था। इस प्रकार का परिणाम स्वीकार ___ कर लेने पर जीव में कपिन सिद्ध हो जायगा और फिर भोक्तापन भी स्वतः सिद्ध हो जायगा।
(९) आत्माका शरीरपरिमाणआत्मा प्राप्त शरीर के बराबर है, अर्थात् शरीर का जो परिमाण है। वही आत्मा का भी परिमाण है। आत्मा निश्चयनय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशी है । व्यवहारनय से शरीरनामकर्म के उदय से प्राप्त हुए सूक्ष्म या स्थूल शरीर का जो परिमाण है उसी परिमाणवाला आत्मा है, अत एव आत्मा शरीर परिमाण कहलाता है। તથા દર્પણ આદિમાં જે પ્રતિબિમ્બ પડે છે, તે પરિણામી હોવાના કારણે પડે છે. ફટિક આદિ જે એકાન્ત અપરિણામી હતી તે તેમાં કઈ પણ વસ્તુનું પ્રતિબિંબ પડી શત નહી. આ પ્રમાણે પરિણામ સ્વીકાર કરી લેવાથી જીવમાં કર્તાપણું સિધ્ધ य श, मन ताप पर स्वत: सिध्ध यई शे.
(E) भानु शरी२५माઆત્મા પ્રાપ્ત શરીરની બરાબર છે, અર્થાત્ શરીરનું જે પરિમાણ છે તે આત્માનું પણ પરિમાણ છે. આત્મા નિશ્ચયનયથી કાકાશની બરાબર અસંખ્યાતપ્રદેશી છે. વ્યવહારનયથી શરીર-નામકર્મના ઉદયથી પ્રાપ્ત થએલ સૂકમ અથવા સ્કૂલ શરીરનું જે પરિમાણ છે. તે પરિમાણ વાળો આત્મા છે. એટલા માટે આત્મા 'शरीरपरिभाएर ४उपाय छे.
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आचाराने समुपादत्ते। यथा कोऽप्यज्ञानी व्याधिनिदानभूतमपथ्यमनमान्छितमपि ज्वरादिकं स्वयमुत्पादयति, तथाऽयमात्मा फर्मवन्धनमवान्छन्नप्यातरीदव्यानयशेन कर्मबन्धनं माप्नोति । यथा कर्मवन्धनं स्वयमेवादत्ते, तथा तत्फलमपि माझं कित्रिलिमिनमपेक्ष्य स्वयमेवोपभुल्यते । एवं चात्मनो भोक्तृत्व सिध्यति । भोक्तृत्वाच्च कतृसमपि तस्य निर्वाधम् ।
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सांख्यसिद्धान्ते प्रकृतेः कर्तृत्व, न तु जीवस्य, भोक्तृतं चापि जीवस्योपचरितमेव । दर्पणाकारायां युद्धौ संक्रान्तानां मुखदुःखादीनां स्वात्मनि कारण अपनी आत्मा में कर्म-रज इकट्ठी कर लेता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य रोग के कारणभूत अपथ्य का सेवन करता हुआ न चाहते हुए भी ज्वर आदि को उत्पन्न कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा कर्मवन्धन की इच्छा न कर के भी आर्त-रौद्रध्यान के अधीन होकर कर्मबन्ध को प्राप्त होता है। जैसे कर्मवन्ध को आमा स्वयं प्रहण करता है। उसी प्रकार किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा से उसका फल भी स्वयं ही भोगता है। इसी प्रकार आत्मा में भोक्तापन सिद्ध होता है, और भोका होने से उस में कर्तापन मा विना किसी बाधा के सिद्ध हो जाता है।
सांख्यमत से प्रकृति कर्ता है, जीव नहीं, और भोक्तापन जीव में उपचार से है। दर्पणाकार बुद्धि में प्रतिविम्बित होने वाले सुख-दुःख आदि का आत्मा में प्रतिबिम्ब આત્માને વિષે કરજ (કર્મના રજકણે) એકઠી કરી લે છે, જેમ અક્ષાના મનુષ્ય રેગના કારણભૂત અપથ્યનું (રોગ ઉત્પન્ન કરે તેવું સેવન કરીને, પોd ઈચ્છતો નથી તે પણ જવર (તાવ) આદિને ઉત્પન્ન કરી લે છે. તે પ્રમાણે આમ કર્મબંધનની ઇચ્છા નહિ કરવા છતાંય પણ આનં–રૌદ્ર ધ્યાનને આધીન થઈને કમ બંધનને પ્રાપ્ત થાય છે. જેવી રીતે કર્મબંધનને આત્મ પિતે જ ગ્રહણ કરે છે, તે પ્રમાણે કઈ બાદ નિમિત્તની અપેક્ષાથી તેનું ફલ પણ પિતે જ ભોગવે છે. એ પ્રમાણે આત્મામાં ભોકતાપણું સિદ્ધ થાય છે. અને ભોકતા હોવાથી તેમાં કોઈ પ્રકારની બધા વિના કર્તાપણું પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે.
સાંખ્યમત પ્રમાણે પ્રકૃતિ કર્તા છે, જીવ કતાં નથી. ભક્તાપણું તે પણ જીવમાં ઉપચારથી છે. દપણાકાર બુદ્ધિમાં પ્રતિબિસ્મિત (પ્રતિબિંબરૂપે થવાવાળા દેખાવવાવાળા) સુખ-દુઃખ આદિનું પ્રતિબિંબ આત્મામાં પડી શક : ઘી, કટિક
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू.५. आत्मवादिन व्यापित्वं, तत् कादाचित्कमिति न तेन व्यभिचारः । । आत्मा श्यामाकतण्डुलमात्रो न भवति, अङ्गष्ठपर्वमात्रो वा न भवति,
मात्रस्योपात्तशरीरव्यापित्वात् , तिले तैलवत् त्वपर्यन्तशरीरव्यापित्वेन । भ्यमानगुणत्वात् , तस्मादुपात्तशरोरे त्वपर्यन्तशरीरव्यापीति सिद्धम् ।
___(१०) अमूर्तत्वनिरूपणम्-- त्मिा अमूर्तः, इन्द्रियैरग्राह्यत्वात् , खड्गादिभिरच्छेद्यत्वात् , शूलादिभिरभेद्यरहितत्वात् , अनाद्यमूर्तपरिणामत्वात् , नित्यत्वात् । कभी-कभी होनेवाला) है, उस से व्यभिचार नही आता । . श्यामाक धान्यकण बराबर नहीं है, न अंगूठे के पर्व (पोर) के बराबर ही है,
एक साथ समस्त शरीर में व्यापक नहीं हो सकता, मगर आत्मा के र में उपलब्ध होते हैं, जैसे तिलों में तेल सर्वत्र पाया जाता है, अत एव मा प्राप्त शरीर में त्वचापर्यन्तव्यापी है ।
(१०) आत्मा का अमूर्तत्वहै, क्यों कि वह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता, वह खड्ग सकता, शूल आदि से भेदा नहीं जा सकता. वह अरूपी है, रिणामवाला है और वह नित्य है । , तभी व्यलिया२ मावत नथी. અન્યના કણ બરાબર નથી; તેમજ અંગૂઠાના પર્વ (પિર) આમા એક સાથે સમસ્ત શરીરમાં વ્યાપક થઈ શકતે તે સંપૂર્ણ શરીરમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, જેમ તલમાં થી એ સિદ્ધ થયું કે આત્મા આ પ્રાપ્ત શરીરમાં
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आचाराङ्गो समुपादने। यथा कोऽप्यमानी व्याधिनिदानभृतमपध्यमश्ननअवान्छितमपि जरादिक स्वयमुत्पादयति, तथाऽयमात्मा कर्मबन्धनमवान्छन्नप्यात द्रव्यानवशेन कर्मबन्धन प्राप्नोति । यथा कर्मवन्धनं स्वयमेवादत्ते, तथा तत्फलमपि चाही कित्रिन्निमितमपेक्ष्य स्वयमेवोपभुयते । एवं चात्मनो भोक्तृत्व सिध्यति । भोक्तृत्वाच्च कतेसमपि तस्य निर्वाधम् ।
सांख्यसिद्धान्ते प्रकृतेः कर्तृत्व, न तु जीवस्य, भोक्तृतं चापि जीवस्योपचरितमेव । दर्पणाकारायां युद्धी संक्रान्तानां मुखदुःखादीनां स्वात्मनि कारण अपनी आमा में कर्म-रज इकट्ठी कर लेता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य रोग के कारणभूत अपथ्य का सेवन करता हुमा न चाहते हुए भी व्यर आदि को उत्पन्न कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा कर्मवन्धन की इध्यान कर के भी आत-रौद्रध्यान के अधीन होकर कर्मवन्ध को प्राप्त होता है। जैसे कर्मबन्ध को मामा स्वयं ग्रहण करता है। उसी प्रकार किसी बाा निमित्त की अपेक्षा से उसका फल भी स्वयं ही भोगता है। इसी प्रकार आमा में भोक्तापन सिद्ध होता है, और मोका होने से उस में कर्तापन भी विना किसी बाधा के सिद्ध हो जाता है।
सांख्यमत से प्रकृति कर्ता है, जीव नहीं, और भोक्तापन जीव में उपचार से है। दर्पणाकार बुद्धि में प्रतिबिम्बित होने वाले सुख-दुःख आदि का आत्मा में प्रतिबिम्ब આત્માને વિષે કર્મ—રજ (કર્મના રજકણે) એકઠી કરી લે છે, જેમ અજ્ઞાની મનુષ્ય રોગના કારણભૂત અપચનું (રાગ ઉત્પન્ન કરે તેવું) સેવન કરીને, પોતે ઈચ્છતું નથી તે પણ જવર (તાવ) આદિને ઉત્પન્ન કરી લે છે. તે પ્રમાણે આત્મા કર્મબંધનની ઈચ્છા નહિ કરવા છતાંય પણ આર્ત-રૌદ્ર યાનને આધીન થઈને કેમ બંધનને પ્રાપ્ત થાય છે. જેવી રીતે કર્મબંધનને આત્મા પિતે જ ગ્રહણ કરે છે, તે પ્રમાણે કઈ બાહ્ય નિમિત્તની અપેક્ષાથી તેનું ફલ પણ પોતે જ ભગવે છે. એ પ્રમાણે આત્મામાં ભોકતાપણું સિદ્ધ થાય છે. અને ભકતા હોવાથી તેમાં કોઈ પ્રકારની બાધા વિના કર્તાપણું પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે.
સાંખ્યમત પ્રમાણે પ્રકૃતિ કર્યા છે, જીવ કર્તા નથી. તાપણું તે પણ જીવમાં ચારથી છે. દર્પણકાર બુદ્ધિમાં પ્રતિબિસ્મિત (પ્રતિબિંબરૂપે) થવાવાળા દેખાવવાવાળા) સુખ-દુઃખ આદિનું પ્રતિબિંબ આત્મામાં પડી શકતું નથી, સ્ફટિક
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ मू.५. आत्मवादिन० ____२५९ सर्वव्यापित्वं, तत् कादाचित्कमिति न तेन व्यभिचारः।
आत्मा श्यामाकतण्डुलमात्रो न भवति, अङ्गष्ठपर्वमात्रो वा न भवति, तावन्मात्रस्योपात्तशरीरव्यापित्वात् , तिले तैलवत् त्वक्पर्यन्तशरीरव्यापित्वेन चोपलभ्यमानगुणत्वात् , तस्मादुपात्तशरोरे वनपर्यन्तशरीरव्यापीति सिद्धम् ।
(१०) अमूर्तत्वनिरूपणम्आत्मा अमूर्तः, इन्द्रियैरग्राह्यत्वात् , खड्गादिभिरच्छेद्यत्वात् , शूलादिभिरभेद्यत्वात् , रूपरहितत्वात् , अनायमूर्तपरिणामत्वात् , नित्यत्वात् । कादाचित्क (कभी-कभी होनेवाला) है, उस से व्यभिचार नही आता ।
आत्मा श्यामाक धान्यकण घरावर नहीं है, न अंगूठे के पर्व ( पोर) के बराबर ही है, इतना सा आत्मा एक साथ समस्त शरीर में व्यापक नहीं हो सकता, मगर आत्मा के गुण तो संपूर्ण शरीर में उपलब्ध होते हैं, जैसे तिलों में तेल सर्वत्र पाया जाता है, अत एव सिद्ध हुआ कि आत्मा प्राप्त शरीर में त्वचापर्यन्तव्यापी है ।
(१०) आत्मा का अमूर्तत्वआत्मा अमूर्त है, क्यों कि वह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता, वह खड्न आदि से छेदा नहीं जा सकता, शूल आदि से भेदा नहीं जा सकता, वह अरूपी है, अनादि काल से अमूर्त परिणामवाला है और वह नित्य है । (दायित थवावा) छे, तेमां व्यलियार भावतो नथी.
આત્મા શ્યામાક ધાન્યના કણ બરાબર નથી; તેમજ અંગૂઠાના પર્વ (પર) બરાબર પણ નથી. એટલે આત્મા એક સાથે સમસ્ત શરીરમાં વ્યાપક થઈ શકતો નથી, પરંતુ આત્માના ગુણ તે સંપૂર્ણ શરીરમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, જેમ તલમાં તેલ સર્વત્ર હોય છે. એ કારણથી એ સિદ્ધ થયું કે આત્મા આ પ્રાપ્ત શરીરમાં વચાચામડી સુધી વ્યાપી રહેલે છે.
(१०) मामा अभूतव આત્મા અમૂર્ત છે. કારણ કે તે ઈન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાતું નથી, ખડગ (તલવાર) આદિથી છેદી શકાતું નથી, ફૂલ આદિથી ભેદી શકાતું નથી, અરૂપી છે, અનાદિ કાલથી અમૂર્ત પરિણામવાળો છે. અને તે નિત્ય છે.
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आचाराने गुणानामसद्भाय इति सर्वः स्वीकारात् । शरीरे तद्गुणसत्त्वे हेतो मसिदता, इत्थं च देहाद् यहिर्देशेऽपि आत्माऽस्तीति पादं परित्यज्य स्वदेह एवात्मास्तीति मन्तव्यम् ।
यद्वा-आत्मा व्यापको न भवति चेतनत्वात् , यत्तु व्यापकं तम वेतनम् । यथा गगनम् । चेतनं चात्मा, तस्मान्न व्यापकः । इत्यमन्यापकत्वे सिद तस्य तत्रैवोपलभ्यमानगुणत्वे कायप्रमाणवाऽपि सिद्धा। यत् पुनरप्टसमयसाध्य ।
केवलिसमुद्घातावस्थायामाईतानामपि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकन्यापिरवेनात्मनः रिक्त देश में बुद्धि आदि गुणों का सदभाव नहीं है, ऐसा सभी ने स्वीकार किया है। शरीर में आत्मा के गुणों का अस्तित्व है ही, अत एव हेतु असिद्ध नहा है । इस प्रकार शरीर से बाहर आत्मा का अस्तित्व मानना छोड कर स्वदेह में हा अस्तित्व मानना चाहिए.
अथवा--आत्मा व्यापक नहीं है, क्या कि वह चेतन है। जो व्यापक होता है वह चेतन नहीं होता, जैसे आकाश । आमा चेतन है; अतः व्यापक नहीं है।
इस से आत्मा की अव्यापकता सिद्ध हो जाने पर पूर्वोक्त हेतु से (क्यों कि शरीर में ही उस के गुण पाये जाते हैं, इस हेतु से ) आत्मा की शरीरप्रमाणता भी सिद्ध हो जाती है। आठ समय में सम्पन्न होने वाले केवलिसमुद्धात को अवस्था में चौदहराजू लोक में आत्मा का व्याप्त हो जाना जो यहाँ माना है, वह નહિ. કારણ કે દેહથી અતિરિક્ત (દેહ સિવાય) દેશમાં બુદ્ધિ આદિ ગુણેને સદ્દભાવ નથી. એ પ્રમાણે સૌએ સ્વીકારેલું છે. શરીરમાં આત્માના ગુણનું અસ્તિત્વ છે જ, એ કારણથી હેતુ અસિદ્ધ નથી. આ પ્રમાણે શરીરની બહાર આત્માનું અસ્તિત્વ માનવું ત્યજીને પિતાના દેહમાં જ અસ્તિત્વ માનવું જોઈએ.
અથવા આત્મા વ્યાપક નથી, કારણ કે તે ચેતન છે. જે વ્યાપક હોય છે તે ચેતન હોય નહિ, જેમ આકાશ, આત્મા ચેતન છે તે કારણથી વ્યાપક નથી.
આ હિતુથી આત્માની અવ્યાપકતા સિદ્ધ થવાથી પૂર્વોક્ત હેતુથી (કેમકે શરીરમાં જ તેના ગુણ જોવામાં આવે છે એ હેતુથી) આત્માની શરીરપ્રમાણતા પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે. આ સમયમાં સંપન થવા વાળા કેવલિમુદ્દઘાતની અવસ્થામાં ચૌદ રાજલોકમાં આત્માનું વ્યાપ્ત થઈ જવાનું અહિં જે માન્યું
બન્સ
કદાચિહ્ન
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आचारचिन्तामणि–टीका अध्य. १ उ. १ मृ.५ आत्मवादिप्र०
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इयं च पुत्तलिका न किञ्चिदिच्छति, पुनरयं वालः सकलेन्द्रियैर्विपयमुपभुज्य सुखीभवितुमिच्छति । यदि कोऽपि खगमुत्थाप्येमावभिधावेत् तदा पुतलिका पूर्ववदेवावस्थिता भविष्यति, बालस्तु खद्गाभिघातजनितदुःखादुद्विज्य पलायिष्यते । असौ बाल: कमपि बुभुक्षितं वालमुपकरिष्यति भोजनीयवस्तुप्रदानेन, कमपि चान्यं वाले चपेटादिप्रहारेण क्रन्दयिष्यति । पुत्तलिका तु हितमहितं वाऽपि किञ्चिन्नैव कर्तुं प्रभविष्यति । यदि मिष्टाशनाय वाल आहूतो भवेत् तदानीं सत्वरमागतो वालो भोक्तुं प्रवर्तेत, तज्जन्यसुखानुभवोऽपि तस्य नायेत । पुत्तलिका तु नागमिष्यति न किंचिद् भोक्ष्यते, का वार्ता सुखानुभवस्य १ ।
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यह पुतली कुछ भी इच्छा नहीं करती मगर बालक सभी इन्द्रियों के विषयों का भोग करके सुखी होने की इच्छा करता है । अगर कोई तलवार उठाकर इन्हें मारने दौडे तो पुतली थ्यों की त्यों खडी रहेगी मगर बालक तलवार के आघात के दुःख से उद्विग्न हो कर या आघात की आशङ्का से भाग जायगा । वह बालक किसी भूखे बालक को भोजन देकर उसका उपकार भी करेगा और किसी बालक को थप्पड आदि मारकर रुलाएगा, मगर पुतली किसीका हित या अहित करने में समर्थ नहीं है । अगर बालक को मिठाई खाने के लिए बुलाया जाय तो उसी समय आकर वह मिठाई पर टूट पडेगा और उसे मिठाई खाने के सुख का अनुभव भी होगा । पुतली न मिठाई के लिए आएगी न खाएगी, सुख का अनुभव करने की तो बात ही अलग रही । अत एव यह निश्चय होता है कि वालक में जीव का लक्षण ज्ञान
આ પુતળી કાંઇ પણ ઈચ્છા કરતી નથી. પરંતુ ખાળક સર્વ ઇન્દ્રિયેાના વિષયાને ભાગ કરીને સુખી થવાની ઇચ્છા કરે છે. અથવા કાઈ તલવાર ઉઠાવીને તેને મારવા દોડે તેા પુતલી તેા જેમ છે તેમ ત્યાં ઉભી રહેશે. પરંતુ ખાલક તલવાર મારવાના દુઃખથી ઉદ્વિગ્ન—ચિંતાતુર મનીને અથવા તેા મારવાની આશકાથી लागी ४शे.
એ ખાળક કોઈ ભૂખ્યા બાળકને ભાજન આપીને તેના ઉપકાર પણ કરશે અને કોઈ બાળકને થપડ આદિ મારીને તેને રાવરાવશે, પરરંતુ પુતલી કેાઈનું હિત કે અથવા અહિત કરવા સમર્થ નથી. અથવા બાળકને મિઠાઈ ખાવા માટે મેલાવવામાં આવે તે તેજ સમયે આવીને મિઠાઈ પર તૂટી પડશે અને તેને મિઠાઈ ખાવાના સુખના અનુભવ પણ થશે. પુતલી મિઠાઇ માટે આવશે નહી. અને ખાશે પણ નહી. તે સુખના અનુભવની તે વાત જ. જૂદી રહી. એ કારણુથી નિશ્ચય થાય છે કે
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२६.
आलारामूत्रे अनेन- आत्मा नातीन्द्रियो नापि जडाद् भिन्नः" इति नास्तिकमतं निरस्तम् ।
- नवमूर्तोऽयमात्मा नेत्रादिभिरिन्द्रियेस्तु न विज्ञयस्तर्हि कथमिमं जनो जानीयात्-'अस्त्पत्रात्मे'-ति ।
श्रूयताम् कस्यचित् समक्षमटवर्पयो चालस्तिष्ठति; तत्समानाकविभृन्मयी पुत्तलिकाऽपि तिष्ठति । तत्रासौ द्रप्टा पश्यति-इयं पुत्तलिका चक्षुर्माणकर्णयुक्ताऽपि द्रष्टुं प्रातुं श्रोतं वा न शक्नोति, पुनरयं वालचक्षुम्या पश्यति, पुष्पमाघाति, कस्यचिद्भापितं शृणोति च ।
इस कथन से नास्तिक के इस मत का निराकरण हो गया कि-'आत्मा न अतीन्द्रिय है और न जड से भिन्न है। . शङ्का-आत्मा अमूर्त है, नेत्र आदि इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता तो मनुष्य कैसे समझे कि आत्मा का अस्तित्व है ! ।
___ समाधानसुनिये । मान लीजिए किसी के सामने आठ वर्ष का बालक खडा है, उसी के समान आकृतिवाली मिट्टी की एक पुतली भी रखी है। दोनों को देखने वाला देखता है कि यह पुतली नेत्र, नाक और कान से युक्त तो है किन्तु देखने में सूधने में और सुनने में समर्थ नहीं है, और यह बालक आखों से देखता है, फूल सूघता है, और किसी का भाषण सुनता है।
આ કથનથી નાસ્તિકના એ મતનું નિરાકરણ થઈ ગયું કે “આત્મા અતીન્દ્રિય नथी, मने ४४थी मिन्न नथी." . શંકા–આત્મા અમૂર્ત છે, નેત્ર આદિ ઈન્દ્રિથી જાણી શકાતું નથી, તે પછી માણસે કેવી રીતે સમજી શકશે કે આત્માનું અસ્તિત્વ છે. •
સમાધાન–સાંભળે? માની લે કે કઈ (માણસ)ના સામે એક આઠ વને બાળક ઉભે છે. તેની બાજુમાં તેના જેવી સમાન આકૃતિવાલી માટીની એક પતળી પણ રાખી છે. આ બન્નેને જોવાવાળાં જુવે છે કે-આ પુતલી નેત્ર, નાક, કાનથી ચુકત તે છે, પરંતુ જેવામાં, સુંઘવામાં અને સાંભળવામાં સમર્થ નથી. અને આ બાળક નેત્રથી જુવે છે, ફૂલ સંઘે છે અને કોઈનું ભાષણ સાંભળે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ ५.५ आत्मवादिन० २६
इयं च पुतलिका न किनिदिन्छति, पुनवं वालः सन्द्रियाय मुसमुन्य मुखीमतिमिञ्चति। यदि कोपि समृत्याप्पेमारमियान् । पुचलिका पूर्वदेवावस्थिता भविन्यति, बाल मियाजानजाइद्धि पलायिभ्यते । बसी बालः कमपि बुमुदिनं वाल्माकस्थिति मोनार . प्रज्ञानेन, कमपि वान्नं वालं उपेटादिमहारंग ऋन्दपियति। पुत्तलिका हितमहितं वापि चिनिन्नव कतुं प्रमाविष्यति । यदि मिप्वामनाय वाल . मन् नुहानी सुबरमागतो बालो मोतुं प्रवर्नेन, मन्यमुखानुमोपित. बायेन । पुत्तलिका तु नागमिष्यति न किंचिद् मोल्यते, का वा नखानुमवस्य ?
___ यह पुत्री कुछ नी इच्छा नहीं रखी नगर बाल सनी इन्द्रियों के विषयों , मेग के मुती होने की इच्छा ऋता है। अगर आई बमबार उछात्र इन्हें न.. दोडे नो पुग्नी प्यों की त्यों खड़ी रहेगी नगर बालक वार के आकान के दुः ने सहन्न हो कर या आपन की भागच में नाग शयगा। वह वाच्न नूखे बालक को मोक्न देकर उसका उपचार भी करना और किसी बालक को ५५ नादि मारकर लाएगा: नगर पुती निना हित या अहित करने में सर्य नर है । बगर बान्को निठाई खाने के लिए बुलाया जाय के उसी समय जर . निधई पर ह पड़ेगा और ने मिलई खाने के इन 9 अनुना भी होगा। पुवन्नी न निकाई के लिए आएगी न बरणी, मुत्र का अनुनब करने की तो का? ही बला हो। अनु एव यह निश्चय होता है कि पाक में मंत्र का ललन नान
- આ પુતળી કાંઈ પણ ઈચ્છા કરતી નથી. પરંતુ બાળક સર્વ ઈકિ. વિષયને લોગ કરીને સુખી થવાની ઇચ્છા કરે છે. અથવા ઈ તરવાર દડાને તેને મારવા દે. તે યુવતી તે જેમ છે તેમ ત્યાં ઉભી રહેશે. પરંતુ ૮. તલવાર મારવાના પ્રશી દ્વિગ્નચિંતાતુર બનીને અથવા તે મારવાની આશંકાશી લાગી .
એ બાળક કે બૂઝા બાળકને જન આપીને તેને ઉપકર પશુ કરશે અને કે બાળકને પડ આદિ મારીને તેને રેવરાવશે, પરંતુ પુતલી ઈનું હિત કે અથવા અહિત કરવા સમર્થ નથી. અથવા બાળકને મિઠાઈ ખાવા માટે લાવવામાં આવે છે તે જ સમયે સ્ત્રીને મિઠાઈ પર ટી પશે અને તેને મિઠાઈ ખવાને સુખનો અનુવ પણ થશે. પુતી મિડ માટે આવશે નહી. અને ખાશે પણ નહી. તે સુખના અનુલવની તે વાત જ જુદી રહી. એ કારથી નિશ્ચય થાય છે કે
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आचारामंत्र तथा चार्य निश्चय:-चाले जीवलक्षणस्य ज्ञानस्य सद्भावाद वालशरीरे जीयोऽस्तीति । एवमन्यत्रापि सजीवशरीरे जीवस्य सत्ता निधेतुं शक्यते । वस्तुतोऽयमात्मैव कर्ता भोक्ता नानाविधशुभपरिणतिकर्ता चेति । अयमात्मा संसारावस्थायां स्वज्ञानवशेन दुःखमर्जयति । उक्तञ्च
"संसारे .पर्यटन् जन्तु,-बहुयोनिसमाकुले, शारीरं मानसं दुःखं, प्राप्नोति बत दारुणम् ॥१॥ आर्तध्यानरतो मूढो, न करोत्यात्मनो हितम् । तेनासौ सुमहत् क्लेशं, परस्त्रेह च गच्छति" ॥२॥
विद्यमान है, इस लिए उस में जीव है। इसी प्रकार अन्यत्र भी सजीव शरीर में जीव की सत्ता का निश्चय किया जा सकता है। वास्तव में यही आत्मा कर्ता, भोका और नाना प्रकार की शुभ और अशुभ परिणतियों का कर्ता है। आत्मा संसारअवस्था में अपने अज्ञान के आधीन हो कर दुःख उपार्जन करता है, कहा भी है :--
" नाना प्रकार की योनियों से युक्त इस संसार में भ्रमण करता हुआ जीव अनेक और भयानक शारीरिक एवं मानसिक दुःख प्राप्त करता है ।। १ ।।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान में लीन रहने वाला मूढ जीव आत्मा का हित नहीं करता । इसी कारण वह इस लोक और पर लोक में महान क्लेश पाता है " ॥२॥ બાલકમાં જીવનું લક્ષણ-જે જ્ઞાન તે વિદ્યમાન છે, તે કારણથી તેમાં જીવ છે. એ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ સજીવ શરીરમાં જવાની સત્તાને નિશ્ચય કરી શકાય છે. વાસ્તવમાં આ આમા કત્તા, લેતા અને નાના પ્રકારની શુભ અને અશુભ પરિણતિએને કર્તા છે. આત્મા સંસાર અવસ્થામાં પિતાના અજ્ઞાનને આધીન થઈને દુખ ઉપાર્જન કરે છે. કહ્યું પણ છે કે -.
બનાના પ્રકારની ચનિયેથી યુકત આ સંસારમાં ભ્રમણ કરતે થકો જીવ અનેક ભયાનક શારીરિક અને માનસિક દુઃખ પ્રાપ્ત કરે છે.
આધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનમાં લીન રહેવા વાળો મૂઢ જીવ આત્માનું હિત કરતા નથી. આ કારણુથી તે આ લેક અને પરલોકમાં મહાન કલેશ પામે છે. જરા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१८.५ आत्मवादिम०
२६६ (११) आत्मनः प्रतिशरीरं भिन्नत्वम्आत्मा-भतिशरीरं भिन्नः । एकस्यैवात्मनः प्रतिशरीरसत्त्वे तु जन्ममरणवन्धमोक्षव्यवस्था नोपपयेरन् । अन्यो जातः, अन्यो मृतः। अन्यो वद्धः, अन्यस्तु मुक्त इति व्यवस्था कथमुपपद्येत, तस्मात् प्रतिशरीरं भिन्न इति सिद्धम् । तथा चानन्ता आत्मान इति मन्तव्यम् । अनेनाऽद्वैतवादो निराकृतः ।
(१२) आत्मनः पौगलिककर्मसंयुक्तसम्अयमात्मा-पौगलिककर्मसंयुक्तः । निश्चयनयेन फर्मरहितोऽपि व्यवहारनयतोऽनादिकालतः पौद्गलिककर्मसंवद्धोऽस्ति, तस्मादयं पौद्गलिककर्मसंयुक्त इति कथ्यते ।
_(११) आत्मा का प्रतिशरीरभिन्नत्वआत्मा अलग-अलग शरीरों में अलग-अलग है। समस्त शरीरों में एक हो आत्मा का अस्तित्व माना जाय तो जन्म, मरण, बन्ध और मोक्ष
की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थात् कोई जनमा, कोई मरा, कोई बद्ध हुआ __ और कोई मुक्त हुआ, ऐसी व्यवस्था कैसे बन सकेगी? अतः आत्मा प्रत्येक
शरीर में अलग ही सिद्ध होता है। आत्माएँ अनन्त हैं। ऐसा मानना चाहिए । ___ इस से अद्वैतवाद का निराकरण हो गया ।
(१२) आत्मा का पौद्गलिक कर्मसंयोगयह आत्मा पौद्गलिक कर्मों से संयुक्त है। निश्चयनय से कर्मरहित होने पर भी व्यवहारनयकी अपेक्षा अनादिकाल से पौद्गलिक कर्मों के साथ आत्मा
(११) मामा प्रतिशरीसिन्नत આત્મા જૂદા-જૂદા શરીરમાં જૂદા-જૂદ છે. સમસ્ત શરીરમાં એક જ આત્માનું અસ્તિત્વ માનવામાં આવે તે જન્મ, મરણ, બંધ અને મેક્ષની વ્યવસ્થા થઈ શકશે નહી. અર્થાત, કેઈનું જન્મ, કોઈનું મરણ, કઈ બદ્ધ થાય અને કેઈ મુકત થાય એવી વ્યવસ્થા કેવી રીતે બની શકશે? આ કારણથી “આત્મા પ્રત્યેક શરીરમાં અલગ છે.” એમ સિદ્ધ થાય છેઆત્મા અનંત છે એમ માનવું જોઈએ, આથી અદ્વૈતવાદનું નિરાકરણ થઈ ગયું.
(૧૨) આત્માને પૌગલિક કમસંગ આ આત્મા પગલિક કર્મોથી સંયુક્ત (કર્મો સાથે જોડાએલ) છે નિશ્ચયનથી કર્મરહિત હોવા છતાંય પણ વ્યવહારનયની અપેક્ષા અનાદિકાલથી પોગલિક
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२६४
Aramadoswa ma
आचाराने आत्मनो मिथ्यात्वेन सहानादिः सम्बन्धः। अनादिमिथ्यात्वजनितविभावपरिणामरूपरागद्वेषपरिणत्याऽऽत्मा संततायोगोलक इव सलिलं सर्वतोभावेन ज्ञानावरणीयादिकर्मदलं समाकृष्य स्वस्मिन् संयोजयति । ततोऽसौ वहिनाभ्योगालक इच, नीरेण क्षीरमिव तेन कर्मदलेनैक्यभावं प्राप्य मूर्त इव भवति, अत एव निश्चयनयेनाऽमूर्वोऽपि व्यवहारनयेनात्मा मूर्त इत्युच्यते । कर्मसम्बन्धोऽयमात्मनो च्यवहारनयत एव ।
का संयोग है। अत एव उसे पौगलिक कर्मों से संयुक्त कहते हैं। मिथ्यात्व के साथ आत्मा का अनादि सम्बन्ध है। अनादिकालीनमिथ्यात्वजनित विभाव--परिणतिरूप राग-द्वेष से आत्मा अपने समस्त प्रदेशो से ज्ञानावरण आदि के कर्मदलिकों को उसी प्रकार ग्रहण करता है, जैसे खूब तपा हुआ लोहे का गोला जल को ग्रहण करता है। अतः जैसे अग्नि और लोहगोलक एकमेक से हो जाते हैं, और दूध-पानी एक-मेक होया हुआ प्रतीत होता है, इसी प्रकार कर्मदलिको के साथ आमा एकमेक होकर मूर्त-सा हो जाता है। इस प्रकार निश्चयनय से अमूर्त होने पर भी व्यवहारनय से आमा मूर्त है। आत्मा
और कर्म का वह सम्बन्ध व्यवहारनय से ही समझना चाहिए । કર્મોની સાથે આત્માને સંગ છે. એ કારણથી તેને પૌગલિક કર્મોથી સંયુકત
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મિથ્યાત્વની સાથે આત્માને અનાદિ સંબંધ છે. અનાદિકાલીન મિથ્યાત્વથી ઉત્પન્ન વિભાવ-પરિણતિરૂપ રાગ-દ્વેષથી આત્મ પિતાના સમસ્ત પ્રદેશોથી જ્ઞાનાવરણ આદિના કમંદોને એવી રીતે ગ્રહણ કરે છે કે જેવી રીતે ખૂબ તપેલે લેહાને ગળ જલનું ગ્રહણ કરે છે. એટલે કે જેમ અગ્નિ અને લેહાને ગોળો એકમેક થઈ જાય છે, અને દૂધ-પાણ એકમેક થયેલા પ્રતીત થાય છે. તે પ્રમાણે કર્મ દલિની સાથે આત્મા એક-એક થઈને મૂત્ત જે થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે નિશ્ચયનયથી અમૂર્ત લેવા છતાંય પણ વ્યવહારનયથી આત્મા મૂર્ણ છે. આત્મા અને કર્મને આ સંબંધ વ્યવહારનયથી જ સમજ જોઈએ.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मृ.५. आत्मवादिष०
कर्मवन्यापेक्षयाऽऽत्मना सह पुद्गलस्पैक्यरूपः संबन्धः, परन्तु लक्षणापेक्षया द्वयोमिन्नता प्रतीयते । तस्मादात्मन एकान्तेनाऽमूर्तत्वं नास्ति । इदमत्र तत्त्वम्-वन्धस्तु वस्तुतः पुद्गलस्य पुद्गलेन सह भवति; यथा पृथक् पृथक् पुद्गला रूक्षस्निग्धगुणाभ्यां परस्परं बन्धं प्राप्नुवन्ति तहद-आत्मना सह पूर्ववरैः कर्मपुद्गले सह नूतनकर्मपृगला निवध्यन्ते । आत्मनोऽसंख्यातमदेशेष्वेषां कर्मपुद्गलानामवगाहनं मवति । आत्मन एकैकमदेशेऽनन्तकर्मपुद्गलास्तिष्ठति । आत्मपदेशानां कर्मप्रगलानां चैकक्षेत्रेऽवगानरूप एव बन्धः । ईदृशोऽयं बन्यो नास्ति ।
कर्मबन्ध की अपेक्षा आमा के साथ पुद्गल का एकन्य-रूप-सम्बन्ध है, किन्तु लक्षणों से दोनो भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, इस लिए आमा में एकान्त अमूर्तता नहीं है। तात्पर्य यह है कि वास्तव में पुद्गलका बन्ध तो पुद्गल के साथ ही होता है, जैसे पृथक् पृथक् पुगल रुक्षता और स्निग्धता गुणों के कारण परस्पर बद्र हो जाते हैं, इस प्रकार आत्मा के साथ पहले से बंधे हुए कर्मपुद्गल के साथ नवीन कर्मपुटलों का बन्ध होता है, इन पुगलों को अवगाहना आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में होती है। आत्मा के एक-एक प्रदेश में मनन्त पुद्गल रहते हैं। आत्मप्रदेश का और कर्म-पुदलों का पन्ध एकक्षेत्रावगाहन रूप ही है, जैसे एक पुद्गल दूसरे पुल के साथ स्निग्यता और रुक्षता गुण के कारण मिल कर ऊन्ध बन जाता है. वैसा आमा और पुद्गल का बन्ध नहीं होता। कर्म
કર્મ બંધની અપેક્ષા આત્માની સાથે પુગલને એકત્વ૫ સંબંધ છે, પરંતુ લક્ષણોથી બંને ભિન્ન ભિન્ન પ્રતીત થાય છે. એ કારણુથી એકાન્ત મૂત્તતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે – વાસ્તવમાં યુગલને બંધ તે પુદગલની સાથે જ થાય છે. પૃથ-પૃથક પુદ્ગલ રૂક્ષતા અને સ્નિગ્ધતા ગુના કારણે પરસ્પર બદ્ધ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે આત્માની સાથે પ્રથમથી બદ્ધ થયેલા (આત્માને પ્રથમ ગ્રેટેલા) કર્મ પુદગલની સાથે નવીન કર્મયુગલોને બંધ થાય છે. તે પુદગલોની અવગાહના આત્માના અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં થાય છે. આત્માના એક એક પ્રદેશમાં અનન્ત પુદગલ રહે છે. આત્માના પ્રદેશ અને કર્મપુદ્ગલેને બંધ એકક્ષેત્રાવગાહન ૫ જ છે. જેવી રીતે એક પુદગલ બીજા પુદગલની સાથે સ્નિગ્ધતા અને રૂક્ષતા ગુણના કારણે મળીને સ્કંધ બની જાય છે, તેવી રીતે આત્મા અને પુદગલને બંધ થતું નથી. કર્મયુદંગલની અવગાહના આત્માની સાથે આ પ્રકારે અનાદિકાલથી ચાલી આવે છે
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आचारायचे .., यथा-पुद्गलस्य पुद्गलेन सह स्निग्धरूक्षगुणसद्भावे सति स्कन्धभावरूपो पन्यो भवति । कर्मपुद्गलानामवगाहनाऽऽत्मना सहेत्यमनादिकालतः मवृत्ता, यत्एकपिण्डरूपं कार्मणशरीरमेव संजायते । तच्च शरीरमात्मनः प्रदेशमेकमपि न मुश्चति । आत्मनः सर्वमदेशमभिव्याप्य तिले तैलमिव कार्मणशरीरं तिप्ठति, किन्तु-अक्षरस्थानन्ततमो भागो वर्तत एव, मेघपटलाच्छादितम्यरश्मिवत् । इदं फार्मणं शरीरं तैजसं चेति द्वयं शरीरमतिसूक्ष्मं सदाऽऽत्मना सह वर्तते । यत्र सूक्ष्मशरीरे स्थूलशरीरे वाऽयमात्मा गच्छति तत्प्रमाणो भवन् संकुचितो विस्तृतो वा भवति । तदानीमिदं द्वयं शरीरमपि सूक्ष्मस्थूलशरीरानुसारेण संकुचित विस्तृत वा भवति ।
यथा--अकृत्रिमपर्वतादौ स्कन्धरचना विद्यमानैव, तथापि तस्मात् पुद्गलों को अवगाहना आत्मा के साथ इस प्रकार अनादिकाल से चली आती है कि एक पिण्डरूप कार्मण शरीर ही उत्पन्न होता है । यह कार्मण शरीर आत्मा के एक भी प्रदेशको नहीं छोडता । आत्मा के समस्त प्रदेशों को व्याप्त करके, तिल में तेल की तरह कार्मण शरीर रहता है, किन्तु ज्ञान का अनन्तवा भाग बादलों से आच्छादित सूर्य की प्रभा के समान खुला रहता ही है।
यह कार्मण शरीर और तैजस शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है और आत्मा के साथ सदैव रहते हैं । जिस सूक्ष्म या स्थूल शरीर में आत्मा जाता है उसी शरीरप्रमाण संकुचित या विस्तृत हो जाता है, और उस समय ये दोनों शरीर भी सूक्ष्म अथवा स्थूल शरीर के अनुसार संकुचित अथवा विस्तृत हो जाते हैं।
जैसे अकृत्रिम पर्वत आदि में स्कन्ध की रचना तो ज्यों को त्यो विद्यमान रहती है કે એકપિંડ૧૫ કામણ શરીર જ ઉત્પન્ન થાય છે તે કામણ શરીર આત્માના એક પણ પ્રદેશને છોડતા નથી. આમાના તમામ પ્રદેશને વ્યાપ્ત (ચારેય તરફ ઘેરાયેલું) કરીને તલમાં તેલ રહે છે તે પ્રમાણે કામણ શરીર રહે છે.
. પરંતુ જ્ઞાનને અને તમે ભાગ, વાદળાઓથી ઢંકાએલી સૂર્યની પ્રભા પ્રમાણે ખુલ્લે રહે જ છે ? તે કામણ શરીર અને તૈજસ શરીર અત્યન્ત સૂકમ છે. અને આત્માની સાથે તે હમેશાં રહે છે. જે સૂક્ષમ કે લ શરીરમાં આત્મા જાય છે તે શરીર પ્રમાણે સંકુચિત અથવા વિસ્તૃત થઈ જાય છે. અને તે સમય આ અને શરીર પણ સહમ અથવા સ્થલ શરીરના અનુસારે સંકુચિત અથવા વિસ્તૃત થઈ જાય છે,
રવી રીતે એકત્રિમ પર્વત આદિના સકંધની રચના તે જેવી છે તેવી જ
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आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ.१ मु.५ आत्मवादिम० स्कन्धात् पुरातनाः पुद्गलाः क्षरन्ति नूतनास्तु तत्रागत्य मिलन्ति, तथाऽनयोस्तैजस-कार्मण-शरीरयोः स्वरूपं न कदाचिद् विनश्यति, परन्तु तत्रत्याः पुरातनाः कर्मपुद्गलाः स्वस्वफलमदानपुरस्सरं स्वावस्थितिसमयं समाप्यापगच्छन्ति, नूतनाः पुनः कर्मपुद्गला आत्मप्रदेशेषु मिलित्वा संघद्धा भवन्ति । एवामात्मप्रदेशैः सहानादिकालतः प्रवाहरूपोऽयं समायातः कर्मणां सम्बन्धः । .... अयं च कर्मसम्बन्धस्तदेव विनश्यति, यदाऽयमात्मा मुक्तिं लभेत । आभ्यां तैजसकार्मणशरीराम्यां वियोग एव मुक्तिरुच्यते । यद्यनादिकालतः कार्मणशरीरं संसारिणो न स्यात् तदा कदाचिदपि नवीनकार्मणवर्गणाभिर्वन्धो न भवेत् । कार्मगशरीराभावादेव सिद्धानां कार्मणवर्गणापरिपूर्णेऽपि सिद्धक्षेत्रे कर्मवन्धो न भवति । फिर भी उस स्कन्ध से पुराने पुद्गल खिरते रहते हैं और नवीन पुद्गल आकर उसमें मिल जाते हैं, इसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीर का स्वरूप कमी नष्ट नहीं होता, किन्तु उसमें के पुराने कर्म-पुद्गल अपना-अपना फल देकर, अपनी स्थिति का काल समाप्त करके हट नाते हैं और नवीन पुद्गल आत्मप्रदेशों में मिलकर बद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार आत्मप्रदेशों के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से प्रवाहरूप में चला आता है।
यह कर्म-सम्बन्ध उसी समय नष्ट होगा, जब आत्मा मुक्त हो जायगा। तैजस और कार्मण शरीर से सर्वथा वियोग हो जाना हो आत्मा की मुक्ति है । संसारी जीव के साथ अनादि काल से कार्मण शरीर का सम्बन्ध न होता तो नवीन कर्मवर्गणाओं का सम्बन्ध कभी न होता । यद्यपि सिद्धक्षेत्र कार्मणवर्गणा से भरा हुआ है, फिर भी सिद्धों में कार्मण शरीर न होने से उन्हें कर्मवन्ध नहीं होता। વિદ્યમાન રહે છે, તે પણ તે સ્કંધમાંથી પુરાણ પુદ્ગલ ખરતાં રહે છે. અને નવીન પુદ્ગલ આવીને તેમાં મળી જાય છે. એ પ્રમાણે તેજસ અને કાર્મણ શરીરનું સ્વરૂપ કોઈ વખત પણ નાશ થતું નથી, પરંતુ તેમાં પુરાણા કર્મપુદ્ગલ પિત–પિતાનું ફળ આપીને પિતાની સ્થિતિને સમય સમાપ્ત કરીને હઠી જાય છે, અને નવીન પુદ્ગલ આત્મપ્રદેશોમાં મળીને બદ્ધ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આત્મપ્રદેશોની સાથે કર્મોને સંબંધ અનાદિ કાળથી પ્રવાહરૂપમાં ચાલ્યો આવે છે. - આ કમ~સંબંધ તે સમયે નાશ થશે કે જ્યારે આત્મા મુકત થઈ જશે તૈજસ અને કામણ શરીરની સર્વથા વિયાગ થઈ જ તેજ આત્માની મુકિત છે. સંસારી જીવની સાથે અનાદિ કાલથી કાર્મ શરીરને સંબંધ જ ન હતા તે નવીન કર્મવર્ગણુઓને સંબંધ પણ કઈ વખત નહી થતે, જો કે સિદ્ધક્ષેત્ર
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आचांगने (१३) आत्मन ऊर्ध्वगतिस्त्रमावल्यम्अयमात्मा-ऊर्ध्वगतिशीलः, अगुरुलघुत्वात् । यद्येवं तहि कथमंधो गच्छति ?। अलायुर्यथा स्वभावत ऊर्ध्वगमनशीलोपि मूल्लेपाजले धो गच्छति। तदपगमादूर्ध्व‘माजलान्ताद् गच्छति, एवमात्मापि कर्मलेपादधो गच्छति तदपगमा मालोंकान्ताद् गच्छति । यथा वा-एरण्डवीजमपि बन्धनमुक्तं सदूधै गच्छति । '
(१३) आत्माका ऊर्ध्वगतिस्वभाव
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यह आमा अर्ध्वगमन स्वभाव वाला है; क्यों कि वह अगुरुलघु है। प्रश्न किया जा सकता है कि अगर ऐसी बात है तो आत्मा अधोगमन क्यों करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे पानी में ऊपर की ओर गमन करने का तूंबेका स्वभाव है, फिर भी मिट्टी का लेप कर देने से वह अबोगमन करता है और लेप हट जाने पर जल की सतह तक
ऊपर की ओर उठता है। इसी प्रकार आत्मा कर्मलेप के कारण नीचे जाता है और कर्मलेप हट जाने से लोक के अप्रभाग तक उपर की ओर जाता है। अथवा जैसे-एरण्ड का बीज बन्धन से मुक्त होकर उपर जाता है उसी प्रकार आत्मा भी कर्मवन्धन का नाश होने पर उपर जाता है।
કામણવર્ગણાઓથી ભરેલું છે, તે પણ સિદ્ધોમાં કામણ શરીર નહિં હોવાથી તેને કર્મબંધ થતો નથી.
(23) मामान
गतिस्पसा
આ આત્મા ઊર્ધ્વ–ગતિ-ગમન–સ્વભાવ વાળો છે, કારણ કે તે અગુરૂ-લઘુ છે. તે પ્રશ્ન કરી શકાય છે કે અગર જે એ પ્રમાણે છે તે આત્મા અાગમન કેમ કરે છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર એ છે કે તુંબડાને સ્વભાવ જેમ પાણીમાં ઉપરની તરફ આવવાને છે તે પણ તેને માટીને લેપ કરી દેવાથી તે પાણીમાં નીચે જાય છે. અને માટીને લેપ દૂર થતાં જલની સપાટી સુધી ઉપરના ભાગમાં આવે છે. એ પ્રમાણે આત્મા કમલેપના કારણે નીચે જાય છે, અને કમલેપ દૂર થવાથી લના અગ્રભાગ સુધી ઉપરના ભાગમાં જાય છે. અથવા જેવી રીતે એરંડાનું બીજ બંધનથી મુકત થતાં ઉપર જાય છે. તે પ્રમાણે આત્મા પણ કમબંધન નાશ થતાં ઉપર જાય છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ लोकवादिम०
लोकवादिप्रकरणम्
एव
यः पुनरेवंरूपमात्मानं सर्वथा विज्ञायात्मस्वरूपनिरूपणपरः स वस्तुतो लोकवादीत्याह-' लोकवादी' इति । लोक्यते सर्वज्ञेरिति लोक:पजीवनिकायरूपः । अत्र लोकशब्देन पड्जीवनिकायो गृह्यते, भगवताऽऽत्मज्ञानमेव पुरस्कृत्य लोकवादिप्रतिबोधनात् । यः पड्जीवनिकायरूपं लोकं विजानाति स एव लोकवादी = लोकस्वरूपकथनस्वभाववान्, न तु पहूजीवनिकायानभिज्ञ इत्यर्थः ।
पड्जीवनिकायरक्षणेनैवात्मस्वरूपं प्रकटीभवति । तच पड्जीव
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लोकवादिप्रकरण---
जो इस प्रकार आत्मा के स्वरूप को जान कर आत्मा के निरूपण में तत्पर होता है वही वास्तव में लोकवादी है ।
सर्वज्ञों द्वारा जो लोका नाय - अवलोकन किया जाय वह लोक है, अर्थात् पड्जीवनिकाय को लोक कहते हैं । ' लोक ' शब्द से यहाँ पड्जीवनिकाय का ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि भगवान् ने आत्मज्ञान को ही आगे रखकर लोकवादी का कथन किया है । जो पड्जीवनिकायरूप लोक को जानता है वही लोकवादी है, अर्थात् लोक के करने वाला है, किन्तु षड्जीवनिकाय से अनभिज्ञ नहीं ।
स्वरूप का कथन
पड्जीवनिकाय की रक्षा करने से ही आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है । पड्जोवલેકાદીપ્રકરણ
જો આ પ્રમાણે આત્માના સ્વરૂપને જાણી કરીને આત્માના નિરૂપણમાં તત્પર ચાય છે તે વાસ્તવિક રીતે લેાકવાદી છે.
સર્વજ્ઞો દ્વારા જે લેાકાવાય-અવલાયન કરાય, અર્થાત્ સર્વજ્ઞે જેને જોઈ શકે છે તે લોક છે. અર્થાત્ ષડૂજીવનિકાયને લેાક કહે છે. ‘ લેાક' શબ્દથી ષડૂજીવનિકાયનું જ અહણ કર્યું છે, કારણ કે ભગવાને આત્મજ્ઞાનને જ આગળ રાખીને લેકવાદીનું કથન કર્યું છે. જે પછવનિકાયરૂપ લેાકને જાણે છે, તે લેકવાદી છે, અર્થાત્ લેકના સ્વરૂપનું કથન કરવા વાળા છે ષડૂજીવનકાયથી અનભિજ્ઞ
હાય તે નહિ.
ડ્ જીનિકાયની રક્ષા કરવાથી જ આત્માનું સ્વરૂપ પ્રગટ થાય છે. ષડ્ડ
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आचारासत्रे निकायज्ञानं विना तदक्षणं न संभवति । अतः पडूजीवनिकायस्वरूपं निरूप्यते
जीवास्तावत् संक्षेपवो द्विविधाः-सिद्धा असिद्धाथेति। तत्र मुक्ति प्राप्ताः सिद्धाः, संसारिणोऽसिद्धाः । संसारिणः पुनर्द्विविधाः-स-स्थावरभेदात् । तत्र पृथिव्यप्तेजोगयुवनस्पतयः स्थावराः। प्रसाश्चतुर्विधाः-द्वीन्द्रिय - त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियभेदात् । तत्रेन्द्रियाणि पञ्च श्रोत्र-चक्षु-णि-रसनस्पर्शनाख्यानि । पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्कायो वायुकायो वनस्पतिकायश्चेति पञ्चविधा जीवा एकेन्द्रियाः । कृम्यादयो द्वीन्द्रियाः, । पिपीलिकादयत्रीन्द्रियाः, भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः। मनुष्यादयःपञ्चेन्द्रियाः। निकाय को रक्षा उसके ज्ञान के अभाव में नहीं हो सकती, अतः पड्जीवनिकाय के स्वरूप का निरूपण किया जाता है--
संक्षेप में जीवों के दो भेद हैं-~-सिद्ध जीव और असिद्ध जीव । मुक्त जीव सिद्ध कहलाते हैं और संसारी जीव असिद्ध कहलाते हैं। संसारी नीव भी दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर । पृथिवीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय स्थावर हैं । स जीव चार प्रकार के हैं-द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । श्रोत्र, चक्षु, प्राण (नाक), रसना और स्पर्शन, ये पांच इन्द्रिया हैं। पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय, ये पांच स्थावर जीव. एकेन्द्रिय हैं। कृमि आदि द्वीन्द्रिय हैं । पिपीलिका (चिउंटी) आदि त्रीन्द्रिय हैं । भैारा आदि चौइन्द्रिय हैं। मनुष्य आदि पञ्चेन्द्रिय हैं। જીવનિકાયની રક્ષા તેના જ્ઞાનના અભાવમાં થઈ શકતી નથી, તે કારણથી વડુજીવનિકાયનાં સ્વરૂપનું નિરૂપણું કરવામાં આવે છે –
સંક્ષેપમાં જીવના બે ભેદ છે-૧) સિદ્ધજીવ અને (૨) અસિદ્ધજીવ. મુક્તજીવ તે સિદ્ધ કહેવાય છે અને અસિદ્ધ તે સંસારી જીવ કહેવાય છે. સંસારી જીવ પણ मे आना . (१) स भने (२) स्या५२. पृथिवीय, सय, ४ाय, વાયકાય, અને વનસ્પતિકાય તે સ્થાવર છે. બસ જીવ ચાર પ્રકારનું છે. દીન્દ્રિય, શ્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય. શેત્ર (કાન) ચક્ષુ (નેત્ર), છાણ નક), રસના 'tement मन पशन (याम), २मा पाय धाया छ. प्रथिवीय, म५४१५, તેરસ્કાય. વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય, આ પાંચ સ્થાવરજીવ એકેન્દ્રિય છે, કમિ આદિ શ્રીન્દ્રિય છે. કીડી આદિ રીનિદ્રય છે, ભમરા વગેરે ચૌઇન્દ્રિય
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५ लोकवादिम०
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अत्र पञ्च स्थावरा एकत्रसचेति मिलिला पडजीवनिकाया भवन्ति एषां प्रत्येकं भेदान् मदर्शयामः
(१) पृथिवीकायभेदा: --
पृथिवीकायस्तावदुच्यते - पृथिव्येव कायो यस्य स पृथिवीकायः । पृथिवीकायादयः पञ्च स्थावरनामकर्मोदयात् समुत्पन्नास्तस्मादिमे स्थावरा इति कथ्यन्ते । पृथिवीकायोऽनेकविधः, शुद्धपृथिवीशर्करा - वालुकादिभेदात् । शर्करादिभेदरहिता मृत्तिकारूपा, तथा गोमयकचचरादिरहिता वा पृथिवी
तत्र
पांच स्थावर और एक त्रस मिलकर पजीवनिकाय हैं । भेद दिखलाते हैं—
इन सबके
(१) पृथिवीकाय के भेद
पृथिवी ही जिस का शरीर हो, वह पृथ्वीकाय कहलाता है । पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थावरनाकर्म के उदय से उत्पन्न होने के कारण स्थावर कहलाते हैं । पृथिवीकाय अनेक प्रकार का हैं— शुद्ध पृथिवी, शर्करा, वाद आदि । उनमें शर्करा आदि भेदों से रहित मृत्तिकारूप, तथा गोवर या कचरा आदि से रहित पृथिवी शुद्धपृथिवी कहलाती है । पत्थर के छोटे-छोटे खण्डों से मिली हुई मृत्तिका शर्करा पृथिवी है । છે, મનુષ્ય આદિ પંચેન્દ્રિય છે
પાંચ સ્થાવર અને એક ત્રસ મળીને ષડ્ઝનકાય છે. એ તમામના ભેદો तावे छे:
(१) पृथिवीभयना ले—
પૃથિવી જેવુ શરીર હાય, તે પૃથિવીકાય કહેવાય છે. પૃથ્વીકાય આદિ પાંચેય સ્થાવરનામકર્માંના ઉદયથી ઉત્પન્ન હેાવાના કારણે સ્થાવર કહેવાય છે. પૃથ્વીકાય અનેક अरे छे, शुद्धपृथ्वी, शश, वालू ( रेती ) आहि तेमां शश माहि लेहोथी रहित સ્મૃત્તિકારૂપ, અને છાણુ અગર કચરા આદિથી રહિત પૃથ્વી શુદ્ધપૃથ્વી કહેવાય છે. પૃથ્થરના નાના-નાના કકડાએથી મળેલી માટી તે શર્કરા પૃથિવી છે. વાલૢ ( રેતી)
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. आचारासो शुद्धपृथिवी। अश्मलघुखण्डमिश्रिता मृत्तिका-शर्करापृथिवी। वालुकाव्यतिमिश्रा मृत्तिका-चालुकापृथिवी । एवं बहुविधाः पृथिवीकायाः, तथाहि-. . . . .
उपल-शिला-लवणो-पर-लोह-त्रपु-ताम्र-सीसक-रजत-सुवर्ण-हरितालहिङ्गलक-मनःशिला-सस्यकाजन-भवाला-भ्रकपटला-भ्रवालुका-गोमेद-रुचका-कस्फटिक - लोहिताक्ष--मरकत-मसारगल्ल-भुजगेन्द्रनील-गोपीचन्दन-गैरिक - इंसगर्भपुलफ-सौगन्धिक-चन्द्रकान्त-सूर्यकान्त-चैडूर्य-जलकान्तादयः सर्वे वादरपृथिवीकायभेदाः। एते च शुद्धपृथिव्यादयः स्वखनिस्थिता एव चेतनावन्तः । गोमयकचयरादिरूपशस्त्रोपहता रविवाहितापरूपशस्त्रोपहताच गतचेतना भवन्ति । बाद मिली मृत्तिका बालका पृथिवी कहलाती है । इस प्रकार पृथिवीकाय के अनेक भेद हैं, वे इस प्रकार :
पत्थर, शिला, नमक, उपर, लोहा, रांगा, तांबा, शीशा, चांदी, सोना, हडताल, हिंगल, मैनसिल, सस्यकांजन, मूंगा, अभ्रक अभ्रवालुका गोमेद, रुचक्र, अङ्क, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजग, इन्द्रनील, गोपीचन्दन, गेरू, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रकान्त सूर्यकान्त, वैडूर्य, जलकान्त, आदि वादर पृथिवीकाय के भेद हैं । वे शुद्ध पृथिवी आदि जब अपनी खान में स्थित होते हैं तभी सचेतन होते हैं। गोबर, कचरा आदि शस्त्रों से उपहत होकर या सूर्य की धूप और अग्नि के तापरूप शस्त्र से अचेमन हो जाते हैं। મળેલી માટી વાલુકાપૃથિવી કહેવાય છે. એ પ્રમાણે પૃથિવી કાયના અનેક ભેદ છે
पत्थर, शिक्षा, भी, 6५२-मा२१, बाटु, संगी, (sers), is, सीभु, यी, सानु, gua, हिंग, मनशित, सुरभी, भू-५२पाणi, म, Aust, शमी, ३५४, म, टि, alsताक्ष, भ२४त, भसारत, भु, छन्द्रनाa, सोपीयन, गेरू, सगला, Ya४, सोधि, यान्त, सूर्यान्त, वैडूर्य, rastra આદિ બાદરપૃથિવીકાયના ભેદ છે (આ ખર બાદર પૃથ્વીકાય છે). એ શુદ્ધ પ્રથિવી આદિ જ્યારે પિતાની ખાણમાં સ્થિત હોય છે, ત્યારે તે સચેતન હોય છે. છાણ-કચરે આદિ શસ્ત્રોથી ઉપહત (હણાએલા) થઈને, અથવા તે સૂર્ય અને અનિના તાપરૂપ શસથી અચેતન થઈ જાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकयादिम० २७३ उक्तवादरपृथिवीकायानां यत्रैको जीवस्तत्र नियमतोऽसंख्याताः पृथिवीकाया जीवाः सन्ति । स्थानमप्येषां पृथिवी-पाताल-भवन-नरक-प्रस्तर-विमानादिकं ज्ञेयम् । मूक्ष्मपृथिवीकायजीवास्तु सर्वलोकव्यापिनः। उभयेपां भेदप्रभेदाः सर्वज्ञमणीतादागमादवगन्तव्याः।
(२) अपूकायभेदाःअकायोऽनेकविधः-अवश्याय -मिहिका-करक-हरतनु-शुद्ध-शीतो-प्णक्षारा-ऽम्ल-लवण-क्षीरोदक-घृतोदकादिभेदात् । एको यत्राप्कायस्तत्रासंख्याता अपकायाः सन्ति । बादरापकायानां समुद्र-हद-नदी-वापी-कूपादिः स्थानम् । सुक्ष्मापकायस्तु सर्वलोकव्यापकः । अस्यापि भेदप्रभेदा आगमतो विज्ञेयाः।। उक्त वादर पृथिवीकाय आदि का जहाँ एक जीव है वहाँ नियम से असंख्यात पृथिवीकाय के जीव हैं । पृथिवी. पाताल, भवन, नरक-प्रस्तर, विमान आदि इनके स्थान हैं। सूक्ष्म पृथिवीकाय के जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं । दोनों के भेद-प्रभेद सर्वज्ञोक आगम से समझ लेने चाहिए।
(२) अप्काय के भेदअप्काय अनेक प्रकार का है—ओस, मिहिका, ओले, हरतनु, शुद्धजल, शीतजल, उप्णजल, क्षार, अम्ल लवणजल (खारा पानी) क्षीरोदक, और घृतोदक आदि । जहाँ एक अकाय है वहा असंख्यात अपकाय है। बादर अ-कायका स्थान. समुद्र, तलाव, नदी, वावडी, कूप आदि हैं, और सूक्ष्म अपकाय समस्त लोक में व्याप्त है। इसके भी भेद-प्रभेद
आगम से समझना चाहिए । . ઉપર કહેલા ખાદર પૃથિવીકાય આદિને ત્યાં એક જીવ છે. ત્યાં નિયમથી અસંખ્યાત પૃથિવીકાય જીવ છે. પૃથિવી, પાતાલ, ભવન, નરક-પ્રસ્તર, વિમાન આદિ તેના સ્થાન છે. સૂમ પૃથિવી કાયના જીવ સમસ્ત લોકમાં વ્યાપ્ત છે. એ બંનેના ભેદ-પ્રભેદ સર્વના આગમથી સમજી લેવા જોઈએ.
(२) मायना :અપકાયના અનેક પ્રકાર છે–એસ, મિહિકા (નિહાર), ઓળો, હરતા(પૃથ્વીને ભેદીને તૃણના અગ્રભાગ વગેરે ઉપર રહેનારૂં પાણી) શુદ્ધ જલ (तरिक्षयी ५ अथवा नही पायी) शाdra, Gujare (माथी गरम पाणीना गर्नु पाjl), माटुस, मास, क्षी२०६४ भने त माहि, (AqY, વારૂણ, ક્ષીર, ઈશ્કરસ અને પુષ્કરવાર સમુદ્રનાં પાણી) જ્યાં એક અપકાય છે, ત્યાં અસંખ્યાત અપૂકાય છે. બાદર અપકાયના સ્થાન સમુદ્ર, તળાવ, નદી, વાવડી, કૂવા 'આદિ છે, અને સૂમ અપકાય સમસ્ત લોકમાં વ્યાપ્ત છે. તેના ભેદ-પ્રભેદ પણ આગમથી સમજવા જોઈએ.
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आचाराङ्गसूत्रे
(३) तेजस्कायभेदा: -
तेजस्कायोऽनेकविधः - अङ्गाराचिरला तशुद्धाग्न्यादिभेदात् । इमे तेजस्काया जीवा वादराः । यत्रैकस्तेजस्कायस्तत्राऽसंख्यातास्तेजस्कायाः सन्ति । तेपां स्थानं सार्धतृतीयद्वीपरूपसमय क्षेत्रमेव, न ततो वहिः । सुक्ष्मास्तु सर्वलोकव्यापिनः । एंपां भेद - प्रभेदाः पूर्ववद् विज्ञेयाः
(४) वायुकाय भेदाः -
वायुकायः पौरस्त्य - पाश्चात्याद्युत्क लिमण्डलिका दिभेदादनेकविधः । वादर'वायुकायानां स्थानं धनवात-तनुवात - तद्वलयाधोलोकपातालभवनादिकम् । सूक्ष्मा वायुकाया सर्वलोकव्यापिनः । एषां भेदप्रमेदाः पूर्ववद वेदितव्याः । (३) तेजस्काय के भेद
तेजस्काय अनेक प्रकार का है, जैसे- अंगार, ज्वाला, अलात, शुद्ध-अग्नि आदि । जहाँ एक बादर तेजस्काय का जीव होता है वहाँ असंख्यात तेजस्काय होते हैं । इन का स्थान अढाईद्वीपरूप समय क्षेत्र हो है, उस से बाहर ये नहीं होते । सूक्ष्म तेजस्काय के जीव लोकव्यापी हैं । इन के भी भेद-प्रभेद आगम से समझने चाहिए ।
(४) वायुकाय के भेद
वायु के भो पूर्वा और पश्चिमी आदि के भेद से और उत्कलिक मण्डलिक आदि के भेद से अनेक प्रकार हैं। घनवात, तनुवात, वलय, अधोलोक और पाताल, भवन आदि बादर वायुकाय के स्थान हैं । सूक्ष्म वायुकाय सर्वलोकव्यापी है ।
(3) तेस्डायना :--
तेराय ने प्रारना है; प्रेम हे संगार, नवासा भयात, शुद्ध नि આઢિ, જ્યાં એક ખાદર તેજસ્કાયના જીવ હાય છે ત્યાં અસંખ્યાત તે સ્કાય હાય છે. તેનું સ્થાન અઢીદ્વીપરૂપ સમયક્ષેત્ર જ છે, તેનાથી બહાર તે નથી. સૂક્ષ્મ તેજકાયના જીવ લેાકવ્યાપી છે. તેના પણ ભેદ-પ્રભેદ આગમથી જાણી લેવા જોઈએ. (४) वायुडायना लेह
વાયુકાય પણ પૂર્વ અને પશ્ચિમ આદિના ભેદથી,. અને ઉત્કલિક ( જેમ સમુદ્રમાં કલ્લેાલે) મલિક, (મૂળમાંથી જે ગાંળ ફરતે વાતા હોય તે વાસુ ) शाहि लेहथी मने अभरनो छे, धनवात, तनुवात, पाय, अधोसो, भने पातास, ભવન આદિ ખાદર વાયુકાયના સ્થાન છે, અને સૂક્ષ્મ વાયુકાય સર્વલેાકવ્યાપી છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ६.१ सु.५ लोकवादिप्र०
२७५ इमौ तेजस्काय-वायुकायो गतिस्वभावतया बसावपि निगद्यते ।
.. (५) वनस्पतिकायभेदाः
वनस्पतिकायोऽनेकविधः-शैवाल - पनक - हरिद्रा-ऽऽद्रक-मूलका - लूकसूरण-पलाण्ड-लशुन-कन्दादिभेदात् । इमे वनस्पतिकायाः साधारणा उच्यन्ते ।
क्षगुच्छगुल्मलवादयः प्रत्येकशरीरा उच्यन्ते । साधारणवनस्पतिकायस्थैकस्मिन् इनके भेद-प्रभेद पूर्ववत् आगम से जानने चाहिए । तेजस्काय और वायुकाय गतिशील होने के कारण त्रस भी कहे जाते हैं।
(५) वनस्पतिकाय के मेद
वनस्पतिकाय अनेक प्रकार का है। जैसे-शैवाल, पनक, हरिद्रा, (हल्दी), आर्दक (अदरख) मूलक, अक (आलू ), सूरण, प्याज, लहसुन, और कंन्दः आदि । ये बनस्पतियों साधारण कहलाती हैं। तथा · वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि प्रत्येकशरीर कहलाती हैं। साधारण वनस्पतिकाय के एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। इनका તેના ભેદ-પ્રભેદ પૂર્વ પ્રમાણે આગમથી સમજી લેવા જોઈએ. તેજસ્કાય અને વાયુકાય ગતિશીલ હોવાના કારણે રસ પણ કહેવામાં આવે છે.
(૫) વનસ્પતિકાયના ભેદ–
. वनस्पति य म ४२. , -शाद, पनx,. RAI, भा, भूम, આલૂ, સૂરણ, ડુંગળી, લસણ અને કન્દ આદિ. આ વનસ્પતિઓ સાધારણ કહેવાય છે, જેમાં અનંત જે હોય તેને સાધારણ કહે છે) તથા વૃક્ષ, (ભગવતી સૂત્રમાં वृक्षाना सही पासा छे. (१) शृंगणे२ (माह)ी पेठे मनत वोiआ, (२) मामानी भा५४ सय ७वाजा आउt, (3) मने त-तमास. मेरे प्रभाव સંખ્યાત એવાળાં ઝાડે). ગુચ્છ, ગુલ્મ (નવમાલિકા ઈ વગેરે) લતા આદિ પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. સાધારણ વનસ્પતિ કાયના એક શરીરમાં અનન્ત - જીવ હોય છે. તેનું સ્થાન ઘોદધિ આદિ છે. સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાય સર્વ લોકવ્યાપી છે.
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(३) तेजस्कायभेदा: --
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तेजस्कायोऽनेकविधः - अङ्गाराचिरलातशुद्वाग्न्यादिभेदात् । इमे तेजस्काया जीवा यादराः । यत्रैकस्तेजस्कायस्तत्राऽसंख्यातास्नेजस्कायाः सन्ति । तेषां स्थानं सार्ववतीयद्वीप रूपसमय क्षेत्रमेव, न ततो वहिः । सूक्ष्मास्तु सर्वलोकव्यापिनः । एषां भेद-प्रभेदाः पूर्ववद् विज्ञेयाः
आचाराङ्गसूत्रे
(४) वायुकाय भेदा: -~-~
वायुकायः पौरस्त्य - पाश्चात्यायुत्क लिमण्डलिकादिभेदादनेकविधः । वादर'वायुकायानां स्थानं धनवात-तनुवात - तद्वलयाधोलोकपातालभवनादिकम् । सूक्ष्म argकाया सर्वलोकव्यापिनः । एषां भेदप्रमेदाः पूर्ववद वेदितव्याः । (३) तेजस्काय के भेद
तेजस्काय अनेक प्रकार का है, जैसे--अंगार, ज्वाला, अलात, शुद्ध-अग्नि भादि । जहाँ एक बादर तेजस्काय का जोव होता है वहाँ असंख्यात तेजस्काय होते हैं। इन का स्थान अढाईद्वीपरूप समय क्षेत्र ही है, उस से बाहर ये नहीं होते । सूक्ष्म तेजस्काय के जीव लोकव्यापी हैं । इन के भी भेद-प्रभेद आगम से समझने चाहिए ।
(४) वायुकाय के भेद
वायु के भी पूर्वा और पश्चिमी आदि के भेद से और उत्कलिक मण्डलिक आदि के भेद से अनेक प्रकार हैं । धनवात, तनुवात, वलय, अधोलोक और पाताल, भवन आदि चादर वायुकाय के स्थान हैं । सूक्ष्म वायुकाय सर्वलोकव्यापी है ।
(3) तेस्वायना ले---
तेनस्ट्ठाय अनेक अठारना है; प्रेम हे अंगार, આદિ જ્યાં એક ખાદર તેજસ્કાયનો જીવ હાય છે ત્યાં
वासा, असात, शुद्ध शनि, અસખ્યાત તે સ્કાય હાય
છે. તેનું સ્થાન અઢીદ્વીપરૂપ સમયક્ષેત્ર જ છે, તેનાથી બહાર તે નથી. સૂક્ષ્મ તેજરકાયના જીવ લેકવ્યાપી છે. તેના પણ લે-પ્રભેદ આગમથી જાણી લેવા જોઈ એ.
(४) वायुडायना -
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વાયુકાય પણ પૂર્વ અને પશ્ચિમ આદિના ` ભેદથી, અને ઉત્કલિક ( જેમ समुद्रभी) भाव, (भूणभांथी के गोज इरतो वात होय ते वायु) आहि हथी ने अमरनों छे, धनवात, तनुवात, वाय, अधोलो, भने पातास, ભવન આદિ ખાદર વાસુકાયના સ્થાન છે, અને સૂક્ષ્મ વાયુકાય સલાકવ્યાપી છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सृ.५ लोकवादिप्र०
इमौ तेजस्काय - वायुकायौ गतिस्वभावतया सावपि निगद्येते ।
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(५) वनस्पतिकायभेदा:
वनस्पतिकायोऽनेकविधः - शैवाल - पनक हरिद्रा - ट्रक- मूलका - लुकसूरण- पलाण्डु - लशुन- कन्दादिभेदात् । इमे वनस्पतिकायाः साधारणा उच्यन्ते । वृक्षगुच्छगुल्मलवादयः प्रत्येकशरीरा उच्यन्ते । साधारण वनस्पतिकायस्थैकस्मिन्
इनके भेद - प्रभेद पूर्ववत् आगम से जानने चाहिए | तेजस्काय और वायुकाय गतिशील होने के कारण त्रस भी कहे जाते हैं ।
(५) वनस्पतिकाय के मेद
वनस्पतिकाय अनेक प्रकार की है । जैसे- शैवाल, पनक, हरिद्रा, (हल्दी), आर्द्रक ( अदरख ) मूलक, अलक ( आद), सूरण, प्याज, लहसुन, और कंन्द आदि । ये वनस्पतिया साधारण कहलाती हैं । तथा वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि प्रत्येकशरीर कहलाती हैं । साधारण वनस्पतिकाय के एक शरीर में अनंन्त जीव होते हैं । इनका તેના ભેદ-પ્રભેદ પૂર્વ પ્રમાણે આગમથી સમજી લેવાં જોઈએ. તેજસ્કાય અને વાયુકાય ગતિશીલ હોવાના કારણે ત્રસ પણ કહેવામાં આવે છે.
(4) वनस्पतिडायना लेह
वनस्पति ाय भने प्रारे छे, भेभ-शैवाल, पनड, हरिद्रा, आहु, भूस४, भ्यासू, सूरय, डुंगणी, ससयु भने उन्: आहि आ वनस्पतियों साधारण्य : अहेवाय છે, (જેમાં અનંત જીવા હાય તેને સાધારણ કહે છે) તથા વૃક્ષ, (ભગવતી સૂત્રમાં वृक्षाना नथु लेहो· पाडेला छे. (१) शृंगमेर (आ) नी पेठे अनंत भोवाणां आडो, (२) आमानी भाई असंख्य भोवाणां जाडो, (3) भने ताड-तमास वगेरे प्रभा - સખ્યાત જીવેાવાળાં ઝાડા ). ગુચ્છ, શુક્ષ્મ (નવમાલિકા જાઈ વગેરે ) લતા આદિ પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. સાધારણ વનસ્પતિ કાયના એક શરીરમાં અનન્ત - જીવ હેાય છે. તેનું સ્થાન ઘનાદધિ આદિ છે, સૂમ વનસ્પતિકાય સર્વ લેાકવ્યાપી છે..
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· आचारागसूत्रे शरीरेऽनन्ता जीवाः सन्ति । एपां स्थानं घनोदध्यादि । मुश्मास्तु बनस्पतिकाया सर्वलोकव्यापिनः । एपां भेदमभेदाश्च शास्त्रतोऽवसेयाः । एते पक्ष स्थावराः स्पर्शनरूपैकेन्द्रियाः।
पञ्च जीवनिकाया उक्ताः, इदानीं पप्टनसाधिकारः कथ्यते
(६) प्रसकायमेदाःसत्वं द्विविधं, क्रियातो लब्धितश्च । तत्र क्रिया कर्म-चलनं-देशान्तरमाप्तिः। अतः क्रिययैव तेजस्कायो वायुकायश्च सो भवति । लब्ध्या तूभी स्थावरौ । द्वीन्द्रियादयस्तु क्रियया लब्ध्यापि असा भवन्ति । लब्धिर्हि त्रसनामकर्मोदयः, देशान्तरप्राप्तिलक्षणा क्रियाऽपि द्वीन्द्रियादीनाम् । स्थावरनामकर्मोदयरूपया स्थान धनोदधि आदि है। सूक्ष्म वनस्पतिकाय सर्वलोकव्यापी है। इनके भेद-प्रभेद शास्त्र से समझ लेने चाहिए । इन पांच स्थावरों को एकमात्र स्पर्शनइन्द्रिय होती है।
पांच जीवनिकायों का कथन किया जा चुका है। अब छठे त्रसकाय का प्ररूपग किया जाता है
(६) सकायअसपन दो प्रकार का है-क्रिया से और लब्धि से। कार्य करना, चलना, एक जगह से दूसरी जगह जाना क्रिया है । इस किया से हो तेजस्काय और वायुकाय त्रस कहलाते हैं। लब्धिकी अपेक्षा ये दोनों स्थावर ही हैं। द्वीन्द्रिय आदि, क्रिया से भी त्रस हैं और लब्धि से भी। यहाँ प्रसनामकर्म का उदय लब्धि है, और देशान्तर में તેના ભેદ-પ્રભેદ શાસ્ત્રથી સમજી લેવા જોઈએ. આ પાંચ સ્થાવરેને એક માત્ર સ્પર્શન ઈન્દ્રિય હેય છે.
આ પાંચ જવનિકાનું કથન કરી ચૂક્યા છીએ. હવે છઠ્ઠા ત્રસ કાયનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે—
(6) सायવસપણું બે પ્રકારનું છે-ક્રિયાથી અને લબ્ધિથી. કાર્ય કરવું. ચાલવું, એક જગ્યાથી બીજી જગ્યાએ જવું તે ક્રિયા છે. આ ક્રિયાથી જ તેજસ્કાય અને વાયકાય વસ કહેવાય છે, લબ્ધિની અપેક્ષાએ આ બને સ્થાવર જ છે. દ્વીન્દ્રિય આદિ કિયાથી પણ ત્રસ છે અને લધિથી પણ ત્રસ છે. અહિં વસનામકર્મને ઉદય તે લબ્ધિ છે. અને દેશાન્તરમાં ગમન કરવું તે ક્રિયા છે. હીન્દ્રિય આદિમાં એ બંને જોવામાં
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १. उ१. सु. ५. लोकवादिम०
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लब्ध्या पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सर्वे स्थावरा एव । एवं च त्रसः पविधः तेजस्काय - वायुकाय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रिय- भेदात् । तेजस्कायो वायुकायश्च प्रागुक्तः ।
तत्र
द्वीन्द्रियादिषु चतुर्विधेषु सजीवेषु द्वीन्द्रियास्तावदुच्यन्ते—
(१) द्वीन्द्रियः -
C
शरीरकाष्ठादिजाः -- कृमयः फलादिजाः - नीलङ्गप्रभृतयः, गोमयादिजाः -- गन्दोलकादयः, जलजा :- शमशुक्तिशम्यूकजलौकाप्रभृतयो द्वीन्द्रियाः । गमन करना किया है, द्वीन्द्रिय आदि में ये दोनों पाई जाती हैं । स्थावरनामकर्मोदयरूप लब्धि की अपेक्षा पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, और वनस्पति, ये सब स्थावर हैं । इस प्रकार त्रसजीव छह प्रकार के हैं - तेजस्काय, वायुकाय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय । इन में से तेजस्काय और वायुकाय का वर्णन पहले किया जा चुका है ।
द्वीन्द्रिय आदि चार प्रकार के सजीवों में से प्रथम द्वीन्द्रिय का स्वरूप बतलाते हैं(१) द्वीन्द्रिय
शरीर और काठ आदि में उत्पन्न होने वाली कृमि, फल आदि में उत्पन्न होने वाले नीलंगु वगैरह, गोवर में उत्पन्न होने वाले गिंडोला वगैरह, जल में पैदा होने वाले शङ्ख, सीप, जांक आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं । इन के स्पर्शन और रसना, ये दोभावे छे. स्थावरनाभम्भोध्य सम्धिनी अपेक्षा - पृथ्वी, मयू, तेल, वायु, वनस्पति, આ સર્વ સ્થાવર છે. આ પ્રમાણે ત્રસ જીવ છ પ્રકારના છે—તેજસ્કાય, વાયુકાય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય. આમાંથી તેજસ્કાય અને વાયુકાયનુ વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે.
દ્વીન્દ્રિય આદિ ચાર પ્રકારના तावे छे.
ત્રસ જીવેામાંથી દ્વીન્દ્રિય આદિનુ` સ્વરૂપ
(१) द्वीन्द्रिय
શરીર અને કાષ્ઠ આદિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા કૃમિ, ફળ આદિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા નીલગુ વગેરે. છાણમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા ગાલા વગેરે. જલમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા શુખ, શીપ, જળો વગેરે દ્વીન્દ્રિય જીવ છે. તેને સ્પર્શન અને
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· आचारागसूत्रे शरीरेऽनन्ता जीवाः सन्ति । एपां स्थानं घनोदध्यादि । मुक्ष्मास्तु बनस्पतिकाया सर्वलोकव्यापिनः । एपां भेदप्रभेदाच शास्त्रतोऽबसेयाः । एते पश्च स्थावराः स्पर्शनरूपैकेन्द्रियाः।
पञ्च जीवनिकाया उक्ताः, इदानीं पष्ठनसाधिकारः कथ्यते
(६) प्रसकायमेदाःसत्वं द्विविधं, :क्रियातो लब्धितश्च । तत्र क्रियाकर्म-चलनं-देशान्तरमाप्तिः । अतः क्रिययैव तेजस्कायो वायुकायश्च प्रसो भवति । लब्ध्या तूभी स्थावरौ । द्वीन्द्रियादयस्तु क्रियया लब्ध्यापि त्रसा भवन्ति । लब्धिर्हि त्रसनामकर्मोदयः, देशान्तरप्राप्तिलक्षणा क्रियाऽपि द्वीन्द्रियादीनाम् । स्थावरनामकर्मोदयरूपया स्थान धनोदधि आदि है। सूक्ष्म वनस्पतिकाय सर्वलोकव्यापी है। इनके भेद-प्रभेद शास्त्र से समझ लेने चाहिए । इन पांच स्थावरों को एकमात्र स्पर्शनइन्द्रिय होती है ।
पांच जीवनिकायों का कथन किया जा चुका है। अब छठे त्रसकाय का प्ररूपण किया जाता है
(६) सकायसपन दो प्रकार का है-क्रिया से और लब्धि से | कार्य करना, चलना, एक जगह से दूसरी जगह जाना क्रिया है । इस क्रिया से हो तेजस्काय और वायुकाय त्रस कहलाते हैं। लब्धिकी अपेक्षा ये दोनों स्थावर ही हैं । द्वीन्द्रिय आदि, क्रिया से भी त्रस हैं और लब्धि से भी। यहाँ बसनामकर्म का उदय लब्धि है, और देशान्तर में તેના ભેદ-પ્રભેદ શાઅથી સમજી લેવા જોઈએ. આ પાંચ સ્થાવરને એક માત્ર સ્પર્શન ઈન્દ્રિય હોય છે.
આ પાંચ જવનિકાનું કથન કરી ચૂક્યા છીએ. હવે છઠ્ઠા ત્રસ કાયનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે—
(६) समय-- . . ઢસપનું બે પ્રકારનું છે-ક્રિયાથી અને લબ્ધિથી. કાર્ય કરવું. ચાલવું, એક જગ્યાથી બીજી જગ્યાએ જવું તે ક્રિયા છે. આ ક્રિયાથી જ તેજસ્કાય અને વાયુકાય ત્રસ કહેવાય છે, લબ્ધિની અપેક્ષાએ આ બન્ને સ્થાવર જ છે. કીન્દ્રિય આદિ ક્રિયાથી
બ્રસ છે અને લધિથી પણ ત્રસ છે. અહિં વસેનામકર્મને ઉદય તે લધિ છે. અને દેશાતરમાં ગમન કરવું તે ક્રિયા છે. દ્વીન્દ્રિય આદિમાં એ બંને જોવામાં
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___ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ २.५ लोकवादिम०
. .(४). पञ्चेन्द्रियजीवाः-. . पञ्चेन्द्रियजीवाश्चतुर्धा-नारक-तिर्यङ्-मनुष्य-देव-भेदात् , नारकाः सप्तविधाः, सप्तनरकेपु समुद्भवात् । रत्न(१)-शर्करा(२)-वालुका(३)-पङ्क(४)-धूम (५)-तमो(६)-महातमो(७)-नाम्न्यः सप्त पृथिव्यस्तत्र सप्त नरकभूमयः, तत्र ये निवसन्ति ते नारकाः सप्तविधा इति । नारकतिर्यकमनुष्यदेवानां स्पर्शनरसन-प्राण-चक्षुः-थोत्राणि पञ्चेन्द्रियाणि भवन्ति । · पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चो द्विविधाः- गर्भज-समृछिमभेदात् । तत्र-गर्भजाः पञ्चधा-जलचर-स्थलचर-खेचरो-र-परिसर्प-भुजपरिसर्पभेदाद । संमूर्छिमा अपि
(४) पञ्चेन्द्रियजीव___पञ्चेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं--(१) नारक, (२) तिर्यञ्च, (३) मनुष्य, और (४) देव ।
नारक सात प्रकार के हैं, क्यो कि सात नरकों में उनकी उत्पत्ति होती है । (१) रत्नप्रभा (२) शर्कराप्रभा (३) वालुकाप्रमा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा और (७) तमस्तमःप्रमा नामक सात पृथिवी हैं। वहाँ सात नरकभूमिया हैं । इन भूमियो में निवास करने वाले नारकी भी सात - प्रकार के कहलाते हैं। नारक. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, और श्रोत्र, ये पांच इन्द्रिया होती हैं।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च दो प्रकार के हैं-गर्मज और समूर्छिम । इन में गर्भज के पांच भेद हैं-(१) जलचर, (२) स्थलचर, (६) खेचर, (४) उरःपरिसर्प और (५) भुजपरिसर्प ।
(४) पथन्द्रियपांच घन्द्रियो पा ०१ या२ प्रा२न छ-(१) ना२४ी, (२) तिय"य, (3) મનુષ્ય, અને (૪) દેવ. નારકીના સાત પ્રકાર છે, કારણે કે સાત નરકમાં તેની उत्पत्ति डाय छे. (१) नमा, (२) २४शमला, (3) gluमा, (४) मा, (५) धूमना, (6) भाप्रमा मने. (७) तभस्तम:-सा नामनी सात पृथिवी छे. ત્યાં સાત નરકભૂમિઓ છે. તે નરકભૂમિએમાં નિવાસ કરવા વાળા નારકી પણ સાત પ્રકારના કહેવાય છે. નારકી, પંચેન્દ્રિય-તિર્યંચ, મનુષ્ય, અને દેશને સ્પર્શન, • રસના ઘાણ, ચક્ષુ અને શ્રોત્ર, આ પાંચ ઈન્દ્રિય હોય છે.
. पयन्द्रिय तिर्थ य मे २ छ-(१) Tr, (२)भूछिभ. तभा Tril .पांथ ले छे:-(१) reयर, (२).स्थलयर, (3) प्रेयर, .(४) - १२:५रिसप, अने.
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आचाराने इमे स्पर्शन-रसनोभयेन्द्रियाः द्वीन्द्रिया जीवा असंख्याताः । ..
' ' ' (२) त्रीन्द्रियाः- . . . . . . . श्रीन्द्रियाः पिपीलिकादया-पिपीलिका-रोहिणिका-कुन्थु-यूक-लिक्ष-मत्कुणमत्कोटक-शुलशुल--गोपदिका-खजूरा-कर्णशूलादयः प्रसिद्धाः । इमे स्पर्शन-रसनघाणेन्द्रियाः । त्रीन्द्रिया असंख्याताः। ..
(३) चतुरिन्द्रियाःचतुरिन्द्रियाः भ्रमरादयः-भ्रमर-चटर-मक्षिका-दंश-मशक-वृश्चिक-कीट-. कसारी-पतङ्गादयः प्रसिद्धाः । इमे स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षु-रिन्द्रियाः । चतुरिन्द्रिया अपि असंख्याताः। इन्द्रियां होती हैं । द्वीन्द्रिय जीव असंख्यात है।
(२) त्रीन्द्रियपिपीलिका (कीडी), रोहिणिका, कुन्थुवा, जू, लीख, खटमल, मकोडा, शुलशुल, गोपदिका, खजूरा, कर्णशूल, आदि त्रीन्द्रिय जीव प्रसिद्ध हैं । इनके स्पर्शन रसना और प्राण, ये तीन इन्द्रिया होती हैं । त्रीन्द्रिय जीव असंख्यात हैं।
। (३) चतुरिन्द्रिय- . . . . . . . भ्रमर, वटर, मक्खी, डांस, मच्छर, बिच्छू, कोट, पंतन, कंसारी, आदि चौइन्द्रिय जीव प्रसिद्ध है। इनके स्पर्शन, रसना, प्राण, और चक्षु, ये चार इन्द्रिया होती हैं। ये जीव असंख्यात है। રસના એ બે ઈન્દ્રિયે વાળા છ અસંખ્યાત છે.
(२) श्रीन्द्रिय Aa, लिपि, युवा, j, eी, मांss, भ , शुखशुस, 6ि, કાનખજૂરા, કર્ણફૂલ આદિ ત્રિીન્દ્રિય જીવ પ્રસિદ્ધ છે. તેને સ્પર્શન, રસના, અને ઘાણ. આ ત્રણ ઈન્દ્રિયો હોય છે. ત્રીન્દ્રિય જીવ અસંખ્યાત છે.
(3) यन्द्रियसमस, १८२, भाभी, संस, भ२०२, पीछी, ट, ५५, ४ सारी माहियार ઇન્દ્રિયવાળા જીવ પ્રસિદ્ધ છે. તેમને સ્પશન રસના, ઘાણ અને નેત્ર આ ચાર छन्द्रियो साय छे..4-मसभ्यात छ. .
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ लोकवादिप्र०
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भरतानि पञ्चैवतानि पञ्च महाविदेहाः । तत्र पञ्चसु महाविदेहेषु पञ्च देवकुरुक्षेत्राणि पञ्चोत्तरकुरुक्षेत्राणि अन्तर्गतानि तानि विहाय पञ्च महाविदेहा कर्मभूमयो भवन्ति । एषु पञ्चदशसु क्षेत्रेषु जाता एव ज्ञानावरणीयादिसकलकर्मतस्करेभ्यः संसारमहारण्ये परिमुक्ता मोक्षधामाभिधावन्ति । एतत्पञ्चदशव्यतिरिक्तेषु क्षेत्रेषु जन्म प्राप्ताः पुनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणमोक्षमार्ग लब्धुं न प्रभवन्ति ।
अहो भव्यप्राणिनः ! स्वनिः यसाय शीघ्रं प्रयतन्ताम्, अनन्तकालतः पड्जीवनिकायानां भवस्थिति - कार्यस्थितिपु - अनन्तजन्म- जरा - मरणाद्यनंन्तदुःखमनुभूय पूर्वपुण्योदयेन दुर्लभमिदं मनुष्यजन्म कर्मभूमौ लब्धम् । देश विरति - सर्वविरति - महाविदेहों में पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्र भी अन्तर्गत हैं, उन्हें छोड़कर पांच महाविदेह कर्मभूमि हैं । इन पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ही ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मरूपी चोरों से संसाररूपी महा अरण्यो में छूटकर मोक्षधाम जाते हैं । इन पन्द्रह क्षेत्रों से भिन्न क्षेत्रों में जन्म लेने वाले, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते ।
"
अहो भव्य जीवो ! अपने श्रेय (कल्याण) के लिए शीघ्र प्रयत्न करो । अनादि काल से पडजीवनिकाय की भवस्थिति और कार्यस्थिति में अनन्त जन्म, जरा, मरण आदि का दुःख भोगकर पूर्वपुण्य के उदय से कर्मभूमि में दुर्लभ मनुष्य भव मिला है । देशविरति और सर्वविरतिके रूप सुधा परिपूर्ण मनुष्यायु रूप कटोरको
से
પાંચ મહાવિદેહમાં પાંચ દેવકુરૂ, અને ઉત્તરકુરૢ ક્ષેત્ર પણ અતગત છે. તેને છેડીને પાંચ મહાવિદેહ કભૂમિ છે. આ પંદર કમ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા મનુષ્ય જ જ્ઞાનાવરણીય આદિ તમામ કરૂપી ચારાથી સ ́સારરૂપી મહા— અરણ્યમાંથી છુટીને મેક્ષધામ જાય છે. આ પંદર ક્ષેત્રેાથી ભિન્ન ક્ષેત્રોમાં જન્મ લેવાવાળા સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર સ્વરૂપ મેાક્ષમાને પ્રાપ્ત કરવા સમર્થ થતા નથી.
અહે। ભવ્ય જીવે ! પોતાના કલ્યાણ માટે શીઘ્ર-જલદી પ્રયત્ન કરી! અનાદિ કાળથી ષડૂજીવનકાયની ભવસ્થિતિ અને કાયસ્થિતિમાં અનન્ત જન્મ, જરા, મરણ. આદિનું દુઃખ ભેાગવીને પૂર્વ પુણ્યના ઉદયથી · કર્મભૂમિમાં દુર્લભ મનુષ્ય લવ મળ્યેા છે. દેશવરતિ અને સવિરતિરૂપ અમૃતથી પરિપૂર્ણ મનુષ્યાયુરૂપ ઓ
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आचाराङ्गमा पञ्चधा-जलचर(१)-स्थलचर(२)-खेचरो(३)-र-परिसपै(४)-भुजपरिसर्पभेदात् । तत्र जलचरा मत्स्यमकरादयः, स्थलचरा गोमहिप्यादयः, · खेचराः मयूरादयः, उरम्परिसः सदियः, भुजपरिसर्पाः गोधादयः।
___ मनुष्या द्विविधाः-कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः। यत्र जाता मनुष्याः सिध्यन्ति; बुध्यन्ते, परिनिर्वान्ति; सर्वदुःखानामन्त्रं कुर्वन्ति सा कर्मभूमिः। अत्रैव संसारान्तप्राप्तिकारकस्य रत्नत्रयरूपमोक्षमार्गस्य विज्ञातारः कर्तार उपदेष्टारश्व भगवन्तस्तीर्थङ्करा अवतरन्ति । ते च स्वयं संसारार्णवं तरन्ति, परान् भन्यानपि, तारयन्ति । अर्धत्तीयद्वीपाभ्यन्तरे कर्मभूमयः पञ्चदशक्षेत्ररूपा भवन्ति-पञ्च
संमूर्छिम के भी पांच मेद हैं-(१) जलचर, (२) स्थलचर, (३) खेचर, (४) उर:परिसर्प और (५) मुजारिसर्प । मच्छ, मकर, आदि जल के जीव जलचर कहलाते हैं। गार भंस आदि स्थलचर कहलाते हैं। मयूर आदि खेचर कहलाते हैं। सर्प आदि उरःपरिसर्प और गुहेरा (गोह ) आदि मुजपरिसर्प कहलाते हैं।
मनुष्य दो प्रकार के हैं-कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज । जहाँ उत्पन्न होकर जीव सिद्ध बुद्ध होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं, उसे कर्मभूमि कहते है। संसार का अन्त करने वाले, रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता, कर्ता और उपदेशक तीर्थकर भगवान कर्मभूमि में ही उत्पन्न होते हैं। वे स्वयं संसार समुद्र तरते हैं और दूसरे भव्य जीवों को भी तारते हैं। अढाई द्वीप में पन्द्रह फर्मभूमिया हैं-पाच भरत क्षेत्र में, पांच ऐरवत क्षेत्र में, और पांच महाविदेह में। पांच (५) सुपरिस. भ२७, भ४२ (भार) साहि ना १ सयर पाय छे. ગાય, ભેંસ આદિ સ્થલચર કહેવાય છે મયૂર (માર) આદિ ખેચર કહેવાય છે. સર્ષ આદિ ઉરપરિસર્પ, અને ઘાયરા આદિ ભુજપરિસર્ષ છે.
भनुष्य मे ना छ--(१) ४मभूमिम, (२) म४मभूमि०४, armi Sपन्न થઈને જીવ સિદ્ધ બુદ્ધ હોય છે, નિવણ પ્રાપ્ત કરે છે, અને સર્વ દુઃખોનો અંત કરે છે તેને કર્મભૂમિ કહે છે. સંસારને અંત કરવાવાળા, રત્નત્રયરૂપ મોક્ષમાર્ગને જ્ઞાતા કર્તા, અને ઉપદેશક તીર્થંકર ભગવાન્ કર્મભૂમિમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્વયે સંસાર સમુદ્રને તરે છે અને બીજા ભવ્ય જીવોને પણ તારે છે. અહી દ્વિપમાં પંદર કર્મભૂમિ છે-પાંચ ભરતક્ષેત્રમાં, પાંચ એરવત ક્ષેત્રમાં અને
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- अहो भव्यमाणिनः ! स्वनिः यसाय शीघ्र प्रयतन्ताम्, अनन्तकालतः पड्जीवनिकायानां भवस्थिति-कायस्थितिपु-अनन्तजन्म-जरा-मरणाद्यनन्तदुःखमनुभूय पूर्वपुण्योदयेन दुर्लभमिदं मनुष्यजन्म कर्मभूमौ लब्धम् । देशविरति-सर्वविरतिमहाविदेहों में पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्र भी अन्तर्गत हैं, उन्हें छोडकर पांच महाविदेह कर्मभूमि हैं। इन पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ही ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मरूपी चोरों से संसाररूपी महा अरण्यो में छूटकर मोक्षधाम जाते हैं । इन पन्द्रह क्षेत्रों से भिन्न क्षेत्रों में जन्म लेने वाले, सम्यग् , दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते ।
अहो भव्य जीवो ! अपने श्रेय (कल्याण) के लिए शीघ्र प्रयत्न करो। अनादि काल से पडजीवनिकाय की भवस्थिति और कायस्थिति में अनन्त जन्म, जरा, मरण आदि का दुःख भोगकर पूर्वपुण्य के उदय से कर्मभूमि में दुर्लभ मनुष्य भव मिला है। देशविरति और सर्वविरतिके रूप सुधा से परिपूर्ण मनुष्यायु रूप कटोरको પાંચ મહાવિદેહમાં પાંચ દેવકુરૂ, અને ઉત્તરકુરૂ ક્ષેત્ર પણ અન્તર્ગત છે. તેને છોડીને પાંચ મહાવિદેહ કર્મભૂમિ છે. આ પંદર કર્મભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા મનુષ્ય જ જ્ઞાનાવરણીય આદિ તમામ કર્મરૂપી ચેરથી સંસારરૂપી મહાઅરણ્યમાંથી છુટીને મેધામ જાય છે. આ પંદર ક્ષેત્રેથી ભિન્ન ક્ષેત્રોમાં જન્મ લેવાવાળા સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર સ્વરૂપ મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરવા સમર્થ થતા નથી.
. भाडे। सव्य ! पोताना ४त्या भाटे शी-varl प्रयत्न ! અનાદિ કાળથી ષડૂછવનિકાયની ભવસ્થિતિ અને કાયસ્થિતિમાં અનન્ત જન્મ, જરા, મરણ આદિનું દુઃખ ભેળવીને પૂર્વપુણ્યના ઉદયથી કર્મભૂમિમાં દુર્લભ મનુષ્ય છે ભવ મળે છે. દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિરૂપ અમૃતથી પરિપૂર્ણ મનુષ્યાયું -
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पागदानिया गुप्पामा म मामा
पमहंगन, initin च रागराग, पत्र मसारण मा नि Frm. .. पार पुगतारापो कि मा सा गीपनानागादिदिलाया।
नापटीप मागप्रमदापरिमन्य पमा
निगा । परम् ५५
.
: प रमन, पर . परमामला: RAIN
माः सर्ग मर्मत
মানুষ মিমামা
। पान परपस प्रमशरपत्रि1. मानस माम्बार के मुत्र
भरर्मभूमिका फगन
" पाप एपकर्ष पांन वापरत, पांच दस
MARATHmmmi ana, aur पश्यिा मगद
पाप mm, पाप हरिप, पाप एयर भार पनि राजगीर अन्तरदीप, पेसर भी युगलियार हो; कारण अकामगिदी। इन जन्ग भादि गही होगा।
जम्यूदी । गरग क्षेत्रको पर्यादा फरने पाठ .. पधिमभाग से या भाकारीनी-गो बाटाएं निकली है। ३ मर्यादा करने वाले शिक्षारिपधराप पर्प और पभिम भागास કરાને છીનવી લેવા માટે મૃત્યું રાજ હો છે. એ કારક અમૃતના સ્વાદના સુખથી વંચિત રહેશે નહિ.
माभिन ४५नપાંચ હેમવત, પાંચ હરિવર્ષ, પાંચ રમ્યક વર્ષ, પાંચ દેવગર, અને પાંચ ઉત્તરકુરૂ, આ ત્રીસ, અને છપ્પન અન્તરદ્વીપ, આ ભૂમિ છે. અંતર કપિ પણ જીગળીયા ક્ષેત્ર હોવાના કાર અકર્મભૂમિ ° , કેઈ પણ સ્થળે તીર્થંકરની જન્મ આદિ થતો નથી,
અદ્વીપમાં ભરત ક્ષેત્રની મર્યાદા કરવાવાળા હિમવત પર્વતના પૂર્વ
ભાગથી વક આકારની બે-બે દાઢી નીકળી છે. એ પ્રકારે એરવત aan शिरी पर्वतन पूर्व मने पश्चिम भागाथा -
पसर मर्ममनि है। मत्तमा ५। इनमें कभी भी तीर्थर
हिमपदपर्वत के पूर्वभाग और
है। इसी प्रकार ऐरक्त क्षेत्र की भागा से दो दो वक्राकार दादाएं આ કારણથી તમે વિરતિરૂપી
Aarraimay
રયવત, પાંચ
॥५, २स भ “ભૂમિ જ છે. તેમાં
ના પૂર્વભાગ અને ઐરાત ક્ષેત્રની
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. उ.१ २.५ लोकवादिन पर्वतस्य, पूर्व-पश्चिमान्तभागद्वयाद् वक्राकारे द्वे द्वे दंष्ट्रे निःसृते स्तः । अप्टासु दंष्ट्रामु भागे सप्त सप्तान्तरद्वीपाः सन्ति । एवं पट्पञ्चाशदन्तरद्वीपा भवन्ति । अन्तरद्वीपना अप्यकर्मभूमिजाः। तत्रोभयेषां मनुष्याणामुच्चारादिपु संमूर्छिमा मनुष्या उभयविधासु भूमिपु जायन्ते।
__तत्र गर्भजा मनुष्या एकोत्तरशतम् (१०१), पर्याप्तापर्याप्तमेदाद् द्वयधिकशतद्वयम् (२०२), संमूर्छिममनुप्या अपर्याप्तमात्रतया-एकोत्तरशतमेव (१०१), सर्वेषु संमिलितेपु त्र्युत्तरशतत्रयं (३०३) मनुष्याणां भेदाः भवन्ति ।
देवनिकाय:देवाश्चतुर्विधाः-भवनपति१-व्यन्तरर-ज्योतिप्क३-चैमानिक४-भेदात् । निकली हैं । इन आठ दाढों पर सात-सात अन्तरद्वीप हैं। इस प्रकार छप्पन अन्तरद्वीप हैं। अन्तरद्वीपज (अन्तरद्वीप में उत्पन्न हुए) जीव भी अकर्मभूमिज ( अकर्मभूमि में उत्पन्न हुए) कहलाते हैं । इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के मल आदि में, दोनों भूमियों में संमूछिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
गर्भज मनुष्य एक सौ एक (१०१) प्रकार के हैं। इनके प्रर्याप्त और अपर्याप्त. मेद करने से दो सौ दो (२०२) भेद होते हैं। संमूछिम मनुष्य अपर्याप्त ही होते हैं, अतः उनके एक सौ एक (१०१) भेद मिला देने से मनुष्यों के कुल भेद तीन सौ तीन (३०३) हो जाते हैं।
देवनिकायदेव चार प्रकार के हैं-(१)भवनपति, (२) व्यन्तर, (३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक । આ આઠ દા પર સાત-સાત અન્તરદ્વીપ છે. આ પ્રમાણે છપન અન્તરદ્વીપ છે. અન્તરદ્વીપજ (અન્તરદ્વીપમાં ઉત્પન્ન થનારા) જીવ પણ અકર્મભૂમિ જ (અકર્મ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થનારા) કહેવાય છે. આ બંને પ્રકારના મનુષ્યોનાં મળ આદિમાં એ બંને ભૂમિએમાં સંમૂઈિમ મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે.
ગર્ભજ મનુષ્ય એક એક (૧૦૧) પ્રકારના છે. તેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદ કરવાથી બસો બે (૨૦૨) ભેદ થાય છે. સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય અપર્યાપ્ત જ હોય છે તે કારણથી તેના એક એક (૧૦૧) ભેદ તેમાં મેળવવાથી મનુષ્યના કુલ ત્રણ प (303) से थाय छे.
पनिमयहेव २ २ छ-(१) सपनपति, (२) व्यन्त२, (७) न्याति भने (४) पैमानि.
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आचारास्त्रे पीयूषपूर्णमेतन्मनुष्यायुकटोरकं मृत्युरपहर्त पुरोऽवतिष्ठते । तदत्र विरतिमधास्वादसुखवञ्चिता भवन्तो मा भवन्तु ।
___ अकर्मममयः मध्यन्तेपञ्च हैमवतानि, पञ्च हरिवाणि, पञ्च रम्यफवाणि, पञ्चरण्यवतवर्षाणि, पश्च देवकुरवः पश्चोत्तरकुरवः, इति विशद, पट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः । अन्तरद्वीपा अपि युगलक्षेत्रत्वादकर्मभूमयो भवन्ति। एताः सर्वा अकर्मभूमया, तीर्थङ्कारजन्मादिरहितत्वात् ।
जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रमर्यादाकारकहिमवत्पर्वतस्य पूर्वपश्चिमान्तभागद्वयात् वक्राकारे द्वे द्वे दंष्ट्रे निःसृते स्तः। एवम् ऐवतक्षेत्रमर्यादाकारकशिखरिछीनने के लिए मृत्यु सामने खड़ा है, अतः आप विरतिरूपी सुधा के आस्वाद के सुख से वञ्चित मत रहो।
____ अकर्मभूमिका कथनपांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच ऐरण्यवत, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु, ये तीस, और छप्पन अन्तर द्वीप, ये सब अकर्मभूमि हैं । अन्तरद्वीप भी युगलियाक्षेत्र होने के कारण अकर्मभूमि ही हैं। इन में कभी भी तीर्थंकर का जन्म आदि नहीं होता।
जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र की मर्यादा करने वाले हिमवत्पर्वत के पूर्वभाग और पश्चिमभाग से वक्र आकार को दो-दो दाढाएँ निकली हैं। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाले शिखरिपर्वत के पूर्व और पश्चिम भागों से दो दो वक्राकार दादाएँ કટેશને છીનવી લેવા માટે મૃત્યુ સામેજ ઉભેલો છે. એ કારણથી તમે વિરતિરૂપી અમૃતના સ્વાદના સુખથી વંચિત રહેશે નહિ. .
અકર્મભૂમિનું કથન – પાંચ હેમવત, પાંચ હરિવર્ષ, પાંચ રચ્યક વષ, પાંચ એરણ્યવત, પાંચ દેવગુરૂ, અને પાંચ ઉત્તરકુરૂ, આ ત્રીસ, અને છપ્પન અન્તરદ્વીપ, આ સર્વે અકર્મ ભૂમિ છે. અંતર દીપ પણ જુગળીયા ક્ષેત્ર હોવાના કારણે અકર્મભૂમિ જ છે, તેમાં કોઈ પણ સ્થળે તીર્થકરને જન્મ આદિ થતો નથી.
જમ્બુદ્વીપમાં ભરત ક્ષેત્રની મર્યાદા કરવાવાળા હિમવત પર્વતના પૂર્વભાગ અને પશ્ચિમ ભાગથી વક્ર આકારની બે-એ દાઢ નીકળી છે. એ પ્રકારે ઐવિત ક્ષેત્રની મર્યાદા કરવાવાળા શિખર પર્વતના પૂર્વ અને પશ્ચિમ ભાગોથી બે-બે વાકાર
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ मु.५ लोकवादिप्र० २८५
तत्र बहवोऽमुरकुमारा आवासेपु, तथा कदाचिद् भवनेषु च निवसन्ति । तथा नागकुमारादयः सर्वे प्रायशो भवनेष्वेव प्रतिवसन्ति । रत्नप्रभापृथ्वीपिण्डालमधश्वकैकसहस्रयोजनं विहायैकलक्षाप्टसप्ततिसहस्रयोजनानि तु रत्नप्रभातोऽधस्तानवतिसहस्रयोजनपरिमाणभाग एव भवन्ति, तत्र भवनानि दक्षिणार्धाधिपतीनां चमरेन्द्रादीनाम् , उत्तरार्धाधिपतीनां वलीन्द्रादीनाम् । महामण्डपबदावासाः, भवनानि नगरसदृशानि भवन्ति, परन्तु तानि भवनानि वहिवृत्तानि, अभ्यन्तरे समचतुष्कोणानि, तलभागे तु पृष्करकर्णिकावद् भवन्ति । अम्बादयः परमाधार्मिका अपि असुरकुमारजातीयाः पञ्चदश सन्ति-१अम्बारम्बरोप
वहीं बहुत से अमुरकुमार आवासों में और कभी-कभी भवनों में निवास करते हैं। नागकुमार सब प्रायः भवनों में हो रहते हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी के पिण्ड से ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोडकर एक लाख अठहत्तर हजार योजन परिमाण में मध्य भाग में सभी जगह असुरकुमार देवों के आवास हैं, किन्तु भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे नवे हजार योजन परिमित भाग में ही हैं। वहाँ दक्षिणार्धाधिपति चमरेन्द्र आदि के
और उत्तरार्द्धाधिपति वलीन्द्र आदि के भवन हैं। महामण्डप के समान आवास हैं। नगर के समान भवन है, किन्तु वे बाहर गोलाकार और भीतर समचतुष्कोण हैं । उनका तलमाग कमल की कर्णिका के समान होता है। अम्ब आदि पन्द्रह परमाधार्मिक भी असुरकुमार जाति के हैं। उनके नाम-(१) अम्ब, (२) अम्बरीप, (३) श्याम, (१) शवल,
ત્યાં ઘણા અસુર કુમારે, આવામાં અને કઈ કઈ વખત ભવને માં નિવાસ કરે છે. નાગકુમાર સર્વ પ્રાય: ભવનમાં નિવાસ કરે છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પિંડથી ઉપર અને નીચે એક-એક હજાર એજન છેડીને, એક લાખ અડચોતેર હજાર એજન પરિમાણમાં મધ્યભાગમાં સર્વ જગ્યાએ અમુકુમાર દેવેના આવાસ છે. પરંતુ ભવન, રત્નપ્રભા પૃથ્વીની નીચે (૯૦૦૦૦) નેવું હજાર જન પરિમિત ભાગમાં જ છે. ત્યાં દક્ષિણાધિપતિ ચમરેન્દ્ર આદિના અને ઉત્તરાર્ધાધિપતિ બલીન્ક આદિના ભવન છે. મહામંડપની સમાન આવાસ છે. નગરના સમાન ભવન છે. પરંતુ તે ભવને બહારથી ગળાકાર અને અંદરથી સમચતુષ્કોણ છે. તેને તળીઆનો ભાગ
કમલની કણિકા સમાન હોય છે. અમ્બ આદિ પંદર પરમાધાર્મિક પણે અસુરકુમાર ___ तिना छे. तसोना नाम भटे-(१) अभ्म, (२) सम्मरी५, (3) श्याम, (४)
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.' आचारागसूत्र (१) भवनपतिदवमेदाःतत्र भवनपतयो दशविवाः-(१) अमरकुमाराः, (२) नागकुमाराः, (३) सुवर्णकुमाराः, (४) विद्युत्कुमाराः, (५) अग्निकुमाराः, (६) द्वीपकुमारा:, (७) उदधिकुमाराः, (८) दिशाकुमाराः, (९) वायुकुमाराः, (१०) स्तनितकुमाराथ। कुमारा इव सुकुमारा मनोहरा मृदुमधुरललितगतयः कुमारवदभिव्यक्तरागाः केलिविलोलितचेतसः कुमारवयोद्धतरूपवेषभापाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाश्चत्यतः 'कुमारा' इत्युच्यन्ते । जम्बूद्वीपे सुमेरुपर्वतस्याधस्तादक्षिणोत्तरभागयोस्तिर्यग्भागेऽनेककोटिकोटिलक्षयोजनं यावद् भवनपतयो निवसन्ति ।
(१) भवनपतिदेवभवनपति देव दश प्रकार के हैं-(१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुवर्णकुमार, (४) विद्युत्कुमार, (५) अग्निकुमार, (६) द्वीपकुमार, (७) उदधिकुमार, (८) दिशाकुमार, (९) वायुकुमार और (१०) स्तनितकुमार ।
. कुमार के समान सुकुमार, मनोहर, मृदु, मधुर, ललित गतिवाले, कुमार के समान राग व्यक्त करने वाले, क्रीडा में चित्त लगाने वाले, कुमार के समान ही उद्रत रूप, वेष, भाषा, आभूषण, आयुध, यान, वाहन आदि धारण करने वाले होने से ये देव, कुमार कहलाते हैं । जम्बू द्वीप में सुमेरु पर्वत के नीचे दक्षिण भाग और उत्तर भाग के तिरछे भाग में अनेक कोडा-कोडी लाख योजन तक भवनपति देव निवास करते हैं।
(1) सपनपति
सपनपति देव स प्रारछे-(१) सुमार, (२) नाममार, (3) सुवर्णसुमार, (४) विधभार, (५) अनिमार, (6) द्वीपभा२, (७) धिभार, (८) हिशमार (6) पायुमार, अने (१०) स्तनित भा२.
કુમાર પ્રમાણે, સુકુમાર, મનોહર, મૃદુ, મધુર, લલિતગતિવાળા, કુમારના સમાન રાગ વ્યક્ત કરવા વાળા, કીડામાં ચિત્ત લગાવવા વાળા, કુમારના પ્રમાણે ઉત-૫, વેપ, ભાષા આભૂષણ, આયુધ, યાન, વાહન આદિ ધારણ કરવા વાળા સવાથી તે દેવ, કુમાર કહેવાય છે. જમ્બુદ્વીપમાં સુમેરુ પર્વતની નીચે દક્ષિણભાગ હર ઉત્તર ભાગના તિછ ભાગમાં અનેક કેડા-છેડી લાખ યોજન સુધી ભવનપતિ દેવ નિવાસ કરે છે.
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १. उ१. सू. ५. लोकवादिम०
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व्यन्तराः पोडशविधाः - १ पिशाच - २ भूत - ३ यक्ष-४ राक्षस - ५ किनर ६ किंपुरुष-७महोरग - ८गन्धर्वा-९ प्रज्ञप्तिक- १० पञ्चप्रज्ञहिक - ११ ऋपिवादिक १२ भूतवादिक - १३ क्रन्दित - १४ महाक्रन्दित १५ कृष्माण्ड - १६पतंग भेदात् । ( स्था. स्या. २ उ ३ )
जृम्भका अपि व्यन्तरदेवा दश सन्ति । यथा- (१) अन्नजृम्भकाः (२) पानजृम्भकाः, (३) वत्रजृम्भकाः, (४) लयनजृम्भकाः, (५) शयनजृम्भकाः, (६) पुष्पजृम्भकाः, (७) फलजृम्भकाः, (८) पुप्पफलम्भकाः, (९) विद्याजम्भकाः, (१०) अव्यक्तजृम्भकाः ।
(६) ज्योतिष्कदेवा:
ज्योतींषि - प्रभापुञ्जस्वरूपाणि समुज्ज्वलानि विमानानि, तत्र भवाः व्यन्तर देव सोलह हैं - (१) पिशच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, (५) किन्नर, (६) किंपुरुष, (७) महोरग, (८) गन्धर्व, (९) अप्रज्ञप्तिक, (१०) पञ्चप्रप्तिक, (११) ऋषिवादिक, (१२) भूतवादिक, (१३) क्रन्दित, (१४) महाक्रन्दित, (१५) कूष्माण्ड, और (१६) पतङ्ग ( स्था. स्था. २ उ. ३)
जृम्भक व्यन्तर देव भी दश प्रकार के हैं । जैसे-
(१) अन्नजृंभक, (२) पानजृंभक, (३) वस्त्रजृंभक, (४) लयनजृंभक, (५) शयनजृंभक, (६) पुष्पजृंभक, (७) फलजुंभक, (८) पुष्पफलजृंभक, (९) विद्याजृंभक और (१०) अव्यक्तजृंभक ।
(३) ज्योतिष्क देव
प्रभा के पुञ्ज के समान अत्यन्त उज्ज्वल विमानों में उत्पन्न होने वाले
व्यन्तर हेव सोज छे (१) पिशाय, (२) लूत (3) यक्ष, (४) राक्षस ( 4 ) सिन्नर, (९) डियु३ष, (७) भोरंग, (८) गधव, (E) अप्रज्ञप्तिज्ञ, (१०) पंथप्रज्ञसिङ, (११) ऋषिवाहिङ, (१२) लूतवाहिक, (१३) इन्हित, (१४) महाइन्हित, (१५) ईषभांड भने (१६) पतंग, ( स्था.. स्था. २ उ. ३ )
भूल व्यन्तर हेव पशु इस अारना छे, प्रेम- (१) अन्नलल४, (२) यान लृलङ, (3) पत्र, (४) सयन लङ, (4) शयनलल, (६) युष्य नृलङ, (७) इंसल (८) पुण्यश्लल, (ङ) विद्यान्न (ग, गने (१०) भव्यता (3) ज्योतिष्णुदेवी
પ્રભાના પુંજ સમાન અત્યંત ઉજ્જવલ વિમાનામાં ઉત્પન્ન થવા વાળા દેવ
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आचारांग्रसत्रे
३ श्याम४ सवल रुद्रक्ष्यैरुद्र काल ८ महाकाला ९ऽसिपत्र १० धनुः ११कुम्भ १२वालुक १३ वैतरणी १४खरस्वर १५ महाघोष- मेदात् ।
(२) व्यन्तरदेवाः --
रत्नप्रभाकाण्डस्य सहस्र योजनपरिमाणयुक्तस्याधस्तादेकशतयोजनमूर्ध्व च तथैकशतयोजनं विहायाष्टशतयोजन परिमाणयुक्त रत्नमभाकाण्डे व्यन्तरदेवानामसंख्यातानि नगराणि सन्ति । तथैव भवनानि तेपामावासाथ सन्ति । तत्र बालवत् स्वेच्छया शक्रादिदेवेन्द्राज्ञया वा चक्रवर्त्यादिपुरुषाज्ञया वा प्रायेणानियतगतिप्रचारा भवन्ति । मनुष्यानपि केचिद् भृत्यवदुपचरन्ति । विविधेषु च शैल कन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्तिः अतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते ।
(५) रुद्र, (६) वैरुद्र, (७) काल, (८) महाकाल, (९) असिपत्र, (१०) धनुष, (११) कुम्भ, (१२) वालु, (१३) वैतरणी, (१४) खरस्वर, (१५) महाघोप |
(२) व्यन्तर देव
एक हजार योजन परिमाण वाले रत्नप्रभाकाण्ड के नीचे और एक सौ योजन ऊपर तथा एक सौ योजन छोडकर आठ सौ योजन परिमाण युक्त रत्नप्रभाकाण्ड में व्यन्तर देवों के असंख्यात नगर हैं । उसी प्रकार भवन और उनके आवास हैं । चालकों के समान अपनी इच्छासे, शक्र आदि देवों की आज्ञा से, या चक्रवर्ती आदि की आज्ञासे प्रायः अनियतगति वाले होते हैं । ये देव किन्हीं - किन्हीं मनुष्यों की दास के समान सेवा करते हैं । ये विविध प्रकार के पर्वतों की गुफाओं में और वनविवर आदि में निवास करते हैं अतः इन्हें व्यन्तर कहते हैं ।
शमस, (च) रुद्र, (९) वेरुद्र, (७) आस, (८) भडाभस, (ङ) असिपत्र, (१०) धनुष, (११) डुल, (१२) वासु, (13) वैतरणी, (१४) भरस्वर, (१५) भडाघोष. (२) व्यन्तरदेव
એક હજાર ચેાજન પરમાણુવાળા રત્નપ્રભાકાંડની નીચે અને એકસે યાજન ઉપર તથા એકસે ચૈાજન છેડીને આઠસો ચાજન પરિમાણુયુક્ત રત્નપ્રભાકાંડમાં વ્યંતર દેવાના અસંખ્યાત નગર છે. તે પ્રમાણે ભવન અને તેના આવાસે છે. ખાળકોની જેમ પેાતાની ઈચ્છાથી, ઇંદ્ર આદિ દેવાની આજ્ઞાથી. અથવા ચક્રવતી ઞાતિની આજ્ઞાથી પ્રાયઃ અનિયત ગતિવાળા હોય છે. આ દેવ કૈઇ કાઇ મનુષ્યની દાસની સમાન સેવા કરે છે. તે વિવિધ પ્રકારના પતાની ગુફાઓમાં અને વનગુફાએ આદિમાં નિવાસ કરે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकवादिम . वैमानिकदेवानां द्वौ भेदी-कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । फल्पा आचारः स. चेहेन्द्रसामानिकत्रायविंशादिव्यवहाररूपस्तमुपगताः कल्पोपपन्नाः= सौधर्मादिदेवलोकनिवासिनो वैमानिका देवाः। यद्वा-कल्पेषु सौधर्मादिषु उपपन्नाः सौधर्मादिदेवंलोकोत्पन्ना वैमानिकदेवाः कल्पोपपन्नाः। यद्वा-कल्पेन-नियमेन इन्द्रसामानिकादिस्वामिसेवकादिभावरूपमर्यादयोपपन्नाः युक्ताः कल्पोपपन्नाः। . . . ..: . १इन्द्र- २सामानिक- ३त्रायस्त्रिंश- ४ लोकपाल-५ पारिपद्या-६ नीका७त्मरक्षका-८ऽऽभियोगिक-९प्रकीर्णाः, किल्विपिकाच१०. स्वस्वमर्यादापालकतया कल्पोपपन्ना इत्युच्यन्ते। तन्द्राः - सामानिकादिदेवानामधिपतयः । इन्द्रसमानाः-सामानिकाः। मन्त्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिंशाः। सीमारक्षका
वैमानिक देव द्रो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीतः । कल्प का अर्थ है-आचार । यहां इन्द्र, सामानिक, बायस्त्रिंश आदि का व्यवहार कल्प माना गया है, और यह कल्पं जिन में पाया जाय वे फल्पोपपन्न कहलाते हैं। सौधर्म आदि देवलोकों में निवास करने वाले वैमानिक देव कल्पोपपन्न हैं। अथवा कल्प से अर्थात् नियम से अर्थात् इन्द्र, सामानिक आदि, या स्वामी-सेवक आदिभावरूप मर्यादा से युक्त देव कल्पोपपन कहलाते हैं।
इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, पारिषद्य, आनीक. आत्मरक्षक, भाभियोग्य, प्रकीर्णक और किल्विपिक, ये दश अपनी-अपनी मर्यादा का पालन करते हुए कल्पोपपन्न कहलाते है।
सामानिक आदि देवों के अधिपति इन्द्र कहलाते हैं। इन्द्र के समान : वैभानि हेप मे ४२ना छ-(१) ४८यापपन्न मने (२) ३६५ातात. eval અર્થ છે-આચાર. અહિં ઈન્દ્ર, સામાનિક, ત્રાયઅિંશ આદિને વ્યવહાર કલ્પ માન્યો છે, અને આ ક૯૫ જેનામાં જોવામાં આવે છે તે કા૫પન્ન કહેવાય છે. સૌધર્મ આદિ દેવકેમાં નિવાસ કરવાવાળા વૈમાનિક દેવ કોપપન્ન છે. અથવા કલ્પથી અર્થાત, નિયમથી અર્થાત ઈન્દ્ર સામાનિક આદિ, અથવા સ્વામી–સેવક આદિ ભાવરૂપ મર્યાદાથી યુક્ત દેવ કલ્પપપન કહેવાય છે.
न्द्र, साभानिड, त्रायशि, सास, परिषध, मामी, मात्भरक्ष४, मालियोय, પ્રકીર્ણક અને કિલ્વિષિક, પિત–પોતાની મર્યાદાનું પાલન કરતા થકા ક૯પપન્ન ४डेवाय छे.
સામાનિક આદિ દેવેના અધિપતિ ઈન્દ્ર કહેવાય છે. ઈન્દ્રનાં સમાન સામાનિક प्र.आ.-३७
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आचाराङ्गमने ज्योतिष्काः । ज्योतिष्कदेवास्तिर्यग्लोके ज्योतिषकाशं कुर्वन्ति । ज्योतिष्कदेवाः पञ्चविधा:-(१) चन्द्र-(२) मूर्य-(३) ग्रह-(४) नक्षत्र-(५) तारा-भेदात् । इमे पक्ष समयक्षेत्रान्तर्वतिनैश्चरस्वभावाः सन्ति । अपरे पञ्च चन्द्रादयः समयक्षेत्राद् बहिः स्थिरा एव तिष्ठन्ति ।
(४) चैमानिकदेवाःऊर्ध्वलोके विमानेषु वसन्तीति वैमानिकाः । यद्वा-विशेषेण मानयन्तिविशति यत्र विशिष्टसुकृतिन इति विमानानि, तत्र भवा वैमानिकाः । यद्वा-वि विशिष्टं मान-ज्ञानं यत्र, समदर्शितया, अन्यदेवापेक्षया ' च हेयोपादेयज्ञानविशिष्टा भवन्ति यत्र तानि विमानानि, तत्र भवा वैमानिकाः। देव ज्योतिष्क कहलाते हैं । ज्योतिष्क देव मध्यम लोक में प्रकाश करते हैं। ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के हैं- १ चन्द्र, २ सूर्य, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र, और ५ तारागण। ये पांचों समयक्षेत्र ( अढाई द्वीप ) में चलते हैं और समयक्षेत्र से बाहर स्थिर स्वभाव वाले हैं। .
(४) वैमानिक देव.. ऊर्ध्व लोक में विमानों में वास करने वाले वैमानिक कहलाते हैं । अथवा जहां विशिष्ट पुण्यात्मा प्रवेश करते हैं उन्हे विमान कहते हैं, और विमानों में वास करने वाले वैमानिक कहलाते हैं । अथवा समदशी होने के कारण जहां विशिष्ट ज्ञानं हो, या अन्य देवों की अपेक्षा जहां हेय उपादेय का विशिष्ट ज्ञान हो, वे विमान हैं और उन में होने वाले वैमानिक हैं।
તિષ્ક કહેવાય છે. તિષ્ક દેવ મધ્ય લોકમાં પ્રકાશ કરે છે. તિષ્ક દેવ પાંચ प्रारना छ. (१) य-5, (२) सूर्यः, (3) अड, (४) नक्षत्र मने (५) स. मा पांच સમય ક્ષેત્ર (અહીદ્વીપમાં ચાલે છે અને સમયક્ષેત્રની બહાર સ્થિર સ્વભાવવાળા છે. (४) वैभानि ३१-
. . ઉર્ધ્વલોકમાં વિમાનમાં વાસ કરવા વાળા વિમાનિક કહેવાય છે, અથવા જ્યાં વિશિષ્ટ અથાત્મા પ્રવેશ કરે છે તેને વિમાન કહે છે. અને વિમાનેમાં વાસ કરવા વાળા વૈમાનિક કહેવાય છે, અથવા-સમદશી હેવાના કારણે જ્યાં વિશિષ્ટ જ્ઞાન કાય અથવા અન્ય દેવેની અપેક્ષાએ, જ્યાં હેય-ઉપાદેયનું વિશિષ્ટ જ્ઞાન હેય તે વિમાન છે, અને તેમાં. થવા વાળા વૈમાનિક છે. :
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकवादिम० कल्पस्य समानदेशे ऐशानः कल्पः । शानस्योपरि सनत्कुमारः कल्पः । सनत्कुमारस्योपरि माहेन्द्रः कल्पः । एवमुपर्युपरि सर्वे कल्पाः सन्ति ।
तत्रज्योतिष्कलोकायम संख्यातयोजनकोटिकोटिपुमार्गमारुह्य रूपलक्षितदक्षिणभागे गगनप्रदेशे सौधर्मकल्पस्तथैशानकल्पश्चाऽस्ति । सौधर्मकल्पः पूर्व पश्चिमदीर्घः, उत्तरदक्षिणविस्तीर्णोऽर्धचन्द्राकारः सूर्यवद्धास्वरः, आयामविष्कम्भाभ्यांपरिक्षेपतथाऽसंख्येययोजनकोटिकोटयः, सर्वरत्नमयः लोकान्तविस्तारोऽस्ति । तत्र मध्यभागे सर्वरत्नमयाशोक-सप्तपर्ण-चम्पका-ऽऽम्र-सौधर्मावतंसकमुशोभितः शक्रावासः । तत्र सुधर्मा नाम शकस्य देवेन्द्रस्य सभा तस्मिन् कल्पेऽस्तीति सौधर्मः कल्पः।
के ऊपर सनकुमार कल्प है । सनत्कुमार के ऊपर माहेन्द्र कल्प है । इसीप्रकार ऊपर-ऊपर समी कल्प समझने चाहिए। - ज्योतिष्क मण्डल से ऊपर असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर जाकर मेरु से उपलक्षित दक्षिण भाग में आकाश-प्रदेश में सौधर्मकल्प और ऐशान कल्प हैं । सौधर्मकल्प पूर्व पश्चिम में लम्या, उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण और अर्धचन्द्र के आकार का है । सूर्य के समान चमकदार, लम्बाई, चौडाई और परिधि से असंख्यात कोडाकोडी योजन, सर्वरत्नमय और लोक के अन्ततक विस्तृत है । उसके मध्य भाग में सर्वरत्नमय अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक, आम्र, एवं सौधर्मावतंसक से शोभित शक्र का आवास है । शक देवेन्द्र को सुधर्मानामक सभा जिस कल्प में हो, वह सौधर्मकल्प कहलाता है ।
એશાનના ઉપર સનસ્કુમાર કલ્પ છે, સનકુમારના ઉપર મહેન્દ્ર કલ્પ છે. એ પ્રમાણે ઉપર ઉપર તમામ ક૫ સમજવા જોઈએ. * તિષ્કમંડળની ઉપર, અસંખ્યાત કેડા-કેડી જન ઉપર જઈને મેથી ઉપલક્ષિત દક્ષિણ ભાગમાં આકાશ-પ્રદેશમાં સૌધર્મકલ્પ અને અશાન કલ્પ છે. સૌધમકલ્પ પૂર્વ પશ્ચિમમાં લાંબે, ઉત્તર-દક્ષિણમાં વિસ્તીર્ણ અને અર્ધચન્દ્રકારે છે. સૂર્યના સમાન ચમકદાર લંબાઈ ચૌડાઈ અને પરિધિથી અસંખ્યાત કડાકોડ જન, સર્વરત્નમય છે, અને લેકના અંત સુધી વિસ્તૃત છે. તેના મધ્ય ભાગમાં સર્વ રત્નમય અશોક; સપ્તપર્ણ, ચમ્પક, આમ, એવું સૌધર્માવલંસથી શોભિત ઇદને આવાસ છે. શર્ક દેવેન્દ્રની સુધમાં નામની સભા જે કપમાં હોય, તે સૌધર્મકલ્પ કહેવાય છે. “
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आचाराङ्गसूत्रे
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आत्मरक्षकाः ।
लोकपालाः । मित्रस्थानीयाः पारिषद्याः । सैनिकाः सेनाधिपतिरूपाश्र - आनीकाः । इन्द्रशरीररक्षाकारका दासस्थानीयाः सेवका आभियोग्याः । नागरिक - पौरजनसमानाः प्रकीर्णकाः । अन्त्यजसमानाः कल्विषिकाः । सौधर्मादिद्वादशकल्पेषु दशविधा इन्द्रसामानिकादयो देवाः भवन्ति । व्यन्तरज्योतिष्कदेवेषु त्रायत्रिंशा लोकपालाच न भवन्ति ।
कल्पोपपन्नदेवानां निवासस्थानानि द्वादश सन्ति - १ सौधर्मे - २शान - ३सनकुमार- ४माहेन्द्र- "ब्रह्मलोक-६लान्तक-७महाशुक्र ८सहस्रारा- ९ssनत १० प्राणता११ऽऽरणा - १२ऽच्युताः । इमे द्वादश देवलोकाः कल्पविमानानि । तत्र सौधर्मस्य सामानिक होते हैं । मन्त्री और पुरोहित जैसे प्रायखिंश देव हैं। सीमा की रक्षा करने वाले लोकपाल हैं । मित्र के समान पारिषद्य हैं । सैनिक और सेनाधिपतिरूप आनीक हैं । इन्द्र के शरीर की रक्षा करने वाले आत्मरक्षक कहलाते हैं । नागरिक - पौरजनके समान प्रकीर्णक देव हैं । दास के समान देव आभियोगिक कहलाते हैं, और अन्त्यजों के समान किल्विपिक हैं । ये इन्द्र सामानिक आदि दशप्रकार के देव सौधर्म आदि सभी कल्पों में होते हैं । व्यंतरी और ज्योतिष्क देवों में त्रायत्रिंश और लोकपाल नहीं होते ।
कल्पोपपन्न देवों के निवसस्थान बारह हैं-
१ सौधर्म, २ ऐशान, ३ सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्मलोक, ६ लान्तक, ७ महाशुक्र, ८ सहस्रार, ९ आनत, १० प्राणत, ११ भारण, १२ अच्युत । ये बारह देवलोक कल्पविमान हैं । सौधर्म कल्प की बराबरी पर ऐशान कल्प है । ऐशान હોય છે. મંત્રી અને પુરાહિત જેવા ત્રાયગ્નિશ દેવ છે. સીમાની રક્ષા કરનારા તે લેાકપાલ છે મિત્રની સમાન પાષિધ છે, સૈનિક અને સેનાધિપતિરૂપ આનીક છે. ઈન્દ્રના શરીરની રક્ષા કરવાવાળા આત્મરક્ષક કહેવાય છે. નાગરિક–પોરજનની સમાન પ્રકીર્ણક દેવ છે. દાસના સમાન સેવક દેવ આભિયોગિક કહેવાય છે, અન્યોની સમાન કવિષિક છે. આ ઈન્દ્ર, સામાનિક આદિ દેવ સાધમ આદિ સર્વકામાં હાય છે. વ્યતરા અને જ્યાતિષ્ઠ દેવોમાં ત્રાર્યાએશ અને લેાકપાલ હાતા નથી.
- उद्घोषपन्न हेवाना निवासस्थान र छे. (१) सौधर्म, (२) सैशान (3) सनत्कुभार (४) भाहेन्द्र (५) ब्रह्मसोङ (९) सान्त, (७) भहाशुई, (८) सहस्त्रार, (E) मानत, (१०) प्रयुत, (११) भार, (१२) मभ्युत.
આ . ખારઃ દેવલાક કપ વિમાન છે, ચૌધમ કપની બરાબરી પર સ્મેશન કલ્પ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ लोकवादिम०
द्वादशकल्पनिवासिनामिन्द्राणां नामानि यथा-सौधर्मकल्पस्य शमः १, ऐशानस्येशानः २, सनत्कुमारस्य सनत्कुमारः ३, माहेन्द्रस्य महेन्द्रः ४, वालोकस्प ब्रह्मेन्द्रः ५, लान्तकस्प-लन्तकः ६, मदाशुक्रस्य महाशुका ७, सहस्सारस्य सहसारः ८, आनत-माणतयोः फल्पयोः एक-एव प्राणतनामा सुरपतिः ९, आरणाच्युतयोरपि तथैवकोऽच्युतनामा देवराजोऽस्ति १० ।
एषु नत्र लोकांतिका-सारस्वता१-ऽऽदित्य२-यति३-वरुण-गर्दतोय५पिता-पावापा७-5ऽनय८-रिष्ट९-नामानः सन्ति । ब्राह्मलोके लोकान्तिका निवसन्ति । ईशानकोणे सारस्पता:१, पूर्वस्यामादित्या:२, आग्नेयकोणे बक्ष्यः३, दक्षिणस्यां वरुणाः४, नैऋत्ये गर्दतोयाः५, पश्चिमायां तुपिता:६, पायव्यकोणेअव्यावाधा:७, उत्तरस्याम् अगिया (आग्नेया:)८, मध्ये रिटाः ९ निवसन्ति ।
बारह फल्पवासी इन्द्रों के नाम इस प्रकार है-सौधर्म फल्प का शक १, ऐशान का ईशान २, सनकुमार का सनरकुमार ३, माहेन्द्र का महेन्द्र ४, महालोकका प्रदेोन्द्र ५, लान्तक का लन्तक ६, महाशुक्र का महाशुक ७, सहनार का सदसार ८ और मानत-- प्राणत कल्पों का एक प्राणतनामक इन्द्र है ९ । आरण और अध्युत फापों का अध्युत नामक एफ ही इन्द्र है १०।
इन में नौ लोकान्तिक देव हैं-(१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) यदि, (१) यरुण, (५) गर्दतोय, (६) तुपित, (७) अव्यायाध, (८) आग्नेय और, (९) रिट । ये लोकान्तिक देव ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ईशान कोग में सारस्वत, पूर्व में आदिल्य, मानेय कोण में वद्रि, दक्षिण में वरुण, नत्य में गर्दतोय, पश्चिम में तुपित, पायव्य में अध्यात्राध, उत्तर में अग्गिया (आग्नेय) और मध्य में रिट निवास करते हैं।
બાર કલ્પવાશી ઈદ્રોનાં નામે આ પ્રમાણે છે- ધર્મકલ્પના શk; (૧) અશાનના ઈશાન (૨) સનસ્કુમારના સનકુમાર (૩) મહેન્દ્રના મહેન્દ્ર, (૪) બ્રાલેકને છન્દ્ર, (૫) લાન્તકના લન્તક, (૬) મહાશુકન મહાશુક્ર, (૭) સહસ્ત્રારના સહસ્ત્રાર અને આત– પ્રાકૃત કના એક પ્રાકૃત નામના ઈન્દ્ર છે, આર અને અપ્પત કપના અસ્કૃત नामना सन्द्र .(१०) तमा न त पछे--(१) सारस्वत, () मादिस्य, (3) पति, (४) १२, (५) अईतीय, (6) तुपित, (७) व्याध, (C) नेय, मन ૯) રિટ. આ લોકાન્તિક દેવ બ્રહ્મકમાં નિવાસ કરે છે. ઈશાનકેશ્વમાં સારસ્વત, પૂર્વમાં આદિત્ય, આયણમાં વદિ, દક્ષિણમાં વરુણ, નિત્યમાં ગાદય પશ્ચિમમાં પિત,વાયવ્યમાં અવ્યાબાધ,ઉત્તરમાં અચ્ચિા (આથ) અને મધ્યમરિ નિવારણ કરે છે,
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. . . . . . आधाराचे .. तथैशानकल्पोऽप्यर्धचन्द्राकारोऽस्ति । उभी मिलिता पूर्णचन्द्रकारेणावस्थितौ स्तः ततोऽसंख्यातयोजनकोटिकोटिपूपरि समानपदेशे सनत्कुमारमाहेन्द्रौ कल्पी वर्तते । अर्धचन्द्राकार इव सनत्कुमारस्तथैव माहेन्द्रोऽपि । उमौ मिलित्वा पूर्णचन्द्रसदृशाकारेण स्तः। ततोऽसंख्यातयोजनकोटिकोटयुपरि ब्रह्मलोकः पूर्णचन्द्राकारोऽस्ति । एवमेव लान्तक-महाशुक्र-सहरालास्तावत्तावधोजनो_मुपर्युपरि प्रत्येकं पूर्णचन्द्राकाराः सन्ति ततोऽप्पसंख्यातयोजनकोटिकोटथुपरि समानगगनमदेशे आनत-माणतलोको प्रत्येकमर्धचन्द्राकारी स्तः । उभी मिलित्वा पूर्णचन्द्राकारेण भवतः। ततोऽप्यसंख्यातयोजनकोटि कोटयुपरि-आरणाच्युतलोको प्रत्येकमर्धचन्द्राकारी स्तः। उमौ मिलित्वा पूर्णचन्द्राकारं भजतः।
ऐशानकल्प भी अर्धचन्द्राकार है। दोनों कल्प मिलकर पूर्ण चन्द्रमा के समान हैं। इन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर समान देश में सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प हैं । सनत्कुमार कल्प अर्धचन्द्राकार है और माहेन्द्र कल्प भी इसी प्रकार का है। दोनों मिलकर पूर्णचन्द्रमा के सदृश फार वाले हैं। इन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर ब्रह्मलोक पूर्णचन्द्राकार है । इसी प्रकार लान्तक, महाशुक्र, और सहस्रार उतने उतने योजन ऊपर-ऊपर प्रत्येक पूर्णचन्द्रमा के समान अवस्थित हैं। उन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर आकाश प्रदेश में आनत और प्राणत बराबरी पर प्रत्येक अर्धचन्द्राकार है । ये दोनों मिलकर पूर्णचन्दके आकार के हो जाते हैं। उन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर आरण और अच्युतः लोक प्रत्येक अर्धचन्द्राकार है। ये दोनों मिलकर पूर्णचन्द्र के आकार के जैसे हो जाते हैं।
અશાન કલ્પ પણ અર્ધચન્દ્રાકાર છે. અને કલ્પ મળીને પૂર્ણ ચન્દ્રમાની સમાન છે. તેનાથી અસંખ્યાત કોડ-કોડી જન ઉપર સમાન દેશમાં સનકુમાર અને મહેન્દ્ર કલ્પ છે. સનકુમાર કલ્પ અર્ધચન્દ્રાકાર છે અને મહેન્દ્ર કપ પણ એ પ્રકાર છે. બને મળીને પૂર્ણ ચન્દ્રમાની બરાબર આકારવાળા છે. તેનાથી અસંખ્યાત કેડા-કેડી
જન ઉપર બ્રહાલેક પૂર્ણચન્દ્રાકાર છે. એ પ્રમાણે લાન્તક, મહાશુક્ર અને સહઆર તેટલાતેટલા જન ઉપર-ઉપર પ્રત્યેક, પૂર્ણચન્દ્રમાસમાન અવસ્થિત છે. તેથી અસંખ્યાત કેડ-કેડી જન ઉપર.. આકાશપ્રદેશમાં આનત અને પ્રાકૃત બરાબરી, પર પ્રત્યેક અધચન્દ્રાકાર છે. એ બને ક૯પ મળીને પૂર્ણ ચન્દ્રમાના આકારના થઈ જાય છે તેથી અસંખ્યાત કેડા-છેડી રોજન ઉપર આરણ અને અચુત લોક પ્રત્યેક અધઃચઢાકાર છે. એ બન્ને મળીને પણ પૂર્ણચન્દ્રાકાર જેવાં થઈ જાય છે. • •
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आंचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ लोकवादिप्र०
२९५ नवग्रैवेयकनामानि यथा - १ भद्र - २ सुभद्र - ३ सुजात -४ सुमानस - ५ सुदर्शन-६ प्रियदर्शना-७ऽमोध-८मुप्रतिभद्र-९यशोधराणि ।
पञ्चानुत्तरविमानानि यथा-१ विजय-२वैजयन्त-३जयन्ता-४ऽपराजित५ सर्वार्थसिद्धाख्यानि । अविद्यमानमुत्तर-मुत्कृष्टं विमानादि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि । तानि च विमानानि-अनुत्तरविमानानि ।
तीर्थरादीनां समवसरणादौ कल्पोपपन्नदेवा गमनागमनं कुर्वन्ति । कल्लातीतदेवास्तु स्वस्थानादन्यत्र न गच्छन्ति ।
प जीवनिकायभेद-संकलनम् पड्जीवनिकायानां त्रिपप्टट्यत्तरपञ्चशतानि (५६३) भेदाः। तथाहिपृथिव्यप्तेजोवायुकायानां प्रत्येकं यादर-मुक्ष्म-भेदाद् द्वैविध्येऽष्टधा । तेपां
नौ अवेयकों के नाम-(१) भद्र, (२) सुभद्र, (३) सुजात, (४) सुमानस, (५) सुदर्शन, (६) प्रियदर्शन, (७) अमोघ, (८) सुप्रतिभद्र, और (९) यशोधर हैं।
पांच अनुत्तर विमान-(१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध । जिन से ऊपर अर्थात् उत्कृष्ट और कोई विमान नहीं वे अनुत्तर विमान कहलाते हैं । तीर्थकर आदि के समवसरण आदि में कल्पोपपन्न देव गमनागमन करते हैं । कल्पातीत देव अपने स्थान से अन्य जगह नहीं जाते ।
__पड्जीवनिकाय के भेदों का संकलनपजीवनिकायों के कुल पांचसो त्रेसठ (५६३) भेद हैं। वे इस प्रकार हैंपृथिवी, अप्, तेज, और वायुकाय के बादर और सूक्ष्म के भेद से आठ भेद हुए।
नपवयन नाभ-(१) बद्र, (२) सुभद्र, (3) सुनत, (४) सुभानस, (५) सुदर्शन, (६) प्रियशन, (७) माध, (८) सुप्रतिम 4 (6) A५२ छे.
पाय मनुत्तर विभान-(१) विनय, (२) वैयन्त, (3) यन्त, (४) पारित અને (૫) સર્વાર્થસિદ્ધ. જેનાથી ઉત્તર અર્થાત્ ઉત્કૃષ્ટ કેઈ વિમાન ન હોય તે અનુત્તર વિમાન કહેવાય છે. તીર્થકર આદિન સમવસરણ આદિમાં કપિપન્ન દેવ ગમનાગમન કરે છે. કલ્પાતીત દેવ પોતાના સ્થાનેથી અન્ય જગ્યાએ જતા નથી.
વહૂછવનિકાયના ભેદોનો યોગ १. ५३००१नियो एस पांयस स (463) ले छे. ते 21 प्रहारे हैंપૃથ્વી, અપૂ, તેજ અને વાયુકાય, તેના આદર અને સૂક્ષમના ભેદથી આઠ ભેદ થયા.
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ओचाराने कल्पातावा:- कल्पमतीताः-अतिक्रान्ताः कल्पातीताः। सौधर्मादिद्वादशकल्पवहिर्भूताः स्वामिसेवकाद्याचारवर्जिताः, स्वातन्त्र्यादहमिन्द्रनाम्ना प्रसिद्धाः, भद्रादिनवग्रेवेयकविमान-विजयादिपञ्चानुत्तरविमानाधिवासिनो देवाः कल्पातीताः।
__सौधर्मादिद्वादशकल्पतथोमसंख्यातयोजनकोटिकोटिपूपरि . नववेयकानि विमानान्युपर्युपरि सन्ति । पुरुषाकारलोकस्य ग्रीवास्थानीयतया विमानानि ग्रैवेयकान्युच्यन्ते । तद्वासिनो देवा अपि त्रैवेयका उच्यन्ते । सर्वोपरितनग्रेवेयकविमानादूर्ध्वमसंख्यातयोजनकोटिकोटयुपरि पञ्चानुत्तरविमानानि सन्ति । तत्रैक मध्यभागे, चतुर्दिक्षु चत्वारि । अनुत्तरविमानवासिनो देवा अनुत्तरा उच्यन्ते ।
कल्पातीत- . जो देव कल्प से परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं, अर्थात् सौधर्म आदि कल्पों से बाहर, स्वामी, सेवक आदि मर्यादा से रहित-स्वतंत्र होने के कारण अहमिन्द्र नाम से प्रसिद्ध भद्र आदि नौ ग्रैवेयकों में तथा विजय आदि पांच अनुत्तर विमानों में निवास करने वाले देव कल्पातीत कहलाते हैं।
सौधर्म आदि बारह कल्पों से ऊपर असंख्यात कोडाकोडी योजन जाकर नौ प्रैवेयक विभान एक दूसरे के उपर अवस्थित हैं। पुरुषाकार लोक की ग्रीवा के स्थान पर जो विमान हैं, वे ग्रैवेयक विमान कहलाते हैं। सब से ऊपर के अवेयक विमान से ऊपर असंख्यात कोडाकोडी योजन जाकर पांच अनुत्तर विमान हैं। उन में से एक मध्य भाग में है और चार चारों दिशाओं में हैं । अनुत्तरविमानवासी देव अनुत्तर कहलाते हैं ।
पातीतજે દેવો કલ્પથી બહાર છે તે કલ્પાતીત કહેવાય છે. અર્થાત સૌધર્મ આદિ કથી બહાર સ્વામી-સેવક આદિ મર્યાદાથી રહિત, સ્વતંત્ર હવાના કારણે અહમિન્દ્ર નામથી પ્રસિદ્ધ છે. ભદ્ર આદિ નવરૈવેયકમાં, તથા વિજય આદિ પાંચ અનુત્તર વિમાનોમાં નિવાસ કરવા વાળા દેવ તે કલ્પાતીત કહેવાય છે. .
સૌધર્મ આદિ બાર કાથી ઉપર અસંખ્યાત કોડાકોડી જન જઈને નવ શ્રેયક વિમાન એક બીજાની ઉપર અવસ્થિત છે. પુરૂષાકાર લેકની ગ્રીવા (ક) ના स्थान ५२२ विमान छे. ते अवेय विमान उपाय छे. . . . . ।
સૌથી ઉપરના વેયક વિમાન ઉપર અસંખ્યાત કેડા-કેડી જન જઈને પાંચ અનુત્તર વિમાન છે. તેમાંથી એક મધ્ય ભાગમાં છે, ચાર ચારેય દિશાઓમાં છે. मनुत्तविभानपासी मनुत्तर ४डेवाय छे..
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ लोकचादिम०
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रत्नप्रभादयः सप्त नरकभूमयः । तत्र भवा नारकाः सप्तविधा'; . . तेपां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्वैविध्ये चतुर्दश भेदाः
-:
मनुष्याणां त्र्युत्तरशतत्रयं (३०३) भेदाः पूर्वमेव तत्मकरणे सुस्पष्टं कथिताः।
J
देवानामष्टनवत्युत्तरशत (१९८ ) भेदाः । तत्र भवनपतीनां दश भेदाः असुरकुमारादयः । परमाधार्मिकाः पञ्चदश । एवं (२५) पञ्चविंशतिर्भेदाः । व्यन्तराणां पडूविंशतिर्भेदाः। तत्र पिशाचादयः पोडश, अन्नजृम्भकादयो दश (२६)। ज्योतिष्कानां दश भेदाः । तत्र चन्द्रादयः पञ्च । तेषां पञ्चानां चर- स्थिरमेदेन द्वैविध्ये दश भेदाः (१०) सन्ति । वैमानिकानामष्टत्रिंशद् भेदाः । तंत्र सुधर्मादयों द्वादश, सारस्वतादयो नव किल्विपिकास्त्रयः, ग्रैवेयकाः- भद्रादयो
रत्नप्रभा आदि सात नरकभूमियों में सात प्रकार के नारकी हैं। उनके पर्याप्त, . अपर्याप्त भेद करने से चौदह भेद होते हैं ।
मनुष्यों के तीनसौ तीन ( ३०३) मेद पहले स्पष्ट कहे जा चुके हैं ।
देवों के एकसौ अट्ठानवे (१९८) भेद हैं । वे इस प्रकार - भवनपतियों के असुरकुमार आदि दस, परमाधार्मिक पन्द्रह सब पच्चीस (२५) भेद हुए । व्यन्तरों के छव्वीस भेद हैं-सोलह पिशाच आदि और दस अन्नजृंभक आदि (२६) । चन्द्रमा आदि पांच के चर और अचर भेद होने से ज्योतिष्क देवों के दश (१०) भेद हैं । वैमानिकों के अडतीस भेद हैं- सुधर्म आदि बारह, सारस्वत आदि नौ, किल्विपिक आदि तीन, भंद्र आदि ग्रैवेयक नौ, विजय आदि पांच अनुत्तर विमान (३८ ) । इन सब का योग करने से
રત્નપ્રભા આદિ સાત નરકભૂમિમાં સાત પ્રકારના નારકી છે. તેના' પર્યાપ્ત અને અર્પાપ્ત ભેદ કરવાથી ચૌદ ભેદ થાય છે.
મનુષ્યેાના ત્રણસેાત્રણ (૩૦૩) ભેદ પ્રથમ સ્પષ્ટ કહી ચૂકયા છીએ. દેવેાના એકસે महा (१८८) ले छे. भवनयतियाना असुरकुभार आदि इस परमाधामी पंधर, सर्व પચીસ ભેદ થયા. ન્યન્તરાના છવીસ ભેદ છે–સેાળ પિશાચ આદિ, અને દસ અન્નતું ભક આદિ. ચંદ્રમા આદિ પાંચના ચર અને અચર ભેદ હેાવાથી જ્યાતિષ્ક દેવેશના દશ (૧૦) ભેદ छे. वभानि४ हेवाना आउन्रीस (३८) लेह छे - सुधर्म माहि मार, सारस्वत आहि-नव, प्रविषि આદિ ત્રણ, ભદ્ર આદિ ત્રૈવેયેક નવ, વિજય આદિ પાંચ અનુત્તર વિમાન, આ સર્વને એક
प्र. आ.-३८
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भचारात्सूत्रे
पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् द्वैविध्ये पोडश (१६) भेदाः । धनस्पतिकायस्य सूक्ष्मसाधारण प्रत्येकभेदात् त्रैविध्यम्, त्रिविधस्य वनस्पतिकायस्य पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकं द्वैविषये तस्य पर भेदाः इत्यं (२२) द्वाविंशतिर्भेदा: स्थावरपञ्चकस्यैकेन्द्रियजीवस्य भवन्ति ।
२९६
ן
द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकं द्वैविध्ये पड् भेदाः । सर्वसंकलनयाऽष्टाविंशति (२८) र्भेदाः ।
तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः- जलचर- स्थलचर- खेचरो ---रः परिसर्पभुजपरिसर्प-भेदात्पञ्चविधाः । तेषां पञ्चानां संज्ञयसंज्ञिभेदेन द्वैविध्ये दश भेदाः । तेषां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन विंशति ( २० ) र्भेदाः । पूर्वोक्ताप्टाविंशतिसंकलनतोऽष्टचत्वारिंशद् (४८) भेदास्तिरश्चाम् ।
इन आठों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से सोलह भेद होते हैं । वनस्पतिकाय - सूक्ष्म, साधारण और प्रत्येक के भेद से तीन प्रकार का है । इन तीनों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से छह भेद हुए । इस प्रकार पांच एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के बाईस (२२) मेद हैं ।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त अपर्याप्त भेद से छह भेद । सत्रको जोड देने पर अट्ठाईस (२८) भेद हुए ।
तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय-जलचर, स्थलचर, खेचर, उरः परिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से पांच प्रकार के हैं। पांचों के संज्ञी, असंज्ञी के भेद से दश हुए, इन के पर्याप्त, अपर्याप्त भेद करने से वीस (२०) भेद हुए । इन बीस में पूर्वोक्त भट्ठाईस और मिलाने से तिर्यञ्चों के अड़तालीस (४८) भेद होते हैं ।
તે આઠના પર્યાસ અને અપર્યાપ્તના ભેદથી સાળ ભેદ થાય છે. વનસ્પતિકાય સૂક્ષ્મ, સાધારણ અને પ્રત્યેકના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના છે. એ ત્રણેના પર્યાસ અને અપર્યાંસ ભેદ કરવાથી છ ભેદ થયા. આ પ્રમાણે પાંચ એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીવાના ખાવીસ ભેદ છે.
એઇન્દ્રિય, ત્રણુ-ઇન્દ્રિય અને ચૌઇન્દ્રિયના પર્યાપ્ત અપોમના ભેદથી છ ભેદ થયા તે સર્વને એક કરવાથી અઠાવીસ (૨૮) ભેદ થયા.
તિય ચ પંચેન્દ્રિય જલચર, સ્થલચર, ખેચર, ઉર:પરિસર્પ અને ભુજરસપના હેતુથી પાંચ પ્રકારના છે. તે પાંચના સન્ની અને અસસીના ભેદથી દસ થયા, તેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદ કરવાથી વીશ (૨૦) ભેદ થયા,તે વીસમાં પૂર્વોક્ત અઠાવીસ મેળવવાથી તિય ચાના અડતાલીસ (૪૮) ભેદ થાય છે.
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__ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिम०
२९९ (९) पृथिवीकाया असंख्याताः। (१०) अप्काया असंख्याताः । (११) तेजस्काया असंख्याताः। (१२) वायुकाया असंख्याताः। १३) प्रत्येक वनस्पतिकाया असंख्याताः। (१४) तदपेक्षया सिद्धजीवा अनन्ताः। (१५) तेभ्योऽपि कन्दमूलादिरूपा (१६) सूक्ष्मनिगोदजीवाः वादरनिगोदजीवा अनन्तगुणाः। सर्वतोऽनन्तगुणाः ।
कर्मवादिप्रकरणम्- . यः पुनरेवं पड्जीवनिकायस्वरूपनिरूपणपरः स एव लोकवादी - वस्तुतः कर्मवादीत्याह-'कर्मवादी' इति । कर्म-ज्ञानावरणीयादि, तद् वदितुं शीलमस्येति कर्मवादी-कर्मस्वरूपकथनशीलः । पड्जीवनिकायतत्त्वज्ञः खलु लोकवादी ज्ञाना(९) पृथ्वीकाय असंख्यात ।
(१०) अपूकाय असंख्यात । (११) तेजस्काय असंख्यात ।
(१२) वायुकाय असंख्यात । (१३) प्रत्येकवनस्पतिकाय असंख्यात । (१४) इस से सिद्ध जीव अनन्त । (१५) वादरनिगोदजीव कन्दमूल आदि सिद्धो से (१६) सूक्ष्म निगोदजीव सब से भी अनन्तगुणा ।
अनन्त गुणा । कर्मवादिमकरणजो इस प्रकार पड्जीवनिकाय का स्वरूप निरूपण करने वाला है, वही लोकवादी वास्तव में कर्तवादी है। ज्ञानावरण आदि कर्मों का कथन करना जिस का स्वभाव हो, वह कर्मवादी है। पड्जीवनिकाय का तत्व समझने वाला लोकवादी ज्ञानावरण (6) पृथ्वीजय असभ्यात छे. (१०) अ५४४य अध्यात छे. (11) ताय मसभ्यात छे. (१२) पायुश्य मण्यात छ. (13) प्रत्ये वनस्पतिय असभ्यात छ. (१४) तेनाथी सिद्ध मनन्त जे. (૧૫) બાદર નિગેદ જીવ કન્દમૂળ આદિ (૧૬) સૂક્ષ્મ નિગોદ જીવ સૌથી સિદ્ધોથી પણ અનન્ત છે.
અનન્તગણુ છે.
भवादीજે આ પ્રમાણે પછવનિકાયના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવાવાળા છે તે લોકવાદી વાસ્તવિક રીતે કર્મવાદી છે. જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોનું કથન કરવું તે જેને સ્વભાવ હોય, તે કર્મવાદી છે. વડજીવનિકાયના તત્ત્વને સમજવાવાળા લકવાદી જ્ઞાનાવરણ
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___ वाचारास्त्रे नव, विजयादयः पश्चानुत्तरविमानाः (३८)। सपा संकलनेन (९९) नवनवतिर्भेदाः । तेपा पर्याप्तापर्याप्तमेदेन द्वैचिध्ये सत्पष्टनवत्युत्तरशतं (१९८) मेदाः देवानां भवन्ति । इत्यं सकलमेदसंकलनया पइजीवनिकायानां त्रिपष्टयुत्तरपञ्चशतानि (५६३) भेदाः सन्ति ।
जीवानां संख्याजीवा अनन्ताः सन्ति । तयाहि(१) संझिनो मनुष्याः संख्याताः। (२) असंझिनो मनुष्या असंख्याताः (३) नारकिणोऽप्यसंख्याताः। (४) देवाः संख्याताः । (५) तिर्यञ्चः पञ्चन्द्रिया असंख्याताः। (६) द्वीन्द्रिया असंख्याताः। (७) त्रीन्द्रिया असंख्याता (८) चतुरिन्द्रिया असंख्याताः । निन्यानवे (९९) भेद होते हैं, और इन के पर्याप्त अपर्याप्त के मेद से एफसी अट्ठानवे (१९८) भेद देवों के हैं। इस प्रकार सब भेदों का जोड करने से पांचसौ सठ (५६३) पड़जीवनिकाय के भेद होते हैं।
जीवों की संख्या-- जीव अनन्त हैं। वे इस प्रकार- . (१) संज्ञी मनुष्य संख्यात ।
(२) असंज्ञी मनुष्य असंख्यात । (२) नारकी असंख्यात ।
(४) देव असंख्यात । (५) तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय असंख्यात।
(६) द्वीन्द्रिय असंख्यात । - (७) त्रीन्द्रिय असंख्यात।
(८) चतुरिन्द्रिय असंख्यात । કરવાથી નવાણું (ઈ ભેદ થાય છે. અને તેના પર્યાપ્ત અપપ્ત ભેદ કરવાથી એકસે અઠાણું (૧૯૮) ભેદ દેવાના છે. આ પ્રમાણે ઉપર કહેલા સર્વે ભેદેને એકઠા કરવાથી પાંચસે ત્રેસઠ (૫૩) જીવનિકાયના ભેદ થાય છે.
वोनी सध्या
જીવ અનન્ત છે, તે આ પ્રકારે છે – સંસી મનુષ્ય સંખ્યાત છે. (૨) અશી મનુષ્ય અસંખ્યાત છે. (3) नारी असभ्यात छे.
(४) ३१ मध्यात छ. 9 તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય અસંખ્યાત છે. (૬) કિન્દ્રિય અસંખ્યાત છે. (७) जीन्द्रिय मसभ्यात छ.
(८) ARन्द्रिय असभ्यात छे.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ८.५. कर्मवादिम० दिहेतुभिर्निरन्तरमयमात्मा रागद्वेपपरिणत्या स्वस्मिन् सकलपदेशेषु कर्मवर्गणारूपं पुद्गलं समाकर्पन क्षीरनीरन्यायेन तादात्म्यसमापन्नं करोति तदेव कर्मोच्यते ।
(२) कर्मणः सिद्धिःआत्मत्वधर्मेण सर्वेपामात्मनामेकरूपत्वेऽपि देवनारकमनुप्यतिर्यगादि. रूपं सुखि-दुःखि-सघन-निधन-मुरूप-कुरूप-सवला-ऽवल-नीरोग-सरोगादिरूपं वा यद् वैचित्र्यं तन्न निहतुकं भवितुमर्हति, सदा मवाऽभावदोपप्रसंगात् । निर्हेतुकत्वे देवनारकादिभवः शाश्वतिकः स्यात् , तथा देवनारकादिभवा रागदेपरूप परिणामों से अपने समस्त आत्मप्रदेशों में कर्मवर्गणा के पुद्गलों को खींचता है और क्षीर-नीर की तरह तद्रूप बना लेता है उन्हीं को कर्म कहते हैं ।
(२) कर्मकी सिद्धिसब आत्माओं में आत्मत्व समान होने पर भी कोई देव है, कोई नारक कोई मनुष्य है, कोई तिर्यच, कोई सुखी है, कोई दुःखी, कोई सधन, कोई निर्धन, कोई सुरूप, कोई कुरूप, कोई सबल, कोई निर्वल, कोई रोगी है, कोई नीरोगी है, यह सब विचित्रता निष्कारण नहीं हो सकती, अगर इसका कोई कारण न होता तो या तो यह विचित्रता होती ही नहीं, अगर होती भी तो सदैव के लिए होती। निष्कारण ही देवगति या नरकगति होती तो वह नित्य होती । तथा देव नरक आदि भवका
નિરંતર રાગદેવ, પરિણામેથી પિતાના સમસ્ત આત્મપ્રદેશમાં કર્મવર્ગણાના પગલને ખેંચે છે, અને ક્ષીર-નીર પ્રમાણે તદ્રુપ બનાવી લે છે, તેને કર્મ કહે છે.
(२) भनी सिद्धि
* સર્વ આત્માઓમાં આત્મત્વ સમાન હોવા છતાંય પણ કઈ દેવ છે, કેઈ નારકી કઈ ભનુષ્ય છે; કેઈ તિર્યંચ, કેઈ સુખી છે, કેઈ દુખી છે. કેઈ ધનવાન છે, કેઈ નિધન છે કેઈ સ્વરૂપવાન છે, કઈ કુ૫ છે, કેઈ સબલ છે, કેઈ નિર્બલ છે. કેઈ રોગી છે, કેઈ નિરોગી છે. આ સર્વ વિચિત્રતા કેઈ કારણ વિના હોઈ શકે નહી. તેનું કેઈ કારણ ન હોય તે આવી વિચિત્રતા પણ હેય નહી. અને હોય તે પછી તે હમેશાં માટે રહી શકતે. કઈ પણ કારણ વિના દેવગતિ અથવા નરકગતિ હોય તે તે નિત્ય હેય, તથા દેવ અને નારક આદિ ભવને અભાવ પણ નિત્ય હેત. એ પ્રમાણે
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३०
" आचारागसूत्रे वरणीयाद्यप्राविधकर्मैव नरकादिचतुर्गतिभ्रमणकारणतया विजानाति । ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धादेव हि जीवाचतुर्विधासु गतिषु परिभ्रमन्तः सम्यग्ज्ञानचारित्रमाप्तिमन्तरेण संसारदावाग्निपतितमात्मानं समुद्धत्तुं न प्रभवन्ति । एवं कर्मबन्धवेदी भव्यः कर्मवादी योद्धव्य इत्यर्थः।।
(१) कर्मस्वरूपम्अत्र कर्मप्रसङ्गेन तत्स्वरूपं निरूप्यते
जीवेन मिथ्यात्वादिहेतुभिः क्रियते यत् , तत् कर्म । यथा तप्तायोगोलकः सलिले निक्षिप्तः सन् सर्वतः सलिलमाकर्पति तथाऽनादिमिथ्यात्वाआदि आठ कर्मों को हो नरक आदि चार गतियों में भ्रमण का कारण जानता है । ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध के कारण ही जीव चार गतियों में परिभ्रमण करते हुए सम्यग्ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के विना संसाररूपी दावानल में पड़े हुए आत्मा का उद्धार करने में समर्थ नहीं होते । इस प्रकार कर्मबन्ध के वेत्ता (जाननेवाले) भन्यजीव कर्मवादी कहलाते हैं।
(१) कर्मका स्वरूपकर्म का प्रसङ्ग होने से उसके स्वरूप का निरूपण करते है:. जीव के द्वारा मिथ्यात्व आदि कारणों से जो कियाजाय वह कर्म हैं। जैसेतपा हुआ लोहे का गोला जल में डाल दिया जाय तो वह सभी तरफ से जल को खींचता है, उसी प्रकार अनादिकालीन मिथ्यात्व आदि कारणों से आत्मा निरन्तर આદિઆઠકને જનરકઆદિચાર ગતિઓમાં ભ્રમણનું કારણ જાણે છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના બંધના કારણથી જ જીવ ચાર ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરતે થકે સમ્યજ્ઞાન અને ચારિન્દ્રની પ્રાપ્તિ વિના સંસારરૂપી દાવાનલમાં પડેલા આત્માનો ઉદ્ધાર કરવામાં સમર્થ થતો નથી. આ પ્રકારે કર્મબંધને જાણનાર ભવ્યજીવ કર્મવાદી કહેવાય છે.'
(१) भनु २५०५--- કમને પ્રસંગ હેવાથી તેના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે – * જવારા મિથ્યાત્વઆદિ કારણથી જે કરવામાં આવે તે કર્મ છે. જેવી
અનિથી તપાવેલ લોઢાને ગાળો પાણીમાં નાખવામાં આવે તે તે ચારેય તરક પાણીને ખેંચે છે, તે પ્રમાણે અનાદિકાલીન મિથ્યાત્વ આદિ કારણથી આત્મા
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिम० __ ३०३
एतत् कर्म पुद्गलस्वरूपं, नामूर्तमस्ति, अमूर्तत्वे हि कर्मणः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघातासंभवात् , गगनादिवत् । उक्तञ्च" तुल्यमतापोधमसाहसाना,
केचिल्लभन्ते निजकार्यसिद्धिम् । परे न तां मित्र ! निगद्यतां मे,
कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतु: ॥१॥" अपरश्च"नियध्य मासान्नय गर्भमध्ये,
बहुप्रकारैः कललादिभावैः । उद्वर्त्य निष्काशयते सवित्र्याः,
____ को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम् १" इति ।
यह कर्म, पुद्गलस्वरूप है, अमूर्त नहीं । अगर कर्म अमूर्त माना जाय तो उस से आत्मा का अनुग्रह और उपघात होना असंभव है, जैसे आकाश से नहीं होता। कहा भी है:
“समान प्रताप, उद्यम और साहस वालों में से कोई कोई अपना कार्य सिद्ध फरलेते हैं और दूसरे नहीं करपाते। मित्र ! कर्म के सिवाय इस का और कोई कारण हो तो कहो ? अर्थात् कर्म ही इस का एकमात्र कारण है " ॥ १ ॥ और भी कहा है:- .
“गर्भ में नौ महीने तक कलल आदि अनेक रूपों में बढाकर माता के गर्भ से पूर्वकर्म के सिवाय और कोन बाहर निकालता है ?" ॥ १ ॥
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એ કમ, પુદ્ગલસ્વરૂ૫ છે, અમૂર નથી. અથવા કમને અમૂર્ત માનવામાં આવે તે તેનાથી આત્માનો અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થે અસંભવ છે, જેમ આકાશથી थता नथी. यु ए छ:----
સમાન પરાક્રમ, ઉદ્યમ, અને સાહસવાળી વ્યક્તિઓમાં કઈ-કઈ પોતાનું કાર્ય સિદ્ધ કરી લે છે અને કોઈ કઈ નથી કરી શકતી. મિત્ર! આ બાબતમાં કેમ વિના બીજું કોઈ કારણ હોય તો કહે અર્થાત્ કમજ એનું એક માત્ર કારણ છે.” ૧૫
બીજું પણ કહ્યું છે-“ગર્ભમાં નવ માસ સુધી કલલ (ગર્ભનું પ્રથમ સ્વરૂપ આદિ અનેક રૂપમાં વૃદ્ધિ પામીને માતાના ગર્ભમાંથી પૂર્વકર્મ સિવાય બીજું કશું महा२ १४ छ ?" ॥१॥
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३०२
आचारात्सूत्रे
भावोऽपि शाश्वतिकः स्यात्, एवं यः सुखी, तस्य सर्वदा मुखमेव स्यात्, यश्व दुःखी, तस्य सर्वदा दुःखमेव स्यात् सर्वदा सुखाभावस्तस्य स्यात् ।
अत एव - " नित्यं सत्त्वं वा देतोरन्यानपेक्षणात् " इत्याहुः । सहेतुकत्वस्वीकारे च य एवास्य हेतुः स एवास्माकं कर्मेति । उक्तञ्च
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" आत्मत्वेन विशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् । नरादिरूपं तच्चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञितम् " ॥ १ ॥
अभाव ही शाश्वतिक होता । इसी प्रकार जो सुखी है वह सदा के लिए सुखी होता । जो दुःखी है उसे सदैव दुःख ही होता उस के लिए सदैव सुख का अभाव होता । इसी लिए कहा गया है कि- "जो वस्तु किसी कारणकी अपेक्षा नहीं रखती वह, या तो आकाश की भाँति सदैव विद्यमान रहती अथवा खरविमाण की तरह कदापि नहीं होती । 13 अगर इस विचित्रता का जो कारण है उसी कारण को हम कर्म कहते हैं । कहा भी है
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आत्मत्व की समानता होने पर भी जिस कारण से मनुष्यादिरूप विचित्रता होती है वही अदृष्ट है। उसी को कर्म कहते हैं, वह नाना प्रकार का है ॥ १ ॥ "
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જે સુખી છે તે હંમેશાં માટે સુખીજ હાત, અને જે દુઃખી છે તે હમેશાં દુઃખીજ રહેત, તેને હંમેશા માટે સુખને અભાવ રહેત. એ કારણથી કહ્યુ` છે કેઃ— જે વસ્તુ કોઈ કારણની અપેક્ષા રાખતી નથી તે આકાશ પ્રમાણે સદૈવ વિદ્યમાન રહે છે, અથવા ખર-વિષાણુ (ગધેડાના શિંગડા)ની પ્રમાણે કદાપિ હોય નહીં...” અગર આ વિચિત્રતાનુ કાઈ કારણ માનવામાં આવે તે તે કારણને અમે કમ કહીએ છીએ, કહ્યું છે.—
“ આત્મત્વ (આત્માપણા)ની સમાનતા લેવા છતાં પણ જે કારણથી મનુષ્યાદિપ વિચિત્રતા હૈાય છે દેખાય છે. તે અષ્ટ છે. તેને કમ" કહે છે, અને તે નાના अारना छे- अर्थात् प्रारना छे." ॥१॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिम०
३०५ ननु अभ्रादिवत् कर्मपुद्गलानां विचित्रपरिणतिस्वीकारे वाह्यमिदं शरीरमेव मुखदुःखादिनानारूपवया विचित्रपरिणामं करोतीत्येव मन्यतां, किं पुनस्तद्वैचित्र्यहेतुभूतस्य कर्मणः परिकल्पनया, स्वभावात एव सर्वस्यापि पुद्गलपरिणामवैचित्र्यस्य सिद्धत्वादिति चेत्, अवधेहि
अभ्रादेरिव शरीरस्य सुखदुःखादिविचित्रपरिणामाङ्गीकारे यदि परितोपमेपि, तर्हि कर्मापि ननु तनुरेव, सेयं कर्मतनुरतनुते विचित्रपरिणाममित्यहि । जीवेन सहातिसंश्लिष्टत्यादतीन्द्रियत्वाचाभ्यन्तरं सक्ष्मं च कार्मणं शरीरम् , औदारिकं तु बाह्यं स्थूलमित्येतावानेव द्वयोः शरीरयोविंशेपो दृश्यते ।
शंका-अभ्र--मेध आदि के समान कर्मपुद्गलों का विचित्र परिणमन स्वीकार करते हो तो यह क्यों नहीं मान लेते कि बाह्य शरीर ही सुख-दुःख आदि नाना रूपों में विचित्र परिणमन करता है, कर्म को इस विचित्रता का कारण मानने से क्या लाभ है ?, पुद्गलों की सारी विचित्रता स्वभाव से ही सिद्ध है।
समाधान-अभ्र आदि के समान शरीर का ही सुख-दुःख आदि विचित्र परिणमन अङ्गीकार करने में आप को सन्तोष मिलता है तो कर्म भी तो शरीर ही है,
और वही कर्मशरीर विचित्र परिणमन करता है, ऐसा समझ लीजिए । जीव के साथ घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण और अतीन्द्रिय होने के कारण कर्मशरीर आभ्यन्तर
और सूक्ष्म कहलाता है, तथा औदारिक शरीर बाह्य और स्थूल है । बस इतना ही दानों शरीरों में अन्तर है।
કે–અશ્વ (મેઘ) આદિના સમાન કર્મ પુદગલનું વિચિત્ર પરિણમન સ્વીકાર કરે છે તે પછી, બાહ્ય શરીર જ સુખ–દુઃખ આદિ નાના રૂપમાં વિચિત્ર પરિણમન કરે છે એમ શા માટે માનતા નથી ? કમને એ વિચિત્રતાનું કારણ માનવાથી શું લાભ છે , યુદ્ગલેની પરિણમનની તમામ વિચિત્રતા સ્વભાવથી જ સિદ્ધ છે.
સમાધાન–મેઘ આદિના સમાન શરીરનું પણ સુખ દુખ આદિ વિચિત્ર પરિણમન અંગીકાર કરવામાં આપને સંતોષ મળે છે તે કર્મ તે શરીરજ છે, અને તે કર્મ-શરીર વિચિત્ર પરિણમન કરે છે, એ પ્રમાણે સમજી લ્યો. જીવની સાથે ઘનિષ્ઠ સંબંધ હોવાના કારણે અને અતીન્દ્રિય હોવાના કારણે કર્મ–શરીર આત્યંતર અને સુમિ કહેવાય છે,
તથા ઔદારિક શરીર બાહા અને–સ્થૂલ છે. એટલું જ એ બે શરીરમાં અન્તર છે. ..... मा.-३९
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३०४
आचाराङ्गमुत्रे
ननु यथा कर्म विनाऽपि विचित्रा अभ्रादिविकारा दृश्यन्ते तथा संसारिणां सुखदुःखादिभाषेन वैचित्र्यं यदि विनाऽपि कर्म भवेत् तर्हि का दशनिः ९ इति चेत्, उच्यते---
"
अभ्रविकारा गन्धर्वनगरशक्रधनुरादयो
गृहमाकारवृक्षरक्तनीलपीतादिभावेन वैचित्र्यं विभ्रति तत्र विस्रसापरिणतेन्द्रधनुरादिपुलपरिणामवैचित्र्यं हृदयते, तदपेक्षया विशिष्टं परिणामवैचित्र्यं मायेण चित्रन्यस्तानां चित्रकरादिशिल्पपरिगृहीतानां लेप्यकाष्ठकर्मानुगत पुद्गलानामुपलभ्यते, तर्हि जीवपरिगृहीतानामान्तरकर्मपुद्गलानां सुखदुःखादिनानारूपतया कथं न विशिष्टतरं परिणामवैचित्र्यं संभवेत् ? ।
शङ्का- -जैसे कर्म के बिना भी भाँति-भाँति के मेघ आदि के विकार देखे जाते हैं, उसी प्रकार कर्म के अभाव में भी संसारी जीवों में सुख-दुःखं आदि की विचित्रता हो तो क्या हानि है ?
? 1
आदि, गृह, करते हैं वहाँ
देखी जाती है,
समाधान - मेघविकार - गन्धर्वनगर, इन्द्रधनुप रक्त, नील, पीत, आदि रूप में विचित्रता धारण इन्द्रधनुष आदि, पुद्गल के परिणामों की विचित्रता आदि किसी शिल्पी के द्वारा गृहीत चित्र में अङ्कित, लेप्य काठ आदि पुद्गलों में उस से भी अधिक विशिष्टता दिखाई देती है तो फिर जीवद्वारा ग्रहण किये हुए आन्तरिक कर्मपुद्गलों की सुख-दुःख आदि नाना रूपों में परिणमन की विशिष्टतर विचित्रता क्यों न होगी ? |
प्राकार, वृक्ष, स्वभाव से परिणत लेकिन चित्रकार
શ`કાજેવી રીતે કર્મ વિના પણ ભાત-ભાતના મેઘ માદિના વિકારો જોવામાં આવે છે, તે પ્રમાણે કમૅના અભાવમાં પણ સંસારી જીવામાં સુખ-દુઃખ આદિની વિચિત્રતા હોય છે. એમ માનવામાં શું હાનિ છે?
सभाधान-भेधविहार-गंधर्वनगर, इन्द्रधनुष आदि, गृह, प्राार, वृक्ष, रस्त નીલ, પીત આદિ રૂપમાં વિચિત્રતા ધારણ કરે છે. ત્યાં સ્વભાવથી પરિણત ઈન્દ્રધનુષ આદિ-પુદ્ગલના પરિણામેનો વિચિત્રતા જોવામાં આવે છે, પરન્તુ ચિત્રકાર આદિ કાઈ શિલ્પીદ્વારા ગૃહીત ચિત્રમાં અંકિત,. લેપ્સ, કાષ્ઠ આદિ પુદ્ગલે માં તેનાથી પણ અધિક વિશિષ્ટતા તેવામાં આવે છે તે પછી જીવદ્વારા ગ્રહણ કરેલા આન્તરિક ક પુદ્ગલાની સુખદુખ આદિ નાના (જૂદા-જૂદા) રૂપેમાં પરિણમનની વિશિષ્ટતર વિચિત્રતા કેમ ન હેાય?
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५. कर्मवादिम०
३०७ शरीरान्तरग्रहणं च निष्कारणं न संभवति । तस्मात् । स्थूलशरीकारणभूतं सूक्ष्मकार्मणशरीरमस्तीत्यवश्यमङ्गीकर्तव्यम् ।
ननु कर्मरहितः शुद्धजीवो नानाविधशरीरादीनां कर्ताऽस्तु, तथेश्वरः, स्वभावो यदृच्छा वा विविधशरीरादिकं करोतीत्येव मन्यते, किं कर्मकल्पनेन ? अत्रोच्यते
अयं जीवेश्वरादिरकर्मा न शरीरसुखदुःखादीनां कर्ता, उपकरणाभावात् , दण्डाद्युपकरणरहितकुम्भकारवत् । कर्म विनाऽन्यदुपकरणं शरीराधारम्भकं जीवेश्वरादीनां न संभवति, गर्भावस्थास्वन्योपकरणासंभवात् , कर्म विना शुक्रशोणितादिग्रहणस्याप्यनुपपत्ते । संसार मिट जायगा, मगर संसार का मिटना दिखाई नहीं देता, और विना कारण के शरीर का ग्रहण नहीं हो सकता, अत एव स्थूल शरीर का कारण सूक्ष्म कार्मणशरीर का अस्तित्व अङ्गीकार करना चाहिए ।
शंका-कमरहित शुद्ध जीव को नाना प्रकार के शरीरों का कर्ता मान लिया जाय, __ या ईश्वर; स्वभाव अथवा यहच्छा को कर्ता स्वीकार कर लिया जाय, कर्म की कल्पना से क्या लाभ है ।
समाधान-कर्मरहित जीव या ईश्वर आदि, शरीर, सुख-दुःख आदि का कर्ता नहीं है, क्यों कि उसके पास उपकरण नहीं हैं, दण्ड आदि उपकरणों से रहित कुंभार के समान । कर्म के सिवाय, शरीर आदि रचने में ईश्वर आदि को और कोई भी उपकरण नहीं हो सकता । कर्म के अतिरिक्त और कोई उपकरण न होने के कारण गर्भ आदि अवस्थाओ में शुक्र शोणित आदिका ग्रहण भी नहीं हो सकता। પરંતુ સંસાર બંધ થશે તેવું જોવામાં આવતું નથી. અને કારણ વિના શરીરનું ગ્રહણ હોઈ શકે નહીં એ કારણથી સ્થૂલ શરીરનું કારણ સૂમ-કાશ્મણ શરીરના અસ્તિત્વને અંગીકાર કરવો જોઈએ.
શકા-કમરહિત શુદ્ધ જીવને નાના પ્રકારના શરીરના કર્તા માની લઈએ, અથવા ઈશ્વર સ્વભાવ યા યદચ્છાને કર્તા માની લઈએ તે પછી કર્મની કલ્પના કરવાથી શું લાભ?
સમાધાન-કર્મરહિત જીવ અથવા તે ઈશ્વર આદિ, શરીર,સુખ, દુઃખના કર્તાનથી. કારણ કે તેની પાસે ઉપકરણ-(મુખ્ય સાધન) નથી, દંડ આદિ પ્રધાન સાધને વિનાને જેમ કુંભાર, તે પ્રમાણે, કર્મ વિના શરીર આદિ રચવામાં ઈશ્વર વગેરેને બીજું કઈ પણ ઉપકરણ હોઈ શકે નહિ. કર્મના વિના બીજું કઈ પ્રધાન સાધન નહિં હેવાને કારણે ગર્ભ આદિ અવસ્થાઓમાં શુક શેણિત વગેરેનું ગ્રહણ પણ થઈ શકે નહી.
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भाचारातसूत्रे
ननु घायशरीरस्य स्थूलत्वात् प्रत्यक्षदृष्टत्वाचाभ्रादिसादृश्येन वादशरीरस्यैव सुखदुःखादिविचित्रपरिणामोऽस्तु किं पुनरमत्यभूतस्य कर्मपातीन्द्रियशरीरस्य कल्पनेन, कार्मणशरीरानङ्गीकारे यदि कोऽपि दोष आपतति, ततोऽर्थापतेरेव कर्मवैचित्र्यमङ्गीकरिष्यामः १ इति । अत्रोच्यते-
"
मरणसमये प्रत्यक्षदृष्टवाद्यस्थूलशरीराद् विमुक्तस्य जीवस्य भवान्तरीवास्थूलशरीरग्रहणे फारणभृतं सूक्ष्मं कार्मणशरीरं विनाऽग्रिमदेहग्रहणाभावरूपी दोपः समापद्यते तव देहान्तरग्रहणानुपपतेर्मरणानन्तरं सर्वस्यापि जीवस्य शरीराभावात् संसारोच्छेदः स्यात् । न च दृश्यते संसारसमुच्छेदः । शङ्का - बाह्य शरीर स्थूल है और प्रत्यक्ष दिखाई देता है, अत एव वाहा शरीर के साथ ही अत्र आदि की समानता है, ऐसी स्थिति में बाह्य शरीर का ही सुख दुःख आदिरूप परिणमन मानना चाहिए। कभी प्रत्यक्ष दिखाई न देने वाले कर्मरूप अतीन्द्रिय शरीर को कल्पना करने का कष्ट क्यों उठाते हैं ? हाँ ।, कर्मणशरीर को स्वीकार न करने से अगर कोई दीप आया तो फिर अर्थापत्ति प्रमाण से ही कर्म की विचित्रता स्वीकार कर लेंगे ? |
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समाधान-मृत्यु के समय प्रत्यक्ष दीखने वाले वाह्य स्थूल शरीर को ग्रहण करने का कारणभूत सूक्ष्म शरीर न हो तो जीव आगामी शरीर को ग्रहण ही नहीं कर सकेगा । सूक्ष्म शरीर न मानने से यह दोष आता है । नीव अगर अगले न करे तो मृत्यु के पश्चात् भशरीर होने के कारण सभी जीव मुक्त हो
शरीर को ग्रहण जाएँगे, और
શકા-બાહ્ય શરીર સ્થૂલ છે અને પ્રત્યક્ષ દેખાય છે, એ કારણથી બાહ્ય શરીરની સાથેજ મેઘ આદિની સમાનતા છે એવી સ્થિતિમાં બાહ્ય શરીરનું જ સુખ-દુઃખ આદિ રૂપ પરિણમન માની લેવું જોઈએ. કોઈ વખત પ્રત્યક્ષ નહિ દેખાતા એવા કર્મરૂપ અતીન્દ્રિય શરીરની કલ્પના કરવાનું કષ્ટ શા માટે ઉઠાવા છે ? હા ! કાણુ શરીરને સ્વીકાર નહિ કરવાથી જો કોઈ દોષ આવશે તે પછી અર્થોપત્તિ પ્રમાણુથીજ કર્મની વિચિત્રતા સ્વીકારી લઈશું,
સમાધાનમૃત્યુના સમયે પ્રત્યક્ષ દેખાતાં બાહ્ય સ્થૂલ શરીરથી જીવ અલગ થઈ જાય છે. આગલા ભવમાં ખાહ્ય સ્થૂલ શરીરને ગ્રહણુ કરવાના કારણભૂત સુક્ષ્મ શરીર નહિ હાય તે! જીવ આગામી શરીરને ગ્રહણુજ કરી શકશે નહિ. સૂક્ષ્મ શરીર નહિ માનવાથી આ દોષ આવે છે. જીવ જો મૃત્યુ પછી મીન રારીરને ગ્રહણ ન કરે તે મૃત્યુ પછી અશરીર હાવાને કારણે સર્વ જીવે મુક્ત થઇ જંશે અને સસાર બંધ થઈ જશે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५. कर्मवादिप्र०
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तच्छरीरारम्भेऽपि तुल्यता प्रश्नस्य । सोऽप्यकर्मा निजशरीरं नारभते निरुपकरणत्वात् । यदि तच्छरीरकर्ताऽन्यः कोऽपि तर्हि सोऽपि शरीरखान अशरीरो वा ? इत्थं चानवस्था । अनिष्टं च सर्वमेतत् । तस्मान्नेश्वरी देहादीनां कर्ता, किन्तु कर्मसहितो जीव एव स्वकीयं देहादिकं करोति ।
किञ्च - ईश्वरस्य देहादिकरणं निष्प्रयोजनमिति तदोन्मत्ततुल्यता स्यात् । सप्रयोजनकर्तृत्वे तु तस्यानीश्वरत्वप्रसङ्गः । किञ्चानादिशुद्धस्य तस्येश्वरस्य देहादिकरणेच्छा नोपपद्यते, इच्छाया रागरूपत्वात् ।
नहीं हो सकता । अगर सशरीर है तो उसका शरीर बनाने वाला कोई तीसरा ईश्वर मानना पडेगा । वह तीसरा ईश्वर भी अशरीर है या सशरीर है ?, इत्यादि विकल्प फिर उपस्थित होनेके कारण अनवस्था दोप भाता है।
यह सब अभीष्ट नहीं है । अतः देह आदिका कर्ता ईश्वर नहीं हो सकता, वरन् कर्मसहित जीव ही अपने शरीर आदि का कर्ता है |
दूसरी बात यह है कि ईश्वर, विना किसी प्रयोजन के ही अगर शरीर आदि की रचना करता है तो वह उन्मत्त के समान होगा । अगर उसका कोई प्रयोजन है तो वह ईश्वर नहीं रहेगा ।
एक बात और अनादि काल से शुद्ध ईश्वर की देह आदि रचने में इच्छां ही नहीं हो सकती, क्यों कि इच्छा एक प्रकार का राग है और रागी ईश्वर नहीं हो सकता ।
હાવાના કારણે શરીરકર્તા થઈ શકતા નથી. અગર સશરીર છે તે તેનું શરીર ખનાવવાવાળા કાઈ ત્રીને ઈશ્વર માનવા પડશે. તે ત્રીજા ઈશ્વર પણ સશરીર છે અથવા સશરીર છે ?, ઈત્યાદિ વિકલ્પ ફરીને ઉપસ્થિત હાવાના કારણે અનવસ્થા દોષ આવે છે, તે સર્વ અભીષ્ટ નથી, તે કારણથી દેહ આદિના કર્તા ઈશ્વર થઈ શકતા નથી, પરન્તુ કસહિત જીવજ પેાતાના શરીર આદિના કર્તા છે.
ખીજી વાત એ છે કે ઈશ્વર કાઈ પ્રયેાજન વિના જે શરીર આદિની રચના કરે છે તેા તે ઉન્મત્તની સમાન ગણાશે. અથવા તેા તેને કાંઈ પ્રત્યેાજન છે, તેા તે ઈશ્વર નહીં રહે. એક બીજી વાત એ છે કે-અનાદિ કાળથી શુદ્ધ ઈશ્વરની, દેહ આદિ રચનામાં ઈચ્છાજ રહેતી નથી, કારણ કે ઈચ્છા એક પ્રકારના રાગ છે, અને રાગી ઈશ્વર થઈ શકતા નથી.
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आचारागसूत्रे यद्वा-अकर्मा शरीरादिकं नारभते, निथेप्टत्वात् , अमृतत्वात् , आकाशवत् । तथा-एकत्वात् एकपरमाणुवत् ।
यदि शरीखानीश्वरः करोति विविधशरीरादिफमित्युच्यते तदाऽनवस्था'दोपः समापद्यते। तथाहि-शरीरस्येवरस्य जगवैचित्र्यकर्तृत्वस्वीकारे स्वशरीरकर्तृत्वमकर्मणस्तस्यश्वरस्य न संभवति, निरुपकरणत्वात् , दण्डादिरहितकुम्भकारवत् । अथान्यः कोऽपीश्वरस्तदीयशरीरकरणाय प्रवर्तते ततः सोऽपि शरीरयान् अशरीरो वा ? यद्यशरीरस्वर्हि नासौ शरीरकर्ता निरुपकरणत्वात् । शरीरवांश्वेत-तर्हि
अथवा-जो कमरहित है वह शरीर आदि का · उत्पादक नहीं हो सकता, क्यों कि वह चेष्टारहित है, अथवा अमूर्त है। जो चेष्टाहीन या अमूर्त होता है वह शरीर आदि को जनक नहीं होता, जैसे आकाश । तथा वह एक होने के कारण भी शरीर आदिका जनक नहीं हो सकता, जैसे एक परमाणु ।
कदाचित् यह कहा जाय कि सशरीर ईश्वर विविध शरीर आदिका कर्ता है तो अनवस्था दोप आता है। वह इस प्रकार-जब सशरीर ईश्वर जगत् की विचित्रता का कारण है तो वह विना शरीर के अपना शरीर भी नहीं बना सकेगा, क्यों कि वह उपकरणहीन है, दण्डआदि से रहित कुंभार के समान । अब यह कहा जाय कि कोई दूसरा ईश्वर, पहले ईश्वर का शरीर बनाने के लिए प्रवृत्त होता है तो उसके विषय में भी वही प्रश्न उपस्थित होता है कि वह सशरीर है अथवा अशरीर है ?, अगर वह अशरीर है तो उपकरणहीन होने के कारण शरीर का कर्ता
અથવા–જે કમરહિત છે તે શરીર આદિના ઉત્પાદક થઈ શકે નહિ, કારણ કે તે ચેષ્ટારહિત છે. અથવા અમૂર્ત છે. જે ચેષ્ટાહીન અથવા અમૂર્ત હોય છે, તે શરીર આદિના ઉત્પન્ન કરનાર હેય નહિ. જેવી રીતે-આકાશ, તથા તે એક હેવાના કારણે પણ શરીર આદિના ઉપન્ન કરનાર હાય નહિ. જેવી રીતે એક પરમાણુ.
કદાચિત એમ કહેવામાં આવે કેન્સશરીર ઈશ્વર વિવિધ શરીર આદિના કત છે. તો અનવસ્થા દેવ આવે છે. તે આ પ્રમાણે કે જ્યારે શરીર ઈશ્વર જગતની વિચિત્રતાનું કારણ છે તે, શરીર વિના પિતાનું શરીર પણ બનાવી શકશે નહી; કારણ કે તે ઉપકરણહીન છે જેમ દંડ આદિથી રહિત કુંભાર. હવે જે એમ કહેવામાં આવે કે કોઈ બીજે ઈશ્વર પ્રથમના ઈશ્વરનું શરીર બનાવવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તો તે વિષયમાં પણ એ પ્રશ્ન ઉભો થાય છે કે તે સશરીર છે અથવા અશરીર છે? અગર જે અશરીર છે તે ઉપકરણહીન
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आचारचिन्तामणि–टीका अध्य. १ ३.१ सू.५ कर्मवादिन०
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मूर्तस्य शरीरादिकार्यस्यानुरूपं कारणं मूर्तमेव संभवति, यथा मृत्पिण्डो घटस्य । अकारणतारूपः स्वभावः ? इति चेत्, एवं सति शरीरादिकमकारणमेवोत्पद्यते, इत्ययमर्थः स्यात् तथा सति कारणाभावस्य समानत्वादेकस्मिन्नेव समये सकलशरीरोत्पत्तिप्रसंगः |
यदि स्वभावो वस्तुधर्म इत्युच्यते, तथापि यदि विज्ञानादिवदात्मनो धर्मस्तर्हि नासौ स्वभात्रः शरीरकारणं भवितुमर्हति, अमूर्तत्वात्, आकाशवदित्युक्तं प्रागेव । यदि स स्वभावो मूर्तवस्तुधर्मस्तर्हि सिद्धसाधनम् कर्मापि पुहलरूपमेवेति वयं ब्रूमः । तस्मात् कर्मैव जगद्वैचित्र्यकारणमिति सिद्धम् ।
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जैसे घट का कारण मिट्टी का पिण्ड है ।
अगर कोई भी कारण न होना हो स्वभाव है तो इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर आदि निष्कारण ही उत्पन्न हो जाते हैं । अगर निष्कारण ही शरीर की उत्पत्ति होती है तो फिर संसार के समस्त शरीर एक साथ क्यों नहीं हो जाते ? ।
स्वभाव किसी वस्तु का धर्म है, यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। अगर वह ज्ञान आदि के समान आत्मा का धर्म हैं तो आकाश की तरह अमूर्त होने के कारण शरीर का कर्ता नहीं हो सकता, यह पहले ही कहा जा चुका है । स्वभाव अगर किसी मूर्त वस्तु का धर्म है तो यह हमें भी इप्ट है, क्यों कि हमारे कथनानुसार कर्म भी पुद्गल का क्रमभावी धर्म है, अत एव यह सिद्ध हुआ कि कर्म ही जगत् की विचित्रता का कारण है ।
મૂત્ત શરીરનું અનુરૂપ કારણુ મૂત્તજ હાવુ જોઇએ, જેમ ઘટતુ કારણ માટીના પિંડ છે. અથવા કાઈ જ કારણ ન હેાય એવા જ સ્વભાવ છે તે તેને અથ એ થયે કે શરીર આદિ નિષ્કારણુજ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, અને નિષ્કારણ જ શરીરની ઉત્પત્તિ થાય છે તે પછી સસારના સમસ્ત શરીર એક સાથે કેમ થઈ નથી જતાં ?
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સ્વભાવ કોઈ વસ્તુના ધર્મ છે” એ પ્રમાણે કહેવુ તે પણ યુક્તિસંગત નથી. અથવા તે! તે જ્ઞાન આદિના સમાન આત્માના ધર્મ છે. તે આકાશની માફક અમૃત્ત હાવાના કારણે શરીરના કર્તા થઈ શકશે નહી, આ હકીકત પ્રથમથીજ કહી આપી છે. સ્વભાવ એ કાઈ મૂત્ત વસ્તુના ધમ છે, તે તે વાત અમારે પણ માન્ય છે, કારણ કે અમારા કહેવા પ્રમાણે કમ પણ પુદ્ગલરૂપજ છે, એ માટે એમ સિદ્ધ થયું કૈ ક જ જગતની વિચિત્રાનું કારણ છે.
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आचारागसूत्रे नापि स्वभावो देहादीनां कर्ता भवितुमर्हति । स स्वभावः किं वस्तु. विशेषो या ? अकारणता वा ? वस्तुधर्मो वा ?, तत्र न तावद् वस्तुविशेषः, तस्य वस्तुविशेषरूपत्वे प्रमाणाभावात् । प्रमाणरहितस्यापि वस्तुलस्वीकारे कर्मापि कथं नाङ्गीकरोपि ?, त्वन्मते कर्मणोऽपि प्रमाणरहितत्वात् ।
किञ्च-यस्तुविशेषरूपः स स्वभावो मृों या स्यादभूतों वा?, यदि मूर्तस्तहि स्वभाव इति नामान्तरेण कर्मत्र सिध्यति । यदि पुनरमूर्तस्तहि नासी स्वभावो देहादीनां कर्ता भवितुमर्हति, अमृतत्वात् निरुपकरणत्वाच, गगनवत् ।
स्वभाव भी देह आदि का कर्ता नहीं हो सकता । आखिर स्वभाव का अर्थ क्या है ? स्वभाव कोई वस्तु है ? अथवा कोई भी कारण न होना स्वभाव है ? या किसी वस्तु का धर्म है ? । स्वभाव कोई वस्तु तो है नहीं, क्यों कि उसे वस्तु मानने में कोई प्रमाण नहीं है। प्रमाण के अभावमें भी स्वभाव को वस्तु मान लिया जाय तो कर्म मानने में क्या आपत्ति है ? तुम्हारे मत के अनुसार कर्म मानने में भी कोई प्रमाण नहीं है।
स्वभाव अगर कोई वस्तु है तो वह मूर्त है या अमूर्त है, मगर मूर्त है तो स्वभाव और कर्म एक ही वस्तु है। आप कर्म को ही स्वभाव-शब्द से कहते हैं तो कह लीजिये । स्वभाव को अमूर्त मानते हैं तो वह देह आदिका कर्ता नहीं हो सकता, क्यों कि वह अमूर्त है और उपकरणरहित है, जैसे आकाश । मूर्त शरीर का अनुरूप कारण मूर्त ही होना चाहिए,
સ્વભાવ પણ દેહ આદિને કર્તા થઈ શકતો નથી, છેવટ સ્વભાવને અર્થ શું છે? સ્વભાવ કઈ વસ્તુ છે ? અથવા કેઈપણ કારણ નહીં કહેવું તે સ્વભાવ છે? અથવા કોઈ વસ્તુને ધર્મ છે? સ્વભાવ કઈ વસ્તુ તે છે નહીં, કારણ કે તેને વસ્તુ માનવામાં કઈ પ્રમાણ નથી, પ્રમાણુના અભાવમાં પણ સ્વભાવને વસ્તુ માની લેવામાં આવે તે કમ માનવામાં શું આપત્તિ છે? તમારા મત પ્રમાણે કર્મ માનવામાં પણ કેઈ પ્રમાણ નથી.
સ્વભાવ અગર કઈ પણ વસ્તુ છે તે તે મૂત્ત છે અથવા અમૂર્ત છે જે મૂત્ત છે તો સ્વભાવ અને કમ એક જ વસ્તુ છે, તમે કમેનેજ સ્વભાવ-શબ્દથી કહે છે તે અશથી કહો. જે સ્વભાવને અમૂર્ત માનશે તે તે દેહ આદિને કર્તા થઈ શકશે નહી, કારણ કે તે અમૂર્ત છે. અને ઉપકરણ પ્રધાન સાધને) રહિત છે જેવી રીતે આકાશે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५. कर्मवादिन० नाप्येकस्यैव कर्मणो मूर्तबममूर्तत्वं च युज्यते, विरुद्धत्वादिति चेत्.? उच्यते-- . अत्र कारणशब्देनोपादानकारण परिगृह्यते; न तु निमित्तकारणम् , सुखदुःखादीनां निमित्तकारणमेव कर्म, यथाऽनपानादयो विपादया वा सुखदुःखादीनां निमित्तकारणमस्ति । उपदानकारणं तु तेपामात्मैव मुखदुःखादीनामात्मधर्मत्वादिति नास्ति दोपलेशोऽपि।
(१) जीवकर्मणोः सम्बन्धः ।. . . ... ननु कर्म मूर्तमस्तीत्युक्तं परन्तु मूर्तस्य कर्मणोऽमृर्तेन . जीवेन सह कथं संयोगलक्षणः सम्बन्धः? इति चेन्मैवम् , यथा मृतस्य :घटस्यामृतेन गगनेन संयोगलक्षणः सम्बन्धस्तथाऽत्रापि जीवकर्मणोः सम्बन्धोऽस्वीति । उक्तञ्च~~ सकती । और एक ही कर्म मूर्त भी हो और अमूर्त भी हो, यह कैसे हो सकता है ?, ये दोनों धर्म विरोधी हैं, एक जगह नहीं रह सकते। .. समाधान-~-यहाँ कारण-शब्द से उपादान कारण ग्रहण किया गया है, निमित कारण नहीं । कर्म सुख-दुःख के प्रति निमित्त कारण ही है, जैसे अन्न, पान, विप आदि सुख-दुःख के निमित्त कारण हैं। सुख दुःख का उपादान कारण तो आत्मा ही है, क्यों कि वे आत्मा के धर्म हैं, अतः यहां दोष का लेश भी नहीं है।
(४) जीव और कर्म का सबन्ध-~ शङ्काः-आपने कर्म को मूर्त सिद्ध किया, मगर मूर्त कर्म का अमूर्त जीव के साथ सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है । . समाधान-ऐसा न कहिए । जैसे मूर्त घट का अमूर्त आकाश के साथ संयोगसम्बन्ध है, उसी प्रकार जीव और कर्म का भी सम्बन्ध है । कहा भी है :-~કમ પણ હોય અને અમ પણ હોય, એ કેવી રીતે હોઈ શકે ? આ બન્ને ધર્મ વિરોધી છે તેથી એક જગ્યાએ રહી શકતા નથી.
સમાધાન-અહિં કારણ-શદથી ઉપાદાન કારણ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, નિમિત્ત કારણે નહિ. કર્મ, સુખ-ન્દખ થવામાં નિમિત્ત કારણુજ છે, જેવી રીતે અન્ન પાન, વિષ આદિ સુખ-દુઃખના નિમિત્ત કારણ છે, પરન્તુ સુખ-દુઃખનું ઉપાદાન કારણ તે આત્મા જ છે, કારણ કે તે આત્માને ધર્મ છે તેથી તેમાં લેશ પણ દોષ નથી.
(४) ७२ मते मा सम्म-4શકા–આપે કર્મને મૂર્ત છે એમ સિદ્ધ કર્યું તે પછી મૂર્ત કર્મને અમૂર્ત જીવની સાથે સમ્બન્ધ કેવી રીતે હોઈ શકે છે,
સમાધાન–આ પ્રમાણે નહિ કહે ? જેમ મૂર્ત ઘટને અમૂર્ત આકાશની સાથે સંચાગસમ્બન્ધ છે, તે પ્રમાણે જીવ અને કર્મને પણ સમ્બધ છે. કહ્યું પણ છે – प्र. पा.-१०
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आवारागसत्रे __ (३) कर्मणो मूतत्वम्नन्वतीन्द्रियस्य कार्मणशरीरस्य मृतत्वे कि मानम् ? अत्रोच्यते
शरीरादिकार्यदर्शनात्तत्कारणभूतं कर्म सिध्यति चेत् तर्हि कार्यानुरूपमेव कारणं भवितुमर्हतीति शरीरादिकार्याणां मृतत्वात्तत्कारणं कर्मापि मूर्तमेव । यथा मूर्तस्य घटादिकार्यस्य कारणं परमाणुपुद्गलास्ते मूर्ता एव सन्ति । यच्च पुनरमूर्त कार्य तस्य कारणमपि-अमृतम् , यथा ज्ञानस्यात्मेति ।
ननु सुखदुःखादयोऽपि कर्मणः कार्य तर्हि तेपाममूर्वत्वात् कर्मणोऽ भूतत्वमपि मामोति, नहि मूदिमृतॊत्पत्तिः संभवति, यथा पुद्गलाद् ज्ञानपर्यायः,
(३) कर्म का मूर्तपन-- शङ्का--अतीन्द्रिय कार्मण शरीर के मूर्त होने में क्या प्रमाण है !
समाधान-शरीर आदि कार्यों के देखने से उनके कारणभूत कर्म की सिद्धि होती है, और कारण, कार्य के अनुरूप ही होता है, अत एव जब शरीर आदि कार्य मूर्त हैं तो उन का कारण कर्म भी मूर्त ही होना चाहिए। जैसे मूर्त घट आदि कार्यों के कारणभूत पुद्गल परमाणु भी मूर्त ही हैं, जो कार्य अमूर्त होता है, उसका कारण भी अमूर्त ही होता है। जैसे ज्ञान का कारण आत्मा ।
शङ्का-सुख और दुःख आदि का कारण भी कर्म है, और सुख दुःख आदि अमूर्त हैं; अतः उन का कारण कर्म अमूर्त भी होना चाहिए । मूर्त से अमूर्त की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जैसे पुद्गल से ज्ञानपर्याय की उत्पत्ति नहीं हो
(3) उभ भूतपःશંકા-અતીન્દ્રિય કામણ શરીરમાં મૂર્ણપણું હવામાં શું પ્રમાણ છે ?
સમાધાન-શરીર આદિ કાર્યોના દેખવાથી તેના કારણભૂત ફર્મની સિદ્ધિ થાય છે, અને કારણ, કાર્યના અનુપજ હોય છે. એ કારણથી જ્યારે શરીર આદિ કાર્ય મૂર્ત છે, તે તેનું કારણ કર્મ પણ મૂર્તજ હોવું જોઈએ. જેવી રીતે મૂર્ત ઘટ આદિ કાર્યોના કારણભૂત પગલપરમાણુ પણ મૂર્ત છે. જે કાર્ય અમૂર્ત હોય છે તેનું કારણ પણ અમૂર્ત જ હોય છે, જેમકે જ્ઞાનનું કારણ આત્મા.
કા-સુખ અને દુઃખ આદિનું કારણ કર્મ છે, અને સુખ દુઃખ આદિ અમૂર્ત છે. તેથી તેનું કારણ કર્મ પણ અમૂર્તજ હોવું જોઈએ. મૂર્તથી અમૂર્તની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, જેવી રીતે પુદ્ગલથી જ્ઞાન પર્યાયની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, અને એકજ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. उ.१ २.५ कर्मवादिन० तयोरप्यमृतेन जीवेन कयं सम्बन्धः १, यदि कथञ्चित् सम्बन्धस्तहि कर्मणोऽपि जीवेन सह सम्बन्धः कुतो न स्यात् । यद्यमृत्तौ धौधौं तर्हि बाह्येन स्थूलशरीरेण मूर्तेन सह तयोः कथं सम्बन्धः ? तवमते मुर्तामूर्तयोः सम्बन्धासंभवात् । यद्यमूर्तयोरपि धर्माधर्मयोर्वाह्यशरीरेण मूर्तेन सह सम्बन्धोऽङ्गीक्रियते तर्हि जीवेन सह कर्मणः सम्बन्धे कथं दोपः ।
नन्वमूर्तस्य जीवस्य मूर्तन कर्मणा कयं मुखदुःखाद्यनुग्रहोपयाती स्याताम् , न ह्यमूर्तस्याकाशस्य मूतःस्रकचन्दनाग्निज्वालादिभिरनुग्रहोपघाती जायेते ?।
अगर वे मूर्त हैं तो अमूर्त जीव के साथ उनका सम्बन्ध कैसे हुआ?, अगर किसी प्रकार उनका सम्बन्ध हो गया तो कर्म का सम्बन्ध क्यों नहीं हो सकता है। अगर धर्म अधर्म अमूर्त हैं तो वाह्य स्थूल और मूर्त शरीर के साथ उनका सम्बन्ध कैसे हो गया ?, आपके मत से मूर्त और अमूर्त का तो सम्बन्ध हो नहीं सकता। अगर अमूर्त धर्म अधर्म का मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध होना स्वीकार करते हो तो जीव के साथ फर्म का सम्बन्ध मानने में क्या दोष है ?
शङ्का-अमूर्त जीव का मूर्त कर्म के द्वारा सुख दुःख आदिरूप अनुग्रह और उपघात कैसे हो सकता है, मूर्त माला, चन्दन, अग्नि, ज्वाला आदि से अमूर्त आकाश का अनुप्रह और उपघात नहीं होता ?
અથવા કઈ પ્રકારે તેને સમ્બન્ધ થઈ ગયે તે કર્મને સમ્બન્ધ શા માટે નહિ થઈ શકે ? અગર ધર્મ અધર્મ અમૂર્ત છે તે બાહ્ય સ્કૂલ અને મૂર્ત શરીરની સાથે તેને સમ્બન્ધ કેવી રીતે થઈ ગયે? આપના મત પ્રમાણે તે મૂત અને અમૂર્ત સમ્બન્ધજ હોઈ શકે નહીં. પરંતુ જે અમૂર્ત ધર્મ-અધર્મને મૂર્ત શરીરની સાથે સમ્બન્ય થે તે સ્વીકાર કરતા હે તે જીવની સાથે કર્મને સમ્બન્ધ માનવામાં દેપ શું છે?
શંકા-અમૂર્ત જીવને, મૂર્ત કર્મ દ્વારા સુખ-દુઃખ આદિરૂપ અનુગ્રહ અને ઉપઘાત કઈ રીતે થઈ શકે? મૂર્ત માળા ચન્દન, અગ્નિ, વાળા આદિથી અમૂર્ત આકાશને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થઈ શક્યું નથી.
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आचारास्त्रे "यथा ह्यरूपमाकाशं, रुपिद्रव्यादिभाजनम् ।
तथा हरूप आत्मापि, रूपिफर्मादिभाजनम् ॥१॥" यथा वा- अमृतयाऽऽकुचनादिक्रियया सह मृतद्रव्यस्याराल्यादेः सम्बन्धस्तथाऽत्रापि जीवकर्मणोः सम्बन्ध इति योध्यम् ।।
यद्वा-यथा वाह्यशरीरमिदं जीवेन सह सम्बद्धं प्रत्यक्षदृष्टमेवास्ति, एवं भवान्तरं गच्छता जीवेन सह कार्मणशरीरं सम्बद्धमेवेति । ___ यदि बाह्यशरीरस्य जीवेन सह सम्बन्धे धर्माधर्मयोः कारणताऽस्तीत्युच्यते तर्हि तावपि धर्माधौं मूर्ती स्याताममूर्ती वा ? । यदि मूतौं तहि
" जैसे अरूपी आकाश रूपी द्रव्य आदि का आधार है, उसी प्रकार अरूपी आत्मा कर्मों का आधार है" ॥१॥
अथवा जैसे-आकुश्चन (सिकोडना) आदि अमूर्त क्रिया के साथ अंगुली आदि मूर्त द्रव्य का सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार यहां जीव और कर्म का सम्बन्ध समझ लेना चाहिए।
अथवा जैसे बाह्य शरीरका जीव के साथ सम्बन्ध है, वह प्रत्यक्ष सिद्ध है, उसी प्रकार भवान्तर में जाते जीव के साथ कार्मण शरीर का सम्बन्ध है।
मगर कहा जाय कि जीव के साथ बाह्य शरीर का सम्बन्ध होने में धर्म और अधर्म कारण है तो प्रश्न खडा होता है कि-धर्म अधर्म मूर्त हैं या अमूर्त है ?
જેવી રીતે અરૂપી આકાશ, પાંદ્રવ્ય આદિને આધાર છે. તે પ્રમાણે અરૂપી मात्मा, ३पी भनिमाघार छ." ॥१॥
અથવા-જેવી રીતે-સંકેચવું આદિ અમૂર્ત કિયાની સાથે આંગલી આદિ મૂર્ત દ્રવ્યને સમ્બન્ધ હોય છે તે પ્રમાણે જીવ અને કર્મને સમ્બન્ધ સમજી લેવો જોઈએ.
અથવા જેવી રીતે આ બાહ્ય શરીર જીવની સાથે સંબદ્ધ છે. તે પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે. તે પ્રમાણે ભાવાન્તરમાં જતા જીવની સાથે કામણ શરીરને સંબંધ છે.
અથવા તો એમ કહેવામાં આવે કે જીવની સાથે બાહ્ય શરીરને સમ્બન્ધ હવામાં ધમ અને અધમ કારણ છે. તે પ્રશ્ન ઉભો થાય છે. કે–ધર્મ અધમ મૂર્ત છે કે અમૂર્ત છે જે તે મૂર્ત છે એમ કહે તે અમૂર્ત જીવની સાથે તેનો સંબંધ કેવી રીતે થયો?
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सू. ५ कर्मवादिन०
(५) कर्मणोऽनादित्वम्
__ अनादिः कर्मणः प्रवाहः । शरीरकर्मणोः परस्परं कार्यकारण भावात् , वीजाकुरवत् । यथा वीजादगुरो जायते, अङ्कुरादपि क्रमेण वीजमुपजायते । एवं शरीरात् कर्म जायते कर्मतस्तु शरीरमित्येवं पुनः पुनरपि परस्परमनादिकालतः कार्यकारणभावसद्भावोऽस्ति । इह ययोः परस्परं कार्यकारणभावस्तयोरनादि प्रवाहो दृश्यते यथा वीजाङ्करयोः, यथा वा कुकुटाण्डयोः, तथा शरीरकर्मणोरनादिप्रवाह इति ।
(५) कर्मों का अनादिपन
कर्मी को परम्परा अनादिकालीन है, क्यों कि शरीर और कर्म का परस्पर कार्यकारणभाव है, जैसे बीज और अंकुर का । तात्पर्य है कि जैसे बीज से अंकुर उत्पन्न होता है,
और अंकुर से क्रमशः बीज की उत्पत्ति होती है, इसी प्रकार शरीर से कर्म और कर्म से __ शरीर उत्पन्न होता है। यह पारस्परिक कार्यकारणभाव अनादि काल से चला आता है।
जिन दो पदार्थों में परस्पर कार्य-कारणभाव होता है उनका प्रवाह अनादिकालीन देखा जाता है, जैसे पूर्वोक्त वीज और अंकुर का, अथवा मुर्गी और अण्डे का । इस प्रकार शरीर और कर्म का प्रवाह अनादिकालीन है ।
(५) नुमEिY
કર્મોની પરંપરા અનાદિકાલીન છે. કારણ કે-શરીર અને કર્મોને પરસ્પર કાર્ય કારણભાવ છે, જેવી રીતે બીજા અને અંકુરને તાત્પર્ય એ છે કે-જેવી રીતે બીજથી અંકર ઉત્પન્ન થાય છે. અને અંકુરથી કમશઃ (ક્રમે-કમે) બીજની ઉત્પત્તિ થાય છે. તે પ્રમાણે શરીરથી કર્મ અને કર્મથી શરીર ઉત્પન્ન થાય છે. આ પરસ્પરને કાર્ય કારણે ભાવ અનાદિ કાલથી ચાલ્યો આવે છે. જે બે પદાર્થોમાં પરસ્પર કાર્ય-કારણભાવ હોય છે તેને પ્રવાહ અનાદિકાલીન જોવામાં આવે છે. જેવી રીતે પૂર્વ કહેલ બીજ અને અંકુરને, અથવા મરઘી અને ઇંડાને, એ પ્રમાણે શરીર અને કર્મને પ્રવાહ અનાદિકાલીન છે,
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आचारागसूत्रे शणु-यथामदिरापानविपपिपीलिकादिमिर्भसितैरमूर्तानामपिधृतिस्मृति-मेघादीनामात्मगुणानामुपघातो जायते, " मेधां पिपीलिका इन्ति" इत्यादिवचनात् , तथा पयःशर्कराधृतादिभिश्वानुग्रहः क्रियते तथैवामूर्तस्यात्मनो मुर्तेन कर्मणाऽनुग्रहोपघातौ जायेते। इदं च जीवस्यामूर्तत्वमगीकृत्य समाहितम् , न ह्येकान्तरूपेणाऽमूर्त एवात्मा किन्तु वनपयोगोलकवत् क्षीरनीरवच कार्मणशरीराभेदरूपतां प्राप्तः कथञ्चिन्मृतॊऽपीति । तस्य मूर्तेन कर्मणानुग्रहोपघाती भवत एव । आकाशस्य तु तो न भवतः, तस्यैकान्तरूपेणामूर्तत्वादचेतनत्वाच ।
समाधान-सुनिये असे-मदिरा का पान करने से, विपमक्षण से और कौडी आदि के खाये जाने से अमूर्त धैर्य, स्मृति और बुद्धि आदि आत्मिक गुणों का उपघात होता है, " मेधां पिपीलिका हन्ति " इत्यादि वचन से, तथा 'दूध, शकर और घृत आदि से अनुग्रह होता है, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म द्वारा अनुग्रह और उपघात होता है । जीव को अमूर्त अङ्गीकार करके यह समाधान किया है, किन्तु जीव एकान्तरूप से अमूर्त नहीं है। क्षीर-नीर को तरह अथवा अग्नि और लोहे के गोले की तरह आत्मा कार्मणशरीर से कथञ्चित् अभिन्न है, अत एव मूर्त भी है। कर्मलिप्त आत्मा मूर्त होने के कारण मूर्त कर्मों से उसका अनुमह और उपघात होता ही है । हा ! आकाश का अनुग्रह और उपघात नहीं होता, क्यों कि वह एकान्ततः अमूर्त और अचेतन है।
સમાધાન–સાંભળે! જેમ મદિરાનું પાન કરવાથી, વિષભક્ષણથી, અથવા કીડી આદિ પેટમાં ખાઈ જવામાં આવવાથી અમૂત ધિર્ય, અને બુદ્ધિ આદિ આધ્યાત્મિક गुलशनी Baid थाय छे. "मेधां पिपीलिका हन्ति" त्या क्यनाथी, तथा इध, સાકર અને ઘી આદિથી અનુગ્રહ થાય છે, તે પ્રમાણે અમૂર્ત આત્માને મૂર્ત કર્મ અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થાય છે.
જીવને અમૂર્ત અંગીકાર કરીને આ સમાધાન કર્યું છે, પરંતુ જીવ એકાન્તથી અમત નથી. ક્ષીર-નીરની પ્રમાણે અથવા અગ્નિ અને લોઢાના ગોળાની માફક આત્મા કાર્મgશરીરથી કથંચિત્ અભિન્ન છે. આ કારણથી મૂર્ત પણ છે. કર્મલિપ્ત આત્મા મૂર્ત હોવાના કારણે મૂર્ત કર્મોથી તેને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થાયજ છે. હા આકાશને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થતો નથી, કારણ કે તે એકાન્તથી અમૂત मन मयतन छ.'
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.मु.५ कर्मवादिम० ___अध सर्वपमावणां यदप्रत्यक्षं तन्नास्तीत्यपि न संभवति । यतः सर्वमतीन्द्रियं वस्तु सर्वपमातृणां प्रत्यक्षं न भवति, तादृशज्ञानशक्तेरभावात् । अस्माभिस्तु समस्तभावावमासनभास्करः सर्वज्ञः स्वीक्रियते ।
विचाराक्षमत्वमपि न युक्तं, कर्कश(दुर्धपोतस्तय॑माणस्य कर्मणः सद्भावसंभवात्।
साधकामावादपि नादृष्टाभावः, पूर्वोक्तागमानुमानयोस्तत्साधकयोः सत्वात् । यथा च-शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्येत्यागमः । शुभयोगः पुण्यस्य, अशुभयोगः पापस्य कारणमित्यर्थः ।
अगर कहा जाय कि एक-दो के अप्रत्यक्ष होने से किसीका अभाव नहीं होता वरन् जो वस्तु सभी के अप्रत्यक्ष है, उसका अभाव होता है। यह कथन भी ठीक नहीं है, क्यों कि सब अतीन्द्रिय वस्तुएँ सब प्रमाताओं के प्रत्यक्ष नहीं होती, इसका कारण विशिष्ट ज्ञानशक्ति का अभाव है । मगर हम लोग तो समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने में सूर्य के समान सर्वज्ञ स्वीकार करते हैं।
अदृष्ट, विचार को सहन नहीं करता अर्थात् विचारने के योग्य नहीं है, यह कथन भी युक्त नहीं, कठोर तर्कों द्वारा विचार करने से कर्म का अस्तित्व सिद्ध हो ही जाता है ।
__साधक प्रमाणों का अभाव होने से कर्म का अभाव बतलाना भी ठीक नहीं, क्यों कि पूर्वोक्त आगम और अनुमान प्रमाण उसका सद्भाव सिद्ध करते हैं। "शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य' यह आगमप्रमाण है । अर्थात् शुभयोग पुण्य का और अशुभ योग पाप का कारण होता है।
અથવા કહેશે કે એક-બેના અપ્રત્યક્ષ હોવાથી કેઈને અભાવ થતું નથી. પરન્તુ જે વસ્તુ સર્વને અપ્રત્યક્ષ છે તેને અભાવ હોય છે. એમ કહેવું તે પણ ઠીક નથી, કારણ કે સર્વ અતીન્દ્રિય વસ્તુઓ પ્રમાતાઓને પ્રત્યક્ષ થતી નથી. તેનું કારણ વિશિષ્ટ જ્ઞાનશક્તિને અભાવ છે. અથવા અમે તે સમસ્ત પદાર્થોને પ્રકાશિત કરવામાં સૂર્યના સમાન સર્વજ્ઞને સ્વીકાર કરીએ છીએ.
અદણ, વિચારને સહન કરતા નથી અર્થાત વિચારવા યોગ્ય નથી, એમ કહેવું તે પણ યુક્ત નથી, કઠિન તર્કો દ્વારા વિચાર કરવાથી કર્મનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થઈ
जय छे.
રાધક પ્રમાણેને અભાવ હોવાથી કર્મોને અભાવ બતાવ તે પણ ઠીક નથી; કારણ કે પૂર્વોક્ત આગમ અને અનુમાન પ્રમાણ તેને સદ્ભાવ (અસ્તિત્વ-હેવાપણું) सिद्ध 3रे छ. शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य से भागमा छ, अर्थात् शुभ योग પુણ્યનું અશુભ ચૅગ પાપનું કારણ હોય છે.
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आचारातसूत्रे
(६) अकर्मवादिमतनिराकरणम्---
यः पुनरदृष्टं कर्म नास्तीति मन्यते स च नास्तिकः प्रष्टव्य:-अयमदृष्टाभावः किम् अप्रत्यक्षत्वात्, विचारक्षमत्यात्, साधकाभावाद वा मन्यसे ?
,
अप्रत्यक्षत्वान्नादृष्टाभावः सिध्यति, यतस्तव यदप्रत्यक्षं तन्नास्तीति स्वीकारे त्वदीय पितामहादेरप्यभावः स्यात् तस्य त्वज्जन्मतः पूर्वमेवातीतत्वेन तवाप्रत्यक्षत्वात् । तथा च भवन्मते पितामहादेरतीवकालिकसत्ताया अभावेन भवतोऽपि सत्ता कथमुपपद्येत ? 1
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(६) अकर्मवादी के मत का निराकरण---
जो नास्तिक यह मानता है कि-अदृष्ट कर्म का सद्भाव नहीं है, उससे पूछना चाहिए कि तुम अदृष्ट के अभाव को क्यों मानते हो ? प्रत्यक्ष न होने से, विचार को सहन न करने से अर्थात् विचारके योग्य नहीं होने से, या साधक प्रमाणों का अभाव होने से अदृष्ट का अभाव कहते हो ? प्रत्यक्ष न होने मात्र से अदृष्ट का अभाव तुम्हें प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता वह होता ही नहीं है,
सिद्ध नहीं हो सकता । जो ऐसा मान लिया जाय तो तुम्हारे पितामह आदि का भी अभाव हो जायगा । वह तुम्हारे जन्म से पहले ही गुजर चुके हैं, अतः तुम्हें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे सकते। ऐसी अवस्था में तुम्हारे पितामह आदि की भूतकालीन सत्ता का अभाव होजाने के कारण तुम्हारी सत्ता भी खतरे में पड जायगी ।
(१) सर्भवादीना भतनु निशःश्णु
જે નાસ્તિક એવું માને છે કેઃ-અદ્રષ્ટ કર્મને સદ્ભાવ (અસ્તિત્વ) નથી, તેમને પૂછવું જોઈ એ કેતમે અષ્ટને અભાવ શા માટે માના છે ? પ્રત્યક્ષ નહી હોવાથી, વિચારને સહન નહીં કરવાથી અર્થાત્ વિચારવાચેાગ્ય નહિ હાવાથી, અથવા સાધક પ્રમાણે ના અભાવ હાવાથી અદૃષ્ટને અભાવ કહે છે ?
પ્રત્યક્ષ નહી હાવા માત્રથી અષ્ટના અભાવ સિદ્ધ થઈ શકતા નથી, જે વસ્તુ તમને પ્રત્યક્ષ જેવામાં ન આવે તે વસ્તુ હોયજ નહીં, એ પ્રમાણે જે માની લેશે તા તમારા પિતામહ (બયને આપ) આદિને અભાવ થઈ જશે, કારણ કે તે તમારા જન્મતા પહેલાજ ગુજરી ગયા છે તેથી તમને તે પ્રત્યક્ષ વામાં આવતા નથી, એવી અવસ્થામાં તમારા પિતામહ આદિની ભૂતકાલીન સત્તાને અભાવ થઈ જવાથી तभारी सत्ता पक्षु मतराभां (प्रभां ) घडी थे.
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मास
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू.५. कर्मवादिन० नीर वत् सम्बन्धो बन्धः । यद्वा-वध्यते अस्वातन्त्र्यमापद्यते आत्मा येन, संवन्धः । ज्ञा नावरणीयायप्टविधर्मपुद्गलानामवस्थानं हि जीवस्याऽनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूपसामर्थ्यप्रतिबन्धकतया स्वातन्त्र्यविघातकं भवति । ____ यद्यपि निश्वयनयेन रागद्वेपरहितोऽयमात्मा, तथाप्यसौ व्यवहारनयेन रागद्वेपरूपभावकर्मणां ज्ञानावरणीयादिद्रव्यकर्मणां च कर्ता भवति । आत्मसंलग्नशरीरावगाहनक्षेत्रावस्थितकर्मवर्गणायोग्यपुद्गलस्कन्धाः स्वकीयोपादानकारणशक्त्यैव कर्मरूपामवस्थां प्राप्नुवन्ति । ते च कर्मपुद्गला आत्मप्रदेशैः सह परस्परमेकक्षेत्रावगाहरूपं वन्धं क्षीरनीरवत् प्राप्नोति । यथा समुड्डीयमानानि रजांसि और पानी की तरह सम्बन्ध हो जाना बन्ध है। आत्मा-जीव जिस के द्वारा बांधा जाय-पराधीन किया जाय, वह बन्ध है। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की स्थिति, जीव के अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप सामर्थ्य में बाधक होने के कारण स्वतन्त्रता का घात करने वाली है।
यद्यपि निश्चयनय से आत्मा राग-द्वेप से रहित है, किन्तु व्यवहारनय से राग-द्वेषरूप भावकर्मों का, तथा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों का कर्ता है। जिस आकाशक्षेत्र में आत्मा से संबद्ध शरीर है, इसी आकाशक्षेत्र में स्थित कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्ध, अपनी उपादानकारण-शक्ति से ही कर्मरूप अवस्था को प्राप्त करते हैं । वे कर्मपुद्गल आत्मप्रदशों के साथ परस्पर एकक्षेत्रावगाहरूप बन्ध को क्षीर-नीर की नाई प्राप्त होते हैं। जैसे-उडती हुई रज, तेल से चिकने घडे आदि पर चिपक जाती है, પાણીની પ્રમાણે સમ્બન્ધ થઈ જે તે બંધ છે. આત્મા-જીવ જેના દ્વારા બંધાઈ જાય-પરાધીન થઈ જાય. તે બંધ છે. જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોની સ્થિતિ, જીવના અનન્ત જ્ઞાન, દર્શન સુખ અને વીર્યપ સામર્થ્યમાં બાધક હેવાના કારણે સ્વતંત્રતાને ઘાત કરવા વાળી છે.
જે કે નિશ્ચયનયથી આત્મા રાગ-દ્વેષથી રહિત છે, પરંતુ વ્યવહારનયથી રાગષિ૫ ભાવકને, તથા જ્ઞાનાવરણ આદિ દ્રવ્યકર્મોને કર્તા છે. જે આકાશક્ષેત્રમાં આત્માથી સંબદ્ધ શરીર છે, તે આકાશક્ષેત્રમાં સ્થિત (રહેલા કર્મ–વર્ગણાના ચોગ્ય પુદ્ગલસ્કધ, પોતાની ઉપાદાન કારણું–શક્તિથી જ કર્મરૂપ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે, તે કમપુદ્ગલ આત્મપ્રદેશોની સાથે પરસ્પર એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ બંધને ક્ષીર–નીરના ન્યાય પ્રમાણે પ્રાપ્ત થાય છે, જેવી રીતે ઉડતી રજ, તેલના ચિકણા ઘડા આદિને प्र. आ. ४१
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आचारास्त्रे
कार्यविशेषेण कारणस्यानुमानं भवति यथा कार्यविशेषः सकारणकः, कार्यत्वात्, कुम्भवत् । उक्तञ्च -
" तुल्याकृत्योश्च यमयो, - र्दुश्यते महदन्तरम् ।
"
चारित्र - वीर्य - विज्ञान, - चराग्यारोग्य-संपदाम् ॥१॥ इति | अदष्टरूपकारणमन्तरेणेदं महदन्तरं न संभवति, तस्मादवश्यं स्त्रीकरणीयं कर्म ।
३२०
(७) बन्धस्वरूपनिरूपणम् -
अत्र वन्धशब्देन भावयन्धो गृह्यते, न तु निगडादिबन्धरूपो द्रव्यवन्धः । बन्धनं वन्धः । कर्मवर्गणायोग्य पुद्गल स्कन्धानामात्ममदेशानां च परस्परं क्षीरं
कार्यविशेष से कारण का अनुमान होता है । जैसे- इस कार्य का कोई कारण है, क्यों कि कार्य है, जैसे- घट, कहा भी है---
"
समान आकृति वाले यमल ( जोडलो सन्तान) में चारित्र, वीर्य, विज्ञान, वैराग्य, और सम्पत्ति का महान् अन्तर दिखाई देता है " ॥ १॥
अदृष्टरूप कारण के विना यह महान् अन्तर नहीं हो सकता, अंत एव कर्म अवश्य स्वीकार करना चाहिए ।
(७) बन्ध के स्वरूपका निरूपण ---
बन्ध-शब्द से यहाँ भावबन्ध का ग्रहण करना चाहिए । वेडी आदि द्रव्यबन्धका नहीं । कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्धों का और आत्मप्रदेशों का आपस में दूध
".
કાય --વિશેષથી કારણનું અનુમાન થાય છે જેવી રીતે આ કાયનું કાંઈ કારણે छे, अशशु के अर्थ छे, देवी रीते घंटे. उधु यागु हे
'समान आमृति वाणां युभस-लेडंसां संतानभां यास्त्रि, वीर्य, विज्ञान, वेशभ्य, આરાગ્ય અને સમ્પત્તિનું મહાન અંતર જોવામાં આવે છે” [૧].
અદૃષ્ટરૂપ કારણ વિના આ મહાન અન્ત હોઈ શકે નહિ, એ કારણથી કમના અવશ્ય સ્વીકાર કરી લેવા જોઈએ.
(७) पधस्वरूपनु निइया
અંધ-શબ્દથી અહિં ભાવ-મધનું મહેણુ કરવું જોઈ એ, એડી આદિ દ્રબ્યમ ધનું નહિ, કવણાને ચાગ્ય પુદ્ગલસ્કંધના અને આત્મ-પ્રદેશેાના પરસ્પર દૂધ અને
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आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ.१ ९.५ कर्मवादिभ० वीर्यगुणपरिणामात्मिका शुभाशुभक्रियां भवति । इयं क्रिया चात्मनः प्रदेशानां परिस्पन्दः, कम्पन, व्यापारो, योग इति चोच्यते । इयमेव मनोवाक्काययोग इति च कथ्यते । इयमात्मनो ज्ञानावरणाद्यप्टकमसम्बन्धरूपे वन्धे हेतुश्च ।
आत्मनः शुभाशुभक्रियायां सत्यामात्मसंलग्नानादिकार्मणशरीरेणात्माऽनन्तानन्तमदेशिस्कन्धरूपांश्चतुःस्पर्शान् कर्मयोग्यपुद्गलानादाय कार्मणशरीरतया परिणमयति । आत्मसंलग्नं यदनादि कार्मणशरीरं, तद्धि आत्मैक्यात् कर्मयोग्यपुद्गलानां ग्रहणे स्वाधीनकरणे स्वस्मिन्नेकत्वपरिणामकरणे च समर्थ भवति । अनादिकार्मणशरीरसम्बन्धादेव संसारी जीवो मूर्तोऽस्ति । मूर्तत्वादेव च तस्य पौद्गलिककर्मसम्बन्धो भवति । वीर्यगुण के परिणमनरूप शुभा-शुभ क्रिया होती है । इस क्रिया को आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन, कम्पन, व्यापार या योग कहते हैं । यही मन, वचन और काय का योग कहलाता है । यही क्रिया ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के बन्ध का कारण है।
आत्मा की जव शुभ या अशुभ क्रिया होती है तो आत्मा के साथ पहले से बंधे हुए कार्मणशरीर के द्वारा आत्मा, अनन्तानन्तप्रदेशी-स्कन्धरूप; चौस्पर्शी कर्मयोग्य पुद्गलों ___ को ग्रहण कर के कार्मणशरीर के रूप में परिणत करता है । आत्मा से सम्बद्ध अनादिकालीन
कार्मणशरीर आत्मा के साथ एकमेक होने के कारण कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करने में, अपने अधीन करने में और अपने साथ एकमेक करलेने में समर्थ होता है । अनादिकालीन कार्मणशरीर के सम्बन्ध से ही संसारी जीव मूर्त है, और मूर्त होने के कारण ही उसका पौद्गलिक कर्मों के साथ सम्बन्ध होता है।
વીર્યગુણના પરિણમનરૂપ શુભાશુભ કિયા થાય છે. તે ક્રિયાને આત્માના પ્રદેશોનું પરિસ્પન્દન, કમ્પન, વ્યાપાર અથવા રોગ કહે છે. આજ મન વચન અને કાયાને ચોગ કહેવાય છે. આ કિયા જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોના બંધનું કારણ છે.
આત્માની જ્યારે શુભ અથવા અશુભ કિયા થાય છે તે આત્માની સાથે પહેલાથી બાંધેલા કામણુશરીરદ્વારા આત્મા અનંતાનનpદેશી–સકંધરૂપ, ચૌસ્પશી કર્મચગ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને કાર્મgશરીરના રૂપમાં પરિણત કરે છે. આત્માથી સંબદ્ધ અનાદિકાલીન કાર્મણશરીર આત્માની સાથે એકમેક હેવાના કારણે કર્મવ્ય પુદગલેને ગ્રહણ કરવામાં, પિતાના આધીન કરવામાં અને પિતાની સાથે એકમેક કરી લેવામાં સમર્થ થાય છે. અનાદિકાલીન કાર્મgશરીરના સંબંધથી જ સંસારી જીવ મૂત્ત હોવાના કારણે જ તેને પૌગલિક કર્મોની સાથે સમ્બન્ધ થાય છે,
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आचारायंत्रे तैलस्निग्धे घटादौ संश्लिष्टानि भवन्ति, तथा रागद्वेपरूपतैलस्निग्धमलिनात्मप्रदेशेषु कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलाः स्वफीयोपादानशल्या ज्ञानावरणीयादिकर्मरूपामवस्थां प्राप्य संश्लिष्टा मवन्ति । ।
परमाणुरूपा द्विपदेशिप्रभृतिरकन्धरूपाच पुद्गला औदारिक क्रिया-ऽऽहारक-तेजस-भाषा-श्वासोच्छास-मनः-कार्मण-भेदादप्टविधाः। तत्र कर्मवर्गणापुद्गला अपि समस्तलोकं व्याप्य वर्तन्ते, यत्र संसारिणां शरीराणि सन्ति, तत्रापि तद्वहिश्वापि सर्वत्र ते वर्तन्ते, तत्र कर्मयोग्यपुद्गला आत्मना परिगृहीताः कर्मरूपेण परिणता भवन्ति ।
रागद्वेपपरिणत्याऽऽद्रीकृतस्यात्मनो मनोवाक्कायरूपकरणसाहाय्येन उसीप्रकार राग-द्वेषरूपी तेल से चिकने मलिन आत्मप्रदेशो में, · फर्मवर्गणा के योग्य . पुद्गल, अपनी-अपनी उपादानशक्ति से ज्ञानावरण आदि कर्म-रूप अवस्था को प्राप्त कर के चिपक जाते हैं।
परमाणुरूप और द्विप्रदेशी वगैरह स्कन्धरूप पुद्गल औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण के भेद से आठ प्रकार के होते हैं । इन में से कार्मणवर्गणा के पुद्गल भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। जहां संसारी जीवों के शरीर हैं, वहां भी हैं, और बाहर भी सर्वत्र हैं। ये कर्मयोग्य पुद्गल आत्माद्वारा जब ग्रहण किये जाते हैं तब कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं।
राग-द्वेपरूप परिणति से युक्त आत्मा का, मन, वचन, काय, की सहायता से ટી જાય છે, તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષ રૂપી તેલથી ચિકણું અને મલિન આત્મપ્રદેશમાં કમવર્ગણગ્ય પુદ્ગલ પિત-પિતાની ઉપાદાનશક્તિથી જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મ—રૂપ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને ચૂંટી જાય છે.
પરમાણુરૂપ અને દ્વિ-પ્રદેશી વગેરે સ્કંધરૂપ પુદ્ગલ દારિક, વૈક્રિય, આહારક. તૈજસ, ભાષા, શ્વાસ, મન અને કામણના ભેદથી આઠ પ્રકારના હોય છે. તેમાંથી કામgવગણાના પુદ્ગલ પણ સંપૂર્ણ લોકમાં વ્યાપ્ત છે. જ્યાં સંસારી જીનાં શરીર છે ત્યાં પણ છે અને બહાર સર્વત્ર પણ છે. તે કાગ્ય પુગલ આત્માદ્વારા ત્યારે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યારે તે કર્મરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે.
રાગ-રૂપ પરિતિયુક્ત આત્માની મન, વચન અને કાયાની સહાયતાથી
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ कर्मवादिम० रागादिरूपतैलाभ्यक्तस्यात्मनः कार्मणशरीरपरिणामो नवीनकर्मग्रहणे योग्यता संपादयति । आत्मशरीरयोरैक्ये सति सम्यग्ज्ञानाभावरूपानाभोगवीर्यतः कर्मवन्धो भवति । इत्थं कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानां ज्ञानावरणीयादिकर्मतया परिणतानां सकपायस्यात्मनः सकलप्रदेशेषु लोलीभावो वन्ध इति योध्यम् ।
(८) बन्धकारणनिरूपणम्वन्धस्य पञ्च साधारणकारणानि मिथ्यात्वाऽ-विरति-प्रमाद-कपाय-योगमेदात् ।
तत्रातत्त्वे तत्वाध्यवसायरूपो विपरीतावबोधो मोहकर्मोदयजनित आत्मपरिणामो मिथ्यालम् । यद्वा-कुदेव-कुगुरु-कुधर्मप्वभिरुचिरूपमतत्त्वार्थश्रद्धान उसी प्रकार राग-द्वेपरूपी तेल से युक्त आत्मा का कार्मणशरीररूप परिणाम नवीन कर्मों को ग्रहण करने में योग्य हो जाता है । आत्मा और शरीर के एकमेक होने पर सम्यग्ज्ञान के अभावरूप अनाभोग वीर्य से कर्मवन्ध होता है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मरूप में परिणत कार्मणवर्गणाओं के योग्य पुद्गलों का कपाययुक्त-आत्मा के समस्त प्रदेशों में एकमेक हो जाना बन्ध है।
(५) वन्धके कारणबन्ध के साधारण कारण पांच हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कपाय, और (५) योग ।
अतत्व को तत्त्व समझनेरूप मोहनीयकर्मजन्य विपरीतज्ञानरूप आत्मपरिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं, अथवा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म में रुचिरूप अतत्व का પરિણામ નવીન કર્મો ગ્રહણ કરવામાં પેશ્ય થઈ જાય છે. આત્મા અને શરીરના એકમેક થવાથી સમ્યજ્ઞાનના અભાવરૂપ અનગ વીર્યથી કર્મબંધ થાય છે.
એ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મરૂપમાં પરિણત કાર્મણવગણના ન્ય પુદ્ગલેનું કષાયયુક્ત આત્માના સમસ્ત પ્રદેશમાં એકમેક થઈ જવું તે બંધ છે.
(८) म १२४-- मना साधारण १२ पाय छे.-(१) मिथ्यात्प, (२) मविश्ति, (3) प्रभाह, (४) ४ाय अन (4) योग.
અતત્વને તત્વ સમજવા રૂ૫ મોહનીયકર્મજન્ય, વિપરીતજ્ઞાનરૂપ આત્મપરિણામને મિથ્યાત્વ કહે છે. અથવા કુદેવ કુગુરૂ, અને કુધર્મમાં રૂચિરૂપ અતત્ત્વની
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आचारामने _ यथा दीपक ऊष्मगुणयोगाद् वर्तिद्वारा तैलमादाय ज्यालारूपेण परिणमयति तथा रागद्वेपोष्मगुणसम्बन्धान्मनोवागादियोगवाऽऽत्मदीपः कर्मयोग्यपुद्गलस्कन्धतैलमादाय कर्मज्वालारूपेण परिणतं करोति । मनोवागादिरूपकरणसंयोगादा-स्मनो वीर्यपरिणामो भवति, अतो मनोवागादिव्यापारोयोगशब्देनोच्यते। यथा मृन्मयघटस्याग्निसंयोगाद् रक्तत्वादिपरिणतिर्घटस्यैव भवति तथा मनोवागादिसंयोगाद शुभाशुभक्रियारूपा वीर्यपरिणतिरात्मन एव भवति, न तु पुद्गलरूपमनोवागादेः ।
यथा च तैलाभ्यक्ते शरीरे जलार्दै बसे या धूलिराश्लिष्टा भवति, तथा
जैसे-दीपक उष्मागुण के कारण वत्तीद्वारा तैल ग्रहण कर के ज्याला के रूप में परिणत करता है, उसी प्रकार राग-द्वेष रूप उष्मागुणके सम्बन्ध से मन, वचन आदि योगों ' की बत्ती द्वारा आत्मरूपी दीपक कर्मयोग्यपुद्गलस्कन्धरूप तैल को ग्रहण कर के कर्मरूप
ज्वाला में परिणत कर लेता है । मन, वचन और कायरूप करण के द्वारा आत्मा का वीर्यरूप परिणमन होता है । इसीलिए मन, वचन, आदि का व्यापार योग कहलाता है । जैसे -अग्नि के संयोग से मिट्टी के घडे की ललाई आदिरूप परिणति होती है, और वह घडे की ही कहलाती है, उसीप्रकार मन, वचन आदि के संयोग से शुभा-शुभक्रियारूप वीर्य की परिगति आत्मा की ही होती है, पुद्गलरूप मन, वचन आदि की नहीं ।
जैसे तेल से लिप्त शरीर पर या भीगे हुए वस्त्र पर धूल लग जाती है,
જેવી રીતે દીપક ઉખાણુણના કારણે બત્તી દ્વારા તેલને ગ્રહણ કરીને જવાળાના કપમાં પરિણત કરે છે તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષરૂપ ઉમાગુણના સમ્બન્ધથી મન વચન આદિ પેગની બત્તી દ્વારા આત્મારૂપી દિપક કમપેગ્ય-પુદ્ગલસ્કંધરૂપ તેલને ગ્રહણ કરીને કર્મરૂપ જ્વાલામાં પરિણત કરી લે છે. મન, વચન અને કાયારૂપ કરણ દ્વારા આત્માનું વીર્યરૂપ પરિણમન થાય છે; એ કારણથી મન, વચન આદિને વ્યાપાર વેગ કહેવાય છે. જેવી રીતે અગ્નિના સંગથી માટીના ઘડાની જ હાલા રાતાશપણું) રૂ૫ પરિણતિ થાય છે, અને તે ઘડાની જ કહેવાય છે. તે પ્રમાણે મન, વચન આદિના સાગથી શુભા-શુભક્રિયારૂપ વીર્યની પરિણતિ આત્માની જ થાય છે. પુદ્ગલરૂપ મન, વચન આદિની નહિ.
કી રીતે તેલથી લિપ્ત શરીર પર, અથવા ભિંજાએલા વસ્ત્ર પર uman नय.. प्रभारी राग-द्वेष३पी सिथी युत मात्भाना 2151020 -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५, कर्मवादिप्र० ३२७
एषु पञ्चसु कारणेसु कपायः प्रधानम् । स च क्रोधमानमायालोममेदाचतुर्विधः । चतुविधोऽप्ययं कपायो रागद्वेपान्तर्गत एवास्ति । उक्तञ्च
"दोहिं ठाणेहिं पायकम्मा बंधति, तंजहा-रागेण य, दोसेण य । रागे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-माया य लोभे य । दोसे दुविहे पण्णते, तंजहा-कोहे य माणे य" (स्था० स्थान २ उ०)
वन्धश्चतुर्विधः-प्रकृति-स्थित्य-नुभाव-प्रदेशभेदात् । उक्तञ्च
"चउविहे बंधे पण्णत्ते, तंजहा-पगइबंधे१, ठिइबंधेर, अणुभावबंधे३, , पएसबंधे४।" (समवायाङ्ग. समवाय४)
इन पांच कारणों में कपाय प्रधान है। क्रोध, मान, माया और लोभ के भेदसे वह चार प्रकार का है। कपाय के ये चारों भेद राग और द्वेप में ही अन्तर्गत हो जाते हैं। कहा भी है_ "दो स्थानों से पाप कर्मों का बन्ध होता है। वह इस प्रकार-राग से
और वेप से । राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । द्वेप भी दो प्रकार का है- क्रोध और मान" । (स्था० स्थान २ उ. २)
बन्ध चार प्रकार का है-(१) प्रकृति-वन्ध, (२) स्थिति बन्ध, (३) अनुभाव-बन्ध; और (४) प्रदेश-बन्ध । कहा भी है
"बन्ध चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-(१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिवन्ध, (३) अनुभावबन्ध, (४) प्रदेशबन्ध" । (सम. स. ४)
આ પાંચ કારણોમાં કષાય પ્રધાન છે- મુખ્ય છે. ક્રોધ, માન, માયા અને લોભના ભેદથી તે ચાર પ્રકારના છે. કષાયના તે ચારે ય ભેદ રાગ–અને દ્વેષમાં સમાઈ જાય છે. કહ્યું છે કે –
બે સ્થાનેથી પાપકર્મોને બંધ થાય છે. તે આ પ્રમાણે છે–રાગથી અને શ્રેષથી. રાગ બે પ્રકાર છે-માયા અને લોભ. દેવ પણ બે પ્રકારને છે–ફોધ અને __ भान" (स्था. स्थान २-5. २).
मध या२ ४॥२॥ छ-(१) प्रकृतिमध, (२) स्थितिमध, (3) अनुमान (४) प्रदेशमध. ४छु ५५ छ
मध ४२ना छ. (१) प्रतिमा, (२) स्थितिमा, (3) मनुमा५५, (४) प्रदेशमध" (सभ० से. ४)
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३२६
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आचारामित्रे मिथ्यात्वम् १ । सावघयोगेषु प्रतिरविरति:२ । सदुपयोगाभावः प्रमादः, मोक्षमार्ग पति शैथिल्यं या प्रमादः३। कप्यते पुनःपुन्मर्जन्ममरणादिक्लेशोऽनुभूयते येन स कपायः, मोहनीयकर्मोदयजनित आत्मपरिणतिविशेषः, यद्वा-कम्यते यंत्र शारीरिकमानसिकदुखैः, स कपः-संसारः, तस्य आय:-प्राप्तिकारणं कषाय क्रोधादिः ४ । युज्यते-आत्माऽनेनेति योगा=मनोवाकायव्यापाररूपः ५। उक्तश्च
"पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा-मिच्छत्तं १, अविरई २, पमाया ३, कसाया ४, जोगा ५"1 (समवा० समवाय ५) आसवदारा' इति-आस्रवो वन्धकारणम् । श्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है ? । सावध योगों में प्रवृत्ति करना अविरत्ति है २ । सम्यक् उपयोग (यतना) का अभाव प्रमाद कहलाता है, या मोक्षमर्ग के विषय में शिथिलता होना प्रमाद है ३ । जिस के द्वारा आत्मा कपा जाय अर्थात् वारंवार जन्म-मरण का क्लेश भोगा जाय उसे कपाय कहते हैं। कपाय, मोहकर्म से उत्पन्न आत्मा की एक परिणति है । अथवा - जहाँ शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से जीव कपा नाय (युक्त हो) उसे कप अर्थात् संसार कहते हैं और उस कप (संसार) की आय-प्राप्ति जिस से हो वह कपाय कहलाता है ४ । जिस से आत्मा व्याप्त हो, ऐसा मन, वचन और काय का व्यापार योग कहलाता है ५ । कहा है
"पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्त, अविरई, पंमाया, कसाया, जोगा"। (समवायाङ्ग, समवाय ५) यहाँ 'आसवदारा' का अर्थ है-आश्रव के द्वार अर्थात् बन्धके कारण । શ્રદ્ધા તેને મિથ્યાત્વ કહે છે (૧). સાવધ રોગમાં પ્રવૃત્તિ કરવી તે અવિરતિ છે (૨). સમ્યક્ ઉપગને અભાવ તે પ્રમાદ કહેવાય છે, અથવા મોક્ષમાર્ગના વિષયમાં શિથિલતા થવી તે પ્રમાદ છે (૩). જેના દ્વારા આત્મા કપાય અર્થાત વારંવાર જન્મ મરણને કલેશ ભેગવવાય તેને કવાય કહે છે. કષાય, મેહ કર્મથી ઉત્પન્ન આત્માની એક પરિણતિ છે. અથવા–જ્યાં શારીરિક અને માનસિક દુઃખોથી જીવ કષાય અર્થાત પીડાય તેને કષ અર્થાત્ સંસાર કહે છે, અને તે સંસારની આય-પ્રાપ્તિ જેનાથી હોય તે કષાય કહેવાય છે (છે. જેનાથી આત્મા વ્યાપ્ત હોય એવા મન, વચન અને કાયાના વ્યાપાર તે રોગ કહેવાય છે. (૫), કહ્યું છે કે –
"पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाया जोगा." (समवायांश, सभवाय ५,) भाई "आसवदारा"'नो मय से छ:-मापना द्वार, मर्यात मंधना २४.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ कर्मवादिप्र०
३२९ __ ज्ञानावरणीयं कर्म, जीवस्य ज्ञानगुणमादृणोति१। दर्शनावरणीय कर्म दर्शनगुणम् । वेदनीयकर्म जीवस्याव्यावावगुणं संरुणद्धि३ । मोहनीयकर्म जीवस्याविरतिं तत्वानभिरुचिं च जनयति४। आयुष्यकर्म जीवस्यामरत्वं पतिदन्ति५ । नामकर्म जीवस्याऽमूर्तत्वं प्रतिवध्नाति६ । गोत्रकर्म तस्यागुरुलघुगुणं व्याहन्ति । अन्तरायकर्म जीवस्यानन्तवीर्यगुणं रुणद्धि८।.
यथा-गयादिभसितणादयो दुग्धरूपेण परिणता भवन्ति, माधुर्यस्वभावः सहैव जायते, स चैतावत्कालपर्यन्तस्थायीति स्थितिसमयमर्यादाऽपि जायते माधुर्ये तीवमन्दभावादिविशेपोऽपि भवति, तस्य दुग्धस्य पौगलिक'' - (१) ज्ञानावरणीय कर्म जीव के ज्ञानगुणको दौकता है, (२) दर्शनावरणीयकर्म दर्शनगुणको। (३) वेदनीयकर्म जीव के अव्यावाघगुण को रोकता है और (४) मोहनीयकर्म जीव में अविरति और तत्व के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है । (५) आयुकर्म जीव को अमरता को रोकता है और (६) नामकर्म जीव के अमूर्तत्व गुण को रोकता है। (७) गोत्रकर्म अगुरु-लघुत्व गुण को नष्ट करता है और (८) अन्तरायकर्म नीव के अनन्त वीर्य का घात करता है।
जैसे गायद्वारा खाये हुए तृण आदि दूध रूप में परिणत होते हैं, और उन में मधुरता का स्वभाव भी साथ ही उत्पन्न हो जाता है। उस में अमुक कालपयत ठहरने की स्थिति-मर्यादा भी उत्पन्न हो जाती है, और मधुरता में तीव्रता या मन्दता की विशेषता भी आजाती है। उस दूध का पौद्गलिक परिणाम भी साथ ही उत्पन्न होता है।
' (૧) જ્ઞાનાવરણીય કર્મ જીવના જ્ઞાન-ગુણને ઢાંકી દે છે; (૨) દર્શનાવરણીય કર્મ દર્શનગુણને ઢાંકે છે. (૩) વેદનીય કર્મ જીવના અવ્યાબાધ ગુણને, રોકી દે છે (૪) મોહનીય કર્મ જીવમાં અવિરતિ અને તવપ્રતિ અરૂચી ઉત્પન્ન કરી છે. (५) मायु भ नी भरतात छ. (6) नाम-3 04 मभूतत्व गुणने રેકે છે. (૭) ગેત્ર-કર્મ અગુરુલઘુત્વ ગુણને નાશ કરે છે અને (૮) અંતરાય કર્મ જીવન અનંતવીને ઘાત કરે છે.
જેવી રીતે ગાયે ખાધેલું ઘાસ આદિ દૂધ રૂપમાં પરિણત થાય છે અને તેમાં મધુરતાને સ્વભાવ પણ સાથે જ ઉન્ન થાય છે. તેમાં અમુકકાલપર્યન્ત સ્થિર રહેવાની સ્થિતિમર્યાદા પણ ઉપ્તન્ન થઈ જાય છે. અને મધુરતામાં તીવ્રતા અથવા . મંદતાની વિશેષતા પણ આવી જાય છે. તે દૂધનું પૌગલિક પરિણામ પણ સાથે જ
प्र. मा. ४२
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आचारास्त्रे
तत्र प्रकृतिः - स्वभावः । आत्मपरिगृहीतकर्मपुद्गलानां तच्छक्तिरूपेण परिणमनम् । यथा निम्वस्य तिक्तलम्, गुडस्य मधुरत्वम् । प्रकृतिर्द्विविधा - मूळप्रकृतिः, उत्तरप्रकृतिश्च । मूलरूपः कर्मणः स्वभावो मूलप्रकृतिः । मूलप्रकृतिरष्टधा - ज्ञानावरणीय १ - दर्शनावरणीय२ - वेदनीय३ - मोहनीया ४ - ऽऽयुप्य५ - नाम६ - गोत्रा७न्तराय८ - भेदात् । उक्तञ्च—
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" अ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-गाणावर णिज्जं १, दंसणावरणिज्जं२, वेणिनं ३ मोहणिज४, आउयं५, नामं६, गोयं७, अंतराइयंट " । (मज्ञापना० पद - २१ उ. १. २८८ )
प्रकृति अर्थात् स्वभाव | आत्मा के द्वारा अमुक प्रकार की शक्ति (स्वभाव) उत्पन्न हो जाना और गुड में मधुरता होती है ।
ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलो में अमुकप्रकृतिबन्ध है । जैसे-नीम में कटुकता
2
प्रकृति दो प्रकार की है-मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति । कर्म का मूल स्वभाव मूलप्रकृति कहलाती है । मूलप्रकृति के आठ भेद हैं- (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र, और ( ८ ) अन्तराय । कहा भी है:
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""
'आठ कर्मप्रकृतियां हैं, वे (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) (प्रज्ञा. पद २१ उ. १ सू. २८८ )
इस प्रकार - ( १ ) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्तराय । '
પ્રકૃતિ અર્થાત્ સ્વભાવ, આત્માદ્વારા ગ્રહણ કરેલા કર્મ પુદ્ગલોમાં અમુકઅમુક પ્રકારની શક્તિ (સ્વભાવ) નું ઉત્પન્ન થઈ જવું તે પ્રકૃતિખંધ છે. જેવી રીતે લીંબડામાં કડવાશ અને ગાળમાં મધુરતા હાય છે.
પ્રકૃતિ એ પ્રકારની છે (૧) મૂલપ્રકૃતિ અને (૨) ઉત્તરપ્રકૃતિ. કર્મના મૂલ સ્વભાવ તે મૂલપ્રકૃતિ કહેવાય છે. તે મૂલ પ્રકૃતિના આઠ ભેદ છે- (૧) જ્ઞાનાવરણીય, (२) दर्शनावरणीय, (3) वेहनीय, (४) भोहनीय, (4) आयु, (१) नाभ, (७) गोत्र मने (८) अंतराय ह्युं छे :
"
अमृतियो छे, ते या प्रभा-ज्ञानावरणीय, हर्शनावरणीय, वेहनीय, भोडनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अंतराय " ( अज्ञा. यह २१ ७. १ सू. २८८)
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ मु. ५ कर्मवादिन
यथा वा-वातहारिद्रव्यनिर्मितो मोदकः प्रकृत्या वातं हरति, पित्तोपरामकद्रव्यनिर्मितो मोदकः प्रकृत्या पित्तं नाशयति, कफापहारकद्रव्यनिर्मितः कर्फ हरति । इत्येवं मोदकस्य नानाविधा प्रकृतिः। तस्यैव मोदकस्य स्थितिस्तु कस्यचिदेकदिनव्यापिनी, अपरस्य दिनद्वयस्थायिनी, अन्यस्य कस्यचिन्मासादिकालं व्याप्प स्थितिर्भवति, ततः परं तत्तन्मोदकस्य विनाशात् । एवं मोदकस्यानुभावो मधुरकटुकपायादिरूपः । रसस्तीवमन्दमावेन कस्यचिन्मोदकस्यैकगुणः, कस्यचिद् द्विगुणः, कस्यचित् त्रिगुणो भवति । प्रदेशोऽपि मोदकस्य कस्यचिदेककर्पमितः, कस्यचिद् द्विकर्पपरिमितः, कस्यचित्रिकर्पपरिमितो भवति ।
अथवा जैसे-वातहारक द्रव्यों से बना मोदक स्वभाव से वात का नाश करता हैं, पित्तका नाश करने वाले द्रव्यों से बना मोदक पित्तका नाश करता है, कफहारी द्रव्यों से बना मोदक कफको दूर करता है, इस प्रकार मोदक की प्रकृति नाना प्रकार की है। कोई मोदक एकदिन तक ही ठहर सकता है, कोई दो दिन तक और कोई महीने भरतक ठहर सकता है, उसके पश्चात् मोदक में वह शक्ति नहीं रहती है । इसी प्रकार किसी मोदक का मधुर या कटुक रस तीन होता है किसी का मन्द होता है, किसी मोदक में एकगुण रस होता है, किसी में द्विगुण और किसी में तीन गुणा, किसी मोदक का प्रदेशसमूह एक कर्प परिमित होता है, किसीका दो कप परिमित होता है, और किसीका तीन कर्फ परिमित होता है।
અથવા-જેમ વાયુનાશક દ્રવ્યોથી બનેલા લાડુ સ્વભાવથી વાયુને નાશ કરે છે; પિત્તને શાન્ત કરવા વાળા દ્રવ્યોથી બનેલા લાડુ પિતને નાશ કરે છે. કફ નાશ કરનાર દથી બનેલા લાડુ કફને દૂર કરે છે, એ પ્રમાણે લાડુની પ્રકૃતિ જુદા-જુદા પ્રકારની છે. કેઈ લાડુ એક દિવસ સુધી રહી શકે છે, કે બે દિવસ અને કઈ મહિના સુધી રહી શકે છે. તે પછી લાડુમાં તે પ્રથમના જેવી શક્તિ રહેતી નથી. એ પ્રમાણે કઈ લાડુને મધુર અથવા કટુક રસ તીવ્ર હોય છે. કોઈને મંદ હોય છે, કેઈ લાડુમાં એક ગુણ રસ હોય છે, કઈમાં દિગણ અને કેઈમાં ત્રણ ગુણ રસ હોય છે. કેઈ લાડુના પ્રદેશસમૂહ એક કર્યું (બે તલા) પરિમિત હોય છે. કેઈના બે કઈ (ચાર તેલા) પરિમિત હોય છે, અને કેઈના ત્રણ કઈ (છ તેલા) પરિમતિ હોય છે.
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आचारागसत्रे परिणामश्चापि सहैव प्रादुर्भवति तथा जीवन परिगृहीतानां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानां कर्मरूपेण परिणमने चतुर्विधा अंशाः सहैव भवन्ति । त एवांशाः बन्धभेदाः प्रकृत्यादयः सन्ति ।
कणिकागुडघृतकटुकादिद्रव्याणामापधमोदकरूपेण परिणमने सहैवानेकाकारपरिणामो भवति । यथा मोदको हि फश्विद् वातपित्तहरणशीलः, कश्चिद् बुद्धिवर्धनः, कश्चित् संमोहकारी, कश्चिन्मारकः, इत्यनेकाकारेण परिणमते जीवसंयोगात् , तथा कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानामात्मसम्बन्धात्कर्मरूपेण परिणामे कश्चित्कर्मपुद्गलः ज्ञानमावृणोति, कश्चिद्दर्शनमारणोति अपरः सुखदुःखानुभवं जनयवी त्यादि योजनीयम् । इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मवर्गणा के योग्यपुद्गोका कर्मरूप परिणमन होने पर चार प्रकार के अंश उन में साथ ही उत्पन्न होते है । वही अंश चन्ध के प्रकृति आदि भेद कहलाते हैं। ___आटा, गुड, घी और कटुक आदि द्रव्यों से बने हुए लडडू में एक साथ अनेक प्रकार के परिणमन होते हैं। कोई ला-डू बात-पित्त का नाशक होता है, कोई बुद्धिवर्धक होता है, कोई सम्मोहजनक होता है, और कोई घातक होता है, इस प्रकार जीव के संयोग से लड्डू अनेक आकारों में परिणत होता है । इसी प्रकार कर्मवर्गणा-योग्य पुद्गलों का आत्मा के निमित्त से कर्मरूप परिणमन होने पर कोई कर्म, ज्ञान को आच्छादित करता है, कोई दर्शनको कोई कर्म, सुख-दुःख का अनुभव कराता है। इत्यादि सब घटा लेना चाहिए । ઉપ્તન થાય છે એ પ્રમાણે જીવ દ્વારા ગ્રહણ કરેલા કર્મવગણગ્ય પગલોનું કર્મરૂપ પરિણમન થવાની સાથે ચાર પ્રકારના અંશ તેમાં સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે તે અંશ, બંધના પ્રકૃતિ આદિ ભેદ કહેવાય છે.
લેટ, ગોળ, ઘી અને કટુક આદિ દ્રવ્યો નાંખીને બનાવેલા લાડુમાં એક સાથે અનેક પ્રકારનું પરિણમન થાય છે, કેઈ લાડુ વાત-પિત્તને નાશ કરનાર હોય છે. કેઈ મૃદ્ધિપૂર્વ હોય છે. કેઈ સહ ઉત્પન્ન કરનાર હોય છે. અને કેઈ ઘાતક હોય છે. એ પ્રમાણે જીવના સાગથી લાડુ અનેક આકારમાં પરિણત થાય છે. તે પ્રમાણે કર્મવર્ગણાગ્ય પુદ્ગલોનું આત્માના નિમિત્તથી કમરૂપ પરિણમન થાય ત્યારે કઈ કર્મ જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરે છે કે દર્શનને, કોઈ કર્મ સુખ-દુઃખનો અનુભવ કરાવે છે. એ પ્રમાણે સર્વ બાબતમાં ઘટાવી લેવું જોઈએ..
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. मू.५. कर्मवादिनः (२) दर्शनस्य (सामान्ययोधस्प) आवरकं कर्म दर्शनावरणीयम् । (३) मुखदुःखानुभवजनकं कर्म वेदनीयस् । (४) मदिरावन्मोहजनक कर्म मोहनीयम् । (५) भवधारणकारणं कम आयुकम् । (६) विशिष्टगतिजात्यादिमाप्तिकारणं कर्म नाम । (७) उत्कर्षापकर्षप्राप्तिकारणं कर्म गोत्रम् । (८) दानलाभादिविघातकं कर्म अन्तरायः । - मूलरूपः कर्मणः स्वभावोऽप्टविध इति मूलप्रकृतिरष्टविधा संक्षेपतः कथिता । अप्टानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमवान्तरभेद एवोत्तरप्रकृतिः। सा च
(२) दर्शन अर्थात् सामान्य बोधको आन्गदित करने वाला कर्म दर्शनावरण है।
(३) सुख-दुःखका वेदन कराने वाला कर्म वेदनीय कहलाता है। (४) मदिरा के समान मोह उत्पन्न करने वाला कर्म मोहनीय कहलाता है। (५) भवधारणा का कारण कर्म आयुष्क कहलाता है। (६) विशेष प्रकार की गति, जाति आदि की प्राप्ति का कारण नामकर्म है। (७) उत्कर्ष और अपकर्ष की प्राप्ति का कारण गोत्रकर्म कहलाता है। (८) दान लाभ आदि में विघ्न डालने वाला अन्तराय कर्म कहलाता है।
कर्म का मूल स्वभाव आठ प्रकार का ही है, अतः आठ प्रकृतियों का संक्षिप्त कथन किया गया है, इन आठ प्रकृतियों के अवान्तर भेदों को उत्तर-प्रकृति कहते हैं।
(૨) દર્શન અર્થાત્ સામાન્ય બેધને જે આચ્છાદિત કરવાવાળું કર્મ તે દર્શનાવરણ છે. (3) सुभ-दुःनु वेहन रावावा ते वहनीय उपाय . (૪) મદિરાના સમાન મોહ ઉન્ન કરાવવાવાળું કર્મ તે મેહનીય કહેવાય છે.
ભવ-ધારણ કરવાનું છે કારણ કર્મ તે આયુષ્ય કહેવાય છે. .. (૬) વિશેષ પ્રકારની ગતિ-જાતિ આદિની પ્રાપ્તિનું કારણ તે નામકર્મ કહેવાય છે. (૭) ઉત્કર્ષ અને અપકર્ષની પ્રાપ્તિનું કારણ તે ગોત્રકર્મ કહેવાય છે. (૮) દાન-લાભ આદિમાં વિઘ્ન નાખવાવાળું તે અન્તરાય કર્મ કહેવાય છે.
કમને મૂળ સ્વભાવ આઠ પ્રકાર છે. તેથી આઠ પ્રકૃતિનું સંક્ષિપ્તમાં કથન કર્યું છે. એ આઠ પ્રકૃતિઓના અવાંતર ભેદને ઉત્તરપ્રકૃતિ કહે છે. જીજ્ઞાસુ પુરૂને
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आचारागसूत्रे — एवं कर्मणोऽपि कस्यचिद् ज्ञानावरणस्वभावा प्रकृतिः, अपरस्य दर्शनावरणरूपा, कस्यचित् सम्यग्दर्शनादिविघातस्वभावा । । .. कर्मणः स्थितिश्च कस्यचित् त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीरूपा, अपरस्य कस्यचिद् कर्मणः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीरूपेत्यादि । रसस्तु कस्यचित् कर्मणस्तीवः, कस्यचित्तीवतरः, कस्यचित्तीव्रतमः, कस्यचिन्मन्दः, कस्यचिन्मन्दतर इत्यादि बोध्यम् ।
(१) प्रकृतिवन्धः
॥ अष्टविध-मूलपकृतिवन्ध-लक्षणम्(१) ज्ञानस्य (विशेषबोधस्य) आवरकं कर्म ज्ञानावरणीयम् ।
इसी प्रकार किसी कर्म की ज्ञानको आच्छादित करने की प्रकृति है, किसीका दर्शन को ढंकने की है, किसी की सुख-दुःख का अनुभव कराने की प्रकृति है, और किसी की सम्यग्दर्शन का घात करने की है। किसी कम को तीस कोडाकोडी सागरोपमकी स्थिति है, किसी की सत्तर (७०) कोडाकोडी सागरोपम की है।
इसी प्रकार किसी कर्म का रस तीब है, किसी का तीवतर है, किसी का तीनतम है । किसी का रस मन्द है, किसी का मन्दतर है । इत्यादि समझ लेना चाहिए।
(१) प्रकृतिवन्ध (१) ज्ञान अर्थात् विशेष धर्मों के बाघको आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरण कहलाता है।
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આ પ્રમાણે કઈ કર્મની જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરવાની પ્રકૃતિ છે, કોઈની દર્શનને ઢાંકી દેવાની છે, કેઈની સુખ-દુઃખને અનુભવ કરાવવાની પ્રકૃતિ છે, અને કોઈની સમ્યગ્દર્શનને ઘાત કરવાની પ્રકૃતિ છે. . भनी त्रीश || सा५मनी स्थिति छे. धना सात२ (७०) કેડાછેડી સાગરોપમની છે.
આ પ્રમાણે કે કમને રસ તીવ્ર છે. કેઈને તીવ્રલર છે. અને કોઈને તીવ્રતમ છે. કોઈને રસ મંદ છે, કોઈને મદંતર છે. ઈત્યાદિ સમજી લેવું જોઈએ.
(i) प्रतिभा , નાન અર્થાત વિશેષ ધર્મોના બાપને જે આચ્છાદિત કરવાવાળું કમ તે જ્ઞાના વરણીય કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १. १. सू. ५. कर्मवादिप्र०
(२) दर्शनस्य ( सामान्यबोधस्य) आवरकं कर्म दर्शनावरणीयम् । (३) सुखदुःखानुभवजनकं कर्म वेदनीयस् । (४) मदिरावन्मोहजनकं कर्म मोहनीयम् । भवधारणकारणं कर्म आयुष्कम् ।
(५)
(६) विशिष्टगतिज्ञात्यादिमाप्तिकारणं कर्म नाम | (७) उत्कर्षापकर्षप्राप्तिकारणं कर्म गोत्रम् | (८) दानलाभादिविघातकं कर्म अन्तरायः ।
मूलरूपः कर्मणः स्वभावोऽष्टविध इति मूलप्रकृतिरष्टविधा संक्षेपतः कथिता । अष्टानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमवान्तरभेद एवोत्तरप्रकृतिः । सा च
(२) दर्शन अर्थात् सामान्य बोधको आच्छादित करने वाला कर्म दर्शना
वरण है।
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(३) सुख - दुःखका वेदन कराने वाला कर्म वेदनीय कहलाता है ।
(४) मदिरा के समान मोह उत्पन्न करने वाला कर्म मोहनीय कहलाता है । (५) भवधारणा का कारण कर्म आयुष्क कहलाता है।
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(६) विशेष प्रकार की गति, जाति आदि की प्राप्ति का कारण नामकर्म है । (७) उत्कर्ष और अपकर्ष की प्राप्ति का कारण गोत्रकर्म कहलाता है ।
(८) दान लाभ आदि में विघ्न डालने वाला अन्तराय कर्म कहलाता है ।
कर्म का मूल स्वभाव आठ प्रकार का ही है, अतः आठ प्रकृतियों का संक्षिप्त कथन किया गया है, इन आठ प्रकृतियों के अवान्तर भेदों को उत्तर - प्रकृति कहते हैं ।
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(૨) દર્શન અર્થાત સામાન્ય એધને જે આવૈચ્છાદિત કરવાવાળું કમ તે દનાવરણ છે. (3) सुभ-डुःमनुं वेद्दन श्ववावाणु उर्भ ते वेहनीयम्भु उडेवाय छे.
(૪) મદિરાના સમાન મેાહ ઉપન્ન કરાવવાવાળુ કમ તે મેહનીય કહેવાય છે. (च) लव-धार खानु र उ ते मायुष्य उद्देवाय छे.
(૬) વિશેષ પ્રકારની ગતિ-જાતિ આદિની પ્રાપ્તિનું કારણ તે નામકમ કહેવાય છે, (૭) ઉત્કર્ષ અને અપકર્ષની પ્રાપ્તિનું કારણ તે ગૈત્રકમ કહેવાય છે, (૮) દાન-લાભ આદિમાં વિઘ્ન નાખવાવાળું તે અન્તરાય કમ કહેવાય છે.
કમના મૂળ સ્વભાવ આઠ પ્રકારને છે. તેથી આઠ પ્રકૃતિનુ સક્ષિપ્તમાં કથન છે, એ આઠ પ્રકૃતિએના અવાંતર ભેદાને ઉત્તરપ્રતિ કહે છે. જીજ્ઞાસ પારે
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आचारागसूत्रे ' एवं कर्मणोऽपि कस्यचिद् ज्ञानावरणस्वभावा प्रकृतिः, अपरस्य दर्शनावरणरूपा, कस्यचित् सम्यग्दर्शनादिविघातस्वभावा । .
कर्मणः स्थितिश्च कस्यचित् त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीरूपा, अपरस्य कस्यचित् कर्मणः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीरूपेत्यादि । 'रसस्तु कस्यचित् कर्मणस्तीव्रः, कस्यचित्तीव्रतरः, कस्यचित्तीव्रतमः, कस्यचिन्मन्दः, कस्यचिन्मन्दतर इत्यादि बोध्यम् ।
- (१) प्रकृतिवन्धः
॥ अष्टविध-मूलपकृतिवन्ध-लक्षणम्(१) ज्ञानस्य (विशेपबोधस्य) आवरकं कर्म ज्ञानावरणीयम् ।
इसी प्रकार किसी कर्म को ज्ञानको आच्छादित करने की प्रकृति है, किसीका दर्शन को ढंकने की है, किसी की सुख-दुःख का अनुभव कराने की प्रकृति है, और किसी की सम्यग्दर्शन का घात करने की है। किसी कर्म को तीस कोडाकोडी सागरोपमकी स्थिति है, किसी की सत्तर (७०) कोडाकोडी सागरोपम की है।
___ इसी प्रकार किसी कर्म का रस तोत्र है, किसी का तीव्रतर है, किसी का तीव्रतम है । किसी का रस मन्द है, किसी का मन्दतर है । इत्यादि समझ लेना चाहिए।
(१) प्रकृतिवन्ध (१) ज्ञान अर्थात् विशेष धर्मों के बाधको आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरण कहलाता है।
આ પ્રમાણે કેઈ કર્મની જ્ઞાનને આછાદિત કરવાની પ્રકૃતિ છે, કેઈની દૃર્શનને ઢાંકી દેવાની છે, કેઈની સુખ-દુઃખને અનુભવ કરાવવાની પ્રકૃતિ છે, અને કેઈની , સમ્યગ્દર્શનને ઘાત કરવાની પ્રકૃતિ છે. . आई, भनी त्रीशी सागरोपमनी स्थिति छ. ना सीत२ (७०) કોડાછેડી સાગરોપમની છે.
આ પ્રમાણે કઈ કમને રસ તીવ્ર છે. કેઈને તીવતર છે, અને કેંઈને તીવ્રતમ છે. કોઈને રસ મંદ છે, કેઈને મદંતર છે. ઈત્યાદિ સમજી લેવું જોઈએ.
(१) प्रतिम" (૧) જ્ઞાન અર્થાત્ વિશેષ ધર્મોના બોધને જે આચ્છાદિત કરવાવાળું કર્મ તે જ્ઞાના
વરણીય કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू.५ कर्मवादिम०
३३५ जघन्य स्थिविरप्टमुहूर्तप्रमाणा। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीया-ऽऽयुष्याऽन्तरायकर्मणां जघन्यस्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा।
ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय - वेदनीयाs - न्तरायकर्मणामुत्कृष्टस्थितिः त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः, मोहनीयकर्मणः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटयः स्थितिरुत्कृष्टा । नाम-गोत्र-कर्मणोविंशतिसागरोपमकोटीकोटयः स्थितिरुत्कृष्टा । आयुप्यकर्मणत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा स्थितिरुत्कृप्टा। मध्यमा स्थितिस्त्वसंख्यातप्रकारा, कपायपरिणामतारतम्येन तस्या असंख्यातमेदात् ।
आठ मुहूर्त की है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयु और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त की है।
चानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडा-कोडी सागरोपम की मोहनीय कर्म की सत्तर कोडा--कोडी सागरोपम की, नाम और गोत्र कर्म की वीस कोडा-कोडी सागरोपम की है। आयुण्य कर्म की तेतीस सागरोपम की है । मध्यम स्थिति असंख्यात प्रकार को है, कपायरूप परिणामों की हीनता और अधिकता के कारण उसके असंख्य प्रकार होते हैं।
स्थितिबन्धका कोष्टक टीका के अनुसार पृष्ट ३३६ से समझ लेना चाहिए ।
આઠ મૂહુર્તની છે. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, મેહનીય, આયુ અને અન્તરાય કર્મની જઘન્ય સ્થિતિ અન્તમુહૂર્તની છે.
જ્ઞાનાવરણીય, દશનાવરણીય, વેદનીય, અને અન્તરાય કમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રિીશ કેડા-છેડી સાગરોપમની, મેહનીય કર્મની સીતેર (૭૦) કેડા-કેડી સાગરોપમની, નામ અને નેત્ર કમની વિશ કેડા–કેડી સાગરેપમની, આયુષ્ય કમની તેત્રીસ સાગરોપમની છે. મધ્યમ સ્થિતિ અસંખ્યાત પ્રકારની છે. કયાયરૂપ પરિણામોની હીનતા અને અધિકતાના કારણે તેના અસંખ્ય પ્રકાર થાય છે.
સ્થિતિબંધનું કેઇક ટીકાના અનુસાર પૃથ ૩૩૬થી સમજી લેવું જોઈએ.
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३३४
आवाराणसूत्रे विस्वरतो जिज्ञासूनां बोधाय शास्त्रे निर्दिष्टा। ज्ञानावरणीयादिमूलप्रकृतीनामष्टानामवान्तरभेदा यथाक्रमम्-(१) पश्च, (२) नव, (३) द्वौ, (४) अष्टाविंशतिः, (५) चत्वारः, (६) द्विचत्वारिंशत् , (७) द्वी, (८) पञ्च सन्ति । एतत्सर्वमागमतोऽव वगन्तव्यम्।
(२) स्थितिपन्धःआत्मसंलग्नानां फर्मपुद्गलानां यया जघन्यमध्यमोत्कृप्टकालमर्यादयाऽऽत्मप्रदेशेष्ववस्थानं सा कालमर्यादा स्थितिवन्धः। किञ्च अध्यसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य स्थितिकालनियमनं स्थितिवन्धः। ..
वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिद्वादशमुहूर्तप्रमाणा। नाम-गोत्रकर्मणोविस्तार से जिज्ञासु परुपों की जानकारी के लिए शास्त्र में वर्णन किया गया है । ज्ञानावरणीय आदि मूल प्रकृतियों के अवान्तर भेदो की संख्या कम से पांच, नौ, दो, अठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच है । इन सबको आगम से समझ लेना चाहिए ।
(२) स्थितिबन्ध आत्मा के साथ लगे हुए कर्मपुद्गल जिस जघन्य मध्यम या उत्कृष्ट कालमर्यादा से आत्मप्रदेशों में स्थिर हैं, उस कालमर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। अथवा यों कहिए किअध्यवसायविशेष द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मदलियों के आत्मा में ठहरने के काळसम्बन्धी नियमन को स्थितिबन्ध कहते है।
वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की, तथा नाम और गोत्रकर्म की જાણવા માટે શાસ્ત્રમાં વિસ્તારથી વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ મૂલ પ્રકૃતિના અવાન્તર ભેદની સંખ્યા કમથી-પાંચ, નૌ, બે, અઠાવીસ, ચાર, બેતાલીસ, છે, અને પાંચ છે, આ સર્વને આગમથી સમજી લેવું જોઈએ.
(२) स्थितिमा આત્માની સાથે લાગેલા કર્મયુગલ જે જઘન્ય, મધ્યમ, અને ઉત્કૃષ્ટ કાલ મર્યાદાથી આત્મપ્રદેશોમાં સ્થિતિ છે, તે કાલમર્યાદાને સ્થિતિબંધ કહે છે. અથવા એમ કહીએ કે--અધ્યવસાયવિશેષ દ્વારા ગ્રહણ કરેલા કર્મદલિડેને આત્મામાં ટકી શકવાના કાલસંબંધી નિયમનને સ્થિતિબંધ કહે છે.
વિદનીય કર્મની જઘન્ય સ્થિતિ બાર મુહુર્તની, તથા નામ અને ગાત્ર કમની
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ कर्मवादिम०
कर्मणां उत्कृष्टा जघन्या उत्कृष्टः
नाम स्थितिः स्थितिः अबाधा
कालः
(६) नाम
कर्मणः
गोत्रकर्मणः
अष्टौ २०००
२० विंशति सागरोपम- मूहूर्त्ताः द्विसहस्रकोटीकोटयः
वर्षाणि
15
पूर्वकोटि त्रि(८) भागाधिकाआयुष्य- नि ३३ त्रय
कर्मणः
स्त्रिशत्सागरोमाणि ।
प्र. आ.-४३
11
अन्त
मुहूर्त्तः
91
पूर्वकोटित्रिभागः
जघन्यः
"
93
उत्कृष्टः
अवाधा
बाधाकालः बाधाकालः
कालः | (कर्मनिषेकः) | (कर्मनिषेकः)
"
३३७
19
जघन्यः
२०००
द्विसहस्रवर्षेन अन्तर्मुहुर्त्तविंशतिसाग- न्यूनाः सप्त रोपमकोटी- मुहूर्त्ताः कोटयः
पूर्वकोटित्रिभागोन - त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि
25
अन्तर्मुहूर्तन्यूनोऽन्तमुहूतः
पूर्वकोटित्रिभागः - ३३ लक्षाणि ३३ सहस्राणि ३ शतानि, ३३ पूर्वाणि, २३ लक्षाण, ५२ सहस्रकोटिवर्षाणि । अन्तर्मुहूर्त्तस्यासंख्यभेदाः सन्ति, तेनान्वमुहूर्तरूपाया जघन्यस्थितेरन्तर्मुहूर्त्त एवाबाधाकालः, तथाऽन्तर्मुहूर्त्तन्यूनोऽन्तर्मु हूत्थ बाधाकाल इति विज्ञेयम् ।
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आषाराजस्त्र
स्थितिवन्ध-कोष्टकम् ।
कर्मणां
उत्कृष्टा
जघन्या उत्कृप्ट: जघन्यः
उस्कृष्ट
जघन्यः
नाम | स्थितिः । स्थितिः | अवांधा- | अवाधा- बाधाकालः | बाधाकाल:
| कालः | काल: (कर्मनिपेकः) (कर्मनिषक:)।
त्रिसहस्रवर्षोन- अन्तर्मुहर्तज्ञाना- त्रिंशत्साग- अन्तर्मुहूर्तः त्रिसहस्र- अन्तर्मुहत्तः त्रिंशत्साग-न्यूनोऽन्तवरणीय-रोपमकोटी- वाणि रोपमकोटी. Bहत्तः कर्मणः कोटयः
कोटयः
-
दर्शनाचरणीय
कर्मणः
द्वादश १२॥
वेदनीय. कर्मणः
अन्तर्मुहर्त्तन्यूना एकादश ____ मुहर्ताः
अन्तर्मुहतन्यूनोऽन्त
अन्तरायकर्मणः
"
अन्तर्मुहत्तः
७०
७०००
मोहनीय- सप्ततिसागकर्मणः रोपमकोटी
"कोटयः ।
सप्तसहस्त्रवर्षाणि
सप्तसहस्त्र वर्षोनसप्तति। सागरोपमकोटीकोटयः।
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ कर्मवादिप्र० ३३९
कर्मणः फलप्रदानशक्तिल्पोऽयमनुभावो यत्कर्मनिष्ठस्तत्कर्मस्वभावानुसार फलं प्रयच्छति, न त्वन्यकर्मस्वभावानुसारम् । यथा-ज्ञानावरणीयकर्मणोऽनुभावस्तत्कर्मस्वभावानुरूपं ज्ञानावरणमेव तीनं मन्दं वा फलं समुत्पादयति, न तु दर्शनावरणीय-वेदनीयादि-कर्मप्रकृत्यनुसारं दर्शनावरणं सुखदुःखानुभवादिरूपं फलम् । एवं दर्शनावरणीयकर्मणोऽनुभावस्तीवमन्दादिरूपेण दशनावरणमेव फलं ददाति, न तु ज्ञानावरणादिरूपमन्यकर्ममकृत्यनुसारम् ।
अनुभाववन्धस्य चायं कर्मप्रकृत्यनुरूपेणैव फलदाननियमोऽपि ज्ञाना
कर्म का फलदान-शक्तिरूप अनुभाव जिस फर्म में रहता है वह कर्मः अपने स्वभाव के अनुसार ही फल देता है-दूसरे कर्म के स्वमाव के अनुसार नहीं। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव ज्ञानावरणीय के स्वभाव के अनुसार ही होता है अर्थात् वह तीन या मन्द रूप में ज्ञान का आच्छादन ही करता है । उस से दर्शनावरणीय या वेदनीय कर्म की प्रकृति के अनुसार दर्शन का आवरण अथवा सुख-दुःख का वेदन नहीं होता । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का अनुभाव तीत्र या मन्द रूप में दर्शन का आवरण करना ही है, ज्ञान का आवरण करना या अन्य कर्मप्रकृति के अनुसार फल देना नहीं।
अनुभाववन्ध का अपनी कमप्रकृति के अनुसार फल देने का यह नियम ज्ञानावरणीय आदि आठ मूलप्रकृतियों में ही लागू होता है; उत्तरप्रकृतियों के लिए
કર્મના કલદાનશક્તિરૂપ અનુભાવ જે કર્મમાં રહે છે, તે કર્મ પિતાના સ્વભાવ પ્રમાણે જ ફલ આપે છે, બીજા કર્મના સ્વભાવ પ્રમાણે નહિ. જેવી રીતે કેજ્ઞાનાવરણીય કર્મના અનુભાવ જ્ઞાનાવરણયના સ્વભાવના પ્રમાણેજ હેય છે, અર્થાત-તે તીવ્ર અથવા મંદરૂપમાં જ્ઞાનનું જ અચ્છાદન કરે છે, તેનાથી દર્શનાવરણીય અથવા વેદનીય કમની પ્રકૃતિ અનુસાર દર્શનનું આવરણ અથવા સુખ-દુઃખનું વેદન થતું નથી. એ પ્રમાણે દર્શનાવરણીય કર્મને અનુભાવ તીવ્ર અથવા મદરૂપમાં દર્શનનું આવરણ કરવું તેજ છે, પરંતુ જ્ઞાનનું આવરણ કરવું અથવા અન્ય કર્મ પ્રકૃતિ અનુસાર ફળ આપવું તે નથી.
અનભાવ બંધને પિતાની કમપ્રકૃતિના અનુસાર ફળ.આપવાને આ નિયમ જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ મૂલપ્રકૃતિએામાંજ લાગુ થાય છે, પરંતુ ઉત્તર પ્રવૃતિઓ માટે
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आचारामित्रे (३) अनुमाववन्धः। कर्मपुद्गलानामेव शुभोऽशुभो वा घात्ययाती या यो रसो विपाक: सोऽनुभाववन्धः । कर्मणां विशिष्टो विविधो वा पाको विपाकः । कर्मबन्धस्य फलं विपाकस्तस्योदयोऽनुभाव इति योध्यम् । किञ्च-कर्मणां विविधफलदानशक्तिविपाकः सोऽनुभावः।
वन्धकारणस्य कपायपरिणामस्य तीवमन्दभावानुसारेण प्रत्येककमणि तीव्रमन्दफलदानशक्तिः प्रादुर्भवति । इदं च फलोत्पादनसामर्थ्यम्-अनुभवः, -तत्तत्फलानुभवनं चेति ।
(३) अनुभाववन्धकर्मपुद्गलों का शुभ या अशुभ अथवा घाती या अघाती रूप जो रस है वही अनुभाव कहलता है । गृहीत कर्मपुद्गलों में यह रस उत्पन्न हो जाना अनुभाव या अनुभाग बन्ध है । कर्मों का विशिष्ट या विविध प्रकार का पाफ विपाक कहलाता है ! तात्पर्य यह है कि कर्म का फल विपाक है, और उसका उदय अनुभाव कहा जाता है। अथवा फर्मों की भांति-भातिको फल देने की शक्ति को विपाक कहते हैं, और वही ' अनुमाव है, और तत्तत्फल का अनुभव भी अनुभाव है ।
बन्ध के कारण कपायरूप परिणाम की तीव्रता और मन्दता के अनुसार प्रत्येक फर्म में तीन या मन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, इस फल को उत्पन्न करने का सामर्थ्य अनुभाव है।
(3) मनुलामકર્મપુદગલાને શુભ અથવા અશુભ, અથવા–ઘાતી કે અદ્યાતીરૂપ જે રસ છે તે અનુભાવ કહેવાય છે ગૃહીત કર્મપુદગલમાં એ રસનું ઉત્પન થવું તે અનુભાવ, અથવા અનુભાગ બંધ છે. કર્મોને વિશિષ્ટ અથવા વિવિધ પ્રકારને પાક તે વિપાક કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-કમનું ફલ તે વિપાક છે, અને તેને ઉદય તે અનુભવ કહેવાય છે. અથવા કર્મોની તરેહ-તરેહની ફળ દેવાની શક્તિ :તેને વિપાક કહે છે અને તેજ અનુભાવ છે અને તે તે ફળને અનુભવ પણ અનુભાવ છે. આ
બંધના કારણ કષાયરૂપ પરિણામની તીવ્રતા અને મન્દતાના પ્રમાણે પ્રત્યેક કમમાં તીવ્ર અથવા મંદ ફલ દેવાની શક્તિ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે ફળ ઉત્પન્ન ' કરવાનું સામર્થ્ય તે અનુભાવ છે.
* "अणुमागे, अणुभावे, विवागे, रसे-ति एगहा" अनुभागोऽनुभावो, विपाको रसः, इत्येकार्थकाः । अनुमान, मनुलाप, विधा भने २४ मे मया ॥४ छ,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ८.५ कर्मवादिप्र० दर्शनमोहरूपेण, एवं यथा नारकायुष्यं तिर्यगायुप्यरूपेण न परिणमति तथा तदायुप्यमपि न पुनरन्यायुप्यरूपेण ।
एतत्सर्व प्रकृतिवन्धविपये परिवर्तनं यथा भवति तथाऽध्यवसायसामर्थ्यात् स्थितिरसयोरपि परिवर्तनं भवति । तीवादिमन्दादिभावेन परिणमति, मन्दादिरपि तीवादिभावेन परिणमति । एवमुत्कृप्टा स्थितिर्जघन्यरूपेण परिणमति, जघन्या चोत्कृष्टरूपेण ।
___ अनुभावानुसारं तीनं मन्दं वा यस्य कर्मणः फलमनुभूतं भवति चेत् तदा तत्कर्मप्रदेशा आत्मप्रदेशेभ्योऽपगता भवन्ति, न पुनस्ते कर्मपुद्गलाः संलग्ना भवन्ति । बदलता, और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय के रूप में नहीं पलटता। उसी प्रकार नरकायु कभी तिथंचायु के रूप में नहीं पलटती और तिथंचायु किसी अन्य आयुके रूप में नहीं बदलती।
यह सब परिवर्तन जैसे प्रकृतिवन्ध के विषय में होता है उसी प्रकार अध्यवसाय की शक्ति से स्थिति और रस में भी होता है। कभी तीन रस, मंद रस के रूप में बदल जाता है, और कभी मन्द रस, तीव्र रस के रूप में परिवर्तित हो जाता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति जघन्यरूप में और जघन्य स्थिति उत्कृष्टरूप में बदल जाती है।
___ अनुभाव के अनुसार जिस कर्म का तीत्र या मन्द फल भोग लिया जाता है, उस कर्म के प्रदेश आत्मप्रदेशों से हट जाते हैं-फिर वे आत्मा के साथ नहीं लगे रहते हैं। રૂપમાં બદલાતી નથી, અને ચારિત્રમોહનીય દર્શનમેહનીયના રૂપમાં બદલાતી નથી. એ પ્રમાણે નરકાયુ કેઈવખત પણ તિર્યંચ આયુના રૂપમાં પલટાતું નથી, અને તીય ચાય બીજા કોઈ આયુના રૂપમાં પલટાતું નથી.
આ તમામ પરિવર્તન જેવી રીતે પ્રકૃતિબંધના વિષયમાં થાય છે, તે પ્રમાણે અધ્યવસાયની શક્તિથી સ્થિતિ અને રસમાં પણ થાય છે–કયારેક તીવ્રરસ, મંદરસના રૂપમાં બદલાઈ જાય છે, અને કયારેક મંદરસ, તીવ્રરસના રૂપમાં પરિવર્તિત થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ જઘન્ય રૂપમાં અને જઘન્ય સ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટ રૂપમાં બદલાઈ જાય છે.
અનુભાવ પ્રમાણે કઈ કર્મનું તીવ્ર અથવા મંદ ફલ ભેગવી લેવાય તો તે કર્મના પ્રદેશ આત્મપ્રદેથી હટી જાય છે–પછી તે આત્માની સાથે લાગેલા રહેતા નથી.
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आचारामंत्रे वरणीयायप्टविधमूलप्रकृतिष्वेव प्रवर्तते, नतूत्तरमकतिपु । कस्यापि मूलप्रकृतिरूपकर्मवन्धस्य काचिदुत्तरमकतिस्तदीयेतरोत्तरमकतिरूपेण विपरिणता भवति, कर्मपुद्गलस्य ताशपरिणमनसामर्थ्यात् । तत्र प्राक्तनोत्तरमकतिगतानु भावः परिवर्तितोत्तरप्रकृतिस्वभावानुरूप ती मन्दं वा फलं प्रदत्ते ।
यथा-मतिज्ञानावरणीयं यदा श्रुतज्ञानावरणीयादिसजातीयोत्तर प्रकृतिरूपं प्राप्नोति तदा मतिज्ञानावरणीयानुभावोऽपि श्रुतज्ञानावरणीयादिस्वभावानुरूपमेव श्रुतज्ञानादीनामावरणं विधत्ते ।
उत्तरमकृतिषु कतिचित् सजातीया अपि प्रकृतयो नान्यरूपेण परिणता भवन्ति । यथा-दर्शनमोहचारित्रमोहरूपेण न परिणमति; तथा चारित्रमोहोऽपि न यह नियम नहीं है। किसी भी मूलप्रकृति की कोई उत्तरप्रकृति उसी मूलप्रकृति की किसी दूसरी उत्तरप्रकृति के रूप में भी परिणत हो सकती है, क्यों कि कर्मपुद्गल में इस प्रकार के परिणमन की शक्ति विद्यमान है। वहाँ पहले वाली उत्तरप्रकृति में रहा हुआ अनुभाव बदली हुई उत्तरप्रकृति के स्वभाव के अनुसार तीन या मन्द फल देता है।
जैसे-मतिज्ञानावरणीय जब श्रुतज्ञानावरणीयसजातीय उत्तरप्रकृति के रूप में पलटता है तब मतिज्ञानावरणीय का अनुभाव भी श्रुतज्ञानावरणीय के स्वभाव के अनुसार श्रतज्ञान का आवरण करता है।
उत्तरप्रकृतियों में कुछ ऐसी भी प्रकृतियां हैं जो सजातीय होते हुए भी अन्यरूप में पलटती नहीं हैं, जैसे--दर्शनमोहनीय, कभी चारित्रमोहनीय के रूप में नहीं આ નિયમ નથી. કોઈ પણ મૂલપ્રકૃતિની કેઈ ઉત્તરપ્રકૃતિ તે મૂલપ્રકૃતિની કઈ બીજી ઉત્તર પ્રકૃતિના રૂપમાં પણ પરિણત થઈ શકે છે, કારણકે કર્મ પુદ્ગલમાં એ પ્રમાણે પરિણમનની શક્તિ વિદ્યમાન છે. ત્યાં પ્રથમ વાળી ઉત્તરપ્રકૃતિમાં રહેલે અનુભાવ બદલી ગયેલી ઉત્તર પ્રકૃતિના સ્વભાવ અનુસાર તીવ્ર અથવા મંદ ફલ આપે છે.
જેમ–મતિજ્ઞાનાવરણીય જ્યારે શ્રુતજ્ઞાનાવરણયસજાતીય ઉત્તર પ્રકૃતિના પમાં પલટાય છે, ત્યારે મતિજ્ઞાનાવરણીય અનુભાવ પણ શ્રુતજ્ઞાનાવરણીયના સ્વભાવ પ્રમાણે શ્રુતજ્ઞાનનું આવરણ કરે છે.
ઉત્તરપ્રકતિઓમાં કેટલીક એવી પણ પ્રકૃતિએ છે કે જે સજાતીય હોવા છતાંય 3 અન્યરૂપમાં પલટતી નથી. જેવી રીતે-દર્શનમેહનીય કેઈ વખત ચારિશ્વમેહનીયના
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिम०
(१) ज्ञानावरणीयादिकर्मणां कारणीभूताः, (२) सर्वदिश्ववस्थिताः, (३) तीव्रमन्दादिभेदाद मनोवाकायक्रियाविशेषसंयोगात् कर्मवर्गणायोग्याः पुद्गलाः सर्वात्मप्रदेशेषु बद्धा भवन्ति । (१) औदारिक-वैक्रिया-हारकतंजस-भापा-श्वासोच्छास-मनोवर्गणाऽपेक्षयापि मूक्ष्मपरिणतिरूपा एव कर्मवर्गणायोग्याः बद्धाः भवन्ति, न तु बादराः । (५) तत्रापि त एव पुद्गला चद्धा भवन्ति, ये खलु यत्राकाशे जीवोऽवगानस्तत्रैच वर्तमानाः, न तु तदहि क्षेत्रवर्तिनः ।
(६) तथाविधा अपि पुद्गलाःस्थिता एव बद्धा भवन्ति, न तु गतिपरिणताः, मचलितस्वभावत्वेन बन्धानईत्वात् । (७) असंख्यातमदेशिनो जीवस्यैकैकः
(१) ज्ञानावरणीय आदि कर्मो के कारणमूत, (२) समस्त दिशाओं में स्थित, (३) तीन मन्द आदि के भेद से मन, वचन और काय की क्रियाविशेष के संयोग से 'कमवर्गणा के योग्य पुद्गल समस्त आत्मप्रदेशों में बद्ध हो जाते हैं। (४) औदारिक
वैक्रिय, आहारक, तेजस, भापा, श्वासोच्छवास, और मनोवर्गणा की अपेक्षा भी सूक्ष्म परिणतिरूप कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गल ही बंधते हैं, बादर नहीं बंधते । (६) उन में मी वही पुद्गल बंधते हैं जो एकक्षेत्रावगाढ हों, अर्थात् जिन आकाशप्रदेशों में जीव है उन्हीं आकाशप्रदेशो में विद्यमान हो, बाहर के क्षेत्र में अगवाहन करने वाले नहीं बँधते । (६) एसे पुद्गल भी स्थित ही बंधते हैं चलते-फिरते हुए पुद्गल नहीं बंधते, चलित स्वभाव वाले होने के कारण वे बन्ध के योग्य नहीं हैं, (७) असंख्यातप्रदेशी जीव का
(१) ज्ञानापरीय माहिना ४ारभूत, (२) समस्त शियामा स्थित, (3) તીવ્ર, મંદ આદિના ભેદથી મન, વચન અને કાયાની ક્રિયા-વિશેષના સંગથી કર્મવગણાના ચગ્ય પુદ્ગલ સમસ્ત આત્મપ્રદેશમાં બદ્ધ થઈ જાય છે, (૪) દારિક, વૈક્રિય, આહારક તેજસ, ભાષા, ધાસ, અને મને વર્ગણાની અપેક્ષાએ પણ સૂક્ષ્મપરિણતિરૂપ કમર વગણના ચગ્ય પગલજ બાંધે છે; બાદર બાંધતા નથી, (૫) એમાં પણ તે યુગલ બાંધે છે કે જે એક ક્ષેત્રાવગાઢ હય, અર્થાત-જે આકાશપ્રદેશમાં જીવ છે તેજ આકાશપ્રદેશમાં વિદ્યમાન છે. બહારના ક્ષેત્રમાં અવગાહન કરવાવાળા બંધાતા નથી. (૬) એવા પગલા પણ જે સ્થિર હોય તે બંધાય છે, પણ ચાલતા ફરતાં પુદગલે બંધાતા નથી, કારણ કે ચલિત સ્વભાવવાળા હેવાના કારણે તે બંધને યોગ્ય નથી. (૭) અસંખ્યાત પ્રદેશી જીવને
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... - " . . . . . . . आचारास्त्रे इदमत्र तत्वम्-कर्मणां फलं विविधं भवति । फमैच मूलप्रकृतिः। सर्वासांमूलप्रकृतीनां फलविविधत्वं तथाऽन्यथा चेति प्रकारद्वयेन भवति ।
येनाध्यवसायमकारेण याहस्वभावं कर्म बद्ध, तत् तथा तेनैव प्रकारेण अन्यथा च प्रकारान्तरेणापि विपच्यते-तस्य विपाको भवति । स च तीव्रमन्दाघवस्थाभेदेन शुभस्तथाऽशुभोऽपि । तत्र कदाचिच्छुभमप्यशुभरसतयाऽनुः भूतये कर्म, अशुभं च शुभरसतयेति बोध्यम् । . ___ सकपायजीवेन मनोवागादिद्वारेण क्रियाविशेषस्य कर्ता मिन्नमिन्नस्वभावानां कर्मपुद्गलानां स्वभावानुसारं तत्तत्परिमाणविभागेन सम्बन्धः प्रदेशबन्धः ।
तात्पर्य यह है कि कर्मों का फल विविध प्रकार का होता है । कर्म ही मूल प्रकृति है । समस्त मूलप्रकृतियों का फल उसी रूप में या अन्यथा रूप में दो प्रकार से होता है।
जिस प्रकार के अध्यवसाय से जिस स्वभाव वाला .कर्म बँधा है वह उसी रूप में या अन्यथा रूप में फल देता है। वह फल तीन या मन्द अवस्था-भेद से शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है । कभी शुभ भी अशुभ रस के रूप में और कभी अशुभ शुभ रस के रूप में भोगा. जाता है,
(४) प्रदेशवन्धमन वचन आदि के द्वारा क्रियाविशेप करने वाले कपाययुक्त जीव के साथ भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मपुद्गलों का स्वभाव के अनुसार अमुक-अमुक परिमाण विभाग के साथ सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है।
તાત્પર્ય એ છે કે – કર્મોનાં કુલ વિવિધ પ્રકારના હોય છે. કર્મજ મૂલપ્રકૃતિ છે. તમામ મૂળ પ્રકૃતિએનું ફલ તે રૂપમાં અથવા બીજા રૂપમાં, એમ બે પ્રકારથી હોય છે. - જે પ્રકારના અધ્યવસાયથી જે સ્વભાવવાળાં કર્મ બાંધ્યાં છે તે એજ રૂપમાં અથવા બીજા રૂપમાં ફલ આપે છે. તે કુલ તીવ્ર અથવા મંદ અવસ્થા–ભેદથી શુભ પણ હોય છે, અને અશુભ પણ હોય છે, કેઈ વખત શુભ પણ અશુભ રસના રૂપમાં અને કઈ વખત અશુભ તે શુભ રસના રૂપમાં ભેળવવામાં આવે છે.
(४) प्रश५८" મન, વચન આદિ દ્વારા ક્રિયાવિશેષ કરવા વાળા કષાયયુક્ત જીવની સાથે ભિન્નભિન્ન સ્વભાવ વાળા કર્મપુદગલેના સ્વભાવ અનુસાર અમુક અમુક પરિમાણુવિભાગની સાથે સમ્બન્ધ થ.તે પ્રદેશબંધ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ मू.५. फर्मवादिम०
३४५ वा स्वभावः ? अथवा (३) स्वभावः कोऽपि वस्तुधर्मः १। इति विकल्पत्रयगतदोषाणां कयनं पूर्व कृतमासीदतो विरम्यते, तस्मात् पुण्यपापे कर्मणी पौद्गलिके विद्यते, इत्यवश्यं स्वीकरणीयम् ।
पुण्यपापसद्भावे युक्तीस्तावत् मदर्शयामः
पुण्यपापे द्वे अपि भिन्ने स्वतन्त्र स्तः, तत्कार्यभूतयोः सुखदुःखयोयोगपयेनानुभवाभावात, अतोऽनेनैव मित्रकायदर्शनेन तत्कारणभूतयोः पुण्यपापयोभिन्नताऽनुमीयते। जीयकर्मणोः परिणामरूपे पुण्यपापे फारणतः कार्यतवानुमीयते ।
दानादिक्रियाणां हिंसादिक्रियाणां च कारणरूपत्वात् तत्कार्यरूपपुण्यवस्तु का धर्म है ?, इन तीनों विकल्पों में आने वाले दोपों का कथन पहले किया जा चुका है, अत एव यहाँ पुनरुकि नहीं की जाती । अत एव पुण्य और पाप को पौगलिक कर्म ही स्वीकार करना चाहिए।
पुण्य और पाप के सद्भाव में युक्तियाँ दिखलाते है
पुण्य और पाप दोनों भिन्न और स्वतन्त्र हैं, क्यों कि उनका फल सुख और दुःख एक साथ नहीं भोगा जाता ! कार्य की यह भिन्नता देखने से उनके कारणभूत पुण्य और पाप की भिन्नता का अनुमान होता है । जीव और कर्म के परिणामरूप पुण्य और पाप का अनुमान कारण से और कार्य से होता है ।
दानादि क्रियाए और हिंसा आदि क्रियाएँ कारण हैं, अत एव उनका कार्य
વસ્તુને ધર્મ છે. આ ત્રણેય વિકપમાં આવવાવાળા દોનું કથન પ્રથમ કહી ચૂક્યા છીએ, એટલા કારણથી અહિં પુનરૂક્તિ કરતા નથી. એ માટે પુણ્ય અને પાપને પીગલિક કર્મ સ્વીકાર કરવો જોઈએ.
પુણ્ય અને પાપના સદ્દભાવમાં યુકિતઓ બતાવે છે -
પુણ્ય અને પાપ બન્ને જૂદા અને સ્વતંત્ર છે, કારણ કે તેનું ફળ સુખ અને દુઃખ એક સાથે ભેળવવામાં આવતું નથી. કાર્યની આ ભિન્નતા જેવાથી તેના કારણભૂત પુય અને પાપની ભિન્નતાનું અનુમાન થાય છે. જીવ અને કર્મના પરિણામરૂપ પુણ્ય અને પાપનું અનુમાન કારણથી અને કાર્યથી થાય છે.
દાન આદિ ક્રિયાઓ અને હિંસા આદિ ક્રિયાઓ કારણ છે, તે માટે તેનું કાર્ય म. आ.-४४
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आचारागसूत्रे प्रदेशोऽनन्तनावरणीयकर्मस्कन्धर्वद्धः। एवमनन्तैर्दर्शनावरणीयादिकमस्कन्धेबद्धः । (८) तत्र ते स्कन्धा अपि प्रत्येकमनन्तानन्तप्रदेशिनः सन्ति । इति प्रदेशवन्धेऽष्ट हेतवः।
पुण्यपापकर्मनिरूपणम्ज्ञानावरणीयायष्टविध पौद्गलिकं कर्म प्रत्येकं द्विविधम्-पुण्यपापभेदात् । शुभंकर्म-पुण्यम् । अशुभं कर्म-पापम् । ननु विनापि पुण्यपापाभ्यां स्वभावत एवं जगद्वैचित्र्यं जायते किं पुनस्तत्कल्पनया ? उच्यते-शृणु-स्वभावादेव हि त्रयो विकल्पाः समुत्पद्यन्ते यया-(१) स्वभावः कि वस्तुरूपः १ (२) कारणाभावो एक-एक प्रदेश अनन्त ज्ञानावरणीय आदि कर्मस्कन्धों के साथ बंधता है, उसी प्रकार अनन्तदर्शनावरणीय भादि फर्मस्कन्धों के साथ भी बंधता है। (८) कर्म के वे स्कन्ध भी अनन्तानन्तप्रदेशी होते हैं। प्रदेशबन्ध में ये आठ हेतु हैं।
पुण्यकर्म और पापकर्मज्ञानवरणीय आदि प्रत्येक पौद्गलिक कर्म दो-दो प्रकार का है, पुण्यरूप और पापरूप । शुभ कम पुण्य और अशुभ पाप कहलाता है।
शङ्का-पुण्य और पाप के बिना ही स्वभाव से जगत् की विचित्रता हो सकती है, फिर पुण्य पाप की कल्पना करने से क्या लाभ है ।
समाधान-स्वभाववाद में तीन विकल्प हो सकते हैं, जैसे स्वभाव कोई वस्तु है , या कारण का अभाव ही स्वभाव कहलाता है ?, अथवा स्वभाव किसी એક એક પ્રદેશ અનન્ત જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મસ્કંધેની સાથે પણ બંધાય છે. એ પ્રમાણે દર્શનાવરણય આદિ કર્મધેની સાથે પણ બંધાય છે. (૮) કમના તે સ્કંધ પણ અનન્તાનન્તપ્રદેશી હેય છે. પ્રદેશ બંધમાં આ આઠ હેતુ છે.
પુણ્યકર્મ અને પાપકર્મ—જ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રત્યેક પૌગલિક કર્મ બે-બે પ્રકારના છે-(૧) પુયરૂપ અને (૨) પાપ શુભ કર્મ-પુણ્ય અને અશુભ કર્મ પાપ કહેવાય છે.
શકા-જુય અને પાપ વિનાજ, સ્વભાવથી જગતની વિચિત્રતા હોઈ શકે છે, તે પછી પુણય પાપની કલ્પના કરવાથી શું લાભ છે?
સમાધાન સ્વભાવવાદમાં ત્રણ વિકપ (તર્ક-વિતર્ક) થઈ શકે છે, જેમકે સ્વભાવ જ કઈ વસ્તુ છે? અથવા કારણને અભાવ જ સ્વભાવ કહેવાય છે? અથવા સ્વભાવ કેંઈ
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आचारचिन्तामणि-टोका अध्य.१ उ.१ ५.५ कर्मवादिप० तत्कारणत्वासिद्धेः। तद्वैचित्र्यस्य चादृष्टकर्मारच्यहेतुं विनाऽभावात् । शुभशरीरादीनां पुण्यकार्यत्वात् , अशुभशरीरादीनां पापकार्यत्वाच पुण्यपापभेदेन तस्य कर्मणो द्वैविध्य सिद्धम् । ___पुण्यं पापं चेति द्वे कर्मणी भिन्ने स्वतन्त्ररूपे स्तः, इत्यत्रागमोऽपि प्रमाणम् । उक्तश्च स्थानाङ्गसूत्रे-" एगे पुण्णे। एगे पावे" इति । एवमेव समवायाङ्गेऽपि।
सर्वघातिप्रकृतयः-- __(१) केवलज्ञानावरणीयम् । (२) केवलदर्शनावरणीयम् । (३) निद्रा, (४) निदानिद्रा, (५) प्रचला, (६) प्रथलामचला, (७) स्त्यानद्धिः, (८-११) अनन्तानुवन्धिकपायचतुष्टयम् , (१२-१५) अमत्याख्यानकपायचतुष्टयम् , यह विचित्रता अदृष्ट कारण-कर्म के विना नहीं हो सकती, शुभ शरीर आदि पुण्य का कार्य है और अशुभ शरीर आदि पाप का कार्य है । अतः पुण्य और पाप के भेद से कमें दो प्रकार का सिद्ध होता है।
पुण्यकर्म और पापकर्म दोनों स्वतन्त्र-भिन्न हैं, इस विषय में आगम भी प्रमाण है । स्थानाङ्ग सूत्र में कहा है-'पुण्य एक है पाप एक है। इसी प्रकार समवायाङ्गसूत्र में भी कहा है।
सर्वघाती प्रकृतिया(१) केवलज्ञानावरणीय, (२) केवलदर्शनावरणीय, (३) निद्रा, (४) निद्रानिद्रा, (५) प्रचला, (६) प्रचलाप्रचला, (७) त्यानद्धि, (८-११) अनन्तानुवन्धी-क्रोध, मान, माया, लोभ, (१२-१५) अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया, लोभ, (१६-१९) प्रत्याख्यानाઆ વિચિત્રતા અદઈ કારણુ-કર્મના વિના હેઈ શકે નહિ. શુભ શરીર આદિ પયન કાર્ય છે. અને અશુભ શરીર આદિ પાપનું કાર્ય છે. તે કારણથી પુણ્ય અને પાપના ભેદથી કર્મ બે પ્રકારનાં સિદ્ધ થાય છે.
પુણ્યકર્મ અને પાપકર્મ અને સ્વતંત્ર-ભિન્ન છે. આ વિષયમાં આગમ પણ प्रमाणु छ, स्थानां। सूत्रमा धुं छ-" पुष्य मे छ, पा५ औ छ." सर प्रभारी समवायाङ्ग-सूत्रमा ५९ :युं छे.
सर्वधाती प्रतिमा(Banाना२४ीय, (२) ना१२९१य, (3) निद्रा, (४) निद्रनिद्रा (५) प्रत्यक्षा (6) प्रन्यसायला, (७) सत्यानाद, (८-११) मनन्तानुधा-थ, मान, भायात,(१२-१५)मप्रज्यानावर-ध, भान,माया, ,(१६-१८)प्रत्याभ्याना१२६५
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आधारात्मत्रे
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पापात्मको जीवकर्मपरिणामोऽस्ति । यथा कृप्यादिक्रियाणां शालि-यव-गोधूमादिकं नियमेन फलं भवति । इदमनुमानं कारणतो भवति ।
एवं कार्यतोऽपि कारणस्यानुमानं भवति । यथा - अस्ति शरीरादीनां कारणं, तेषां कार्यरूपत्वात् । यथा-घटस्य मृद्दण्डचक्रादिसामग्रीसहितः कुम्भकारः कारणम् ।
न च दृष्ट एव मातापितादिकः शरीरादीनां कारणमस्तु इति वाच्यम्, दृष्टकारणस्य समानत्वेऽपि सुरुपकुरूपादिभावेन शरीरादीनां वैचित्र्यदर्शनात्तस्य
भी rate होना चाहिए, और वही कार्य जीव और कर्म का परिणामरूप पुण्य और पाप है । जैसे कृषि आदि क्रियाओं का शालि, जौ, गेहुँ आदि फल नियम से होता है । यह कारण से अनुमान है ।
इसी प्रकार कार्य से भी कारण का अनुमान होता है, जैसे शरीर आदि का कारण अवश्य है, क्योंकि यह कार्य है, जैसे घटका कारण मिट्टी; दण्ड, चक्र आदि सामग्री से युक्त कुंभार होता है ।
शङ्का - शरीर आदि का कारण प्रत्यक्ष से प्रतीत होने वाले माता-पिता आदि ही मानना चाहिए ।
समाधान- दिखाई देने वाले कारण की समानता होने पर भी शरीर में सुरूपता कुरूपता आदि की विचित्रता देखी जाती है, अतः उन्हें कारण नहीं माना जा सकता,
પશુ અવશ્ય હાવું જોઈએ, અને તે કાર્ય જીવ અને કર્માંના પરિણામરૂપ પુણ્ય અને પાપ છે જેવી રીતે ખેતી આદિ ક્રિયાઓમાં શાલિડાંગર, જવ, ઘઉં આદિ ક્વ નિયમથી થાય છે. આ કારણથી અનુમાન છે.
આ પ્રમાણે કાય થી પણ કારણનું અનુમાન થાય છે. જેમ શરીર આદિનું કારણ ४३२ छे; अ ते अर्थ छे, नेवी रीते घटनुं अरणु भाटी, डंडे, यह-शाम्णी, આદિ સામગ્રીથી યુક્ત કુંભાર હાય છે.
*
શાશરીર આદિનું કારણ પ્રત્યક્ષથી જણાતા માતા-પિતા આદિ માનવા જોઈએ. સમાધાનઃ-દેખાવાવાળા કારણની સમાનતા હેાવા છતાંય પણ શરીરમાં સુરૂપતા કુરૂપતા આદિની વિચિત્રતા જોવામાં આવે છે, તેથી તેમને કારણ માની શકાશે નહિં.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ कर्मवादिपं० ३४९ तयोराहतेति लोकव्यवहारवत् जीवस्य सर्वज्ञानाचरणं केवलज्ञानावरणीयमकृत्या क्रियते, इति व्यपदिश्यते।
मतिज्ञानादिविषयान् अर्थान् न जानाति जीवस्तत्र मतिज्ञानावरणीयादिप्रकृत्युदय एव मतिज्ञानादिकमारणोति, न तु केवलज्ञानावरणीयोदयस्तत्र कारणं भवतीति योध्यम् । एवं केवलदर्शनस्यानन्तभागोऽप्यनात एव, तत्रापि मेघदृष्टान्तानुसारेणावरणव्यवहारमादाय केवलदर्शनावरणीयस्य सर्वघातित्वमुपपद्यते । तत्रापि चक्षुर्दर्शनावरणीयादिमकृत्युदयादेव जीवश्चक्षुर्दर्शनादिविपयानर्थान् ज्ञातुं न शक्नोति, न तु केवलदर्शनावरणीयोदयस्तत्र कारणमिति बोध्यम् ।
गई । इसी प्रकार केवलज्ञानावरण प्रकृति जीव के समस्त ज्ञानका आवरण करती है। ऐसा कहा जाता है।
___ जीव मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थों को नहीं जानता, इस में मतिज्ञानावरणीय प्रकृति का उदय ही कारण है, वही मतिज्ञान को रोकता है । इस में केवलज्ञानावरणीय का उदय कारण नहीं है। इसी प्रकार केवलदर्शन का अनन्तवा भाग उधाडा रहता है। वहाँ भी मेघ के दृष्टान्त के अनुसार आवरण का व्यवहार समझ कर केवलदर्शनावरणीय को सर्वघाती प्रकृति समझना चाहिए। यहां भी चक्षुर्दर्शन आदि के विषयभूत पदार्थों को जीव चक्षुर्दर्शनावरणीय आदि के उदय से ही नहीं जानता। वहा केवलदर्शनावरणीय कारण नहीं समझना चाहिए।
તમામ કાંતિ-પ્રકાશ ઢંકાઈ ગઈ. એ પ્રમાણે કેવલજ્ઞાનવરણ પ્રકૃતિ જીવના સમસ્ત જ્ઞાનનું આવરણ કરે છે, એમ કહેવાય છે.
જીવ મતિજ્ઞાનના વિષયભૂત પદાર્થોને જાણતા નથી, તેમાં મતિજ્ઞાનાવરણીય પ્રકૃતિ-કમને ઉદયજ કારણરૂપ છે. તે જ મતિજ્ઞાનને રોકે છે એમાં કેવલજ્ઞાનાવરણીય ઉદય કારણ રૂપ નથી. એ પ્રમાણે કેવલદર્શનને અનન્ત ભાગ ઉઘાડે રહે છે. ત્યાં પણ મેઘના છાત પ્રમાણે આવરણને વ્યવહાર સમજી લઈને કેવલદર્શનાવરણીયને સઘાતી પ્રકૃતિ સમજવું જોઈએ, અહીં પણ ચક્ષુર્દશન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોને જીવ ચક્ષુદર્શનાવરણીય આદિના ઉદયથી જાણતા નથી, ત્યાં કેવલદર્શનાવરણીય કારણ નહિ સમજવું જોઈએ.
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आधारास्त्रे (१६-१९) प्रत्याख्यानकपायचतुष्टयम् , (२०) मिथ्यात्वं च, एता विंशतिः प्रकृतयः सर्वघातिन्यः।
समस्तावरणक्षयादाविर्भूतं सकलद्रव्यपर्यायग्राहि केवलज्ञानं, तदाच्छादनकृत् केवलज्ञानावरणीयम् । इदं हि केवलज्ञानोपघातेन सर्वमेव द्रव्यपर्यायज्ञानं प्रतिहन्ति, तस्मात् सर्वघातीत्यच्यते ।
ननु-सर्वजीवानां केवलज्ञानस्यानन्तभागोऽनारत एवावतिष्ठते, तस्याप्यावरणे तु जीवस्याजीवत्वमापधेत तर्हि कथं केवलज्ञानावरणीयस्य सर्वघातित्वसंभवः ? इति चेत् , उच्यते
यथा घनीभूतघनपटलेन सूर्यचन्द्रमसोर्वहुतरसभासमावरणे सर्वाऽपि प्रभा वरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, (२०) मिथ्यात्व । ये वीस प्रकृतिया सर्वघाती हैं।
केवलज्ञान समस्त आवरणों के क्षय से प्रकट होने वाला तथा समस्त द्रव्यों और पर्यायों को ग्रहण करने वाला है । इसे आच्छादित करने वाला कर्म केवलज्ञानावरणीय कहलाता है । यह कर्म केवलज्ञान का घात करके समस्त द्रव्य पर्यायों के ज्ञान का घात करता है, अत एव यह सर्वघाती कहलाता है।
शङ्का-सब जीवों के केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग प्रकट रहता है, अगर उतना भी प्रकट न रहे तो जीव अजीव हो :जायगा। ऐसी स्थिति में केवलज्ञानावरणीय सर्वघाती कैसे हो सकता है ?
__समाधान-जैसे अत्यन्त सघन मेघपटल के द्वारा सूर्य या चन्द्रमा की बहुत सी प्रभा छिप जाने के कारण लोक में कहा जाता है कि सूर्य-चन्द्र की सारी प्रभा छिप -हौध, मान, भाया, बम, (२०) मिथ्यात्व. मा वीस प्रतिमा सपंधाती छे.
કેવલજ્ઞાન સમસ્ત આવરણનાં ક્ષયથી પ્રગટ થવાવાળું, તથા સમસ્ત દ્રવ્યો અને પર્યાને ગ્રહણ કરવા વાળું છે, તેને આચ્છાદિત કરવાવાળું કર્મ કેવલજ્ઞાનાવરણીય કહેવાય છે. એ કર્મ કેવલ જ્ઞાનને ઘાત કરીને સમસ્ત દ્રવ્ય-પર્યાના જ્ઞાનને ઘાત કરે છે. એટલા માટે તે સર્વઘાતી કહેવાય છે.
શકા–સર્વ જીને કેવલજ્ઞાનને અનત્તમ ભાગ પ્રગટ રહે છે. પણ જો એટલે પણ પ્રગટ ન રહે તે જીવ, અજીવ થઈ જશે. આવી સ્થિતિમાં કેવલજ્ઞાનાવરણીય સર્વઘાતી કેવી રીતે થઈ શકે છે?
સમાધાનઃ-જેવી રીતે અત્યન્ત, સઘન મેઘપટલ (ઘનઘોર વાદલ) દ્વારા સૂર્ય અથવા ચન્દ્રમાની ઘણીખરી પ્રભા-કાંતિ ટૂંકાઈ જાવાથી લેકમાં કહેવાય છે કે સુર્ય-ચંદ્રની
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ कर्मवादि० ३४९ तयोरायतेति लोकव्यवहारवत् जीवस्य सर्वज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणीयप्रकृत्या क्रियते, इति व्यपदिश्यते।
मतिज्ञानादिविषयान् अर्थान् न जानाति जीवस्तत्र मतिज्ञानावरणीयादिप्रकृत्युदय एव मतिज्ञानादिकमारणोति, न तु केवलज्ञानावरणीयोदयस्तत्र कारणं भवतीति बोध्यम् । एवं केवलदर्शनस्यानन्तभागोऽप्यनात एव, तत्रापि मेघदृष्टान्तानुसारेणावरणव्यवहारमादाय केवलदर्शनावरणीयस्य सर्वघातित्वमुपपद्यते । तत्रापि चक्षुर्दर्शनावरणीयादिमकृत्युदयादेव जीवश्चक्षुर्दर्शनादिविषयानर्थान् ज्ञातुं न शक्नोति, न तु केवलदर्शनावरणीयोदयस्तत्र कारणमिति बोध्यम् ।
गई । इसी प्रकार 'केवलज्ञानावरण प्रकृति जीव के समस्त ज्ञानका आवरण करती है। ऐसा कहा जाता है।
जीव मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थों को नहीं जानता, इस में मतिज्ञानावरणीय प्रकृति का उदय ही कारण है, वही मतिज्ञान को रोकता है । इस में केवलज्ञानावरणीय का उदय कारण नहीं है। इसी प्रकार केवलदर्शन का अनन्तयाँ भाग उघाडा रहता है। वहाँ भी मेघ के दृष्टान्त के अनुसार आवरण का व्यवहार समझ कर केवलदर्शनावरणीय को सर्वघाती प्रकृति समझना चाहिए । यहां भी चक्षुर्दर्शन आदि के विषयभूत पदार्थों को जीव चक्षदर्शनावरणीय आदि के उदय से ही नहीं जानता । वहा केवलदर्शनावरणीय कारण नहीं समझना चाहिए।
તમામ કાંતિ-પ્રકાશ ઢંકાઈ ગઈ. એ પ્રમાણે કેવલજ્ઞાનવરણ પ્રકૃતિ જીવને સમસ્ત જ્ઞાનનું આવરણ કરે છે, એમ કહેવાય છે.
જીવ મતિજ્ઞાનના વિષયભૂત પદાર્થોને જાણતા નથી, તેમાં મતિજ્ઞાનાવરણીય પ્રકૃતિ-કમને ઉદયજ કારણરૂપ છે. તે જ મતિજ્ઞાનને રોકે છે એમાં કેવલજ્ઞાનાવરણીય ઉદય કારણ રૂપ નથી. એ પ્રમાણે કેવલદર્શનને અનન્ત ભાગ ઉઘાડો રહે છે. ત્યાં પણ મેઘના દષ્ટાન્ત પ્રમાણે આવરણને વ્યવહાર સમજી લઈને કેવલદર્શનાવરણીયને સર્વઘાતી પ્રકૃતિ સમજવું જોઈએ, અહીં પણ ચક્ષુદ્દશન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોને જીવ ચક્ષુર્દર્શનાવરણીય આદિના ઉદયથી જાણતા નથી, ત્યાં કેવલદર્શનાવરણીય કારણ નહિ સમજવું જોઈએ,
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आचारागसत्रे ननु केवलज्ञानावरणीयस्य केवलदर्शनावरणीयस्य च क्षये सत्यपि मतिज्ञानादीनां चक्षुर्दर्शनादीनां च विपया ज्ञातुमशक्याः स्युः, तेषां केवलज्ञानावरणीय-केवलदर्शनावरणीय-प्रकृत्योविपयाभावात् , मतिज्ञानावरणीयादीनां च क्षयाभावात्ताभिर्मतिज्ञानादीनां समारतत्वादिति चेत् ? उच्यते
केवलज्ञानलाभे शेपाययोधलाभस्य तदन्तर्गतत्वात् । यथा-ग्रामलामे क्षेत्रलाभो ग्रामलाभान्तर्भूत एव भवति ।
निद्रादिपञ्चकमपि सकलपदार्थावबोधं प्रतिहन्तीति सर्वघाति भवति । यदि पुनः स्वापदशायामपि किंचिद् ज्ञानमस्तीति संभाव्यते, तर्हि तत्रापि जलधरदृष्टान्तमाश्रित्य समाधेयम् ।
शङ्का केललज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय का क्षय होने पर भी मतिज्ञान आदि और चक्षुर्दर्शन आदि के विपयभूत पदार्थों का मानना अशक्य होना चाहिए, क्यों कि वे केवलज्ञानावरणीय, और केवलदर्शनावरणीय प्रकृतियों के विषय नहीं हैं, और मतिज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों का क्षय नहीं हुआ है, उन्हीं से मतिज्ञान आदि आवृत होते हैं।
समाधान केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर शेप ज्ञानों की प्राप्ति उसी में अन्तर्गत हो जाती है । जैसे ग्राम मिलने पर खेत आप ही मिल जाता है ।
निद्रा आदि पांच प्रकृतिया भी सकल पदार्थों के ज्ञान का घात करती हैं, अत एव सर्वघाती हैं । अगर निद्रा-अवस्था में भी किञ्चित् ज्ञान की संभावना की जा सकती है तो वहाँ भी मेघ का दृष्टान्त लेकर समाधान करना चाहिए ।
શંકા-કેવલજ્ઞાનાવરણીય અને કેવલદર્શનાવણ્યને ક્ષય થવા છતાંય પણે અતિજ્ઞાન આદિ અને ચક્ષુદર્શન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોને જાણવું તે અશકય હોવું જોઈએ કારણ કે તે કેવલજ્ઞાનાવરણીય અને કેવલદર્શનાવરણીય પ્રકૃતિઓને વિષય નથી. અને મતિજ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિએને ક્ષય થયો નથી, તેનાથી મતિજ્ઞાન આદિ આવૃત થાય છે.
સમાધાન–કેવલ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થવાથી શેષ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ તેમાં અન્તર્ગત થઈ જાય છે. જેવી રીતે ગામ મળવાથી ખેતર પિતેજ મલી જાય છે. . નિદ્રા આદિ પાંચ પ્રકૃતિએ પણ તમામ પદાર્થોના જ્ઞાનને ઘાત કરે છે, એ માટે તે સર્વઘાતી છે. અથવા નિદ્રા અવસ્થામાં પણ કિંચિત્ જ્ઞાનની સંભાવના કરાય છે. તે ત્યાં પણ મેઘનું દૃષ્ટાંત લઈને સમાધાન કરી લેવું જોઈએ.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५. कर्मवादिम०
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अनन्तानुबन्ध्यादयो द्वादश कपायाः प्रत्येकं यथाक्रमं सम्यक्त्वं देशविरतिचारित्रं सर्वविरतिचारित्रं च सर्वमेव घ्नन्ति तस्मादेते द्वादश कपायाः सर्वघातिन इत्युच्यन्ते । तेपां प्रबलोदयेऽपि कुलाचारप्रभृतिकारणवशादशुद्धाहारादिविरमणदर्शनात् सर्वघातित्वं न संभवतीति नाशङ्कनीयम्, नवीन घनघटादृप्टान्ताश्रयणेन तस्यापि समाधेयत्वात् । मिथ्यात्वं तु सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सर्वमपि प्रतिहन्ति, तस्मात् सर्वघातीत्युच्यते । यदि मिथ्यात्वस्य प्रबलोदयेऽपि मनुष्यपश्वादिवस्तुविषयकं सम्यक्त्वमस्ति कथं तर्हि सर्वघातित्वं मिथ्यात्वस्येति संभाव्यते, तदाऽत्राप्युक्तजलदावलीदृष्टान्तः शरणीकरणीयः ।
अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपाय क्रमशः सम्यक्त्व का देशविरति का, और सर्वविरतिका पूर्णरूप से घात करते हैं, अतः ये बारह कपाय भी सर्वघाती कहलाते हैं । यह शङ्का नहीं करनी चाहिए कि इन कपायों का प्रबल उदय होने पर भी कुलाचार आदि कारणों से अशुद्ध आहार आदि का त्याग देखा जाता है अत एव इन्हें सर्वघाती नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नवीन मेघघटाका दृष्टान्त लेकर इस शङ्का का भी समाधान किया जा सकता है।
मिथ्यात्व प्रकृति तो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व का पूर्णरूप से घात करती ही है, अतः वह सर्वघाती है। यदि मिध्यात्व का प्रबल उदय होने पर भी मनुष्य पशु आदि वस्तुओं सम्बन्धी सम्यक्त्व रहता है तो मिथ्यात्व को सर्वघाती कैसे कहा जा सकता है ? इस शङ्का के समाधान के लिए भी उक्त मेघपटल के ही दृष्टान्त का आश्रय लेना चाहिए ।
અનન્તાનુબંધી આદિ ખાર કષાય ક્રમરાઃ સમ્યક્ત્વના દેશવિરતિને અને સ વિરતિને પૂર્ણરૂપથી ઘાત કરે છે, તેથી એ ખાર કષાય પણ સધાતી કહેવાય છે. એવી શંકા નહિ કરવી જોઇએ કે: એ કષાયેાના પ્રશ્નલ ઉદય વખતે પણ કુલાચાર આદિ કારણેાથી અશુદ્ધ આહાર આદિના ત્યાગ જોવામાં આવે છે. તે માટે તેને સધાતી કહી શકાશે નહિ; કારણ કે નવીન મેઘ ઘટાનું દ્રષ્ટાંત લઇને આ શંકાનું સમાધાન કરી શકાય છે.
મિથ્યાત્વ પ્રકૃતિ તા તત્ત્વા શ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યક્ત્વને પૂર્ણરૂપથી ઘાત કરે છેજ, તેથી તે સધાતી છે. જો મિથ્યાત્વના પ્રખલ ઉદય હોય તે વખતે પણ-મનુષ્ય, પશુ આદિ વસ્તુએસ’બધી સમ્યક્ત્વ રહે છે તે મિથ્યાત્વને સર્વાંધાતી કેવી રીતે કહી શકશે ? એ શકાના સમાધાન માટે પણુ આગળ કહેલ મેઘપટળનાંજ દ્રષ્ટાંતને આશ્રય લેવા જોઇએ.
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आचाराचे देशघातिप्रकृतयः-- अथ देशघातिप्रकृतयः कथ्यन्ते । (१) मतिमानावरणीयम् , (२) श्रुत ज्ञानावरणीयम् , (३) अवधिज्ञानावरणीयम् , (४) मनापर्ययज्ञानावरणीयम् , एतानि चत्वारि ज्ञानावरणीयानि ४ । (१) चक्षुर्दर्शनावरणीयम् , (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीयम् , (३) अवधिदर्शनावरणीयम् , इति त्रीणि दर्शनावरणीयानि । संचलनरूपाः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः कषायाः ११ । हास्य-रत्य-रति-भय-शोकजुगुप्सा-वीवेद-वेद-नपुंसकवेदभेदत्तो नपसंख्यका नोकपायाः २० तथा दानलाभ-भोगो-पभोग-धीर्य५भेदात् पञ्चविंशतिः २५ प्रकृतयो देशघातिन्यः सन्ति ।
मतिज्ञानावरणीयादिचतुष्टयी प्रकृतिः केवलज्ञानावरणीयातं दैशिकं ज्ञानं हन्ति, तस्माद्देशघातिनीयमुच्यते।
देशघाती प्रकृतिया--- ___ अब देशघाती प्रकृतियों का कथन किया जाता हैः-(१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनःपर्ययज्ञानावरणीय, ये चार ज्ञानावरणीय: । तथा (१) चक्षुर्दर्शनावरणीय, (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीय, (३) अवधिदर्शनावरणीय, ये तीन दर्शनावरणीय७ । तथा संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार कपाय ११ । हास्य, रति, भरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के भेद से नौ नोकपाय २० । तथा दानान्तराय, लामातराय, भोगान्तराय, उपभागान्तराय और वीर्यान्तराय, ये पांच अन्तराय २५ । सब मिलकर पच्चीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं।
___ मतिज्ञानावरणीय आदि चार प्रकृतियों केवलज्ञानावरणीयद्वारा आवृत एक देश ज्ञानका घात करती हैं। अत एव उन्हें देशघाती प्रकृतिया कहते हैं,
દેશઘાતી પ્રતિ–હવે દેશઘાતી પ્રકૃતિઓનું કથન-નિરૂપણું-કરવામાં આવે છે-(૧) મતિજ્ઞાનાવરણીય, (२) श्रुताना१२०ीय, (3) अवधिज्ञाना१२६५, (४) मनापर्ययज्ञानाशीय, मा शार शानाप२०ीय छ ४, तथा (१) या शनावरणीय, (२) मध्यशिनावरणीय, (3) पधिદર્શનાવરણીય, આ ત્રણ દશનાવરણીય, ૭, તથા સંવલન-ક્રોધ, માન, માયા, લોભ, એ
र ४पाय, ११, हास्य, २ति, अति, भय, A, BY सा. श्री३६, पुरुष, नधुसव ના ભેદથી નવ કપાય, ૨૦,તથા દાનાતરાય, લાભાન્તરાય, ભેગાન્તરાય, ઉપગાન્તરાય, અને વીતરાય. આ પાંચ અન્તરાય રે૫, બધી મળીને પચીસ દેશઘાતી પ્રકૃતિએ છે.
અતિજ્ઞાનાવરણીય આદિ ચાર પ્રકૃતિએ કેવલજ્ઞાનાવરણીયવારા વૃત એક દેશ જ્ઞાનને ઘાત કરે છે, તેટલા માટે તેને દેશઘાતી પ્રકૃતિ કહે છે,
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ.१ सू. ५. कर्मवादिम०
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मतिज्ञानादिविषयाणामर्थानामववोघो यन्न भवति, तच्च मतिज्ञानावरणीयादिचतुष्टयमकृत्युदयादेव । यत्तु मतिज्ञानाद्यविषयाणामनन्तपदार्थानां ज्ञानं न भवति तत् केवलज्ञानावरणीयमकृत्युदयादेव ।
चक्षुर्दर्शनावरणीयादित्रयी प्रकृतिः केवलदर्शनावरणीयानावृतं केवलदर्शनैकदेशं ज्ञानं हन्तीति देशघावित्वं सिद्धम् । चक्षुरादिदर्शनविपयभूतानामर्थानां दर्शनं यन्न भवति, तत् चक्षुरादिदर्शनावरणीयम कृत्युदयादेवः यच्च तद्विपयभूतान अनन्तगुणान् न पश्यति, तत् केवलदर्शनावरणीयोदयादेव । कपायास्तथा नव नोकपायाच लव्धस्य
तथा-संज्वलनाश्वत्वारः
मतिज्ञान आदि के विषयभूत पदार्थों का जो ज्ञान नहीं होता सो मतिज्ञानाचरणीय आदि प्रकृतियों के उदय से हो समझना चाहिए। और जो पदार्थ मतिज्ञान आदि के विषय नहीं हैं, उनके ज्ञानका अभाव केवलज्ञानावरणीय प्रकृति के उदय से होता है ।
चक्षुर्दर्शनावरणीय आदि तीन प्रकृतियाँ केवलदर्शनावरणीयद्वारा अनावृत केवलदर्शन के एकदेश ज्ञानका घात करती हैं, अतः वे देशघाती हैं । चक्षुर्दर्शन आदि के विषयभूत पदार्थों का जो ज्ञान नहीं होता सो चक्षुर्दर्शनावरणीय आदि प्रकृतियों के उदय से समझना चाहिए और केवलदर्शन के विषयभूत अनन्त गुणों के ज्ञानका जो अभाव होता है सो केवलदर्शनावरणीय के उदय से ही समझना चाहिए ।
चार संग्वलन कपाय और नौ नोकपाय प्राप्त हुए चारित्र के एक देश का
મતિજ્ઞાન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોનું જે જ્ઞાન થતું નથી તે મતિજ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિના ઉદયથીજ સમજી લેવું જોઇએ. અને જે પદાર્થ મતિજ્ઞાનાદિને વિષય નથી તેના જ્ઞાનને અભાવ કેવલજ્ઞાનાવરણીય પ્રકૃતિના ઉદયથી હાય છે.
ચક્ષુદ્રંશનાવરણીય આદ્ધિ ત્રણ પ્રકૃત્તિ કેવલદર્શનાવરણીય દ્વારા અનાવૃત કેવલદર્શનના એકદેશ જ્ઞાનના ઘાત કરે છે. એ કારણથી તે દેશધાતી છે ચક્ષુદાન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોનું જે જ્ઞાન થતું નથી તે ચક્ષુદાનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિના ઉદયથી સમજવું જોઈએ, અને કેવલાનના વિષયભૂત અનન્ત ગુણેાના જ્ઞાનને જે અભાવ થાય છે તે કેવલદર્શનાવરણીયના ઉદયથીજ સમજવું જોઈ એ.
ચાર સંજવલન કષાય અને નવ નાકષાય પ્રાપ્ત થયેલા ચારિત્રના એક દેશનાજ
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आचाराननूत्रे
देशघातिमकृतयः -
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अथ देशघातिप्रकृतयः कथ्यन्ते । (१) मतिज्ञानावरणीयम्, (२) श्रुतज्ञानावरणीयम्, (३) अवधिज्ञानावरणीयम्, (४) मन:पर्ययज्ञानावरणीयम्, एतानि चत्वारि ज्ञानावरणीयानि ४ । (१) चक्षुर्दर्शनावरणीयम्, (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीयम्, (३) अवधिदर्शनावरणीयम् इति त्रीणि दर्शनावरणीयानि७ । संज्वलनरूपाः क्रोधमानमायालोभावत्वारः कपायाः ११ । हास्य - रत्य - रति-भय-शोकजुगुप्सा - स्रीवेद - पुंवेद- नपुंसकवेदभेदतो नवसंख्यका नोकपायाः २० । तथा दानंलाभ - भोगोपभोग - वीर्य ५ भेदात् पञ्चविंशतिः २५ प्रकृतयो देशघातिन्यः सन्ति । मतिज्ञानावरणीयादिचतुष्टयी प्रकृतिः केवलज्ञानावरणीयातं दैशिकं ज्ञानं हन्ति, तस्माद्देशघातिनीयमुच्यते ।
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देशघाती प्रकृतियाँ -
अब देशघाती प्रकृतियों का कथन किया जाता है: - (१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मन:पर्ययज्ञानावरणीय, ये चार ज्ञानावरणीय४ । तथा (१) चक्षुर्दर्शनावरणीय, (२) अचक्षुर्दर्शनाचरणीय, (३) अवधिदर्शनावरणीय, ये तीन दर्शनावरणीय७ । तथा संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार कपाय १९ । हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के भेद से नौ नोकपाय २० । तथा दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभागान्तराय और वीर्यान्तराय, ये पांच अन्तराय २५ | सब मिलकर पच्चीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं ।
मतिज्ञानावरणीय आदि चार प्रकृतियाँ केवलज्ञानावरणीयद्वारा आवृत एक देश ज्ञानका घात करती हैं; अत एव उन्हें देशघाती प्रकृतियाँ कहते हैं, દેશઘાતી પ્રકૃતિમા—
हुवे देशघाती अधृतिमानुं प्रथन - नि३णु-श्वामां आवे छे - ( १ ) भतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावश्ट्रीय (3) अवधिज्ञानावरणीय, ( ४ ) मन:पर्ययज्ञानावरणीय, भायार ज्ञानावरणीय छे ४, तथा (१) क्षुद्दर्शनावरणीय, (२) अन्यक्षुर्हर्शनावरणीय, (3) अवधिदर्शनावरणीय, मात्रषु दर्शनावरणीय, ७, तथा संन्वसन होध, भान, भाया, बोल, भे न्यार ४षाय, ११, हास्य, रति, भरति, लय, शो, लुगुप्सा. खीवेह, पुरुषवेध, नचुसम्वेह ना लेध्थी नव नापुषाय, २०, तथा हानान्तराय, सालान्तराय, लोगान्तराय, उपलेोगान्तराय, અને વીર્યાન્તરાય, આ પાંચ અન્તરાય ૨૫, ખુધી મળીને પચીસ દેશઘાતી પ્રકૃતિ છે. મતિજ્ઞાનાવરણીય આદિ ચાર પ્રકૃતિએ કેવલજ્ઞાનાવરણીયદ્વારા આવૃત એક દેશ જ્ઞાનના ઘાત કરે છે, તેટલા માટે તેને દેશઘાતી પ્રકૃતિ કહે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५. कर्मवादिन०
३७ नानि६ । पञ्च जातयः५। चतस्रो गतयः४ । द्वे खगती२ । चतस्रः आनु. पूर्व्यः४ । आयूपि चत्वारि । सदशकम् १० । स्थावरदशकम्१० । उन्धैर्गोत्रम् १ । नोचैर्गोत्रम्१ । सातवेदनोयम् । असातवेदनीयम्१ । वर्ग-गन्ध-रस-स्पर्शाख्याश्रतस्रः प्रकृतयः४ । ७५ ॥
एताः प्रकृतयः कमपि ज्ञानादिगुणं न हन्तीत्यघातिन्य उच्यन्ते । :: सर्ववातिकृतिभिः सह वेद्यमानाः स्वयमघातिन्योऽपि सर्वघातिफल ग्यन्ति । देशघातिमतिभिः सह पुनर्वेद्यमानाः स्वयमघातिन्योऽपि देशघातिरस नेत । यथा-स्वयमचौरश्वी रैः सह वर्तमानश्चौर इवावभासते तद्वत् ।
नन२८, पांच जातिया३३, चार गतियाँ३७, दो विहायोगतिया३९, चार ३, चार आयु४७, सदशक५७, स्थावरदशक६७; उच्चगोत्र६८, नीचगोत्र६९, १७०, असातावेदनीय७१, तथा वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्शनामक चार
तिया ज्ञान आदि किसी गुणका घात नहीं करती हैं । इसी लिये ये अघाती 7 इनका सर्वघातो प्रकृतियों के साथ वेदन होता है तब ये स्वयं अघाती
सर्वघातो रसको प्रकट करती हैं, और देशघाती प्रकृतियों 'न हो तो स्वयं अघाती होने पर भी देशघाती रस को प्रकट करती हैं। न हो किन्तु चोरों के साथ हो तो वह भी चोर जैसा ही प्रतीत होता है । प्रकृतियों का है।
पूवी, (४३) या भायु, (४७) सश, (५७) स्था१२६२४, । नायगात्र, (६६) शतावनीय, (७०) मसातावहनीय, (७१) અને સ્પર્શ નામની ચાર પ્રકૃતિઓ (૭૫).
આદિ કોઈ ગુણને વાત કરતી નથી. એટલા માટે તેને રતુ સર્વઘાતી પ્રકૃતિઓની સાથે જ્યારે તેનું વેદન થાય છે તાંય પણ એ સર્વઘાતીનું ફળ પ્રદર્શિત કરે છે. અથવા તેનું વેતન હોય તે પિતે અઘાતી હોવા છતાંય પણ રીતે કઈ પુરુષ ચાર ન હોય પરંતુ સાથે હોય છે એ પ્રમાણે જ આ અઘાતી પ્રકૃતિને સમજવું.
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थार
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भचारात्सत्रे
चारित्रस्य देशमेव घ्नन्ति तेषां मूलोत्तरगुणातीचारजनकत्वात् । तस्मादेवात्रयोदश प्रकृतयो देशघातिन्य इति घोध्यम् ।
तथा - दानान्तरायादिपञ्चान्तरायरूपाः प्रकृतयोऽपि देशघातिन्य एव । दानलाभभोगोपभोगानां चतुणा विषयस्तावद् ग्रहणधारणयोग्यान्येव द्रव्याणि सन्ति । तानि च सकलपुद्गलास्तिकायस्यानन्तभागरूपे देश एव वर्तन्ते, अतो 'यासां प्रकृतीनामुदयात् पुद्गलास्तिकायदेशवर्तीनि द्रव्याणि दातुं लब्धुं भोक्तुमुपभोत्तकुं च न शक्नोति ताः प्रकृतयो दानलाभभोगोपभोगान्तरायस्पास्तावद्देशघातिन्य एव ।
यत्तु - समस्तलोकान्तर्गतानि द्रव्याणि दातुं लधुं भोक्तुमुपभोक्तुं च न प्रभवति तद्दानान्तरायादिप्रकृत्युदयतो न भवति, किन्तु तेषामेव ग्रहणधारणही घात करते हैं, क्यों कि वे मूलगुणों और उत्तरगुणों में अतिचार उत्पन्न करते हैं, इस कारण ये तेरह प्रकृतियाँ देशघाती हैं, ऐसा समझना चाहिए |
अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियां भी देशघाती ही हैं। दान, लाभ, भोग और उपभोग, इन चार के विषय ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्य ही हैं, और ऐसे द्रव्य समस्त पुद्गलास्तिकाय के अनन्तवें भाग हैं, अतः जिन प्रकृतियों के उदय से पुद्गलास्तिकाय के एकदेशवत द्रव्यों का दान, लाभ, भोग या उपभोग न हो सके वे दानान्तराय आदि प्रकृतियाँ भी देशघाती ही हैं ।
समस्त लोक के अन्तर्गत द्रव्यों का दान, लाभ, भोग और उपभोग नहीं हो सकता, सो यह दानान्तराय आदि प्रकृतियों के उदय से नहीं, परन्तु उन द्रव्यों को ઘાત કરે છે કારણ કે તે મૂલણા અને ઉત્તરગુ]ામાં અતિચાર ઉત્પન્ન કરે છે, આ કારણથી તે તેર પ્રકૃતિએ દેશધાતી છે. એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ.
અન્તરાય કર્મોની પાંચ પ્રકૃતિએ પણ દેશઘાતીજ છે. દાન, લાભ, ભેગ અને ઉલ્લેગ, એ ચારના વિષય ગ્રહણ અને ધારણ કરવા ચૈાગ્ય દ્રવ્યજ છે, અને એવા દ્રવ્ય સમસ્ત પુદ્ગલાસ્તિકાયના અનન્તમ ભાગ છે, તેથી જે પ્રકૃતિના ઉદયથી પુદ્ગલાસ્તિકાયના એકદેશવર્તી દ્રબ્યાનેા દાન, લાલ, ભાગ અને ઉભેાગ ન થઈ શકે, તે દાનાન્તરાય આદિ પ્રકૃતિએ પણ દેશઘાતી છે.
સમસ્ત લેકના અન્તગત દ્રબ્યાના દાન, લાભ, ભાગ અને ઉપગ થઈ શકતા નથી. તે આ દાનાન્તરાય આદિ પ્રકૃતિના ઉદયથી નહિ; પરન્તુ તે દ્રવ્યેાને ગ્રહણ અને
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ओचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. १ . ५ कर्मवादिप्र० योग्यताया अभावादशम्यानुष्ठानत्वादिति मन्तव्यम् ।
चीर्यान्तरायमकृतिरपि सर्व वीर्य न हन्तीति देशघातिन्येव । तथाहिसूक्ष्मनिगोदजीवात् प्रभृति आक्षीणमोहनीयजीवं वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमविशेषाद वीर्य कस्यचिदल्पं, कस्यचिद् वहु, कस्यचिद् बहुतरं, कस्यचिदू बहुत भवति, वीर्यान्तरायकर्मणोऽभ्युदये सूक्ष्मनिगोदस्यापि आहारपरिणमनकर्मदलिकग्रहणगत्यन्तरगमनादिकं विद्यते । एतच्च वीर्य विना न संभवति । तस्माद्देशत एव वीर्य वीर्यान्तराय प्रकृत्या हन्यते, न तु सर्वतः । यदि पुनरियं सर्वघातिनी
રૂપ
ग्रहण और धारण करने की योग्यता न होने के कारण अशक्यानुष्ठान से समझना चाहिए ।
वीर्यान्तराय प्रकृति भी समस्त वीर्य का घात नहीं करती अतः देशघाती है । सूक्ष्म निगोदिया जीव से लेकर क्षीणमोह-गुणस्थान पर्यन्त के जीवों में वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से किसी जीव में अल्प वीर्य (शक्ति) होता है, किसी में बहुत वीर्य होता है, किसी में बहुत अधिक वीर्य होता है और किसी में अत्यन्त अधिक वीर्य होता है । वीर्यान्तराय कर्मका उदय होने पर भी सूक्ष्म निगोद का जीव आहार का परिणमन करता है, कर्मदलियों को ग्रहण करता है और दूसरी गति में जाता है। ये सव कार्य वीर्य के बिना नहीं हो सकते । इस से यह सिद्ध हुआ कि वीर्यन्तराय कर्म वीर्य सर्वघाती मानी जाये
को एकदेश से ही घात करता है, सर्वदेश से नहीं । अगर यह प्रकृति तो जैसे सर्वघाती मिथ्यात्व के उदय में सम्यग्दर्शन लेशमात्र नहीं होता, और
ધારણ કરવાની ચેાગ્યતા નહિ હાવાના કારણે અશકયાનુષ્ઠાનથી સમજવું જોઈએ.
વીર્યાન્તરાય પ્રકૃતિ પણ સમસ્ત વીય ના ઘાત કરતી નથી, તેથી તે દેશઘાતી છે. સૂક્ષ્મનેિગાદના જીવથી લઇને ક્ષીણમે હગુણુસ્થાન સુધીના જીવામાં વીર્યાન્તરાયના ક્ષયાપશમથી કાઈ જીવમાં અલ્પવીય (થાડી શકિત) હેાય છે, કૈાઈ જીવમાં બહુ ધીય હોય છે; કોઇ જીવમાં મહુજ અધિક વીય હોય છે, અને કેાઈમાં અત્યન્ત અધિક વીય હોય છે. વીર્યાન્તરાય કમ ને ઉદય હેાય ત્યારે પણ સૂક્ષ્મ નિગાદના જીવ આહારનું' પશ્ચિમન કરે છે, કદલિકાને ગ્રહણ કરે છે, અને ખીજી ગતિમાં જાય છે, આ તમામ કાર્યં વીર્ય વિના થઈ શકે નહીં, તેથી એ સિદ્ધ થયું કે વીર્યન્તરાય કમ વીર્ય ના એક દેશનેાજ ઘાત કરે છે, સર્વ દેશના નહી. અથવા તે આ પ્રકૃતિને સ ધાતી માનવામાં આવે તે જેવી રીતે સઘાતી મિથ્યાત્વના ઉદ્દયમાં સમ્યક્દર્શન લેશમાત્ર પણ હોય નહી, અને જેમ
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आचाराने स्यात् तदा सर्वधातिनो मिथ्यात्वस्य कपायद्वादशकस्य चाभ्युदये यया जघन्यमपि सम्यक्तं देशसंयमः सर्वसंयमश्च नोपलभ्यते, त्या वीर्यान्तरायस्योदयेऽपि जघन्यमपि वीर्यगुणं नोपलभ्येत, न चैवं भवति, तस्मात् वीर्यान्तरायमकृतिरपि देशघातिनीति सिद्धम् ।
अधातिप्रकृतयःअघातिन्यः प्रकृतयः । पञ्चसप्ततिः सन्ति । तथाहि-प्रत्येकं प्रकृतयः पराधातोर-वासार-ऽऽतपो३-धोता४- गुरुलघु५-तीर्थकरद-निर्माणो-पघातारूपा अष्टौ सन्ति । (१) औदारिकं, (२) वैक्रियम् , (३) आहारकं, (४) तेजसं, (५) कार्मण चेति पञ्च शरीराणि ५। त्रीण्युपाङ्गानि३ । पट संस्थानानि६ । पट संहनजैसे बारह कथायों का उदय होने पर देशविरति और सर्वविरति, एक देश से भी नहीं होती उसी प्रकार वीर्यान्तराय कर्म का उदय होने पर लेशमात्र भी वीर्यगुण प्रकट नहीं होने चाहिए, मगर ऐसा नहीं होता, अतः यह सिद्ध हुआ कि वीर्यान्तराय प्रकृति भी देशघाती ही है।
अघाती प्रकृतियां- । __ अघाति प्रकृतियों पचहत्तर ७५ हैं, वे इस प्रकार-(१) पराघात, (२) उच्छास, (३) आतप, (४) उद्योत, (५) अगुरुलघु, (६) तीर्थकर, (७) निर्माण, (८) उपपात, ये आठ प्रत्येक प्रकृतियां अघाती हैं८ । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, और कार्मण शरीर, ये पांच शरीर अघाती प्रकृतिया हैं १३ । तीन उपाङ्ग१६, छह संस्थान२२, બાર કષાને ઉદય થવા સમયે દેવવિરતિ અને સર્વવિરતિ એકદેશથી પણ હોય નહી; તે પ્રમાણે વર્યાન્તરાય કમને ઉદય થતાં લેશમાત્ર પણ વીર્યગુણ પ્રગટ થ. નહી જોઈએ, પરન્તુ એ પ્રમાણે થતું નથી, એ કારણથી સિદ્ધ થયું કે વીર્યાન્તરાય પ્રકૃતિ પણ દેશઘાતીજ છે.
___ मघाती प्रतिमाभधाती प्रतिया पयातेर (७५) २.४ मा प्रमाणे छ:-(१) पराघात, (२) वास, (3) मात५, (४) धोत, (५) मशुदाधु, (6) ती४२, (७) निभा, (c) Sard, मा मा प्रत्ये प्रति माती छे. (१) यौहार, (२) य, (3) माडा२४, (४) तास અને (૫) કાર્મણ શરીર, આ પાંચ શરીર અઘાતી પ્રકૃતિઓ છે(૧૩) ત્રણ ઉપાંગ, (૧૬)
संस्थान, (२२) ७६ सहनन, (२८) पांय तिमा, (33) यार गति, ३७ मे विडायो.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्यं.१ उ.१ ८.५. कर्मवादिन० । ३५७ नानि६ । पञ्च जातयः५ । चतस्रो गतयः४ । द्वे खगती२ । चतस्रः आनु. पूर्यः४ । आयूपि चत्वारि । सदशकम् १० । स्थावरदशकम्१० । उन्धैर्गोत्रम् १ । नोचैर्गोत्रम्१ । सातवेदनोयम् । असातवेदनीयम्१ । वर्ग-गन्ध-रस-स्पर्शाख्याश्चतस्रः प्रकृतयः४ । ७५ ।।
एताः प्रकृतयः कमपि ज्ञानादिगुणं न इन्तीत्यघातिन्य उच्यन्ते । इमाः सर्पवातिकृतिभिः सह वेद्यमानाः स्वयमघातिन्योऽपि सर्वघातिफलं मदर्शयन्ति । देशघातिमकतिभिः सह पुनर्वेद्यमानाः स्वयमघातिन्योऽपि देशघातिरस दर्शयन्ति । यथा-स्वयमचौरश्वी रैः सह वर्तमानश्वीर इवावभासते तद्वत् ।
छह संहनन२८, पांच जातियाँ३३, चार गतिया३७, दो विहायोगतियाँ३९, चार आनुपूर्वी४३, चार आयु४७, त्रसदशक५७, स्थावरदशक६७; उच्चगोत्र६८, नीचगोत्र६९, सातावेदनीय७०, असातावेदनीय७१, तथा वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्शनामक चार प्रकृतियाँ७५ ।
ये प्रकृतिया ज्ञान आदि किसी गुणका घात नहीं करती हैं । इसी लिये ये अघाती कहलाती हैं । जब इनका सर्वघातो प्रकृतियों के साथ वेदन होता है तब ये स्वयं अघाती होते हुए भी सर्वघातो रसको प्रकट करती हैं, और देशघाती प्रकृतियों के साथ इनका वेदन हो तो स्वयं अघाती होने पर भी देशघाती रस को प्रकट करती हैं। जैसे कोई पुरुप चोर न हो किन्तु चोरों के साथ हो तो वह भी चोर जैसा ही प्रतीत होता है। यही हाल इन अघाती प्रकृतियों का है ।
गति, (36) या२ अनुपूवी', (४३) या२ मायु, (४७) सश, (५७) स्था१२४, (६७) अध्यगात्र, (60) नायगात्र, (६६) शतावनीय, (७०) मसातावनीय, (७१) તથા વર્ણ રસ, ગંધ, અને સ્પર્શ નામની ચાર પ્રકૃતિએ (૭૫).
આ પ્રવૃતિઓ જ્ઞાન આદિ કઈ ગુણને ઘાત કરતી નથી. એટલા માટે તેને અઘાતી પ્રકૃતિ કહે છે, પરંતુ સર્વઘાતી પ્રકૃતિએની સાથે જ્યારે તેનું વેદન થાય છે તે પિતે અઘાતી હોવા છતાંય પણ એ સર્વઘાતીનું ફળ પ્રદર્શિત કરે છે. અથવા દેશઘાતી પ્રકૃતિએની સાથે તેનું વેદન હોય તે પિતે અઘાતી હોવા છતાં પણ દેશઘાતી રસને પ્રગટ કરે છે. જેવી રીતે કેઈપુરુષ એર ન હોય પરંતુ એની સાથે હોય તે તે પણ ચેર જે જ દેખાય છે. એ પ્રમાણે જ આ અઘાતી પ્રવૃતિઓ વિશે સમજવું.
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आचारास स्यात् तदा सर्वघातिनो मिथ्यात्वस्य फपायद्वादशकस्य चाभ्युदये यया जघन्यमपि सम्यक्त्वं देशसंयमः सर्वसंयमश्च नोपलभ्यते, तथा चीर्यान्तरायस्योदयेऽपि जघन्यमपि वीर्यगुणं नोपलभ्येत, न चैव भवति, तस्मात् वीर्यान्तरायमकृतिरपि देशघातिनीति सिद्धम् ।
अघातिप्रकृतयःअघातिन्यः प्रकृतयः । पञ्चसप्ततिः सन्ति । तयाहि-प्रत्येकं प्रकृतयः पराघातोर-श्वासार-ऽऽतपो३-धोता४-ऽगुरुलघु५-तीर्थकरद-निर्माणो-पघातारूपा अष्टौ सन्ति । (१) औदारिकं, (२) वैक्रियम् , (३) आहारकं, (४) वैजसं, (५) कार्मणं चेति पञ्च शरीराणि ५। त्रीण्युपाङ्गानि३ । पट् संस्थानानि६ । पट संहनजैसे बारह कपायों का उदय होने पर देशविरति और सर्वविरति, एक देश से भी नहीं होती उसी प्रकार वीर्यान्तराय कर्म का उदय होने पर लेशमात्र भी वीर्यगुण प्रकट नहीं होने चाहिए, मगर ऐसा नहीं होता, अतः यह सिद्ध हुआ कि वीर्यान्तराय प्रकृति भी देशघाती ही है।
अघाती प्रकृतियांअघाति प्रकृतिया पचहत्तर ७५ हैं, वे इस प्रकार-(१) पराघात, (२) उच्छवास, (३) आतप, (४) उद्योत, (५) अगुरुलघु, (६) तीर्थकर, (७) निर्माण, (८) उपपात, ये आठ प्रत्येक प्रकृतियां अघाती हैं८ । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, और कार्मण शरीर, ये पांच शरीर अघाती प्रकृतियाँ हैं १३ । तीन उपाङ्ग१६, छह संस्थान२२, બાર કષાયે ઉદય થવા સમયે દેવવિરતિ અને સર્વવિરતિ એકદેશથી પણ હોય નહી; તે પ્રમાણે વર્યાન્તરાય કમને ઉદય થતાં લેશમાત્ર પણ વીર્યગુણ પ્રગટ થા નહી જોઈએ, પરન્તુ એ પ્રમાણે થતું નથી, એ કારણથી સિદ્ધ થયું કે–વર્યાન્તરાય પ્રકૃતિ પણ દેશઘાતીજ છે.
मधाती प्रतिमासघाती प्रतिमा यात२ (७५) छ. मा प्रमाणे छ:-(१)पराधात, (२)वास, को मात५, (४) धोत, (५) म४३मधु, (6) तीर्थ ४२, (७) निभा, (८) Bad, मा
ये प्रतिमा माती छे. (१) मोहा२ि४, (२) वैठिय, (3) मा १२४, (४) तस અને પછી કામ શરીર, આ પાંચ શરીર અઘાતી પ્રવૃતિઓ છે(૧૩) ત્રણ ઉપાંગ, (૧૬)
स्थान (२२) ७६ हनन, (२८) यति , (33) या गति, ३७२ विलाय
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्यं.१ उ.१ ५.५. कर्मवादिनः नानि६ । पच जातयः५ । चतस्रो गतयः४ । द्वे खगतीर । चतसः आनु पूज्य:४ । आयूपि चत्वारि । सदशकम् १० । स्थावरदशकम्१० । उच्चैर्गोत्रम् १ ॥ नोचैर्गोत्रम्१ । सातवेदनीयम् १ । असातवेदनीयम्१ । वर्ग-गन्ध-रस-स्पर्शाख्याश्रतः प्रकृतयः४ । ७५ ॥
एताः प्रकृतयः कमपि ज्ञानादिगुणं न इन्तीत्ययातिन्य उच्यन्ते । इमाः सर्पयातिप्रकृतिभिः सह वेद्यमानाः स्वयमघातिभ्योऽपि सर्वघातिफल प्रदर्शयन्ति । देशघातिमतिभिः सह पुनर्वेद्यमानाः स्वयमघाविन्योऽपि देशवातिरस दर्शयन्ति । यथा-स्वयमचौरश्चौरैः सह पर्वमानचौर इवावभासते तद्वत् ।
छह संहनन२८, पांच जातिया३३, चार गतिया३७, दो विहायोगतिया३९, चार आनुपूर्वी४३, चार आयु४७, सदशक५७, स्थावरदशक६७, उच्चगोत्र६८, नीचगोत्र६९, सातावेदनीय७०, असातावेदनीय७१, तथा वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्शनामक चार प्रकृतिया७५।
ये प्रकृतिया ज्ञान आदि किसी गुणका घात नहीं करती हैं । इसी लिये ये अपाती कहलाती हैं । जब इनका सर्वघातो प्रकृतियों के साथ वेदन होता है तब ये स्वयं अपाती होते हुए भी सर्वघातो रसको प्रकट करती हैं, और देशघाती प्रकृतियों के साथ इनका बेदन हो तो स्वयं अघाती होने पर भी देशपाती रस को प्रकट करती हैं। जैसे कोई पुरुप चोर न हो किन्तु चोरों के साथ हो तो वह भी चोर जैसा ही प्रतीत होता है । यही हाल इन अघाती प्रकृतियों का है।
आति, (३८) या मनुका, (४३) थार मायु, (४७) सश, (५७) याव२६, (७) स्त्र , () नीयार, (२६) Atoनीय, (७०) मसातवहनीय, (७१) તથા વણે રસ, ગંધ, અને સ્પર્શ નામની ચાર પ્રકૃતિએ (૭૫).
આ પ્રવૃતિઓ જ્ઞાન આદિ કઈ ગુણને ઘાત કરતી નથી. એટલા માટે તેને અઘાતી પ્રકૃતિ કહે છે, પરંતુ સર્વઘાતી પ્રકૃતિએની સાથે જ્યારે તેનું વેદના થાય છે તે પોતે અઘાતી હોવા છતાંય પણ એ સર્વઘાતીનું ફળ પ્રદર્શિત કરે છે. અથવા દેશઘાતી પ્રવૃતિઓની સાથે તેનું વેદન હોય તે પોતે અઘાતી હોવા છતાં પણ દેશઘાતી રસને પ્રગટ કરે છે. જેવી રીતે કેઈ પુરુષ રન હેય પરન્તુ ચોરેની સાથે હોય તે તે પણ ચેર જે જ દેખાય છે. એ પ્રમાણે જ આ અઘાતી પ્રવૃતિઓ વિશે સમજવું.
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आपाराज उत्तरमकतिसंग्ख्याज्ञानावरणीयाधप्टविधकर्मणामुत्तरमकनिसंख्या अष्टचत्वारिंशदधिकशतं १४८ भवन्ति । तथाहि
(१) ज्ञानावरणीयस्य-मति-श्रुता-अधि- मनापर्यय- केवलज्ञानावरणीयभेदात् पञ्च।
(२) दर्शनावरणीयस्य-चक्षुर्दर्शना-ऽचक्षुर्दर्शना-अपिदर्शन-केवलंदर्शनावरणीयानि चत्वारि, तथा-निन्द्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचंलाप्रचला-स्त्यांनर्द्धिमेदाद पञ्च मिलित्वा नव भवन्ति । (३) वेदनीयस्य शाताशातभेदेन द्वौ भेदी स्तः ।
उत्तरपतियोंकी संख्या--- ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की संख्याएँ (मध्यमविवक्षा से) १४८ हैं । वे इस प्रकार---
(१) ज्ञानावरणीय की पांच-(१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनापर्ययज्ञानावरणीय, (५) केवलज्ञानावरणीय ।
(२) दर्शनावरणीय की नौ-(१) चक्षुर्दर्शनावरणीय, (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीय, (३) अवधिदर्शनावरणीय, (४) केवलदर्शनावरणीय, तथा (५) निद्रा, (६) निद्रानिद्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचला-प्रचला, (९) त्यानदि, ये पांच निद्राएँ मिलकर कुल नौ । प्रकृतिया हैं। (३) वेदनीय की दो-सातावेदनीय और असातावेदनीय ।
उत्तरतिमानी ज्याજ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોની ઉત્તરપ્રકૃતિઓની સંખ્યા (મધ્યમ વિવંક્ષાથી) ससा sanela (१४८) छे. ते २प्रभारी---
(१) ज्ञान५२६|4नी पाय - (१) भतिज्ञानIReflu, (२) श्रुतापवीय, (8) अधिसनीय, (४) मनापर्य यज्ञानापाय, (५) पानापाय:
(2) शनावरणीयनी न छे. (१) शनिव२४॥य, (२) गयश मावशीय; को अवधिशनापरीय, (४) ३१N नापीय, तथा (५) निद्रा, (6) निद्रा-नि
प्रया, (८) प्रय-प्रय1, () स्त्यान, या पय निद्रा भणीने. दुस् નવ પ્રકૃતિએ થાય છે.
3) नीयनी मे (१) सातवहनीय भने मसावितीय,
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५. कर्मवादिम०
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(४) मोहनीयस्य - अष्टाविंशतिर्भेदा भवन्ति । तथाहि - सम्यक्त्वमोहनीयमिथ्यात्वमोहनीय - मिश्रमोहनीय- मेदेन त्रीणि दर्शनमोहनीयानि । पश्चविंशतिचारित्रमोहनीयानि मिलिलाऽष्टाविंशतिः । चास्त्रिमोहनीयस्य पञ्चविंशतिभेदाः, यथा - कषायमोहनीय १ - नोकपायमोहनीय२ - भेदेन चारित्रमोहनीयं द्विविधम् । तत्र कषायमोहनीयस्य पोडश भेदा भवन्ति, यथा- अनन्तानुबन्धी क्रोधी मानो, माया, लोभः ४, अनन्तः = संसारो नारक-तिर्यगू- मनुष्य-देवजन्म- जरा मरण- परम्परालक्षणः, तदनुबन्धादनन्तानुवन्धिनः क्रोधमानमायालोभाश्रत्वारः कपायाः ४ । कपायाः ४ । तत्र क्रोधः- कृत्याकृत्यविवेकोन्मूलकाऽक्षमारूप आत्मपरिणामः । मानो-गर्वः, माया- शाठयम्, लोभो - गृध्नुता । अनन्तानुबन्धि
(४) मोहनीय की अट्ठाईस - सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय, ये तीन दर्शनमोहनीय की, तथा पच्चीस चारित्रमोहनीय की कुल अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं । चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं--चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं--कपायचारित्रमोहनीय, और नोकपाय चारित्रमोहनीय । कपायचारित्रमोहनीय के सोलह भेद हैं, जैसे- अनन्तानुबंधी को मान, माया, लोभ, 1 जो कपाय, नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में जन्म जरा-मरणरूप अनन्त संसार का अनुबंध करे, वह अनन्तानुवन्धी है। उस के चार भेद हैं--कोष, मान, माया और लोभ । कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को नष्ट कर देने वाला अक्षमारूप आत्मा का परिणाम क्रोध कहलाता है । गर्वको मान कहते हैं । माया का अर्थ कपट है । गृद्धिभाव (लालच) लोभ कहलाता है । अनन्तानुबन्धी कपायचतुष्क में क्रोध को पर्वत की राजि
1
(४) मोहनीयम्र्मनी महावीस छे. (१) सभ्यद्दत्यमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने મિથ્યાત્વમેહનીય, આ ત્રણ દનમેહનીયની, તથા પચીસચારિત્રમાહનીયની, એ પ્રમાણે કુલ અઠ્ઠાવીસ પ્રકૃતિ છે. ચારિત્રમેહનીયની પચીસ પ્રકૃતિએ આ પ્રમાણે છેઃशास्त्रिमोहनीयना मे ले छे. (१) उपाययारित्र मोहनीय मने (२) नोउपाययारित्रमोहनीय, उपाययास्त्रिभेोडुनीयना सोण लेह छे. रेम-अनन्तानुण घी शेष, भान, भाया, बोल, જે કષાય નારક, તિય ચ, મનુષ્ય, અને દેવગતિમાં જન્મ, જરા, મરણુરૂપ અનન્ત સંસારના અનુબંધ કરે તે અનન્તાનુખ'ધી છે. તેના ચાર ભેદ છે, ક્રોધ, માન, માયા અને લેાલ, કવ્ય-અકર્ત્તવ્યનાં વિવેકના નાશ કરવાવાળા અક્ષમારૂપ આત્માને પરિણામ તે ક્રોધ કહેવાય છે. ગર્ભને માન કહે છે. માયાને અ` કપટ છે. લાલચ તે લાભ કહેવાય છે, અનન્તાનુબધી કષાયચતુષ્કમાં ક્રોધને પર્વતની રાજિનું (પત્ત કપાવાથી
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आधाराने कपायचतुष्टये क्रोधस्य पर्वतराजिा, मानस्य शैलस्तम्भः, मायायाः वंशमूलं, लोभस्य-कृमिजरागः, उदाहरणम् ।
एवममत्याख्यानावरणीयकपाया: क्रोधादयश्चत्वारा४। तत्र प्रत्याख्यान द्विविधम् - देशविति-सर्वविरति-भेदात् । प्रत्याख्यानमित्यत्र प्रतिशब्दः। पतिपेधवाची, प्रतिपेधस्याख्यान प्रकाशनम्-प्रत्याख्यानम् । 'सर्वान् माणिनो न हन्मि यावज्जीयम्' इत्यादि भावतः स्वाचार्यादि समीप
प्रकाशनमित्यर्थः । प्रत्याख्यानस्यावरणीयम् प्रत्याख्यानावरणीयम्, न प्रत्याख्यानावरणीयम् = अपत्याख्यानावरणीयम् । अत्रोपमार्यो ‘न-शन्दः ।
(पर्वत फटने से उत्पन्न हुई दरार) का, मान को शैलस्तंभका, मायाको वासकी लडका और लोमको किरमिची रंगका उदाहरण दिया गया है।
इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण के कोष आदि चार भेद हैं । प्रत्याख्यान दो प्रकारका है-देशविरति और सर्वविरति । 'प्रत्याख्यान' शब्द में 'प्रति' उपसर्ग निषेध वाचक है, अर्थात् प्रतिपेध का प्रकाश करना प्रत्याख्यान है, अर्थात् "मैं जीवनपर्यन्त किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करूँगा" इत्यादि प्रकार से भावपूर्वक अपने आचार्य आदि के समक्ष प्रकाशित फरना प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का आवरणीय प्रत्याख्यानावरणीय कहलाता है। जो प्रत्याख्यानावरणीय न हो वह अप्रत्याख्यानावरणीय है। यहाँ 'न' शब्द उपमा के अर्थ में है, अर्थात् जो कपाय प्रत्याख्यानावरणीय के समान हो वह अप्रत्याख्यानावरणीय
ઉત્પન્ન થયેલી ફાટ-ચીર) માનને લિસ્તંભનું, માથાને વાંસની જડનું અને લોભને કિમીચ રંગનું ઉદાહરણ આપ્યું છે.
આ પ્રમાણે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણના ક્રોધ આદી ચાર ભેદ છે. પ્રત્યાખ્યાન બે stal छ-शिविरति मन समिति 'प्रत्याख्यान' शम्भ 'प्रति' स निबंधવાચક છે. અર્થાત્ પ્રતિધને પ્રકાશ કરે તે પ્રત્યાખ્યાન છે. અર્થાતુ જીવન સુધી કઈ પણ પ્રાણીની હિંસા કરીશ નહી.” ઈત્યાદિ પ્રકારે ભાવપૂર્વક પિતાના આચાર્ય આદિના સમક્ષ પ્રકાશિત કરવું તે પ્રત્યાખ્યાન છે. પ્રત્યાખ્યાન ન આવરણીય પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય
पाय 2.२ प्रत्याभ्यानापरणीय नाय ते अप्रत्याध्यानातीय छे. महिन' પદ ઉપમાના અર્થમાં છે. અર્થાત્---જે કષાય પ્રત્યાખ્યાનાવરણીયની સમાન હોય તે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે. અથવા “ અલ્પ- એવા અર્થ : -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० . ३६१. मत्याख्यानावरणीयवत् = अप्रत्याख्यानावरणीयम् । यद्वा-अल्पार्थो नम् , अल्पं प्रत्याख्यानम् अप्रत्याख्यानम् , तस्यावरणीयमिति ।अल्पंन्देशविरतिरूपं मत्याख्यान समारणोति कपायचतुष्टयम् , तस्मादप्रत्याख्यानावरणीयमित्युच्यते । यः कपायः स्वल्पं देशविरतिरूपमाणोति स सर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानमाणो. स्येवेति नात्र चित्रम् । यत्कर्मोदयादाविर्भूताः कपायाः केवलं विरतिमात्रमावृण्वन्तिं ते त्वमत्याख्यानावरणीयाः कषायाः।
एवं प्रत्याख्यानावरणीयकषायाः क्रोधादयश्चत्वारः । अत्र प्रत्याख्यानशब्देन सर्वविरतिपरिग्रहः । ये पुनः केपायाः सर्वविरतिमेव मंतिवध्नन्ति, न तु देशविरतिं ते प्रत्याख्यानावरणीया इति ।
कहलाता है। अथवा 'न' अल्प-अर्थ में है, अर्थात् अल्प प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान कहलाता है, उसका आवरणीय अप्रत्याख्यानावरणीय है । यह फपायचतुष्टय अल्प अर्थात् देशविरतिरूप प्रत्याख्यान को आवृत करता है, इस कारण यह अप्रत्याख्यानावरणीय कहलाता है । जो कपाय स्वल्प देशविरति को भी नहीं होने देता वह सर्वविरति को न होने दे, इस में आश्चर्य ही क्या है ? । जिस कर्म के उदय से आविभूर्त कपाय केवल विरतिमात्र को रोकते हैं, वे अप्रत्याख्यानावरणीय कहलाते हैं।
इसी प्रकार क्रोध आदि चार प्रत्याख्यानावरणीय हैं। यहा प्रत्याख्यान शब्द से सर्वविरति का ग्रहण किया गया है । जो कपाय, सिर्फ सर्वविरति का ही घात करते हैं, देशविरति का नहीं वे प्रत्याख्यानावरणीय कहलाते हैं ।
અપ પ્રત્યાખ્યાન અપ્રત્યાખ્યાને કહેવાય છે. તેનું આવરણ્ય અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય છે. આ કષાયચતુષ્ટય અલ્પ અર્થાત દેશવિરતિરૂપ પ્રત્યાખ્યાનને આવૃત કરે છે (ઢાંકી દે છે). એ કારણથી એ અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે. જે કષાય સ્વલ્પ દેશવિરતિને પણ થવા દેતા નથી. તે સર્વવિરતિને નહિ થવાદે. એમાં આશ્ચર્યજ શું છે? જે કર્મના ઉદયથી આવિર્ભીત (ઉત્પન્ન થયેલા) કષાય કેવલ વિરતિમાત્રને રેકે છે. તે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે.
આ પ્રમાણે ક્રોધ આદિ ચાર પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય છે, અહિં પ્રત્યાખ્યાન શખથી સર્વવિરતિનું ગ્રહણ કર્યું છે. જે કષાય, માત્ર સર્વવિરતિને ઘાત કરે છે, દેશવિરતિને નહી, તે પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે.
म आ.-४६
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आचारायंत्रे
कषायचतुष्टये क्रोधस्य पर्वतराजिः, मानस्य शैलस्तम्भः, मायायाः-वंशमूलं, लोभस्य कमिजरागः, उदाहरणम् ।
एवममत्याख्यानावरणीयकपायाः क्रोधादयश्चत्वारः ४ । तत्र प्रत्याख्यानं द्विविधम् - देशविति - सर्वविरति - भेदात् । प्रत्याख्यानमित्यत्र प्रतिशब्दः । प्रतिपेधवाची, प्रतिपेधस्याख्यान=प्रकाशनम् - मत्याख्यानम् । 'सर्वान् प्राणिनो न हन्मि यावज्जीवम्' इत्यादि भावतः स्वाचार्यादि समीपे प्रकाशनमित्यर्थः । प्रत्याख्यानस्यावरणीयम् प्रत्याख्यानावरणीयम्, न प्रत्याख्यानावरणीयम् = अमत्याख्यानावरणीयम् । अत्रोपमार्थो 'नन् ' - शब्दः ।
(पर्वत फटने से उत्पन्न हुई दरार ) का, मान को शैलस्तंभका, मायाको वांसकी जडका और लोrat किरमिची रंगका उदाहरण दिया गया है ।
इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण के क्रोध आदि चार भेद हैं । प्रत्याख्यान दो प्रकारका है- देशविरति और सर्वविरति । 'प्रत्याख्यान ' शब्द में 'पति' उपसर्ग निषेषवाचक है, अर्थात् प्रतिषेध का प्रकाश करना प्रत्याख्यान है, अर्थात् " मैं जीवनपर्यन्त किसी भी प्राणीको हिंसा नहीं करूँगा " इत्यादि प्रकार से भावपूर्वक अपने आचार्य आदि के समक्ष प्रकाशित करना प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान का भावरणीय प्रत्याख्यानावरणीय कहलाता है । जो प्रत्याख्यानावरणीय न हो वह अप्रत्याख्यानावरणीय है । यहाँ 'नन् ' शब्द उपमा के अर्थ में है, अर्थात् जो कषाय प्रत्याख्यानावरणीय के समान हो वह अप्रत्याख्यानावरणीय
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ઉત્પન્ન થયેલી ફાટ—ચીર) માનને શલસ્તલનું, માયાને વાંસની જડન અને લેાલને રિમીચ રંગનું ઉદ્દાહરણ આપ્યું છે.
આ પ્રમાણે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણના કોષ આદી ચાર ભેદ છે. પ્રત્યાખ્યાન એ प्रहारना छे-देशविशति भने सर्वांविरति 'प्रत्याख्यान' शब्दभां 'प्रति' उपसर्ग निषेधવાચક છે. અર્થાત્ પ્રતિષેધના પ્રકાશ કરવે તે પ્રત્યાખ્યાન છે. અર્થાત્ હું જીવન સુધી કોઈ પણ પ્રાણીની હિંસા કરીશ નહી.’ ઇત્યાદિ પ્રકારે ભાવપૂર્વક પેાતાના આચાય આદિના સમક્ષ પ્રકાશિત કરવું તે પ્રત્યાખ્યાન છે. પ્રત્યાખ્યાન ને આવરણીય પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય देवाय छे. ने प्रत्याभ्यानावरणीय न होय ते अप्रत्याभ्यानावरणीय है: अडि 'नन्' શબ્દ ઉપમાના અર્થ માં છે. અર્થાત્ જે કષાય પ્રત્યાખ્યાનાવરણીયની સમાન હેય તે अप्रत्याभ्यानावश्ट्रीय द्वेषाय छे, अथवा 'नम्' मथेोडु शेषा अर्थभां छे. अर्थात्
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जुगुप्सा, पुरुषवेदारस्य नव भेदाः लोभस्य-हरिद्वारा मानस्य-चणस्तम्भ
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. सं.५. कर्मवादिप्र०
प्रत्याख्यानावरणीयफपायचतुष्टये क्रोधस्य-चालुकाराजिः, मानस्यकाष्ठस्तम्भः, मायाया-गच्छद्वलीवर्दमूत्रिका, लोभस्य-खजनरागः। ..
संज्वलनकपायचतुष्टये क्रोधस्य-सलिलराजिः, मानस्य-तणस्तम्भः, मायाया-रथकारतक्षितकाष्ठसंवलितत्वक , लोभस्य-हरिद्राराग इति ।
नोकपायमोहनीयस्य नव भेदाः सन्ति-हास्य, रतिः, अरति, शोकः, भयं, जुगुप्सा, पुरुषवेदः, स्त्रीवेदः, नपुंसकवेद इति २५। . . . .
(५) आयुष्यकर्म चतुर्विधम्-नारक-तैर्यग्-मानुप-दैवायुर्भेदात् । यस्योदयात् मायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायीभूत आत्मा नारकादिभावेन जीवति, यस्य च
प्रत्याख्यानावरणीय कपाय की चौकडी के उदाहरण-क्रोध का उदाहरण बालू में खींची हुई लकीर है। मान का उदाहरण काठका खंभा है । माया का उदाहरण चलते .हए वैल के मूत्र की टेढ़ी-मेढी लकीर है और लोम का उदाहरण खंजन-राग है। ___संञ्चलन कपाय की चौकडी के उदाहरण-क्रोध का उदाहरण जल में बनाई हुई लकीर है । मानका उदाहरण तिनके का स्तम्भ है । माया का उदाहरण बढई द्वारा छीले हए काठका छिलका है, और लोभ का उदाहरण हलदी का रंग है।
नोकपाय मोहनीय के नौ भेद हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद २५।।
(५) आयुष्य कम के चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवाय । जिस कर्म के उदय से प्रायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायी अर्थात् जिस कर्म के उदय से उस-उस गतियोग्य प्रकृतिविशेप में स्थित आत्मा नारक आदि के रूप में जीता है
પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કષાયની ચેકડીનું ઉદાહરણ–ક્રોધનું ઉદાહરણ–રેતીમાં કરેલી લીટી છે. માનનું ઉદાહરણકાષ્ઠને થાંભલે છે. માયાનું ઉદાહરણ–ચાલતા બળદીઓના મૂત્રની વાંકી-ચૂંકી લીંટી છે, અને લેભનું ઉદાહરણું-ખંજન–રાગ છે.
- સંજવલન કષાયની ચાકડીના ઉદાહરણ-ક્રોધનું ઉદાહરણ–પાણીમાં કરેલી લીટી છે. માનનું ઉદાહરણ તણખલાને થાંભલે છે. માયાનું ઉદાહરણ બહઈ દ્વારા (સુતાર દ્વારા) છોલેલા લાકડાની છાલ છે અને લેભનું ઉદાહરણ-હલદરને રંગ છે.
नषायमानीयंना नप से छ-हास्य, २ति, मति, As, लय, शुस्सा, पुरुष, स्त्रीवह, मने नधुस४३६. २५.
(4) मायुध्य-४भना या२ ले छ-न२४ायु, तिर्थयायु, मनुष्यायु, मन वायु. જે કર્મના પ્રોગ્યપ્રકૃતિવિશેષાનુશાયી, અર્થાત્ જે કર્મના ઉદયથી તેને ગતિગ્ય પ્રકૃતિવિશેષમાં સ્થિત આત્મા નારકી આદિના રૂપમાં આવે છે, અને જેના ક્ષયથી મરણું
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भाचाराङ्गसूत्रे
देशविरतिसर्वविरतिरूपस्य
परिणामद्वयस्योत्पत्तेर्विधा
तकत्वात् प्रत्याख्यानावरणीया उच्यन्ते, न तु विद्यमानस्य प्रत्याख्यानस्य
विघातकतयेति तत्त्वम् |
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प्रत्याख्यानस्य
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एवं संज्वलन पायाः क्रोधादयश्चत्वारः ४ । समस्त सावद्ययोगविरतं संयमतमपि यति दुःसहपरिपदसंपाते संज्वलयन्ति = मालिन्यमापादयन्ति - इति संज्वलनाः । (१६) |
दृष्टान्ता
अ प्रत्याख्यानावरणीयकपायचतुष्टये उच्यन्ते - क्रोधस्यतडागभूमिराजिः, मानस्यास्थिस्तम्भः, मायायाः मेपशुङ्गः, लोभस्य कर्दमरागः ।
देशविरति और सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान की उत्पत्ति का घातक होने से इसे प्रत्याख्यानावरणीय कहते हैं, पहले से विद्यमान प्रत्याख्यान का घातक होने से नहीं ।
इसी प्रकार क्रोध आदि चार संज्वलन कपाय हैं । सब प्रकार के सावध योग से निवृत्त संयम में लीन मुनि को दुःसह परीपह उपस्थित होने पर जलाने वाला अर्थात् मलिनता उत्पन्न करने वाला कषाय संज्वलन कहलाता है ।
अप्रत्याख्यानावरणीयकपायचौकडी के दृष्टान्त बतलाते हैं - क्रोध का दृष्टान्त तडागभूमिराजि है, अर्थात् तालाव की भूमि फटने से उत्पन्न होनेवाली दरार के समान यह क्रोष होता है । मान का उदाहरण हड्डीका स्तंभ है । मायाका उदाहरण मेढाका सींग है और लोभ का दृष्टान्त गाडी का ओंगन ( गाडी के पैये में दिये हुए तेल का कीटा ) है |
દેશવરતિ અને સર્વવિરતિરૂપ પ્રત્યાખ્યાનની ઉત્પત્તિનું ઘાતક હાવાથી તેને પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહે છે, પહેલાથી વિદ્યમાન પ્રત્યાખ્યાનનું ઘાતક હાવાથી નહિ.
એ પ્રમાણે ક્રોધ આદિ ચાર સંજ્વલન કષાય છે, સ પ્રકારના સાવદ્ય ચેાગથી નિવૃત્ત, સૌંયમમાં લીન મુનિને દુસ્સહ પરીષહે આવી પ્રાપ્ત થતાં જલાવવાવાળા અર્થાત્ મલિનતા ઉત્પન્ન કરવાવાળા કષાય સજ્વલન કહેવાય છે.
અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય–કષાય–ચેાકડીનું દૃષ્ટાન્ત ખતાવે છે ક્રોધનુ' દૃષ્ટાન્ત તલાવની ભૂમિરાજિ છે. અર્થાત્ તલાવની ભૂમિ ફાટવાથી ઉત્પન્ન થયેલી ફાટ-ચીરના સમાન એ ક્રોધ હેાય છે. માનનું ઉદાહરણ હાડકાંને સ્તંભ છે. માયાનું ઉદાહરણ ઘેંટાનાં સીંગ છે, અને લાભનું દૃષ્ટાન્ત ગાડીની મળી (ગાડીનાં પૈડાંમાં અપાયેલા તેલનું કીટ્ટુ) છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. सू.५. कर्मवादिम०
३६५ नाम, (१४) आनुपूर्वीनाम, (१५) अगुरुलधुनाम, (१६) उपघातनाम, (१७) पराघातनाम, (१८) आतपनाम, (१९) उद्योतनाम, (२०) उच्लासनाम, (२१) विहायोगविनाम, (२२) प्रत्येकशरीरनाम, (२३) साधारणशरीरनाम, (२४) सनाम, (२५) स्थावरनाम, (२६) मुभगनाभ, (२७) दुर्भगनाम, (२८) मुस्वरनाम, (२९) दुस्स्वरनाम, (३०) शुभनाम, (३१) अशुभनाम, (३२) सूक्ष्मनाम, (३३) वादरनाम, (३४) पर्याप्तनाम. (३५) अपर्याप्तनाम, (३६) स्थिरनाम, (३७) अस्थिरनाम, (३८) आदेयनाम, (३९) अनादेयनाम, (४०) यशोनाम, (४१) अयशोनाम, (४२) तीर्थङ्करनाम ।
एते मूलभेदाः पिण्डप्रकविनाम्नापि कथ्यन्ते । अत्र गत्यादिचतुर्दशपिण्डप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतयः- पञ्चपष्टिः (६५)। (१५) अगुरुलधुनाम, (१६) उपघातनाम, (१७) पराघातनाम, (१८) आतपनाम, (१९) उद्योतनाम, (२०) उच्चासनाम, (२१) विहायोगतिनाम, (२२) प्रत्येकशरीरनाम, (२३) साधारणशरीरनाम, (२४) सनाम, (२५) स्थावरनाम, (२६) सुभगनाम, (२७) दुर्भगनाम, (२८) सुस्वरनाम, (२९) दुस्वरनाम, (३०) शुभनाम, (३१) अशुभनाम, (३२) सूक्ष्मनाम, (३३) चादरनाम, (३४) पर्याप्तनाम, (३५) अपर्याप्तनाम, (३६) स्थिरनाम, (३७) अस्थिरनाम, (३८) आदेयनाम, (३९) अनादेयनाम, (४०) यशःकीर्तिनाम, (४१) अयशःकीर्तिनाम, और (१२) तीर्थकरनाम-कर्म ।
इन बयालीस प्रकृतियों में जिन प्रकृतियों के भवान्तर मेद हैं, उन्हें पिण्डप्रकृति कहते हैं । गति आदि चौदह पिण्डप्रकृतिया हैं और उनके पैंसठ (६५) मेद होते हैं।
भY३मधुनाम, (१६) यातनाम,(१७)पराघातनाम, (१८)मातपनाम, (REGधोतनाम, (२०) वासनाम, (२१) विडायोगतिनाम, (२२) प्रत्ये शरीरनाम, (२3) साधारयशरीरनाम, (२४) सनाभ, (२५) स्थापनाम, (२९) सुभानाभ,(२७) नाम, (२८) सुस्वनाम, (२६) दु:५२नाम, (30) शुमनाम, (31) मशुमनाम, (३२) सूक्ष्मनाभ, (33) मारनाम, (३४) पर्यातनाम, (34) अपर्याप्तनाम, (३६) स्थिरनाभ, (७) मस्थिरनाम, (३८) माहेयनाम, (३८) मनायनाम, (४०) यशवर्तिनाम, (४१) स्मयशःप्रीतिनाम, (४२) तीर्थ ४२नाम-म.
આ બેંતાલીસ પ્રકતિઓમાં જે પ્રકૃતિના અવાન્તર ભેદ છે, તેને પિંઠપ્રકૃતિ ४४ छ. गति माहि यो: पिंप्रतिमा छ. मने पांसह (६५) तेना ले छ...
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आचाराङ्गमुत्रे
क्षयान्मृत उच्यते, तदायुः । यद्वा-आनीयन्ते शेपमकृतयः उपभोगाय जीवेन यस्मिन्, तदायुः । यथा- कांस्यादिपात्रे शाल्योदनव्यन्जनादयो भोक्त्रा भोक्तुमानीयन्ते, तद्वत् ।
(६) नमयति = प्रापयति नारकादिसंज्ञां जीवमिति नाम । नामकर्मत्रिनवतिर्भेदाः भवन्ति ।
तत्र मूलमेदाः द्विचत्वारिंशत् । तथाहि
(१) गतिनाम, (२) जातिनाम, (३) शरीरनाम, (४) अङ्गोपाङ्गनाम, (५) निर्माणनाम, (६) बन्धननाम, (७) संघातनाम, (८) संस्थाननाम, (९) संहनननाम, (१०) वर्णनाम, (११) गन्धनाम, (१२) रसनाम, (१३) स्पर्श
और जिस के क्षय से मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं । अथवा जिस में जीव भोगने के लिए अन्य प्रकृतियों को लाता है वह आयु है, जैसे कांसे आदि के भाजन में चावल, ओदन, व्यंजन आदि वस्तुएँ भोगने वाला पुरुष लाता है, उसी प्रकार शेप प्रकृतियाँ आयु में भोगी जाती हैं ।
(६) नाम-कर्म के तेरानवे (९३) भेद -- जो कर्म जीव को नारक आदि संज्ञाओं का पात्र बनाता है, वह नामकर्म कहलाता है । उसके तेरानवे भेद हैं । उन में भी मूल भेद बयालीस हैं, वे इस प्रकार -- (१) गतिनाम, (२) जातिनाम, (३) शरीरनाम, (४) अङ्गोपाङ्ग - नाम; (५) निर्माणनाम, (६) बन्धननाम, (७) संघातनाम, (८) संस्थाननाम, ( ९ ) संहनननाम (१०) वर्णनाम, (११) गन्धनाम, (१२) रसनाम, (१३) स्पर्शनाम, (१४) आनुपूर्वीनाम,
પામે છે, તેને આયુક્રમ કહે છે અથવા જેમાં જીવ લાવે છે તે આયુ છે. જેમ કે કાંસા આઢિના (શાક) આદિ વસ્તુઓ ભાગવવાવાળા પુરૂષ લાવે છે ભાગવાય છે.
અન્ય પ્રકૃતિએને લાગવવા માટે વાસણમાં ચાખા, ભાત, વ્યંજન તે પ્રમાણે શેષ-પ્રકૃતિએ આયુમાં
(६) नाभर्भुना त्राशु (३) लेह छे. उर्भ वने नारी आदि संज्ञामनु मात्र मनावे छे, ते नाभम्भ हवाय छे, तेना त्रायु (3) लेह छे, तेमां पयु - भूस लेड में'तासीस छे. ते या प्रभालु - (१) जतिनाभ, (२) लतिनाभ, (3) शरीरनाभ, (४) सगेोयांगनाभ,(च) निर्भाणुनाभ,(१) अ धननाभ, (७) सौंधातनाभ, (८) संस्थाननाम, (ङ) स·उन्ननाम, (१०) वक्षुभान,(११)(धनाभ, (१२) रसनाभ, (१३) स्पर्शनाभ, (१४) आनुपूर्वीनाभ, (१५)
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. १.५ कर्मवादिम०
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पृष्टम्, उदरं, करौ पादौ च । चन्दने तु पञ्चाङ्गान्येव प्रशस्तानि - द्वौ चरणौ द्वौ करौ, शिरवेति । तत्र चरणावित्यनेन जानुनी गृह्येते । एतानि पञ्चाङ्गानि भूमावारोप्य वन्दनं पञ्चाङ्गवन्दनम् । अष्टानामङ्गानामेकैकस्योपाङ्गमनेकमकारम्, तत्र शिरोङ्गस्योपाङ्गनामानि - यथा - मस्तिष्क - कपाल - कृकाटिका - शङ्ख-ललाटतालु कपोल - हनु - चिबुक -दशनी - प्ठ-भ्रू नयन- कर्ण - नासादीनि । तत्र मस्तिष्कं शिरोऽङ्गस्यारम्मकोऽवयवः ।
ननु मस्तिष्कं धातुविशेषो न त्वङ्गं नाप्युपाङ्गम् ? इति चेत्, उच्यते-कपालादिवत् शिरोऽङ्गस्यारम्भकत्वान्मस्तिष्कमप्युपाङ्गं शिरसोऽवगन्तव्यम् । स्थावरपञ्चके तूरःप्रभृतीन्यङ्गानि न सन्ति ।
पैरो का अभिप्राय घुटना समझना चाहिए। इन पांचों अङ्गों को भूमि पर टिका कर वन्दना करना पञ्चाङ्गचन्दना है । इन आठो भङ्गों में से प्रत्येक अङ्ग के अनेक उपाङ्ग हैं । उन में से सिरभङ्ग के उपाङ्ग इस प्रकार हैं-मस्तिष्क, कपाल, कृकाटिका, शंख, ललाट, तालु, कपोल, हनु, दाडी, चिवुक (ठोडी) दांत, ओठ भौंह, नेत्र, कान, नाक, आदि । मस्तिष्क, शिररूप अङ्ग का आरम्भक अवयव है ।
'मस्तिष्क एक प्रकार की धातु है, अङ्ग नहीं है और न उपाङ्ग ही है' इसका समाधान यह है कि- कपाल आदि के समान सिररूप अङ्गका आरम्भक होने के कारण मस्तिष्क शिर का उपाङ्ग, ही है ।
पांच स्थावरों में छाती आदि अङ्ग नहीं होते ।
પગના અભિપ્રાય ઘુંટણ સમજવું જોઇએ. આ પાંચ અંગેાને ભૂમિપર અડાડીને વંદના કરવી તે પંચાંગ વંદના છે. આ આઠે અંગામાંથી પ્રત્યેક અંગનાં અનેક ઉપાંગ છે, तेभांथी शिर-अंजना यांग मा प्रभा छे—भस्तिष्णु, प्रयास, अटिभ (श्रीवाना उन्नत हेश) शम (४णु सभीपनु अस्थि) ससार, तालु, गास, हाढी, शिशु (डडपंथी पश्येना छाछ२ भाडा) हांत, गोड, लोड, नेत्र, धान, नाउ यहि मस्तिष्ठ शिर३५ અંગનું આરભક અવયવ છે.
મસ્તિષ્ક એક પ્રકારની ધાતુ છે, અંગ નથી અને પ્રત્યંગ પણ નથી • તેનું સમાધાન એ છે કે-કપાલ આદિ પ્રમાણે શરરૂપ અંગનું આરંભક હાવાના કારણે મસ્તિષ્ક, શિરનું ઉપાંગજ છે.
પાંચ સ્થાવરામાં છાતી આદિ અંગ નથી.
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आचारायचे [१] गतिनाम्नः पिण्टमकतेश्चत्वारो मेदा:- नरकगतिनाम, तिर्यग्गतिनाम, मनुष्यगतिनाम, देवगविनाम च ।
[२] जातिनाम्नो भेदा: पञ्च - एकेन्द्रियजाविनाम, द्वीन्द्रियनातिनाम, त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियजाविनाम, पञ्चेन्द्रियजाविनाम ।
[३] शरीरनाम पञ्चविधम्-औदारिकशरीरनाम, वैक्रियशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मगशरीरनाम ।
[४] अङ्गान्युपानि च यस्य कर्मण उदयाद्भवन्ति, तदङ्गोपाङ्गनामकर्म । तत् त्रिविधम्-औदारिक-वैक्रियका-ऽऽहारक-भेदात् । तत्राङ्गान्यष्टो-उरः, शिरः,
[१] गतिनामकर्म के चार भेद-नरकगतिनामकर्म, तियंचगतिनामकर्म, मनुष्यगतिनामकर्म और देवगतिनामकर्म।
[२] जातिनामकर्म के पांच भेद हैं-एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रियनातिनाम, चतुरिन्द्रियजातिनाम और पञ्चेन्द्रियजातिनाम-कर्म ।
[३] शरीरनामकर्म के पांच भेद हैं-औदारिकशरीरनाम, वैक्रियशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम और कार्मणशरीरनाम-कर्म ।
[५] जिस कर्म के उदय से अङ्ग और उपाङ्ग होते हैं वह अङ्गोपाङ्गशरीरनामकर्म, कहलाता है । उसके तीन भेद हैं औदारिक-अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग और आहारक अङ्गोपाङ्ग । इन में अङ्ग आठ होते हैं-छाती, सिर, पीठ, पेट, दो हाथ और दो पैर । वन्दना करने में पांच अङ्ग प्रशस्त माने जाते हैं-दो पैर, दो हाथ, और सिर । यहाँ
(१) शतिनामभना यार लेह-२४ातिनामभ, तिय यातिनाम, મનુષ્યગતિનામકર્મ અને દેવગતિનામ-કમ.
(૨) જાતિનામકર્મના પાંચ ભેદ છે–એકેન્દ્રિય જાતિનામ, દ્વિીન્દ્રિયાતિનામ, ત્રિીન્દ્રિય જાતિનામ, ચતુરિન્દ્રિય જાતિનામ, અને પંચેન્દ્રિયજાતિનામ-કર્મ.
(૩) શરીરનામકર્મના પાંચ ભેદ છે–દારિકશરીરનામ, વૈદિયશરીરનામ, આહારકશરીરનામ, તિજ શરીરનામ, અને કાર્મgશરીરનામ-કમ.
જે કર્મના ઉદયથી અંગ અને ઉપાંગ થાય છે તે અંગે પાંગશરીરનામકર્મ કહેવાય છે. તેના ત્રણ ભેદ છે. દારિક અંગોપાંગ, ક્રિયઅંગે પાંગ અને આહારક
અંગોપાંગ તેમાં અંગ આઠ હોય છે– છાતી, શિર, પીઠ, પેટ બે હાથ અને બે પગ. વદના કરવામાં પાંચ અંગ પ્રશસ્ત માન્યાં છે. બે પગ બે હાથ અને શિર--માથું. અહિં
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु.५ कर्मवादिम०
कारणानुरूपं हि कार्य दृष्टम् । संघातविशेषादेव हि विभागेन पुरुषादिशरीरव्यपदेशी भवति । संघातनाम पञ्चधा - औदारिकादिभेदात् ।
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[७] वध्यमानेषु शरीरयोग्यपुद्गलेषु यस्य कर्मण उदयात् आकारविशेषो भवति तत् संस्थाननाम । एतच पडूविधम्- (१) समचतुरस्रनाम - ( २ ) न्यग्रोधपरिमण्डलनाम- (३) सादिनाम- (४) कुब्जनाम - (५) वामननाम - (६) हुण्डनामभेदात् ।
[८] संहनननाम-अस्त्रां बन्धविशेषः । तच पविधम्- (१) वज्रभनाराचनाम, (२) अर्धवञ्जर्पभनाराचनाम, (३) नाराचनाम, (४) अर्धनाराचानाम्, (५) कीलिकानाम, (६) सेवार्तनाम च ।
ही होता है । संघात की भिन्नता के कारण ही शरीरों में स्त्री, पुरुष आदिका भेद-व्यवहार होता है । औदारिक आदि के भेद से संघात भी पांच प्रकार का है ।
[७] बांधे जाते हुए शरीरयोग्य पुद्गलों में जिस कर्म के उदय से आकृति - विशेष बनता है उसे संस्थाननामकर्म कहते हैं । संस्थान छह प्रकारका है --
(१) समचतुरस्र - संस्थान, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल- संस्थान, (३) सादि-संस्थान, (४) कुब्जक - संस्थान, (५) वामन-संस्थान, (६) हुण्डक-संस्थान ।
[८] अस्थियों के बन्धविशेष को संहनननामकर्म कहते हैं । उसके छह भेद हैं(१) बज्रर्षभनाराच संहनन, (२) अर्धचज्रर्षभनाराच संहनन, (३) नाराच संहनन, (४) अर्धनाराच संहनन, (५) कोलिका - संहनन और (६) सेवार्त - संहनन ।
કાર્યું, કારણ જેવાંજ હાય છે. સંધાતની ભિન્નતાના કારણેજ શરીરામાં સ્ત્રી, પુરૂષ આદિના ભેદ-વ્યવહાર હાય છે. ઔદારિક આદિના ભેદથી સંઘાત પણ પાંચ પ્રકારના છે.
(૭) ખંધાતા શરીરયેાગ્ય પુદ્ગલામાં જે કમના ઉદયથી આકૃતિવિશેષ મને છે. તેને સસ્થાનનામકર્મ કહે છે. સસ્થાન છ પ્રકારના છે—(૧) સમચતુરસ-સસ્થાન, (२) न्यग्रोधपरिभउदा-सस्थान (3) साहि- संस्थान, (४) ३००४४ - संस्थान, (4) वाभन-संस्थान, (६) हु38- संस्थान.
(८) अस्थिमोना अंधविशेषने संडुनननाभम्भ
छे. तेना छ ले छे:ऋषनारायनन, (२) अर्धवऋपलनाशयसंडेनन, (3) नाशयस हनन, (४) अर्धनारायस डेनन, (4) डीसिअस इनन भने (६) सेवातसडेनन.
(१)
प्र. आ. ४७
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आचारात्
(५) शरीरनामकर्मोदयाद् गृहीतेषु गृह्यमाणेषु या तद्योग्यपुनलेष्वात्मप्रदेशस्थितेषु शरीराकारेण परिणामितेष्वपि जतुकाष्ठवत् परस्परमवियोगलक्षणं चन्धननाम । यदीदं न स्यात् ततो वालुकापुरुषवद् विघटितानि शरीराणि स्युः । बन्धननाम पञ्चधा - भौदारिकादिभेदात् ।
(६) काष्ठपिण्डमृत्पिण्डायः पिण्डवत् वद्धानामपि पुद्गलानां संघातविशेषजनकं संघातनाम । यदि संघातनामरूपः कर्ममेदो न स्यात्तर्हि पुरुषयोषिद्गवादिरूपनानाशरीरभेदो न स्यात् । संघातविशेपजनकाऽन्यकर्मविशेषाभावात् ।
[५] शरीरनामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए या ग्रहण किये जाते हुए आत्मप्रदेशों में स्थित और शरीर के आकार परिणत किये हुए शरीर के योग्य पुद्गलों में लाख और लकडी के समान परस्पर अवियोग होना बन्धननामकर्म है, अगर बन्धननामकर्म न होता तो वाल से बनाये हुए पुरुष के समान बिखर जाता । औदारिक आदि के भेद से बन्धन के भी पांच भेद हैं ।
[६] काष्ठपिंड, मृत्तिकापिंड या लोह के पिंड के समान बद्ध पुगलों में भी एक विशेष प्रकार का संघात ( घनिष्ठता ) उत्पन्न करने वाला कर्म संघातनामकर्म कहलाता है, और संघातनामकर्म न होता तो पुरुष स्त्री गो आदिरूप भेद शरीर में न होता, क्यों कि संघात विशेष उत्पन्न करने वाला अन्य कर्म ही नहीं है । कार्य, कारण जैसा
(૫) શરીરનામકમના ઉદયથી ગ્રહણુ કરેલા અથવા ચણુ કરવામાં આવતા આત્મપ્રદેશમાં સ્થિત અને શરીરના આકારે પરિણત કરેલા શરીરના ચેાગ્ય પુદ્દગલામાં લાખ અને લાકડીના સમાન અવિયેાગ હોવું તે બંધનનામેકમ' છે. અથવા અર્ધનનામ કમ ન હોત તે રેતીથી બનાવેલા પુરૂષની સમાન વિખેરાઈ જાત. ઔદારિક આદિના ભેદથી ખંધનના પણ પાંચ ભેદ છે.
(૬) કાપિંડ, સ્મૃતિકાર્ષિક, અથવા લેાઢાના પિંડ સમાન બદ્ધ પુગલામાં પણ એક વિશેષ પ્રકારના સધાત (ઘનિષ્ઠતા) ઉત્પન્ન કરવાવાળા કમ તે સંઘાતનામક કહેવાય છે અથવા સઘાતનામકમ ન હોય તેા પુરૂષ, આ, ગાય આદિ રૂપલેઇ શરીરમાં હાય નહિ. કારણકે સંધાત-વિશષ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અન્ય કમ°જ નથી.
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आचारचिन्तार्माण-टोका अध्य.१ उ.१ मू.५ कर्मवादिम०
_ ३७१ (१३) नारकादिगति गन्तुरन्तर्गतौ वर्तमानस्य तदभिमुखमानुपूर्व्या तत्तद्देशक्रमेण] तत्तत्प्रापणसमर्थमानुपुर्वीनाम । गत्यन्तरं गच्छतो जीवस्य यत्कर्मोदयादविशयेन तद्गमनानुगुण्यं स्यात्, तदपि-आनुपुर्वीशब्दवाच्यं भवति । यथा-वारिवेगो वलीवर्दादेः, यथा या नस्योतस्य वलीवर्दस्य नासारज्ज्वां प्रतिवद्धा रज्जुः, तथाऽनुपूर्वीफर्म जीवस्य गत्यन्तरमापणार्थ समाकर्पकतयोपग्रहस्वरूपम् ।
अन्तर्गतिश्च यावन्मनुष्यो नरकादिवाच्यमुत्पत्तिस्थानं न पामोति तावकालिकी गतिः । सा द्विविधा-ऋज्वी, वक्रा च । तत्र यदा ऋज्व्या समय
(१३) नरक आदि गति में जाने वाला जीव-जो कि अन्तर्गति (विग्रहगति) में वर्तमान है, उसको उन नरक आदि गतियों की ओर अभिमुख करके आनुपूर्वी से अर्थात् उस उस स्थान के क्रम से उन २ गतियों में पहुंचाने में जो कर्म समर्थ होता है, उस कर्म को आनुपूर्वीकर्म कहते हैं । यद्यपि आनुपूर्वी शब्द का अर्थ उस उस स्थानका क्रम है तथापिगत्यन्तर में जाते हुए जीव को जिस कर्म के उदय होने पर उस गति में उस उस स्थान के क्रम से जाना होता है, इस लिये उस कर्म को भी आनुपूर्वी कहते हैं। जैसे जलका प्रवाह वैलको अपनी और खींच लेता है । अथवा जैसे गाडीवान बैलको नाथ पकड कर अपनी ओर मोड लेता है, उसी प्रकार आनुपूर्वीकर्म-जीवने जिस गतिका कर्म बाँधा है उस गति में उसको पहुँचा देता है, इस लिये वह गति में पहुँचाने के लिये सहायक है।
जब तक मनुष्य अपनी मनुष्यगति को छोडकर नरक आदि किसी गति में नहीं पहुंचा है, तब तक की अर्थात् बीचको गतिको अन्तर्गति-विग्रहगति-कहते हैं। वह दो प्रकार की है-सरल और वक्र । जीव जब एकसमयप्रमाणवाली सरल (सीधी)
(૧૩) નરક આદિ ગતિમાં જવાવાળા જીવ જે કે-અન્તર્ગતિ (વિગ્રહગતિમાં વર્તમાન છે તેને તે નરક આદિ ગતિઓની તરફ અભિમુખ કરીને આપવાથી અર્થાત તે તે સ્થાનના કમથી તે તે ગતિઓમાં પહોંચાડવામાં જે કમ સમર્થ હોય છે તે કમને આનપૂર્વ કર્મ કહે છે. જો કે આનુપૂવ શબ્દનો અર્થ તે તે સ્થાનને ક્રમ, એ છે તે પણ ગત્યન્તરમાં જતે જીવને જે કમને ઉદય થવાથી તે ગતિમાં તે તે સ્થાનના ક્રમથી જવું હોય છે, આટલા માટે તે કર્મને આનુપૂવી કહે છે. જેમ પાણીને પ્રવાહ બળદીયાને પોતાની તરફ ખેંચી લે છે, અથવા જેમ ગાડીવાળે બળદીયાને તેની નાથ પકડીને પિતાની બાજુ મેડી લે છે તે જ પ્રમાણે આનુપૂવકર્મ-જીવ જે ગતિનું કર્મ બાંધ્યું છે તે ગતિમાં તેને પહોંચાડી દે છે માટે તે ગતિમાં પહોંચાડવાને માટે સહાયક છે.
- જ્યાં સુધી મનુષ્ય પિતાની મનુષ્યગતિને મૂકીને નરક આદિ બીજી ગતિમાં નથી પોંચે ત્યાં સુધીની અર્થાત્ વચલી ગતિને અન્તર્ગતિ-વિગ્રહગતિ કહે છે. તે બે પ્રકારની હોય છે. સરલ અને વક્ર. જીવ ત્યારે એકસમયપ્રમાણુવાળી સરલ (સીધી ગતિથી
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आचाराने (९) औदारिकादिपु शरीरेषु यस्य कर्मण उदयात् कर्वशादिः स्पर्शविशेपो जायते, तत् स्पर्शनाम । सर्शनामाधा-कर्कश-मृदु-गुरु-लघु-स्निग्धरूक्ष-शीतो-प्णनामभेदात् ।
(१०) रसनाम पश्चविधम्-तिक्त-कटु-कपाया-अम्ल-मधुरभेदात् । लवणो मधुरान्तर्गत इति केचित् ।
(११) शरीरविपयं सौरभ दुर्गन्धित्वं च यस्य कर्मणो विपाकाभिर्वतते, तद् गन्धनाम । गन्धनाम द्विविधम्-सुगन्ध-दुर्गन्धभेदात् ।
(१२) यस्योदयाच्छरीरेषु कृष्णादिपञ्चविधवर्णनिप्पत्तिर्भवति तद् वर्णनाम, तत् पञ्चविधम्-कृष्ण-नोल-लोहित-पीत-शुक्लभेदात् । सर्वाणि चैतानि स्पर्शनामादीनि वर्णनामान्तानि शरीरवर्तिपु पुद्गलेषु परिणतानि भवन्ति ।।
(९) औदारिक आदि शरीरों में जिस कर्म के उदय से कठोर आदि स्पर्श उत्पन्न होता है उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं। स्पर्शनामकर्म आठ प्रकार का है-कठोर, कोमल, भारी, हल्का, चिकना, रूखा, शीत, और उष्ण ।
(१०) रसनामकर्म पांच प्रकार का है-तीखा, कडुवा, कसैला, खट्टा और मीठा । किसी के मत से लवण मधुर रस के अन्तर्गत है।
(११) जिस कर्म के उदय से शरीर में सुगन्ध या दुर्गन्ध उत्पन्न होती है उसे गन्धनामकर्म कहते हैं। उसके दो भेद हैं-सुगन्धनाम और दुर्गन्धनाम ।
(१२) जिस कर्म के उदय से शरीरों में कृष्ण आदि पांच वर्षों की उत्पत्ति होती है, वह वर्णनामकर्म है । इस के पांच भेद हैं-कृष्ण, नील, रक्त, पोत और शुक्ल, स्पर्श से लेकर वर्ण तक ये सब, शरीरवत्ती पुद्गलों में ही परिणत होते हैं।
(૯) દારિક આદિ શરીરમાં જે કર્મના ઉદયથી કઠોર આદિ સ્પર્શ ઉત્પન્ન થાય છે તેને સ્પર્શનામકર્મ કહે છે. સ્પર્શનામકર્મના આઠ પ્રકારના છે–કઠોર, કેમલ, सारी, 63, !ि ३ौ, शीत भने B.
(१०) २सनाभभ पांय सारे छे-तीमा, ४४, ४सामेती, माटो भने भी31. કેટલાકના મતથી લવણ મધુર રસની અન્તર્ગત છે.
(૧૧) જે કર્મના ઉદયથી શરીરમાં સુગંધ અથવા દુર્ગધ ઉત્પન્ન થાય છે. તેને ગંધનામકર્મ કહે છે. તેના બે ભેદ છે-સુગધનામ અને દુર્ગધનામ
૧૨) જે કર્મના ઉદયથી શરીરમાં કૃષ્ણ આદિ પાંચ વર્ણોની ઉત્પત્તિ થાય છે તે ગુનામકર્મ કહેવાય છે. તેના પાંચ ભેદ –કાળે, નીલો, રાતે, પીળા અને ધોળે
શથી લઈને વર્ણ સુધી એ બધાય શરીરવતી પુદ્ગમાં જ પરિણત થાય છે.
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आचारचिन्तार्माण-टोका अध्य.१ ३.१ २.५ कर्मवादिप्र०
(१३) नारकादिगति गन्तुरन्तर्गतौ वर्तमानस्य तदभिमुखमानुपूर्व्या [तत्तद्देशक्रमेण] तत्तत्प्रापणसमर्थमानुपुर्वीनाम । गत्यन्तरं गच्छतो जीवस्य यत्कर्मोदयादविशयेन तद्गमनानुगुण्यं स्यात् , वदपि-आनुपुर्वीशब्दवाच्यं भवति । यथा-वारिवेगो वलीवर्दादेः, यथा या नस्योतस्य वलीवदस्य नासारज्ज्वां प्रतिवद्धा रज्जुः, तथाऽऽनुपूर्वीफर्म जीवस्य गत्यन्तरमापणार्थ समाकर्पकतयोपग्रहस्वरूपम् ।
अन्तर्गतिश्च यावन्मनुष्यो नरकादिवाच्यमुत्पत्तिस्थानं न प्राप्नोति तावकालिकी गतिः । सा द्विविधा-ऋज्वी, वक्रा च । तत्र यदा ऋज्च्या समय
(१३) नरक आदि गति में जाने वाला जीव-जो कि अन्तर्गति (विग्रहगति) में वर्तमान है, उसको उन नरक आदि गतियों की ओर अभिमुख करके आनुपूर्वी से अर्थात् उस उस स्थान के क्रम से उन २ गतियों में पहुंचाने में जो कर्म समर्थ होता है, उस कर्म को आनुपूर्वीकर्म कहते हैं । यद्यपि आनुपूर्वी शब्द का अर्थ उस उस स्थानका क्रम है तथापिगत्यन्तर में जाते हुए जीव को जिस कर्म के उदय होने पर उस गति में उस उस स्थान के क्रम से जाना होता है, इस लिये उस कर्म को भी आनुपूर्वी कहते हैं। जैसे जलका प्रवाह बैलको अपनी और खींच लेता है । अथवा जैसे गाडीवान बैलको नाथ पकड कर अपनी ओर मोड लेता है, उसी प्रकार आनुपूर्वीकर्म-जीवने जिस गतिका कर्म बाँधा है उस गति में उसको पहुँचा देता है, इस लिये वह गति में पहुँचाने के लिये सहायक है।
जब तक मनुष्य अपनी मनुष्यगति को छोडकर नरक आदि किसी गति में नहीं पहुँचा है, तब तक की अर्थात् वीचको गतिको अन्तर्गति-विग्रहगति-कहते हैं। वह दो प्रकार की है-सरल और वक्र । जीव जब एकसमयप्रमाणवाली सरल (सीधी) . (૧૩) નરક આદિ ગતિમાં જવાવાળા જીવ જે કે-અન્તર્ગતિ (વિગ્રહગતિમાં વર્તમાન છે તેને તે નરક આદિ ગતિએની તરફ અભિમુખ કરીને આનુપૂવથી અર્થાત તે તે સ્થાનના ક્રમથી તે તે ગતિઓમાં પહોંચાડવામાં જે કર્મ સમર્થ હોય છે તે કર્મને આનુ. પૂવ કર્મ કહે છે. જો કે આનુપૂવી શબ્દનો અર્થ તે તે સ્થાનને ક્રમ, એવે છે તે પણ ગત્યન્તરમાં જતે જીવને જે કર્મને ઉદય થવાથી તે ગતિમાં છે તે સ્થાનના કમથી જવું હોય છે, આટલા માટે તે કર્મને આનુપૂરી કહે છે. જેમ પાણીને પ્રવાહ બળદીયાને પિતાની તરફ ખેંચી લે છે, અથવા જેમ ગાડીવાળે બળદીયાને તેની નાથ પકડીને પોતાની બાજુ મેડી લે છે તે જ પ્રમાણે આનુપૂવકર્મ–જીવ જે ગતિનું કર્મ બાંધ્યું છે તે ગતિમાં તેને પહોંચાડી દે છે માટે તે ગતિમાં પહોંચાડવાને માટે સહાયક છે.
જ્યાં સુધી મનુષ્ય પિતાની મનુષ્યગતિને મૂકીને નરક આદિ બીજી ગતિમાં નથી પહેઓ ત્યાં સુધીની અર્થાત વચલી ગતિને અન્તર્ગતિ-વિગ્રહગતિ કહે છે. તે બે પ્રકારની હોય છે-સરલ અને વક્ર જીવ જ્યારે એકસમયપ્રમાણુવાળી સરલ (સીધી) ગતિથી
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आचाराम प्रमाणया गच्छति, तदाऽऽयुष्यकर्मणेवात्पत्तिस्यानं मामोति । तत्रानुपुर्वीनाम्नः कश्चिदुपयोगो न भवति । वक्रगत्या पुनः मत्तः पर- (वक्राकाररथावयव)लागल-गोमूत्रिकालक्षणया द्वित्रिचतु:समयमानया वक्रारम्भकाले पुरस्कृतमायुरादत्ते, तदैव चानुपूर्वीनामाप्युदेति ।
ननु च यथैव ऋच्या गती विनाऽऽनुपूर्वीनामकर्मणा गति प्रामोति, तद्वद् चक्रगत्यामपि कस्मान ? इति चेत्, उच्यते-ऋज्व्यां -पूर्वायुष्कर्मव्यापारेणैव गच्छति, यत्र तत् पूर्वायुष्कर्म क्षीणं, तत्र तस्याध्ययप्टिस्थानीयस्यानुपूर्वीनामकर्मण उदयो भवति । गति से जाता है तब आयु कर्म के द्वारा ही उत्पत्तिस्थान को प्राप्त कर लेता है, वहां आनुपूर्वांनामकर्म का कोई उपयोग नहीं होता । जब जीय कूपर (रथ का टेढा अवयव) हल या गोमूत्रिका सरीखी और दो तीन या चार समयवाली वक्र गति से जाता है तब मोडके आरम्भ--समय में आगे की आयु ग्रहण करता है, उसी समय आनुपूर्वी कर्मका उदय होता है ।
शङ्का-जैसे सरलगति में आनुपूर्वीकर्म के विना ही गति प्राप्त करता है, उसी . प्रकार वक्र गति में भी क्यों नहीं गति करता।
समाधान-सरल गति में पहले के आयुकर्म के व्यापार से ही जीव गति करता है । जहाँ वह आयु क्षीण हो जाती है वहाँ मार्गयष्टि के समान आनुपूर्वीनामकर्म का उदय होता है।
જાય છે, ત્યારે આયુકર્મ દ્વારાજ ઉત્પતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી લે છે. ત્યાં આનુપૂવી નામકને કાંઈ ઉપયોગ થતું નથી. જ્યારે જીવ ઉપર રથને વાંકે એક ભાગ) હલ અથવા ગેમૂત્રિકા સરખી અને બે, ત્રણ અથવા ચાર સમયવાળી વક્રગતિથી જાય છે ત્યારે વળવાના આરંભ સમયમાં આગળની આયુ ગ્રહણ કરે છે તે સમય આનુપૂવી કર્મને ઉદય થાય છે.
શકા––જેમ સરલગતિમાં આનુપૂવકમ વિનાજ ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે પ્રમાણે વક્રગતિમાં ગતિ શા માટે કરતા નથી ?
સમાધાન–સરગતિમાં પ્રથમના આયુકમના વ્યાપારથીજ જીવ ગતિ કરે છે. આ તે અણુ ક્ષીણ થઈ જાય છે ત્યાં માગયષ્ટિમાર્ગની લાકડીના સમાન આનુપૂવી નામકર્મને ઉદય થાય છે.
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आचारंचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ ३.१ २.५ कर्मवादिन० ___आनुपूर्वीनाम चतुर्विधम्-नरकागत्यानुपूर्वीनाम, तिर्यगगत्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगत्यानुपूर्वीनाम, देवगत्यानुपूर्वीनाम च ।
(१४) लब्धि-शिक्षद्धि-प्रत्ययस्याकाशगमनस्य जनक नाम विहायोगतिः सामान्य गमनरूपा गतिरपि विहायोगति रित्युच्यते न तु केक्लमाकाशगमनरूपति। सा द्विधा-शुभा-शुभभेदात् । तत्र-ईस गज-पादीनां शुमा । उप्टशगालादीनाम् अशुमा । तत्र-लब्धिर्देवादीनां देवत्वोत्पत्त्यविनाभाविनी । शिक्षया ऋद्धिः, शिक्षद्धिः, लव्ध्या शिक्षर्या च तपस्विना, शिक्षर्या प्रवचनमधीयानानां विद्याद्यावर्तनप्रभावाद् वा आकाशगमनस्य जनकं विहायोगविनामकर्म ।
आनुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का है-नरकगत्यानुपूर्वीनाम, तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगत्यानुपूर्वीनाम, और देवगत्यानुपूर्वीनाम ।
(१४) लब्धि एवं शिक्षाऋद्धिकारणक; आकाशगमन उत्पन्न करने वाला कर्म विहायोगतिनामकर्म कहलाता है। यह सामान्य गमनरूप गति भी विहायोगति कहलाती है, नहीं कि मात्र आकाशगमनरूप। इस के दो भेद हैं-शुभ और अशुभ । हंस, गज, वृपम आदि की गति के समान गुभविहायोगति है और ऊंट सियार आदि की गतिके अनुसार अशुभविहायोगति है। देव के रूप में उत्पन्न होने के साथ ही उत्पन्न होने चाली लब्धि देवों को प्राप्त होती है । शिक्षा से प्राप्त होने वाली ऋद्धि शिक्षा-ऋद्धि कहलाती है। लब्धि एवं शिक्षा-ऋद्धि से तपस्वियों का आकाशगमन होता है। प्रवचन का अध्ययन करने वालों का विद्या आदि के आवर्तन के प्रभाव से या शिक्षाऋद्धि से जो आकाशगमन होता है वह विहायोगति है।
આનપૂવીનામકર્મ ચાર પ્રકારનાં છે–નરકગત્યાનપૂર્વનામ, તિગગત્યાનપૂવીનામ. મનુષ્યરત્યાનુભૂવીનામ, અને દેવગત્યનુપૂર્વનામ.
(૧૪) લબ્ધિ એવા શિલાઋદ્ધિકારક આકાશગમન ઉત્પન્ન કરવાવાળું કર્મ વિહાગતિનામકર્મ કહેવાય છે. સામાન્ય ગમનરૂપ ગતિ પણ વિહાગતિ કહેવાય છે ફક્ત આકાશગમનરૂપ ગતિ નહીં. તેના બે ભેદ છે-શુભ અને અશુભ. હંસ, હાથી, બળદ વગેરેની ગતિ સમાન શુભવિહાગતિ છે. અને ઉંટ, શિયા વગેરેની ગતિ અનુસાર અશુભવિહાગતિ છે. દેવના રૂપમાં ઉત્પન્ન લેવાની સાથેજ ઉત્પન થવાવાળી લબ્ધિ દેવેને પ્રાપ્ત થાય છે. શિક્ષાથી પ્રાપ્ત થવાવાળી ઋદ્ધિ શિક્ષાદ્ધિ કહેવાય છે. લબ્ધિ એર્વ શિક્ષાદ્ધિથી તપસ્વિએ આકાશગમન કરે છે. પ્રવચનનું અધ્યયન કરવાવાળાના વિદ્યા આદિના આવર્તનના પ્રભાવથી અથવા શિક્ષાઋદ્ધિથી જે આકાશગમન થાય છે તે વિહાગનિ છે.
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आंचारामने (७) गोत्रकर्म द्विविधम्-उच्चनीचभेदात् । तत्रउचगोत्रं-देश-जाति-कुलस्थान-मान-सत्कारै-वर्याद्युत्कर्पजनकम् । तद्विपरीतं नीचगोत्रम्-अनार्यदेशचाण्डालादिजातिदास्य-निर्वर्तकम् ।
(८) अन्तरायकर्म-पञ्चविधम्-दान-लाम-भोगो-पभोग-वीर्यान्तरायभेदात् ।
एवं च सर्वसंकलनेनाष्टविधकर्मणामुत्तरप्रकृतिसंख्या अष्टचत्वारिंशदधिकशतं (१४८) भवन्ति ।
कर्मक्षयविचारःज्ञानक्रियाभ्यां कर्मक्षयो भवति । उक्तपड्जीवनिकायानां यथार्थ
(७) गोत्रकर्म दो प्रकार का है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उच्चगोत्र से देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार, ऐश्वर्य आदि का उत्कर्ष उत्पन्न होता है। नीचगोत्र इस से विपरीत है। इस से अनार्य देश, चाण्डाल आदि जाति और दासता उत्पन्न होती है।
(८) अन्तराय फर्म के पांच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय।
इस प्रकार सबका योग करने पर आठों कर्मों की उत्तरप्रकृतिया एक सौ अडतालीस (१४८) होती हैं।
___ कर्मक्षय का विचार ज्ञान और क्रिया से कर्मों का क्षय होता है । पूर्वोक्त पड्जोवनिकाय के वास्तविक
(७) ४ मे हारनु छ–स्यगात्र भने नायगात्र यात्री श, जाति, કુલ, સ્થાન, માન, સત્કાર, અશ્વર્ય આદિને ઉત્કર્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. નીચ શેત્ર તેનાથી વિપરીત છે. તેનાથી અનાર્ય દેશ, ચાંડાલ આદિ જાતિ અને દાસપણું વગેરે ઉત્પન્ન થાય છે.
અંતરાયકર્મના પાંચ ભેદ છે–દાનાન્તરાય, લાભાન્તરાય, ભેગાન્તરાય,ઉપભેગાન્તરાય અને વીર્યાન્તરાય.
આ પ્રમાણે સર્વને લેગ કરતાં આઠ કર્મોની ઉત્તરપ્રકૃતિએ એકસે અડતાटीस (१४८) याय छ.
કર્મક્ષયને વિચાર જ્ઞાન અને ક્રિયાથી કોને ક્ષય થાય છે. પૂર્વોક્ત ષડજીવકાચના વાસ્તવિક
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ १.५. फर्मवादिन स्वरूपस्य विस्तरेण संक्षेपेण वा अवयोधो ज्ञानम् । गुप्तिसमितिसमाराधनपूर्वक शास्त्रविधिना तपःसंयमाचरणं क्रिया ।
अष्टकर्मणां भस्मसात्कारकं तपः । तस्यानशनादयो द्वादश भेदाः । सावध क्रियाः सम्यक् परित्यज्य निरवद्यक्रियासु प्रवृत्तिः संयमः । तस्य पृथिवीकायसंयमादयः सप्तदश भेदाः।
उक्तपड्जीवनिकायस्वरूपं सम्यग विज्ञाय संयमपूर्वकतपश्चरणेनाभिनयकर्ममवेशाभावः, पूपिचितकर्मपरिक्षयश्च भवति । तत्रैवं क्रमः
अष्टमगुणस्थानादात्मा क्षपकश्रेणि समारोहति । असौ क्षपको नवम दशमं गुणस्थानं समारुह्य द्वादशं गुणस्थानमारोहति । तत्र शुक्लध्यानस्य द्वितीयस्वरूप का विस्तारपूर्वक या संक्षिप्त बोध-ज्ञान कहलाता है। गुप्ति समिति का आराधन करते हुए शास्त्रोक्त विधि के साथ तप और संयम का आराधन करना क्रिया है ।
आठ कर्मों का भस्म करना तप है। तप के अनशन आदि बारह भेद हैं। सावध क्रियाओं का सम्यक प्रकार से परित्याग करके निरवध क्रियाओं में प्रवृत्ति करना संयम है । पृथ्वीकायसंयम आदि के भेद से वह सत्तरह (१७) प्रकार का है। ___उक्त पड्जीवनिकाय का स्वरूप समीचीन प्रकार से जानकर, संयमपूर्वक तप का आचरण करने से नवीन कर्मों का आना रुक जाता है और पहले के संचित कर्मों का क्षय होता है। कर्मक्षय का क्रम यह है-- __आत्मा आठवें गुणस्थान से क्षपकश्रेणी पर आरूढ होता है। यह क्षपक आत्मा नौवें दश गुणस्थानों पर आरूढ़ हो कर बाहरवे गुणस्थान पर पहुंचता है। સ્વરૂપને વિસ્તારપૂર્વક અથવા સંક્ષિપ્ત બેધ તે જ્ઞાન કહેવાય છે. ગુણિ, સમિતિની આરાધના કરતાં શાસ્ત્રોક્ત વિધિ પ્રમાણે તપ અને સંયમનું આરાધન કરવું તે કિયા છે. આઠ કર્મોને બાળી નાંખવા તે તપ છે. તપના અનશન આદિ બાર ભેદ છે. સાવદ્ય ક્રિયાઓને સમ્યફ પ્રકારે પરિત્યાગ કરીને નિરવ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરવી તે સંયમ છે. પૃથ્વીકાયસંયમ આદિના ભેદથી તે સાર(૧૭)પ્રકાર છે. આગળ કહેલા વહૂછવનિકાયના સ્વરૂપને સારી રીતે જાણીને સંયમપૂર્વક તપનું આચરણ કરવાથી નવીન કર્મોનું આવવું રોકાઈ જાય છે, અને પહેલાના સંચિત કર્મોને ક્ષય થાય છે. કર્મક્ષય કમ એ છેઆત્મા આઠમાં ગુણસ્થાનથી ક્ષપકશ્રેણી પર આરૂઢ થાય છે. આ ક્ષયક આત્મા નવમાં, દસમા ગુણસ્થાને પર આરૂઢ થઈને બારમાં ગુણસ્થાન પર જઈ પહોંચે છે.
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आचारायंत्रे
पादे प्रयमं मोहनीयं कर्म क्षपयति । तदनु ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयाऽन्तरायकर्माणि युगपदेव क्षपयित्वा द्वादशगुणस्थानान्ते त्रयोदशगुणस्थानादौ सर्वद्रव्यपर्यायविषयं पारमैश्वर्यमनन्तं केवलं ज्ञानदर्शनं प्राप्य शुद्धो बुद्धः सर्वज्ञः सर्वदर्शी जिनः केवली भवति । ततः सयोगिकेवली मतनु- शुभ-चतुष्कर्मावशेषः, आयु:कर्मसंस्कारवशाद् भव्यजनबोधनाय भूमण्डले विहरति, विविधं कर्मरजो भव्यानां हरति च ।
असौं तत्पश्चाद् अयोगिकेवली भूत्वा चतुर्दशगुणस्थाने - आयुष्यकर्मपरिसमाप्तौ सत्यां, वेदनीय - नाम - गोत्रकर्माणि क्षपयति । एवं मूलप्रकृतित्राच्यमप्टविधं ज्ञानावरणीयादिसकलकर्म क्षीयते ।
4
वहाँ शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाये में सर्व प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय करता है । तत्पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों को एक ही साथ क्षय करके चारहवें गुणस्थान के अन्त में और तेरहवें गुणस्थान की आदि में समस्त द्रव्य पर्याय को विषय करने वाला परम ऐश्वर्य को प्राप्त होने योग्य अनन्त केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदशीं, जिन और केवली हो जाता है । फिर वह सयोगी केवली चार हल्के अघातिया कर्म शेष रहने पर आयुकर्म के संस्कार वश हो कर भव्य जीवों को बोध देने के लिए भूमण्डल में विहार करते हैं ।
तत्पश्चात् अयोगी केवली हो कर चौदहवें गुणस्थान में आयुकर्म को समाप्ति होने पर वेदनीय नाम आयु गोत्र कर्मों का क्षय करते हैं । इस प्रकार मूलप्रकृति कहलाने वाले आठों ही कर्मों का क्षय हो जाता है।
ત્યાં શુકલ ધ્યાનના ખીજા પાયામાં સર્વપ્રથમ મેહર્નીય કનેા ક્ષય કરે છે. તે પછી જ્ઞાનાવરણુ, દર્શનાવરણુ અને અંતરાય કર્માંના એકી સાથે ક્ષય કરીને, ખારમા ગુણસ્થાનના અંતમાં અને તેરમા ગુણસ્થાનની આદિમાં સમસ્ત દ્રવ્ય-પર્યાયને વિષય કરવાવાળા ૫૨મ ઐશ્વર્યને પ્રાપ્ત થવા ચેાગ્ય અનન્ત કેવલજ્ઞાન અને કેવલર્દેશન પ્રાપ્ત रीने शुद्ध, शुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वहशी, किन भने देवसी यर्ध लय छे. पछी ते सयोगी કેવલી ચાર હલકાં અઘાતિયાં કર્મ ખાકી રહેવા પર આયુકના સંસ્કારવશ થઈને વ્યજીવાને બેધ આપવા માટે પૃથ્વીમાં વિહાર કરે છે,
તે પછી મચેાગી કેવલી થઈને ચૌદમાં ગુણસ્થાનમાં આયુષ્કર્મની સમાપ્તિ થયા પછી વેદનીય, નામ અને ગેાત્રકના ક્ષય કરે છે. આ પ્રમાણે મૂળપ્રકૃતિ કહેવાતા આઠ કર્મો ક્ષય થઈ જાય છે.
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___ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ सू. ५ कर्मवादिप्र०
एवमात्ममदेशेभ्यः सकलकर्मणामपगमे सत्यूर्ध्वगमनस्वभावतयाऽऽत्मा साधनन्तमपुनरावृत्तिसिद्धिगविनामधेय स्थान प्राप्नोति । ज्ञानक्रियाभ्यामेवं सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवतीति सिद्धम् ।
केचित्तु-सम्यगज्ञानं ययार्थविपयकतया बलवत्तरत्वेन मिथ्याज्ञानं निवर्तयति । मिथ्याज्ञाने निवृत्ते सति मिथ्याज्ञानमूला रागादयो न समुत्पद्यन्ते । कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादाद । रागाद्यभावे च तत्कलभूता मनोवाक्कायप्रवृत्तिन भवति । प्रवृत्त्यभावे च पुण्यपापयोरनुत्पत्तिः । आरब्धकार्ययोश्च
आत्मप्रदेशों से समस्त फर्मों के हटजाने पर ऊर्ध्वगतिशील होने के कारण आत्मा सादि-अनन्त पुनरागमनरहित सिद्धिगतिनामक स्थान को प्राप्त करता है । अत एव सिद्ध हुआ कि ज्ञान और क्रिया से सफल कर्माका क्षयरूप मोक्ष प्राप्त होता है।
कुछ लोगों का कथन यह है कि सम्यग्ज्ञान यथार्थ पदार्थ को विपय करता है, अतः वह बलवान है, और बलवान होने के कारण मिथ्याज्ञान को दूर करता है। मिथ्याज्ञान जब हट जाता है तो उसके कारण उत्पन्न होने वाले रागादि की उत्पत्ति नहीं होती; क्यों कि कारण के अभाव में काय उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार रागादि का अभाव होने पर उस से होने वाली मन, वचन और काय की प्रवृत्ति रुक जाती है। प्रवृत्ति के रुक जाने से पुण्यकर्म और पापकर्म की उत्पत्ति नहीं होती। जिन का कार्य
આત્મપ્રદેશથી સમસ્ત ક દૂર થયા પછી ઉદર્વગતિશીલ હોવાના કારણે આત્મા સાદિ-અનન્ત, પુનરાગમન રહિત સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. એટલે એ સિદ્ધ થયું કે જ્ઞાન અને ક્રિયાથી સકલ કર્મોના ક્ષય૫ મોક્ષને પ્રાપ્ત થાય છે.
કેટલાક માણસોનું કહેવું એ છે કે –સમ્યજ્ઞાન યથાર્થ પદાર્થને વિષય કરે છે, એ કારણથી તે બળવાન છે. અને બળવાન હોવાના કારણે મિથ્યાજ્ઞાનને દૂર કરે છે. મિથ્યાજ્ઞાન જ્યારે દૂર થઈ જાય છે, તે તેના કારણે ઉત્પન્ન થવાવાળા રાગ-આદિની ઉત્પત્તિ થતી નથી, કેમકે કારણના અભાવમાં કાર્ય ઉત્પન્ન થતું નથી. આ પ્રકારે-રાગાદિન અભાવ થવાથી તેનાથી થવા વાળી મન, વચન અને કાયાની પ્રવૃતિ અટકી જાય છે. પ્રવૃતિના અટકાવથી પુરૂયકર્મ અને પાપ કર્મની ઉત્પત્તિ થતી નથી. જેનું કાર્ય આરંભ प्र. मा.-४८
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आचाराको पादे प्रयम मोहनीय कर्म क्षपयति । तदनु ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीया-न्तरायकर्माणि युगपदेव क्षपयित्वा द्वादशगुणस्थानान्ते त्रयोदशगुणस्यानादी सर्वद्रव्य पर्यायविपयं पारमैश्वर्यमनन्तं केवलं ज्ञानदर्शन प्राप्य शुद्धो बुद्धा सर्वज्ञः सर्वदर्शी जिनः केवली भवति । वतः सयोगिकेवली . मतनु-शुभ-चतुष्कर्मावशेपः, आयु:कर्मसंस्कारवशाद् भव्यजनयोधनाय भूमण्डले विहरति, विविध कर्मरजो भव्यानां
हरातचा
असौ तत्पश्चाद् अयोगिकेवली भूत्वा चतुर्दशगुणस्थाने आयुष्यकर्मपरिसमाप्तौ सत्यां, वेदनीय-नाम-गोत्रकर्माणि क्षपयति । एवं मलप्रकृतिवाच्यमष्टविध ज्ञाना. वरणीयादिसकलकर्म क्षीयते । वहाँ शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाये में सर्व प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय करता है। तत्पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों को एक ही साथ क्षय करके बारहवें गुणस्थान के अन्त में और तेरहवें गुणस्थान की आदि में समस्त द्रव्य पर्याय को विषय करने वाला परम ऐश्वर्य को प्राप्त होने योग्य अनन्त केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदशी, जिन और केवली हो जाता है। फिर वह सयोगी केवली चार हल्के अघातिया कर्म शेष रहने पर आयुकर्म के संस्कार वश हो कर भव्य जीवों को बोध देने के लिए भूमण्डल में विहार करते हैं।
तत्पश्चात् अयोगी केवली हो कर चौदहवें गुणस्थान में आयुकर्म की समाप्ति होने पर वेदनीय नाम आयु गोत्र कर्मों का क्षय करते हैं। इस प्रकार मूलप्रकृति कहलाने वाले आठों ही कर्मों का क्षय हो जाता है। ત્યાં શુકલ ધ્યાનના બીજા પાયામાં સર્વપ્રથમ મેહનીય કમને ક્ષય કરે છે. તે પછી જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ અને અંતરાય કમેને એકી સાથે ક્ષય કરીને, બારમાં ગુણસ્થાનના અંતમાં અને તેમાં ગુણસ્થાનની આદિમાં સમસ્ત દ્રવ્ય-પર્યાયને વિષય કરવાવાળા પરમ ઐશ્વર્યને પ્રાપ્ત થવા ગ્ય અનન્ત કેવલજ્ઞાન અને કેવલદર્શન પ્રાપ્ત કરીને શુદ્ધ, બુદ્ધ, સર્વજ્ઞ, સર્વદશી, જિન અને કેવલી થઈ જાય છે. પછી તે સગી કેવલી ચાર હલકાં અઘાતિયાં કમ બાકી રહેવા પર આયુકર્મના સંસ્કારવશ થઈને ભવ્યજીને બધ આપવા માટે પૃથ્વીમાં વિહાર કરે છે.
તે પછી અયોગી કેવલી થઈને ચૌદમાં ગુણસ્થાનમાં આયુકર્મની સમાપ્તિ થયાં પછી વેદનીય, નામ અને નેત્રકને ક્ષય કરે છે. આ પ્રમાણે મૂળપ્રકૃતિ કહેવાતા આઠ કર્મોનો ક્ષય થઈ જાય છે. •
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ ८.५ कर्मवादिप्र० . समाधिवलेनोत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य जनस्य कर्मज्ञानसामर्थ्यात्तदुपभोगार्थमशेपशरीरमुत्पाद्याशेपभोगादेव पूर्वकर्मक्षयः, पुनस्तस्य तत्त्वज्ञानिनो मिथ्याज्ञानाभावातज्जनितसंस्कारस्याप्यभावेन कर्मान्तरानुत्पत्तिश्च । तथा चोपभोगादेव सकलकर्मक्षयस्वीकारेऽपि नास्ति कोऽपि दोपलेश इति ।
न च पुण्यपापकर्मणोर्जन्मान्तरशरीरोत्पादने सहकारि कारणं मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारोऽस्ति; तस्याभावादेव तत्त्वज्ञानिनां विद्यमाने अपि फर्मणी न . जन्मान्तरशरीराण्युत्पादयतः, अतस्तेषां कर्मसत्त्वेऽपि न कापि हानिरिति . वाच्यम् ।
समाधि के वल से उत्पन्न तत्त्वज्ञान वाले पुरुप के कर्मज्ञान के सामर्थ्य से कर्म का उपभोग करने के लिए अशेप शरीर उत्पन्न करके अशेप भोग से ही पूर्वकर्म का क्षय हो जाता है । उस तत्वज्ञानी पुरुप में मिथ्याज्ञान नहीं होता और मिथ्याज्ञान से उत्पन्न होने वाला संस्कार भी नहीं होता । इस कारण नवीन कर्म की उत्पत्ति भी नहीं होती । ऐसी स्थिति में उपभोग से ही समस्त कर्मों का क्षय मान लेने में लेशमात्र भी दोप नहीं है।
मिथ्याज्ञान से उत्पन्न होने वाला संस्कार जन्मान्तर के शरीर की उत्पत्ति में सहकारी कारण होता है । वह संस्कार तत्त्वज्ञानी में नहीं रहता। उस का अभाव हो
जाने पर, पुण्य-पाप कर्म भले ही विद्यामान रहें मगर वे शरीर उत्पन्न नहीं कर सकते । ___ अत एव उन में कर्म का सद्भाव होने पर भी कोई हानि नहीं होती। यह सब कथन
सत्य नहीं है।
સમાધિના બળથી ઉત્પન્ન તત્વજ્ઞાન વાળા પુરુષનાં કર્મજ્ઞાનનાં સામર્થ્યથી કમનો ઉપભોગ કરવા માટે અશેષ શરીર ઉત્પન કરીને અશવ ભેગથીજ પૂર્વકર્મને ક્ષય થઈ જાય છે. તે તત્ત્વજ્ઞાની પુરુષમાં મિથ્યાજ્ઞાન નથી અને મિથ્યાજ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સંસ્કાર પણ નથી. આ કારણથી નવીન કર્મની ઉત્પત્તિ પણ થતી નથી. એવી . સ્થિતિમાં ઉપભેગથીજ સમસ્ત કર્મોને ક્ષય માની લેવામાં લેશ માત્ર પણ દેષ નથી,
મિથ્યાજ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સંસ્કાર જન્માન્તરના શરીરની ઉત્પત્તિમાં સહકારી કારણ થાય છે. તે સંસ્કાર તત્ત્વજ્ઞાનીમાં રહેતા નથી. તેને અભાવ થઈ જવાથી, પુષ્ય-પાપકર્મ ભલેને વિદ્યમાન રહે. પરન્તુ તે શરીર ઉત્પન્ન કરી શકતાં નથી, એટલા માટે તેમાં કર્મને સદ્ભાવ હોવા છતાંય પણ કઈ પ્રકારે હાનિ થતી .नथी. मास ४यन साया नथी.
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औरये स्पः लाये । यसपा .. . 'आचाराङ्गो રૂ૭૮ पुण्यपापकर्मणोरुपभोगादेव प्रक्षयो भवतिः सश्चितरूपयोस्तु पुण्यपापकर्मणोस्तत्वशानादेव प्रक्षयः । एवं कर्मक्षयो भवति । उक्तन
... "ज्ञानामिः सर्वकर्माणि, भस्मसात् कुरुते तया" । इति । तया "नाभुक्तं क्षीयते फर्म, कल्पकोटिशतैरपि" इति च ।
केचिच-~-संचितकर्मणामपि प्रक्षयो भोगादेव भावतीत्युक्तं तत्रानुमान प्रमाणं च प्रदर्शितम् । तथाहि-पूर्वकर्माण्युपमोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात् । यत् यत् फर्म तत् तत् उपभोगादेव क्षीयते, यथा-आरब्धशरीरं कर्म, तथा चैतत् कर्म, तस्मादुपभोगादेव क्षीयते ।
न चोपभोगात् कर्ममक्षयस्वीकारे फर्मान्तरस्यावश्यम्भावात् संसारानुच्छेदः इति वाच्यम् , भारम्भ हो चुका है, ऐसे पाप-पुण्य का, उपभोग से क्षय होता है और सन्धित पुण्य-पाप का, तत्वज्ञान से । इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षयं हो जाता है । कहा भी है
"ज्ञानरूपी अग्नि समस्त कर्मों को भरम कर डालती है तथा-करोडों सैकड़ों कल्पों में भी कर्म का भोगे विना क्षय नहीं होता।
किसी का कहना है कि-संचित कर्मों का क्षय भी भोग से ही हो जाता है । इस विषय में अनुमान प्रमाण भी दिया गया है। वह इस प्रकार है-पूर्वसंचित कर्म उपभोग से ही क्षीण होता है, क्यों कि वह कर्म है । जो जो कर्म होता है वह वह उपभोग से ही क्षीण होता है, जैसे आरब्ध शरीरकर्म । संचितकर्म भी कर्म हैं अतः वे भी उपभोग से ही क्षीण होते हैं।
उपभोग से कमों का क्षय स्वीकार किया जाय तो नवीन कर्मों की उत्पति अवश्य होगी और फलतः जन्म-मरण का कभी नाश नहीं होगा। ऐसी आशङ्का करना उचित नहीं है। થઈ ચૂકયું છે, એવા પાપ-પુણ્યનો ઉપગથી ક્ષય છે, અને સંચિત પુણ્ય-પાપને તત્ત્વજ્ઞાનથી ક્ષય થાય છે. આ પ્રકારે સમરત કર્મોને ક્ષય થઈ જાય છે. કહ્યું પણ छ,-"शान या मशि समस्त मान म न छ." तथा " ४२१३ से ४१ કોમાં પણ કમ ભેગવ્યા વિના ક્ષય થતા નથી.”
કેટલાક કહે છે કે– સંચિત કર્મને ક્ષય પણું ભેગથી જ થઈ જાય છે. આ વિષયમાં અનુમાન પ્રમાણ પણ આપવામાં આવ્યું છે તે આ પ્રમાણે છે-પૂર્વસચિતકર્મ ઉપગથીજ ક્ષીણ થાય છે, કારણ કે તે કર્મ છે, જે જે કર્મ હોય છે તે તે ઉપભેગથીજ ક્ષીણ થાય છે, જેવી રીતે આરબ્ધ શરીરક સંચિત કર્મ પણ કર્મ છે, એ કારણથી તે પણું ઉપભેગથી જ ક્ષીણ થાય છે. - * ઉપભોગથી કર્મોને ક્ષય સ્વીકાર કરવામાં આવે તો, નવીન કમની ઉત્પત્તિ અવશ્ય થશે અને ફિલતઃ જન્મ મરણને કયારેય નાશ નહિ થાય, આવી શંકા કરવી તે ઉચિત નથી.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. सू.५. कर्मवादिप्र० समवात् पुनः प्रचुरतरपुण्यपापकर्मसद्भावे कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः स्यात् ।
नहि केवलस्य सम्यगज्ञानस्य आगामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्य विद्यते, किन्तु चारित्रसहितस्यैव सम्यग्ज्ञानस्य संचितकर्मक्षये आगामिकर्मानुत्पत्तौ च सामर्थ्य संभाव्यते । सम्यगज्ञानेन हि मिथ्याज्ञानस्य निवृत्तिः । ततश्च रागद्वेपायभावेन हिंसादिपापक्रियानिवृत्तिरूपचारित्रसहयोगाद् नवीनकर्मानुत्पत्तिर्भवति । तद्वत् संचितकर्मक्षयोऽपि चारित्रसहकृतसम्यगज्ञानादेव भवति । यथोपधं ज्ञानमात्रेण नाममात्रेण वा न व्याधि निवर्तयति, किन्तु तत्सेवनादिक्रियापरिणत्यैव, तद्वत् चारित्रसहितसम्यगज्ञानेनैव कर्मक्षयः। होगा, और यह व्यापार नवीन कर्मबन्ध का कारण है, इस लिए फिर बहुत से पुण्यकर्म और पापकर्म संचित हो जाएँगे । ऐसी दशा में आत्यन्तिक कर्मक्षय किस प्रकार होगा ?
अकेला सम्यग्ज्ञान आगामी कर्मों की उत्पत्ति रोकने में समर्थ नहीं है। हाँ, चारित्रसहित सम्यग्ज्ञान संचित कर्मों के क्षय में और आगामी कर्मों की उत्पत्ति रोकने में समर्थ हो सकता है। सम्यग्ज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर राग-द्वेष आदि का अभाव हो जाने से हिंसादि पाप क्रिया की निवृत्तिरूप चारित्र की सहायता से नवीन कौ की उत्पत्ति रुकती है। इसी प्रकार संचित कर्मों का क्षय भो चारित्र से युक्त सम्याज्ञान से ही होता है। जैसे-औषधि ज्ञानमात्र से या नाम लेने मात्रसे व्याधि को दूर नहीं करती किन्तु सेवन करने से ही दूर करती है, उसी प्रकार चारित्रयुक्त सम्यग्ज्ञान से ही कर्मों का क्षय होता है ।
થશે, અને તે વ્યાપાર નવીન કર્મબંધનું કારણ છે, એ માટે ફરી ઘણજ પુણ્ય-પાપ ક સંચિત થઈ જશે. એવી દશામાં આત્મત્તિક કર્મક્ષય કેવી રીતે થશે?
એકલું સમ્યજ્ઞાન આગામી કર્મોની ઉત્પત્તિને રોકવામાં સમર્થ નથી. હા. ચારિત્રસહિત સમ્યજ્ઞાન સંચિત કર્મોના ક્ષયમાં અને આગામી કર્મોની ઉત્પત્તિ રિકવામાં સમર્થ થઈ શકે છે. સમ્યજ્ઞાનથી મિથ્યાજ્ઞાનની નિવૃત્તિ થાય છે. પછી રાગ-દ્વેપ વગેરેનો અભાવ થઈ જવાથી હિંસાદિ પાપક્રિયાની નિવૃત્તિ ૫ ચારિત્રની સહાયતાથી નવીન કમેની ઉત્પત્તિ અટકે છે. એ પ્રમાણે સંચિત કર્મોનો ક્ષય પણ ચારિત્રથી યુક્ત સમ્યજ્ઞાનથી જ થાય છે. જેવી રીતે ઔષધના જ્ઞાનમાત્રથી અથવા ઔષધનું નામ લેવાથી વ્યાધિ દૂર થતી નથી, પરંતુ સેવન કરવાથી જ દૂર થાય છે. તે પ્રમાણે ચારિત્રયુક્ત સભ્યજ્ઞાનથી જ કમેને ક્ષય થાય છે.
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आचारासूत्रे जन्यपर्दार्थस्य नित्यत्वापत्तिः स्यादित्येव महान् दोषः समापयेत । तथाहि-पुण्यपापरूपकर्मणोः स्वफलानुत्पादनेन तत्सत्तास्वोकारे कार्यरूपयोरपि तयोनित्यत्वमसङ्गः । किञ्च-भविष्यकाले पुण्यपापकर्मणोरनुत्पत्तिस्वीकारे तत्वशानिनो प्रत्यवायपरिहारार्थ नित्यनैमित्तिकानुष्ठान कथमुपपद्यत ? इति वदन्ति । अनोच्यते-- __यत्तु-उक्तम्-आरब्धकार्ययोः पुण्यापुण्यकर्मणोरुपभोगात् अक्षयः संचितयोश्च तयोः प्रक्षयस्तत्वज्ञानादित्यादि, तदपि न संगतम् । तथाहि-उपमोगात् कर्मभक्षये तदुपभोगकालेऽमिलापपूर्वकमनोवाक्कायव्यापारस्यापरफर्मकारणस्य
सब से पहले महान् हानि तो यही है कि जन्य पदार्थ (काय) भी नित्य हो जायगा । वह इस प्रकार-पुण्य-पाप रूप कर्मों के फल को उत्पन्न न कर के सत्ता स्वीकार की गई है, सो कार्यरूप होने पर भी उन में नित्यता का प्रसङ्ग आता है । दूसरी बात यह है कि आगामी काल में पुण्य-पाप की उत्पत्ति न स्वीकार करने पर तत्वज्ञानियों के लिए, प्रत्यवाय (दोष) का परिहार करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अनुष्ठान करना किस प्रकार संगत होगा। ऐसा इन का कथन है,
इस पर विचार किया जाता है
कार्यरूप में परिणत पुण्य और पाप कर्मों का उपभोग से क्षय होता है और संचित कर्मों का तत्वज्ञान से, इत्यादि कथन भी संगत नहीं है। उपभोग से कर्मों का क्षय मानने पर कर्मों का उपभोग करते समय इच्छापूर्वक मन वचन और कायाका व्यापार - સૌથી પ્રથમ મહાન હાનિ તે એજ છે કે જન્ય પદાર્થ (કાર્ય પણ નિત્ય થઈ જશે. તે આ પ્રમાણે–પુયપાપરૂપ કર્મોના ફળને ઉત્પન્ન ન કરતાં નિત્યતાને સ્વીકાર કરવામાં આવે છે. તે કાર્યરૂપ હોવા છતાંય પણ તેમાં નિત્યતાને પ્રસંગ આવે છે. બીજી વાત એ છે કે આગામી કાળમાં પુણ્યપાપની ઉત્પત્તિ નહિ સ્વીકારવાથી તવજ્ઞાનીઓ માટે પ્રત્યવાય (ષ)ને પરિહાર કરવા માટે નિત્યમિમિત્તિક અનુષ્ઠાન કરવું તે કેવી રીતે સંગત થશે આ પ્રમાણે તેમનું કથન છે.
તેના પર વિચાર કરવામાં આવે છે –
કાર્યોરૂપમાં પરિણત પુણ્ય અને પાપ કર્મોને ઉપભોગથી ક્ષય થાય છે. અને - સંચિત કર્મોને તત્વજ્ઞાનથી. ઈત્યાદિ કથન પણ સંગત નથી. ઉપભેગથી કર્મોને ક્ષય માનવાથી, કોને ઉપલેગ કરવા સમયે ઈચ્છાપૂર્વક મન, વચન અને કાયાને વ્યાપાર
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. सू.५. कर्मवादिन संभवात् पुनः प्रचुरतरपुण्यपापकर्मसद्भावे कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः स्यात् ।
नहि केवलस्य सम्यगज्ञानस्य आगामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्य विद्यते, किन्तु चारित्रसहितस्यैव सम्यग्ज्ञानस्य संचितकर्मक्षये आगामिकर्मानुत्पत्तौ चं सामर्थ्य संभाव्यते । सम्यगज्ञानेन हि मिथ्याज्ञानस्य निवृत्तिः । ततश्च रागद्वेपायभावेन हिंसादिपापक्रियानिटत्तिरूपचारित्रसहयोगाद् नवीनकर्मानुत्पत्तिर्भवति । तद्वत् संचितकर्मक्षयोऽपि चारित्रसहकतसम्यग्ज्ञानादेव भवति । यथौपधं ज्ञानमात्रेण नाममात्रेण वा न व्याधि निवर्तयति, किन्तु तत्सेवनादिक्रियापरिणत्यैव, तद्वत् चारित्रसहितसम्यगज्ञानेनैव कर्मक्षयः। होगा, और यह व्यापार नवीन कर्मबन्ध का कारण है, इस लिए फिर बहुत से पुण्यकर्म और पापकर्म संचित हो जाएँगे। ऐसी दशा में आत्यन्तिक कर्मक्षय किस प्रकार होगा ?
अकेला सम्यग्ज्ञान आगामी कर्मों की उत्पत्ति रोकने में समर्थ नहीं है। हाँ, चारित्रसहित सम्यग्ज्ञान संचित कर्मी के क्षय में और आगामी कर्मों की उत्पत्ति रोकने में समर्थ हो सकता है। सम्यग्ज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर राग-द्वेष आदि का अभाव हो जाने से हिंसादि पाप क्रिया की निवृत्तिरूप चारित्र की सहायता से नवीन फर्मों की उत्पत्ति रुकती है। इसी प्रकार संचित कर्मों का क्षय भी चारित्र से युक्त सम्यग्ज्ञान से ही होता है । जैसे-औपधि ज्ञानमात्र से या नाम लेने मात्रसे व्याधि को दूर नहीं करती किन्तु सेवन करने से ही दूर करती है, उसी प्रकार चारित्रयुक्त सम्यग्ज्ञान से ही कर्मों का क्षय होता है।
થશે, અને તે વ્યાપાર નવીન કર્મબંધનું કારણ છે, એ માટે ફરી ઘણાંજ પુણ્ય-પાપ કર્મ સંચિત થઈ જશે. એવી દશામાં આત્મતિક કર્મક્ષય કેવી રીતે થશે?
એકલું સમ્યજ્ઞાન આગામી કર્મોની ઉત્પત્તિને રોકવામાં સમર્થ નથી. હા. ચારિત્રસહિત સમ્યજ્ઞાન સંચિત કર્મોના ક્ષયમાં અને આગામી કર્મોની ઉત્પત્તિ રેકવામાં સમર્થ થઈ શકે છે. સમ્યજ્ઞાનથી મિથ્યાજ્ઞાનની નિવૃત્તિ થાય છે. પછી રાગ-દ્વેષ વગેરેને અભાવ થઈ જવાથી હિંસાદિ પાપક્રિયાની નિવૃત્તિરૂપ ચારિત્રની સહાયતાથી નવીન કર્મોની ઉત્પત્તિ અટકે છે. એ પ્રમાણે સંચિત કર્મોને ક્ષય પણ ચારિત્રથી યુક્ત સમ્યજ્ઞાનથી જ થાય છે. જેવી રીતે ઔષધના જ્ઞાનમાત્રથી અથવા ઔષધનું નામ લેવાથી વ્યાધિ દૂર થતી નથી, પરંતુ સેવન કરવાથી જ દૂર થાય છે. તે પ્રમાણે ચારિત્રયુક્ત સભ્યજ્ઞાનથીજ કર્મોને ક્ષય થાય છે.
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आधाराने वाग्योगः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं काययुक्तात्मप्रदेशगतवीर्यपरिणमनं काययोगः । सा च क्रिया सकलकर्मवन्धस्य कारणम्, अतः कर्मवादी मव्यः क्रियां सकलकर्मकारणस्वरूपतयाऽत्मपरिणतिरूपत्वेन च विजानाति, तस्मात् सकलकर्मवन्धकारणमात्मपरिणतिरूपा च क्रियेति वेदिता, क्रियावादी-क्रियास्वरूपकथनस्वभावो वेदितव्य इत्यर्थः ।
क्रिया कर्मणः कारणमिति भगवता भगवतीसूत्रे निगदितम्, तथाहि- "मंडिअपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं एयइ, वेयइ, चलइ, फंदह, घट्टइ, खुन्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभइ सारंभइ समारंभइ, आरंभे वट्टइ सारंभे वट्टइ, समारंभे वट्टइ, आरंभमाणे सारंभमाणे समारंभमाणे आरंभे वट्टमाणे सारंभे वट्टमाणे समारंभे वट्टमाणे वहणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खावणयाए, सोयावणयाए, भूरावणयाए, तिप्पावणयाए, परियावणयाए वट्टइ, से तेणठेणं मंडिअपुत्ता ! एवं बुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समियं एयइ जाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवई" (भगवती. ३. शत. ३७.) कहलाता है । वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जनित, काययुक्त आत्मप्रदेशों में रहे हुए वीर्य का परिणमन काययोग कहलाता है । यह क्रिया सकल कर्मबन्ध का कारण है, इस लिए भव्य पुरुप क्रिया को सब कर्मों का कारण और आस्मा की परिणतिरूप समझता है, अतः "क्रिया, समस्त कर्मों का कारण और आत्मा की परिणतिरूप है" इस प्रकार जानने वालेको क्रियावादिक्रिया के स्वरूप का कथन करने वाला समझना चाहिए।
क्रिया, कर्म का कारण है, यह बात भगवान् ने भगवतीसूत्र में कही है, वह इस प्रकार:
ઉત્પન્ન, વચનન્યુક્ત આત્મપ્રદેશોમાં રહેલા વીર્યના પરિણમન કાયમ કહેવાય છે. આ ક્રિયા સકલ કર્મબંધનું કારણ છે. એટલા માટે ભવ્ય પુરૂષ ક્રિયાને સર્વ કર્મોનું કારણ અને આત્માની પરિણતિરૂપ સમજે છે. તે કારણથી “કિયા સમરત કર્મોનું કારણ અને આત્માની પરિણતિરૂપ છે. આ પ્રમાણે જાણવાવાળાને કિયાવાદી-ક્રિયાના સ્વરૂપનું કથન કરવા વાળા સમજવા જોઈએ.
ક્રિયા એ કમનું કારણ છે, એ વાત ભગવાને ભગવતીસૂત્રમાં કહી છે, તે આ પ્રમાણે છે
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू.५ क्रियावादिप्र०
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छाया - मण्डितपुत्र ! यात्रच खलु स जीवः सदा समितं एजते व्यजते चलति स्पन्दते घट्टते क्षुभ्यति उदीरयते तं तं भावं परिणमति, तावच्च खलु स जीव आरभते संरभते समारभते, आरम्भे वर्तते संरम्मे वर्तते समारम्मे वर्तते, आरभमाणः, संरभमाणः समारभमाणः । आरम्मे वर्तमानः संरम्भे वर्तमानः समारम्भे वर्तमानो बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां सच्चानां दुःखापनतया शोचापनतया झरापनतया तेपापनतया पिट्टापनतया परितापनतया वर्तते तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र ! एवम् उच्यते - यावच्च खलु स जीवः सदा समितं एजते यावत् परिणमति, तावच्च खलु तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया न भवति ।
,
भावार्थ:
मनोवाक्काययोगसहितस्य जीवस्य सर्वदा क्रियापरिणत्या कम्पनस्थानान्तरगमन- किंश्चिञ्चलन - सर्व दिग्गमन - पृथिव्यादिक्षोभण- बलात्कारपूर्वकप्रेरणोरक्षेपणा - पक्षेपणा - ssकुञ्चन - प्रसारणादिपरिणामं प्राप्तस्य पृथिव्यादिजीवानामुपद्रवकरणेन वा, विनाशसंकल्पनेन वा, परितापनेन वा मरेणलक्षणदुःखप्रापणया वा, प्रियवियोगादिदुःखमापणया वा, शोकमापणया वा, शोकाधिक्यजन्य
" मन वचन और काययोग से सहित जीव सदा क्रियारूप परिणति से कम्पन, विविध कम्पन; एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन, किंचित् चलना, सब दिशाओं में गमन करना, पृथ्वी आदि को क्षुब्ध करना, बलात्कार से प्रेरित करना, ऊपर उठाना, नीचे करना, सिकोडना, फैलाना, इत्यादि परिणामों को प्राप्त होता है । इस परिणाम के कारण जीव को पृथिवीकाय आदि के जीवों को उपद्रव करने से, घातका संकल्प करने से, परिताप पहुँचाने से, मृत्युरूप दुःख पहुँचाने से, इष्टवियोग आदि का कष्ट पहुँचाने से, शोक
મન, વચન અને કાયયેગથી સહિત જીવ સાય ક્રિયારૂપ પરિણતિથી કંપન, વિવિધ કમ્પન, એક સ્થાનથી ખીજા સ્થાનપર ગમન, કિંચિત્ ચાલવું, સવ દિશાએામાં ગમન કરવું, પૃથ્વી આદિને ક્ષુબ્ધ કરવું, મલાત્કારથી પ્રેરિત કરવું, ઉપર ઉઠાવવું, નીચે કરવું, સ કાચાવું, ફેલાવું, ઈત્યાદિ પરિણામને પ્રાપ્ત થાય છે. આ પરિણામના કારણે જીવને પૃથ્વીકાય આદિના જીવાને ઉપદ્રવ કરવાથી, ઘાતના સંપ કરવાથી, પરિતાપ પહોંચાડવાથી, મૃત્યુરૂપ દુઃખ પહેોંચાડવાથી, ચેાકની અધિકતાથી થવાવાળી શરીરની
प्र. आ-५९
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आचारानसूत्रे
शरीरजीर्णवाप्रापणया था, अश्रुपातादिप्रापणया वा, शरीरपीडोत्पादनया वा ग्लानिजननेन वा सकलकर्मक्षयात्मिका मुक्तिर्न भवतीत्यर्थः । एवम्भूतस्य जीवस्य चतुर्गतिकदुःखमयसंसारदुस्तरमहारण्यपरिभ्रमणाद विरामो न संभवतीति भावः । क्रियायाः पञ्चविंशतिर्भेदा इति स्थानाङ्गसूत्रे (स्था. २ उ. १ । स्था. ३ उ. ३) कतिभिः क्रियाभिः प्राणातिपातः-
माणातिपातं कुर्वन् जीवः सप्ताष्टौ वा ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि वनाति । तत्रायुर्वन्धे सत्यष्टौ कर्माणि आयुर्वन्धाभावे सप्त कर्माणि चन्नाति ।
तत्र जीवः कतिभिः क्रियाभिः प्राणातिपातं निष्पादयति ? उच्यते- कदाचित् तिसृभिः क्रियाभिः कदाचिच्चतसृभिः क्रियाभि, कदाचित् पञ्चभिः क्रियाभिः । पहुँचाने से शोक की अधिकता से होने वाली शरीर की जीर्णता पहुँचाने से, अनुपात आदि करवाने से, शरीर में पीडा उत्पन्न करने से, ग्लानि उत्पन्न करने से समस्त कर्मों का क्षयरूप मोक्ष प्राप्त नहीं होता | तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के जीव के चार गति के दुःखों से परिपूर्ण संसाररूपी विकट अटवी में भ्रमण करने का अन्त नहीं आता ।
किया के पच्चीस भेद स्थानामसूत्र में कहे हैं । (स्था. २ उ. १, स्था. ३ उ. ३) प्राणातिपात कितनी क्रियाओं से होता है ? |
३८६
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प्राणातिपात करता हुआ जीव ज्ञानावरणीय आदि सात या आठ कर्मों का वन्ध करता हैं | आयु का बन्ध हो तो आठ कर्मों का अन्यथा सात कर्मों का बन्ध करता है ।
जीव कितनी क्रियाओं से प्राणातिपात करता है । इस का उत्तर यह है - कदाचित् तीन क्रियाओं से, कदाचित् चार क्रियाओं से, कदाचित् पांच क्रियाओं से । અણુતા પહોંચાડવાથી, આંસુ પડાવવાથી, શરીરમાં પીડા ઉત્પન્ન કરવાથી, ગ્લાનિ ઉત્પન્ન કરવાથી સમસ્તકોના ક્ષયરૂપ મેાક્ષ પ્રાસ થતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે આ પ્રમાણે જીવના ચારગતિના દુઃખાથી પરિપૂર્ણ સ’સારરૂપી વિકટ અટવી (વન)માં ભ્રમણ કરવાના અંત આવતા નથી.
हियाना पचीस लेह स्थानांग सूत्रभां ह्या छे. (स्था. २-३-१. स्था. 3-3) પ્રાણાતિપાત ફૈટલી ક્રિયાઓથી થાય છે? પ્રાણાતિપાત કરનાર જીવ જ્ઞાનાવરણીય કરે છે. આયુના ખધ હાય તા આઠ કર્મોને જીવ કેટલી ક્રિયાએથી પ્રાણાતિપાત ફ્રે—કદાચિત ત્રણ ક્રિયાએથી, કદાચિત્ ચાર
આદિ સાત અથવા આઠે કર્મોના અધ અન્યથા સાત ક્રર્મોના બંધ કરે છે. કરી શકે છે? તેના ઉત્તર એ છે ક્રિયાએથી; કદાચિ डियामाथी.
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. १ सू.५ क्रियावादिम०
કું૮૭
तत्र- कायिक्याधिकरणिकीमाद्वेपिकीभिः क्रियाभिस्त्रिक्रियो जीवः कर्माणि नाति । कायिकीनाम - हस्तपादादिव्यापारणम् । अधिकरणिकी खड्गतीक्ष्णीकरणादिकम् । माद्वेपिकी - 'एनं मारयामी' - त्यशुभमनः संप्रधारणमिति ।
प्राणातिपातं कर्तुर्जीवस्य चतुष्क्रियता -कायिक्याधिकरणिकीमाद्वेषिकी पारितापनिकीभिश्चतसृभिः क्रियाभिर्भवति । तत्र - पारिवापनि कीनाम खड्गादिघातेन पीडाकरणम् । पञ्चक्रियता तदा भवति यदा माणातिपातक्रियाऽपि पञ्चमी भवति । प्राणातिपात क्रियानाम- जीविताद् व्यपरोपणम् । उक्तरीत्या ज्ञानावरणी
कायिकी, अधिकरगिकी और प्रादेपिकी, इन तीन क्रियाओं वाला होकर जीव कर्मबन्ध करता है । हाथ-पैर आदि का हिलाना डुलाना वगैरह 'कायिकि ' किया है । तलवार को तीक्ष्ण करना वगैरह 'आधिकरणिकी ' क्रिया है । ' इसे मारूंगा' इस प्रकार मन में अशुभ विचार करना 'माद्वेषिकी ' क्रिया है ।
प्राणातिपात करने वाला जीव चार क्रिया वाला होता है - कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादेपिको और पारितापनिको, ये चार क्रियाएँ उसे लगती हैं। तलवार आदिका आघात कर के पोड़ा पहुँचाना ' पारितापनिकी' क्रिया है । जब प्राणातिपात क्रिया भी जीव कर डालता है तब उसे पांचों क्रिवाएँ लगती हैं। किसी प्राणी को जीवन से वियुक्त कर देना 'प्राणातिपातिकी' क्रिया है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों के कारणभूत
કાયિકી, આધિકરણિકી અને પ્રાદ્ધેષિકી, ४रे छे, हाथ-पत्र माहिने साप - श्ववु તીક્ષ્ણ કરવી વિગેરે અધિનિજી ક્રિયા છે अशुभ विचार रखे। ते प्राद्वेषिकी डिया छे.
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આ
ત્રણ ક્રિયાઓવાળા થઈને જીવ કર્મબંધ वगेरे कायिकी हिया छे, तसवार वगेरेने એને મારીશ આ પ્રકારને મનમાં
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પ્રાણાતિપાત કરવાવાળા જીવ ચાર કિયાવાળા હાય છે—કાયિકી, આધિકરણિકી, મહેષિકી અને પારિતાપનિકી, આ ચાર ક્રિયાઓ તેને લાગે છે. તલવાર આદિના આઘાત કરીને પીડા પહેાંચાડવી તે પત્તિનિજી ક્રિયા છે. જ્યારે પ્રાણાતિપાત ક્રિયા પણ જીવ કરી નાંખે છે ત્યારે તેને પાંચ ક્રિયાએ લાગે છે. કાઈ પ્રાણીને જીવનથી
વિયુક્ત (૬) કરી દેવું તે માળાતિવૃત્તિી ક્રિયા છે. આ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણીય આદિ
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आचारात्चत्रे
शरीरजीर्णताप्रापणया या अश्रुपातादिप्रापणया या, शरीरपीडोत्पादनया वा ग्लानिजनने या सकलकर्मक्षयात्मिका मुक्तिर्न भवतीत्यर्थः । एवम्भूतस्य जीवस्य चतुर्गतिक दुःखमयसंसारदुस्तरमहारण्यपरिभ्रमणाद् विरामो न संभवतीति भावः ।
क्रियायाः पञ्चविंशतिदा इति स्थानागमुत्रे (स्था. २ उ. १ । स्था. ३ उ. ३) फतिभिः क्रियाभिः माणातिपातः -
माणातिपातं कुर्वन् जीवः सप्ताष्टी या ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि वनाति । तत्रायुर्वन्धे सत्यष्टौ कर्माणि आयुर्धन्धाभावे सप्त कर्माणि वनाति ।
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तत्र जीवः कतिभिः क्रियाभिः प्राणातिपावं निष्पादयति ? उच्यते- कदाचित तिसृभिः क्रियाभिः कदाचिच्चतसृभिः क्रियाभिः कदाचित् पञ्चभिः क्रियाभिः । पहुँचाने से शोक की अधिकता से होने वाली शरीर की जीर्णता पहुँचाने से, अनुपात आदि करवाने से, शरीर में पीडा उत्पन्न करने से, ग्लानि उत्पन्न करने से समस्त कर्मों का क्षयरूप मोक्ष प्राप्त नहीं होता । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के जीव के चार गति के दुःखों से परिपूर्ण संसाररूपी विकट अटवी में भ्रमण करने का अन्त नहीं आता ।
"
किया के पच्चीस भेद स्थानानसूत्र में कहे हैं । (स्था. २ उ. १, स्था. ३ उ. ३) प्राणातिपात कितनो क्रियाओं से होता है ? |
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प्राणातिपात करता हुआ जीव ज्ञानावरणीय आदि सात या आठ कर्मों का अन्ध करता हैं । आयु का बन्ध हो तो भाठ कर्मों का अन्यथा सात कर्मों का बन्ध करता है ।
जीव कितनी क्रियाओ से प्राणातिपात करता है । इस का उत्तर यह है - कदाचित् तीन क्रियाओं से, कदाचित् चार क्रियाओं से, कदाचित् पांच क्रियाओं से । છણુતા પહેાંચાડવાથી, આંસુ પડાવવાથી, શરીરમાં પીડા ઉત્પન્ન કરવાથી, ગ્લાનિ ઉત્પન્ન કરવાથી સમસ્તકર્મોના ક્ષયરૂપ મેક્ષ પ્રાપ્ત થતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કેઃ-~~~ આ પ્રમાણે જીવને ચારગતિના દુઃખાથી પરિપૂર્ણ સંસારરૂપી વિકટ અઢવી (વન)માં ભ્રમણ કરવાનો અંત આવતા નથી.
डियाना पथीस लेह स्थानांग सूत्रमां ह्या छे. (स्था. २-३-१. स्था. 3-3 ) પ્રાણાતિપાત કેટલી ક્રિયાઓથી થાય છે?
પ્રાણાતિપાત કરનાર જીવ જ્ઞાનાવરણીય આદિ સાત અથવા આઠે કર્મોના બંધ કરે છે. આયુને ખંધ હોય તા આઠ કર્મોનેઅન્યથા સાત કર્મોના બંધ કરે છે. જીવ કેટલી ક્રિયાએથી પ્રાણાતિપાત કરી શકે છે? તેને ઉત્તર એ છે ---हाथित् त्रष्टु छियाओ थी, उद्यायित थार प्रियामोथी; उहाथित् पांय द्वियामाथी,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ क्रियावादिम० રૂટ बढे सति तु मृगे तस्य लुब्धकस्य पारितापनिकी, परितापनमयोजना क्रिया भवति । यातिते च सति मारणरूपा माणातिपातक्रिया। __पूर्व क्रियया ज्ञानावरणीयादिकं कर्म जन्यते। तत्तत्कर्मफलानुभवनरूपा वेदना च तत्पश्चादेव भवति । उक्तन
"पुव्वं भंते ! किरिया पच्छा वेयणा? पुवं वेयणा तच्छा किरिया ? मंदिअपुत्ता ! पुव्वं किरिया पच्छा वेपणा, णो पुवं वेयणा, पच्छा किरिया"। (भग. ३ श. ३. उ.)
छाया-पूर्व भदन्त ! क्रिया पवाद वेदना ? पूर्व वेदना पश्चात् क्रिया ? भोमण्डितपुत्र ! पूर्व क्रिया पश्चाद् वेदना, नो पूर्व वेदना पश्चात् क्रिया ।
कुम्लादो लोहमुत्तिपतः क्रिया___ लोहं लोहमतापनार्थे कुरले. लोहमयेन संदेशनेनोक्षिपन् मक्षिपन् वा पापिकी क्रिया लगती है । मृग के बंध जाने पर शिकारी को पारितापनिकी क्रिया लाती है । मृग का घात करने पर हिंसारूप प्राणाविपातिकी क्रिया होती है। न पहले क्रिया से ज्ञानावरण आदि कर्मा का बंध होता है और उस का फल भोगनारूप वेदना याद में ही होती है। कहा भी है. -
___ "हे भगवन् ! पहले क्रिया और फिर वेदना होती है : अधवा पहले वेदना और पश्चात् क्रिया होती है ? हे मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया, पश्चात् वेदना होती है। पहले वेदना और पश्चात् क्रिया नहीं होती"( भगवती. श. ३. उ. ३.)
कुशल आदि में लोहा डालने वाले को क्रियातपाने के लिए कुशूल (भूप) में लोहे की संडासी से लोहा डालने वाले को ક્રિયા થાય છે. મૃગ પર થવાવાળા દૈવથી પિછી ક્રિયા લાગે છે. મૃગના બંધાઈ જવાથી શિકારીને પિત્તાની ક્રિયા લાગે છે. મૃગને ઘાત કરવાથી હિંસા૫ प्राणाविपातिकी ठिया याय छे.
પ્રથમ ક્રિયાથી જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોને બંધ થાય છે, અને તેનું ફળ ભોગવવા રૂપ વેદના પછીથીજ થાય છે. કહ્યું છે કે –
“હે ભગવા પહેલાં કિયા અને પછી વેદના થાય છે? કે પહેલાં વેદના અને પછીથી ક્રિયા થાય છે? છે મંડિતપુત્રા પહેલી ક્રિયા, અને પછીથી વેદના થાય છે, पक्षी वना भने पछीथीठिया यती नथी. " (MR. श. ३. 6. 3).
મૂવ આદિમાં લેઠું નાખનારને ક્રિયા તપાવવા માટે મૂષમાં, લેઢાની સાણસીથી લોઢું નાંખવાવાળાને કાયિકીથી લઈને
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રૂટ
आचारास्त्रे
यादिकर्मणां कारणीभूतस्य प्राणातिपातस्य निष्पत्तिस्त्रिक्रियतया, चतुष्क्रियतया पञ्च क्रियतया वा त्रिधा भवति । एवं चतुर्विंशतिदण्डकेषु विज्ञेयम् ।
मृगवषोद्यतस्य क्रिया
मृगवधोद्यतो लुब्धकः खलु धनपर्वतजलाशयादिषु मृगवधार्थं गत्वा मृगग्रहणाय गर्तादिकं तवन्धनार्थं च पाशं रचयति तदा मृगवधार्थं गमनगर्तपाशादिकरणात् तस्य कायिक्यादिकाः क्रिया भवन्ति । तत्र गमनधावनग्रहणादिना गमनादिकायचेष्टारूपा कायिकी, गर्तपाशादिरूपेणाधिकरणेन निर्वृत्ता क्रिया आधिकरणिकी, यथ मृगेषु मद्वेपस्तेन निर्वृत्ता माविकी क्रिया भवति । प्राणातिपात की निष्पत्ति कहीं तीन, चार तथा कहीं पांच क्रियाओं से, ऐसे तीन प्रकार से होती है। चौवीसों दण्डकों में इसी प्रकार समझना चाहिए ।
मृगवध में उद्यतको क्रिया
मृग मारने के लिए उद्यत हुआ शिकारी वन पर्वत और जलाशय आदि में मृगका वध करने के लिए जाकर मृग पकडने के लिए खड्डू बनाता है और उसे बांधने के लिए जाल रचता है । उस समय मृगवध के लिए गमन करने से, तथा खड्डा एवं पारा तैयार करने से, उसे कायिकी आदि क्रियाएँ लगती हैं । जाना दौडना, पकडना आदि से कायिकचेष्टारूप कायिकी क्रिया लगती है । खड्डा और नालरूप अधिकरणों के कारण आधिकरणिकी क्रिया होती है, मृग पर होने वाले द्वेष के कारण
કર્મીના કારણભૂત પ્રાણાતિપાતની ઉત્પત્તિ કોઈ સ્થળે ત્રણ, ફાઈ ઠેકાણે ચાર તથા કાઈ ઠેકાણે પાંચ ક્રિયાઓથી એવા ત્રણ પ્રકારથી હાય છે. ચાવીશેય દડકામાં આ પ્રમાણે સમજવુ જોઈ એ,
મૃગવધમાં તૈયાર થનારને ક્રિયા—
મૃગને મારવા માટે તૈયાર થયેલા શિકારી વન, પર્વત અને જલાશય આદિમાં મૃગના વધ કરવા માટે જઈને મૃગ પકડવા માટે ખાડા ખનાવે છે, અને તેને બાંધવા માટે જાલ રચે છે તે સમયે મૃગના વધ માટે ગમન કરવાથી, તથા ખાડા અને પાશ તૈયાર કરવાથી તેને કાયિકી આદિ ક્રિયા લાગે છે. જવું, ઢાડવું, પકડવુ આદિથી કાયિક येष्टरूप कायिकी हिया सागे छे. भाडे। अने लक्ष्य अधि४रोना रो आधिकरणिकी
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सृ.५ क्रियावादिम०
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पयति, स्थानतः स्थानान्तरं नयति, जीविताद् व्यपरोययति । तत्र कायिक्यादिप्राणातिपातिकी पर्यन्तामिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति ।
दृष्टिज्ञानाय हस्तादिकं प्रसारयतः क्रिया
रात्रौ frasianit चक्षुदर्शनाभावे सति वृष्टि विज्ञातुमाकाशे यः खलु स्तं पादं वा वाहुं वा उरुं वा यावत्कालं प्रसारयेत् संकोचचेत् तावत्कालत एवासौ कायिकयादिमाणातिपातिकोपर्यन्ताभिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति ।
करता है, पूरी तरह परितापना करता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजाता हैं, जीवन से प्युत करता है, ऐसा करने में वह कायिको व्यादि प्राणातिपातिको पर्यन्त पांचो क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । अर्थात् पांचों ही क्रियाएँ उसे लगती हैं ।
efeat के लिए हाय आदि फैलाने वाले को क्रियाएँ
रात्रि के समय घोर अन्धकार में - चक्षुर्दर्शन का अभाव होने पर, वर्षां जानने के . लिए आकाश में जो हाथ, पैर, बाहु, या ऊरु, जब तक पसारता है, सिकोड़ता है, ही वह कायिक आदि प्राणातिपातिको पर्यन्त पांचक्रियाओं से स्पृष्ट होता है ।
પૂરી રીતે પરતાપના કરે છે, એક સ્થાનથી બીજા સ્થાનમાં લઈ જાય છે, જીવનથી ચુત (વિયુક્ત) કરે છે. એવી રીતે કરવામાં તે કાયિકી આદિ પ્રાણાતિપાતિકી સુધીની પાંચેય ક્રિયાઓથી સ્પષ્ટ થાય છે, અર્થાત્ તેને પાંચેય ક્રિયા લાગે છે.
વૃષ્ટિજ્ઞાન માટે હાથ આદિ ફેલાવવા વાળાને ક્રિયાઓ
રાત્રિના ઘેર અંધકારમાં, ચક્ષુદાનના અભાવ હેાવાથી, વરસાદ આવે છે કે નહિ ? એ જાણવા માટે, આકાશમાં જે હાથ, પગ, બાહુ અથવા ઉર્ફે જ્યાં સુધી પ્રસારે છે, સટાચે છે, ત્યાં સુધી તે કાયિકી આદિ પ્રાણાતિપાતિકીસુધીની પાંચ યિાએ તેને સ્પર્શે છે.
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आचारागसूत्रे कायिक्यादि-प्राणातिपातिकीपर्यन्ताभिः पञ्चभिः क्रियामिः स्पृष्टो भवति । एवं लोहेन फालपरशुकुठारकुदालदानादिनिर्माणे लोहकारादीनां पत्रक्रियत्वं भवति, अविरतिसद्भावात् । एवं घनोपरि स्थापनेन कुट्टनेन भस्रया ध्मापनेन विध्यापनेन प्रज्वालितेन शैत्यकरणार्थ जले तप्तलोहमक्षेपेण प्रत्येकतत्तद्व्यापारे पश्चभिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति ।
धनुपा विध्यतः क्रियाधनुर्धरः शरैर्व्यापादयन् यावत् धनुगृह्णाति, धनुः प्रसारयति, कर्णपर्यन्तमाकपति, चर्तुलीकरोति, वाणं संयोजयति, ऊर्च मक्षिपति, स्वाभिमुखमागच्छतो हन्ति, अन्योन्यगात्रं संहतीकरोति, मनाक् स्पृशति, समन्ततः परिताफायिकी से प्राणातिपातिकी पर्यन्त पांच क्रियाओं का स्पर्श होता है। इसी प्रकार लोहे से फाल, फरसा, कुल्हाडा, कुदाल, दांतला आदि के बनाने में लहार वगैरह को पांच क्रियाएँ लगती हैं, क्यों कि उस में अविरति मौजूद है । इसी प्रकार घन के ऊपर रखने में, कूटने में, धौंकने में, आग बुझाने में, प्रज्वलित करने में, ठंडा करनेके लिए जल में लोहा डालने में, इस प्रत्येक में पांच २ क्रियाएँ लगती हैं।
धनुष से वेधने में क्रियाधनुर्धारी पुरुप बाण से मारता हुआ जब तक धनुप ग्रहण करता है, धनुषं फैलाता है, कानपर्यन्त खींचता है, गोल करता है, उस में बाण जोडता है, ऊपर फेंकता है, अपने सामने आते को मारता है, शरीर को सिकोडता है, जरा-सा स्पर्श પ્રાણુતિપાત સુધીની પાંચ ક્રિયાઓને સ્પર્શ થાય છે. એ પ્રમાણે લોઢાના ફાલહળની કેસ, ફરસી, કુવાડા, કેદાલી, દાંતલા આદિ બનાવવામાં લહાર વગેરેને પાંચ કિયાએ લાગે છે, કારણ કે તેમાં અવિરતિ હાજર છે. આ પ્રકારે ઘણને ઉપર રાખવામાં, કૂટવામાં ધેકનીથી ધકવામાં, અગ્નિ બુઝાવામાં પ્રજવલિત કરવામાં અને લેતું ઠંડું કરવા માટે પાણીમાં નાખવામાં. આ પ્રત્યેક કાર્યમાં પાંચ ક્રિયાઓ લાગે છે..
ધનુષથી વિધવામાં નિષા– ધનુષ ધારણ કરનાર પુરૂષ બાણથી મારતે ત્યાં સુધી ધનુષ ગ્રહણ કરે છે, પનષ ફેલાવે છે, કાન સુધી ખેંચે છે, ગોળ કરે છે, તેમાં બાણ જેડે છે, ઉપર ફેકે છે પિતાના સામે આવનારને મારે છે, શરીરને સંકેચે છે, છેડે એ સ્પર્શ કરે છે,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ क्रियावादिम० ३९३
इयं च प्राणातिपातक्रिया पइजीवनिकायविषये भवति । यथा-रज्जादौ सर्पादियुद्धया मारणाध्यवसायोऽपि जीवविषयक एव । तत्र हि-सोऽय'मितिबुद्धया मारणाध्यवसायो जायते, तस्माद रज्जु प्रति सर्पवधभावयुक्तः सविधजन्यया प्राणातिपातक्रियया स्पृप्टो भवति । अनीवविपयको मारणाध्यवसायस्तु नैव संभवति, यथा रज्जु रज्जुत्वेन विज्ञाय न कश्चिद्रज्जुविपये मारणायवसायं फरोति तस्मात् पटसु जीवनिकायेप्वेव प्राणातिपातक्रिया प्रवर्तते, न लजीवविपय इति । उक्तन्च
"कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ।। गोयमा छसु ‘जीवणिकाएमु" इति
यह प्राणातिपात क्रिया पडूनीवनिकाय के विषय में होती है। रस्सी आदि में सांप आदि की भावना से मारने का अध्यवसाय होना भी जीवविषयक ही अध्यवसाय है। वहाँ 'यह सर्प है ' इस प्रकार की भावना से मारने का अध्यवसाय होता है, अत एव वहाँ रस्सी में सर्प के वधके भाव से युक्त पुरुष सर्पवधजन्य प्राणातिपात किया से स्पृष्ट होता है। अजीवविषयक मारने का अध्यवसाय तो हो ही नहीं सकता है-रस्सी को रस्सी समझ कर कोई रस्सी में मारने की भावना नहीं करता, अतः पडूजीवनिकायों में ही प्राणातिपातिकी क्रिया .प्रवृत्त होती है, अजीव में नहीं। कहा भी है----
" भगवन् ! किन में जीवों को प्राणातिपातिकी क्रिया होती है ? गौतम ! छह जीवनिकायों में"।
આ પ્રાણાતિપાત ક્રિયા વિરૂછવનિકાયના વિષયમાં થાય છે. દેરડાં આદિમાં સર્ષઆદિની ભાવનાથી મારવાને અધ્યવસાય ચે તે પણ જીવવિષયક અધ્યવસાય છે. ત્યાં “આ સર્ષ છે આ પ્રકારની ભાવનાથી મારવાને અધ્યવસાય થાય છે. એટલા કારણથી ત્યાં રસી–દોરડાંમાં-સપના વધની ભાવનાયુક્ત પુરૂષ સર્પવષજન્ય પ્રાણાતિપાત ક્રિયાને સ્પર્શે છે. અજીવવિષયક મારવાના અધ્યવસાય તે થઈ શકતા નથી–રસીને રસી દિરડી) સમજીને કોઈ રસીદરડામાં મારવાની ભાવના કરતા નથી, તે માટે જીવનીકાચમાં જ પ્રાણાતિપાતની ક્રિયા પ્રવૃત્ત હોય છે. અછવામાં નહિ કહ્યું પણ છે–
ભગવન્! શેમાં જીને પ્રાણાતિપતિકી ક્રિયા થાય છે ? ગૌતમ! .७ नियम." .
प्र. मा.-५०
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आचाराङ्गमुत्रे
॥ तालमास्व तत्फलं पातयतः क्रिया ||
तालवृक्षमारुह्य तत्फलं पातयन्नपि तावत्कालत एव पञ्चभिः कायिकयादिक्रियाभिः स्पृष्टो भवति ।
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अष्टादश पापस्यानानि(१) प्राणातिपातः
जीयानां प्राणातिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातक्रिया भवति । हिंसापरिणामकाल एव प्राणातिपातक्रिया भवति । माणातिपातादीनामभ्यवसायमात्रादपि ज्ञानावरणीयादि कर्म जन्यते । उक्तञ्च
परिणामियं प्रमाणं णिच्छयमवलंवमाणाणं " इति ।
"
तालवृक्ष पर चढ कर फल गिरानेवाले को क्रियाएँ
*
ताल वृक्ष पर चड कर उस के फल गिराता हुआ तब तक कायिकी आदि पांचक्रियाओं से स्पृष्ट होता है ।
अठारह पापस्थान(१) माणातिपात
जीवों का प्राणातिपात करने के अध्यवसाय से प्राणातिपातक्रिया होती है । हिंसारूप परिणाम के समय ही प्राणातिपातक्रिया होती है । प्राणातिपात का अध्यवसाय होने मात्र से भी ज्ञानावरण आदि कर्म उत्पन्न होते हैं । कहा भी है---
}
" परिणामियं पमाणं णिच्छयमवलंवभागाणं "
अर्थात् प्राणातिपात करने का निश्चय करने वाले का परिणाम ही कर्मबन्ध का कारण है તાલવૃક્ષપર ચઢીને ફલ પાડનારની ક્રિયાઓ
તાલવૃક્ષ પર ચઢીને તેના ફળ પાડે છે ત્યાં સુધી કાયિકી આદિ પાંચ ક્રિયાના સ્પર્શ કરે છે.
અઢાર યાપસ્થાનું
(१) भाषातिपात-
જીવાના પ્રાણાતિપાત કરવાના અધ્યવસાયથી પ્રાણાતિપાક્રિયા થાય છે. હિસા રૂપ પરિણામના સમયેજ પ્રાણાતિપાતક્રિયા થાય છે. પ્રાણાતિપાતના અધ્યવસાય થવા માત્રથી પણ જ્ઞાનાવરણ આદિ કમ ઉત્પન્ન થાય છે કહ્યું છે, કે
" परिणामियं पमाणं णिच्छयमवलंबमाणाणं. "
અર્થાત્-પ્રાણાતિપાત કરવાનેા નિશ્ચય કરવાવાળાનાં પરિણામજ કર્મ ખંધનું કારણ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ १.५ किया० पापस्यान (१८) ३९६ गतरूपेषु रूपसहगतेषु स्वादिषु विषयेषु भवति, न तु सकलवस्तुविपये । उक्तन्च
"कम्हि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? । गोयमा ! स्वेमु वा स्वसहगएस वा दन्वेसु" इति (भग. १ श. ६ उ.)
(५) परिग्रह:---- परिग्रहः स्वस्वामिभावेन मूर्छा । स च प्राणिनामधिकलोभात् समस्तवस्तुरिपये प्रादुर्भवति । . कत्याकृत्यविवेकोन्मूलकोऽसमारूप आत्मपरिणामः क्रोधः ६ । मानो गः ७ । माया शाठयम् ८ । लोभोः गृध्नुता ९ । राग भीविरासक्तिर्वा १० । भी सब वस्तुओं में नहीं होता । चित्र, लेप्य, या माठ आदि में अङ्कित किये जाने वाले रूपो में या स्त्री आदि में ही मैथुन का अव्यवसाय होता है । कहा भी है--
"भगवन् ! किस विषय में जीव मैथुन किया करते हैं ? गौतम! रूपों में और रूप-युक्त विषयों (त्रियों आदि) में। (भग. श. १, उ. ६)
(५) परिग्रह" यह वस्तु मेरी है मैं इसका स्वामी हूँ" इस प्रकार की मूर्छा को परिप्रह कहते हैं । प्राणियों में लाभ की अधिकता होने के कारण सभी वस्तुओं में मूळ हो सकती है।
कर्तव्य--अकर्तव्य के विवेक को नष्ट करने वाला अक्षमारूप आत्मा का परिणाम (६) क्रोध कहलाता है। गर्व को (७) मान और कपट को (८) माया कहते हैं।
પણ સર્વ વસ્તુઓમાં નથી, ચિત્ર લેપ્ય અથવા કોઇ આદિમાં ચિતરવામાં આવેલા રૂપમાં અથવા સ્ત્રી આદિમાં જ મૈથુનને અધ્યવસાય થાય છે. કહ્યું પણ છે –
“ભગવાન ! કયા વિષયમાં જીવ મિથુન ક્રિયા કરે છે? ગૌતમ! પિમાં અને રૂપયુક્ત વિષય (સિ આદિ)માં (ભગ ૧ શ---G)
(५) परिहઆ વરતુ મારી છે હું તેને માલિક છું” આ પ્રકારની મૂછને પરિગ્રહ કહે છે. પ્રાણીઓમાં લોભની અધિકતા હોવાના કારણે સર્વ વસ્તુઓમાં મૂછ હાથ છે.
કર્તવ્ય-અકર્તવ્યના વિવેકને નાશ કરવાવાળા, અક્ષમાપ આત્માનું પરિણામ તે કાપ કહેવાય છે. (૬), ગર્વ ને માન છે, અને કપટને માયા કહે છે (૮), ગહિ તે
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भाधाराने (२) मृपावाद:सतोऽपलापोऽसतश्च मरूपणं मृपारादः । स सर्वद्रव्यपर्यायविशेषये भवति ।
(३) अदत्तादानम्अदत्तस्य देवगुर्वादिभिरननुज्ञातस्यादान ग्रहणम् अदत्तादानम् , यद् वस्तु ग्रहीतुं धारयितुं वा शक्यते, तद्वस्तुमात्रत्रिपयकमादानं भवति, न तु तदन्यवस्वविषयकम् , उक्तश्च
__"कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिनादाणेणं किरिया फजइ ? । गोपमा गहणधारणिज्जम दव्वेसु" । इति (भग० १ श. ६ उ.)
(8) मैथुनम्स्त्रीपुंसयोः कर्म-मैथुनम् । मैथुनाध्यवसायोऽपि चित्रलेप्यकाष्ठादिकर्म
(२) मृपावादसत् का अपलाप करना और असत् का प्ररूपण करना मृपावाद है । मृपावाद समस्त द्रव्यों और पर्यायों के विषय में होता है।
अदत्त अर्थात् देव एवं गुरु आदि द्वारा जिस की आज्ञा प्राप्त न हुई हो उसको प्रहण करना अदत्तादान है । जो वस्तु महण की जा सकती है या धारण की जा सकती है उसी वस्तु का आदान हो सकता है, अन्य वस्तु का नहीं। कहा भी है:---
"भगवन् ! किस वस्तु में अदत्तादान के द्वारा क्रिया की जाती है ! गौतम ! ग्रहण करने और धारण करने योग्य द्रव्यों में (भग., श. १, उ. ६)
(४) मैथुनमिथुन अर्थात् स्त्री और पुरुष का कार्य मैथुन कहलाता है । मैथुन का अध्यवसाय
भूषापाસત્-ને બેટું કહેવું અને અસતને સાચું કહી તેનું પ્રોપણ કરવું તે મૃષા વાદ-સમસ્ત દ્રવ્ય અને પર્યાના વિષયોમાં થાય છે.
(3) मETrtઅદત્ત અર્થાત્ દેવ-ગુરૂ આદિદ્વારા જેની આજ્ઞા મળી ન હોય, તેવી વસ્તુને ગ્રહણ કરવી તે અદત્તાદાન છે. જે વસ્તુ ગ્રહણ કરી શકાય છે, અથવા ધારણ કરી શકાય છે તે વસ્તુનું આદાન થઈ શકે છે. બીજી વસ્તુનું નહિ. કહ્યું પણ છે –
ભગવન! કઈ વસ્તુમાં અદત્તાદાન દ્વારા કિયા થઈ શકે છે? ગૌતમ! ગ્રહણ ४२वा मन पार१४२५१ याश्य द्रव्यमा." (मा. श. 26.8)
મૈથુન અથત શ્રી અને પુરૂષનું કાર્યો મૈથુન કહેવાય છે, મૈથુનના અધ્યવસાય
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भचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ . ५ क्रिया० पापस्थान (१८) ३९६ गतरूपेषु रूपसहगतेषु स्वादिषु विषयेषु भवति, न तु सकलवस्तुविषये ।
उक्तञ्च -
" कम्हि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जइ १ । गोयमा ! स्वेट वा स्वसहगए वा दव्वेसु" इति ( भग. १ श. ६ उ. ) (५) परिग्रहः
परिग्रहः = स्वस्वामिभावेन मूर्च्छा । स च प्राणिनामधिकलोभात् समस्तवस्तुविषये प्रादुर्भवति ।
कृत्याकृत्यविवेकोन्मूलकोऽक्षमारूप आत्मपरिणामः क्रोधः ६ । मानो = गर्वः ७ । माया=शाठयम् ८ | लोमो = गृध्नुता ९१ । रागःमीतिरासक्तिर्वा १० |
सब वस्तुओं में नहीं होता । चित्र, लेप्य, या काष्ठ आदि में अङ्कित किये जाने वाले रूपों में या स्त्री आदि में ही मैथुन का अध्यवसाय होता है । कहा भी है
MAAAAA
"भगवन् ! किस विषय में जीव मैथुन किया करते हैं ? गौतम ! रूपों में और रूप-युक्त विषयों (त्रियों आदि ) में । (भग. श. १, उ. ६)
(५) परिग्रह -
"यह वस्तु मेरी है मैं इसका कहते हैं । प्राणियों में लोभ की अधिकता सकती है।
कर्तव्य कर्तव्य के विवेक को (६) क्रोध कहलाता है । गर्व को (७)
I
स्वामी हूँ" इस प्रकार की मूर्च्छा को परिग्रह होने के कारण सभी वस्तुओं में मूर्च्छा हो
नष्ट करने वाला अक्षमारूप आत्मा का परिणाम मान और कपट को (८) माया कहते हैं ।
પણ સર્વ વસ્તુઓમાં નથી. ચિત્ર લેખ્ય અથવા કાઇ આદિમાં ચિતરવામાં આવેલા રૂપામાં અથવા આ આદિમાંજ મથુનના અધ્યવસાય થાય છે. કહ્યું પણ છે .~~~~ ‘ભગવન્ ! કયા વિષયમાં છત્ર મથુન ક્રિયા કરે છે?
((
गौतम रूपमा भने उपयुक्त विषयों (त्रियो आदि) भां” (लग०१ N-E-G) (4) परियदु
“ વસ્તુ મારી છે...હું તેના માલિક છું” આ પ્રકારની મૂર્છાને પરિગ્રહ કેહે છે. પ્રાણીઓમાં લાભની અધિકતા હૈાવાના કારણે સર્વ વસ્તુઓમાં મૂર્છા હોય છે.
કત વ્ય-અકર્તવ્યના વિવેકને નાશ કરવાવાળા, અક્ષમારૂપ આત્માનું પરિણામ તે अथ उडेवाथ छे. (९), गव ने भान (७), भने उपटने भाया मुडे छे (८), वृद्धि ते
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आधाराने द्वेप-अप्रीतिः ११ । कलहो विरोधः १२ । अभ्याख्यानम् असदोपारोपणम् १३ । पैशुन्यकर्णान्तिकादौ परोक्षे विधमानस्याविधमानस्य वा दोपस्योद्घाटनम् १४ । परपरिवादाअभूतजनसमक्ष परदोषप्रकाशनम् १५ । रत्परतिः विपयेप्चनुरागो रतिः, धर्मेऽनभिरुचिररतिः, रतिसहिता-अरतिः रत्यरतिः, इदमेकं पापस्थानम् १६ । मायामृपा-मायासहितो मृपावादः, इदमप्येकं पापस्थानम् १७ । मिथ्यादर्शनशल्यम्-मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं तदेव शल्यमिव विविधव्यथाजनकत्वात् मिथ्या
गृहि-(९) लोभ है, प्रीति या आसक्ति (१०) राग हैं, और अप्रीति को (११) द्वेष कहते हैं, (१२) कलह अर्थात् विरोध । (१३) अभ्याख्यान अर्थात् किसी को झूठा दोष लगाना । चुगली वगैरह को (१४) पैशुन्य कहते हैं, अर्थात् विद्यमान या अविद्यमान दोष को पीठ पीछे प्रकाशित करना । बहुत से लोगों के समक्ष दूसरे के दोष प्रकाशित करना (१५) परपरिवाद है । विषयों में अनुराग होना रति और धर्म में अनुराग न होना भरति है, रतिसहित अरति को (१६) रत्यरति कहते हैं। यह एक पापस्थानक है। माया से युक्त मृपावाद (१७) मायामृपा कहलाता है, यह भी एक पापस्थानक है । शल्य के समान विविध प्रकार की व्यथाएँ उत्पन्न करने वाला मिथ्यात्व (१८) मिथ्यादर्शनशल्य कहलाता है, अर्थात् कुदेव कुगुरु और कुधर्म को
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લભ છે (ઈ. પ્રીતિ અથવા આસક્તિ તે સગ છે (૧). અને અપ્રીતિને દેષ કહે છે (૧૧). કલહ અથી વિરોધ (૧૨). અભ્યાખ્યાન અર્થાત કેઈન પર જુઠો આરોપ મૂકવે તે (૧૩). ચુગલી વગેરેને પશુન્ય કહે છે, અર્થાત વિદ્યમાન અથવા અવિદ્યમાન દેને પાછળથી પ્રકાશિત કરવા (૧૪). ઘણા લેકેના સમક્ષ બીજાના દો પ્રકાશિત કરવા તે પરંપરિવાદ છે (૧૫). વિષયોમાં અનુરાગ તે રતિ છે, અને ધર્મમાં અનુરાગ નહિ તે અરતિ છે, રતિસહિત અરતિને રસ્યરતિ કહે છે. આ પણ એક પાપસ્થાનક છે (૧૬). માયાથી યુક્ત મૃષાવાદ તે માયામૃષા કહેવાય છે. તે પણ એક પાપરાનક છે (૧૭). શલ્યની પ્રમાણે વિવિધ પ્રકારની પિડાઓ ઉત્પન્ન કરવાવાળા બપ્પા મિાદર્શનશલ્ય કહેવાય છે. અથોત કુદેવ કુગુરૂ અને ધર્મને સુદેવ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.६. कर्मसमारम्भः રૂ816 दर्शनशल्यम् कुदेव-कुगुरु-कुधर्मेषु सुदेवादिबुद्धिः १८ । एतान्यष्टादश पापस्थानानि । एताभिः क्रियाभिर्जीवः कर्म बन्धाति ॥ सू. ५ ॥
॥ इति क्रियावादिप्रकरणम् ॥
क्रिया किलात्मनः परिणामः । तेन क्रियावत्वं कर्तृत्वं चात्मनः सिध्यति । तत्कालिकक्रियासम्बन्धादात्मनस्त्रिकालवतित्वं च सिध्यतीत्याशयेनाह-"अकरिस्स" इत्यादि।
अकरिस्सं चऽहं, कारये चऽहं, करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि। एयावंति सन्यावंति लोगसि कम्मसमारंमा परिजाणियन्या भवति ।। सु. ६॥
सुदेव सुगुरु और सुधर्म समझना मिथ्यादर्शनशल्य है। ये अठारह पापस्थानक हैं। इन अठारह प्राणातिपात आदि क्रियाओं से जीव को कर्मों का बन्ध होता है । ॥ सू. ५ ॥
॥ इति क्रियावादिप्रकरण ॥
क्रिया आत्मा का एक परिणाम है। उस से आत्मा का क्रियावत्त्व या कर्तव सिद्ध होता है, और अमुक-अमुक-कालीन क्रियाओं के सम्बन्ध से यह भी सिद्ध होता है कि-" आत्मा त्रिकालवर्ती है। यह बात अब बतलाई जाती है:-'अकरिस्सं च। इत्यादि।
मूलार्थ-मैंने किया था, मैं कराता हूँ और करने वाले की मैं अनुमोदना करूंगा। यह सब लोक में कर्मसमारम्भ जानने चाहिए । सू. ६ ॥ સારૂ અને સુધર્મ સમજવા તે મિથ્યાદર્શનશલ્ય છે (૧૮). આ અઢાર પા૫ સ્થાનક છે. આ અઢાર પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રિયાઓથી જીવને કર્મોને બંધ થાય છે. (સૂ. ૫)
तियिापा४ि२९१.
- કિયા આત્માનું એક પરિણામ છે, તેનાથી આત્માનું કિયાવત્વ અથવા કત્વ સિદ્ધ થાય છે, અને અમુક-અમુક-કાલીન ક્રિયાઓના સંબંધથી એ પણ સિદ્ધ થાય છે ३-मात्मा निसपत्ता. ते वात वेमतापामा माछ-'अकरिस्सं चऽहं त्याल.
મૂલાઈ – મેં કહ્યું, મેં કરાવ્યું અને કરવાવાળાને મેં અનુદાન આપ્યું. આ સર્વ લેકમાં કમ-સમારંભ જાણવા જોઇએ. (સૂ) ૬)
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आचाराने ॥ छाया ॥ ___अकार्ष चाई, कारयामि चाहं, कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि । एतावन्तः __ सर्वे लोके कर्मसमारंभाः परिज्ञातव्या भवन्ति ॥ ६॥
॥ टीका ॥
'अकार्प चाहम्' इति । अत्र 'च'-शब्दोपादानेन भूतकालिककारितानुमोदितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम्, तेन-(१) अहमकार्पम् (२) अहमचीकरम् (३) अहं कुर्वन्तमन्यमन्वमूमुदम्, इति भेदत्रयं भवति । 'कारयामि चाहम्' इति, अत्र 'च'-शब्देन वर्तमानकालिककृतानुमोदितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम् ,। तेन-(१) अहं कारयामि, (२) अहं करोमि, (२) अहमनुमोदयामि, इति भेदत्रयं भवति ।
टीकार्थ-'अकरिस्स चऽहं' यहाँ जो 'च' का प्रयोग किया है। उस से यह अर्थ समझना चाहिए कि-"मैंने अनुमोदन किया था।" इस प्रकार मैंने किया, करवाया और अनुमोदन किया, तीन भेदों का कथन हुआ है। .
'कारवेसुं चऽहं ' यहाँ भी 'च' पद से दो क्रियाओं का ग्रहण होता है, अतः में कराता हूँ, मैं करता हूँ, और मैं अनुमोदन करता हूँ; इन तीन भेदों का कथन समझना चाहिए।
"करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि" यहाँ भी 'च' पद से भविष्यकालीन करने और कराने का अर्थ लेना चाहिए, अतः करने वाले का मैं अनुमोदन करूंगा, मैं स्वयं करूंगा और मैं कराऊंगा। ये क्रिया के तीन भेद समझ लेने चाहिए।
m:-'अकरिस्सं चऽहं' मरिच' प्रयोग ध्या छ, तथा से અર્થ સમજે જોઈએ કે–મેં કરાવ્યું હતું. આ પ્રમાણે “મેં' કર્યું, કરાવ્યું, અને મેં અનુમોદન આપ્યું, આ ત્રણ દેનું કથન સમજવું જોઈએ.
'कारवेसुं चऽहं 'महि पY 'च' ५४थी मेडियामा अक्ष यायछे, तथा કર્યું, મેં કરાવ્યું, અને મેં અનુદાન આપ્યું. આ ત્રણ ભેદનું કથન સમજવું જોઈએ.
करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि' मडिप'' पथ मविष्यमान शश અને કરાવીશ. તે અર્થે લેવો જોઈએ. એ કારણથી “કરવાવાળાને હું અનુમાન કરીશ. હું સ્વયં કરીશ અને હું કરાવીશ” એ ક્રિયાના ત્રણ ભેદ સમજી લેવા જોઈએ.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ .६. कर्मसमारम्मा ____३९९ 'कुर्वतश्चापि समनुझो भविष्यामि, इति । अत्रापि 'च'-शब्दोपादानेन भविष्य
कालिककृतकारितमियाद्वयस्यापि ग्रहणम् । 'समनुशः' इत्यस्य समनुज्ञाता अनुमोदयितेत्यर्थः । तथा च-(१) अहमन्यस्य कुर्वतोऽनुमोदयिता भविष्यामि, (२) स्वयमई करिष्यामि, (३) अहं कारयिष्यामि, इति भेदत्रयं क्रियायाः भवति । कुर्वतश्वापीत्यत्र 'अपि'-शब्दोपादानेन तासां नवानां क्रियाणां मनोवाकायभेदेन सप्तविशतिभा भवन्ति । - आत्मवाचकमहमिति पदं पुरस्कृत्य 'अकार्पम्' इत्यादिक्रियापदोपादानात "सर्वाः क्रिया आत्मपरिणामरूपाः" इति वोधितम् । एतेन "आत्मा निष्क्रिया" इति सांख्याधभिमतं निराकृतम् ।
'यावि' शब्द में जो 'अपि' पद है, उस से यह समझना चाहिए कि इन नौ क्रियाओं के मन वचन और कायके मेद से सत्ताईस भेद हो जाते हैं। अर्थात् पूर्वोक्त नौ क्रियाएं मन से फो जाती हैं. वचन से की जाती हैं, और फाय से भी की जाती हैं, अतः उनके सत्ताईस भेद हो जाते हैं।
आत्मा के वाचक अहम् (मैं) पदको प्रधान करके 'अकार्पम्' इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण करने से यह सूचित किया गया है कि ये सब क्रियाएँ आत्मा का ही परिणाम हैं। इस सूचना से आत्माको निष्क्रिय मानने वाले सांख्य आदि मतों का निराकरण हो गया है।
'यावि,
अपिप तथा से सभा स न ક્રિયાઓના મન, વચન અને કાયાના ભેદથી સત્તાવીશ ભંગ થાય છે. અર્થાત્ પૂર્વોક્ત નવ ક્રિયાઓ મનથી કરી શકાય છે. વચનથી અને કાયાથી પણ કરી શકાય છે. તેથી તેના સત્તાવીશ ભેદ થઈ જાય છે.
सामान पाय 'अहम ई-पहने प्रधान सभान अकार्यम्' : कियाપદાના ગ્રહણ કરવાથી એ સુચન કરવામાં આવ્યું છે કે-એ સર્વ ક્રિયાઓ આત્માનું જ પરિણુમ છે. આ સૂચનથી આત્માને નિષ્ક્રિય માનવાવાળા સાંખ્ય આદિના મતનું નિરાકરણ થઈ ગયું છે.
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आचारांचे ॥छाया। ___ अकार्प चाई, कारयामि चाहं, कुर्वतश्चापि समनुसो भविष्यामि । एतावन्तः __ सर्वे लोके कर्मसमारंभाः परिज्ञातव्या भवन्ति सं. ६॥
॥ टीका ॥ 'अकार्ष चाहम्' इति । अत्र 'च'-शब्दोपादानेन भूतकालिककारितानुमोदितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम्, तेन-(१) अहमकार्षम् (२) अहमचीकरम् (३) अहं कुर्वन्तमन्यमन्यमूमुदम्, इति भेदत्रयं भवति । 'कारयामि चाहम्' इति, अत्र 'च'-शब्देन वर्तमानकालिककृतानुमोदितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम् ,। तेन-(१) अहं कारयामि, (२) अहं करोमि, (२) अहमनुमोदयामि, इति भेदत्रयं भवति ।
टीकार्थ-'अकरिस्सं चऽहं' यहाँ जो 'च' का प्रयोग किया है, उस से यह अर्थ समझना चाहिए कि-" मैंने अनुमोदन किया था।" इस प्रकार मैंने किया, करवाया और अनुमोदन किया, तीन भेदों का कथन हुआ है।
'कारवेसं चऽहं ' यहाँ भी 'च' पद से दो क्रियाओं का ग्रहण होता है, अतः में कराता हूँ, मैं करता हूँ, और मैं अनुमोदन करता हूँ; इन तीन भेदो का कथन समझना चाहिए।
"करओ यावि समथुन्ने भविस्सामि" यहाँ भी 'च' पद से भविष्यकालीन करने और कराने का अर्थ लेना चाहिए, अतः करने वाले का मैं अनुमोदन फरूंगा, मैं स्वयं करूंगा और मैं कराऊंगा । ये क्रिया के तीन भेद समझ लेने चाहिए।
- अकरिस्सं घड' मा 'च'नो प्रयाग ४य छ, तथा से अर्थ समनवा नये-'में ४२व्यु तु२मा प्रमाणे 'मे' ४यु, ४२व्यु, અને મેં અનુમોદન આપ્યું, આ ત્રણ ભેદનું કથન સમજવું જોઈએ.
'कारवेसु चई' महि ५ 'च' ५४थी म छियामार्नु अ५ थाय छे. तथा કર્યું, મેં કરાવ્યું, અને મેં અનુદાન આપ્યું. આ ત્રણ ભેદનું કથન સમજવું જોઈએ.
करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि' महिप'च' ५४थी भविष्यवीन शश અને કરાવીશ. તે અર્થ લેવો જોઈએ. એ કારણથી “કરવાવાળાને હું અનુમોદન કરીશ, હું સ્વયં કરીશ અને હું કરાવીશ એ ક્રિયાના ત્રણ ભેદ સમજી લેવા જોઈએ,
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सु. ६ कर्मसमारम्भः भविष्यामीति चिन्तांनछेन कोटरस्थत्रहिना जरद्रुम इव संतप्तोऽस्मीति भावः ।
लोके - जिनशासने, सर्वे कर्मसमारंभाः कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि समारभन्ते = जनयन्ति ये क्रियाविशेषास्ते कर्मसमारंभाः । एतावन्त एव, नावोऽधिका इत्यर्थः, परिज्ञातव्या भवन्ति-परिज्ञाविपयीकृत्य ज्ञेया हेयाश्च भवन्तीत्यर्थः । परिक्षा हि द्विविधा - परिज्ञा, मत्याख्यानपरिज्ञा च । तत्र ज्ञपरिज्ञया सप्तविंशतिभङ्गरूपाः कर्मसमारंभाः क्रियाविशेषाः विज्ञेयाः । प्रत्याख्यानपरशया च सर्वे कर्मसमारम्भाः क्रियाविशेषाः कर्मवन्धहेतवः मयाख्यातव्या इति भावः ॥ सू० ६ ॥
काँपी से जर्जरित हो जाता है । भय में दुःखमय संसार से किस प्रकार छुटकारा पाऊँगा ? इस तरह की चिन्तारूपी अग्नि से में ऐसा संतप्त हूँ जैसे कोटरस्थ अग्नि से जीर्ण वृक्ष भीतर ही भीतर भस्म हो जाता है ।
"
"लोक में अर्थात् जिनशासन में इतने ही ज्ञानावरणीय आदि फर्मों को उत्पन्न करने वाले कर्मसमारम्भ हैं, इन से न्यून या अधिक नहीं " । यह परिज्ञा विषय करने योग्य है अर्थात् परिज्ञा से हो ये सब क्षेय और देय होते हैं। परिज्ञा दो प्रकारको है - ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान - परिज्ञा । इन में से सत्ताईस भंग रूप कर्म समारम्भ ( क्रियाविशेष ) शपरिज्ञा से जानने नाहिए, और प्रत्याख्यान- परिज्ञा से कर्म के कारण समस्त कर्मसमारम्भों का त्याग करना चाहिए | सू. ६ ॥
1
વાવાઝોડાથી જરિત થઈ જાય છે. હુવે હું દુઃખમય સંસારથી છુટકારા કેવી રીતે -ગામીશ? આ પ્રમાણે ચિન્તારૂપી અગ્નિથી હું એવે સંતપ્ત છું કે જેમ-કેટસ્થ (આટની ખખેલમાં રહેલું) અગ્નિથી જીણુ વૃક્ષ ઘરને દરજ ભસ્મ થઈ જાય છે.
લેાકમાં અર્થાત્ જિનશાસનમાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આટલાંજ ક સમારંભ છે, તેનાથી આછા કે વધારે નથી. આ પરિજ્ઞા વિષય કરવા ચેગ્ય છે, અર્થાત્ પરિજ્ઞાથી આ બધાં જ્ઞેય અને હેય થાય છે. પરિજ્ઞા બે પ્રકારની- - छे. (१) परिक्षा भने (२) अत्याध्यान- परिज्ञा, तेभांथी सत्तावीश मंशय भ सभारल (डिया-विशेष ) - परिज्ञाथी नथुथुं लेाये, मने अत्याध्यान- परिज्ञार्थीी કર્મોનું કારણ સમસ્ત ક્રર્મેસમાર ભેના ત્યાગ કરવા જેઈ એ. (સૂ॰ ૬)
म बा.-५१
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आचारागारले एकस्य चात्मनखिकालवर्तितत्तत्कियासम्बन्धेन क्षणिकवादोऽपि निरस्तः । किञ्चआत्मपरिणतिरूपां क्रियां कुर्वन्नात्मा स्वस्य त्रिकालस्थायित्वं मतिज्ञानमात्रेण जानातीति भगवता योधितम् । तेनात्मनि विषये प्रत्यभिज्ञाऽप्येवं प्रादुर्भमति
येन मया मृगतृष्णाम्भसा मृगवद् विविध विषयरकप्टेन गर्ने मुग्धमृगवन्मोहगर्ने निपतितेन मुखलिप्सयाऽऽरम्मपरिग्रहरूपसावधक्रियापरायणतया स्थायुः क्षपितम् ,
स एवाई संमति वातैगिरिशिखरम इव जन्मजरामरणाधिव्याधिविविधदुःखसंपृक्ततुच्छसुखभोगेजेर्जरीकृतः कथमस्माद् दुःखजालसंसारान्मुक्तो
एक हो आमाका निकालवती अमुक-अमुक क्रियाओं के साथ सम्बन्ध दिखलानेसे क्षणिकवाद का भी खण्डन किया गया है। भगवान्ने यह भी प्रकट कर दिया है कि-अपनी परिणतिरूप क्रियाएँ करता हुआ आमा मतिज्ञान से ही यह जान लेता है कि यह (आत्मा) त्रिकालवती है। इससे आत्मा के विषयमें इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है--
"जैसे मृगतृष्णा में फँसकर मूढ मृग फष्ट पाता है उसी प्रकार माति-आति के विषयों से आकृष्ट हो कर मोहरूपी गडहे में गिर कर सुख की लालसा से जिसने भारम्भ-परिमह-रूप सावध कियामें उद्यत हो कर वृथा आयु गवाई थी वही में आज जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि वगैरह विविध प्रकार के दुःखों से परिपूर्ण और तुच्छ इन्द्रिय भोगोंद्वार ऐसा जर्जरित कर दिया गया है, जैसे पर्वत के उपर का पेड़
એકજ આત્માનું વિકાલવતી અમુક-અમુક ક્રિયાઓની સાથે સંબંધ દેખાય વાથી ક્ષણિકવાદનું પણ ખંડન કરવામાં આવ્યું છે. ભગવાને એ પણ પ્રગટ કરી દીધું છે કે–પિતાની પરિણતિરૂપ ક્રિયાઓ કરતા આત્મા મતિજ્ઞાનથી જ. એ જાણી લે છે કે તે ત્રિકાલવતી છે. એ કારણથી આત્માના વિષયમાં આ પ્રકારનું પ્રત્યભિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે.
જેમ મૃગતૃષ્ણામાં ફસાઈને મૂઢ મૃગ કષ્ટ પામે છે તે પ્રમાણે જાત-જાતના વિષયથી આકૃષ્ટ થઈને–ખેંચાઈને મોહરૂપી ખાડામાં પડી જઈને સુખની લાલસાથી જે આરંભ પરિપ્રહરૂપ સાવદ્ય ક્રિયામાં ઉદ્યમી થઈને વૃથા આયુ ગુમાવ્યું હતું, તે હું આજે જન્મ-જરા-મરણ-આધિ-વ્યાધિ વગેરે વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખેથી પરિપૂર્ણ અને તરછ ઇક્રયા દ્વારા એ જર્જરિત કરવામાં આ છું કે જેમ-પર્વત ઉપર ઝાડ
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meroferoraft frer अध्य. १ उ. १ सु. ६ कर्मसमारम्भः भविष्यामीति चिन्तानलेन कोटरस्थयहिना जरद्रुम इव संतप्तोऽस्मीति भावः ।
लोके - जिनशासने, सर्वे कर्म समारंभाः = कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि समारभन्ते = जनयन्ति ये क्रियाविशेषास्ते कर्मसमारंभाः । एतावन्त एव, नावोऽधिका इत्यर्थः, परिज्ञातव्या भवन्ति - परिज्ञाविपयीकृत्य ज्ञेया हेयाथ भवन्तीत्यर्थः । परिक्षा दि द्विविधा - परिक्षा, मत्याख्यानपरिज्ञा च । तत्र क्षपरिज्ञया सप्तविंशविभङ्गरूपाः कर्मसमारंभाः क्रियाविशेषाः विज्ञेयाः । मत्याख्यानपरिज्ञया च सर्वे कर्मसमारम्भाः क्रियाविशेषाः कर्मबन्धहेतवः प्रत्याख्यातव्या इति भावः ॥ ०६ ॥
आधी से जर्जरित हो जाता है। श्रम में दुःखमय संसार से किस प्रकार छुटकारा पाऊँगा ! इस तरह की चिन्ता अग्नि से मैं ऐसा संतप्त हैं जैसे फोटरस्थ अग्नि से जीर्ण पृक्ष भीतर ही भीतर भम्म हो जाता है ।
"
'लोक में अर्थात् जिनशासन में इतने ही ज्ञानावरणीय आदि फर्मों को उत्पन्न करने बाले कर्मसमारम्भ हैं, इन से न्यून या अधिक नहीं " । यह परिज्ञा विषय करने योग्य हैअर्थात् परिशा से ही ये च ज्ञेय और हेय होते हैं। परिज्ञा दो प्रकारको है- ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान- परिज्ञा । इन में से सत्ताईस मंग रूप कर्मसमारम्भ ( क्रियाविशेष ) परिक्षा से जानने चाहिए, और प्रत्यादयान- परिज्ञा से कर्म के कारण समस्त कर्मसमारम्भों का त्याग करना चाहिए ।। सू. ६ ॥
વાવાઝોડાથી જરિત થઈ જાય છે. 'હૅવે હું દુઃખમય સંસારથી છુટકારા કેવી રીતે પામીશ ? આ પ્રમાણે ચિન્તારૂપી અગ્નિથી હું એવા સંતપ્ત છું. કે જેમ-કાટરસ્થ (બ્રાની ખખાલમાં રહેલું) અગ્નિથી છણુ વૃક્ષ ધરને અંદરજ ભસ્મ થઈ જાય છે.
લેાકમાં અર્થાત્ જિનશાસનમાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્માંને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આટલાંજ ક સમાન છે, તેનાથી એછા કે વધારે નથી. આ પરિજ્ઞા વિષય કરવા ચૈાગ્ય છે, અર્થાત્ પરિજ્ઞાથીજ આ બધાં જ્ઞેય અને હેય થાય છે. પરિક્ષા એ પ્રકારની • छे. (१) परिक्षा अने (२) अत्याच्यान -परिज्ञा, तेभांथी सत्तावीश- मंग३५ उभः सभारंभ (हिया-विशेष ) - परिज्ञाथी लधुवु लेहये, याने अत्याध्यान- परिज्ञाथी ४भानु ठारषु समस्त धर्मसभारलोनो त्याग ये. (सू० ६)
म आ.-५१.
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आचारास . . ॥ मूलम् ॥ .. अपरिण्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसामो अणुदिसाओ __ अणुसंचरइ, सन्याओ दिसाओ सन्याओ अणुदिसाओ साहेइ । ० ७ ॥
छाया. अपरिज्ञातकर्मा खलु अयं पुरुषः यः इमा दिशा अनुदिशा या अनुसंचरति, सर्या दिशाः सर्वा अनुदिशाः सहेति ॥ सू० ७॥
टीका___ 'अपरिष्णायकम्मा' इत्यादि । यः इमा दिशा अनुदिशा अनुसंचरतिकर्मपरतन्त्रः संचतुर्गतिकसंसारं प्राप्य दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमति । तथा-सर्वाः दिशा अनुदिशाः सहेति । इह सर्वशब्देन द्रव्यमातोभयंविधदिशो ग्रहणम् । द्रव्यमावदिशः सह-शानावरणीयादिकर्मभिः साकम् एति-गच्छति प्रामोतीत्य । यत्तच्छब्दयोर्निस्यसाकाङ्क्षतयान यच्छन्देन स इति परामृश्यते । सः अयं पुरुषा जीव खलु-निश्चयेन अपरिझातकर्मा अस्तीति शेपः । न परिज्ञात-परिज्ञाविपपी... मूलार्थ-अपरिज्ञातका यह पुरुष इन दिशाओं और विदिशाओ में परिभ्रमण करता हैं और सब दिशाओं एवं अनुदिशाओं को प्राप्त होता है ॥ सू. ७॥ , . टीकार्थ-कर्म से परतन्त्र जीव चार गतिरूप संसार को प्राप्त होकर दिशाओं में और विदिशाओं में परिभ्रमण करता है । लेथा समस्त दिशाओं और अनुदिशाओं को प्राप्त होता है, अर्थात द्रव्य-दिशाओ एवं भाव-दिशाओं (ज्ञानावरण आदि कर्मों) के साथ प्राप्त होता है । वह जीव निश्चयपूर्वक अपरिज्ञातकर्मा है। कर्म को कारणभूत क्रियाओं का स्वरूप जिसने न जाना हो वह अपरिज्ञातकर्मा कहलाता है। · अथवा जिसने ज्ञौनावरण आदि आठ कर्मों की कारणभूत क्रियाओं · का त्याग न किया हो उसे भी . ચૂલાથ–અપરિજ્ઞાત કમ આ પુરૂષ આ દિશામાં અને વિદિશાઓમાં પરિ. જમણ કરે છે, અને સર્વ દિશાએ એવું અનુદિશાઓને પ્રાપ્ત થાય છે. (૭)
ટકાથ–કમથી પરતંત્ર જીવ ચાર ગતિરૂપ સંસારને પ્રાપ્ત થઈને દિશાઓમાં અને વિદિશાઓમાં પરિભ્રમણ કરે છે, તથા સમસ્ત દિશાઓ અને અનુદિશાઓને પ્રાપ્ત થાય છે. અર્થાત્ દ્રવ્યદિશાઓ અને ભાવદિશાઓની સાથે પ્રાપ્ત થાય છે. તે છવ નિશ્ચયપૂર્વક અપરિજ્ઞાતકમાં છે, કર્મની કારણભૂત ક્રિયાઓના સ્વરૂપને જે જાણતા નથી તે અપરિક્ષાતકમાં કહેવાય છે અથવા જેને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોની પરભાત યિાએ ત્યાગ કર્યો હોય તેને પણું અપરિશ્નાતકમાં કહે છે. આશય
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १.३.१ सू. ७ अपरिज्ञातकर्मा-जीवः ४०३ कृतं कर्मकर्मकारणीभूतक्रियास्वरूपं येन, सोऽपरिज्ञातकर्मा । अज्ञातापरित्यक्तज्ञानावरणीयाधएविधकर्मवन्धकारणभूतक्रियास्वरूप इत्यर्थः । यावदयं जीवः क्रियास्वरूपं न जानाति, नापि यावद् कर्मबन्धनिबन्धनक्रियाः परित्यजति, तावद् द्रव्यT
HANIREE पार भावोमयविघां दिशं परिभ्रमतीति भावः ॥ सू०७॥ उतार्थमेव स्पष्टयति-'अणेगवाओ.' इत्यादि ।
॥ मूलम् ।। अणेगख्याओ जोणीओ संधेइ, विख्वरूवे फासे पडिसंवेएह ॥ १०८ ॥
छायाअनेकरूपा योनीः संधयति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति ॥ सू०८॥
॥टीका ॥ अपरिज्ञातकर्मा जीवः अनेकरूपा-विविधाः योनी: पाणिनामुत्पत्तिस्थानानि, संधयतिधामोति । अयमात्मा पूर्वभव नाशानन्तरं शरीरान्तरग्रहणाय अपरिजातकर्मा फहते हैं। आशय यह है कि-संसारी नीव जयतक फर्मवन्ध की कारणभूत क्रियाओं को जान नहीं लेता और त्याग नहीं देता, तबतक वह द्रव्यभावरूप दोनों प्रकार को दिशाओं में परिभ्रमण करता रहता है। ॥ सू. ७ ॥
इसी अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते है:-'अणेगरूवाओ. ' इत्यादि ।
मूलार्थ-(अपरिज्ञातकर्मा जीव) अनेकरूप योनियों को प्राप्त होता है और नाना प्रकार की यातनाओं को भोगता है ।। ८ ॥
टीकार्थ-अपरिजातकर्मा जीव विविध प्रकार की योनियों को अर्थात् जीवों के उत्पत्तिस्थानों को प्राप्त करता है। पूर्वभव का अन्त होने के अनन्तर जीव नवीन शरीर એ છે કે સંસારી જીવ જ્યાં સુધી કર્મબંધની કારણભૂત ક્રિયાઓને જાણી લેતે નથી અને ત્યજી દેસે નથી ત્યાં સુધી તે દ્રવ્ય-ભાવરૂપ અને પ્રકારની દિશાઓમાં પરિ. भए ४२तो २९ छे. (सू० ७).
2 मथने १ मधि: ५५४ ४३ छ-"अणेगरूवाओ." त्याहि.
મૂલાથ-(અપરિક્ષાતક જીવ) અનેકરૂપ નિઓને પ્રાપ્ત થાય છે અને नाना प्रभारनी यातनायाने सागवे छे. (८)
ટીકાથ—અપરિસાતકમાં જીવ વિવિધ પ્રકારની યોનિઓને અર્થાત-જીના ઉત્પત્તિસ્થાનેને પ્રાપ્ત કરે છે. પૂર્વભવને અંત થવા અનન્તર છવ નવીન શરીર ગ્રહણુ
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१४०४ ---........ . . . ....... आचाराने शरीरान्तरमाप्तिस्थाने यान्. पुद्गलान् गृहाति तान्. पायपुद्गलान् कामणेन सह तप्तायःपिण्डजलग्रहणवन् मिश्रयति यस्मिन् स्थाने, तत् स्थानं योनिः । प्रादुमोपमात्र शरीरिणां जन्म, इति योनि-जन्मनोहेंदः । सा नवविधा । (१) सचित्ता, (२) अचित्ता, (३) सचित्ताचित्ता, (४) शीवा, (६) उप्णा, (६) शीतोष्णा, (७) संपता, (८) विकृता, (९) संहतविकृता । उक्तश्च -
__ "कइविहाणं मंत! जोणी पणता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तंजहा-सीया जीणी, उसिणा जोणी, सीआसिणा जोणी । तिविधा जोणी पण्णचा, तंजहा-सचिता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसिया जोणी। प्रहण करने के लिए नवीन शरीर की प्राप्ति के स्थान पर जिन बाह्य पुद्गलों को ग्रहण फरता है, उन्हें जिस जगह पर कार्मणशरीर के साथ तपे लोहे के गोले और जलके समान एकमेकः करता है, वह स्थान योनि कहलाता है। जीयों का प्रादुर्भाव होना जन्म है.। यह... योनि और जन्म में अन्तर है। जन्म. फा.. आधार. योनि है...अतः योनि और जन्म में आधाराधेयभाव-सम्बन्ध है.। योनि के नौ भेद हैं:-(१) सचित्त, (२): चित्त, (३). सचित्ताचित्त, (४) शीत,. (५) उष्ण, (६) शीतोष्ण, (७) संवृत, (८) विकृत और (९) संवृत-विकृत । कहा भी है-- - - .:: :
भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ! गौतम । तीन प्रकार की योनि कही गई है। यह इस प्रकार-शीतयोनि, उपयोनि और शीतोष्णयोनि । तथा तीन प्रकार की योनि कही है । वह इस प्रकार-सचित्तयोनि, अचित्तयोनी और मिश्रयोनि ।
કરવા માટે નવીન શરીરની પ્રાપ્તિના સ્થાન પર જે બાહ્ય પુદગલોને ગ્રહણ કરે છે. તેને જે જગ્યા પર કામણશરીરની સાથે તપેલા લોઢાને ગોળ અને જલની સમાન એકમેકે કરે છે તે સ્થાન નિ કહેવાય છે. જીનો પ્રાદુર્ભાવ થવો તે જન્મ છે.
નિ અને જન્મમાં એજ અન્તર છે, જન્મને આધાર નિ છે, તેથી યોનિ અને જન્મમાં આધાર-આધેય ભાવ સંબંધ છે. ચોનિના નવ ભેટ છે -(૧) સચિત્ત (૨) अथित्त (3) सथित्तायित्त (४) शीत. (५) Ey (6) शीairy (७) सवृत (4) विकृत मन (6) संतपित. :पछे
“ભગવાન ! નિ કેટલા પ્રકારની કહી છે? ગૌતમ! ત્રણ પ્રકારની ચનેિ કહી છે. તે આ પ્રમાણે છે– શીતાનિ, ઉષ્ણુરિ, અને શીષ્ણુનિ. તથા ત્રણ પ્રકારની નિ કહી છે. તે આ પ્રમાણે છે-સચિત્તનિ, અચિત્તનિ અને મિનિ ફરી પણ બ્રશ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ए. ८. जीवयोनिः तिविहा जोगी पप्णता, तंजहां-संवृडा जोगी, वियडी जोगी, संघडवियडा जोगी"। (पना. योनिपद ९.)
जीवपदेशेरधिष्टिता योनिः सचित्ता, जीयमदेशरनवधिष्टिता योनिरचित्ता । पबिंदो जीवमदेशेरधिप्टिवा, कचिदनधिप्टिता सां सचित्ताऽचित्ता । यत्र शीतस्पर्शः सा शीता । यत्रोष्णस्पर्शः सा योनिरुगा। यत्र चिदशे शीतस्पर्शः, कचिदुप्णसेशः सा शीतोष्णा । अप्रकटिता संहता। मकटिता विस्ता। यत्रं वचिदंशे प्रकटिता, कचिदमकटिताः सा संवृतविकृता योनिः ।
फस्प जीवस्य का योनिर्भवती ?-त्युच्यते-देवनारकाणामचित्ता योनिः । देवानां मच्छदपटदेवप्यान्तरालं योनिः, तच जीवमदेशवर्जितम् । नाराकाणां तु फिर भी तीन तरह की योनि कही है। यह इस प्रकार-संवृतयोनि विवृतयोनि और संवृतविवृतयोनि " । (प्रज्ञा. योनिपद ९) ।
जीवप्रदेशा से अधिष्ठित योनि सचित कहलाती है और जो जीवप्रदेशों से अधिष्ठित न हो यह अचित्त कहलाती है। जो योनि कही जीवप्रदेशों से अधिष्ठित हो और कही अधिष्ठित न हो वह मिश्र योनि है। जहाँ शीत स्पर्श हो वह शीतयोनि, जहाँ उष्ण स्पश हो वह उम्गयोनि और जिस में कहीं शीत और फहीं उष्ण स्पर्श हो वह शीतोष्णयोनि है । अप्रकट योनि संवृत्त कहलाती है। प्रकट को विवृत कहते हैं और जो कही अप्रकट और कहीं प्रकट हो वह संवृतविवृतयोनि है।
किस जीव की कौन-सी योनि होती है ! वह बताते हैं-देव और नारकी जीवों की अचित्त योनि होती है । देवों की योनि प्रध्छदपट और देवदूप्य के बीच में होती है, પ્રકારની નિ કહી છે તે આ પ્રમાણે છે-સંવૃતયોનિ, વિવૃતનિ અને સંવૃતविकृतथानि" (शा. योनि५६ ८). . જીવપ્રદેશથી અધિણિત નિ સચિત્ત કહેવાય છે. અને જે જીવપ્રદેશથી અધિષિત ન હોય તે અચિત્ત કહેવાય છે. જે એનિ કેઈ સ્થળે જીવપ્રદેશથી અધિણિત હોય અને કોઈ સ્થળે અધિષિત ન હોઉં તે મિશનિ કહેવાય છે. ત્યાં શીત સ્પેશ હોય તે શીતનિ, ત્યાં ઉદાસ્પર્શ હોય તે ઉષ્ણુનિ, અને જેમાં કયાંક શીત અને કયાંક ઉણ શું હોય તે રીતેણે ચોનિ છે. અપ્રગટ નિ સંવૃત કહેવાય છે, અને પ્રકટ નિને વિસ્તૃત કહે છે, અને જે કયાંક પ્રગટ અને કયાંક અપ્રગંટ હેય તે સંવૃત-વિદ્યુત નિ છે:
કયા જીવની કઈ નિ છે ? તે બતાવે છે–દેવનારકી જીની અચિત્તાનિ હોય છે. દેવોની નિ પ્રચ્છદપટ અને દેવદૂષ્યના વચમાં હોય છે અને તે જીવ
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४०६ ...... .. ... . . . आचागायत्रे चत्रमयवातायनकल्पाः कुम्भयो योनयः, ता . अपि जीवमदेशरहिताः । ये गर्मजास्तियश्चो मनुष्यास्तेपां मिश्रासचित्ताचित्तरूपा योनिः । स्थावरपत्र कस्य विकलेन्द्रियत्रयस्य अगर्मजपन्चेन्द्रियतिरथां. संमूर्णिममनुष्याणां च त्रिविधा सचित्ता 'अचित्ता, सचित्ताचित्ता च । . . . . . .
गभजमनुप्यतिरथा देवानां च शीतोष्णा योनिः। तेजस्कायस्य उष्णा । स्थावरचतुष्टयस्य विकलेन्द्रियत्रयस्य अगर्भजपन्चेन्द्रियतिरश्वां संमूर्डिममनुष्याणां नारकाणां च त्रिविधा शीता, उप्णा, शीतोष्णा च योनिः ।।
नारकाणां देवानामेकेन्द्रियाणां च संवा योनिः। गर्भजानां पञ्चेन्द्रियतिरश्वां मनुष्याणां च संहतपिटता योनिः । विकलेन्द्रियत्रयस्य और वह जीवप्रदेशों से रहित है । नारकों की योनि वज्रमय वातायन के समान कुंभिया हैं । वे भी जीवप्रदेशों से रहित हैं । गर्भज तियों और मनुष्यों की मिन (सचित्ताचित) योनि होती है। पांच स्थवरों की, तीन विकलेन्द्रियों को, अगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों की तथा समूच्छिम मनुष्यों की योनि तीनों प्रकार की (सचित्त, अचित्त और मिश्र) होती है।
गर्भज-मनुष्यो, तिर्यों और देवों की शीतोष्ण योनि होती है। तेजस्काय की उष्ण योनि है । चार स्थावरों की, तीन विकलेन्द्रियों की, आगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों की संमूर्छिम मनुष्यों की और नारको को तीनों प्रकार की (शीत उष्ण और मिश्र) योनि होती है।
नारको देवों और एकेन्द्रियों की संघृत योनि है। गर्भज पञ्चेन्द्रिय तियचों और मनुष्यों की संवृतविवृत योनि होती है । तीन विकलेन्द्रियों की, अगर्भज पञ्चेन्द्रिय પ્રદેશથી રહિત છે. નારકીઓની નિ વામય વાતાયન (બારી)ની સમાન કુંભીઓ છે. તે પણ છવદેશથી રહિત છે.
ગજ તિર્યંચ અને મનુષ્યની મિશ્ર (સચિરાચિત) નિ હોય છે. પાંચ સ્થાવરની, ત્રણ વિકસેંદ્રિયની, અગર્ભજ પદ્રિય તિર્થની તથા સંમછિમ મનુષ્યની નિ ત્રણેય પ્રકારની (સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર) હોય છે.
ગર્ભજ મનુષ્ય, તિર્યું અને દેવેની શીતેણ, ચનિ હોય છે. તેજસ્કાયની ઉણનિ છે. ચાર સ્થાવની, ત્રણ વિકાિની, અગર્ભજ પંચેન્દ્રિય તિર્યોની સંમછિમ મનુષ્યની અને નારકેની ત્રણેય પ્રકારની (શીત, ઉષ્ણુ અને મિશ્ર) નિ હોય છે.
નારકી, દે, અને એકેન્દ્રિયોની સંસ્કૃત નિ છે. ગર્ભજ પંચેન્દ્રિય તિ અને મનુષ્યની સંવત-વિવૃત નિ હોય છે. ત્રણ વિકલેન્દ્રિયની અગજ પંચેન્દ્રિય
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ८. जीवयोनिः
४०७ अगर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्यां संमूर्छिममनुष्याणां च विस्ता योनिः ।। ___ यद्वा-चतुरशीतिलक्षणभेदेनानेकरूपा योनयः सन्ति, तथा हि-प्रथिव्यप्तेजोवायूनां मत्येकं सप्त सप्त लक्षाणि २८, प्रत्येकवनस्पतीनां दश लक्षाणि ३८, साधारणवनस्पतीनां चतुर्दश लक्षाणि, ५२, विकलेन्द्रियत्रयस्य प्रत्येकं द्वे द्वे लक्षे, इति ते पद कक्षाणि ५८, देव-नारक-पञ्चेन्द्रियतिरश्वां प्रत्येकं चत्वारिलक्षाणोति तेपां द्वादश लक्षाणि ७०, मनुष्याणां चतुर्दश लक्षाणि ८४ । एवं मर्वसंकलने चतुरशीतिलक्षाणि जीयानां योनयो भवन्ति ।
अनेकविधयोनिप्राप्ती सत्यामपरिज्ञातकर्मा जीवः कर्मफलं ययाऽनुभवति तत् मदर्शयति-'विरूपरूपान् मतिसंवेदयति' इति, विरूप-दुःखतियचों की और सममि मनुष्यों की विवृतयोनि होती है।
मथया-योनियों के चौरासी लाख मेद भी हैं। ये इस प्रकार है:--पृथ्वीकाय, मकाय, तेजस्काय, और वायुकाय, की सात-सात लाख योनिया है२८, प्रत्येक वनस्पति को दश लाख ३८, साधारण वनस्पति की चौद लाख ५२, तीन विकलेन्द्रि को प्रत्येक को दो-दो लाख अर्थात् विफलेन्द्रिय की कुल छह लाख५८, देवो नारकों और पञ्चेन्द्रिय तियेचों में प्रत्येक की चार-चार लाख, कुल बारह लाख७०, मनुष्यों की चौदह लाख८४, इस प्रकार कुल चौरासी लाख जीवयोनिया हैं। .. अनेक प्रकार की योनिया प्राप्त होने पर अपरिज्ञातकर्मा जीव किस प्रकार कर्मफल भोगता है, सो बतलाते हैं-दुःखजनक होने के कारण इन्द्रियों के अनिष्ट विषयों તિયની અને સંમમિ મનુષ્યની વિદ્યુત નિ હોય છે.
અથવા-નિઓના ચોરાસી લાખ ભેદ પણ છે, તે આ પ્રમાણે છે–પૃથ્વીકાય, અપૂકાય, તેજસ્કાય, અને વાયુકાયની. સાત-સાત લાખ ચનિએ છે (૨૮), પ્રત્યેક વનપતિની દસલાખ (૩૮), સાધારણ વનસ્પતિની ચૌદ લાખ (૫૨), ત્રણ વિકસેન્દ્રિયની પ્રત્યેકની બેબે લાખ, અર્થાત વિકસેન્દ્રિયની કુલ છ લાખ (૫૮), દેવે નારકીએ, અને પચન્દ્રિય તિચામાં પ્રત્યેકની ચાર–ચાર લાખ, તમામ મળી બાર લાખ (૭૦, મનુષ્યની ચૌદ લાખ (૮૪), આ પ્રમાણે કુલ ચોરાસી લાખ યોનિ છે.
- અનેક પ્રકારની યોનિઓ પ્રાપ્ત થવા છતાંય અપરિસાતકમાં જૈવ કેવી રીતે કર્મલ લેગવે છે? તે બતાવે છે-દુઃખ ઉત્પન્ન કરનાર હેવાના કારણે ઈન્દિના અનિષ્ટ
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आचारास्त्रे हेतुत्वादशोमन रूपं स्वरूपं येषां ते विरूपरूपा अनिष्टाः, तान् , स्पर्शान इन्द्रियाणां विपयैः सह सम्बन्धाः स्पर्शाः, तान् मतिसंवेदयति-पुनः पुनरनुभवति । अनिष्टविषयसंयोगैः पुनः पुनःखमेव माप्नोतीत्यर्थः।
यद्वा-विरूपं विभिन्नरूपं विभिन्नात्मकं रूपं स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः नानाविधस्वरूपाः, तान् स्पर्शान् दुःखसंपातान् मतिसंवेदयति । लक्षणया कर्यकारणयोरभेदाद्वा स्पर्शजन्या अपि दुःखसंपाताः स्पर्शा इति व्यपदिश्यन्ते । अत्र स्पर्शानित्युपलक्षणं, तेन मानसानामपीष्टवियोगादिजन्यदुःखसंपातानां संग्रहः ।
यद्वा-स्पर्शान-स्पर्शनेन्द्रियवेद्यान् दुःखसंपातान् प्रतिसंवेदयतीत्यर्थः ।
को भोगता है। इस प्रकार अनिष्ट विषयों का संयोग होने के कारण वह जीव पुनः पुनः दुःख ही अनुभव करता है। - अथवा-विरूप अर्थात् भिन्न-भिन्न स्वरूपवाले-नानाप्रकार के दुःखजनक स्पशी का संवेदन करता है । लक्षणावृत्ति से, अथवा कार्य-कारण के अभेद फी विवक्षा से स्पर्शजन्य दुःख भी स्पर्श हो कहलाते हैं । यहाँ स्पर्श उपलक्षण मात्र है, उस से इष्टवियोग आदि मानसिक दुःखों का भी ग्रहण समझना चाहिए।
. अथवा-स्पर्श का अर्थ है-स्पर्शनेन्द्रियविषयभूत दुःख । जीव उन्हें भोगता है। तात्पर्य यह है कि - जीव अपरिज्ञातपापकर्मा होकर निगोद आदि नाना
દુઃખકારક વિષયને ભોગવે છે, એ પ્રમાણે અનિષ્ટ વિષયો સંચાંગ હોવાના કારણે ao री-धरी मनान, सनुभव ४२ थे. .. .:. . . - * અથવા-વિરૂપ અર્થાત્ ભિન્ન-ભિન્ન સ્વરૂપવાળા ના પ્રકારના “દુઃખજનક, સ્પર્શોનું સંવેદન કરે છે. લક્ષણવૃત્તિથી, અથવા કાર્યકારણના અભેદની વિવેક્ષાથી
જન્ય દુઃખ પણ સ્પર્શજ કહેવાય છે. અહિં સ્પર્શ ઉપલક્ષણ માત્ર છે, તેમાં છવિયોગ આદિ માનસિક દુઃખનું ગ્રહણું પણ સમજી લેવું જોઈએ. ' , છે. અથવા સ્પર્શને અર્થ છે સ્પર્શનેન્દ્રિયવિષયભૂત દુઃખ, જીવ તેને ભગવે છે, તાત્પર્ય એ છે કે જીવ અપરિણાત-પાપકમ થઈને નરક-દિ આદિ અનેક નિઓમાં
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आचारचिन्तामणि- टीकाअध्य. १ उ. १ सृ. ९ परिक्षा
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अपरिज्ञातकर्मant नरक निगोदाद्यनेकविधयोनीः संप्राप्य सर्वे जीवाः विचित्रकर्मीदयात् स्वकर्मफलं नानाविधं दुःखमेवानुभवन्तीति भावः ॥ ८ ॥ अ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं जगाद - 'तत्ये ' इत्यादि ।
मूलम् -
तत्य खलु भगवया परिष्णा पवेड्या || सू० ९ ॥
छाया
तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता ॥ २०९ ॥
टीका
हे जम्बूः ! अपरिज्ञातकर्मा जीवो विभावपरिणामं कुर्वन् नानाविधयोनिषु पुनः पुनर्दुःखमेत्र लभते । तत्र - अपरिज्ञातकर्मणो जीवस्य कृतकारितानुमोदिता दिभेदेनोक्तसप्तविंशतिभङ्गरूपसावद्यक्रियानुष्ठानान्नरकनिगोदादिनानाविध्यानि पुनः पुनर्दुःखानुभवविषये भगवता श्रीमहावीरस्वामिना
Palung
परिज्ञा
योनियों में उत्पन्न होकर विचित्र कर्मों के उदय से अपने-अपने कर्मों का नानाविध दुःखरूप फल अनुभव करते हैं ॥ सू. ८ ॥
1
सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-' तत्थ खलु.' इत्यादि । मूलार्थ - भगवान् ने परिज्ञा का उपदेश दिया है || सू. ९ ॥
करता
टीकार्थ- हे जम्बू ! अपरिज्ञातपापकर्मा जीव विभाव परिणाम धारण हुआ नाना प्रकार की योनियों में वारंवार दुःख पाता है । अपरिज्ञातपापकर्मा जीव के कृत कारित अनुमोदन आदि के भेद से सत्ताईस भंगरूप सावद्यक्रिया के अनुष्ठान से 'नरक निगोद आदि नाना प्रकार की योनियों में पुनः पुनः दुःखानुभव करने के विषय में ઉત્પન્ન થઈને વિચત્રકોના ઉદયથી પાત-પાતાના કર્મોના અનેક પ્રકારના દુઃખરૂપ ફેલના અનુભવ કરે છે. (સૂ॰ ૮)
सुधभी स्वामी भ्यू स्वाभीने हे छे-' तत्थ खलु ' त्यिादि. ભગવાને પરજ્ઞાના ઉપદેશ આપ્ચા છે. (૯)
મૂલા ટીકા ૪ જમ્મુ ! અપરિજ્ઞાતપાપકર્મો જીવ વિભાવ પરિણામ ધારણ કરતા ચકા નાના પ્રકારની ચેનિઓમાં વારવાર દુઃખ પામે છે. અપરિજ્ઞાત–પાપકર્મો જીવના કૃત કાર્યારત અને અનુમોદના આદિના ભેદથી સત્તાવીશ ભ‘ગરૂપ સાવદ્ય ક્રિયાના અનુષ્ઠાનથી નરક-નિગેાદ આદિ નાના પ્રકારના ચેનિએમાં પુનઃ પુનઃદુઃખ અનુભવ કરવાના વિષયમાં
प्र. आ-५२०
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आचारास्त्रे खलु भवेदिता। उत्तहःखकारणकर्मबन्धसमुच्छेदा जीवन परिमाऽवश्यं भरणीकरणीयेति भगवता भयोधितमिति भावः परिजाः सम्यगवयोधः । परिहा द्विविधा -मत्याख्यान-मेंदाद । 'सावधव्यापारेण कर्मवन्धो भवतीति ज्ञान श-परिज्ञा । कर्मवन्धकारणस्प सायद्यव्यापारस्य परित्यागः प्रत्याख्यान-परिझा। अत्रेदमवगन्तव्यम्-अतीतकाले मनसा वाचा कायेन च मया सावधक्रिया कृता, कारिता, अनुमोदिता च, तथा वर्तमानकाले सावधक्रियां करोमि, कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यमनुमोदयामि । एवं यदि भविप्यत्कालेऽपि सावधक्रिया करिष्यामि, कारयिष्यामि करिष्यमाणमन्यमनुमोदयिष्यामि । इत्थमनेकविधसा घद्यव्यापारं कुर्वन् जीवः संसारे परिभ्रमति, नरकनिगोदाधनेकविधदुस्सहयातनां
भगवान् महावीर स्वामीने परिज्ञा की प्ररूपणा की है। दुःखों के कारणभूत कर्मों के बन्ध को नाश करने के लिए. जीव को परिज्ञा का शरण अवश्य ग्रहण करना चाहिए। ऐसी भगवान ने कहा है। परिज्ञा का अर्थ है-सम्यग्ज्ञान। परिज्ञा दो प्रकार की है-- ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा ! सावध व्यापार से कर्मबन्ध होता है। ऐसा जानना ज्ञ-परिज्ञा है । और कर्म बन्ध के कारण सावर्य व्यापारों का परित्याग कर देना प्रत्याख्यान परिज्ञा है। यहाँ यह समझना चाहिए कि-भूतकाल में मैने मन, वचन, कार्य से सावध क्रिया की, कराई और उस की अनुमोदनी की, तथा वर्तमान काल में सावंद्य क्रिया करता हूँ, कराता हूँ और दूसरे करने वाले का अनुमोदन करता हूँ, । इसी प्रकार भविष्यकाल में भी सावध क्रिया करूंगा, कराऊंगा, और दूसरे का अनुमोदनं करूंगा। इस प्रकार माँति-भांति का सावध व्यापार करता हुआ जीव संसार में परिभ्रमणं करता है और नरक निगोद आदि की
ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ પરિણાની પ્રરૂપણ કરી છે. દુઃખના કારણભૂત કર્મોના બંધને નાશ કરવા માટે જીવને પરિણાનું શરણું અવશ્ય ગ્રહણ કરવું જોઈએ, એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. પરિક્ષાને અર્થ છે સમ્યજ્ઞાન. પરિણા બે પ્રકારની છે(१) २-परिज्ञा भने (२) प्रत्याभ्यान-परिज्ञा 'साय व्यापारथी भय थाय छ:' આ પ્રકારે સમજવું તે જ્ઞ–પરિણા છે, અને કર્મબંધને કારણથી સાવધ વ્યાપારોને ત્યાગ કરી દે તે પ્રત્યાખ્યાન-પરિણા છે. અંહિ આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કે – બતકાળમાં મેં મન, વચન, કાયાથી સાવદ્ય ક્રિયા કરી છે; કરાવી છે. અને તેને અનમેદન આપ્યું છે તથા વર્તમાન કાલમાં સાવદ્ય ક્રિયા કરું છું, કરાવું છું, અને બીજા કરવાવાળાને અનુમોદન આપું છું. આ પ્રમાણે ભવિષ્યકાલમાં પણ સાવદ્ય ક્રિયા
શ. કરાવીશ અને બીજાને અનુદાન આપીશ. એ પ્રમાણે અનેક તરેહના જાદ-જા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ मं. १० कर्मसमारम्भहेतुः चानुमवति । एवं जपरिनया विनाय प्रत्याख्यानपरिक्षया सावधक्रिया परित्याज्येति भगवता बोधितमिति । इदं च ज्ञानं सहसम्मत्या (अबधि-मनापर्यय-केवलज्ञानातिस्मृत्या वा) मतितानेन वा भवति, तस्मान्निश्चयव्यवहारस्वरूपसंयममार्गे प्रवृत्तिरवजीवस्य हितकारिणी, अनयैव हि परमपदं मोमो लभ्यते ।। मू० ९ ॥
ननु तर्हि दुःसफलेषु तेपु क्रियाविशेपेषु किमर्थ प्रवर्तते जीवः ? इत्याशङ्कायामाह-'इमस्स चेव.' इत्यादि।
मूलम्--इमस्स चेय जीवियस्स परिचंदणमागणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडियायहउँ ।। सू० १०॥
छाया-अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय-जातिमरणमोचनाय दुःखमतियातहेतुम् ॥ मू० १०॥
अनेक प्रकार की दस्सह यातनाएं भोगता है, इस प्रकार परिक्षा से जानकर प्रत्याख्यानपरिना से सावध क्रिया त्यागने योग्य है। इस प्रकार भगवान्ने उपदेश दिया है। यह बोध-अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान और जातिस्मरण से होता है, या, मतिज्ञान से होता है। इस लिये निश्चयव्यवहाररूप संयममार्ग में प्रवृत्ति करना ही जीव के लिए हितकर है और इसी से परमपद-मोक्ष प्राप्त होता है । सू० ९॥ ___अगर सावध क्रियाएँ दुःख का कारण हैं तो उन में जीव प्रवृत्ति क्यों करता है ? इस आशंका का समाधान करते हैं-'इमस्स चेव.' इत्यादि।
मृलार्थ-इस जीवन के लिए, परिवन्दन, मानन और पूजन के लिए, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, दुःख दूर करने के लिए, (जीव पापक्रिया में प्रवृत्त होता है ) | सू. १०॥ સાવધ વ્યાપાર કરતે જીવ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે, અને નરક, નિગોદ આદિની અનેક પ્રકારની કઠિન યાતનાઓ ભોગવે છે. આ પ્રમાણે –પરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન–પરિસાથી સાવધ કિયા ત્યાગવા ગ્ય છે, આ પ્રમાણે ભગવાને ઉપદેશ આપ્યો છે.
આ બેધ-અવધિ, મનઃ પય, કેવલજ્ઞાન અથવા જાતિસ્મરણથી થાય છે, અઘવા તે મતિજ્ઞાનથી થાય છે. એ માટે નિશ્ચય-વ્યવહારપ સંયમમાર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરવી એજ જીવને માટે હિતકર છે, અને એનાથી પરમપદ મેક્ષ થાય છે (સૂ૦ ૯)
જો કે સાવદ્ય ક્રિયાઓ દુઃખનું કારણ છે, તે તેમાં જીવ પ્રવૃત્તિ શા માટે કરે ३१ मे शानु समाधान ४२ छ-'इमस्स चेव.' त्यादि.
મૂલાઈઆ જીવનને માટે, પરિવંદન, માનન, અને પૂજન માટે, જન્મ મરક્ષથી मुदत ५५१ भाटे, म १२ ४२११ भाट (७१ पायश्यिामा प्रवृत्त थाय छ). (१०)
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आचारायंत्रे
खलु भवेदिता । तत्तद्दुःखकारणकर्मबन्धसमुच्छेदार्थं जीवेन परिक्षाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रवोधितमिति भावः परिक्षा सम्यगवबोधः । परिक्षा द्विविधा ज्ञ - प्रत्याख्यान - मेदात् । ' सावद्यव्यापारेण कर्मबन्धो भवतीति ज्ञानं ज्ञ - परिज्ञा । कर्मबन्धकारणस्य सावयव्यापारस्य परित्यागः प्रत्याख्यान - परिज्ञा । अत्रेदमवगन्तव्यम् - अतीतकाले मनसा वाचा कायेन च मया सावधक्रिया कृता, कारिता, अनुमोदिता च, तथा वर्त्तमानकाले सावधक्रियां करोमि, कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यमनुमोदयामि । एवं यदि भविष्यत्कालेऽपि सावधक्रियां करिष्यामि, कारयिष्यामि करिष्यमाणमन्यमनुमोदयिष्यामि । इत्थंमनेकविधसावद्यव्यापारं कुर्वन् जीवः संसारे परिभ्रमति, नरकनिगोदाद्यनेकविधदुस्सहयातनां
भगवान् महावीर स्वामीने परिज्ञों की प्ररूपणा की है। दुःखों के कारणभूत कर्मों के बन्धको नाश करने के लिए जीव को परिज्ञा का शरण अवश्य ग्रहण करना चाहिए; ऐसा भगवान् ने कहा है । परिज्ञा का अर्थ है- सम्यग्ज्ञानं । परिज्ञां दो प्रकार की हैज्ञ - परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । सावद्य व्यापार से कर्मबन्ध होता है ' ऐसा जानना ज्ञ - परिज्ञा है । और कर्म बन्ध के कारण सावद्यं व्यापारों का परित्याग कर देना प्रत्याख्यान परिज्ञा है । यहाँ यह समझना चाहिए कि- भूतकाल में मैंने मन, वचन, कार्य से सावध क्रिया की, कराई और उस की अनुमोदना की, तथा वर्तमान काल में सावध क्रिया करता हूँ, कराता हूँ और दूसरे करने वाले का अनुमोदन करता हूँ, । इसी प्रकार भविष्यकाल में भी सावध क्रिया करूंगा, कराऊंगा, और दूसरे का अनुमोदन करूंगा। इस प्रकार भाँति-भाँति का सावद्ये व्यापार करता हुआ जीव संसार में परिभ्रमण करता है और नरक निगोद आदि की
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ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ પરિજ્ઞાની પ્રરૂપણા કરી છે. દુ:ખાના કારણભૂત કર્મોના ખધના નાશ કરવા માટે જીવને પરજ્ઞાનું શરણ અવશ્ય ગ્રહણ કરવું જોઈએ, એ अभी भगवान उद्धुं छे. परिज्ञानार्थ संभ्यंग्ज्ञान, परिज्ञा मे अारनी छे(१) श-परिज्ञा भने (२) प्रत्याच्यान - परिज्ञा ' सावध व्यापारथी उभध थाय छेः' આ પ્રકારે સમજવું તે સ–પરિજ્ઞા છે, અને કમખ ધના કારણથી સાવધ વ્યાપારાના ત્યાગ કરી દેવા તે પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞા છે. અહિં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈ એ ફેઃ-~~ ભૂતકાળમાં મે મન, વચન, કાયાથી સાવદ્ય ક્રિયા કરી છે; કરાવી છે. અને તેને અનુમેદન આપ્યું છે તથા વર્તમાન કાલમાં સાદ્ય ક્રિયા કરૂ છુ, કરાવું છું, અને બીજા કરવાવાળાંને અનુમેદન આપું છું. આ પ્રમાણે ભવિષ્યકાલમાં પણ સાવદ્ય ક્રિયા રીશ, કરાવીશ અને ખીજાને અનુમાદન આપીશ. આ પ્રમાણે અનેક તરેહના જૂદા જૂદા
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आँचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ स. १० कर्मसमारम्भहेतुः क्रियां करोति । जातिमरणमोचनाय जाविर्जन्म, तदर्थ भवान्तरसुखप्राप्त्यर्थ झम्पापातादिकं समाचरति । मरणार्थम्-मरणं येषां पित्रादीनां संजातं, तदर्थ पिण्डदानादिक्रियामु प्रवर्तते । यद्वा मरणं वधस्तदर्थ, वधं निमित्तीकृत्य वैरनिर्यापनार्थम् । यहा-मरणार्थ-मृत्युनिवृत्यर्थ मिथ्यात्वयुद्धया देवीपूजादौ बलिदानादिकरणम् । मोचनम् आत्मनः फर्मबन्धापगमस्तदर्थ विपरीतमत्या पश्चामितापादी माण्युपमर्दनकर्मणि प्रवर्तते । तया दुःखपतिघातहेतुं दुःखानां प्रतिघातो-विध स्तस्य हेतुं क्रियाविशेपं हिंसादिकं करोति, यथा-व्याधि
-~~-~प्रतिष्ठा वगैरह भी पूजन' है, उसके लिए भी मनुष्य प्राणियों का उपमर्दनरूप हिंसा वगैरह सावध क्रियाएँ करता है।
जन्म और मरण से छुटकारा पाने के लिए सावय क्रियाएँ की जाती है। 'जाति'-जन्म के लिए जैसे आगामी भव में सुख प्राप्त करने के उद्देश से जीव अपापात-(अग्नि तथा पाणीमें पड़कर अथवा ऊपरसे गिरकर मरना) आदि का भाचरण करता है । 'मरण'-पिता आदि का मरण होने पर उनके लिए पिंडदान आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होता है । अथवा-मृत्यु को निमित्त बनाकर वैर का प्रतिशोध (बदला) लेने के लिए पाप करता है । अथवा गृत्यु टालने की मिथ्याबुद्धि से देवी वगैरह के लिए बलिदान आदि करता है। सभा 'मोचन' के लिए अर्थात् अपना कर्मबन्ध हटाने के लिए विपरीतमति हो कर पंचाग्निताप आदिरूप ग्राणि हिंसा में प्रवृत्त होता है । तथा 'दुःखप्रतिघातहेतु ' दुःखों को निवारण करने के लिए हिंसा आदि पाप करता है। जैसे रोग मिटाने की बुद्धि से मांस
(મૂર્તિ) આદિની પૂજા-ગ્રતિષ્ઠા વગેરે પણ પૂજન છે. તેના માટે પણ જીવ, પ્રાણિઓનું ઉપમનરૂપ હિંસા વગેરે સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરે છે.
જન્મ અને મરણથી છુટવા માટે પણ સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરવામાં આવે છે. જાતિ-જન્મ માટે, જેમ આગામી ભવમાં સુખ પ્રાપ્ત કરવાના ઉદ્દેશથી જીવસૃપાપાત (અગ્નિ કે પાણીમાં પડીને મરવું. ઉચેથી પડતું મૂકવું) આદિનું આચરણ કરે છે. “મરણ પિતા આદિના મરણ પ્રસંગે તેના માટે પિંડદાન આદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, અથવા મૃત્યુ નિવારણ માટે મિથ્થાબુદ્ધિથી દેવી વગેરેને બલિદાન આદિ આપવાં. તથા “મોચન માટે અર્થાત્ પિતાના કર્મબંધને દૂર કરવા માટે વિપરીત મતિથી પંચાગ્નિતા આદિરૂપ હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. 10 'दुःखप्रतिघातहेतुं -मोनु निवारण ४२११ भाटे हिंसामादि ५५ ४२ छ. म ।
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वाचारामने . टोका-'अस्य' इति-अस्य प्रत्यक्षमनुभ्यमानस्य चारितरगचन्चलतरस्य, सन्ध्यारागवत्त्वरितभद्गुरस्य जीवितस्य-जीवनस्य चिरसुखार्थमपरिजातकर्मा जीवः कर्मबन्धहेतुभूतेषु क्रियाविशेपेषु प्रवर्तते । यथा-जीवनार्थ लायकतित्तिरादिपक्षिणाम् , अनमेपमृगमृगराजादिपशूनां वधरूपपोरकर्मसमाचरणम् । तथा-परिवन्दनमानन-पूजनाय, तत्र-परिचन्दनं प्रशंसा, तदर्थ, यया-स्वख्यातिप्राप्त्यर्थ सापराधनिरपराध-माणिनां हिंसनम् । माननम् अभ्युत्थानासनदानादिरूपः सत्कारः, स्वाना: स्वीकारो वा, वदर्थम् , यथा-माननार्थ परेपां हिंसनादिकरणम् । पूजनम्-पलवस्त्रादिपुरस्कारः, प्रतिमादीनां पूजाप्रतिष्ठादि च, तदयं, प्राण्युपमर्दनरूपहिंसादिसावध
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टीकार्थ-प्रत्यक्ष अनुभव किये जाने वाले, जलको तरङ्ग के समान अतिशय चंचल, सन्ध्या की लालिमा के समान भड्गुर-जीवन के चिरकालीन सुख के लिए अपरिज्ञातकर्मा जीव कर्मबन्ध की कारणभूत क्रियामों में प्रवृत्त होता है। जैसे-जीवित रहने के लिए; लावा, तीतर आदि पक्षियों का और बकरा, मेढा, हिरन एवं सिंह आदि पशुओं का वधरूप घोर पापकर्म का आचरण करना ।
तथा परिचन्दन, मानन और पूजन के लिए जीव पापकर्म करता है । 'परिवन्दन' का अर्थ है प्रशंसा । प्रशंसा के लिए सापराध और निरपराध प्राणियों का धात किया जाता है । उठकर खड़ा होना, आसन देना आदि सत्कार, अथवा अपनी आज्ञा स्वीकार कराना 'मानन' कहलाता है, इस के लिए भी दूसरों की हिंसा की जाती है । रत्नों और वस्रो आदि का पुरस्कार पूजन' कहलाता है, और प्रतिमा आदि की पूजा
ટીકાથ–પ્રત્યક્ષ અનુભવ કરવામાં આવેલા જલના તરંગોની સમાન અતિશય ચંચલ, સંધ્યાની લાલાશ (રાતાપણા)ની સમાન ભંગુર જીવનના લાંબા સમયના સુખ માટે અપરિક્ષાતકર્મો જીવ કમબંધની કારણભૂત ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. જેવી રીતે જીવિત રહેવા માટે લાવા તેતર, આદિ પક્ષીઓના અને બકરા, ઘેટા, હરણ એ પ્રમાણે સિંહ આદિ પશુઓના વધરૂપ ઘોર પાપકર્મનું આચરણ કરવું.
તથા પરિવન્દન, મનન અને પૂજન માટે પણ જીવ પાપ કર્મ કરે છે. પરિવંદનને અથ છેઃ-પ્રશંસા, પ્રશંસા માટે અપરાધવાળા અને અપરાધ વિનાના પ્રાણીઓને ઘાત કરવામાં આવે છે. ઉઠીને ઉભા થઈ જવું. આસન આપવું આદિ કાર અથવા પિતાની આજ્ઞા સ્વીકાર કરાવવી તે માનન” કહેવાય છે, તે માટે પણ બીજાની હિંસા કરવામાં આવે છે. રત્ન અને વસ્ત્ર આદિને પુરસ્કાર તે પૂજન કહેવાય છે, અને પ્રતિમા
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आचारचिन्तार्माण-टीका अध्य.१ ३.१ मृ. ११ कर्मसमारम्भहेतुः ४१५
मूलम् --- एयाति सव्यावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियन्या भवति ।। सू. ११ ॥
छायां-एतांवन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्या भवति ॥सू. ११॥
टीका-'एतावन्तः' इति-लोके-जिनशासने कर्मसमारम्मा: कर्मबन्धहेतवः क्रियाविशेषाः सर्वे एतावन्तः । कृतकारितानुमोदितभेदेन निविधानां कर्मसमारम्भाणां . प्रत्येकमतीतवर्जमानानागतत्रयभेदेन नवविधानां पुनर्मनोवाक्कायभेदेन मस्येकं त्रैविध्ये सति सप्तविंशतिर्भा भवन्तीति रीत्या पूर्वकथितसप्तविंशतिभावन्तः, न तु तेभ्योऽधिका इत्यर्थः । एते च कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्या भवन्ति, एतत्परिज्ञानार्थ यत्नो विधेय इत्यर्थः । ज्ञाते सति पुनः पुनरस्यानुस्मरणं करणीयं, न त्वत्र प्रमादः कार्य इति भावः ।। मू. ११॥
कर्मसंमारम्भपरिज्ञानस्य फलमाह-जम्सेंते. ' इत्यादि। मूलार्थ-जिनशासन में इतने कर्मसमारम्भ जानने योग्य हैं । सू. ११ ॥
टोकार्थ-जिनशासन में कर्मवन्ध के कारण इतने ही हैं । कृत, कारित, और अनुमोदित के भेद से तीन प्रकार के कर्मसमारम्भीका अतीत वर्तमान और भविष्य काल के साथ गुणाकार करने पर नौ भेद होते है । ये नौ भेद मन, वचन, काय के भेदसे सत्ताईस मङ्गरूप हो जाते हैं । इस प्रकार सत्ताईस तरह के कर्मसमारम्भ जानने चाहिए, इनसे न कम हैं और न अधिक हैं। उन्हें जानने के लिए यत्न करना चाहिए । जान लेने के पश्चात् उनका बार-बार स्मरण करना चाहिए । इस विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥११॥
कर्मसमारम्भ के ज्ञानका फल बतलाते हैं-' जस्सेते' इत्यादि ।
મૂલાંથ-જિનશાસનમાં આટલા કસમારંભ જાણવા યોગ્ય છે (૧૧).
ટીકાથ-જિનશાસનમાં કર્મબંધનાં કારણ આટલાં જ છે. કરવું. કરાવવું અને અનુમદન આપવું આ ભેદથી ત્રણ પ્રકારના કર્મસમારને ભૂતકાલ, વત્તમાન અને ભવિષ્ય કૉલની સાથે ગુણાકાર કરવાથી નવ ભેદ થાય છે. આ નવ ભેદ મન, વચન, કાયાના ભેદથી સત્તાવીસ લંગરૂપ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે સત્તાવીસ તરેહના કમસમારંભેને જાણવા જોઈએ. એનાથી ઓછા નથી અને અધિક પણ નથી. તેને જાણવા માટે યત્ન કરે જોઈએ. જગ્યા પછી તેનું વારંવાર સ્મરણ કરવું જોઈએ. આ વિષયમાં પ્રમાદ નહિ કરવા જોઈએ. (૧૧)
भसभार माना ज्ञान ५ मताये छ:-'जस्सेते' Ulft.
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आचारसत्रे विध्वंसनयुद्धया मांस भक्षयति, मदिरादिकं पिवति, वनस्पतिमूललपत्रनिर्यासादिशवपाकसहस्रपाकादितैलार्थ पहिवनस्पत्याघारम्भं करोति । अत्र कारितानुमोदितभूतमविष्यकालादिभेदेन कर्मसमारम्भरूपाः क्रियाविशेषा अन्येऽप्यवगन्तव्याः।
एवमपरिज्ञातकर्मतया संसारिणो जीवाः कर्मसमारम्भरूपैः क्रियाविशेषः संसारे सर्वदिक्षु परिभ्रमन्तो विविधयोनिषु दुःखमेव प्राप्नुवन्तीति विज्ञाय भव्यः कर्मसमारम्भरूपा सकलसावधक्रियाविशेपास्त्याज्या इति भावः ॥ सू. १०॥
कर्मसमारम्भरूपान् क्रियाविशेपान् अनुस्मारयितुं मागुक्तमपि पुनः कथयति'एयावंति' इत्यादि।
खाता है, मदिरा आदि का पान करता है, वनस्पति की जड, छाल, पत्ता, रस वगैरह निकालता है, शतपाक एवं सहस्रपाक आदि तेलों के लिए अग्नि और वनस्पति आदि का आरम्भ करता है । यही कराना और अनुमोदन करना तथा भूत, भविष्य काल आदि के भेद से कर्मसमारम्भरूप अन्य क्रियाएँ भी समझ लेनी चाहिए। .
इस प्रकार अपरिज्ञातपापकर्मा होने के कारण संसारी जीव कर्मसमारम्भरूप क्रियाओं द्वारा संसार में समस्त दिशाओं में भ्रमण करते हुए नाना योनियों में दुःख का ही अनुभव करते हैं। ऐसा समझकर भव्य जीवों को पापकर्मजनक सावध क्रियाओं का त्याग करना चाहिए ॥ सू० १०॥
कर्मसमारम्भरूप कियाविशेषों का स्मरण कराने के लिए पूर्वोक्त अर्थ को फिर कहते हैं-" एयावंति." इत्यादि ।
મટાડવાની બુદ્ધિથી માંસ ખાય છે, મદિરા વગેરેનું પાન કરે છે, વનસ્પતિનાં મૂળ, છાલ, પાંદડાં રસ વગેરે કાઢે છે. શતપાક, સહસ્ત્રપાક આદિ તેલે માટે અગ્નિ અને વનસ્પતિ આદિને આરંભ કરે છે. અહિં કરાવવું અને અનુદાન આપવું, તથા ભૂત ભવિષ્ય કાલ આદિ ના ભેદથી કર્મસમારંભરૂપ અન્ય ક્રિયાઓ પણ સમજી લેવી જોઈએ.
આ પ્રમાણે અપરિસાતપાપકર્મા હવાના કારણે, સંસારી જીવ કર્મસમારંભરૂપ યિાઓ દ્વારા સંસારમાં, સમસ્ત દિશાઓમાં ભ્રમણ કરતે અનેક ચેનિઓમાં દુઃખ.
જ અનુભવ કરે છે. આ પ્રમાણે સમજીને ભષ્મ જીવોએ પાપકર્મજનક સાવદ્ય કિયાએને ત્યાગ કરે જોઈએ. (સૂ) ૧૦)
કર્મસમારંભરૂપ ક્રિયાવિશેનું સ્મરણ કરાવવા માટે પૂર્વોક્ત અને ફરી ४ छ:-'एयावति' Uत्या.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ . १२ उपसंहारः
४१७ सकाशान्मया साक्षात् श्रुतं तद् ब्रवीमि कथयामि न तु स्वयुद्धिपरिकल्पितम् । यतः स्वबुद्धया कयने श्रुतमानस्यापिनयो भवति, किञ्च-छद्मस्थानां दृष्टयोप्यपूर्णा भवन्ति तस्माद् यथाभगवत्मतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि उपदिशामीत्यर्थः । अत्र सङ्ग्रहगाथा
"सुभणाणस्स अविगो, परिहरणिज्जो मुहाहिलासीहि । छउमत्याणं दिही, पुण्णा परियत्ति मुइयं इइणा ॥ १॥" इति ।
सावधक्रियायाः पद्धजीवनिकायं प्रति शस्त्रपदुपधातकतया सावधक्रियास्वरुपयोधकस्य प्रथमाध्ययनस्य शस्त्रपरिज्ञया व्यपदेशः।।। सू. १२ ॥
प्रथमाध्ययनस्य प्रथमोद्देशः सम्पूर्णः ॥१-१॥ मुनिका विचरना जो तीर्थकर भगवान् महावीर के सन्निकट मैंने साक्षात् सुना है वही 'चवीमि'मैं कहता है, अपनी बुद्विसे कल्पित नहीं कहता। अपनी बुद्धिसे तीर्थ करकी वाणी की अपेक्षा न रखते हुए कथन करने से श्रुतज्ञान का अविनय होता है। दूसरी बात यह है कि उमस्थ की दृष्टि भी अपूर्ण होती है, मतः भगवान द्वारा प्रतिपादित तत्त्व ही मैं तुम से कहता हूँ। यहाँ यह सङ्ग्रहगाथा है:
__"मुख के अभिलापी भव्यों को शुतज्ञान के अविनय का त्याग करना चाहिए छायो की दृष्टि पूर्ण नहीं होती, ऐसा यहाँ 'ति' शब्द से सूचित किया गया है " ॥१॥
सावय क्रिया पड्जीवनिकाय के लिए शस्त्र के समान घातक है, अतः सावध क्रियाके स्वरूपके योधक इस प्रथम अध्ययन का शस्त्रपरिज्ञा नाम हुआ है। सू. १२ ॥
प्रथम अध्ययनका प्रथम उद्देश सम्पूर्ण ॥ १-१॥ વિચરવું. જે તીર્થંકર ભગવાન મહાવીર પાસે મેં સાક્ષાત્ સાંભળ્યું છે, તેજ 'प्रवीमि'ईई पोतानी द्धिथी पित ४ता नथी. पातानी मुद्धिथी-- તીર્થંકરની વાણીની અપેક્ષા નહી રાખીને. કહીએ તે શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય થાય છે. બીજી વાત એ છે કે —-છઘસ્થની દૃષ્ટિ પણ અપૂર્ણ હોય છે, તે કારણથી ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદન કરાએલું તત્વજ હું તમને કહું છું. અહિં આ સંગ્રહગાથા છે
“સુખના અભિલાષી ભએ કૃતજ્ઞાનના અવિનયને ત્યાગ કરવો જોઈએ. छमस्यानोष्टि डाय नही से प्रभारी 'इति' ४थी सूर्यना ४२१मा भावी ."(७)
સાવદ્ય ક્રિયા પજીવનિકાય માટે શસ્ત્ર (હથીઆર) સમાન ઘાતક છે. એ કારણથી વઘ ક્રિયાના સ્વરૂપને બેધ કરાવનારું આ પ્રથમ-અધ્યયન છે, તેનું શસ્ત્રપરિસાનામ
નામક પ્રથમ અધ્યયનને પ્રથમ ઉદેશ
संपूर्ण (१-१)
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आचारात्म
मूलम् -- जस्सेते लोगंसि कम्पासमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिष्णायकम्मे तिवेमि ।। सू० १२ ॥
छाया-यस्य एते लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ मु० १२ ॥
टीका- 'यस्य' इति लोके यस्य = भव्यजीवस्य एते मागुक्ताः कर्मसमारम्भाः = ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणः समुत्पादकाः, सावद्यक्रियाविशेषा इत्यर्थः परिज्ञाता भवन्ति = ' एते हिंसादयः सप्तविंशतिभङ्गयन्तः सावयक्रियाविशेषा आत्मनः कर्मबन्धे हेतवो भवन्ति इत्येवं परिशया ज्ञाता भवन्ति स परिज्ञातकर्मा-इपरिज्ञया कर्मबन्धनिबन्धनत्वेन विज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यक्तसकलसावद्यक्रियाविशेषो निश्रयेन मुनिः सर्वसावधक्रियोपरतिपतिज्ञावान् भवतीत्यर्थः ।
इति-आत्मतत्वस्वरूपनिरूपणं, कर्मवन्धहेतुभूतंसकलसारद्यक्रियास्वरूपप्रदर्शनं, सावद्यक्रियानिचिपुरस्सर मुनेर्विहरणं चेति यत् तीर्थङ्करस्य भगवतो महावीरस्य मूलार्थ - लोक में जो कर्मसमारम्भ जान लेता है, वह मुनि निश्रण से परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मैं कहता हूँ ॥ सू. १२ ॥
•
टीकार्थ-लोक में जिस भव्य को पूर्वोक्त कर्मसमारम्भ अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के उत्पादक सावयव्यापार ज्ञात हो जाते हैं, अर्थात् को पूर्वोक्त सत्ताईस भंगो वाले हिंसादिक क्रियाविशेषों को अपने कर्मबन्धों का कारण समझ लेता है, वह परिजात - कर्मा है । जो ज्ञ-परिज्ञा से कर्मबन्ध का कारण समझ कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सम्पूर्ण सावध क्रियायाग करता है वह निश्चय से परिज्ञातकर्मा मुनि है ।
C
ति बेमि' इति = इस प्रकार का आत्मा के स्वरूप का निरूपण, कर्मबन्ध के कारणभूत समस्त सावध व्यापारों के स्वरूप का प्रदर्शन, और सावध क्रिया को निवृत्तिपूर्वक
४१६
મૂલાથલાકમાં જે કમ સમારલને જાણી લે છે, તે મુનિ નિશ્ચયથી પિરસાતभी है, से प्रभाले डुं हुं छ. (सू० १२)
ટીકા લેકમાં જે ભવ્ય જીવને પૂર્વોક્ત કાઁસમારંભ અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોને ઉત્પાદક સાવધ વ્યાપાર જાણવામાં આવી જાય છે. અર્થાત્ જે પૂર્વે કહેલા સત્તાવીસ ભગાવાળા હિંસાદિક્રિયાવિશેષેને પેાતાના કબ ધનું કારણ સમજી લે છે તે પરિજ્ઞાતકમાં છે. જે જ્ઞ-પરિજ્ઞાથી કમળધનું કારણ સમજીને પ્રત્યાખ્યાન-પરિ જ્ઞાથી સમ્પૂર્ણ સાવધ ક્રિયાઓને ત્યાગ કરે છે. તે નિશ્ચયથી પશિાતકમાં મુનિ છે. त्ति मि' - इति प्रभा भारमाना स्वश्यनुं निइय, मंधना अरशुभूत સમસ્ત સાવધ વ્યાપારેશના સ્વરૂપનું પ્રદર્શન, અને સાવદ્ય ક્રિયાની નિવૃિ
નવું
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु. १२ उपसंहारः
४१७ सकाशान्मया साक्षात् श्रुतं तद् ब्रवीमि कथयामि न तु स्वयुद्धिपरिकल्पितम् । यतः स्वयुद्धपा कयने श्रुतज्ञानस्याविनयो भवति, किञ्च-छमस्थानां दृष्टयोप्यपूर्णा भवन्ति तस्माद् यथाभगवत्मतिपादितमेव त्यां ब्रवीमि-उपदिशामीत्यर्थः । अत्र सङ्ग्रहगाया
"सुअणाणस्स अविणओ, परिहरणिज्जो मुहाहिलासीहि । छउमत्याणं दिट्टी, पुण्णा पत्थि-त्ति मूइयं इइणा ॥१॥” इति ।
सावधक्रियायाः पद्धजीवनिकायं प्रति शस्त्रवदुपघातकतया सावधक्रियास्वरूपबोधकस्य प्रथमाध्ययनस्य शस्त्रपरिक्षया व्यपदेशः। ॥ सु. १२॥
प्रथमाध्ययनस्य प्रथमोदेशः सम्पूर्णः ॥१-१॥ मुनिका विचरना जो तीर्थकर भगवान् महावीर के सन्निकट मैंने साक्षात् सुना है वही 'ब्रवीमि'मैं कहता है, अपनी बुद्विसे कल्पित नहीं कहता। अपनी बुद्धिसे-तीर्थ करकी वाणी की अपेक्षा न रखते हुए कथन करने से श्रुतज्ञान का अविनय होता है। दूसरी बात यह है कि छमस्थ की दृष्टि भी अपूर्ण होती है, अतः भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्व ही में तुम से कहता हूँ । यहाँ यह सङ्ग्रहगाथा है:
"मुख के अभिलापी भव्यों को प्रतज्ञान के अविनय का त्याग करना चाहिए छपस्थों की दृष्टि पूर्ण नहीं होती, ऐसा यहाँ ' इति' शब्द से सूचित किया गया है " ॥ १ ॥
सावध क्रिया पड्जीवनिकाय के लिए शत्र के समान घातक है, अतः सावध याक स्वरूपके बोधक इस प्रथम अध्ययन का शस्त्रपरिज्ञा नाम हुआ है । सू. १२ ॥
मथम अध्ययनका प्रथम उद्देश सम्पूर्ण ॥ १-१॥ વિચરવું. જે તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસે મેં સાક્ષાત્ સાંભળ્યું છે, તે જ
नवीमि हुई छु, चातानी मुद्धिथी पित तो नथी. पातानी मुद्धिथीcથકેરની વાણીની અપેક્ષા નહી રાખીને. કહીએ તે શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય થાય છે. બીજી વાત એ છે કે – છદ્મસ્થની દષ્ટિ પણ અપૂર્ણ હેય છે, તે કારણથી ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદન કરાએલું તત્વજ હું તમને કહું છું. અહિં આ સંગ્રહગાથા છે
સુખના અભિલાષી ભવ્યએ શ્રુતજ્ઞાનના અવિનયને ત્યાગ કર જોઈએ. छमश्यानी ष्टि पू रयनरी से प्रभारी 'इति श७४थी सूयना ४२वामां मावी छे."(७)
સાવદ્ય ક્રિયા પછવનિકાય માટે શસ્ત્ર (હથીઆર) સમાન ઘાતક છે. એ કારણથી જાવધ ક્રિયાના સ્વરૂપને બંધ કરાવનારું આ પ્રથમ-અધ્યયન છે, તેનું શસ્ત્રપરિક્ષાનામ
५.युं
छे.
નામક પ્રથમ અધ્યયનને પ્રથમ ઉદેશ
संपू (१-१)
म.मा. पो
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४१८
अथ मथमाध्ययनस्य
द्वितीयोद्देशः ।
प्रथमोद्देशे सामान्यरूपेणात्मनः स्वरूपं निरूपितम् तस्यैव विशेषरूपेण बोधनाय द्वितीयोद्देशः प्रारभ्यते, तस्येदमादिमंत्रम् -'अट्टे' इत्यादि ।
भा वाराङ्ग
तथा - इह 'पूर्वभवस्मृतिरूपं विशिष्टं ज्ञानं न भवति केषांचि - दिति प्रथमोदेशे निगदितम् अथ तत् कथं न भवतीति जिज्ञासायामुच्यते- 'अट्टे' इत्यादि ।
प्रथम अध्ययनका
द्वितीय उद्देश ||
पहले उद्देश में सामान्यरूपसे आत्मा के स्वरूप का निरूपण किया गया है । अब विशेषरूप से आत्मा का स्वरूप समझाने के उद्देश्य से दूसरा उद्देश आरम्भ किया जाता है, उसका यह आदिसूत्र है--' अड्डे ' इत्यादि ।
तथा - पहले उद्देशमें बतलाया गया था स्मरणरूप विशिष्ट ज्ञान नहीं होता । वह ज्ञान कहते हैं - 'अट्टे ' इत्यादि ।
कि- किन्हीं - किन्हीं जीवों को पूर्व भव का क्यों नहीं होता ! ऐसी जिज्ञासा होने पर
પહેલા અધ્યયના
બીજો ઉદ્દેશ.
પહેલા `ઉદ્દેશમાં સામાન્યરૂપથી આત્માના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે વિશેષરૂપથી આત્માનું સ્વરૂપ સમજાવવાના ઉદ્દેશથી બીજા ઉદ્દેશન આરંભ ४श्वामां आवे छे, तेनुं या माहिसूत्र छे-' अट्टे' इत्यादि.
તથા——પહેલા ઉદ્દેશમાં ખતાવવામાં આવ્યું છે કે-કાઈ-કાઈ જીવાને પૂર્વભવના સ્મરણુરૂપ વિશિષ્ટ-ઉત્તમ અસાધારણુ જ્ઞાન થતું નથી. તે જ્ઞાન કેમ થતું નથી ? मेवी लज्ञासा थवाथी ४छे छे:- 'अट्टे' धत्याहि
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ म्. १ विशिष्टनानाभावकारणम् ४१९
तथा-अयमात्मा परिनातकर्मतया सकलसांबद्यक्रियानिवृत्तः सन् मुनिमवतीत्युपदिष्टम् , अथ यः पुनरपरिसातकर्मा स खलु कीदृशो भवतीत्याकाक्षायामाह-'अष्टे' इत्यादि। . अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविनाणए, अस्सि लोए पव्वहिए तत्य तत्य पुढो पास, आतुरा अस्सिं परिताति ॥. १॥
छाया
आतः लोकः परिघुनः (परिजीर्णः) दुःसंबोधः अविज्ञानका अस्मिन् लोके मन्यधिते तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुरा अस्मिन् परितापयन्ति ।। मु. १ ॥
तथा यह कहा जा चुका है कि आत्मा कर्मों का स्वरूप समझ कर, और समस्त सावध व्यापारों से विरत हो कर मुनि हो जाता है, मगर जिसने कर्मों का स्वरूप नहीं समझा है, उस आत्मा की कैसी स्थिति होती है ! ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं
'अट्टे' इत्यादि।
मूलार्थ-(कर्मबन्ध का स्वरूप न समझने वाला) आर्त लोक परिजीर्ण है-असमर्थ है, वोध पाने मे अशक है, अज्ञान है, इस लोक में व्यथित है, पृथक्-पृथक् जीवों को देखो । वे आतुर-अज्ञानी-होकर जीवोंको परिताप पहुंचाते हैं ॥१॥
તથા-એ પ્રમાણે કહી ચૂકયા છીએ કે આત્મા કર્મોના સ્વરૂપને સમજીને અને સમસ્ત સાવધ વ્યાપારથી વિરત (દર) થઈને મુનિ થઈ જાય છે, પણ જેઓ કર્મોના સ્વરૂપને સમજ્યા નથી તે આત્માની સ્થિતિ કેવી થાય છે? એવી જીજ્ઞાસા થવાથી धडे है:- अटे' त्यादि.
સૂલાથ–(કર્મબંધના સ્વરૂપને નહી સમજવાવાળા) આdલક પરિજીણું છે. અસમર્થ છે. બેય પામવામાં અશક્ત છે. અજ્ઞાન છે. આ લેકમાં દુઃખી છે. જુદા-જુદા ૭ને જુઓ તે આતર-અજ્ઞાની થઈને છને પરિતાપ પહોંચાડે છે. (૧)
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४२०
आचारा
टीका
लोकः पृथिव्यादिपजीवनिकायः खलु ज्ञानावरणीपाद्यष्टविधकर्मबन्धहेतुभूवसावद्य क्रिया विशेषस्वरूपानवबोधेन आर्तः = विषयसुखतृष्णाव्याकुलो भवति । अत एव परिधूनः शारीरमानसादिदुःखानलसंतप्तः । यद्वा-परिजीर्गः क्षायोपशमिकभावाभावेन मोक्षमार्गमवृत्तावक्षमः, अत एव - दुःसंबोध: त्रह्मदत्तत्रचरणकरणशिक्षां ग्रहीतुमसमर्थः, अत एव अविज्ञानंक:- सम्यग्ज्ञानरहितो भवति, अत एव पूर्वभवस्मृतिरूपमपि विशिष्टं ज्ञानं न भवतीति भावः । 'पश्य' इति पदेन शिष्येति संबोधनपदस्याध्याहारः - हे शिष्य ! प्रव्यथिते = पूर्वोपार्जितकर्मोदयेन क्षुषा
टीकार्थ-लोक अर्थात् पृथिवीकाय आदि छह प्रकार के जीव, ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों के बन्धके कारणभूत सावध व्यापारों का स्वरूप न समझकर आर्त होते हैं-विषयसुख की तृष्णा से व्याकुल होते हैं । अतएव वे शारीरिक और मानसिक दुःखों की आग से संतप्त हैं । अथवा क्षायोपशमिक भावों के अभाव के कारण मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकते । इसी कारण वे ब्रह्मदत्त की तरह चरण और कारण की शिक्षा लेने में भी असमर्थ हैं। ऐसे जीव अविज्ञानक अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित होते है, इसी कारण उन्हें पूर्व भव की स्मृतिरूप विशिष्ट ( जातिस्मरण ) ज्ञान भी नहीं होता ।
'पश्य' (देखो ) इस पद के द्वारा शिष्य के संबोधन का अध्याहार किया गया है । हे शिष्य । पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से भूख, प्यास, त्रास, इष्टवियोग, ટીકા લેાક અર્થાત્ પૃથ્વીકાય આદિ છ પ્રકારના જીવસમૂહ જ્ઞાનાવરણે આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોના 'ધના કારણે સાવદ્ય વ્યાપારાના સ્વરૂપને નહિ સમજીને આત થાય છે. વિષય સુખની તૃષ્ણાથી વ્યાકુલ થાય છે. તે કારણથી તે શારીરિક અને માનસિક દુઃખાની આગથી સંતમખતપેલા છે. અથવા ક્ષાયેાપશમિક ભાવાના અભાવના કારણે મેાક્ષમાગમાં પ્રવૃતિ કરી શકતા તથી. એ કારણથી તે બ્રહ્મદત્તની પેઠે ચરણુ અને કરણની શિક્ષા લેવામાં પણ અસમર્થ છે, એવા જીવ વિજ્ઞાન અર્થાત્ સભ્યજ્ઞાનથી રહિત હાય છે. આ કારણથી તેને પૂર્વભવની સ્મૃતિરૂપ વિશિષ્ટ (लतिस्भर५) ज्ञान याशु यतुं नथी.
6 पश्य • (દેખાdવા) આ પથી શિષ્યના સમ્બંધનનું અધ્યાહાર કરવામાં मा०यु छे; हे शिष्य ! यूवोपार्जित हभौना हियथी लूण, तरस, त्रास, ईष्टवियोग,
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उं. २ सू. १ विशिष्टाज्ञानाभाव कारणम् ४२१ पिपासा त्रास मियवियोगा - ऽऽधि-व्याधि-परिपीडिते, अस्मिन् लोके तत्र तत्र सर्व माणिy पृथक् = प्रत्येकं पश्य । आतुराः = विषयसुखतृष्णाव्याकुला अज्ञानिनः अस्मिन् लोके परितापयन्ति = पृथिव्यादिजीवान् परिपीडयन्ति इति पश्येत्यर्थः ।
यद्वा-लोकः - पजीवनिकायः, आर्तः = परिपीडितः अस्तीति शेषः । कुतः कारणाद् आर्तः ? इत्यत आह- ' परिजुण्णे ' इति । यतः परिजीर्णः =मोक्ष मार्गमवृत्तावक्षमः । कथं परिजीर्णः ? इत्यत आह- 'दुस्संबोहे' इति, यतो दुःसंबोधः ब्रह्मदत्तचचरणकरणशिक्षां ग्रहीतुमसमर्थः । दुःसंबोधः कुतोऽस्ती ? - त्यत आह-यतः - अविज्ञानकः - विज्ञानरहितः, पूर्वभवार्जितघोरतरहिंसादिदुरितकर्म
मानसिक पीडा, शारीरिक पीडा आदि से पीडित इस लोक में जहाँ पृथक्-पृथक् प्राणियों को देखो । वे विषयसुख के लिए व्याकुल एवं ज्ञानहीन हो कर संसार में संताप भोग रहे हैं । वे पृथिवीकाय आदि जीवों को पीडा पहुंचाते हैं ( यह देखो ) ।
अथवा - पडुजीवनिकायरूप यह लोक आर्स है-पीडा भुगत रहा है । यह किस कारण से आतें है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वह परिजीर्ग अर्थात् मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने में असमर्थ है। यह परिजीर्ण क्यों है ? इस का समाधान यह है किवह दु:संबोध है अर्थात् ब्रह्मदत्त की भाँति चरण--करण की शिक्षा ग्रहण करने में अशक्त है । यह दुःसंबोध क्यों है ? इस का कारण यह है कि वह ज्ञानहीन है अर्थात् पूर्वभव में उपार्जन किये हुए घोरतर हिंसा आदि पापकर्मी के वश हो कर एवं अत्यन्त
માનસિક પીડા, શારીરિક પીડા, આદિથી પીડિત આ લેાકમાં જ્યાં-ત્યાં જૂદા-જૂદા પ્રાણીઓને જુએ, તે વિષયસુખ માટે વ્યાકુલ એવ જ્ઞાનહીન થઈને સોંસારમાં સતાપુ ભેગવી રહ્યા છે. તે પૃથિવાકાય આદિ જીવાને પીડા પહાંચાડે છે. તે જુઓ.
અથવા ષડૂજીવનિકાયરૂપ આ લાક આત્ત છે-પીડા ભેગવી રહ્યા છે. તે શુ કારણુચી આત્ત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર એ છે કેઃ તે પરિજી અર્થાત્ મેક્ષ માગમાં પ્રવૃત્તિ કરવાને અસમર્થ છે. તે જીણુ શા માટે છે? તેનું સમાધાન એ છે કે—તે દુઃસબંધ છે, અર્થાત્ પ્રાર્ત્તની પ્રમાણે ચરણુ-કરણની શિક્ષા ગ્રહણ કરવામાં અશકત छे, ते दुःसाधा भाटे छे? तेनुं रथे छे :- ते ज्ञानहीन छे, अर्थात् पूर्वः સવમાં ઉપાર્જન કરેલા ઘારતર હિંસા આદિ પાપકર્માને વશ થઈને, એમ—એ પ્રમાણે
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लोकः=पृथिव्यादिपद्दजीवनिकायः खलु ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धटीकाहेतुभूतसावद्य क्रिया विशेषस्वरूपानवबोधेन आर्तः = विषयसुखतृष्णाव्याकुलो भवति । अत एव परिद्यूनः = शारीरमानसादिदुःखानलसंतप्तः । यद्वा-परिजीर्णः क्षायोपशमिकभावाभावेन मोक्षमार्गप्रवृत्तावक्षमः, शिक्षां ग्रहीतुमसमर्थः, अत एव अविज्ञानकः = सम्यग्ज्ञानरहितो भवति, अत एव पूर्वभवस्मृतिरूपमपि विशिष्टं ज्ञानं न भवतीति भावः । 'पश्य' इति पदेन शिष्येति अत एव - दुःसंवोधः = ब्रह्मदत्तवच्चरणकरणसंबोधनपदस्याध्याहारः - हे शिष्य ! प्रव्यथिते = पूर्वोपार्जितकर्मोदयेन क्षुधा
टीकार्थ-लोक अर्थात् पृथिवीकाय आदि छह प्रकार के वरण आदि आठ प्रकार के कर्मों के बन्धके कारणभूत सावध व्यापारों का स्वरूप न समझकर आर्त होते हैं-विषयसुख की तृष्णा से व्याकुल होते हैं । अतएव वे शारीरिक और मानसिक दुःखों की आग से संतप्त हैं । अथवा क्षायोपशमिक भावों के अभाव के कारण जीव, ज्ञानामोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकते । इसी कारण कारण की शिक्षा लेने में भी असमर्थ हैं । ऐसे जीव अविज्ञानक अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित होते है, इसी कारण उन्हें पूर्व भव की स्मृतिरूप विशिष्ट ( जातिस्मरण ) ज्ञान वे ब्रह्मदत्त की तरह चरण और भी नहीं होता ।
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आचारामु
'पश्य' (देखो ) इस पद के द्वारा शिष्य के संबोधन का अध्याहार किया गया है । हे शिष्य ! पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से भूख, प्यास, त्रास, इष्टवियोग,
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ટીકા લેાક અર્થાત્ પૃથ્વીકાય આદિ છ પ્રકારના જીવસમૂહ જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોના બંધના કારણે સાવદ્ય વ્યાપારાના સ્વરૂપને નહિ સમજીને આત થાય છે. વિષય સુખની તૃષ્ણાથી વ્યાકુલ થાય છે. તે કારણથી તે શારીરિક અને માનસિક દુઃખાની આગથી સંતપ્ત-ખૂખતપેલા છે. અથવા ક્ષાયેાપશમિક ભાવાના અભાવના કારણે મેક્ષમાગ માં પ્રવૃતિ કરી શકતા નથી. એ કારણથી તે બ્રહ્મદત્તની પેઠે ચરણુ અને કરણની શિક્ષા લેવામાં પણ અસમર્થ છે, એવા જીવ અવિજ્ઞાનઃ અર્થાત્ સભ્યજ્ઞાનથી રહિત હાય છે. આ કારણથી તેને પૂર્વભવની સ્મૃતિરૂપ વિશિષ્ટ (लतिस्भर) ज्ञान ययु तु नथी.
'पश्य' (हेयो-लुवे।) या पहथी ? शिष्यना सभ्भोधननुं अध्याहार १श्वामां याव्यु छे; डे शिष्य! भूर्वोपार्जित उभौना उदयथी लूण, तरस, त्रास, ईष्टवियेोग,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ . २ पृथ्वीकायसमारम्भः ४२३ मातुराणां हृदयं मनागपि न द्रवतिः प्रत्युत मृगान् क्षुधितव्याघ्र इव ते पृथिव्यादिप्राणिगणं प्रणितान्ति, इति संसूचयति ॥ सू.१॥
तत्र पहजीवनिकायरूपे लोके माथम्यात् पृथिवीकायस्याधिकारमाह-'संति पाणा' इत्यादि।
संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास । अणगारामो-त्ति एगे पत्रयमाणा जमिणं विस्वस्वेहि सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्यं समारंभमाणा अण्यो अणेगरूव पाणे विहिंसइ ।। सु. २ ॥
छायासन्ति प्राणाः पृथक् श्रिताः लज्जमानाः पृथक् पश्य । अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः, यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवी शस्त्र समारम्भमाणा अन्यान् अनेकरूपान् पाणान् विहिंसन्ति ।।२।।
मन में दया नहीं आती, प्रत्युत भूखा वाघ जैसे मृगों को मारता है उसी प्रकार विषयलोलुप लोग उन जीवों की हिंसा करते हैं । सू. १ ।।।
__ पड्जीवनिकायरूप लोक में पृथ्वीकाय पहला है, अतः पृथ्वीकाय का अधिकार कहते हैं:-'संति पाणा' इत्यादि ।
मृळार्थ-पृथ्वी में अलग-अलग प्राणी हैं। पृथ्वीकाय के आरंभ की निवृत्ति करने वालों (मुनियों ) को पृथक् समझो। 'हम अनगार हैं ' इस प्रकार कहनेवाले द्रव्यलिंगी नाना प्रकार के पृथ्वीशास्त्रों से पृथ्वीकर्म का समारम्भ करके पृथ्वीशस्त्र का समारम्भ करते हुए अनेक प्रकार के अन्य प्राणियों की भी हिंसा करते हैं ।। सु. २ ।। તેના મનમાં દયા આવતી નથી, પરંતુ ભૂખે વાઘ જેમ મૃગેને મારે છે, તે પ્રમાણે વિષય-લાલુપ લેક તે જીવોની હિંસા કરે છે. (૧)
વજીવનિકાયરૂપ લોકમાં પૃથ્વીકાય પ્રથમ છે, તે કારણથી પૃથ્વીકાયને मधि४२ ४३ छ:-'संति पाणा' त्यादि.
મલાથ–પૃથ્વીમાં અલગ-અલગ પ્રાણી છે. પૃથ્વીકાયના આરંભની નિવૃત્તિ કરવાવાળા (મુનિયે)ને જૂદા જાણે. પરંતુ “અમે અનગાર-સાધુ મુનિ છીએ.” આ પ્રકારનું કહેવાવાળા દ્રવ્યલિંગી (વેષ ધારણ કરનારા) નાના-પ્રકારના શરથી પૃથ્વી કમને સમારંભ કરીને પૃથ્વીશ આરંભ કરતા થકા અનેક પ્રકારના અન્ય Heीमानी पर लिसा ४२ छ. (२)
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आचाराचे
४२२ वशतः प्रगादमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् प्रगाढमोहामान्त इत्यर्थः । एवं स्वकर्मवशतः परिपीडितमपि नितान्तदयनीयमपि रागद्वेपमोहान्याः परितापयन्तीत्याह-अस्मिन् लोके' इत्यादि । अस्य व्याख्या पूर्ववत् योध्या।
'पश्य' इति पदेन भागवता मां संबोध्य यथोपदिष्टं तथा कथयामीति .. जम्बूस्वामिनं श्रीमुधर्मा स्वामी प्रतिबोधयति ।
'मव्यथिते' इति विशेषणपदं च स्वस्वकर्मणेव नानाविधवेदनासमन्वितानामपि पृथिव्यादिपजीवनिकायानां परिपीडने विपयमुखतृष्णाक्रान्ताना
गाढे मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मोहयुक्त है। इस प्रकार अपने कर्मों से पीडित और अत्यन्त दयनीय पृथ्वीकाय आदि जीवों को राग-द्वेप और मोह से अन्धे पुरुप पीडा पहुंचाते हैं । 'अस्मिन् लोके'-(इस लोक में) इत्यादि की व्याख्या पहले के समान समझ लेना चाहिए.
'पश्य' (देखो) इस पद से श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि-मुझे संवोधन करके भगवान् ने जैसा उपदेश दिया है वैसा ही मैं कहता हूँ।.
'मव्यथिते ' पद से यह सूचित किया गया है कि-वेचारे पदकाय के जीव अपने-अपने कर्मों के कारण नाना प्रकार की वेदनाएँ भोग ही रहे हैं, इस पर भी विषय-सुख के लोलुप लोग उन्हें और सताते है। उन्हें दुःखी देख कर भी इनके
અત્યન્ત ગાઢ મિથ્યાત્વમેહનીયના ઉદયથી મેહયુક્ત છે. એ પ્રકારે પોતાના કર્મોથી પીડિત અને અત્યન્ત દયાપાત્ર પૃથ્વીકાય આદિ ને રાગ-દ્વેષ અને મોહથી અંધ
ये ५३५ पीपांया छ 'अस्मिन् लोके' (मा.मi) ऽत्याहिनी व्याभ्या પ્રથમ પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ.
'पइय' (1) मा ५४थी श्री सुधा स्वामी स्वामीन ४ छ :મને સંબોધન કરીને ભગવાને જે ઉપદેશ આપ્યો છે તેવોજ હું કહું છું.
प्रत्यथिते । ५४थी मे सूचित ४२पामा भाव छ :-मियास पाया ७५ પિત–પિતાના કર્મોના કારણે નાના પ્રકારની વેદનાઓ ભેગવી જ રહ્યા છે. તે ઉપરાંત पर विषय-सुमन g५ मासा. तेन पधारे सतावे छे. तेनीन un.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ . २ पृथ्वीकायसमारम्भः ४२३ मातुराणां हृदयं मनागपि न द्रवति, प्रत्युत मृगान् क्षुधितव्याघ्र इव ते पृथिव्यादिप्राणिगणं प्रणिनन्ति, इति संसूचयति ॥ सू. १॥
तत्र पदजीवनिकायरूपे लोके प्राथम्याद पृथिवीकायस्याधिकारमाह-संति पाणा' इत्यादि।
संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास । अणगारामो-त्ति एगे पत्रयमाणा जमिणं विस्वस्वेहि सत्येहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्यं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूव पाणे विहिंसइ ।। सू. २ ॥
छाया--- सन्ति प्राणाः पृथक् श्रिताः लज्जमानाः पृथक् पश्य । अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः, यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवी शस्त्र समारम्भमाणा अन्यान् अनेकरूपान् माणान् विहिंसन्ति ।।२॥ मन में दया नहीं आती, प्रत्युत भूखा वाघ जैसे मृगों को मारता है उसी प्रकार विषयलोटप लोग उन जीवों की हिंसा करते हैं ।। सू. १॥
पड्जीवनिकायरूप लोक में पृथ्वीकाय पहला है, अतः पृथ्वीकाय का अधिकार कहते हैं:-'संति पाणा' इत्यादि ।
मूलार्थ-पृथ्वी में अलग-अलग प्राणी हैं । पृथ्वीकाय के आरंभ की निवृत्ति करने वालों (मुनियों ) को पृथक् समझो । 'हम अनगार हैं ' इस प्रकार कहनेवाले द्रव्यलिंगी नाना प्रकार के पृथ्वीशस्त्रों से पृथ्वीकर्म का समारम्भ करके पृथ्वीशस्त्र का समारम्भ करते हुए अनेक प्रकार के अन्य प्राणियों की भी हिंसा करते हैं । स. २॥ તેના મનમાં દયા આવતી નથી, પરંતુ ભૂખે વાઘ જેમ મૃગોને મારે છે, તે પ્રમાણે વિષય-લાલુપ લોક તે જીવોની હિંસા કરે છે. (૧)
પજીવનિકાયરૂપ લેકમાં પૃથ્વીકાય પ્રથમ છે, તે કારણથી પૃથ્વીકાયને मधि४२ ४ छ:-'संति पाणा' त्याहि.
મૂલાથ–પૃથ્વીમાં અલગ-અલગ પ્રાણી છે. પૃથ્વીકાયના આરંભની નિવૃત્તિ કરવાવાળા (મુનિયે)ને જૂદા જાણે. પરંતુ અમે અનગાર–સાધુ મુનિ છીએ. આ પ્રકારનું કહેવાવાળા દ્રવ્યલિંગી વેષ ધારણ કરનારા) નાના--પ્રકારના શથી પૃથ્વી કર્મને સમારંભ કરીને પૃથ્વીશ અને આરંભ કરતા થકા અનેક પ્રકારના અન્ય પ્રાણીઓની પણ હિંસા કરે છે. (૨)
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आचारात्सूत्रे
टीका
"
माणाः = प्राणाः सन्ति येषामित्यर्थऽचत्ययः प्राणिन इत्यर्थः । पृथक्= भिन्नभिन्नता थिताः स्वस्वशरीराधिष्ठिताः सन्ति । यद्वा - श्रिताः पृथिव्याश्रिताः= अड्गुला संख्यातभागममाणस्वशरीरावगाहिनः पृथिव्यामवस्थिताः पृथिवीकायिकाः, माणा:= जीवाः, पृथक् पृथग्भावेन सन्ति इति पश्य । इदमुक्तं भवति - पृथिव्या एकदेवतारूपत्वं मन्यमाना भ्रान्ताः, वस्तुतस्तु प्रत्येकशरीररूपाणामसंख्यातपृथिवीकायिकजीवानां समुदायः पृथिवी । एवं च पृथिवी सचित्ताऽनेकजीवाधिष्ठिता चेति ।
अथ द्वारप्रदर्शनेन वस्तुस्वरूपं सम्यग् निर्णीयते तस्माद् द्वारणि
टीकार्थ- - प्राण का अर्थ है प्राणी । प्राणी पृथक्-पृथक् आश्रित हैं अर्थात् अलग-अलग प्राणी अपने-अपने शरीर में रहते हैं । अथवा 'श्रित' का अर्थ है- पृथ्वी में आश्रित । अंगुल के असंख्यातवें भाग अवगाहना वाले जीव पृथ्वी- आश्रित हैं, ऐसे पृथ्वीकाय के जीव पृथक् पृथक् हैं । यह देखो । तात्पर्य यह है कि पृथ्वी को एक ही देवता मानने वाले लोग भ्रम में हैं। वास्तव में पृथ्वी प्रत्येक शरीर वाले असंख्यात पृथ्वीकायिक जीवों का पिंड है। इसी प्रकार पृथ्वी सचित्त है और अनेक जीवों से अधिष्ठित है ।
द्वारों के प्रदर्शन से वस्तु का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, अतः यहाँ द्वार
टीअर्थ --आनो अर्थ आशी छे. आणी पृथडू-पृथ याश्रित छे, अर्थात् अलग-अलग प्राय पोत-योताना शरीरमां रहे छे. अथवा 'नित 'तो अर्थ छे. પૃથ્વીમાં આશ્રિત · ઓગલના અસંખ્યાતમાં ભાગની અવગાહનાવાળા એ જીવ પૃથ્વી-આાશ્રિત છે. એના પૃથ્વીકાયના જીવ જૂદા જૂદા છે તે જુએ.
તાત્પર્ય એ છે કેઃ પૃથ્વીને એકજ દેવતા માનવાવાળા લેક ભ્રમમાં છે. વાસ્ત વિક રીતે તે પૃથ્વી પ્રત્યેક શરીરવાળા અસંખ્યાત પૃથ્વીયિક જીવના પિંડ છે. આ પ્રમાણે પૃથ્વી સચિત્ત છે, અને અનેક જીવાથી અધિતિ છે.
દ્વારાના પ્રદશનથી વસ્તુનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ થઈ જાય છે; એટલે અહિં દ્વાર ખતા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ .२ पृथिवीकायस्वरूपम् पदयन्ते-(१) लक्षणं, (२) मरूपणा, (३) परिमाणं, (४) वधः, (५) शस्त्रम्, (६) उपभोगः, (७) वेदना, (८) निवृत्तिश्वत्यष्टौ । उक्तञ्च----
"लक्रवण १ प्रस्वणा २ खलु, परिमाणं ३ वह ४ तहेव सत्थं ५ च । उवभोग ६ वेयणावि ७ य, निबत्ती ८ अ दाराई ॥१॥"
(१) लक्षणद्वारम् - ननु पृथिवी सचेतनाऽस्तीत्यत्र कि ममाणम् ? उच्यते--अनुमानमेव तावत्मयमं गृहाण । पृथिवी सचेतना तदधिष्ठितशरीरोपलब्धेः, गवाश्चादिवत् । बतलाये जाते हैं--(१) लक्षण, (२) प्ररूपणां, (३) परिमाण, (४) वध, (५) शास्त्र, (६) उपभोग, (७) वेदना, और (८) निवृत्ति । ये आठ द्वार हैं । कहा भी है-~--
"लयरवण १ पावणा २ खलु. परिमाणं ३ वह ४ तहेव सत्यं च ५। उपभोग ६ वेयणावि ७ य, निवित्ती ८ अट्ठ दाराई ॥१॥" इति ।
लक्षण, प्ररूपणा, परिणाम, वध, शास्त्र, उपभोग, वेदना और निवृत्ति, ये आठ द्वार कहे गये है। ॥ १॥
शंका-पृथ्वी सजीव है इस विषयमें क्या प्रमाण है !
समाधान-~~~पहले अनुमान प्रमाण ही लीजिए-पृथ्वी सचेतन है, क्यों कि उसमें चेतना से अधिष्ठित शरीर की उपलन्धि होती है, गाय और अश्व के समान ।
वामां आवे छे:-(१) सक्षE, (२) ५३५, (3) परिभाष्य, (४) वध, (५) शत्र, (९) G4 , (७) वहना मन (८) निवृत्ति, मा 203 द्वार छे. ह्यु छ ---
" लक्षण १ पावणा २ खलु, परिमाणं ३ वह ४ तहेव सत्यं च ५ । उपभोग ६ चेयणावि ७ य, निव्यित्ती ८ अद दाराई ॥ १॥" इति ।
“લક્ષણ, પ્રરૂપણું, પરિમાણ, વધ, શસ, ઉપલેગ વેદના અને નિવૃત્તિ. આ આઠ द्वा२ ४ा छे." (१)
(१) सारસં –પૃથ્વી સજીવ છે, એ વિષયમાં શું પ્રમાણ છે?
સમાધાન –પ્રથમ અનુમાન પ્રમાણને લઈ એ–પૃથ્વી સચેતન છે. કારણ કે તમાં ચેતનાથી અધિણિત શરીરની ઉપલબ્ધિ થાય છે. ગાય અને અશ્વિની સમાન,
प्र. मा. ५४
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आधाराने किञ्च-जीवस्य यानि लक्षणानि तानि पृथिवीकायस्य सन्ति, केवलमत्रस्त्यानदिनामदर्शनावरणकर्मोदयादुपयोगशक्तिनिदर्शनरूपा नास्ति व्यक्ता इत्यव्यक्तरूपेणोपयोगो वर्त्तते । तथौदारिक-तन्मिश्र-कार्मणशरीरात्मकः काययोगो वृद्धयष्टिवत् तस्यालम्बनाय वर्त्तते । तथा मानसिकचिन्ताविशेपवत्सूक्ष्मा आत्मपरिणामविशेपरूपा अध्यवसाया स्तत्र सन्ति । तथा साकारोपयोगान्तर्गतमतिश्रुतरूपमज्ञानद्वयं च तत्रास्ति । तथा स्पर्शनेन्द्रियमात्रस्य सद्भावादचक्षुर्दर्शनं च । तथा सेवार्तसंहननं, चन्द्रमसूर संस्थान वास्ति । तथा-मिथ्यात्वादिसद्भावादप्राविधकर्मबन्धोऽपि । कृष्णनील
दूसरी बात यह है कि-जीव के जो लक्षण हैं वे सब पृथ्वी में पाये जाते हैं । हां, पृथ्वीकाय में स्त्यानढिनामक दर्शनावरण कर्म के उदय से ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगशक्ति प्रकटरूप में नहीं है । पृथ्वी में अव्यक्तरूप से उपयोग रहता है।
तथा औदारिक औदारिकमिश्र और कार्मण शरीररूप काययोग वृद्धपुरुष को लकडीके समान उस के आलम्बन के लिए विद्यमान है । पृथ्वी में आमा के परिणाम मानसिकचिन्तारूप अध्यवसाय भी मौजूद है।
_पृथ्वी में साकार-उपयोग के अन्तर्गत मति और श्रत-अज्ञान भी पाये जाते हैं। अकेली स्पर्शनेन्द्रिय होने से अचक्षुदर्शन भी है। और सेवात संहनन, एवं चन्द्रमसूर संस्थान भी है। मिथ्यात्व आदि कारण विद्यमान होने से आठ प्रकारका कर्मबन्ध होता है । कृष्ण, नील, कापोत और तेजस ये चार लेश्याएँ भी पृथ्वीकाय में हैं। બીજી વાત આ છે કે-જીવના જે લક્ષણ છે તે સર્વ પૃથ્વીમાં જોવામાં આવે છે. હા. પૃથ્વીકાયમાં સ્થાનધિનામક દર્શનાવરણીય કર્મના ઉદયથી જ્ઞાન-દર્શનશ્ય ઉપગશક્તિ પ્રકટ કપમાં નથી. પૃથ્વીમાં અવ્યક્ત રૂપમાં ઉપયોગ રહે છે.
તથા ઔદારિક ઔદારિકમિશ્ર અને કાશ્મણ શરીરરૂપ કાયયોગ વૃદ્ધપુરૂષની લાકડી સમાન તેના આલંબન માટે વિદ્યમાન છે. પૃથ્વીમાં આત્માના પરિણામ, માનસિકચિત્તારૂપ અધ્યવસાય પણ મોજુદ છે.
પૃથ્વીમાં સાકાર ઉપયોગના અન્તર્ગત મતિ અને શ્રુત અજ્ઞાન પણ જોવામાં આવે છે. એકલી સ્પર્શેન્દ્રિય હોવાથી અચક્ષુદર્શન પણ છે. અને સેવા સહનન, એ પ્રમાણે ચન્દ્ર-મસૂર સંસ્થાન પણ છે. - મિથ્યાત્વ આદિ કારણ વિદ્યમાન હોવાથી આ પ્રકારનાં કમબંધ પણ થાય છે. કચ્છ, નીલ, કાતિ, અને તેજસ. આ ચાર લેસ્થાઓ પણ પૃથ્વીકાયમ છે,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ ३.२ मू. २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४२७ कापोततैनसलेश्याचतुष्टयं, मूक्ष्मपृथिवीकायस्यायलेश्यावयम् । तथा-आहारादिसज्ञा अपि । तथा-वेदनाकपायमारणान्तिकसमुद्धाताऽसज्ञित्वं, नपुंसकवेदः। पर्याप्तिचतुष्टयम् । तथा पृथिवीकायजीवा निरन्तरं सततमुच्सन्ति निःश्वसन्ति च । एवमुपयोगादिश्वासोच्छासान्तजीवलक्षण समन्वितत्वान्मनुष्यवत्पृथिवीसचित्ताऽस्तीति सिद्धम् ।
ननु-उपयोगार्दानि जीवलक्षणानि पृथिवीकायजीवेषु कचिन्नोपलभ्यन्ते, तथा सति-असिद्धेनैव उपयोगादिजीवलक्षणेन कथं पृथिव्याः सचिचत्वं साध्यते ।।
उच्यते-पृथिवीकायजीवेपुमासन्तुमुव्यक्तान्युपयोगलक्षणानि, अव्यक्तानि सूक्ष्म पृथ्वीकाय में आदि की तीन लेश्याएँ हैं । आहार आदि संज्ञाएँ भी उसमें हैं।
पृथ्वी में वेदना पाय और मारणान्तिक समुद्रात हैं, असंज्ञीपन है, नपुंसक वेद है और चार पर्याप्तियाँ भी हैं, पृथ्वीकाय के जीव निरन्तर श्वासोहास लेते रहते हैं। इस प्रकार उपयोग से लगाकर श्वासोवास पर्यन्त जीव के लक्षणों से युक्त होने के कारण पृथ्वी मनुष्य के समान सचित्त है, यह बात सिद्ध हुई।
शङ्का-जीव के लक्षण उपयोग वगैरह पृथ्वीकाय के जीवों में कहीं भी उपलब्ध नहीं होते । ऐसी स्थिति में वहाँ उपयोग आदि जीव के लक्षणों का होना असिद्ध है। असिद्ध कथन से पृथ्वी की सचित्तता किस प्रकार सिद्ध हो सकती है !
समाधान-पृथ्वीकाय के जीवों में भलीभाँति व्यक्त उपयोग आदि लक्षण भले પૃથ્વીકાયમાં આદિની ત્રણ સ્થાઓ છે. આહાર આદિ સંજ્ઞાઓ પણ તેમાં છે.
પૃથ્વીમાં વેદના, કષાય અને મારાન્તિકસમુઘાત છે. અસંસીપણું છે. નપુંસક વેદ છે અને ચાર પર્યાસિઓ પણ છે. પૃથ્વીકાયના જીવ નિરંતર ધારાસ લેતા રહે છે. આ પ્રમાણે ઉપયોગથી લઈને શ્વાસ પર્યત જીવના લક્ષણેથી યુક્ત હોવાથી પૃથ્વી મનુષ્ય પ્રમાણે સચિત્ત છે. તે વાત સિદ્ધ થઈ
શંકા–જીવનું લક્ષણ ઉપયોગ વગેરે પૃથિવીકાયના જીવોમાં કેઈ સ્થળે ઉપલબ્ધ થતાં નથી. એવી સ્થિતિમાં ત્યાં ઉપગ આદિ છવના લક્ષણેનું હોવું તે ફિકી નથી. એ અસિદ્ધ કથનથી પૃથ્વીની સચિત્તતા કેવી રીતે સિદ્ધ થઈ શકે છે?
સમાધાન–પૃથિવીકાયના જેમાં સારી રીતે સ્પષ્ટ વ્યક્ત ઉપગ આદિ
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आधारास्त्रे किञ्च-जीवस्य यानि लक्षणानि तानि पृथिवीकायस्य सन्ति, केवलमत्रस्यानदिनामदर्शनावरणकर्मोदयादुपयोगशक्तिनिदर्शनरूपा नास्ति व्यक्ता इत्यव्यक्तरूपेणोपयोगी वर्त्तते तिथौदारिक तन्मिश्र-कार्मणशरीरात्मकः काययोगो पृद्धयष्टिवत् तस्यालम्बनाय वर्तते । तथा मानसिकचिन्ताविशेपवत्सूक्ष्मा आत्मपरिणामविशेषरूपा अध्यवसायास्तत्र सन्ति । तथा साकारोपयोगान्तर्गतमतिश्रुतरूपमज्ञानद्वयं च तत्रास्ति । तथा स्पर्शनेन्द्रियमात्रस्य सद्भावादचक्षुर्दर्शनं च । तथा सेवार्तसंहननं, चन्द्रमपूरसंस्थान वास्ति । तथा-मिथ्यात्वादिसद्भावादप्राविधकर्मवन्धोऽपि । कृष्णनील
दूसरी बात यह है कि जीव के जो लक्षण हैं वे सब पृथ्वी में पाये जाते हैं । हो, पृथ्वीकाय में त्यानविनामक दर्शनावरण कर्म के उदय से ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगशक्ति प्रकटरूप में नहीं है । पृथ्वी में भव्यक्तरूप से उपयोग रहता है।
तथा औदारिक औदारिकमिश्र और कार्मण शरीररूप काययोग वृद्धपुरुष की लकडीके समान उस के आलम्बन के लिए विद्यमान है । पृथ्वी में मामा के परिणाम मानसिकचिन्तारूप अध्यवसाय भी मौजूद है।
___पृथ्वी में साकार--उपयोग के अन्तर्गत मति और श्रत-अज्ञान भी पाये जाते हैं। अकेली स्पर्शनेन्द्रिय होने से अचक्षुदर्शन भी है। और सेवात संहनन, एवं चन्द्रमसूर संस्थान भी है। मिथ्यात्व आदि कारण विद्यमान होने से आठ प्रकारका कर्मबन्ध होता है । कृष्ण, नील, कापोत और तेजस ये चार लेश्याएँ भी पथ्वीकाय में हैं।
બીજી વાત એ છે કે-જીવના જે લક્ષણ છે તે સર્વ પૃથ્વીમાં જોવામાં આવે છે. હા. પૃથ્વીકાયમાં સ્થાનધિનામક દશનાવરણીય કર્મના ઉદયથી જ્ઞાન-દર્શન૫ ઉપચગશક્તિ પ્રકટ રૂપમાં નથી. પૃથ્વીમાં અવ્યક્ત રૂપમાં ઉપયોગ રહે છે.
તથા ઔદારિક ઔદારિકમિત્ર અને કાશ્મણ શરીરરૂપ કાયયોગ વૃદ્ધપુરૂષની લાકડી સમાન તેના આલંબન માટે વિદ્યમાન છે. પૃથ્વીમાં આત્માના પરિણામ, માનસિક ચિન્તારૂપ અધ્યવસાય પણ મોજુદ છે.
પૃથ્વીમાં સાકાર ઉપગના અન્તર્ગત મતિ અને શ્રુત અજ્ઞાન પણ જોવામાં આવે છે. એકલી સ્પશેન્દ્રિય હોવાથી અચકુંદન પણ છે. અને સેવાર્તા સંહનન, એ પ્રમાણે ચન્દ્ર–મસૂર સંસ્થાન પણ છે.
મિથ્યાત્વ આદિ કારણ વિદ્યમાન હોવાથી આઠ પ્રકારનાં કમબંધ પણ થાય છે, કણુ, નીલ, કાપત, અને તેજસ. આ ચાર લેસ્યાઓ પણ પૃથ્વીકાયમ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ सू.२ पृथिवीकायस्वरूपम् ४२९ एवं च मनुष्यवद् व्रणस्थानभरणरूपस्य चेतनालक्षणस्य पृथिवीकायेऽपि सत्वात् ।
यद्वा-पृथिवी सजीवा, दैनिकयर्पणोपचयसंदर्शनाद, चरणतलवद , तद्यथा-चरणतलं घृप्यते पुप्यति च, तद्वत् पृथिव्यपि मत्यहं धृष्यते, उपचीयते च; तस्मात्तस्याः सजीवत्वम् ।
. अथवा-विद्रुमपापाणिरूपा पृथिवी सचेतना, काटिन्ये सत्यपि वृद्धयादिदर्शनाद , शरीरस्थितास्थ्यादिवत् । तद्यथा-शरीरस्थितमस्थ्यादिकं कमठपृष्ठकठिनं सदपि चित्तवदनुभूयमानमुपचयं च गच्छन् संदृश्यते । एवं विद्रुमशिलाद्यात्मिकायाः इस प्रकार मनुष्य के समान घाव का भरना भी चेतना का एक लक्षण है, और वह पृथ्वी कायमें विद्यमान है।
अथवा-पृथ्वी सजीव है, क्यों कि उस में प्रतिदिन घिसना और उपचय होना देखा जाता है, पैर के तल की तरह । तात्पर्य यह है कि-जैसे पैर का तलभाग घिसता है और फिर पुष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पथिवी भी प्रतिदिन घिसती है और भरजाती है। अतः पृथिवो भी सजीव है।
अथवा-गा, पापाण आदि रूप पृथ्वी सजीव है, क्यों कि उसमें कठिनता होने पर भी वृद्धि आदि देखी जाती है; जैसे शरीर को हड्डी आदि । तात्पर्य यह है कि जैसे शरीर की हड़ी आदि कछुवे की पीठ की भाति कठोर होने पर भी सचित्त मालूम होती है और उपचय को प्राप्त होती हुई दिखाई देती है, इसी प्रकार मुंगा-शिला તે પ્રમાણે મનુષ્યના સમાન ઘાવનું ભરાઈ જવું તે પણ એક ચેતનાનું લક્ષણ છે, અને તે પૃથ્વીકાયમાં વિદ્યમાન છે.
અથવા–પૃથિવી સજીવ છે, કારણ કે તેમાં પ્રતિદિન ઘસાવું અને વધવું તે જેવામાં આવે છે, પગના તળીઆની પ્રમાણે તાત્પર્ય એ છે કે-જેમ પગના તળીઆને ભાગ ઘસાય છે અને ફરી પાછા પુષ્ટ થઈ જાય છે તે પ્રમાણે પૃથિવી પણ પ્રતિદિન ઘસાય છે અને ફરી પાછી ભરાઈ જાય છે, તેથી પૃથિવી પણ સજીવ છે.
અથવા–સંગ (પરવાળા) પાષાણ આદિરૂપ પૃથ્વી સજીવ છે કેમકે તેમાં કઠિનતા હોવા છતાંય પણ વૃદ્ધિ વગેરે જોવામાં આવે છે, જેવી રીતે શરીરના હાડકાં આદિ. તાપૂર્થ એ છે કે જેવી રીતે શરીરના હાડકાં આદિ કાચબાની પીઠ જેવા કઠોર હોવા છતાંય પણ સચિત્ત માલુમ પડે છે, અને વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થતાં હોય તેમ દેખાય છે, તે
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आचाराङ्गसूत्रे तु तत्र सन्त्येव यथा - कस्यचिन्मनुष्यस्य अत्युत्कटमदिरातिपानजनितपित्तोदयमूर्छितस्य चेतनाया अव्यक्तत्वेऽपि न तस्याचित्तरूपता विज्ञायते, एवं पृथिवीकायजी वेष्वव्यक्तचेतना संभवति ।
न. चाव्यक्तचेतनाऽभिव्यञ्जकमुच्छ्वासादिकं मद्यमूर्छितमनुष्यस्य सचित्तस्वमावेदयति, इह तु न किञ्चिच्चेतनालक्षणं लक्ष्यत इति वाच्यम् ।
यथा मनुष्यशरीरे क्षतस्थानं मांसादिरिक्तमपि पश्चात्क्षतादिनिवृतौ स्वयं भ्रियते, तथैव खनितं खनिभूम्यादिकं सजातीयावयवैश्रियमाणं दृश्यते ।
ही न हों, मगर अव्यक्तरूप में तो विद्यमान हैं ही । जैसे कोई मनुष्य खूप नसैली मदिराका डाकर पान कर ले और पित्त के प्रकोप से मूच्छित हो जाय तो उसको भी चेतना अव्यक्त हो जाती है, फिर भी उसे अचित्त (अचेतन) नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार पृथ्वीकाय के जीवों में अव्यक्त चेतना है ।
शङ्का - अव्यक्त चेतना के बोधक उच्चीस वगैरह मद्यमूर्च्छित मनुष्य को सचित्तता को प्रकट करते है; मगर यहाँ ( पृथ्वी में ) तो चेतना का कोई भी लक्षण नहीं दिखाई देता । ऐसी स्थिति में पृथ्वी की सचेतनता किस प्रकार मानी जाय ?
समाधान - जैसे--: ते - मनुष्य के शरीर में घाव हो जाता है तो उस स्थान में मांस आदि नहीं रहता । पश्चात् घाव मिट जाने पर वह भर जाता है । इसी प्रकार खोदी हुई खान आदि की भूमि अपने सजातीय अवयवों से भरजाती दिखाई देती है ।
લક્ષણ ભલે ન હોય, પરન્તુ અત્યંત રૂપમાં તે વિદ્યમાન છેજ, જેમ કેાઇ મનુષ્ય ખૂબ પેટભરીને ઘણા નીસાવાળી દિરાનું પાન કરી લે અને પિત્તના પ્રકાપથી મૂતિ થઈ જાય તે તેની પશુ ચેતના અવ્યકત થઈ જાય છે, એટલે તેને અર્ચિત્ત કહી શકતા નથી. એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયના જીવામાં અવ્યક્ત ચેતના છે.
શકા—અવ્યક્ત ચેતનાના એધક તરીકે ઉચ્છ્વાસ વગેરે મનુષ્યની સચિત્તતાને પ્રગટ કરે છે પરન્તુ અહિં (પૃથ્વીમાં) તે ચેતનાનું કેઈ પણ લક્ષણ જોવામાં આવતું નથી. એવી સ્થિતિમાં પૃથ્વીની સચેતનતા કેવી રીતે માની શકાય ?
સમાધાન—જેવી રીતે મનુષ્યના શરીરમાં ઘાવ-ડા જખમ થઇ જાય છે તે તે સ્થાનમાં માંસ આદિ રહેતું નથી. પાછળથી ઘાવ રૂઝાઈ જતાં તે માંસથી ભરાઈ જાય છે. એ પ્રમાણે ખાદેલી ખાણુની ભૂમિ પેાતાના સજાતીય અવયવેથી ભરાઈ જાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू.२ पृथिवीकायस्वरूपम् છેર एवं च मनुष्यवद् प्रणस्थानभरणरूपस्य चेतनालक्षणस्य पृथिवीकायेऽपि सत्त्वात् । ____यद्वा-पृथिवी सजीवा, दैनिकघर्पणोपचयसंदर्शनाद, चरणतलबत् , तया-चरणवलं धृप्यते पुप्यति च, तद्वत् पृथिव्यपि प्रत्यहं धृष्यते, उपचीयते च; तस्मात्तस्याः सनीवत्वम् । __अथवा-विद्रुमपापाणिरूपा पृथिवी सचेतना, काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिदर्शनात्, शरीरस्थितास्थ्यादिवत् । तद्यथा-शरीरस्थितमस्थ्यादिकं कमठपाठकठिनं सदपि चित्तवदनुभूयमानमुपचयं च गच्छन् संदृश्यते । एवं विद्रुमशिलाद्यात्मिकायाः इस प्रकार मनुष्य के समान घाव का भरना भी चेतना का एक लक्षण है, और वह पृथ्वी कायमें विद्यमान है।
अथवा-पृथ्वी सजीव है, क्यों कि उस में प्रतिदिन घिसना और उपचय होना देखा जाता है, पैर के तल की तरह । तात्पर्य यह है कि जैसे पैर का तलभाग घिसता है और फिर पुष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पथिवी भी प्रतिदिन घिसती है और भरजाती है। अतः पृथिवी भी सजीव है। ____ अथवा-मूंगा, पापाण आदि रूप पृथ्वी सजीव है, क्यों कि उसमें कठिनता होने पर भी वृद्धि आदि देखी जाती है; जैसे शरीर को हड्डी आदि । तात्पर्य यह है कि जसे शरीर की हड्री आदि कछुवे की पीठ की भाति कठोर होने पर भी सचित्त मालम होती है और उपचय को प्राप्त होती हुई दिखाई देती है, इसी प्रकार मुंगा-शिला તે પ્રમાણે મનુષ્યના સમાન ઘાવનું ભરાઈ જવું તે પણ એક ચેતનાનું લક્ષણ છે, અને તે પૃથ્વીકાયમાં વિદ્યમાન છે.
અથવા-પ્રથિવી સજીવ છે, કારણ કે તેમાં પ્રતિદિન ઘસાવું અને વધવું તે જોવામાં આવે છે, પગના તળીઆની પ્રમાણે તાત્પર્ય એ છે કે-જેમ પગના તળીઆને ભાગ ઘસાય છે અને ફરી પાછા પુષ્ટ થઈ જાય છે તે પ્રમાણે પૃથિવી પણ પ્રતિદિન ઘસાય છે અને ફરી પાછી ભરાઈ જાય છે, તેથી પૃથિવી પણ સજીવ છે.
અથવા-મુંગા (પરવાળા) પાષાણુ આદિરૂપ પૃથ્વી સજીવ છે કેમકે તેમાં કઠિનતા હોવા છતાંય પણ વૃદ્ધિ વગેરે જોવામાં આવે છે, જેવી રીતે શરીરના હાડકાં આદિ. તસ્પર્ય એ છે કે જેવી રીતે શરીરના હાડકાં આદિ કાચબાની પીઠ જેવા કઠોર હેવા છતાંય પણ સચિત્ત માલુમ પડે છે, અને વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થતાં હેય તેમ દેખાય છે, તે
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आचारायचे पृथिव्याः काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिकं प्रत्यक्ष दृश्यते तस्मात्तस्याः सचेतनस्वम् । __ अथ च-विद्रुमाद्यात्मिका पृथिवी सचित्ता, छेदादौ तत्मजातीयधातूत्पत्तिदर्शनात्, अर्थोऽङ्कुरवत् । तद्याथा-अर्शसोऽखरे छिन्नेऽपि पुनस्तत्समान एवाङ्कुरः मादुर्भवति, एवं विद्रुमशिलाघात्मिकायाः पृथिव्याः खन्यादी छेदेऽपि तत्सजातीयधातुभिस्तद्रिक्तभागः परिपूर्यते, तस्मात् सिद्धं पृथिव्याः सचित्तत्वम् ।
किञ्च - यथा सास्नाविपाणाधवयवसंघातानां गोमहिप्यादिशरीराणां छिन्नभिन्नो-लिप्त-स्पृष्ट-दृष्ट-द्रव्यत्वेन जीवशरीरत्वं, तथैव पृथिव्यादीनां प्रत्यक्षदृष्टं आदिरूप पृथ्वी में, कठिनता होने पर वृद्धि आदि प्रत्यक्ष दिखाई देता है । इस कारण पृथिवी सचित्त है। ___ अथवा-मूंगा आदि पृथ्वी सचित्त है, क्यों कि उसका छेदन होने पर वहां उसी की सजातीय धातु उत्पन्न होती है, अर्श (मस्सा) के अंकुर के समान, जैसे अर्श के अंकुर एकवार काट देने पर भी फिर वहाँ उसी जाति के अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार मूंगा-शिला आदि रूप पथिवी का खान आदि में छेदन कर देने पर भी उसी की सजातीय धातुओं से यह खाली स्थान भर जाता है, अतः पृथिवी की सचित्तता सिद्ध हुई।
___ और भी लीजिए-जैसे सास्ना (गायके गले में लटकने वाली चमडी) सीग आदि अवयवों का समुदायरूप गाय, भैंस आदि के शरीर छिन्न, भिन्न, उत्क्षिप्त, स्पृष्ट, दृष्ट और द्रव्यत्व के कारण जीव के शरीर है, इसी प्रकार पृथिवी आदि में प्रत्यक्ष से
પ્રમાણે મૂગા (પરવાળાં) શિલા આદિ રૂપ પૃથ્વીમાં કઠિનતા હોવા છતાંય પણ વૃદ્ધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે, આ કારણથી પૃથ્વી સચિત્ત છે.
__अथवा-भूगा (५२i) माह की सथित्त छ. म-तेनु छेन थपाथी ત્યાં તેની સજાતીય ધાતુ, ઉત્પન્ન થાય છે, અર્શ (મસા)ના અંકુર પ્રમાણે, જેમ અશના અંકુર એકવાર કાપી નાંખવા છતાંય પણ ફરીથી ત્યાં તે જાતિને અંકુર ઉત્પન્ન થાય છે, તે પ્રમાણે મૂંગા-શિલા આદિરૂપ પૃવિનું ખાણ આદિમાં છેદન કરી દેવા છતાંય પણ તેની સજાતીય ધાતુઓથી તે ખાલી સ્થાન ભરાઈ જાય છે, તે કારણથી પૃથ્વીની સચિત્તતા સિદ્ધ થઈ
બીજું પણ પ્રમાણ લઈએ, જેમ સાસ્ના (ગાયના ગળામાં લટકવાવાળી ચામડી) સીંગ આદિ અવયના સમુદાયરૂપ-ગાય, ભેંસ આદિના શરીર છિન્ન, ભિન્ન, ઉક્લિપ્ત, પૃષ્ઠ. ણ, અને દ્રવ્યત્વના કારણથી જીવનું શરીર છે, તે પ્રમાણે પૃથ્વી આદિમાં પ્રત્યક્ષ
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १. उ२. सु. २ पृथिवोकायस्वरूपम्
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छिन्नत्वादिकमपलपितुं न शक्यते, तस्मात्पृधिव्यादीनामपि जीवशरीरत्वं सिद्ध्यति । जीवशरीरत्वेन निरूपितत्वाच्च पृथिव्यादीनामपि करचरणसंघाठानामिव कदाचिच्चैतन्यं सिद्धयति, नतु सर्वथा शाश्वतिक निर्जीवत्वं तेषां संभवति, कदाचिदचित्तत्वमपि aaleena refa करचरणादिवदिति ।
पृथिव्याः सचिनत्वेऽनेकजीवाधिष्ठितत्वे चागमोऽपि प्रमाणम् । तथाहि-"पुढवी चित्त मंतमकखाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्य सत्यपरिणएणं" (दश.४ अ.) पृथिवी चित्तवती सजीवा - आख्याता = भगवता कथिता अनेकजीवा =
सकता,
अतः पृथिवी आदि
दिखाई देने वाली हिन्नता आदि का अपलाप नहीं किया जा जीव के शरीर हैं, इस प्रकारका निरूपण करने से हाथ पैर की तरह उन में भी किसी समय चैतन्य का अस्तित्व सिद्ध होता है, उनको सदैव और सर्वथा निर्जीवता सिद्ध नहीं हो सकती । पृथिवी आदि कदाचित् निर्जीव होती है सो उसका कारण शत्र का उपघात है । शत्र के प्रयोग से जैसे हाथ-पैर आदि अवयव निर्जीव हो जाते हैं उसी प्रकार पृथ्वी भी निर्जीव हो जाती है ।
पृथ्वी सचित है और अनेक जीवों से अधिष्ठित है, इस विषय में आगमप्रमाण भी है वह इस प्रकार - " पृथ्वी सचित्त कही गई है उसमें अनेक जीव हैं और उन सब की सत्ता थक-पृथक है, शस्त्रपरिणत पृथ्वी को छोडकर " ( दश. ४. अ. )
अर्थात् पृथ्वी सजीव है, ऐसा भगवानने कहा है । उस में अनेक एकेन्द्रिय जीव हैं ।
દેખાઈ આવે તેવી છિન્નતા આદિના અપલાપ (છતી વસ્તુ દેખાય તે ના કહેવી કે નથી દેખાતી) કરી શકાશે નહિં, એ માટે પૃથ્વી આદિ પણ જીવનું શરીર સિદ્ધ થાય છે. પૃથ્વી આદિ જીવનાં શરીર છે. એ પ્રકારનું નિરૂપણ કરવાથી હાથ-પગની પ્રમાણે તેમાં પશુ કાઈ સમય ચૈતન્યનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. તેની હમેશાં અને સ થા નિર્જીવતા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી. પૃથ્વી આર્દિ કદાચિત્ નિર્જીવ હાય છે, તે તેનું કારણુ રાસના ઉપઘાત છે. (હૅથિરથી કપાવું-ખેાદાવું તે છે) શસ્ત્રના પ્રયાગથી જેમ હાથ-પગ અવયવ નિર્જીવ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે પૃથ્વી પણ નિર્જીવ થઈ જાય છે. પૃથ્વી ચિત્ત છે. અને અનેક જીવાથી અતિ છે. આ વિષયમાં આગમ अभालु पशु छे. ते या प्रभाष:
“ પૃથ્વી સચિત્ત કહેવામાં આવી છે, તેમાં અનેક જીવ છે, અને તે સની सत्ता पृथइ-पृथइ छे; शस्त्रपरित पृथ्वीने सकते." ( हशवेअसिङ, ४-२ )
અર્થાત્ પૃથ્વી સજીવ છે; એવું ભગવાને કહ્યું છે. તેમાં અનેક એકેન્દ્રિય જીવ છે.
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आचारास्त्रे
अने के बहवो जीवा एकेन्द्रिया यस्यां सा तथोक्ता, पृथक्सत्त्वा =पृथक् पृथग्भूता अङ्गला संख्येयभागमात्रशरीरावगाहनामाश्रित्य विभिन्नरूपेण स्थिताः सत्वा:= स्पर्शनेन्द्रियवन्तो जीवा यस्यां सा तथोक्ता 'आख्याता ' इति पूर्वोक्तेन संबन्धः ।
ननु तर्हि तथाभृतायां सचित्तायां पृथिव्यां गमनागमनादिक्रियां कुर्वतां संयतानामहिं साव्रतस्य संरक्षणं कथं भवति प्रत्युतावश्यकरणीयो चारअस्रवणादिक्रियया हिंसव भवति, तस्मादहिंसात्रतपालनं वन्ध्यापुत्रपालनचदसंभवम् ? - इत्यत आह- ' अन्नत्थ सत्यपरिणएणं' इति, शस्त्रपरिणताया अन्यत्र, शस्त्रपरिणतां पृथिवीं वर्जयित्वाऽन्या पृथिवी सजीवा । शस्यते = हिंस्यते प्राणिगणोऽनेनेति शस्त्रं । यद् यस्य विनाशकारणं तत्तस्य शस्त्रमित्यर्थः । तत् द्विविधं द्रव्यभाववे सब जीव अंगुल के असंख्यातवें भाग की शरीर - अवगाहना वाले भिन्न-भिन्न रूप में स्थित हैं । यहाँ सत्व का अर्थ एकेन्द्रिय जीव समझना चाहिए ।
पृथ्वी पर गमन - आगमन आदि क्रिया सकता है ? प्रत्युत मल-मूत्र आदि का अनिवार्य है। एसो स्थिति में अहिंसा का
शङ्का -- पृथ्वी अगर सचित्त है तो सचित्त करने वाले साधुओं का अहिंसावत कैसे स्थिर रह त्याग अनिवार्य है और इस से हिंसा होना भी पालन करना चंध्या - पुत्र का पालन करने के समान असंभव है ।
समाधान - शास्त्र में कहा है- 'अन्नत्थ सत्यपरिणएणं' अर्थात् शस्त्रपरिणत पृथ्वी को छोड़कर दूसरी पृथ्वी सचित्त है । जिस के द्वारा प्राणिगण का हनन हो उसे शस्त्र कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जो जिस के विनाश का कारण है, वह उस તે સર્વ જીવ 'ગુલના અસંખ્યાતમા ભાગની શરીર-અવગાહનાવાળા ભિન્ન-ભિન્ન રૂપમાં સ્થિત છે. હું સત્ત્વના અર્થ એકેન્દ્રિય જીવ સમજવા જોઈ એ.
શકા—પૃથિવી અગર સચિત્ત છે તે સચિત્ત પૃથ્વી પર જવા આવવાની ક્રિયા કરવાવાળા સાધુએનું અહિંસાવ્રત સ્થિર કેવી રીતે રહી સકે છે ? ઉલટું મલમૂત્ર આદિના ત્યાગ અનિવાર્ય છે, તેથી હિંસા થવી પણ અનિવાર્ય છે. એવી સ્થિતિમાં અહિંસાનું પાલન કરવું તે વંધ્યાપુત્રના પાલન કરવા સમાન અસંભવ છે.
सभाधान-शास्त्रभां छे:- ' अन्नत्थ सत्यपरिणएणं' अर्थात् शस्त्रપરિણત પૃથ્વીને ત્યજી બીજી પૃથ્વી સચિત્ત છે. જેના દ્વારા પ્રાણિગણનું હનન (નાશ) થાય તેને શસ્ર કહે છે. તાપય એ છે કે જે જેના વિનાશનું કારણ છે તે તેના માટે શસ્ત્ર છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ म. २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४३३ भेदात् । तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकायपरकायतदुभयलक्षणम् । तत्र स्वकायशस्त्रं पृथिव्याः पृथिव्येव यथा-कृष्णमृत्तिकायाः शुममृत्तिकेत्यादि । परकायशस्त्र जलाग्निगोमयचरणशकटचक्रादि । उमयकायशवं जलादिमिश्रमृत्तिका । एवं च शस्त्रपरिणतायाः पृथिव्या अचित्ततया न तत्रोच्चारमस्त्रवणादिक्रियया मुनीनामहिंसावतक्षतिः ।
(२) प्ररूपणाद्वारम्पृथिवीजीवा द्विविधाः सूक्ष्मवादरमेदात् । सूक्ष्मनामकर्मोदयालक्ष्मा', चादरनामकर्मोदयाद् बादराः, न तु बदरामलकरदापेक्षिकं सूक्ष्मत्वं बादरत्वं च । के लिए शस्त्र है । शस्त्र के दो मेद हैं-द्रव्यशास्त्र और भावशस्त्र । स्वकाय, परकाय और उमयकायरूप द्रव्य-शस्त्र है । पथ्वी का शस्त्र पृथ्वी-स्वकायशस्त्र है जैसे काली मिट्टी का शास्त्र सफेद मिट्टी है। परकायशस्त्र जैसे-जल, अग्नि, गोवर, चरण (पग), शकट (गाडी) का पैया मादि । जल आदि से मिली हुई मृतिका उभयकायशस्त्र है। इस प्रकार शस्त्र से परिणत पृथ्वी अचित्त हो जाती है, अत एव उस पर मल-मूत्र आदि त्यागने वाले मुनियों के अहिंसावत में कोई क्षति नहीं पहुँचती !
(२) मरूपणा-द्वारपृथ्वी के सूक्ष्म और बादर के भेदसे दो प्रकार हैं । सूदमनामकर्म के उदय से सूक्ष्म मार यादरनामकर्म के उदय से चादर होते हैं । यहाँ सूक्ष्मता और बादरता बेर और आवले की तरह सापेक्ष नहीं समझनी चाहिए ।
રાના બે ભેદ છે. દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને ભાવશસ્ત્ર, રૂકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ દિવ્યશાસ્ત્ર છે. પૃથ્વીનું શસ્ત્ર પૃથ્વી સ્વકાય-શસ્ત્ર છે, જેમ કાલી માટીનું શસ્ત્ર સફેદ માટી છે, પરકાથ-શસ્ત્ર જેમકે જલ, અનિ, છાણ, પગ, ગાડીનું ચાક આદિ. જલપાણી આદિથી મળેલી માટી ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. આ પ્રમાણે શસ્ત્રથી પરિણત પૃથ્વી અચિત્ત થઈ જાય છે. એટલા માટે તેના પર મળ-મૂત્રાદિ ત્યાગ કરવાવાળા મુનિના અહિંસાબતમાં કોઈ હાનિ પહોંચતી નથી.
(२) अरूणाપૃથ્વીકાયના જીવ સમ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના છે. સૂક્ષ્મનામકર્મના ઉદયથી સૂક્ષ્મ અને બાદરનામકર્મના ઉદયથી બાદર થાય છે. અહિં સૂક્ષમતા અને ભાદરતા. બેર અને આંબળાની પ્રમાણે સાપેક્ષ સમજવી નહિ જોઈએ.
प्र. पा.-५५
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, आचारास्त्रे तत्र सूक्ष्माः द्विविधाः-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, ते फज्जलकृपिकावत् सर्वलोकव्यापिनः ।
बादरा अपि द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदात । तत्र वादराः पर्याप्ता अपर्यास्ताच लोकस्यैकदेशे पृथिव्यप्रकाधोऽधःपाताल-भवन-नकरमस्तरादो सन्ति । ते विद्विधाः श्लण-खरमेदाद । तत्रणा वादरपृथिवी सप्तधाकृष्णनील-लोहित-पीत-शुक्ल-पण्ड-पनकभेदात् । खरवादरपृथिव्यास्तु चत्वारिंशद् (४०) भेदाः, तथाहि
(१)शुद्धपृथिवी, (२)शर्करापृथिवी, (३)वालुकापृथिवी, (४)उपलः, (५)शिला, (६)लवणः, (७)उपः (८)अयः, (९)ताम्रः, (१०)पुः, (११)सीसकम्, (१२)रूप्यम्, (१३)सुवर्णम्, (१४)वजः, (१५)हरितालः (१६)हिङ्गलका, (१७)मनःशिला।
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सूक्ष्म जीव भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । ये जीव काजल की कुप्पी के समान सम्पूर्ण लोक में भरे हुए हैं।
बादर भी पर्याप्त और अपर्याप्त-दो प्रकार के हैं। ये जीव लोक के एक देश में हैं । इन के दो भेद हैं- लक्षण और सर । लक्षणबादरपृथ्वी के सात भेद हैं-कृष्ण नील लोहित (लाल) पीत शुक्ल पाण्डु और पनक खरवादर पृथ्वी के चालीस भेद हैं, वे इस प्रकार
(१) शुद्ध--पथिवी, (२) शर्करा-पृथिवी, (३) बालुका--पथिवी, (४) उपल, (५) शिला, (६) लवण-नमक, (७) ऊप-क्षार, (८) लोहा, (९) तांबा, (१०) रागा, (११) सीसा, (१२) चांदी, (१३) सोना, (१४) वज़, (१५) हरिताल, (१६), होंगल, સૂક્ષમ જીવ પણ બે પ્રકારના છે. પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત-જીવ કૌજળની કુપીના સમાન સંપૂર્ણ લેકમાં ભરેલા છે.
બાદર પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એમ બે પ્રકારના છે. એ જીવ લેકના એક દેશમાં છે. તેના બે ભેદ છે. શ્લફણ અને ખર, શ્વણ બાદર પૃથ્વીના સાત ले छे. gy, ala, aहित (मास) थोत, शुस, पड मन पन४. ५२-२ પૃથ્વીને ચાલીસ લે છે તે આ પ્રમાણે છે –
(१) शुद्ध पृथिवी; (२) ४२ पृथिवी, (3) पाबु पृथिवी, (४) S6, (५) Nal, (6) Aqers, (७) 64-क्षार, (८) atsi, (e) aiRI, (१०),संt-kats, (११) सीसा, (१२) isी, (13) साना, (१४) १०१, (१५) रतास, (१६) मुख,
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २ सृ. २ पृथिवीकायस्वरूपम्
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(१८) शस्यकः - पारदः, स्वनामख्यातो रत्नविशेपथ, (१९) अञ्जनं, (२०) मवालम्, (२१) अभ्रपटलम्, (२२) अभ्रवालुका (अभ्रकचूर्णम्) (२३) गोमेदकः, (२४) रुचकः, (२५) अङ्कः, (२३) स्फटिकः, (२७) लोहिताक्षः, ( २८ ) मरकतः, (२९) मसारगलः, (३०) भुजमोचक:, (३१) इन्द्रनील:, (३२) चन्दनम् ।, (३३) गैरिकमः, (३४) हंसगर्भः, (३५) पुलकः, ( ३६ ) सौगन्धिकः, (३७) चन्द्रमः, (३८)र्त्यम्:, (३१) जलकान्तः, ( ४० ) सूर्यकान्तः । एते च शुद्धपृथिव्यादयः पृथिवीकायिकाः स्वाकरादौ सचित्ता भवन्ति ।
गोमय - कचचर - सवितापादिसंपर्कातु गतचेतना अपि भवन्ति । बादरपृथिव्या यत्रैको जीवस्तत्राऽसंख्यातैर्नियमतो भाव्यम् ।
एवमप्तेजोवायुप्रत्येक वनस्पतिष्वपि विज्ञेयम् । निगोदे तु यत्रैको
(१७) मैनसिल, (१८) शस्यक - पारा, अथवा रत्नविशेष, (१९) अंजन, (२०) प्रचाल, (२१) अभ्रपटल, (२२) अभ्रवालुका (अभ्रकचूर्ण), (२३) गोमेद, (२४) रुचक, (२५) अंकरत्न, (२६) स्फटिक, (२७) लोहिताक्ष, (२८) मरकत, (२९) मसारगड, (३०) भुजमोचक, (३१) इन्द्रनील, (३२) चंदन, (३३) गेरू, (३४) हंसगर्भ, (३५) पुलक, (३६) सौगंधिक, (३७) चन्द्रप्रभूचन्द्रकान्त, (३८) बैइये, (३९) जलकान्त, (४०) सूर्यकान्त । ये शुद्ध पृथिवी आदि चालीस जब अपने आकर (खान) में रहते हैं तो सचित होते हैं । गोवर कचरा सूरज की धूप आदि के संपर्क से अचेतन हो जाते हैं। जहां बादरपृथ्वीकाय का एक जीव होता है वहाँ असंख्यात जीव नियम से होते हैं ।
इसी प्रकार अप्, तेज, वायु, और प्रत्येक वनस्पति में भी समझना चाहिए |
(१७) भनशील, (१८) पारे, (१८) सुरमा, (२४) ३२४, (२५) २२४-२९न, (२१) स्ट४, (२७) सोहिताक्ष, ( २८ ) भर४त, (२६) मसारगड, ( 30 ) / भोय, (३१) इन्द्रनीस, (३२) यन्दन, (33) शेरू, (३४) इंसगल, (३६) युवङ, ( 3 ) सोग धिङ, (३१) चन्द्रप्रल--यद्रान्त, (३८) वैडूर्य, (३८) सान्त, (४०) सूर्य भन्त था शुद्ध પૃથ્વી આદિ ચાલીશ જ્યારે પાતાનાં આકર–ખાણુમાં રહે છે તે ચિત્ત હોય છે. છાણુ, કચરા, સુરજના તડકા વગેરેના સંપર્કથી તે અચેતન થઈ જાય છે, જ્યાં ખાદર પૃથ્વીકાયના એક જીવ ડાય છે, ત્યાં અસંખ્યાત જીત્ર નિયમથી હાય છે.
એ પ્રકારે અપૂ, તેજ, વાયુ અને પ્રત્યેકવનસ્પતિમાં પણું સમજવું જોઈએ,
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દં
निगोदजीवस्तत्र नियमतोऽनन्ताः ।
आधाराङ्गमुत्रे
चादराणां सूक्ष्माणां च पृथिवीकायानामेते वक्ष्यमाणा भेदाः सन्ति, तत्रोभयोः पर्याप्तापर्याप्तभेदः प्रागुक्तः, अन्ये मेदा उच्यन्ते - शरीरत्रया - ङ्गुला संख्येय भागशरीर सेवार्त्तसंहनन - मसूरचन्द्रसंस्थान - कपायचतुष्क सञ्ज्ञाचतुष्काऽऽधलेश्यात्रय - स्पर्शनेन्द्रिय-वेदनाकपायमारणान्तिकसमुद्धाता - सविज्ञत्व - नपुंसकवेद - पर्याप्तिचतुष्टय - मिथ्यादर्शना - ऽचक्षुदर्शना - ज्ञान - काययोग- साकारानाकारोपयोगाऽऽहारादिप्रभृतयः । तत्र विशेषस्तु बादरपृथिवीकायानां लेश्या आद्याश्चतस्रः, शेयं सर्व समानम् । असंख्येयाच प्रत्येकमुभये ।
--
निगोद में जहाँ एक जीव होता है यहाँ नियम से अनन्त जीव होते हैं ।
बादर और सूक्ष्म पृथिवीकार्यो के भेद इस प्रकार हैं- दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद पहले कहे जा चुके हैं । अब अन्य भेद कहते हैं-तीन शरीर, अंगुलका असंख्यातवां भाग शरीर, सेवार्त संहनन, मसूर चन्द्र संस्थान, चार कपाय, चार संज्ञाएँ, प्रारंभ की तीन लेश्याएँ, स्पर्शनेन्द्रिय, वेदना कपाय और मारणान्तिक समुद्वात, असंज्ञीपन, नपुंसकवेद, चार पर्याप्तियाँ, मिथ्यादर्शन, अचक्षुदर्शन तीन भज्ञान; काययोग, साकार तथा अनाकार उपयोग, आहार आदि । इन में विशेषता इतनी ही है कि बादरपृथिवीकाय में पहले की चार लेश्याएँ होती हैं । शेष सब बोल समान हैं। दोनों ही असंख्यातअसंख्यात हैं ।
નિગાદમાં જ્યાં એક જીવ હાય છે ત્યાં નિયમથી અનન્ત જીવ હાય છે,
માદર અને સૂક્ષ્મ પૃથિવીકાયાના ભેદ આ પ્રમાણે છે. અન્નેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત બેઉ ભેદ પ્રથમ કહેવામાં આવ્યા છે. હવે મીા ભેદ કહે છે–ત્રણ શરીર, ગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ શરીર, સેવાન્તે સહુનન, મસૂર-ચન્દ્ર સંસ્થાન, ચાર કષાય, ચાર સત્તાએ, પ્રારંભની ત્રણુ લેશ્યાએ, સ્પર્શ ઇન્દ્રિય, વેદના કષાય, અને મારાન્તિક સમુદ્દાત, અસ'શીપણું, નપુંસકવે, ચાર પર્યાપ્તિએ, મિથ્યાદર્શન, अक्षुहर्शन, नाथु अज्ञान, अययोग, साक्षर तथा अनार उपयोग, आहार माहि તેમાં વિશેષતા એટલી જ છે કેઃ-માદર પૃથિવીકાયમાં પ્રથમની ચાર લેફ્સાઓ લેય छे, माडी तमाम बोस समान छे. पन्ने असंख्यात असंख्यात छे.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २. २ पृथिवीकायस्वरूपम्
(३) परिमाणद्वारम्
बादरपर्याप्ताः पृथिवीकायजीवाः सर्वतः स्तोकाः । तदपेक्षया चादरा पर्याप्ताः असंख्येयगुणाः । तदपेक्षया सूक्ष्माऽपर्याप्ता असंख्येयगुणाः । तदपेक्षया सूक्ष्मपर्याप्ता असंख्येयगुणाः । यदि जवारीधान्यकणममाणपृथिव्यंशाश्रया जीवा एकैकं बहिर्निगत्य पृथक्-पृथक् कपोतमितं कार्यं कुर्युस्तर्हि तेपां लक्षयोजनममाणजम्बूद्वीपे समावेशोऽपि न संभवति ।
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ननु जवारीधान्यकणमात्रे पृथिव्यंशे कथमियन्तो जीवास्तिष्ठन्ति ! इति चेत् उच्यते यथा सहस्रौषधिसंमिश्रणनिष्पन्नसहस्रपा कतैलस्याल्पीय सि
(३) परिमाणद्वार
पर्याप्त चादर पृथ्वीकाय के जीव सब से थोडे हैं । उन को अपेक्षा बादर अपर्याप्त असंख्यात गुना अधिक है । उन से सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्येय गुना है। उन से सूक्ष्म पर्याप्त असंख्यात गुना है । अगर जवार नामक धान्य के कण के बराबर 'थ्वी के अंश में रहने वाले जीव एक-एक करके बाहर निकल जाएँ और वे सब अपना शरीर के बराबर बनालें तो एक लाख योजन विस्तार वाले जम्बूद्वीप में नहीं हो सकता ।
शरीर कबूतर के उनका समावेश
शङ्का --जवार के एक दाने के बराबर पृथिवी के अंश में इतने अधिक जीव किस प्रकार रह सकते हैं ?
समाधान -- जैसे हजार औषधों के सम्मिश्रण से बने हुए सहस्र-पाक तेल के (3) परिभालुद्वार
પર્યાપ્ત ખાદર પૃથ્વીકાયના જીવ સૌથી ચેડા છે; તેની અપેક્ષા ખાદર અપર્યાપ્ત અસખ્યાત ગણા અધિક છે. તેનાથી સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત અસંખ્યાત ગણા છે, તેનાથી સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત અસખ્યાત ગણા છે. અગર જીવાર નામના ધાન્યના કચ્છુની ખરાખર પૃથ્વીમાં રહેવાવાળા જીવ એક-એક થઈને અહાર નિકળે અને તે સર્વ ાતાનું શરીર કબૂતર-પારેવાનાં શરીર ખરાખર ખનાવી લીએ તે એક લાખ યેાજનના વિસ્તારવાળા જમ્મૂ દ્વીપમાં તેને સમાવેશ થઈ શકે નહિં.
શકાન્તુવારના એક દાણાની ખરાખર પૃથિવીમાં એટલા અધિક જીવ કેવી રીતે રહી શકે છે
સમાધાન~વી રીતે હજાર ઔષધેાના સમિશ્રણથી બનેલા સહસ્ર-પાક તેલના
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आचारागसूत्रे सूच्यालग्नविन्दुमात्रेऽपि सहस्रौपधिसमावेशस्तथैव पृथिवीकायजीवास्तावन्मात्रे पृथिव्यंशे तिष्ठन्तीति । यथा वा सहस्रौपधिसंमिश्रणे कृते चूर्णीकृत्य परिपिष्य खसखसकणप्रमाणगुटिका क्रियते, तत्र प्रत्येकगुटिकायां सहस्रोपधिसमावेशी दृश्यते, तद्वज्जवारीधान्यकणमात्रेऽल्पीयसि पृथिव्यंशे पृथिवीकायजीवास्तिष्ठन्तीति नैतचित्रम् ।
यदि लोकाकाशस्य प्रत्येकमदेशे, एकैकः पृथिवीकायजीवः स्थाप्यते तदा असंख्याता लोका पूरिता भवेयुः । पृथिवीकायजीवानां परिमाणं तावदस्ति, यदि लोका असंख्याता भवेयुः, तेपामसंख्यातलोकानां यावन्तः प्रदेशाः भवेयुस्तावन्तः पृथिवीकायजीवाः सन्तीति वोध्यम् । छोटे से, सूई को नोंक पर लगे हुए एक बूंद में भी हजार औषधों का समावेश हो जाता है, इसी प्रकार जवार के एक दाने के बराबर पृथ्वी के अंश में इतने जीव रहते हैं। अथवा जैसे एक हजार औषधों को मिला दिया जाय और उनका चूर्ण बना लिया जाय, खूब पीसा जाय और उससे खसखस के दाने के बराबर गोली बना लो जाय तो उस प्रत्येक गोली में हजार औषधियों का समावेश जान पड़ता है। इस प्रकार जवार बराबर पृथ्वी के अश में अगर इतने जीव रहते हैं तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ?
अगर लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में, एक-एक जीव स्थापित किया जाय तो असंख्यात लोक भरजाएँ । पृथिवीकाय के जीवों का परिमाण इतना है कि-यदि लोक असंख्यात हों और उन असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हों, उतने ही पृथिवीकाय जीव हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। નાના એવા સેઈની અણી પર લાગેલા એક ટીપામાં પણ હજાર ઔષને સમાવેશ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે જુવારના એક દાણાની બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે. અથવા જેવી રીતે-એક હજાર ઔષધોને મેળવવામાં આવે અને તેનું ચૂર્ણ બનાવી લેવાય, અને તેને ખૂબ વાટવામાં આવે અને તેમાંથી ખસ-ખસના દાણું બરાબર ગોળી બનાવવામાં આવે તો પ્રત્યેક ગોળીમાં હજાર ઔષધીઓને સમાવેશ થયેલ છે, એમ જાણી શકાય છે. એ પ્રમાણે જુવાર બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે તે તેમાં આશ્ચર્યની વાત શું હોઈ શકે ?
અથવા લેકાકાશના એક એક પ્રદેશમાં, એક-એક જીવ રથાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત લેક ભરાઈ જાય. પૃથિવીકાયના જીવોનું પરિણામ એટલું છેજે લોક અસંખ્યાત હોય અને તે અસંખ્યાત લોકના જેટલા પ્રદેશ હેય એટલા જ पृथिवीय ७१ छ. मेम समन . . . .
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. २ मू.२ पृथिवीकायजीवपरिमाणम् ४३९ ___ ये पृथिवीकायहिंसायां लज्जमानास्ते-अनगाराः, ये तु तत्र प्रवृत्तास्ते द्रव्यलिगिनः, इति योधयितुमाह-'लज्जमाणाः' इत्यादि।
एके अन्ये, लज्जमाना थिवीकायस्यारम्मे परमकरुणया द्रवित्तहृदयतया संकोचमापद्यमानाः पृथक् केचित् प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधि-मनापर्यय-केवलिनः, केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानोऽनगाराः सन्ति, इति, पृथक्-पश्य ।
इमे सूक्ष्मवादरपृथिवीकायारम्भकरणे भीताखस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगः पृथिवीकायारम्भपस्त्यिागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः।
एके पुनः अन्ये तु-'वयमगाराः सायवः स्मः' इति साभिमान भवदमानाः 'वयमेव पृथिवीकायजीवरक्षणपरा: महाव्रतधारिणः' इति व्यर्थ
जो पुरुष पथिवीकाय की हिंसा से विरत होते हैं, वेही अनगार हैं । जो उस हिंसा में प्रवृत्त हैं, वे द्रव्यलिंगी हैं। यह बतलाने के लिए कहते हैं-'लज्जमाणा' इत्यादि ।
कोई-कोई पुरुप पथिवीकाय के आरम्भ में अत्यन्त करुणाशील होने के कारण, इक्ति हृदय वाले होने से, संकोच-वृत्ति करते हैं, उन में से कोई-कोई प्रत्यक्षज्ञानी अर्थात अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी, तथा कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा अनगार हैं, इस प्रकार पृथक-पृथक्भाव से देखो । अर्थात् उन पुरुषों को देखो जो सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकाय का आरम्भ करने में लम्जा करते हैं, त्रस्त होते हैं, और तीनकरण, तीनयोग से पृथिवीकाय के आरम्भ के त्यागी हैं।
और कोई-कोई 'हम साधु हैं। ऐसा अभिमान के साथ कहते हुए 'हम ही पृथिवीकाय की रक्षा में तत्पर हैं और महाव्रतधारी है। इस प्रकार वृथा प्रलाप
જે પુરૂષ પૃથિવીકાયની હિંસાથી વિરત-નિવૃત્ત થાય છે તે જ અણગાર છે. મુનિ छ.२ हिंसामा प्रवृत्त ते द्रव्यात. तेषता माटे 32-'लज्जमाणा' या.
A કઈ-કઈ પુરૂષ પૃથિવીકાયના આરંભમાં અત્યત કરૂણાશીલ હોવાના કારણે દ્રિવિત હૃદયવાળા હોવાથી સંકેચ-વૃત્તિ કરે છે. તેમાંથી કઈ-કઈ પ્રત્યક્ષજ્ઞાની
અર્થાત અવધિજ્ઞાની, મન:પર્યયજ્ઞાની અને કેવલજ્ઞાની અને કેાઈ પરોક્ષજ્ઞાની ભાવિતામાં અણગાર છે. પૃથપૃથભાવથી જુઓ, અર્થાત્ તે પુરૂષને જુઓ કે જે સૂક્ષ્મ અને બાહર પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવામાં લજજા કરે છે-શરમાય છે–ત્રાસ પામે છે. અને ત્રણ કરણ ત્રણ યોગથી પૃથ્વીકાયના આરંભના ત્યાગી છે.
અને કેઈ—કેઈ અમે સાધુ છીએ” એવા અભિમાનની સાથે કહે છે કે અમે પણ પૃથ્વીકાયની રક્ષામાં તત્પર છીએ, અને મહાવ્રતધારી છીએ.” આ પ્રમાણે વૃથા
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. . आचारागसूत्रे पग्रलग्नविन्दुमात्रेऽपि सहस्रोपधिसमावेशस्तथैव पृथिवीकायजीवास्तावन्मात्रे रव्यंशे तिष्ठन्तीति । यथा वा सहस्रौपधिसंमिश्रणे कृते चूर्णीकृत्य परिपिष्य
खसकणप्रमाणगुटिका क्रियते, तत्र प्रत्येकगुटिकायां सहस्रोपधिसमावेशो पते, तद्वज्जवारीधान्यकणमात्रेऽल्पीयसि पृथिव्यंशे पृथिवीकायजीवास्तिष्ठन्तीति चित्रम् । ___ यदि लोकाकाशस्य प्रत्येकमदेशे, एकैकः पृथिवीकायजीवः स्थाप्यते तदा
ख्याता लोका पूरिता भवेयुः । पृथिवीकायजीवानां परिमाणं तावदस्ति, यदि का असंख्याता भवेयुः, तेपामसंख्यातलोकानां यावन्तः प्रदेशाः भवेयुस्तावन्तः थेवीकायजीवाः सन्तीति बोध्यम् । टे से, सूई को नोंक पर लगे हुए एक बूंद में भी हजार औषधों का समावेश हो जाता इसी प्रकार जवार के एक दाने के बराबर पृथ्वी के अंश में इतने जीव रहते हैं। अथवा से एक हजार औपषों को मिला दिया जाय और उनका चूर्ण बना लिया जाय, खूब पीसा य और उससे खसखस के दाने के बराबर गोली बना लो जाय तो उस प्रत्येक गोली में नार औषधियों का समावेश नान पडता है। इस प्रकार जवार बराबर पृथ्वी के अश में गर इतने जीव रहते हैं तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ?
अगर लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में, एक-एक जीव स्थापित किया जाय तो संख्यात लोक भरजाएँ । पृथिवीकाय के जीवों का परिमाण इतना है कि-यदि लोक संख्यात हों और उन असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हो, उतने ही पृथिवीकाय जीव हैं, सा समझ लेना चाहिए। ના એવા સેઈની અણી પર લાગેલા એક ટીપામાં પણ હજાર ઔષધેને સમાવેશ ઈ જાય છે. એ પ્રમાણે જુવારના એક દાણાની બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે. અથવા જેવી રીતે–એક હજાર ઔષધને મેળવવામાં આવે અને તેનું ચૂર્ણ બનાવી લેવાય, અને તેને ખૂબ વાટવામાં આવે અને તેમાંથી ખસ-ખસના દાણા બરાબર ભોળી બનાવવામાં આવે તે પ્રત્યેક ગળીમાં હજાર ઔષધીઓને સમાવેશ થયેલ છે, એમ જાણી શકાય છે. એ પ્રમાણે જુવાર બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે તે તેમાં આશ્ચર્યની વાત શું હોઈ શકે?
અથવા કાકાશના એક એક પ્રદેશમાં, એક-એક જીવ સ્થાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત લેક ભરાઈ જાય. પૃથિવીકાયના જીનું પરિણામ એટલું છેજે લોક અસંખ્યાત છે અને તે અસંખ્યાત લેકના જેટલા પ્રદેશ હોય એટલા જ 1.aaru 10 . भ सम
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. २ सू. २ पृथिवीकायजीवपरिमाणम् ४३९
ये पृथिवीकायहिंसायां लज्जमानास्ते-अनगाराः, ये तु तत्र मवृत्तास्ते द्रव्यलिगिनः, इति बोधयितुमाह-'लज्जमाणाः' इत्यादि।
एके अन्ये, लज्जमानाम् पृथिवीकायस्यारम्मे परमकरुणया 'द्रवितहृदयतया संकोचमापद्यमानाः पृथक केचित् प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधि-मनापर्यय-केवलिनः, केचित परोक्षशानिनो भावितात्मानोऽनगाराः सन्ति, इति, पृथक्-पश्य ।
इमे सूक्ष्मवादरपृथिवीकायारम्भकरणे भीताखस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगः पृथिवीकायारम्भपस्त्यिागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः ।
एके पुनः अन्ये तु-'वयमगाराः साधका स्मः' इति साभिमान भवदमानाः 'वयमेव पृथिवीकायजीवरक्षणपराः महाप्रतधारिणः' इति व्यर्थ
जो पुरुष पधिवीकाय की हिंसा से विरत होते हैं, वेही अनगार हैं । जो उस हिंसा में प्रवृत्त हैं, वे द्रव्यलिंगी हैं । यह बतलाने के लिए कहते हैं-'लज्जमाणा' इत्यादि । . कोई-कोई पुरुष पृथिवीकाय के आरम्भ में अत्यन्त करुणाशील होने के कारण, दवित दय वाले होने से, संकोच-वृत्ति करते हैं, उन में से कोई-कोई प्रत्यक्षज्ञानी अर्थात् भवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी, तथा कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा अनगार हैं, इस प्रकार पृथक्-पृथक्भाव से देखो। अर्थात् उन पुरुषों को देखो जो सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकाय का आरम्भ करने में लग्जा करते हैं, त्रस्त होते हैं, और तीनकरण, तीनयोग से पृथिवीकाय के प्रारम्भ के त्यागी हैं।
और कोई-कोई 'हम साधु हैं। ऐसा अभिमान के साथ कहते हुए 'हम ही शथवाकाय की रक्षा में तत्पर हैं और महाव्रतधारी हैं। इस प्रकार वृथा प्रलाप
જે પુરૂષ પૃથિવીકાયની હિંસાથી વિરત-નિવૃત્ત થાય છે તે જ અણગાર છે. મુનિ ७. सामा प्रवृत्त छ तद्रव्यतिकी छ. ते मतापपा माटे छ----'लज्जमाणा' इत्यादि.
કઈ-કઈ પુરૂષ પૃથિવીકાયના આરંભમાં અત્યન્ત કરૂણાશીલ હોવાના કારણે શ્રાવત હૃદયવાળા હોવાથી સંકિચવૃત્તિ કરે છે. તેમાંથી કઈ-કઈ પ્રત્યક્ષજ્ઞાની અષાત અવધિજ્ઞાની, મન:પર્યયજ્ઞાની અને કેવલજ્ઞાની અને કેઈ પરોક્ષજ્ઞાની ભાવિતભા અણુગાર છે. પૃથક પૃથભાવથી જુઓ, અર્થાત તે પુરૂને જુઓ કે જે સૂક્ષમ
ન બાદર પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવામાં લજ્જા કરે છે–શરમાય છે–ત્રાસ પામે છે. અને ત્રણ કરણ ત્રણ ગથી પૃથ્વીકાયના આરંભના ત્યાગી છે.
અને કઈ-કઈ “અમે સાધુ છીએ એવા અભિમાનની સાથે કહે છે કે અમે ણ પૃથ્વીકાયની રક્ષામાં તત્પર છીએ, અને મહાવ્રતધારી છીએ. આ પ્રમાણે વૃથા–
અને
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आचाराने सूच्यालग्नविन्दुमात्रेऽपि सहस्रोपधिसमावेशस्तथैव पृथिवीकायजीवास्तावन्मात्रे पृथिव्यंशे तिष्ठन्तीति । यथा वा सहस्रोपधिसमिश्रणे कृते चूर्णीकृत्य परिपिष्य खसखसकणप्रमाणगुटिका क्रियते, तर मत्येकगुटिकायां सहस्रोपधिसमावेशी दृश्यते, तद्वज्जवारीधान्यकणमात्रेऽल्पीयसि पृथिव्यंशे पृथिवीकायजीवास्तिष्ठन्तीति नैतचित्रम् ।
यदि लोकाकाशस्य प्रत्येकप्रदेशे, एकैकः पृथिवीकायजीवः स्याप्यते तदा असंख्याता लोका पूरिता भवेयुः । पृथिवीकायजीवानां परिमाणं तारदस्ति, यदि लोका असंख्याता भवेयुः, तेपामसंख्यातलोकानां यावन्तः प्रदेशाः भवेयुस्तावन्तः पृथिवीकायजीवा सन्तीति बोध्यम् । छोटे से, सूई को नौक पर लगे हुए एक बूंद में भी हजार औषधों का समावेश हो जाता है, इसी प्रकार जवार के एक दाने के बराबर पृथ्वी के अंश में इतने जीव रहते हैं। अथवा जैसे एक हजार औषधों को मिला दिया जाय और उनका चूर्ण बना लिया जाय, खूब पीसा जाय और उससे खसखस के दाने के बराबर गोली बना ली जाय तो उस प्रत्येक गोली में हजार औषधियों का समावेश नान पडता है। इस प्रकार जचार बराबर पृथ्वी के अश में अगर इतने जीव रहते हैं तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ?
अगर लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में, एक-एक जीव स्थापित किया जाय तो असंख्यात लोक भरजाएँ । पृथिवीकाय के जीवों का परिमाण इतना है कि यदि लोक असंख्यात हों और उन असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हो, उतने ही पृथिवीकाय जीव हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। નાના એવા સેઈની અણી પર લાગેલા એક ટીપામાં પણ હજાર ઔષધે સમાવેશ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે જુવારના એક દાણુની બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે. છે. અથવા જેવી રીતે-એક હજાર ઔષધને મેળવવામાં આવે અને તેનું ચૂર્ણ બનાવી લેવાય, અને તેને ખૂબ વાવવામાં આવે અને તેમાંથી ખસખસના દાણા બરાબર ગોળી બનાવવામાં આવે તે પ્રત્યેક ગોળમાં હજાર ઔષધીઓને સમાવેશ થયેલ છે, એમ જાણી શકાય છે. એ પ્રમાણે જુવાર બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે તે તેમાં આશ્ચર્યની વાત શું હોઈ શકે ?
અથવા કાકાશના એક એક પ્રદેશમાં, એક-એક જીવ સ્થાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત લેક ભરાઈ જાય. પૃથિવીકાયના જેનું પરિણામ એટલું છે
લોક અસંખ્યાત છે અને તે અસંધ્યાત લેકના જેટલા પ્રદેશ હોય એટલા જ ५धिवाय छे. म सभा नये. . .
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. आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू.२ पृथिवीकायसमारम्म: ४४१ रूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-'पुढवीसत्यं '-इत्यादि।
पृथिवीशस्त्रम् पृथिव्युपमर्दकं शस्त्रम्, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रम् , तद् द्विविधं-द्रव्य-भाव-भेदात् । तत्र द्रव्यशस्त्र-स्वकायपरकायतदुमयरूपम् । भावशस्त्र दुष्पयुक्तमनोवाकायलक्षणम् , समारभमाणाः पृथिवीकार्य प्रति व्यापारयन्तः, अन्यान पृथिवीकायभिन्नान् अनेकरूपान् अप्कायादीन् स्थावरान्, द्वीन्द्रियादीन् प्रसांश्च विहिंसन्ति ।
(६) उपभोगद्वारम्जगति खलु बहवो द्रव्यलिगिनो विद्यन्ते, यथा-' वयं पञ्चमहाव्रतधारिणः की हिंसा करता है, यह बतलाने के लिए कहते हैं-'पुढवीसत्यं ' इत्यादि ।
पृथिवीशस्त्रका अर्थ है-पथिवीकाय को हिंसा करनेवाला शस्त्र । जिस से हिंसा हो वह . शस्त्र कहलाता है । शस्त्र दो प्रकार का है-(१) द्रव्यशस्त्र और (२) भावशस्त्र । स्वकाय,
परकाय और उमय-स्वपर-कायरूपसे द्रव्यशस्त्र तीन प्रकार का है । मन वचन और कायका दुष्प्रयोग करना मावशन है।
पृथ्वीकाय का आरंभ करनेवाले, पथिवीकाय से भिन्न अनेक अप्काय आदि स्थावर जीवों की, तथा द्वीन्द्रिय आदि उस जीवों की भी हिंसा करते हैं।
(६) उपभोगद्वारसंसार में बहुत से द्रव्यलिंगी हैं। जैसे-' हम पंचमहावतधारी हैं, सब भारंभ से मतापपा भाटे ४ छ :-'पुढवीसत्यं ' याह.
પૃથ્વીશઆનો અર્થ છે–પૃથ્વીકાયની હિંસા કરવાવાળાં શો જેનાથી હિંસા થઈ શકે તે શસ્ત્ર કહેવાય છે. શસ્ત્ર બે પ્રકારના છે. (૧) દ્રવ્ય શસ્ત્ર અને (૨) ભાવ-શસ્ત્ર-સ્વકાય, પરકાય, અને ઉભય–વ-પરકાયરૂપ દ્રવ્યશસ્ત્ર ત્રણ પ્રકારના છે. મન, વચન અને કાયના દુપ્રયોગ કરવા તે ભવશાસ્ત્ર છે.
પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવાવાળા, પૃથ્વીકાયથી ભિન્ન અનેક અપકાય આદિ સ્થાવર જીવોની તથા કીન્દ્રિય આદિ ત્રસ ની પણ હિંસા કરે છે.
(6) Sun-द्वारસંસારમાં ઘણાજ દ્રલિંગ સાધુ છે. જેવી રીતે “અમે પંચમહાવ્રતધારી
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मलपन्तो द्रव्यलिङ्गिनः सन्ति तान् पृथक-पृथग्भावेन पश्य । (४) वधद्वारं, (५) शस्त्रद्वारं च ।
इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्ति, इति दर्शयति----
आचारास्त्रे
यद्यस्माद्
विरूपस्पै:- विभिन्न स्पैर्नानाविधैः शस्त्रे: लोष्टपाषाणादिभिः स्वायरूपैः, अग्न्यादिभिःपरकायस्यै कुलख नित्रादिभिस्तदुभयरूपैः पृथिवी कर्म समारम्भेण पृथिव्याः कर्म समारम्भः पृथिवीकर्म समारम्भः पृथिवीमाश्रित्य ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धनिबन्धनसावध व्यापारः तेन इमं = पृथिवीकार्य विहिंसन्ति । पृथिवीकार्याहिंसायां प्रवृत्ताः खलु पड़जीवनिकाय
करते हुए द्रव्यलिंगी हैं उन्हें पृथक देखो ।
(४) वध और (५) शस्त्रद्वार
अपने आप को अनगार समझने वाले ये द्रव्यलिङ्गी साधु के गुणों में तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते, और न गृहस्थों के किसी कार्य का त्याग करते हैं, यह बात बतलाते हैं
ये द्रव्यलिङ्गी लोग विभिन्न प्रकार के मिट्टी, पत्थर आदि स्वकाय-शस्त्रों से अग्नि आदि परकाय-शस्त्रों से, हल, कुदाल आदि खोदने के साघनरूप उभयकाय शस्त्रों से पृथिवीकर्मसमारम्भ करते हैं, अर्थात् पृथिवी के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म का कारण सावध व्यापार करते हैं, और उस से पृथिवीकाय को हिंसा करते हैं । पृथिवीकाय की हिंसा में प्रवृत्त होने वाला पुरुष छहों जीवनिकाय
મિથ્યા પ્રલાપ કરનારા દ્રલિંગી છે. તેને જૂદા જૂદા ભાવથી જુએ.
(४) वध व्यने (4) शस्त्र द्वार---
પાતેજ પેાતાને અણુગાર-સાધુ સમજવાવાળા એ દ્રલિંગી, સાધુના ગુÈામાં જરા પણુ પ્રવૃત્ત થતા નથી. અને ગૃહસ્થાના કોઈ કાર્યને ત્યાગ કરતા નથી. એ पात मताचे छे:
એ વ્યલિંગી લાક જૂદા જૂદા પ્રકારની માટી, પથ્થર આદિ સ્ત્રકાય શાથી અગ્નિ બાદ પરકાય શોથી હળ, કાદાની દિ ખેદવાના સાધનરૂપ ઉભયકાય શસ્ત્રોથી પૃથ્વીકમસમારંભ કરે છે, અર્થાત પૃથ્વીના નિમિત્તથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠે પ્રકારના કર્મબંધના કારણુ સાવધ વ્યાપાર કરે છે, અને તેથી પૃથ્વીકાયની હિંસા કરે છે, પૃથ્વીકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થવાવાળા પુરૂષ જીનિકાયાની
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आचारचिन्तामणि- टोका अध्य. १ उ. २ सृ.२ पृथिवीकायसमारम्भप्रयोजनम् ४४३
चित्तं महाणु, निव्वाणं तं निणिदेहि ॥ ४४ ॥ (पञ्चाशक टीका ७. वि . ) " निणभवणाई जे उद्धरति भत्तीइ सडियपडियाई |
ते उद्धरंति अप्पं, भीमाओ भवसमृद्दाओ || ” ( धर्मसंग्रहटीका २अधि. ) छाया - " जिनभवनकारणविधिः- शुष्या भूमिर्दलं च काष्ठादि । भृतकानतिसन्धानं, स्वाशयवृद्धि (शोभनाशयवृद्धिः) यतना च ॥ .... एतस्य फलं भणितं, इत्याज्ञाकारिणस्तु श्राद्धस्य
चित्रं सुखानुबन्धं, निर्वाणान्तं जिनेन्द्रैः (भणितम् ) || ४४ ॥ जिनभवनानि ये उद्धरन्ति भक्त्या शटितपवितानि । उद्धरन्त्यात्मानं भीमाद भवसमुद्रात् " इति च ॥
तथैव शास्त्रनिषिद्धे पूजाप्रतिष्ठादिसावयकार्ये प्रवृत्या द्रव्यलिङ्गनोऽपि स्वात्मानं मुनिमेव मन्यन्ते । ये पथिवीशस्त्रं प्रयुञ्जानाः पड्जीवनिकाय
आराधक श्रावक को भगवान् ने इस का फल इस प्रकार बताया है - "उसको अनेकानेक सुखो का अनुबन्ध होता है और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है " । ( पञ्चाशकटीका ७ वि . )
" जो पुरुष जीर्ण जिनभवनों का भक्तिसे उद्धार कराते हैं वे भीम भवसागर से अपनी आमा को तारते हैं " । ( धर्मसंग्रहका २ अधि. )
इसी प्रकार शास्त्रनिषिद्ध पूजा प्रतिष्ठा आदि साचय कार्यों में प्रवृत्ति करके व्यलिंगी भी अपने आप को मुनि मानते हैं । आशय है कि जो लोक पृथिवीशत्र का प्रयोग करके षड्जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करते हैं, और भगवानका नाम लेकर स्वयं खोटी प्ररूपणा करते हैं अतः वे द्रव्य ભગવાને તેનું ફલ આ પ્રમાણે બતાવ્યું છેતેને અનેકાનેક સુખાને અનુષધ થાય छे; भने परम्पराधी भोक्षनी प्राप्ति थाय छे. " ( पंचाशकटीका ७ वि . )
“જે પુરૂષ જીણુ થયેલું જિનમદિર, તેને ભક્તિથી ઉદ્ધાર કરાવે છે તે મહાન भवसागरथी चोताना आत्माने तारे छे.” ( धर्मसंग्रहटीका २ अधि. )
આજ પ્રમાણે શાનિષિદ્ધ પૂજા, પ્રતિષ્ઠા આદિ સાવદ્ય કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ કરીને દ્રવ્યલિંગી પણ પાતે પેાતાને મુનિ માને છે. આશય એ છે ફેન્સે લેાક પૃથ્વીશઅને પ્રયાગ કરીને ષવનકાયરૂપ સમસ્ત લેકની હિંસા કરે છે અને ભગવાનનુ લઈને પાતે ખેાટી પ્રરૂપણા કરે છે માટે તે ક્રૂલિંગી છે, સાચા
નામ
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आचारास्त्रे । सरिम्मपरित्यागिनः पदकायरक्षका अनगारा: (साधयः) स्मः' इति वदन्तो दण्डि शाक्यादयः सन्ति । तत्र केचिद्देशुद्धयर्थ मृत्तिकास्नायिनो भवन्ति । केचित्तनिवासार्थ गृहादिनिर्माणकरणं कुदालखनिनादिभिः पृथिवीकायमुपमर्दयन्ति । केचित् स्त्रोदरपूर्त्यर्थं कृष्यादिकम कुर्वन्ति । केचिच्च देवकुलायर्थ सावद्यमुपदिशन्ति. पार्थिवीदेव-गुर्वादि-प्रतिमानिर्माणे जीर्णोद्धारकरणे च महामीमभवसमुद्रादात्मनः समुद्धारो भवतीति मन्यन्ते, वदन्ति च___ "निणभवणकारणविही, सुद्धा भूमी दलं च कहाई । भियगाणइसंधाणं, सासयटी य जयणाय ||९||....एयस्स फलं भणियं, इय आणाकारिणो उसस्स।
और परिमह के त्यागी हैं, पट्काय के रक्षक साधु हैं। इस प्रकार कहने वाले दण्डी शाक्य आदि हैं। इन में कोई-कोई तो शरीर की शुद्धि के लिए मिट्टी से स्नान करते हैं। कोई अपने रहने के लिए मकान आदि बनाने में कुदाल खनित्र (कुस) आदि खोदने के साधनों द्वारा पृथ्वीकाय का उपमर्दन करते हैं । कोई-कोई अपना पेट भरने के उद्देश्य से खेती आदि करते हैं । कोई देवकुल आदि के लिए सावध उपदेश देते हैं-देव गुरु आदि को पार्थिव प्रतिमा निर्माण कराने से और जीर्णोद्धार कराने से भवसागर से आत्मा का तरना होता है, ऐसा मानते हैं और कहते हैं कि
" जिनभवन बनाने की विधि इस प्रकार है-.-." शुद्ध भूमि, शुद्ध इंटें, पत्थर, काष्ठ आदि होना, कार्य करने वाले कारीगरों को प्रसन्न रखना, अपने परिणाम उत्तरोत्तर चढते हुए रखकर थतनापूर्वक कार्य कराना इत्यादि ।....भगवान की आज्ञाके
છીએ. સર્વ આરંભ અને પરિગ્રહના ત્યાગી છીએ, પકાયના રક્ષક સાધુ છીએ. આ પ્રમાણે કહેવાવાળો દંડી શાકય આદિ છે તેમાં કઈ-કઈ તે શરીરની શુદ્ધિ માટે માટીથી સ્નાન કરે છે. કેઈ પિતાને રહેવા માટે મકાન આદિ બનાવવામાં કેદાળી, કોસ આદિ દવાનાં સાધનો દ્વારા પૃથ્વીકાયનું ઉપમન કરે છે, કઈ-કઈ પિતાનું પિટ ભરવાના ઉદ્દેશથી ખેતી કરે છે કે દેવકુળ આદિને માટે સાવદ્ય ઉપદેશ કરે છે–દેવ, ગુરૂ આદિની પાર્થિવ પ્રતિમા નિર્માણ કરાવવામાં અને જીર્ણોદ્ધાર કરાવામાં ભવસાગરથી આત્મા તરી શકે છે, એવું માને છે અને કહે છે કે --~
જિનમંદિર બનાવવાની વિધિ આ પ્રમાણે છે –શુદ્ધ ભૂમિ, શુદ્ધ છે, પથ્થર, કાઇ આદિ જોઈએ. કામ કરવાવાળા કારીગરોને પ્રસન્ન રાખવા, પિતાનાં પરિણામ ઉત્તરોત્તર ચઢતાં રાખીને તાપૂર્વક કાર્ય કરવું” ઈત્યાદિ ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક શ્રાવકને
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आचारचिन्तामगि-टीका अध्य.१ ३.२ १.३ पृथिवीकायसमारम्भप्रयोजनम् ४४५ समारंभते समणुजाणइ । तं से अहियाए, तं से अबोहीए । सू० ३॥
छायातत्र खलु भगवता परिना मवेदिता । अस्य चैत्र जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-भोचनाय दुःखप्रतिघातहतं, स स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा पृथिवीशस्त्र समारभमाणान् समनुनानाति । तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोधये ।। १०३॥
टीकातापृथिवीकायसमारम्मे भगवता-श्रीमहावीरेण परिक्षा सम्यगवबोधः खल भवेदिता-प्रबोधिता। कर्मवन्धसमुच्छेदार्थ जीवन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणी. येति भगवता प्रबोधितमिति भावः। परिज्ञा द्विविधा, ज-प्रत्याख्यान-भेदात् । 'सावद्यव्यापार एव कर्मवन्धस्य कारण'-मिति ज्ञान-परिज्ञा, तव्यापारपरित्यागः -प्रत्याख्यानपरिक्षा।
वह आरंभ उसके अहित के लिए और उसको अयोधि के लिए है ॥ सू. ३ ॥
टीकार्थ-पृथिवीकाय के समारंभ के विषय में भगवान् श्री महावीर स्वामीने सम्यग्बोधरूप परिज्ञा का सदुपदेश दिया है । तात्पर्य यह है कि कर्मबन्ध को नष्ट करने के लिए जीव को वह परिज्ञा अवश्य ही स्वीकार करनी चाहिए, ऐसा भगवान्ने कहा है। परिज्ञा दो प्रकार की है---ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याझ्यानपरिज्ञा । 'सावध व्यापार से ही कर्मबन्ध का कारण होता है। ऐसा जानना ज्ञ-परिज्ञा है, और सावधव्यापार का त्याग करना प्रत्याख्यान-परिना है।
અહિત માટે અને તે તેની અધિ માટે છે. (૩)
ટીકાથ–પૃથ્વીકાયના સમારંભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ સમ્યધરૂપ પરિસાને સદુપદેશ આપે છે. તાત્પર્ય એ છે કે --કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જે તે પરિણા અવશ્યજ સ્વીકાર કરવી જોઈએ, એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. પરિણા બે પ્રકારની છે. રૂપરિક્ષા, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણા, “સાવદ્ય વ્યાપારજ કર્મબંધનું કારણ થાય છે. એ પ્રમાણે જાણવું તે જ્ઞ-પરિણા છે, અને સાવધ વ્યાપારને ત્યાગ કરે તે પ્રત્યાખ્યાન-પરિણા છે.
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४४४
भाचारागसूत्रे रूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्ति ते द्रन्यलिगिनो नानगारा इति भावः, उक्तञ्च
" सावजा किरिया जेसि, सावज्जा देसणा तहा। भमंति दीहसंसारे, ते सव्वे दन्नलिंगिणो ॥ १ इति ।। मू.२॥
एवं शाक्यादीनां पृथिवीकायोपमर्दकत्वेन द्रव्यलिङ्गित्यं प्रतियोधितं भगवतेति जम्बूस्वामिनं सुधर्मा स्वामी कययति-तत्थे ' त्यादि ।
॥ मूलम् ॥ तत्य खलु भगवया परिण्णा पवेइआ, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-. माणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए, दुरखपडियायहेजं, से सयमेव पुढविसस्थं समारंभइ, अण्णेहि वा पुढविसत्यं समारंभावेइ, अपणे वा पुढविसत्यं
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लिंगी हैं-सच्चे अनगार नहीं हैं । कहा भी है
"जिन की क्रिया सावध है और जिनका उपदेश सावध है, वे दीर्घ संसारमें परिभ्रमण फरते हैं। उन सबको द्रव्यलिंगी जानना चाहिए" ॥ सू. २ ॥
इस प्रकार पृथिवीकाय का उपमर्दन करने वाले होने से शाक्य आदि को भगवान् ने द्रव्यलिंगी कहा है । यह बात सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-'तत्य खल' इत्यादि।
मूलार्थ भगवान् ने परिज्ञा का उपदेश दिया है। इसी जीवन के लिएवन्दना, मान और पूजन के लिए, जन्म और मरण से मुक्त होने के लिए, दुःख का नाश करने के लिए वह स्वयं ही पृथिवीकाय का आरंभ करता है, दूसरों से पथिवीकायका भारम्भ कराता है, और पथिवीकायका आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है।
અણગારસાધુ નથી. કહ્યું છે કે –
“જેની ક્રિયા સાવદ્ય છે, અને જેને ઉપદેશ સાવદ્ય છે, તે દીર્ધ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે. તે સર્વને દ્રવ્યલિંગી જાણવા જોઈએ.” (સૂ૦ ૨)
એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયતે ઉપમનનાશ કરવાવાળા હોવાથી શાક્ય આદિને ભગવાને द्रव्यतिभा ह्या छ. २मा पात सुधर्मा स्वामी ४म्भू स्वाभान छ-'तत्थ त्याहि.
કલાર્થ–ભગવાને પરિણાને ઉપદેશ આપે છે, આ જીવનને માટે, વંદના, માન અને પૂજન માટે, જન્મ અને મરણથી મુક્ત હોવાના માટે, દુઃખને નાશ કરવા
છે તે પોતે જ પૃથ્વીકાયને આરંભ કરે છે, બીજાથી પૃથિવીકાયને આરંભ કરાવે છે. અને પૃથ્વીકાયને આરંભ કરનાર બીજને અનુમોદન આપે છે. તે આરંભ તેના
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य.१ ३.२ सू.३ पृथिवीकायसमारम्भमयोजनम् ४४५ समारंभंते समणुजाण । तं से अहियाए, तं से अवोहीए ॥ सू० ३ ॥
छाया
तत्र
खलु भगवता परिक्षा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन - मानन - पूजनाय, जाति-मरण - मोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा पृथिवीशस्त्र' समारभमाणान् समनुजानाति । तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोधये ॥ सू० ३ ॥
टीका
तत्र पृथिवीकायसमारम्मे भगवता = श्रीमहावीरेण परिज्ञान् सम्यगवबोधः खलु मवेदिता वोधिता । कर्मबन्धसमुच्छेदार्थं जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रबोधितमिति भावः । परिज्ञा द्विविधा ज्ञ - प्रत्याख्यान - भेदात् । 'व्यापार एव कर्मस्य कारण' - मिति ज्ञानं ज्ञपरिज्ञा, तद्व्यापारपरित्यागः - प्रत्याख्यानपरता |
वह आरंभ उसके अहित के लिए और उसको अयोधि के लिए है ॥ सू. ३ ॥
टीकार्य - पृथिवीकाय के समारंभ के विषय में भगवान् श्री महावीर स्वामीने सम्यग्वरूप परिज्ञा का सदुपदेश दिया है । तात्पर्य यह है कि - कर्मबन्ध को नष्ट करने के लिए जीव को वह परिज्ञा अवश्य हो स्वीकार करनी चाहिए, ऐसा भगवान्ने कहा है। परिज्ञा दो प्रकार की है- ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा । ' सावध व्यापार से ही कर्मबन्ध का कारण होता है' ऐसा जानना ज्ञ-परिज्ञा है, और सावद्यव्यापार का त्याग करना प्रत्याख्यान- परिज्ञा है ।
અહિત માટે અને તે તેની અમેધિ માટે છે. (૩)
ટીકા પૃથ્વીકાયના સમારભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ સમ્યધરૂપ પરજ્ઞાને સદુપદેશ આપ્યું છે. તાત્પ એ છે કે-ક બંધને નાશ કરવા માટે જીવે તે પરિજ્ઞા અવશ્યજ સ્વીકાર કરવી જોઈએ, એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. રિજ્ઞા એ પ્રકારની છે. સરિજ્ઞા, અને પ્રત્યાખ્યાનરિજ્ઞા, ‘ સાવદ્ય વ્યાપારજ કમ મધનું કારણ થાય છે. ' એ પ્રમાણે જાણુનું તે જ્ઞ-પરિક્ષા છે, અને સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યાગ કરવે તે પ્રત્યાખ્યાન-પરિક્ષા છે.
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आचाराङ्गसंत्रे
रूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्ति ते द्रव्यलिङ्गिनो नानगारा इति भावः, उक्त'सावज्जा किरिया जेर्सि, सावज्जा देखणा तदा ।
"
भमंति दीहसंसारे, ते सन्वे दन्त्रलिंगिणो || १ इति ॥ सु. २ ॥
एवं शाक्यादीनां पृथिवीकायोपमर्दकत्वेन द्रव्यलिङ्गित्यं प्रतिबोधितं भगवति जम्बूस्वामिनं सुधर्मा स्वामी कथयति - ' तत्थे ' - त्यादि ।
11 मूलम् 11
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइआ, इमस्स चैव जीवियस्स परिनंदणमाणण-पूरणाए जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेजं, से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहि वा पुढविसत्यं समारंभावेश, अण्णे वा पुढविसत्यं
लिंगी हैं- सच्चे अनगार नहीं हैं । कहा भी है
" जिन की क्रिया सावध है और जिनका उपदेश सावध है, वे दीर्घ संसारमें परिभ्रमण करते हैं । उन सबको द्रव्यलिंगी जानना चाहिए " ॥ सू. २ ॥
इस प्रकार पृथिवीकाय का उपमर्दन करने वाले होने से शाक्य आदि को भगवान् ने द्रव्यलिंगी कहा है । यह बात सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-' तत्थ स्वल' इत्यादि ।
मूलार्थ - भगवान् ने परिज्ञा का उपदेश दिया है । इसी जीवन के लिएबन्दना, मान और पूजन के लिए, जन्म और मरण से मुक्त होने के लिए, दुःख का नाश करने के लिए वह स्वयं ही पृथिवीकाय का आरंभ करता है, दूसरों से पृथिवीकायका भारम्भ कराता है, और पृथिवीकायका आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है ।
અણુગાર–સાધુ નથી. કહ્યું છે કેઃ—
“ જેની ક્રિયા સાવધ છે, અને જેના ઉપદેશ સાવધ છે, તે દી સસારમાં परिभ्रभाय १रे छे, ते सर्वने द्रव्यविंगी लघुवा लेहये." (सू० २)
એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયનું ઉપમદન—નાશ કરવાવાળા હૈાવાથી શાક્ય માદિને ભગવાને द्रव्यसिंगी उद्या छे. या वात सुधर्मा स्वाभी भ्यू स्वाभीने उडे छे- 'तत्थ' इत्यादि. भूसार्थ - लगवाने परिशाना उपदेश आये। छे, आा भुवनने भाटे, वडना, માન અને પૂજન માટે, જન્મ અને મરણથી મુક્ત હેાવાના માટે, દુઃખના નાશ કરવા માટે તે પાતે જ પૃથ્વીકાયના આર’ભ કરે છે, ખીજાથી પૃથિવીકાયના આરંભ કરાવે છે, અને પૃથ્વીકાયના આરંભ કરનાર બીજાને અનુમેદન આપે છે. તે આરંભ તેના
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ ५.३ पृथिवीसमारम्भप्रयोजनम् ४४७ करणे, मानन जनसत्कारः, तदर्थ, यथा-कीर्तिस्तम्भादिकरणे पूजनम्बवरत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थ, यथा-शिल्पिनां राजदेवप्रतिमादिरचने । जातिमरणमोच. नाय-जातिजन्म, तदर्थ भवान्तरमुखमाप्त्यर्थ देवकुलादिकरणे, मरणमरणं पां जातं तदर्थ मृतपित्रादिस्मरणार्थमित्यर्थः, यथा स्तूपचैत्यादिकरणे, मोचनंम्भुक्तिस्तदर्थ, यया-देवभवनप्रतिमादिकरणे । यद्वा जातिमरणमोचनाय-उन्ममरणविमुक्तये । तया दुःखपतियातहेतुं दुःखविध्वंसार्थ, यथा
आदि वनवानेसे प्रशंसा होती है। मानन अर्थात् जनताद्वारा मिलने वाला सत्कार । उस सत्कार __ के लिए कतिस्तन्म (मेमोरियल ) आदि बनवाकर समारम्भ करते हैं। पूजन का अर्थ है
वन या रन आदि का पुरस्कार पाना । जैसे शिल्पी लोग पुरस्कार पाने के उद्देश्य से राजा या देवता की प्रतिमा बनाते हैं।
जन्म, मरण और मुक्ति के लिए भी पृथिवीकायका समारम्भ किया जाता है । जन्म ___ के लिए जेसे भवान्तर में मुख पाने के लिए देवकुल आदि का निर्माण कराने में और मृत्यु
के लिए असे मृत पिता आदि का स्मारक (स्तूप-चैत्य) बनवाने में, और मोचन के अर्थात् मुक्ति के लिए देवभवन एवं उनकी प्रतिमा बनवाने में, अथवा जन्म-मरणमोचन का अर्थ है-जन्म और मरणसे मुक्त होना, उस के लिए पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं।
तथा दुःखका नाश करने के लिए भी पृथ्वोकाय का समारम्भ करते हैं, जैसे આરંભ કરે છે. માનન અથૉત જનતા દ્વારા મળવાવાળે સત્કાર, તે સત્કાર માટેકીર્તિસ્તંભ (મેમોરિયલ આદિ બનાવીને સમારંભ કરે છે. પૂજનને અર્થ છે–વસ્ત્ર અથવા રત્ન આદિને પુરસ્કાર પ્રાપ્ત કરે. તે માટે શિલ્પીગ રાજાની કે દેવતાની પ્રતિમા બનાવવામાં સમારંભ કરે છે.
જન્મ મરણ મોચન (મૂકાવવા માટે પણ પૃથ્વીકાયને સમારભ કરવામાં આવે છે. જન્મના માટે જેમ ભવાન્તરમાં સુખ પ્રાપ્ત કરવા માટે દેવકુલ આદિના નિમૉણ કરાવવામાં, અને મૃત્યુ માટે જેમ મૃત પિતા આદિનું સ્મારક તૃપ-ચૈત્ય બનાવવામાં મેચન અર્થાત મુક્તિને માટે દેવભવન એવં તેની પ્રતિમા બનાવવામાં, અથવા જન્મમરણુ-મોચનનો અર્થ છે-જન્મ અને મરણુથી મુક્ત થવું તે માટે પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરે છે.
તથા દુખને નાશ કરવા માટે પણ પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરે છે, જેમ-ગ્રીષ્મના
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आचाराने जीवः कस्मै भयोजनाय पृथिवीकार्य प्रति सावधव्यापार करोती ?-स्याह'इमस्स चेवे'-त्यादि । अस्यैव विद्युल्लताविलासवत्क्षणभङ्गरस्य जीवितस्य जीवनस्वार्थे चिरमुखार्थ, प्रासादसदनादिरचनाथ, गमना-गमना-वस्थानो-पवेशन-पार्थपरिवर्तन-पुत्तलिकामतिमादिकरणो-चारमस्रवणादिकरणो-पकरणादिग्रहणनिक्षेपणाऽऽलेपन-प्रहरण-भूपण-क्रय-विक्रय कृपिकरण-भाण्डादिनिर्माणार्थमित्यर्थः । तथा परिवन्दन-मानन-पूजनाय, परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थ यथा आश्चर्यगृहादि.
जीव किस प्रयोजनके लिये पृथिवीकाय के विषय में सावध व्यापार करता है ? सो बतलाते हैं
विजली की चमक के समान इस क्षणविनश्वर जीवन के चिरकालीन मुख के उद्देश से महल, मकान आदि का निर्माण कराने के लिए, अथवा गमन, आगमन, अवस्थान (स्थित रहना), उपवेशन (बैठना), पाश्व-परिवर्तन (पसवाडा बदलना), पुतली बनाना, प्रतिमा बनाना, मल-मूत्र त्यागना, उपकरण आदि ग्रहण करना, रखना, लेपकरना, ग्रहण करना, सजाना, खरीदना, बेचना, खेती करना, तथा वर्तन आदि बनाना, इत्यादि कार्यों के लिए सावध व्यापार किया जाता है ।।
इस के अतिरिक्त परिवन्दन मानन और पूजन के लिए भी सावध व्यापार किया जाता है। परिबन्दन अर्थात् प्रशंसा के लिए, जैसे आश्चर्यगृह (आजायव घर)
જીવ કયા પ્રજન માટે પૃથ્વીકાયના વિષયમાં સાવદ્ય વ્યાપાર કરે છે ? તે मताव छ:
વિજલીના ચમકારાની સમાન આ ક્ષણભંગુર જીવનના ચિરકાલીન (લાંબા સમય સુધી) સુખના ઉદેશથી, મહેલ મકાન આદિ બનાવવા માટે, અથવા ગમન, सागमन, सस्थान, (स्थित रहे) 6५वेशन, (RA) पाच-परिवर्तन, (५४iબદલવાં) પુતલી બનાવવી, પ્રતિમા બનાવવી, મલ-મૂત્ર ત્યાગ કરે; ઉપકરણ આદિનું अड ४९, राम, आप ४२३०, प्रडर ४२, सन्त, म , j, मेती કરવી તથા વાસણ બનાવવાં, ઈત્યાદિ કાર્યોને માટે સાવધ વ્યાપાર કરવામાં આવે છે.
તે સિવાય પરિવંદન માન અને પૂજન માટે પશુ સાવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં આવે છે. પરિવન્દન અર્થાત્ પ્રશંસા માટે જેમ આશ્ચર્યગ્રહ (અજાયબ ઘર) આદિ બનાવવામાં
* आचर्यगृहम्-'म्युझियम' 'अजायबघर' इति भाषापसिद्धम् ।
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. २ सृ. ३ पृथिवीसमारम्भफलम्
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तत् पृथिवीकायसमारम्भणं तस्य पृथिवीशस्त्र समारभमाणस्य अहिवाय = अकल्याणाय भवतीति शेषः । तत् तदेव च पृथिवीकायसमारम्भणमेव च तस्य पृथिवीशस्त्र समारभमाणस्य अवोधये सम्यक्त्वालाभाय, जिनधर्मप्राप्त्यभावाय च भवति । पृथिवीकायसमारम्भणं हि कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधं, तस्यातीत वर्तमानानागत भेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये नवधा भवति, नवविधस्यापि पृथिवीकायसमारम्भणस्य मनोवाक्काययोगभेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये सप्तविंशतिभगा भवन्ति । एवंविधपृथिवीकायसमारम्भप्रवृतः खलु पकायारम्भसंपातजन्यघोरतरदुरितार्जनेन दुरन्तसंसारदावानलज्यालान्तः पातं प्राप्यानन्तनरकनिगोदादिदुःखमनुभवन् न कदाचित्कल्याणं शाश्वतसुखपदं मोक्षमागं प्राप्नोतीति भावः ॥३॥
वह पृथिवीकाय का आरंभ, आरंभ करने वाले के अहित के लिए और अयोधि के लिए होता है । अर्थात् आरंभ करने से सम्यक्त्व और जिनधर्म की प्राप्ति नहीं होती है ।
पृथिवीकाय का आरंभ करना, कराना, और अनुमोदन के भेद से तीन प्रकार का है। इन तीनों भेदों के अतीत वर्तमान और अनागत के भेद से तीन-तीन भेद करने पर आरम्भ नौ प्रकार होता है । इन नौ भेदों का मन, वचन, और काय से गुणाकार कर देने पर सत्ताईस भेद हो जाते हैं ।
इस प्रकार के पथिवीकाय के समारम्भ में प्रवृत्त पुरुष छहों कार्यों का आरम्भ करता है और अत्यन्त घोर पाप उपार्जन करके दुरन्त संसाररूपी दावानलकी ज्वालाओं में पडकर नरक निगोद आदि के दुःख भोगता हुआ न कभी कल्याण की प्राप्ति करता है और न शाश्वत सुख देनेवाले मोक्षमार्ग को पाता है ॥ ३ ॥
તે પૃથ્વીકાયના આરબ કરવાવાળાના અદ્વૈત માટે અને અમાધિને માટે હાય છે. અર્થાત્-આરંભ કરવાથી સમ્યકૃત અને જિનધની પ્રાપ્તિ થતી નથી.
પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવા, કરાવવા અને કરવાવાળાને અનુમેદન આપવા વગેરેના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના છે, એ ત્રોય ભેદોના ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ અને વર્ત્તમાનકાળના ભેદથી ત્રણ ત્રણ ભેદ કરવાથી મારભ નવ પ્રકારના છે. એ નવ ભેદોને મન, વચન અને કાયા, આ ત્રણથી ગુણુવા વડે કરી સત્તાવીશ ભેદ થઈ જાય છે.
આ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્ત પુરૂષ છ કાયાના આર્ભ કરે છે, અને અત્યન્ત ઘાર પાપ ઉપાર્જન કરીને દુરન્તસ’સારરૂપી દાવાનલની જવાલાએમાં પડીને, નરક-નિગેદ આદિનાં દુઃખ ભાગવતાં કોઈ વખત પણ કલ્યાણની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી, અને શાશ્વત સુખ દેવાવાળા મેાક્ષમાર્ગને પણુ પ્રાપ્ત થતા નથી. (૩)
म.आ.-५७
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४४८
आचाराङ्गमुत्रे
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ग्रीष्मतापादिनिवारणार्थं, स्वचक्रपरचक्रभयनिटयै च भूमिगृहमाकारादिरचने । सः = जीवनपरिवन्दनमाननपूजनाद्यर्थ जनः स्वयमेव पृथिवीशखं समारभते = पृथिव्युपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्र व्यापारयति । अन्यैर्वा पृथिवीशत्र समारम्भयति = उद्योजयति पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् समनुजानाति = अनुमोदयति । एममतीतानागताभ्यां भेदा भवगन्तव्याः ।
पृथिवीशस्त्रसमारम्भ
तथा मनोवाक्कायैश्व
(७) वेदनाद्वारम् -
पृथिवीशस्त्रं समारममाणः किं फलं प्रामोतीत्याह- 'तं से अहियाए' इत्यादि ।
ग्रीष्म के ताप से बचने के लिए, अथवा स्वचक और परचक्र के भयकी निवृत्ति, के लिए, भोहरा या चहारदीवारी ( प्रकोटा ) बनवाना । इस प्रकार जीवन परिवन्दन मानन और पूजन आदि के लिए मनुष्य स्वयं ही पृथ्वीशस्त्रका समारम्भ करता है अर्थात् थिवी का घात करने वाले द्रव्य और भावशस्त्र का व्यापार करता है और पृथिवीशस्त्र का प्रयोग करने करानेवाले
दूसरों का अनुमोदन करता है ।
इस प्रकार अतीत और अनागत से तथा मन, वचन और कायसे पृथिवीशस्त्र के आरम्भ के भेद समझलेने चाहिए.
(७) वेदनाद्वार -
थिवीशस्त्र का आरम्भ करनेवाला क्या फल पाता है ? सो कहते हैं- ' तं से अहियाए ' इत्यादि ।
તાપથી બચવા માટે અથવા સ્વચક્ર અને પરચક્રના ભયની નિવૃત્તિ માટે લેયરા અથવા ફીટ અનાવવા.
આ પ્રમાણે જીવન, પરિવદન, માનન, અને પૂજન આદિ માટે મનુષ્ય પાતેજ પૃથ્વી–શશ્નને સમારભ કરે છે. અર્થાત પૃથ્વીના ઘાત કરવાવાળા દ્રવ્ય અને ભાવ શસ્ત્રના વ્યાપાર કરે છે. તથા બીજા પાસે પૃથ્વીશસ્ત્રના વ્યાપાર કરાવે છે. અને પૃથ્વીશસ્ત્રના પ્રયોગ કરવાવાળા બીજાને અનુમેદન આપે છે.
આ પ્રમાણે અતીત અને અનાગત (ભૂત-ભવિષ્ય)થી તથા મન, વચન અને કાયાથી પૃથ્વીશસ્ત્રના આરભના ભેદોને સમજી લેવા જોઈએ.
(७) बेहनाद्वार—
पृथ्वीशत्रना आरंभ करवावाजा शुं इण याभे छे ? ते ! हे- 'तं से अहियाए '
इत्यादि.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.२ सू. ४ पृथिवीसमारम्भफलम् ४५१
॥ टीका यः खलु भगवतः तीर्थकरस्य, अनगारागाम्नदीयश्रमगनिन्यानाम्, अन्तिके समीपे, श्रुत्वा उपदेशं निशम्य, आदानीयम्, उपादेयं सर्वसावधयोगपरित्यागल्यं चारित्रं समुत्थाय-अङ्गीकृत्य विहरति, स तत्-पृथिवीकायसमारम्भणम् संयुध्यमानः अहितायोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवतीति ।
स हि एवं विचारयति-इह मनुष्यलोके एकेप श्रमणनिम्रन्योपदेशसंजातसम्यगवयोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव ज्ञात-विदितं भवति । किं ज्ञातं भवती ?त्याकाक्षायामाह-एस खलु गंथे'. इत्यादि।
एपः पृथिवीशस्वसमारम्भः खलु निश्चयेन प्रन्या प्रथ्यतेबध्यतेऽनेनेति अन्धः अष्टविधकर्मवन्धः । कारणे कार्योपचारात् पृथिवीशस्त्रममारम्भस्य
टीकार्थ-जो भगवान् तीर्थकर के या उनके निर्गन्थ श्रमणों के समीप उपदेश सुनकर उपादेय को अर्थात् सर्वसावययोग के त्यागरूप चारित्र को अङ्गीकार करके विचरता है वह पृथ्वीकायके समारंभ को अहितकर और अयोधिजनक समझता है।
__ वह इस प्रकार विचार करता है-इस मनुष्य लोक में श्रमण निम्रन्थों के उपदेश से जिन्हें सम्यग्ज्ञान और वैराग्य हो गया है उन आत्मार्थी पुरुषों को ही ज्ञात होता है। उन्हें क्या ज्ञात होता है ? ऐसी आकांक्षा होने पर कहते हैं- एस खलु गंथे.' इत्यादि।
यह पृथ्वीकाय का समारम्भ निश्रय ही ग्रंथ है अर्थात् आठ प्रकार के कर्माका बंध है। कारण में कार्यका उपचार करके पृथिवोकाय के समारम्भ को यहाँ ग्रन्थ कहा है।
ટીકર્થ-જે ભગવાન તીર્થકરની અથવા તેના નિર્ગસ્થ શ્રમણોની સમીપ ઉપદેશ સાંભળી ઉપાદેયને અર્થાત સર્વસાવઘગના ત્યાગરૂપ ચારિત્રને અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે પૃથ્વીકાયના સમારંભને અહિતકર અને અધિજનક સમજે છે.
તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે કે આ મનુષ્ય લેકમાં શ્રમણ નિજોના ઉપદેશથી જેને સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય થઈ ગયો છે તે આત્માથી પુરૂને જ જાણવામાં હોય છે.
तेशुपामा डाय छे? वी At edi / छ-'एस खलु गंथे.' त्या આ પૃથ્વીકાયન સમારંભ નિશ્ચય જ ગ્રંથ છે. અર્થાત્ આઠ પ્રકારના કર્મોને બંધ છે.કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને પૃથ્વીકાયના સમારંભને અહિં ગ્રંથ કહ્યો છે. આશય એ છે કે
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आधारागो. (८) निवृत्तिद्वारम् येन तु तीर्थकरादीनां समीपे पृथिवीकायजीवस्वरूपंक्षा स एवं विज्ञानातीत्याह-से तं संयुज्झमाणे ' इत्यादि ।
से तं संयुज्झमाणे आयाणीयं समुदाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणं अंतिए । इह मेगे सिंणायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गरए, इचत्थं, गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहि सत्येहि पुढविकम्मसमारमण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसइ ।। मूं. ४ ॥
छायास तत् संयुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणामन्तिके इहेकेपां ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्थः, एप खलु मोहः, एप खलु मारः, एप खलु नरका, इत्यर्थ गृद्धो लोकः, यदि विरूपरूपैः शस्त्रैः पथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारममाणः अन्यान अनेकरूपान् प्रणान् विहिंसति ॥ सू. ४ ॥
(८) निवृत्तिद्वारजिसने तीर्थंकर आदिके समीप में पथिवीकाय के जीवों का स्वरूप जान लिया है, वह इस प्रकार जानता है-'से तं.' इत्यादि ।
मूलार्थ-~~जो पुरुष तीर्थंकर भगवान् के अथवा अनगारों के निकट उपदेश सुनकर समझता है और उपादेय ( चारित्र ) को अङ्गीकार करके विचरता है उसे ज्ञात हो जाता है कि पृथिवीकायका यह आरंभ ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । इस में आसक्त पृथ्वीशस का आरंभ, करने वाला लोक तरह-तरह के शास्त्रों से पृथ्वीकायका आरंभ करके अन्य अनेक प्रकार के प्राणीको हिंसा करता है ।। सू. ४ ॥
नितिन જેણે તીર્થકર આદિના સમીપમાં પૃથ્વીકાયના જીનું સ્વરૂપ જાણી લીધું છે, तमा प्रभारी न छ-'से तं.' त्यादि.
મલાઈ–જે પુરૂષ તીર્થંકર ભગવાનની અથવા અણગારોની સમીપ ઉપદેશ સાંભળીને સમજે છે, અને ઉપાદેય (ચારિત્ર)ને અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તેને માલૂમ પડે છે કે –પૃથ્વીકાયને આરંભ એ ગ્રંથ છે, એ મોહ છે, એ માર છે, એ નરક છે, એમાં આસક્ત પૃથ્વીશ અને આરંભ કરવાવાળા જાત-જાતના શસ્ત્રથી પૃથ્વીકાયનો આરંભ કરીને અન્ય અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે ().
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २ सू. ४ पृथिवीसमारम्भफलम्
॥ टीका ॥
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यः खलु भगवतः तीर्थंकरस्य अनगाराणाम् = वदीयश्रमण निर्ग्रन्थानाम्, अन्तिके = समीपे श्रुत्वा = उपदेशं निशम्य आदानीयम्, उपादेयं सर्वसाद्ययोगपरित्यागरूपं चारित्रं समुत्थाय = अङ्गीकृत्य विहरति स तत् पृथिवीकायसमारम्भणम् संयुध्यमान: =अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवतीति ।
स हि एवं विचारयति-इह मनुष्यलोके एकेषां श्रमण निर्ग्रन्थोपदेश संजातसम्यगोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव ज्ञातं विदितं भवति । किं ज्ञातं भवती ? - त्याकाङ्क्षायामाह - ' एस खलु गंधे' इत्यादि ।
एपः पृथिवीशसमारम्भः खलु निश्वयेन मन्यः =प्रध्यते = वध्यतेऽनेनेति ग्रन्थः अष्टविधकर्मवन्धः । कारणे कार्योपचारात् पृथिवीशस्त्रसमारम्भस्य टीकार्थ- जो भगवान् तीर्थकर के या उनके निर्गन्ध श्रमणों के समीप उपदेश सुनकर उपादेय को अर्थात् सर्वसावयोग के त्यागरूप चारित्र को अङ्गीकार करके विचरता है वह पृथ्वीका समारंभ को अहितकर और अयोधिजनक समझता है ।
वह इस प्रकार विचार करता है इस मनुष्य लोक में श्रमण निर्मन्थों के उपदेश से जिन्हें सम्यग्ज्ञान और वैराग्य हो गया है उन आत्मार्थी पुरुषों को ही ज्ञात होता है । उन्हें क्या ज्ञात होता है ? ऐसी आकांक्षा होने पर कहते हैं-' एस खलु गंथे. ' इत्यादि ।
यह पृथ्वीका का समारम्भ निश्वय हो ग्रंथ है है । कारण में कार्यका उपचार करके पृथिवीकाय के
अर्थात् आठ प्रकार के कर्मोंका बंध समारम्भ को यहाँ ग्रन्थ कहा है।
ટીકા જે ભગવાન તૌધ કરની અથવા તેના નિગ્રન્થ શ્રમણેાની સમીપ ઉપદેશ સાંભળી ઉપાદેયને અર્થાત્ સર્વ સાવધયેાગના ત્યાગરૂપ ચારિત્રને અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે પૃથ્વીકાયના સમારંભને અહિતકર અને એષિજનક સમજે છે.
તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે કેઃ આ મનુષ્ય લેાકમાં શ્રમણ નિગ્રન્થેાના ઉપદેશથી જેને સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય થઈ ગયે છે તે આત્માથી પુછ્યને જ નણવામાં હાય છે.
तेशुं लघुवामां होय हे ? सेवी शंभ थतां उडे छे-' एस खलु गंथे.' त्याहि આ પૃથ્વીકાયના સમારભ નિશ્ચયજ ગ્રંથ છે. અર્થાત્ આઠ પ્રકારના કર્મોના બંધ છે. કારણમાં કાર્યના ઉપચાર કરીને પૃથ્વીકાયના સમાર ંભને અહિં ગ્રંથ કહ્યો છે. આશય એ છે કે
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आचारायंत्रे
ग्रन्थरूपत्वम्, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । तथा एप एव पृथिवीसमारम्भः मोह :- विपर्यासः, विपरीतज्ञानरूपः । तथा - एप एव मार:-मरणम् निगोदादिमरणरूपः । तथा एष खलु नरकः=नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यर्थम् एतदर्थं कर्मबन्ध - मोह - मरण - नरकरूपं घोरं दुःखफलं प्राप्य पुनः पुनरेतदर्थमेव लोक अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्ध: - लिप्सुरस्ति । यद्वा गृद्धः = विषयभोगासक्तः लोकः संसारी जीवः इत्यर्थे -- एतदर्थमेव कर्मबन्धमोहमरणनरकार्थमेव प्रवर्तते ।
यद्यपि - विषयभोगासको लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थं परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातार्थे च पृथिवीशस्त्रसमारम्भं करोति आशय यह है कि आरंभ - प्रन्थ (बंध) का कारण होने से ग्रन्थ कहा गया है । इसी प्रकार का उपचार आगे के कथन में भी समझ लेना चाहिए ।
यह पृथिवीकायसमारंभ मोह अर्थात् विपर्यास हे विपरीत ज्ञानरूप है, तथा यही आरम्भ, निगोद आदि मरणरूप है । तथा यही आरंभ नरक है अर्थात् नारको जीवों के लिए दश प्रकार की क्षेत्र वेदनाओं का स्थान है । इस समारंभ के कारण कर्मबंध, मोह, मरण एवं नरकरूप घोर दुःखमय फल प्राप्तकर के भी अज्ञानी लोग बार-बार इसी की इच्छा करते हैं । अथवा संसारी जीव विषयभोगों में भक्त होता है अर्थात् कर्मबन्ध, मोह, मरण और नरक के लिए ही अज्ञानी जीव प्रवृत्ति करते हैं ।
विषयभोगों में आसक्त जीव यद्यपि शरीर आदि को पुष्ट करने के लिए परिवन्दन, मानन और पूजन के लिए, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, दु.ख का આરંભ–મથ (મધ)નું કારણ હાવાથી ગ્રન્થ કહ્યો છે, આ પ્રમાણેના ઉપચાર આગળના કથનમાં પણ સમજી લેવા જોઇએ.
આ પૃથ્વીકાય-સમારંભ માહ અર્થાત્ વિપર્યાસ છે, વિપરીતજ્ઞાનરૂપ છે, તથા એ આરભ નિગેાદ આદિ ભરણુરૂપ છે. તથા એ આરંભ નરક છે અર્થાત્ નારકીના જીવા માટે દસ પ્રકારની ક્ષેત્ર વેદનાઓનું સ્થાન છે. આ સમારંભના કારણે કમલ, મા, મરણુ અને નરકરૂપ ઘેર દુઃખમય ફૂલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની લાક વારવાર તેની ઇચ્છા કરે છે. અથવા સ`સારી જીવ વિષયસેગામાં આસક્ત થાય છે, અર્થાત્ કંધ, મેહ, મરણુ અને નરકના માટૅજ અજ્ઞાની જીવ તેમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે. વિષયભાગમાં આસક્ત જીવ હજી પણુ શરીર આદિને પુષ્ટ કરવા માટે પરિવંદન, માનન, અને પૂજનને માટે, જન્મ મરણુથી મુક્ત થવા માટે દુઃખને નાશ કરવા માટે,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सु. ४ पृथिवीसमारम्भफलम् तथापि तत्फलं कर्मबन्धमोहमरणनरकरूपमेव लभन्ते, अतः पृथिवीकर्मसमारम्मस्य तदेव फलं भवतीति भावः । इत्यर्थमिति प्रयोगस्तु यथा-अयं संसारी लोको जायत्ते मरणायैव, म्रियते च जननायैव, इति, तद्वत् । ____लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव लिप्मुरस्ति, तदर्थमेव प्रवर्तते वा, इति प्रतिज्ञायां हेतुमाह-'जमिणं'. इत्यादि ।
यद्यस्मात विरूपस्पैः - नानाविधेः शास्त्रः स्वकायपरकायतदुभयरूपैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण-पृथिव्युपमर्दकसावधव्यापारकरणेन, यद्वा-पृथिवीकायमुद्दिश्याष्टविधकर्मसमुत्पादकसावधव्यापारण, इमं = पृथिवीकार्य विहिनस्ति, विनाश करने के लिए, पृथिवीशन का आरंम करता है तथापि इस आरंभ का फल उसे कर्मबन्ध, मोह, मरण और नरक के रूप में ही मिलता है । अत एव आशय यह है कि कोई किसी भी अभिलाया से पृथिवीकायका आरंभ करे मगर फल तो वही कर्मअंघ मादि ही होगा। (इचत्य) इस का प्रयोग यह बतलाने के लिए किया गया है-यह संसारी जीव उत्पन्न होता है मरने के लिए और मरता है जनमने के लिए, इसी प्रकार यह प्रयोग है।
लोक बारम्बार कर्मबंध आदि के लिए ही अभिलापो है, अथवा कर्मबंध के लिए ही प्रवृत्ति करता है । इस प्रतिज्ञा में हेतु कहते है-'जमिणं.' इत्यादि । • जिस कारण से गृद्ध (आसक) लोक नाना प्रकार के शस्त्रों से-त्वकाय, परकाय और
उभयकायरूप शखों से-पृथिवीकाय का समारंभ करके अर्थात् पृथिवीकाय की हिंसा करने वाला सावध व्यापार करके, अथवा पृथिवीकाय के निमित्त से आठो कर्म-जनक सावध
પૃથ્વીશ અને આરંભ કરે છે તે પણ તે આરંભનું ફળ તેને કર્મબંધ, મેહ, મરણ અને નરકના રૂપમાં જ મળે છે. એ માટે આશય એ છે કે-કોઈ કાંઈ પણ અભિલાષાથી પૃથ્વીકાયનો આરંભ કરે પરતુ ફળ તે તે કર્મબંધ આદિજ થશે.
“” એનો પ્રયોગ એ બતાવવા માટે, કર્યો છે કે આ સંસારી જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. મરવાને માટે, અને મરે છે તે જન્મ લેવા માટે, આ પ્રમાણે એ પ્રગ છે.
લેક વારંવાર કર્મબંધ આદિ માટેજ અભિલાષી છે. અથવા કર્મબંધ માટેજ प्रवृत्ति ४२ छ. २५ प्रतिक्षामा हेतु ४३ छ-'अमिणं'. त्यादि.
જે કારણથી ચુદ્ધ આસકત કે નાના પ્રકારના શસ્ત્રોથી સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય રૂપ શોથી–પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરીને અર્થાત્ પૃથ્વીકાયની હિંસા કરવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને અથવા પૃથ્વીકાયના નિમિત્તથી આઠ કર્મોને ઉત્પન્ન કરનાર સાવદ્ય વ્યાપારથી
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आंचारागात्रे छिनत्ति, भिनत्ति, माणरहितं करोति गृद्धो लोक इत्यादि । तथा पृथिवीशत्रपृथिव्युपमदकं शस्त्र स्वकायपरकायतदुभयरूपं समारभमाणः व्यापारयन् अन्यान्अपकायादीन् अनेकरूपान्त्रसान् स्थावरांश्व, प्राणान-माणिनो विहिनस्ति । पृथिवीकायहिंसया पइजीवनिकायस्पं लोकं सर्वमेव मणिहन्तीति घोरतरं दुरितं कुर्वन् पुनः पुनः कर्मवन्धादिनरकान्तं प्राप्यापि तदर्थमेव प्रवर्तते न पुनर्मोक्षायेति भावः ॥ सू. ४॥
ननु पृथिवीकायजीवानां श्रोत्रनेत्रघ्राणरसनेन्द्रियाणि न सन्ति , नापि मनस्तेपां, कथं तर्हि दुःखवेदना संभवति ? ततश्च पृथिवीकायसमारम्भिणां व्यापार से इस पृथिवीकाय का हनन करता है, छेदन करता है, भेदन करता है, उसे प्राणहीन बनाता है । तथा पृथिवीकाय के स्वकाय, परकाय, और उभयकायरूप शस्त्रों का उपयोग करता हुआ अप्काय आदि अनेक त्रस स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है।
तात्पर्य यह है कि-पृथिवीकाय की हिंसा के द्वारा समस्त पड़जीवनिकायरूप लोक की हिंसा करता है । इस प्रकार अत्यन्त घोर पाप करता हुआ बारवार कर्मबंध करता है
और यहाँ तक कि नरक को प्राप्त करके भी नरक के लिए ही प्रवृत्ति करता है, मोक्ष के लिए नहीं ॥ सू. ४ ॥
पृथिवीकाय के जीवों में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसना-इन्द्रिय और मन नहीं है, फिर उन्हें दुःख का अनुभव कैसे हो सकता है ? और ऐसी अवस्था में पृथिवीकाय का आरंभ करनेवालों को कर्मबंध क्यों होता है ? इस शंका का समाधान
આ પૃથ્વીકાયને ઘાત કરે છે. છેદન કરે છે. ભેદન કરે છે, તેને પ્રાર્થહીન બનાવે છે. તથા પૃથ્વીકાયના સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ શસ્ત્રોને ઉપગ કરતા થકા અપૂકાય આદિ અનેક સ-સ્થાવર પ્રાણુઓની હિંસા કરે છે.
તાત્પર્ય એ છે કે–પૃથ્વીકાયની હિંસા દ્વારા સમસ્ત ષડૂજીવનિકાયરૂપ લોકની હિંસા કરે છે. આ પ્રમાણે અત્યન્ત ઘેર પાપ કરીને વારંવાર કર્મબંધ કરે છે. અને ત્યાં સુધી કે નરકને પ્રાપ્ત કરીને પણ નરક માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે, મોક્ષ માટે ४२ता नथी. (४)
પૃથ્વીકાયના જીમાં શ્રેગ્નેન્દ્રિય, ચક્ષુરિન્દ્રિય, ઘણેન્દ્રિય, રસના-ઈન્દ્રિય અને મન નથી, તે પછી તેને દુઃખને અનુભવ કેવી રીતે થઈ શકશે? અને એવી અલ. રશામાં પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવાવાળાને કર્મબંધ કેમ થઈ શકશે ? આ 'કાન
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भचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू. ४ पृथिवीजीवसिद्धिः कथं कर्मवन्धः ? इति जिज्ञासायामाह-' से बेमि.' इत्यादि ।
(मूलम) से वेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंघमच्छे, अप्पेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छे. अप्पेगे गुंफमभेर, अप्पेगे जंघमन्मेर, अप्पेगे जाणुमभे२, अप्पेगे उकमन्भे२, अप्पेगे फडिमभे२, अप्पेगे णाभिमभे२, अप्पेगे उयरमन्भे२, अप्पेगे पासमभे२, अप्पेगे पिहिममेर, अप्पेगे उरमन्भे२, अप्पेगे हिययमन्भे२, अप्पेगे धणमन्मे२, अप्पेगे खंघमन्भे२, अप्पेगे बाहुमन्मे२, अप्पेगे इत्थमन्भे२, अप्पेगे अंगुलिमभेर, अप्पेगे गहमभे२, अप्पेगे गीवामन्भे२, अप्पेगे हणुयममेर, अप्पेगे होमम्भे२, अप्पेगे दंतमन्भेर, अप्पेगे जीहमभे२, अप्पेगे तालमन्भेर, अप्पेगे गलमन्भे२, अप्पेगे, गंडमभे२, अप्पेगे कनमभे२, अप्पेगे णासमन्मे२, अप्पेगे अच्छिमन्भे२, अप्पेगे भमुहमन्भे२, अपेगे णिडालमन्भे२, अप्पेगे सीसमभे, अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए । सू. ५ ॥
(छाया) अथ बीवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्यात् अप्येका अन्धमाच्छिन्धात् । अप्येका पादमाभिन्द्यात, अप्येका पादमाच्छिन्यात् । अप्येकः गुल्फमाभिन्द्यावर, अप्येका नामाभिन्धात्२, अप्येकः जानु आभिन्द्यात् २, अप्येकः उरु आभिन्द्यात् २, अप्येकः कटिमाभिन्द्यात्२, अप्येक; नामिमाभिन्द्यावर, अप्येकः उदरमाभिन्धात्र, अप्येका पावमाभिन्द्यात्२, अप्येकः पृष्टिमाभिन्द्यात्२, अप्येकः उर आभिन्द्यात् २, अप्येकः करने के लिए सूत्र कहते हैं:-से वेमि.' इत्यादि ।
मूलार्थ-मैं कहता हूँ कोई अन्धे को भेदे, कोई अंधे को छेदे, कोई पैर को भेदे कोई पर को छेदे, कोई गुल्फ को भेदे छेदे, कोई पिण्डी को भेदे छेदे, कोई घुटने को भेदे, छेदे, कोई जांघ को भेदे छेदे, कोई कमर को भेदे छेदे, कोई नाभि को भेदे छेदे, कोई पेट को भेदे छेदे, कोई, पसबाडे को भेदे छेदे, कोई पीठ को भेदे छेदे, कोई छाती समाधान ४२११ भाटे सूत्र ४ छ:-' से घेमि.. याह.
મૂલાઈ—- હું કહું છું કેઈઆધળાને ભેદન કરે, કેઈ આંધળાને છેદન કરે, કઈ પગને કા, કેઈ પગને છેદે કઈ ગુફ-(ઘુટીને ભેદે, છેદે, કોઈ પીડીને ભેદે, છેદે, કઈ ઘુંટણને ભેદે છેદે, કોઈ જઘને ભેદે છેદે,કોઈકમરને ભેટે છેદે કેઈનાભિ(ડુંટી)ને ભેદે છેદે કઈ પેટને ભેટે છે, કોઈપાંસળીઓને ભેટે છેદે કેઈપઠને ભેટે છે, કેઈછાતીને ભેદે છે કે
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आचारास्त्रे छिनत्ति, भिनत्ति, माणरहितं करोति गृद्धो लोक इत्यादि । तया पृथिवीशत्रपृथिव्युपमद्दकं शस्त्र स्वकायपरकायतदुभयरूपं समारममाणः व्यापारयन् अन्यान् अपकायादीन् अनेकरूपान् नसान स्थावरांच, माणान्माणिनो विहिनस्ति । पृथिवीकायहिंसया पइजीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव मणिहन्तीति घोरतरं दुरितं कुर्वन् पुनः पुनः कर्मवन्धादिनरकान्तं प्राप्यापि तदर्थमेव प्रवर्तते न पुनर्मोक्षायेति भावः ॥ सू.४॥
ननु पृथिवीकायजीवानां श्रोत्रनेत्रघ्राणरसनेन्द्रियाणि न सन्ति , नापि मनस्तेपां, कथं तर्हि दुःखवेदना संभवति ? ततश्च पृथिवीकायसमारम्भिणां व्यापार से इस पृथिवीकाय का हनन करता है, छेदन करता है, भेदन करता है, उसे प्राणहीन बनाता है। तथा पृथिवीकाय के स्वकाय, परकाय, और उभयकायरूप शस्त्रों का उपयोग करता हुआ अप्काय आदि अनेक त्रस स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है।
तात्पर्य यह है कि-पृथिवीकाय की हिंसा के द्वारा समस्त पइजीवनिकायरूप लोक की हिंसा करता है । इस प्रकार अत्यन्त घोर पाप करता हुआ बारबार कर्मबंध करता है और यहाँ तक कि नरक को प्राप्त करके भी नरक के लिए ही प्रवृत्ति करता है, मोक्ष के लिए नहीं ।। सू. ४ ॥
पृथिवीकाय के जीवों में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसना-इन्द्रिय और मन नहीं है, फिर उन्हें दुःख का अनुभव कैसे हो सकता है ? और ऐसी अवस्था में पृथिवीकाय का आरंभ करनेवालों को कर्मबंध क्यों होता है ? इस शंका का समाधान
આ પૃથ્વીકાયને ઘાત કરે છે. છેદન કરે છે. ભેદન કરે છે, તેને પ્રાણહીન બનાવે છે. તથા પૃથ્વીકાયના સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ શસ્ત્રોને ઉપયોગ કરતા થકા અપૂકાય આદિ અનેક ત્રસ–સ્થાવર પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે.
તાત્પર્ય એ છે કે–પૃથ્વીકાયની હિંસા દ્વારા સમસ્ત જીવનિકાયરૂપ લોકની હિંસા કરે છે. આ પ્રમાણે અત્યન્ત ઘેર પાપ કરીને વારંવાર કર્મબંધ કરે છે. અને ત્યાં સુધી કે નરકને પ્રાપ્ત કરીને પણ નરક માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે, મેક્ષ માટે ४२ता नथी. (४)
પૃથ્વીકાયના જીવેમાં શ્રોન્દ્રિય, ચક્ષુરિન્દ્રિય, પ્રાણેન્દ્રિય, રસના-ઈન્દ્રિય અને મન નથી, તે પછી તેને દુખને અનુભવ કેવી રીતે થઈ શકશે ? અને એવી અવરથામાં પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવાવાળાને કર્મબંધ કેમ થઈ શકશે? આ શંકાનું
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ स. ५ पृथिवीजीवसिद्धिः ४५७
॥ टीका ॥ _ 'से चेमि' इत्यादि । अधेति प्रतिवाक्यप्रारम्भद्योतनाय । ब्रवीमि-पृथिवीकायस्य वेदनाविपये कथयामि । यथा-एकः कश्चित् अन्ध-जन्मान्धं आभिन्द्यात, तया एका अपरः कश्चित् अन्धमपि आछिन्यात् ।
अत्र अन्धमित्युपलक्षणं, यघिरमृकपगुमभृतीनाम् । यः खलु जन्मान्धो जन्मवधिरो जन्ममको जन्मपङगुमंगापुत्रवत्करचरणाद्यवयवविभागरहितः पूर्वभवार्जिताशुभकर्मोंदयात् स्वहितमाप्त्यहितपरिहाराक्षमोऽतिदयनीयदशामुपगतः।। एवंविधजन्मान्धादिकं कवित् कठोरहदयो निर्दयतयाऽतिनिशितभल्लादिना भिनत्तिचेत, सुवीक्ष्णपरशकुठारादिना छिनत्ति चेत्तदाऽसौ स्वाङ्ग भेदनच्छेदनसमयेभेदकं छेदकं न . टीकार्य-'अथ' शब्द नया वाक्य आरंभ करने को प्रकट करता है-'कहता हूं' अर्थात् पृथिवीकाय की वेदना के विषय में कहता हूँ ! जैसे-कोई पुरुष अंधे अर्थात् जन्म से अंधे को भेदे छेदे । यही 'अंध' पद उपलक्षण है, उस से बहिरा, मूंगा, लंगडा, आदि भी ग्रहण कर लेना चाहिए।
जो जीव मृगालोढक की तरह जन्मान्ध है, जन्म से बहिरा है, जन्म से मंगा है, जन्म से लंगडा है, हाथ-और आदि विभिन्न अवयवों का जिस के शरीर में भेद नहीं है, और जो पूर्वभव के अशुभ कर्मों के उदय से अपने हित की प्राप्ति तथा अहित के परिहार में असमर्थ है, अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त है, इस प्रकार के जन्मान्ध वगैरह को कोई कठोर हृदयवाला पुरुष निर्दय हो कर भावेश के साथ, बहुत तीखे भाले वगैरह से भेदता है, आयन्त तीखे फरसी कुठार आदि से छेदता है,
ટીકાર્થ શwદ નવું વાકય આરંભ કરવાનું પ્રગટ કરે છે “ કહું છું ' અર્થાત પૃથ્વીકાયની વેદનાના વિષયમાં કહું છું–જેમ કે મનુષ્ય અન્ય અર્થાત-જન્મથી અંધને (આંધળો છે તેને ભેટે છે. અહિં “પદ તે ઉપલક્ષણ છે, તેનાથી બહેરા મૂંગા, લંગડા આદિ પણ મહણ કરી લેવા જોઈએ.
જે જીવ મૃગલેઢાની માફક જન્માંધ છે. (જન્મથી આંધળે છે) જન્મથી બહેશે છે. જન્મથી જ મૅગે છે જન્મથી લંગડે છે. હાથ-પગ આદિ વિભિન્ન અવયના જેના શરીરમાં ભેદ નથી, અને તે પૂર્વભવના અશુભ કર્મોના ઉદયથી પિતાના હિતની પ્રાપ્તિ તથા અહિતના પરિવારમાં અસમર્થ છે, અત્યન્ત દયાપાત્ર-દશાને પ્રાપ્ત છે, આ પ્રકારના જન્માંધ વગેરેને કઈ કઠોર હૃદયવાળા પુરૂષ નિર્દય થઈને આવેશની સાથે બહુજ તીક્ષણ ભાલા વગેરેથી લે છે (વિંધે છે), અત્યન્ત તીખી ધારવાળી ફરસી, કુઠાર આદિથી प्र आ.-५८
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आचारात्मत्रे
"
हृदयमा भिन्द्यात्, अप्येकः स्तनमाभिन्द्यात्र, अप्येषः स्कन्धमा भिन्द्यात्र, अप्येकः बाहुभाभिन्द्यात्र, अप्येकः हस्तमाभिन्द्यात्, अप्येकः अङ्गुलिमाभिन्द्यात् २, अप्येकः नखमाभिन्द्यात्२, अप्येकः ग्रीवामाभिन्द्यावर, अप्येकः हनु आभिन्द्यात् २, अप्येकः ओष्ठमा भिन्द्यात्र, अप्येकः दन्तमाभिन्द्यात् २, अप्येकः जिह्नामाभिन्द्यादर, अप्येकः तालु आभिन्द्यात्र, अप्येकः गलमाभिन्यातर, अप्येकः गण्डमाभिन्द्यावर, अप्येकः कर्णमाभिन्द्यात्२; अप्येकः नासामाभिन्द्यात्र, अप्येकः अक्षि आमिन्द्यात्२, अप्येकः माभिन्द्यात्र, अप्येकः ललाटमाभिन्द्यात्र, अप्येकः शीर्षमाभिन्द्यात्र, अप्येकः संप्रमारयेत्, अध्येकः उपद्रावयेत् ॥ . ५ ॥
भेदे छेदे, कोई कन्धे को
को भेदे छेदे, कोई हृदय को भेदे छेदे, कोई स्तन को भेदे छेदे, कोई बाहु को भेदे छेदे, कोई हाथ को भेदे छेदे, कोई उंगली को भेदे छेदे, कोई नख को भेदे छेदे, कोई गर्दन को भेदे छेदे, कोई हनु (ढाढी - ठोडी) को भेदे छेदे, कोई होठ को भेदे छेदे, कोई दांत को भेदे छेदे, कोई जीभ को भेदे, छेदे, कोई ताल को भेदे छेदे, कोई गले को मैदे छेदे, कोई गंडस्थल (कनपटी ) को भेदे छेदे, कोई कान को भेदे छेदे, कोई नाकको भेदे छेदे, कोई आंख को भेदे छेदे, कोई भौंह को भेदे छेदे, कोई ललाट को भेदे छेदे, कोई सिरको भेदे छेदे, कोई मारकर बेहोश कर दे; या कोई मार ही डाले, इस प्रकार इन्द्रियचलहीन होने पर भी उसे वेदना का अनुभव होता ही है | सू. ५ ॥
હૃદયને ભેદે છેદે, કેાઈ સ્તનને ભેદે છેકે, કેાઈ કાંધને ભેદેછેકે, કોઈ માહૂને ભેદ છેકે, કઈ हाथने लेहे छेडे, अर्ध मांगतीने लेहे हेहे, अनमने लेहे हेहे, अर्थ गहनने लेहे हेहे, ફાઈ ડાઢીને ભેદેછેકે, ઈ હેઠને છેદે ભેદ્દે, કેાઈ દાંતને ભેદ છેદે, કેાઈ જીભને ભેદે છેજે, अर्ध तालु-(तापापा) ने लेहे हेहे, अर्थ गजाने लेहे हेहे, आई गंडस्थल (सभा) કાનપટ્ટીને ભેટ્ટે-છેદે, કેઈ કાનને ભેદે-છેદે, કઈ નાકને સેઢે-છેદે, કોઈ ાંખને लेहे-छेहे, अर्ध मंभरने बेटे-छेटे, अर्थ ससाटने लेहे-छेहे, अर्ध शिरने लेहे - छेडे, ફાઈ મારીને મેહોશ કરી દે, અથવા કઈ મારીજ નાંખે, આ પ્રમાણે ઈન્દ્રિયબલડ્ડીન હાવા છતાં પણ તેને વેદનાનો અનુભવ થાય છે. (૫)
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ स. ५ पृथिवीजीवसिद्धिः ४५७
॥टीका॥ 'से चेमि' इत्पादि । अथेति प्रतिवाक्यमारम्भद्योतनाय । प्रवीमि पृथिवीकायस्य वेदनाविषये कथयामि । यथा-एका कश्चित् अन्ध-जन्मान्धं आभिन्द्याद, तया एका अपरः कश्चित् अन्धमपि आछिन्याद ।
अत्र अन्धमित्युपलक्षणं, बधिरमकपगुमभृतीनाम् । यः खलु जन्मान्धो जन्मवधिरो जन्ममको जन्मपङगुमगापुत्रवत्करचरणाद्यवयवविभागरहितः पूर्वभवार्जिताशुभकर्मोदयात् स्वहितप्राप्त्यहितपरिहाराक्षमोऽतिदयनीयदशामुपगतः। एवंविधजन्मान्धादिकं कश्चित् कठोरहदयो निर्दयतयाऽतिनिशितभल्लादिना भिनत्तिचेत, सुतीक्ष्णपरशकुठारादिना छिनत्ति चेत्तदाऽसौ स्वाङ्ग मेदनच्छेदनसमयेभेदकं छेदकं न . टीकार्य-'अ' शब्द नया वाक्य आरंभ करने को प्रकट करता है-'कहता हूँ अर्थात् पृथिवीकाय की वेदना के विषय में कहता हूँ । जैसे कोई पुरुष अंधे अर्थात् जन्म से अधे को भेदे छेदे । यहाँ 'अंध' पद उपलक्षण है, उस से बहिरा, मूंगा, लंगडा, आदि भी ग्रहण कर लेना चाहिए।
जो जीव मृगालोढक की तरह जन्मान्ध है, जन्म से वहिरा है, जन्म से __मंगा है, जन्म से लंगडा है, हाथ-और आदि विभिन्न अवयवो का जिस के शरीर में
भेद नहीं है, और जो पूर्वभव के अशुभ कर्मों के उदय से अपने हित की प्राप्ति तथा महित के परिहार में असमर्थ है, अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त है, इस प्रकार के जन्मान्ध वगैरह को कोई कठोर हृदयवाला पुरुष निर्दय हो कर आवेश के साथ, बहुत तीखे भाले वगैरह से मेदता है, अत्यन्त तीखे फरसी कुठार आदि से छेदता है,
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साथ-'अथ' १७४ नई पा४५ मा ४२वानु ८४२ . यात પૃથ્વીકાયની વેદનાના વિષયમાં કહું છું–જેમ કે મનુષ્ય અન્ય અર્થાત્ જન્મથી અંધને (આધળો છે તેને) ભેદ છેદે. અહિં “ પદ તે ઉપલક્ષણ છે, તેનાથી બહેરા મૂંગા, લંગડા આદિ પણ ગ્રહણ કરી લેવા જોઈએ.
જે જીવ મૃગલેઢાની માફક જન્માંધ છે. (જન્મથી આંધળો છે) જન્મથી; બહેરે છે. જન્મથી જ મળે છે જન્મથી લંગડે છે. હાથ–પગ આદિ વિભિન્ન અવયના જેના શરીરમાં ભેદ નથી, અને તે પૂર્વભવના અશુભ કર્મોના ઉદયથી પિતાના હિતની પ્રાપ્તિ તથા અહિતના પરિહારમાં અસમર્થ છે, અત્યંત દયાપાત્ર-દશાને પ્રાપ્ત છે. આ પ્રકારના જન્માંધ વગેરેને કઈ કઠોર હદયવાળા પુરૂષ નિર્દય થઈને આવેશની સાથે બહુજ તીક્ષણ ભાલા વગેરેથી ભેટ છે (વિંધે છે), અત્યન્ત તીખી ધારવાળી ફરસી, કુઠાર આદિથી प्रा .-५८
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आचाराने पश्यति न, शणोति, नाप्युचैः क्रन्दति; तावता तस्या जीवत्वं वेदनाया अमावो वा निश्चेतुं वक्तुं वा न शक्यते, एवं पृथिवी सचेतना वेदनासहिता घेति निधीयते । जात्यन्धवधिरमकपड्यादिगुणयुक्तपुरुपवत्, मृगापुत्रवत्, इत्यर्थः । ____ यद्वा पञ्चेन्द्रियाणां मुव्यक्तवेतनानां पादगुल्फनाजानूरकटिनाभ्युदरपार्श्वपृष्ठोरोहृदयस्तनस्कन्धयाहुहस्ताइगुलिनवग्रीवाहन्वोप्ठदन्तजिह्वातालगलगण्डकर्णनासाक्षिभ्रललाटमस्तकादिषु भिधमानेषु छिद्यमानेषु वा यथा घोरतरवेदना जायते तथा प्रगाढमोहाज्ञानवता स्त्यानद्धर्थादिकर्मोदयाद् अव्यक्तचेतनानां मेदन-छेदन के समय, अपने अंग के भेदने छेदने वाले को न देखता है, न सुनता है, न उंची आवाज से चिल्लाता हैं। इतने मात्र से उस में अजीवपना या वेदना का अभाव निश्चित नहीं किया जा सकता, और नहीं कहा जाता । इसी प्रकार पृथिवी सचेतन है
और उसे वेदना भी होती है, यह बात निश्चित हो जाती है । अर्थात् जैसे मृगालोढक की तरह बहिरे, मूंगे, लंगडे आदि पुरुष को वेदना होती है, उसी प्रकार पृथिवीकाय को भी वेदना होती है।
अथवा स्पष्ट चेतना वाले पञ्चेन्द्रिय जीवों के पैर, गुल्क, जांघ, जानु, उरू, कमर, नाभि, उदर, पाव, पृष्ठ, उर-छाती, हदय, स्नन, स्कन्ध, बाहु, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, दाढी, होठ, दांत, जीभ, ताल, गला, कनपटी, कान नाक आख, भौंह, ललाट, मस्तक आदि के भिदने-छिदने पर जैसे अत्यन्त घोर वेदना उत्पन्न होती है
છેદે છે, તે ભેદન- છેદનના સમયે પોતાના અંગનું ભેદન- છેદન કરનારને તે દેખતે નથી, સાંભળતું નથી, ઊંચા અવાજથી શર–અકેર કરી શકતું નથી. એટલામાત્રથી તેમાં અજીવપણું અથવા વેદનાને અભાવ નિશ્ચિત કરી શકાતું નથી, તેમ કહેવાતું પણ નથી. એ પ્રમાણે પૃથ્વી સચેતન છે અને તેને વેદના પણ થાય છે. એ વાત નિશ્ચિત થઈ જાય છે. અર્થાત જેવી રીતે મૃગાલોઢી આ પ્રમાણે-અહેરા, મૂંગા, લંગડા આદિ પુરૂષને વેદના થાય છે, તે પ્રમાણે પૃથ્વીકાયને પણ વેદના થાય છે.
અથવા સ્પષ્ટ ચેતનાવાળા જન્માશ્વ આદિપંચેન્દ્રિય જીવોના પગ,ઢીંચણ,જાંઘ, જાન, ७२-४भर, नाभि, SER, पाव, ४, ७२-छाती, य, स्तन, ४, माय, मांजली, नम, श्रीवा हादी, 18, til, ON, TRY, ग, RHI, BIH, ना, माम, लभर, हाट, મરતક આદિના ભેદવા-દવાથી જેમ અત્યન્ત ઘર વેદના ઉત્પન્ન થાય છે, તેમ પ્રગાઢ
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २ सू. ५ पृथिवीजीवसिद्धिः
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पृथिव्यादीनामव्यक्तैव घोरतरवेदना भवतीति भगवता केवलालोकेन साक्षात्कृत्य
प्रवेदितम् ।
अन्यमपि दृष्टान्तमाह - " अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए इति । एकः कथित् यथा सर्वावयवयुक्तं कञ्चित्माणिनं संप्रमारयेत् तीव्रद्वेपावेशेन शस्त्रादिमहारेण चेष्टाराहित्यरूपां मूर्छामापादयेत् तथा एकः कथित् मूर्छापिन्नं उद्यावयेत् प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत्, तस्य मूर्च्छाविशेन व्यक्त-वेदनाया अभावेऽपि अव्यक्ता घोरतर वेदना जायत एव तथा पृथिवीजीवानामव्यक्ता घोरतरवेदना भवत्येव ॥ सू. ५ ॥
इत्थं पृथिवीकायस्य जीवत्वं शस्राद्धाघातेन वेदनां च प्रदर्श्य, अधुना उसी प्रकार प्रगाढ मोह अज्ञान वाले स्यानद्धि आदि कर्म के उदय से अप्रकट चेतना वाले पृथ्वीका आदि जीवों को अप्रकट किन्तु अत्यन्त दारुण वेदना होती है। यह वात भगवान् ने केवलज्ञान से साक्षात् जानकर प्रकट की है ।
27
1
इसी fare में एक दृष्टान्त और कहते हैं- 'अप्पेगे' इत्यादि । जैसे- कोई पुरुष, सभी अवयवों से युक्त किसी प्राणी को तीत्र द्वेष के आवेश के वश हो कर शस्त्र आदि का प्रहार कर के चेटारहित - मूर्छित कर देता है, तथा कोई उस मूर्छित पुरुष को प्राणहीन करता है तो यद्यपि उस मूर्च्छित में व्यक्त वेदना नहीं है फिर भी अव्यक्त अत्यन्त घोर वेदना होती ही है, इसी प्रकार पृथिवीकाय में घोर अव्यक्त वेदना होती है ॥ सू. ६॥
इस प्रकार पृथिवीकाय की सचित्तता और शस्त्र आदि के आघात से होने वाली (દંડ) માહ અજ્ઞાનવાળા સ્ત્યાદ્ધિ આદિ કર્મના ઉદયથી અપ્રકટ ચેતનાવાળા પૃથ્વીકાય આદિ જીવાને પ્રકટ પરન્તુ અત્યન્ત દારુણુ વેદના થાય છે, આ વાત ભગવાને કેવલ જ્ઞાનથી સાક્ષાત્ જાણીને પ્રકટ કરી છે.
या विषयभां से पीलु दृष्टान्त उहे छे-'अप्येगे' इत्यादि, प्रेम अर्ध ३५, સર્વ અવયવાથી યુક્ત કોઈ પ્રાણીને તીવ્ર દ્વેષથી આવેશને વશ થઈ શસ્ત્ર આદિના પ્રહાર કરીને ચેષ્ટારહિત-મૂછિત કરી નાખે છે, તથા કેાઈ તે મૂર્છિત પુરૂષને પ્રાણહીન કરે છે. તે મૂતિમાં વ્યક્ત વેદના નથી. તે પશુ અવ્યક્ત (જાણી-જોઈ શકાય નહિ તેવી રીતે) અત્યન્ત ઘાર વેદના થાય છે. એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયમાં પણ ઘેર વેદના થાય છે. પ
આ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયની સચિત્તતા અને શસ્ત્ર આદિના આઘાતથી થવાવાળી
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आचाराय
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तत्समारम्भे कर्मचन्धो भवतीत्याह--' एत्य ' इत्यादि ।
॥ मूलम् ॥
एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवति ।। सू. ६ ।।
॥ छाया ॥
ra ra समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिशता भवन्ति ॥ मू. ६ ॥
शस्त्रस्वकायपरकायतदुभयरूपं
॥ टीका || अत्र = पृथिवीकाये. द्रव्यशस्त्र, दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायरूपं भावशस्त्रं वा समारभमाणस्य व्यापारयतः इत्येते= मागुक्ताः सप्तविंशतिभङ्गरूपाः, आरम्भाः खनन कृप्यादिरूपाः सावद्यव्यापारा, अपरिज्ञाता भवन्ति = कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता न भवन्ति, पृथिवीशस्त्र समारभमाणः खननादिसावद्यव्यापारस्य कर्मबन्धकारणतामविज्ञाय चारित्ररूपवेदना प्रदर्शित कर के यह बताते हैं कि-पृथिवीकाय का आरंभ करने में कर्म का बंध होता है - ' एत्थ ' इत्यादि ।
मूलार्थ --- पृथिवीकाय का आरंभ करने वाले को यह (पूर्वोक्त) आरंभ ज्ञात नहीं होता है ॥ सू. ६ ॥
टीका --- पृथिवीकाय में स्वकाय परकाय और उभयकायरूप द्रव्यशस्त्र का, तथा मन वचन कायका दुष्प्रणिधानरूप भावरात्र का व्यापार करने वाले को ज्ञात नहीं होता किपूर्वोक्त सत्ताईस प्रकार का खनन एवं कृषि आदिरूप सावध व्यापार कर्मबंध के कारण हैं । तात्पर्य यह है कि जो पुरुष पृथिवीकाय का आरंभ करता है, उसे यह मालूम नहीं होता कि -- यह सावध व्यापार कर्मबंध का कारण है, यह मालूम न होने के कारण વેદના મતાથીને હવે એ બતાવે છે કે:-પૃથ્વીકાયના મારભ કરવામાં કમને અંધ थाय छे-' एत्थ ' धत्याहि.
મૂલા नथी. (६)
પૃથ્વીકાયને ચ્યારભ કરવાવાળાને આ ( વક્તિ ) આરંભ જ્ઞાન હતું
ટીકાથ—પૃથ્વીકાયમાં વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ દ્રવ્યાઅનેા તથા મન, વચન, કાયાનાં દૃણિધાન (ખરાબ ભાવ)રૂપ ભાવશસ્ત્રના વ્યાપાર કરવાવાળાને ખબર નથી હોતી કે-પૂર્વોક્ત (પૂર્વ કહેલા) સત્તાવીસ પ્રકારના ખનન (ખેદવું) એ પ્રમાણે કૃષિ--ખેતી આદિરૂપ સાવદ્ય-વ્યાપાર કાઁબ ધનું કારણુ છે. તાપથ એ છે કે જે પુરૂષ પૃથ્વીકાયને આરંભ કરે છે, તેને એ માલૂમ નથી કે સાવદ્ય વ્યાપાર કમ
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आचारचिन्तामणि- टीकाअध्य. १ उ. २ सू. ६ परिशातकर्मस्वरूपम्
मोक्षमार्गतो दूरमपगतो भवतीत्यर्थः ॥ मूं० ६ ॥ (८) विवृत्तिद्वारम् -
४६ १
पृथिवीकायसमारम्भपरिज्ञाने हि परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवतीत्याह- 'एत्थ' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥
एत्य सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिष्णाया भवंति । तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्यं समारंभेज्जा, त्रणेहिं पुढविसत्थं समारंभावेज्जा, पुढविसत्यं समारंभंते समणुजाज्जा । जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिष्णाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे - त्तिवेमि ॥ मु० ७ ॥
|| इय सत्यपरिणाए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ १-२ ॥
॥ छाया ॥
अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथिवीशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैः पृथिवीशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभतः समनुजानीयाद, यस्यैते पृथिवी कर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ सू० ७ ॥
॥ इति शत्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ १ । २ ॥
यह चारित्ररूप मोक्षमार्ग से दूर ही रहता है ।। सू. ६ ॥
पृथिवीकाय के समारम्भ का परिज्ञान होने पर हो परिज्ञातकर्मा मुनि होता है, इस बात को कहते हैं-' एत्थ ' इत्यादि ।
मूलार्थ - - पृथिवीकाय में शस्त्र का आरंभ न करने वाले को यह भारंभ ज्ञात होता है। उन्हें जानकर बुद्धिमान् पुरुष न स्वयं पृथिवीकाय के शास्त्र का आरंभ करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय के शस्त्रका आरंभ करावे और न पृथ्वीकाय का आरंभ करने वाले दूसरों की अनुमोदना करे । इन पृथिवी कर्म समारम्भों को जानने वाला ही मुनि है, वही परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मैं कहता हूँ ॥ सू. ७ ॥
ખુંધનું કારણ છે. આ માલૂમ નહિ હેાવાથી તે ચારિત્રરૂપ મેાક્ષમાથી દૂરજ રહે છે. 11૬}} પૃથિવીકાયના સમારંભનું રિજ્ઞાન હૈાવાથીજ પરજ્ઞાતકર્મા મુનિ હૈાય છે, આ पात मताचे छे:-' एत्थ ' इत्याहि.
મૂલા પૃથ્વીકાયમાં શસ્રના આરંભ નહિ કરવાવાળાને આ આરંભની ખબર હેય છે. તેને જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ પાતે પૃથ્વીકાયના શસ્રના આરંભ કરતા નથી; બીજા પાસે પણ પૃથ્વીકાયના શસ્રના આરંભ કરાવતા નથી, અને પૃથ્વીકાયના આર ંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમેાદન આપતા નથી. એ પૃથ્વીકમસમાર ભાને જાણવાવાળાજ भुनि छे, ते परिज्ञात छे; मे प्रभा हुं हुं . ( ७ )
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आचारा मरे तत्समारम्भे कर्मबन्धो भवतीत्याह- एत्य' इत्यादि ।
॥ मूलम् ॥ एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंमा अपरिणाया भवंति ॥ सू. ६॥
॥छाया ॥ अत्र शस्त्र समारभमाणस्य इत्येते आरम्मा अपरिझाता भवन्ति ॥ सू. ६ ॥
टीका॥ अत्र-पृथिवीकाये. शस्त्र-स्वकायपरकायतदुभयरूपं द्रव्यशत, दुष्पणिहितमनोवाक्कायरूपं भावशस्त्रं वा समारभमाणस्य-व्यापारयवः इत्येतेमागुक्ताः सप्तविंशतिभङ्गरूपाः, आरम्भान्खननकप्यादिरूपाः सावधव्यापाराः, अपरिज्ञाता भवन्तिकमवन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता न भवन्ति, पृथिवीशस्त्र समारभमाणः खननादिसावधव्यापारस्य कर्मवन्धकारणतामविज्ञाय चारित्ररूपवेदना प्रदर्शित कर के यह बताते हैं कि-पृथिवीकाय का आरंभ करने में कर्म का बंध होता है-'एत्थ' इत्यादि।
मूलार्थ-पृथिवीकाय का आरंभ करने वाले को यह (पूर्वोक्त) आरंभ ज्ञात नहीं होता है । सू. ६ ॥
टीकार्थ-पृथिवीकाय में स्वकाय परकाय और उभयकायरूप द्रव्यशस्त्र का, तथा मन वचन कायका दुष्प्रणिधानरूप भावशस्त्र का व्यापार करने वाले को ज्ञात नहीं होता किपूर्वोक सत्ताईस प्रकार का खनन एवं कृषि आदिरूप सावध व्यापार कर्मबंध के कारण है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष पृथिवीकाय का आरंभ करता है, उसे यह मालम नहीं होता कि-यह सावध व्यापार कर्मबंध का कारण है, यह माल्लम न होने के कारण વેદના બતાવીને હવે એ બતાવે છે કે પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવામાં કમને બંધ थाय छ-'एत्थ' त्याहि.
મૂલાથ–પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવાવાળાને આ (પૂર્વોક્ત) આરંભ જ્ઞાન હતું नयी. (१)
ટીકાથ–પૃથ્વીકાયમાં સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ દ્રવ્યશાસ્ત્રને તથા મન, વચન, કાયાનાં દુપ્પણિધાન (ખરાબ ભાવ)રૂપ ભાવશઅને વ્યાપાર કરવાવાળાને ખબર નથી હોતી કે–પૂર્વોક્ત (પૂર્વે કહેલા સત્તાવીસ પ્રકારના ખનન (દ) એ પ્રમાણે કૃષિ–ખેતી આદિરૂપ સાવધ-વ્યાપાર કર્મબંધનું કારણ છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે પરૂષ પૃથ્વીકાયને આરંભ કરે છે, તેને એ માલુમ નથી કે-આ સાવદ્ય વ્યાપાર કર્મ
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आचारचिन्तार्माण -टीका अध्य. १ ३.२ मृ. ७ उपसंहारः
समारंभान् विज्ञाय सर्वान् परित्यजेत् ।
एवं यस्य एते पृथिवीकर्मसमारम्भाः पृथिवीविपयाः खननेकृप्यादिरूपाः सावयक्रियाविशेषाः परिज्ञाता भवन्ति परिज्ञया कर्मवन्धहेतुत्वेन विज्ञाताः तथा प्रत्याख्यानपरशया परित्यक्ता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा=विदितपरित्यक्तंसकलसावद्यक्रियाविशेषः मुनिर्भवति, न त्वपरो द्रव्यलिङ्गीत्यर्थः । इति ब्रवीमि= Tara sti aथा कथयामीत्यर्थः ।। सू० ७ ॥
॥ इति शस्त्रपरिज्ञाध्ययने द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ १-२ ॥
४६३
पृथ्वीका समारंभ को जानकर सबका त्याग करना चाहिए ।
इस प्रकार जो पुरुष पृथ्वीकायसम्बन्धी खोदना जोतना आदि सावध व्यापारो को परिक्षा से का कारण समझता है, और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग कर देता है वही परिज्ञातकर्मा और सकल सावध क्रियाओं को जानने वाला पुरुष मुनि कहलाता है, सिर्फ द्रव्यलिंगी मुनि नहीं कहलाता । 'त्तिवेमि' भगवान् ने जैसा कहा है वैसा ही मैं कहता हूँ ॥ ७ ॥
आचाराङ्ग-सूत्र की आचारचिन्तामणि- टीका के हिन्दी अनुवाद में Raftaratas ten अध्ययनका द्वितीय उद्देश
समाप्त ॥ १-२ ॥
ભેદથી સત્તાવીસ પ્રકારના પૃથ્વીકાયના સમાર ભને જાણી કરીને સને ત્યાગ કરવા જોઇએ.
આ પ્રમાણે જે પુરૂષ પૃથ્વીકાયસમ્બન્ધી ખેદવું, ખેડવું આદિ સાવદ્ય વ્યાપારશને જ્ઞરિજ્ઞાથી કંધનું કારણ સમજે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેના ત્યાગ કરી દે છે, તે પરિજ્ઞાતકમાં અને સકલસાવયિાએને જાણવાવાળા પુરૂષ મુનિ કહેવાય છે, માત્ર દ્રલિંગી મુનિ કહેવાતા નથી. ભગવાને જેવું કહ્યું છે, એવું જ હું કહું છું” શાળા
આચારાંગ સૂત્રની આચારચિંતામણિ ટીકાના ગુજરાતી અનુવાદમાં શસ્ત્રપરિજ્ઞાનામક પ્રથમ અધ્યયનના બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત થયા ૧-૨ ।।
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आचाराने
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टीकाअत्र-पृथिवीकाये शस्त्रं-स्वकायपरकायादिकम् असमारममाणस्य अव्यापारयतः इत्येते पूर्वोक्ता आरम्भा सावधक्रियाविशेपाः परिज्ञाता भवन्ति । ज्ञपरिज्ञया सर्वान् पृथिवीकायसमारम्भान् कर्मबन्धहेतुत्वेन अनन्तनरकनिगोदादिदुःखजनकत्वेन च परिज्ञाय चारित्ररूपमोक्षमार्गे प्रवर्तत इति भावः । उपसंहारमाह--
तत् पृथिवीकायसमारम्भणं परिज्ञाय बन्धहेतुत्वेनावबुध्य मेधावीसदसद्विवेकी पृथिवीशस्त्रं द्रव्यभावरूपं स्वयं नैव समारभते अपि च-अन्यरपि पृथिवीशस्त्रं नैत्र समारम्भयति, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् नैव समनु जानाति । एवं मनोवाकायभेदेनातीतानागतवर्तमानकालभेदेन च पृथिवीकाय
टीकार्थ-पृथिवीकाय में स्वकाय परकाय आदि शस्त्रों का आरंभ न करने वाले को यह पूर्वोक्त सावधव्यापाररूप आरंभ ज्ञात होता है । इन आरंभों को जानने वाला अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से पृथिवीकायसबंधी आरंभों को कर्मबंध का कारण तथा अनन्त नरक निगोद के दुःखो का कारण जानकर चारित्ररूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होता है । उपसंहार करते हैं
पृथ्वीकाय के आरंभ को बंधका कारण जानकर बुद्धिमान् सत् असत् का भेद समझने वाला, द्रव्य-भावरूप पृथ्वीशस्त्रका स्वयं व्यापार नहीं करता, दूसरे से व्यापार नहीं कराता और व्यापार करने वाले को अनुमोदना भी नहीं करता । इसी प्रकार मन, वचन, काय के भेद से और अतीत, अनागत, वर्तमान काल के भेद से सत्ताईस प्रकार के
,
ટીકાથ–પૃથ્વીકાયમાં કાય પરકાય આદિ શાને આરંભ નહિ કરવાવાળાને એ પૂર્વેત સાવધ વ્યાપાર ૫ આરંભની ખબર હોય છે, તે આરંભેને જાણવાવાળા અથોત કપારિજ્ઞાથી પૃથ્વીકાયસન્ધી આરંભેને કર્મબંધનું કારણ, તથા અનન્ત નરક નિવેદના દનું કારણ જાણુંને ચારિત્રરૂપ મેક્ષમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. હવે ઉપસંહાર કરે છે
પૃથ્વીકાયના આરમ્ભને બંધનું કારણ જાણીને બુદ્ધિમાન સત્અ સના ભેદને જાણવા-સમજવાવાળા, દ્રવ્યભાવરૂપ પૃથ્વીશઅને પિતે વ્યાપાર કરતા નથી. બીજી પગે વ્યાપાર કરાવતા નથી, અને વ્યાપાર કરવાવાળાને અનુમોદન પણ કરતા નથી. આ પ્રમાણે મન, વચન, કાયાના ભેદથી, અને ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ, વર્તમાનકાળના
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ ५.७ उपसंहारः समारंभान विज्ञाय सर्वान् परित्यजेत् ।
एवं यस्य एते पृथिवीकर्मसमारम्भाः पृथिवीविषयाः खननकृष्यादिरूपाः सायद्यक्रियाविशेषाः परिज्ञाता भवन्ति-ज्ञपरिशया कर्मबन्धहेतुत्वेन विज्ञाताः, तथा प्रत्याख्यानपरिक्षया परित्यक्ता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा-विदितपरित्यक्तंसकलसावधक्रियाविशेपः मुनिर्भवति, न त्वपरो द्रव्यलिङ्गीत्यर्थः । इति ब्रवीमिःयथा भगवता कयितं तथा कथयामीत्यर्थः ।। सू०७॥
॥ इति शस्त्रपरिज्ञाध्ययने द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ १-२॥
पृथ्वीकायसमारंभ को जानकर सबका त्याग करना चाहिए।
. इस प्रकार जो पुरुष पृथ्वीकायसम्बन्धी खोदना जोतना आदि सावध व्यापारो ___ को अपरिज्ञा से कमबंध का कारण समझता है, और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उन का
त्याग कर देता है वही परिजातकर्मा और सकल सावध क्रियाओं को जानने वाला पुरुष मुनि कहलाता है, सिर्फ द्रव्यलिंगी मुनि नहीं कहलाता । 'त्तिवेमि' भगवान्ने जैसा कहा है वैसा ही में कहता हूँ ।। ७ ।।
आचाराग-मूत्र की आचारचिन्तामणि-टीका के हिन्दी-अनुवादमें शस्त्रपरिज्ञानामक प्रथम अध्ययनका द्वितीय उद्देश
समाप्त ॥ १-२॥
દથી સત્તાવીસ પ્રકારના પૃથ્વીકાયના સમારંભને જાણ કરીને સર્વને ત્યાગ કરે જોઈએ.
આ પ્રમાણે જે પુરૂષ પૃથ્વીકાયસમ્બન્ધી દવું, ખેડવું આદિ સાવધ વ્યાપારને પરિણાથી કમબંધનું કારણ સમજે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી તેને ત્યાગ કરી દે છે, તે પશ્તિાતકમાં અને સકલસાવધક્રિયાઓને જાણવાવાળા પુરૂષ મુનિ કહેવાય છે, માત્ર વ્યલિંગી મુનિ કહેવાતા નથી. ભગવાને જેવું કહ્યું છે, એવું જ હું કહું છું કેળા
આચારાંગ સુત્રની આચારચિંતામણિ ટીકાના ગુજરાતી અનુવાદમાં શઅપરિજ્ઞાનામક પ્રથમ અધ્યયનને બીજો ઉદ્દેશ
सभात थया ॥१-२॥
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आचाराने
टीकाअत्र पृथिवीकाये शस्त्रं-स्वकायपरकायादिकम् असमारभमाणस्य-अन्यापारयतः इत्येते पूर्वोक्ता आरम्भा: सावधक्रियाविशेपाः परिज्ञाता भवन्ति । ज्ञपरिज्ञया सर्वान् पृथिवीकायसमारम्भान् कर्मबन्धहेतुत्वेन अनन्तनरकनिगोदादिदुःखजनकत्वेन च परिज्ञाय चारित्ररूपमोक्षमार्गे . प्रवर्तत इति भावः । उपसंहारमाह
तत् पृथिवीकायसमारम्भणं परिज्ञाय बन्धहेतुत्वेनावयुध्य मेधावीसदसद्विवेकी पृथिवीशत्रं द्रव्यभावरूपं स्वयं नैव समारभते अपि च-अन्यरपि पृथिवीशस्त्रं नैत्र समारम्भयति, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् नैव समनुजानाति । एवं मनोवाकायभेदेनातीतानागतवर्तमानकालभेदेन च पृथिवीकाय
टीकार्थ-पृथिवीकाय में स्वाय परकाय आदि शस्त्रों का आरंभ न करने वाले को यह पूर्वोक्त सावधव्यापाररूप आरंभ ज्ञात होता है । इन आरंभों को जानने वाला अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से पृथिवीकायसबंधी आरंभों को कर्मबंध का कारण तथा अनन्त नरक निगोद के दुःखो का कारण जानकर चारित्ररूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होता है । उपसंहार करते हैं
पृथ्वीकाय के आरंभ को बंधका कारण जानकर बुद्धिमान् सत् असत् का भेद समझने वाला, द्रव्य-भावरूप पृथ्वीशस्त्रका स्वयं व्यापार नहीं करता, दूसरे से व्यापार नहीं कराता और व्यापार करने वाले की अनुमोदना भी नहीं करता । इसी प्रकार मन, वचन, काय के भेद से और अतीत, अनागत, वर्तमान काल के भेद से सत्ताईस प्रकार के
ટીકાથ–પૃથ્વીકાયમાં સ્વકાય પરકાય આદિ શરને આરંભ નહિ કરવાવાળાને એ પૂર્વોક્ત સાવધ વ્યાપાર૫ આરંભની ખબર હોય છે, તે આરંભેને જાણવાવાળા અર્થાત
પરિણાથી પૃથ્વીકાયસમ્બન્ધી આરંભેને કમબંધનું કારણ, તથા અનન્ત નરક નિગોદના હનું કારણ જાણીને ચારિત્રરૂપ મોક્ષમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. હવે ઉપસંહાર કરે છે--
પૃથ્વીકાયના આરમ્ભને બંધનું કારણ જાણીને બુદ્ધિમાન સત-અસના ભેદને જાણવા-સમજવાવાળા, કવ્યભાવરૂપ પૃથ્વીને પિતે વ્યાપાર કરતા નથી બીજા પાસે વ્યાપાર કરાવતા નથી, અને વ્યાપાર કરવાવાળાને અનુમોદન પણ કરતા નથી. આ પ્રમાણે મન, વચન, કાયાના ભેદથી, અને ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ, વર્તમાનકાળના
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आचारचित्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ उपक्रम
सर्वविरतिरूपं पदं प्राप्तो मुनिः पृथिवीकायादिसूक्ष्मजीवसमारम्भनिवृत्त्यादिकर्तव्यतायामल्पीयोऽपि प्रमादजातं स्खलनं समुपेक्षते चेत् तर्हि पुनस्तत्राधिकतरं स्खलनं कर्तुं न लज्जते, तथाविधनियमानुसारिणी हि मनोवृत्तिः, अतः स्वल्पमपि संयमतः स्वलनं यथा न भवेत् तथा प्रयवितव्य मुनिमिः ।
अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते--
केनचिद् बाल्यावस्थायामन्यस्य कपर्दिकामाचं स्तेयवृत्त्याऽपहृत्य स्वमातुरो निहितम् । माता तदवलोक्य हृष्टा सती तस्मै मधुरं वस्तु ददौ । अप पुनः पुनः स्तेयकर्मणि प्रवृत्तः स्वमावहस्तात् पारितोपिकं प्राप्तः क्रमेण योग्यता दिखलाते हैं-सर्वविरतिरूप पदको प्राप्त मुनि पृथिवीकाय आदि छोटे-छोटे जीवों के आरंभ का त्याग करने में यदि प्रमाद के कारण थोडे से भी स्खलन की उपेक्षा करता है तो फिर और अधिक स्खलन करने में भी संकोच नहीं करता। मनोवृत्ति का ऐसा ही नियम है कि-गिरी सो गिरती ही जाती है, अत एव मुनियों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए ___कि, जिस से संयम में तनिक भी स्खलन न हो।
इस विषय में दृष्टान्त कहते हैं
किसी बालकने अपनी बाल्यावस्था में एक कौडी चुराकर अपनी माता के पास रख दी। माता उसे देखकर हर्पित हुई और उसने इनाम के तौर पर बालक को मोठी चीज दी। इस के बाद वह चारबार चौरी करने लगा और अपनी माता के हाथ से पारितोषिक प्राप्त करने लगा। धीरे-धीरे वह ताम्रपण (तांवे का सिका) कार्यापण બતાવે છે–સર્વવિરતિરૂપ પદને પામેલા મુનિ પૃથ્વીકાય આદિ નાના-નાના જીવોના આરબને ત્યાગ કરવામાં જે પ્રમાદના કારણે ડાં પણ ખલન (ગુટી)ની ઉપેક્ષા કરે છે. તે ફરીને વધારે અલન કરવામાં પણ સંકેચ કરતા નથી. મને વૃત્તિનો એજ નિયમ છે કે-નીચે પડવા પછી વધારે નીચે પડી જાય છે. એ કારણથી મુનિઓએ એ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ કે જેનાથી સંયમમાં થોડું પણ ખલન નહીં હોય.
આ વિષયમાં દષ્ટાન્ત કહે છે –
કેઈ બાળકે પિતાની બાલ્યાવસ્થામાં એક કેડી ચેરીને પિતાની માતાની પાસે રાખી દીધી; માતા તેને જોઈને રાજી થઈ અને તેને ઈનામ આપવાના ઢંગથી બાળકને માઠી વસ્તુ આપી. ત્યાર પછી તે બાળક વારંવાર ચેરી કરવા લાગ્યા. અને પિતાની માતા પાસેથી (માતાના હાથથી) ઈનામ મેળવવા લાગ્યા. ધીરે ધીરે ને તામ્રપર્ણ-ત્રાંબાના
म. मा-५९
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४६४
आचारासो अय तृतीयो शः। द्वितीयोदेशे पृथिव्याः सचित्तत्वं तत्र पृथक्पृथगनेकपृथिवीकायजीवाश्रितस्वं च प्रसाधितम्, तस्य हिंसया फर्मवन्धो भवतीत्युक्तम् , अन्ततश्च पृथिवीकायजीवहिंसानियत्या मुनिर्भवतीति सिद्धान्तितम् । इदानीमपां सचित्तत्वमनेकाप्कायजीवाश्रितत्यं वोधयता भगवताऽपकायहिंसया पटकायजीवहिंसासंपातात् कर्मबन्धो भवति, तथाऽपकायहिंसानिमृत्या च मुनित्वं सभ्यत इति बोधयितुं तृतीयोदेशः प्रारम्यते'से वेमि' इत्यादि । __ अकायजीवस्वरूपविचारणायां प्रथममनगारस्य योग्यता दर्शयति
तीसरा उद्देश द्वितीय उद्देशक में पृथिवी की सचित्तता सिद्ध की और पृथिवी में पृथक्-- पृथक् अनेक पृथिवीकाय के जीवों का रहना सिद्ध किया। यह भी बतलाया जा चुका है कि-उन जीवों की हिंसा करने से कर्म का बंध होता है। अन्त में यह भी प्रमाणित किया है कि-पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा का त्याग करने से मुनि होता है । अब यह बतलाते हैं कि-अप्काय सचित्त है, अनेक अप्काय के जीवों से आश्रित है और अपकाय की हिंसा से पटकाय के जीवों की हिंसा होती है और अप्काय की हिंसा का त्याग करने वाला मुनिपन पाता है। यह सब बतलाने के लिए तीसरा उद्देश आरंभ किया जाता है-'से बेमि' इत्यादि।
अप्काय के जीवों के स्वरूप का विचार करते हुए सर्व प्रथम अनगार की
ત્રીજે ઉદ્દેશકબીજા ઉદ્દેશકમાં પૃથ્વીની સચિત્તતા સિદ્ધ કરી છે. અને પૃથ્વીમાં જુદા-જુદા અનેક પૃથ્વીકાયના જ રહે છે તે સિદ્ધ કર્યું છે. એ પણ બતાવવામાં આવ્યું છે કે તે જીવોની હિંસા કરવાથી કમને બંધ થાય છે. અન્તમાં એ પણ પ્રમાણિત કર્યું કે પૃથ્વીકાયના જીવોની હિંસાને ત્યાગ કરવાથી મુનિ થાય છે. હવે તે બતાવે છે કે -અપકાય સચિન છે, અનેક અપકાયના જીથી આશ્રિત છે, અને અપકાયની હિંસાથી પકાયના છની હિંસા થાય છે, અને અપૂકાયની હિંસાને ત્યાગ કરવાવાળા મુનિપર્ણને પામે છે. से सब मतावा भाटे त्रील देशानभार ४२पामा मावे छ:-'सेबेमि' त्या.
અપકાયના જીવોના સ્વરૂપને વિચાર કરતા થકા સૌથી પ્રથમ અણુગારની યોગ્યતા
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आचारचित्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ उपक्रम
४६५ सर्वविरतिरूपं पदं प्राप्तो मुनिः पृथिवीकायादिसूक्ष्मजीवसमारम्भनिहत्त्यादिकर्तव्यतायामल्पीयोऽपि प्रमादजातं स्खलनं समुपेक्षते चेत् तर्हि पुनस्तत्राधिकतरं स्खलनं कतुं न लज्जते, तथाविधनियमानुसारिणी हि मनोत्तिः, अतः स्वल्पमपि संयमतः स्वलनं यथा न भवेत् तथा प्रयतिवव्यं मुनिमिः ।
अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते
केनचिद् बाल्यावस्थायामन्यस्य कपर्दिकामा स्तेयवृत्याऽपहृत्य स्वमातुरग्रे निहितम् । माता तदवलोक्य हृष्टा सती तस्मै मधुरं वस्तु ददौ । अब पुनः पुनः स्तेयकर्मणि महत्तः स्वमावहस्तात् पारितोपिकं माप्तः क्रमेण योग्यता दिखलाते हैं-सर्वविरतिरूप पदको प्राप्त मुनि पृथिवीकाय आदि छोटे-छोटे जीवों कार्रम का त्याग करने में यदि प्रमाद के कारण थोडे से भी स्खलन की उपेक्षा करता है तो फिर और अधिक स्खलन करने में भी संकोच नहीं करता। मनोवृत्ति का ऐसा ही नियम है कि-गिरी सो गिरती ही जाती है, अत एव मुनियों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि, जिस से संयम में तनिक भी स्खलन न हो।
इस विषय में दृष्टान्त कहते हैं
किसी बालकने अपनी बाल्यावस्था में एक कौडी चुराकर अपनी माता के पास रख दी। माता उसे देखकर हर्पित हुई और उसने इनाम के तौर पर बालक को मोठी चीज दी। इस के बाद वह पारवार चौरी करने लगा और अपनी माता के हाथ से पारितोपिक प्राप्त करने लगा। धीरे-धीरे वह ताम्रपण (तांवे का सिक्का) कापिण
તાવે છે-સર્વવિરતિરૂપ પદને પામેલા મુનિ પૃથ્વીકાય આદિ નાના-નાના જીના આરંભ ત્યાગ કરવામાં જે પ્રમાદના કારણે થોડાં પણ ખલન (ગુટી)ની ઉપેક્ષા કરે છે તો ફરીને વધારે ખલન કરવામાં પણ સંકોચ કરતા નથી. મને વૃત્તિને એવો જ નિયમ છે કે નીચે પડવા પછી વધારે નીચે પડી જાય છે. એ કારણથી મુનિઓએ એવા પ્રયત્ન કરે જોઈએ કે જેનાથી સંયમમાં થોડું પણ ખલન નહીં હોય.
આ વિષયમાં દાન્ત કહે છે
ઈ બાળકે પિતાની બાલ્યાવસ્થામાં એક કેડી ચેરીને પિતાની માતાની પાસે રાખી દીધી; માતા તેને જોઈને રાજી થઈ અને તેને ઈનામ આપવાના ઢંગથી બાળકને મીઠી વસ્તુ આપી. ત્યાર પછી તે બાળક વારંવાર ચોરી કરવા લાગે. અને પોતાની માતા પાસેથી (માતાના હાથથી) ઈનામ મેળવવા લાગ્યા. ધીરે ધીરે તે તામ્રપણુ-ત્રાંબાના
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भचारपत्रे
ताम्रपण-कार्यापण - रूप्यक- दीनार रत्न- स्पर्ण - मणि- माणिक्यादिहरणमवीणः कस्यचिन्तृपस्य कोशागारं मविष्टः । ततः प्रचण्डजदण्डकेस्तद्रक्षकैः सघोषणं धृतो राजान्तिकं समानीतः । सदपराधं विज्ञाय क्रोधाविष्टेन राज्ञा समादिष्टम्-अयं चौरः शुले समारोप्यताम् इति ।
असौ पृष्टव राज्ञा तव काचिदिच्छा वर्तते १ चेद् ब्रूहि । चौरेणोक्तम्राजन् । स्वमातुर्मिलनं प्रार्थयेः । अथ नृपाज्ञया तज्जननी तत्रागत्य मिलिता । स चौरस्तत्र राज्ञः सममेव सवेगमुत्थाय सत्वरं मातुर्नासिकां दन्तैविच्छेद् । ततोऽसौ राज्ञा पृष्टः त्वया कथमेवं दुखरितमाचरितम् १। चौरोऽवदत्-इयमेव ममै
( चौअन्नी) रुपया, दीनार (सुवर्ण - मुहर ), रन, सुवर्ण, मणि, माणिक आदि चुराने में भी प्रवीण हो गया | वह किसी राजा के खजाने में घुसा। खजाने के बलवान् पहरेदारो ने उसे पकड़ लिया और राजा के सामने पेश किया। राजा उसका अपराध सुनकर क्रोधित हुमा, उसने आज्ञा दी -' इस चोर को शूली पर चढा दो' |
राजाने उस से पूछा- अगर तुम्हारी कोई इच्छा हो तो कहो ।
चोरने कहा-' महाराज | मैं अपनी माता से मिलने की प्रार्थना करता हूँ ।
राजा की आज्ञा से चोर की माता वहाँ आकर मिली । चौरने राजा के सामने ही वेग के साथ उठ कर जल्दी से अपनी माता की नाक दांतों से काटली । यह देखकर राजाने पूछा- अरे ! तूंने यह दुष्कर्म क्यों किया !
सिला, यार मानी, ३पिया, सोना भहोर, रत्न, सोनु, भषि, भाषेत माहि योश्वाम પણ પ્રવીણ થઈ ગયા. ( કેટલાક સમય જતા ) તે કેાઈ રાજાના ખજાનામાં ઘુસી ગયેા. ખજાનાના અલવાન્ પહુરદ્વારા રક્ષકાએ તેને પકડી લીધે અને રાજાની સામેહાજર કર્યાં. રાજા તેના અપરાધ સાંભળીને ક્રોધાયમાન થયા, અને આજ્ઞા આપી કે એ ચારને શૂલી પર ચઢાવી દ્યો!
શાએ તેને પૂછ્યું કે તારી કાંઈ ઇચ્છા હાય તા કહે.
ચારે કહ્યું મહારાજ! હું મારી માતાને મળવાની પ્રાર્થના કરૂ છુ
રાજાની આજ્ઞાથી ચારની માતા ત્યાં આગળ આવી. અને ચારને મળી, ચારે રાજાના સામેજ વેગથી એકદમ ઉઠીને જલ્દીથી પાતાની માતાનું નાક પાતાના દાંતથી કાપી લીધું, તે જોઈને રાજાએ પૂછ્યું અરે! તે આવું દૂધકમ શા માટે કર્યું ?
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ सू. १ उपक्रम
४६७ तघोरतरदुःखमदशलारोपणफलमदात्री माणापही, न तु भवान् । इत्युक्त्वा सर्व पूर्वहत्तं राज्ञे विज्ञापयामास । ततः स्वकृतस्यकर्मणो विपाक शुलारोपेण योरतरवेदनां प्राप्नुवन्मतः । तस्मात् स्वल्पोऽपि दोपो महानाय भवतीति विज्ञायात्माधिभिर्मुनिमिः संयमतः स्वल्पमपि स्वलनं यथा न भवेत् तथा वर्तितव्यम् ।
— तपःसंयमे कदाचिदाकस्मिकस्खलनसंपातस्त्वन्य एव, स्खलनोपेक्षणमप्यन्यदेव, यतः स्खलनोपेक्षया पुनरुत्तरोत्तरस्खलनद्धया साधुत्वमेव नश्यतीति विचिन्त्य जागरूकाः साधयो नवनवागन्तुकस्वलनपरंपराविरहिताः पूर्वजावस्खलन
चोर-महाराज ! इसी के कारण मुझे घोर दुःख देने वाली शूली पर चढना पड रहा है। यही मेरे प्राण लेने वाली है, आप नहीं । यह कह कर चोरने अपना सम्पूर्ण पूर्व-वृत्तांत राजा को सुना दिया।
तत्पश्चात् अपने किये चौर्य कर्म का घोरवेदनारूप फल-शूली पर चढनेरूप-को भोगता हुआ वह चोर मर गया। ___मत एव थोडा-सा भी दोष महान् अनर्थ का कारण बन जाता है, ऐसा समझकर आत्मकल्याण के अभिलापी मुनियों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जिस से संयम में तनिक भी स्खलन न हो।
तप और संयम में कदाचित् अकस्मात् स्खलना की बात दूसरी है किन्तु स्खलना की उपेक्षा करना और बात है, उस का कारण यह है कि स्खलना की उपेक्षा करने से उत्तरोत्तर स्खलना बढती ही चली जाती है, ऐसा विचार करके सदैव सावधान
ચર કહે મહારાજ ! એ માતાના કારણે જ મારે ઘેર દુઃખ આપવાવાળી શૈલી ઉપર ચઢવાનું થાય છે, એ મારો પ્રાણ લેવાવાળી છે, આપ નહિ. આ પ્રમાણે કહીને ચારે પિતાની આગળની સંપૂર્ણ હકીકત રાજાને સંભળાવી. તે પછી પિતાનું કરેલ ચોરીનું કમનું ઘરદનારૂપ ફલ-શૂલી પર ચઢવાનું, તે ભગવત થકે તે ચેર મરણ પા.
એટલે કે ડે પણ દેષ મહાન અનર્થનું કારણ બની જાય છે. એ પ્રમાણે સમજીને આત્મકલ્યાણના અભિલાષી મુનિઓએ એ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ કે, જેનાથી સંયમમાં ડુંક પણ ખલન ન થાય.
તપ અને સંયમમાં કે વખત અકસ્માતુ ખલનની વાત જુદી છે. પણ ખલનની ઉપેક્ષા કરવી તે બીજી વાત છે. તેનું કારણ એ છે કે-ખલનની ઉપેક્ષા કરવાથી ઉત્તરોત્તર ખલન (ભલ) વધતું જ જાય છે. એ વિચાર કરીને સદૈવ-ન્હમેશાં સાવધાન રહેવાવાળા
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भाचारपत्रे
ताम्रपण-कार्यापण - रूप्यक- दीनार - रत्न - स्पर्ण-मणि- माणिक्यादिहरणप्रवीणः कस्यचिन्नृपस्य कोशागारं प्रविष्टः । ततः प्रचण्डभुजदण्डकेस्तद्रक्षकैः सघोषणं धृतो राजान्तिकं समानीतः । तदपराधं विज्ञाय क्रोधाविष्टेन राज्ञा समादिष्टम् - अयं चौरः शूले समारोप्यताम्, इति ।
असौ पृथ राज्ञा - तब फाचिदिच्छा वर्तते ? चेद् ब्रूहि । चौरेणोक्तम्राजन् ! स्वमातुर्मिलनं प्रार्थयेः । अथ नृपाज्ञया तज्जननी तत्रागत्य मिलिता । स चौरस्तत्र राज्ञः समक्षमेव सवेगमुत्थाय सत्वरं मातुर्नासिकां दन्तैश्चिच्छेद् । ततोऽसौ राज्ञा पृष्टः-त्वया कथमेवं दुश्चरितमाचरितम् १ | चौरोऽवदत्- इयमेव ममै
(चौअन्नी) रुपया, दीनार (सुवर्ण-मुहर), रान, सुवर्ण, मणि, माणिक आदि चुराने में भी प्रवीण हो गया । वह किसी राजा के खजाने में घुसा । खजाने के बलवान् पहरेदारों ने उसे पकड़ लिया और राजा के सामने पेश किया । राजा उसका अपराध सुनकर क्रोधित हुआ, उसने आज्ञा दी --' इस चोर को शूली पर चढा दो' |
राजाने उस से पूछा -- अगर तुम्हारी कोई इच्छा हो तो कहो ।
चोरने कहा - ' महाराज ! मैं अपनी माता से मिलने की प्रार्थना करता हूँ ।
राजा की आज्ञा से चोर की माता वहाँ आकर मिली । चौरने राजा के सामने ही वेग के साथ उठ कर जल्दी से अपनी माता की नाक दांतो से काटली । यह देखकर राजाने पूछा- भरे ! तूंने यह दुष्कर्म क्यों किया ?
सिद्धा, यार खानी, ३भिया, सोना भडोर, रत्न, सोनुं, भषि, भाषे आहि योरवामां પશુ પ્રવીણ થઈ ગયા. ( કેટલેાક સમય જતા ) તે કેઇ રાજાના ખજાનામાં ઘુસી ગયા. ખજાનાના અલવાન્ પહેરેદારી રક્ષકાએ તેને પકડી લીધા અને રાજાની સામે હાજર કર્યાં. રાજા તેના અપરાધ સાંભળીને ક્રોધાયમાન થયા, અને આજ્ઞા આપી કે એ ચારને શૈલી પર ચઢાવી દ્યો!
રાજાએ તેને પૂછ્યુ કે તારી કાંઈ ઇચ્છા હોય તે કહો.
ચારે કહ્યું-‘મહારાજ! હું મારી માતાને મળવાની પ્રાર્થના કરૂ છું.
રાજાની આજ્ઞાથી ચારની માતા ત્યાં આગળ માવી. અને ચારને મળી, ચારે રાજાના સામેજ વેગથી એકદમ ઉડીને જલ્દીથી પોતાની માતાનું નાક પાતાના ઢાંતથી કાપી લીધું, તે જોઈને રાજાએ પૂછ્યું-અરે! તેં આવું કક્ષકમાં શા માટે કર્યું
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उं. ३ मूं. १ अनगारलक्षणम्
પ્ર
श्रुतं तत् कथयामि । स पृथिवीकायशखमसमारभमाणः परिज्ञात पृथिवीकर्मसमारम्भो यथा संपूर्णेऽनगारो भवति, अपिच - यथाऽनगारो न भवति, तद् द्वयमपि वीमि वक्ष्यति च - ' अणगारामोति एगे पवयमाणा ' इत्यादि । सावद्यक्रियाया गृहाश्रयत्वाद् गृहपरित्याग एवं मुनित्वे प्रधानकारणमिति बोधनाय साध्वादिशब्दं परित्यज्य 'अनगार 'शब्दोपादानम् । कथं सर्वथाऽनगारो भवति ?
,
इत्याकाङ्क्षायामाह---
'उज्जुकडे ' इति, ऋजुकृतः, अर्जयति क्षान्त्यादिगुणानिति ऋजुः । यद्वा- अर्जयति - सकलपाणिगणहितं दयास्वभावमिति ऋजुः । यदिवा - अर्जयति = यथास्थितात्मस्वरूपं ापयतीति ऋजुः । यद्वा- अर्जयति मापयति शाश्वतिकं प्रकार पूर्ण अनगार होता है, और जिस प्रकार पूर्ण अनगार नहीं होता, ये दोनों बातें मैं कहता हूँ - 'अगगारा मोति एगे पत्रयमाणा' इत्यादि सूत्र में आगे कहा जायगा ।
गृह में खावयक्रिया अवश्य होती है, अत एव गृह का त्याग करना ही मुनिपन का प्रधान कारण है । यह बात प्रकट करने के लिए साधुवाचक अन्य शब्द छोडकर यहाँ अनगार शब्द का प्रयोग किया है। पूरा अनगार किस प्रकार बनता है, एसी भाकांक्षा
होने पर कहने हैं - 'उज्जुकड़े' इति ।
उज्जुकडे का संस्कृत रूप है 'ऋजुकृतः । क्षमा आदि गुणों को उपार्जन करने वाला ऋजु कहलाता है । अथवा समस्त प्राणियों के हितरूप दया को उपार्जन करने वाला ऋजु कहलाता है । अथवा आत्मा को अपने असली स्वरूप पर पहुंचाने
જાણુવાવાળા પુરૂષ, જે પ્રમાણે પૂર્ણ અણુગાર થાય છે અને જે પ્રમાણે પૂર્ણ અણુगार नथी थता, ते जन्ने पाता हुँ उडु -- 'अणगारा मोति एगे पवयमाणा' इत्याहि સૂત્રમાં આગળ કહેવામાં આવશે.
ઘરમાં સાવક્રિયા અવશ્ય થાય છે એટલા માટે ઘરને ત્યાગ કરવા તેજ મુનિ પણાંનુ' પ્રધાન કારણ છે એ વાત પ્રગટકરવા માટે સાધુવાચક અન્ય સબ્દ ત્યજીને खडि 'अनगार' शब्दो प्रयोग यो छे पूरा अथुगार देवी शेते जने छे, सेवी छाधवाय हे 'उज्जुकडे ' धृति.
3 उज्जुकडे 'नु' संस्कृत ३५ ' ऋतुकृत થાય છે. ક્ષમા આદિ ગુણેાનું ઉપાર્જન કરવાવાળા ઝુ (સરલ-સિધા) કહેવાય છે અથવા સમસ્ત પ્રાણીએના હિતરૂપ દયાને ઉપાર્જન કરવાવાળા શત્રુ કહેવાય છે. અથવા આત્માને અસલ સ્વરૂપ સુધી પહાંચડવા
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आंचारामले दोपमपनेतुं शक्नुवन्ति । तदेव विशदयन् सुधर्मा स्वामी पाह-'से बेमि' इत्यादि ।
द्वितीयोदेशसमाप्तौ " जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मा" इत्युक्तम् । अधुना तु-न च तायवेव सर्वथा मुनिभवितुमहेति। यथा भवति तथा दर्शयितुं श्रीमधर्मा स्वामी माह-' से वेमि' इत्यादि ।
॥ मूलम् ॥ से वेमि-से जहावि अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवण्णे अमायं कुबमाणे वियाहिए ॥ सू०१॥
॥छाया ॥ तद् ब्रवीमि स यथापि अनगार ऋजुकृतः नियागपतिपन्नः अमायां कुर्वाणो व्याख्यातः ॥ सू० १॥ .
॥टीका ॥ ' से वेमि' इत्यादि । तद् ब्रवीमि यदन्यच्च भगवदन्तिके मया रहने वाले साधु नयी-नयी होने वाली स्खलना के दोपों से बच सकते हैं । यही बात स्पष्ट करते हुए सुधर्मा स्वामी आगे कहते हैं-'से वेमि' इत्यादि।
मूलार्थ (भगवान् के मुखारविन्द से जो सुना है,) सो कहता हूँ-ऋजुकृतः मोक्षमार्ग में प्राप्त और माया न करने वाला अनगार कहा गया है । सू. १ ॥
टोकार्थ--भगवान् के समीप और भी जो सुना है वह कहता हूँ । पृथ्वीकाय के विषय में शस्त्र का आरंभ न करने वाला पृथ्वीकाय के आरंभ को जानने वाला पुरुष जिस સાધુ-નવી નવી થવાવાળી સ્કૂલના દોષથી બચી શકે છે, એ વાત સ્પષ્ટ કરીને सुधा स्वामी भासण ४३ छ-' से बेमि' त्यादि
બીજા ઉદ્દેશકની સમાપ્તિમાં કહ્યું હતું કે-જે પુરૂષ પૃથ્વીકાયના આરંભ જાણીને તેને ત્યગ કરી આપે છે, તે મુનિ છે. અહિં એ બતાવવામાં આવે છે કેઆટલું કરવા માત્રથી જ કેઈ પૂરી રીતે મુનિ થઈ શકતા નથી, મુનિ થવાને માટે બીજી -२२वातानी (anant) सापश्यता छ, तेने सुधा स्वामिछ-'से वेमि' त्यादि.
भदा--(भगवानना भुमारविजयी २ सयु) ते ४ई छु.- . શકત, મોક્ષમાર્ગમાં પ્રાપ્ત અને માયા નહિ કરવાવાળા અણગાર કહ્યા છે (૧)
थ-सापानी पासपी मीनु परे समायुछे, ते.छु:પૃથ્વીકાયના વિષયમાં શરૂને આરંભ નહિ કરવાવાળા, પૃથ્વીકાયના આરંભને
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आचार चिन्तामणि- टीका अध्य० १ उ. ३ मुं. २ अनगारलक्षणम्
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तथा नियागमतिपन्नः, नि-निश्वयेन यजति सम्यग्गमनं कुर्वन्ति यत्र स नियाग: = मोक्षमार्गः ज्ञानक्रियालक्षणः । यद्वा-नि-निश्रयेन यजति ददाति सिद्धिगतिमिति नियागः क्षान्त्यादिदशविधो यतिधर्मः तं प्रतिपन्नः प्राप्तः ।
1
arr 'अमायां कुर्वाणः ' मायावीर्याचारसंगोपनं परवञ्चनं वा, न माया अमाया, तो कुर्वाणः अनगारो व्याख्यातः = मगवता कथितः ।
अयं भावः न केवलं पृथिवीशस्त्रसमारम्भमात्रनिवृत्या नगारो भवति किन्तु यः खलु पृथिवीशस्त्रसमारम्भनिवृत्तः परिज्ञातसकलसावधकर्मा निरव
are 'नियागप्रतिपन्न' शब्दका अर्थ करते हैं । 'नि' अर्थात् निश्चय से 'याग' अर्थात् सम्यक् गमन जहाँ किया जाता है उसे 'नियाग' या मोक्षमार्ग कहते है। ज्ञान और क्रिया मोक्ष का मार्ग है ।
अथवा 'नि' अर्थात् निश्चय से 'याग' अर्थात् सिद्विगति देने वाला क्षमा मादि दश प्रकार का यतिधर्म 'नियाग' कहलाता है, एसे नियाग को जो प्राप्त हो चुका हो वह नियागमतिपत्र है ।
तथा माया अर्थात् वीर्याचर का गोपन करना या दूसरे को गोखा देना माया है। इस माया का सेवन न करने वाला जो वही अनगार है, एसा भगवान् ने कहा है ।
तात्पर्य यह है कि केवल पृथ्वीरात्र के आरंभ का व्याग कर देने मात्र से ही कोई अनगार नहीं हो जाता, वरन् जो पृथ्वीशा के आरंभ का त्याग कर के सकल " याग
?
वे 'नियागप्रतिपन्न' शब्दन। थ ४रे छे. 'नि' अर्थात् निश्चयथी અર્થાત્ સમ્યકૂગમન જ્યાં કરવામાં આવે છે. તેને નિયાગ અથવા માક્ષમાર્ગી કહે છે. ज्ञान भने हिया भोक्षनो भार्ग छे. अथवा 'नि' अर्थात् निश्चयथी 'या' अर्थात् सिद्धगति भागवावाणी क्षमा याहि इस प्रहारनो यतिधर्भ' ' नियाग' हेवाय छे. सेवा नियागने में प्राप्त थ चूक्ष्या छे, ते नियागप्रतिपन्न है तथा भाया अर्थात् વીર્યોચરનું ગાપન કરવું અથવા માને ધાખા દેવે તે માયા છે. તે માયાનું સેવન નહિ કરવાવાળા જે હોય તે અણુગાર છે. એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યુ છે.
તાત્પર્ય એ છે કે કેવલ પૃથ્વીશસ્ત્રના આરબના ત્યાગ કરી દેવા માત્રથીજ કઇ અણુગાર થતા નથી. પરન્તુ જે પૃથ્વીશસ્ત્રના આરંભને ત્યાગ કરીને, સકલ સાવદ્ય કર્મોના
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आंधाराङ्गो शिवस्थानमिति - ऋजुः - विपमभावरहितत्वाद दुष्प्रणिहितमनोवाकायनिरोधरूपः संयमः, स कताअनुष्ठितो येन स ऋजुकृत:-मनोवाकायजन्यसकलसावधक्रियानिहत्त इत्यर्थः । ।
यद्वा-संपूर्णसंवरस्वरूपसंयमेन संयमिना मोक्षस्थानगमनाथै ऋजुगतिः प्राप्यते, तत्र ऋजुगतेः कारणं संयम इति कारणे कार्योपचारात्समदशविध संयमोऽपि ऋजुरित्युच्यते, स कता-समाचरितो येनासी प्रजुकृतः कृतसंपूर्णसंयमानुष्ठान इत्यर्थः । .
वाला ऋजु फहलता है । अथवा आत्मा को शाश्वत मोक्षस्थान पर पहुँचाने वाला ऋजु कहलाता है । अथवा ऋजु का अर्थ है-संयम । मन, वचन, काय के खोटे व्यापार को रोकनारूप संयम है । जिस ने एसा व्यापार रोक दिया है वह भाजुकृत कहलाता है । अर्थात् जो मन, वचन और काय से होने वाली समस्त सावध क्रियाओं से निवृत्त हो गया हो वह 'अजुकृत' है।
अथवा- सम्पूर्णसंवररूप संयम के द्वारा संयमी मोक्ष में गमन करने के लिए ऋजुगति प्राप्ति करता है । इस ऋजुगति का कारण संयम है । अतः कारण में कार्य का उपचार करने से सत्रह प्रकार का संयम भी 'ऋजु' कहलाता है। उस 'ऋजु' अर्थात् संयम का जिसने आचरण किया हो वह 'ऋजुकृत' कहलाता हैं। तात्पर्य यह है कि पूर्ण संयम का अनुष्ठान करने वाला ऋजुकृत है।
વાળા નું કહેવાય છે. અથવા આત્માને શાશ્વત માક્ષસ્થાન પર પહોંચાડવાવાળા
કહેવાય છે. અથવા જુને અર્થ છે સંયમ-મન, વચન અને કાયના ખોટા व्यापारने २४५। ३५ संयम छ.गरी सेवा व्यापार सही माया छ'ऋजुकृत' કહેવાય છે. અર્થાત્ જે મન, વચન અને કાયાથી થવાવાળી સમસ્ત સાવધ ક્રિયાसाथी निवृत्त 45 गया डाय ते जुक्त छ. . .
અથવા–સંપૂર્ણસંવર&ય સંયમ દ્વારા સંયમી માં ગમન કરવા માટે જગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે જુગતિનું કારણે સંયમ છે. તેથી કારણમાં કાર્ય ઉપચાર કરવાથી સાર (૧૭) પ્રકારનો સંયમ પણ “ઝુ” કહેવાય છે તે જુ यात संयभनु भा५२६ ४थुछ व 'जुकृत' ४३वाय . तात्पर्य है f-संयम अनुष्ठान ३२५वा अजुकृत' . . .
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आचार चिन्तामणि- टीका अध्य० १ उ. ३ मुं. २ अनगारलक्षणम्
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तथा नियागमतिपन्नः, नि-निश्वयेन यजति सम्यग्गमनं कुर्वन्ति यत्र स नियागः = मोक्षमार्गः ज्ञानक्रियालक्षणः । यद्वा-नि-निश्येन यजति ददाति सिद्धिगठिमिति नियागः क्षान्त्यादिदशविधो यतिधर्मः तं प्रतिपन्नः प्राप्तः ।
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तया 'अमायां कुर्वाणः ' मायावीर्याचारसंगोपनं परवञ्चनं वा न माया अमाया, तां कुर्वाणः अनगारो व्याख्यातः = भगवता कथितः ।
अयं भावः न केवलं पृथिवीशस्त्रसमारम्भमात्रनिवृत्या नगारो भवति किन्तु यः खलु पृथिवीशस्त्रसमारम्भनिवृत्तः परिज्ञातसकलसावधकर्मा निरच
अब 'नियागमतिपन्न' शब्दका अर्थ करते हैं । 'नि' अर्थात् निश्रय से 'याग' अर्थात् सम्यक् गमन जहाँ किया जाता है उसे 'नियाग' या मोक्षमार्ग कहते है । ज्ञान और किया मोक्ष का मार्ग है ।
अथवा 'नि' अर्थात् निश्रय से 'याग' अर्थात् सिद्धिगति देने वाला क्षमा यदि दश प्रकार का यतिधर्म 'नियाग' कहलाता है, एसे नियाग को जो प्राप्त हो चुका हो वह नियागमतिपन्न है।
तथा माया अर्थात् वीर्याचर का गोपन करना या दूसरे को गोखा देना माया है। इस माया का सेवन न करने वाला जो वही अनगार है, एसा भगवान् ने कहा है ।
तात्पर्य यह है कि केवल पृथ्वीरात्र के आरंभ का त्याग कर देने मात्र से ही कोई अनगार नहीं हो जाता, वरन् जो पृथ्वीश के आरंभ का त्याग कर के सकल
याग
वे 'नियागप्रतिपन्न' शब्द अर्थ ४रे छे. 'नि' अर्थात् निश्रयथी અર્થાત્ સમ્યકૂગમન જ્યાં કરવામાં આવે છે. તેને નિયાગ અથવા મેક્ષમાગ કહે છે, જ્ઞાન અને ક્રિયા મેાક્ષના માગ છે. અથવા · નિ' અર્થાત્ નિશ્ચયથી વ્યાપ અર્થાત્ सिद्धगति भागवावाणी क्षमा याहि इस अहारना यतिधर्भ ' नियाग' वा छे. सेवा नियागने ? प्राप्त थ थूझ्या छे, ते नियागप्रतिपन्न छे तथा भाया अर्थात् વીર્યોચરનું ગાયન કરવું અથવા બીજાને ધાખા દેવા તે માયા છે. તે માયાનું સેવન નહિ કરવાવાળા જે હોય તે અણુગાર છે. એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે.
તાત્પર્ય એ છે કે કેવલ પૃથ્વીશરુના આરભના ત્યાગ કરી દેવા માત્રથીજ ફાઇ અણગાર થતા નથી. પરન્તુ જે પૃથ્વીશસ્રના આરંભના ત્યાગ કરીને, સકલ સાવદ્ય કર્મોના
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शेप संयमानुष्ठानमत्तः समाश्रितमोक्षमार्गः कर्पूरखण्डवदन्तर्बडिरेकरूपतया स्ववीर्यसंगोपन-परवञ्चनलक्षणमायाचाररहितो भवति स एव वस्तुतोऽनगारो
बोद्धव्य इति ॥ सू० १ ॥ .
उक्तरूपस्यानगारस्य कर्त्तव्यमाह - ' जाए ' इत्यादि ।
भावारात्म
॥ मूलम् ॥,
जाए सद्धाए निक्वंतो तमेव अणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तियं पुच्त्रसंजोगं ॥ सू० २ ॥
यया
संयोगम् ॥ २ ॥
श्रद्धया
॥ छाया ॥ निष्क्रान्तस्तामेवानुपालयेत् विस्रोतसिकां पूर्व
॥ टीका ॥ विस्रोतसिकां=शङ्कां सर्वशङ्कां देशशङ्कां चेत्यर्थः ।
यया श्रद्धया
सावध कार्यों का ज्ञाता होता है और पूर्ण संयम के अनुष्टान में प्रवृत्त हो, तथा मोक्षमार्ग का आश्रय लेता है । कपूर के टुकडे की भाँति भीतर - बाहर एकंसा 'उज्ज्वल होने के कारण अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता और दूसरों को धोखा नहीं देता अर्थात् मायाचार से रहित होता है, उसी को वास्तव में अनगार समझना चाहिए ॥ सू. १ ॥
"
उक्त प्रकार के अनगार का कर्तव्य बतलाते हैं- 'जाए' इत्यादि ।
मूलार्थ - शङ्का काङ्क्षा आदि का त्याग कर के और पूर्वकालीक संयोगों का त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ निकला है, उसी श्रद्धा का निरन्तर पालन करे ॥ सू. २ ॥
टीकार्थ - - 'विस्रोतसिका' का अर्थ है शङ्का, शङ्का दो प्रकार की हैं (१) सर्वशङ्का જ્ઞાતા—જાણનાર થાય છે. અને પૂર્ણ સંયમનાં અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તથા મેાક્ષ માના આશ્રય લે છે. કપૂરના ટુકડાની માફક અંદર અને મહાર એકજ પ્રકારે ઉજ્વલ હાવાના કારણે પેાતાની શક્તિનું ગૈાપન કરતા નથી. અને બીજાને દગા દેતા નથી. અર્થાત્ માયાચારથી રહિત હાય છે, તેને વાસ્તવિક રીતે અણુગાર સમજવે ોઇએ. (સ. ૧)
पर उद्या तेवा शारनं उतव्य मताचे छे:-' जाए' इत्यादि.
મૂલા—શકા, કાંક્ષા વગેરેના ત્યાગ કરીને અને પૂર્વ કાલના સંચાગાના ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી નિકળ્યા છે, તે શ્રદ્ધાનું નિર ંતર પાલન કરવું. (સૂ. ૨) टीअर्थ- 'विस्रोतसिका'नी संथ है. शंभ, शंभ मे अभारनी है- (१) सर्वशा
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ . २ अनगारकर्त्तव्यम् ४७३ "किमाईतो मार्गोऽस्ति न वा" इति सर्वागमविपियका शङ्का सर्वशङ्का, तथा"किमप्कायादयो जीवाः सन्ति न वा” इति देशशङ्का । ।
। केवलालोकेन विलोक्य भगवता विशिष्य प्रवचने फयितत्वात् अप्कायादयः सन्ति जीवाः, इति पूर्वा कोटिः, चेतनास्पात्मलक्षणस्य सुस्पष्टमनुपलब्धेर्न सन्ति अपकायादयो जीवाः, इत्युत्तरा कोटिः प्रादुर्भवति । पूर्वसंयोगमातापित्रादिसम्बन्ध, धनधान्यस्वजनादिसम्बन्धं वा।
इदमुपलक्षणम्-तेन पचासंयोगमपि श्वशुरादिकृतं विहाय परित्यज्य निष्क्रान्ता अनगारो जातः, तां श्रद्धाम् अनुपालयेदेव निरतिचारं रक्षेदित्ययः । और (२) देशशका । अर्हन्त भगवान द्वारा प्ररूपित मार्ग वास्तव में मोक्षमार्ग है या नहीं ? ऐसी-शंका सर्वशङ्का है । अप्काय आदि के जाव है या नहीं ? ' यह देश
-
___ भगवान्ने केवल ज्ञान से देखकर प्रवचन में अप्काय आदि के जीवों का अस्तित्व प्रगट किया है, यह शङ्का की पूर्वकोटि है। आत्मा का चेतनालक्षण स्पष्ट रूप से नहीं पाया जाता, अत एव अप्काय आदि अजीव हैं, वह शङ्का को दूसरी कोटि है।
माता, पिता आदि का संबंध तथा धन धान्य; स्वजन आदि का संबंध पूर्वसंयोग। कुदलाता है । उपलक्षण से सास-ससुर आदि का संबंध पश्चासंयोग कहलाता है। इन दोनों संयोगों की त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ अनगार हुमा है उसी श्रद्धा का पालन करे अर्थात् उस को निरतिचार रक्षा करे । અને (૨) દેશશંકા “અહંન્ત ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત માર્ગ વાસ્તવિક રીતે મોક્ષ માર્ગ છે કે નહીં ? આ પ્રકારની શંકા તે સર્વશંકા છે. અકાય આદિના જીવ छे नही १ मा देश छे.
ભગવાને કેવલજ્ઞાન વડે જોઈને પ્રવચનમાં અપકાય આદિના નું અસ્તિત્વ પ્રગટ કર્યું છે આ શંકાની પૂર્વકેટિ છે. આત્માનું ચેતનાલક્ષણ સ્પષ્ટરૂપથી જોવામાં આવતું નથી તેથી અમુકાય આદિ અજીવ છે, આ શંકાની બીજી કેટિ છે.
માતા-પિતા આદિને સંબંધ તથા ધન, ધાન્ય સ્વજન આદિને સંબંધ પૂર્વસાગ કહેવાય છે, ઉપલક્ષશુથી સાસુ, સાસરા આદિને સંબંધ પશ્ચાત્સંગ કહેવાય છે. આ બન્ને સંયોગને ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી અણગાર થયા છે, તે શ્રદ્ધાનું પાલન કરે, અર્થાત તેની નિરતિચાર (વિના અતિચાર) રક્ષા કરે.
प्र. आ.-६०
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भाचारात्सूत्रे
शेष संयमानुष्ठानमवृत्तः
समाश्रितमोक्षमार्गः
कर्पूरखण्डवदन्तर्बडिरेकरूपतया
स्ववीर्यसंगोपन- परवञ्चनलक्षणमायाचाररहितो भवति स पुत्र वस्तुतोऽनगारो
बोद्धव्य इति ।। सू० १ ॥
उक्तरूपस्यानगारस्य कर्त्तव्यमाह - ' जाए ' इत्यादि ।
॥ मूलम् ॥ .
जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं ॥ सू० २ ॥
यथा
संयोगम् ॥ २ ॥
श्रद्धया
॥ छाया ॥ निष्कान्तस्तामेवानुपालयेत् विस्रोतसिकां पूर्व
॥ टीका ॥
विस्रोतसिकां शङ्कां सर्वशङ्कां देशशङ्कां चेत्यर्थः ।
यया श्रद्धया
सावध कार्यों का ज्ञाता होता है और पूर्ण संयम के अनुष्टान में प्रवृत्त हो तथा मोक्षमार्ग का आश्रय लेता है । कपूर के टुकडे की भांति भीतर-बाहर एकसा 'उज्ज्वल होने के कारण अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता और दूसरों को धोखा नहीं देता अर्थात् मायाचार से रहित होता है, उसी को वास्तव में अनगार समझना चाहिए ॥ सू. १ ॥
उक्त प्रकार के अनगार का कर्तव्य बतलाते हैं- 'जाए' इत्यादि ।
मूलार्थ - शङ्का काङ्क्षा आदि का त्याग कर के और पूर्वकालीक संयोगों का त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ निकला है, उसी श्रद्धा का निरन्तर पालन करे ॥ सू. २ ॥
टीकार्य -- ' विस्त्रोतसिका' का अर्थ है शङ्का, शङ्का दो प्रकार की हैं (१) सर्वशङ्का
·
જ્ઞાત્તા જાણુનાર થાય છે. અને પૂર્ણ સંયમનાં અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તથા માક્ષ માગના આશ્રય લે છે. કપૂરના ટુકડાની માફક અદર અને બહાર એકજ પ્રકારે ઉજ્વલ હાવાના કારણે પોતાની શક્તિનું ગાપન કરતા નથી, અને બીજાને દગા દેતા નથી. અર્થાત્ માયાચારથી રહિત હોય છે, તેને વાસ્તવિક રીતે અણુગાર સમજવા નૈઈએ.: (સૂ. ૧)
५२ ४ह्या तेवा शारनं उभ्य तावे छे:- ' जाए' त्याहि.
મૂલા—શકા, કાંક્ષા વગેરેના ત્યાગ કરીને અને પૂર્વ કાલના સચૈગાના ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી નિકળ્યા છે, તે શ્રદ્ધાનું નિરંતર પાલન કરવું. (સૂ. ૨) टीडार्थ- 'विस्रोतसिका'नो संथ है. शंधा, शा मे अारनी है- (१) सर्पशा
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सं. २ अनगारकर्त्तव्यम् ४७३ "किमाईतो मार्गोऽस्ति न वा" इति सर्वागमविपियका शङ्का सर्वशङ्का, तया"किमपकायादयो जीवाः सन्ति न चा" इति देशशङ्का। .
केवलालोकेन विलोक्य भगवता विशिष्य प्रबचने कथितत्वात् अप्कायादयः सन्ति जीवाः, इति पूर्वा कोटिः, चेतनास्पात्मलक्षणस्य सुस्पटमनुपलब्धेर्न सन्ति अकायादयो जीवाः, इत्युत्तरा कोटिः प्रादुर्भवति । पूर्वसंयोग-मातापित्रादिसम्बन्ध, धनधान्यस्वजनादिसम्बन्धं वा।
इदमुपलक्षणम्-तेन पश्चासंयोगमपि श्वशुरादिकृतं विहाय परित्यज्य निष्क्रान्ता अनगारो जातः, तां श्रद्धाम् अनुपालयेदेव निरतिचारं रक्षेदित्यर्थः । और (२) देशरामा । अन्त भगवान द्वारा प्ररूपित मार्ग वास्तव में मोक्षमार्ग है या नहीं ? ऐसी-शंका सर्वशङ्का है । अप्काय आदि के जाप हैं या नहीं ? " यह देश
भगवान्ने केवल ज्ञान से देखकर प्रवचन में अपकाय आदि के जीवों का भास्तत्व प्रगट किया है, यह शझा की पूर्वकोटि है। आत्मा का चेतनालक्षण स्पष्ट ११ से नहीं पाया जाता, अत एव अपकाय आदि अजीव हैं, वह शङ्का की दूसरी कोटि है।
माता, पिता आदि का संबंध तथा धन, धान्य; स्वजन आदि का संबंध पूर्वसंयोग। कदलाता है । उपलक्षण से सास-ससुर आदि का संबंध पश्चात्संयोग कहलाता है। इन दोनों तयागा की त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ अनगार हुआ है उसी श्रद्धा का पालन करे अर्थात् उस को निरतिचार रक्षा करे ।। અને (૨) દેશશંકા અને ભગવાન દ્વારા પ્રતિ માર્ગ વાસ્તવિક રીતે મોક્ષ માર્ગ છે કે નહીં ?' આ પ્રકારની શકો તે સર્વશંકા છે. અપકાય આદિના જીવ
છે કે નહીં ? આ દેશશંકા છે.
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ભગવાને કેવલજ્ઞાન વડે જોઈને પ્રવચનમાં અપ્લાય આદિના છાનું અસ્તિત્વ પ્રગટ કર્યું છે; આ શંકાની પૂર્વ કેટિ છે. આત્માનું ચેતનાલક્ષણ સ્પષ્ટરૂપથી જોવામાં
તેથી તેથી અપકાય આદિ અજીવ છે, આ શંકાની બીજી કેટિ છે. માતા-પિતા આદિને સંબંધ તથા ધન, ધાન્ય સ્વજન આદિને સંબંધ પૂર્વકહેવાય છે, ઉપલક્ષણથી સાસુ, સાસરા આદિને સંબંધ પશ્ચાસપોગ
છે. આ બંને સગાને ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી અણગાર થયા છે, તે શ્રદ્ધાનું પાલન કરે, અર્થાત તેની નિરતિચાર (વિના અતિચારી રક્ષા કરે.
प्र.पा.-६०
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पाचारात hti. HIT - -नापादि, दये-गा-विवाद-परमेय punity fitor...या ममे च न स्यात् नया 41 mithunfantilग |
infilt Hirvin निमोऽनुरागः संगः । उक्तत्र
finitiafteratगे रागोपगोदादिमुक्त। innitrilitthurmit निमो गोगुरागः ॥१॥" इति ।
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ . २ अनगारकर्त्तव्यम्
४७३
" किमाईतो मार्गोऽस्ति न वा" इति सर्वागमविपियका शङ्का सर्वशङ्का, तथा'किमकायादयो जीवाः सन्ति न चा " इति देशशङ्का ।
11
केवालोन विलोक्य भगवता विशिष्य मवचने कथितत्वात् अप्कायादयः सन्ति जीवाः, इति पूर्वा कोटिः, चेतनारूपात्मलक्षणस्य सुस्पष्टमनुपलब्धेर्न सन्ति अपकायादयो जीवाः, इत्युत्तरा कोटिः प्रादुर्भवति । पूर्वसंयोगं मातापित्रादिसम्बन्धं, धनधान्यस्वजनादिसम्वन्धं वा ।
इदमुपलक्षणम् - तेन पश्चात्संयोगमपि श्वश्वरादिकृतं विहाय परित्यज्य निष्क्रान्तः अनगारो जातः, तां श्रद्धाम् अनुपालयेदेव निरतिचारं रक्षेदित्यर्थः । और (२) देशशङ्का | अर्हन्त भगवान द्वारा मरूपित मार्ग वास्तव में मोक्षमार्ग है या नहीं ? ऐसी शंका सर्वशङ्का है । अपकाय आदि के जाब हैं या नहीं ? ' यह देश शङ्का है ।
भगवान्ने केवल ज्ञान से देखकर प्रवचन में अपकाय आदि के जीवों का अस्तित्व प्रगट किया है, यह शङ्का की पूर्वकोटि है। आत्मा का चेतनालक्षण स्पष्ट रूप से नहीं पाया जाता, अत एव अप्काय आदि अजीव हैं, वह शङ्का को दूसरी कोटि है ।
माता, पिता आदि का संबंध तथा धन धान्य; स्वजन आदि का संबंध पूर्वसंयोग । कदलाता है । उपलक्षण से सास-ससुर आदि का संबंध पथात्संयोग कहलाता है । इन दोनों संयोगों की त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ अनगार हुआ है उसी श्रद्धा का पालन करे अर्थात् उस को निरतिचार रक्षा करे ।
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અને (૨) દેશશકા અહુન્ત ભગવાન દ્વારા પ્રપિત માર્ગ વાસ્તવિક રીતે મેક્ષ માર્ગ છે કે નહી?? આ પ્રકારની શંકા તે સશકા છે. અકાય આદિના જીવ છે કે નહી? આ દેશશકા છે.
ભગવાને કેવલજ્ઞાન વડે જેઈ ને પ્રવચનમાં અકાય આદિના જીવેનું અસ્તિત્વ પ્રગટ કર્યું" છે; આ શકાની પૂર્વાતિ છે. આત્માનું ચેતનાલક્ષણ સ્પષ્ટરૂપથી જોવામાં આવતું નથી તેથી અકાય આદિ અજીવ છે, આ શંકાની ખીજી કેટિ છે.
માતા-પિતા આદિના સંબંધ તથા ધન, ધાન્ય સ્વજન આદિને સબુધ પૂર્વસચૈાગ કહેવાય છે, ઉપલક્ષણથી સાસુ, સાસરા આદિના સબંધ પાત્સ ચેાગ કહેવાય છે. આ અને સચેાગના ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી અણુગાર થયા છે, તે શ્રદ્ધાનું પાલન કરે, અર્થાત તેની નિતિચાર (વિના અતિચાર) રક્ષા કરે.
प्र. आ.-६०
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४७२
शेपसंयमानुष्ठानमहंत्तः समाश्रितमोक्षमार्गः प. पूरखण्डवदन्तष्टिरेकरूपतया स्ववीर्यसंगोपन- परवञ्चनलक्षणमायाचाररहितो भवति स एवं वस्तुतोऽनगारो बोद्धव्य इति ॥ सू० १ ॥
उक्तरूपस्यानगारस्य कर्त्तव्यमाह -- ' जाए ' इत्यादि ।
माचारामु
11 मूलम् 11
·
जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा विजहिता विसोत्लियं
पुव्त्रसंजोगं ॥ सू० २ ॥
यया
संयोगम् ॥ २ ॥
श्रद्धया
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निष्क्रान्तस्तामेवानुपालयेत् विस्रोतसिकां पूर्व
॥ टीका ॥
यया श्रद्धया
सर्वशङ्कां
देशशङ्कां चेत्यर्थः ।
विस्रोतसिकां शङ्कां सावध कार्यों का ज्ञाता होता है और पूर्ण संयम के अनुष्टान में प्रवृत्त हो तथा मोक्षमार्ग का आश्रय लेता है । कपूर के टुकडे को भांति भीतर - बाहर एकसा 'उज्ज्वल होने के कारण अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता और दूसरों को धोखा नहीं देता अर्थात् मायाचार से रहित होता है, उसी को वास्तव में अनगार समझना चाहिए ॥ सू. १ ॥
1
उक्त प्रकार के अनगार का कर्तव्य बतलाते हैं-' जाए' इत्यादि । मूलार्थ - शङ्का काङ्क्षा आदि का त्याग कर के और पूर्वकालीक संयोगों का त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ निकला है, उसी श्रद्धा का निरन्तर पालन करे || सू. २ ॥
टीकार्य -- 'विस्रोतसिका' का अर्थ है शङ्का, शङ्का दो प्रकार की हैं (१) सर्वशङ्का
ગાતા જાણુનાર થાય છે. અને પૂર્ણ સયમનાં અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તથા માક્ષ માનો આશ્રય લે છે. કપૂરના ટુકડાની માફક અદર અને બહાર એકજ પ્રકારે ઉજ્વલ હાવાના કારણે પેાતાની શક્તિનું ગેપન કરતા નથી. અને ખીજાને દગા દેતા નથી. અર્થાત્ માયાચારથી રહિત હોય છે, તેને વાસ્તવિક રીતે અણુગાર સમજવા જોઇએ. (સૂ. ૧)
५२४ह्या तेवा मधुशार उतव्य 'मतावे छे:- ' जाए' इत्यादि.
મૂલાથ—શકા, કાંક્ષા વગેરેના ત્યાગ કરીને અને પૂર્વ કાલના સમૈગાના ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાર્થી નિકળ્યા છે, તે શ્રદ્ધાનું નિરંતર પાલન કરવું. (સૂ. ૨) टीडार्थ' - 'विस्रोतसिका'नो संथ है. शध, श से अमरनी है- (१) सर्पशा
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. ३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम्
v
अस्या लक्षणं तु शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यानां मादुर्भावः । तत्र वीतरागमणीतमवचनतत्त्वाभिनिवेशवशेनाऽनन्तानुबन्धिकपायाणामनुदयः शम इत्युच्यते । यद्वा विषयासक्तिनिवृत्तिः शमः ।
तथा संवेगः- जिनप्रवचनानुसारेण नरकादिगतिषु ननाविधदुःखावलो - कनाद्भयम् यथा स्वकृतकर्मोदयान्नरकेषु क्षेत्रजन्यशीतोष्णादिदशविधवेदनासहनं, परमाधार्मिकदेवकृतं, परस्परोदीरितं चेति त्रिविधं दुःखं, तथा तिर्यक्षु-वाडनतर्जन - सुत्पिपासा - पारवश्य- भारारोपणाद्यनेकविधं दुःखं, मनुष्येषु - दारिद्र्य --
***
शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य का प्रकट हो जाना श्रद्धा का चिह्न है । वीतरागद्वारा प्ररूपित प्रवचन के तत्व में गाढी प्रीति होने से अनन्तानुबंधी कपायों का (क्रोध, मान, माया, लोभ, का ) उदय न होना शम कहलाता है । अथवा विषयों के प्रति आसक्ति हट जाना 'शम' है ।
गतियों में नाना प्रकार के दुःखों जैसे-" अपने किये कर्मों के
जिन भगवान् के वचन के अनुसार नरक आदि को जानकर उन से भयभीत होना 'संवेग ' है । उदय से नरकों में क्षेत्रजन्य शीत-उष्ण ( सर्दी-गर्मी ) आदि दश प्रकार की वेदना, परमधामी देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना और परस्पर नारकी जीवों द्वारा होने वाली वेदना, नरक में यह तीन तरह की वेदना है । तिथैचों में ताडना, तर्जना, भूख, ध्यास, पराधीनता, बोझा ढोना आदि अनेक प्रकार की वेदना है। मनुष्यों में दरिद्रता,
શમ, વેગ, નિવેદ, અનુકંપા અને મસ્તિય વગેરે પ્રગટ થઈ જાય તે श्रद्धालु चिह्न छे.
વીતરાગદ્વારા પ્રરૂપિત પ્રવચનનાં તત્ત્વમાં સજ્જડ પ્રીતિ થવાથી અનન્તાનુ अधी उपायाना (अघ, भान, भाया, बोलनेो) उद्दय थाय नहि ते शुभ उडवाय छे, अथवा विषयो अति व्यासहित डडी लय ते शम छे.
જિન ભગવાનના વચન-અનુસાર નરક આદિ ગતિએમાં નાના પ્રકારના દુઃખને भागी ने तेनाथी लयलीत धुं ते 'संवेग' छे. ले-“पोताना असा उभेना अध्यथी नरक्षेमां क्षेत्रन्नन्य शीत-उष्णयु (शर्डी--गरभी) आदि इस प्रभारनी वेहना, परभाषाभी देवा દ્વારા જે થાય છે તે વેદના, અને પરસ્પર નારકી જીવેા દ્વારા થનારી વેદના, નરકમાં આ प्रभाो त्रषु प्रहारनी बेहना छे. तियथाभां ताडना, तना (भारदुं-तरछेोउवु) (लूख, तरस, પરાધીનતા, ખેાજા ઉપાડવા આદિ અનેક પ્રકારની વેદના છે. મનુષ્ચામાં દરિદ્રતા, દુર્ભાગ્ય,
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४७४
आचारावमत्रे
ननु का नाम श्रद्धा, यया विनाऽनगारत्वं नोपलभ्यते ? उच्यते - जीवादित वेषु श्रद्धानं, रुचिः, अभिमीतिः सम्यग्दर्शनं श्रद्धा, 'एतत्तत्वमेवमेवे ' -त्यवधारणम् " तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेहयं " इति वचनानुस्मरणेन जगदेकवन्धुना वीतरागेण भगवता यथा कथितं तथैवेदं जीवादितन्त्रं सत्यमिति निश्चय इति यावत् ।
यद्वा मिथ्यात्वमोहनीयकर्मण उपशमात् क्षयोपशमात् क्षयाद्वा आत्मनोऽपूर्वा ज्ञानावस्था जायते, आविलसलिलस्य कतकफलचूर्णस योगात्स्वच्छतावत् सैव श्रद्धा !
शङ्का - यह श्रद्धा कौन-सी है जिस के बिना साधुपन नहीं रह सकता !
समाधान -- जीवादि तत्वों पर श्रद्धा करना, रुचि होना, अभिप्रीति होना, यह सम्यद्गर्शन-श्रद्धा है । 'यह तत्र ऐसा ही है' इस प्रकार पक्का निश्चय करना श्रद्धा है । 'जिन भगवान् ने जो कहा है वही सत्य और संदेह - रहित है' इस वचन के अनुसार यह निश्चय करना कि जगत के अद्वितीय बन्धु वीतराग भगवान् ने जैसा निरूपण किया है, उसी प्रकार जीवादितत्त्व सत्य है । यह श्रद्धा का स्वरूप है ।
अथवा --- मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उपशम से, क्षयोपशम से अथवा क्षय से आत्मा को एक अपूर्व ज्ञानावस्था उत्पन्न होती है । जैसे - मलिन जल में कतकफल का चूर्ण डालने से जल स्वच्छ हो जाता है। ऐसी स्वच्छ-निर्मल आत्मदशा श्रद्धा कहलाती है ।
શકા——તે શ્રદ્ધા કેવી છે, કે જેના વિના સાધુપણું રહી શકે નહિ ?
सभाधान-लपाहि तत्त्वो पर श्रद्धा ४२वी, इथि थवी, अभिप्रीति थवी, ते સમ્યગ્દર્શન શ્રદ્ધા છે, “ આ તત્ત્વ આવુંજ છે” એ પ્રમાણે પાકા નિશ્ચય કરવો તે શ્રદ્ધા છે. જિન ભગવાને જે કહ્યુ છે તે સત્ય અને સદેહરહિત છે” એ વચન પ્રમાણે એ નિશ્ચય કરવા કે જગતના અનેડ બન્ધુ વીતરાગ ભગવાને જેવુ નિરૂપણ કર્યું છે, તે પ્રમાણે જીવાદિ તત્ત્વ સત્ય છે. આ શ્રદ્ધાનું સ્વરૂપ છે
अथवा—મિથ્યાત્વમાહનીય કર્મીના ઉપશમથી, ક્ષયાપશ્ચમથી, અથવા ક્ષયથી આત્માની એક અપૂર્વ જ્ઞાનાવસ્થા ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ મલીન પાણીમાં કતકકુળ— નિમળીળનું ચૂર્ણ નાંખવાથી જલ સ્વચ્છ થઈ ાય છે. એવી સ્વચ્છ-નિર્મલ આત્મદશા શ્રદ્ધા કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ७.३ सं. २ श्रद्धास्वरूपम्
४७७ "संवेगेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयह । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेग हबमागच्छइ । अणंताणुवंधिकोहमाणमायालोभे खवेइ । नवं च कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ । दसणविसोहीए य णं विमुद्धाए अत्यगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिन्झइ । विसोहीए य पं विमृद्धाए तच्चं पुणो भवग्गणं नाइकमइ ॥” (उत्तरा० अ० २९)
छाया-"संवेगेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? संवेगेन अनुत्तरां धर्मश्रद्धां जनयति । अनुत्तरया धर्मश्रद्धया संवेगो हत्यमागच्छति, अनन्तानुबन्धि क्रोधमानमायालोमान् क्षपयति, नवं च कर्मन वनाति, तत्मत्ययिकांच खलु मिथ्यालविशोधि कृत्वा दर्शनाराधको भवति, दर्शनविशोध्या च खलु विशुद्धया अप्येककस्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयति । विशोध्या च खलु विश्दया तृतीय पुनर्भवग्रहणं नातिकामति ॥"
मुदेव-मुगुरु-सुधर्मेपु निश्चलानुरागरूपेण संवेगेन उत्कृष्टतमा धर्मश्रद्धां
-
"भगवान् ! संवेग से जीव को क्या लाभ होता है !
संवेग से सर्वश्रेष्ठ धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है, और धर्मश्रद्धा से :संवेग शीत्र उत्पन्न हो जाता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का वह क्षय करता है। नवीन को का बंध नहीं करता, और इन कारणों से मिथ्यात्व की विशुद्धि कर के जीव दर्शन का अराधक होता है। दर्शनविशुद्धता बढजाने से कोई-कोई जोव उसी भव में सिद्ध हो जाता है, अगर कोई उसी भव में मोक्ष न जावे तो तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करता, अर्थात् तीसरे भव में वह अवश्य मोक्ष जाता है"। -(उत्तराध्ययन भ. २९)
" सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में निश्चल अनुरागरूप संवेग से जीव को सर्वोत्कृष्ट
ભગવન સંવેગથી જીવને શું લાભ થાય છે?” સંવેગથી સર્વશ્રેષ્ઠ ધર્મશ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, અને ધર્મશ્રદ્ધાથી સંવેગ શીશ્ન ઉત્પન્ન થાય છે. અનન્તાનુબંધી ક્રોધ, માન, માયા અને તેને તે ક્ષય કરે છે. નવીન કર્મોને બંધ કરતું નથી, અને એ કારણેથી મિથ્યાત્વની વિશુદ્ધિ કરીને જીવ દર્શનને આરાધક થાય છે. દર્શનવિશુદ્ધતા વધી જવાથી કઈ-કઈ એ ભવમાં સિદ્ધ થઈ જાય છે કેઈ એ ભવમાં મોક્ષે ન જાય તે ત્રીજ ભવનું ઉલ્લંઘન કરતા નથી, અર્થાત્ ત્રીજા ભવમાં તે અવશ્ય ક્ષે જાય છે.” (ઉત્તરાઅ.૨૦
સુદેવ, સુગુરૂ અને સુધર્મમાં નિશ્ચલ અનુરાગરૂપ સવેગથી જીવને સત્કૃષ્ટ
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आचारायचे दौर्भाग्य-जन्म-जरा-मरण-रोग-शोक-सन्तापादि, देवेषु-ईया-विपाद-परमेष्यत्वादिदुःखं जीवा अनुभवन्ति, तस्माद्-'यथा ममेरा दुःखं न स्यात् तथा पत्ते करोमि' इत्याकारक आत्मिकपरिणामः संवेगः ।,
यद्वा-सुदेव-सुगुरु-सुधर्मे निचलोऽनुरागः संवेगः । उक्तश्च----
"तथ्ये धर्मे घस्तहिंसामवन्धे, देवे रागद्वेषमोहादिमुक्त। साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ।। १॥” इति ।
आगमोऽप्यत्रार्थे प्रमाणम्--- जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, संताप आदि फी वेदना है । देवों में ईर्ष्या, विषाद, आज्ञापालन आदि के दुःख हैं। जीव इन दुःखों का अनुभव करते हैं, अत एव मैं ऐसा प्रयल करूँ कि जिस से मुझे इस प्रकार के दुःख न भुगतने पड़े हैं। इस प्रकार का आत्मा का परिणाम 'संवेग' कहलाता है।
__ अथवा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में अचन अनुराग होना संवेग ' कहलाता है। कहा भी है--
हिंसा आदि की परम्परा से रहित सच्चे धर्म में, राग द्वेप और मोह आदि से रहित देव में, तथा सब प्रकार के परिग्रह से रहित गुरु-साधु में निश्चल अनुराग होना संवेग है" ॥१॥
इस विषय में भागम प्रमाण भी है.--- सन्म१२, भ२], रोश, , सन्त१५ महिनी वेहना छ. हवामा , विधा (શોક) આજ્ઞાપાલન આદિનાં દુખે છે. જીવ આ દુઓને અનુભવ કરે છે. તે કારણથી હું એવો પ્રયત્ન કરું કે જેથી મને આ પ્રકારનું દુખ જોગવવું પડે નહિ.” આ પ્રકારનું આત્માનું પરિણામ તે હવે કહેવાય છે.
અથવા સુદેવ, સુગુરૂ અને સુધર્મમાં અચલ અનુરાગ-પ્રીતિ થ તે સવેગ કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે કે
હિંસા આદિની પરમ્પરાથી રહિત સાચા ધર્મમાં, રાગ દ્વેષ અને મોહ આદિથી રહિત દેવમાં, તથા સર્વ પ્રકારના પરિગ્રહથી રહિત ગુરૂસાધુમાં નિશ્ચલ અનુરાગ છે તે સંવેગ છે.” ૫ ૧ |
આ વિષયમાં આગમ પ્રમાણ પણ છે -
main
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. ३ . २ श्रद्धास्वरूपम्
PK
कामभोगाध्यवसायः खलु दुरन्तोऽनन्तदुःखफलदय, परलोकेऽप्यतिकटुको नरकादिजन्मफलप्रदः इत्यतो न किञ्चित्प्रयोजनमनेन कामभोगाव्यवसायेन, परित्याज्य एवायमतिप्रयत्नेन ' इत्येवंरूप आत्मकपरिणामो निर्वेदः ।
उक्तं च निर्वेदस्वरूपं तत्फलं च, तथाहि
“ निव्वेएणं भंते! जीवे किं जणय ? निव्वेषणं दिव्यमाणुसते रिच्छिएस कामभोगेसु निव्वेयं हन्यमागच्छर । सन्यविसएम विरज्जः । सव्वविसएस विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करे | आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमगं चोच्छिदर, सिद्धिमग्गं परिवन्ने य हवइ । " (उत्तरा० अ. २९ )
21
आसक्ति न होना 'निर्वेद' है । 'कामभोगसम्बन्धी अध्यवसाय इस लोक में मध्यन्त दुःखदायक है, और परलोक में भी अत्यन्त कटुक नरक आदिरूप फल देने वाला है, अत एव कामभोगसंबंधी अध्यवसाय से मुझे क्या लेन-देन है । इसे खूप परिश्रम कर के त्याग ही देना चाहिए'। इस प्रकार का आत्मिक परिणाम 'निर्वेद ' कहलाता है | निर्वेद का स्वरूप और फल इस प्रकार कहा गया है:
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'भगवन् ! निर्वेद से जीव को क्या लाभ होता है ? निर्वेद से जीव को देवता मनुष्य और तिथेच संबंधी काम भोगों में शीघ्र ही विरक्ति उत्पन्न होती है । सब विषयों से जीव विरक्त होकर आरम्भ का परित्याग करता है । आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसारमार्ग को त्यागता है और मोक्षमार्ग को अंगीकार करता है " |- (उत्तरा. अ. २९)
વિષયામાં આસક્તિ થાય નહિ તે વિંર્ છે. · કામલેગસમ્બન્ધી અધ્યવસાય આ લેકમાં અત્યન્ત દુઃખદાયક છે, અને પરલેાકમાં પણ અત્યન્ત કટુક નરકતિ આદિ રૂપ ફળ દેવાવાળા છે, એટલા માટે કામભગસાધી અધ્યવસાયથી મારે શું લેવા દેવા છે. તેને ખૂબ પરિશ્રમ કરીને ત્યજી દેવા જોઈએ.’ આ પ્રકારનું અર્થાત્મક પરિણામ તે નિવેČદ કહેવાય છે. નિવેČનું સ્વરૂપ અને કુલ આ પ્રકારે કહ્યું છે
"लगवन् ! निवेध्थी लवने शुं बाल थाय छे ?
નિવેદથી જીવને દેવતા, મનુષ્ય અને તિય ચસમ્બન્ધી કામલેગામાં શીઘ્રજ વિરકિત ઉત્પન્ન થાય છે. સર્વવિષયેથી જીવ વિરકત થઈ જાય છે. સર્વ વિષયેાથી વિરકત થઈને આરભના પરિત્યાગ કરતા થકી સંસારમાને ત્યજી દે છે. અને માક્ષમાના અ ંગીકાર કરે છે.’” (ઉત્તરા॰ અ૦ ૨૯)
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भौचाराङ्गने जीवो जनयति । तया च नरकादिभवेपु घोरतरबहुतराशातवेदनामवलोक्प तद्भयान्मोक्षमार्ग शरणीकृत्य मोक्षाभिलापरूपं संवेगं शीघ्रं माप्नोति । अनन्तानुपन्धिकषायान् क्षपति, नवीनं कर्म न बध्नाति, तेन मिथ्यात्वं क्षपयित्वा क्षायिकशुद्धसम्यक्त्वं निरतिचारेण पालयति । एवमविनिमलया सम्यक्त्वविशुदया कश्चिद्भन्यजीवस्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धि प्राप्नोति । एकः पुनः सम्यक्त्वस्य निर्मलया विशुद्धथा तृतीय पुनर्भवग्रहणं नाविकामति । मिथ्यात्व मोहनीयकर्मणो निरवशेषक्षयात् शुद्धशायिकसम्यक्त्ववान् भवत्रयमध्ये मोक्ष माप्नोत्येवेत्यर्थः।
तथा निर्वेदः-आईतवचनाभिनिवेशात्सर्वविपयेपु-अनासक्तिः, 'इह -अलोके श्रद्धा उत्पन्न होती है । उस श्रद्धा से नरक आदि गतियों में घोर और बहु असाता की वेदना देखकर तथा उस वेदना के भय से मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर मोक्षाभिलापा-रूपी संवेग को शीघ्र ही स्वीकार कर लेता है । यह अनन्तानुबंधी कपायों का क्षय करता है और नवीन कर्म के बंध को रोक देता है। मिथ्यात्व का क्षय कर के शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है । इस प्रकार अत्यन्त निर्मल दर्शनविशुद्धि के कारण कोई-कोई भव्य जीव उसी भव में मुक्त हो जाता है, और कोई-कोई तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करता अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से शुद्धक्षायिकसम्यक्त्वी जीव तीन भवों में अवश्य मोक्ष पाता है।
_अर्हन्त भगवान् के प्रवचन में प्रगाढ प्रीति होने के कारण सब इन्द्रिय-विषयों में
શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, એ શ્રદ્ધાથી નરક આદિ ગતિઓમાં ઘર અને બહુજ અસાતાની વેદના જોઈને. તથા એ વેદનાના ભયથી મોક્ષમાર્ગને આશ્રય લઈને મોક્ષા ભિલાષારૂપી સવેગને શીઘજ સ્વીકાર કરી લે છે. તે અનન્તાનુબંધી કષાયોનો ક્ષય કરે છે. અને નવીન કર્મના બંધને રેકી દે છે. મિથ્યાત્વને ક્ષય કરીને શુદ્ધ ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વનું નિરતિચાર પાલન કરે છે. આ પ્રમાણે અત્યત નિર્મલ દર્શનવિશુદ્ધિના કારણે કઈ-કઈ ભવ્ય જીવ એજ ભવમાં મુક્ત થઈ જાય છે, અને કોઈ-કોઈ ત્રીજા ભવનું ઉલંઘન કરતા નથી. અર્થાત મિથ્યાત્વમેહનીય કર્મના સંપૂર્ણ ક્ષયથી શુદ્ધક્ષાયિકસભ્યત્વી જીવ ત્રણ ભાગમાં અવશ્ય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. - અહંત ભગવાનના પ્રવચનમાં પ્રગાઢ સજજડ પ્રીતિ હેવાના કારણે સર્વ ઈજિયના
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् मार्यमाणप्राणिनां माणसंकटान्मोचनं च। ... आस्तिक्यम्-जिनप्रणीतागमानुसारेण 'अस्ति जीवादिपदार्थसार्थः' इति मतियस्य स आस्तिका, तस्य भावः आस्तिक्यम् । 'जिनेन्द्रप्रवचनोपदिष्टा जीवपरलोकादयः सर्वेऽतीन्द्रियाः पदार्थाः सन्ति' इत्येवरूप आत्मपरिणामः । एभिः शमसंवेगादिभिर्भन्यानां श्रद्धाऽवयुध्यते ।
मिथ्याप्टेरपि श्रद्वामाप्तिः-- श्रद्धा निसर्गादधिगमाहा जायते । उक्तञ्च---- "सम्मदसणे दुविहे पणते तंजहा-निसग्गसम्मइंसणे चेव अधिगम
Anema
संकट से छुडाना-अनुकम्पा है।
"आस्तिक्य'--"जिनप्रणीत आगम के अनुसार जीवादि पदार्थों का अस्तित्व है "। एसी "जिस की मति हो वह 'आस्तिक' है । आस्तिकपन को 'आस्तिक्य' कहते हैं। जिनप्रवचन में उपदिष्ट जीव, परलोक आदि सभी अतीन्द्रिय पदार्थ है " इस प्रकार का आत्म-परिणाम 'आस्तिक्य' है। इन शम संवेग आदि से भव्यों के सम्यक्त्व का पता लगता है।
मिथ्याप्टि को श्रद्धामाप्ति जिस ! (स्वभाव) से अथवा अधिगम (किसी के द्वारा सुनने आदि) से श्रद्धा उत्पन्न होती है । कहा भी है ---
"सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है निसर्ग-सम्यग्दर्शन और अधिगम
सयी छ।सपा त अनुकम्पा छ.
___ आस्तिक्य"nield माराम मनुसार WE पहार्थानु मस्तिल छ." पानी भतिजे. मास्ति 2. मातिाने 'आस्तिक्य' ४ छ. न પ્રવચનમાં ઉપદિષ્ટ જીવ, પરલોક આદિ સર્વ અતીન્દ્રિય પદાર્થ છે. આ પ્રકારનાં यात्मपरिणाम आस्तिस्य छे. આ શમ, સંવેગ, આદિથી ભવ્યના સમ્યકત્વને પતિ લાગે છે.
અિધ્યાદષ્ટિને શ્રદ્ધાની પ્રાપ્તિ નિસર્ગ (સ્વભાવથી અથવા અધિગમ (ઈના દ્વારા સાંભળવું આદિ)થી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે. કહ્યું પણ છે કે
“ सभ्यर्शन में प्रार्नु ४ -निसा-सभ्यशन भने (२) मलिगमप्र. था.-६१
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आचारास्त्रे
' कदाऽहं संसारं परित्यजेयम् ?' इत्येवंरूपेण निर्वेदेन दिव्यमानुषतैर श्रेषु कामभोगेषु निर्वेदम् = अनासक्ति जीवः शीघ्रं प्राप्नोति । इममेवार्थ स्पष्टयति- सर्वविषयेषु विरज्यते-' अलमेतैरनर्थहेतुभूतैर्विषयेः' इत्येवंरूपं वैराग्यं प्राप्नोति । वैराग्यं प्राप्तथ सावद्यव्यापारं परित्यजति । तत्परित्यागं कुर्वन् संसारमार्ग - मिथ्यात्वाविरतिप्रभृतिरूपं व्यवच्छिनत्ति, संसारमार्गव्यवच्छेदे च जीवः सिद्धिमागं सम्यग्दर्शनादिरूपं माप्नोतीत्यर्थः ।
अनुकम्पा -अनु=अनुकूलं कम्पनं=रक्षणचेष्टा करणमनुकम्पा = जिनप्रवचनानुसारेणजीवानामुपरि कारुण्यं, माणातिपाताकरणं, परदुःखनिवारणं, त्रियमाण
कब मैं संसार का त्याग करूँ ?' इस प्रकार के निर्वेद से जीव को देव मनुष्य और तिर्थच संबंधी काम भोगों में अनासक्ति प्राप्त होती है । इसी विषय को स्पष्ट करते हैं कि-जीव सब विषयों से विरक्त हो जाता है, अर्थात् ' इन अनर्थ के कारणभूत विषयों से बस करो !' इस प्रकार का वैराग्य पाता है । वैराग्य पाकर जीव सावध व्यापार का त्याग कर देता है | सावध व्यापारका त्याग करता हुआ मिथ्यात्व अविरति आदि संसारमार्ग को छोड़ता है और संसारमार्ग का त्याग कर के सम्यग्दर्शन आदिरूप मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लेता है ।
'अनु' अर्थात् अनुकूल 'कम्पन ' अर्थात् रक्षा करने की चेष्टा करना - अनुकम्पा है । अर्थात् जिन भगवान् के उपदेश के अनुसार जीवों पर करुणाभाव होना, किसी के प्राणों का वियोग न करना, दूसरों का दुःख दूर करना, मरते हुए और मारे जाते हुए प्राणियों को प्राण -
હું કયારે સ’સારના ત્યાગ કરૂં ?' આ પ્રકારના નિવેદથી જીવને દેવ, મનુષ્ય અને તિર્યંચ સમ્બન્ધી કામલેગામાં અનાસક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે, તે વિષયને સ્પષ્ટ કરે છે કેઃ—જીવ સર્વ વિષચેાથી વિરકત થઈ જાય છે. અર્થાત્ આ અનર્થના કારણભૂત વિષયાથી ખસ કરી ?? આ પ્રકારના વૈરાગ્ય પામે છે. વૈરાગ્ય પામીને જીવ સાવધ વ્યાપારને ત્યાગ કરી દે છે, સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગ કરતા થકા મિથ્યાત્વ, અવિ રતિ આદિ સંસારમાર્ગને છેડે છે, અને સૌંસારમાને! ત્યાગ કરીને સમ્યગ્દર્શન દિરૂપ મેાક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરી લે છે.
अनु अर्थात् अनुस, कम्पन अर्थात् रक्षा रवानी येष्टा ४२वी ते अनुकम्पा छे. અર્થાત્--જિન ભગવાનના ઉપદેશ પ્રમાણે જીવા પર કરૂજીાભાવ થવા, કાઈના પ્રાણાના વિયેાગ કરવા નહિ, ખીજાના દુઃખ દૂર કરવાં, મરતાં અને મરાતાં પ્રાણીઓને પ્રાણ–
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १. उ. ३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम्
ફ્
"
drsatपि अनिवृत्तिकरणरूपः परिणामो निसर्गः सम्यक्त्वाकारेण वर्तते पूर्वावस्थामपनुद्याबस्थान्तरमाप्तिः परिणामः परिणामि जीवद्रव्यं तु ध्रुवमेव । परिणामोऽप्यत्र चैत्रसिक एवं अभ्रन्द्रधनुरादिवदिति परिणामः स्वभाव इति वाच्यम् ।
ननु श्रद्धा निसर्गतः कयमुत्पद्यते ? उच्यते - कर्मणोऽनादित्वात्पूर्वकर्मोदवेन यद्यदन्यत्कर्म ज्ञानावरणीयादिकं स्वेनैव कृतं तदपि कार्मणशरीरेण सहेत्र वय कर्मत्वादिदानीं कर्मवत् । एवंविधपूर्वगृहीतकर्मणः फलमुपभुब्जानस्य भव्यजीवस्य ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावतयाऽनादिमिध्यादृप्टेरपि तादृशभवस्थिति
भेद नहीं देखा जाता । जैसे परिणमन, अनेक प्रकार का होने पर भी परिणामी -अन्वयि - दव्य एक होने से उस में सर्वथा मेद नहीं होता । उसी प्रकार यहाँ अनिवृत्तिकरणरूप परिणाम referrer के रूप में परिणत हो जाता है-उसकी पूर्व अवस्था मिटकर नवीन अवस्था उत्पन्न हो जाती है, फिर भी परिणामी - जीवद्रव्य-ज्यों का त्यो ध्रुव बना रहता है । परिणाम भी यहाँ वैसिक ( स्वाभाविक ) लेना चाहिए, मेघ तथा इन्द्रधनुष की तरह, अत एव परिणाम का अर्थ-स्वभाव है ।
शङ्का - श्रद्वा, स्वभाव ( निसर्ग ) से किस प्रकार उत्पन्न होती हैं ? | समाधान-अनादि काल से लगे हुए पूर्वकर्मों के
उदय से ज्ञानावरणीय आदि
वैधते हैं, क्योंकि वे
जो-जो कर्म जीवने किये हैं, वे सब कार्मण शरीर के साथ ही कर्म हैं, वर्तमानकालीन कर्मों के समान । इस प्रकार के पहेले ग्रहण फल भोगते हुए भव्य नीव ज्ञानदर्शनरूप उपयोगस्वभाववाला होने के कारण
किये हुए कर्मों का
વાળામાં કેાઈ સવથા ભેદ જોવામાં આવતે નથી જેમ-પરિણમન અનેક પ્રકારનાં હેવા છતાંય પણ પરિણામી અયિદ્રવ્ય એક હોવાથી તેમાં સથા ભેદ થતા નથી, તે પ્રમાણે અહિં અનિવૃત્તિકરણરૂપ પરિણામ નિસર્ગ સમ્યક્ત્વના રૂપમાં પરિણત થઈ ન્તય છે તેની પૂર્વ અવસ્થા મટીને નવીન અવસ્થા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, પણ પરિણામી उपद्रव्य-प्रेम छे तेभ ध्रुव बनी रहे हे. परिणाम पयुअर्ड वैहसिक (स्वाभावि४) લેવું જેઈએ, મેઘ તથા ઈન્દ્રધનુષની માફક એ પ્રમાણે પરિણામને અથ સ્વભાવ છે,
રાકા—શ્રદ્ધા સ્વભાવ (નિસગ*)થી કયા પ્રકારે ઉત્પન્ન થાય છે?
સમાધાનઅનાદિ કાળથી લાગેલાં પૂર્વ કર્માંના ઉદયથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ જેન્ટે ક જીવે કર્યા છે, તે સર્વ કામણુ શરીરની સાથેજ "ધાય છે; કેમકે તે કમ છે, વર્તમાનકાલીન કર્મોની સમાન, આ પ્રકારનાં પહેલાં ગ્રહણ કરેલા કર્મોનું કુલ ભાગવતા
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सम्मदंसणे चेय " ( स्थानाङ्ग० स्था. २ उ. : १)
तत्र निसर्गः परिणामः, स्वभावः इत्येकार्यकाः ।
अपूर्वकरणानन्तरं यद् भवत्यनिवृत्तिःकरणं तन्निसर्ग इति कथ्यते । निस्सृज्यते कार्योत्पत्तौ सत्यामिति निसर्गः, फार्ये समुत्पन्ने सति कारणस्य न किञ्चित् प्रयोजनं भवति, उत्पन्ने सम्यक्त्वे प्रयोजनाभावादनिवृत्तिकरणं परित्यज्यते । न चात्यन्तं परित्यागस्वस्येप्यते यतस्तदेव कारणं तेनाकारेण परिणतम्, यथा- उत्थितोऽपि पुरुषः पुरुष एव आसीनो शयितो वा पुरुषः पुरुष एव, अवस्थामात्र भेदादवस्थावतो भेदः क्वापि न दृश्यते । तत्रपरिणामस्यानेकरूपत्वेऽपि परिणामिनोऽन्वयिद्रव्यस्य न तत्त्वात् सर्वथा भेदः,
।
सम्यग्दर्शन" । ( स्थानांग. स्था. २ उ. १ )
आचारावसूत्रे
निसर्ग, परिणाम, या स्वभाव, ये सब पर्यायवाचक हैं ।
अपूर्वकरण के पश्चात् होने वाला अनिवृत्तिकरण 'निसर्ग' कहलाता है।
'निसर्ग' है । कार्य की
कार्य की उत्पत्ति हो जाने पर जो त्याग दिया जाता है वह उत्पत्ति हो जाने के बाद कारण का कोई प्रयोजन नहीं रहता, होने पर प्रयोजन नहीं रहने से अनिवृत्तिकरण त्याग दिया अत्यन्त परित्याग नहीं किया जाता, क्यों कि वही कारण उस परिणत हो जाता है । जैसे— खडा हुआ पुरुष - पुरुष ही है । बैठा हुआ या सोया हुआ पुरुष भी पुरुष ही है । अवस्थाओं में भेद होनेमात्र से अवस्थावाले में कहीं सर्वथा सभ्यञ्हर्शन” (स्थानांग स्था. २ . १ )
क्यों कि सम्यक्त्व उत्पन्न जाता है, मगर उस का आकार में - कार्यरूप में -
T
નિસર્ગ, પરિણામ અથવા તેા સ્વભાવ, આ સ` પર્યાયવાચક શબ્દો છે. અપૂર્વ કરણની પછી થવાવાળાં અનિવૃત્તિકરણ નિTM કહેવાય છે. કાર્યની ઉત્પત્તિ થઈ જવા પછી ? त्यक हेवामां आवे छे. ते निसर्ग छे. अर्थनी उत्पत्ति थ गया यही अरनुं अर्ध પ્રયાજન રહેતું નથી. કૅમકે-સમ્યક્ત્વ ઉત્પન્ન હેાવા છતાંય પણ પ્રયેાજન નહિ રહેવાથી અનિવૃત્તિકરણ ત્યાગી દેવામાં આવે છે. અર્થાત્ પ્રયાજન નહિ રહેવાથી અનિવૃત્તિકરણના ત્યાગ કરવામાં આવે છે. પરન્તુ તેના અત્યન્ત પરિત્યાગ કરવામાં આવતા નથી; કારણ કે તે કારણ તેવા આકારમાં–કા રૂપમાં-પરિણત થઈ જાય છે. જેમ ઉભે રહેલા પુરૂષ, પુરૂષજ છે, બેઠેલા અથવા સુતેલેા પુરૂષ પણ પુરૂષજ છે, અવસ્થાએમાં ભેદ થવા માત્રથી અવસ્થા
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ . २ श्रद्धास्वरूपम्
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जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् स उत्कर्षतो देशोनार्द्धपुद्गलपरावर्त्त स्थित्वा पुनः सम्यक्त्वं माप्स्यति, स सादिमिथ्यादृष्टिर्भवति ।
यथाप्रवृत्तिकरणम्
agraat freeटेर्जीवस्य परिणामरूपाध्यवसायः पूर्वं जघन्यशुभ परिणाममङ्गीकृत्य परः परः शुभपरिणामः परिणामविशेष इत्युच्यते । स एव परिणामविशेषो 'यथाप्रवृत्तिकरण - मित्युच्यते ।
terrवृत्तिकरण- मित्यस्य शब्दार्थरत्वेवम् - यथा येन अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तिर्यस्य तत् यथामवृत्ति, क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं जीवस्य शुभपरिणामः यथाप्रवृत्ति च तत्करणं च यथाप्रवृत्तिकरणं कर्मक्षपणकारणस्या
,
बाद में अनन्तानुबन्धो कपाय के उदय से फिर मिथ्यात्व आ गया किन्तु वह मिथ्यात्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्रलपरावर्तन तक रहता है वह जीव सादिमिध्यादृष्टि है |
यथाप्रवृत्तिकरण
इस प्रकार दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीवों का अध्यवसाय पहले के जघन्य शुभ परिणाम से लेकर उत्तरोत्तर बढते हुए शुभ परिणाम, परिणामविशेष कहलाता है । उसी परिणामविशेष को 'यथामत्तिकरण' कहते हैं ।
'यथाप्रवृत्तिकरण' का शब्दार्थ इस प्रकार कालीनरूप से जिस की प्रवृत्ति हो वह यथामवृत्ति क्षय किया जाता है, जीव के उस शुभ परिणाम को
है- 'यथा' अर्थात् अनादिकहलाता है । जिस से कर्मों का 'करण' कहते हैं । यथाप्रवृत्ति
અનન્તાનુબંધી કષાયના ઉદ્દયથી ફરીથી મિથ્યાત્વ આવી ગયું. પણ તે મિથ્યાત્વ જઘન્ય અન્તર્મુહૂત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ દેશેાન અદ્ધ પુદ્ગલપરાવર્ત્તન સુધી રહે છે. તે જીવ સાદિમિથ્યાષ્ટિ છે.
યથાપ્રવૃત્તિકરણ~~
આ પ્રકારના બન્ને મિથ્યાષ્ટિ જીવાના અધ્યવસાય પહેલાના જઘન્ય શુભ પિ લુામથી લઈ ને ઉત્તઉરેત્તર વધતા શુભ પરિણામ, પરિણામવશેષ કહેવાય છે, તે પરિણામ विशेषने यथावृत्तिकरण हे छे. "यथाप्रवृतिकरण" ने। शब्दार्थ या अरे हे 'यथा' अर्थात् मनाहि असीनरूपथी लेनी 'प्रवृत्ति' होय ते 'यथाप्रवृत्ति' उपाय छे. नेनाधी भनि क्षय करवामां आवे छे, ना ते शुभ परिणामने "करण" उडे छे.
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आचारागसत्रे परिपाकवशेन शुभपरिणामरूपाऽध्यवसाया भवन्ति, तेषां स्थानानि मन्द-मध्यवीवाणि भवन्ति । तत्र जघन्यशुभपरिणामस्य स्थान विशुद्धं, तस्मादुत्कृष्टस्य विशुद्धतरं, ततोऽप्युत्कृप्टशुभपरिणामस्य विशुद्धतम स्थान प्राप्नुवतो जीवस्य वर्धमानशुमपरिणत्या तादृक्परिणामविशेषो जायते, येन तीर्थङ्करायुपदेशमन्तरेण स्वत एव जीवस्य कर्मोपशमादिभ्यः श्रद्धोत्पद्यते । तत्रायं क्रमः
श्रद्धामाप्तयेऽधिकारी द्विविधो भवति, अनादिमिथ्याप्टिः , सादिमिथ्याप्टिव । यः पूर्व कदापि सम्यक्त्वं न लब्धवान् सोऽनादिमिथ्यादृष्टिः । यश्च भव्यः पूर्वं सम्यक्वं प्राप्य पश्चादनन्तानुवन्धिकपायोदयादुपजातमिथ्यावा अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि होने पर भी अमुक प्रकार की भवस्थिति का परिपाक होने से उसके शुभपरिणामरूप अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं। उन अध्यवसायों के स्थान मन्द, मध्यम और तीत्र होते हैं । इन में जघन्य शुम परिणाम का स्थान विशुद्ध है, उस से उत्कृष्ट विशुद्धतर है। और उससे भी उत्कृष्ट शुभपरिणाम विशुद्धतम है । इन स्थानों को प्राप्त जीव के बढते हुए शुभ परिणामों से एक ऐसा परिणाम उत्पन्न होता है, जिस के द्वारा तीर्थकर आदि के उपदेश के विना ही स्वयमेव जीव को कर्मों का उपशम आदि होने से श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है।
दो प्रकार के जीव श्रद्धा पाने के अधिकारी हैं-(१) अनादिमिथ्याष्टि और (२) सादिमिथ्यादृष्टि । जिस जीवने पहले कभी सम्यक्व नहीं पाया वह अनादिमिथ्यादृष्टि कहलाता है । जिस भव्य जीवने पहले सम्यक्त्व पाया किन्तु થકે ભવ્ય છવજ્ઞાન-દર્શન ઉપગસ્વભાવવાળા હેવાના કારણે. અનાદિ કાલથી મિથ્યાદષ્ટિ હેવા છતાંય પણ અમુક પ્રકારની ભાવસ્થિતિને પરિપાક હેવાથી તેને શુભ પરિ ણામરૂપ અધ્યવસાય ઉત્પન્ન થાય છે. તે અધ્યવસાયનાં સ્થાન મંદ, મધ્યમ અને તીવ્ર હોય છે. તેમાં જઘન્ય શુભ પરિણામનું સ્થાન વિશુદ્ધ છે, તેનાથી ઉત્કૃષ્ટ વિશુદ્ધતર છે, અને એનાથી પણ ઉત્કૃષ્ટ શુભ પરિણામ વિશુદ્ધતમ છે. આ સ્થાનને પ્રાપ્ત જીવના વધતા ગયેલા શુભ પરિણામોમાંથી એક એવું પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે કે જેના દ્વારા તીર્થકર આદિના ઉપદેશ વિનાજ સ્વયમેવ, જીવને કમેને ઉપશમ આદિ થવાથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે.
કેમ આ પ્રકારે છેબે પ્રકારના છવ શ્રદ્ધા પ્રાપ્ત કરવાની અધિકારી છે. (૧) અનાદિ મિથ્યાષ્ટિ અને (૨) સાદિમિથ્યાષ્ટિ. જે જીવે પહેલા ક્યારેય સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત કર્યું. નથી તે અનાદિ મિદષ્ટિ કહેવાય છે. જે ભવ્ય જીવે પહેલાં સમ્યફત્વ પ્રાપ્ત કર્યું હતું પરંતુ પછીથી
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ सू.२ श्रद्धास्वरूपम्
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जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, स उत्कर्षतो देशोनार्द्धपुद्गलपरावर्त्त स्थित्वा पुनः सम्यक्त्वं प्राप्स्यति, स सादिमिथ्यादृष्टिर्भवति ।
यथाप्रवृत्तिकरणम् -
Ragraat freeष्टेर्जीवस्य परिणामरूपाध्यवसायः पूर्वं जघन्य - शुभ परिणाममङ्गीकृत्य परः परः शुभपरिणामः परिणामविशेष इत्युच्यते । स एव परिणामविशेषो 'यथाप्रवृत्तिकरण '- मित्युच्यते ।
यथाप्रवृत्तिकरण- मित्यस्य शब्दार्थस्त्वेवम् - यथा येन अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तिर्यस्य तत् यथामवृत्ति, क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं जीवस्य श्रमपरिणामः यथाप्रवृत्ति च तत्करणं च यथाप्रवृत्तिकरणं कर्मक्षपणकारणस्या
बाद में अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय से फिर मिध्यात्व आ गया किन्तु वह मिथ्यात्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्रलपरावर्तन तक रहता है वह जीव सादिमिध्यादृष्टि है ।
यथाप्रवृत्तिकरण
इस प्रकार दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीवों का अध्यवसाय पहले के जघन्य शुभ परिणाम से लेकर उत्तरोत्तर बढते हुए शुभ परिणाम, परिणामविशेष कहलाता है । उसी परिणामविशेष को 'यथामत्तिकरण' कहते हैं ।
'यथाप्रवृत्तिकरण' का शब्दार्थ इस प्रकार है- 'यथा' अर्थात् अनादिकालीनरूप से जिस की मवृत्ति हो वह यथामवृत्ति कहलाता है । जिस से कर्मों का क्षय किया जाता है, जीव के उस शुभ परिणाम को 'करण' कहते हैं । यथाप्रवृत्ति
અનન્તાનુળ ધી કષાયના ઉદયથી કરીથી મિથ્યાત્વ આવી ગયું, પણ તે મિથ્યાત્વ જધન્ય અન્તમુહૂત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ દેશેન અદ્ધ પુદ્ગલપરાવર્ત્તન સુધી રહે છે. તે જીવ સાદિમિથ્યાદ્રષ્ટિ છે.
યથાપ્રવૃત્તિકરણૢ---
આ પ્રકારના બન્ને મિથ્યાદષ્ટિ જીવેાના અધ્યવસાય પહેલાના જયન્ય શુલ પરિહ્યુામથી લઈ ને ઉત્તઉરોત્તર વધતા શુભ પરિણામ, પરિણામવિશેષ કહેવાય છે. તે પરિણામ विशेषने यथाप्रवृत्तिकरण हे छे. "यथाप्रवृतिकरण" नो शब्दार्थ या अक्षरे हे 'यथा' अर्थात् मनाहि प्रालीनरूपथी लेनी 'प्रवृत्ति' होय ते 'यथाप्रवृत्ति' हेवाय छे. नाथी भेना क्षय करवामां आवे छे, लवना ते शुल परियाभने "करण" हे छे.
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૪૮૬
आचाराङ्गसूत्रे
ध्यवसायमात्रस्य सर्वदैव भावादुदयावलिकामविष्टानां कर्मणां सर्वदेव क्षपणात् । यथाप्रवृत्तिकरणं भव्यस्याभव्यस्य च भवति । वक्ष्यमाणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च भव्यस्यैव भवति, न त्वभव्यस्य ।
मिथ्यात्ववशादनन्तान् पुद्गलपरावर्त्तान् अनन्तदुःखान्यनुभूय कथमपि तादृशभवस्थितिपरिपाकवशाद् गिरिणदीमहदुद्वर्त्तितापवर्तित पापाणवर्चुलावस्थावदनाभोग निर्वर्त्तितेन यथामवृत्तिकरणेन विशुद्धपरिणामविशेषरूपेणायुष्यकर्म वर्ग वा ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासंख्येयभागन्यूनैक
रूप करण यथाप्रवृत्तिकरण कहलाता है । कर्मक्षय का कारणभूत अध्यवसाय सदैव बना रहता है, क्योंकि उदयावलिका में आए हुए कर्मों का सदा क्षय होता रहता है |
यथाप्रवृत्तिकरण भव्य जीव को भी होता हैं और अन्य जीव को भी होता है, किन्तु आगे कहे जाने वाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण भव्य जीव को ही होते हैं; अभव्य जीव को नहीं ।
मिध्यात्व के वश होकर अनन्त पुद्गलपरावर्तनों तक अनन्त दुःखों को भोगने के पश्चात् किसी भी तरह उस प्रकार की भवस्थिति का परिपाक होने से पहाड़ी नदी के प्रवाह में बहने वाला; लुढक (गुडक) ने वाला, घिसने वाला पाषाण जैसे गोलमटोल बन जाता है, उसी प्रकार अनजान में हो यथाप्रवृत्तिकरणरूप विशुद्ध परिणाम के कारण आयुकर्म को छोड़कर ज्ञानावरणीय आदि सात कर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम यथाप्रवृत्तिरूप करण ते 'यथाप्रवृत्तिकरण' उडेवाय छे, अक्षयना ारभूत अध्यवसाय હમેશાં ખની રહે છે, કેમકે-ઉદયાવલિકામાં આવેલાં કર્મોના હંમેશાં ક્ષય થયા કરે છે.
यथाप्रवृत्तिकरण लव्य भुवने या थाय छे, भने मलव्य अपने पशु थाय छे, परन्तु આગળ કહેવામાં આવશે તે અપૂર્વકરણ અને અનિવૃત્તિકરણ ભવ્ય જીવાને જ થાય છે, અભવ્ય જીવાને થતાં નથી.
મિથ્યાત્વને વશ થઈ ને અનન્ત પુદ્ગલપરાવત્તને સુધી અનન્ત દુઃખને ભાગન્યા પછી કોઈ પણ પ્રકારે આ પ્રકારની ભવસ્થિતિને પરિપાક થવાથી પ્રહાડી નદીના પ્રવાહમાં વહેવાવાળા-ગબડવાવાળા, ધસાતે જતા પથ્થર જેવી રીતે ગેાળમટોળ ખની જાય છે, એ પ્રમાણે અજાણતાં પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણરૂપ વિશુદ્ધ પરિણામના કારણે આયુકને ત્યજીને બીજા જ્ઞાનાવરણીય આદિ સાત કમ પાપમના અસખ્યાતમા ભાગ આણં
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ म्. २ श्रद्धास्वरूपम् . ४८७ सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति । उक्तन्च
"अंतिमकोडाकोडीए होइ सव्यासि कम्मपगडीणं । “पलियामसंखभागे, खीणे सेसे हवइ गठी ॥ १॥"
तत्रायं नमो विज्ञेयः--ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय वेदनीया-ऽन्तरायकर्मचतुष्टयस्य त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटघ उत्कृप्टा स्थितिः। नामगोत्रयोविंशतिसागरोपमकोटीकोटयः, मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोटय उत्कृप्टा स्थितिः। नत्र यथामवृत्तिकरणेन जीव उत्कृप्टां स्थिति हासयन् तावती स्थिति प्रापयति, येन समानरूपेण सप्तानां कर्मणां पल्योपमासंख्येयभागन्यूनकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिएक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति में लाये जाते हैं । कहा भी है
" समस्त कर्म प्रकृतियाँ जब पल्य के असंख्यातवें भाग कम कोडाकोडी की स्थितिवाली होती हैं, तब ग्रन्थि होती है" ॥ १॥
क्रम इस प्रकार है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस-तीसकोडा-कोडी सागरोपम की है। नाम और गोत्रकी वीस--वीस कोडाकोडी सागरोपम की है, और मोहनीय कर्म को उत्कृष्ट स्थिति सित्तर (७०) फोडाफोडी सागरोपम की है। यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा जीव इस सारी उत्कृष्ट स्थिति को घटाकर इतनी कम कर डालता है कि सातो कर्मों की स्थिति समानरूप से पत्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम कोडाकोडी
એક કોડાકોડી સાગરોપમની સ્થિતિમાં લાવવામાં આવે છે. કહ્યું પણ છે.
“સમસ્ત કર્મપ્રકૃતિએ ત્યારે પત્થના અસંખ્યાતમાં-ભાગ ઓછા-એક 1-8ोनी स्थितिवाणी सोय छ, त्यारे अंथि थाय छे." ||
કેમ આ પ્રમાણે છે-જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, વેદનીય અને અન્તરાય આ ચાર કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ વીસ-ત્રીસ કોડા-કોડી સાગરેપની છે. નામ અને ગોત્રની વીસ વીસ કોડા-કોડી સાગરોપમની છે. અને મેહનીય કર્મની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સીતેર (93) કોડા-કોડી સાગરોપમની છે. યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારા જીવ તમામ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને ઓછી કરીને-એટલી ઓછી કરી નાખે છે કે-સાતે કર્મોની સ્થિતિ સમાનરૂપથી પલ્યોપમના અસંખ્યાતમાં ભાગ ઓછા એક સાગરેપમ કોડા-કોડીની બાકી રહી જાય છે એના
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४८८
आचारागयो रवशिष्टा भवति । अत्रान्तरे च यथापयत्तिकरणेन कर्मनिर्जरां कुर्वतो जीवस्य यावत् पूर्वकर्मणो निर्जरा न भवति तावत् स्यीयमानं तीनरागद्वेषपरिणामरूपं कर्म, प्रन्थिसादृश्याद् ग्रन्यिरित्युच्यते ॥
यथा काष्ठविशेषस्य अतिकठोरनिविडातिशुष्कयनगूढग्रन्थियस्वया तीवरागद्वेपपरिणामरूपः कर्मविशेषोऽपि दुर्मेद्यो भवति तस्माद् ग्रन्थिशन्देन व्यवहियते। ___अभव्या अपि यथामत्तिकरणवलेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तवारमेतद्ग्रन्थिपर्यन्तमागच्छन्ति । कश्चिद् ग्रन्थिस्थान प्राप्य तस्मादधः पतति । कश्चित्तत्रत्र ग्रन्थिस्थाने स्थितस्तिष्ठति, न तस्मादने प्रवर्तते । की बाकी रह जाती है । इसी बीच-यथाप्रवृत्तिकरणद्वारा कर्मों की निर्जरा करते हुए जीव के जितने कर्मों की निर्जरा नहीं होती अर्थात् जो कर्म शेष रह जाते हैं, वेतीत्र राग द्वेपपरिणामरूप कर्म, प्रन्थि के समान होने के कारण ग्रन्थि (गांठ) कहलाती हैं।
जैसे-काठविशेष की अत्यन्त कठिन घनी और एकदम सूखी भीतरी गांठ दुर्भेद्य होती है, उसी प्रकार राग-द्वेषपरिणामरूप कर्मविशेष भी दुर्भेय होता है, अत एव वह कर्म, प्रन्थि कहलाती है।
__ अभव्य जीव भी यथाप्रवृत्तिकरणद्वारा कर्म का क्षय कर के अनन्त वार प्रन्थि पर्यन्त आ पहुँचते हैं, कोई-कोई प्रन्थिस्थान को प्राप्त कर के फिर नीचे गिर जाता है । कोई-कोई प्रन्थिस्थान पर ही ठहर जाता है, आगे नहीं बढता है।
વચમાં–યથાપ્રવૃત્તિકરણ દ્વારા કર્મોની નિજર કરતા થકા જીવનાં જેટલાં કર્મોની નિર્જરા નથી થતી અર્થાત જે કર્મ શેષ રહી જાય છે તે તીવ્ર રા–ષપરિણામરૂપ કર્મ, ગ્રંથિના સમાન હવાના કારણે ગ્રંથિ (ગાંઠ) કહેવાય છે.
જેવી રીતે કાષ્ઠ (લાકડા) વિશેષની અત્યન્ત કઠિન, મજબુત અને એકદમ સૂકી અંદરની ગાંઠ દુધ હોય છે, એ પ્રમાણે રાગ-દ્વેષપરિણામરૂપ કમવિશેષ પણે હૃદ્ય હોય છે. એટલા માટે તે કર્મ, ગ્રંથિ કહેવાય છે.
અભવ્ય જીવ પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણુ દ્વારા કમનો ક્ષય કરીને અનીવાર ગ્રંથિ સુધી પહોંચે છે. કોઈ કેઈ ગ્રંથિ સ્થાનને પ્રાપ્ત થઈને પાછા નીચે પડી જાય છે. કઈ-કઈ ગ્રંથિ સ્થાન ઉપર જ રહી જાય છે. આગળ વધી શકતા નથી. .
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ म.२ श्रद्धास्वरूपम् .४८९ . अमव्योऽपि कविद् ययात्तिफरणेन ग्रन्थिपर्यन्तं समागत्य तीर्थङ्करातिशयदर्शनेन लब्धिधारिभावितात्ममहात्मनो महिमावलोकनेन, प्रयोजनान्तरेण वा पवर्तमानः भूत्रातदुभयश्रवणपठनल्पं श्रुतसामायिकं लमते, न वन्यदपूर्वकरणादिकम् ।
॥ अपूर्वकरणम्तदनन्तरं कश्विदेव भन्यजीव आसन्नसिद्धिसुखत्वादुदितमचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरोऽतिनिशितकुठारेणेव ययावृत्तिकरणापेक्षया विशुद्धतरेणाभूतपूर्वशुभाध्यवसायविशेषरूपेणापूर्वकरणेन प्रागुक्तं दुर्भेयं कर्मग्रन्यि भिनत्ति ।
कोई अभव्य भी यथाप्रवृतिकरणद्वारा प्रन्थि तक आकर तीर्थकर भगवान् का अतिशय देखकर, लब्धिधारी भावितामा महात्मा की महिमा देखकर, अथवा किसी अन्य प्रयोजन से प्रवृत्ति करता हुआ सूत्र, अर्थ और तदुभय आगम का श्रवण या पठनरूप श्रुतसामायिक को प्राप्त कर लेता है, मगर वह अपूर्वकरण आदि को नहीं
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अपूर्वकरणतदनन्तर मोक्षमुख समीप होने के कारण जिस में प्रचुर और दुनिवार शक्ति उत्पन्न हो गई है ऐसा कोई मत्र्य जीव ही बहुत तीले कुल्हाडे के समान यथाप्रवृत्ति-करण की अपेक्षा अधिक विशुद्ध, और पहले कभी भी प्राप्त न होने वाले शुभअव्यवसायरूप अपूर्वकरण के द्वारा उस दुर्मेध कर्मप्रन्थि को भेदता है।
કેઈ અભવ્ય પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણુતારા ગ્રંથી સુધી આવીને તીર્થકર ભગવાનના અતિશયને જોઈને, લબ્ધિધારી ભાવિતાત્મા મહાત્માને મહિમા જોઈને, અથવા કઈ અન્ય પ્રજાની પ્રવૃત્તિ કરતે ઘકે, સૂત્ર, અર્થ અને તંદુભય આગમના શ્રવણ અથવા પઠનલ્પ છૂત-સામાયિકને પ્રાપ્ત કરી લે છે, પરંતુ તે અપૂર્વકરણ આદિને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી.
અપૂર્વકરણત્યાર પછી મેક્ષસુખ સમીપ હોવાના કારણે જેનામાં મહાન અને કેઈથ્વી નિવારી શકાય નહિ તેવી શક્તિ ઉત્પન્ન થઈ ગઈ છે. એ કે ઈભવ્ય જીવજ બહુજ તીખા કુહાડા સમાન યથાપ્રવ્રુતિકરણની અપેક્ષા અધિક વિશુદ્ધ, અને પહેલાં કોઈ વખત પણ પ્રાપ્ત નહિ થયેલા શુભ-અધ્યવસાયરૂપ અપૂર્ણા દ્વારા એ દુધ કર્મગ્રંથિને ભેદે છે. प्र. मा.-६२
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आचारात्मत्रे
अस्मिन् ग्रन्थिभेदे मनःक्षोभपरिश्रमादिविघ्नाः भवन्ति । यथा विद्यासाधकस्य विद्याधिष्ठातृदेवताकृतोपसर्गेर्मनःक्षोभो भवति, यया घोरमहासमरगतसुभटस्य दुवैर्षबहुतरशत्रुगणपराजयकरणात्परिश्रमो भवति, यथा च महासमुद्रादिभ्यो नौकादितारणे नाविकस्य परिश्रमो भवति तथा प्रचुरदुर्जयकर्मशत्रुसंघातपराजये परिथमोऽतिशयेन जायते । वज्राश्मवदुर्भेद्योऽयं कर्मग्रन्थिः । अपूर्वकरणवत्रसूच्याश्रयमन्तरेणास्य भेदो दुष्करः ।
४९०
अपूर्वकरणवज्रसूच्या सकृद ग्रन्थिभेदे कृते सति लब्धविशुद्धतमश्रद्धा
प्राप्त
प्रन्थिभेदन करने में मानसिक क्षोभ तथा परिश्रम आदि अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं । जैसे विद्या को साधना करने वाले को विद्याकी अधिष्ठात्री देवता के द्वारा किये जाने वाले विघ्नों से मन में क्षोभ होता है, और घनघोर महायुद्ध में गये हुए योद्धा को बहु-संख्यक और दुर्जय शत्रुओं के दल पर विजय करने में परिश्रम करना पड़ता है, अथवा जैसे किसी महासमुद्र से जहाज वगैरह को पार लगाने में नाविक को परिश्रम करना पडता है, उसी प्रकार बहुत-से दुर्जय कर्मशत्रुओं के दल को पराजित करने में अत्यन्त परिश्रम करना पडता है । यह कर्मप्रन्थि वज्र की तरह बडी कठिनाई से भेदी जाती है । अपूर्वकरणरूपी वज्र की सुई का सहारा लिये विना उस का भेदन होना अशक्य है ।
अपूर्वकरण की वज्रमय सुई से एक वार कर्मग्रन्थि का भेदन हो जाने पर
ગ્રંથિભેદન કરવામાં માનસિક ક્ષેાભ તથા પરિશ્રમ આદિ અનેક વિઘ્ન ઉપસ્થિત થાય છે. જેમ વિદ્યાની સાધના કરવાવાળાને વિદ્યાની અધિષ્ઠાત્રી દેવતાદ્વારા થવાવાળા વિઘ્નાથી મનમાં ક્ષોભ થાય છે, અને ઘનઘાર મહાયુદ્ધમાં ગયેલા ચેાધાને ઘણીજ સંખ્યાવાળા અને દુય શત્રુઓના દળ ઉપર વિજય મેળવવામાં જેમ પશ્ચિમ કરવા પડે છે. અથવા—જેવી રીતે કોઈ મહાસમુદ્રમાંથી વહાણુ વગેરેને પાર લઈ જવામાં નાવિકાને પરિશ્રમ કરવા પડે છે, એ પ્રમાણે અહુજ દુય કશત્રુઓના દળના પરાજ્ય કરવામાં અત્યન્ત પરિશ્રમ કરવા પડે છે.
श्या उर्भभ्रंथि वक्कना लेवी भडाउहिनताथी लेही शाय छे. अपूर्वकरण ३थी વજ્રની સેાયની સહાય લીધા વિના તેનું લેઇન થવું અશક્ય છે.
અપૂર્વનળની વામય સાયથી એકવાર કમઁગ્રંથિનું ભેદન થઈ જવા પછી
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ २.२ श्रद्धास्वरूपम् सामर्थ्यान्न पुनर्ग्रन्थिबन्धनं भवति, यथा जातवेधो मणिः कश्चिद्रजसा परिपूरितेऽपि स्त्रे न पूर्वावस्थां प्राप्नोति, तथैव संस्पृष्टसम्यक्त्वो जीवः कथञ्चित्सम्यक्त्यापगमे पश्चात्तीवरागद्वेपपरिणाममाप्तावपि न पुनर्गन्धिरूपेग कर्म वनाति ।
___ यथा जन्मान्धस्य कथञ्चिचक्षुःप्राप्तौ सत्यां यथावस्थितपदार्थसार्थावलोकनेन, यथा च महाव्याधिजनितदुरन्तघोरवेदनासमानान्तस्य तद्वयाध्यपगमे महान् प्रमोदो जायते तथा भन्यस्यानिटत्तिकरणवलेन वीतरागोपदिष्ट
जीव को श्रद्धा की अयन्त विशुद्ध शक्ति प्राप्त हो जाती है, अत एव फिर कभी ग्रंथिबंध नहीं होता। किसी मशि में एक बार छेद कर दिया जाय और कालान्तर में उस में धूल भर जाय तो भी वह छेद पहले की भाति नहीं होता। इसी प्रकार एकवार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने वाला जीव सम्यत्व के नष्ट हो जाने पर भी बाद में तीन राग-देपरूप परिणामों की प्राप्ति होने पर भी ग्रंथि के रूप में कर्मा का बंध नहीं करता।
जैसे जन्म से अंधे को किसी उपाय से आंख मिलने पर पदार्थों का असली स्वरूप देखकर अत्यन्त हर्ष होता है, अथवा जैसे किसी महान् रोग से होने बाली घोर वेदना से पीडित पुरुप के रोग हट जाने पर महान् हर्ष होता है, उसी प्रकार भव्य-जीव को अनिवृत्तिकरण के बल से भगवान् वीतराग द्वारा कथित यथार्थ
જીવને શ્રદ્ધાની અત્યન્ત વિશુદ્ધ શક્તિ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, એટલા માટે ફરી કઈ વખત ગ્રંથિબંધ થતો નથી. કોઈ મણિમાં એક વખત છિદ્ર–કાણું પાડયાં પછી કાલાન્તરમાં તે છિદ્રમાં કદાચ ધૂળ ભરાઈ જાય તો પણ તે છેદ પ્રથમ પ્રમાણે થતો નથી. આ પ્રકારે એકવાર સભ્યત્વ પ્રાપ્ત કરી લેવાવાળા જીવ, સમ્યકત્વને નાશ થવા છતાં પણ પછીથી તીવ્ર રાગ-દ્વેષ રૂપ પરિણામોની પ્રાપ્તિ થવા છતાંય પણ ગ્રંથિના રૂપમાં કર્મોને બંધ કરતા નથી.
જેવી રીતે જન્મથી આંધળાને કેઈપણ ઉપાયથી નેત્ર મળી જતાં પદાર્થોના અસલી સ્વરૂપને જોઈને અત્યંત હર્ષ થાય છે, અથવા જેમ કેઈમહાન રોગથી થવા વાળી મહાઘેર વેદનાથી પીડિત પુરૂષને રેગ નિવારણ થઈ જતાં તેને મહાન હર્ષ થાય છે. એ પ્રમાણે ભવ્ય જીવને અનિવૃત્તિના બળથી, ભગવાન વીતરાગદ્વારા કથિત
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आचाराने यथावस्थितवस्तुतत्त्वाऽभिरुच्या श्रद्धयाऽभूतपूर्वो विपयवैरस्यपुरस्कृतः प्रमोदः मादुर्भवति ।
॥अनिवृत्तिकरणम्ततश्च ग्रन्थिमेदोत्तरकालमेव ततो विशुद्धतम शुभाध्यवसायविशेषमनिवृत्तिकरणं प्राप्नोति, येन तावन्न निवर्तते जीवः सम्यक्त्वं न लभते यावदित्यनिवृत्तिकरणमुच्यते । अनिवृत्तिकरणवलेन जीवः सम्यगदर्शनं लभते। तदेव नैसगिकी श्रद्धोच्यते ।
ननु प्रागुक्तं ' मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोपशमादिभ्यः श्रद्धा जायते' पुनरुच्यते 'निसर्गादधिगमाद्वा श्रद्धा जायते । तदसंगतम् । वस्तुस्वरूप के प्रति रूचिरूप श्रद्धा से विपयवैराग्यपूर्वक एक ऐसा आनन्द उत्पन्न होता है, जिस का पहेले कभी अनुभव नहीं हुआ था।
अनिवृत्तिकरणअंथिभेद के अनन्तर काल में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है । वही अनिवृत्तिकरण कहलाता है। यह परिणाम प्राप्त होने पर जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना नहीं लौटता, इसी कारण इसे 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं । अनिवृत्तिकरण के द्वारा जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । उसी को नैसर्गिक श्रद्धा कहते हैं। .
शा--पहले कहा था कि-'मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उपशम आदि से श्रद्धा उत्पन्न होती है और बाद में कहते हैं कि-'निसर्ग से, अथवा अधिगम से श्रद्धा उत्पन्न होती है । यह कथन परस्पर असंगत है !
યથાર્થવસ્તુસ્વરૂપની રૂચિરૂપ શ્રદ્ધાથી વિષયવૈરાગ્યપૂર્વક એક એવો આનંદ ઉત્પન્ન થાય છે કે જેને પહેલા કોઈ વખત અનુભવ થયે નથી.
मनिवृत्तिर-- ગ્રંથિભેદના અનતર (તરતના) કાળમાં અત્યન્ત વિશુદ્ધ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે ते 'अनिवत्तिकरण' उपाय छे. या परिणाम प्राप्त थयां पछी १ सभ्यत्व प्राप्त यो विना पाछ। नयी ५२ते तथा सेन अनिवृत्तिकरण ४९ छ. अनिवृत्तिकरण ७५ દ્વારા સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત કરે છે. તેને જ નૈસર્ગિક (સ્વાભાવિક) શ્રદ્ધા કહે છે.
શકા–પહેલાં કહ્યું હતું કે- મિથ્યાત્વમોહનીય કર્મના ઉપશમ આદિથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે.” અને પછી કહે છે કે- નિસર્ગ અથવા અધિગમથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, એ કથન પરસ્પર અસંગત છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम्
अत्रोच्यते-स एव क्षयोपशमादिनिसर्गाधिगमाढा जायते, तथा च श्रद्धाया अपि तवयं कारणं सिद्धयतीति न दोपः।
ननु सम्यक्त्वगुणरहितेनैव जीवेन द्राधीयसी कर्मस्थितिम्रन्थिभेदापूर्व यथाप्रवृत्तिकरणेन यथा क्षपिता तथा तदवशिष्टमपि कर्मग्रन्थि यथाप्रवृत्तिकरणेनैव भिनत्तु, ततो मोक्षमप्येवमेव प्राप्नोतु किं पुनरपूर्वकरणालम्बनेन ? अत्रोच्यते-महाविद्यासाधनवदेतद् द्रष्टव्यम् । यथा महाविद्यायाः साधने पूर्व स्वल्प एव परिश्रमो भवति, तत्सिद्विमाप्तिसमये तु सा विधा तद्विद्याधिष्ठातृदेवताकृत
समाधान-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का क्षयोपशम आदि, निसर्ग से अथवा . अधिगम से होता है, ऐसी स्थिति में यह दोनों कारण श्रद्धा के ही हैं, अतः कोई दोष नहीं है।
शङ्का---जीव ने सम्यक्त्व न होने पर भी जैसे उतनी बडी भारी फर्मस्थितिको ग्रंथिभेद - से पहले ही यथामवृत्तिकरण के द्वारा खपा डाली इसी प्रकार शेप स्थिति भी यथामवृत्तिकरण के द्वारा ही खपा ले और मोक्ष भी इसी प्रकार प्राप्त करले फिर अपूर्वकरण का आश्रय लेने की क्या आवश्यकता है !
समाधान---- महाविद्या की साधना की तरह ही यहाँ समझना चाहिए। जैसे महाविद्या की साधना में पहले थोडा-सा श्रम होता है किन्तु जब उस को सिद्धि का समय नजदीक आता है तो वह विधाधिष्ठात्री देवताद्वारा किये जानेवाले नाना प्रकार के उपसर्गों द्वारा विनयुक्त हो जाती है और प्रायः अत्यन्त कष्टसाध्य बन जाती है,
સમાધાન–મિથ્યાત્વમેહનીય કર્મના ક્ષપશમ આદિ, નિસગથી અથવા અધિગમથી થાય છે, એવી સ્થિતિમાં આ બન્ને કારણે શ્રદ્ધાનાજ છે તેથી કઈ દોષ નથી.
શક–જીવને સમ્યકત્વ ન હોય તે પણ જેવી રીતે એવડી મહાભારી કમ રિસ્થતિને થિભેદના પહેલાજ યાત્રવૃત્તિના દ્વારા ખપાવી નાંખે છે તે પ્રમાણે શેષ સ્થિતિ પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણહારાજ ખપાવી નાંખે અને મેક્ષ પણ આ પ્રમાણે પ્રાપ્ત કરી લીએ તે પછી પૂર્વવાળને આશ્રય લેવાની શું આવશ્યકતા છે ?
સમાધાન~-મહાવિદ્યાની સાધના પ્રમાણેજ અહિં સમજી લેવું જોઈએ. જેમ મહાવિદ્યાની સાધનામાં પહેલાં શેડે એ શ્રમ થાય છે, પરંતુ જયારે તેની સિદ્ધિને સમય નજીક આવે છે ત્યારે તે વિદ્યાની અધિષ્ઠાત્રી દેવતા દ્વારા કરવામાં આવતા નાના પ્રકારના ઉપસર્ગો દ્વારા વિનિયુક્ત થઈ જાય છે. અને ઘણું કરીને અત્યન્ત કણસાધ્ય
पना ।
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आधाराने यथावस्थितपस्तुतत्त्वाऽभिल्या श्रद्धयाऽभूतपूर्वो विषयवेरस्यपुरस्कतः ममोदः प्रादुर्भवति ।
॥अनियत्तिकरणम्ततश्च ग्रन्थिभेदोत्तरकालमेव ततो विशुद्धतम शुभाध्यवसायविशेषमनिवृत्तिकरणं प्राप्नोति, येन तावन्न निवर्तते जीयः सम्यक्त्वं न लभते यावदित्यनिवृत्तिकरणमुच्यते । अनिटत्तिकरणवलेन जीवः सम्यगदर्शनं लभते । तदेव नैसगिकी श्रद्धोच्यते।
ननु मायुक्तं 'मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोपशमादिभ्यः श्रद्धा जायते' पुनरुच्यते 'निसर्गादधिगमाद्वा श्रद्धा जायते । तदसंगतम् । वस्तुस्वरूप के प्रति रूचिरूप श्रद्धा से विषयवैराग्यपूर्वक एक ऐसा आनन्द उत्पन्न होता है, जिस का पहेले कभी अनुभव नहीं हुआ था।
अनिवृत्तिकरण___ ग्रंथिभेद के अनन्तर काल में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है । वही अनियत्तिकरण कहलाता है। यह परिणाम प्राप्त होने पर जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना नहीं लौटता, इसी कारण इसे 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं । अनिवृत्तिकरण के द्वारा जीव सभ्यग्दर्शन प्राप्त करता है। उसी को नैसर्गिक श्रद्धा कहते हैं।
शा---पहले कहा था कि-'मिध्याल्वमोहनीयकर्म के उपशम आदि से श्रद्धा उत्पन्न होती है और बाद में कहते हैं कि-'निसर्ग से, अथवा अधिगम से श्रद्धा उत्पन्न होती है। यह कथन परस्पर असंगत है ?
યથાવસ્તુસ્વરૂપની રૂચિરૂપ શ્રદ્ધાથી વિષયવૈરાગ્યપૂર્વક એક એ આનંદ ઉત્પન્ન થાય છે કે-જેને પહેલા કેઈ વખત અનુભવ થયે નથી.
भनित्तिગ્રંથિભેદના અનન્તર (તરતના) કાળમાં અત્યન્ત વિશુદ્ધ પરિણુમ ઉત્પન્ન થાય છે ते 'अनिवत्तिकरण' उपाय छे. या परिणाम प्राप्त थयां पछी सम्यक्त्व प्राप्त
या विना छ। नथी परत तथा मेने अनिवृतिकरण ४ छ. अनिवृत्तिकरण દ્વારા સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત કરે છે. તેને જ નૈસર્ગિક સ્વાભાવિક) શ્રદ્ધા કહે છે.
શકા–-પહેલાં કહ્યું હતું કે- મિથ્યાત્વમેહનીય કમના ઉપશમ આતિથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે. અને પછી કહે છે કે- નિસર્ગ અથવા અધિગમથી શ્રદ્ધા ઉત્પા થાય છે, એ કથન પરસ્પર અસંગત છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.३ म. २ श्रद्धास्त्ररूपम्
४९५ स्थितपदार्थनिर्णयो जायते सोऽधिगमः, तस्मादुपशमादिद्वारेण तवाभिरुचिर्जायते सा-अधिगमश्रद्धा। ___श्रद्धया शमसंवेगादयः प्रादुर्भवन्ति, ततश्च राज्यादिविभा पुत्रदारादिकं स्वजनं सर्व परिणामदुःखपदं विषवत्परित्यज्य सर्वमुखसारभूतं नित्यं ध्रुवं शाम्यतिक मोसमुखं प्राप्नुकामः प्रबजितो भवति ।
संयमश्रेणिप्राप्तिकाले या प्रवृद्धपरिणामधारा वर्तते तां सर्वथा रक्षेन्न तु हासयेदिति भावः । श्रद्धायाः परमदुर्लभवाद, ज्ञानचारित्रकारणतया मोसस्यादि। अथवा वीतराग द्वारा निरूपित आगम के अर्थ का विचार करने से पदार्थों का यथार्थ निर्णय होता है । उस निर्णय को अधिगम कहते हैं । उस अधिगम से मिष्याव'मोहनीय का क्षय, उपशम आदि होने पर तत्वार्थ को जो रुचि होती है, वह अधिगम
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श्रद्धा से शम, संवेग आदि उत्पन्न होते हैं, अत एव "राज्य आदि वैभव तथा पुत्र, पत्नी आदि समस्त आत्मीयजन अन्त में दुःखदायक है" ऐसा जान कर, और विप के समान उन का परित्याग कर के सब सुखों में उत्तम, नित्य, ध्रुव, शाश्वतिक मोक्ष-मुख की इच्छावाला वह सम्यग्दृष्टि पुरुष दीक्षित हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि-संयमप्राप्ति के समय परिणामों की नो बढी हुई धारा थी उस को सब प्रकार से रक्षा करना चाहिए, उसे घटने नहीं देना चाहिए । श्रद्धा परम दुर्लभ है, और ज्ञान एवं चारित्र का कारण होने से मोक्ष का आद्य कारण है, अत एवं
વીતરાગદ્વારા નિરૂપિત આગમના અને વિચાર કરવાથી પદાર્થોને યથાર્થ નિર્ણય थाय छ त निश्यने अधिगम छ. ते अधिगमया मिथ्यात्वमाडनायनी क्षय-6शम २ाहि यया ५४ पानी रे ३थि थाय छे, अधिगमश्रद्धा छ.
શ્રદ્ધાથી શમ, સંવેગ આદિ ઉત્પન્ન થાય છે. એટલા માટે “રાજ્ય આદિ વિભવ તથા પુત્ર, પત્ની વગેરે સમસ્ત આત્મીયજન અંતમાં દુઃખદાયક છે. એ પ્રમાણે જાણીને વિશ્વની સમાન તેને ત્યાગ કરીને સર્વ સુખેમાં ઉત્તમ, નિત્ય, ધ્રુવ, શાશ્વતિક મોક્ષ સુખની ઇચ્છાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ પરૂપ દીક્ષિત થઈ જાય છે.
તાત્પર્ય એ છે કે-સંયમની પ્રાપ્તિના સમયે પરિણાની જે વધતી જતી ધારા હતી તેનું સર્વ પ્રકારથી રક્ષણ કરવું જોઈએ. તેને ઘટવા દેવી જોઈએ નહિ. શ્રદ્ધા પરમ દુર્લભ છે અને જ્ઞાન, એવી રીતે ચારિત્રનું કારણ હેવાથી મોક્ષનું મુખ્ય કારણ છે. એટલા માટે
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आंचारागसूत्रे विविधोपसगैः सविघ्ना कटतरसाध्या च मायशो भवति, तद्वद् ग्रन्यिमदो मन:क्षोमादिविविधोपसर्गः, परमवीर्याविष्कारपूर्वककाएतरसाध्यत्वेन च सविनोऽतिदुष्करच, तस्मात् केवलं यथामवृत्तिकरणेन ग्रन्थिभेदो न भवितुमर्हति, अत एका पूर्वकरणमावश्यकमिति । इत्थं चापूर्वकरणेन ग्रन्थिभेदं विधायाऽनिटत्ति-करणेन श्रद्धा लभ्यते ।
। अधिगमश्रद्धायेन प्रकारेण निसर्गतः श्रद्धा जायते स कथितः, अधुना-अधिगमश्रद्धा व्याख्यायते-अधि अधिकृत्य तीर्थङ्करायुपदेशे निमित्तीकृत्य गमः ज्ञानं यद्भवति सोधिगमः, वीतरागोपदेशश्रवणाद् वीतरागमाणीतागमार्थपर्यालोचनाद्वा यथावइसी प्रकार प्रन्थिभेद भी मनःक्षाम आदि अनेक उपसर्गों के कारण विघ्नयुक्त हो जाता है और अंथिभेद के करने में बड़ी शक्ति की आवश्यकता होती है, अत एव अकेले यथामतिकरण से ग्रंथिभेद नहीं हो सकता, उस के लिए अपूर्वकरण को आवश्यकता होती है । इस प्रकार असूर्वकरण-द्वारा ग्रन्थिभेद करने पर अनिवृत्तिकरण द्वारा श्रद्धा प्राप्त की जाती है।
अधिगमश्रद्धा
जिस प्रकार निसर्ग से श्रद्धा उत्पन्न होती है वह प्रकार कहा जा चुका । अब अधिगमश्रद्धा की व्याख्या की जाती है-तीर्थकर आदि के उपदेश के निमित्त से होने वाला ज्ञान अधिगम कहलाता है। चौतराग भगवान् का उपदेश सुनने से
બની જાય છે એ પ્રમાણે ગ્રંથિભેદ પણ મનઃક્ષોભ આદિ અનેક ઉપસર્ગોના કારણે વિદનયુક્ત થઈ જાય છે, અને તે સ્થિભેદના કરવામાં ભારે શક્તિની આવશ્યકતા હોય છે, એટલા માટે એકલા ચયાપ્રવૃત્તિથી ગ્રંથિભેદ થતો નથી, તેને માટે अपूर्वकरणनी मावश्यात २ छ, ये प्रमाण अपूर्वकरण द्वारा अथिलेह ४२ाथी अनिवृत्तिकरण-बारा श्री भारत ४२वामां आवे छे
अधिरामदाજે પ્રમાણે નિસર્ગથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે તે પ્રકાર કહેવામાં આવી ગયે છે. હવે ધાત્રાની વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે-તીર્થકર આદિના ઉપદેશના નિમિત્તથી થવાવાળું જ્ઞાન તે જિન કહેવાય છે. વીતરાગ ભગવાનને ઉપદેશ સાંભળવા અથવા
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भाचारचिन्तामणि- टीका अध्य० १ उ. ३ ० ३ श्रद्धास्वरूपम्
॥ टीका ॥
वीरा:= परीपडोपसर्गकपायादिरूपशत्रु विजयिनो भाववीराः संयमानुष्ठाने वीर्यचन्दः सर्वोत्कृष्टा इति यावत्,
४९७
महती चासौ वोधिः महावीथिः =सम्यग्ज्ञानादिलक्षणो महामार्गः, महापुरुपसेवितत्वाद, तां महावीथिम् प्रणताः प्राप्ताः कठिनतरतपः संयमाराधनेन मावन्त इत्यर्थः, अयमेव मार्गो मोक्षावाप्तिकरोऽशेषसंयमसेवितत्वात । तीर्थङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गमिममनुशीलितवन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणां श्रद्धापूर्वकमवृत्तिर्यथा स्यादिति भावः ।
यथा राजानो विपक्षपक्षदलनाद् वीरत्वेन प्रसिद्धा भवन्ति, एवमेव
टीकार्य - परीपह, उपसर्ग, कषाय आदिरूप शत्रुओं को जीतनेवाले, संयम के आचरण में पराक्रम करनेवाले सर्वोत्कृष्ट भाववीर यहाँ 'वीर' शब्द से ग्रहण किये गये हैं ।
सम्यग्ज्ञान आदि मोक्ष का महामार्ग 'महावीथि' कहलाता है, क्यों कि महापुरुषोंने उस का सेवन किया है | भाववीर इस महामार्ग को प्राप्त हुए हैं । अत्यन्त कठोर तप और संयम का आराधन करना ही इस मार्ग को प्राप्त करना है । यही मार्ग मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है, क्योंकि समस्त मुनियोंने इसी का सेवन किया है। तीर्थंकर आदि महापुरुषोंने भी इसी मार्ग का आश्रय लिया है, अत एव विश्वसनीय समझ कर शिष्यगण को भी इसी में प्रवृत्ति होनी चाहिए।
'वीर' पद से यह प्रकट किया गया है कि-जैसे राजा लोग अपने शत्रुओं का ટીકા-પરીષહ, ઉપસ કષાય વગેરે શત્રુને જીતવાવાળા, સયમના भायरशुभां पराईम ४रवावाजा सर्वोत्कृष्ट लाववीर अहिं 'वीर' शब्द पटेल કરવામાં આવ્યા છે.
सभ्यग्ज्ञान माहि भोक्षनेो भार्ग ते "महावीथि” उडेवाय छे, अश्शुभहाઉષાએ તેનું સેવન કર્યુ” છે. ભાવવીર આ મહામાર્ગને પ્રાપ્ત થયા છે. અત્યન્ત કઠોર તપ અને સંયમનું આરાધન કરવું એ જ આ માર્ગને પ્રાપ્ત કરવા તે છે. આ માજ માક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવવાવાળા છે, કારણુ કે સમસ્ત મુનિએએ એ માગના સેવન કર્યુ. છે. તીર્થંકર આદિ મહાપુરૂષોએ પણ આ માર્ગના આશ્રય લીધે છે, એટલા માટે આ માર્ચને વિશ્વાસપાત્ર સમજીને શિષ્યગણની પણ આ માગમાં પ્રવૃત્તિ થવી જોઈએ.
'वीर' यहथी से प्रगट करवामां मन्युं छे - शन्न सो पोताना शत्रुमानी म. मा.-६३
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४९६
भाचारातसंत्रे
कारणत्वाच्च श्रद्धां न परित्यजेत् । यथा-कथञ्चित्माप्तस्यापि संयमस्य श्रद्धापूर्वक रक्षणे यावज्जीवं सावधानो भवेदिति सुत्राशयः ॥ सू० २ ॥
शिष्यश्रद्धादृढीकरणाय 'परिशीलितमार्गोऽनुगम्यते ' इति लोकरीत्या 'पूर्वमहापुरुषाचरितोऽयं मार्गः' इत्याशयेन कथयति
"
यद्वा ' पूर्व महापुरुपतीर्थङ्कर - गणधरादिभिरप्याचरितोऽयं मार्गः' इति प्रदर्शनाय शिष्यचेतसि श्रद्धातिरेको यथा स्यात्तथा सूत्रकारः स्वयमाह - ' पणया ' इत्यादि ।
॥ मूलम् ॥ पणया वीरा महावीहि ॥ सू० ३ ॥
॥ छाया ॥
प्रणता वीरा महावीथिम् ॥ सू० ३ ॥
श्रद्धा का त्याग नहीं करना चाहिए, आशय यह है कि बड़ी कठिनाई से प्राप्त होने वाले संयम की श्रद्धापूर्वक रक्षा करने में जीवनभर सावधान रहना चाहिए ॥सू. २॥
'चले मार्ग पर चला जाता है' इस लोकव्यवहार के अनुसार शिष्य की यह मार्ग पूर्वकालीन महापुरुषों द्वारा आचरित है
1
1
श्रद्धा मजबूत करनेके लिए
इस आशयसे कहते हैं-
अथवा - 'पूर्वकाल के तिर्थकर गगघर आदिने भी इसी मार्ग का अवलम्बन किया है' यह बतलाते हुए शिष्य के चित्त की श्रद्धा बढाने के लिए कहते हैं: 'पणया' इत्यादि ।
.
-
मूलार्थ - वीर पुरुष महामार्ग को प्राप्त हुए | सू. ३ ॥
શ્રદ્ધાના ત્યાગ કરવા જોઈએ નહિ; આશય એ છે કેઃ-મહાન કર્ડિનાઈથી પ્રાપ્ત થવાવાળા સયમની શ્રદ્ધાપૂર્વક રક્ષા કરવામાં જીવનના છેલ્લા રક્ષણ સુધી સાવધાન राहेवु लेह से. (सू. २ )
፡፡
ચાલતા માર્ગ પર ચલાવાય છે. ” આ લેાકવ્યવહાર પ્રમાણે શિષ્યની શ્રદ્ધા મજબૂત કરવા માટે માગ પૂર્વકાલીન મહાપુરૂષોએ આચરણ કરેલ છે. '. આ આશયથી કહે છે—
અથવા પૂર્વ કાલના તીથ"કર ગણધર આદિ સૌએ આ માનું અવલમ્બન (માશ્રય) કર્યું. એ બતાવવા માટે શિષ્યના ચિત્તની શ્રદ્ધાને વધારવા માટે કહે છે——
पणया ' इत्यादि.
શૂલાથ વીર પુરૂષ મહામાર્ગને પ્રાપ્ત થયા-( વીર પુરૂષ મહામાર્ગને प्राप्त यो ) ( सू. 3 )
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आवारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ मु. ३ श्रद्धास्वरूपम् ४९७
॥ टीका ॥ वीराः परीपहोपसर्गकपायादिरूपशत्रुविजयिनो भाववीराः संयमानुष्टाने कीर्यवन्तः सर्वोत्कृष्टा इति यावत्,
महती चासो वीथिः महावीयिः सम्यग्ज्ञानादिलक्षणो महामार्गः, महापुरुषसेवितत्वाद, तां महावीथिम् प्रणता-माताः कठिनतरतपःसंयमाराधनेन प्राप्तवन्त इत्ययः, अयमेव मार्गों मोक्षावाप्तिकरोऽशेपसंयमिसेवितत्वात् । वर्थिङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गमिममनुशीलितवन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणां श्रद्धापूर्वकमवृत्तिर्यया स्यादिति भावः ।
यथा रानानो विपक्षपक्षदलनाद् वीरत्वेन प्रसिद्धा भवन्ति, एवमेव
टीकार्य-परीपह, उपसर्ग, कपाय आदिरूप शत्रुओं को जीतनेवाले, संयम के आचरण में पराक्रम करनेवाले सर्वोत्कृष्ट भाववीर यहाँ 'वीर' शब्द से ग्रहण किये गये हैं।
सम्याज्ञान मादि मोक्ष का महामार्ग 'महाबीपि' कहलाता है, क्यों कि महापुरुषोने उस का सेवन किया है। भाववीर इस महामार्ग को प्राप्त हुए हैं। अत्यन्त कठोर तप और संयम का आराधन करना ही इस मार्ग को प्राप्त करना है। यही मार्ग मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है, क्यों कि समस्त मुनियोंने इसी का सेवन किया है । तीर्थंकर आदि महापुरुषोंने भी इसी मार्ग का आश्रय लिया है, अत एवं विश्वसनीय समझ कर शिष्यगण को भी इसी
में प्रवृत्ति होनी चाहिए।
'वीर' पद से यह प्रकट किया गया है कि जैसे राजा लोग अपने शत्रुओं का
ટીકાથપરીષહ, ઉપસર્ગ કપાય વગેરે શત્રુઓને જીતવાવાળા, સંચમના भायरमा ५२४ ४२वावाणा वाट सापपी२ मडि 'वीर' १७४ १3 अहए કરવામાં આવ્યા છે.
सभ्यज्ञान माहिमाक्षना भाग ते "महावीथि उपाय छ, सर महाઉરૂપાએ તેનું સેવન કર્યું છે. ભાવવીર આ મહામાર્ગને પ્રાપ્ત થયા છે. અત્યન્ત કઠોર તપ અને સંયમનું આધિન કરવું એ જ આ માર્ગને પ્રાપ્ત કરવો તે છે. આ માગજ મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવવાવાળે છે, કારણ કે સમસ્ત મુનિઓએ એ માર્ગને સેવન કર્યું છે. તીર્થંકર આદિ મહાપુરૂએ પણ આ માર્ગને આશ્રય લીધો છે, એટલા માટે આ માને વિશ્વાસપાત્ર સમજીને શિષ્યગણુની પણ આ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ થવી જોઈએ.
વી પદથી એ પ્રગટ કરવામાં આવ્યું છે કે જેમાં રાજા લેક પિતાના શત્રુઓને
प्र.मा.-६३
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आचाराज्ञसूत्रे
५००
इच्छंति, जीविउ न मरिज्जिउं ' इति वचनात् । तमप्कायलोकं समनुपालयेदिति सम्बन्धः । संयमी सर्वप्राणिगणपरिपालक एवं सन् नान्यस्मै भयमुत्पादयति, 'मिती मे सव्त्रभृएस' इति वचनेन तस्य सर्वैः सह मैत्रीसद्भावात्, अतोऽसौ संयमी न तेभ्यो भयं जनयति, कस्मैचिदपि भयं केनापि नोत्पादयति, प्रत्युत सर्वप्राणिगणं परिरक्षतीति भावः ।
यद्यपि छद्मस्यैः प्राणिभिः सर्वद्रव्यपर्यायज्ञानाभावाद्बुद्धिसंस्कारराहित्येनाष्कायजीवस्याव्यक्तचेतनया च 'आपो जीवाः सन्ती 'त्यपरोक्षत्वेन कदाचिदपि ज्ञातुं न शक्यते, तथापि सकळतीर्थोद्धारधुरीण - तीर्थङ्कर-वचनप्रामाण्यादवश्यं
आगम में कहा है- ' सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं मरना नहीं चाहते । " उस अप्कायलोक का पालन करे अर्थात् रक्षण करे । संयमी पुरुष समस्त प्राणियों का रक्षक होता है । वह किसी भी प्राणी को भय उत्पन्न नहीं करता । " मेरा सब प्राणियों पर मैत्रीभाव है " इस वचन के अनुसार उस की प्राणीमात्र पर मित्रता की भावना होती है । इस कारण संयमी उन्हे भय उत्पन्न नहीं करता, किसी को भी किसी द्वारा भय उत्पन्न नहीं कराता, बल्कि वह सब प्राणियों की रक्षा करता है ।
यद्यपि छमस्थ जीवों को समस्त द्रव्यों का ज्ञान नहीं होता इस कारण, तथा बुद्धि, संस्कार से रहित होने के कारण अप्काय के जीवों में अव्यक्त चेतना होने से, तथा 'जल जीव है' यह बात प्रत्यक्ष न होने से कभी इन्द्रियों द्वारा जानी नहीं जा सकती, फिर भी सम्पूर्ण तीर्थ का उद्धार करने में समर्थ तीर्थङ्कर के वचनों को प्रमाण માગમમાં પશુ કહ્યું છે કેઃ “સ* જીવ જીવતા રહેવાની ઇચ્છા કરે છે, મરવાની ઈચ્છા કરતા નથી.” તે અપ્કાયલેાકનું પાલન કરે અર્થાત્ રક્ષા કરે. સંચમી પુરૂષ સમસ્ત પ્રાણીઓના રક્ષક થાય છે. તે કોઈ પણ પ્રાણીને ભય ઉત્પન્ન કરતા નથી. ૮ સર્વ પ્રાણીઓ પર મારા મૈત્રીભાવ છે.’ આ વચન પ્રમાણે તેની સ પ્રાણીમાત્ર પર મિત્રતાની ભાવના હાય છે, તે કારણથી સંયમી તે જીવાને ભય ઉત્પન્ન કરતા નથી, કોઈને પણ કાઇથી ભય ઉત્પન્ન કરાવતા નથી, પરંતુ તે સવ પ્રાણીઓની રક્ષા કરે છે.
જો કે છદ્મસ્થ જીવાને સમસ્ત દ્રવ્યે અને પર્યાયાનું જ્ઞાન નથી; તે કારણથી તથા મુદ્ધિ, સંસ્કારથી રહિત હોવાથી અકાયના જીવામાં અવ્યક્ત ચેતના હોવાથી, તથા
6
જલ જીવ છે' એ વાત મત્યક્ષ નહિ હેવાયી ઈન્દ્રિયાદ્વારા કોઈ વખત જાણવામાં આવતી નથી તે પણ સંપૂર્ણ તીથૅના ઉદ્ધાર કરવામાં સમય તીર્થંકરના વચનને પ્રમાણ
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य० १ उ. ४ अफायश्रद्धोपदेशः विधासो विधेयः । अवध्यादिप्रत्यक्षतानिनोऽपि पूर्व भगवदाज्ञायां श्रद्धावन्तः सन्त एवाऽकायजीवान् विज्ञाय प्रत्यक्षज्ञानिनः संजाताः, अतः संयमिभिरवश्यमप्कायादिजीवरक्षायां सावधनिर्भवितव्यमिति परमार्थः ॥ ० ४ ॥
अप्कायलोकं भगवदाज्ञया विज्ञाय संपमिना यत् कर्तव्यं, तत् कथयति- से चेमि' इत्यादि।
से बेमि-णेव सयं लोग अभाइविखज्जा, णेच अत्ताणं अभाइक्विज्जा, जे लोयं अन्माइक्वइ से अत्ताणं अन्भाइक्खह, जे अत्ताणं अमाइवखइ, से लोयं अभाइक्रवइ ।। सू० ५ ॥
छायास ब्रवीमि नैव स्वयं लोकमभ्याख्यात, नैवात्माननमभ्याख्यात्, यो लोकमभ्याख्याति, स आत्मानमभ्याख्याति, य आत्मानमभ्याख्याति, स लोकमभ्याख्याति ।। सू०५॥ मानकर अवश्य विश्वास करना चाहिए । अवधिज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानी भी पहले भगवान् की आज्ञा पर श्रद्धा रखते हुए अप्काय के जीवों को नान कर प्रत्यक्षज्ञानी हुए, अतः संयमी जनों को अप्काय आदि के जीवों की रक्षा में सावधान होना चाहिए ।। सू. ४ ॥
भगवान् की आज्ञा से अप्कायलोक को जान कर संयमी को जो करना चाहिये वह प्रगट करते हैं-से वेमि' इत्यादि ।
मलाथ-वह मै कहता हूँ-स्वयं अपकायलोक का अपलाप न करे, आत्मा का अपलाप न करे, जो लोक का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है, और जो आत्मा का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है ।। सू. ५ ॥ માનને અવશ્ય વિશ્વાસ કરવો જોઈએ. અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાની પણ પ્રથમ ભગવાનની આજ્ઞા પર શ્રદ્ધા રાખીને અપકાયના જીવેને જાણી કરીને પ્રત્યક્ષજ્ઞાની થયા, એ માટે સંયમી પુરૂએ અપ્લાય આદિના જીવોની રક્ષામાં સાવધાન રહેવું જોઈએ, (સૂ. ૪)
ભગવાનની આજ્ઞાથી અપૂકાલકને જાણીને સંયમીનું જે કર્તવ્ય છે તે પ્રગટ ४२ छ-'से बेमि' त्यादि.
મલાથ...તે હું કહું છું તે અપકાય લોકો અપલોપ-(હેવા છતાં નથી કહેવું તે) ન કરે. આત્માને અપલાપ કરે નહિ. જે લેકને અપલાપ કરે છે તેં આત્માને અપલોપ કરે છે. અને જે આત્માને અપલાપ કરે છે તે લેકને અપલાપ કરે છે. (સૂ. ૫)
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आचाराने इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं' इति वचनात् । तमप्कायलोकं समनुपालयेदिति सम्बन्धः। संयमी सर्वप्राणिगणपरिपालक एवं सन् नान्यस्मै भयमुत्पादयति, 'मिती मे सबभूएसु' इति वचनेन तस्य सर्वेः सह मैत्रीसद्भावाव, अतोऽसौ संयमी न तेभ्यो भयं जनयति, कस्मैचिदपि भयं केनापि नोत्पादयति, प्रत्युत सर्वपाणिगणं परिक्षतीति भावः ।
यद्यपि छमस्थैः प्राणिभिः सर्वद्रव्यपर्यायज्ञानाभावादयुद्धिसंस्कारराहित्येनाकायजीवस्यान्यक्तचेतनया च 'आपो जीवाः सन्ती'-त्यपरोक्षत्वेन कदाचिदपि ज्ञातुं न शक्यते, तथापि सकलतीर्थोद्धारधुरोण-तीर्थङ्कर-वचनप्रामाण्यादवश्यं आगम में कहा है-'सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं मरना नहीं चाहते।" उस अप्कायलोक का पालन करे अर्थात् रक्षण करे । संयमी पुरुष समस्त प्राणियों का रक्षक होता है । वह किसी भी प्राणी को भय उत्पन्न नहीं करता । " मेरा सब प्राणियों पर मैत्रीभाव है" इस वचन के अनुसार उस की प्राणीमात्र पर मित्रता की भावना होती है । इस कारण संयमी उन्हे भय उत्पन्न नहीं करता, किसी को भी किसी द्वारा भय उत्पन्न नहीं कराता, बल्कि वह सब प्राणियों की रक्षा करता है ।
___ यद्यपि छमस्थ जीवों को समस्त द्रव्यों का ज्ञान नहीं होता इस कारण, तथा बुद्धि, संस्कार से रहित होने के कारण अपकाय के जीवों में अध्यक्त चेतना होने से, तथा 'जल जीव है। यह बात प्रत्यक्ष न होने से कभी इन्द्रियों द्वारा जानी नहीं जा सकती, फिर भी सम्पूर्ण तीर्थ का उद्धार करने में समर्थ तीर्थकर के वचनों को प्रमाण
આગમમાં પણ કહ્યું છે કે-“સર્વ જીવ જીવતા રહેવાની ઈરછા કરે છે, મરવાની ઈચ્છા કરતા નથી.” તે અષ્કાયલેકનું પાલન કરે અર્થાત રક્ષા કરે. સંયમી પુરૂષ સમસ્ત પ્રાણીઓના રક્ષક થાય છે. તે કઈ પણ પ્રાણીને ભય ઉત્પન્ન કરતા નથી.
સર્વ પ્રાણીઓ પર મારે મૈત્રીભાવ છે. આ વચન પ્રમાણે તેની સર્વ પ્રાણીમાત્ર પર મિત્રતાની ભાવના હોય છે, તે કારણથી સંયમી તે જીને ભય ઉત્પન્ન કરતા નથી, કોઈને પણ કેઈથી ભય ઉત્પન્ન કરાવતા નથી, પરંતુ તે સર્વ પ્રાણીઓની રક્ષા કરે છે.
જે કે છદ્મસ્થ જીને સમસ્ત દ્રવ્ય અને પર્યાનું જ્ઞાન નથી, તે કારણથી તથા બુદ્ધિ, સંસ્કારથી રહિત હેવાથી અષ્કાયના જીમાં અવ્યક્ત ચેતના છેવાથી, તથા
જાલ છવ છે એ વાત પ્રત્યક્ષ નહિ હેવાથી ઈન્દ્રિયોદ્વારા કેઈ વખત જાણવામાં આવતી નથી તે પણ સંપૂર્ણ તીર્થને ઉદ્ધાર કરવામાં સમર્થ તીર્થંકરના વચને પ્રમાણ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ स. ५ अकायश्रद्रोपदेशः ५०३ अनुमानागमाभ्यां जीररक्षणकलापसम्बन्धाचापां जीवत्वनिरूपणात् ।
यद्यपकायलोकस्याभ्याख्यानं कुर्यात्, तर्यात्मनोऽपि शरीराधिष्टातुरभ्याख्यान तेन कर्तव्यं स्यात्, न च तत् संभवतीत्यत आह-नवमात्मानमभ्याख्यादिति । आत्मा हि शरीराधिष्ठाता प्रत्यक्षतर्थतनावानिति नापहोतुं शक्यः, तरमादारमा नास्तीत्येवमात्मानं नापलपेदित्यर्थः ।
यः खलु मन्दधीः लोकम् अण्कायलोकम् अभ्याख्याति अपलपति, स मत्यक्षादिममाणनिरूपितमात्मानमभ्याख्याति । यथात्मानमभ्याख्याति-'आत्मा नास्तीति यहा-'अहं नास्मीति, स महामृदः लोकम् अप्कायलोक
समाधान-ऐसा मत कहो । अनुमान और आगमप्रमाण से तथा जीव के लक्षणों के संबंध से जल को जीव निरूपण किया गया है।
यदि अप्फाय लोक फा अभ्याख्यान किया जाय तो शरीर के अधिष्ठाता आत्मा का भी अभ्याख्यान करना होना मगर वह संभव नहीं है, यही बात कहते हैंआरमा का अभ्यास्यान न घरे। आत्मा शरीर का अधिष्ठाता है और प्रत्यक्ष चेतना वाला है, अतः उस का अपलाप नहीं किया जा सकता। अत एव 'आरमा नहीं है।" इस प्रकार आत्मा का अपलाप न करें।
जो मन्दबुद्धि अप्कायलोक का निषेध करता है यह प्रत्यक्ष जादि प्रमाणों से सिद्ध मामा का अपलाए करता है। और जो 'आत्मा नहीं है, अथवा मैं नहीं है' इस तरह आत्मा का अपलाप करता है वह महामूढ मनुष्य अपने अज्ञान के बल से
સમાધાન–આ પ્રમાણે કહે નહિ, અનુમાન અને આગમ પ્રમાણથી તથા જીવના લક્ષણેના સંબંધથી જલનું જીવપણું નિરૂપણ કર્યું છે. જે અષ્કાય-કનું અભ્યાખ્યાન કરવામાં આવે તે શરીરના અધિષ્ઠાતા આત્માનું પણ અભ્યાખ્યાન કરવું પડશે. પરંતુ તે સંભવ નથી. એ વાત કહે છે
આત્માનું અભ્યાખ્યાન કરશો નહિ, આત્મા શરીરને અધિષ્ઠાતા છે, અને પ્રત્યક્ષ ચેતનાવાળા છે. તેથી તેને અલાપ કરી શકાશે નહિ. એટલા માટે “આત્મા નથી એ પ્રમાણે અપલાપ કરશે નહિ.
જે મંદ બુદ્ધિવાળા અષ્કાયલેકને નિષેધ કરે છે, તે પ્રત્યક્ષ આદિ-પ્રમાણોથી सिद्ध-मामान ५५५ ४२ छ, भने रे "मात्मा नथी" अथवा "नधी मे પ્રમાણે આત્માને અપલાપ કરે છે તે મહામૂઢ મનુષ્ય પિતાના અજ્ઞાનના બળથી
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___ . . . आचारामने टीका-
. सोऽहं भगवद्वचनेन ज्ञाताप्कायस्वरूपः, ब्रवीमि यया भगवतः सकाशान्मया श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः । लोकम् अपकायलोक, नैव स्वयम् अभ्याख्या= आपो जीवा न सन्ती'-त्येवं नापलपेदित्यर्थः । अभ्याख्यानं नामासदभियोगः, यथा कश्चिदचौरमुद्दिश्य वदति-चोरोऽयमिति । अत्र तु-'घृततेलादिवज्जीवानामुपकरणमात्रं जलं, न तु तद् जीवो भवितुमर्हति, जीयोपकरणत्वात् ' एतत्कथनमेवासदभियोगः, यतो हि तुरगादीनां जीवानामपि जीवोपकरणत्वेन सृष्टत्वादुक्तरीत्या जलस्य जीवत्वं नापलपितुं शक्यते ।
नवजीवानामपां जीवत्वारोपणमेवाभ्याख्यानं कुतो न भवति ? मैवम्,
टीकार्थ-भगवान् के वचनों के अनुसार अप्काय का स्वरूप जानने वाला में कहता हूँ, अर्थात् मैंने भगवान के समीप जैसा जाना है वैसा ही कहता हूँ-स्वयं अप्कायरूप लोक का अपलाप न करे अर्थात् ऐसा न कहे कि-'जल जीव नहीं है। ____ असत् आरोप को अभ्याख्यान कहते हैं, जैसे अचौर को चौर कहना । यहाँ " घी तेल आदि के समान जल, जीवों का उपकरणमात्र ही हो सकता है, वह स्वयं जीव नहीं है, क्योंकि जीव का उपकरण है"। इस प्रकार का कथन ही असत्-अभियोग है । क्यों कि घोडा वगैरह जीव भी जीवोपकरण के रूप में देखे जाते हैं, अतः जल के जीवपन का अपलाव नहीं किया जा सकता।
शंका---अजीव जल में जीवत्व का आरोप करना ही अभ्याख्यान क्यों न समझा जाय?
ટીકાથ–ભગવાનનાં વચનો પ્રમાણે અપ્લાયનું સ્વરૂપ જાણવાવાળો હું કહે છે, અર્થાત મેં ભગવાનની પાસેથી જેવું સાંભળ્યું છે તેવુંજ કહું છું—પોતે અપકાય રૂપ લેકને અપલાપ કરે નહિ, અર્થાત એવું કહે નહિ કે - જલ જીવ નથી. અસત આપને અભ્યાખ્યાન કહે છે, જેમકે અચૌરને ચીર કહે. અહિં “ધી તેલ આદિ પ્રમાણે જલ એ જીવેનું ઉપકરણમાત્રજ હોઈ શકે છે, તે સ્વયં જીવ નથી, કારણ है." त पर्नु 6५३२९ छे, 24 प्रारj gr-मसत् (मिथ्या) मनियार छ, કારણુકે ઘડા વગેરે જીવ પણ જીપકરણના રૂપમાં જોવામાં આવે છે. તેથી જલનું જીવપણું અ૫લાપ કરી શકાય નહિ.
શંકા–અજીવ પાણીમાં જીવપણને આરેપ કર તેજ અભ્યાખ્યાન શા માટે नडि समा?
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५०५
आचारचिन्तामणि- टोका अभ्य० १ उ. ३ . ६ अष्कायशखम् farade सत्धेहि उदयकम्मसमारंमेणं उदयसत्यं समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे
पाणे विहिंसंति | सू० ६ ॥
छाया
Metafores
लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इति एके मवदमानाः यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः उदककर्म समारम्भेण, उदकशखं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपाम् प्राणान् विहिंसन्ति ॥ ०६ ॥
टीका
,
एके= अन्ये लज्जमाना:- अप्कायस्यारम्भे परमकरुणया द्रवितहृदयतया संकोचमापद्यमानाः पृथक् = विभिन्नाः केचित्तु प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनः पर्ययकेवलिनः केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानोऽनगाराः सन्ति इति पश्य । इमे सूक्ष्मवादराकायारम्भकरणे मीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैरकायारम्भपरिस्यागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः ।
अकाय का आरम्भ करते हैं वे अकाय के शस्त्रों का भारंभ करने वाले अनेक प्राणियों के प्राणों का हनन करते हैं | सू. ६ ॥
टीकार्थ-तीकरुणा से द्रवित हृदयवाले कोई-कोई ( अनगार ) अपकाय के आरंभ में संकोच करते हैं- अप्काय का आरंभ नहीं करते वे विभिन्न हैं- कोई अवधिज्ञानी कोई मन:पर्ययज्ञानी और कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा अनगार हैं, उन्हें देखो । ये सूक्ष्म बादर अकाय का आरंभ करने में भोत हैं, त्रस्त हैं, उद्विग्न हैं, और तीन कारण तीन योग से 'अपूकाय के आरंभ के त्यागी हैं, उन्हें देखो ।
અપ્લાયના આરંભ કરે છે; તે અખાયના શલેાના આરંભ કરવાવાળા અનેક પ્રાણીઆના પ્રાણાના નાશ કરે છે. (સૂ. ૫)
ટીકા તીવ્ર કરૂણાથી દ્રવિત હૃદયવાળા કઈ-કઈ અણુગાર આર’ભમાં સકાચ કરે છે—અપ્કાયના આરભ કરતા નથી તે જૂદા છે. કેઈ અવધિજ્ઞાની, કાઈ મનઃપયજ્ઞાની અને કાઈ પરાક્ષજ્ઞાની ભાવિતાત્મા અણુગાર છે, તેને જુએ તે સૂક્ષ્મ અને માદર અપ્કાયને! આરંભ કરવામાં ભય પામેલા છે, ત્રસિત છે, ઉદ્વિગ્ન छे, भने ४२त्रशु· योगथी अच्छायना आरंभंना त्यागी छे. तेने..
प्र. आ.-६४
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भाषाराज स्वाज्ञानवलादभ्याख्याति । करचरणमुखाघवयवसहितशरीराधिष्ठाता मुव्यक्तोपयोगादिलक्षणः स्वात्माऽपि येनाभ्याख्यातस्तस्यान्यक्तोपयोगादिलक्षणस्यापकायस्याभ्या ख्यानं किं नु नाम दुष्करम् १ ॥ सू०५॥
___ अप्कायलोकस्याम्याख्याने चहुदोपापातो भवतीति पर्यालोच्यानगारा अप्कार्य नोपमर्दयन्ति । दण्डिशाक्यादयस्तु नानगारा भवितुमर्हन्ति, तेपामप्कायोपमर्दकत्वादित्याह-'लज्जमाणा' इत्यादि ।
मूलम्-~लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मो-ति एगे पत्रयमाणा जमिणं अपकाय का अपलाप करता है । जिस ने हाथ, पैर, मुख आदि अवयवों से युक्त शरीर के अधिष्ठाता, तथा अत्यन्त स्पष्ट उपयोग आदि लक्षणों वाले आत्मा का ही अपलाप कर दिया तो उस के लिए अस्पष्ट उपयोग आदि लक्षणों वाले अपफाय का अपलाप करना कुच्छ भी कठिन नहीं है। सू. ५॥
अप्काय का अपलाप करने से बहुत से दोष आते हैं, ऐसा विचार कर अनगार अप्काय की विराधना नहीं करते। दण्डी और शाक्य आदि, अनगार नहीं हो सकते, क्यों कि वे अपकाय की विराधना करते हैं। यह बात इस सूत्र में बतलाते हैं-'लज्जमाणा' इत्यादि।
मूलार्थ- अप्काय की हिंसासे संकोच करने वालों को अलग समझो, और 'हम अनगार हैं' ऐसा कहने वालों को अलग समझो। जो नाना प्रकार के शस्त्रों से
અષ્કાયને અપલાપ કરે છે. જેણે હાથ, પગ, મુખ આદિ અવયવોથી યુક્ત, શરી ૨ના અધિષ્ઠાતા, તથા અત્યન્ત સ્પષ્ટ ઉપગ આદિ લક્ષણોવાળા આત્માનેજ અમલાપ કરી દીધે, તેને માટે અસ્પષ્ટ ઉપગ આદિ લક્ષણવાળા અષ્કાયને અપલાપ કરવો તે sis डिन नथी. (सू. ५)
અષ્કાયને અ૫લાપ કરવાથી ઘણાજ દેવ આવે છે, એ વિચાર કરીને અણુગાર અખાયની વિરાધના કરતા નથી, દંડી અને શાકય આદિ, અણગારે થઈ શકતા નથી. કારણ કે તેઓ અષ્કાયની વિરાધના કરે છે. તે વાત આગળના સૂત્રમાં भता छ-'लजमाणा' त्यादि.
મલાથ–અષ્કાયની હિંસાને સકેચ કરવાવાળાને જુદા જાણે અને અમે અણગાર છીએ.” એ પ્રમાણે કહેવાવાળાને પણ જૂદા જાણે. જે નાના પ્રકારનાં શોથી
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३. ३ सू. ६ अप्कायशस्त्रम् ५०७ दाली-चणक-वल्लादिकम् । तदुभयशस्त्र-मृत्तिकादिमिश्र जलम् । भावशस्त्रम् अपः प्रति मनोवाकायानां दुष्प्रणिहितत्वम् । एतैः शखैः उदकर्मसमारम्मेण-उदयकस्य कर्मसमारम्भः उदककर्मसमारम्भा उदकमाश्रित्य ज्ञानावरणीयाधप्टविधकर्मबन्धनिवन्धनसावधव्यापारस्तेन, इमम् अकार्य विहिंसन्ति । __अकायहिंसाया महत्ताः खलु पहजीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्ती. त्याह-' उदकशस्त्र'-मित्यादि, उदकरास्त्रम्उदकोपमर्दकं शस्त्रं, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रं, तद् पूर्वोक्तमकारं द्रव्यमावभेदमिन्नं समारममाणः उदककार्य प्रति च्यापारयन्तः, अन्यान-अकायभिन्नान् अनेकरूपान् पृथिवीकायादीन् स्थावरान्, द्वीन्द्रियादीन् सांश्च विहिंसन्ति । शास्त्र है। मिट्टी आदि से मिला हुआ जल उभयकायशन है। जल के विषय में मन, वचन और कायका दूषित प्रयोग करना भावशास्त्र है । इन शस्त्रों से जलकर्म का समारंभ कर के अर्थात् जल के आरंभद्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों के बंध कारणभूत सावध व्यापार कर के जलकाय की हिंसा करते हैं ।
जो जलकाय की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं वे पदकायरूप समस्त लोक की हिंसा करते हैं, यह बतलाते हैं-'उदयसत्थं.' इत्यादि।
जिस के द्वारा हिंसा की जाय उसे शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दा प्रकार के हैंदव्यशस्त्र और भावशस्त्र | जिस से अप्काय को हिंसा हो वह अपक्रायशन है। अपकायशत्र का अपकाय के विषय में प्रयोग करने वाले अप्काय से भिन्न अनेक पृथ्वीकाय आदि स्थावरों की, तथा द्वीन्द्रिय आदि स जीवों की हिंसा करते हैं। દાલ, ચણા, વાલ આદિ પરકાયા છે. માર્ટી આદિથી મળેલું જલ ઉભયકાયશ છે. જલના વિષયમાં મન, વચન અને કાથાને દ્રુષિત પ્રયોગ કરે તે ભાવશસ્ત્ર છે. એ શોથી જલકનો સમારંભ કરીને, અર્થાત્ જલના આરંભદ્વારા જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોના બંધના કારણભૂત સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને જલકાની હિંસા કરે છે.
જલકાની હિંસામાં જે પ્રવૃત્ત થાય છે તે પકાયરૂપ સમસ્ત લોકની હિંસા ४३ ७.२ मताव -'उदयसत्य'. इत्यादिना द्वारा डिसा ४री २४ाय तेने શસ્ત્ર કહે છે. શાસ્ત્ર બે પ્રકારના છે– (૧) દ્રવ્યશસ્ત્ર અને (૨) ભાવશસ્ત્ર જેનાથી અપ્લાયની હિંસા થાય તે અકાયશસ્ત્ર છે. અષ્કાયશઅને અપ્લાયના વિષયમાં પ્રયોગ કિરવાવાળા અષ્કાયથી ભિન્ન અનેક પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરોની કોન્દ્રિય વિગેરે વસ એની હિંસા કરે છે
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एके पुनरन्ये तु चयमनगारासाधयः स्मः, इति सामिमानं प्रवदमाना: 'वयमेव अप्कायजीवरक्षणपराः महाव्रतधारिणः' इति व्यर्थ मलपन्दो द्रव्यलिना सन्ति तान् पृथक्-पृथग्भावेन पश्य ।
___ इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिनिनो मनागप्पनगारगुणेषु न भवन्तेि, नापि गृहस्थकृत्य किञ्चित् परित्यजन्ति, इति दर्शपति- यदिमम्' इत्यादि ।
यद्यस्माद् विस्परूपैः विमिन्नरूपैर्नानाविधः, द्रव्यभावरूपैः शनैः। तत्र द्रव्यशवं स्वकाय-परफाय-तदुभयरूपम् । स्वकायशस्त्र-तडागाधुदकस्य कूपाधुदकम् । कूपाधुदकस्य तडागाधुदकं च । परकायशस्त्रं द्राक्षा-शाक-तण्डल-पिष्ट
और कोई-कोई लोग 'हम साधु हैं। इस प्रकार अभिमान के साथ कहते हुएअर्थात् 'हम ही अप्काय के रक्षक और महाव्रतधारी हैं। इस प्रकार वृथा प्रलाप करते हुए द्रव्यलिंगी हैं, उन्हें अलग समझो।
अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी, अनगार के गुणों में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते, और न गृहस्थ के किसी कार्य का त्याग करते हैं। यही बात आगे बतलाते हैं-'जमिणं.' इत्यादि।
वे नाना प्रकार के शस्त्रों से जलका आरंभ करते हैं। शस्त्र अनेक प्रकार के है। उन में से द्रव्यशत्र-स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप है। तालाव का जल, कूप का जल परस्पर स्वकायशस्त्र है। इसी प्रकार कूप आदि के जल का शस्त्र-तालाव आदिका जल है यह स्वकायशस्त्र है । दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, चना, वाल आदि परकाय
અને કઈ-કઈ લોક “અમે સાધુ છીએ આ પ્રમાણે અભિમાન સાથે કહેતા અર્થાત્ “અમેજ અપકાયના રક્ષક અને મહાવ્રત ધારણ કરવાવાળા છીએ આ પ્રમાણે વૃથા પ્રલાપ કરતા થકા દ્રવ્યલિંગી છે તેને જૂદા જાણે.
અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળા એ દ્રવ્યલિંગી સાચા અણુગારના ગુણામાં જરાપણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, અને ગૃહસ્થના કેઈપણ કાને ત્યાગ કરતા નથી, a and lm मा छे-'जमिणं' यानि .. .
તે નાના પ્રકારના શસ્ત્રોથી જલન આરંભ કરે છે. શાસ્ત્ર અનેક પ્રકારના છે, તેમાંથી દ્રવ્યશ-સ્વકાય, પરકાર્ય અને ઉભયકાય-૫ છે. તલાવનું પાણું, કુવાનું પાણી, પરસ્પર ‘સ્વકાયશસ્ત્ર છે. એ પ્રમાણે કુવા વગેરેના જલનું શરુ તલાવ આદિનું જલ છે, તે પણું વકાશ છે. દ્રાક્ષ, ચાવલ, લોટ,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ स. ६ अफायरक्षोपदेशः ५०९
"सम्यक मात्वोचिते काले, संस्लाप्य च जिनान् क्रमात् । , पुष्पाहारस्तुतिभिश्व, पूजयेदिति तद्विधिः" ॥ १॥ (धर्मसंग्रहः) " कुसुमक्खयधूवेहिं, दीवयवासेहि मुंदरफलेहि। पूया घयसलिलेहि, अविहा तस्स कायद्या" ॥१॥
(दर्शनशुद्धिः सटीका १ तत्व) छाया-"कुछमाक्षतधूप-दीपकवासः मुन्दरफलैः ।
पूजा घृतसलिले,-रएविधा तस्य कर्तव्या ॥१॥" इति । "विहिणा उ कीरमाणा, सन्ध चिय फलबई भवे चेहा। इअलोइया वि किं पुण, जिणपूया उभयलोगहिया" ॥१॥
(पञ्चाशक ४ विव.) छाया-विधिना तु क्रियमाणा, सर्वा चैव फलवती भवेचेष्टा । . इहलौकिकाऽपि किं पुन, जिनपूजा-उभयलोकहिता ॥१॥ इति ।।
तथैव पूजामतिष्ठादिपु अप्कायोपमनरूपे शास्त्रनिपिद्धे सावद्यकार्ये प्रत्यापि द्रव्पलिनिनो दण्डिनः शाक्पादयश्च स्वात्मानमनगारमेव मन्यन्ते । ___उचित काल में सम्यक् प्रकार से स्नान कर के और क्रम से जिनप्रतिमा को स्नान करा के पुष्प, आहार और स्तुतिसे पूजा करे । यह पूजा की विधि हैं " ! (धर्मसंग्रह)
" विधिपूर्वक की हुई समस्त इस लोकसंभंधी चेष्टाएँ भी सफल होती है तो जिनेन्द्र भगवान् की पूजा का तो कहना ही क्या है, अर्थात् वह दोनों लोकों में हितकारी है। (पञ्चाशक ४ विव.)
इसी प्रकार पूजा प्रतिष्ठा आदि अप्काय को हिंसारूप, शास्त्रनिषिद्ध सावध कार्य में प्रवृत्ति करके भी द्रव्यलिंगी दंडी शाश्य आदि अपने आप को अनगार ही मानते हैं।
ઉચિત કાલમાં સભ્યપ્રકારથી સ્નાન કરીને અને કમથી જિનપ્રતિમાને નાન કરાવી, પુષ્પ, આહાર અને સ્તુતિથી પૂજા કરે. આ પ્રમાણે પૂજાની विधि छे. ( ड)
વિધિપૂર્વક કરવામાં આવેલી લોકસંબંધી સમસ્ત ચેષ્ટાઓ ( ક્રિયાઓ) પણ સફલ થાય છે, તે જિનેંદ્ર ભગવાનની પૂજાનું તે કહેવું જ શું ? આ તો भन्ने म तिछे ॥ १ ॥” (याश४-४-१५)
, એ પ્રમાણે પૂજા પ્રતિષ્ઠા આદિ અપ્લાયની હિંસાપ શાનિષિદ્ધ સાવધ કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરીને પણ દ્રવ્યલિંગી દંડી, શાકય આદિ પિતા-પિતાને અંગારજ
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आधाराने जगति खलु बहवो द्रव्यलिगिनो विद्यन्ते, यथा-'वयं पञ्चणहाव्रतधारिणः सर्वारम्भपरित्यागिनः पटकापरक्षका अनगाराः स्मः' इति वदन्तो दण्डिशाक्यादयः सन्ति । तत्र केचिदेहशुद्धथै बहूदकस्नायिनो भवन्ति । केचित्स्वनिवासथै गृहादिनिर्माणकरणे मृत्तिकापापाणचूर्णादिपु निक्षेपणेनाप्कायमुपमर्दयन्ति । केचित् स्वोदरपूर्वथै कृष्यादिपु जलसेचनं कुर्वन्ति । केचिच्च देवकुलाद्यर्थ सावद्यमुपदिशन्ति, पार्थिवी देवगुर्वोदिमतिमामनेकघटजलैः स्नपयन्ति । ते हि सविधिजिनपूजायां, मतिमामतिष्ठापने बहुविधसचित्तजलैः प्रतिमास्नपने च महाभीमभवसमुद्रादात्मनः समुद्धारो भवतीति मन्यन्ते, उपदिशन्ति च
संसार में बहुतसे द्रव्यलिंगी हैं । जैसे-'हम पंचमहावतधारी, सब आरम्भ के त्यागी, और पदकाय के रक्षक अनगार हैं' ऐसा कहने वाले दण्डी तथा शाक्य आदि हैं । इन में कोई-कोई देह की शुद्धि के लिए बहुत-से जल से स्नान करने वाले हैं। कोई अपने रहने के वास्ते मकान आदि बनाने के लिए मिट्टी कंकर और चूने वगैरह में मिलाकर जलकाय की हिंसा करते हैं। कोई अपना पेट भरने लिए कृषि (खेती) में जल सींचते हैं। कोई देकुलादिके लिये सावध उपदेश करते हैं। कोई देव एवं गुरु की पार्थिव प्रतिमा को बहुत से-घडे पानी से स्नान कराते हैं। वे विधिपूर्वक .जिनपूजा में और प्रतिमा की प्रतिष्ठा में बहुत प्रकार के सचित्त जल से प्रतिमा के स्नान में, महाभयंकर भवसागर से आत्मा का उद्धार होना मानते हैं और उपदेश देते हैं--
સંસારમાં બહુ સંખ્યામાં દ્રવ્યલિંગી છે. જેમ કે-“અમે પંચમહાવ્રતધારી, સર્વ પ્રકારના આરંભના ત્યાગી અને પકાયના રક્ષક અણગાર છીએ? આ પ્રમાણે કહેવાવાળા દંડી તથા શાકય આદિ છે, તેમાંથી કેટલાક તે દેહની શુદ્ધિ માટે ઘણા જ જલથી સ્નાન કરવાવાળા હોય છે. કેટલાક તે પિતાને રહેવા માટે મકાન આદિ બનાવવા માટે માટી કાંકરા અને ચુના વગેરેમાં મેળવીને જલકાની હિંસા કરે છે. કઈ-કઈ પિતાનું પેટ ભરવા માટે ખેતીમાં જલ સીંચે છે. કેઈ દેવકુલ વગેરે માટે સાવદ્યને ઉપદેશ આપે છે, અને કેઈ દેવ અને ગુરૂની પાર્થિવ પ્રતિમાને ઘણાં જ-ઘડ પાણીથી સ્નાન કરાવે છે. તે વિધિપૂર્વક જિનપૂજામાં અને પ્રતિષ્ઠામાં ઘણું જ પ્રકારના સચિત જલથી પ્રતિમાને સ્નાન કરાવામાં મહાભયંકર ભવસાગરથી આત્માને ઉદ્ધાર થાય છે, એવું માને છે. અને ઉપદેશ આપે છે –
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ.३ स. ६ अफायरक्षोपदेशः ५०९
"सम्यक् स्नातोचित काले, संस्लाप्य च जिनान् क्रमात् । पुष्पाहारस्तुतिमिश्व, पूजयेदिति तद्विधिः" ॥१॥ (धर्मसंग्रहः) "कुसुमक्खयध्वेहि, दीवपवासेहि मुंदरफलेहिं । पूया घयसलिले हिं, अढविहा तस्स कायन्या" ॥१॥
(दर्शनशुद्धिः सटीका १ तत्त्व) छाया-"कुसुमाक्षतधूप-दीपकवासैः मुन्दरफलैः ।
पूजा घृतसलिले,पष्टविधा तस्य कर्तव्या ॥१॥” इति । "विहिणा उ कीरमाणा, सन्च चिय फलवई भवे चेहा।। इअलोइया वि कि पुण, जिणपूया उभयलोगहिया " ॥१॥
(पश्चाशक ४ विव.) छाया-विधिना तु क्रियमाणा, सर्वा चैव फलवती भवेच्चेष्टा ।
इहलौकिकाऽपि किं पुन,-निनपूजा-उभयलोकहिता ॥ १॥ इति ।। तथैव पूजापतिष्ठादिषु अकायोपमर्दनरूपे शास्त्रनिपिद्धे सावधकार्ये प्रत्यापि पलिगिनो दण्डिनः शाक्यादयश्च स्वात्मानमनगारमेव मन्यन्ते ।
" उचित काल में सम्यक प्रकार से स्नान कर के और क्रम से जिनप्रतिमा को स्नान करा के पुष्प, आहार और स्तुतिसे पूजा करे । यह पूजा को विधि हैं"। (धर्मसंग्रह)
___"विधिपूर्वक की हुई समस्त इस लोकसंबंधी चेष्टाएँ भी सफल होती है तो जिनेन्द्र भगवान की पूजा का तो कहना ही क्या है, अर्थात् वह दोनों लोकों में हितकारी है । (पञ्चाशक ४ विक.)
इसी प्रकार पूजा प्रतिष्ठा आदि अप्काय की हिंसारूप, शास्त्रनिपिद सावध कार्य में प्रवृत्ति करके भी द्रव्यलिंगी दंडी शास्य आदि अपने आप को अनगार ही मानते हैं।
ઉચિત કાલમાં સમ્યમ્રકારથી સ્નાન કરીને અને ક્રમથી જિનપ્રતિમાને સ્નાન કરાવી, પુષ્પ, આહાર અને સ્તુતિથી પૂજા કરે. આ પ્રમાણે પૂજાની विधि छे. (धर्मस )
વિધિપૂર્વક કરવામાં આવેલી લેકસંબંધી સમસ્ત ચેષ્ટાઓ (ક્રિયાઓ) પણ સફલ થાય છે, તો નિંદ્ર ભગવાનની પૂજાનું તે કહેવું જ શું ? આ તે અને લેકમાં હિતકારી છે કે ૧ છે” (પંચાશક-૪-વિવ)
એ પ્રમાણે પૂજા પ્રતિષ્ઠા આદિ અષ્કાયની હિંસાપ શાસ્ત્રનિષિદ્ધ સાવધ કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરીને પણ દ્રવ્યલિંગી દંડી, શાકય આદિ. પિતા-પિતાને એણુંગારજ भाने छे.
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६१०
आचारान
ये उदकशस्त्र प्रयुआना पड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्ति, ते द्रव्यलिङ्गिनो नरकनिगोदादिनानाविधदुःखज्वालमालाकुले दीर्घ सारे परिभ्रमन्ति
उक्तश्च
" सावज्जपूयकारी, सावज्जं उवदिसंति जे अण्णू | आउकायवहाओ, भमंति ते दीहसंसारे ॥ १ ॥ " ॥ सू० ६ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्राह ' तत्य' इत्यादि ।
॥
मूलम् --
परिष्णा
तत्थ
खलु
पवेड्या ।
चैव
इमस्स भगवया जीवियस्स परिवंदण माणण- पूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडियाय हेउं से
जो लोग जलशस्त्र का प्रयोग करते हुए पट्कार्य के समस्त जीवों की विराधना करते हैं वे द्रव्यलिंगी नरक आदि के नाना प्रकारके दुःखों की ज्वालाओं के समूह से व्याप्त लम्बे संसार में चारों ओर चक्कर लगाते हैं । कहा भी है----
" जो पुरुष ज्ञानरहित होकर सावध का उपदेश देते हैं वे, और, सावध पूजा करने
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वाले हैं वे अकाय की हिंसा से दीर्घ संसार में भ्रमण करते हैं
" ।। सू. ६ ॥
सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - ' तत्थ' इत्यादि ।
मूलार्थ -- भगवान् ने परिज्ञा का प्रतिबोध दिया है। जो इस जीवन के सुख के लिए अपनी वन्दना, मानना, पूजा, जन्म-मरण से छुटकारा, तथा दुःखों का नाश જે લાક જલાના પ્રયાગ કરીને ષટ્રકાયના તમામ જીવાની વિરાધના કરે છે તે વ્યલિંગી, નરક નિગાઢ આદિના નાના પ્રકારના દુઃખાની જવાલાઓના સમૂહથી વ્યાપ્ત લાંખા સંસારમાં ચારેય તરફ્ ચક્કર લગાવે છે. કહ્યું છે કેઃ
- જે પુરુષ જ્ઞાનરહિત થઇને સાવઘના ઉપદેશ આપે છે તે, અને સાવદ્ય धूल ४२वावाणा हीधे-सांभा संसारंभां श्रम ४२ है.” ॥ १ ॥ (सं. ६ )
सूभभी स्वाभी लभ्यू स्वाभीने उ छे' सत्य ' धत्याहि
1
12
મૂલાથ ભગવાને પરિક્ષાના આધ આપ્યા છે, જે આ જીલનના સુખ માટે પેાતાની વંદના, માન્યતા, પૂજા, જન્મ-મરણથી મુક્તિ તથા દુઃખનાં નિવારણ માટે તે
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माचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३. ३ सु. ७ अप्कायरक्षोपदेशः सयमेव उदयसत्यं समारंभह, अण्णेहि उदयसत्यं समारंभावेइ, अण्णे या उदयसत्यं समारंभंते समणुजाणइ, वे से अहियाए तं से अबोहीए । सू०७॥
छाया--- तत्र खल भगवता परिक्षा प्रवेदिता । अस्य चैत्र जीवितस्य परिवन्दन-माननपूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखमतिघातहेतुं स स्वयमेवोदकशस्त्रं समारभते, अन्यैरुदकशखें समारम्भयति, अन्यान् वा उदकशस्त्र समारभमाणान् समनुजानाति, तत्वस्याहिताय तत्तस्यावोधये ॥ सू०७॥
टीकातत्र-अप्कायसमारम्भे भगवता-श्रीमहावीरेण परिशा सम्यगववोधः खलु भवेदिताम्मतियोधिता। कर्मवन्धसमुन्छेदार्थ जीवन परिज्ञावश्यं शरणीकरणीयेति मगवता प्रतियोधितमिति भावः। -प्रत्याख्यान-भेदात् परिज्ञाया वैविध्य, द्विविधायास्तस्या लक्षणं च प्रागभिहितम् । करने के निमित्त वह स्वयं ही उदकशन का आरंभ करता है, दूसरों से उदकशन का भारंम कराता है, और उदकशन का आरंभ करने वालों की अनुमोदना करता है। वह उस के अहित के लिए है, वह उसकी अबोधि के लिए है ।। सू. ७ ॥
टीकार्थ~-अकाय के समारंभ के विषय में भगवान् श्री महावीरने सम्यग् बोध का उपदेश दिया है । भगवान्ने कहा है कि-कर्मबंध का नाश करने के लिए जीव को परिज्ञा का आश्रय आवश्य लेना चाहिए। ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा, इस प्रकार परिज्ञा के दो मेद हैं। दोनों के लक्षण पहले ही कह चुके हैं। પાdજ જલશસ્ત્રને આરંભ કરે છે, બીજા પાસે જલશસ્ત્રનો આરંભ કરાવે છે. અને જલશઅને આરંભ કરવાવાળાની અનુમોદના કરે છે. તે પોતાના હિત માટે છે. ते तेनी घिन माटे छे. (सू. ७)
ટીકાથ—અપ્લાયના સમારંભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીરે સમ્યગુ ધને ઉપદેશ આપે છે. ભગવાને કહ્યું છે કે-કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જીએ પરિણાને આશ્રય જરૂર લે એઈએ. રૂપરિણા અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા, આ પ્રમાણે પરિણાના બે ભેદ છે. બંનેના લક્ષણે પ્રથમ જ કહેવામાં આવ્યા છે.
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५१२ .
भाषारामने ' उपभोगद्वारम्जीवः कस्मै प्रयोजनायापकायजीवं प्रति सावधव्यापारं करोती ?-त्याए'अस्य चैवे'-त्यादि। अस्यैव क्षणभङ्गुरस्य जीवितस्य जीवनस्यार्थे-मुखार्थ स्नान-पान -धावन-सेक-यानपात्रो-इप-गमनागमनाद्यर्यम्, तथा परिवन्दन-मानन-पूजनायपरिवन्दन-प्रशंसा, तदर्थ, यथा-जलयन्त्रण शीकरदृष्टयादौ, फुहारा' इति भापायाम् । माननं जनसत्कारः, तदर्थ, यथा-मलापकर्षस्नानवस्त्रमलापकर्षणादौ। पूजनं वस्त्ररत्ना दिपुरस्कारलाभरतदथै, यथा-देवपतिमादिरनपनपूजनादौ । जातिमरणमोचनाय तीर्थस्नानादौः। दुःखपतिधातहेतु रोगादिशमनार्थ स्नानपानादौ, स स्वयमेवोदकशस्त्र समारभते व्यापारयति । अन्यैर्वा उदकशस्त्रं समारम्भयति-उद्योजयति । अन्यान्
उपभोगद्वार
- जीव किस प्रयोजन से अप्काय के जीवों के प्रति सावध व्यापार करता है ! इस का उत्तर कहते हैं-इसी क्षणभडगुर जीवन के सुख के लिए, अर्थात् स्नान, पान, धोना, सींचना, जहाज, नौका का गमनागमन, इत्यादि के लिए। प्रशंसाके लिए, जैसे-जल से फौहारा चलाने आदि में, लोगों से सत्कार पाने के लिए, जैसे-स्नान और वस्त्र आदि का मैल दूर करने आदि में, पूजा अर्थात् वस्त्र, रन आदि का पुरस्कार पाने के लिए, जैसे देवप्रतिमा आदि के स्नपन और पूजन आदि में, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए तीर्थस्नान आदि में। दुःखों का निरोध करने के हेतु, अर्थात् रोग आदि को शान्त करने लिए स्नान-पान आदि में वह स्वयं अप्काय के विराधक द्रव्य और भावशस्त्र का आरंभ करता
ઉપભોગાર–
• જીવ કયા પ્રજનથી અષ્કાયના છ પ્રતિ સાવદ્ય વ્યાપાર કરે છે તેને ઉત્તર કહે છે કે-આ ક્ષણભંગુર જીવનના સુખ માટે, અથૉત્, સ્નાન, પાન છે, પાણું સચવું, વહાણ આગબોટમાં જવું આવવું,ઈત્યાદિ માટે. પ્રશંસાને માટે,જેમકેનળમાંથી ફુવારા ચલાવવા આદિમાં, લોકેથી સત્કાર પામવા માટે. જેમકે સ્નાન કરવામાં અને વસ્ત્ર વગેરેને મેલ દૂર કરવામાં, પૂજા અર્થાત્ વસ્ત્ર, રત્ન, આદિનો પુરસ્કાર મેળવવા માટે, જેમ-દેવપ્રતિમા આદિના
સ્નાન અને પૂજન વગેરેમાં, જન્મ-મરણથી મુક્ત થવા માટે, જેમ-તીર્થસ્નાન આદિમાં, દાનો નિષેધ કરવાના હેતુથી, અર્થાત-રોગ વગેરેની શાન્તિ માટે સ્નાન-પાન વગેરેમાં તે પિતે અષ્કાયનાવિરાંધક દ્રવ્ય અને ભાવંશનો આરંભ કરે છે, બીજા પાસે અષ્કાયશને
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.३ स. ७ अप्कायोपभोगः
५१३
वा उदकशस्त्र समारभमाणान् समनुजानाति =अनुमोदयति । तत् अप्कायसमारम्भणं तस्य = अष्कायसमारम्भणं कुर्वतः कारयितुरनुमोदयितुश्व अहिताय भवति, तथा तत् तस्य अवोधये= जिनधर्ममाप्त्यभावाय भवति ॥ सू० ७ ॥
येन तु तीर्थङ्करादीनां समीपेऽपकायजीवस्वरूपं ज्ञातं स एवं विजानातीत्याह' से तं संयुज्झमाणे.' इत्यादि ।
मूलम् ----
सेतं संयुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ आणगाराणं वा अंतिए, इहमेगेसि णायं भवइ - एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूपवेहिं सत्थेहि उदयकम्मसमारम्भेण उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसा || भ्रू० ८ ॥
है; दूसरों से अकायलों का समारंभ करवाता है और अप्कायशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । वह अकाय का आरंभ, आरंभ करने वाले कराने वाले और अनुमोदन करने वाले के अहित के लिए होता है और अयोधि - जिनधर्म की अप्राप्ति के लिए होता है |सू. ७॥
जिसने तीर्थकर आदि के सन्निकट अपूकाय के जीवों का स्वरूप जान लिया है, वह इस प्रकार जानता है-' से तं. ' इत्यादि ।
मूलार्थ -- भगवान और अनगारों से सुनकर अप्काय का स्वरूप जानता हुआ जीव चारित्र अङ्गीकार करके कोई-कोई इस प्रकार जानता है - यह ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार (मृत्यु) है, यह नरक है । गृद्ध पुरुष नाना प्रकार के शस्त्रों से जल का आरंभ करके Tara का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों को हिंसा करता है |सू. ८॥ સમારભ કરાવે છે, અને અકાયશસ્ત્રને આરબ કરવાવાળાને અનુમેદન આપે છે તે અપ્લાયના આરંભ કરનારને કરાવનારને અને કરવાવાળાને અનુમાનન આપવાવાળાને એ સૌને માટે અહિત કરનાર છે. અને અમેધિજિનધની અપ્રાપ્તિ માટે હોય છે. (સ્ છ)
જેણે તીથ કર આદિના સમીપમાં અકાયના જીવનું સ્વરૂપ જાણી લીધું છે તે २मा प्रभाते लये छे:-' से तं.' इत्यादि.
મૂલાથ ભગવાન અથવા અણુગારા પાસેથી સાંભળીને અકાયના સ્વરૂપને જાણનારા જીવા ચારિત્ર અંગીકાર કરીને કાઈ-કઈ આ પ્રમાણે જાણે છે મા ગ્રંથ छे, भा भोड छे, भा मृत्यु है, या न२४ छे. शृद्ध पुरुष नाना अमारना (अने પ્રકારનાં) શસ્ત્રોથી જલના આરંભ કરીને, જલશઅનેા આરભ કરતા થકા બીજા અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. (સૂ. ૮)
प्र. आ.-६५
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५१४
आधारास्त्रे
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छाया
स तत् संयुध्यमान आदानीयं समुत्याय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणा वाऽन्तिके, इहकेपा, ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्थः, एप खल मोहः एप खलु मार, एप खलु नरका, इत्यर्थं गृद्धो लोकः यदिमं विस्परुपैः शस्त्रैरुदककर्मसमारम्भेण, उदफशस्त्रं समारममाणः अन्यान् अनेकरूपान् माणान् विहिनस्ति । सू०८॥
टीकायः खलु भगवतातीर्थङ्करस्य, अनगाराणाम् तदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानाम्, अन्तिके समीपे, श्रुत्वा उपदेशं निशम्य, आदानीयम्-उपादेयं, सर्वसावद्ययोगपरित्यागरूपं चारित्रं, समुत्थाय अङ्गीकृत्य विहरति, स तव अफायसमारम्भणं, संध्यमानः अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवति ।।
स हि-एवं विचारयति इह-मनुष्यलोके, एकपाश्रमणनिर्ग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगववोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव, ज्ञात-विदितं भवति । किं ज्ञातं भवतीत्याकाहक्षायामाह-एप खलु ग्रन्थः' इत्यादि।
टीकार्थ-जा पुरुष तीर्थकर भगवान् या उनके अनुयायी श्रमण निर्मन्थों के समीप उपदेश सुनकर सर्वसावध व्यापार का त्यागरूप चारित्र अंगीकार करके विचरता है, वह अप्काय के आरंभ को समझता है-उसे अहितकर और अबोधिजनक जानता है । वह इस प्रकार विचार करता है-इस मनुष्य लोक में श्रमण निर्ग्रन्थों के उपदेश सम्याज्ञान और वैराग्य प्राप्त करनेवाले किन्हीं२ आत्मार्थियों को ही विदित होता है कि-'यह ग्रंथ है ' इत्यादि।
ટીકાર્ય–જે પુરુષ તથકર ભગવાન તથા તેના અનુયાયી મણનિર્ચ ના સમય ઉપદેશ સાંભળીને સર્વ સાવધવ્યાપારના ત્યાગરૂપ ચારિત્ર અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે અષ્કાયના આરંભને સમજે છે તેને અહિતકર અને અબાધિજનક જાણે છે, તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે કે -આમનુષ્ય લાકમાં શ્રમણ-નિર્ગોના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરવાવાળા કેઈ પણ આત્માર્થિઓના જાણવામાં હેય છે કે-આ ગ્રંથ છે ઈત્યાદિ.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.३ सू. ८ अष्कायरक्षोपदेशः ५१६
एप उदकशस्त्रसमारम्भः खलु-निश्चयेन, ग्रन्या अध्यते बध्यतेऽनेनेति ग्रन्या अष्टविधर्मवन्धः । कारणे कार्योपचारादुदकशस्त्रसमारम्भस्य ग्रन्यरूपत्वम्, एगमग्रेऽपि योध्यम् । तथा एपः उदकशस्त्रसमारम्मः मोहः विपर्यासः विपरीतज्ञानरूपः । तथा एप एव मारमरणं निगोदादिमरणरूपः । तथा एप खलु नरका-नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यर्थम् एतदर्थ कर्मवन्ध-मोह-मरण-नरकरूपं घोरं दुःखफलं प्राप्य पुनः पुनरेतदर्थमेव लोक अज्ञानवशक्ती जीवः गृद्धा लिप्मुरस्ति । यद्वागृद्धा-विषयभोगासक्तः, लोकः संसारी जीवः, इत्यर्थम् एतदर्थमेव-कर्मबन्ध-मोहमरण-नरकार्थमेव, प्रवर्तते।
जिस के द्वारा गूंथा जाय-बांधा जाय यह ग्रंथ कहलाता है। यह उदकशस्त्र का समारंभ ग्रंथ है, अर्थात् आठ कर्मी का बंध है। यही कारण में कार्य का उपचार करके उदकशन के समारंभ को ग्रंथ कहा है। वास्तव में वह ग्रंथ (कर्मबंध) का कारण है। आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए।
यह जलशन का समारंभ मोह-विपरीत ज्ञान है। तथा यह मार-निगोद आदि के मरणरूप है। यह नरक है अर्थात् नारकी जीवों को होनेवाली दस प्रकार की वेदनाओं का स्थान है । कर्मबंध, मोह, मरण, और नरकरूप घोर दुःखरूप फल को प्राप्त कर के भी अज्ञानी लोग फिर इसी के लिए गृढ़ होते हैं । अथवा गृद्ध अर्थात् भोगों में आसक्त, संसारी जीव इसी के लिए, अर्थात् कर्मबंध, मोह, मरण तथा नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं।
જેના દ્વારા ગૂંથી શકાય-બાંધી શકાય તે ગ્રંથ કહેવાય છે. એ ઉદકજલ. શિઅને સમારંભ ગ્રંથ છે અર્થાત્ આઠ કર્મોને બંધ છે. અહિં કારણમાં કાર્યો ઉપચાર કરીને ઉદકશાસ્ત્રના સમારંભને ગ્રંથ કહ્યો છે. વાસ્તવિક રીતે તે ગ્રંથ (કર્મબંધોનું કારણ છે. આગળ પણ આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ.
આ જલશઅને સમારંભ મોહ-વિપરીત જ્ઞાન છે, તથા આ માર-નગર વગેરેના મરણરૂપ છે, આ નરક છે–અર્થાત્ નારકી અને થવાવાળી દસ પ્રકારની વેદનાઓનું સ્થાન છે. કર્મબંધ, મોહ મરણ અને નરક રૂપ ઘોરખપ ફલને પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની લોક ફરીને તેના માટે વૃદ્ધ-આસક્ત થાય છે. અથવા વૃદ્ધ અર્થાત્ ભેગોમાં આસક્ત સંસારી જીવ એ માટે, અર્થાત કર્મબંધ, મેહ, મરણ તથા નરક માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે.
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५१६
आचाराङ्गसूत्रे
यद्यपि विषयभोगासक्तो लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थं परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातार्थं चाप्कायशस्त्रसमारम्भं करोति, तथापि तत्फलं ग्रन्थ- मोह - मरण - नरकरूपमेव लभते, अत उदककर्मसमारंभस्य तदेव फलं भवतीति
भावः ।
लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव लिप्युरस्ति, तदर्थमेत्र च प्रवर्तते इति यदुक्तं तत्र हेतुमाह - ' यदिमम् . ' इत्यादि ।
गृद्धो लोकः, विरूपरूपैः नानाविधैः शस्त्रैः स्वकायउदककर्मसमारम्भेण= अप्कायमुद्दिश्याष्टविधकर्मसमुत्पादकसावयव्यापारेण, इमम् = अकार्य, बिहिनस्ति = पाणरहितं करोति । तथा - उदक
यद् = यस्माद्, परकायतदुमय रूपैः,
ता यह है कि यिभोगों में आसक्त जीव, करने के लिए, चन्दन - मान-पूजन के लिए, जन्म-मरण से दुःखों का नाश करने के लिए, अप्काय के शस्त्र का आरंभ फल - ग्रन्थ, मोह, मरण और नरक रूप ही पाता है । अत एव जलकर्मसमारंभ का बही फल होता है ।
शरीर आदि का पोषण मुक्त होने के लिए तथा करता है मगर उस का
लोक बार-बार कर्मबंध आदि के लिए ही इच्छुक होता है, और उसी के लिए प्रवृत्ति करता है, यह बात पहले कही है । यहाँ उस का कारण बतलाते हैं-
क्यों कि गृद्धजन नाना प्रकार के से, उदककर्म के आरंभद्वारा, अप्काय संबंधी अपूकाय की हिंसा करता है । तथा जलकाय के
स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप शस्त्रों अष्टकर्म - जनक सावयव्यापारद्वारा विराधक स्वकाय, परकाय और
તાત્પય એ છે કે વિષયલાગામાં આસકત જીવ શરીર-આદિના પાષણ કરવા માટે વન્દન, માન, પૂજા માટે, જન્મ મરણથી મુક્ત થવા માટે તથા દુઃખાનેા નાશ કરવા માટે અપ્લાયના શસ્રના આરંભ કરે છે, પરન્તુ તેનું ફળ ગ્રંથ, મેાહ, મરણ અને નરક રૂપજ પામે છે, એ માટે જલક સમારંભનું ફૂલ તેજ હાય છે.
લેક વારવાર કમમ્ધ વગેરે માટે ઇચ્છા કરતા હાય છે; અને તે માટે પ્રવૃત્તિ કરે છે. એ વાત પ્રથમ કહી છે. અહિં તેનું કારણ બતાવે છે કેમકે-દ્ધ માણસ નાના પ્રકારના સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય રૂપ શàાથી ઉદકકમના આર ભદ્વારા અપ્લાયના સંબંધી આઠ કર્મજનક સાવધવ્યાપારદ્વારા અપ્લાયની હિંસા કરે છે. તથા
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उं. ३ सू. ९ अप्कायसचित्तता
शस्त्रम् - अप्कायमर्दकं शस्त्रं स्वकायपरकायतदुभयरूपं अन्यान् =थिवीकायादीन्, अनेकरूपानसान् स्थावरांथ, विहिनस्ति ।
५१७
समारभमाणः = व्यापारयन् प्राणान=पाणिनो
अकासिया पदजीव निकायरूपं लोकं सर्वमेव मणिहन्तीति घोरतरं दुरितं कुर्वन् पुनः पुनः ग्रन्थादिनरकान्तं प्राप्यापि तदर्थमेव प्रवर्त्तते न पुनर्मोक्षायेति भावः ॥ सू० ८ ॥
पुनरपि सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं माह से बेमि. ' इत्यादि ।
॥ मूलम् 11
से बेमि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे || सू० ९ ॥
॥ छाया ॥
स वोमि सन्ति प्राणा उदकनिश्रिता जोवा अनेके ॥ सू० ९ ॥
उभयकाय रूप शनों का भारंभ करता हुआ अन्यकाय - स्थावर और जीवों को भी हिंसा करता है, वह जलकायको हिंसाद्वारा पड्जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है; अतः अत्यन्त घोर पाप करता हुआ पुनःपुनः ग्रंथ से लेकर नरक तक के दुक्कल को पाकरके भी उम्र के लिए प्रवृत्ति करता है-मोक्ष के लिए नहीं ॥
८॥ सुधर्मा स्वामी फिर जम्बूस्वामी से कहते हैं-'से वेमि' इत्यादि ।
मूलार्थ में कहता हूँ अप्काय के आश्रित प्राणी हैं और अन्य अनेक (छ)न्द्रिय आदि) जीव भी हैं |सू. ९॥
જલકાયના વિરાધક સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય ૫ શસ્ત્રાનો આરંભ કરીને અન્યકાય-સ્થાવર અને ત્રસ જીવેાની પણ હિંસા કરે છે. તે જલકાયની હિંસાકારા પવનકાયરૂપ સમસ્ત લેકની હિંસા કરે છે. તેથી અત્યન્ત ઘેર પાપ કરતા થકા ફરી ફરી ગ્રંથ (કબ ધ)થી લઈ ને નરક સુધીના માઠા-દુઃખકારક ફળને પામીને પણ તે માટે પ્રવૃત્તિ કરે છે. મેાક્ષ માટે કરતા નથી. (સૂ. ૮)
सुधर्मा स्वाभी इरीथी लभ्यू स्वामीने हे धे-' से वैमि इत्याहि,
મૂલા ——હું કહું છું-અપ્લાયના આશ્રિત પ્રાણી છે, અને અન્ય અનેક (દ્વીન્દ્રિય माहि) व पद छे. (सू. ८)
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५१८
टीका
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सः = विज्ञाताक्कायस्वरूपोऽहं त्रवीमि यथा साक्षाद् भगवतः सकाशान्मया श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः । उदकनिश्रिताः जलरूपं कायमाश्रित्य वर्त्तमानाः अप्कायिका इत्यर्थः प्राणाः = प्राणिनः सन्ति । तथाऽने के = दीन्द्रियादयः नानाविधाः जीवा नीलगु - पूतरक - मत्स्यादयः उदकनिश्रिताः उदकावस्थिताः सन्ति । देहलीदीपन्यायेनोदकनिश्रिता इत्यस्योभयत्रान्वयः अनेनोदकं सचित्तमनेकजीवाधिष्ठितं चेति प्रतिबोधितम् ।
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आचाराङ्गसूत्रे
आवश्यक है
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टीकार्थ - अकाय के स्वरूप का ज्ञाता मैं कहता हूँ । जैसा कि भगवान् से मैने सुना है कि - अपूकाय को आश्रित करके रहे हुए अपकायिक प्राणी हैं, तथा अनेक द्वीन्द्रिय आदि नाना प्रकार के जीव नीलंगु, पूरतक, मत्स्य आदि भी जल में रहे हुए हैं । उदकनिश्रिताः -- ' जलकाय के आश्रित' यह पद देहली - दीपकन्याय से दोनों ओर जोड लेना चाहिए । यहाँ इतना समझ लेना का शरीर जल ही है, जब कि जल में रहने बाले त्रस आदि होता है, फिरभी वे जल ही में रहते हैं और जल की विराधना करनेसे उन त्रस आदि जीवों को भी विराधना होती है । जहाँ जलकाय है वहाँ सभी काय के जीव होते हैं ।
जीवों का शरीर भिन्न
कि - जलकाय के जीवों
ટીકા—અપ્લાયના સ્વરૂપને જાણનાર હું કહું છું. જેવી રીતે કે મે’ ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે કે અખાયને આશ્રિત--આશ્રય કરીને રહેલા અપ્કાયના જીવેા છે. તથા અનેક દ્વીન્દ્રિય આદિ નાના પ્રકારના જીત્ર નીલગુ. પૂરતક, મત્સ્ય આદિ પણ सभां रहेला छे. 'उदक निश्रिताः' '०४सायने माश्रित' या यह हेडसी - द्वीप--न्यायथी બન્ને બાજુ જોડી લેવું જોઈએ.
અહિં એટલું સમજી લેવું આવશ્યક છે કે–જલકાયના જીવાનાં શરીર જલજ છે. જ્યારે કે જલમાં રહેવાવાળા ત્રસ આદિ જીવના શરીર ભિન્ન-જૂદાં હોય છે. તે પશુ તે જલમાંજ રહે છે, અને જલની વિરાધના કરવાથી તે ત્રસ આદિ જીવાની પણ વિરાધના થાય છે. જ્યાં જલકાય છે ત્યાં તમામ કાયના જીવ હાય છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ . ९ अप्कायसचित्तता
अपूकायस्य लक्षणद्वारम् -
नन्दुकं सचित्तमस्तीत्यत्र किं प्रमाणम् ? उच्यते - आपः सचित्ताः, शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात्, हस्तिशरीरोपादानभूतकललयत् । वस्त्रवणादौ दोपवारणाय शस्त्रानुपदतत्वविशेषणोपादानम् | कलशब्दग्रहणेन सप्तदिवसमात्रवर्तिनो ग्रहणम्, ततः परमप्टमदिवसाद तदेवार्बुदाद्यवस्थामापद्यते ।
किञ्च - आपः सजीवाः, अनुपहतद्रवत्वाद, अण्डकमध्यस्थितकललवत् । किञ्च - आपो जीवशरीराणि, छेद्यत्वाव, भेद्यत्वात् दृश्यत्वात् करचरणादिसमुदायवत् ।
अष्कायका लक्षणद्वार
शंका--जल सचित्त है, इस विषय में क्या प्रमाण है ?
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समाधान--जल सचित्त है, क्यों कि शस्त्र के उपघात के बिना ही वह देव (तरल) है, जैसे- हाथी के शरीर का उपादान कउल । यहाँ मूत्र आदि से व्यभिचार हटाने के लिए 'शत्र के उपघात के विना' यह विशेषण लगाया गया है । 'कलल' शब्द के ग्रहण करने से सिर्फ सात दिन का गर्भाशयस्थित शुक्रशोणित मिश्रित ravatर्थ टेना चाहिए | आठवें दिन से उकको अर्बुद आदि अवस्थाएं हो जाती हैं -अर्थात् वह गाढा होने लगता है ।
और भी - जल सजीव है, क्यों कि वह अनुपहत द्रव है, जैसे अंडे का रस ।
और भी - जल, जीव का शरीर है, क्यों कि उसका छेदन-भेदन किया जाता है और हरय है, हाथ पग आदि के समूह की तरह ।
અખાયનું લક્ષણકાર્~~ શકાજલ-પાણી ચિત્ત છે એ વિષયમાં શું પ્રમાણ છે?
સમાધાનન્જલ ચિત્ત છે. કેમકે શસ્ત્રના ઉપઘાત વિનાજ તે તરલ છે. જેવી રીતે હાથીના શરીરનું ઉપાદાન “કલલ”. અહિં મૂત્ર આદિથી વ્યભિચાર હટાવવા માટે શસ્ત્રના ઉપઘાત વિના’ એ વિશેષણ લગાડયુ છે. “કલલ.” શબ્દના ગ્રહણ કરવાથી માત્ર સાત દિવસના ગર્ભાશયમાં રહેલે શુકશેાણિત મિશ્રિત દ્રવપદાર્થ સમજવા ોઇએ. આઠમા દિવસથી તેની અનુઁ આદિ અવસ્થાએ થઇ જાય છે, અર્થાત્ તે કાણુ થવા લાગે છે.
ખીજું પણ—જલ સજીવ છે, કેમકે તે અનુપહત દ્રવ છે, જેમકે ઇંડાને રસ. ખીજું પણ જલ-દવ શરીર છે. કેમકે તેનું છેદન-ભેદન કરી શકાય છે અને हेश्य है; हाथ-यत्र माहिना समृद्ध प्रभाव.
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आचारात्सूत्रे
किश्चाऽव्यक्तोपयोगादीनि फपायपर्यन्तानि जीवलक्षणानि पृथिवीकायोद्देशके मागुक्तानि तेषां जीवलक्षणानां समन्वयादापः सचित्ता मनुष्यवदिति विज्ञायते । एवं तेजस्कायादेरे केन्द्रियजीवस्यैतानि जीवलक्षणानि सन्तीति बोध्यम् । आगमोऽपि यथा - " आऊ चित्तमतमवखाया अणेगजीचा पुढोसत्ता" इति ( दशवे. अ० ४ )
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मरूपणाद्वारम् --
अपकाया जीवा द्विविधाः, सूक्ष्मवादरभेदात् ।
सूक्ष्मनामकर्मोदयात्
इस के अतिरक्त-अव्यक्त उपभोग से लेकर कपायपर्यन्त जीव के जो लक्षण पृथ्वीकाय के उद्देशक मे बतलाये हैं, उन सब जीव के लक्षणों की विद्यमानता होने के कारण भी जल सचित्त है, जैसे मनुष्य आदि ।
इसी प्रकार तेजस्काय आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी जीव के लक्षण हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए ।
आगम प्रमाण से भी जल सजीव सिद्ध होता है-" अप सचित कहा गया है । उसमें अनेक जीव हैं और उन का अस्तित्व, अलग-अलग है । " ( दश० अ० ४ )
प्ररूपणाद्वार
अकाय के जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । जिनके सूक्ष्मनाम
તે સિવાય અવ્યક્ત ઉપયેગથી લઈને કષાય સુધી જીવનાં જે લક્ષણ પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશકમાં બતાવ્યાં છે તે સર્વ જીવના લક્ષછેૢાની વિદ્યમાનતા હોવાના કારણે પણ જલ સચિત્ત છે. જેવી રીતે મનુષ્ય આદિ. એ પ્રમાણે તેજસ્કાય આદિ એકેન્દ્રિય જીવામાં પણ જીવના લક્ષણ છે. એ રીતે સમજી લેવું જોઈએ.
આગમ પ્રમાણથી પણ જલ સજીવ સિદ્ધ થાય છે—
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અપ સચિત્ત કહેલું છે; તેમાં અનેક જીવ છે. અને તેનું અસ્તિત્વ અલગअसंग छे.” ( ६० २५.४ )
પ્રરૂપણાદ્વાર—
અપ્લાયના જીવ એ પ્રકારનાં છે—(૧) સૂક્ષ્મ અને (૨) ખાદર જેને સૂક્ષ્મનામ
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आचारचिन्तामणि- टीकाअध्य० १३. ३ मू. ९ अष्कायभेदाः
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सूक्ष्माः, वादरनामकर्मोदयाद् वादराः । तत्र सूक्ष्मा द्विविधाः - पर्याप्ता अपर्याप्ताथ । सूक्ष्माः सर्वलोकव्यापिनः । बादरा लोकैकदेशे सन्ति । वादरा अष्काया अनेकविधाः - हिमावश्याय-मिहिका - करक- हरतनु-शुद्ध-शीतोष्ण-क्षाराम्ल लवण-क्षीर- घृतोदकादयः । ते सर्वे वादरा अष्कायाः संक्षेपतो द्विधा-पर्याप्ता अपर्याप्ताथ। वादराणां rat जीवस्तत्रासंख्येयैर्वादरजीवेनियमतो भाव्यम् । वादराणां स्थानं समुद्रहृदनदीमभृतयः ।
बादराणां सूक्ष्माणां चोमयेषामप्कायानां पर्याप्तापर्याप्त मेदवदन्येऽपि शरीस्त्रयादिभेदाः सन्ति ते पृथिवीकायोद्देशे प्रागुक्तास्तत एव बोद्धव्याः ।
कर्मका उदय है वे सूक्ष्म कहलाते हैं, और बादरनामकर्म के उदय वाले वादर कहलाते हैं । इन मेंसे सूक्ष्म जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं । सूक्ष्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । बादर लोक के एक देश में हैं, बादरअपकाय के अनेक भेद हैंहिम, ओस, मिहिका ( घूंवर ) ओले, हरतनु ( तृणके अप्र पर रहा हुआ पानी ) शुद्ध, शीतउष्ण, क्षार, आम्ल, लवण, क्षीर, घृतोदक आदि । सब बादर अकाय संक्षेप से पर्याप्त तथा अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं । जहाँ एक बादर जोव होता है वहां नियम से असंख्यात वादर जीव होते हैं । समुद्र, तालाब, नदी वगैरह बादर जीवों के स्थान हैं।
बादर और सूक्ष्म, दोनों प्रकार के जलकाय के जैसे पर्यास और अपर्याप्त भेद किये गये हैं उसी प्रकार शरीस्त्रय आदि और भेद भी हैं । वे पृथ्वीकाय के उद्देशक में बतलाये हैं। वहीं से जान लेने चाहिए ।
ક્રમના ઉદય છે તે સૂક્ષ્મ કહેવાય છે અને માદરનામકર્મના ઉદયવાળા ભાદર કહેવાય છે. તેમાંથી સુક્ષ્મ જીવ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી બે પ્રકારનાં છે, સૂક્ષ્મ સવ લેાકમાં વ્યાપ્ત છે. અને બાદર લેકના એક દેશમાં છે. માદર અપ્કાયના અનેક लेह छे. हिभ, आण હરતનુ ( તૃણના અગ્રપર રહેલું પાણી શુદ્ધ शीत, उप्यु क्षार, अभ्य, सवसु, क्षीर, घृतोहर माहि सर्व माहर अभ्छायसंक्षेपथी पर्याप्त તથા અપર્યાપ્તના ભેદથી એ પ્રકારનાં છે. જ્યાં એક ખાદર જીવ હોય છે. ત્યાં નિયમથી અસંખ્યાત બાદર છવ હેાય છે. સમુદ્ર, તળાવ, નદી વગેરે ખાદર છવાના સ્થાન છે. માદર અને સૂકુમ અને પ્રકારના જલકાયના જેવી રીતે પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદ કરવામાં આવ્યા છે. તે પ્રમાણે શરીરત્રય આદિ ખીજા ભેદ પણ છે. તે પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશકમાં અતાવેલા છે. તે ત્યાંથી જાણી લેવા જોઈએ.
प्र. आ-६६
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आचारास्त्रे पृथिवीकायवद् असंख्येयाच प्रत्येकमुभये । केरलं शरीरसंस्थान स्तियुकविन्दुकसंस्थितमेव ।
___परिमाणद्वारम्--- ये चादरपर्याप्ता अफायाः, ते संवर्तितलोकमतराऽसंख्येयभाग प्रदेशराशिपरिमाणाः, ये तु बादरा अपर्याप्ताः, तथा सूक्ष्माः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च राशयस्ते पृथक-पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति । अयमत्र विशेपः-चादरपर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्यो बादरपर्याप्ता अफाया असंख्येयगुणाः, बादरेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः पृयिवीकायेभ्यो बादरा अपर्याप्ता अप्काया असंख्येयगुणाः । सूक्ष्मापर्याप्तथिवीकायेभ्यः संक्ष्मा अपर्याप्ता अप्काया विशेपाधिकाः,
पृथ्वीकाय के समान प्रत्येक प्रकार के जीव असंख्यात हैं। अलबत्ता इन के शरीर का आकार स्तिवुकविन्दु (बुद-बुद) के समान है ।
परिमाणद्वारवादर पर्याप्त अप्काय के जीव संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येयभाग प्रदेशों के बराबर हैं, बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म प्रर्याप्त और अपर्याप्त राशियों अलग अलग असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश के बराबर हैं । यहाँ इतनी विशेषता समझनी चाहिए कि-यादर पर्याप्त पृथ्वीकाय की अपेक्षा बादर पर्याप्त अपकाय असंख्यातगुणा हैं, और बादर अपर्याप्त पृथ्वीकाय की उपेक्षा बादर अपर्याप्त अप्काय के जीव असंख्यातगुणा है। सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिक जीव विशेष अधिक है
પૃથ્વીકાયની પ્રમાણે પ્રત્યેક પ્રકારના જીવ અસંખ્યાત છે. અલબત્ત તેના શરીરના मा४२ सितमुभिन्दु-मुह-मुना प्रभारी छे. ,
परिभावार--- બાદર પર્યાપ્ત અષ્કાયના જીવ સંવર્તિત લોકમતરના અસંખ્યય ભાગ પ્રદેશના બરાબર છે. બાદર અપર્યાપ્ત તથા સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત રાશિઓ અલગ-અલગ અસંખ્યાત લોકાકાશના પ્રદેશની બરાબર છે. અહિં એટલી વિશેષતા સમજવી જોઈએ કેબાદર પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા બાદર પર્યાપ્ત અષ્કાય અસંખ્યાત ગુણ છે, અને બાદર અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા બાદર અપર્યાપ્ત અષ્કાયના જીવ અસંખ્યાતગુણ છે. સૂકમ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવોથી સૂકમ અપર્યાપ્ત અકાયિક જીવ વિશેષ અધિક છે.
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आचारचिन्तामणि-टोका अध्य.१ उ.३ मू. ९ अफायशस्वम् सूक्ष्म-पर्याप्त-पृथिवीकायेभ्यः सूक्ष्मपर्यामा अकाया विशेषाधिकाः ॥ मू०९॥
श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनमामन्त्र्य कथयति-'इदं चे.' त्यादि ।
इई च खलु भो ! अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया सू० ॥१०॥
छायाइह च खलु भोः ! अनंगाराणामुदकं जीवा व्याख्याताः ॥ सू० १०॥
टीका'भोः' इति परस्परालापविषयकामन्त्रणे, तेन भो: हेजम्बूः ! इह-जिनशासने खलु-निश्चयेन अनगाराणां-द्रव्यभावगृहरहितानां मुनीनां मतिबोधनायेति शेपः, उदकं जीवा व्याख्याताः' इति, उदकं जीवपिण्डभूततथा सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वोकाय की अपेक्षा सूक्ष्म पर्यात अप्काय के जीव विशेष अधिक हैं ।। सू. ९ ॥
श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को संबोधन करके कहते हैं:-'इह च' इत्यादि ।
मूलार्थ है शिष्य ! जिन शासन में अनगारों के लिए यह व्याख्या की गई है कि-जल जीव है. ।। सू. १०॥
टीकार्थ--'भो' शब्द संबोधन के लिए है। इस का तात्पर्य यह हुआ कि हे जम्बू ! इस जिन शासन में निश्चय से अनगारों अर्थात् द्रव्य और भाव गृह से रहित मुनियों के बोध के लिए 'जल जीव है' यह व्याख्यान किया गया है । जल, जीवों का
તથા સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા સુલમ પર્યાપ્ત અકાયના જીવ વિશેષ अधिः छे. (स. ६)
શ્રી સુધમાં સ્વામી જન્મે સ્વામીને સંબોધન કરીને કહે છે- હું ' ઇત્યાદિ.
મૂલાઈ-હે શિષ્ય! જિનશાસનમાં અણગારેને માટે આ વ્યાખ્યા કરવામાં भावी छ, १९७१ छ. (स. १०)
ટીકાથ... શબ્દ સંબધન માટે છે. તેનું તાત્પર્ય એ થયું કે-હે જ. આ જિનશાસનમાં નિશ્ચયથી અણગારના અર્થાત્ દ્રવ્ય અને ભાવ ગૃહથી રહિત મુનિઓના બંધ માટે “જલ જીવ છે આ વ્યાખ્યાન કરવામાં આવ્યું છે. જલ, નેપિંડ છે, એ પ્રમાણે
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आचाराने पृथिवीकायवद्' असंख्येयाच प्रत्येकमुभये । केरलं शरीरसंस्थान स्तियुकविन्दुकसंस्थितमेव ।
परिमाणद्वारम् -- ये वादरमर्याप्ता अकायाः, ते संवर्तितलोकमतरासंख्येयमाग प्रदेशराशिपरिमाणाः, ये तु बादरा अपर्याप्ताः, तथा सूक्ष्माः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च राशयस्ते पृथक्-पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति । अयमत्र विशेपः-चादरपर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्यो वादरपर्याप्ता अप्काया असंख्येयगुणाः, बादरेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः पृयिवीकायेभ्यो बादरा अपर्याप्ता अप्काया असंख्येयगुणाः । सूक्ष्मापर्याप्तथिवीकायेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्ता अपकाया विशेषाधिकार,
पृथ्वीकाय के समान प्रत्येक प्रकार के जीव असंख्यात हैं। अलबत्ता इन के शरीर का आकार स्तिवुकबिन्दु (खुद-बुद) के समान है।
परिमाणद्वारबादर पर्याप्त अप्काय के जीव संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येयभाग प्रदेशों के बराबर हैं, बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म प्राप्त और अपर्याप्त राशियों अलग अलग भसंख्यात लोकाकाश के प्रदेश के बराबर हैं। यहाँ इतनी विशेषता समझनी चाहिए कि-बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय की अपेक्षा बादर पर्याप्त अप्काय असंख्यातगुणा हैं, और बादर अपर्याप्त पृथ्वीकाय की उपेक्षा बादर अपर्याप्त अपकाय के जीव असंख्यातगुणा हैं। सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिक जीव विशेष अधिक है
પૃથ્વીકાયની પ્રમાણે પ્રત્યેક પ્રકારના જીવ અસંખ્યાત છે. અલબત્ત તેના શરીરના આકાર સ્તિબુકબિન્દુ-બુદ–બુદના પ્રમાણે છે.
પરિમાણદ્વાર– બાદર પર્યાપ્ત અષ્કાયના જીવ સંવર્તિત લોકમતરના અસંખ્યય ભાગ પ્રદેશના બરાબર છે. બાદર અપર્યાપ્ત તથા સૂક્ષમ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત રાશિઓ અલગ-અલગ અસંખ્યાત લોકાકાશના પ્રદેશોની બરાબર છે. અહિં એટલી વિશેષતા સમજવી જોઈએ કેબાદર પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા બાદર પર્યાપ્ત અષ્કાય અસંથાત ગુણ છે, અને બાદર અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા બાદર અપર્યાપ્ત અષ્કાયના જીવ અસંખ્યાત ગુણ છે. સૂમ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવથી સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત અષ્કાયિક જીવ વિશેષ અધિક છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ स. १६ अंकापंशस्त्रम् जलम् । मिश्र सचित्ताचित्तसंमिलितम् । एतद् द्वयं चाग्राह्यम् । अचित्तं द्विविध स्वभावतः, शस्त्रसंपर्कतश्च । स्वमावतोऽचित्तं जलं केवलि-मनापर्ययाऽवधि-श्रुतज्ञानिनस्तजानाना अपि न सेवन्ते, अनवस्थादोपमसङ्गात्, व्यवहाराशुद्धेश्च । प्रसिद्धं च यत् कदाचित्स्वभावतोऽचित्तजलपरिपूर्ण हूद, स्वभावतोऽचित्तीभूतं तिलादिकं च दृष्ट्वा व्यवहाराशुद्धत्वात्पिपासाक्षुधापरिपीडितानामपि साधूनां पानार्थ भक्षणार्थ च तत्रानुज्ञा न कृता भगवतेति । यत्तु शस्त्रसंपर्कादचित्तं जलं तत् साधूनामुपभोगाय ग्राां, तेन संयमनिहो भवति । किं तच्छत्रम् ? इत्याह-'सत्यं.' इत्यादि ।
नदी, कृप, तालाव आदि का जल सचित्त, और अचित्त मिला जल मिश्र कहलाता है। यह दोनों प्रकार का जल साधु के लिये अग्राह्य है। अचित्त जल दो प्रकार का है-स्वभाव से अचित्त और शस्त्र के संयोग से अचित्त । स्वभाव से अचित जल को केवली, मनःपर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, तथा श्रुतज्ञानी, जानते हैं, मगर उस का सेवन नहीं करते । सेवन करने से अनवस्था दोष आता है और व्यवहार अशुद्ध हो जाता है । यह बात प्रसिद्ध है कि-कदाचित् स्वभाव से अचित्त जल से भरा हुआ तालाव, तथा स्वभाव से अचित्त तिल, आदि को देखकर व्यवहार में अशुद्ध होने के कारण प्यास और भूख से पीडित साधुओं को भी पीने-खाने की आज्ञा भगवान्ने नहीं दी है । जो जल, शव के संयोग से अचित्त हो गया हो वही साधुओं के लिए, ग्राह्य होता है। ऐसा करने से ही संयम का पालन होता है । वह शस्त्र क्या है, यह बतलाने के लिए कहते है-'सत्यं.' इत्यादि ।
નદી, કુવા,તળાવ આદિનું જલ સચિત્ત છે. સચિત્ત અચિત્ત અને પ્રકારનું ભેગું થયેલું જલ મિશ્ર કહેવાય છે. આ બંને પ્રકારનાં જલ સાધુઓ માટે અગ્રાહ્ય છે. અચિત જલ બે પ્રકારનું છે. (૧) સ્વભાવથી અચિત્ત અને (૨) શસ્ત્રના સંગથી અચિત્ત. સ્વભાવથી અચિત્ત જલને કેવલી, મન:પર્યયજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની તથા શ્રુતજ્ઞાની જાણે છે, પરંતુ તેનું સેવન કરતા નથી–સેવન કરવાથી અનવસ્થા દેશ આવે છે, અને વ્યવહાર અશુદ્ધ થઈ જાય છે. એ વાત પ્રસિદ્ધ છે કે-કદાચિત્ સ્વભાવથી અચિત્ત જલથી ભરેલું તળાવ તથા સ્વભાવથી અચિત્ત તલ આદિને જોઈને વ્યવહારમાં અશુદ્ધ હોવાના કારણે તરસ અને ભૂખથી પીડિત સાધુઓને પણ પીવા-આવાની આજ્ઞા ભગવાને આપી નથી. જે જલ શસ્ત્રના સંયોગથી અચિત્ત થઈ ગયું હોય તે જલ સાધુઓ માટે ગ્રાહ્ય હોય છે. એ પ્રમાણે કરવાથી જ સંયમનું પાલન થાય છે. તે શર્મ શું છે? એ બતાવવા માટે કહે છે-“જો ઈત્યાદિ.
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आचारासो मस्तीति भगवता केवलालोकेन विज्ञायानगारेभ्यः संयमरक्षणार्थमुदकं जीवत्वेन मतियोधितमित्यर्थः । 'च'-शब्दात् तदाश्रिता अन्ये द्वीन्द्रियादयोऽपि जीवा व्याख्याता इति बोधितम् । यो विन्दुमात्रोदकविराधकः, स पहजीवनिकायविराधको भवतीति वर्तुलार्थः ॥ सू० १०॥
शस्त्रद्वारम्ननु यदि जोवपिण्डभूतमुदकं भगवता प्रोक्तं तर्हि उदकसेविनां मुनीनामवश्यं माणातिपातदोपसम्पातः, तेन कथं संयमः संयमिनां संपधते ? उच्यते
सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधमुदकम् । तत्र सचित्तं-नदीकूपतहागादिपिण्ड है, इस प्रकार भगवान ने केवलज्ञान से जानकर साधुओं के संयम की रक्षा के लिए जल को जीव बतलाया है। सूत्र में दिये हुए 'च' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि जल के आश्रित दूसरे द्वीन्द्रिय आदि जीव भी हैं। संक्षेप में तात्पर्य यह है कि-जो पुरुप एक बिन्दु जल की विराधना करता है वह पटकाय के जीवों का विराधक है ॥ सू. १० ॥
शस्त्रद्वारशंका-यदि जल जीवों का पिण्ड है, ऐसा भगवान्ने कहा है तो जलका सेवन करने वाले मुनियों को हिंसा का दोष लगता है। ऐसी स्थिति में साधुओं का संयम किस प्रकार कायम रह सकता है ?
समाधान-जल तीन प्रकार का है-(१) सचित्त (२) अचित्त और (३) मिश्र
ભગવાને કેવલજ્ઞાનથી જાણ કરીને સાધુઓના સંયમની રક્ષા માટે જલને જીવ તરીકે બતાવ્યું છે. સૂત્રમાં આપેલા “ શદથી એ પ્રગટ કરવામાં આવ્યું છે કેજલના આશ્રિત બીજા દ્વિન્દ્રિય આદિ જીવ પણ છે. સંક્ષેપમાં તાત્પર્ય એ છે કેજે પુરૂષ એક ટીપા જલની વિરાધના કરે છે તે કાયના જીવોને વિરોધક છે. (સૂ. ૧૦)
शक्षारશંક–જે જલ જીને પિંડ છે. એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે તે જલનું સેવન કરવાવાળા મુનિઓને હિંસાદેષ લાગે છે. એવી સ્થિતિમાં સાધુઓને સંયમ કાયમ કેવી રીતે રહી શકે છે?
समाधान- Y मारनु छ (१) सचित्त (२) माथि भने (३) मिश्र
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ स. ११ अप्कायशस्त्रम् मिश्रनलं च । उभयकायशस्वपरिणतमपि न ग्राद्यम्, तत्र मिश्रशङ्कासद्भावात् । परकायशत्रपरिणतमेव जलं मुनीनां ग्राह्यम्, परकायशस्त्रं चाप्कायस्य अग्नि-मृत्तिकाद्राक्षा-शाक-तण्डल-पिष्ट-दाली-चणकादिकम् । परकायशस्त्रपरिणतंवर्णादीनां पूर्वावस्थावलक्षण्यापनम् । तत्र वणतो धृसरत्यादिरूपं, गन्धतस्तत्तद्वस्तुसम्बन्धिगन्धवत्वम्, रसतस्तत्तद्वस्तुसम्बन्धितिक्तकटुकपायादिरसवत्त्वम् । स्पर्शतः स्निग्धरूक्षत्वादिरूपम् । तदेवम्भूतमचित्तं जलमस्यैवाङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे पानपणायामेकविंशतिविधं मुनीनां ग्राह्यत्वेन वक्ष्यते भगवता । तथाहि---
जल के लिए गर्म जल अथवा मिट्टी आदि से मिला हुआ जल । उभयकायशस्त्र से परिणत जल भी साधुओं के लिए पाह्य नहीं है, क्यों कि उस में मिश्र (सचित्ताचित्त) को शङ्का रहती है । मुनियों के लिए परकायशत्रपरिणत जल ही ग्रहण करने योग्य है । अप्काय का परकायशस्त्र-अशि, मिट्टी, दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, और चना आदि हैं।
पहले की अपेक्षा वर्ण, रस गंध आदि बदल जाना परकायशस्त्र से जल के परिणत (अचित्त) हो जाने की पहचान है। वर्ण से जल का धूसर आदि हो जाना, गंध से उस में मिली हुई वस्तुओं को गंध आने लगना, इसी प्रकार जल में मिली हुई वस्तुओं का तीखा, कडवा, कसैला आदि रस का स्वाद आ जाना, और स्पर्श से जल का रूखा, चिकना भादि हो जाना जल के अचित्त होने के लक्षण हैं।
મળેલું જલ. ઉભયકાય શસથી પરિણત જલ પણ સાધુઓ માટે ગ્રાહ્ય નથી. કેમકે તેમાં મિશ્ર (સચિત્તાચિત્તની શંકા રહે છે. મુનિએ માટે પરકાયશઅપરિણત જલજ ગ્રહણ કરવા યોગ્ય છે. અપ્લાયનું પરકાયશસ્ત્ર, અગ્નિ, માટી, દ્રાક્ષ, શાક, ચાવલ, લેટ, દાલ અને ચણ આદિ છે.
પહેલાં કરતાં જેનાં વર્ણ, રસ, ગંધ, આદિ બદલાઈ જાય તે પરાકાયશસ્ત્રથી જલ પરિણત (અચિત્ત) થઈ જવાની એ નિશાની અર્થાત્ ઓળખાણ છે.
વણથી જલનું ધૂસર આદિ થઈ જવું, ગંધથી તેમાં મળેલી વસ્તુઓની ગંધ આવવી, એ પ્રમાણે જલમાં મળેલી વસ્તુઓના તીખા, કડવા, કસેલા આદિ રસને સ્વાદ આવી જ, અને સ્પર્શથી જલનું રક્ષ ચિકણું આદિ થઈ જવું. એ જલ અચિત્ત હેવાના લક્ષણ છે.
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मूलम् -
सत्यं चेत्थ अणुवी पास, पुढो सत्यं पवेइयं ॥ सू० ११ ॥
छाया
शस्त्रं चात्र अनुविचिन्त्य पश्य, पृथक् शस्त्रं प्रवेदितम् ॥ ११ ॥
टीका
आचाराङ्गमत्रे
अस्मिन् प्रस्तुतेऽप्काये शस्त्रं - शस्यते-हिंस्यते माणी येन तच्छत्रम् अनुविचिन्त्य =' इदमष्कायस्य शस्त्रम्' इति विचार्य, पश्य - हे शिष्य ! ज्ञानदृष्टया विलोक्य | शस्त्रम् = उपमर्दकं प्रस्तुतत्वाद कायस्य पृथक = विभिन्नरूपं स्वकाय परकायोभयकायभेदात् त्रिविधमित्यर्थः प्रवेदितं = प्रतिबोधितं भगवतेतिशेषः । तत्र स्त्रकायशस्त्र नद्याद्युदकानां कूपाद्युदकम् । कूपाद्युदकानां नद्याद्युदकं च । स्वकायशस्त्रपरिणतं जलं साधूनामग्राी व्यवहाराशुद्धेः । उभयका यशस्त्रं कूपादिजलस्योष्णजलं मृत्तिकादि
मूलार्थ - - अपूकाय के विषय में, हे शिष्य ! शस्त्र का विचार करो । अप्काय के शस्त्र पृथक्-पृथक् समझाये गये हैं । सू. ११ ॥
टीकार्य -- जिस के द्वारा हिंसा हो वह शस्त्र कहलाता है, हे शिष्य ! अकाय के विषय में 'यह अप्काय का शस्त्र है' इस प्रकार विचार करो अप्काय के शस्त्र स्वकाय, परकाय और उभयकाय के भेद से नाना प्रकार के भगवानन् ने बतलाये हैं । कुंएका जल नदी के जल के लिए स्वकायशस्त्र है, इसी प्रकार नदी आदि का जल कुँए के जल के लिए स्वकायशस्त्र है । स्वकायशस्त्र से परिणत जल साधुओं के लिए ग्राह्म नहीं होता, क्यों कि वह व्यवहार में अशुद्ध है । उभयकायशस्त्र है- कुँए आदि के
મૂલા—અકાયના વિષયમાં હું શિષ્ય ! શસ્ત્રના વિચાર કરો. અપ્કાયનાં शस्त्र हां हां सभलव्यां छे. (सू. ११)
ટીકા—જેના દ્વારા હિંસા થઈ શકે તે શસ્ત્ર કહેવાય છે, હે શિષ્ય ! અપ્કાયના વિષયમાં ‘આ અકાયનું શસ્ત્ર છે' એ પ્રમાણે વિચાર કરા અકાયનાં શસ્ત્ર સ્વકાય, પરકાય, અને ઉભયકાયના ભેદથી નાના પ્રકારનાં ભગવાને ખતાવ્યાં છે. કુવાનું જલ, નદી આદિનાં જલ માટે સ્વકાયશસ્ત્ર છે. એ પ્રમાણે નદી આદિનું જલ કુવાનાં જલ માટે સ્વકાયશસ્ર છે, સ્વકાયશસ્ત્રથી પરિણુત જલ સાધુએ માટે ગ્રાહ્ય રહેતું નથી, કારણ કે તે વ્યવહારમાં અશુદ્ધ છે. ઉભયકાયશ છે કુવા આદિનાં જલ. માટે ગરમ જલ, અથવા માટી વગેરેથી
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य० १ उ. ३ स. ११ जलमकरणम्
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इति भाषायां तस्य पान धावनजलम् । (१३) द्राक्षापानकम् = द्राक्षाधावनजलम् । (१४) दाडिमपानकम् - दाडिमधावनजलम् । (१५) खर्जूरपानकम् खर्जूरथावन - जलम् । (१६) नालिकेलपानकम् = नालिकेलधावन जलम् । ( १७ ) करीरपानकम् = करीरधावनजलम् । (१८) कोलपानकम् = वदरधावनजलम् । (१९) आमलकपानकम् - आमलकधावनजलम् । (२०) चिञ्चपानकम् = चिञ्चा - अम्लिका' इमली ' इति भाषायां, तस्याः पानकं = धावेनजलम् । (२१) शुद्धविकृतम् अग्न्युत्कालितमुष्णं जलं च ।
इह शेपद्वाराणि पृथिविकायचद् विज्ञेयानि ।
,
ये तु शाक्यादय: सचिताप्कायोपभोगिनः सन्ति तेषु शाक्यादयः स्वोपभोगार्थम् ' आपो जीवा न सन्ति इति प्रतिपादयन्ति दण्डिनस्तु जलं सचितं मन्यमाना अपि मोदप्रमादवशतः स्वार्थमुस्कालयन्ति, परमुपदिशन्ति, च, यथा त्रिदण्डमुत्काळनीय जळम् इत्युपदिश्याप्कायसमारम्भं कारयन्तो न केवलमप्कायं विहिंसन्ति, किन्तु तदाश्रितानन्यानपि द्वीन्द्रियान विराधयन्ति । का धोवन (१५) खजूर का धोवन (१६) नारियल का घोवन (१७) कैर का धोवन (१८) वेर का धोवन (१९) आँवले का घोवन (२०) इमली का घोवन (२१) अग्नि से उकाला हुआ गर्म जल ।
जो शाक्य आदि सचित्त अकाय का सेवन करते है, उन में से शाक्य आदि अपने उपभोग के लिए ' जल सचित नहीं है ' इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं । दण्डी लोक जल को सचित्त मान कर के भी मोह और प्रमाद के वश हो कर अपने लिए पानी गरम करवाते हैं ओर दूसरों को उकालने का उपदेश देते हैं कि- जल तीन दण्ड, उकालना चाहिए । अर्थात् तीन उकालेका पानी होना चाहिये इस प्रकार उपदेश देकर अपूकाय का समारम्भ करते हुए न केवल अप्काय की हिंसा करते हैं अपि तु जल में रहने वाले द्वीन्द्रिय आदि की भी विराधना करत हैं ।
धोवायु, (१६) नारीभेसनु घोव. (१७) रनु घोव. (१८) मोशन घलु, (१८) गणानं घोव. (२०) मसीनु घोव. (२१) अतिथी (झणेतुं गरम स.
જે શાકય આદિ સચિત્તપ્રકાયનું સેવન કરે છે. તેમાંથી શાય આફ્રિ પેાતાના ઉપભાગ માટે જલ ચિત્ત નથી’ એ પ્રકારની પ્રરૂપણા કરે છે. દડી જલને સચિત્ત માનીને પણ મેહ અને પ્રમાદ વશ થઈ. પેાતાના માટે પાણી ગરમ કરાવે છે, અને બીજાને પાણી ગરમ કરવાના ઉપદેશ આપે છે કે-જલ ત્રણ દ.--ઉકાળા આપીને ઉકાળવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપીને પ્રકાયને સમારભ કરતા થકા કેવળ અપકાયનીજ હિંસા કરે છે, એટલુંજ નહી પરન્તુ જલમાં રહેવાવાળા દ્વીન્દ્રિય આદિની પણ વિરાધના કરે છે.
प्र. स.-६७
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आचाराचे (१) उत्स्वेद्यम्-पिष्टसंघटपिठरादिप्रक्षालनजलम् । (२) संस्वयम् संसेकिम वा-उत्कालिततिलधावनजलं, उत्कालितपप्रशाकादिधावननलं वा। (३) तन्दुलोदकम् तन्दुलधावनजलम् । (४) तिलोदकम्-तिलधावनजलम् । (५) तुपोदकम् बीहिधावनजलम् । (६) यवोदकम्य वधान्यक्षालनमलम् । (७) आचामकम् अवश्रामणजलं 'औसामण' इति भापामसिद्धम् । (८) सौवारम्आरनालं, तक्रपात्रधावनजलं, तक्रोपरिष्ठानिस्तारितजलं या 'आई' इति भापायाम् । (९) आम्रफलादिधावनजलम् । (१०) आम्रातकपानकम्-आम्रातकधावनजलम् । आम्रातकमिति 'अम्बाडी' इति भापामसिद्धम् । (११) कपित्थपानकम् कपित्थं 'कविठ' इति भपायां, तस्य धावनजलम् । (१२) मावलिङ्गम् ‘विजोरा'
इस प्रकार का अचित्त जल इसी सूत्र के दूसरे श्रतस्कन्ध में पानपणा' प्रकरण में इक्कीस प्रकार का भगवान् ने साधुओं के लिए ग्राह्य कहा है । वह इस प्रकारः--
(१) उत्सेद्य--आटेका मिला हुवा पीठर (कथोटी) आदिका धोवन ।
(२) संस्वेद्य (संसेकिम) उकाले हुए तिलोका धोवन या उकाले हुए पत्तों के शाक का धोवन ।
(३) चावलों का धोवन, (४) तिलों का धोवन, (५) धान्यका घोवन, (६) जौ का धोवन (७) ओसामण, (८) आरनाल, छाछ के वर्तनों का धोवन, अथवा छाछ के उपर का नितारा पानी जिसे 'आंछ' भी कहते हैं।
(९) आम आदि फलों का धोवन (१०) अम्बाडी का धोवन (११) कविठ (कैथ) का धोवन (१२) विजौरे का धोवन (१३) दाख का धोवन (१४) दाडिम (अनार)
આવા પ્રકારનું અચિત જલ આ સૂત્રના બીજા ગ્રુતસ્કંધના પાનૈષણ–પ્રકરણમાં એકવીશ પ્રકારનું ભગવાને સાધુઓ માટે ગ્રાહ્ય કહ્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે –
(१) स्वेध-वाट भणे, ४थरोट मोहिनु . (ર) સંઘ-ઉકાળેલા તલનું ધાવણ, અથવા ઉકાળેલા પત્તાવાળાં શાકનું ધાવણું.
(3) यासानु घोषण. (४) तर्नु घाषण. (५) धान्यनु धौवाए. (6) पतु धोपण. (७) मासाभए. (८) मारनाल-छासना वासानु चौपाय, मथवा छासनी ५२ નીતરેલ પાણ. જેને “આછ પણ કહે છે.
(e) मामा-मामे मा जानु घोपण. (१०) समानु घोपर (११) गर्नु घोपण. (१२) मिनरा घावा. (१३) द्राक्ष धापy. (१४) हाउभनु घोषण. (१५)
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ३ म. १३ अष्कायविराधनादोषः ६३५
टीका'अथवा 'शब्दः कथितस्यार्थस्य प्रकारान्तरेण स्पष्टीकरणे वर्तते । येऽष्कायारम्भिगस्तेपामदत्तादानदोपापत्तिरपि । यतोऽकायनोवैस्तेभ्योनार्पितानि स्वशरीराण्युपमर्दयितुं, ते च तानि वाङ्मनाकाययोगैः कृतकारितानुमोदितैरुपमर्दयन्ति, ततथाकायारम्भिणामदत्तादानदोपोऽप्यनिवार्यों भवति, तस्मान्मुमुक्षुभिः सर्वथाऽकायारम्भो वर्जनीयः, इति भगवता साक्षात्मोक्तम् ।। सू० १२ ।।
सचित्तजलोपभोगिनो हि पृष्टाः सन्तो यद् वदन्ति तदाह---
यद्वा-अकायारम्भं स्वयं परिहत्तुमक्षमाः शाक्यादयो यद्वदन्ति तदाह'कप्पड़ णे.' इत्यादि।
टीकार्य--पहले कही हुई बात का दूसरी तरह से स्पष्टीकरण करने के लिये 'अथवा' शब्द है | जो अपकाय का आरंभ करते हैं उन्हें अदत्तादान का दोष भी लगता है । कारण यह है कि-अप्काय के जीवों ने अपने शरीर उपमर्दन करने के लिए उन्हें सौपे नहीं हैं, फिर भी वे लोग मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से उनका उपमर्दन करते हैं. अतः अप्काय का आरंभ करने वालों को अदत्तादान का दोष अनिवार्य है। अतः मुमुक्षु पुरुषों को अप्काय का आरंभ त्यागना चाहिए। ऐसा भगवान ने साक्षात कहा है ।। सू० १२ ॥
सचित्त जलका उपयोग करनेवाले पूछनेपर जो उत्तर देते हैं सो कहते हैं-- अथवा जो लोग अप्काय के आरंभ को त्यागने में असमर्थ हैं उनका कथन बतलाते हैं:'कप्पइ णे.' इत्यादि।
ટીકાથ–પ્રથમ કહેલી વાતને બીજી રીતથી સ્પષ્ટીકરણ કરવાના અર્થમાં અથવા શરદ છે, જે અપ્લાયનો આરંભ કરે છે, તેને અદત્તાદાન દેષ પણ લાગે છે, કારણ એ છે કે--અષ્કાયના જીવોએ પિતાનું શરીર ઉપમર્દન કરવા માટે તેને સોંપ્યું નથી. તે પણ તે લેકે મન, વચન અને કાયાથી અને કરવું, કરાવવું તથા અનુમેદવું તે વડે કરી ઉપમન કરે છે, તે કારણથી અષ્કાયને આરંભ કરવાવાળાને અદત્તાદાન દેવ પણ અનિવાર્ય (ટાળી ન શકાય તેવો છે. એ માટે મુમુક્ષુ પુરૂએ અખાયને આરંભ ત્યાગી દેવું જોઈએ. એ પ્રમાણે ભગવાને સાક્ષાત્ કહ્યું છે. (સૂ. ૧૨)
સચિત જલનો ઉપયોગ કરવાવાળાને પૂછતાં જે ઉત્તર આપે છે-તે કહે છે. અથવા જે લોક અપ્લાયના આરંભને ત્યજવામાં અસમર્થ છે. તેમનું કહેવું–કથન सताकपड़ णे..त्यादि
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भाचाराचे दृश्यन्ते च तीर्थादिपु अधःकर्मादिदोपदपितभक्तपानादिग्रहणेनाप्कायादिमहासमारम्भ कुर्वाणाः । न च ते स्वात्मानं भवसागरातारयितुं समर्या भवन्ति, उक्तत्र-भगवतीचराध्ययनसूत्रे-(अध्य. २०) .
"चिरंपि से मुंडरुई मवित्ता, अधिरचए तवनियमेहि महे। .. चिरंपि अप्पाण किलेसइना, न पारए होह हु संपराए" ॥ सू० ११॥
न केवलं ते हिंसादोपभागिनः, अपि त्वायदोपमागिनोऽपि सन्ति, तदेव भगवानाह-'अदुवा.' इत्यादि ।
अदुवा अदिनादाणं । सू० १२ ॥
छाया- . अथवा अदत्तादानम् ॥ सू०१२ ॥ तीर्थ आदि पर आधाकर्म आदि दोषों से दूपित आहारपानी ग्रहणकरके अप्कायका महारंभ करते हुए देखे जाते हैं । वे अपने आत्मा को भवसागर से तारने में समर्थ नहीं हैं । भगवान् ने उत्तराध्ययनसूत्र (अध्ययन २०) में कहा हैं
"जो पुरुष अस्थिर व्रत वाला है और तप तथा नियमों से भ्रष्ट है वह चिरकाल तक अपने आत्मा को क्लेश पहुँचाने पर भी संपराय (संसार से ) पार नहीं हो - चकता" (उत्त. स. २०)। सू० ११ ॥
सचित्त जल का आरंभ करने वाले अकेली हिंसा के ही भागी नहीं हैं, किन्तु अन्य दोपों के भागी भी हैं । यही बात भगवान् कहते हैं:-'अदुवा.' इत्यादि ।
मूलार्थ अथवा अदत्तादान का दोष लगता है । मू० १२ ॥
તીર્થ આદિ પર આધાકર્મ આદિ દોથી દૂષિત આહાર-પાણી ગ્રહણ કરીને અપકાયને મહારંભ કરતા હોય એમ જોવામાં આવે છે. તે પિતાના આત્માને ભવસાગરથી तापामा समर्थ नथी. सवान-उत्तराध्ययन सूत्रमा (अध्ययन २०भां) घुछ हैं:
જે પુરુષ અસ્થિર વ્રતવાળા છે અને તપ તથા નિયમથી ભ્રષ્ટ છે, તે લાંબા સમય સુધી પોતાના આત્માને કલેશ પહોંચાડવા ઉપરાંત પણ સંસારથી પાર થઈ शता नथी." (उत्तरा० म. २०) (सू. ११)
સચિત્ત જલને આરંભ કરવાવાળા એકલી હિંસાનાજ ભાગી નથી પરંતુ અન્ય होचोना ला छ. ते पात लगवान ४ छ-'अदुवा. त्याहि.
असाथ-मया महत्ताहानना होप लागे छ. (सू. १२) . .
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ३ मू. १३ अकायविराधनादोपः ६३१
टीका'अथवा '-शब्दः कथितस्यार्थस्य प्रकारान्तरेण स्पष्टीकरणे वर्तते । येऽष्कायारम्भिगस्तेपामदत्तादानदोपापत्तिरपि । यतोऽकायजीवैस्तेभ्यो नार्पितानि स्वशरीराण्युपमर्दयितुं, ते च तानि वाङ्मनःकाययोगैः कृतकारितानुमोदितैरुपमर्दयन्ति, ततथाकायारम्भिणामदत्तादानदोपोऽप्यनिवार्यों भवति, तस्मान्मुमुक्षुभिः सर्वथाऽकायासम्भो वर्जनीयः, इति भगवता साक्षात्मोक्तम् ।। सू० १२ ॥
सचित्तजलोपभोगिनो हि पृष्टाः सन्तो यद् वदन्ति तदाह---
यद्वा-अकायारम्भं स्वयं परिहत्तुमक्षमाः शाक्यादयो यद्वदन्ति तदाह'कप्पह णे.' इत्यादि।
टीकार्य-~~-पहले कही हुई बात का दूसरी तरह से स्पष्टीकरण करने के लिये 'अथवा' शब्द है । जो अप्काय का आरंभ करते हैं उन्हें अदत्तादान का दोष मी लगता है। कारण यह है कि-अपकाय के जीवों ने अपने शरीर उपमर्दन करने के लिए उन्हें सौपे नहीं हैं, फिर भी वे लोग मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से उनका उपमर्दन करते हैं. अतः अप्काय का आरंभ करने वालों को अदत्तादान का दोष अनिवार्य है । अतः मुमुक्षु पुरुषों को अपकाय का आरंभ त्यागना चाहिए ! ऐसा भगवान् ने साक्षात कहा है ।। सू० १२॥
___ सचित्त जलका उपयोग करनेवाले पूछनेपर जो उत्तर देते हैं सो कहते हैं= अथवा जो लोग अपकाय के आरंभ को त्यागने में असमर्थ हैं उनका कथन बतलाते हैं:'कप्पा पो, इत्यादि।
ટીકાથ–પ્રથમ કહેલી વાતને બીજી રીતથી સ્પષ્ટીકરણ કરવાના અર્થમાં અથવા” શબ્દ છે. જે અપ્લાયને આરંભ કરે છે, તેને અદત્તાદાનને દોષ પણ લાગે છે, કારણ એ છે કે-અષ્કાયના જીવોએ પિતાનું શરીર ઉપમન કરવા માટે તેને સે નથી. તે પણ તે લોકે મન, વચન અને કાયાથી અને કરવું, કરાવવું તથા અનમેદવું તે વડે કરી ઉપમદન કરે છે, તે કારણથી અપ્લાયને આરંભ કરવાવાળાને અદત્તાદાન દેવ પણ અનિવાર્ય (ટાળી ન શકાય તેવી છે. એ માટે મુમુક્ષ પરોએ અષ્કાયને આરંભ ત્યાગી દે જોઈએ. એ પ્રમાણે ભગવાને સાક્ષાત કહ્યું છે. (સૂ. ૧૨)
સચિત્ત જલનો ઉપયોગ કરવાવાળાને પૂછતાં જે ઉત્તર આપે છે તે કહે છે, અથવા જે લોક અષ્કાયના આરંભને ત્યજવામાંઅસમર્થ છે. તેમનું કહેવું-કથન सतावे छे' कापडणे..त्याहि
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कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं अदुवा विभूसाए ॥ सू० १३॥
छायाकल्पतेऽस्माकं कल्पतेऽस्माकं पातुं, अथवा विभूपायै ॥ मू० १३ ॥
टीका'कल्पतेऽस्माक'-मिति । न वयं स्वेच्छयोदकमुपमर्दयामः किन्त्वस्माकमागमे निर्जीवत्वेन प्रतियोधितत्वादनिपिदस्याच पातुं कल्पते । 'कल्पतेऽस्माकम् ' इत्यस्य द्विरुधारणेन पुनःपुनरनेकमयोजनवशाद् बहुविध उपभोगोऽस्माकं कल्पते, इति वोध्यते । तथाहि__ भस्मस्लायिनो वदन्ति-अस्माकं पातुमेव कल्पते न तु स्नातुमिति ।
शाक्यादयस्त्वेवं जल्पन्ति-स्नान-पानादि सर्व कल्पते जलेनेति ।
मूलाथे-हमें कल्पता है, हमें कल्पता है, (जल) पीने और विभूषा करने-हाथ पर आदि धोने, नहाने के लिए ॥ सू. १३ ॥
टीकार्थ- हम स्वेच्छा से जल की विराधना नहीं करते, वरन हमारे आगम में जल को अचित्त बतलाया है और पीने का निपेध नहीं किया है, अतः हमें पीना कल्पता है। 'हमें कल्पता है' यह दो बार कहने से यह सूचित किया गया है कि प्रयोजन के वश नाना प्रकार का उपभोग करना हमें कल्पता है । जैसे
भस्म से स्नानकरनेवाले कहते हैं--हमें पीना ही कल्पता है, स्नानकरना नहीं कल्पता।
शाक्य आदि का कहना है कि हमें पीना और स्नानकरना-सभी कुछ कल्पता है।
भूता-मभने ४८ छ, समन ४८ छ, (C) पापान मन विभूषासाथ यस माह धापा, नहाया भाट (सू. १३)
ટીકા–અમે સ્વેચ્છાથી જલની વિરાધના કરતા નથી, પરંતુ અમારા આગમમાં જલને અચિત્ત બતાવ્યું છે, અને પીવાને નિષેધ કર્યો નથી. તેથી અમારે પીવું કહે છે. “અમારે કહે છે. આ બે વાર કહેવાથી એ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે–પ્રજનવશ નાના પ્રકારને ઉપભોગ કરવાનું અમને કલ્પ છે. જેમકે
ભસ્મથી સ્નાન કરવાવાળા કહે છે–અમારે પીવું કહપે છે, સ્નાન કરવું કપતું નથી.
શાકય આદિનું કહેવું છે કે-અમારે પીવું અને ખાન, સર્વે કાંઈ કપે છે.
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आचारचिन्तामगि-टीका अध्य०१ उ.३ सू.१३-१४ अप्कायोपभोगवादिमतम् ५३३ .
ते पुनरेवं वदन्ति-अथवा विभूषायै शोभायं कल्पतेऽस्माकमुदकमिति । विभूषा नाम-करचरणमुखादिमक्षालनादिका, वखादिमक्षालनरुपा वा, तदर्थं जलेन व्यवहरतामस्माकं नास्ति कोऽपि दोपछेश इति ।। मू० १३ ।।
पुनः किं कुर्वन्ति ते ? इत्याह-'पुढो सत्येहि,' इत्यादि
पुढो सत्धेहि विउद्देति ।। मू० १४ ॥
छाया--- पृथक शस्त्रैावर्तयन्ति (विकुटुंति वा ) ।। सू० १४ ।।
टीका।। आत्मानमनगारं प्रवदमाना शाक्यादयः पृथक्-भिन्नभिन्नस्वरूपैः शस्वैःस्नानपानधावनोत्सेचनादिभिरफायजीवान् व्यावर्त्तयन्तिप्राणेम्यो व्यपरोपयन्ति । यद्वा विकुटन्ती तिच्छाया तेन विकुटन्ति-विशेपेण छिन्दन्ति, सर्वथा भावेन विराधयन्तीत्यर्थः ।। सू० १४ ॥
उनका यह भी कहना है कि-विभूषा-शोभा के लिए भी जल का उपभोग हमें फापता है। हाथ, पैर, मुख, आदि धोना और वस्त्र आदि धोना विभूपा है । इस के लिए जलका व्यवहारकरने में हमें जरा भी दोप नहीं लगता ।। सू० १३ ॥
वे और क्या करते हैं, सो करते हैं:-'पुढो.' इत्यादि । मलार्थ-भिन्न-भिन्न शस्त्रों से जलकाय की हिंसा करते हैं ।। सू० १४ ॥
टीकार्थ-अपन को अनगार कहते हुए शाक्य वगैरह भिन्न-भिन्न प्रकार के शस्त्रो से स्नान, पान, धोना, सींचना आदि कार्य कर के अप्काय की हिंसा करते हैं । अथवा पूर्णरुप से उस की विराधना करते हैं ।। सू० १४ ॥
તેમનું એ પણ કહેવું છે કે વિભૂષા-ભા માટે પણ જલનો ઉપગ અમારે કપે છે. હાથ પગ, મુખ આદિને ધોવાં અને વસ્ત્ર આદિ દેવાં તે વિભૂષા કહેવાય છે. એ માટે જલને વ્યવહાર કરવામાં અમને જરાપણ દોષ લાગતો નથી. (સૂ. ૧૩)
તે બીજું શું કરે છે, તે કહે છે “જુકો ઈત્યાદિ. મૂલાર્થ-જૂદા જૂદા શàથી જલકાની હિંસા કરે છે. (સૂ. ૧૪)
ટીકા–પિતાને અણગાર કહેનારા શાકય વગેરે ભિન્ન-ભિન્ન પ્રકારના શસ્ત્રથી સ્નાન, પાન, દેવું, સીંચવું આદિ કાર્ય કરીને અપ્લાયની હિંસા કરે છે. અથવા પૂર્ણ રૂપથી તેની વિરાધના કરે છે. (સૂ, ૧૪).
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५३४
आंचारागसूत्रे साम्मतमेपां युक्त्यागमयोनिस्सारत्वं प्रदर्शयमाह-' एत्यवि.' इत्यादि ।
एत्य वि तेर्सि नो निकरणाए । सू० १५॥ ।
॥ छाया ॥ अत्रापि तेपां नो निकरणायै । सू० १५॥ .
॥टीका ॥ तेपां शक्यादीनां युक्तयः अत्र-अस्मिन्नप्कायारम्मविषये नो नैव निकरणायैनिश्चयकरणाय समर्थाः सन्ति । अपिशब्देन तेपामागमोऽपि न निश्चेतुं समर्थों भवति । आगमत्वपि तत्र न संभवति, अनाप्तमणीतत्वात, हिंसाविधायकत्वाच्च । यतो हि स एवागमशब्दवाच्यः यः खलु ' वीतरागमणीतः सर्वपाणिहितकरी भवति ।। सू० १५ ॥
उन का कथन युक्ति और आगम से सारहीन है, यह बतलाते हुए कहते है'एत्थवि.' इत्यादि।
मूलार्थ उन लोगों को युक्तिया अप्काय' के विषय में निश्चय नहीं कर सकती। सू०१५॥
टीकार्थ---उन शाक्य आदि की युक्तिया अकाय के आरंभ के विषय में, निश्चय करने में समर्थ नहीं हैं । 'वि' अपि शब्द से यह सूचित किया है कि उनका आगम भी निश्चय करने में समर्थ नहीं है । उनका आगम, आगम भी नहीं है, क्यों कि वह आतपुरुपद्वारा प्रणीत नहीं है और हिंसा का विधान करनेवाला है। आगम वही कहला सकता है जो वीतरागद्वारा प्रणीत हो और प्राणीमात्र का हितकारी हो ॥ सू० १५ ॥
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તેમનું કથન-કહેવું-ન્યુકિત અને આગમથી સારહીન છે, એ બતાવીને કહે છે'एत्यवि, 'त्याहि.
મુલાઈતે લેકેની યુક્તિઓ અષ્કાયના વિષયમાં નિશ્ચય કરી શકતી નથી.(સૂ. ૧૫)
ટીકા–તે શાકય આદિની યુક્તિઓ અષ્કાયના આરંભના વિષયમાં નિશ્ચય કરવામાં સમર્થ નથી. “વિ અપિ શબ્દથી, એ સૂચિત કર્યું છે કે તેમનું આગમ પણ નિશ્ચય કરવામાં સમર્થ નથી. તેમનું આગમ તે આગમ પણ નથી. કેમકે તે આપ્ત પુરૂ દ્વારા પ્રણીત નથી. અને હિંસાનું નિદાન કરવાવાળાં છે. આગમ તે કહેવાય છે કે જે વીતરાગદ્વારા પ્રણીત હેય અને પ્રાણીમાત્રનું હિતકારી હોય. (સ. ૧૫)
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१३.३सं.१५-१६ अकयोपभोगवादिमतरखण्डनम् ५३५
तदेवमपां जीवत्वं प्रतियोध्य अस्य उद्देशस्य सकलार्थमुपसंहरन्नाह-' एत्य सत्यं,' इत्यादि।
मूलम् --- एत्य सत्यं समारभमाणस्य इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । एत्य सत्यं असमारंभमाणरस इच्चेते आरंभा परिणाया भवति । तं परिणाय मेहावी व सयं उदयसत्यं समारंमेज्जा, वन्नेहि उदयसत्यं समारंभावेज्जा, उदयसत्यं समारंभतेऽवि अण्णे न समशुजाणेज्जा। जरसे ते उदयसत्यसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे-त्ति वेमि ॥ सू० १६ ।।।
तइओ उद्देशो समत्तो ॥३॥
छायाअत्र शत्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रमसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमुदकशस्त्र समारभेत, नवान्यैरुदकशस्त्र समारम्भयेत, उदकशस्त्र
इस प्रकार जल को जीव वतलाकर इस उद्देशक के समस्त कथन का उपसंहार करते हैं-'एत्य सत्थं.' इत्यादि ।
मूलार्थ--अप्काय में शस्त्र का आरंभ करने वाले को ये आरंभ ज्ञात नहीं होते । अप्काय में शस्त्र का आरंभ न करने वालो को ये आरंभ ज्ञात होते हैं। उन्हें जानकर बुद्धिमान् पुरुप स्वयं जल का आरंभ न करे, दूसरों से आरंभ न करावे और आरंभ करने वाले दूसरे को भला न जाने । जो जलकाय के इस आरभ को जानता है वहीं परिज्ञातकर्मा मुनि है । भगवान् से मैने जो सुना वह कहता हूँ ।। सू० १६ ॥
આ પમાણે જલને જીવ બતાવીને આ ઉદ્દેશકનાં સમસ્ત કથનને ઉપસંહાર ४३ छ---'एत्य.' त्याहि.
મુલાઈ–અપ્લાયમાં શાના આરંભ કરવાવાળાને આરંભ જાણવામાં આવતા નથી. અષ્કામાં શસ્ત્રના આરંભ નહિ કરવાવાળાને એ આરંભ જાણવામાં આવે છે. તેને જાણી કરીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ સ્વયે જલને આરંભ કરે નહિ. બીજી પાસે આરંભ કરાવે નહિ. અને આરંભ કરવાવાળા બીજાને ભલે જાણે નહિ. જે જલકાયો આ પ્રમાણે આરંભ જાણે છે. તે પરિજ્ઞાતકમાં મુનિ છે, ભગવાન પાસેથી જે સાંભળ્યું તે કહું છું. (સૂ. ૧૬)
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আষায় समारभमाणानन्यान न समनुजानीयात् । यस्यैते उदकराखसमारम्भाः परित्राता भवन्ति स खलु मुनिः परिझातकर्मा, इति प्रवीमि ।। सू० १६ ॥ . . .
। तृतीय उद्देशः समाप्तः॥३॥ |
टीका-- अत्र अस्मिनष्काये शस्त्र-द्रव्यभावरूपं . समारममाणस्य-व्यापारयतः इत्येते आरम्भाः बन्धदेतुत्वेनापरिक्षाता भवन्ति । अत्र अस्मिन्न काये शस्त्रंन्द्रव्यभावरूपम् असमारभमाणस्य अव्यापारयतः इत्येते आरम्भाः परिझाता भवन्ति । ज्ञपरिज्ञया परिक्षाताः, तथा प्रत्याख्यानपरिक्षया परित्यक्ता भवन्तीत्ययः । ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिक्षा यथा समुद्भवति दर्शयति-तत् परिज्ञाये - त्यादि । तद्-उदकारम्भणं परिज्ञाय=बन्धाय भवती'-त्येवमवयुध्य मेधावीसाधुमर्यादायां सावधानः, नैव स्वयमुदकशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरूदकशस्त्रं समारम्भ
टीकार्थ--इस अप्काय के विषय में द्रव्य और भाव रूप शस्त्र का व्यापार करने वाला अपने व्यपारों को कर्मबंध का कारण नहीं जानता । को अप्काय के विषय में द्रव्य और भाव रूप शस्त्र का उपयोग नहीं करते, उन्हें इस व्यापारों का ज्ञान होता है । अर्थात् वे ज्ञपग्ज्ञिा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग कर देते हैं । ज्ञपरिज्ञा के बाद प्रत्याख्यानपरिज्ञा किस प्रकार उत्पन्न होती है सो कहते हैं-जल के
आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर साधु की मर्यादा में रहने वाले बुद्धिमान् स्वयं जलकाय का आरंभ नहीं करे, दूसरों से आरंभ नहीं करावे और जलका आरंभ करने
ટીકાથ–આ અપ્લાયના વિષયમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ શાસ્ત્રને વ્યાપાર કરવા વાળા પિતાના વ્યાપારને કર્મબંધનું કારણ જાણતા નથી. જે અષ્કાયના વિષયમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ શસને ઉપયોગ કરતા નથી, તેને એ વ્યાપારનું જ્ઞાન હોય છે. અર્થાત તે જ્ઞપરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી તેનો ત્યાગ કરી દે છે.
સપરિણા પછી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા કેવા પ્રકારે ઉત્પન્ન થાય છે, તે કહે છે-જલના આરંભને કમબંધનું કારણ જાણ કરીને સાધુની મર્યાદામાં રહેવાવાળા બુદ્ધિમાન સ્વયં જલાથને આરંભ કરે નહિ, બીજા પાસે કરાવે નહિ, અને જલન આરંભ કરવાવાળાને
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.३ मू. १६ उपसंहारः
५३७ येत्, उदकशस्त्रं समारममाणान् अन्यान् अपि न समनुजानीयात् नानुमोदयेदित्यर्थः । यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवति, इति ब्रवीमि, एतद्वयाख्यानं माग्वद् बोध्यम् ।। मू० १६ ।। इत्याचाराहामृत्रस्याऽऽचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने
तृतीयोदेशः समाप्तः ॥१॥३॥ वाले दूसरों का अनुमोदन नहीं करे । जो उदकशल के आरंभ को जानता है वह परिज्ञातकर्मा मुनि है । 'इति वेमि' का अर्थ पहले की तरह जानना चाहिए ।। सू० १६॥ इति श्री आचाराङ्ग सूत्र की 'आवारचिन्तामणि' टीका के
हिन्दी अनुवाद में प्रथम अध्ययनका
तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ १-३॥ અનુમોદન આપે નહિ. જે ઉદકશાસ્ત્રના આરંભને જાણે છે, તે પરિશ્નાતકમાં સુનિ છે. 'इति बेमि' न म पडेसlvi प्रभाहो तो न मे. (सू० १६) छति श्री मायाग सूत्रनी 'आचारचिन्तामणि' न ગુજરાતી અનુવાદમાં પ્રથમ અધ્યયનને
त्रीने श समाप्त. ॥ १३॥
प्र.मा.-६८
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५३८
आषाराणसूत्रे अथ चतुदशः। अनन्तरतृतीयोदेशके मुनित्वमाप्तयेऽकायस्य स्वरूपं निर्णीतं, तदर्थमेवाएकायशस्त्रसमारम्मे ज्ञ-प्रत्याख्यान-भेदाद् द्विविधा परिक्षाऽपि प्रवेदिता। अथैतदर्थमेव च क्रममाप्तमग्निकार्य प्रतियोधयितुकामश्चतुर्यमुद्देशक प्रारमते । तत्रादौ 'तेजस्काया जीवाः सन्तीति निर्धारयितुमाधं भूत्रमाह-'से वेमि' इत्यादि।
मूलमसे वेमि नेव सयं लोयं अन्भाइक्खेजा, नेव अत्ताणं अन्माइखेजा, जे लोयं अन्माइक्खड़, से अत्ताणं अन्भाइक्रवइ । जे अत्ताणं अभाइक्रवइ, से लोयं । अब्भाइक्खा ॥ सू०१॥
चौथा उद्देशकपिछले तीसरे उद्देशक में साधुता को प्राप्ति के लिए अप्काय के स्वरूप का. निर्णय किया, और अकायशन का उपयोग करने में ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा भी वतलाई । अब उसी साधुता की प्राप्ति के लिए क्रमप्राप्त अग्निकाय का स्वरूप समझाते हुए चौथा उद्देशक आरंभ करते हैं। सर्वप्रथम तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व निश्चित करने के लिए सूत्र कहते हैं-'से वेमि' इत्यादि ।
मूलार्थ--भगवान् के समीप जैसा सुना है वैसा कहता हु । स्वयं अनिकायरूप लोक का अपलाप न करे । न आत्माका अपलाप करे । जो अग्निकाय का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है, जो आत्मा का अपलाप करता है वह अग्निकाय का अपलाप करता है। सू० १ ।।
પાછળના ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં સાધુતાની પ્રાપ્તિ માટે અપ્લાયને નિર્ણય કર્યો અને અષ્કાય અને ઉપયોગ કરવામાં પરિક્ષા તથા પ્રત્યાખ્યાનપરિક્ષા પણ બતાવી. હવે તે સાધુતાની પ્રાપ્તિ માટે કમપ્રાપ્ત અનિકાયનું સ્વરૂપ સમજાવતા થકા-ચોથા ઉદેશકને આરંભ કરે છે. સર્વ પ્રથમ તેજસકાયના જીનું અસ્તિત્વ નિશ્ચય કરવા भाटे सूत्र ४ छ-'से चेमि' त्यादि.
મૂલાઈ-ભગવાનની સમીપ જેવું સાંભળ્યું છે, તેવું કહું છું. સ્વય અગ્નિકાય ૫ લેકને અ૫લાપ કરે નહિ; અને આત્માને અપલાપ પણ કરે નહિ. જે અગ્નિકાયને અપલાપ કરે છે, તે આત્માને અપલાપ કરે છે. જે આત્માને અ૫લાપ કરે छते या अपan५ ४२ छ. (. १)
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आचारचिन्तामगि-टीका अध्य.१ उ.४ सु.१ उपक्रमः
छायास ब्रवीमि, नैव स्वयं लोकमभ्याख्यायात , नैवात्मानमभ्याख्यायात् । यो लोकमभ्याख्याति, स आत्मानमम्याख्याति । य आत्मानमभ्याख्याति, स लोकमभ्याख्याति ।। सू० १॥
टीकायेन मया नित्यं गुरुकुलनिवासिना भगवतः समीप पड्जीवनिकायस्वरूपं निरवशेषविशेषपुरस्सरं श्रवणमननादिना परिज्ञाविषयीकृत्य निर्णीत, सोऽई ब्रवीमि श्रुतं यथा भगवन्मुखाद , तया कथयामोत्यर्थः ।
___लोकम् अग्निकापलोकम् , प्रकरणसम्बन्धादिह लोकशब्देनाग्निकायलोकस्य ग्रहणम् । स्वयम् आत्मना, नैव अभ्याख्याया-नेवापहनुवीत । 'अग्निकायजीवा न मन्तीत्येवमग्निकायजीवस्यापलापं नैव कुर्यादित्यर्थः । स्वयमित्यनेनाग्निकायजीवापलपनकर्मणा स्वमात्मानं नैव बभीयादित्यर्थी योध्यते ।
टीकार्थ---गुरुकुल में निवास करते हुए मैंने भगवान के मुख से पटकाय का समस्त विशेषों से युक्त जो स्वरूप श्रवण मनन आदि से परिज्ञा का विषय कर के निणीत किया है, उसे मैं कहता हूँ । अर्थात् जैसा भगवान् के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही कहता हूँ।
अग्निकाय का प्रकरण होने के कारण यहा 'लोक' म अर्थ अग्निकायरूप लोक समझना चाहिए । इस अग्निकाय का स्वयं अपलाप न करे अर्थात् यह न कहे कि अग्निकाय के नीव नहीं है । स्वयं शब्द से यह अर्थ प्रकट होता है कि अग्निकाय के अपलापरूप कर्म से अपने आप को बद्ध न करे ।
ટીકાથ–ગુરુકુલમાં નિવાસ કરીને મેં ભગવાનના સુખથી કાયના સમસ્ત વિશેપેથી યુક્ત જે સ્વરૂપને શ્રવણ-મનન આદિથી પરિણાને વિષય કરીને નિર્ણત કર્યું તે ‘હું કહું છું. અર્થાત જે પ્રમાણે ભગવાનના મુખારવિદથી સાંભળ્યું છે. તેવુંજ હું કહું છું.
અનિકાયનું પ્રકરણ હોવાના કારણે અહિં અ ને અર્થ અગ્નિકાય લોક સમજે ઈએ. આ અગ્નિકાયને સ્વયં અપલાપ કરે નહિ. અર્થાત્ એ પ્રમાણે કહે નહિ કે-અગ્નિકાયના જીવ નથી “સ્વયં” શબ્દથી એ અર્થ પ્રગટ થાય છે કે અનિકાયના અ૫લાયરૂપ કર્મથી પિતે પોતાને બદ્ધ કરે નહિ.
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आधाराम अथ चतुर्थीदशः। अनन्तरतृतीयोदेशके मुनित्वमाप्तयेऽप्कायस्य स्वरूपं निर्णीतं, तदर्यमेवाएकायशस्वसमारम्मे ज्ञ-प्रत्याख्यान-भेदाद् द्विविधा परिक्षाऽपि प्रवेदिता । अथैतदर्थमेव च क्रममाप्तमग्निकार्य प्रवियोधयितकामश्चतुर्यमुद्देशकं प्रारमते । वत्रादौ 'तेजस्काया जीवाः सन्तीति निर्धारयितुमाधं मूत्रमाह-' से बेमि' इत्यादि।
मूलम-- से बेमि नेव सयं लोयं अन्भाइक्खेज्जा, नेव अत्ताणं अमाइक्खेजा, जे लोयं अन्भाइक्खइ, से अत्ताणं अन्भाइक्रवइ । जे अत्ताणं अन्माइक्खह, से लोयं अन्भाइक्खइ ॥ सु०१॥
चौथा उद्देशक-- पिछले तीसरे उद्देशक में साधुता की प्राप्ति के लिए अप्काय के स्वरूप कानिर्णय किया, और अकायशन का उपयोग करने में ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा भी बतलाई । अब उसी साधुता की प्राप्ति के लिए क्रमप्राप्त अग्निकाय का स्वरूप समझाते हुए चौथा उद्देशक आरंभ करते हैं। सर्वप्रथम तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व निश्चित करने के लिए सूत्र कहते हैं-'से वेमि' इत्यादि ।
मूलार्थ--भगवान् के समीप जैसा सुना है वैसा कहता हु । स्वयं अनिकायरूप लोक का अपलाप न करे । न आत्माका अपलाप करे । जो अग्निकाय का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है, जो आत्मा का अपलाप करता है वह अग्निकाय का अपलाप करता है । सू० १॥
याथा देश:પાછળના ત્રીજા ઉદેશકમાં સાધુતાની પ્રાપ્તિ માટે અપ્લાયને નિર્ણય કર્યો અને અષ્કાય અને ઉપયોગ કરવામાં રૂપરિણા તથા પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા પણ બતાવી. હવે તે સાધુતાની પ્રાપ્તિ માટે ક્રમ પ્રાપ્ત અગ્નિકાયનું સ્વરૂપ સમજાવતા થકા-ચોથા ઉદેશકને આરંભ કરે છે. સર્વ પ્રથમ તેજસકાયના જીનું અસ્તિત્વ નિશ્ચય કરવા भाटे सूत्र ४ थे-से वेमि' त्यादि
મૂલાથ–ભગવાનની સમીપ જેવું સાંભળ્યું છે, તેવું કહું છું. સ્વયં અગ્નિકાય સ, લોકને અપલાપ કરે નહિ; અને આત્માને અ૫લાપ પણ કરે નહિ. જે અગ્નિકાયને અ૫લાપ કરે છે, તે આત્માને અપલાપ કરે છે. જે આત્માને અપલાપ કરે છે તે અનિકાયને અ૫લાપ કરે છે. (સ. ૧)
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.४ सू. १ अग्निकायसिद्धिः
लक्षणद्वारम्-- ननु तेजस्कायजीवाः सन्तीत्यत्र कि मानम् ? उच्यते-अङ्गारादयो जीवशरीराणि, छेधत्वाद् , दृश्यत्वाद् , करचरणादिसमुदायवत् ।
___अङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः आत्ममयोगाविर्भूतः शरीरस्थलाद , खद्योतदेहपरिणामवत् । यथा-रजन्यादौ विशिष्टकाले माणिविशेषस्य खद्योतस्य देहपरिणामो जीवप्रयोगविशेषाद् भवति, एवमगारादीनामपि प्रकाशपरिणामः । यद्वा-अङ्गारादीनाम्मा आत्मसंमयोगपूर्वकः, शरीरस्थत्वात् , ज्वरोप्मवत् ।
लक्षणद्वारशङ्का--तेजस्काय के जीवों के अस्तित्व में क्या प्रमाण है ?
समाधान-अंगार आदि, जीव के शरीर हैं, क्यों कि वह छेय हैं, मेध है और दृश्य हैं, जैसे हाथ-पैर आदि का समूह ।
अथवा--अंगार आदि की प्रकाशरूप पर्याय, आत्मा के प्रयोग से उत्पन्न हुई है। श्यों कि वह शरीर में स्थित है, जैसे-जुगनू के शरीर की पर्याय, जैसे रात्रि वगैरह खास समय में जुगनू नामका प्राणी का शरीरपरिणाम (चमकना) जीव के प्रयोग से प्रकट होता है, उसी प्रकार संगार आदि का प्रकाशरूप परिणाम भी आत्मा के व्यापार से ही उत्पन्न होता है।
अथवा---अंगार आदि की गर्मा आत्मा के व्यापार से उत्पन्न होती है, क्यों कि वह शरीर में है, जैसे ज्वर की गर्मी. वर की गर्मी जीव से युक्त शरीर में ही उत्पन्न होती है,
લક્ષણ
શકા-તેરકાયના જીવોના અસ્તિત્વ હોવાપણા)માં શું પ્રમાણ છે?
સમાધાન–અંગાર આદિ જીવનાં શરીર છે. કેમકે તે છેદ્ય છે, ભેદ્ય છે, અને દસ્ય છે. જેમકે હાથ, પગ આદિને સમૂહ.
અથવાઅંગાર આદિની પ્રકાશરૂપ પર્યાય આત્માના પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થઈ છે, કારણકે તે શરીરમાં સ્થિત છે. જેવી રીતે-જુગનુ (આગિયા નામના પ્રાણીના શરીરની પર્યાય. જેમ રાત્રી વગેરે ખાસ સમયમાં જુગનુ (આગીઓ)નામક પ્રાણીનો શરીર–પરિણામ (ચમ) જીવના પ્રગથી પ્રગટ થાય છે. તે પ્રમાણે અંગાર આદિના પ્રકાશ પરિણામ પણ આત્માના વ્યાપારથી જ ઉત્પન્ન થાય છે.
અથવા–અંગાર આદિની ગરમી આત્માના વ્યાપારથી ઉત્પન્ન થાય છે. કારણકે તે શરીરમાં છે. જેમકે જવર–તાવની ગરમી. જવરતાવની ગરમી જીવથી યુક્ત શરીરમાં જ
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५४०
. पांचारामसे अयं भावः-कृतकारितानुमोदितभेदेन, मनोवाक्कायमेंदन, तथाऽतीतानागतवर्तमानभेदेन च प्रत्येकक्रियायाः सप्तविंशतिभेदा भवन्ति; एवमस्या अपि तेजस्कापजीवाभ्याख्यानरूपक्रियाया एकस्या एव सप्तविंशतिमेदा भवितुमर्हन्ति । तत्र कस्पाश्चिदपि कियायां स्वात्मानं न नियुझ्यादिति । उपपद्यतेऽप्ययमया, अन्यथा हि स्वयंकृतस्यैवाभ्याख्यानस्य प्रतिषेधे कारिवानुमोदितरूपाणां तेजस्कायजीवाभ्याख्यानरूपक्रियाणां प्रतिषेधाभाव प्रसज्यंत । ततथ ताशान्याख्यानं पापाय न स्यात् । तथाचोत्सूत्रमरूपणापत्तिः ।
तात्पर्य यह है-प्रत्येक के कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन काय, और अतीत, अनागत, वर्तमान के मेद से (इनका परस्पर गुणाकार करने से) सत्ताइस भेद होते हैं। इसीप्रकार इस तेजस्काय का अपलापरूप क्रिया के भी सत्ताईस भेद हो सकते हैं । इन भेदों से किसी भी भेद में आत्मा को जोडना न साहिए। अगर ऐसा अर्थ न लगाया जाता तो यह भी समझ लिया जाता कि-अग्निकाय का स्वयं अपलाप न कर, मगर अपलाप कराने और अनुमोदन करने की क्रियाओं का निषेध नहीं है । ऐसा अर्थ संगत नहीं है, क्यों कि ऐसा अर्थ करने से केवल स्वयंकृत अपलापका ही प्रतिपेध होगा, किन्तु कारित और अनुमोदित अपलायका प्रतिपेध नहीं होगा और इस प्रकार का अपलाप पाप का कारण न होगा। फिर तो सूत्र के विरुद्ध प्ररूपणा का दोय आएगा।
તાત્પર્ય એ પ્રત્યેક ક્રિયાના કરવું-કરાવવું અને અનુમોદના, મન, વચન, કાયા અને ભૂતકાલ, ભવિષ્યકાલ તથા વર્તમાન કાલના ભેદથી (એને પરસ્પર ગુણાકાર કરવાથી) સત્યાવીસ ભેદ થાય છે. એ પ્રમાણે આ તેજસ્કાયના અપલાયરૂપ પિના પણ સત્યાવીસ ભેદ થઈ શકે છે. એ બેમાંથી કેઈ પણ ભેદમાં આત્માને જેવો જોઈએ નહિં, પરંતુ એ પ્રમાણે અર્થ કરવામાં ન આવે તે એ પણ સમજી લેવામાં આવત કે, અનિકાયને સ્વયં અ૫લાપ કરે નહિ. પરંતુ અપલાપ'કરાવવાની અને અનુમોદન કરવાની ક્રિયાઓને નિષેધ નથી. આ પ્રકારનો અર્થ સંગત નથી, કેમકે આ અર્થ કરવાથી કેવળ સ્વયકૃત અપાપને જ નિષેધ થશે. કિન્તુ કારિત અને અનુદિત અપાપને નિષેધ થશે નહિ, અને એ પ્રકારને અપલાય પાપનું કારણ ન થાય, પછી તે સૂત્રના વિરુદ્ધ પ્રકયણાને દોષ આવશે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सू. १ अग्निकायसिद्धिः
लक्षणद्वारम् --
ननु तेजस्कायजीवाः सन्तीत्यत्र किं मानम् ? उच्यते-अङ्गारादयो जीवशरीराणि, छेयत्वाद्, दृश्यत्वाद्, करचरणादिसमुदायवत् ।
अङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः आत्मपयोगाविर्भूतः शरीरस्थत्वात्, खद्योतदेह परिणामवत् । यथा - रजन्यादौ विशिष्टकाले प्राणिविशेषस्य खद्योतस्य defoणामो जीवयोगविशेषाद भवति, एवमङ्गारादीनामपि प्रकाशपरिणामः । यद्वा-अङ्गारादीनामृष्मा आत्मसंप्रयोगपूर्वकः, शरीरस्थत्वात्, ज्वरोप्मवत् ।
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लक्षणद्वार
शङ्का -- तेजस्काय के जीवों के अस्तित्व में क्या प्रमाण है ?
समाधान --- अंगार आदि, जीव के शरीर हैं, क्यों कि वह छेध हैं, भेव हैं और car हैं, जैसे हाथ-पैर आदि का समूह ।
अथवा --- अंगार आदि की प्रकाशरूप पर्याय, आत्मा के प्रयोग से उत्पन्न हुई है; क्यों कि वह शरीर में स्थित है, जैसे-जुगनू के शरीर को पर्याय, जैसे रात्रि वगैरह खास समय में जुगनू नामका प्राणी का शरीरपरिणाम ( चमकना) जीव के प्रयोग से प्रकट होता है, उसी प्रकार अंगार आदि का प्रकाशरूप परिणाम भी आत्मा के व्यापार से ही उत्पन्न होता है ।
अथवा -- अंगार आदि की गर्मी आत्मा के व्यापार से उत्पन्न होती है, क्यों कि वह शरीर में है, जैसे ज्वर की गर्मी ज्वर की गर्मी जीव से युक्त शरीर में ही उत्पन्न होती है, લક્ષણકાર
શકા તેજસ્કાયના જીવેાના અસ્તિત્વ (હાવાપણા)માં શું પ્રમાણ છે? સમાધાન—અગાર આદિ જીવનાં શરીર છે. કેમકે તે છેદ્ય છે, લેવ છે, અને दृश्य छे. नेम हाथ, पण माहिती समूह.
અથવા-અંગાર આદિની પ્રકાશરૂપ પર્યાય આત્માના પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થઈ छे; डारबुडे ते शरीरमां स्थित है. देवी रीते-भुगनू (यागियो नामना आली ना શરીરની પર્યાય, જેમ રાત્રી વગેરે ખાસ સમયમાં જીગનૢ (આગીઓ) નામક પ્રાણીના શારીર-પરિણામ (ચમકલું) જીવના પ્રયોગથી પ્રગટ થાય છે. તે પ્રમાણે અંગાર આદિના પ્રકાશરૂપ પરિણામ પણ આત્માના વ્યાપારથીજ ઉત્પન્ન થાય છે.
અથવા~~અંગાર આદિની ગરમી આત્માના વ્યાપારથી ઉત્પન્ન થાય છે. કારણકે તે શરીરમાં છે. જેમકે વરતાવની ગરમી, જવર્તાવની ગરમી જીવથી યુક્ત શરીરમાંજ
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. . आचाराने यथा-ज्वरोप्मा जीवाधिष्ठितशरीरमेाश्रित्य भवति, जीवसंयोगं नातिकामति । न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते । एवमन्त्रयव्यतिरेकाभ्यामग्नेः सचित्तता विज्ञेया। न च सूर्यादिभिरनेकान्तो वाच्यः, सर्वेपामात्मसंयोगपूर्वक एवाणपरिणामो भवति, तस्मादनेकान्तो न संभवति ।
यद्वा--तेजः सचेतनम् , यथायोग्याहारग्रहणेन वृद्धिविशेषतद्विकारवत्त्वात् , पुरुपवत् । एवमुक्तलक्षणेन तेजस्कायजीवाः सन्तीति विज्ञायते । ।
___ यद्वा-अव्यक्तोपयोगादीनि कपायपर्यन्तानि जीवलक्षणानि पृथिव्य. कायवर तेजस्कायेऽपि समुपलभ्यन्ते । एवं व जीवलक्षणसद्भावात् तेजस्कायजीवाः सन्तीति निधीयते । आगमोऽपि यथाजीव के संयोग विना उत्पन्न नहीं होती। मुर्देमें ज्वर कहीं नहीं देखा जाता । इस प्रकार अग्नि में अन्वय-ज्यतिरेकद्वारा सचित्तता समझनी चाहिए । यह। सूर्य से हेतु में व्यभिचार नहीं है, क्यों कि सब में आत्मप्रयोगपूर्वक ही गर्मी हो सकती है, अतः व्यभिचार नहीं है।
अथवा-तेज सचेतन है, क्यों कि यथायोग्य आहार ग्रहण करने से उस में वृद्धिरूप विकार देखा जाता है, जैसे पुरुप में । इस प्रकार इस लक्षण से तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व विदित होता है । अथवा अप्रकट उपयोग से लेकर कपायपर्यन्त जीव के लक्षण जैसे पृथ्वीकाय और अप्काय में पाये जाते हैं, उसी प्रकार तेजस्काय में भी पाये जाते हैं । इस प्रकार जीव के लक्षण पाये जाने के कारण तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व निश्चित होता है । इसमें आगम प्रमाण भी है-~ઉત્પન્ન થાય છે. જીવન સંગ વિના ઉત્પન્ન થતી નથી. મુડદામાં જવર-તાવ કઈ થળે જોવામાં આવતું નથી, આ પ્રમાણે અગ્નિમાં અન્વય-વ્યતિરેકદ્વારા સચિતા સમજવી જોઈએ. અહિં સૂર્યથી હેતુમાં વ્યભિચાર નથી. કેમકે સર્વમાં આત્મપૂર્વકજ सभी डा श? छे, मेटा रयी व्यलियार नयी.. . . . . . અથવા–તેજ સચેતન છે. કેમકે યથાયોગ્ય આહાર ગ્રહણ કરવાથી તેનામાં દ્વિરૂપ વિકાર જોવામાં આવે છે. જેવી રીતે પુરુષમાં. આ પ્રકારે જીવના લક્ષણ મળવાથી તેજસકાયના જીનું અસ્તિત્વ જાણવામાં આવે છે.
અથવા-અપ્રગટ ઉપગથી લઈને કષાયપર્યત જીવનાં લહાણ જોવામાં આવે છે. તે કારણે તેજરકાયના જીનું અસ્તિત્વ નિશ્ચય હોય છે. આમાં આગમ પ્રમાણ પણ છે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.४ मूं. १ अग्निकायमरूपणा ५४३
__ "तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सत्यपरिणएणं" इत्यादि। (दशवै० अ० ४)
प्ररूपणाद्वारम्अग्निकायजीवा द्विविधाः, सूक्ष्मवादरभेदात् । तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः । वादरनामकर्मोदयाद् यादराः । तत्र सूक्ष्माः द्विधा, पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । सूक्ष्माः सर्वलोकव्यापिनः । पादरास्तु लोकैकदेशे सन्ति ।
यादरा अग्निकाया अनेकविधाः-अङ्गाराचिरलातसुद्धाग्न्यादयः। सर्वे वादरा अग्निकाया अपि द्विविधाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । वादरागां यत्रेको जीवस्तत्रा
" तेजस्काय सचित्त कहा गया है । उस में अनेक जीव हैं, उनका अस्तित्व अलग___ अलग है, शस्त्रपरिणत अग्नि को छोड कर" इत्यादि । (दशवे० अध्य० ४)
मरूपणाद्वारअग्निकाय के जीव दो प्रकार के है-(१) सूक्ष्म और चादर, जिनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो वे सूक्ष्म और जिनके बादर नामकर्म का उदय हो वे चादर जीव हैं। इनमें से सूक्ष्म के भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं और बादर लोक के एक देश में हैं।
__ वादर अनिकाय अनेक प्रकार के हैं । जैसे-अंगार, ज्वाला, अलात (जलता हुआ काष्ठ), शुद्ध अग्नि आदि । सब बादर अग्निकाय भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्त
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તેજસ્કાય સચિત્ત કહેલું છે. તેમાં અનેક જીવ છે, તેનું અસ્તિત્વ અલગमत छ, शरियत मनिन छाडीन." त्याहि. (शव. २१. ४)
रूपावाઅગ્નિકાયના જીવ બે પ્રકારના છે–(૧) સૂમ અને (૨) બાદર. જેને સૂફમ નામકર્મનો ઉદય હોય તે સૂકમ અને જેને બાદર નામકર્મને ઉદય હેય તે બાદરછત્ર છે. તેમાંથી સૂકમના પણ બે ભેદ છે. પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત. સૂક્ષ્મ જીવ સમસ્ત કાકાશમાં વ્યાપ્ત છે. અને બાદર લેકના એક દેશમાં છે.
બાદર અગ્નિકાય અનેક પ્રકારના છે. જેમકે–અંગાર, જવાલા, બળતું લાકડું, શુદ્ધ અગ્નિ વગેરે. સર્વ બાદર અગ્નિકાય પણ બે પ્રકારના છે–પર્યાપ્ત અને અપ*
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५४४
आचारान्मत्रे
संख्येयेर्नियमतो भाव्यम् | चादराणां स्वस्थानं मनुष्यक्षेत्रमेव, न ततः परमस्ति ।
बादरास्तेजस्कायाः व्याघाताभावे सति मनुष्यक्षेत्रेऽर्घतृतीयद्वीपसमुद्रेषु पञ्चदशक्षेत्रेषु विद्यन्ते । युगलसमयरूपे व्याघाते सति तु पञ्चमहाविदेहेषु वर्तन्ते, नान्यत्र । उपपाताङ्गीकरणेन लोकसंख्येयभागवर्तिनः सन्ति ।
समुद्घातेन सर्वलोकवर्तिनः पृथिवीकायादयश्च मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता वादराग्निषु समुत्पद्यमानास्तत्तद्वयपदेशभाजः सर्वलोकव्यापिनः सन्ति । यत्र च चादराः पर्याप्तास्त व वादरा अपर्याप्ताः, यतस्ते तनिश्रयो और अपर्याप्त । जहाँ एक बादर जीव होता है वहाँ नियम से असंख्यात नीव होते हैं । बादर जीवों का क्षेत्र मनुष्यलोक ही है; उससे आगे नहीं ।
बादर तेजस्काय व्याघात ( अन्तर ) न हो तो मनुष्य क्षेत्र में अढाई द्वीप समुद्रों में पन्द्रह क्षेत्रों में रहते हैं । युगलियों के समयरूप व्याघात ( अन्तर ) के होने पर पाँच महाविदेहों में रहते हैं, अन्यत्र नहीं । उपघात की अपेक्षा लोक के संख्यात भाग में रहते हैं ।
समुद्घात की अपेक्षा - समस्तलोकव्यापी पृथ्वीकाय आदि, मारणान्तिक समुद्घात करके बादर अग्नि में उत्पन्न होते हुए उस उस व्यपदेश (नाम) के पात्र हो कर सर्वलोकव्यापी हैं ।
जहाँ बादर पर्याप्त हैं वहीं बादर अपर्याप्त हैं, क्यों कि अपर्याप्त जीव જ્યાં એક માદર જીવ હાય છે ત્યાં નિયમથી અસ`ખ્યાત જીવ હોય છે. માદર જીવાતું ક્ષેત્ર મનુષ્ય લેાકજ છે. તેનાથી આગળ નથી.
માદર તેજસ્કાય, અન્તર ન હોય તા મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં અઢી દ્વીપ-સમુદ્રોમાં, પાર ક્ષેત્રમાં રહે છે. યુગલિઆએના સમયરૂપ અંતર હોવા પર પાંચ મહાવિદેšામાં રહે છે, અન્યત્ર નહિ. ઉપપાતની અપેક્ષા લેાકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે.
સમુદ્ધાતની અપેક્ષા સમસ્તલેકવ્યાપી પૃથ્વીકાય આદિ મારણાન્તિક સમ્રુદ્ધાત કરીને ખદર અગ્નિમાં ઉત્પન્ન થઈને તે-તે વ્યપ્રદેશ-(નામ)ને પાત્ર થઈને સર્વ सोडव्यापी छे.
જ્યાં ખાદર પર્યાપ્ત છે ત્યાંજ આદર અપર્યાપ્ત છે; કેમકે-અપર્યાપ્ત જીવ પર્યાપ્તના
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.४ मु.१ अग्निकायमरूपणा त्पद्यन्ते, तस्मात् सक्ष्मा बादराय प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्ति । सर्वे चैते वर्णगन्धरसस्पर्शभेदैः सहसायशो भिद्यमानाः संख्येययोनिप्रमुखशतसहसभेदपरिमाणा भवन्ति । तत्रयां संहतोप्या च योनिः सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन निधा। एप सप्त लक्षाणि योनयो भवन्ति ।
मूक्ष्मवादराणामुभयेषामग्निकायानां शरीरसंस्थानं सचोकलापाकृतिकम् , ___ अन्ये शरीरत्रयादिभेदाः पृथिवीकाय वत् । उमयेऽग्निकाया प्रत्येकमसंख्येयाश्च ।
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पर्याप्त के आश्रय ही उत्पन्न होते हैं । अतः सूक्ष्म और बादर, प्रत्येक के पर्याप्त
और अपर्याप्त के भेद से दो भेद हैं और वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श के भेद से हजारों भेदों को प्राप्त होते हुए इनकी संख्येय योनि वगैरह भेदों की संख्या लाखों की हो जाती है।
इनकी योनि संवृत और उष्ण है । वह भी सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। इनकी सात लाख योनिया हैं।
सूक्ष्म और बादर-दोनों प्रकार के अग्निकाय जीवों के शरीर का आकार सुइयों के समूह की तरह है। शरीरत्रय आदि अन्य भेद पृथ्वीकाय के समान हैं। दोनों प्रकार के अग्निकाय असंख्यात-असंख्यात हैं।
આશ્રયેજ ઉત્પન્ન થાય છે. એ કારણથી સૂક્ષમ અને બાદર પ્રત્યેકના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી બે ભેદ છે અને વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શના ભેદથી હજારે ભેદ પામતા થકા એની સંમેય યોનિ વગેરે ભેદોની સંખ્યા લાખ
जय छे.
તેની નિ સંસ્કૃત અને ઉsણુ છે, તે પણ સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની છે. એની સાત લાખ એનિઓ છે.
સૂક્ષ્મ અને બાદર બન્ને પ્રકારના અગ્નિકાય એના શરીરને આકાર સોયના સમૂહની પ્રમાણે છે. શરીરત્રય (ત્રણ શરીર, આદિ અન્ય ભેદ પૃથ્વીકાયની સમાન છે. બન્ને પ્રકારના અગ્નિકાય અસંખ્યાત-અસંખ્યાત છે.
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আমার परिमाणहारम्--- बादरपर्याप्तास्तेजस्कायजीयाः क्षेत्रपल्योपमस्याऽसंख्येयमागमात्रवर्तिपदेशराशिपरिमाणाः सन्ति। तदपेक्षया बादरा अपर्याप्तास्तेजस्कायजीवा असंख्यातगुणाः तदपेक्षया सूक्ष्मा अपर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणाः, तदपेक्षया सूक्ष्माः पर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगणाः सन्ति । पृथिवीकायेन सहाग्निकायस्य परिमाणसमालोचनायां स्वेवमवधेयम्-- __ ये तेजस्काया पादरपर्याप्ताः क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागमात्रयतिप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति, ते पादरपर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्योऽसंख्यातगुणहीनाः । शेपास्त्रयोऽपि राशयः पृथिवीकायचद् विज्ञेयाः। तत्रायं विशेष:
परिमाणद्वारबादर पर्याप्त तेजस्काय के जीव क्षेत्रपन्योपम के असंख्यातवें भागवती प्रदेशो की राशि के बराबर हैं। बादर अपर्याप्त तेजस्काय जीव उनसे असंख्यात गुणा हैं, सूक्ष्म अपर्याप्त इनसे भी असंख्यात गुणा हैं, और सूक्ष्म पर्याप्त इन से भी मसंख्यात गुणा हैं । पृथ्वीकाय के साथ अग्निकाय के परिमाण का विचार किया जाय तो इस प्रकार है
तेजस्काय के जो बादर पर्याप्त जीव क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों के बराबर हैं, वे बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से असंख्यातगुणा हीन हैं। शेष तीनों राशिया पृथ्वीकाय से समान ही समझ लेनी चाहिए । विशेषता सिर्फ इतनी है
परिमाण २* બાદર પર્યાપ્ત તેજસ્કાયના જીવ ક્ષેત્ર-૫૫મના અસંખ્યાતમા ભાગવતી પ્રદેશની રાશિના બરાબર છે. બાદર અપર્યાપ્ત-તેજસ્કાય જીવ તેનાથી અસંખ્યાત ગુણા છે. સૂમ અપર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાત ગુણ છે. અને સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાત ગુણ છે. પૃથ્વીકાયની સાથે અનિકાયના પરિમાણનો વિચાર કરવામાં આવે તે આ પ્રકારે છે–
તેજસ્કાયના જે બાદર પર્યાપ્ત જીવ ક્ષેત્રપાપમના અસંખ્યાતમા ભાગવર્તી પ્રદેશની ખબર છે. તે બાદર પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવોથી અસંખ્યાત ગુણ હીન છે. બાકીની ત્રણેય રાશિઓ પૃથ્વીકાયની સમાજ સમજી લેવી જોઈએ, વિશેષતા માત્ર એટલી છે કે
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सू. १ अनिकायपरिमाणम्
પૂછું
चादरापर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्यो वादरा अपर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणहीनाः, अपर्याप्तास्तेजस्काया विशेषहीनाः ।
क्ष्मपर्याप्तपृथिवीकायेभ्यः सूक्ष्मा सूक्ष्मपर्याप्तपृथिवीकायेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तास्तेजस्काया विशेषहीना इति ।
एवं युक्यागमपमाणाभ्यामग्ने जीवत्वे सिद्धे यदि कचिदग्निकायजीवस्याभ्याख्यानं कुर्यात् तर्मुपयोगादिलक्षणैरनुमितस्य शरीराधिष्ठातुरात्मतोड़प्यभ्याख्यानं तेन कर्तव्यं स्यात्, परन्तु तन्न उचितं भवतीत्यत आह- " नैवाऽड़त्मानमभ्याख्याया - दिति । केनचिदात्मना शरीरमिदं परिगृहीतं, केनचिंच शरीरमिदं परित्यक्तमिति प्रत्यक्षदर्शनादात्मनः शरीराधिष्ठावलं सिध्यति । चादर अपर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से चादर अपर्याप्त तेजस्काय के जीव भसंख्यातगुणा कम हैं। सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस्काय के जीव विशेष हीन हैं । सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से सूक्ष्म पर्याप्त तेजस्काय के जीव विशेष होन है ।
इस प्रकार युक्ति और आगमप्रमाण से अग्नि की सजीवता सिद्ध हो जाने पर भी यदि कोई अनिकाय के जीवों का अपलाप करता है तो वह उपयोग आदि लक्षणों से अनुमान किये जाने वाले और शरीर के अधिष्टाता आत्मा का अपलाप करता है, मगर ऐसा करना उचित नहीं है, अतः सूत्रकार कहते हैं- ' आत्मा का अपलाप न करे | किसी आत्माने यह शरीर ग्रहण किया है और किसी ने शरीर का त्याग किया हैं, यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है । इस से यह सिद्ध हो जाता है कि शरीर, आत्मद्वारा अधिष्ठित है ।
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ખાદર અપર્ચોપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવાથી આદર અપર્યાપ્ત તેજસ્કાયના જીવ અસખ્યાત ગુણા ઓછા છે. સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવાથી સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત તેજસ્કાયના જીવ વિશેષહીન છે. સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવાથી સુક્મ પર્યાપ્ત - તેજસ્કાયના જીવ વિશેષહીન છે-વિશેષ આછા છે.
સજીવતા સિદ્ધ થઈ જવા
તે તે ઉપયેગ લક્ષણાથી અપલાપ કરે છે. પરન્તુ એ
આ પ્રમાણે યુક્તિ અને આગમપ્રમાણુથી. અનિની • છતાંય પણ જો કઈ અગ્નિકાયના જીવાના અપલાપ કરે અનુમાન કરવામાં આવેલા અને શરીરના અધિષ્ઠાતા આત્માને પ્રમાણે કરવું તે ઉચિત નથી. તેથી સુત્રકાર કહે છે- આત્માના અલાપ ન કરશ’કોઈ આત્માએ આ શરીર ગહેણુ કર્યુ છે, અને કેાઈએ શરીરને ત્યાગ કર્યો છે, એ વાત પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે. તેથી એ સિદ્ધ થાય છે કે શરીર આત્માદ્વારા અધિષ્ઠિત છે,
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आधाराने परिमाणद्वारम्--- पादरपर्याप्तास्तेजस्कायजीयाः क्षेत्रपल्योपमस्याऽसंख्येयमागमात्रवतिपदे शराशिपरिमाणाः सन्ति। तदपेक्षया बादरा अपर्याप्तास्तेजस्कायनीवा असंख्यातगुणाः तदपेक्षया सूक्ष्मा अपर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणाः, तदपेक्षया सूक्ष्माः पर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणाः सन्ति । पृथिवीकायेन सहाग्निकायस्य परिमाणसमालोचनायां त्येवमवधेयम्-- __ ये तेजस्काया यादरपर्याप्ताः क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति, ते चादरपर्याप्तभ्यः पृथिवीकायेभ्योऽसंख्यातगुणदीनाः । शेपास्त्रयोऽपि राशयः पृथिवीकायवद् विजेयाः । तत्रायं विशेषा
परिमाणद्वारबादर पर्याप्त तेजस्काय के जीव क्षेत्रपज्योपम के असंख्यातवें भागवती प्रदेशों की राशि के बराबर हैं। वादर अपर्याप्त तेजस्काय जीव उनसे असंख्यात गुणा हैं, सूक्ष्म अपर्याप्त इनसे भी असंख्यात गुणा हैं, और सूक्ष्म पर्याप्त इन से भी असंख्यात गुणा हैं । पृथ्वीकाय के साथ अग्निकाय के परिमाण का विचार किया जाय तो इस प्रकार है
तेजस्काय के जो बादर पर्याप्त जीव क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवत प्रदेशों के बराबर हैं, वे बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से असंख्यातगुणा हीन हैं । शेष तीनो राशियाँ पृथ्वीकाय से समान ही समझ लेनी चाहिए । विशेषता सिर्फ इतनी है ।
પરિમાણ દ્વાર– * બાદર પર્યાપ્ત તેજસ્કાયના જીવ ક્ષેત્ર-
૫૫મના અસંખ્યાતમા ભાગવતી પ્રદેશની રાશિના બરાબર છે. બાદર અપર્યાપ્ત-તેજરકાય જીવ તેનાથી અસંખ્યાત ગુણા છે. સૂકમ અપર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાત ગુણ છે. અને સૂક્ષમ પર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાત ગુણ છે. પૃથ્વીકાયની સાથે અવિનકાયના પરિમાણને વિચાર કરવામાં આવે તે આ પ્રકારે છે–
તેજસ્કાયના જે બાદર પર્યાપ્ત જીવ ક્ષેત્રપૂ૫મના અસંખ્યાતમા ભાગવર્તી પ્રદેશોની બરાબર છે, તે બાદર પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીથી અસંખ્યાત ગુણ હીન છે. બાકીની ત્રણેય રાશિઓ પૃથ્વીકાયની સમાનજ સમજી લેવી જોઇએ, વિશેષતા માત્ર એટલી છે કે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.४ सू. १ अमिकायापलापः त्यपलपने प्रवर्तते, स मृदः लोकम् अधिकायलोकम् . अभ्याख्याति'अग्निकायजीवो नास्ती'-त्यपलपति । अयं भावः-सामान्यरूपंणात्मनः सिद्धी सत्यामेव हि तस्यात्मनो भेदाः पथिवीकायादयः सिध्यन्ति, नान्यथा । सामान्यात्मनोऽभ्याख्याने प्रवृत्तः साहसिकः पृथिवीकायादेविशेपात्मनोऽभ्याख्यानं सुतरां कर्तुमईतीति ।
अपि चायं भावः-करचरणाघरपवयुक्तशरीराधिष्ठाता मुव्यक्तोपयोगादि. लक्षणः स्वात्माऽपि येनाभ्याख्यातः, तस्याव्यक्तोपयोगादिलक्षणाग्निकायाभ्याख्यान किं नु दुष्कर ?-मिति ॥ सू० १ ॥
'अग्निकाय नहीं है। इस प्रकार अग्निकाय का निषेध करता है।
तात्पर्य यह है कि-सामान्यरूप से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने पर ही उसके .पृथ्वीकाय आदि भेद सिद्ध हो सकते हैं अन्यथा नहीं। जो साहसो पुरुप सामान्य आत्मा का ही निषेध करने को तैयार हो गया वह पृथ्वीकाय आदि विशेष आत्माओं का निषेध करे; यह तो स्वाभाविक ही है।
इससे यह भी आशय निकलता है हाथ-पैर आदि अवयवों से युक्त शरीर के अधिष्ठाता और भलीभाति प्रकट उपयोग आदि लक्षणों वाले अपने आत्मा का भी जिसने निषेध कर दिया उसके लिए अप्रकट उपयोग आदि लक्षणों वाले अग्निकाय का निपेध करना कौन बड़ी बात है ॥ सू०१॥
નથી' આ પ્રમાણે અગ્નિકાયને નિષેધ કરે છે.
તાત્પર્ય એ છે કે--સામાન્યરૂપથી આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થવાથી જ તેના પૃથ્વીકાય આદિ ભેદ સિદ્ધ થઈ શકે છે, અન્યથા–બીજી રીતે નહિ. જે સાહસી પુરુષ સામાન્ય આત્માનાજ નિષેધ કરવા માટે તૈયાર થઈ ગયા તે પૃથ્વીકાય આદિ વિશેષ આત્માઓને નિષેધ કરે છે તે સ્વાભાવિક જ છે.
એમાંથી એ પણ આશય નિકળે છે કે-હાથ–પગ આદિ અવયવોથી ચત શરીરના અધિષ્ઠાતા ને સારી રીતે પ્રગટ ઉપયોગ આદિ લક્ષણવાળા પિતાના આત્માને પણ જેણે નિવેધ કરી દીધે તેને અપ્રગટ ઉપગ આદિ લક્ષણવાળા અગ્નિકાયને નિષેધ કરે તે શું મોટી વાત છે? (સૂ. ૧)
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आचाराङ्गसूत्रे
एवं च युत्यागमसंसिद्धः शरीराधिष्ठाता ज्ञानादिगुणवान्यमात्मा कथमपि नापलपितुं शक्यः । तस्मादात्मा नास्तीत्येवमभ्याख्यानमात्मनो न कुर्यादित्यर्थः ।
यः खलु मन्दधीः, लोकम् = अग्निकायलोकम्, अम्पाख्याति, आत्मवत्सर्वममाणसंसिद्धमप्यग्निकायलोकं मत्याचष्टे' अग्निकायजीवो नास्तीति स आत्मानमभ्यारुयाति=स मृढः खलु युक्त्यागमप्रमाणसंसिद्धमात्मानमपलपति 'आत्मा नास्ती 'ति । सर्वप्रमाणसं सिद्धाग्निकायलोकाभ्याख्याने प्रवृत्तस्य सुकरमेवात्मनोऽभ्याख्यानम्, अग्निकायवदेवात्मन्यपि ममाणसत्तायास्तुल्यत्वादिति भावः ।
य आत्मानमभ्याख्याति यच्चात्मनोऽभ्याख्याने 'आत्मा नास्ती'
इस प्रकार युक्ति और आगम से सिद्ध शरीर के अधिष्ठाता तथा ज्ञान आदि गुणों वाले आत्मा का निषेध नहीं किया जा सकता । अत एव 'अत्मा नहीं है' इस प्रकार आत्मा का निषेध नहीं करना चाहिए ।
जो मन्दबुद्धि पुरुष अग्निकायरूप लोक का जो आत्मा की भाँति समस्त प्रमाणों से सिद्ध है- निषेध करता है अर्थात् अग्निकाय के जीवों का निषेध करता है वह युक्ति और आगम से सिद्ध आत्मा का निषेध करता है । सब प्रमाणों से सिद्ध अग्निकाय लोक का अपलाप करने पर आत्मा का अपलाप करना सरल ही है, क्यों कि अग्निकाय और आत्मा के अस्तित्व में प्रमाणों का सद्भाव समान है ।
जो मूर्ख ' आत्मा नहीं है ' इस प्रकार आत्मा का निषेध करता है वह
આ પ્રમાણે યુક્તિ અને આગમથી સિદ્ધ, શરીરના અધિષ્ઠાતા તથા જ્ઞાન દિ ગુણાવાળા આત્માને નિષેધ કરી શકાતી નથી. એટલા માટે આત્મા નથી આ પ્રમાણે આત્માના નિષેધ કરી શકાતા નથી. એટલા માટે · આત્મા નથી કે આ પ્રમાણે આત્માના નિષેધ કરવા નઈ એ નહિ.
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જે મનથ્થુદ્ધિ પુરુષ અગ્નિકાયરૂપલાકને કે જે આત્મા પ્રમાણે સમસ્ત પ્રમાણેથી સિદ્ધ છે તેના, નિષેધ કરે છે, અર્થાત્ નિકાયના જીવોના નિષેધ કરે છે, તે યુક્તિ અને ગમથી સિદ્ધ આત્માનો નિષેધ કરે છે. સ* પ્રમાણેાથી સિદ્ધ અગ્નિકાયલાકના અપલાપ કરવાથી આત્માના અપલાપ કરવા તે સરલજ છે, કેમકે અગ્નિકાય અને આત્માના અસ્તિત્વમાં પ્રમાણેાને સદ્ભાવ સમાન છે.
જે મૂર્ખ ઞામાં નથી' આ પ્રમાણે આત્માને નિષેધ કરે છે, તે અગ્નિકાય
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ४ सू. १ अनिकायखेदतः
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ग्निस्तेषां शस्त्रं भवति । तस्य खेदज्ञः खेदम् = उपमर्दन जन्यदुःखं जानातीति खेदज्ञः, स एवं अशवस्य-भशस्त्र-संयमः संयमो हि न व्यापादको भयो वा कस्यापीत्यशस्रमुच्यते । तस्य खेदज्ञः संयमभङ्गभयजनितदुःखानुभवकुशलः । एवं संयमानुष्ठानादेव नित्वं लम्यमिति भावः ।
ननु कथमिदं ज्ञायते दीर्घलोकशब्दार्थो वनस्पतिरिति ? उच्यते-कार्यस्थितिकालेन परिमाणेन, शरीरावगाहनया च वनस्पतिकायस्य अन्यैकेन्द्रि यापेक्षया महत्त्वमस्ति । तथाहि--वनस्पतिकायस्य कार्यस्थितिकालोऽनन्तः स चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपः तस्मिन्नसंख्येयाः पुलपरावर्ता भवन्ति, ते पुलपरावर्त्ता आवलिकाया असंख्येये भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः
करने के कारण अग्नि, वनस्पतिकाय का शस्त्र है । संयम से किसी की विराधना नहीं होती, न वह किसी को भयकारी है, अत एव संयम को अशुत्र कहते हैं । संयम के भंग होने के भय से उत्पन्न होने वाला दुःख संयम का खेद कहलाता है । इस प्रकार संयम के पालन करने से ही मुनिपन होता है ।
शंका- दीर्घलोक शब्द का अर्थ वनस्पति कैसे समझा जाय !
समाधान-कार्यस्थिति के समय, परिमाण और शरीर की अवगाहना से वनस्पतिकाय अन्य एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा महान् है । वनस्पतिकाय की कायस्थिति का काल अनन्त है, और वह अनन्त भी अनन्त उत्सपिंगोरूप अवसर्पिणीरूप है । उसमें असंख्यात पुद्रपरावर्तन होते हैं । वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग में
કારણથી અગ્નિ વનસ્પતિકાયનું શસ્ત્ર છે. સંયમથી કોઈની પણ વિરાધના થતી નથી. તે કોઈને ભચકારી નથી. એ માટે સયમને અશસ્ત્ર કહે છે. સયમના ભંગ થવાના ભયથી ઉત્પન્ન થવાવાળું દુ:ખ તે સંયમના ખેદ કહેવાય છે. આ પ્રમાણે સ યમનું પાલન કરવાથીજ મુનિપર્ણ હોય છે.
શંકા-દીધલાક શબ્દને અય વનસ્પતિ કેવી રીતે સમજી શકાય ?
સમાધાન કાયસ્થિતિના સમય, પરિમાણુ અને શરીરની અવગાહનાથી વનસ્પતિકાય, અન્ય એકેન્દ્રિય જીવેાની અપેક્ષાએ મહાન છે. વનસ્પતિકાયની કાયસ્થિતિના કાલ અનન્ત છે અને તે અનન્ત પણ અનન્ત ઉત્સર્પિણી-અવસવણીરૂપ છે. તેમાં અસ ખ્યાત પુદ્ગલપરાવર્ત્તન થાય છે. તે પુનૂગલપરાવર્ત્તન આવૃલિકાના અસંખ્યાતમાં
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आनाराङ्गमा ____ अयमग्निकायलोकः स्वात्मवन्नेय अभ्याख्येय इति प्रतिबोधितम् , इदानीमग्निकायजीयोपादनाद् विनिटल एवं मुनिर्मवितुमर्हतीत्यार-'जे दीह०' इत्यादि।
जे दीहलोगसत्यस्स खेयने, से असत्यस्स खेयन्ने, जे असत्यरस खेयन्ने से दीहलोगसत्यस्स खेयन्ने ॥ सू० २॥
' छाया-' . यो दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः, सोऽशस्त्रस्य खेदज्ञः । योऽशस्त्रस्य खेदश, स दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः ॥ सु. २ ॥
टीकायो भन्यः, दीर्घलोकशस्वस्य दीर्घश्वासी लोकश्च दीर्घलोकायनस्पति, तस्य शस्त्रं दीर्घ लोकशस्त्रम् अग्निः । वनस्पतिकायस्य दाहकरणेन विनाशकतया
अग्निकायलोक, आत्मा की तरह निषेध करने योग्य नहीं है, यह बतला दिया। अव बतलाते हैं कि अग्निकाय के जीवों की हिंसा से निवृत्त होने वाला पुरुप ही मुनि होता है:-'जे दीहः' इत्यादि।
मूलार्थ--जो दीर्घलोक (वनस्पतिकाय) के शस्त्र (अग्निकाय ) के दुःख को जानता है वही संयम के खेद को जानता है और जो संयम के खेद को जानता है वह दोघलोक के शस्त्र के खेद को जानता है ।। सू० १॥
टीकार्थ----जो भव्य पुरुष दीर्घलोक अर्थात् वनस्पति के शस्त्र अग्नि के दुःख को जानता है, वही अशस्त्र अर्थात् संयम के खेद को जानता है । वनस्पति काय की विराधना - અનિકાયલેક, આત્માની પ્રમાણે નિષેધ કરવા ગ્ય નથી; તે બતાવી આપ્યું છે. હવે બતાવે છે કે-અનિકાયના જીવોની હિંસાથી નિવૃત્ત થવાવાળા પુરુષ भुनि डाय छ: 'जे दीह' त्यादि
મલાઈ—–જે દીલેક (વનસ્પતિકાયના શસ્ત્ર (અગ્નિકાય)ના દુખને જાણે છે. તેજ સંયમના ખેદને જાણે છે, અને જે સંયમના દિને જાણે છે. તેજ દીલકને શસ્ત્રના ખેદને જાણે છે. (સ. ૨)
ટીકાઈજે ભવ્ય પુરુષ દીર્ઘલેક અર્થાત, વનસ્પતિનું શસ્ત્ર અગ્નિના દુઃખન જાણે છે, તે જ અશજી અર્થાત્ સંયમના ખેદને જાણે છે. વનસ્પતિકાયની વિરાધના કરવાના
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य,१ उ. ४ सू. २ दीर्घलोकशब्दार्थः ५५३ पल्लयानुसारी वायुरपि तत्र संभाव्यते, तदेवं वनस्पतिशस्त्रीभूय दहनो बहुतरजीवानाशयतीति सूचनाय भगवता दीघलोकशस्त्रशब्दः परिगृहीत इति ।।
यद्वा-दीर्घलोकः पृथिवीकायादिः, पृथिव्यवायुवनस्पतिकायानां भवस्थितियथाक्रमं द्वाविंशति, सप्त-त्रि-दश-वर्यसहसपरिमाणा, अग्निकायस्य तु त्रीण्येवाहोरात्राणि । यथा बादरामिकायाः पर्याप्तकाः स्वल्पाः सन्ति, अन्ये पृयिव्यादयः पर्याप्तकाः बहवः सन्ति, अतो दीर्घलोकः पृथिव्यादिस्तस्य शस्त्रम् अग्निकायः। अग्निरुत्पाद्यमानः प्रज्वाल्यमानो वा पृथिव्यादिजीवसमूई मणिहन्तीति तस्य शस्त्रत्वम् । उक्तञ्चपत्तों (कोपलों) का अनुसारी वायु भी वहाँ संभव है । इस प्रकार अग्नि वनस्पति का शस्त्र हो कर बहुतेरे जीवों का विनाश करता है। यह सूचित करने के लिए भगवान ने 'दीर्घलोकशस्त्र' शब्द का अग्नि के लिए प्रयोग किया है।
अथवा---'दीर्घलोकका' अर्थ पृथ्वीकाय आदि है । पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय की भवस्थिति क्रम से वाईस, सात, तीन और दश हजार वर्ष की है, मगर अग्निकाय की तीन रात्रि-दिन ही है । बादर अग्निकाय के पर्याप्त जीव स्वल्प हैं मगर पृथ्वी आदि के पर्याप्त जीव बहुत हैं । अतः दीर्घलोक' शब्द से पृथ्वीकाय आदि का ग्रहण करना चाहिए और उनका शस्त्र अग्निकाय समझना चाहिए । अग्नि उत्पन्न होते ही और जलते ही पृथ्वी आदि के जीवों के समूह का घात करता है, अतः वह पृथ्वी आदि का शस्त्र है। कहा भी है:
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અને અત્યંત કેમલ પત્તા (કુંપળોના અનુસારી વાયુને પણ ત્યાં સંભવ છે. આ પ્રમાણે અનિ, વનસ્પતિનું શસ્ત્ર બની ઘણા જ જીવોને વિનાશ કરે છે. આ હકીકત सूयवा भाट पाने 'दीर्घलोकशन' नेयति भाटे प्रयोग या छे.
અથવા–દીધલકને અર્થ પૃથ્વીકાય આદિ છે, પૃથ્વીકાય, અષ્કાય, વાયુકાય, અને વનસ્પતિકાયની ભવસ્થિતિ ક્રમથી બાવીસ, સાત, ત્રણ અને દસ હજાર વર્ષની છે. પરતુ અગ્નિકાયની ત્રણ રાત્રિ-દિવસ જ છે. જેમકે–બાદર અગ્નિકાયના પર્યાપ્ત ०१ २५६५ छ. परन्तु पृथ्वी माहिना योao uple छे. मे भाटे 'दीर्घलोक' શબ્દથી પૃથ્વીકાય આદિનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ, અને તેનું શસ્ત્ર અગ્નિકાય સમજવું જોઈએ. અગ્નિ ઉત્પન્ન થતાંજ અને બળવાની ક્રિયા થતાંજ પૃથ્વી આદિના ના સમૂહને વાત કરે છે. તેથી તે પૃથ્વી આદિનું શસ્ત્ર છે. કહ્યું પણ છે કે – म. आ.-७०
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आचारात्सूत्रे
सन्ति । एतावान् कालो वनस्पतिका इत्युच्यते । परिमाणतस्तु प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां निर्लेपना नास्ति ।
शरीरावगाहनया च सातिरेकं योजनसहस्रम् । अतो वनस्पतिकायस्य दीर्घलोक इति व्यपदेशः । ( प्रज्ञापना १८ पदे)
ननु प्रसिद्धमग्निशब्दं विहाय किमर्थमिह दीर्घलोकशस्त्रशब्दोपादानम् ? उच्यते--- वनस्पतिकायदहनमवृत्तोऽग्निकायो बहुतरप्राणिनां विनाशको भवति, वनस्पतिकाये बहुविधाः प्राणिनः कीट पिपीलिका भ्रमरमधुमक्षिकाकपोतादयो निवसन्ति, तरुriety पृथिवीकायाथ, अवश्यायरूपा व्यपकाया अपि मृदुतर
जितने समय होते हैं उतने हैं, इतना काल वनस्पतिकाल कहलाता है । परिमाण से प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना नहीं है । इनके शरीर की अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है । इसी कारण वनस्पतिकाय को दीर्घलोक कहते हैं ।
अब प्रश्न हो सकता है कि- प्रसिद्ध 'अग्नि' शब्द को छोड़ कर 'दीर्घलोकशस्त्र' शब्द का प्रयोग करने की क्या आवश्यकता थी ?
इसका उत्तर यह है कि--वनस्पतिकाय को जलाने में प्रवृत्त अनिकाय और भी बहुत से प्राणियों का विनाश करता है । वनस्पतिकाय के सहारे कोडे, चिउंटी, भरे, agrrat और कबूतर आदि बहुत से प्राणी निवास करते हैं । वृक्षों को खतरों में पृथ्वीकाय के जीव भी होते हैं । भोसरूप अप्काय भी होता है, और अत्यन्त कोमल ભાગમાં જેટલા સમય થાય છે, તેટલા છે. એટલે કાળ તે વનસ્પતિકાળ કહેવાય છે. પરમાણુથી પ્રત્યુત્પન્ન વનસ્પતિકાયિક જીવેાની નિલે પના નથી. તેના શરીરની અવગાહના सुन्नर योजन हे भा रथी वनस्पति अपने ' दीर्घलोक ' हे छे. वेश्छे :-प्रसिद्ध अग्नि शब्दने छोडीने 'दीर्घलोकशन' શબ્દના પ્રયોગ કરવાની શું આવશ્યકતા હતી? તેના ઉત્તર એ છે કેન્દ્રનસ્પતિકાયને ખાળવામાં પ્રવૃત્ત (ચાલુ) અગ્નિકાય બીન્ત પણ પ્રાણીઓને વિનાશ કરે છે. વનસ્પતિના આશ્રયે કીડા, મ કેાડા, ભમરા, મધમાખી અને કબૂતર આદિ ઘણાં પ્રાણીઓ નિવાસ કરે છે. વૃક્ષાના બખેાલમાં પૃથ્વીકાયના જીવ પણ હેાય છે. ઝાકળરૂપ અપ્લાય પણ હોય છે,
अधिक
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. ४ सू. २ अग्निकायखेदज्ञः उक्तमर्थ दृढीकर्तुं विपर्ययेण पुनः कथयति-'योऽशसस्य खेदज्ञः स दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः' इति, व्याख्या पूर्ववत् । ॥ सू० २॥
' ॥ शस्त्रद्वारम् ॥ ननु येन शस्त्रेण वह्निः खिद्यते, तत् केन दृष्टम् ? अपि चाशवं संयमस्वरूपमिति केन दृष्टम् १, इति जिज्ञासायामाह-वीरेहिं '. इत्यादि ।
वीरेहिं एप अभिभूय दिलं, संजएहि सया जएहिं सया अप्पमत्तेहि ।।०३।।
छायावीरैः एतद् अभिभूय दृष्टम् , संयतैः सदा यतैः सदा अप्रमत्तैः ॥ सू०३।।
इसी बात को दृढ करने के उद्देश्य से पुनः अन्यरूप से कहते हैं कि-जो अशल (संयम) के खेद को जानता है वह दीर्घलोकशन के खेद को जानता है । इस की व्याख्या पहले के समान ही समझनी चाहिए ।। सू० २ ॥
शंका होती है कि जिस शस्त्र से अग्नि को खेद होता है वह किस ने देखा है और संयमरूप अशस्त्र किस ने देखा है ? इसके उत्तर में कहते हैं:'वीरेहि'. इत्यादि।
मला-परिवह उपसर्ग आदि को जीतनेवाले संयत सदा यतनावान् और सदा अप्रमत्त रहने वाले वीर पुरुषों ने यह देखा है ।। सू० ३ ॥
આ વાતને દઢ કરવાના ઉદ્દેશથી ફરી બીજા રૂપથી કહે છે કે-જે અશસ્ત્ર (સંયમ)ના ખેદને જાણે છે તે દીર્ઘલકશાસ્ત્રના ખેદને જાણે છે. તેની વ્યાખ્યા પ્રથમ કહેલી છે તે પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. (સૂ. ૨)
શસ્ત્રદ્વાર શંકા થાય છે કે જે શરૂથી અગ્નિને ખેદ થાય છે તે કેણે જોયું છે અને संयभर ५ स य नयु छ १ तेन तरमा ४ छ:-'वीरेहि'. त्याहि.
મૂલાથ–પરીષહ-ઉપસર્ગ આદિને જીતવાવાળા, સંયત-સંયમી સદા યતનાવાનું અને સદા અપ્રમત્ત રહેવાવાળા વીરપુરૂએ તે જોયું છે. (. ૩)
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आधाराने "भूयाणमेसमाधाओ हव्यवाहो न संसओ"1 (दशवै० ३ अगा०३५) तस्य खेदज्ञा खेदयतीति खेदा अग्नेयापारः, अग्निव्यापारो हि पृथिव्यादि. जीवानां दहनात्मकतया दुःखमुत्पादयतीत्यतः खेद-शब्देन व्यपदिश्यते, ते जानातीति खेदज्ञः। अग्निकायस्य व्यापारः सर्वमाणिपीडाकर इति विज्ञाता या खलु भवति, स एव अशस्त्रस्य सप्तदशविधसंयमस्य खेदज्ञा संयमक्षरणजन्यदुःखानुभावकः, अस्तीति शेपः। अग्निकायव्यापारेण पृथिव्यादिजीवानां विनाशस्तेन संयमक्षरणं, ततश्च मुनित्वविभ्रंश इति सर्वस्वनाशकतयाऽग्निव्यापार: साधूनां ज्ञपरिया विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिशया परिहरणीय इति भावः ।
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"यह अग्नि भूतों का घातक है, इसमें संदेह नहीं"। (दशवै. ३. अ. गा. ३५)
उस अग्नि के व्यापार को पृथ्वीकाय आदि का खेद कहते हैं, क्यों कि दाहक होने के कारण वह पृथ्वी आदि को दुःख उत्पन्न करता है । उसे जानने वाला 'खेदज्ञ' कहलाता है । ' अग्निकाय का व्यापार सब प्राणियों को पीडा पहुँचाता है'-जो ऐसा जानता वही पुरुष अशस्त्र का अर्थात् सत्तरह प्रकार के संयम के खेद का-संयम के भंग से होने वाले खेद का ज्ञाता होता है। तात्पर्य यह है कि अग्निकाय के व्यापार से पृथ्वीकाय आदि के जीवों का विनाश होता है, और उससे संयमभंग होता है, और संयम के भंग से मुनिपन का मंग होता है । इस प्रकार अग्निव्यापार सर्वस्व का नाशक होने से वह साधुओं के लिए ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागने योग्य है।
"24 मनिभूतानात छे, भासद नथी." (EA 4. 24. ३. ॥ ३५)
આ અગ્નિના વ્યાપારને પૃથ્વીકાયને ખેદ કહે છે. કારણ કે દાહક હેવાના કારણે તે પૃથ્વી આદિને દુખ ઉત્પન્ન કરે છે તેને જાણવાવાળા “બેદ કહેવાય છે.
અગ્નિકાયને વ્યાપાર સર્વ પ્રાણીઓને પીડા પહોંચાડે છે. જે આ પ્રકારે જાણે છે તેજ પુરુષ અશઅને અથાત્ સત્તર પ્રકારના સંયમના ભેદને સંયમના ભાગથી થવાવાળા ખેદને જ્ઞાતા-જાણનાર હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-અનિકાયના વ્યાપારથી પૃથ્વીકાય આદિના જીવોને નાશ થાય છે. અને તેથી સંયમ ભંગ થાય છે, અને સંયમના ભંગથી, મુનિપણું ભંગ થાય છે. આ પ્રમાણે અગ્નિવ્યાપાર સર્વસ્વ નાશક હોવાથી સાધુઓ માટે પરિજ્ઞાથી જાને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી ત્યાગવા યોગ્ય છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. ४ मू. २ अग्निकायखेदनः उक्तमथै दृढीकर्तु विपर्ययेण पुनः कथयति-'योऽशसस्य खेदज्ञः स दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः' इति, व्याख्या पूर्ववत् । ॥ सू० २ ॥
॥शखद्वारम् ॥ ननु येन शवेग वहिः खिद्यते, तद् केन दृष्टम् ? अपि चाशस्त्रं संयमस्वरूपमिति केन दृष्टम् ?, इति जिज्ञासायामाह-'वीरेहि'. इत्यादि ।
मूलम् - वीरेहिं एप अभिभूय दिडं, संजएहिं सया जएहिं सया अप्पमत्तेहिं ॥५०३॥
छायावीरैः एतद् अभिभूय दृष्टम् , संयतैः सदा यतैः सदा अप्रमत्तैः ॥१०३॥
इसी बात को दृढ करने के उद्देश्य से पुनः अन्यरूप से कहते हैं कि-जो अशस्त्र (संयम) के खेद को जानता है वह दीर्घलोकशस्त्र के खेद को जानता है । इस की व्याख्या पहले के समान हो समझनी चाहिए ।। सू० २॥
शस्त्रद्वारशंका होती है कि जिस शस्त्र से अग्नि को खेद होता है वह किस ने देखा है और संयमरूप अशस्त्र किस ने देखा है ? इसके उत्तर में कहते हैं:'वीरेहि'. इत्यादि।
मलार्थ-परिपह उपसर्ग आदि को जीतनेवाले संयत सदा यतनावान् और सदा अप्रमत्त रहने वाले वीर पुरुपों ने यह देखा है ।। सू० ३ ॥
આ વાતને દઢ કરવાના ઉદ્દેશથી ફરી બીજા રૂપથી કહે છે કે-જે અશસ્ત્ર (સંયમ)ના દિને જાણે છે તે દીધલેકશસ્ત્રના ખેદને જાણે છે. તેની વ્યાખ્યા પ્રથમ કહેલી છે તે પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. (સૂ. ૨)
शसारશંકા થાય છે કે જે શસ્ત્રથી અગ્નિને ખેદ થાય છે તે તેણે જોયું છે ? અને संयम५ अशोरी युछे १ तेना तिरमा छ:-'वीरेहि'. त्याहि,
મૂલાથ–પરીષહ-ઉપસર્ગ આદિને જીતવાવાળા, સંતસંયમી સદા યતનાવાનું અને સદા અપ્રમત્ત રહેવાવાળા વીરપુરુષોએ તે જોયું છે. (સૂ. ૩)
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आचारायंत्रे
टीकाघनघातिकर्मरूप रिपुगणक्षपणानन्तरं
लब्धातुलकेवला
वीरैरिति । लोकलक्ष्म्या विराजन्त इति वीराः । यथा - राजानथतुरहसैन्यसमाहृतं स्वकीयमरिवर्ग निहत्य लधराज्यविजयलक्ष्म्या विराजमाना वोरा निगद्यन्ते । यद्वा - वि= विशेषेण ईरयन्ति = रागाद्यन्तरङ्गमहासुभटान् निवारयितुमनन्ततपोत्रीय व्यापारयन्तीति वीराः । यद्वा - विशेषेण ईरयन्ति = शिवगतिं गमयन्ति भव्यजीवानिति वीराः । यद्वा-विशेषेण ईरयन्ति = ज्ञानाचारादीन् प्रति प्रेरयन्ति भव्यजीवानिति वीराः, तीर्थङ्करा गणधराच, तैर्वीरैः, एतद्-अग्निकायस्वरूपं यद्वा-अग्निशस्त्रम् अशस्त्रं चेति द्वयं दृष्टं ज्ञानदृष्टय विलोकितम् अर्थतस्तीर्थङ्करैः, गणध रेस्तु भगवद्वचनैरिति विशेषः ।
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टीकार्थ - घातियाकर्मरूपी शत्रुओं के समूह को नाश करने के अनन्तर अनुपम केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है । उस लक्ष्मी से जो विराजमान हैं उन्हें वीर कहते हैं। जैसे कोई राजा, चतुरंग सेना से युक्त शत्रुओं को हराकर प्राप्त राज्य और विजय की लक्ष्मी से सुशोभित हो कर 'वीर' कहलाते हैं । अथवा राग-द्वेष आदि आन्तरिक महायोद्धाओं को रोकने के लिए अनन्त तपोवीर्य का प्रयोग करने वाले 'वीर' कहलाते हैं । अथवा भव्य नोवों को विशेषरूप से मुक्ति की ओर प्रेरित करने वाले 'वीर' कहलाते हैं । अथवा विशेषरूप से ज्ञानाचार आदि की ओर भव्य जीवों को प्रेरित करने वाले 'वीर' कहलाते हैं । ऐसे वीर तीर्थंकर गणधर आदि हैं। उन वीरों ने अग्नि के स्वरूप को अथवा अग्निश और शस्त्र को ज्ञानदृष्टि से देखा है । अर्थ से तीर्थंकरों ने और उन के चचनों के अनुसार गणधरों ने देखा है ।
ટીકા-ધાતિ-કર્મ રૂપી શત્રુઓના સમૂહુને નાશ કર્યાના અનન્તર અનુપમ કેવલજ્ઞાન રૂપી લક્ષ્મી પ્રાપ્ત થાય છે. તે લક્ષ્મીથી જે વિરાજમાન છે તેને વીર કહે છે. જેમ કાઈ રાજા, ચતુરંગ સેનાથી યુક્ત (ચાર પ્રકારની સેના સહિત) શત્રુઓને હરાવીને પ્રાપ્ત કરેલું રાજ્ય અને વિજયરૂપ લક્ષ્મીથી સુÀાલિત ખની વી’ महेवाघ है, अथवा-राग-द्वेष याहि आन्तरिक महायोद्धामाने रोवावाजाने 'वीर' उसे छे. अथवा लभ्य अपने विशेषरूपथी भुम्तिनी तरह प्रेरित हरवावाजा 'वीर' કહેવાય છે. અથવા વિશેષરૂપથી જ્ઞાનાચાર આદિની તરફ ભવ્ય જીવાને પ્રેરિત श्वावाणा 'वीर' देवाय हे सेवा वीर तीर्थ ४२ भने गनुधर आदि छे, ते वीरा અગ્નિના સ્વરૂપને અથવા અગ્નિશસ્ર અને અશસ્ત્રને જ્ઞાનષ્ટિથી જોયાં છે. આથી તીથ કરાએ જોયાં છે. અને તેમનાં વચના અનુસાર ગણુધરાએ તૈયાં છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सृ. ३ वीरशब्दार्थः
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किं कृत्वा तैरेतद् दृष्ट ? - मित्याकाङ्क्षायामाद-' अभिभूय ' इति । परिपदोपसर्गान् ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय- मोहनीय - ऽन्तरायाख्यघातिकर्मचतुष्टयं च विजित्य केवलं संप्राप्येत्यर्थः । कथम्भूतैस्तै ? - रित्याह-संयतः सम्= सम्यक्मकारेण यताः परमकरुणया ईर्यासमित्यादियतनावन्तस्तैः, सकलप जीवनिकायपरित्राणपरायणैरित्यर्थः । यतना द्विविधा - प्रमत्तयतना, अममत्तयतना च । अथ प्रमत्तस्य कीदृशी यतना ? उच्यते - कपायादिनिग्रहिण ईर्याद्युपयोगवत्त्वं मत्तयतना कथ्यते ।
अप्रमत्redit कपायरहितवचनसाध्या भवति । अत्र अप्रमत्तग्रहणादिन्द्रियादिप्रमादवर्जनं गृद्यते । यतनाग्रहणाद् यावज्जीवयतना गृह्यते । अत एव उन्हों ने क्या कर के यह देखा है ! इस शंका का उत्तर है- परीषह और उपसर्गो को तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार घातिया कर्मों को जीतकर केवल ज्ञान प्राप्त कर के उन्हों ने देखा है ।
वे देखने वाले किस प्रकार के थे ? इसका उत्तर यह है- सम्यक् प्रकार से, अत्यन्त करुणापूर्वक ईयसमिति आदि का पालन करनेवाले अर्थात् समस्त पकाय की रक्षा में तत्पर थे । यतना दो प्रकार की है-प्रमत्त की यतना और अप्रमत्त की यतना । प्रमत्त की यतना कैसी होती है ? इसका उत्तर यह है कि - कपाय आदि का निग्रह करने वाला पुरुष ईर्या आदि में जो उपयोग रखता है, वह प्रमत्तयतना है । अप्रमत्त की यतना कपायरहित चचनों से होती है । यहाँ अप्रमत्त शब्द से इन्द्रिय आदि प्रमादों का
त्याग लेना चाहिए | यतना शब्द से यहाँ यावज्जीव यतना का ग्रहण करना चाहिए। अतः
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તેમણે શું કરીને જોયાં છે? આ શંકાને ઉત્તર એ છે પરીષહ અને ઉપસર્ગોને તથા જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, મેાહનીય અને અન્તરાય નામના ચાર ઘાતિયા કનિ છીને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને તેમણે જોયાં છે.
તે જોવાવાળા કેવા પ્રકારના હતા? તેને ઉત્તર-સમ્યક્પ્રકારે, અત્યન્ત કરુણાપૂ ક ઈૌસમિતિ સ્માદિના પાલન કરવાવાળા, અર્થાત્ સમસ્ત પકાયની રક્ષામાં તેએ તત્પર હતા. યતના એ પ્રકારની છે...પ્રમત્તની યતના અને અપ્રમત્તની યતના. પ્રમત્તની યતના કેવી હાય છે? તેને ઉત્તર એ છે કેઃ-કષાય આદિના નિગ્રહ કરવાવાળા પુરૂષ ઈચ્ચ આદિમાં જે ઉપયેગ રાખે છે તે પ્રમત્તની યતના છે. અપ્રમત્તની યત્તના કષાયરહિત વચનેાથી થાય છે. અહિં અપ્રમત્ત શબ્દથી ઇન્દ્રિય આદિ પ્રમાદાને ત્યાગ લેવા જોઈએ. ચતના શબ્દથી અહિં જીવમાત્રની યતનાનું ગ્રહણું કરવુ જોઇએ. એ માટે
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आपारामने सद सर्वदा यतैः चरणकरणविपये निरतिचारतया यत्नवद्भिः, . तथा-सदासर्वकाले अप्रमत्तैः विषयकपायादिवर्जितः। एवम्भूतैर्वी रैरग्निकायस्वरूपं तदीयशस्त्रमशःखं च दृष्टमिय॑थः ।
ननु किं नामाग्निशस्त्रम् ? उच्यते--अग्न्युपमर्दकं शस्त्रम् । तत् किस्वरूप ?-मितिचेद, अवधेहि-अग्निशस्त्रं तावद् द्विधा-द्रव्य-भावभेदाद । तत्र द्रव्यशस्त्रं त्रिविधम् स्वकायपरकायोभयकायभेदात् । स्वकायशवं-अग्निकायस्यानिकाय एव, यथा-तृणाग्निः, पर्णाग्ने शस्त्रम् । परकायशस्त्रं-धूलिरापश्च, आद्रेश्ववनस्पतिः, साः प्राणिनश्च । उभयकायशस्त्रं तुपकरीपादिमियोऽग्निरन्यस्याग्ने, सर्वदा चरणसत्तरी और करणसत्तरी में अतिचाररहित यतना करने वाले तथा सदैव विषयकपाय आदि प्रमाद से रहित वीर पुरुषोने अग्निकाय के स्वरूप को तथा उसके शस्त्र और अशस्त्र को देखा है।
शङ्का-~-अग्निशस्त्र क्या है ?
समाधान- अग्नि की विराधना करने वाला शस्त्र अग्निशस्त्र कहलाता है। . उसका स्वरूप क्या है ? सो इस प्रकार समझो-द्रव्य और भाव के भेद से अग्नि शस्त्र दो प्रकार का है । इनमें से द्रव्यशत्र के तीन भेद हैं-स्वकाय-शस्त्र, परकाय-शक्ष और उभयकाय-शस्त्र । अग्निकाय का स्वकायशस्त्र अग्नि ही है, जैसे तिनके को अग्नि, पत्तों की अग्नि का शस्त्र है । धूलि और पानी आदि अग्निकाय का परकायशस्त्र है। गोली वनस्पति भी परकायशस्त्र है और उस पाणी भी । तुप ( छिलका ) और करीय સદા ચરણ સીતેરી અને કરણુસીતેરીમાં અતિચારરહિત યતના કરવાવાળા તથા હંમેશાં વિષય-કપાય આદિ પ્રમાદથી રહિત વીર પુરુષોએ અગ્નિકાયના સ્વરૂપને તથા તેના શસ્ત્ર અને અશસ્ત્રને જોયા છે.
શકા–અગ્નિ શરુ એ શું છે?
સમાધાન–અગ્નિની વિરાધના કરવાવાળું શસ્ત્ર તે અગ્નિશ કહેવાય છે. તેનું સ્વરૂપ કેવું છે? તે આ પ્રમાણે સમજેદ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી અગ્નિશસ્ત્ર બે પ્રકારનાં છે. તેમાંથી દ્રવ્યશાસ્ત્રના ત્રણ ભેદ છે. સ્વકાશ પરકાયશસ્ત્ર, અને ઉભયકાયશસ. અકાયનું સ્વકાશ અગ્નિ જ છે. જેમ તણખાની અગ્નિ, પાંદડની અનિનું શસ્ત્ર છે.
ળ અને પાણ આદિ અનિકાયનું પરકાશસ્ત્ર છે. લીલી વનસ્પતિ પણ પરકાશશ છે. એને બસ પ્રાણી પણ પરકાયશસ્ત્ર છે. તુષ અને છાણ આદિથી મળેલી અનિ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ सू. ४ अग्निशख निरूपणम् ५५९ तप्तोदकादिकं च । भावशखं तु-अग्नि प्रति दुप्पणिहितमनोवाकायरूपम् । शेपाणि पृथिवीकायचद् योप्यानि ॥ सु० ३॥ यस्तु प्रमादयशादुपभोगाथमग्निकायजीवानुपमर्दयति, तत्फलमाद-'जे' इत्यादि।
मूलम् - जे पमत्त गुणहिए से हु दंडेति पयुच्चइ ॥४॥
छायायः प्रमत्तः गुणार्षिकः ( गुणस्थितः) स खलु दण्ड इति प्रोच्यते ।
टीका-~यो हि प्रमत्ता विपयकापायादिममादशगः सन् गुणाधिकः भवतीत्यन्वयः । गुणः अग्निकायकृतोपकारः. स एवार्य:=पयोजनं यस्य स गुणार्थी, स एवं गुणार्थिका, धन-पचन-प्रकाश-तापनादिप्रयोजनवान् भवति । यद्वा(हाणे) आदि से मिली अग्नि तथा गर्म जल अग्नि का उभयकायशस्त्र है । अग्नि के प्रति दुष्ट मन वचन और कायका प्रवर्तन भावशस्त्र है। शेष द्वार पृथिवीकाय के समान समझने चाहिए ।। सू० ३॥
प्रमाद के वश होकर उपभोग के निमित्त अग्निकाय के जीवों की विराधना करने वाले को होने वाला फल कहते हैं:-'जे' इत्यादि ।
मूलार्थ--जो प्रमादी पुरुष अग्नि के गुणों का अर्थी-राधना आदि में स्थित है, वह उसके लिए दण्ड कहलाता है । सू० ४ ।।
टीकाथ-~-विपय कपाय आदि प्रमादों के अधीन होकर पुरुष गुणार्थी होता है। अग्निकाय द्वारा होने वाला उपकार यहां गुण कहा गया है। इस गुण का अभी गुणार्थिक कहलाता है। रांधना, पकाना, उजाला करना आदि अग्नि के गुण हैं। जो તથા ગરમ જલ અગ્નિ ઉભયકાયશસ છે. અગ્નિ પ્રતિનું દુખ મન, વચન અને કાયાનું પ્રવર્તન તે ભાવશસ્ત્ર છે, બાકીના દ્વાર પૃથ્વીકાયની સમાન બરાબર સમજવા જોઈએ. સૂ. ૩)
પ્રમાદને વશ થઈ ઉપભેગને નિમિત્તે અનિકાયના જીવોની વિરાધના કરવા पान २ ३० थाय -भणे छे. ते ३॥ ४ छ. 'जेत्यादि
ભલાર્થ-જે પ્રમાદી પુરુષ અગ્નિના અથ-રાંધવું વિગેરેમાં સ્થિત છે તે सेना भाटे पाय छे. (सू. ४)
ટકાથ–વિષય કષાય આદિ પ્રમાદને આધીન થઈને પુરુષ ગુણાથી થાય છે. અગ્નિકાય દ્વારા થવાવાળે ઉપકાર તેને અહિં ગુણ કહેવામાં આવ્યો છે. આ ગુણને અર્થી તે ગુણાર્થિક કહેવાય છે. રાંધવુ-પકાવવું, અજવાળું કરવું આદિ અગ્નિના ગુણ છે. જે
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आधारागसत्रे सद सर्वदा यतैः चरणकरणविपये निरतिचारतया यत्नवद्भिः, . तथा-सदासर्वकाले अप्रमत्तैः विषयकपायादिवर्जितैः । एवम्भूतैर्वी रैरग्निकायस्वरूप तदीयशस्त्रमशस्त्रं च दृष्टमित्यर्थः।
ननु किं नामाग्निशस्त्रम् ? उच्यते-अग्न्युपमर्दकं शस्त्रम् । तत् किस्वरूप ?-मितिचेद, अवधेहि-अग्निशस्त्रं तावद् द्विधा-द्रव्य-भावमेदान् । तत्र । द्रव्यशस्त्रं त्रिविधम् स्वकायपरकायोभयकायमेदात् । स्वकायशस्त्रं-अग्निकायस्याग्निकाय एव, यथा-तृणाग्निः, पर्णाग्नेः शस्त्रम् । परकायशस्त्रं-धूलिरापश्च, आद्रेश्ववनस्पतिः. साः माणिनश्च । उभयकायशस्त्रं तुपकरीपादिमिश्रोऽग्निरन्यस्याग्ने, सर्वदा चरणसत्तरी और करणसत्तरी में अतिचाररहित यतना करने वाले तथा सदैव विषयकपाय आदि प्रमाद से रहित वीर पुरुषोंने अग्निकाय के स्वरूप को तथा उसके शस्त्र और अशस्त्र को देखा है।
शङ्का-अग्निशस्त्र क्या है ?
समाधान-अग्नि की विराधना करने वाला शस्त्र अग्निशस्त्र कहलाता है। . उसका स्वरूप क्या है ? सो इस प्रकार समझो-द्रव्य और भाव के भेद से अग्नि शस्त्र दो प्रकार का है । इनमें से द्रव्यशस्त्र के तीन भेद हैं-स्वकाय-शस्त्र, परकाय-शस्त्र और उभयकाय-शस्त्र । अग्निकाय का स्वकायशस्त्र अग्नि ही है, जैसे तिनके को अग्नि, पत्तों की अग्नि का शस्त्र है । धूलि और पानी आदि अग्निकाय का परकायशस्त्र है। गीली वनस्पति भी परकायशस्त्र है और त्रस पाणी भी। तुप ( छिलका ) और करीष સદા ચરણ સીતેરી અને કરણસીતેરીમાં અતિચારરહિત યતના કરવાવાળા તથા હંમેશાં વિષય-કષાય આદિ પ્રમાદથી રહિત વીર પુરુષોએ અગ્નિકાયના સ્વરૂપને તથા તેના શસ્ત્ર અને અશસ્ત્રને જોયાં છે.
શંકા-અગ્નિ શસ્ત્ર એ શું છે ?
સમાધાન–અનિની વિરાધના કરવાવાળું શસ્ત્ર તે અગ્નિશસ્ત્ર કહેવાય છે. તેનું સ્વરૂપ કેવું છે? તે આ પ્રમાણે સમજો-દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી અગ્નિશસ્ત્ર બે પ્રકારનાં છે. તેમાંથી દ્રવ્યશસ્ત્રના ત્રણ ભેદ છે. સ્વકાયશસ્ત્ર પરકાયશસ્ત્ર, અને ઉભયકાયશ. નકાયને સ્વકાયશસ્ત્ર અનિજ છે. જેમ તણખાની અગ્નિ, પાંદડાંની અગ્નિનું શસ્ત્ર છે.
અને પાણી આદિ અગ્નિકાયનું પરકાશ છે. લીલી વનસ્પતિ પણ પરકાયશસ્ત્ર છે. અને ત્રસ પ્રાણ પણ પરકાયશસ્ત્ર છે. તુષ અને છાણ આદિથી મળેલી અગ્નિ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ सू. ५ अग्निशस्वममारम्भवर्जनम् .५६१
टीकामेधावी ग्रहणधारणादिगुणवान् , यहा-साधुमर्यादारक्षणे सावधानः, यद्वाहेयोपादेयविवेकनिपुणः, तम् अग्निकाय, यहा तम् अग्निशस्त्रसमारम्भं दण्डनामफलप्रद परिजायनपरिनया पन्धकारणत्वेन, प्रत्याख्यानपरिजया हेयरवेन पर्यालोय, प्रनिजानीते--अहमिथ्यात्वादिमलिनान्तःकरणः प्रमादेन विषयकपायादिप्रमादरशतः यम् अग्निशतसमारम्भं पूर्वम् अज्ञानावस्थायाम्, अकार्पम् कृतवान्, यत्तदोनित्यसाकाङ्क्षत्वात् तम् इदानीम् संमति प्रवज्यावस्थायाम् नो नैव करिष्य इति शेपः ।। म्० ५॥
अथ सर्वयाऽग्निशस्त्रसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान्, तथाऽग्निशस्त्रसमारम्भे प्रवृत्तान् द्रव्यलिङ्गिनश्च विविच्य प्रतिबोधयितुमाह-'लज्जमाणा'. इत्यादि।
टीकार्थ-ग्रहण और धारणादिक गुणों से युक्त, अथवा साधुओं की मर्यादा की रक्षा करने में सावधान, अथवा हेय और उपादेय के विवेक में निपुण पुरुप अग्निकाय अथवा अग्निकाय के समारंभ को जानकर अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से उसे कर्मबंध का कारण समझकर और प्रत्याख्यानपरिक्षा से हेय समझकर इस प्रकार प्रतिज्ञा करते हैं-मिथ्यात्व आदि विकारों के वश होकर मैंने अज्ञानदशा में अग्निकाय का समारंभ किया था। वह समारंभ अब दीक्षाअवस्था में नहीं करूंगा ।। सू० ५ ॥
अनिशस्त्र का सर्वथा त्याग करने वाले अनगारों तथा अग्निशस्त्र के समारंभ में प्रवृत्ति करने वाले द्रव्यलिङ्गी पुरुषों को अलग अलग कर के समझाते हैं-'लज्जमाणा'. इत्यादि।
ટીકા-ગ્રહણ અને ધારણાદિક ગુણેથી યુક્ત અથવા સાધુઓની મર્યાદાની રક્ષા કરવામાં સાવધાન, અથવા હેચ અને ઉપાદેયના વિવેકમાં નિપુણ પુરુષ અગ્નિકાય અથવા અનિકાયના સમારંભને જાણીને અર્થાત્ જ્ઞપરિજ્ઞાથી તેને કર્મબંધનું કારણ સમજીને અને પ્રત્યાખ્યાનપરિક્ષાથી હેય- ત્યાજ્ય) સમજીને આ પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞા કરે છે-મેં અજ્ઞાન દશામાં મિથ્યાત્વ આદિ વિકારેને વશ થઈને અનિકાયને સમારંભ કર્યો હતો તે સમારંભ હવે દીક્ષા-અવસ્થામાં નહીં કરું. (સૂ. ૫)
અગ્નિશસ્ત્રને સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા અણુગારો તથા અગ્નિશસ્ત્રના સમારંભમાં प्रवृत्ति ४२वा व्यलिंगी पुरुषाने RT-981 शने सभासवे-लज्जमाणा.त्या.
प्र. भा.-७१
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आधारा 'गुणस्थितः' इति च्छाया, तेन गुणेपु-अग्मिगुणेषु रन्धनपचनादिपु, भन्दादिषु वा स्थिता आसक्तः, रन्धनाथममिमुत्पादयति प्रज्वालयति यथारथश्चिदुपमदेयतीत्यर्थः । स मनोवाकायस्य दुप्पणिधानेनाग्निशस्त्रसमारम्भकरणेन चान्यादीनां प्राणिनां दण्डं प्रति कारणभृतत्वाद् दण्ड इति पोच्यते, कारणे कार्योपचाराद्, दण्डवत् माणिनां हिंसकतया दण्ड इति निधनाम्ना लोके मसिध्यतीति भावः ।। सू०४ ॥
एवं विज्ञायाग्निशस्त्रसमारम्भाद् विनिवर्वितव्यमित्याह--'त' इत्यादि।
तं परिणाय मेहावी इयाणि शो जमहं पुचमकासी पमाएणं ।। सू० ५॥
व परिज्ञाय मेधावी इदानीं नो यदई पूर्वमकार्प प्रमादेन ॥ सू०५॥ पुरुष इन गुणों में अथवा शब्द आदि इन्द्रियविषयों में आसक्त है अर्थात् रांधने आदि के . लिए अग्नि उत्पन्न करता है, जलाता है और किसी भी प्रकार उसका हनन करता है, वह पुरुप अपने मन, वचन, काय के दूपित व्यापार के कारण तथा अग्निशस्त्र का समारंभ करने के कारण अग्नि के जीवों के दंडका कारण होने से दण्ड कहलाता है। कारण में कार्य का उपचार करने से दंड के कारणभूत पुरुष को दंड कहते हैं । लोक में उस पुरुष की 'दंड' इस निंदनीय नाम से प्रसिद्धि होती है। सू० ४॥
अब बतलाते हैं कि पूर्वोक्त कथन जानकर अग्निशस्त्र के समारंभ से बचना चाहिए:-- 'ते' इत्यादि।
मलार्थ-- अग्निकाय अथवा अग्निकाय के समारंम को जानकर बुद्धिमान् पुरुष । निश्चय करें कि-प्रमाद के वश होकर मैंने पहले जो किया सो अब नहीं करूंगा ! सू०५॥ પુરુષ આ ગુણેમાં અથવા શબ્દ આદિ ઇન્દ્રિયવિષમાં આસક્ત છે. અર્થાત રાંધવા આદિને માટે અગ્નિ ઉત્પન્ન કરે છે, બાળે છે, અને કોઈ પણ પ્રકારે તેનું હનને કરે છે, તે પુરુષ પિતાના મન, વચન અને કાયાના દૂષિત વ્યાપારના કારણે તથા અનિશઅને સમારંભ કરવાના કારણે અગ્નિના જીવેને દંડનું કારણ હેવાથી દડ કહેવાય છે. કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવાથી દંડના કારણભૂત પુરુષને પણ કહે છે. લોકમાં તે પુરુષની દંડ આ નિંદનીય નામથી પ્રસિદ્ધિ થાય છે. (સૂ. ૪).
હવે બતાવે છે કે-પૂર્વોકત કથન જાણીને અગ્નિશાસ્ત્રના સમારંભથી બચવું
-'' त्या.
મલાથ—અનિકાય અથવા અગ્નિકાયના સમારંભને જાણી બુદ્ધિમાન પુરુષ નિશ્ચય કરે કે–પ્રમાદના વશ થઈને મેં પહેલાં જે કર્યું છે તે હવે નહીં કરું. (સૂ. ૫)
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Rames
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ.४.६ अग्निकायसमारम्भकर्ड निरूपणम् ५६३ सन्तीति पश्य । इमे सूक्ष्मवादाग्निकायसमारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैरग्निकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते नानवलोकयेत्यर्थः ।
एके पुनरन्ये तु 'वयमनगाराः स्मः' इति साभिमान प्रवदमानाः 'वयमेवाग्निकाय जीवरक्षणरा महाव्रतधारिणः' इति प्रलपन्तोद्रव्यलिगिनः सन्ति, तान् पृथक
पृथग्भावेन पश्य। ___ इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिझिनो मनागप्यनगारगुणेषु न भवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्य किश्चित् परित्यजन्ति, इति दर्शयति- यदिमम् ' इत्यादि ।
यद्-यस्माद् विस्परूपः विभिन्नस्वरूपैः द्रव्यमावभेदभिन्नैः शरीःअग्निकायशः, अग्निकर्मसमारम्भेण-अग्नेः कर्मसमारम्भः अग्निकर्मसमारम्भः अनगार हैं । ये सब सूक्ष्म और बादर अग्निकाय का समारंभ करने में भीत-डरने वाले हैं, त्रस्त हैं, उद्विग्न हैं और तीन करण तीन योग से अग्निकाय के समारंभ के त्यागी, उन्हें देखो।
इन से विपरीत दूसरे लोग 'हम अनगार हैं, इमी अग्निकाय की रक्षा में तत्पर है, महानती है। इस प्रकार अभिमान के साथ प्रलाप करते हुए व्यलिङ्गी हैं, उन्हें अलग समझो। __अनगार होने का अभिमान करने वाले ये लोग साधुओं का तनिक भी कर्तव्य नहीं करते और न गृहस्थकार्य का त्याग करते हैं ।
वे लोग तरह-तरह के द्रव्य और भाव रूप अग्निकाय के शस्त्रों से अग्निकर्म का
ભીતભયવાન છે, ત્રસ્ત છે, ઉહિન છે. અને ત્રણકરણ, ત્રણયગથી અનિકાયના સમારંભના ત્યાગી છે, તેને જુઓ.
એનાથી વિપરીત (ઉપર કહ્યા તેનાથી ઉલટી વ્યવહાર કરનારા) બીજા લોક “અમે અણુગાર છીએ, અમે અનિકાયની રક્ષામાં તત્પર છીએ, મહાવ્રતી છીએ.” એ પ્રમાણે અભિમાનની સાથે પ્રલાપ કરે છે તે દ્રવ્યલિંગી છે, તેને અલગ સમજે.
અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળા આ લેક સાધુઓના જરાપણ કર્તવ્યને કરતા નથી અને ગૃહસ્થનાં કાર્યોને ત્યાગ કરતા નથી.
તે લેક તરેહ-તરેહના દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ અગ્નિકાયના શસેથી અગ્નિકર્મને
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५६२
मूलम् -
लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूत्ररूवेि सत्येहिं अगणिकम्मसमारंभेणं, अगणिसत्यं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ सू० ६ ॥
आचारात्मत्रे
छाया
लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इति एके मवदमानाः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः अग्निकर्म समारम्मेण अग्निशस्त्र समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणिनो विहिंसन्ति ॥ ०६ ॥
5
टीका
लज्जमानाः=अग्निकायसमारम्भे परमकरुणया द्रवीभूतहृदयतया संकुचितात्मानः, अग्निशस्त्रसमारम्भपरित्यागिन इत्यर्थः, पृथक - विभिन्नाः केचित् प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनःपर्ययकेवलिनः केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानोऽनगाराः
मूलार्थ - अग्निकाय के आरंभ में संकोच करने वालों को अलग समझो। और 'हम अनगार हैं' ऐसा कहने वाले नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा अग्निकर्म का समारंभ करने वाले दूसरे (द्रव्यलिङ्गी, अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं || सू० ६ ॥
टीकार्थ - अत्यन्त दया के कारण अग्निकाय के समारंभ में हार्दिक संकोच करने वाले, इसी कारण अग्निशस्त्र के समारंभ के त्यागी अलग हैं, उन में कोई अवधिज्ञानी हैं, कोई मन:पर्ययज्ञानी हैं, कोई केवलज्ञानी हैं । कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा
"
મૂલા—અગ્નિકાયના આરંભમાં સકાચ કરવાવાળાને અલગ સમો, અને ” અમે અણુગાર છીએ' એ પણ કહેવાવાળા નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રા દ્વારા અગ્નિકર્મના સમારંભ કરવાવાળા ખીજા (દ્રવ્યલિંગી) અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. (સૂ. ૬)
ટીકા—અત્યન્ત દયાના કારણે અગ્નિકાયના સમારંભમાં હાર્દિક સ કાચ કરવાવાળા, આજ કારણુથી અગ્નિશઅના સમારંભના ત્યાગી અલગ છે-જૂદા છે. એમાં ટાઇ અવધિજ્ઞાની છે, કાઇ મન:પર્યં યજ્ઞાની છે, કોઈ કેવલજ્ઞાની છે. કાઈ પરાક્ષજ્ઞાની ભાવિતાત્મા અણુગાર છે. તે સ` સૂક્ષ્મ અને બાદર્ અગ્નિકાયને સમાર્ંભ કરવામાં
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.मु.६ अग्निकायसमारम्भकई निरूपणम् ५६३ सन्तीति पश्य । इमे सूक्ष्मवादाग्निकायसमारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैरग्निकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः ।
एके पुनरन्ये तु 'वयमनगाराः स्मः' इति साभिमानं प्रयदमानाः 'वयमेवानिकायजीवरक्षणपरा महानतधारिणः' इति प्रलपन्तोद्रव्यलिहिनः सन्ति, तान् पृथक पृथग्भावेन पश्य।
इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिहिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्य किश्चित् परित्यजन्ति, इति दर्शयति-'यदिमम् ' इत्यादि।
यद्-यस्माद् विरूपरूपः विभिन्नस्वरूपैः द्रव्यभावभेदभिन्नैः शरी अग्निकायशः, अग्निकर्मसमारम्भेण अग्नेः कर्मसमारम्भः अग्निकर्मसमारम्भःअनगार हैं। ये सब सूक्ष्म और बादर अग्निकाय का समारंभ करने में भीत-डरने वाले है, वस्त हैं, उद्विग्न हैं और तीन करण तीन योग से अग्निकाय के समारंभ के त्यागी है, उन्हें देखो।
इन से विपरीत दूसरे लोग 'हम अनगार है, हमी अग्निकाय की रक्षा में तत्पर हैं, महानती हैं। इस प्रकार अभिमान के साथ प्रलाप करते हुए द्रव्यलिङ्गी हैं, उन्हें अलग समझो।
अनगार होने का अभिमान करने वाले ये लोग साधुओं का तनिक भी कर्तव्य नहीं करते और न गृहस्थकार्य का त्याग करते हैं।
वे लोग तरह-तरह के द्रव्य और भाव रूप अग्निकाय के शस्त्रों से अग्निकर्म का
ભાત-ભયવાન છે, ત્રસ્ત છે, ઉદ્વિગ્ન છે. અને ત્રણકારણું, ત્રણચોગથી અનિકાયના સમારંભના ત્યાગી છે, તેને જુઓ.
એનાથી વિપરીત (ઉપર કહ્યા તેનાથી ઉલટે વ્યવહાર કરનારા) બીજા લોક અમે અણગાર છીએ, અમે અનિકાયની રક્ષામાં તત્પર છીએ, મહાવ્રતી છીએ.” એ પ્રમાણે અભિમાનની સાથે પ્રલાપ કરે છે તે વ્યલિંગી છે, તેને અલગ સમજે.
અણુગાર રહેવાનું અભિમાન કરવાવાળા આ લેક સાધુઓના જરાપણું કર્તવ્યને કરતા નથી અને ગૃહસ્થનાં કાર્યોને ત્યાગ કરતા નથી.
તે લોક તરેહ-તરેહના દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ અગ્નિકાયના શાથી અગ્નિકર્મને
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आचारासूत्रे अग्नि निमित्तीकृत्य ज्ञानावरणीयायष्टविधकर्मबन्धनिबन्धनसावधव्यापारस्तेन, इमम्अनिकायं विहिंसन्ति ।
___ अनिकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु पजीवनिकायस्पं लोकं सर्वमेव विहिसन्तीत्याह-' अनिशस्त्र'-मित्यादि। अग्निशस्त्रम् अग्न्युपमर्दक शस्त्रम् , तद पूर्वोक्तप्रकार द्रव्यभावभेदभिन्न समारममाणा: अग्निकार्य प्रति व्यापारयन्तः अन्यान् साथ विहिंसन्ति । . इह बहुविधा द्रव्यलिगिनो विद्यन्ते. यथा-'वयं पञ्चमहाव्रतधारिणः सर्वारम्भपरित्यागिनः पड्जीवनिकायरक्षका अनगाराः स्मः इति वदन्तो दण्डिशाक्यादयः सन्ति । ते चात्मानमनगार प्रवदमाना नानगारगुणेपुलेशतोऽपि प्रवर्तन्ते। आरंभ कर के अर्थात् अग्नि के निमित्त से ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का फारणभूत सावध व्यापार कर के अग्निकाय की हिंसा करते हैं ।
___ अग्निकाय की हिंसा में प्रवृत्त पुरुष पटकायरूप समस्त जीवों की हिंसा करते हैं। यही बतलाते हैं-अग्नि का घात करने वाले द्रव्यशन और भावशस्त्र का अग्नि के विषय में प्रयोग करने वाले अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य पृथ्वीकाय आदि स्थावरों की तथा द्वीन्द्रिय त्रस जीवों की हिंसा करते हैं।
संसार में बहुत से द्रव्यलिङ्गो हैं । ' हम पञ्चमहायतधारी, समस्त आरंभ का त्याग करने वाले और पट्काय के रक्षक अनगार हैं । इस प्रकार कहने वाले दंडी शाक्य आदि हैं। वे अपने को अनगार कहते हुए भी लेशमात्र भी अनगार के गुणों में प्रवृत्ति नहीं करते। આરંભ કરીને અર્થત અગ્નિના નિમિત્તથી જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોના કારણુભૂત સાવધ વ્યાપાર કરીને અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે.
અનિકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત પુરુષ પટકાયા૫ સમસ્ત જીવોની હિંસા કરે છે. એજ બતાવે છે-અનિનો ઘાત કરવાવાળા-દ્રવ્યશસ્ત્ર અને ભાવશઅને અનિતા વિષયમાં પ્રયોગ કરવાવાળા અગ્નિકાય સાથે બીજા પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરની તથા કીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવોની હિંસા કરે છે.
સંસારમાં ઘણાંજ દ્રવ્યલિંગી છે. “અમે પંચમહાવ્રતધારી સમસ્ત આરંભ ત્યાગ કરવાવાળા અને પકાયના રક્ષક અણગાર છીએ.’ આ પ્રકારે કહેવાવાળા દંડી શાક્ય આદિ છે. તે પિતાને અણુગાર કહેતા થકા પણ લેશમાત્ર અશુગારના ગુણોમાં પ્રવૃત્તિ કરતા નથી.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.४ मू.६ अग्निकायसमारम्भकर्तनिरूपणम् ५६५ ... शाक्यादयः पचन-पाचन-प्रतापन-प्रकाशाद्यर्थमग्निकर्मसमारम्भं कुर्वन्ति, कारयन्ति, कुर्वतोऽनुमोदयन्ति च, तेन पट्कायजीवविराधका भवन्ति ।
दण्डिनोऽपि--'वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनवचनाराधका अनगाराः स्मः' इत्यादि प्रवदमानाः साध्वाभासा: सावधमुपदिशन्तः शास्तनिपिद्धमप्यग्निकर्मसमारम्भ कारयन्ति । ___ दृश्यन्ते हि-शास्त्रव्याख्यानादौ देवकुलादौ प्रतिमापतिश्रयादिप्रतिठादौ च धूपदीपहवनादिभिरग्निकर्मसमारम्भ कारयन्तो दण्डिनः एवं कथयन्ति च-स्नानादिना पुप्पधूपैच पायसापूपलड्डकादिमिविविधैन वेद्यैश्च प्रतिमापूजा
शाक्य आदि पचन, पाचन, तापन तथा प्रकाश आदि के लिए अग्निकर्म का - समारंभ करते हैं, कराते हैं और करते हुए का अनुमोदन करते हैं, अतः वे पहकाय · के विराधक हैं।
दण्डी कहते हैं-'हम पंचमहाप्रतधारी है, जिनपचन के आराधक अनगार हैं ये साध्वाभास सावध का उपदेश देते हैं और शास्त्रनिषिद्ध अग्निकर्म का समारंभ करवाते हैं। , शास्त्र के व्याख्यान आदि में, देवकुल आदि में, प्रतिमा प्रतिश्रय और प्रतिष्ठा आदि में धूप दीप और हवन आदि द्वारा अग्निकर्म का आरंभ करवाते हुए दंडी देखे जाते हैं। वे ऐसा कहते हैं-स्नान कराकर पुष्पों से, धूप से, खीर मे. • पूआ से, तथा लइट्ट आदि से, तथा विविध प्रकार के नैवेद्य से प्रतिमा की पूजा कानी
શાય આદિ પચન, પાચન, તાપન તથા પ્રકાશ આદિ માટે અનિક સમારંભ કરે છે, કરાવે છે અને કરનારને અનુમોદન આપે છે. તેથી તે પકાયના विरा .
ઠી કહે છે કે અમે પંચમહાવ્રતધારી છીએ, જિનવચનના આરાધક અણુગાર છીએ.' એ સાધ્વાભાસ સાવાને ઉપદેશ આપે છે. અને શાસ્ત્રનિષિદ્ધ અનિકર્મને સમારંભ કરાવે છે.
શાસ્ત્રના વ્યાખ્યાન આદિમાં, દેહુલ આદિમાં, પ્રતિમા પ્રતિશ્રય તથા પ્રતિષ્ઠા આદિમાં ધુપ, દીપ અને હવન આદિ દ્વારા અગ્નિને આરંભ કરાવતા હોય તેવા દંડી જેવામાં આવે છે. તે એમ કહે છે કે સ્નાન કરાવીને, પુથી, ધૂપથી, ખીરથી, માલપૂવા તથા લાહ આદિશી તથા વિવિધ પ્રકારનાં નિવેદથી પ્રતિમાની પૂજા કરવી જોઈએ. જિન
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आचारास्त्रे कर्तव्येत्यादि । पुनः-जिनस्य वामपार्थे धृपः स्थापनी यः, दक्षिणपाचे घृतपूर्णः प्रज्वालितः प्रदीपः स्थाप्यः, पायसापूपधृतपूरलड्ड्कादि नैवेद्यमपि प्रातः स्थापनीयमित्यादि । तच्च विनाग्निकर्मसमारम्भं नोपपद्यते । ओपध्यर्थ कायादि,शुण्ठिपाकादि। पातुमुष्णोदकं, भोक्तुं विविधाहारं च कारयन्तीति ।। मू० ६ ॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्यूस्वामिनं जगाद-'तत्य'. इत्यादि।
म्लम्तस्य खलु भगवया परिणा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्त परिवंदणमाणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडियायहेर्ड से सयमेवे अगणिसत्य चाहिए । जिन भगवान् के बाई (डावी) ओर धूप रखना चाहिए और दाहिनी (जिमणी) ओर घी से भरा जलता दीप रखना चाहिए । सामने खीर, मालपुआ, घेवर और लड्डू आदि नैवेद्य रखना चाहिए " | ये सब अग्निकर्म का समारंभ किये विना नहीं हो सकते । वे लोग ओपधि के लिए काथ वगैरह, सौंठ का पाक आदि, पीने के लिए गर्म जल और खाने के लिए विविध प्रकार के आहार बनवाते हैं । सू० ६ ॥
सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं:-'तत्थखलु' इत्यादि।
मूलार्थ- इस विषय में भगवान्ने बोध दिया है। इसी जीवन के लिए, वन्दन, मानना और पूजा के लिए, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, तथा दुःखों का निवारण करने के लिए वह स्वयं अग्निशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से अग्निशस्त्रका
ભગવાનની ડાબી તરફ ધુપ રાખવું જોઈએ. અને જમણી તરફ થી ભરેલે બળતો. દીપક રાખવો જોઈએ. સામે ખીર, માલપૂવા, ઘેવર અને લાડું આદિ નિવેદ્ય રાખવું જોઈએ. એ સર્વ અગ્નિકર્મના સમારંભ કર્યા વિના થઈ શકતાં નથી. તે લાક ઔષધી માટે ક્વાથ વગેરે સુંઠના પાક આદિ, પીવા માટે ગરમ જલ અને ખાવા માટે વિધવિધ પ્રકારના આહાર બનાવરાવે છે. (સૂ. ૬)
सुधी पाभी - स्वाभाने ४ छ:-'तत्य खलु'. त्याह.
મહાઆ વિષયમાં ભગવાને બોધ આપે છે. આ જીવન માટે વંદન, માનન, અને પૂજાને માટે, જન્મ-મરણથી મુક્ત થવા માટે તથા દુઃખનું નિરાકરણ કરવા માટે તે પોતે અમિશને આરંભ કરે છે, બીજા પાસે અમિશઅને આરંભ કરાવે છે, અને
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.४०७ अग्निशस्त्रमारम्मकारणनिरूपणम् ५६७ समारंभइ, अण्णेहिं या अगणिसत्यं समारंभाचेइ, अण्णे वा अगणिसत्यं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए । सू०७॥
छायावन खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमानन· पूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखमतियातहेतुं स स्वयमेव अग्निशख समारमते, अन्यैर्वा अग्निशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारममाणान् समनुजानाति, तत् तस्याहिताय, तत् तस्याबोधये ।। सू० ७ ॥
टीकातत्र अग्निकायसमारम्भे भगवता श्रीमहावीरेण परिज्ञा सम्यगवबोधः खलु मवेदिताम्पतियोधिता। कर्मवन्यसमुच्छेदार्थ जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतियोधितमिति भावः ।
उपभोगद्वारम्लोकः कस्मै प्रयोजनायाग्निकायमुपमर्दयती ?-त्याह-'अस्य चैव जीवितस्ये' ' आरंभ करवाता है और अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है, सो यह उस के अहित के लिए है, यह अयोधि के लिए है ।। सू० ७ ॥
टीकार्थ----अनिकाय के समारंभ में श्री महावीरने सम्यक् उपदेश दिया है। आशय यह है कि कर्मबंध का नाश करने के लिए जीव को परिज्ञाका आश्रय अवश्य लेना चाहिए, ऐसा उपदेश दिया है।
उपभोगद्वार-- किस प्रयोजन से लोग अग्निकाय की हिंसा करते हैं यह बतलाते हैं-इसी અગ્નિશઅને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન કરે છે. તે એના (પોતાના) महित भाटे छ, त भयोधिने माटे छ. (२. ७)
ટીકાથ–અગ્નિકાયના સમારંભમાં શ્રી મહાવીરે સમ્યફ ઉપદેશ આપે છે. આશય એ છે કે-કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જીવે પરિજ્ઞાને આશ્રય અવશ્ય લે જોઈએ. એવો ઉપદેશ આપે છે.
पसासारકયા પ્રજનથી લેક અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે. એ બતાવે છે–આ ક્ષણભાર
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आवारात्मत्रे
त्यादि । अस्यैव क्षणभङ्गुरस्य जीवितस्य जीवनस्य सुखार्थ प्रकाशकरणार्थम्, ओदनादिरन्धनार्थ, धूमयानादिगविसिद्धयर्थं चेत्यर्थः । तथा परिवन्दन- माननपूजनाय परिवन्दनं प्रशंसा तदर्थं यथा - अग्नियन्त्रेण 'आतिशवाजी' इतिभाषापसिद्धे क्षणनश्वरस्फुलिष्टपादों, माननं जनसत्कारः तदर्थ, यथा- भूपादीन प्रसादयितुं दीपमालादीपवृक्ष निर्माणादौ । पूजनं = त्रखरत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थं, यथा - देवप्रतिमाद्ययं धूपदीपारात्रिककरणादी । तथा - जातिमरणमोचनाय = जन्ममरणचन्धमोचनार्थ, था-हवनादौ दुःखप्रतिघातहेतुम् = बातरोगापनयनार्थं शीतापनोदनार्थ ज्यरविपूचिकादिनिवृत्यथ च दहनमतापनादौ स=नश्वरजीवनसुखाद्यर्थी स्वयमेव अग्निशस्त्रम् = अग्न्युपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्रं समारभते व्यापारयति ।
हवन आदि
क्षणभङ्गुर जीवन के सुख के लिए, प्रकाश करने के लिए, चावल आदि पकाने के लिए, रेल आदि चलाने के लिए, तथा अपनी प्रशंसा के लिए, जैसे- अग्नियन्त्र से क्षणविनश्वर चिनगारियाँ बरसाने के लिए अर्थात् 'अतिशबाजी' के लिए' जन - सत्कार के लिए जैसेराजा वगैरह को प्रसन्न करने के उद्देश्य दीपमालिका जलाना या दीपकों के वृक्ष की रचना करना, तथा वस्त्र, रत्न आदि पुरस्कार पाने के लिए, जैसे- देवप्रतिमा आदि के - लिए धूप-दीप आदि करना । तथा जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, जैसे में, दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, जैसे - वातरोग हटाने के लिए, ठंड दूर करने के लिए तथा ज्वर एवं विपूचिका दूर करने के लिए डांभ देना या तपाना आदि कार्य करने में । इन सब प्रयोजनों के लिए इस जीवन के सुख का अर्थी पुरुष स्वयं द्रव्य જીવનના સુખ માટે, પ્રકાશ કરવા માટે, ચેખા આદિ રાંધવા માટે, ફૂલ આદિ ચલાવવા માટે તથા પેાતાની પ્રશ ંસા માટે, જેમકે અગ્નિયંત્રથી ક્ષણવિનશ્વર ચિનગારીઓ વરસાવવા માટે. અર્થાત્ ‘આતશખાજી માટે, જનસત્કાર માટે, જેમ–રાજા વગેરેને પ્રસન્ન કરવાના ઉદ્દેશથી દીપમાલિકા જગાવવી અથવા દીપકાના વૃક્ષની રચના કરવી, તથા વજ્ર, રત્ન આદિ પુરસ્કાર પ્રાપ્તકરવા માટે જેમ-દેવપ્રતિમા આદિ માટે ધૂપદીપ આદિ કરવું, તથા જન્મ-મરણુથી સુકત થવા માટે જેમ-હવન આદિમાં, દુઃખેાના પ્રતિકાર કરવા માટે જેમ-વાતરાગ હઠાવવા માટે, ઠંડી દૂર કરવા માટે તથા જવર અને કાલેરા દૂર કરવા · માટે ડૉમવું—આદિ કાય કરવામાં, આ સમ પ્રત્યેાજના માટે આ જીવનના સુખના અર્થી પુરુષ પોતે દ્રવ્યભાવ રૂપે અગ્નિશસ્રના
તાવ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ सू. ७ अग्निकायोपभोगः ५६९ अन्यैर्वा अग्निशस्त्र समारम्भयति उद्योजयति । अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति अनुमोदयति । तद अग्निकायसमारम्भणं, तस्य अग्निकायसमारम्भणं कुर्वतः, कारयितुः, अनुमोदयितुश्च, अहिताय भवति, तथा तत्, तस्य अयोधये सम्यक्त्वाकामाय, भवति ॥ मू० ७ ॥
येन तु तीर्घवरादिसमीपेऽग्निकायजीवस्वरूप परिमातं स एवं विभावयतीत्याह ___-'से ते.' इत्यादि।
से तं संयुज्झमाणे आयाणीय समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए, इहमेगेसि णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इचत्य गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्यहि
भावरूप अग्निशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से आरंभ करवाता है और आरंभ करने वालों की अनुमोदना करता है। वह अग्निकाय का आरंभ, करने, कराने और अनुमोदन करने वाले के अहित और सम्यक्त्व की अप्राप्ति के लिए होता है । सू० ७ ॥
जिस ने तीथकर आदि से अग्निकाय का स्वरूप समझ लिया है वह इस प्रकार विचार करता है:-'से तं.' इत्यादि ।
मूलार्थ--जो पुरुष तीर्थकर भगवान् या उनके अनगारों से उपदेश सुनकर चारित्र अङ्गीकार कर के विचरता है, वह इस प्रकार सोचता है-संसार में किन्हीं-किन्हीं को ही यह ज्ञान होता है कि यह ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है। આરંભ કરે છે. બીજા પાસે આરંભ કરાવે છે, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે છે–આ અનિકાયનો આરંભ કરનાર, કરાવનાર અને કરનારને અનુદન આપનારના અહિત અને સમ્યક્ત્વની અપ્રાપ્તિ માટે થાય છે. (સ. ૭)
જેણે તીર્થંકર આદિ પાસેથી અગ્નિકાયનું સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ प्रभार दिया२ ४२ छ:-'सेतं' छत्यादि.
મૂલાર્થ-જે પુરુષ તીર્થકર ભગવાન અથવા તે તેમને અણગાર પાસેથી ઉપદેશ સાંભળી ચારિત્ર અંગીકાર કરીને વિચારે છે–તે આ પ્રમાણે વિચારે છે કે –સંસારમાં કઈ-કઈને જ આ જાણવામાં હોય છે કે-આ ગ્રંથ છે, આ મોહ છે, આ માર-મૃત્યુ છે.
प्र. आ.-७२
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आचाराम त्यादि । अस्यैव क्षणभङ्गुरस्प जीवितस्य-जीवनस्य मुखार्थ प्रकाशकरणार्थम् , ओदनादिरन्धनाथ, धूमयानादिगतिसिद्धयर्थ घेत्यर्थः। तया-परिवन्दन-माननपूजनाय-परिवन्दनं प्रशंसा तदर्थ, यथा-अग्नियन्त्रेण 'आतिशवाजी' इतिभापामसिद्धे क्षणनश्वरस्फुलिङ्गदृष्टयादी, माननं जनसत्कारः तदर्थ, यथा-भूपादीन प्रसादयितुं दीपमालादीपक्षनिर्माणादौ। पूजन-बसरत्नादिपुरस्कारलामस्तदर्थ, यथा-देवपतिमाद्ययं धूपदीपारात्रिककरणादौ । तया-जातिमरणमोचनाय जन्ममरणपन्धमोचनार्थ, यथा-हवनादौ, दुःखप्रतिघातहेतुम्यातरोगापनयनाथ शीतापनोदनार्थ ज्वरबिपूचिकादिनित्यथ च दहनप्रतापनादी, सम्नश्वरजीवनसुखाद्यर्थी स्वयमेव अग्निशस्त्रम् अग्न्युपमर्दकं द्रव्यभावशखं समारभते व्यापारयति ।
क्षगभङ्गुर जीवन के सुख के लिए, प्रकाश करने के लिए, चावल आदि पकाने के लिए, रेल आदि चलाने के लिए, तथा अपनी प्रशंसा के लिए, जैसे-अग्नियन्त्र से क्षणविनश्वर चिनगारिया बरसाने के लिए अर्थात् 'अतिशबाजी के लिए' जन-सत्कार के लिए जैसेराजा वगैरह को प्रसन्न करने के उद्देश्य दीपमालिका जलाना या दीपकों के वृक्ष की रचना करना, तथा वस्त्र, रत्न आदि पुरस्कार पाने के लिए, जैसे-देवप्रतिमा आदि के लिए धूप-दीप आदि करना । तथा जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, जैसे हवन आदि में, दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, जैसे-यातरोग हटाने के लिए, ठंड दूर करने के लिए तथा ज्वर एवं विचिका दूर करने के लिए डांभ देना या तपाना आदि कार्य फरने में । इन सब प्रयोजनों के लिए इस जीवन के सुख का अर्थी पुरुष स्वयं द्रव्य
જીવનના સુખ માટે, પ્રકાશ કરવા માટે, ચોખા આદિ રાંધવા માટે, રેલ આદિ ચલાવવા માટે તથા પિતાની પ્રશંસા માટે, જેમકે-અગ્નિયંત્રથી ક્ષણવિનેશ્વર ચિન ગારીઓ વરસાવવા માટે. અર્થાત્ “આતશબાજી' માટે, જનસત્કાર માટે, જેમ-રાજા વગેરેને પ્રસન્ન કરવાના ઉદ્દેશથી દીપમાલિકા જગાવવી અથવા દીપકના વૃક્ષની રચના કરવી, તથા વસ્ત્ર, રતન આદિ પુરસ્કાર પ્રાપ્ત કરવા માટે જેમ–દેવપ્રતિમા આદિ માટે ધૂપદીપ આદિ કરવું, તથા જન્મ-મરણથી મુકત થવા માટે જેમ-હવન આદિમાં, દુઓને પ્રતિકાર કરવા માટે જેમ-વાતરોગ હઠાવવા માટે, ઠંડી દૂર કરવા માટે તથા જવરતાવ અને કેલેરા ઘર કરવા માટે ડામવું-આદિ કાર્ય કરવામાં. આ સર્વ પ્રજને માટે આ જીવનના સુખના .અથી પુરુષ પોતે દ્રવ્યભાવ રૂપે અગ્નિશઅને
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ४ सृ. ८ अग्निसमारम्भदोपः
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संजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव, ज्ञातं विदितं भवति । किं ज्ञातं भवती ? -त्याकाङ्क्षायामाह - ' एप खलु ग्रन्थः ' इत्यादि ।
एप:= अग्निशखसमारम्भः खलु निययेन, ग्रन्थः- ग्रध्यते = वध्यतेऽनेनेतिग्रन्थः अष्टविधकर्मबन्धः । कारणे कार्योपचारात् कारणभूतोऽग्निशस्त्रसमारम्भ एव कर्मबन्धरूपो ग्रन्थ इत्युच्यते । एवमग्रेडपि बोध्यम् । तथा एपः = अग्निशस्त्रसमारम्भः मोह: विपर्यासः अज्ञानम् । तथा एप एक मारः-मरणं निगोदादिमरणरूपः । तथाएप नरकः =नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् ।
इत्यर्थ = एतदर्थ कर्मबन्ध - मोह-मरण - नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनःपुनरेतदर्थमेव, लोक अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्धः = लिप्सुरस्ति । यद्वा-गृद्ध = जिन्हें सम्यग्ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो गया है. उन भात्मार्थी पुरुषों को ही विदित होता है। क्या विदित होता ! सो कहते है-'यह ग्रंथ है' इत्यादि ।
यह अग्निशस्त्र का समारंभ निश्चय ही आठ प्रकार का कर्मबंध है । कारण में कार्य का उपचार करने से अग्निशस्त्र के समारंभ को ही कर्मबंध कहा है, वास्तव में यह समारम्भ कर्मबन्ध का कारण है । इसी प्रकार आगे भी समजना चाहिए। तथा यह अग्निसमारंभ मोह है- विपर्यास है - अज्ञान है ।
तथा यह समारंभ मृत्युरूप है - निगोद आदि मरणरूप है । और यह नरक है--नरक को दश प्रकार की यातनाओं का स्थान है ।
कर्मबंध, मोह, मरण और नरक रूप घोर दुःखमय फल प्राप्त करके भी अज्ञानो જેને સભ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થઈ ગયા છે, તે આત્માથી પુરૂષોનેજ જાણવામાં होय छे. शुं शुवामां होय हे ? ते हे छे-' सा ग्रंथ हे ' साहि
આ અગ્નિશસ્રને આરભ નિશ્ચયનછીજ આઠ પ્રકારના કબંધ છે, કારણમાં કાર્યું ના ઉપચાર કરવાથી અર્પતાસ્ત્રના સમારંભનેજ કર્માંધ કહ્યો છે, વાસ્તવિક રીતે આ સમારંભ કાંધનું કારણ છે. આ પ્રમાણે માગળ પણ સમજી લેવું જોઈએ, તથા આ સમારભ મેહુ છે-વિપર્યાસ-અજ્ઞાન છે, તથા આ સમારંભ મૃત્યુરૂપ છે-નિંગાદ આદિ મરણુરૂપ છે. અને આ નરક છે-નરકની દસ પ્રકારની યાતનાઓનું સ્થાન છે.
કર્મ બંધ, મેાડ, મરણુ અને નરકરૂપ ઘેર દુઃખમય કુલ પ્રાપ્ત કરીને પણ
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आपरास्त्रे अगणिकम्मसमारम्गेणं अगणिसत्यं समारम्भमाणे अण्णे अणेगावे पाणे विहिंसा ॥सू०८॥
छाया--- __स तत् संयुध्यमान आदानीयं समुत्याय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणों वा अन्तिके, इहैके ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्थः, एप खलु मोहा, एप खलु मारः, एप खल नरका, इत्यर्थ गृद्धो लोकः, यदिम विरूपरूपैः शनैः अग्निकर्मसमारम्भण अग्निशस्त्रं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिनस्ति ।। मू० ८ ॥
टीका___यः खलु भगवतम् तीर्थङ्करस्य, अनगाराणाम् तदीयश्रमणनिग्रन्थानाम् वा अन्तिके श्रुत्वा उपदेशं निशम्य आदानीयम्-उपादेयं सर्वसावधयोगविरतिरूपं चारित्र समुत्याय-अङ्गीकृत्य विहरति स त अग्निकायसमारम्भणं, संयुध्यमाना=अहितावोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवति ।
स हि एवं विभावयति-इह-मनुष्यलोके, एकेपां श्रमणनिग्रन्योपदेशगृद्ध लोक नाना प्रकार के शस्त्रों से अग्निकर्म का आरंभ करके अग्निशस्त्र का व्यापार करता हुवा अन्य भी अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है । सू० ८॥
टीकार्थ--जो पुरुष भगवान् तीर्थकर अथवा उन के अनगारों के निकट उपदेश सुनकर सर्वसावधयोग के त्यागरूप चारित्र को स्वीकार कर के विचरता है, वह अग्निकाय के समारंभ को अहितकर और अबोधिकर समझ लेता है।
वह इस प्रकार सोचता है-इस मनुष्य लोक में, श्रमण निग्रंथो के उपदेश से આ નરક છે. શ્રદ્ધક નાના પ્રકારના શાથી અનિકમેકને સમારંભ કરીને અગ્નિ શઅને વ્યાપાર કરતા થકા અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. (સૂ) ૮)
ટીકાર્યું–જે પુરૂષ ભગવાન તીર્થકર અથવા તેમના અણુગાની સમીપ ઉપદેશ સાંભળીને સર્વસાવદ્યાગના ત્યાગરૂ૫ ચારિત્રને સ્વીકાર કરીને વિચારે છે. તે અગ્નિકાયના સમારંભને અહિતકર અને અધિકાર સમજી લે છે. 1 , તે આ પ્રમાણે વિચારે છે કે આ મનુષ્ય લેકમાં શ્રમણ નિર્મના ઉપદેશથી
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ मू. ८ अग्निसमारम्भदोपः ५७३ समारम्मेण अग्न्युपमर्दनरूपसावधव्यापारण, इमम् अग्निकार्य विहिनस्ति । तथा अग्निशख समारभमाण व्यापारयन् अन्यान् पृथिवीकायादीन, अनेकरूपान्त्रसाद स्थावरांच, प्राणान-माणिनो, विहिनस्ति-उपमर्दयति ।। सू० ८॥
अग्निशस्त्र समारभमाणा अनेकविधान जीवान् कथ विहिंसन्ति ? तत्मतिवोधयितुं श्रीसुधर्मा स्वामी माह-' से वैमि'. इत्यादि।
मूलम्
से बेमि-संति पाणा पुढवीनिस्सिया तणनिस्सिया पत्तनिस्सिया कट्टनिस्सिया गोमयनिस्सिया कयवरनिस्सिया, संवि संपाइमा पाणा आहच संपयंति, अगणिं च खलु पुढा एगे संघायमावज्जति, जे तत्य संघायमावति,
सावध व्यापार कर के अग्निकाय की हिंसा करता है और अग्निकाय का आरंभ करता हुआ अन्य पृथ्वीकाय आदि नाना प्रकार के स्थावर एवं उस प्राणियों का धात करता है ।। सू० ८ ॥
___ अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाले अनेक प्रकार के जीवों की विराधना किस प्रकार करते हैं। यह समझाने के लिए श्रीसुधर्मा स्वामी कहते हैं:-' से वेमि.' इत्यादि।
मलार्थ--वही मैं कहता हूँ--जीव पृथिवी के आश्रित हैं, तृण के आश्रित है, पतों के आश्रित हैं, काट के आश्रित हैं गोबर के आश्रित हैं, कचरे के आश्रित है. संपातिम जीव अचानक आकर अग्नि में पड़ जाते हैं, कोई-कोई अग्नि को बकर सिकर
વ્યાપાર કરીને અનિકાયની હિંસા કરે છે. અને અગ્નિકાયને આરંભ કરવા સાથે અન્ય પૃથ્વીકાય આદિ નાના પ્રકારના રસ છે એ પ્રમાણે સ્થાવર પ્રાણીઓને धात रे छ. (. ८)
અત્રિશસને આરંભ કરવાવાળા અનેક પ્રકારના છની વિરાધના કયા પ્રકાર ( a) छ? साना भाटे, श्री सुधर्मा पाभी ४६ छ-'से बेमि त्याठि.
મૂલાથ-તે હું કહું છું-જીવ પૃથ્વીના આશ્રિત છે. તૃણને આશ્રિત છે. પત્તાંપાંદડાને આશ્રિત છે. લાકડાંને આશ્રિત છે. છાણને આશ્રિત છે. કચરાને આશ્રિત છે. સંપાતિયજીવ અચાનક આવીને અગ્નિમાં પડી જાય છે. જે સંકેચાઈ જાય છે. તે
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आचारालसत्र
५७२ भोगामिलापी लोक-संसारी जीवः इत्यर्थम् एतदर्थमेव कर्मबन्धमोहमरणरकार्यमेव प्रवर्तते इति शेषः।
_ अयं भावः-भोगामिलापी लोकः शरीरादिपरिपोपणाथं परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखपतिघातार्थ चाग्निशस्त्रसमारम्भं करोति, तत्फलं खलु कर्मबन्ध मोह-मरण-नरकरूपमेव लभते, तस्मादग्निशस्त्रसमारम्भस्य तदेव फल वोध्यमिति ।
'लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाधर्थमेव प्रवर्तते ' इति यदुक्तं, तत् कयं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह-'यदिमम् .' इत्यादि ।
___ यद्यस्माद्, विरूपरूपैःम्नानाविधैः शखैः पूर्वोक्तमकारः अग्निकर्मजीव वार-वार इसी की इच्छा करते हैं । अथवा भोगों का अभिलापी संसारी जोव इस कर्मबंध, मोह मरण और नरक के लिए ही प्रवृत्त होते हैं।
तापर्य यह है-भोगों का अभिलाषी लोक शरीर आदि का पोषण करने के लिए, वंदना, मानना और पूजा के लिए जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए और दुःख का प्रतीकार करने के लिए अग्निशस्त्र का समारंभ करता है और फलस्वरूप कर्मबंध, मोह, मरण और नरक रूप फल पाता है । अत एव अग्निशस्त्र के समारंभ का फल वही बंध आदि समझना चाहिए।
'लोक बार-बार कर्मबंध आदि के लिए ही प्रवृत्ति करता है' यह जो कहा है सो कैसे ज्ञात हुमा ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं
क्यों कि वह नाना प्रकार के पूर्वोक्तशस्त्रों से अग्नि की विराधना करने वाला અજ્ઞાની છવ વારંવાર તેની જ ઈચ્છા કરે છે. અથવા ભેગોને અભિલાષી સંસારી જીવ આ કર્મબંધ, મેહ, મરણ અને નરક માટેજ પ્રવૃત્ત થાય છે.
તાત્પર્ય એ છે-ભગોના અભિલાષી માણસે શરીર આદિનું પિષણ કરવા માટે વંદના, માનના અને પૂજાને માટે, જન્મમરણથી મુક્ત થવા માટે અને દુઃખને પ્રતિકાર કરવા માટે અનિશઅને સમારંભ કરે છે અને ફલસ્વયે કર્મબંધ, મોહ, મરણ અને નરકરૂપ ફલને પ્રાપ્ત કરે છે. એટલા માટે અગ્નિશસ્ત્રના સમારંભનું કુલ તે બંધ આદિ સમજવાં જોઈએ.
તક વારં-વાર કમબંધ વગેરે માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે. એવું જે કહ્યું તે કેવી રીતે જવામાં આવ્યું? આ પ્રમાણે જીજ્ઞાસા થવાથી કહે છે–
કેમકે તે માને પ્રકારના પૂર્વોક્ત થી અનિની વિરાધના ... સાવય
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३.४ सू. ८ अग्निसमारम्भदोपः ५७३ समारम्भेण अग्न्युपमर्दनरूपसावधव्यापारण, इमम् अग्निकार्य विहिनस्ति । तथा अग्निशस्त्रं समारभमाण व्यापारयन् अन्यान् पृथिवीकायादीन्, अनेकरूपान्नसान स्थावरांच, प्राणान् मागिनो, विहिनस्ति-उपमर्दयति ॥ मू० ८ ॥
अग्निशस्त्रं समारभमाणा अनेकविधान् जीयान् कथ विहिंसन्ति ? तत्मतिबोधयितुं श्रीसुधर्मा स्वामी प्राह-' से वैमि'. इत्यादि ।
मूलम् --- से वेमि-संति पाणा पुढवीनिस्सिया तणनिस्सिया पत्तनिस्सिया कट्ठनिस्सिया गोमयनिस्सिया कयवरनिस्सिया, संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति, अगणि च खल पुट्टा एगे संघायमाबज्नंति, जे तत्य संघायमावति,
सावर व्यापार कर के अग्निकाय की हिंसा करता है और अग्निकाय का आरंभ करता हुआ अन्य पृथ्वीकाय आदि नाना प्रकार के स्थावर एवं उस प्राणियों का घात करता है। सू० ८॥
अविकास का आरंभ करने वाले अनेक प्रकार के नीयों की विराधना किस प्रकार करते हैं । यह समझाने के लिए श्रीसुधर्मा स्वामी कहते हैं:-' से बेमि.' इत्यादि।
मूलार्य--वही मैं कहता हूँ-जीव पृथिवी के आश्रित हैं, तृण के आश्रित है, पत्तों के आधित हैं, काष्ठ के आश्रित हैं गोबर के आश्रित हैं, कचरे के आश्रित संपातिम जीव अचानक आकर अग्नि में पड़ जाते हैं, कोई-कोई अग्नि को छूकर सिकुड
વ્યાપાર કરીને અનિકાયની હિંસા કરે છે. અને અગ્નિકાયને આરંભ કરવા સાથે અન્ય પૃથ્વીકાય આદિ નાના પ્રકારના ત્રસ જીવે એ પ્રમાણે સ્થાવર પ્રાણીઓને धात रे छ. (२. ८)
અગ્નિશસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળા અનેક પ્રકારના જીની વિરાધના કયા પ્રકાર (हवीत) ७३ छ? समजा भाटे, श्री सुंधर्भावामी हे छ-'से मित्यादि.
મૂલાથ–તે હું કહું છું--જીવ પૃથ્વીના આશ્રિત છે. તૃણને આશ્રિત છે. પત્તાં-- પાંદડાને આશ્રિત છે. લાકડાંને આશ્રિત છે. છાણને આશ્રિત છે. કચરાને આશ્રિત છે. સંપતિમજીવ અચાનક આવીને અગ્નિમાં પડી જાય છે. જે સંકેચાઈ જાય છે. તે
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५७४
आचारागसूत्रे ते तत्थ परियावज्जति जे तत्थ परियावज्जति ते तत्य उद्दायति ।। मू०९॥
छाया
_. तद् ब्रवीमि-सन्ति प्रागाः पृथिवीनिश्रिताः तृणनिश्रिताः पत्रनिश्रिताः काष्ठनिश्रिताः गोमयनिश्रिताः कचवरनिश्रिताः, सन्ति संपातिमाः प्राणाः आहत्य संपतन्ति, अग्नि च खलु स्पृष्टा एके संघातमापद्यन्ते, ये तत्र संघातमापद्यन्ते ते तत्र पर्यापद्यन्ते, ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्रापद्रावन्ति ॥ मू०९ ॥
टीका- . . तद्-अग्निकायहिंसया यथा वहुविधाः पाणिनः प्रणश्यन्ति, तद् ब्रवीमि= कथयामि, पृथिवीनिश्रिताः पृथिवीरूपं कायमाश्रित्य वर्तमानाः पृथिवीकायिका इत्यर्थः । 'पृथिवीनिधिताः' इत्युपलक्षणम् , तेन तदाश्रिताः कृमि-कुन्थु-पिपीलिका-भुजङ्गम-मण्डूक-वृश्चिक-कर्कटकादयो गृह्यन्ते । तथा च पृथिवीकायिकास्तदाश्रितास्त्रसाश्चेत्यर्थः, वृक्षलतादयश्च । तथा-तणनिश्रिताः बनस्पतिकायिकाः, जाते हैं; जो सिकुड जाते हैं वे मूर्छित हो जाते हैं और जो मूर्छित हो जाते है वे मर भी जाते हैं ।सू० ९॥
टीकार्थ- अग्निकाय की हिंसा से बहुत प्रकार के जीवों का घात होता है, सो मैं कहता हूँ-पृथिवी के सहारे रहने वाले जीव पृथिवीकायिकों के अतिरिक्त और भी बहुत से हैं । जैसे-कृमि, कुंथुवा, विउंटी, साप, मेंढक, बिच्छु, कैकडा, आदि । अतः पृथिवी आश्रित का अर्थ यहां पृथिवीकायिक स्थावर तथा त्रस जीव लेना चाहिए ।घृक्ष और बेल आदि भी इसी में सम्मिलित है । तथा तृण-आश्रित वनस्पतिकाय के
મૂછિત થઈ જાય છે, અને જે મૂર્શિત થાય છે તે મરી પણ જાય છે. (સ. ૯)
ટીકાર્ચ–અગ્નિકાયની હિંસાથી ઘણાજ પ્રકારના જીને ઘાત થાય તે હું કહું -પૃથ્વીના આશ્રયે રહેવાવાળા જીવ પૃથ્વીકાયની સાથે બીજા પણ ઘણા છે. જેમ કૃમિ કંથવા, કીડીઓ, સાપ, દેડકાં, વીંછી ફેંકડા આદિ. એ કારણથી પૃથ્વીઆશ્રિતને અર્થ અહિ પૃથ્વીકાયિક સ્થાવર તથા ત્રસ જીવ લેવા જોઈએ. વૃક્ષ અને વેલા-વેલ આદિ પણ તેમાં સમ્મિલિત છે. તથા તૃણ-આશ્રિત વનસ્પતિકાયના જીવ અને તૃણના આશ્રયે રહેવા
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ स. ९ अग्निसमारम्भदोपः ५७५ हणमाश्रित्यावस्यायिनः मशककीटतणजलौकादयश्च, तथा-पत्रनिश्रिताः वनस्पतिकायिकाः पत्रमाश्रित्य निवासिनः पिपीलिकाभेदाः 'घोडन' इति मगधदेशे मसिद्धाः, कीटपतद्गनीलामभृतयश्च, तथा-काष्टनिश्रिताः काष्ठं शरणीकृत्य स्थिताः धुणोद्देहिका-तदण्डादयः, अत्र कार्य शुष्कमिन्धनरूपं सा च गृह्यते । तथागोमयनिश्रिताः
गाइपदभूमिस्फोटादयः । तथा कचवरनिश्रिताः-कचवरः शुष्कतृणपत्ररजासमुद्रायरूपः, न निश्रिताः समाश्रिताः ऋमिकुन्थुकीटादयः माणाः प्राणिनः सन्ति ।
तथा-संपातिमा उत्प्टुत्योत्प्लुत्य पतनशीलाः, माणा:याणिनः दंशमशकमशिकापतगपतिपयनादयः सन्ति । एते संपातिमा आहत्य-अग्निशिखाकृप्टाः स्वयमेवोपेत्य, अग्नी संपतन्ति ।
जोय और तृण के सहारे रहने वाले मच्छर कीडे और घास की जलोक (जौंक) आदि तृण-निश्रित कहलाते हैं । पतो के सहारे रहने वाले मगध देश में प्रसिद्ध घोडन तथा कोट, पतंग एवं नालंगु (लट) आदि जीव हैं । धुन, उदई और उनके अण्डे आदि काठ के सहारे रहने वाले जीव काष्ठनिश्रित कहलाते हैं । यहाँ 'काष्ठ' शब्द से सूखा इंघनरूप काठ और गीला काठ, दोनों समझने चाहिए । तथा गोवर के आश्रित गिंडीला और भूमिस्फोटक (भूफोड) आदि जीव हैं । इसी केकार कचरे के सहारे रहने वाले कृमि कुंथुवा तथा कोडा वगैरह, ये सब प्राणी हैं। ___उड-उड कर गिरने वाले डांस, मच्छर, मक्खी पतंग, पक्षी और पवन आदि संपातिम जीव कहलाते हैं। ये संपातिम जीव आग को शिखा से स्वयं आकापित हो कर आग में गिर जाते हैं।
વાળા મચ્છર, કીડા અને ઘાસની જળ આદિ. તૃણ આશ્ચિત કહેવાય છે. પત્તાં-પાંદડાંના આશયે રહેવાવાળા મગધ દેશમાં પ્રસિદ્ધ ઘડન તથા કીટ પતંગ અને નીલગુ (લ) આદિ જીવ છે. ઘુણ ઉધેઈ અને તેનાં ઇંડાં આદિ-લાકડાના સહારે રહેવાવાળા જીવ કાણનિશ્ચિત કહેવાય છે. અહિં કાઈ શકથી સૂકાં લાકડાંરૂપ કાઇ અને લીલાં કાઇ, આ બને સમજ્યાં જોઈએ, તથા છાણમાં આશ્રય કરી રહેલાં ગિડેલા અને ભૂડા આદિ છવ છે. આ પ્રમાણે કચરાના આશ્રયે રહેવાવાળા કૃમિ, કુંથુવા તથા કીડા વગેરે, આ સર્વ પ્રાણી છે.
ઉડી-ઉડીને પડવાવાળા ડાંસ, મચ્છર, માખી, પતંગ, પક્ષી અને પવન આદિ સંપતિમ જીવ કહેવાય છે. એ સંપતિમ જીવ આગની–અગ્નિની શિખાથી પિતે सापित यन, मनिभा पाय छे.. . .
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૫૭૬
आचारासो अग्निकायसमारम्भे पृधिन्यादिसमाश्रितानां स्थावराणां प्रसानां चोपमर्दनादिकं यथा भवति तद् दर्शयितुमाह-अग्नि चेत्यादि ।
एके-केचित् माणिनः, अग्निम् समुत्पादितं भज्यालित चाग्निकायं स्पृष्टाः स्पर्शकर्तारः, आपत्वात् फर्तरि क्तः ।
संघात पक्षादिदहनेन गात्रसंकोचनम् आपधन्ते, माप्नुवन्तीत्यर्थः । तत्रअग्नौ पतित्वा ये जीवाः संघातमापधन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते तापाभिभूता मूर्छा प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । ये तत्र अग्नी पर्यापद्यन्ते, ते तत्र अग्नी, अपद्रावन्तिन्माणान् परित्यजन्ति । अनिसमारम्भेण केवलमनिकायविराधना न भवति, अपितु सर्वेदिक्संचारिणं त्रसानां पृथिव्यादीनां स्थावराणामपि बहुतराणां हिंसाऽवश्यं भवतीति भावः । अत एवोक्तं भगवता
अग्निकाय का आरंभ करने से पृथिवी आदि में आश्रित स्थावरों और त्रस जीवों का विराधन किस प्रकार होता है ? सो कहते हैं।
कोई-कोई प्राणी जलती अग्नि को स्पर्श करके सिकुड जाते हैं-उन के पंख वगैरह जल जाते हैं। अग्नि में पड़ कर जो जीव संघात को प्राप्त होते हैं वे गी से मूञ्छित हो जाते हैं । अग्नि में गिरने वाले अपने प्राण भी खो देते हैं । अग्नि का समारंभ करने से केवल अग्निकाय की ही विराधना नहीं होती वरन् समी दिशाओं में संचार करने वाले त्रस और बहुत से स्थावर जीवों की भी हिंसा अवश्य होती है । इसी लिए भगवान् ने कहा है:--
અગ્નિકાયને આરંભ કરવાથી પૃથ્વી આદિમાં આશ્રય કરી રહેલાં થાવ અને ત્રસ જીવેની વિરાધના જે પ્રકારે થાય છે, તે કહે છે–
કેઈકે પ્રાણુ બળતી અગ્નિને સ્પર્શ કરીને સંકોચાઈ જાય છે. તેની પાંખે વગેરે બળી જાય છે. અગ્નિમાં પડીને જે જીવ સંઘાતને પ્રાપ્ત થાય છે તે ગરમીથી મૂર્ષિત થઈ જાય છે. અગ્નિમાં પડવાવાળા જીવ જે મૂર્ષિત થઈ જાય છે તે પિતાના પ્રાણ પણ ઈ નાખે છે. અગ્નિને સમારંભ કરવાથી કેવલ અનિકાયની વિરાધના થતી નથી, પરંતુ સર્વ દિશાઓમાં સંચાર કરવાવાળા ત્રસ અને ઘણાંજ રથાવર જીવોની પણ હિંસા અવશ્ય થાય છે. એ માટે ભગવાને કહ્યું છે- -
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ.४ . ९ अभिसमारम्भदोपः
"जायतेयं न इच्छंति, पावगं जलड़तए । faraमन्नयरं सत्यं, सनओवि दुरासयं ॥ १ ॥ पाई पढिणं यात्रि, उ अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि य || २ ||
भृयाणसमाधाओं, वादो न संसओ । तं पवाडा, संजय किंचि नारभे || ३ ||" (दशचै० अ० ६)
छाया -जावतेजसं नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्ष्णमन्यतरत् शस्त्रं, सर्वतोऽपि दुरासदम् ॥ १ ॥ माच्यां प्रतीच्यां वापि, ऊर्ध्वमनुदिवपि । अो दक्षिणतो नापि, दहेदुत्तरतोऽपि च ॥ २ ॥ भूतानामेप आघातो, हव्यवाही न संशयः । तं मदीपतानार्थ, संयतः किञ्चिन्नारभेत ॥ ३ ॥
८७७
ct
'साधु अग्नि को जलाने की इच्छा तक नहीं करते, क्यों कि वह एक बडा ही तोखा
शत्र है, जो किसी भी और से दुस्सह है- सभी ओर से जलाता है ॥१॥
यह अग्निशस्त्र पूर्व से भी और पश्चिम से भी ऊपर से भी और विदिशाओं की तरफ से भी नीचे से भी और दक्षिण से भी तथा उत्तर से भी जलाता है ॥२॥
अग्नि जीवों का घातक है, इस में कोई संशय नहीं है । साधु दीपक जलाने तथा प्रतापने के लिए उस का जरा भी आरंभ नहीं करते ||३|| (दशवे, अध्य, ६)
फिर भी कहा है
66
સાધુ અગ્નિને સળગાવવાની ઇચ્છા સુધી કરતા નથી, કારણ તે એક મહાન तीक्ष्ण शस्त्र हे, ते पिए भालुधी दुस्सह हे-यारेय तरथी माणे छे. " ॥ २ ॥
આ અગ્નિશસ્ત્ર પૂર્વથી પણુ અને પશ્ચિમથી પશુ ઉપરથી અને વિદિશાઓની તરફથી પણ નીચેથી અને દક્ષિણથી પણુ અને ઉત્તરથી પણ મળે છે. ! ૨ !
ગ્નિ જીવેાને ઘાતક છે, તેમાં કાંઈ પણ સંશય નથી, સાધુ દીપક સળગાવવા तथा तापवाने भाटे तेन राउता नधी " || ३ || (हरावे. अध्य. ६) ફરી પણ કહે છે.
प्र. मा.-७३
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પ૭૮
' भाषागाने "दो पुरिसा सरिसवया अन्नमन्नेहिं सदि अगणिकाय समारंभति, तत्य णं एगे पुरिसे अगणिकायं समुज्नालेति, एगे विमवेति, तत्य णं के पुरिस महाकम्मयराए ? के पुरिसे अप्पकम्मपराए ? गोयमा! जे उजालेति से महाकम्मयराए, जे विज्झवेति से अप्पकम्मयराए "॥
छाया-द्वौ पुरुषी मशवयस्को अन्यान्याभ्यां सार्द्धम् अमिकायं समारमेते, तत्र खलु एकः पुरुपः अग्निकार्य समुज्ज्यालयति, एको विध्यापयति, तत्र खलु कः पुरुपः महाक्रमतरकः ? कः पुरुषः अल्पकर्मतरकः ? । गोतम! या (अमि) उज्ज्वालयवि स महाकर्मतरका, य (अग्नि) विध्यापयति स अल्पकर्मतरकः (भगवती मूत्र०) ॥ सू०९।।
तदेवमग्निकायहिंसया बहुतरजीवोपमर्दनं भवतीति विदित्वा त्रिकरणत्रियोगैः कृतकारितानुमोदितैश्वामिशनसमारम्भो वर्जनीय इत्याह-' एत्य सत्य' इत्यादि।
"समान उम्र वाले दो पुरुष परस्पर अग्निकाय का आरंभ करते हैं । एक पुरुप अग्निकाय को जलाता है और एक बुझाता है। इन में से कौन-सा पुरुष महाकर्म बांधता है ? और फोन अल्पकर्म बांधता है । हे गौतम ! जो अग्नि जलाता है वह महा कर्म बापता है और जो अग्नि बुझाता है वह अल्प कर्म बाधता है" (भगवतीसूत्र.) ॥ सू० ९॥
इस प्रकार अग्निकाय की हिंसा होती है, यह जानकर तीन करण, तीन योग से, तथा कृत, कारित और अनुमोदना से अग्निशस्त्र का समारंभ त्याग देना चाहिए, यही बात कहते हैं-'एत्थ सत्य.' इत्यादि ।
સમાન ઉમરવાળા બે પુરૂષ પરસ્પર અનિકાયનો આરંભ કરે છે. એક પુરૂષ અનિકાયને સળગાવે છે. બાળે છે અને એક બુઝાવેલ છે. તે બેમાંથી કે પુરૂષ મહા કર્મ બાંધે છે. અને કેણ અ૫ કર્મ બાંધે છે ? હે ગૌતમ! જે અગ્નિ સળગાવે છે-બાળે છે તે મહા કર્મ બાંધે છે. અને જે અગ્નિ બુઝાવે છે. તે म५ ४ मांधे छे." (सती सूत्र.) (सु. ८)
આ પ્રમાણે અનિકાયની હિંસાથી ઘણા પ્રકારના જીવોની હિંસા થાય છે. એ જાણ કરીને ત્રણ કરવું, ત્રણ ચાગથી તથા કરવું, કરાવવું અને અનુમેહનાથી अतिशयन सभास
त्य न , मेरा पात ४९ एस्थ सत्थं,' या.
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य.१ उ.४ सू.१० अग्निकायसमारम्भनिषेधः
५७९
एत्य सत्थं समारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा अपरिणाया भवति । एत्य सत्यं असमारंभमाणस्स इते आरंभा परिणाया भवंति। तं परिणाय मेहावी णेव सयं अगगिसत्थं समारंभेज्जा, नेवऽण्णेहिं अगणि-सत्थं समारंभावेज्जा अगणिसत्यं समारंभमाणे अण्णे न समणु जाणिज्जा जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिणाया मयंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे-त्ति मि । सू० १० ॥
॥ चउत्यो उद्देसो समचो ॥ १-४ ॥
छायाअत्र शस्खं समारममाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शख्समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमग्निशखं समारभेत नैवान्यैरग्निशस्त्रं समारम्भयेत्, अग्निशस्त्रं समारममाणान् अन्यान न समनुजानीयात् । यस्यैते अग्निकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खल मुनिः परिक्षातकर्मा-इति ब्रवीमि ॥ सू० १०॥
|| चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥ १-४॥
टीकाअत्र-अस्मिन् अनिकाये, शस्त्रं द्रव्यभावरूपं मागुक्तं :समारभमाणस्य:
मूलार्थ-अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाला इन आरंभो को नहीं जानता । अग्निशस्त्र का आरंभ न करने वाला इन आरंभो को जानता है । इन्हें जानकर बुद्धिमान् पुरुष स्वयं अग्निशस्त्र का आरंभ न करे, दूसरों से अग्निशस्त्र का आरंभ न करावे और अग्निशन का आरंभ करने वालों की अनुमोदना न करे । जो इन समारंभो का ज्ञाता होता है वही मुनि परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मैं (भगवान् के कथानानुसार) कहता हूँ ॥सू० १०॥
टीकार्थ--अग्निकाय में द्रव्य और भावरूप पूर्वोक्त शस्त्र का व्यापार करने • મલાથ–અગ્નિશસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળા એ આરંભેને જાણતા નથી. અગ્નિ. શસ્ત્રનો આરંભ નહિ કરવાવાળા એ આરંભેને જાણે છે. તેને જાણીને બુદ્ધિમાને પુરૂષ સ્વયં અનિશઅને આરંભ ન કરે, બીજા પાસે અગ્નિશસ્ત્રનો આરંભ કરાવે નહિ. અને અગ્નિશસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ. જે આ સમારંભના જ્ઞાતા-જાણકાર હોય છે તે મુનિ પરિજ્ઞાતકમાં છે. એ પ્રમાણે હું ભગવાનના पथनानुसार) ४९ ७ (सू. १०) . . Re:-मियम द्रव्य भने १२५ ५ोइत शमना व्यापार (प्रयोग)
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आचाराक्र्सूत्रे
व्यापारयतः इत्येते = पचनपाचनादयः आरम्भाः सावयव्यापाराः, अपरिज्ञाताः = अष्टविधकर्मबन्धकारणत्वेनाविज्ञाता भवन्ति, afar as agoजानस्य परिज्ञाया अभावादिति भावः ।
अत्र अस्मिन् अप्काये शस्त्रम् - पूर्वोक्तस्वरूपम्, असमारभमाणस्य = अप्रयुब्जानस्य, इत्येते = पचनपाचनादयः, आरम्भाः = सावद्यव्यापारा, परिज्ञाताः ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाताः भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यक्ता भवन्तीत्यर्थः ।
ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा समुद्भवति तथा दर्शयति- 'तत् परिज्ञाये - त्यादि । तद = अनिकायारम्भणं, परिज्ञाय = 'कर्मबन्धाय भवती - त्येवमवयुध्य, मेघावी = हेयोपादेयविवेककुशलः, साधुमर्यादावधानशील इति यावत् नैव स्वयमग्निशस्त्रं समारमेत, नैवान्यैरग्निशस्त्र समारम्भयेद्, अग्निशखं वाले को अर्थात् पचन - पाचन आदि पापमय कार्य करने वालों को यह ज्ञान नहीं होता कियह कार्य आठ प्रकार के कम के बंध का कारण है, क्योंकि अग्निकाय के शस्त्र का प्रयोग करने वाले में परिज्ञा का अभाव होता है ।
अग्निकाय में पूर्वोक्त शस्त्र का व्यापार न करने वाले को सावध व्यापारों का ज्ञान होता है । वह ज्ञपरिज्ञा से उन्हें जानता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका योग
है ।
ज्ञपरिज्ञा के बाद प्रत्याख्यानपरिज्ञा किस प्रकार उत्पन्न होती है ? सो कहते हैंअग्निकाय का आरंभ कर्मबंध का कारण है, यह जानकर हेय-उपादेय के विवेक में प्रवीण साधुमर्यादा का ध्यान रखने वाला स्वयं अग्निशस्त्र का आरंभ नहीं करता, दूसरों से કરવાવાળાને અર્થાત્-પચન-પાચન આદિ પાપમય કાય કરવાવાળાને એ જ્ઞાન હોતુ નથી કે આ કાર્ય આઠ પ્રકારનાં કમાંનાં બંધનું કારણ છે, કારણ કે અગ્નિકાયનાં શસ્ત્રના પ્રયાગ કરવાવાળાઓમાં પરજ્ઞાને અભાવ હાય છે.
અગ્નિકાયમાં પૂર્વોક્ત શસ્ત્રના વ્યાપાર-ઉપયેગ નહિ કરવાવાળાને સાવદ્ય વ્યાપારીનું જ્ઞાન હાય છે, તે જ્ઞપરસાથી તેને ાણે છે, અને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરી આપે છે.
જ્ઞપરિક્ષાની પછી પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા કયા પ્રકારે ઉત્પન્ન થાય છે ? તે કહે છેઃઅગ્નિકાયના આરભ કમ ધનું કારણ છે, એ પ્રમાણે જાણીને હેય–ઉપાદેયના વિવેકમાં પ્રવીણુ–કુશળ સાધુમર્યાદાનું ધ્યાન રાખવાવાળા પાતે અગ્નિશન આર બ કરતા નથી; બીજા પાસે આરંભ કરાવતા નથી, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુમાદન
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सू. १० अग्निकायसमारम्भनिषेधः ५८१ समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् = नानुमोदयेत् । शेषं सुगमम् । यस्यैते अग्निकर्मसमारम्भाः कर्मणां समारम्भाः कर्मसमारम्भाः, अग्नेः कर्मसमारम्भाः अग्निकर्मसमारम्भाः प्रग्निं निमित्तीकृत्य कर्मकारणीभूताः उपमर्दनव्यापारा इत्यर्थः, परिज्ञाताः ==सर्वथा ज्ञाताः, ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिताः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिवर्जिता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा - परिज्ञातानि=परिज्ञया स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतथागतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परित्यक्तानि कर्माणि = सावद्यव्यापाराः येन स परिज्ञातकर्मा मनोवाक्कायैः सकलसावधकरणकारणानुमतिनिवृत्तो मुनिर्भवतीत्यर्थः । ' इति ब्रवीमि ' अस्य व्याख्यानं पूर्ववद् बोध्यम् ।
॥ इत्याचारासूत्रस्याऽऽचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने चतुर्थी देशकः संपूर्णः ॥ १-४ ॥
आरंभ नहीं कराता और आरंभ करने वालों की अनुमोदना नहीं करता । शेष भाग सुगम हैं । अग्नि के निमित्त से होने वाले तथा कर्मबंध के कारणभूत यह सब पापमय व्यवहार जिस ने कर्मबंध के कारण ज्ञपरिज्ञा से समझ कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिये हैं वही परिज्ञातकर्मा मुनि है । जिसने इन व्यापारों का स्वरूप, फल और कारण ज्ञपरिज्ञा से जान लिया है तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग कर दिया है उसे परिज्ञातकर्मा मुनि कहते हैं । ऐसा मुनि मन, वचन काय से समस्त सावध के करने, कराने और अनुमोदन करने का त्यागी होता है । 'इति नवीमि' की व्याख्या पहले के समान समझ लेना चाहिए | सू० १०॥
श्रीआचाराङ्गसूत्रकी 'आचारचिन्तामणि' टोकाके हिन्दी अनुवादमें मथम अध्ययनका चौथा उद्देश सम्पूर्ण ॥ १-४ ॥
माता नथी. शेष-माडीनो लाग सुगम छे.
અગ્નિના નિમિત્તથી થવાવાળા તથા કર્મ બંધના કારણભૂત આ સર્વ પાપમય વ્યવહારને જેણે કર્મ'ધના કારણે સરજ્ઞાથી સમજીને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યાગ કરી આપ્યા છે તેને રિજ્ઞાતકર્મા મુનિ કહે છે. એવા મુનિ-મન, વચન, કાયાથી સમસ્ત સાવદ્યને કરવું, કરાવવું અને અનુમેાદન કરવું તેના ત્યાગી હાય છે नवीमि 'नी व्याच्या प्रथमना समान समल सेवी लेई मे. (सु. १० )
' इति
શ્રી આચારાંગસૂત્રની ‘આચારચિંતામણિ' ટીકાના ગુજરાતી-અનુવાદમાં પ્રથમ અધ્યયનના थोथा उद्देशः संपू. ( १-४ )
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५८२
आधारास्त्र अथ पञ्चमोद्देशक:चतुर्थोद्देशेऽनिकायस्वरूपं मुनित्वप्राप्तये प्रतियोधितम् । साम्प्रतं तदर्थमेव क्रममाप्तव कायमतिवोधनावसरे वनस्पतिकायजीवस्वरूपं प्रतियोधयितुकामः पञ्चमोदेशकमुपक्रमते-'तं णो'. इत्यादि ।
ननु क्रमप्राप्तवायुकायपतियोधनं कयं न प्रक्रम्यते ? उच्यते-चायुकायः प्रत्यक्षतया दृष्टिगोचरो न भवति, अतस्तत्र श्रद्धा झटिति नोदेतुं प्रभवति, पृथिव्याये. केन्द्रियजीवस्वरूपं प्रतियुध्य तु सुतरां वायुकायो विज्ञास्यते, अतः स एव क्रमो गुरुभिरुपादेयो भवति, येन जीवादितच विज्ञानाय शिष्याः
पंचम उद्देशकचौथे उद्देश में साधुता प्राप्त करने के लिए अग्निकाय का स्वरूप समझाया है । इसी के लिए क्रम के अनुसार वायुकाय का स्वरूप समझाने के प्रसंग में वनस्पतिकाय का स्वरूप बतलाने के लिए पाचवा उद्देश आरंम करते हैं-'तं णो.' इत्यादि।
प्रश्न--क्रम के अनुसार वायुकाय का स्वरूप क्यों नहीं बतलाया गया है ? और वायुकाय को छोडकर वनस्पतिकाय के विवेचन का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर--बात यह है कि वायुकाय नेत्रों से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता-सिर्फ स्पर्शेन्द्रिय से उस की प्रतीति होती है । इस कारण उस के विषय में जल्दी श्रद्धा नहीं होती। हाँ, पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों का स्वरूप समझ लेने पर वायुकाय सहन ही समझ में आ जायगा । गुरुजन वही क्रम काम में लाते हैं जिस से शिष्य जीवादि
પંચમ ઉદ્દેશક– ચોથા ઉદ્દેશકમાં સાધુતા પ્રાપ્ત કરવાને માટે અગ્નિકાયનું સ્વરૂપ સમજાવ્યું છે. આ માટેજ ક્રમ અનુસાર વાયુકાયનું સ્વરૂપ સમાવવાના પ્રસંગે વનસ્પતિકાયનું २०५ मतावाने भाटे पांयमा उदेशन मार ७३ छ-' णो.' त्याहि.
પ્રશ્ન–કમ પ્રમાણે વાયુકાયનું સ્વરૂપ શા માટે બતાવ્યું નથી અને વાયુકાયને છોડીને વનસ્પતિકાયના વિવેચનમાં ક ઉદ્દેશ્ય છે?
ઉત્તર–વાત એ છે કે-વાયુકાય નેત્રથી પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવતો નથી. માત્ર પદ્રિયથી તેની પ્રતીતિ થાય છે. આ કારણથી તેના વિષયમાં જલદી શ્રદ્ધા થતી નથી. તા. પ્રથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિય જીવોનું સ્વરૂપ સમજી લીધા પછી વાયુકાય સહેજે સમજવામાં આવી જશે. ગુરુજન આ કેમને કામમાં લાવે છે, જે વડે કરી શિવ્ય જીવાદિ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ ३. १ मू. ५ उपक्रमः
५८३ स्वयमेवोत्सहन्ते, तस्माद् वायुकायस्वरूपमनभिधाय वनस्पतिकायः प्रथमं मस्तूयते'तं णो,' इत्यादि।
यहा-अनन्तरचतुर्थोदेशेऽग्निकायो दीर्घलोकशस्त्रशब्देनादौ प्रतिबोधितः । तत्र दीर्घलोकशब्दार्थों बनस्पतिरित्याशयं समधिगम्याग्निकायमकरणसमाप्त्यनन्तरं प्रथमं वनस्पतिकायस्वरूपं विज्ञातुकामस्य शिप्यस्य प्रतिवोधनाय पञ्चम वनस्पतिकायोद्देशं कथयति-तं णो.' इत्यादि । ___यथा वनस्पतिकायोपमर्दननित्याऽनगारत्वं लभ्यते, तं प्रकारं निर्दिशति'तं गो. ' इत्यादि। तत्त्वों के ज्ञान में उत्साहित हो । यही कारण है कि पहले वायुकाय का स्वरूप न कह फर वनस्पतिकाय का वर्णन किया जाता है-'त णो'. इत्यादि । ___अथवा-चौथे उद्देश में अग्निकाय को 'दीर्घलोकशस्त्र' बतलाया है । दीर्घलोकका अर्थ वनस्पतिकाय है, यह आशय जानकर अग्निकाय के प्रकरण के पश्चात् ही शिष्य को वनस्पतिकाय का स्वरूप जानने की इच्छा होना स्वाभाविक है । जिज्ञासा के अनुरूप दिया हुआ उपदेश ही अधिक सफल होता है, अतः शिष्य की जिज्ञासा तृप्त करने के लिए पांचवें उद्देश में वनस्पतिकाय का कथन किया जाता है-'तं णो'. इत्यादि ।
वनस्पतिकाय को हिंसा से निवृत्त होने पर ही साधुता प्राप्त होती है, वह किस प्रकार प्राप्त होती है ? सो कहते हैं-'तं गो.' इत्यादि। તના જ્ઞાનમાં ઉત્સાહિત થાય. આ કારણથી પ્રથમ વાયુકાયના સ્વરૂપને નહિ કહેતાં पनस्पतिशायर्नु पर्थन ४२पामा व्यु छे-'तं गो.' त्याहि.
मायथा देशमा नायने 'दीर्घलोकशन' तरी मतान्यु. के. દીધલેકને અર્થ વનસ્પતિકાય છે, એ આશયને સમજીને અગ્નિકાયના પ્રકરણની પછી જ શિષ્યને વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપને જાણવાની ઈચ્છા હોય–થવી તે સ્વાભાવિક છે. જીજ્ઞાસાને અનુરૂપ આપેલો ઉપદેશ જ અધિક સકલ થાય છે, એ કારણથી શિષ્યની જીજ્ઞાસા તૃપ્ત કરવાને માટે પાંચમા ઉદેશમાં વનસ્પતિકાયનું વિવેચન કરવામાં આવે છે-“હં. ઈત્યાદિ. - વનસ્પતિકાયની હિંસાથી નિવૃત્ત થયા પછી જ સાધુતા પ્રાપ્ત થાય છે, તે કયા मारे भारत याय छ. ४ छ-'तं णो.' त्यादि
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.५८४
आचारायंत्रे
मूलम् --
तं णो करिस्सामि समुट्ठाए मता मम, अभयं विदित्वा तं जे जो करए, एसोवरए एत्थोवर, एस अणगारेति पवृच्च ॥ सू० १ ॥
छाया-
तं नो करिष्यामि समुत्थाय मत्वा मतिमान्, अमयं विदित्वा तं यो नो कुर्यात्, एप उपरतः अत्रोपरतः, एपः अनगार इति मोच्यते ॥ सु० १ ॥
टीका-
मतिमान् = मेधावी
श्रमणनिर्ग्रन्थादिदेशनाश्रमणसंजातदेयोपादेयविवेकवानित्यर्थः । मत्वा वनस्पतिकायस्वरूपं विज्ञाय विभावयति - अहं समुत्थाय आत्मकल्याणार्थमुद्युक्तः सन् मज्यां गृहीत्वा तं वनस्पतिकायसमारम्भं नो करिष्यामीति ।
मूलार्थ - मेधावी पुरुष विचार करता है- मैं आत्मकल्याण के लिए उद्यत होकर वनस्पतिकाय का आरंभ नहीं करूंगा । जो पुरुष संयम को जानकर आरंभ नहीं करता है वही आरंभ से उपरत है - वही जिन शासन आरंभ से निवृत्त कहलाता है । वही अनगार कहलाता है | सू० १ ॥
"
टोकार्थ - श्रमण निर्गन्ध आदि का उपदेश सुनने से जिसे हेय और उपादेय का विवेक उत्पन्न हो गया है वह वनस्पतिकाय का स्वरूप जानकर इस प्रकार विचार करता है:- मैं आत्मकल्याण के लिए उद्यत होकर - दीक्षा लेकर वनस्पतिकाय का आरंभ समारंभ नहीं करूँगा ||
ચૂલાથ-મેધાવી પુરૂષ વિચાર કરે છે−ઠું આત્મકલ્યાણુ માટે તૈયાર થઈને વનસ્પતિકાયના આરભ નહિં કરૂં. જે પુરૂષ સંયમને જાણીને આરંભ કરતા નથી તે આરંભથી ઉપરત છે, તેજ જિનશાસનમાં આરંભથી નિવૃત્ત કહેવાય છે, તેજ
अयुशार वा छे. ॥१॥
ટીકા –શ્રમણ નિગ્રન્થ આદિના ઉપદેશ સાંભળવાથી જેને હૈય અને ઉપાયના વિવેક ઉત્પન્ન થઈ ગયા છે. તે વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપને જાણીને આ अभाशे विचार उरे छे:
હું આત્મકલ્યાણુને માટે ઉદ્યત–તૈયાર થઈને-દીક્ષા લઈને વનસ્પતિકાયના આરંભ સમારંભ ફરીશ નહિં.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ मू. १ वनस्पतिकाययतना
अस्योदेशस्य वनस्पतिकायविपयकतयाऽत्र तच्छदेन वनस्पतिकायसमारम्भः परिगृnd | aa artपतिकायस्वरूपविज्ञानानन्तरं तत्समारम्भवर्जनप्रविज्ञामदर्शनेन ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति प्रतिबोधितम् । यः अभयं नास्ति भयं यस्मात् कस्य चित् प्राणिनः इत्यभयः सर्वप्राणिप्राणत्राणलक्षणः संयमः तं विदित्वा तं वनस्पतिकायसमारम्भं नो कुर्यात् । एषः उपरतः वनस्पतिजीवविषये सर्वधा समारम्भाद् विनिवृत्तः, अत्र अस्मिन् जिनशासने उपरतः प्रोच्यते इत्यन्वयः । तथा एप:पूर्वोक्तलक्षण उपरतः 'अनगारः' इति नोच्यते । अनगारगुणानां संपूर्णतया तत्र सच्चात्, स एवानगारशब्दवाच्योऽस्तीति भावः ।
अथ वनस्पतिकायस्य सम्यग्ज्ञानार्थ मागुक्ताष्टविधद्वाराणि निरूपणी
यह उद्देश वनस्पतिकायसंबंधी है अतः यहाँ 'तत्' शब्द से वनस्पतिकाय का समारंभ लिया जाता है । पहले वनस्पतिकाय का ज्ञान होता है फिर उसके आरंभ का त्याग किया जाता है, यह बतलाकर सूचना की गई है कि मोक्ष, ज्ञान और क्रिया - दोनों से होता है ।
५८५
जिससे किसीभी प्राणी को भय नहीं ऐसा प्राणीमात्र की रक्षारूप संयम अभय कहलाता है । उसे जानकर वनस्पतिकाय का समारंभ न करे । इस प्रकार वनस्पतिकाय के आरंभ से विरत पुरुष जिनशासन में 'उपरत' कहलाता है और वही उपरत पुरुष अनगार है, क्यों कि अनगार के गुण पूर्णरूप से उसीमें पाये जाते हैं ।
वनस्पतिकाय का स्वरूप सम्यक् प्रकार से जानने के लिए पूर्वोक्त आठ
|| देश वनस्पतिठायसंधी है. से अरथी अडि 'तत्' शब्दथी वनस्पतिકાયના સમારંભ લેવામાં આવે છે. પહેલાં વનસ્પતિકાયનું જ્ઞાન થાય છે. પછી તેના આરંભના ત્યાગ કરવામાં આવે છે. એ બતાવીને સૂચના કરવામાં આવી છે કે જ્ઞાન અને ક્રિયા, આ બન્નેથી મેાક્ષ થાય છે.
જેનાથી કાઈ પણ પ્રાણીને ભય થાય નહિ. એ પ્રમાણે પ્રાણીમાત્રની રક્ષાપ સંયમ તે અભય કહેવાય છે. તેને જાણીને વનસ્પતિકાયને સમારભ કરે નહિ. આ પ્રમાણે વનસ્પતિના આરભથી વિરત પુરુષ જિનશાસનમાં ઉપરત’ કહેવાય છે. અને તેજ ઉપરત પુરુષ અનગાર છે. કારણ કે અણુગારના ગુણ પૂર્ણ રૂપથી તેમાંજ લેવામાં આવે છે. વનસ્પતિકાયનું સ્વરૂપ સભ્ય પ્રકારે જાણવા માટે પૂર્ણાંકત આઠ દ્વારેનું નિરૂપણુ
प्र. आ-७४
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आचारावसूत्रे
मूलम् --
तं णो करिस्तामि समुट्टाए मत्ता महमं, अभयं विदित्ता तं मे णो करए, एसोery एत्थोवरए, एस अणगारेति पच्चड़ ॥ सं० १ ॥
छाया-
तं नो करिष्यामि समुत्थाय मत्वा मतिमान्, अमयं विदित्वा तं यो नो कुर्यात्, एप उपरतः अत्रोपरतः, एपः अनगार इति मोच्यते ॥ ० १ ॥
टीका-
मतिमान् = मेधावी श्रमणनिर्ग्रन्यादिदेशनाश्रमणसंजातदेयोपादेयविवेकवानित्यर्थः । मत्वा = वनस्पतिकायस्वरूपं विज्ञाय विभावयति - अहं समुत्थाय आत्मकल्याणार्थमुद्युक्तः सन् मत्रज्यां गृहीत्वा तं वनस्पतिकायसमारम्भं नो करिष्यामीति ।
मूलार्थ --- मेधावी पुरुष विचार करता है - मैं आत्मकल्याण के लिए उद्यत होकर वनस्पतिकाय का आरंभ नहीं करूंगा। जो पुरुष संयम को जानकर आरंभ नहीं करता है वही आरंभ से उपरत है वही जिन शासन में आरंभ से निवृत्त कहलाता है । वही अनगार कहलाता है | सू० १ ॥
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टीकार्य - श्रमण निर्गन्थ आदि का उपदेश सुनने से जिसे हेय और उपादेय का विवेक उत्पन्न हो गया है वह वनस्पतिकाय का स्वरूप जानकर इस प्रकार विचार करता है:- मैं आत्मकल्याण के लिए उथत होकर - दीक्षा लेकर वनस्पतिकाय का आरंभ समारंभ नहीं करूँगा ॥
મૂલા મેધાવી પુરૂષ વિચાર કરે છે હું આત્મકલ્યાણુ માટે તૈયાર થઈને વનસ્પતિકાયના આરંભ નહિં કરૂં. જે પુરૂષ સયમને જાણીને આરભ કરતા નથી તે માર્ભથી ઉપરત છે, તેજ જિનશાસનમાં આરભથી નિવૃત્ત કહેવાય છે, તેજ
गारवा छे. ॥१॥
ટીકા—શ્રમણ નિન્ય અાદિના ઉપદેશ સાંભળવાથી જેને હૈય અને ઉપાદેયના વિવેક ઉત્પન્ન થઈ ગયા છે. તે વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપને જાણીને આ પ્રમાણે વિચાર કરે છેઃ-~
હું આત્મકલ્યાણુને માટે ઉદ્યત–તૈયાર થઈનેન્દ્રીક્ષા લઇને વનસ્પતિકાયના આરંભ સમારંભ કરીશ નહિં.
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आचार चिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ सूं. १ : वनस्पतिकाय सचित्तता ५८७ तथा - वृक्षाः अव्यक्तोपयोग मुखादिमन्तः, अव्यक्तचेतनावत्वात् सुप्तमूच्छितपुरुपवत् । अत्र वनस्पतीनां दृश्यत्वहेतुना जीवशरीरत्वं सिद्ध्यति, ततथ सचित्तत्वम् । अपरञ्चक्षाः सचेतनाः, सर्वत्वगपहरणे मरणात्, अजवत् । वनस्पतिकायस्य सचेतनत्वमग्रेऽपि साधयिष्यते ' से बेमि- इमपि जाइधम्मयं एपि जाइधम्मयं ' इत्यत्र ।
यद्वा -- अव्यक्तोपयोगादीनि कपायपर्यन्तानि जीवलक्षणानि पृथिवी
उपयोग (चेतना) और सुख आदि से युक्त है, क्यों कि उन में अव्यक्त चेतना हैं, जो अव्यक्त चेतनावाला होता है वह अव्यक्त चेतनावाला और सुख आदि चाला होता है, जैसे सुप्त या मूर्च्छित पुरुष ।
इस प्रकार 'दृश्यत्व' हेतु से सिद्ध होता है कि--वनस्पति, नीव का शरीर है और जीव का शरीर होने के कारण सचित्त भी है। इसके अतिरिक्त और भी प्रमाण है । जैसे वृक्ष चेतनावान् है क्योंकि उनकी सारी त्वचा (छाल) हटाने पर उनकी मृत्यु हो जाती है, सारी त्वचा हटाने पर जिस को मृत्यु हो जाती है वह सचेतन ही होता है, जैसे बकरा । वनस्पतिकाय को सचेतनता आगे भी - से वेमि- इमपि जाहधम्मयं एयपि जाइधम्मयं ' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए सिद्ध की जायगी ।
अथवा - अभ्युक्त उपयोग से लेकर कपायपर्यन्त जीव के जो लक्षण पृथ्वी
(ચેતના) અને સુખ આદિથી યુક્ત છે, કેમકે તેમાં અવ્યકત ચેતના છે, જે વ્યકત ચેતનાવાળા હોય છે તે અવ્યકત ચેતનાવાળા અને સુખ આદિવાળા હેાય છે. જેમ સુતેલા અથવા સૂચ્છિત પુરૂષ, આ પ્રકારે ‘દૃશ્યત્વ હેતુથી સિદ્ધ થાય છે કે-વનસ્પતિ જીવનું શરીર છે અને જીવનું શરીર હાવાના કારણે સચિત્ત પણ છે. એની સાથે બીજું પણ પ્રમાણ છે. જેમકે વૃક્ષ ચેતનાવાન છે કેમકે તેની તમામ ચામડી-છાલ કાઢી નાંખવાથી તેનું મૃત્યુ થઈ જાય છે; તમામ છાલ કાઢી નાંખવાથી જેનું મૃત્યુ થઈ જાય છે તે ચેતન
हाय छे. नेवी रीते जरा वनस्पतिायनी येततता भागण पथु-' से बेमि - इमपि जाइम्मयं एपि जाइधम्मयं मा सूत्रनी व्याभ्या उश्ती चमते सिद्ध ४रवामां आवशे.
અથવા અવ્યકત ઉપયેગથી લઇને કષાય સુધી જીવના જે લક્ષણુ પૃથ્વીકાયનાં
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आवारास्त्रे यानि, तत्र लक्षण-मरूपणा-शस्त्रो-पभोगद्वाराणि प्रदर्शयामोऽस्मिन्नुदेशे, शेषाणि तु पृथिवीकायवदवगन्तव्यानि ।
लक्षणद्वारम्ननु कथमिदं विज्ञायते-बनस्पतिकायः सचित्तोऽस्तीति ? उच्यते-युक्त्यागमाभ्यां वनस्पतिकायस्य सचित्तवं निर्णीयते । तथाहि
वृक्षलतादयो जीवशरीराणि दृश्यत्वात् , करचरणादिसमुदायवत् । तथा वृक्षा दयः कदाचित् सचित्ता अपि, जीवशरीत्वात् , करचरणादिसमुदायवदेव । द्वारों का निरूपण करना चाहिए। उनमें से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र और उपभोग द्वार यहाँ बतलाते हैं । शेष द्वार पहले कहे पृथ्वीकाय के समान समझ लेने चाहिए ।
लक्षणद्वारशङ्का-वनस्पतिकाय सचित्त है, यह कैसे जाना जा सकता है !
समाधान-युक्ति और आगम से वनस्पतिकाय की सचित्तता का निर्णय होता है। वह इस प्रकार-वृक्ष और लता आदि जीव के शरीर हैं, क्यों कि वे दृश्य है । जो दृश्य होते हैं वे सब जीव के शरीर होते हैं, जैसे हाथ-पैर आदि । तथा-वृक्ष आदि कभी-कभी सचित भी होते हैं, क्यों कि वे जीव के शरीर हैं, जो जीव के शरार होते हैं वे सचित्त होते हैं, जैसे हाथ-पैर आदि का समूह | तथा-वृक्ष अव्यक्त
કરવું જોઈએ, તેમાંથી લક્ષણ, પ્રરૂપણા, પરિમાણ, શસ્ત્ર અને ઉપગ દ્વારા અહિં બતાવે છે: શેષ–આકીના દ્વાર પ્રથમ પૃથ્વીકાયમાં જે કહ્યાં છે તેના પ્રમાણે સમજી લેવાં જોઈએ.
લક્ષણ દ્વાર– શંકા–-વનસ્પતિકાય સચિત્ત છે, એ કેવી રીતે જાણી શકાય છે?
સમાધાન–યુક્તિ અને આરામથી વનસ્પતિકાયની સરિતાને નિર્ણય થઈ છે શકે છે. તે આ પ્રમાણે છે-વૃક્ષ અને લતા આદિ જીવના શરીર છે, કેમકે તે દશ્ય છે. જે ટચ હોય છે તે સર્વ જીવના શરીર હોય છે. જેવી રીતે હાથ-પગ આદિ. તથા વૃક્ષ આદિ કઈ કઈ વખત સચિત્ત પણ હોય છે, કારણકે તે જીવના શરીર છે. જે જીવનાં શરીર હોય છે તે સચિત્ત હેય છે. જેમ હાથ-પગ આદિને સમૂહ તથા વૃક્ષ અવ્યક્ત ઉપયોગ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ मू. १ वनस्पतिसचित्तता पल्लवफलकुसुमादिरूपो वनस्पतिरपि छेदनादिना म्लायति, तस्माद् वनस्पतिः सचेतन इति सिद्धम् ।
यद्वावनस्पतिर्जीवः, चेतनावचात् , मनुष्यवत् , यथा मनुष्यस्य शब्दादिग्रहणशक्तिरूपा चेतना, तथैव वनस्पती समुपलभ्यते । तथाहि-बकुलादयो गीत-सुरागण्ड्रप-कामिनीचरणताडनादिभिः फलन्ति, शमीलज्जालुप्रभृतिषु च स्वापाययोधसंकोचादयो दृश्यन्ते । शापानुग्रहाम्यामान्तरौ संकोचविकाशौ समस्तवनस्पतीनां भवतः । उक्तञ्च
जाता है उसी प्रकार पत्ता, फल, फूल, आदि वनस्पति भी छेदन-भेदन आदि से मुरझा जाती है, इससे सिद्ध होता है कि वनस्पति सचेतन है।
अथवा---वनस्पति जीव है; क्यों कि चेतनावाली है, जैसे मनुष्य । जैसेमनुष्य आदि में शब्द आदि को ग्रहण करने की शक्तिरूप चेतना है उसी प्रकार वनस्पति में भी शब्द आदि को ग्रहण करने की शक्तिरूप चेतना पाई जाती है। बकुल आदि के वृक्ष गोत, मदिरा का कुल्ला, कामिनी के पैर के ताडन आदि से फलते हैं। शमी तथा लज्जावती आदि में स्वाप, (सोना) अवबोध (जागना) और संकोच (सिकुडना) देखा जाता है । शाप और अनुग्रह से सब बनस्पति में संकोच और विकास होता है। कहा भी है :
આદિથી કરમાઈ જાય છે સુકાઈ જાય છે, આ કારણથી સિદ્ધ થાય છે કે વનસ્પતિ સચેતન છે.
અથવા-~-વનસ્પતિ જીવ છે, કેમકે–ચેતનાવાળી છે, જેમ મનુષ્ય. જેવી રીતે મનુષ્ય આદિમાં શબ્દ આદિને ગ્રહણ કરવાની શક્તિરૂપ ચેતના છે. તે પ્રમાણે વનસ્પતિમાં પણ શબ્દ આદિને ગ્રહણ કરવાની શક્તિરૂપ ચેતના જોવામાં આવે છે. બકુલ આદિ વૃક્ષ ગીત, મદિરાના ગંડૂષ (કેગલ), સ્ત્રીના પગથી થયેલું તાડન આદિથી ફળે છે. શમી તથા લજ્જાવંતી (રીસામણી) આદિમાં સુઈ જવું જાગવું અને સકેચાઈ જવું વગેરે જોવામાં આવે છે. શાપ અને અનુગ્રહથી સર્વ વનસ્પતિમાં સંકેચ અને વિકાસ થાય છે. કહે છે કે
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आचाराङ्गस्त्रे
कायदेशे प्रागभिहितानि तेपां जीवलक्षणानां वनस्पतिकायेऽपि सद्भावाद् वनस्पतिः सचितोऽस्ति, मनुष्यवदिति निर्णीयते ।
अपि च-वनस्पतिः सचेतनः, बालाद्यवस्थासंदर्शनात्, अनुकूलप्रतिकूलाहारादिना पुष्टिकार्यादिदर्शनात् छेदन भेदनादिना म्लानतादिदर्शनाच्च मनुष्य - शरीरवत् ।
यथा मनुष्यशरीरमनुकूलेनाहारादिना पुप्यति, तत्मतिकूलेन तदभावेन च शुष्यति, एवं वनस्पतिरप्यनुकूल जलवातादिभिः पुष्यति प्रतिकूलजलवाता - दिभिश्च शुप्यति । यथा वा छेदनादिना मनुष्यशरीरं हस्तादि म्लायति, तथा काय के उद्देश में पहले कहे गये हैं वे सब वनस्पतिकाय में भी पाये जाते है । इस कारण वनस्पति मनुष्य आदि के समान सचित्त है ।
तथा——वनस्पति सचेतन है, क्यों कि उस में बाल्यावस्था आदि देखी जाती है, अनुकूल आहार से पुष्टि और प्रतिकूल आहार से कृशता आदि दिखाई देती है, और छेदन- मेदन आदि करने से मुरझाना वगैरह देखा जाता है, जैसे
मनुष्य का शरीर |
तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य का होता है और प्रतिकूल आहार से या आहार के अभाव से वनस्पति भी अनुकूल जल-वायु आदि से पुष्ट होती है और सूख जाती है । अथवा जैसे छेदन - भेदन करने से मनुष्य का शरीर हाथ आदि मुरझा ઉદ્દેશમાં પહેલા કહ્યાં છે, તે સવ વનસ્પતિકાયમાં પણ જોવામાં આવે છે. આ કારણથી વનસ્પતિ મનુષ્ય આદિના સમાન સચિત્ત છે.
शरीर अनुकूल आहार आदि से ट सूख जाता है, उसी प्रकार प्रतिकूल जल - वायु आदि से
તથા—વનસ્પતિ સચેતન છે, કેમકે તેમાં બાલ્યાવસ્થા આદિ અવસ્થાએ જોવામાં આવે છે. અનુકૂલ આહારથી પુષ્ટિ અને પ્રતિકૂલ આહારથી કૃશતા—દુખ લતા આદિ દેખાય છે, અને છેદન, ભેદન આદિ કરવાથી મુરઝાઈ જવું-કરમાઈ જવું સુસ્ત કે ખિન્ન થવાપણું વગેરે જોવામાં આવે છે. જેવી રીતે મનુષ્યનું શરીર.
તાત્પર્ય એ છે કેઃ—જેમ મનુષ્યનું શરીર અનુકૂલ આહાર આદિથી પુષ્ટ થાય છે, અને પ્રતિકૂલ માહારથી અથવા તે આહારના અભાવથી સુકાઈ જાય છે તેવી રીતે વનસ્પતિ પણ અનુકૂલ જલ, વાયુ આદિથી પુષ્ટ થાય છે, અને પ્રતિકૂલ જલ વાયુ આદિથી સુકાઈ જાય છે. અથવા જેવી રીતે છેદન-ભેદન કરવાથી મનુષ્યશરીરના હાથ-પગ આદિ કરમાઈ જાય છે. તે પ્રમાણે પાંદડા, ફૂલ, ફૂલ, આદિ વનસ્પતિ પણ છેદન-ભેદન
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५. १ वनस्पतिसचित्तता ५९१ वृक्षलतादयः संकोचमापद्यन्ते, स्तुतिवाक्यैश्च प्रवर्धन्ते, विकसन्ति चेति वनस्पतीनां सचेतनले नास्ति केपाश्चिद् विवादः ।
ये तु मृमा वनस्पतिकायास्ते पशुपा नैव दृश्यन्ते, अतस्तेषां सचित्तत्वं भगवद्वचनमात्रावगम्यमिति तत्रापि श्रद्धा करणीयैव ।
प्ररूपणाद्वारम्वनस्पतिजोवा द्विविधाः-सक्ष्मवादरभेदात् । सक्ष्माः सर्वलोके कज्जलपिकावत् संभृताः । बादरास्तु लोकैकदेशे सन्ति । सूक्ष्माः पर्याप्तापर्याप्तभेदाद्विविधाः ।
चादरा द्विविधा:-प्रत्येकशरीर-साधारणशरीरभेदात् । एकमेकं जीवं संकोच को प्राप्त होते हैं और प्रशंसा करने से बढते, हैं और फूलते हैं अतः वनस्पति की सचित्तता में अब किसी को भी विवाद नहीं है।
सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव आँख से नहीं दिखाई देते । भगवान् के वचनों से हो जाने जा सकते हैं। उन पर श्रद्धा रखनी चाहिए।
प्ररूपणाद्वारवनस्पतिकाय के नीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और चादर । सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में काजल की कुप्पी की तरह भरे हुए हैं। यादर जीव लोक के एक-एक भाग में होते हैं । सूक्ष्म जीवों के भी दो भेद हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त ।
बादर जीव प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर के भेद से दो प्रकार के हैं। સંકેચને પ્રાપ્ત થાય છે અને પ્રશંસા કરવાથી લે છે અને ખિલે છે એ કારણથી વનસ્પતિની સચિત્તતામાં હવે કઈને પણ વિવાદ નથી.
સૂક્ષમ વનસ્પતિકાયના જીવ નેત્રથી જોઈ શકાતા નથી. તે ભગવાનના વચનથી જ જાણી શકાય છે. તેના પર શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ.
વનસ્પતિકાયના જીવ બે પ્રકારના છે. (૧) સૂક્ષ્મ અને બાદર, સૂમ જીવ સમસ્ત લોકાકાશમાં કાજલની કુપીની પ્રમાણે ભરેલા છે. બાદર છવ લોકના એક-એક ભાગમાં હોય છે.
સૂક્ષ્મ જીના પણ બે ભેદ છે. (૧) પર્યાપ્ત અને (૨) અપર્યાપ્ત. બાદર છવ પ્રત્યેક શરીર અને સાધારણશરીરના ભેદથી બે પ્રકારના છે. એકએક જીવ સમ્બન્ધી
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आचाराङ्गसूत्रे
"स्त्रीणां स्पर्शात् मिर्विकसति वकुलः शीधुगण्डप सेकात्, पादाघातादशोकस्तिलककुरवको वीक्षणालिङ्गनाभ्याम् | मन्दा नर्मवाक्यामृहसनाचम्पको वक्त्रत्राताद्, वल्ली गीतान्नमेरुर्विकसति च पुरो नर्तनाद कर्णिकारः " ॥ १ ॥ इति ॥ आगमोsपि --
" वणसई चित्तमं तमक्या अणेगजीवा पुढीसत्ता, अन्नत्थ सत्यपरिणएणं " इति । ( दशचै० )
प्रदर्शितं चाधुनिक वैज्ञानिकैः प्रत्यक्षतया स्वकृतप्रयोगविशेषेण वनस्पतीनां सचित्तत्वम्, यथा- क्रोधादिमुन्नाटयतां तेपां गालीपदानादिभर्त्सनवाक्यतो "प्रियंगु का पेड स्त्रियों के स्पर्श से विकसित होता है, बकुछ मदिरा के कुल्ले से खिल उठता है | अशोक वृक्ष स्त्री के पैर का आघात लगने से खिल जाता है । तिलक वृक्ष स्त्रियों के देखने से, तथा कुरवक उनके आलिंगन से खिल उठता है । मन्दार वृक्ष विनोद्रमय चाक्य सुनकर, चम्पक मृदुहँसी से, वही वक्त्र (मुख) वायु से और नमेरु गीत से विकसित होता है | कनेर का पेंड सामने नाचने से खिल जाता है " ॥१॥
वनस्पति को सचेतनता आगम प्रमाण से भी सिद्ध होती है । दश वैकालिक सूत्र में कहा है- शस्त्रपरिणत को छोड़कर शेष सत्र वनस्पति सचित्त कहो गई है, वह अनेक जीववाली है और उन जीवों की सत्ता पृथक् पृथक् है" ।
आधुनिक वैज्ञानिकोंने अपने प्रयोगों द्वारा प्रत्यक्ष दिखला दिया है कि वनस्पति सचित है । क्रोध आदि करने से गाली देने या भर्त्सना करने से वृक्ष, लता आदि
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પ્રિયંગુના છે. સ્ત્રીઓના સ્પર્શથી વિકસિત થાય છે, ખકુલ મિદરાના કાગળા કરવાથી ખિલી ઉઠે છે. અશેક વૃક્ષ સ્ત્રીના પગને આઘાત લાગવાથી ખિલી ઉઠે છે. તિલક વૃક્ષ સ્રીઓને જેવાથી તથા કુરવક સ્ત્રીઓના આલિંગનથી ખિલી ઉઠે છે, મન્દાર વૃક્ષ વિનેદમય વાકય સાંભળીને, ચમ્પક મૃદુ હાંસીથી, વલ્લી વકત્ર (મુખ) વાયુથી અને નમેરું ગીતથી વિકસિત થાય છે. કનેરને છે. તેના સામે નાચવાથી ખિલે છે,’” ।।૧।
વનસ્પતિની સચેતનતા આગમપ્રમાણેાથી પશુ સિદ્ધ થાય છે. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છે—“ શસ્ત્રથી પરિણત-( છેદાએલી )ને ઈંડીને બાકીની સ* વનસ્પતિ સચિત્ત કહેલી છે, તે અનેક જીવવાળી છે, અને તે જીવાની સત્તા પૃથક્પૃથક્ છે.”
આધુનિક વૈજ્ઞાનિક એ પાતાના પ્રયોગા દ્વારા પ્રત્યક્ષ-પ્રતાવી આપ્યું છે કે વનસ્પતિ સચિત્ત છે. ક્રોધ આદિ કરવાથી, ગાળ દેવાથી અથવા તિરસ્કાર કરવાથી વૃક્ષ, લતા આદિ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३. ५ सू. १ वनस्पतिप्ररूपणा अस्थिक-तिन्दुक-कपित्या-म्बाडक-मातुलिङ्ग-बिल्ला-मलक-पनस-दाडिमादयः ।
एकास्थिकानां बहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलैकजीवमाश्रित्य मूलकन्दस्कन्धवशाखाप्रवालेषु प्रत्येकमसंख्येया जीवाः सन्ति । एको मूलजीवस्तु मूलादिफलपर्यन्तं सर्वावयवं व्याप्य क्षेषु तिष्ठति ।
नन्वेकास्थिकानां बहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलकन्दस्कन्धत्वकशाखादयः मत्येकमसंख्येयजीवाः सन्ति, इति यदुक्तं तत् कथमुपपद्यते, मृलादिफलपर्यन्ता वृक्षाः सर्वेऽप्येकशरीराकारा एवोपलभ्यन्ते, यथा-देवदत्तस्य शरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते तद्वत्, तस्मादेकशरीरात्मका एव दृक्षाः, कथममी मत्येकशरीरा असंख्येयजीचा इति ? उच्यते-- (तंदू) कपिथ (फविठ), अम्बाडक, मातुलिंग, बिल्व, आमला, पनस और दाडिम आदि ।
एकास्थिक और बहुबीजक वृक्षों में मूलके एक जीव के सहारे मूल, कंद, स्कंध, छाल, __ शाखा,और प्रवाल में अलग-अलग असंख्यात जीव हैं। एक मूल जीय, मूल से लेकर फल तक वृक्ष के सभी अवयवों में व्याप्त होकर रहता है।
शंका-एक बीजवाले और बहुत चीज बाले वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, स्वचा, शाखा आदि प्रत्येक असंख्यात जीव वाले हैं, यह कथन सही कैसे हो सकता है ? मूल से लेकर फलपर्यन्त वृक्ष सभी एक शरीराकार ही उपलब्ध होते हैं, जैसे कि देवदत्त का शरीर अखंड एकरूप ही देखा जाता है । अतः वृक्ष एक-एक शरीररूप ही हैं। उन में असंख्यात प्रत्येक किस प्रकार हो सकते हैं ? मस्थिर, ति, पित्य, मा४, मातुमि मिन्नई), पि, (tel), मामा, પનસ અને દાડમ આદિ.
એકાસ્થિક અને બહુબીજક વૃક્ષામાં મૂળના એક જીવના આધારે મૂલ, કંદ, સ્કંધ છાલ, શાખા અને પ્રવાલમાં અલગઅલગ અસંખ્યાત જીવ છે. એક મૂલ જીવ, મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષના સર્વ અવસ્થામાં વ્યાપ્ત થઈને રહે છે.
શકા–એકબીજવાળા અને બહુબીજવાળા વૃક્ષના મૂળ, કંદ, સ્કન્ધ, ત્વચાછાલ, શાખા આદિ પ્રત્યેક અસંખ્યાત છવવાળા છે. આ કથન સાચું છે એમ કેવી રીતે કહી શકાય ? અથવા એ કથન સાચું કેવી રીતે હોઈ શકે?
મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષ સર્વ એક શરીરાકારજ ઉપલબ્ધ થાય છે. જેમકે દેવદત્તનું શરીર અખંડ એકરૂપ જ જોવામાં આવે છે. એ માટે વૃક્ષ એક એક શરીર. રૂપજ છે. તેમાં અસંખ્યાત પ્રત્યેકશરીર કેવી રીતે હોઈ શકે છે?
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भाचाराम मति गतं प्रत्येकम् , प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः । प्रत्येकनामकर्मोदयत्रशादेकैकस्य जीवस्य शरीरमौदारिकं चैक्रियं वा पृथक् पृथग् भवति । एवम्भूता जीवा प्रत्येकशरीरा उच्यन्ते । नारकदेवमनुप्याः, द्वीन्द्रियादयः, पृथिव्यादयः, वृक्षगुच्छादिघनस्पतयश्च मत्पेकशरीरिणः सन्ति । इमे प्रत्येकाः प्रत्येकजीवा अपि कथ्यन्ते ।
प्रत्येकशरीरा द्वादशविधा:-क्ष-गुच्छ-गुल्म-लता-बल्ली-पर्वग-तृण-वलयहरिती-पधि-जलरुह-कुहपभेदात् ।
तत्र वृक्षा द्विविधाः-एकास्थिकाः (एकवीजकाः) बहवीजकाय । तत्रैकास्थिका अनेकविधा:-निम्याम्रजम्यकौशम्यादयः । बहुवीजका अप्यनेकविधा:
एक-एक जीवसंबंधी शरीर प्रत्येकशरीर कहलाता है । प्रत्येकनामकर्म के उदय से एक-एक जीव के शरीर औदारिक और वैक्रिय अलग-अलग होता है। ऐसे अलग-अलग शरीर वाले जीव प्रत्येकशरीर कहलाते हैं-नारक, देव, मनुष्य द्वीन्द्रिय आदि, पृथ्वीकाय आदि तथा वृक्ष, गुच्छ आदि वनस्पतिजीव प्रत्येक शरीरी हैं। इन्हें प्रत्येक और प्रत्येकाव भी कहते हैं।
प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकाय बारह प्रकार के हैं-वृक्ष, गुच्छ गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषध, जलरुह और कुहण |
इनमें वृक्ष दो प्रकार के हैं-एकास्थिक अर्थात् एक बीज वाले और. बहु. बोजक अर्थात् बहुत बीजो वाले । एक बीज वाले नीम, आम, जामन और कौशम्ब आदि अनेक प्रकार के हैं । बहुबीजक भी अनेक प्रकार के हैं । जैसे अस्थिक, तिन्दुक,
શરીર પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. પ્રત્યેકનામકર્મના ઉદયથી એક-એક જીવના શરીર ઔદરિક અને વિક્રિય અલગ-અલગ હોય છે. એવા અલગ-અલગ શરીરવાળા જીવ પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. નારક, દેવ, મનુષ્ય, હીન્દ્રિય આદિ. પૃથ્વીકાય આદિ તથા વૃક્ષ, ગુચ્છ આદિ વનસ્પતિજીવ પ્રત્યેક શરીર છે. તેને પ્રત્યેક અને પ્રત્યેક જીવ પણ કહે છે.
પ્રત્યેક શરીરી વનસ્પતિકાય બાર પ્રકારના છે-વૃક્ષ, ગુચ્છ, ગુલ્મ, લતા, વલી, પર્વગ, તૃણ, વલય, હરિત, ઔષધ, જલહ અને કુહણ.
એમાં વૃક્ષ બે પ્રકારના છે-એકાસ્થિ અર્થાત્ એક બીજવાળા, અને બસ્થિક અર્થાત ઘણાંજ બીજવાળાં. એક બીજવાળા-લીંબડે, આંબે, જાંબુ અને કૌશલ્બ, આદિ અનેક પ્રકારના છે. બહુબીજક એટલે ઘણા બીજવાળા પણ અનેક પ્રકારના છે. જેમકે -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३. ५ सू. १ वनस्पतिनरूपणा ५९३ अस्थिक-तिन्दुक-कपित्या-बाडक-मातलिङ्ग-विल्ला-मलक-पनस-दाडिमादयः ।
एकास्थिकानां बहुचीजकानां च वृक्षाणां मूलैकजीवमाश्रित्य मूलकन्दस्कन्धखशाखाप्रवालेषु प्रत्येक्रमसंख्येया जीवाः सन्ति । एको मूलजीवस्तु मूलादिफलपर्यन्तं सर्वावयवं व्याप्य क्षेषु तिष्ठति । ____ नन्वेकास्थिकानां बहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलकन्दस्कन्धत्वकशाखादयः मत्येकमसंख्येयजीवाः सन्ति, इति यदुक्तं तत् कथमुपपद्यते, मूलादिफलपर्यन्ता वृक्षाः सर्वेऽप्येकशरीराकारा एवोपलभ्यन्ते, यथा-देवदत्तस्य शरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते तद्वत्, तस्मादेकशरीरात्मका एव वृक्षाः, कथममी प्रत्येकशरीरा असंख्येयजीवा इति ? उच्यते-- (तेंदू) कपिथ (फविठ), अम्बाडक, मातुलिंग, बिल्व, आमला, पनस और दाडिम आदि ।
एकास्थिक और बहुवीजक वृक्षों में मूलके एक जीव के सहारे मूल, कंद, स्कंध, छाल, शाखा,और प्रवाल में अलग-अलग असंख्यात जीव हैं । एक मूल जीव, मूल से लेकर फल तक वृक्ष के सभी अवयवों में व्याप्त होकर रहता है।
शंका---एक बीजवाले और बहुत वीज वाले वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, स्वचा, शाखा आदि प्रत्येक असंख्यात जीव वाले हैं, यह कथन सही कैसे हो सकता है ? मूल से लेकर फलपर्यन्त वृक्ष सभी एक शरीराकार ही उपलब्ध होते हैं, जैसे कि देवदत्त का शरीर अखंड एकरूप ही देखा जाता है। अतः वृक्ष एक-एक गरीररूप ही हैं। उन में असंख्यात
प्रत्येक किस प्रकार हो सकते हैं ? . स्थि, तिन्दु, पित्य, मा४, भातुमि (मिन्नई), मिप, (utel), Hai, ૫નસ અને દાડમ આદિ.
એકાસ્થિક અને બહુબીજક વૃક્ષામાં મૂળના એક જીવના આધારે મૂલ, કંદ, સ્કંધ છાલ, શાખા અને પ્રવાલમાં અલગ-અલગ અસંખ્યાત જીવ છે. એક મૂલ જીવ, મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષના સર્વ અવયમાં વ્યાપ્ત થઈને રહે છે.
At tortun भने ममी410 वृक्षोना भूग, ६, २४५, क्याછાલ, શાખા આદિ પ્રત્યેક અસંખ્યાત જીવવાળા છે. આ કથન સાચું છે એમ કેવી રીતે કહી શકાય? અથવા એ કથન સાચું કેવી રીતે હોઈ શકે?
મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષ સર્વ એક શરીરાકારજ ઉપલબ્ધ થાય છે. જેમકે દેવદત્તનું શરીર અખંડ એકરૂપજ જોવામાં આવે છે. એ માટે વૃક્ષ એક એક શરીરરૂપજ છે. તેમાં અસંખ્યાત પ્રત્યેકશરીર કેવી રીતે હોઈ શકે છે?
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पाचाराम प्रति गतं सत्येकम् , प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येक शरीराः । प्रत्येकनामकर्मोदयवशादेकैकस्य जीवस्य शरीरमौदारिकं वैक्रियं वा पृथक पृथग् भवति । एवम्भूता जीवा प्रत्येकशरीरा उच्यन्ते । नारकदेवमनुप्याः, द्वीन्द्रियादयः, पृथिव्यादयः, क्षगुल्छादिघनस्पतयश्च प्रत्येकशरीरिणः सन्ति । इमे प्रत्येकाः प्रत्येकजीया अपि कथ्यन्ते ।
प्रत्येकशरीरा द्वादशविधा:-क्ष-गुच्छ-गुल्म-लता-वल्ली-पर्वग-तृण-वलयहरिती-पधि-जलरुह-कुणभेदात् ।
तत्र वृक्षा द्विविधाः-एकास्थिकाः (एकवीजकाः) बहुवीजकाश्च । तत्रैकास्थिका अनेकविधा:-निम्बाम्रजम्यकौशम्यादयः । बहुवीजका अप्यनेकविधाः--
एक-एक जीवसंबंधी शरीर प्रत्येकशरीर कहलाता है । प्रत्येकनामकर्म के उदय से एक-एक जीव के शरीर औदारिक और वैक्रिय अलग-अलग होता है। ऐसे अलग-अलग शरीर वाले जीव प्रत्येकशरीर कहलाते हैं-नारक, देय, मनुष्य द्वीन्द्रिय आदि, पृथ्वीकाय आदि तथा वृक्ष, गुच्छ आदि वनस्पतिजीव प्रत्येक शरीरी हैं। इन्हें प्रत्येक और प्रत्येकजीव भी कहते हैं।
प्रत्येकशरीरो वनस्पतिकाय बारह प्रकार के हैं-वृक्ष, गुच्छ गुल्म, लता, वल्ली, पवेग, तृण, वलय, हरित, औषध, जलरुह और कुहण ।
इनमें वृक्ष दो प्रकार के हैं-एकास्थिक अर्थात् एक बीज वाले और. बहुबीजक अर्थात् बहुत बीजों वाले । एक बीज वाले नीम, आम, जामन और कौशम्ब आदि अनेक प्रकार के हैं । बहुबीजक भी अनेक प्रकार के हैं। जैसे अस्थिक, तिन्दुक શરીર પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. પ્રત્યેકનામકર્મના ઉદયથી એક-એક જીવના શરીર
ઔદરિક અને ક્રિય અલગ-અલગ હોય છે. એવા અલગ-અલગ શરીરવાળા જીવ પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. નારક, દેવ, મનુષ્ય, હીન્દ્રિય આદિ. પૃથ્વીકાય આદિ તથા વૃક્ષ, ગુચ્છ આદિ વનસ્પતિજીવ પ્રત્યેક શરીર છે. તેને પ્રત્યેક અને પ્રત્યેક જીવ પણ કહે છે.
પ્રત્યેક શરીરી વનસ્પતિકાય બાર પ્રકારના છે-વૃક્ષ, ગુરછ, ગુલ્મ, લતા, વલી, पस, तृप, ११य, ति, भीषध, raR.मने .
એમાં વૃક્ષ બે પ્રકારના છે–એકાસ્થિક અથત એક બીજવાળા અને બથિક અર્થાત્ ઘણાંજ બીજવાળાં. એક બીજવાળ-લીંબડે, આંબે, જાંબુ અને કૌશલ્બ, આદિ અનેક પ્રકારના છે. બહુબીજક એટલે ઘણા બીજવાળા પણ અનેક પ્રકારના છે, જેમકે -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिप्ररूपणा ५९३ अस्थिक-तिन्दुक-कपित्या-म्याडक-मातुलिङ्ग-विल्या-मलक-पनस-दाडिमादयः ।
एकास्थिकानां बहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलैकजीवमाश्रित्य मूलकन्दस्कन्धखशाखाप्रयालेषु प्रत्येकमसन्ध्येया जीवाः सन्ति । एको मूलजीवस्तु मूलादिफलपर्यन्तं सर्वावयचं व्याप्य क्षेषु तिप्ठति ।
नन्वेकास्थिकानां बहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलकन्दस्कन्धत्वकशाखादयः प्रत्येकमसंख्येयजीवाः सन्ति, इति यदुक्तं तत् कथमुपपद्यते, मूलादिफलपर्यन्ता वृक्षाः सर्वेऽप्येकशरीराकारा एवोपलभ्यन्ते, यथा-देवदत्तस्य शरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते तद्वत, तस्मादेकशरीरात्मका एवं वृक्षाः, कथममी प्रत्येकशरीरा असंख्येयजीवा इति ? उच्यते-- (तंदू) कपिन्ध (कविठ), अम्बाडक, मातुलिंग, विल्य, आमला, पनस और दाडिम आदि ।
एकास्थिक और बहुवोजक वृक्षों में मूलके एक जीव के सहारे मूल, कंद, स्कंध, छाल, शाखा,और प्रवाल में अलग-अलग असंख्यात जीव हैं। एक मूल जीव, मूल से लेकर फल तक वृक्ष के सभी अवयवों में व्याप्त होकर रहता है ।
शंका---एक बीजवाले और बहुत बीम वाले वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा आदि प्रत्येक असंख्यात जीव वाले हैं, यह कथन सही कैसे हो सकता है ? मूल से लकर फलपर्यन्त वृक्ष सभी एक शरीराकार ही उपलब्ध होते हैं, जैसे कि देवदत्त का शरीर अखंड एकरूप ही देखा जाता है। अतः वृक्ष एक-एक शरीररूप ही हैं। उन में असंख्यात प्रत्येक किस प्रकार हो सकते हैं ? अस्थि, ति, पित्य, ४, भातुसिंग (मिन्नई), मद, (मtel), मामi, ૫નસ અને દાડમ આદિ.
એકાસ્થિક અને બહબીજક વૃક્ષામાં મૂળના એક જીવના આધારે મૂલ, કંદ, સ્કંધ છલ શાખા અને પ્રવાહમાં અલગ-અલગ અસંખ્યાત જીવ છે. એક મૂલ જીવ, મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષના સર્વ અવયવોમાં વ્યાપ્ત થઈને રહે છે.
At-3मीपणा मने पीaratml वृक्षानी भूग, ४, २४.५, स्वयછાલ, શાખા આદિ પ્રત્યેક અસંખ્યાત જીવવાળા છે. આ કથન સાચું છે એમ કેવી રતિ કહી શકાય ? અથવા એ કથન સાચું કેવી રીતે હેઈ શકે? | મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષ સર્વ એક શરીરાકારજ ઉપલબ્ધ થાય છે. જેમકે દેવદત્તનું શરીર અખંડ એકરૂપ જ જોવામાં આવે છે. એ માટે વૃક્ષ એક એક શરીર. રૂપજ છે. તેમાં અસંખ્યાત પ્રત્યેકશરીર કેવી રીતે હોઈ શકે છે?
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भाधाराने ____ मूलस्कन्धादिपु तेपामसंख्येयानामपि जीवानां प्रत्येकनामकर्मोदयात् पृथक पृथगेव एकैकशरीरसद्भावेन प्रत्येकशरीरत्वं सिध्यति ।
यद्यपि क्षाणां मूलादिपु प्रत्येकमसंख्येया अपि जीवाः परसर विभिन्नशरीराः, तथापि भवलरागद्वेपोपचिततथारूपप्रत्येकनामकर्ममाहात्म्यादव परस्परं समाश्लियाः संमिश्रिता भवन्ति । यथा श्लेपणद्रव्येण मिश्रीकृत्य निर्मितायां खसखसगुटिकायां प्रत्येकमागे स्वस्वसत्तया खसखसवीजानि तिष्ठन्ति । यथा वा-गुडमिश्रितैस्तिलैः कृतायां तिलपटिकायां तिलाः स्वस्वरूपेण वर्तन्ते, तथैव प्रत्येकशरीरा असंख्येयजीवाः मूलकन्दादिषु प्रत्येकं तिष्ठन्ति । साधारण
___ समाधान-मूल और स्कन्ध आदि में उन असंख्यात जीवों के, प्रत्येक नामकमे के उदय से अलग-अलग एक-एक शरीर हैं, अतः वे सब प्रत्येकशरीरा सिद्ध होते हैं।
यद्यपि वृक्षों के मूल आदि में असंख्यात जीव हैं और उन सब के शरीर भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी तीत्र राग-द्वेष के कारण उपार्जित प्रत्येकनामकर्म के प्रभाव से ही वे सब आपस में मिले हुए-से रहते हैं । जैसे किसी चिपकनी चीज में मिलाकर बनाई हुई खसखस की गोली के प्रत्येक भाग में खसखस के बीज अपना अलग-अलग अस्तित्व बनाये रखते हैं, अथवा जैसे गुड मिले तिलों की बनाई हुई तिलपपडी में तिलों के दाने अपने अपने स्वरूप में विद्यमान रहते हैं, उसो प्रकार प्रत्येकशरीरी असंख्यात जाव मूल, कन्द आदि में रहते हैं । साधारणवनस्पति से इन में यह भेद है कि प्रत्येकशरीर
સમાધાન-મૂલ અને સ્કંધ આદિમાં તે અસંખ્યાત જીવન પ્રત્યેકનામકર્મની ઉદયથી અલગ-અલગ એક-એક શરીર છે, તે પણ તીવ્ર રાગ-દ્વેષના કારણે ઉપાર્જિત-પ્રાપ્ત કરેલા પ્રત્યેકનામકર્મના પ્રભાવથી જ તે સર્વ આપસમાં–પરસ્પરમાં મળેલા રહે છે, જેમ કે ચિપકની (ચીકણી-ચોટી જાય તેવી) ચીજમાં મેળવીને બનાવેલી ખસખસની ગોળીના પ્રત્યેક ભાગમાં ખસખસનાં બીજ પિતાનું અલગ અલગ અસ્તિત્વબનાવી રાખે છે. અથવા જેમ ગોળ મેળવેલી તલની તલપાપડી-તલસાંકળીમાં તલના દાણા પિત–પિતાના સ્વરૂપમાં વિદ્યમાન રહે છે, તે પ્રમાણે પ્રત્યેકશરીરી અસંખ્યાત જીવ મૂલ, કંદ આદિમાં રહે છે. સાધારણ વનસ્પતિથી તેનામાં એ ભેદ છે કે -પ્રત્યેકશરીરી
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आचारचिन्तामणि- टोका अध्य. १ उ. ५ . १ वनस्पतिप्ररूपणा
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वनस्पतिभ्यस्त्वेतावान् विशेषः- प्रत्येकशरीराः परस्परं संमिश्रिता अपि भिन्ना एव विष्ठन्ति, साधारणशरीरास्त्वन्योन्यानुविद्धा इति ।
पत्रेषु प्रत्येकं मूलजीवादभिन्न एकैको जीवः । उक्तं हि प्रज्ञापनायामेकास्थिकबहुवीजवृक्षप्ररूपणावसरे-" पत्ता पत्तेयजीविया " इति ।
तथा - तालसरलनालिकेरवृक्षाणां स्कन्धश्चैकजीवः । तदुक्तम्" णाणा विठाणा, रुक्खाणं एगजीविया पत्ता | खंधोवि एगजीवो, ताल - सरल - नाकिएरीणं " |
छाया - नानाविध संस्थानानि, वृक्षणाम् एकजीविकानि पत्राणि । स्कन्धोऽपि एकजीवः, तालसरल नारिकेलानाम् ॥ (प्रज्ञा० )
जीव आपस में मिले हुए भी भिन्न-भिन्न रहते हैं किन्तु साधारणशरीरवाले जीव आपस में अनुविद्ध - एक रूप होकर रहते हैं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येकशरीरी जीवों का शरीर अलगअलग होता है किन्तु इन साधारणशरीरी जीवों का शरीर एक ही होता है ।
पत्तों में मूल जीव से भिन्न एक-एक जीव अलग-अलग होते हैं । प्रज्ञापना सूत्र में एकबीज और बहुबीज वृक्षों की प्ररूपणा करते हुए कहा है- 'पत्ता पत्तेयजीविया' अर्थात् पत्ते प्रत्येक जीव वाले हैं ।
तथा ताल, साल, नालिकेर आदि वृक्षों का स्कन्ध एक जीव है । कहा है
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'नाना प्रकार के आकार वाले वृक्षों के पत्ते प्रत्येकजीव हैं और ताल, सरल arr नारियल के स्कन्ध एकजीव हैं >>
જીવ પરસ્પર મળેલા છતાં પણ ભિન્ન-ભિન્ન રહે જીવ પરસ્પરમાં અનુવિદ્ધ એકરૂપ થઈને રહે છે. છવાનાં શરીર અલગ-અલગ હૈાય છે. કિન્તુ એકજ હાય છે.
છે; પરન્તુ સાધારણ શરીરવાળા તાત્પર્ય એ છે કે પ્રત્યેકશરીરી આ સાધારણશરીરી જીવેનું શરીર
પત્તાં-પાંદડાંમાં, મૃત્યુ જીવથી ભિન્ન એકએક જીવ અલગ-અલગ હોય છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં એકબીજ અને ખડુબીજ વૃક્ષાની પ્રરૂપણા કરતા થકા કહ્યુ` છે કેઃ'पत्ता पत्तेयजीविया' अर्थात् पत्तां प्रत्येक लववाजा है.
"
તથા તાલ, સરલ, નાળિએર આદિ વૃક્ષાનાં સ્કંધ એક જીવ છે. કહ્યું છે કે:-- "नाना अमारना भा४रवाजा वृक्षानां पत्त-यहां अत्येव छे. सने ताटा, સરલ તથા નારિએલના "ધ એકત્ર છે,”
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भाचाराने मूलस्कन्धादिपु तेपामसंख्येयानामपि जीवानां प्रत्येकनामकर्मोदयात् पृथक पृथगेव एकैकशरीरसद्भावेन प्रत्येकशरीरत्वं सिध्यति ।
यद्यपि वृक्षाणां मूलादिपु प्रत्येकमसंख्येया अपि जीवराः परसर विभिन्नशरीराः, तथापि प्रवलरागद्वेपोपचिततथारूपमत्येकनामकममाहात्म्यादेव परस्परं समाश्लिष्टाः संमिथिता भवन्ति । यथा श्लपणद्रव्येण मिश्रीकृत्य निर्मितायां खसखसगुटिकायां प्रत्येकमागे स्वस्वसत्तया खसखसवीजानि तिष्ठन्ति । यथा वा-गुडमिश्रितैस्तिलैः कृतायां तिलपटिकायां तिलाः स्वस्वरूपेण वर्तन्ते, तथैव प्रत्येकशरीरा असंख्येयजीवाः मूलकन्दादिपु प्रत्येकं तिष्ठन्ति । साधारण
समाधान-मूल और स्कन्ध आदि में उन असंख्यात जीवों के, प्रत्येक नामकर्म के उदय से अलग-अलग एक-एक शरीर हैं, अतः वे सब प्रत्येकशरीरा सिद्ध होते हैं।
यद्यपि वृक्षों के मूल आदि में असंख्यात जीव हैं और उन सब के शरीर भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी तीन राग-द्वेष के कारण उपार्जित प्रत्येकनामकर्म के प्रभाव से ही वे सब आपस में मिले हुए-से रहते हैं । जैसे किसी चिपकनी चीज में मिलाकर बनाई हुई खसखस की गोली के प्रत्येक भाग में खसखस के बीज अपना अलग-अलग अस्तित्व बनाये रखते हैं, अथवा जैसे गुड मिले तिलो की बनाई हुई तिलपपड़ी में तिलों के दाने अपने अपने स्वरूप में विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार प्रत्येकशरीरी असंख्यात जीव मूल, कन्द आदि में रहते हैं । साधारणवनस्पति से इन में यह भेद है कि प्रत्येकशरारा "
સમાધાન-–મૂલ અને સ્કંધ આદિમાં તે અસંખ્યાત છના પ્રત્યેકનામકર્મના ઉદયથી અલગ-અલગ એક–એક શરીર છે, તે પણ તીવ્ર રાગ–ષના કારણે ઉપાર્જિત-પ્રાપ્ત કરેલા પ્રત્યેકનામકર્મના પ્રભાવથી જ તે સર્વ આપસમાં–પરસ્પરમાં મળેલા રહે છે, જેમ કેઈ ચિપકની (ચીકણી–ચાટી જાય તેવી ચીજમાં મેળવીને બનાવેલી ખસખસની ગોળીના પ્રત્યેક ભાગમાં ખસખસનાં બીજ પિતાનું અલગ અલગ અસ્તિત્વ બનાવી રાખે છે. અથવા જેમ ગોળ મેળવેલી તલની તલપાપડી–તલસાંકળીમાં તલના દાણા પિત–પિતાના સ્વરૂપમાં વિદ્યમાન રહે છે, તે પ્રમાણે પ્રત્યેક શરીરી અસંખ્યાત જીવ મૂલ, કંદ આદિમાં રહે છે. સાધારણ વનસ્પતિથી તેનામાં એ ભેદ છે કે પ્રત્યેકશરીરી
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Ramaaman
आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.मु. १ वनस्पतिमरूपणा
गुच्छा अनेकविधाः-आढकी-न्ताकी-तुलसी-पिप्पलीमभृतयः । गुल्माःहूस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेता:, तेऽनेकविधा:-सेरिका-नवमालिका-कोरण्टकबन्धुजोक्कादयः । लता अनेकविधा:-पमलता-नागलताऽशोकलताचम्पकलतादयः । यस्य वनस्पतेस्तिर्यक् तथाविधाः शाखाः प्रशास्त्रा वा न प्रसृताः सा लतीच्यते ।
यल्ल्योऽनेकविधा:-पुप्पफली-कूप्माण्डी-कालिङ्गी-तुम्बी- पुपी-कोशातकी -पटोलादयः । पर्वगा अनेकविधाः-इक्षु-वंश-नलवंश-वेतसप्रभृतयः । तृणानिअनेकविधानि-कुशादीनि । वलयानि-ताल-तमाल-केतकी-कदली-कन्दल्या
गुच्छ अनेक प्रकार के हैं। जैसे-अाहर वृत्ताकी, तुलसी, पिप्पली आदि । जिनका तना छोटा हो, कांड बहुत हो और जो पत्तो, फूलों और फलो से युक्त हो उन्हें गुल्म कहते हैं। वे भी कई प्रकार के है। यथा-सेरिका, नवमालिका, कोरण्टक, बन्धुजीवक वगैरह । लताएँ भी अनेक प्रकार की है। जैसे-पाळता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता आदि। जिस वनस्पति की तिरछी अथवा खास तरह की शाखाएँ-प्रशाखाएँ नहीं फैलती वह लता कहलाती हैं।
बल्ली के भी भनेक भेद है । जैसे--पुष्पकली, कूष्माण्डी, कालिंगी, तुम्बी, पुष, ककडी) कोशातकी तथा पटोलादि । पर्वग भी अनेक प्रकार के हैं। जैसे-इश, (सेलरी) वंश, (वास) नलबंदा, वेत आदि । कुश और दूव आदि तृण अनेक प्रकार के होते है। ताल, तमाल, केतकी, कदली, कन्दली आदि वलय
छ भने प्रधान छे. -तु३२, पृrdsी, तुलसी, पिपsी. मा. જેના થડ નાના હોય, કાંડ બહુજ હોય અને જે પત્તાં-ફૂલ અને ફળોથી યુક્ત હોય તેને ગુમ કહે છે. તે પણ ઘણા પ્રકારના છે. જેમ-સેરિકા, નવલિકા, કેરટક, બંધુજીવક વગેરે લતાએ પણ અનેક પ્રકારની છે. જેવી રીતે કે-પઘલતા, નાગલતા. અકલતા, ચમ્પકલતા આદિ. જે વનસ્પતિની તિરછી અથવા ખાસ તહની શાખાઓ-પ્રશાખાઓ ફેલાતી નથી તે લતા કહેવાય છે.
વલ્લીના પણ અનેક ભેદ છે. જેવી રીતે પુષ્પક્લી, માંડી, કાલિંગી, તુમ્બી. ત્રપુજી, કેશાતકી તથા પટેલાદિ. પર્વગ પણ અનેક પ્રકારના છે. જેમ-શેરડી, વાંસ નલવંશ ત આદિ, કુશ-દાભડે અને દૂબ--ધ આદિ તૃણ અનેક પ્રકારના હોય છે. ताल, तमासdsी, ४61-31, ४४क्षी माहिन याय छे.लीय, (diran)
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भचारात्रे
पुप्पेषु अनेकजीवाः- संख्याता असंख्याता अनन्ता वा सन्ति । उक्तश्च - "पुण्फा अणेगजीवा " इति ।
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पुफा जलया थलया, चिंटवा य नालिबद्धा य । संखिज्जम संखिज्जा, बोधव्वाणंतजीवा य " ॥
छाया - पुष्पाणि जलजानि स्थलजानि, हन्तवद्धानि च नालिबद्धानि च । सख्येयानि (संख्येय जीवानि ) असंख्येयानि (असंख्येय जीवानि ) algoयानि अनन्त जीवानि च ॥ (मज्ञा० )
यत्तु " पुष्पाणि चैकजीवानि मन्तव्यानी" - ति शीलाङ्काचार्यैरभिहितं तत् प्रामादिकम् प्रज्ञापनासूत्रविरोधात् ।
फळे मूलजीवमाश्रित्य प्रत्येकं द्वौ द्वौ जीवौ स्तः । दोणि य जीवा फले भणिया " इति प्रज्ञापना वचनात् । वृक्षाः प्ररूपिताः, अथगुच्छादयः प्रोच्यन्तेफूलो में अनेक - संख्यात असंख्यात अथवा अनन्त जीव होते हैं। कहा भी है- "पुरफा अणेगजीचा" फूल अनेक जीव चाले होते हैं ।
"जल में उत्पन्न होने वाले, स्थल में उत्पन्न होने वाले, वृन्तबद्ध या नालि - बद्ध फूल संख्यात, असंख्यात व्यथवा अनन्त जीव वाले समझने चाहिए " | ( मज्ञापनासूत्र )
"फूल एक जीव वाले होते हैं" यह शीलाङ्काचार्य का कथन भूलभरा है, क्यों कि
यह प्रज्ञापनासूत्र से विरुद्ध है ।
फलों में मूल जीव की अपेक्षा प्रत्येक दो-दो जीव हैं । प्रज्ञापना सूत्र में कहा हैफल में दो जीव कहे गये हैं । "
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यहाँ तक वृक्षों का निरूपण किया । अब गुच्छ आदि के विषय में कहते हैंફૂલામાં અનેક સખ્યાત અસંખ્યાત અથવા અનન્તજીવ હોય છે. કહ્યું પણ छे- 'पुरफा अणेगजीवा' " ફૂલ અનેક જીવવાળા હાય છે. ”
જલમાં ઉત્પન્ન થવાવાળાં, સ્થળમાં ઉત્પન્ન થવાવાળાં વૃત્તબદ્ધ અથવા નાલિમાઁ ફૂલ સખ્યાત અસંખ્યાત અથવા અનન્ત જીવવાળાં છે, એમ સમજવુ लेध थे. " ( अज्ञापनासूत्र ).
"
ફૂલ એક જીવવાળાં હોય છે.” આ શીલાંકાચાર્યનું કથન ભૂલભર્યું" છે, કેમકે તેપ્રજ્ઞાપન સૂત્રથી વિરુદ્ધ છે.
ફ્લામાં મૂલ જીવની અપેક્ષા પ્રત્યેક બે-બે જીવ છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં કહ્યું છે
"समां मे व उहेला छे."
અહિં સુધી વૃક્ષનું નિરૂપણ કર્યું" હવે ગુચ્છ આદિના વિષયમાં કહે છેઃ
'
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आचार चिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. ५ . १ वनस्पतिप्ररूपणा
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जातस्तेन तच्छरीरमुत्पादितं, सर्वथा स्वायत्तीकृतं च कथं तत्रान्येषां जीवानामत्रकाशः, नहि देवदत्तशरीरे देवदत्त इवान्येऽपि जीवाः सर्वावयवेषु सदैव परस्परानुप्रवेशपूर्वकं प्रादुर्भवन्ति ?
यद्वा-येनैव तच्छरीरं निष्पाद्य सत्यवकाशे स्वेतरैः सह परस्परानुप्रवेशेन स्वाधीनं कृतं स एव यत्र मधानः स्यात्, ततथ तस्यैव पर्याप्तापर्याप्तव्यवस्था, प्राणापानादियोग्य पुद्गलोपादानं या भवेत् नतु शेषाणाम् ? अत्रोच्यते
नायं प्रश्नो युक्तिपथमारोहति, शङ्काकर्तुर्जिनशासनपरिज्ञानाभावात् । पहल जो जीव उत्पन्न हुआ उसने वह शरीर उत्पन्न किया और उसे पूरी तरह अपना लिया । फिर उस शरीर में दूसरे जीवों को अवकाश किस प्रकार मिल सकता है ? देवदत्त के शरीर में देवदत्त की तरह अन्य जीव भी सब अवयवों में, एक दूसरे में मिलकर उत्पन्न कैसे हो सकते है ?
अथवा जिस
जीवने वह शरीर उत्पन्न करके, अवकाश होने पर अपने से भिन्न अन्य जीवोके साथ मिलकर ग्रहण किया है वही जीव उस शरीर में प्रधान होगा । ऐसी स्थिति में उसी की पर्याप्त और अपर्याप्त की व्यवस्था होगी। वही प्राणापान आदि के योग्य पुलों को ग्रहण करेगा । शेप जीवों के विषय में किस प्रकार यह व्यवस्था हो सकती है ।
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समाधान- यह शंका उचित नहीं कही जा सकती, क्यों कि शंकाकार को जिनशासन का परिज्ञान नहीं है ।
જે જીવ ઉત્પન્ન થયે તેણે તે શરીર ઉત્પન્ન કર્યું' અને તેણે પૂરી રીતે પેાતાનું કરી લીધું. પછી એ શરીરમાં મીન્ત જીવેાને અવકાશ કેવી રીતે મળી શકે છે? દેવવ્રુત્તના શરીરમાં દેવદત્તની પ્રમાણે અન્ય જીવ પણ તમામ અવયવેમાં એક બીજાને મળીને ઉત્ત્પન કેવી રીતે થઈ શકે છે?
અથવા જે જીવે આ શરીર ઉત્પન્ન કરીને અવકાશ મળતાં પાતાનાથી ભિન્ન અન્ય જીવાની સાથે મળીને ગ્રહણ કર્યું છે તે જીવ એ શરીરમાં પ્રધાન થશે. એવી અવસ્થામાં-સ્થિતિમાં એની પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તની વ્યવસ્થા થશે. તેજ પ્રાણુઅપાન આદિના યાગ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરશે. શેષ-બાકીના જીવેના વિષયમાં એ વ્યવસ્થા કેવી રીતે થઈ શકે છે
સમાધાન-આ શંકા યાગ્ય નથી કેમકે-શ ંકા કરનારને જિન, શાસનનું પરિજ્ઞાન નથી.
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चारा
दीनि । हरिवानि - तन्दुलीयक- वस्तुल-माजरपादिका - पालह्यादीनि । ओषध्यःशालि - त्रीहि-गोधूम-यव- बर्जरी - मुद्र- मापादयः । जलरुहाः - उत्पल - पद्म-कुमुदनलिन- पुण्डरीक - शतपत्र - सहस्रपत्र- कोकनदा - रविन्द्र - पनक - पनकचह- शैवालादयः । कुणाः भूमिस्फोटकाssपकाय - सर्पच्छत्रादयः ।
उक्ताः प्रत्येकशरीरा वनस्पतयः । अथ साधारणशरीराः प्ररूप्यन्तेसाधारण नामकर्मोदयादनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं भवति । तस्मात् साधारणमेकं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः ।
ननु कथमनन्तजीवानामेकं शरीरं संभवति, तथाहि - यः खलु प्रथमं कहलाते हैं । तन्दुलीयक, वस्तुल, मार्जारपादिका, पालंकी आदि को हरित कहते हैं शालिनीहि (धान) ओ गेहूँ, जौ, बाजरी, मूग, उडद आदि के पौधे ओषधि कहलाते हैं । उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, पुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र, कोकनद, अरविन्द, पनक, पनकचट्ट, शैवाल आदि को जलरुह कहते हैं । भूमिस्फोटक, आपकाय और सर्पछत्र आदि कुण कहलाते हैं ।
यहाँ तक प्रत्येकशरीर वनस्पति का विवेचन हुआ । साधारणशरीर का प्ररूपण इस प्रकार है
साधारण नामकर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक साधारण होता है । जिनका शरीर साधारण अर्थात् एक हो, वे साधारणशरीर कहलाते है ।
शङ्का- अनन्त जीवों का शरीर एक कैसे हो सकता हो ? क्यों कि पहले
वस्तुस (अथुवा) भाश्याहिश, पालडी (सुवापास) महिने हरित हे छे. शादी, वीडि (धान्य) गेहूं-ध, व, मारो, भग, भड याहि योषधि हवाय छे. उत्पस, पद्म, भुह, नसिन, पुंडरी, शतपत्र, सहसपत्र, ओउनह, अरविह, पनऊ, પનકચક્ર. શૈવાલ આદિને જલરુષ કહે છે. ભૂમિસ્ફટિક, આપકાય અને સર્પ છત્ર આદિ-કુણુ કહેવાય છે.
અહિં સુધી પ્રત્યેક વનસ્પતિનું વિવેચન થયું, સાધારણ શરીરનું પ્રરૂપણ આ પ્રકારે છે— સાધારણનામકમના ઉદયથી અનન્ત જીવેનું એક સાધારણશરીર હાય છે. જેનું શરીર સાધારણુ અર્થાત્ એક ાય તે સાધારણશરીર કહેવાય છે.
શકા—અનન્ત જીવાનાં શરીર એક કેવી રીતે હોઈ શકે છે ? કેમકે પહેલ વહેલે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ नं. १ वनस्पतिप्ररूपणा साहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च।
__ साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एय" ॥ १८॥ (प्रज्ञा० ११५) छाया-साधारणमाहारः, साधारणमानमाणग्रहणं च ।
साधारणनीवानां, साधारणलक्षणमेतत् ।। १८॥ एवं च परस्परानुविद्धानन्तजीवसमूहरूपेण एकशरीरावस्थायिनो जीवाः साधारणशरीरा इति सिद्धम् । एते साधारणजीवशब्देन साधारणशब्देनापि च व्यपदिश्यन्ते।
तेऽनेकविधाः-मुरणकन्द- वाकन्द-शर्कराकन्द - रक्तालु-पिण्डालु - लनपलाण्डु-गृजन-गवेरादयः । वनस्पतेर्मूलसंलग्नो भूम्यन्तगतो भागविशेषः कन्दः । एतेऽनन्तजीवपिण्डस्वरूपाः सन्ति ।
साधारण जीवों का आहार साधारण होता है और साधारण प्राणापान का ग्रहण होता है, इस प्रकार उनका यह साधारण लक्षण कहा गया है " ॥१८॥ (प्रज्ञा० ११५) ___ इस प्रकार सिद्ध हुआ कि एक दूसरे में मिले हुए अनन्तजीवसमूहरूप से एक ही शरीर में रहने वाले साधारण जीव हैं । इन जीवों के लिए 'साधारणजीव' तथा 'साधारण शब्द का भी व्यवहार किया जाता है।
साधारण जीव अनेक प्रकार के होते हैं । जैसे-सूरणकन्द, बजकन्द, शकरकन्द, रताच, पिंडाल, लहसुन, प्याज, गाजर, अदरख आदि । वनस्पति के मूलक साथ
जुडा हुआ और जमीन के अन्दर रहने वाला हिस्सा कंद कहलाता है। ये कंद अनंत - जीवों के पिंड हैं।
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સાધારણ ને આહાર સાધારણ હોય છે અને સાધારણ પ્રાણાયાનનું ગ્રહણ લાય છે. એ પ્રમાણે તેનું આ સાધારણ લક્ષણ કર્યું છે (૧૮)”
આ પ્રમાણે સિદ્ધ થયું કે એક બીજામાં મળેલા અનન્તજીવસમૂહરૂપથી એક જ શરીરમાં રહેવા વાળાં સાધારણ જીવ છે. એ જીવેને માટે “સાધારણ છવ” તથા 1 ‘સાધારણ” શરદને પણ વ્યવહાર કરી શકાય છે.
સાધારણ જીવ અનેક પ્રકારના હોય છે. જેમ-સૂરણકદ, રતાળું, પિંડાળુ, લસણ, ડુંગળી, ગાજર, આદુ આદિ. વનસ્પતિના મૂળની સાથે જોડાએલા અને જમીનની અંદર રહેવાવાળે ભાગ કંદ કહેવાય છે. આ કંદ અનન્ત જેના પિંડ છે.
म.सा.-७६
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eerरामत्रे
साधारण नामकर्मप्रभावादनन्ता अपि जीवा एकस्मिन्नेव काले सदेवोत्पत्तिदेशे तिष्ठन्ति, सदैव पर्याप्त निर्वर्त्तयन्ति, सहैव प्राणापानयोग्यपुद्गलानुपाददते, सदैव व तेषामाहारादिपुद्गलग्रहणम्, तस्मान्न काचिदनुपपत्तिरिति । उक्तञ्च भगवता - " समयं वयंवाणं, समयं तेसि शरीरनिव्वित्ती । समयं आणग्गद्दणं, समयं उस्सानीसासा ॥ १६ ॥ एकस्स उ जं गहणं, चहूण साहारणाण तं चैव ।
जं बहुयाणं गहणं, समासओ तंपि एगस्स ॥ १७ ॥ छाया - समकं व्युत्क्रान्तानां, समकं तेषां शरीर निर्वृत्तिः ।
समकमानग्रहणं, समकमुच्छ्वासनिःश्वासौ ॥ १६ ॥ एकस्य तु यद् ग्रहणं, चहूनां साधारणानां तदेव |
यद् बहुकानां ग्रहणं, समासतस्तदप्येकस्य ॥ १७ ॥ साधारण नामकर्म प्रभाव से अनन्त जीव एक ही काल में साथ हो उत्पत्ति देश में उत्पन्न होते हैं, साथ ही पर्याप्तिया पूर्ण करते हैं, साथ ही प्राणापान के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और साथ ही आहार आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । अत एव इस कथन में तनिक भी अयुक्ति नहीं है । भगवान् ने कहा है
६००
“साथ ही वे जीव उत्पत्तिदेश में आते हैं, साथ ही उनका शरीर बनता है, साथ ही प्राण ग्रहण करते हैं, साथ ही उच्चास-निःश्वास होते हैं (१६) एक जीव जो ग्रहण करता है वह बहुत जीवों के लिए समान होता है और बहुत जीव जो ग्रहण करते हैं वह एक ta के लिए भी होता है (१७)
સાધારણુ નામકમના પ્રભાવથી અનન્ત જીવ એકજ કાલમાં સાથેજ ઉત્પત્તિદેશમાં ઉત્પન્ન થયા છે. સાથેજ પર્યાપ્તિએ પૂર્ણ કરે છે. સાથેજ પ્રાણઅપાનના ચાગ્ય-પુદ્ગલેાને ત્રણ કરે છે, અને સાથેજ આહાર આદિના યાગ્ય પુદ્ગલાને ગ્રહણ કરે છે. એ માટે આ કથનમાં જરાપણ અસ્વાભાવિકતા અથવા અયુકતતા નથી. ભગવાને કહ્યુ છે કે
-
“તે જીવ એક સાથેજ ઉત્પત્તિદેશમાં આવે છે, સાથેજ એનાં શરીરો બને છે, સાથેજ પ્રાણ ગ્રહણ કરે છે. સાથેજ શ્વાસેાસ થાય છે. (૧૬) એક જીવ જે ગ્રહણુ કરે છે તે બધાય જીવા માટે સમાનપણે થાય છે, અને તમામ જીવે જે ગ્રહણ કરે છે તે એક જીવને માટે પણ થાય છે. (૧૭)
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ ३.५ मू. १ वनस्पतिमरूपणा ६०३
आहारतः प्रत्येकवनस्पतिरूपेण दृश्यमाना अपि वनस्पतयोऽनन्तजीवाः सन्ति। तेपां लक्षणमुच्यते--
यस्मिन् मृले भग्ने सति समयकाकारो भो भवति, तत्र नियमतोऽनन्ता जीवा भवन्ति । तथा यस्मिन् स्कन्दे भग्ने संति समश्चनाकारो भगोदृश्यते तत्राप्य नन्ता जीवाः। एवं शेपेषु स्कन्ध-स्वर-शाखा-प्रवाल-पत्र-पुष्प--फल-चीजेप्वपि विज्ञेयम् । ईदृशश्च भन्नः प्रायेणापरिवावस्थायां भवति ।
तथा-यस्य वनस्पतेमध्यगतसारभूतकाष्टापेक्षया बहुलतरा स्थूला त्वम् भवति सा वगनन्तजीवस्वरूपा।
आकार से प्रत्येकवनस्पति के समान दिखाई देने वाली बनस्पतियाँ भी अनन्त जीव वाली होती हैं । उनका लक्षण यह है----
जिसका मूलमाग तोडने पर समान चक्राकार भंग होता है, उसमें नियम से अनंत जीव होते हैं । इसी प्रकार जिसका कन्द भागने पर समान चक्राकार भंग दिखाई दे उसमें भी अनंत जीव होते हैं। यही बात स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीजों के विषय में भी समझनी चाहिए । इस प्रकार के भंग प्रायः सम होते हैं जब वनस्पति कच्ची होती है।
इसके अतिरिक्त जिस वनस्पति के बीच के सारभाग की अपेक्षा छाल वहत मोटो होती है वह छाल भी अनंत जीव वाली होती है ।
આકારથી પ્રત્યેક વનસ્પતિના સમાન-સરખી–દેખાવાવાળી વનસ્પતિ પણ અનન્ત જીવવાળી હોય છે. તેનું લક્ષણ એ છે. કે જેનાં મૂળભાગને તેડવાથી સમાન ચક્રાકાર ભંગ થાય છે, તેમાં નિયમથી અનન્ત જીવ હોય છે. એ પ્રમાણે જેને કદ ભાંગવાથી સમાન એકાકાર ભંગ થયો દેખાઈ આવે તેમાં પણ અનન્ત જીવ હોય છે. એજ વાત કંધ, ત્વચા, શાખા, પ્રવાલ, પત્ર-પાંદડાં, પુષ્પ, ફલ અને બીજોના વિષયમાં પણ સમજવી જોઈએ. આ પ્રકારને ભંગ પ્રાયઃ કયારે થાય છે કે જ્યારે વનસ્પતિ કાચી હોય છે ત્યારે થાય છે.
એના સિવાય જે વનસ્પતિના વચમાં સારભાગની અપેક્ષા છાલ ઘણી જ મોટી હેય છે, તે છાલ પણ અનંતજીવવાળી હોય છે.
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६०२
आचाराने यादरा वनस्पतयः संक्षेपतः पदिवधा:-अग्रवीज-मृलबीज-पर्वबीज-स्कन्धचीन-चीजरुह-संमृच्छिमभेदात् । अग्रे वीज येषां ते-अग्रवीनाः कोरण्टकमभृतयः । मूलमेव वीजं येषां ते मूलवीजाः कदल्यादयः । पर्वणि ग्रन्यो सन्धिभागे पर्व वा वीजं येषां ते पर्ववीजाः इक्षु-वंश-वेत्रप्रभृतयः। स्कन्धः स्थुडं, स एव वीज येषां ते स्कन्धयीजा: अरणि-शल्लकी-स्नुहीमभृतयः । वीजाद् रोहन्ति प्रादुर्भवन्तीति वीजरुहाः शालि-गोधूम-जब-मका-बर्जरीप्रभृतयः। संमूर्च्छन्ति बीजं विनाऽपि दग्धभूमावपि समुद्भवन्तीति संमूञ्छिमाः पृथिवीजलसंयोगमात्रजनितास्तुणविशेषाः ।
वादर वनस्पति संक्षेप में छह प्रकार की हैं-(१) अप्रबीज (२) मूलबीज (३) पर्वबीज (४) स्कन्धबीज (५) बीजरुह और (६) संमि । जिन वनस्पतियोंका बीज आगे रहता है ऐसी कोरण्टक आदि वनस्पतिया अग्रवीज कहलाती हैं । पर्व (पोर-संधिभाग) में जिनका बीज हो, या पर्व ही जिनका बीज हो उन्हें पर्वबीज कहते हैं, जैसे-ईख, घाँस, बेत आदि। स्कंध जिनका बीज हो ऐसी अरणि, शल्लकी, स्नुही (थुहर) वगैरह स्कन्धबीज कहलाती हैं । शाली, गेहूँ, जौ, मक्की, बाजरी वगैरह बीज से उगने वाली वनस्पति को बीजरुह कहते हैं । बीज के विना भी, जली . हुई जमीन आदि में भी पृथ्वी और जल के संयोगमात्र से उत्पन्न होने वाली वनस्पति संमूछिम कहलाती है।
બાદર વનસ્પતિ સંક્ષેપમાં છ પ્રકારની છે– (૧) અઝબીજ, (ર) મૂળબીજ, (3) पी४, (४) २४ी , (५) पी०४२७, (6) संभूभि. 2 वनस्पस्तिमान બીજ આગળ રહે છે એવી કરંટ આદિ વનસ્પતિઓ અબીજ કહેવાય છે. મૂળ એજ જેનું બીજ હેય એવી કદળી આદિ વનસ્પતિઓ મૂળબીજ છે-પર-સંધિભાગ)માં જેનું બીજ હોય તેને પર્વબીજ કહે છે, જેમકે -શેલડી, વાંસ, નેતર આદિ. સ્ક ધ જેનું બીજ હોય તે અરણી શલ્ય, નુહી (ર) વગેરે સ્કંધબીજ કહેવાય છે. શાલી, ઘઉંજવ, મકાઈ, બાજરી વગેરે બીજથી ઉગવા વાળી વનસ્પતિને બીજરૂહ કહે છે. બીજ વિના પણ બળી ગએલી જમીન આદિમાં પણ પૃથ્વી અને જલના સંગમાત્રથી ઉત્પન્ન થવા વાળી વનસ્પતિ તે સંમૃમિ કહેવાય છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ सु. १ वनस्पतिप्ररूपणा
६०५
गूढ़ शिराकमिति = गूढाः=अलक्ष्यमाणाः शिरा = नाडीनाले तन्तुजालमिति वा यस्य तत् । प्रणष्टसंधीति - प्रणष्टः = सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणः सन्धिःपत्रद्वय संयोगरूपा भागो यस्य तत् । एवा पत्र सक्षीरं = सदुग्धम्, निःक्षीरम्=अनुत्पन्न दुग्धं वा तदनन्तजीवं विजानीत्यर्थः ।
एवमन्येऽप्यनेकविधाः शैवालादयोऽनन्तजीवाः स्वयुद्धचा गुरुगमेन वा परिभावनीयाः । विस्तरतस्तु जिज्ञासुभिः प्रज्ञापनासूत्रं विलोकनीयम् ।
सूक्ष्मनिगोदास्तु भगवद्वचनावगम्या एव, अनन्तशरीरसंघाते सत्यप्यतिमृक्ष्मवानास्माकं चक्षुःपथेऽवतरन्ति । " आणागिज्झा एए चक्खुप्फास न ते इति " इति वचनात् । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां सदृष्टान्तं निगोदजीवस्वरूपं, यथा
इसी प्रकार सेवार आदि अन्यान्य वनस्पतियों को भी अपनी बुद्धि से या गुरुगम से अनंतजीववाली समझ लेनी चाहिए । जिन्हें विस्तारपूर्वक जानना हो उन्हें प्रज्ञापनासूत्र देखना चाहिए ।
सूक्ष्म निगोद भगवान् के वचन से ही समझे जा सकते हैं। एक शरीर में अनंत जीवों का पिण्ड होने पर भी वे जीव इतने सूक्ष्म होते है कि हम अपने नेत्रों से (आगम) उन्हें नहीं देख सकते। कहा भी है- "ये जीव सर्वज्ञका आज्ञा से ही ग्रहण किये (जाने) जाते हैं । आखे उन्हें नहीं देख सकती" । प्रज्ञापना सूत्र में उदाहरण के साथ निगोद का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
એ પ્રમાણે સેવાળ આદિ જૂહી-જૂદી વનસ્પતિઓને પણ પેાતાની બુદ્ધિથી અથવા ગુરુગમથી અનંતજીવવાળી સમજી લેવી જોઈએ, જેને વિસ્તારપૂર્વક જાણુવાની ઈચ્છા હેય તેઓએ પ્રજ્ઞાપનાસૂત્ર જોઈ લેવું જેઈ એ.
સૂનિગેાદ ભગવાનના વચનથી જ સમજી શકાય છે ( જાણી શકાય છે). એક શરીરમાં અનંત જીવેાના પિંડ હાવા છતાં પણ તે જીવ એટલા સૂક્ષ્મ હોય છે કે આપણે આપણા નેત્રથી તેને જોઈ શકતા નથી. કહ્યું પણ છે કેઃ “તે જીવ સર્વજ્ઞની આજ્ઞા (આગમ)થી જ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે-જાણવામાં આવે છે, નેત્રથી તે જોઈ શકાતા નથી. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં ઉદાહરણની સાથે નિાદનું સ્વરૂપ પ્રમાણે બતાવ્યું છે
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६०४
आचारायचे तथा-किसलयरूपे पनाहरे उद्गम्यमाने नियमतोऽनन्ता जीवा भवन्ति । उक्तञ्च मज्ञापनायां प्रथमपदे।
"सन्योऽवि किसलओ खल, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ." इत्यादि । छाया-सर्वोऽपि किसलयः खलु उद्गच्छन् अनन्त भगितः इत्यादि । वनस्पतिभिंद्यमानः पृथिवीसशेन मेदेन भिद्यते, सोऽप्यनन्तजीवस्वरूपः । अन्यञ्च
"गूढसिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छोरं । जंपि य पटणसंधि, अणंतजीवं वियाणाहिं ॥१॥" इति । (प्रज्ञा०) छाया---गूढशिराकं पत्रं, सक्षीरं यच भवति निःक्षीरम् । यदपि च प्रणप्टसन्धि, अनन्तजीव विजानीहि ॥१॥ इति ।
तथा-कौं पल जब उत्पन्न होती है तो उसमें भी अनंत जीव होते है । प्रज्ञापना के पहले पदमें कहा है-~
" उगते हुए सभी किसलय अनंतकाय कहे गये हैं।"
जिस वनस्पति की ग्रंथि या पोर, तोडनेपर रज से भरी हो, या जो वनस्पति, टूटने पर पृथ्वी के समान भेदों से टूटे, वह भी अनंतजीववाली होती है ।
और भी कहा है:___ "जिस के तंतु साफ दिखाई न देते हो, तथा जिसकी संधि बिलकुल दिखाई न देती हो ऐसा पता, अगर दूधवाला हो या उसमें दूध उत्पन्न न हो, उसे भी अनंतजीववाला समझना चाहिए"।
તથા–કુંપળ જ્યારે ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે તેમાં પણ અનંત જીવ હોય છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પ્રથમ પદમાં કહ્યું છે કે –
ઉગતાં હોય તે સર્વ કિશલય (પલ્લવ તાજાં કુમળા પાનને સમૂહ) मनन्ताय ४ह्यां छ."
જે વનસ્પતિની ગ્રંથિ-ગાંઠ અથવા પિર, તેડવાથી રજથી ભરેલી, હોય અથવા જે વનસ્પતિ, તૂટવાથી પૃથ્વીના સમાન ભેદોથી તૂટે તે પણ અનંત છવાવાળી હોય છે. બીજું પણ કહ્યું છે કે –
જેના તંતુઓ ખાં દેખાતાં ન હોય, તથા જેની સંધિ (સાંધા) બીલકુલ દેખાતી હેય નહિ, એવાં પાંદડા દૂધવાળાં હોય અથવા એમાં દૂધ ઉત્પન હેય નહિ, તેને પણ અનંત-જીવ વાળા સમજવા જોઈએ.”
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. ५ मृ. १ वनस्पतिमरूपणा
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गूढ शिराकमिति = गृहाः = अक्ष्यमाणाः शिरा = नाडीजालं तन्तुजालमिति वा यस्य तत् । प्रणष्टसंघीति-प्रणष्टः = सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणः सन्धिः = पत्रद्वयसंयोगरूपो भागो यस्य तत् । एतादृशं पत्रं सक्षीरं सदुग्धम्, निःक्षीरम् - अनुत्पन्न दुग्धं वा तदनन्तजीवं विजानीहीत्यर्थः ।
एवमन्येऽप्यनेकविधाः शैवालादयोऽनन्त जीवाः स्वद्धया गुरुगमेन वा परिभावनीयाः । विस्तरतस्तु जिज्ञासुभिः प्रज्ञापनासूत्रं विलोकनीयम् ।
सूक्ष्मगोदास्तु भगवद्वचनावगम्या एव अनन्वशरीरसंघाते सत्यप्यतिमूक्ष्मवानास्माकं चक्षुःपथेऽवतरन्ति । " आणागिज्या एए चक्खुण्फास न ते इंति " इति वचनात् । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां सदृष्टान्तं निगोदजीवस्वरूपं, यथा
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इसी प्रकार सेवार आदि अन्यान्य वनस्पतियों को भी अपनी बुद्धि से या गुरुगम से अनंतजीववाली समझ लेनी चाहिए । जिन्हें विस्तारपूर्वक जानना हो उन्हें प्रज्ञापनासूत्र देखना चाहिए ।
सूक्ष्म निगोद भगवान् के वचन से ही समझे जा सकते हैं। एक शरीर में अनंत जीवों का पिण्ड होने पर भी वे जीव इतने सूक्ष्म होते है कि हम अपने नेत्रों से (आगम) उन्हें नहीं देख सकते। कहा भी है- "ये जीव सर्वज्ञकी आज्ञा से हो ग्रहण किये (जाने) जाते हैं । आखे उन्हें नहीं देख सकती" । प्रज्ञापना सूत्र में उदाहरण के साथ निगोद का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है---
એ પ્રમાણે સેવાળ આદિ જૂદી-જુદી વનસ્પતિઓને પણ પાતાની બુદ્ધિથી અથવા ગુરુગમથી અને તજીવવાળી સમજી લેવી જોઈએ, જેને વિસ્તારપૂર્વક જાણવાની ઈચ્છા હેાય તેઓએ પ્રજ્ઞાપનાસૂત્ર જોઈ લેવું જોઈ એ.
સૂનિગેાદ ભગવાનના વચનથી જ સમજી શકાય છે ( જાણી શકાય છે). એક શરીરમાં અનંત જીવાના પિંડ હાવા છતાં પણ તે જીવ એટલા સૂક્ષ્મ હોય છે કે આપણે આપણા નેત્રથી તેને જોઈ શકતા નથી. કહ્યુ પણ છે કે-તે જીવ સર્વૈજ્ઞની આજ્ઞા (આગમ)થી જ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે-જાણવામાં આવે છે, નેત્રથી તે જોઈ શકાતા નથી, ” પ્રજ્ઞાયનાસૂત્રમાં ઉદાહરણની સાથે નિગેાદનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે બતાવ્યુ છે
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आचारासूत्र "जह अयगोलो धंतो, जाओ तत्ततयणिजसंकासो ।
सव्यो अगणिपरिणओ, निगोअनीवे तदा जाण" ॥ १ ॥ इति । छाया~यथाऽयोगोलो ध्मातो, जातस्तप्तवपनीयसंकाशः ।
सर्वोऽग्निपरिणतो, निगोनीयान् तथा जानीहि ॥ १ ॥ यथा-अयोगोलोऽग्निना ध्मातः तप्तसुवर्णसदृशः साशतोऽग्निपरिणतोऽग्निरूप एव भवति हे शिष्य ! तथैव निगोदजीवान् जानीहि । निगोदजीवानां परिमाणस्वरूपमेव विज्ञेयम्-~
अयं लोकश्चतुर्दशरज्जुपरिमितोऽस्ति । एको रज्जुरसख्यातयोजनात्मकः, योजन संख्यातागुलपरिमितम् , एकमशलमसंख्याताकाशमदेशात्मकं भवति । तस्याशजस्यैकैकाकाशमदेशे निगोदानामसंख्यावा गोलकाः, एकैस्मिन् गोलके निगोदानामसंख्यातानि शरीराणि, एकैकस्मिश्च शरीरेऽनन्ता जीवा निवसन्ति । उक्तश्च
"जैसे अग्नि में तपाया हुआ लोहे का गोला तपे सोने के समान पूर्णतया अग्निरूप ही हो जाता है; हे शिष्य । उसी प्रकार निगोद के जीव समझो" । निगोद जीवों का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिए-~
लोकाकाश चौदह राजू का है । एक राजू में असंख्यात योजन होते हैं और संख्यात अंगुल का एक योजन होता है । आकाश के असंख्यात प्रदेश-परिमित एक अंगुल होता है । इस अंगुल के एक-एक आकाश प्रदेश में निगोद जीवों के असंख्यात गोले होते हैं। एक-एक गोलक में असंख्यात शरीर होते हैं और एक-एक शरीर में अनन्त जीवों का नियास है । कहा भी है
જેમ અનિમાં તપાવેલ લોઢાને ગોળ તપેલા સોના-પ્રમાણે પૂર્ણપણે અગ્નિરૂપ જ થઈ જાય છે, હે શિષ્ય ! એ પ્રમાણે નિગદના જીવ સમજે.” નિગદના જીનું પરિમાણુ-એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ–
લકાકાશ ચૌદ રાજુને છે. એક રાજૂમાં અસંખ્યાત જન થાય છે, અને સંધ્યાત અંગુલને એક જન થાય છે. આકાશના અસંખ્યાતપ્રદેશ–પરિમિત એક અછાલ હોય છે. એ અંગુલના એક-એક આકાશપ્રદેશમાં નિગોદ જીવન અસંખ્ય ગોળા હોય છે. એક–એક ગેલકમાં અસંખ્યાત શરીર હોય છે અને એક-એક શરીરમાં અનન્ત છને નિવાસ છે. કહ્યું પણ છે–
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आवारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. ५ मृ. १ वनस्पतिप्ररूपणा
"गोला य असंखिज्जा, हुंति निगोया असंख्या गोले । एक्केको य निगोओ अनंतजीवो मुणेयन्वो " ॥ १ ॥
1
छाया - गोलाच असंख्येयाः भवन्ति निगोदा असंख्येया गोले । her निगोद, अनन्त जीवो ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ इति ।
६०७
artereditara daसकार्मणे द्वे द्वे शरीरे पृथक पृथक स्तः । तदेकैकं शरीरमनन्तज्ञानावरणीयादियाचदनन्तान्तरायकर्मणां वर्गणाभिः संयुक्तं वर्तते । सा चैकैका वर्गणानन्तमक्ष्मपरमाणुमयो भवतीति मृक्ष्मत्वं निगोदजीवानां सिद्धम् ।
ये च शरीरयाङ्गुला संख्येय भागशरीरादिभेदाः पृथिवीकायोद्देशेऽभिहितास्ते वनस्पतिकायानामपि बोध्याः, केवलमनित्थंस्थम् = अनियताकारं शरीरसंस्था"अंगुल के एक प्रदेश में असंख्यात गोले, एक गोले में असंख्यात निगोदशरीर और एक-एक निगोदशरीर में अनंत जोव जानने चाहिए" ॥१॥
निगोद में रहने वाले हरेक जीव के अलग-अलग तैजस और कार्मण शरीर होते हैं, और प्रत्येक शरीर अनन्त ज्ञानावरणीय आदि तथा अनन्त अन्तराय कर्मों को वर्गगाओं से संयुक्त है, वह एक वर्गगा अनन्तसूक्ष्मपरमाणुरूप होती है । इस कथन से निगोदिया जीवो की सूक्ष्मता सिद्ध होती है ।
पृथिवीकाय के उद्देश में तीन शरीर तथा अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना आदि का कथन किया है, वह वनस्पतिकाय के लिए भी समझना चाहिए । यहाँ विशेष बात यह है कि वनस्पति जीवों के शरीर का आकार अनियत होता है ।
“ગુલના એક આકાશપ્રદેશમાં અસંખ્યાત ગાળા, એક ગાળામાં અસંખ્યાત નિગેાદ-શરીર અને એક-એક નિગેાદ શરીરમાં અનન્તજીવ જાણવા જોઈ એ.” ૧૫
નિગેાદમાં રહેવા વાળા દરેક જીવને અલગ-અલગ તૈજસ અને કાણુ શરીર હાય છે, અને પ્રત્યેક શરીર અનન્ત જ્ઞાનાવરણીય આદિ તથા અનન્ત અન્તરાય કર્મોની વણાએથી સંયુક્ત છે. તે એક વણ્ણા અનન્તસૂમપરમાણુરૂપ હોય છે. આ વચનથી નિગેદના જીવાની સૂક્ષ્મતા સિદ્ધ થાય છે.
પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં ત્રણુ શરીર તથા ગુલના અસંખ્યાતમા ભાગની અવગાહતા આદિનું નિરૂપણ કર્યું" છે. તે વનસ્પતિકાય માટે પણ સમજી લેવું ોઇએ. વિશેષ વાત એ છે કેઃવનસ્પતિના જીવેાના આકાર અનિયત (નિયમનગરને) હોય છે.
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आचारागस नमेपाम् , शेपमन्यत् समानम् । एपां स्थानं घनोदधिवातयलयादि । संख्यामङ्गीकृत्यानन्ताः सर्वे वनस्पतयः।
एवं वनस्पतीनां वृक्षादिभेदः मत्येकसाधारणभेदैः, तथा-वर्णगन्धरससर्शमेदेश्व सहस्रशो मेदा भवन्ति । योन्यादिभेदैः पुनर्लक्षशो मेदा जायन्ते ।
वनस्पतेर्योनिः संवृता भवति । तस्याः सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन यो भेदाः, तथा शीतोष्णमिश्रभेदेन त्रयो भेदाः । एवं गणनया प्रत्येकवनस्पतियोनीनां दशलक्ष संख्यका भेदा मवन्ति । साधारणवनस्पतीनां चतुर्दशलक्षसंख्यका भेदा जायन्ते । शेष सब पूर्ववत है। इन का स्थान घनोदधियातवलय आदि हैं। संख्या की अपेक्षा पूर्वोक्त सब प्रकार की वनस्पति-संख्या अनन्त है। __. घृक्ष आदि के भेदों की अपेक्षा, प्रत्येक साधारण की अपेक्षा तथा वर्ण, रस गंध और स्पर्श के भेद की अपेक्षा वनस्पति के हजारों भेद होते हैं । योनि आदि के मेदों की अपेक्षा विचार किया जाय तो लाखों भेद हो जाते हैं ।
वनस्पति की योनि संवृत है । संवृतयोनि सचित्त, अचित्त, और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की होती है। शीत, उष्ण तथा मिश्र के भेद से भी तीन प्रकार की है। इस प्रकार गणना करने से प्रत्येकवनस्पति की दस लाख योनिया है । साधारणवनस्पति की योनिया चौदह लाख हैं।
બાકી તમામ પૂર્વ પ્રમાણે છે. એનું સ્થાન ઘનાદધિવાતવલય આદિ છે. સંખ્યાની અપેક્ષા પૂર્વોક્ત સર્વ પ્રકારની વનસ્પતિ–સંખ્યા અનન્ત છે.
વૃક્ષ આદિના ભેદની અપેક્ષાએ, પ્રત્યેક-સાધારણ અપેક્ષાએ તથા વર્ણ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શના ભેદની અપેક્ષાએ વનસ્પતિના હજારે ભેદ થાય છે. ચાનિ આદિના ભેદની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે લાખે ભેદ થઈ જાય છે. વનસ્પતિની નિ સંવૃત છે. સંવૃતનિ સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની હેય છે અને શીત ઉsણ તથા મિશ્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની છે. આ પ્રમાણે ગણના કરવાથી પ્રત્યેકવનસ્પતિની દસ લાખ એનિઓ છે, અને સાધારણુંવનસ્પતિની ચનિએ ચૌદ લાખ છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू.१ वनस्पतिमीवपरिमाणम् ६०९
परिमाणद्वारम्-~~ उक्तं मरूपणाद्वारम् । परिमाणद्वारमुच्यते--पर्याप्तवादराः प्रत्येकवनस्पतिजीराः पिण्डीभूत--चतुष्कोणीहत-लोकश्रेण्यसंख्येयभागवाकाशपदेशराशिममाणाः, वादरपर्याप्ततेजस्कायजीवराशेश्वासंन्यातगुणाः सन्ति ।
अपर्याप्तवादराः प्रत्येकवनस्पतिजीवास्तु असंख्यातानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः सन्ति । इमेऽप्यपर्याप्तवादरतेजस्कायजीवराशिवश्वाऽसंख्यातगुणाः । प्रत्येकवनस्पतयः सूक्ष्मा न सन्ति, शास्त्रेऽनुपादानाद ।
साधारणवनस्पतिजीवा:-मुक्ष्मवादरपर्याप्तमेदेश्चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगनन्तानां लोकानां यावन्तः मदेशास्तावन्त इति । अत्रायं विशेषः
परिमाणहारप्ररूपणाद्वार हुआ । अब परिमाणद्वार कहते हैं-पर्यासवादर--प्रत्येकवनस्पति जीव चौकोन की हुई लोकश्रेणी के असंख्यातवें भागवत्ती आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं, और चादरपर्याप्ततेनरकाय के जीवों से असंख्यातगुणे हैं। असंख्यात लोककाशों के प्रदेशों की बराबर अपर्याप्त वादर प्रायेकवनस्पतिकाय के जीव हैं, और ये भी अपर्याप्तबादरतेजस्काय के जीवों से असंख्यात गुने हैं । प्रत्येक वनस्पति में सूक्ष्म जीव नहीं होते, क्यों कि शास्त्र में कहीं उनका उल्लेख नहीं है।
साधारण वनस्पति के जीव सूदम, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के मेद से चार प्रकार के हैं। इन चारों राशियों में से प्रत्येकजीवराशि की संख्या अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों के वरावर है । इसमें इतनी विशेषता समझ लेनी चाहिए----
પરિમાણ દ્વાર– પ્રરૂપણાકાર થયું. હવે પરિમાણુદ્વાર કહે છે-પર્યાપ્તબાદરપ્રત્યેક વનસ્પતિ જીવ, ચતુષ્કોણ કરેલી કણિના અસંખ્યાતમા ભાગવર્તી આકાશપ્રદેશોની રાશિ-ઢગલાના બરાબર છે અને બાદરપર્યાપ્તતેજરકાયના જીથી અસંખ્યાતગણું છે, અસંખ્યાત
કાકાના પ્રદેશોની બરાબર અપર્યાપ્તબાદર પ્રત્યેક વનસ્પતિકાયના જીવ છે. અને તે પણ અપર્યાપ્તબાદર તેજસ્કાયના જીથી અસંખ્યાતગણુ છે. પ્રત્યેક વનસ્પતિમાં સહમજીવ નથી, કેમકે–તેને શાસ્ત્રમાં કઈ સ્થાને ઉલેખ નથી.
સાધારણ વનસ્પતિના જીવ સૂફમ, બાદર, પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના છે. આ ચારેય રાશિઓમાંથી પ્રત્યેક જીવરાશિની સંખ્યા અનન્ત કાકાશના પ્રદેશોની બરાબર છે. તેમાં એટલી વિશેષતા સમજી લેવી જોઈએ–
प्र. मा.-७७
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भावाराने साधारणवादरपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्ता असंख्यातगुणाः । तेभ्योऽपि सूक्ष्मपर्याप्तका असंख्यातगुणा विज्ञेया इति ।
सूक्ष्मानन्तजीवानां परिमाणं कियदिति सदृष्टान्तमुच्यते-यथा-कश्चित् मस्यादिमापकवस्तुना धान्यराशि परिमाप्याभ्यत्र निक्षिपति, तथा यदि साधारणसूक्ष्मजीवराशि लोकरूपमस्थेन मापयेत् लोका संभृता भवेयुः ।
पर्याप्तवादरनिगोदपरिमाणं च यथा--
घनीभूतचतुरस्त्रीकृतसकललोकमतरस्यासंख्येयमागवर्तिपदेशराशिप्रमाणाः पर्याप्तकवादरनिगोदाः सन्ति, ते प्रत्येकशरीर-चादरवनस्पति-पर्याप्तकेन्यो
साधारणबादरपर्याप्त जीवों को अपेक्षा बादर अपर्याप्त असंख्यातगुणा हैं। बादरपर्याप्त की अपेक्षा सूक्ष्म-अपर्याप्त असंख्यातगुणा है और सूक्ष्म-अपर्याप्त उनसे भी असंख्यातगुणा हैं।
सूक्ष्म अनन्त जीवों का परिमाण कितना है, यह बात दृष्टान्त देकर समझाते हैंजैसे कोई पुरुप प्रस्थ (सर) आदि बाँटों से धान्य तोलकर दूसरी जगह रख देखा है, उसी प्रकार यदि साधारणसूक्ष्मजीवराशि को लोकरूपी प्रस्थ से नापा जाय तो अनंत लोक भर जाएँ।
पर्याप्त बादर निगोद जीवों का परिमाण इस प्रकार का है
चौकोर (चतुष्कोण) धन किये हुए सम्पूर्ण लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवतो प्रदेशों के बराबर पर्याप्तबादरनिगोद जीव हैं। वे प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पति
સાધારણુપર્યાપ્ત જીવોની અપેક્ષા બાદરઅપર્યાપ્ત અસંખ્યાતગણું છે. બાદરપર્યાપ્તની અપેક્ષા સૂક્ષ્મ-અપર્યાપ્ત અસંખ્યાતગણુ છે અને સૂક્ષ્મ-અપર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાતગણુ છે. . સૂકમ અનન્ત જેનું પરિણામ કેટલું છે. એ વાત દાન આપીને સમજાવે: છે જેમ કેઈ પુરુષ પ્રસ્થ (તેંળવાનું વજન ૧ શેર) આદિ તેલવાના બાંટવજનથી. ધાન્ય તેળીને બીજી જગ્યાએ રાખી દે છે તે પ્રમાણે જે સાધારણ સૂકમ જીવરાશિને લોકરૂપી પ્રસ્થથી તોળવામાં આવે તે અનંત લેક ભરાઈ જાય.
પર્યાપ્તબાદરનિગદ નું પરિમાણુ આ પ્રકારે છે–ચતુષ્કોણ ઘનં કરેલા સપૂર્ણ લોકપ્રતરના અસંખ્યાતમા-ભાગર્જા પ્રદેશોની બરાબર પર્યાપ્તબા રનિગદ જીવ છે.
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. ५ . १ वनस्पतिजीवपरिमाणम्
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संख्येयगुणाः । शेपास्त्रयः - अपर्याप्तवादरनिगोदाः, अपर्याप्तमुक्ष्मनिगोदाः, पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदाश्व प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः क्रमशो बहुतरकाः सन्ति । साधारणजातेभ्यो निगोदपरिमाणेभ्योऽनन्तगुणाः सन्तीति बोध्यम् ।
यदि लोकाकाशस्यैकैकस्मिन् प्रदेशे एकैकः प्रत्येकवनस्पतिजीवः स्थाप्यते, हि असंख्याता लोका भ्रियन्ते । यदि तु लोकाकाशस्यैकैकस्मिन् प्रदेशे एकैको निगोदजीवः स्थाप्यते, वहि अनन्ता लोका भ्रियन्ते ।
उक्तञ्च प्रज्ञापनायाम् - १ पदे ।
"लोगागासपरसे, परितजीवं ठवेद्दि एक्केकं ।
एवं वेज्जमाणा, हवंति लोगा असंखिज्जा " ॥ १ ॥
पर्याप्त जीवों से असंख्यातगुणा हैं। शेष तीन अर्थात् अपर्याप्तवादरनिगोद, अपर्याप्तसूक्ष्मनिगोद और पर्याप्त सूक्ष्मनिगोद असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर हैं, और क्रमशः अधिकअधिक संख्या में हैं । साधारण जीव इन से अनन्तगुणा हैं ।
यदि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक प्रत्येक वनस्पति के जीव स्थापित किये जायें तो असंख्यात लोक भर जाएँ, और यदि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एकएक निगोदिया जीव रक्खे जायें तो अनन्त लोकाकाश भर जाएँ। प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पदमें कहा है
THESE ACTION, THEN SH
" oratara के एक-एक प्रदेशमें अगर प्रत्येकवनस्पति के एक-एक जीव रख दिये जायें तो असंख्यात लोक भर जाए ॥ १ ॥
તે પ્રત્યેકશરીર-આાદરવનસ્પતિ પર્યાપ્ત જીવાથી અસંખ્યાત ગણા છે. બાકીના ત્રણ અર્થાત્-અપર્યાપ્તખાદર્શનગાદ, અપર્યાપ્તસૂક્મનિગાદ અને પર્યાપ્તસૂક્ષ્મનિગેન અસëાત—Àાકાકાશ પ્રદેશના ખરાખર છે, અને ક્રમશઃ અધિક અધિક સખ્યામાં છે. સાધારણ જીવ એનાથી અનન્ત ગણા છે.
જો લેાકાકાશના એક એક પ્રદેશમાં એક-એક પ્રત્યેક વનસ્પતિના જીવને સ્થાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત લેાક ભરાઈ જાય, અને જો લેાકાકાશના એક-એક પ્રદેશમાં એક-એક નિગેઢિયા જીવને રાખવામાં આવે તે અનન્ત લેાકાકાય ભરાઈ જાય.
પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રના પ્રથમ પટ્ટમાં કહ્યુ` છે કે
“ લેાકાકાશના એક એક પ્રદેશમાં જે પ્રત્યેક વનસ્પત્તિના એકએક જીવ રાખવામાં આવે તે અસખ્યાત લોક ભરાઈ જાય,
॥१॥
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आचारासो लोगागासपएसे निगोयजीवं ठवेहि पोक्के । ____ एवं ठवेज्जमाणा, हवंति लोगा अणन्ताओ ॥१॥" इति । छाया-लोकाकाशप्रदेशे, प्रत्येकजीव स्थापय एकैकम् ।।
एवं स्थाप्यमाना भवन्ति लोका असंख्येयाः ॥ १॥ लोकाकाशप्रदेशे निगोदजीवं स्थापय एकैकम् । एवं स्थाप्यमानाः भवन्ति लोका अनन्ताः ॥१॥
इति परिमाणद्वारम् ।। मू० १॥ शब्दादिविपयासल्या वनस्पतिकार्यापमर्दनपराः पुनः पुनर्भवसिन्धौ निपतन्तीत्याशयेनाह-'जे गुणे.' इत्यादि।
मूलम्जे गुणे से आवट्टे । जे आवट्टे से गुणे ॥ सू० २॥
छायायो गुणः स आवर्तः । य आवर्तः स गुणः ॥ सू० २ ॥ लोकाकोश के एक-एक प्रदेश में एक-एक निगोद जीव रख दिये जायें तो इस प्रकार रखने से अनन्त लोक हो जाएँ"। इति परिमाणद्वार ॥५० २ ॥ __ इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में आसक्त होकर जो वनस्पतिकाय की हिंसा . करते हैं वे बारम्बार भवसागर में डूबते हैं। इस अभिप्राय से शास्त्रकार कहते है 'जे गुणे'. इत्यादि ।
मूलार्थ-जो गुण है सो आवर्त है । जो आवर्त है सो गुण है ।सू० २॥
“કાકાશના એક-એક પ્રદેશમાં એક-એક નિગદ જીવ રાખવામાં આવે તે આ પ્રકારે રાખવાથી અનન્ત લેક થઈ જાય.” ઈતિ પરિમાણુ દ્વાર. | સૂ૦ ૧II
ઈન્દ્રિયોના શબ્દ આદિ વિષયોમાં આસક્ત થઈને જે વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. તે વારંવાર ભવ-સાગરમાં ડૂબી જાય છે. એ અભિપ્રાયથી શાકાર કહે છે'जे गुणे.' त्या.
भहाथ:- शुद्ध छे त मारत छ.२ भापत छ त गुण छ. ॥२॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३. ५ मु.२ वनस्पतिजीवघात दुप्फलम् ६१३
टीका__ यो गुणः शब्दादिका, स आवतः-आवतन्ते परिभ्राम्यन्ति जीवा यत्र स -आवर्तः-जन्मनराधिव्याधिनानाविधक्लेशसंपातस्वरूपः संसारः। कारणे कार्योपचारात् संसारफारणीभूतस्य शब्दादिगुणस्य संसारत्वेन व्यपदेशः । गुणसेवनात् संसारं प्राप्नोतीति भावः । उक्तमयं दृढीकर्तुमुक्तवाक्यं परावर्तयन्नाइ-य आवर्त इति । यथावतः संसारः, स गुणः शन्दादिः । रागद्वेपवशगः संसारी नैव शब्दादिगुणतो विरज्यते, न च मोक्षमार्ग प्राप्नोतीत्यर्थः । ___यद्वा-'गुणे' 'आवर्ते' इति सप्तम्यन्तम् । यः गुणे-शब्दादौ वर्तते,
टीकार्थ-शब्द आदि जो गुण अर्थात् विषय है वही आवर्त है। जिसमें आवर्तन अर्थात् भ्रमण किया जाय उसे आवर्त कहते हैं। जन्म-जरा, आधि-व्याधि आदि नाना प्रकार के क्लेशों से परिपूर्ण यह संसार ही आवर्त है । शब्द आदि विषय संसार के कारण हैं, स्वयं संसार नहीं हैं, किन्तु यही कारण में कार्य का उपचार करके शब्दादि विषयों को ही संसार कहा है। आशय यह है कि इन विषयों का सेवन करने से संसार की प्राप्ति होती है। इसी अभिप्राय को दृढ करने के उद्देश्य से वास्य को पलट कर शाखकार कहते हैं-'जो आवर्त है वहीं गुण है। राग-द्वेष भादि के अधीन रहने वाला संसारी जीव शब्द आदि गुणों से विरक्त नहीं होता और न मोक्षमार्ग प्राप्त करता है।
अथवा--मूल में जो 'गुणे' और 'आवटे' पद आये हैं। वे सप्तमीविभक्ति में हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि जो पुरुष शब्दादि गुणों में वर्त्तता है वह आवर्त
ટીકાથ-શદ આદિ જે ગુણ છે, અર્થાત્ વિષય છે તેજ આવત્ત છે. જેમાં આવર્તન અર્થાત્ બ્રમણ કરવામાં આવે તેને આવર્ત કહે છે. જન્મ, જરા, આધિ, વ્યાધિ આદિ નાના પ્રકારના કલેશેથી પરિપૂર્ણ આ સંસારજ આવત્ત છે. શબ્દ આદિ વિષય સંસારના કારણ છે. સ્વયં સંસાર નથી, પરંતુ અહીં કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને શદાદિ વિવેને જ સંસાર કહો છે. આશય એ છે કે -વિષયોનું સેવન કરવાથી સંસારની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે અભિપ્રાયને દઢ કરવાના ઉદેશ્યથી વાકયને બદલીને શાસ્ત્રકાર કહે છે-જે આવત્ત છે તે ગુણ છે.” રાગદ્વેષ આદિના આધીન રહેવાવાળા સંસારી જીવ શબ્દ આદિ ગુણેથી વિરકત રહેતા નથી અને મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરતા નથી.
मया--भूसमा २ गुणे' भने 'आवटे ५६ माया छे. ते सातभी विमतिमा છે. એને અર્થ એ થયો કે-જે પુરુષ શબ્દાદિ ગુણેમાં વર્તે છે તે આવર્ત અથર્
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भचारात्रे
स आवर्ते= संसारे वर्तते । यथावर्ते, सगुणे वर्तते ।
ननु 'यो गुणे वर्तते, स आवर्त वर्तते ' इति यदुक्तं तत् सम्यगेव, परन्तु य आवर्ते वर्तते, न त्वसौ नियमेन गुणे वर्तते । यतस्तीर्थङ्करा भावितात्मानो मुनयः प्रतिमाधारिश्रावकाचावर्ते वर्तन्ते न तु शब्दादिगुणेषु तदेतत् कथमुपपद्यते - ' यथावर्ते वर्तते स गुणे वर्तते इति ? |
अनुकूलशब्दादिषु रागः, प्रतिकूलशब्दादिपु द्वेपः समुद्भवतीति रागद्वेपपूर्वक गुणेषु शब्दादिषु या प्रवृत्तिस्तस्या एवात्राधिकारः । एवं चास्य वाक्यस्य तीर्थङ्करादिविषयकत्वाभावान्नास्त्युक्तशङ्कावसर इति ।
अर्थात् संसार में वर्तता है, और जो संसार में वर्तता है वह शब्द आदि में वर्त्तता है । शङ्का — जो शब्दादि गुणों में वर्तता है वह संसार में वर्तता है, यह कथन तो ठीक है, परन्तु जो संसार में वर्तता है वह नियम से शब्दादि विषयों में नहीं वर्तता । भगवान् तीर्थकर, भावितात्मा मुनि और प्रतिमाधारी श्रावक संसार में तो वर्तते हैं मगर शब्द आदि विषयों में नहीं वर्त्तते । अत एव यह कथन किस प्रकार बन सकता है कि जो आवर्च में वर्त्तता है वह शब्द आदि में वर्त्तता है !
समाधान ---- अनुकूल शब्द आदि में राग उत्पन्न होता है और प्रतिकूल शब्द आदि में द्वेष होता है । इस प्रकार रागद्वेषपूर्वक विषयों में प्रवृत्ति करने का ही यहाँ प्रकरण है । तीर्थंकर आदि राग-द्वेषपूर्वक विषयों में प्रवृत्ति नहीं करते, अतः यह वाक्य तीर्थकर या भावितात्मा मुनि आदि के लिए लागू नहीं होता । इस प्रकार उक्त शंका का यहां स्थान नहीं है ।
સંસારમાં વર્તે છે, અને જે સંસારમાં વર્તે છે તે શબ્દ આદિમાં વર્તે છે,
શકા—જે શબ્દાદિ ગુણામાં વર્તે છે, તે સંસારમાં વર્તે છે. આ કથનને તે ઠીક છે, પરન્તુ જે સંસારમાં લતે છે તે નિયમથી શખ્વાદિક વિષયેામાં વર્તતા નથી. ભગવાન તીર્થંકર ભાવિતાત્મા મુનિ અને પ્રતિમાધારી શ્રાવક સંસારમાં તે વર્તે છે, પરન્તુ શબ્દાઉદ વિષયેામાં વર્તતા નથી. એ માટે આ કચન કેવી રીતે મની શકે છે, કે- જે આવમાં વર્તે છે તે શબ્દ આફ્રિમાં વર્તે છે.
સમાધાન~~અનુકૂલ શબ્દ આદિમાં રાગ ઉત્પન્ન થાય છે અને પ્રતિકૂલ શબ્દ આદિમાં દ્વેષ થાય છે. આ પ્રમાણે રાગ-દ્વેષપૂર્વક વિષયામાં પ્રવૃત્તિ કરવી તેનું જ અહીં પ્રકરણ છે. તીર્થંકર માહિરાગ-દ્વેષપૂર્વક વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, માટે આ વાકય તી કર અથવા ભાવિતાત્મા મુનિ આદિના માટે લાગુ થતુ નથી. આ પ્રમાણે પૂર્વે જે શંકા કરી છે તે શકાને અર્હીં સ્થાન નથી.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ सू. २ वनस्पतिजीवधात दुष्फलम् ६१५
गत्यागतिरूप आवोऽपि न नेपां दुःखजनको भवति । सामान्यतः संसारवर्तितं सामान्यशन्दादिगुणोपलब्धिश्च सर्वेषां संसारिणां संभवत्येव, तस्माद् गुगोपलब्धिर्न मतिपिध्यते । किन्तु यस्तत्र रागद्वेषपरिणामः स एव परिवर्जनीयत्वेन प्रतिवोध्यते, अत एवोक्तं भगवता-- "कग्णसोक्खेहि सद्देहि पेम्मं नामिनिसए" इत्यादि । किञ्च
" न शक्य रूपमद्रष्टुं, चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेपी तु यो तत्र, तो बुधः परिवर्जयेत् ॥"
इदमत्र तत्त्वम्-शब्दादिविषयासक्ताः खलु बनस्पतिजीवान् बहुशी गति-आगतिरूप आवर्त भी उनके लिए दुःखजनक नहीं है । सामान्य संसारवतीपन और विषयों की सामान्य उपलब्धि सभी संसारी जीवों में होती है, अतः विषयों की उपलब्धि का निपेध नहीं किया जा सकता । हा विषयों में जो राग-द्वेपरूप परिणाम है वही त्याज्य है। अतः भगवान ने कहा है. . "कणसोक्खेहिं सद्देहिं पेम्म नामिनिवेसए " इत्यादि । ___ "कानों को सुख देने वाले शब्दों पर अनुराग नहीं करना चाहिए"। तथा
आखोके आगे आया हुआ रूप अनदेख नहीं किया जा सकता, वह तो दीख ही जाता है, मगर उस से कोई हानि नहीं होती। अलबत्ता उस रूप पर राग या द्वेष करने से हानि होती है । अतः विवेकी पुरुष राग और द्वेष का त्याग करे ।
आशय यह है-शन्द आदि विषयों में मासक्त पुरुष वनस्पतिकाय के जीवों की
ગતિ-આગતિરૂપ આવતું પણ તેઓને માટે દુઃખ૫ નથી. સામાન્ય સંસારવર્તાપણું અને વિષયની સામાન્ય ઉપલબ્ધિ, સર્વ સંસારી માં હોય છે. એથી વિષ ની ઉપલબ્ધિને નિષેધ કરી શકાતું નથી. હા, વિષયોમાં જે રાગ-દ્વેષરૂપ પરિણામ છે, તેજ ત્યાજ્યત્યજી દેવા ગ્યા છે. એટલે ભગવાને કહ્યું છે
“कणसोक्खेहि सदेहि पेम्मं नाभिनिवेसए " मर्थात् आमान सुभ पापा શબ્દ પર પ્રીતિ નહિ કરવી જોઈએ. તથા નેત્રાની સામે આવેલા સપ, ન દીઠાઅદીઠ કરી શકાતા નથી. તે તો દેખવામાં આવે જ છે, પરંતુ તેમાં કેઈ હાનિ થતી નથી. અલબત્ત એ રૂપ પર રાગ અથવા ઠેષ કરવાથી હાનિ થાય છે. એ માટે વિવેકી પુરુષ રાગ અને દ્વેષને ત્યાગ કરે.
આશય એ છે કે –શબ્દ આદિ વિષયમાં આસક્ત પુરુષ વનસ્પતિકાયના જીવોની
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आचाराने विहिंसन्ति । तथा हि-अनुकूलशब्दश्रवणार्थी वेणुवीणापटहादिवाधानि निर्मातुं बहुविधान् वनस्पतीन् विनिहन्ति । प्रियरूपविलोकनार्थी काष्ठमययुवतिप्रविमा-गृहतोरण-वेदिका-स्तम्भादि रचयितुं कविचन बनस्पतीन विनिकृन्तति। एवं घ्राणमुखायों कपूर-केतकी-पाटल-लवन-सरमचन्दना-गुरु-केसर-जातीफल-जातीपत्रिकादीन परिग्रहीतुं विविधान वनस्पतीन् विहिनस्ति । रसास्वादमुखार्थी मूलकन्दादिगतानसंख्या ताननन्तान् वा जीवानुपमर्दयति । एवं स्पर्शसुखामिलापी च कमष्टदलमृणालकदलीदलबल्कलानुकूलदुकूलतूलादीन् परिग्रही। नानाविधवनस्पतीनां प्राणव्यपरोपण प्रकरोति।
बहुत हिंसा करते हैं। जैसे-अनुकूल शब्द सुनने का अमिलापी पुरुष वेणु, वीणा, ___पटह (ढोल) आदि वाध बनाने के लिए नाना प्रकार के वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा करता है। प्रियरूप देखने का इच्छुक युवती की काष्ठमय प्रतिमा, गृह, तोरण, वेदिका, और स्तंभ बनाने के लिए वनस्पति को काटता है। इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय के सुरुका लेटुप कपर, केतकी, पाटल, (गुलाव ) लोग, सरस चन्दन अगर, केसर, जायफल, जायपत्री आदि के उद्देश्य से विविध प्रकार के वनरपतिकायिक जीवों को हिंसा करता है । रसास्वाद का अनुरागी मूल आदि कन्दों में रहने वाले असंख्यात और अनन्त जीवों की हिंसा करता है। इसी प्रकार स्पर्श-सुख का अभिलापी कमल के पत्ते, कमल की दंडी, केले के , पत्ते छाल और अनुकुल वन तथा रुई प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के वनस्पति जीवों का प्राण लेता है ।
ઘણીજ હિંસા કરે છે. જેમ-અનુકૂલ શબ્દ સાંભળવાના અભિલાષી પુરુષ વેણુ-વીણા હેલ આદિ વાઘ-વાચિત્ર બનાવવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિકાયના જીવોની હિંસા કરે છે. પ્રિયપ જેવાના ઈચ્છુક યુવતીની કાષ્ટમય પ્રતિમા, ગૃહ, તેરણ, વેદિકા અને સ્તંભ બનાવવા માટે વનસ્પતિને કાપે છે. એ પ્રમાણે ધ્રાણેન્દ્રિય (નાસિકના સુખના લાલુપ-લાલચુ કપૂર, કેતકી ગુલાબ. લવીંગ, સરસચંદન, અગર કેસર, જાયફળ, જાવંત્રી આદિ મેળવવાના ઉદ્દેશ્યથી વિવિધ પ્રકારના વનસ્પતિકાયિક જીની હિંસા કરે છે. રસાસ્વાદના અનુરાગી જીવ મૂળ આદિ કમાં રહેવાવાળા અસંખ્યાત અને અનન્ત જીવોની હિંસા કરે છે. એ પ્રમાણે સ્પર્શમુખના અભિલાષી જીવ કમલપત્તા, કમલકાકડી, કેવળનાં પત્તાં, છાલ અને અનુકૂલ વસ્ત્ર તથા ૩ પ્રાપ્ત કરવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિ જીના પ્રાણ લે છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ सू. २ वनस्पतिजीवोपघात दुष्फलम् ६१७
एवं च वनस्पतिनिप्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु वर्तमानः संसारं प्राप्नोति सच संसारी रागद्वेषमलिनात्मकतया पुनः शब्दादिगुणेषु वर्तमानयतुर्गतिकसंसारतो न कदाचिद् वहिर्यातीत्यर्थः । सू० २ ॥
शादिगुणोपलब्धिमात्रं न संसारान्तः पतनस्य कारणं, किन्तु तत्र मूच्छेवेत्याह - 'उड्हं' इत्यादि ।
मूलम्---
उ अहं तिरियं पाईण पासमाणे रुवाई पास, सुणमाणे सदाई सुणेइ । उइ अहे तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छर सहेसु यावि । एस लोए fauाहिए || सू० ३ ॥
छाया----
उर्धम् अधः तिर्यक प्राचीनं पश्यन् रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शद्वान् शृणोति, ऊर्ध्वम् अधः तिर्यक् प्राचीनं मूर्च्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चापि । एप लोकः व्याख्यातः ॥ सू० ३ ॥
इस प्रकार वनस्पति से तैयार होने वाले इन्द्रिय-विषयों में वर्तमान जीव संसार प्राप्त करता है । संसारी जीव राग-द्वेष से मलिन होता है, अतः फिर विषयों में प्रवृत्त होता है | इस प्रकार वह कभी संसार से बाहर नहीं निकल पाता ॥सू० २||
शब्द आदि विपयों को ग्रहण करने मात्र से संसार में पतन नहीं होता परन्तु उन में मूर्च्छा (गृद्धि) होना हो पतन का कारण है, यह कहते हैं- 'उदं.' इत्यादि ।
मूलार्थ -- ऊपर, नीचे, और सामने तिरछी दिशा में दृष्टि डालता हुआ रूपों को देखता है, सुनता हुआ शब्द सुनता है । ऊपर, नीचे और सामने तिरछी दिशा में रूपों में मूर्च्छित होता है और शब्दों में भी। यह लोक कहा गया है | सू० ३ ॥
એ પ્રમાણે વનસ્પતિથી તૈયાર થવાવાળા ઇન્દ્રિય વિષયેામાં વમાન જીવ સંસારને પ્રાપ્ત કરે છે. સંસારી રાગદ્વેષથી મલિન થાય છે, તેથી ફરીને વિચામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. આ પ્રમાણે તે કઈ દિવસ સંસારથી બહાર નીકળી શકતા નથી (સૂ.૨)
રાખ્ત આદિ વિષયાને ગ્રહણ કરવા માત્રથી સંસારમાં પતન થતુ નથી, પરન્તુ तेमां भूर्च्छा (शृद्धि) थपाथीक पतन थाय छे, ते हे छे' उड्ढे, ' त्यिाहि. મૂલા ઉપર, નીચે અને સામે તિરછી દિશામાં છે, સાંભળતા થકા શબ્દ સાંભળે છે, ઉપર નીચે અને સામે गने शोभां पशु भूर्छित थाय छे. या सेठ देवाय हे ॥ ३ ॥
નાંખીને રૂપાને જુવે તિરછી દિશામાં રૂપેડમાં
प्र. आ.-७८
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आचारानपत्रे
विहिंसन्ति । तथा हि- अनुकूलशब्दश्रवणार्थी वेणुवीणापटहादिवाद्यानि निर्मातुं बहुविधान् वनस्पतीन् विनिहन्ति । प्रियरूपविलोकनार्थी काष्ठमययुत्रतिप्रतिमा-गृहतोरण- वेदिका स्तम्भादि रचयितुं कविचन वनस्पतीन् विनिकृन्तति । एवं घ्राणसुखार्थी कर्पूर- केतकी - पाटल-लबङ्ग-सरम चन्दना - गुरु- केसर- जाती फल-जातीपत्रिकादीन् परिग्रहीतुं विविधान वनस्पतीन् विहिनस्ति । रसास्वादमुखार्थी मूलकन्दादिगतान संख्याताननन्तान वा जीवानुपमर्दयति । एवं स्पर्शसुखाभिलापी च कमलदलमृणालकदलीदलवल्कलानुकूलदुकूलतृलादीन् परिग्रहीतुं नानाविधवनस्पतीनां प्राणव्यपरोपणं प्रकरोति ।
बहुत हिंसा करते हैं । जैसे- अनुकूल शब्द सुनने का अभिलापो पुरुष वेणु, बीणा, पटह (ढोल) आदि वाद्य बनाने के लिए नाना प्रकार के वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा करता है । प्रियरूप देखने का इच्छुक युवती की काष्ठमय प्रतिमा, गृह, तोरण, वेदिका, और स्तंभ बनाने के लिए वनस्पति को काटता है । इसी प्रकार प्राणेन्द्रिय के सुरुका लेप कपूर, केतकी, पाटल, (गुलाब) लोंग, सरस चन्दन अगर, केसर, जायफल, जायपत्री आदि के उद्देश्य से विविध प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों को हिंसा करता है । रसास्वाद का अनुरागी मूल आदि कन्दों में रहने वाले असंख्यात और अनन्त जीवों को हिंसा करता है । इसी प्रकार स्पर्श-सुख का अभिलाषी कमल के पत्ते, कमल की दंडी, केले के पत्ते छाल और अनुकुल वस्त्र तथा रुई प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के वनस्पति जीवों का प्राण लेता है ।
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ઘણીજ હિંસા કરે છે. જેમ-અનુકૂલ શબ્દ સાંભળવાના અભિલાષી પુરુષ વેણુ-વીણા, ઢાલ આદિ વાદ્ય-વાજિત્ર બનાવવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિકાયના જીવાની હિંસા हुरे छे, प्रियरूप लेवाना युवतीनी अष्ठभय प्रतिभा, गृह, तोरण, वेहि અને સ્તંભ અનાવવા માટે વનસ્પતિને કાપે છે. એ પ્રમાણે ઘ્રાણેન્દ્રિય (નાસિકા)ના सुमना सोलुप -बाल उयूर, हैतडी गुलाम, सर्वांग, सरसचंदन, अगर सर, જાયફળ, જાવંત્રી આદિ મેળવવાના ઉદ્દેશ્યથી વિવિધ પ્રકારના વનસ્પતિકાયિક જીવાની હિંસા કરે છે. રસાસ્વાદના અનુરાગી જીવ મૂળ આદિ કūમાં રહેવાવાળા અસંખ્યાત અને અનન્ત જીવાની હિંસા કરે છે. એ પ્રમાણે સ્પર્શસુખના અભિલાષી જીવ કમલપત્તાં, કમલકાકડી, કેવળનાં પત્તાં, છાલ અને અનુકૂલ વસ્ર તથા રૂ પ્રાપ્ત કરવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિ જીવેાના પ્રાણ લે છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ . २ वनस्पतिजीवोपघात दुष्फलम् ६१७ एवं च वनस्पतिनिप्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु वर्तमानः संसारं प्राप्नोति स च संसारी रागद्वेपमलिनात्मकतया पुनः शब्दादिगुणेषु वर्तमान तुर्गतिकसंसारतो न कदाचिद् वहिर्यातीत्यर्थः ॥ सु० २ ॥
शहादिगुणोपलब्धिमात्रं न संसारान्तः पतनस्य कारणं, किन्तु तत्र मूच्छेवेत्याह -'उ', इत्यादि ।
मूलम्-
उइ अहं तिरियं पाईण पासमाणे रुवाई पास, सुणमाणे सहाई सुणेड़ | उइ अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छर सद्देसु याचि । एस लोए विपाहिए | सू० ३ ॥
छाया
उर्ध्वम् अधः तिर्यक प्राचीनं पश्यन् रूपाणि पश्यति, शृण्वन शहान शणोति, ऊर्ध्वम् अधः तिर्यक् प्राचीनं मूर्च्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चापि । एष लोकः व्या
ख्यातः ॥ सू० ३ ॥
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इस प्रकार वनस्पति से तैयार होने वाले इन्द्रिय-विषयों में वर्तमान जीव संसार प्राप्त करता हैं । संसारी जीव राग-द्वेष से मलिन होता है, अतः फिर विषयों में प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यह कभी संसार से बाहर नहीं निकल पाता ॥सू० २||
शब्द आदि विपयों को ग्रहण करने मात्र से संसार में पतन नहीं होता परन्तु उन में (गृद्धि) होना हो पतन का कारण है, यह कहते हैं - 'उद.' इत्यादि ।
मूलार्थ - -ऊपर, नीचे, और सामने तिरछी दिशा में दृष्टि डालता हुआ रूपों को देखता है, सुनता हुआ शब्द सुनता है । ऊपर, नीचे और सामने तिरछी दिशा में रूपों में मूर्च्छित होता है और शब्दों में भी । यह लोक कहा गया है | सू० ३ ॥
એ પ્રમાણે વનસ્પતિથી તૈયાર થવાવાળા ઇન્દ્રિય વિષયેામાં વત્તમાન જીવ સસારને પ્રાપ્ત કરે છે, સંસારી રાગદ્વેષથી મલિન થાય છે, તેથી ફરીને વિર્યેામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. આ પ્રમાણે તે કેઈ દિવસ સંસારથી અહાર નીકળી શકતા નથી (સૂ.૨) શબ્દ આદિ વિષયને ગ્રહણ કરવા માત્રથી સંસારમાં પતન થતુ નથી, પરન્તુ तेमां भूर्च्छा (गृद्धि) थवाधीन पतन थाय छे, ते 'उड्ढ़, 'त्याहि. ઉપર, નીચે અને સામે તિરછી દિશામાં ષ્ટિ નાંખીને રૂપાને જીવે છે, સાંભળતા થકા શબ્દ સાંભળે છે, ઉપર નીચે અને સામે તિરછી દિશામાં રૂપામાં ने शोभां पशु भूर्छित थाय छे, या बोर्ड हेवाय हे ॥ ३ ॥
મૂલા
प्र. आ.-७८
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६१८
भाचारागसत्रे टीकामज्ञापकदिशापेक्षया उर्ध्वम् उर्ध्व दिश्यवस्थित पर्वतशिखरमासादहाधुपरिभागस्थम् , अधः अघोदिश्यवस्थित भूमिगृहादिकं, तियन्मान्यादिदिवस्थित विदिवस्थितं च गृहभित्तिमासादहादिकं, माचीनं-तिर्यपदस्य विवरणमेतद, प्रान्यां दिशि विद्यमानं पदार्थजातम् , एतचोपलक्षणम्-अन्या अपि तिर्यग्दिशो विज्ञेयाः । यद्वा-भाचीनमिति-ऊर्धाधस्तियन्दिगन्ययि, तेनोर्वाधस्तियग्दिश्ववस्थितं, माचीन-पुरातनम्-आधुनिकशिल्पिदुष्करतयाऽऽश्चर्यकारि पदार्थजातं, पश्यन चक्षुयापारयन, रूपाणि-चक्षुतिया परिणतानि रूपचन्याणि शालमग्जिकादीनि स्यादिरूपाणि वा पश्यति ।
टीकार्य-प्रज्ञापक-दिखने वाले को) दिशा की अपेक्षा ऊर्व दिशा में-पर्वत के शिखर पर तथा प्रासाद या महल आदि के ऊपरी भाग में स्थित, भौहरा आदि अघोदिशा में स्थित, पूर्व आदि तिरछी दिशाओं में स्थित तथा विदिशामों में स्थित दीवार, हवेली और महल मादि को देखता है । मूल में आये हुए 'पाईणं' अर्थात् 'प्राचीन' शब्द को तिरछी दिशा का विवरणरूप समझना चाहिए । अथवा 'प्राचीन' पद ऊर्च, अधः और तिर्यक् सभी दिशाओं के साथ संबंध रखता है। तात्पर्य यह निकला कि-ऊर्ध्व दिशा में स्थित अघोदिशा में स्थित तथा तिरछी दिशामें स्थित प्राचीन अर्थात् आधुनिक शिल्पकारों के लिए दुष्कर होने से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले पुराने पदार्थों की ओर नजर करता हुआ सुन्दर पुतलियों वगैरह को तथा स्त्री आदि के रूप को देखता है ।।
ટીકાથ–પ્રજ્ઞાપક-(જોનારની) દિશાની અપેક્ષા ઉર્વ દિશામાં-પર્વતના શિખર પર તથા પ્રાસાદ અથવા મહેલ આદિના ઉપર ભાગમાં, સ્થિત, ભયરા આદિ અધાદિશામાં સ્થિત, પૂર્વ આદિ તિરછી દિશાઓમાં સ્થિત, તથા વિદિશાઓમાં સ્થિત ભીંત, હવેલી અને મહેલ આદિને દેખે છે. મૂલમાં આવેલે “જે અર્થાત્ પ્રાચીન શબ્દને તિરછી દિશાના વિવરણરૂપ સમજ જોઈએ, અથવા પ્રાચીન પદ ઉર્વ અધ અને તિર્થક સર્વ દિશાઓની સાથે સંબંધ રાખે છે. તાત્પર્ય એ નિકળે છે કેઉર્વ દિશામાં સ્થિત, અદિશામાં સ્થિત, તથા તિરછી દિશામાં સ્થિત પ્રાચીન અર્થાત આધુનિક શિલ્પકાર માટે દુષ્કર હેવાથી આશ્ચર્ય ઉત્પન્ન કરવાવાળા પુરાણું પદાર્થોની તરફ નજર કરતા થકા સુન્દર પુતળીઓ વગેરેને તથા શ્રી આદિના રૂપને દેખે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१३.१२.३रूपादिमूर्छायाःसंसारहेतुत्वम् ६१९
तया-एतास दिक्षु च शयन् श्रोत्रोपयोगयुक्तः सन् शब्दान् वेणुवीणादिसमुत्थान गोतनादादिकान् वा शणोति । श्रोत्रोपयोगाभावे तु न शृणोतीत्यर्थः । उपळक्षणमेतत्-जिघन् गन्धान् जिप्रति, रसयन् रसान् रसयति, स्पृशन् स्पर्शान् स्पृशति । इइ दर्शनश्रवणाभ्यां रूपादिगुणोपलब्धिमात्रं प्रदर्शितम् । ऊर्ध्वाधस्तिर्यपदोपा
नगो तापरिहरोऽस्तीति प्रतिवोंधितम् । ."::..:::. . . .:.:. :::::":. . .:. किन्तु रूपादिगुणेषु मर्छयेति बोधयितुमाह-'उड्दं.' इत्यादि।
इसी प्रकार पूर्वोत दिशाओं में श्रोत्रेन्द्रिय का उपयोग लगा कर वेणु वीणा आदि वाघों का, तथा गीत आदि का शब्द सुनता है । श्रोत्र का उपयोग न हो तो नहीं भी सुनता है । यह कथन उपलक्षण है, इस से यह भी समझ लेना चाहिए कि प्राण, रसना और स्पर्श इन्द्रिय का उपयोग लगाकर सूंघता है, चखता है और स्पर्श
यहाँ देखने और सुनने से रूप आदि गुणों की उपलब्धिमात्र सूचित को है । ऊर्च, अधः तथा तिर्यक् पद देकर यह प्रकट किया है कि-इन्द्रियों के विपयरूप आदि, सभी दिशाओं में भरे पड़े हैं। ऐसी स्थिति में उनकी ओर ध्यान न जाने देना तो बडा ही कठिन कार्य है । मगर रूप आदि गुणों की ओर उपयोग जाने मात्र से संसार के गड्ढे में पतन नहीं होता। पतन तब होता है जब उनमें मूर्छा या राग-द्वेप हो, यह बात प्रकट करने के लिए कहा है-'उड़दं.' इत्यादि।
એજ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત દિશાઓમાં શ્રોન્દ્રિયને ઉપયોગ લગાવીને વેણુ-વીણા આદિ વાત્રાના તથા ગીત આદિના શબ્દો સાંભળે છે. શ્રોત્રને ઉપગ ને હેત તે સાંભળી નહિ. આ કથન ઉપલક્ષણ છે, એથી એમ સમજી લેવું જોઈએ કે, ઘાણ. રસના અને સ્પર્શન ઈન્દ્રિયને ઉપગ લગાવીને સૂઘે છે, ચાખે છે, અને સ્પર્શ કરે છે.
અહીં દેખવા અને સાંભળવાથી રૂપ આદિ ગુણોની ઉપલબ્ધિ માત્ર સૂચિત કરી છે. ઉદ્ધ, અધ તથા તિર્થક પદ આપીને એ સૂચિત કર્યું છે કે-ઇન્દ્રિયોના વિષય રૂપ આદિ, સર્વ દિશાઓમાં ભર્યા પડયા છે. એવી સ્થિતિમાં તેની તરફ ધ્યાન નહિ જવા દેવું તે તે ભારે કઠિન કામ છે. પરંતુ રૂપ આદિ ગુણેની તરફ ઉપગ જવા માત્રથી સંસારના ખાડામાં પડવાનું થતું નથી, પતી-પડવાનું છે ત્યારે થાય છે કે જ્યારે તેમાં भूछा-या राम-३५ थाय. मा पात प्रगट ४२५। भाटे ४थुछ:-'उड्द. त्या
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माचारासो टीकाप्रज्ञापकदिशापेक्षया उर्ध्वम् उर्घ दिश्यवस्थित पर्वतशिखरमासादहाघुपरिभागस्थम्, अधः अधोदिश्यवस्थित भूमिगृहादिकं, तिर्यक्रमाच्यादिदिवस्थित विदिवस्थितं च गृहभित्तिमासादादिकं, प्राचीनं-तिर्यपदस्य विवरणमेतत् । प्राच्यां दिशि विधमानं पदार्थजातम्, एतचोपलक्षणम्-अन्या अपि तियंग्दिशा विज्ञेयाः । यद्वा-माचीनमिति-अधिरितयन्दिगन्वयि, तेनोधिस्तियन्दिश्ववस्थित, प्राचीन पुरातनम्-आधुनिकशिल्पिदुष्करतयाऽऽश्चर्यकारि पदार्थजातं, पश्यन् चक्षुापारयन, रूपाणिःचक्षुतिया परिणतानिरूपवदन्याणि शालमन्जिकादीनि स्यादिरूपाणि वा पश्यति ।
टीकार्य-प्रज्ञापक-दिखने वाले की) दिशा की अपेक्षा ऊर्व दिशा में पर्वत के शिखर पर तथा प्रासाद या महल आदि के ऊपरी भाग में स्थित, भौंहरा आदि अघोदिशा में स्थित, पूर्व आदि तिरछी दिशाओं में स्थित तथा विदिशाओं में स्थित दीवार, हवेली और महल
आदि को देखता है । मूल में आये हुए 'पाईण' अर्थात् 'प्राचीन' शब्द को तिरछी दिशा का विवरणरूप समझना चाहिए । अथवा 'प्राचीन' पद ऊर्च, अधः और तिर्यक् सभी दिशाओं के साथ संबंध रखता है । तात्पर्य यह निकला कि ऊर्व दिशा में स्थित अघोदिशा में स्थित तथा तिरछो दिशामें स्थित प्राचीन अर्थात् आधुनिक शिल्पकारों के लिए दुष्कर होने से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले पुराने पदार्थों की ओर नजर करता हुआ सुन्दर पुतलियों वगैरह को तथा स्त्री आदि के रूप को देखता है ।
ટીકાથ–પ્રજ્ઞાપક જનારની) દિશાની અપેક્ષા ઉદર્વ દિશામાંપર્વતના શિખર પર તથા પ્રાસાદ અથવા મહેલ આદિના ઉપર ભાગમાં, સ્થિત, સેંથરા આદિ અદિશામાં સ્થિત, પૂર્વ આદિ તિરછી દિશાઓમાં સ્થિત, તથા વિદિશાઓમાં રિત ભીંત, હવેલી અને મહેલ આદિને દેખે છે. મૂલમાં આવેલે “જ” અર્થાત્ પ્રાચીન શબ્દને તિરછી દિશાના વિવરણપ સમજવો જોઈએ, અથવા પ્રાચીન પદ ઉદ4, અધર અને તિફ સર્વ દિશાઓની સાથે સંબંધ રાખે છે. તાત્પર્ય એ નિકળે છે કેઉર્વ દિશામાં સ્થિત, અદિશામાં સ્થિત, તથા તિરછી દિશામાં સ્થિત પ્રાચીન અર્થાત આધુનિક શિલ્પકારો માટે દુષ્કર હોવાથી આશ્ચર્ય ઉત્પન્ન કરવાવાળા પુરાણા પદાર્થોની તરફ નજર કરતા થકા સુંદર પુતળીઓ વગેરેને તથા સ્ત્રીઆદિના રૂપને દેખે છે,
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१३.५.५वनस्पतिसमारम्भेण विविधमाणिघातः ६२३ विख्वस्वेहिं सत्धेहि वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्य समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ सू० ५ ॥
छायालज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इति एके प्रबदमानाः, यदिम विरूप. रूपैः शस्त्रैः वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिशस्त्रं समारममाणा अन्यान् अनेकरूपान् माणान विहिंसन्ति । सू० ५॥
टीकालज्जमाना: परमकरुणयाद्रहृदयतया वनस्पतिकायसमारम्भे पराङ्मुखाः, वनस्पतिशस्त्रसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारा इत्यर्थः। पृथक् विभिन्नाः केचित् प्रत्यक्षशानिनोऽवधिमनापर्ययकेवलिनः, केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः सन्तीति पश्य।
___ यद्वा-पृथक्-द्रव्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य ! इमे-सूक्ष्मवादरवनस्पतिकायसमारम्भकरणे भीताखस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैर्वनस्पतिकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते इति विलोकयेत्यर्थः । बनस्पतिकाय का आरंभ करने वाले, वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं ।। सू० ५ ॥
टीकार्य-अत्यन्त करुणा से आई हृदयवाले मुनि वनस्पतिकाय के आरंभ से विमुख रहते हैं। ऐसे मुनि कोई भवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, और केवलज्ञानी होते हैं, और कोईकोई परोक्षज्ञानी (मति-श्रुत ज्ञान के धारक) भावितात्मा होते हैं उन्हें देखो।
अथवा इन्हें द्रव्यलिगियों से अलग ही समझना चाहिए। यह अनगार सूक्ष्म और बादर वनस्पति का आरंभ करने में भौत, त्रस्त, उद्विग्न हैं । तीन करण, तीन योग से वनस्पतिकाय के आरंभ के त्यागी हैं। કાયને આરંભ કરવાવાળા, વનસ્પતિ શાસ્ત્રને આરંભ કરતા થકા અન્ય અનેક પ્રકારના પ્રાણુઓની હિંસા કરે છે. || ૫ |
ટીકાથ—–અત્યન્ત કરુણાથી આર્દ્ર હૃદયવાળા મુનિ વનસ્પતિકાયના આરંભથી વિરુદ્ધ રહે છે. એવા મુનિ કઈ-કઈ અવધિજ્ઞાની, મન ૫ર્યજ્ઞાની અને કેવળજ્ઞાની, હોય છે. અને કઈ-કઈ પક્ષજ્ઞાની (મતિ–શુતજ્ઞાનના ધારક) ભાવિતાત્મા હોય છે. તેને જુએ.
અથવા તેને વ્યલિગિઓથી જૂદાજ સમજવા જોઈએ. તે અણગાર સૂક્ષમ અને બાદર વનસ્પતિકાયને આરંભ કરવામાં બીએલા-ભથવાળા, ત્રસ્ત, ઉદ્વિગ્ન છે. ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી વનસ્પતિકાયના આરંભના ત્યાગી છે.
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आंचारांगमने आचारो यस्य स पक्रसमाचार:-असंयमानुप्ठायी, नरकादिगतिजनकस्वादसंयमस्य चक्रतया व्यपदेशः । इत्यम्भूतः स ममताप्रमादवशद् विपयेषु मृच्छितः, अगारं-- गृहम् आवसति । गृहीतसंयमोऽपि प्रमादयशाद् विपयासक्तः सन् पुनहस्यो भववीत्यर्थः ॥ सू०४॥
अथ शस्त्रद्वारम्-- अथ सर्वथा वनस्पतिशस्त्रसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान् , तथाऽग्निशखसमा रम्भमस्तान द्रव्पलिगिनश्च विविच्य भतिबोधयितुमाह-'लज्जमाणा' इत्यादि।
मूलम्लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मो-ति एगे परयमाणा, जमिण अर्थात् असमय का सेवन करने वाला प्रमादी फिर घर-यास में आजाता है । वह संयम धारण करने के पश्चात् भी प्रमाद के वश होकर विषयों में भासक्त होने के कारण फिर गृहस्थ बन जाता है । सू० ४ ॥
शस्त्रद्वारवनस्पतिशस्त्र के आरंभ का सर्वथा त्याग करने वाले अनगारों का तथा अग्निशस्त्र के आरंभ में प्रवृत्त द्रव्यलिंगियोंका विवेचन करके उपदेश देते है:'लज्जमाणा.' इत्यादि।
मलार्थ-वनस्पतिकाय के आरंभ में संकोच करने वाले साधुओं को अलग देखो। तथा 'हम अनगार हैं। इस प्रकार कहने वाले नाना प्रकार के शस्त्रोंसे સેવન કરવાવાળા પ્રમાદી ફરી ઘરવાસમાં આવી જાય છે. તે સંયમ ધારણ કર્યા પછી પણ પ્રમાદને વશ થઇને વિષયમાં આસક્ત થવાના કારણે ફરી ગૃહસ્થ બની જાય છે. (૪)
શસદ્વાર– વનસ્પતિશાસ્ત્રના આરંભને સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા અણગારેનું તથા અગ્નિશાસ્ત્રના આરંભમાં પ્રવૃત્ત દ્રષ્યલિંગીઓનું વિવેચન કરીને ઉપદેશ આપે છે'लज्जमाणा.' त्यादि.
મલાથ-વનસ્પતિકાયના આરંભમાં સંકેચ કરવાવાળા સાધુઓને જુદા જાણેતથા અમે અણગાર છીએ આ પ્રમાણે કહેવાવાળા, નાના પ્રકારના શોથી વનસ્પતિ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सं. ५ वनस्पतिकायहिंसाकारणानि ६२५ कुठारादयः । भावशस्त्रं तु वनस्पति पति मनोवाक्कायानां दुष्पणिधानम् । वनस्पतिकर्मसारम्भण-कर्मणां समारम्भः कर्मसमारम्भा वनस्पति निमित्तीकृत्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धननकसावधव्यापारस्तेन, इमं वनस्पतिकायं विहिंसन्ति ।
वनस्पतिकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु पड्जीवनिकायस्पं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-वनस्पतिशस्त्र'-मित्यादि । वनस्पतिशस्त्र वनस्पतिजीवोपमर्दकं शस्त्रं पूर्वोक्तप्रकार, समारभमाणाबनस्पति प्रति प्रयुजानाः, अन्यान् बनस्पतिकायभिन्नान्, अनेकरूपान्, पृथिवीकायादीन, द्वीन्द्रियादीन् सांथ. तदाश्रितान् प्राणान्पाणिनः हिंसन्ति ।
इह बहुविधा द्रव्यलिगिनो विद्यन्ते । तत्र शाक्यादयः कन्द-मूल-पत्रपरकायशस्त्र हैं । वसूला, दांतो, कुठार आदि उभयकायशस्त्र हैं । वनस्पतिकाय के प्रति मन, वचन और काय का असत् प्रयोग करना भावशस्त्र है । इन शत्रोद्वारा वनस्पतिकायका आरंभ करके ज्ञानावरण आदि आठप्रकार के कर्मों को उत्पन्न करने वाला सावध व्यापार करके वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं ।
जो वनस्पतिकाय की हिंसा में प्रवृत्त होता है वह छहों जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है, यह बतलाते हैं, 'वनस्पतिशस्त्रम्'. इत्यादि ।
वनस्पतिकाय की हिंसाजनक पूर्वोक्त शस्त्रों का आरंभ करनेवाले लोग वनस्पतिकाय के अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि अन्य स्थावरों की तथा वनस्पति-आश्रित द्वीन्द्रिय आदि उस जीवों की भी हिंसा करते हैं।
संसार में अनेक प्रकार के द्रव्यलिंगी हैं। उन में से शाक्य आदि कंद, मूल,
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મુખ અને અગ્નિ આદિ પરકાયશસ્ત્ર છે. વસૂલા દાંતી-દાતરડું, કુઠાર--કુહાડો આદિ ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. વનસ્પતિકાય પ્રતિ મન, વચન અને કાયને અસત- ગ કરો તે ભાવશસ્ત્ર છે. એ શદ્વારા વનસ્પતિકાયને આરંભ કરીને-જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને ઉત્પન્ન કરવાવાળા સાવધ વ્યાપાર કરીને વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે.
જે વનસ્પતિકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તે છજીવનિકાયરૂ૫ સમસ્ત asी डिसी ४२ छ, से मताव छ-' वनस्पतिशस्त्रम्.' त्यादि.
વનસ્પતિકાયના હિંસાજનક પૂર્વોક્ત શઅને આરંભ કરવાવાળા લેક વનસ્પતિકાયના અતિરિક્ત પૃથ્વીકાય, આદિ અન્ય સ્થાવરણની તથા વનસ્પતિ આશ્રિત કીન્દ્રિયબે ઇન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવેની પણ હિંસા કરે છે.
સંસારમાં અનેક પ્રકારના વ્યલિંગી છે. તેમાંથી શાક્ય આદિ કંદ, મૂલ, પત્તા, प्र. आ.-७९
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आचारापत्रे
एके पुनरन्ये तु 'वयमनगाराः स्मः' इति सामिमानं प्रवदमाना: = ' वयमेत्र वनस्पतिजीवरक्षणपरा: महात्रतधारिणः ' इति मलपन्तो द्रव्यलिङ्गिनः सन्ति, तान् पृथक् पश्य ।
इमे खल्बनगाराभिमानिनो द्रव्यलिङ्गिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्तीति दर्शयति--' यदिमम्. ' इत्यादि । यद्=यस्माद् विरूपरूपैः = विभिन्नस्वरूपैः
शस्त्रैः =वनस्पतिकायशस्त्रैः, तत्र द्रव्यशस्त्रे स्वकीयदण्डलकुटादयः । परकायउभयकायशस्त्र = वासी - दात्र
६२४
शस्त्रं हि वनस्पतिकायस्य द्रव्यभावभेदाद् द्विविधम् । परकायोभयकाभेदात् त्रिविधम् । तत्र स्वकायशस्त्रं शस्त्रं कर्तरी- पापाण- हस्त - पाद - मुख - बहुचादयः ।
इनसे विपरीत कोई-कोई ' हम अनगार हैं ' ऐसा अभिमानपूर्वक कहते हैं'हम ही वनस्पति जीवों की रक्षा करने में तत्पर और महाव्रतधारी हैं, ' इस प्रकार प्रलाप करते हुए द्रव्यलिंगी साधुओं को अलग समझो ।
अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी अनगार के गुणो में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते । ये गृहस्थ के किसी भी कामका त्याग नहीं करते हैं, यह बात आगे बतलाते हैं -- ' यदिमम् . ' इत्यादि ।
1
नाना प्रकार के वनस्पतिकाय के शस्त्रोंद्वारा वनस्पतिकाय का आरंभ करके वनस्पतिकायकी हिंसा करते हैं । वनस्पतिशास्त्र दो प्रकारका है - द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । द्रव्यशस्त्र के तीन भेद हैं- (१) स्वकायशस्त्र (२) परकायशस्त्र (३) उभयकायशा । डंडा लकडी वगैरह स्वकायशस्त्र हैं। कैंची, पत्थर, हाथ, पैर, मुख और आग आदि
તેનાથી વિપરીત–વિરૂદ્ધ કાઈકાઈ અમે અણુગાર છીએ' આ પ્રમાણે અભિમાન પૂર્વક કહે છે-અમેજ વનસ્પતિ જીવાની રક્ષા કરવામાં તત્પર અને મહાવ્રતધારી છીએ' આ પ્રમાણે પ્રલાપ-(ખકવા) કરનારા દ્રવ્યલિંગી સાધુઓને જુદા સમજો.
અણુગાર હેાવાનું અભિમાન કરનારા એ દ્રવ્યલિંગી સાચા અણુગારના ગુણા માટે જરા પણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી. તે ગૃહસ્થાનાં ફાઈ પણ કામને ત્યાગ કરતા नथी. से जतावे छे. ' यदिमम् . ' त्याहि.
નાના પ્રકારના વનસ્પતિકાયનાં શઓ વડે વનસ્પતિકાયને આરભ કરીને વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. વનસ્પતિશસ્ર બે પ્રકારનાં છે-દ્રવ્યશસ્ત્ર અને ભાવશષ. द्रव्यशस्त्रनां त्रषु लेढ छे - (१) स्वप्रायशस्त्र, (२) परायशस्त्र, अने (3) उलयायशस्त्र. डंडा, सामुडी वगेरे स्वप्रायशास्त्र छे, थी - ( अंतर, सांबुस ) पत्थर, हाथ, युग,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सं. ५. वनस्पतिकायहिंसाकारणानि ६२५ कुठारादयः । भावशस्त्रं तु वनस्पति पति मनोवाक्कायानां दुष्पणिधानम् । वनस्पतिकर्मसारम्भेणकर्मणां समारम्भः कर्मसमारम्भा वनस्पति निमित्तीकृत्य ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धननकसावधव्यापारस्तेन, इमं वनस्पतिकायं विहिंसन्ति ।
वनस्पतिकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु पड्जीवनिकायस्पं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-वनस्पतिशस्त्र'-मित्यादि । वनस्पतिशस्त्रबनस्पतिजीवोपमर्दकं शस्त्रं पूर्वोक्तप्रकारं, समारममाणा बनस्पति मति प्रयुन्जानाः, अन्यान् बनस्पतिकायभिन्नान्, अनेकरूपान्, पृथिवीकायादीन, द्वीन्द्रियादीन सांथ. तदाश्रितान् प्राणान् माणिनः हिंसन्ति।
इह बहुविधा द्रव्यलिगिनो विद्यन्ते । वत्र शाक्यादयः कन्द-मूल-पत्रपरकायशस्त्र हैं। वसूला, दांतो, कुठार आदि उभयकायशस्त्र हैं । वनस्पतिकाय के प्रति मन, बचन और काय का असत् प्रयोग करना भावशस्त्र है । इन शस्त्रोद्वारा वनस्पतिकायका आरंभ करके ज्ञानावरण आदि आठप्रकार के कर्मों को उत्पन्न करने वाला सावध व्यापार करके वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं।
जो बनस्पतिकाय की हिंसा में प्रवृत्त होता है वह उहाँ जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है, यह बतलाते हैं, 'वनस्पविशस्त्रम्'. इत्यादि ।
बनस्पतिकाय की हिंसाजनक पूर्वोक्त शस्त्रों का आरंभ करनेवाले लोग वनस्पतिकाय के अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि अन्य स्थावरों की तथा वनस्पति-आश्रित द्वीन्द्रिय आदि स जीवों की भी हिंसा करते हैं। ___ संसार में अनेक प्रकार के द्रव्यलिंगी हैं। उन में से शाक्य आदि कंद, मूल,
મુખ અને અગ્નિ આદિ પરકાયશસ્ત્ર છે. વસૂલા દાંતી-દાતરડું, કુઠાર-કુહાડો આદિ ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. વનસ્પતિકાય પ્રતિ મન, વચન અને કાયને અસત્-પ્રયોગ કરે તે ભાવશસ્ત્ર છે. એ શદ્વારા વનસ્પતિકાયને આરંભ કરીને-જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને ઉત્પન્ન કરવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે.
જે વનસ્પતિકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તે છજીવનિકાયરૂપ સમસ્ત asी हिंसा रे छे. मे मताव छ-' वनस्पतिशवम्.' त्यादि
વનસ્પતિકાયના હિંસાજનક પૂર્વોક્ત અને આરંભ કરવાવાળા લેક વનસ્પતિકાયના અતિરિક્ત પૃથ્વીકાય, આદિ અન્ય સ્થાવરાની તથા વનસ્પતિ આશ્રિત હીન્દ્રિયબે ઇંદ્રિય આદિ ત્રસ જીની પણ હિંસા કરે છે.
સંસારમાં અનેક પ્રકારના દ્રવ્યલિંગી છે. તેમાંથી શાક્ય આદિ કંદ, મૂલ, પત્તા, प्र. मा.-७९
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કુરદ્દ
শালায় पुष्पफलादिभोजनार्थ घनस्पतिकर्मसमारम्म पुर्यन्ति, फारयन्ति, कतोऽनुमोदयन्द्रि घ, वेन पहजीयनिकायविराधका भवन्ति । दण्डिनोऽपि "वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनाज्ञाराधका अनगाराः समः" इत्यादि प्रवदमानाः साधाभासाः सावधमुपदिशन्ति, शाखमतिपिद्धमपि वनस्पतिकर्मसमारम्भ कारयन्ति ।
ते हि घ्याख्यानमण्डपादौ चाशोकक्षपत्रादिमिर्वन्दनमालादिकं बन्धयन्ति, नानाविधपुष्पपत्रफलैः पश्चोपचारादिपूजास प्रवर्तयन्ति । तयाहि"काले सुइभूएणं, विसिहपुप्फाइएहिं विहिणा छ ।
सारथुइथोत्तगरुई, जिणपूया होइ कायचा ॥१॥" (पञ्चाशकाचिः छापा-काले शुचीभूतेन, विशिष्टपुष्पादिकैर्विधिना तु ।
सारस्तुति स्तोत्रकरुचिना, जिनपूजा भववि कर्वव्या ॥१॥ पत्ता, फूल आदि खाने के लिए वनस्पति का आरंभ करते हैं, कराते हैं और करने वाले की अनुमोदना करते हैं। ऐसा करके वे पड़जीवनिकाय की विराधना के भागी होते हैं । "हम पंचमहाव्रतधारी, जिन भगवान की आज्ञा के आराधक अनगार है" ऐसा कहने वाले दंडी झूठे साधु भी सावध का उपदेश देते हैं और शास्त्र में निषिद्ध किय हुए वनस्पतिकाय के आरंभ का उपदेश देते हैं।
व्याख्यानमंडप आदि में अशोक वृक्ष के पत्तों से बन्दनवार आदि बंधवात हैं, नाना प्रकार के फल फूल पतों से पंचोपचार आदि पूजाओं में (श्रावकों) को प्रवृत्त करते हैं। जैसे--
"उचित समय पर, विधिपूर्वक विशिष्ट पुष्प आदि के द्वारा सुन्दर स्तोत्र-स्तुतिपूर्वक ; जिन भगवानकी पूजा करनी चाहिए"। કુલ આદિ ખાવા માટે વનસ્પતિને આરંભ કરે છે, અને કરાવે છે, અને કરવા વાળાને અનુમોદન આપે છે. એ પ્રમાણે કરીને તે ષડૂજીવનિકાયની વિરાધનાના ભાગદિ* થાય છે. “અમે પંચ મહાવ્રતધારી, જિન ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક અણગ છીએ.” આ પ્રમાણે કહેવાવાળા દંડી જુઠા સાધુ પણ સાવઘને ઉપદેશ આપે છે, અને શાંમાં નિષેધ કરવામાં આવેલ વનસ્પતિકાયના આરંભનો ઉપદેશ આપે છે.
તે વ્યાખ્યાન-મંડપ આદિમાં અશોકવૃક્ષનાં પાંદડાંથી તરણ આદિ અપાવે છે નાના પ્રકારના ફલ-ફૂલ અને પાંદડાથી પંપચાર આદિ પૂજાઓમાં (શ્રાવકેને) અને કરે જોડે છે. જેમ-“ઉચિત સમય-ગ્ય સમય પર વિધિપૂર્વક વિશિષ્ટઉત્તમ પુષ્પ આદિ દ્વારા સુન્દર તેત્ર, સ્તુતિપૂર્વક જિન ભગવાનની પૂજા કરવી જોઈએ.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ सू.५ वनस्पविकायहिंसाकारणानि ६२७
अपरञ्च-उमास्वातिवाचककृतमकरणे'मध्याव कुममैः पूजा' इति । 'गन्धवासाक्षतैः सग्भिः' इति । 'प्रधानश्व फलैः पूजा' इत्यादि । किञ्च-. "न शुकः पूजयेद्देवं, कुसमैन महीगतैः।
न विशीर्णदलैः स्पृष्दै, नारी विकासिभिः ". ॥१॥ 'न शुष्कैः पूजयेद्देवं कुमुमैन महीगतः' इत्यनेन 'आर्दै खोटि तैश्च कुसुमैदेवं पूजयेत् ' इत्यर्योऽवगम्यते । अहो ! कीदृशो महासावद्योपदेशस्तेषाम् । ___ एवं देवमन्दिरादो कदलीस्तम्भादिरोपणेन, अशोकादिक्षपर्यन्दन
पञ्चाशकवृत्ति उमास्वातिकृत प्रकरण में कहा है
"मध्या में फूलों से पूजा की जाती है । " "गंध, वास और अक्षत से तथा मालाओं से पूजा होती है । " उत्तम फलों से पूजा की जाती है " इत्यादि । और भी कहा है--
"सूखे, जमीन पर गिरे हुए, टूटी पंखुडीवाले, बुए हुए, खराब और विना खिले फूलों से पूजा नहीं करनी चाहिए।
'सूखे और जमीन पर गिरे हुए फूलों से पूजा नहीं करनी चाहिये ' इसका अभिप्राय यह हुआ कि ताजे और तोडे हुए फूलों से पूजा करनी चाहिये अरेरे ! उनका वह कैसा सावध उपदेश है।
इस प्रकार देवमंदिर आदि में कदलीस्तंभ खडा करके, अशोक वृक्ष के पत्तो से
પંચાશકવૃત્તિ ઉમાસ્વાતિકૃત પ્રકરણમાં કહ્યું છે—
મધ્યાહનમાં વડે પૂજા કરવામાં આવે છે.” “ગંધ, વાસ અને અક્ષતથી તથા માળાઓથી પૂજા થાય છે.” “ઉત્તમ ફળેથી પૂજા કરવામાં આવે છે. • ઈત્યાદિ બીજું પણ કહ્યું છે કે
“સૂકાં, જમીન પર ખરી પડેલાં, જેની પાંખડી તુટી ગઈ હોય, સ્પર્શ કરાએલાં, ખરાબ અને ખિલ્યા વિનાનાં ફૂલોથી પૂજ નહિ કરવી જોઈએ. » સૂકાં અને જમીન પર ખરી પડેલાં ફલે વડે પૂજા ન કરવી જોઈએ અને અભિપ્રાય એ થયો કે લીલાં અને તાજી તેડેલાં ફૂલોથી પૂજા કરવી જોઈએ: અરેરે! તેઓને આ સાવદ્ય ઉપદેશ કે છે?
આ પ્રમાણે દેવમંદિર આદિમાં કેળના સ્થંભ ઉભા કરીને અશોકવૃક્ષનાં પાંદડાંથી
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६२८
आचाराने मालिकादिवन्धनेन, प्रतिमोपरि सचित्तपनपुप्पादिक्षेपणेन सचित्तनालिकेरदाडिमरसालफलादिनैवेधोपचारेण च वनस्पतिहिंसां फारयन्तस्ते तदाश्रिताननेकविधान
सस्थावरान् माणिनो घातयन्ति । नहि-चीतरागाणां सावधा सपर्या समुचिता, 'एस खलु गंधे इत्यादिवचनेन सरिम्माणामस्मिन्नेवागमे तैः साक्षात् प्रतिपिद्धत्वात् । नहि तत्तत्त्यागिम्यस्तत्तत्यक्तद्रव्यसमर्पणं तुष्टिकरं भवतीति । नहि लोके मधमांस त्यागिभ्यो मद्यमांससमर्पणं तत्परितोपाय जायते । अलं बहुना ! हरितकन्दमूलादित्यागिनः श्रावका अपि न हरितकन्दमूलादिसमर्पणेन संतुष्यन्तीति विचारयन्तु मनीषिणः ॥ सू०५॥
__ अथ सुधर्मा स्वामी जम्यूस्वामिनं जगाद-'तत्य.' इत्यादि। वन्दनवार बांधकर, प्रतिमा पर सचित्त पत्ते, फूल आदि चढाकर, सचित्त नारियल, दाडिम, आम आदि नैवेद्य के उपचार से वनस्पति को हिंसा करते हुए वे वनस्पति-आश्रित भनेक प्रकार के स-स्थावर जीवों का घात करवाते हैं । चीतराग देव की पूजा सावध होना उचित्त नहीं है । 'एस खलु गंथे. इत्यादि कथन द्वारा इसी आगम में समस्त आरंभों का वीतराग भगवान्ने साक्षात् निषेध किया है । जो पुरुष जिस वस्तु का त्यागी है, उसकी तुष्टि उस वस्तु को अर्पित करने से नहीं हो सकती । लोक में मथ-मांस का त्याग करने वालों को मघ-मांस की भेंट संतोषजनक नहीं होती। अधिक क्या कहें ! हरित कंद मूल के त्यागी श्रावक भी हरित कन्द मूल की भेंट से प्रसन्न नहीं होते हैं । बुद्धिमान् पुरुष स्वयं विचार करलें ॥ सू० ५॥
सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-'तत्थ.' इत्यादि ।
વંદનવાર બાંધીને, પ્રતિમા ઉપર સચિત્ત પાંદડા, ફૂલ આદિચઢાવીને, સચિત્ત નાળિએર, દાડમ, આંબા આદિ વિઘતા ઉપચારથી વનરપતિની હિંસા કરીને તે વનસ્પતિ–આશ્રિત અનેક પ્રકારના ત્રાસ-સ્થાવર જીવેને ઘાત કરાવે છે. વીતરાગદેવની પૂજા સાદ્ય હોય ते योग्य नथी. 'एस खलु गंथे.' त्या ४थन द्वारा भी माममा तमाम सभा• રમેને વીતરાગ ભગવાને સાક્ષાત્ નિષેધ કર્યો છે. જે પુરુષ જે વસ્તુના ત્યાગી છે, તેની પ્રસન્નતા તે વસ્તુને અર્પણ કરવાથી થઈ શકતી નથી. લોકમાં મધ-માંસના ત્યાગી-ત્યાગ કરવાવાળાને મધ-માંસની ભેટ સંતોષ ઉત્પન્ન કરતી નથી, અધિક છે કહીએ! લીલા કંદમૂળના ત્યાગી શ્રાવક પણ લીલા કન્દમૂળની ભેટથી પ્રસન્ન થતા નથી તે બુદ્ધિમાન પુરુષ પોતે વિચાર કરી લીએ. | સૂત્ર પણ
अपभी स्वामी सम्पू स्वाभान ४ छ-'तत्थ.' त्यात.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.५ सू.६ वनस्पतिकायहिंसाकारणानि ६२९
मूलम्तत्य खलु भगत्रया परिणा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुःखपडियायहेडं, से सयमेव वणस्सहसत्यं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइसत्यं समारंभावेइ, अण्णे वणस्सइसत्यं समारंभमाणे समणुजागइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए ।। मू० ६ ॥
छायातत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-मानन -पूजनाय, जाविमरणमोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुं, स स्वयमेव वनस्पतिशस्त्रं समारमते, अन्यैर्वा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा वनस्पतिशस्त्र समारभमाणान् समनुजानाति, तत् तस्याहिताय, तत् तस्यायोधये ॥ भू०६॥
टीकातत्रवनस्पतिकायसमारम्भे, भगवता-श्रीमहावीरेण, परिक्षा सम्यगववोधः खलु-निश्चयेन मवेदिता प्रतियोधिता-कर्मबन्धसमुच्छेदार्थ जीवेन परि.
मूलार्थ-वनस्पतिकाय के मारंभ के संबंध में भगवान् ने सम्यक् बोध दिया है। इस जीवन के वन्दन, मानन और पूजन के लिए, जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए तथा दुःखों का विनाश करने के लिए स्वयं वनस्पतिकायशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से आरंभ करता और आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । वह आरंभ उस के अहित के लिए, उसकी अयोधि के लिए होता है । सू० ६ ॥
टीकार्थ----वनस्पतिकाय के आरंभ के विषय में भगवान् श्री महावीर स्वामीने सम्यक उपदेश दिया है। अर्थात् भगवान ने बतलाया है कि कर्मबंध को नष्ट करने के
મૂલાઈ-વનસ્પતિકાયના આરંભના સમ્મધમાં ભગવાને સમ્યફ ધ આપે છે. આ જીવનના વંદન, માનન, અને પૂજન માટે, જન્મમરણથી છુટવાને માટે, તથા દુઓને વિનાશ કરવા માટે સ્વયં વનસ્પતિકાયા અને આરંભ કરે છે, બીજા પાસે આરંભ કરાવે છે, અને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે. તે આરંભ તેના અહિત માટે તેમજ તેની અબાધિ માટે હોય છે. સૂ૦ ૬
ટીકા-વનસ્પતિકાયના આરંભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ સમ્યફ ઉપદેશ આવ્યો છે. અર્થાત્ ભગવાને બતાવ્યું છે કે કર્મબંધને નષ્ટ કરવા માટે
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દૂરઢ
आचारास्त्रे
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मालिकादिबन्धनेन, प्रतिमोपरि सचित्तपत्रपुष्पादिक्षेपणेन सचित्तनालिकेरदाडिमरसालफलादिनैवेद्योपचारेण च वनस्पतिहिंसां फारयन्तस्ते तदाश्रिताननेकविधान सस्थावरान् प्राणिनो घातयन्ति । नहि वीतरागाणां सावधा सपर्या समुचिता, 'एस खलु गंधे' इत्यादिवचनेन सर्वारम्भाणामस्मिन्नेवागमे तैः साक्षात् प्रतिषिद्धत्वात् । नहि तत्तत्यागिभ्यस्तत्तच्यक्तद्रव्यसमर्पणं तुष्टिकरं भवतीति । नहि लोके मद्यमांसस्यागिभ्यो मद्यमांससमर्पणं तत्परितोपाय जायते । अलं बहुना ! हरितकन्दमूलादित्यागिनः श्रावका अपि न हरितकन्दमूलादिसमर्पणेन संतुष्यन्तीति विचारयन्तु मनीषिणः ॥ ०५ ॥
अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं जगाद - 'तत्य.' इत्यादि ।
वन्दनवार बाँधकर, प्रतिमा पर सचित्त पत्ते, फूल आदि चढाकर, सचित्त नारियल, दाडिम, आम आदि नैवेद्य के उपचार से वनस्पति को हिंसा करते हुए वे वनस्पति-आश्रित अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों का घात करवाते हैं । वीतराग देव की पूजा सावध होना उचित नहीं है । 'एस खलु गंधे.' इत्यादि कथन द्वारा इसी आगम में समस्त आरंभों का वीतराग भगवान् ने साक्षात् निषेध किया है । जो पुरुष जिस वस्तु का व्यागी है, उसकी तुष्टि उस वस्तु को अर्पित करने से नहीं हो सकती । लोक में मध-मांस का त्याग करने वालों को मद्य-मांस की भेंट संतोषजनक नहीं होती । अधिक क्या कहें ! हरित कंद मूल : के त्यागी श्रावक भी हरित कन्दमूल की भेंट से प्रसन्न नहीं होते हैं । बुद्धिमान् पुरुष स्वयं विचार करलें || सू० ५ ॥
सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - 'तत्थ ' इत्यादि ।
વંદનવાર બાંધીને, પ્રત્તિમા ઉપર ચિત્ત પાંદડા, ફૂલ આદિથઢાવીને, સચિત્ત નાળિએર, દાડમ, આંખા આદિ નવેદ્યના ઉપચારથી વનસ્પતિની હિંસા કરીને તે વનસ્પતિ-આશ્રિત અનેક પ્રકારના ત્રસ—સ્થાવર જીવાને ઘાત કરાવે છે. વીતરાગદેવની પૂજા સાદ્ય હોય ते योग्य नथी, 'एस खलु गंथे.' त्याहि उथन द्वारा मा भागमभां तमाभ सभाર'ભેાના વીતરાગ ભગવાને સાક્ષાત્ નિષેધ કર્યો છે. જે પુરુષ જે વસ્તુના ત્યાગી છે, તેની પ્રસન્નતા તે વસ્તુને અણુ કરવાથી થઈ શકતી નથી. લેાકમાં મદ્ય-માંસના મેં ત્યાગી—ત્યાગ કરવાવાળાને મદ્ય–માંસની ભેટ સàાષ ઉત્પન્ન કરતી નથી, અધિક શું કહીએ! લીલા કંદમૂળના ત્યાગી શ્રાવક પણ લીલા કન્દમૂળની ભેટથી પ્રસન્ન થતા नथी तो शुद्धिमान पुरुष पोते विचार ४री सी. ॥ सू० ५ ॥
सुधर्मा स्वाभी क्र्भ्यू स्वाभीने हे छे' तत्थ. ' त्यिाहि.
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. ५ सु. ६ वनस्पतिकाय हिंसा
गजाश्वमृगव्याघ्रसिंहादीनां स्वरूपं दधाना
जनयन्ति ।
यथा-स
एव
पत्रादिकर्तनकलाकुशलो
माननं = जनसत्कारस्तदर्थे, मालाकारः स्वमाननार्थं कर्तरीशस्त्रेण वृक्षलतादीनां पत्रादिकं कृन्तति । पूजनं= वखरत्नादिलाभस्तदर्थम्, यथा - देवमतिमाद्यर्थं पत्रपुष्पफलादीनां त्रोटने । तथाजातिमरणमोचनाय जन्ममरणबन्धमोचनार्थ, यथा-मुक्तिकामन पूजायां पुष्पपत्रादिसमुच्छेदने, तथा - दुःखप्रतिघातहेतुं ==पाधिशमनाद्यर्थम्-ओपधिवृक्षलतादीनां मूलकन्दशाखापत्रपुष्पफलादिभेदने, स जीवनमुखाद्यर्थी स्वयमेव हाथी, घोडा, हिरन, वाघ, सिंह आदि का आकार बन जाता है और इससे उस बगीचे की सुन्दरता बढती है, ऐसा जानकर करता है ।
जनसत्कार के लिए भी वनस्पति की हिंसा की जाती है, जैसे- पत्ता वगैरह काटने में कुशल वही पूर्वोक्त माली कैंची से वृक्षों या लताओं के पत्ता आदि काटता है । तथा पूजन के लिए अर्थात् वस्त्रों और रत्नों के लिए भी वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं । जैसे- देव प्रतिमा आदि के लिए पत्र, फूल, फल तोड़ने में ।
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वृक्षादयस्तस्योपवनादेर्विशिष्टशोभां
जन्म मरण से छुटकारा पाने से लिए भी उक्त हिंसा को जाती है । जैसे-मुक्ति को इच्छा से पूजा के लिए फूल-फल तोडने में । दुःखों का प्रतीकार करने के लिए भी यह हिंसा को जाती है । जैसे-रोग मिटाने के लिए ओषधि, वृक्ष, लता, मूल, कन्द, शाखा, पत्र, फूल आदि तोड़ने में हिंसा की जाती है ।
વૃક્ષ લતા વગેરેને એવા પ્રકારે કાપે છે કે તેમાં હાથી, ઘેાડા, હરણ, વાઘ, સિંહ આદિને આકાર અની જાય છે, અને તેથી એ બગીચાની સુંદરતા વધે છે. એવું સમજીનેજ કરે છે, જન-સત્કાર માટે પણ વનસ્પતિની હિંસા કરવામાં આવે છે, જેમ-પાંદડાં વગેરેને કાપવામાં કુશલ આગળ કહેલા તેજ માળી ખેંચી (કાતર)થી વૃક્ષે અથવા લતાએનાં પત્તાં આદિ કાપે છે. તથા પૂજન માટે અર્થાત્ વા અને રત્નાને માટે પણ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે, જેમ-દેવપ્રતિમા આદિ માટે પત્ર ફૂલ ફૂલ તેડવામાં.
જન્મમરણુથી છુટવા માટે પણ પૂર્વ કહેલી હિંસા કરવામાં આવે છે, જેમકેમુક્તિની ઇચ્છાથી પૂજા માટે ફૂલ ફૂલ તેડવામાં,
દુઃખેાના પ્રતિકાર કરવા માટે પણ એ હિંસા કરવામાં આવે છે. જેમકે-રાનિવારણ ४२वा भाटे भोषधी, वृक्ष, सता, भूल, उन्ह, शामा, पत्र, ड्रेस याहि तोरवामां डिसा ४२વામાં આવે છે.
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माचार
A
ज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेवि भगवता प्रतियोधितमिति भावः ।
उपभोगद्वारम्- . ___ लोकः कस्मै प्रयोजनाय बनस्पतिकायापर्दयतो ? त्यांह-' अस्यं चैव जीवितस्ये '-त्यादि । अस्यैव नवरस्य जीवितस्य-जीवनस्य मुखार्थम्आहार-वस्त्र-पात्र-माल्य-गन्ध-चूर्ण-तालटन्ता-ला-खट्वा-पल्यंङ्क-शिविकाशकट-हल-मुसल-पीठ-फलक-सिंहासन-दण्ड-लकुट-कपाट-वीणा-शालभजिका -निर्माण-तापन-प्रतापन-प्रकाशने-न्धन-तैलायर्थमित्यर्थः । तथा-परिवन्दनमानन-पूजनाय, परिवन्दन-प्रशंसा, तदर्थ, यथा-कश्चित् स्वमशंसार्थम् उपवनादो पत्रादिकर्तनकलाकौशलेन वृक्षलतादीनां पत्रादीनि तथा छेदयति यथा वस्कर्तनेन लिए जीव को परिज्ञा (उपदेश) अवश्य स्वीकार करना चाहिए ।
उपभोगद्वार____ लोग किस प्रयोजन से वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं ! यह बतलाते हैं, इसी नाशशील जीवन के सुख के लिए अर्थात् आहार, वस्त्र, पात्र, माला गंध, चूर्ण, तालवृन्त (पंखा), भागल, खाट, पलंग, पालकी, गाडी, हल, मूसल, पीढा, (वाजोट) फलको (पाट), सिंहासन, डंडा, लकडी, किवाड, वीणा, पुतली आदि बनवाने के लिए, तपाना, विशेष तपाना, प्रकाशन, ईंधन, और तैल आदि के प्रयोजन से वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं । तथा प्रशंसा के लिए भी वनस्पति की हिंसा करते हैं, जैसे कोई पुरुष अपनी प्रशंसा के लिए बगीचा आदि में पत्ता वगैरह काटने की कला में कुशलता प्रकट करने के अभिप्राय से वृक्ष लता वगैरह को इस प्रकार काटता है जिससे उसमें જીવને પરિણા (ઉપદેશ)નો અવશ્ય સ્વીકાર કરવો જોઈએ.
ઉપભેગાર— લેક શું પ્રજનથી વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે તે બતાવે છે. આ નાશ પામવાવાળા જીવના સુખ માટે, અથ–આહાર, વસ્ત્ર, પાત્ર, માલા, ગંધ, ચૂર્ણ, પંખા
गरिया, भाट, प, पाली, गाडी, स, भूसता मान्ने, पाट, सिंहासन, 331, લાકડી, કમાડ, વણ, પતલી વગેરે બનાવવા માટે, તપાવવું વિશેષ તપાવવું, પ્રકાશન, ઈશ્વન-(બાળવાના લાકડા) અને તૈલ આદિના પ્રયજનથી વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. તથા પ્રશંસા માટે પણ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે, જેમકે-કેઈ પુરુષ પોતાની પ્રશંસા માટે બગીચાં આદિમાં પાંદડા વગેરે કાપવાની કલામાં કંશળતાં બતાવવાનો અભિપ્રાયથી
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ २.६ वनस्पतिकायहिंसा गजाश्वमृगव्याघसिंहादीनां स्वरूपं दधाना क्षादयस्तस्योपवनादेविशिष्टशोभा जनयन्ति।
__ मानन जनसत्कारस्तदथैयथा-स एव पत्रादिकर्तनकलाकुशलो मालाकारः स्वमाननार्थ कर्तरीशस्त्रेण वृक्षलतादीनां पत्रादिकं कुन्तति । पूजनबस्त्ररत्नादिलाभस्तदर्थम् , यथा-देवमतिमायर्थ पत्रपृप्पफलादीनां त्रोटने । तथाजातिमरणमोचनाय जन्ममरणबन्धमोचनाथै, यथा-मुक्तिकामन पूजायां पुष्पपत्रादिसमुच्छेदने, तथा-दुःखमतिघावहेतुं व्याधिशमनार्थम्-ओपधि
क्षलतादीनां मूलकन्दशाखापत्रपुष्पफलादिभेदने, स जीवनसुखाद्यर्थी स्वयमेव हाथी, घोडा, हिरन, याघ, सिंह आदि का आकार बन जाता है और इससे उस बगीचे की सुन्दरता बढती है, ऐसा जानकर करता है।
जनसत्कार के लिए भी वनस्पति की हिंसा की जाती है, जैसे- पत्ता वगैरह काटने में कुशल वही पूर्वोक्त माली कैंची से वृक्षों या लताओं के पत्ता आदि काटता है । तथा पूजन के लिए अर्थात बलों और रनों के लिए भी वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं। जैसे-देव प्रतिमा आदि के लिए पत्र, फूल, फल तोडने में।
जन्म मरण से छुटकारा पाने से लिए भी उक्त हिंसा की जाती है। जैसे मुक्ति की इच्छा से पूजा के लिए फूल-फल तोडने में । दुःखों का प्रतीकार करने के लिए भी यह हिंसा की जाती है । जैसे-रोग मिटाने के लिए ओषधि, वृक्ष, लता, मूल, कन्द, शाखा, पत्र, फूल मादि तोड़ने में हिंसा की जाती है। વૃક્ષ લતા વગેરેને એવા પ્રકારે કાપે છે કે તેમાં હાથી, ઘોડા, હરણ, વાઘ, સિંહ આદિને આકાર બની જાય છે, અને તેથી એ બગીચાની સુંદરતા વધે છે. એવું સમજીનેજ કરે છે.
જન-સત્કાર માટે પણ વનસ્પતિની હિંસા કરવામાં આવે છે, જેમ-પાંદડાં વગેરેને કાપવામાં કુશલ આગળ કહેલું તેજ માળી કૅચી (કાતર)થી વૃક્ષો અથવા લતાઓનાં પત્તા આદિ કાપે છે. તથા પૂજન માટે અર્થાત વચ્ચે અને રત્નને માટે પણ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે, જેમ-દેવપ્રતિમા આદિ માટે પત્ર ફૂલ ફલ તેડવામાં. - જન્મ-મરણથી છુટવા માટે પણ પૂર્વ કહેલી હિંસા કરવામાં આવે છે, જેમકેમુક્તિની ઈચ્છાથી પૂજા માટે ફલ ફેલ તેડવામાં.
દુઓને પ્રતિકાર કરવા માટે પણ એ હિંસા કરવામાં આવે છે. જેમકે–રોગનિવારણ કરવા માટે ઔષધી, વૃક્ષ, લતા, મૂલ, કન્દ, શાખા, પત્ર, ફૂલ આદિ તેડવામાં હિંસા કરલામાં આવે છે.
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आंधारात वनस्पतिशस्त्र वनस्पतिकायोपमर्दकं द्रव्यमावशस्त्रं समारमते व्यापारयति । अन्येषा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति । अन्यान या वनस्पतिशस्त्रं समारममाणान् समनुजानातिन अनुमोदयति ।
तत्-चनस्पतिकायसमारम्म, तस्य बनस्पतिसमारम्म कुर्वतः कायितुः अनुमोदयितुश्च अहिताय भवति । तथा-तत् । तस्य अबोधयेसम्पत्वालामाय भवति । || सू० ६ ॥
येन तु तीर्थङ्करादिसमोपे वनस्पतिकायस्वरूपं परिज्ञावं, स एवं विभावयतीत्याइ-'से तं.' इत्यादि।
से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय सोचा खलु भगवओ भण
इस प्रकार जीवन को सुखी बनाने का अभिलापी वह पुरुप वनस्पतिकाय को हिंसा करनेवाले द्रव्य और भावशस्त्र का स्वयं उपयोग करता है, दूसरों से उपयोग कराता है और वनस्पतिशस्त्र का उपयोग करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है ।
__ वनस्पतिकाय का वह आरंभ, आरंभ करने वाले, कराने वाले और अनुमोदन करने वाले के अहित के लिए होता है और सम्यक्त्व की अप्राप्ति का कारण बनता है । सू० ६ ॥
तीर्थकर आदि के निकट वनस्पतिकाय का स्वरूप जिसने जान लिया है, वह इस प्रकार विचार करता है-'सेतं.' इत्यादि।
मूलार्थ-वह पुरुष भगवान् या अनगारों से सुनकर समझ-बूझकर संयम
એ પ્રમાણે જીવનને સુખી બનાવવાના અભિલાષી તે પુરુષ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરવાવાળા દ્રવ્ય અને ભાવ શસ્ત્રને સ્વયં ઉપયોગ કરે છે, બીજા પાસે ઉપયોગ કરાવે છે અને વનસ્પતિશાસ્ત્રને ઉપયોગ કરવાવાળા બીજને અનુમોદન આપે છે.
વનસ્પતિકાયને આ આરંભ, આરંભ કરવાવાળાને, કરાવવાવાળાને અને અનુમોદન ४२वापान महित भाटे छ भने सभ्यत्पनी मास्तिन २५ मन छ. ॥ सू०६ ॥
તીર્થકર આદિના સમીપે વનસ્પતિકાયનું સ્વરૂપ જેણે જાણી લીધું છે. તે આ प्रभारी वियार ४२ छ-'से तं.' याह.
મૂલાથ–તે પુરુષ ભગવાન અથવા અણગારો પાસેથી સાંભળી-સમજી-બુઝીને
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भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ सू. ६ वनस्पतिविराधनादुप्फलम् ६३३ गाराणं चा अंतिए इहमेगेसि णायं भवइ--एस खलु गंधे, एम खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इचत्यं गदिए लोए, जमिणं विख्वरूवेहि सत्येहिं चणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ।।सू० ७॥
छायास तत् संयुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके, इहैकेपां ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्या, एप खलु मोहः, एप खलु मारः, एप खलु नरकः । इत्यर्थ गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्वः वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिशस्त्र समारभगाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिनस्ति ॥ सू० ७॥
टीका-यः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्य, अनगाराणां तदीयश्रमणनिर्ग्रन्यानां वा अन्तिके श्रुत्वा, आदानीयम् उपादेयसर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं, समुत्थाय-अङ्गीकृत्य विहरति, स तदबनस्पतिकायसमारम्भणं संवुध्यमाना= अहितायोधिजनकत्वेन विज्ञावा सन् एवं विभावयति एवं खलु०' इत्यादि । ग्रहण करके विचरता है । वह इस प्रकार समझता है-वनस्पतिकाय का आरंभ ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है। गृद्ध लोग इसके लिए नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का आरंभ करके, शस्त्र का प्रयोग करते हुए और भी अनेक प्राणियों का घात करते हैं । सू. ७ ॥
टीकार्थ-~-जो पुरुप तीर्थकर से या उनके श्रमण निम्रन्थो से सर्वसावध स्याग रूप संयम स्वरूप समझकर और उसे अंगीकार करके विचरता है वह वनस्पतिकाय के आरंभ को अहितकर और अबोधिजनक समझकर इस प्रकार विचार करता है:---- 'एवं खलु' इत्यादि। સંયમ ગ્રહણ કરીને વિચારે છે. તે આ પ્રમાણે સમજે છે-વનસ્પતિકાયને આરંભ ગ્રંથ છે, એ મોહ છે, એ માર છે, એ નરક છે. વૃદ્ધ લેક એ માટે નાના પ્રકારના શથી વનસ્પતિકાયને આરંભ કરીને અને પ્રવેશ કરતા થકા બીજા પણ અનેક मायामाना धात ४२ छ. ।। २.७॥
ટીકાથ-જે પુરૂષ તીર્થકરથી અથવા તેમના શ્રમણ નિર્ચ પાસેથી સર્વસાવદ્ય (કર્મના) ત્યાગરૂપ સંયમના સ્વરૂપને સમજી ને અને તેને અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે વનસ્પતિકાયના આરંભને અહિતકર અને અધિજનક સમજી આ प्रमाणे क्यिार ४२ छ-' एवं खलु ईत्यादि. प्र. मा-८०
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६३२
आचारासन वनस्पतिशस्त्रं-वनस्पतिकायोपमर्दकं द्रव्यमावशस्त्रं समारमते च्यापारयति । अन्येवा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति । अन्यान या वनस्पतिशस्त्रं समारममाणान् समनुनानाविन अनुमोदयति ।
___ तत् वनस्पतिकायसमारम्भ, तस्य वनस्पतिसमारम्म कुर्वतः कारयितुः अनुमोदयितुश्च अहिताय भवति । तथा-तत् । तस्य अबोधयेम्सम्यक्त्वालामाय भवति । । सू० ६ ॥
येन तु तीर्थङ्करादिसमीपे वनस्पतिकायस्वरूपं परिज्ञातं, स एवं विभावयतीस्याह-'से तं.' इत्यादि।
से तं संयुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अण.
इस प्रकार जीवन को सुखी बनाने का अभिलापी वह पुरुप वनस्पतिकाय को हिंसा करनेवाले द्रव्य और भावशस्त्र का स्वयं उपयोग करता है, दूसरों से उपयोग कराता है भार वनस्पतिशस्त्र का उपयोग करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है ।
वनस्पतिकाय का वह आरंभ, आरंभ करने वाले, कराने वाले और अनुमोदन करने वाले के अहित के लिए होता है और सम्यक्त्व की अप्राप्ति का कारण बनता है । सू० ६ ॥
तीर्थकर आदि के निकट वनस्पतिकाय का स्वरूप जिसने जान लिया है, वह इस प्रकार विचार करता है-' से तं.' इत्यादि ।
मूलार्थ-वह पुरुष भगवान् या अनगारों से सुनकर समझ-बूझकर संयम
એ પ્રમાણે જીવનને સુખી બનાવવાના અભિલાષી તે પુરુષ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરવાવાળા દ્રવ્ય અને ભાવ શસ્ત્રને સ્વયં ઉપયોગ કરે છે, બીજા પાસે ઉપયોગ કરાવે છે અને વનસ્પતિશઅને ઉપયોગ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે.
વનસ્પતિકાયને આ આરંભ, આરંભ કરવાવાળાને, કરાવવાવાળાને અને અનુમોદન કરવાવાળાને અહિત માટે છે અને સમ્યક્ત્વની અપ્રાપ્તિનું કારણ બને છે. I સૂ૦૬ .
તીર્થકર આદિના સમીપે વનસ્પતિકાયનું સ્વરૂપ જેણે જાણી લીધું છે. તે આ प्रभार दिया२ ४२ छ-'से तं.' त्या.
મૂલાઈ–તે પુરુષ ભગવાન અથવા અણગારે પાસેથી સાંભળી-સમજી-બુઝીને
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ सु. ७ वनस्पतिविराधनादुष्फलम्
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इत्यर्थम् = एतदर्थं कर्मबन्ध - मोह-मरण - नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव लोकः अज्ञानवशवर्ती जीवः, गृद्धः-लिप्सुरस्ति । यद्वा-गृद्धः = भोगाभिलापी, लोकः संसारी जीवः इत्यर्थम् = एतदर्थमेव = ग्रन्थ- मोह - मरणनरकार्थमेव मवर्त्तत इति शेषः ।
लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव प्रवर्त्तत इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह यदिमम् ' इत्यादि ।
यद्=यस्माद्, विरूपरूपैः=नानाविधैः शस्त्रैः पूर्वोक्तप्रकारैः, वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिकायोपमर्दनरूपसावधव्यापारेण इसे = वनस्पतिकायं विहिनस्ति । तया वनस्पतिशास्त्रं समारभमाणः = व्यापारयन् अन्यान् = पृथिवीकायादीन् अनेकरूपान् =सार स्थावरांश्च तदाश्रितान् प्राणान् = प्राणिनः विहिनस्ति = उपमर्दयति || ७||
अज्ञानी नीच कर्मबंध, मोह, मरण और नरक रूप इन फलों को प्राप्त करके भी बार-बार इसी में गृद्ध होते हैं । अथवा भोग के अभिलाषी पुरुष इसी ग्रंथ, मोह, मरण और नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं ।
लोग पुन - पुनः कर्मबंध आदि के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं। यह जो कथन किया है खो कैसे ज्ञात हुआ ? इस जिज्ञासा के होने पर कहते हैं-'यदिमम् . ' इत्यादि । क्यों कि नाना प्रकार के पूर्वोक्त शस्त्रों द्वारा वनस्पतिकाय को हिंसा करने वाले लोग सावय व्यापार से वनस्पतिकाय का घात करते हैं । तथा वनस्पतिकाय का आरंभ करते हुए अन्य पृथ्वीकाय आदि अनेक प्रकार के तदाश्रित नम्र और स्थावर जीवों की घात करते हैं । सू० ७ ॥
અજ્ઞાની જીવ કર્મબંધ, મેાહ, મરણુ અને નરકરૂપ એ ફળાને પ્રાપ્ત કરીને પણ વાર-વાર એમાં ગૃદ્ધ થાય છે. અથવા ભાગના અભિલાષી પુરુષ આ ગ્રંથ, મેહ, મરણુ અને નરક માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે.
લાક પુનઃ પુનઃ (ફ્રી-ફ્રી) કમબંધ વગેરે માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે; એ કથન જે युष्ट छे, ते देवी शेते लघुवामां मन्युं १ से छज्ञासा थथाथी ४हे छे. 'यदिमम्.' त्यिाहि. કેમકે નાના પ્રકારનાં પૂર્વોક્ત શસ્ત્ર દ્વારા વનસ્પત્તિ કાયની હિંસા કરવાવાળા લેક સાવધ વ્યાપારથી વનસ્પતિકાયને ઘાત કરે છે, તથા વનસ્પતિકાયને આરબ કરતા થકા, અન્ય પૃથ્વીકાય આદિ અનેક પ્રકારના તત્કાશ્રિત ત્રસ અને સ્થાવર જીવાને धारे छे. ॥ सू. ७
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भाचारास्त्रे
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इह = मनुष्यलोके एकेषां श्रमण निर्ग्रन्योपदेशसंजातसम्यगत्रबोधत्रैराम्याणामात्मार्थिनामेवं ज्ञातं विदितं भवति । किं ज्ञातं भवतीत्याकाङ्क्षायामाह - 'एष खलु ० ' इत्यादि ।
एपः वनस्पतिशस्त्रसमारम्भः खलु - निश्वयेन ग्रन्थः = कर्मबन्धः, कारणे कार्योपचारात् कारणभूतो वनस्पतिशास्त्रसमारम्भ एव arrest are reयुष्यते । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । तथा एपः वनस्पतिशखसमारम्भः मोड : विपर्यासः - - अज्ञानम् । तथा - एप एव मारः = मरणं - निगोदादिमरणरूपः । तथा एष एव नरक:= नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् ।
इस मनुष्य लोक में जिन्हें श्रमण निर्गयों के उपदेश से सम्यग्ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो गया है, उन्हीं को यह विदित होता है । क्या विदित होता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए आगे कहते हैं-' एप खलु ग्रन्थ० इत्यादि ।
"
वनस्पतिकाय का आरंभ निश्चय से ग्रंथ अर्थात् कर्मबंधरूप है । कारण में कार्य का उपचार करके आरंभ को कर्मबंध कहा है । वस्तुतः वह कर्मबंध का कारण है । इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए ।
वनस्पतिकाय का समारंभ मोह अर्थात् अज्ञान है- अज्ञानजनक है । यह मार है अर्थात् निगोद आदि में मृत्यु का कारण है । यह नरक है अर्थात् नारकी जीवों को दश प्रकार की यातना का कारण है ।
આ મનુષ્યલેાકમાં જેને નિગ્રંન્થાના ઉપદેશથી સભ્યજ્ઞાન, અને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થઈ ગયા છે. તે આ જાણે છે. શું જાણે છે ? એ શંકાનું સમાધાન કરવી માટે આગળ કહે છે,
4
एष खलु प्रन्थ०
धत्याद्दि,
વનસ્પતિકાયને આરબ નિશ્ચય ગ્રંથ છે-અર્થાત્ ક બધપ છે, કારણમાં કાર્યના ઉપચાર કરીને આરંભને કમખધ કહે છે, વસ્તુતઃ તે કર્મ ખંધનું કારણ છે. એ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું જોઈએ.
વનસ્પતિકાયને સમારંભ માઢ અર્થાત્ અજ્ઞાન છે—અજ્ઞાનજનક છે, તે માર છે, અર્થાત્ નિગાદ આદિમાં મૃત્યુનું કારણ છે. તે નરક છે, અર્થાત્ નારકી જીવાને સ પ્રકારની યાતનાઓનું કારણ છે.
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आचारचिन्तामणि टीकाअध्य.१३.५.मनुष्यशरीरवनस्पतिशरीरयोः साम्यम् ६३७ 'छिण्ण मिलाइ, इमपि आहारगं, एयपि आहारगं, इमपि अणिञ्चयं एयपि अणिचयं, इमंपि असासयं एयपि असासयं, इमंपि चभोवचइयं एयपि चओवचइयं, इमंपि चिपरिणामधम्मयं एयपि विपरिणामधम्मयं ॥ भू०८॥
छायास ब्रवीमि-इदमपि जातिधर्मकम् एतदपि जातिधर्मकम्, इदमपि वृद्धिधर्मकम् एतदपि वृद्धिधर्मकम् , इदमपि चित्तवत् एतदपि चित्तवत् , इदमपि छिन्नं म्लायति एतदपि छिन्नं म्लायति, इदमपि आहारकम् एतदपि आहारकम्, इदमपि अनित्यकम् एतदपि अनित्यकम्, इदमपि अशाश्वतम् एतदपि अशाश्वतम् , इदमपि चयोपचयिकम् एतदपि चयोपचयिकम् , इदमपि विपरिणामधर्मकम् एतदपि विपरिणामधर्मकम् । सू० ८॥
टीका-~येन साक्षाहगवनन्मुखाद् वनस्पतेः सचेतनत्वं श्रुतं सोऽहं ब्रवीमि यथा भगवता कथितं, तथा कथयामीत्यर्थः । प्रतिज्ञातमर्थ प्रदर्शयति इदमपीत्यादि ।
यह भी आहारक है, वह भी आहारक है। यह भी अनित्य है, वह भी भनित्य है। यह भी अशाश्वत है, वह भी अशाश्वत है । यह भी चय-उपचय वाला है, वह भी चय-उपनय वाला है। यह भी विविध प्रकार से परिणमनशील है और वह भी विविध प्रकार से परिणमनशील है ।। सू० ८॥
टीकार्थ-जिसने साक्षात् भगवान् के मुख से वनस्पतिकाय की सचेतनता सुनी है वही मैं कहता हूँ-जैसा भगवान् ने कहा है वैसा ही मैं कहता हूँ। यही बात कहते हैं-'इदमपि०' इत्यादि ।
પણ આહારક છે. આ પણ અનિત્ય છે. તે પણ અનિત્ય છે. આ પણ અશાશ્વત છે. તે પણ અશાશ્વત છે. આ પણ ચય-ઉપચયવાળા છે, તે પણ ચય-ઉપચયવાળા છે. આ પણ વિવિધ પ્રકારથી પરિણમનશીલ છે, અને તે પણ વિવિધ પ્રકારથી પરિણમન શીલ છે. સ. ૮
ટીકાથ–જેણે સાક્ષાત ભગવાનના મુખથી વનસ્પતિકાયની સચેતનતા સાંભળી છે તેજ हुई छु-२ सापाने छु छ, ते-४ ईई छु, मे पान छ-'इंदमपि." त्या
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भोचारासो वनस्पतिकर्मसमारम्मफलपदर्शनपुरस्सरं वनस्पतिसमारम्भेऽनेकत्रसस्थावरजीवहिंसावश्यम्भाविनीति मदर्शितम् , संमति वनस्पतेः सचेतनत्वपकायां तस्य मनुष्य- : शरीरवत् सचेतनत्वमस्तीति प्रदर्शयति-' से वेमि. ' इत्यादि।
यद्वा-यया मनुप्यशरीरे चैतन्यं सुगम, तथा वनस्पतिकायेऽपि, तस्माई वनस्पतेर्मनुष्यशरीरसादृश्यं दर्शयति सूत्रकार:-'से बेमि.' इत्यादि ।
मूलम्से वेमि-इमंपि जाइधम्मयं एयपि जाइधम्मयं, इमपि बुद्धिम्मयं एपंपि बुढिधम्मय, इमंपि चित्तमंतयं एयपि चित्तमंवयं, इमपि छिष्णं मिलाइ एयाप
वनस्पतिकाय के मारंभ का फल प्रगट करके यह भी प्रदर्शित कर दिया गया है। कि वनस्पतिकाय का आरंभ करने से अन्य स और स्थावर जीवों की हिंसा भी अवश्य होती है । अब वनस्पतिकाय के सचेतन होने में शंका होने पर उसकी मनुष्य शरीर के समान सचेतनता सूत्रकार प्रकट करते हैं-'से वेमि.' इत्यादि ।
अथवा--जैसे मनुष्यशरीर में चैतन्य को समझना सुगम हैं उसी प्रकार बनस्पतिकाय में भी। अत एव वनस्पति मनुष्यशरीर के समान है, यह बात सूत्रकार कहत हैं-'से वेमि.' इत्यादि।
मूलार्थ-वह मैं कहता हूँ-यह (मनुष्यशरीर) जन्मशील है, वह (वनस्पतिशरीर) भी जन्मशील है। यह वृद्धिशील है, वह भी वृद्धिशील है। यह सचित्त है वह मा सचित्त है । छेदने पर यह मुरझा जाता है, वह भी छेदने पर मुरझा जाता है।
વનસ્પતિકાયના આરંભનું ફળ પ્રગટ કરીને એ પણ પ્રદર્શિત કરી આપ્યું છે કેવનસ્પતિકાયને આરંભ કરવાથી અન્ય ત્રસ અને સ્થાવર જીન હિંસા પણ અવે થાય છે. હવે વનસ્પતિકાયની સચેતનતા હવામાં શંકા હોવાથી તેની સચેતેના भनुष्यशरीर नी सन्येतनता समान सूत्रा२ प्रगट ४३ छ-'से बेमि.' याति.
અથવા–જેમ મનુષ્ય શરીરમાં ચૈતન્યને સમજવામાં સુગમતા છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિકાયમાં પણ સુગમતા છે. એ માટે વનસ્પતિ મનુષ્ય શરીરના સમાન છે. એ વાત * * सूत्रधार ४ छ:-" से मि.' त्याहि.
મૂલા –તે હું કહું છું–આ (મનુષ્ય શરીર) જન્મશીલ છે તે વનસ્પતિ શરીર) પણ જન્મશીલ છે, આ વૃદ્ધિશીલ છે, તે પણ વૃદ્ધિશીલ છે, આ સચિત છેદવાથી તે સૂકાઈ જાય છે, તે પણ છેદવાથી સૂકાઈ જાય છે. આ પણ આહારક છે, તે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१३.५.८ मनुष्यशरीरयनस्पतिशरीरयो साम्यम् ६३९ युक्तम्, एतदपि धनस्पतिशरीरं चित्तवत्-चेतनावत् , लजालुधात्र्यादीनां संकोचविकास-स्वापा-वबोधदर्शनात् । इदमपि मनुष्यशरीरं हस्तादि छिन्नं सत् म्लायति शुष्यति, एतदपि वनस्पतिशरीरमपि पल्लवफलपुप्यादि छिन्नं सत् म्लायतिशुष्कं भवति । इदमपि आहारकम् क्षीरोदनाधाहारकरणशीलं, तथैव एतदपि:वनस्पतिशरीरं भूजलाचाहारमोनि, न चैतदाहारकत्वमचेतनानां दृष्टम् ।।
तथा इदमपि मनुप्यशरीरम् अनित्य न सर्वदाऽवस्थायि, एतदपि बनस्पतिशरीरम् अनित्यकम् आयुपोऽवधिसत्वात् , वनस्पतिशरीरस्य हि उत्कृष्टमायुर्दशवर्पसहस्राणि । तथा-इदमपि-मनुष्यशरीरम् अशाश्वत-प्रतिक्षणमावीचीमरक्यों कि लम्जावंती धात्री आदि वनस्पत्तियों में संकोच, विकास, स्वाप (निद्रा) और अवयोध (जागना) देखा जाता है । हाथ आदि मनुष्यशरीर छेदने पर मुरझा जाता है उसी प्रकार पत्ता, फूल, फल आदिरूप बनस्पतिशरीर भी छेदने पर मुरझा जाता है। यह -मनुष्यशरीर दूध और ओदन आदि का आहार करता है और वनस्पति शरीर भी पृथ्वी, जल आदि का आहार करता है । आहार करने कि क्रिया अचेतन में नहीं देखी जाती।
मनुष्यशरीर अनित्य है-सदा हरने वाला नहीं है, इसी प्रकार वनस्पतिशरीर भी अनित्य है, क्यों कि उसकी आयु की सीमा है । वनस्पतिशरीर की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की है।
मनुष्य शरीर अशाश्वत है-आवीचिमरण प्रतिक्षण होता रहता है, और वनस्पति કેમકે લજાવતી-નરીસામ), ધાત્રી આદિ વનસ્પતિઓમાં સંકેચાવું, વિકાસ, નિદ્રા અને જાગવું જોવામાં આવે છે.
હાથ-આદિ મનુષ્ય શરીર છેદવાથી સૂકાઈ જાય છે. તે પ્રમાણે પાંદડા, ફલ, ફૂલ આદિ રૂપ વનસ્પતિશરીર પણ છેદવાથી સૂકાઈ જાય છે. આ મનુષ્યશરીર દૂધ અને ભાત વગેરેને આહાર કરે છે, તેમ વનસ્પતિશરીર પણ પૃથ્વી, જલ આદિને આહાર કરે છે, આહાર કરવાની ક્રિયા અચેતનમાં જોવામાં આવતી નથી. . મનુષ્ય શરીર અનિત્ય છે. હમેશાં સ્થિર રહેવાવાળું નથી, એ પ્રમાણે વનસ્પતિશરીર પણ અનિત્ય છે. કેમકેતેની આયુષ્યની સીમા છે. વનસ્પતિશરીરની ઉત્કૃષ્ટ આયુ દસ હજાર વર્ષની છે.
મનુષ્ય શરીર આશાશ્વત છે-આવી ચિમરણું પ્રતિક્ષણ થતું રહે છે, તેમ
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आंबोराङ्गस्त्रे
इह पुरुषस्योपदेशयोग्यतया सामर्थ्येन संनिहितत्वातच्छरीरं संनिकृष्टवा - चिनेदशब्देन परामृश्यते । इदमपि मनुष्यशरीरं, यद्वा - सामान्यरूपेण सकाये चैतन्यस्य भुज्ञेयत्वात् इदं=त्र सशरीरं, जातिधर्मकं - जातिः - जननं, तद्धर्मकं - जननस्वभावं, एतदपि = वनस्पतिशरीरमपि जातिधर्मकं = मनुष्यशरीरवद् वनस्पतिशरीरमपि जननस्वभावकमस्तीत्यर्थः । तथा इदमपि मनुष्यशरीरं वृद्धिधर्मकं = बालकौमाराद्यवस्थामाश्रित्य वर्धनस्वभावम्, एतदपि वनस्पतिशरीरं अङ्कुर किसलयपत्रस्कन्धशाखा प्रशाखादिना वर्धनशीलम् । इदमपि मनुष्यशरीरं चित्तवत् = चेतना
'इदम्' शब्द का प्रयोग समीपवर्ती वस्तु के लिए किया जाता है | मनुष्य ही उपदेश का पात्र है और उसका शरीर भी अत्यन्त समीप है अतः मनुष्य के शरीर को 'इदम् ' शब्दद्वारा निर्दिष्ट किया गया है । अथवा त्रस जीव के शरीर में चैतन्य को समझना सुगम है, इस कारण 'इदम्' का अर्थ मनुष्यशरीर के बजाय त्रस जीव का शरीर समझ लेना चाहिए ।
यह मनुष्यशरीर या त्रस जीव का शरीर उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है । तथा मनुष्य शरीर वृद्धिशीले है - बाल, कुमार आदि अवस्थाओं में बढता जाता है उसी प्रकार वनस्पतिशरीर भी अंकुर, किसलय, पत्र, स्कंध, शाखा और प्रशाखा आदि रूप से बढ़ता जाता है | मनुष्यशरीर चेतनावान् है उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी चेतनावान् है,
' इदम् ' शहना प्रयोग सभीपवर्ती वस्तु भाटे ४२वामां आवे छे.. मनुष्य ઉપદેશને પાત્ર છે, અને તેનું શરીર અત્યન્ત સમીપ છે. એ કારણથી મનુષ્યના शरीरने ' इदम्' शब्द्द्द्वारा निर्किट भ्यु छे. अथवा त्रस कुंपना शरीरमा चैतन्यने सभन्भवु सुगम छे, थे अरथी 'इदम् 'न! अर्थ मनुष्य शरीरना महले त्रस लवनं શરીર સમજી લેવું જોઈ એ.
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આ મનુષ્યશરીર અથવા ત્રસજીવનું શરીર ઉત્પન્ન થવાના સ્વભાવવાળુ' છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પશુ ઉત્પન્ન થવાના સ્વભાવવાળુ છે. તથા મનુષ્યશરીર વૃદ્ધિ શીલ છે—ખાલકુમાર, આદિ અવસ્થાઓમાં વધતુ જાય છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિશરીર या अङ्कुर, सिलय-भजा, धान, पत्र, २४६, शामा भने प्रशामा महिषथी वध्ये જાય છે. મનુષ્યશરીર ચેતનાવાન છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનુ શરીર પણ ચેતનાવાન છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१७.५८.८ मनुष्यशरीरवनस्पतिशरीरयो साम्यम् ६३९ युक्तम्, एतदपि वनस्पतिशरीरं चित्तवत्-चेतनावत् , लज्जालधाच्यादीनां संकोचविकास-स्वापा-बोधदर्शनात् । इदमपि मनुष्यशरीरं हस्तादि छिन्नं सत् म्लायति शुप्यति, एतदपि वनस्पतिशरीरमपि पल्लवफलपुप्पादि छिन्नं सत् म्लायतिशुष्कं भवति । इदमपि आहारकम् क्षीरोदनाधाहारकरणशीलं, तथैव एतदपिबनस्पतिशरीरं भूजलाधाहारमोनि, न चैतदाहारकत्वमचेतनानां दृष्टम् ।।
तथा इदमपि-मनुष्यशरीरम् अनित्यक- न सर्वदाऽवस्थायि, एतदपि बनस्पतिशरीरम् अनित्यकम् आयुपोऽवधिसत्वात् , वनस्पतिशरीरस्य हि उत्कृष्टमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तथा इदमपि मनुष्यशरीरम् अशाश्वतं-प्रतिक्षणमावीचीमरक्यों कि लज्जावती धात्री आदि वनस्पत्तियों में संकोच, विकास, स्वाप (निद्रा) और अवबोध (जागना) देखा जाता है । हाथ आदि मनुष्यशरीर छेदने पर मुरझा जाता है उसी प्रकार पत्ता, फूल, फल आदिरूप वनरपतिशरीर भी छेदने पर मुरझा जाता है। यह मनुष्यशरीर दूध और ओदन आदि का आहार करता है और वनस्पति शरीर भी पृथ्वी, जल आदि का आहार करता है। आहार करने कि क्रिया अचेतन में नहीं देखी जाती।
मनुष्यशरीर अनित्य है-सदा ठहरने वाला नहीं है, इसी प्रकार वनस्पतिशरीर भी अनित्य है, क्योंकि उसकी आयु की सीमा है । वनस्पतिशरीर की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की है।
मनुष्य शरीर अशाश्वत है-आवीचिमरण प्रतिक्षण होता रहता है, और वनस्पति કેમકે લજજાવતી-(રીસામણી), ધાત્રી આદિ વનસ્પતિઓમાં સંકેચાવું, વિકાસ, નિદ્રા અને જાગવું જોવામાં આવે છે.
હાથ-આદિ મનુષ્યશરીર છેદવાથી સૂકાઈ જાય છે. તે પ્રમાણે પાંદડા, ફલ, ફલ આદિ રૂપ વનસ્પતિશરીર પણ છેદવાથી સુકાઈ જાય છે. આ મનુષ્ય શરીર દુધ અને ભાત વગેરેને આહાર કરે છે, તેમ વનસ્પતિશરીર પણ પૃથ્વી, જલ આદિને આહાર કરે છે, આહાર કરવાની ક્રિયા અચેતનમાં જોવામાં આવતી નથી.
મનુષ્ય શરીર અનિત્ય છે. હમેશાં સ્થિર રહેવાવાળું નથી, એ પ્રમાણે વનસ્પતિશરીર પણ અનિત્ય છે. કેમકે તેની આયુષ્યની સીમા છે. વનસ્પતિશરીરની ઉત્કૃષ્ટ આયુ દસ હજાર વર્ષની છે. કે મનુષ્ય શરીર આશાશ્વત છે-આવચિમરણ પ્રતિક્ષણ થતું રહે છે, તેમ
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आचाराने
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न मरणात् एतदपि = वनस्पतिशरीरम् अशाश्वतं प्रतिक्षणमरणशीलम् । यथाइदमपि मनुष्यशरीरं चयापचयिकम् इष्टानिष्टाहारादिकं प्राप्य वृद्धिहासशीलम्, तथा - एतदपि वनस्पतिशरीरं चयापचयिकम् - अनुकूल-प्रतिकूलनलचावादिना वृद्धिद्वासस्वभावम् । यथा-इदमपि मनुष्यशरीरं विपरिणामधर्मकं विविधपरिणामशीलम्, तचद्व्याधिवशाद् उदरटद्धिपाण्डुकशत्यादिरूपं, रसायनस्नेहाद्युपचारवशाद् विशिष्टरूपबलोपचयादिरूपं वा विविधपरिणामं प्राप्नोति तथा एतदपि = वनस्पतिशरीरं विपरिणामधर्मकं = व्याधिवशात् पत्रपुष्पफलादीनां वर्णादिध्वन्यथाभावदर्शनात्, विशिष्टदोहद प्रदानेन कदाचित्तेपामुपचयदर्शनाद् विविधपरिणामशीलम् । यथा जननस्वभावादिधर्माणां समुदायः सचेतने मनुष्यशरीरे
शरीर भी अशाश्वत है-उसका भी प्रतिक्षण मरण होता है । मनुष्यशरीर इष्टानिष्ट आहार आदि को पाकर बढता - घटता रहता है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी अनुकूल जल - वायु से बढ़ता और प्रतिकूल जल वायु से घटता है । जैसे मनुष्यशरीर में नाना प्रकार के परिणमन होते हैं-विविध बीमारियों से उदर का बढना, पाण्डु, कृशता आदि, तथा रसायन और घृत आदि के सेवन से विशिष्टरूप और बल की वृद्धि होती है, उसी' प्रकार वनस्पति का शरीर भी विविध प्रकार के परिणमनवाला है -रोग होने पर वनस्पति के पत्ते, फूल, फल आदि और ही तरह के देखे जाते हैं, विशेष प्रकार का दोहद देने से कभी-कभी उन में उपचय भी होता है । इस प्रकार वनस्पति का शरीर भी विविध परिणमन वाला है । जननस्वभाव भादि धर्मों का समूह सचेतन मनुष्य शरीर में या त्रस
વનસ્પતિશરીર પણ અશાશ્વત છે તેનું પણ પ્રતિક્ષણ મરણ થતુ' રહે છે. મનુષ્ય શરીર ઈષ્ટાનિષ્ટ આહાર ઋતિથી વધતુ ઘટતુ રહે છે તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ અનુકૂલ જલ–વાયુથી વધે છે અને પ્રતિકૂળ જલવાયુથી ઘટે છે. જેમ મનુષ્યશરીરમાં નાના પ્રકારનું પરિણમન થાય છે, વિવિધ બિમારીઓથી પેટનું વધવું, પાંડુરોગ, કૃશતા ( દુખલાપણું ) આદિ, તથા રસાયન અને ધૃતઆદિના સેવનથી વિશિષ્ટ પ અને ખલવૃદ્ધિ થાય છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ વિવિધ પ્રકારના પરિણમનવાળુ છે, રાગ થતાં વનસ્પતિના પાંદડાં, ફૂલ, કુલ આદિ જૂદીજ જાતનાં દેખાય છે, વિશિષ્ટ પ્રકારના દોહદ દેવાથી કાઈ-કઈ વખત તેમાં ઉપચય થાય છે, એ પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ વિવિધ પરિણમનવાળું છે. જનનસ્વભાવ આદિ ધર્મના સમૂહ સચેતન મનુષ્યશરીરમાં અથવા ત્રસજીવના શરીરમાં જોવામાં આવે છે, તેજ પ્રમાણે
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भावारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५सू. ८ वनस्पतिसचित्तता ६४१ प्रसशरीरे या वर्तते, तया-वनस्पतिशरीरेऽपि, तस्माद् वनस्पतिकायः सचेतन इति निःसंशयं जानीहीति भावः ॥ सू० ८॥
एवं वनस्पतिकायस्य सचित्तत्वं विदित्वा मुनित्वमाप्तये त्रिकरणत्रियोगैस्तसमारम्भो वर्जनीय इत्याशयेनाह- 'एत्य सत्थं.' इत्यादि ।
एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इञ्चते आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्य सत्यं असमारंममाणस्स इच्छेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं वणस्सइसत्यं समारंभेजा, णेवण्णेहिं वणस्सइसत्धं समारंभावेज्जा, णेवण्णे जीव के शरीर में पाया जाता है, उसी प्रकार वनस्पति के शरीर में भी पाया जाता है । अत एवं वनस्पतिकाय सचेतन है, यह बात निःसंशय समझ लेना चाहिए ।। सू० ८ ॥
इस प्रकार वनस्पतिकाय की सचित्तता जानकर साधुता प्राप्त करने के लिए तीन करण और तीन योग से वनस्पतिकाय का समारंभ त्यागना चाहिए । इस अभिप्राय से कहते हैं:--' 'एत्य सत्थं.' इत्यादि ।
मूलार्थ--वनस्पतिकाय में शस्त्र का आरंभ करने वाले को ये आरंभ ज्ञात नहीं होते । वनस्पतिकाय में शल का आरंभ न करने वाले को ये आरंभ ज्ञात होते हैं। इन्हें जानकर बुद्धिमान् पुरुप न स्वयं वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करे, न दूसरों से वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करावे और न वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन
વનસ્પતિના શરીરમાં પણ જોવામાં આવે છે. એજ માટે વનસ્પતિકાય સચેતન છે, એ વાત સંદેહરહિત સમજી લેવી જોઈએ. ૮
એ પ્રમાણે વનસ્પતિકાયની સચિત્તતા જાણીને સાધુતા પ્રાપ્ત કરવા માટે વણું કરણ અને ત્રણ વેગથી વનસ્પતિકાયને સમારંભ ત્યજ જોઈએ. એ मलिप्रायथी ४ छ' एत्य सत्यं.' इत्यादि.
મૂલાઈ–વનસ્પતિકાયમાં શસ્ત્રનો આરંભ કરવાવાળાને આ આરંભ જાણવામાં નથી. (અ) વનસ્પતિકાયમાં શાસ્ત્રને આરંભ નહિ કરવાવાળાને આ આરંભ જાણવામાં છે. તેને જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ પિતે વનસ્પતિશાસ્ત્રને આરંભ કરતા નથી. બીજાની પાસે વનસ્પતિને આરંભ કરાવતા નથી. અને વનસ્પતિશઅને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન કરતા નથી. જે વનસ્પતિશાસ્ત્રના સમારંભના જાણકાર
प्र. मा-८१
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आचाराङ्गसत्रे
चणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते वणस्स सत्यसमारंमा परिष्णाया भवंति से हु मुणी परिष्णायकम्मे ति बेमि ॥ ० ९ ॥
छाया - अत्र शस्त्रं समारममाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रमसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्तिः तत् परिज्ञाय मेघावी नैव स्वयं वनस्पतिशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैर्वनस्पतिशास्त्रं समारम्भयेत्, वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते वनस्पतिशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति त्रवीमि ॥ मु० ९ ॥
टीका - अत्र = अस्मिन् वनस्पतिकाये, शङ्ख पूर्वोक्तप्रकारं समारममाणस्य = व्यापारयतः, इत्येते=पूर्वोक्ताः त्रिकरण - त्रियोगः आरम्भाः वनस्पतिकायोपमर्दनरूपाः सावद्यव्यापाराः अपरिज्ञाताः कर्मवन्धकारणत्वेनानवगता भवन्ति । अत्र =अस्मिन्नेव वनस्पतिकाये शखं प्रागुक्तमकारम् असमारभमाणस्य = अपयुब्जानस्य इत्येते= पूर्वोक्ता आरम्भाः=सावद्यव्यापाराः परिज्ञाता भवन्ति = ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिवर्जिता भवन्तीत्यर्थः ।
ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा भवति तं प्रकारं दर्शयतिकरे । जो वनस्पतिशास्त्र के समारंभ का ज्ञाता है वही मुनि है, वही परिज्ञातकर्मा है । ऐसा मैं कहता हूँ ॥ सू० ९ ॥
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टीकार्थ -- वनस्पतिकाय के विषय में पूर्वोक्त प्रकार से शस्त्र का उपयोग करने वाले को पूर्वोक्त-तीन करण तीन योग से होने वाले वनस्पति की हिंसारूप सावध व्यापार - अज्ञात होते हैं, अर्थात् वह नहीं जानता कि इन व्यापारों से कर्म का बंध होता है । जो वनस्पतिकाय के विषय में पूर्वोक्त शस्त्रों का प्रयोग नहीं करता वह पूर्वोक्त सावध व्यापारों का ज्ञाता होता है । वह ज्ञपरिज्ञा से इन्हें जानता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग देता है । ज्ञपरिज्ञा के पश्चात् ही प्रत्याख्यानपरिज्ञा किस प्रकार होती है सो दिखलाते हैं-
छे, ते भुनि छे, तेन परिज्ञातम् छे से प्रभाषे हुं हुं छु ॥ सू० ८ ॥ ટીકા-વનસ્પતિકાયના વિષયમાં પૂર્વોક્ત પ્રકારથી શસ્ત્રને ઉપયાગ કરવાવાળાને પૂકિત (આગળ કહેલા) ત્રણ કરણ-ત્રણ ચૈાગથી થવાવાળી વનસ્પતિની હિંસારુપ સાવદ્ય વ્યાપાર અજ્ઞાત હેાય છે, અર્થાત્ તેને જાણવામાં નથી કે આ વ્યાપારાથી કર્મ ના બધ થાય છે. જે વનસ્પતિકાયના વિષયણાં પૂર્વાંકત સાવદ્ય વ્યાપારાના જ્ઞાતા હાય છે. તે જ્ઞપરિજ્ઞાથી તેને જાણે છે. અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યાગ કરી દે છે.
જ્ઞરિજ્ઞાની પછીજ પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા ફેવા પ્રકારે હોય છે. તે તાવે છે
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ सु. ९ उपसंहार
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' तत् परिज्ञाये ' त्यादि । तद्वनस्पतिकायारम्भणं, परिज्ञाय = कर्मबन्धनस्य कारणं भवतीत्यवगत्य, मेधावी = हेयोपादेयविवेकनिपुणः नैव स्वयं वनस्पतिशस्त्रं समारभेत= व्यापारयेत्, अन्यैर्वा नैव वनस्पतिशास्त्रं समारम्भयेत्, वनस्पतिशास्त्रं समारभमाणान् न समनुजानीयात्-नानुमोदयेत् । शेनं सुगमम् ।
3
यस्यैते वनस्पतिकर्मसमारम्भा:वनस्पति निमित्तीकृत्य कर्मकारणीभूताः सावयव्यापाराः परिज्ञाताः परिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिताः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा = त्रिकरण त्रियोगैः परिवर्जितसकलसावद्यव्यापारः, सुनिर्भवति । ' इति प्रत्रीमि इति = एतत्सर्वम्, ब्रवीमि भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ सू० ९ ॥
। इत्याचाराङ्गमुत्रस्याचार चिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने पञ्चमोदेशकः संपूर्णः ॥
वनस्पतिका के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर हेय-उपादेय का विवेक रखनेवाला बुद्धिमान पुरुष स्वयं वनस्पतिकाय का आरंभ न करें, दूसरों से आरंभ न करावे और आरंभ करने वालों का अनुमोदन न करे । शेष सब सुगम है। वनस्पतिकाय के आरंभ के निमित्त से होने वाले सावध व्यापारों को जिसने ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण जान लिया है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है, वह तीन करण तीन योग से समस्त साचयों का त्यागी हो मुनि होता है । सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं- हे जम्बू ! जैसा भगवान् के समीप मैंने सुना है, वैसा ही यह सब में कहता हूँ | सू० ९ ॥
॥ श्री आचाराङ्गमुत्रकी 'आचारचिन्तामणि ' टोकाके हिन्दी अनुवाद में प्रथम अध्ययनका पाँचवाँ उद्देश समाप्त ॥ १-५ ॥
વનસ્પતિકાયના આર્ભને કમ બધનું કારણ જાણીને હૈય-ઉપાદેયના વિવેક રાખવાવાળા બુદ્ધિમાન્ પુરૂષ પોતે વનસ્પતિકાયને આરંભ કરતા નથી, બીજા પાસે આરંભ કરાવતા નથી, અને આરભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપતા નથી. શેષ-માકી સર્વ સુગમ છે. વનસ્પતિકાયના આરંભના નિમિત્તથી થવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપારેશને જેણે સરિજ્ઞાથી કમબંધનું કારણ જાણી લીધું છે અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યજી આપ્યા છે તે ત્રણ કરણ ત્રણ ચોગથી સમસ્ત સાવઘાના ત્યાગીજ મુનિ હોય છે. સુધર્માસ્યામી જમ્મુસ્વામીને કહે છેહે જમ્મૂ ! જેવુ ભગવાનની સમીપ મેં સાંભળ્યું છે, તેવુંજ આ સવ હું કહું છું. સૂ॰ ૯
श्री आयारांगसूत्रनी 'आचारचिन्तामणि' टीअना गुक्राती અનુવાદમાં પ્રથમ અધ્યયનના પાંચમા ઉદ્દેશક સમાપ્ત, {{o-પ
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आधाराने ॥अथ पप्ठोदेशः ॥ अनन्तरपञ्चमोद्देशके वनस्पतिकायस्वरूपं निरूपितम् । अधुना क्रमप्राप्त त्रसकायस्वरूपपतिवोधनार्थमयं पष्ठ उद्देशकः प्रस्तूयते । इयं हि शैली भगवदेशनाया, यद्-वनस्पतिकायानन्तरं त्रसकायमतियोधनम् , सर्वस्मिनागमे तथैव भगवदेशनायाः सत्त्वात् । एतत् समीचीनमपि, मनुष्यशरीरदृष्टान्तोपन्यासेन वनस्पतेः सचेतनत्वं साध्यते तत्र वनस्पतिकायस्वरूपविज्ञानानन्तरं मनुष्यस्वरूपं जिज्ञासमानस्य शिष्यस्य प्रतिवोधनाय तस्य त्रसकायान्तर्गतत्वेन त्रसकायोद्देशकयनस्यौचित्यात् । असकायस्वरूपं वक्तुमनाः श्री सुधर्मास्वामी कथयति-से वेमि.' इत्यादि ।
छठाउद्देश पिछले पांचवें उद्देश में वनस्पतिकाय का स्वरूप निरूपण किया गया है अब क्रम से प्राप्त सकाय का स्वरूप बतलाने के लिए छठा उद्देश कहते हैं।
भगवान् के उपदेश की यही शैली हैं कि वनस्पतिकाय के अनन्तर त्रसकाय का स्वरूप समझाया जाता है । तब आगमों में भगवान् का उपदेश इसी प्रकार है । यह ठीक भी हैं, क्यों कि मनुष्य के शरीर का दृष्टान्त देकर वनस्पति की सचित्तता सिद्ध की है तो वनस्पतिकाय के स्वरूप के पश्चात् मनुष्य का स्वरूप जानने की इच्छा रखने वाले शिष्य के प्रतिबोध के लिए सकाय का स्वरूप समझना चाहिए, क्यों कि मनुष्य भी उसकाय के अन्तर्गत है । त्रसकाय का स्वरूप कहने की इच्छा रखने वाले श्री सुधर्मा स्वामी अलग सूत्र कहते है:-'से बेमि.' इत्यादि ।
यो देशપાછળના પાંચમાં ઉદ્દેશમાં વનસ્પતિકાયના સ્વપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે કમથી પ્રાપ્ત ત્રસકાયના સ્વરૂપને બતાવવા માટે છઠ્ઠા ઉદ્દેશને કહે છે.
ભગવાનના ઉપદેશની એજ શૈલી છે કે –વનસ્પતિકાયની પછી ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજાવવામાં આવે છે. સર્વ આગમાં ભગવાનને ઉપદેશ આ પ્રમાણે છે, અને તે ઠીક પણ છે, કેમકે મનુષ્યના શરીરનું દૃષ્ટાંત આપીને વનસ્પતિની સચિતતા સિદ્ધ " . કરી છે, તે વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપ પછી મનુષ્યસ્વરૂપે જાણવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા શિષ્યના પ્રતિબંધ માટે ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજાવવું જોઈએ, કારણકે મનુષ્ય પણ ત્રસકાયની અન્તર્ગત છે. સકાયના સ્વરૂપને કહેવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા શ્રી સુધીમાં साभी मारनु सूत्र छ:-'से चेमि.' त्याल..
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ {०१ सजीवभेदाः
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से वेमि संतिमे तसा पाणा, तंजहा-अंडया, पोयया, जराउया, रसया, संसेयया, संमुच्छिमा, उन्मियया, उववाइया, एस संसारेत्ति पञ्चइ मंदस्स अवियाणओ ।। मू० १॥
छाया---
स ब्रवीमि, सन्तीमे प्रसाः प्राणाः, तद्यथा-अण्डजाः, पोतजाः, जरायुजाः, रसजा, सस्वेदनाः, संमृच्छिमाः (समूर्छननाः) उद्भिज्जा, औपपातिकाः (उपपातजाः)। एप संसार इति मोच्यते मन्दस्य अविजानतः ।। मू०१॥
टीकायेन भगवद्वदनारविन्दनिर्गतसालार्थाः सम्यगवधारिताः, सोऽहं ब्रवीमि= यथा भगवन्मुखाच्छ्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ।
त्रसाः प्राणा इमे सन्तीत्यन्वयः । प्रसा:-त्रस्यन्ति-सनामकर्मोदयात् तापाssधुपतप्ताच्छायाऽऽदिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति असा: द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः ।
मुला--यह मै कहता हूँ-ये त्रस प्राणी हैं, जैसे-अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संम्ति , उदिभज और औपपातिक (उपपातज) । मंद एवं अज्ञानी के लिए यह संसार कहा गया है । सू० १॥
टीकार्थ--जिसने भगवान् के मुखकमल से निकले हुए समस्त जीवादि स्वरूपों को भली भांति समझ लिया है ऐसा मैं कहता हूँ, अर्थात् है जम्बू ! भगवान के मुख से जैसा मैंने मुना है वैसा तुझे कहता हूँ।
प्रसनामकर्म के उदय से ताप आदि से पीडित होकर छाया वगैरह की ओर जाने वाले द्वीन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक के जीव बस कहलाते हैं । इन में द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन
भूसाथ-ई -से उस प्राधा छ. संभ-4341, पीता, , રસજ, સંદજ, સંમૂર્ણિમ, ઉદૂભિજ અને ઔપપાતિક (ઉપપાતજ) મંદ અને અજ્ઞાનીઓ માટે આ સંસાર કહેવામાં આવ્યો છે. સૂત્ર ૧
ટીકાથ-જેણે ભગવાનના મુખકમલથી નીકળેલા સમસ્ત જીવાદિ સ્વરૂપોના અર્થને રૂડી રીતે સમજી લીધા છે, એ હું કહું છું, અર્થાત્ હે જ ભગવાનના મુખથી જેવું મેં સાંભળ્યું છે તેવું જ તને કહું છું.
ત્રસનામકર્મના ઉદયથી તાપ વગેરેથી પીડા પામીને છાયા વિગેરેની પાસે જવાવાળા હીન્દ્રિય, બે ઈન્દ્રિય) જીવથી લઈને પાંચ ઇન્દ્રિયવાળા ) સુધી સર્વ રસ
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आचारले ॥ अथ पप्ठोद्देशः ॥ अनन्तरपञ्चमोद्देशके वनस्पतिकायस्वरूपं निरूपितम् । अधुना क्रमप्राप्त त्रसकायस्वरूपप्रतियोधनार्थमयं पष्ठ उद्देशकः प्रस्तूयते । इयं हि शैली भगवद्देशनाया, यद्-चनस्पतिकायानन्तरं त्रसकायमतियोधनम् , सर्वस्मिभागमे तथैव भगवदेशनायाः सत्त्वात् । एतत् समीचीनमपि, मनुष्यशरीरदृष्टान्तोपन्यासेन वनस्पतेः सचेतनत्वं साध्यते, तत्र वनस्पतिकायस्वरूपविज्ञानानन्तरं मनुष्यस्वरूपं जिलासमानस्य शिष्यस्य प्रतिबोधनाय तस्य सकायान्तर्गतत्वेन ब्रसकायोद्देशकथनस्यौचिस्यात् । असकायस्वरूपं वक्तुमनाः श्री सुधर्मास्वामी कथयति-से वैमि.' इत्यादि ।
छठाउद्देश पिछले पांचवें उद्देश में वनस्पतिकाय का स्वरूप निरूपण किया गया है अब क्रम से प्राप्त सकाय का स्वरूप बतलाने के लिए छठा उदेश कहते हैं।
भगवान् के उपदेश की यही शैली है कि वनस्पतिकाय के अनन्तर त्रसकाय का स्वरूप समझाया जाता है । तव आगमों में भगवान् का उपदेश इसी प्रकार है । यह ठीक भी हैं, क्यों कि मनुष्य के शरीर का दृष्टान्त देकर वनस्पति की सचित्तता सिद्ध की है तो वनस्पतिकाय के स्वरूप के पश्चात् मनुष्य का स्वरूप जानने की इच्छा रखने वाले शिष्य के प्रतिबोध के लिए त्रसकाय का स्वरूप समझना चाहिए, क्यों कि मनुष्य भी त्रसकाय के अन्तर्गत है। त्रसकाय का स्वरूप कहने की इच्छा रखने वाले श्री सुधर्मा स्वामी अलग सूत्र कहते है:-'से बेमि.' इत्यादि ।
__ो देशપાછળના પાંચમા ઉદેશમાં વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે ક્રમથી પ્રાપ્ત ત્રસકાયના સ્વરૂપને બતાવવા માટે છઠ્ઠા ઉદ્દેશને કહે છે.
ભગવાનના ઉપદેશની એજ રિલી છે કે–વનસપતિકાયની પછી ત્રસકાયનું વર્ષ સમજાવવામાં આવે છે. સર્વ આગમાં ભગવાનને ઉપદેશ આ પ્રમાણે છે, અને તે ઠીક પણ છે, કેમકે મનુષ્યના શરીરનું દૃષ્ટાન્ત આપીને વનસ્પતિની સચિત્તતા સિદ્ધ છે કરી છે, તે વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપ પછી મનુષ્યસ્વરૂપ જાણવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા શિષ્યના પ્રતિબંધ માટે ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજાવવું જોઈએ, કારણકે મનુષ્ય પણ ત્રસકાયની અન્તગત છે. સકાયના સ્વરૂપને કહેવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા શ્રી સુધી स्वाभी भाग सूत्र ४६ छ:-" से बेमि.' त्यादि.. ,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ मू. १ सजीवभेदाः तद्योगादभिसन्धिपूर्वकदेशान्तरमाप्तिलक्षणक्रियायुक्तत्वाद् द्वीन्द्रियादय एव लन्धिअसा उच्यन्ते । तेजोवायवः किल न प्रसनामकर्मोदयनिर्वृत्ताः, किन्तु स्थावरनामकर्मोदयनिर्वृतत्वाहन्धितः स्थावरा एच; तथाप्यत्र द्वीन्द्रियादयो लब्धिप्रसा एव परिगृह्यन्ते, न तु गतित्रसाः, अनिकायानां मागेव चतुर्थोद्देशे प्रतियोधितत्वात् , वायुकायानामग्रे वक्ष्यमाणत्वाच ।
यत्त " लन्ध्या तेजोवायु सी, लब्धिस्तच्छक्तिमात्र लधिनसानामिहाधिकारो नास्ति, तेजसोऽभिहितत्वाद् वायोश्चाभिधास्यमानत्वाद्, अतः सामर्थ्यात् गतित्रसा एवाधिक्रियन्ते " इति कैश्चिदुक्तं, तत् प्रामादिकम् , असता प्राप्त होती है । इस लब्धि से इरादापूर्वक गतिक्रिया द्वीन्द्रिय आदि में ही पाई जाती है, अत एव उन्हें लब्धिवस कहते हैं। तेजस्काय और वायुकाय में प्रसनामफर्म का उदय नहीं होता । उन में स्थावरनामकर्म का उदय है, अतः लब्धि की अपेक्षा ये दोनों स्थावर ही हैं । फिर भी यहाँ द्वीन्द्रिय आदि लब्धित्रस जीवों का ग्रहण करना चाहिए, गतित्रस जीवों का नहीं, क्यो कि अग्निकायिक जीवों का चौथे उद्देश में पहले ही वर्णन किया जा चुका है और चायुकाय का आगे वर्णन किया जायगा ।
किसी ने कहा है-"लब्धि की अपेक्षा तेजस्काय और वायुकाय त्रस हैं। लब्धि सिर्फ शक्ति को ही कहते हैं । यहाँ लब्धित्रस जीवों का प्रकरण नहीं है, क्यों कि अग्निकाय का कथन किया जा चुका है और वायुकाय का कथन आगे किया जायगा, अतः सामर्थ्य से गतित्रास ही यहा ग्रहण करने योग्य हैं " । यह कथन प्रमादपूर्ण है।
પ્રાપ્ત છે. એ લબ્ધિથી ઇચ્છાપૂર્વક ગતિ કરવાની ક્રિયા કીન્દ્રિયાદિમાં જ જોવામાં આવે છે, એટલા માટે તેને લબૂિત્રસ કહે છે. તેજસ્કાય અને વાયુકામાં વસનામકર્મને ઉદય નથી, તેનામાં સ્થાવરનામકને ઉદ્દય છે. તેથી લબ્ધિની અપેક્ષાએ એ બને સ્થાવર જ છે. ફરીને પણ અહિં કીન્દ્રિય આદિ લબ્ધિસ જેનું જ ગ્રહણ કરવું જોઈએ, ગતિત્રસ જેનું નહિ. કારણકે અગ્નિકાયિક જીવનું ચેથા ઉદ્દેશકમાં પ્રથમ વર્ણન કરવામાં આવી ગયું છે, અને વાયુકાયનું આગળ ઉપર વર્ણન કરવામાં આવશે.
કેઈએ કહ્યું કે-લબ્ધિની અપેક્ષા તેજસ્કાય અને વાયુકાય ત્રસ છે-લબ્ધિ, માત્ર શક્તિને જ કહે છે. અહિં લબ્ધિત્રસ જીવોનું પ્રકરણ નથી. કારણકે અગ્નિકાયનું વિવેચન તે કરી દેવામાં આવ્યું છે, અને વાયુકાયનું વિવેચન આગળ કરવામાં આવશે. તેથી સામર્થ્યથી ગતિનું જ અહિં ગ્રહણ કરવું એગ્ય છે.” આ કથન પ્રમાદપૂર્ણ છે.
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ફૂંકું
आचाराङ्गस्त्रे
तत्र द्वीन्द्रियाणां स्पर्शनरसनरूपे छ इन्द्रिये त्रीन्द्रियाणां स्पर्शनरसनप्राणरूपाणि श्रीणीन्द्रियाणि चतुरिन्द्रियाणां स्पर्शनरसनप्राणचक्षुरूपाणि चत्वारोन्द्रियाणि पञ्चेन्द्रियाणां स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्ररूपाणि पचेन्द्रियाणि सन्ति ।
यद्यपि - त्रस्यन्ति=अभिसन्धिपूर्वकमन भिसन्धिपूर्वकं या ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु चलन्तोति व्युत्पन्या द्वीन्द्रियादयस्तथाऽग्निकाया वायुकाया अपि त्रमा उच्यन्ते । सानां हि द्वौ भेदौ मुख्यतः स्तः- गतितो लब्धितथ । तत्र गतिः- क्रिया चलनं, देशान्तरमाप्तिः, स्वभावतोऽनभिसन्धिपूर्वक - तद्योगादमिकाया वायुकाया सा भवन्तीति गतित्रा उच्यन्ते । लब्धिस्तु प्रसनामकर्मोदये सति भवति,
और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। तीनईन्द्रियवालों के स्पर्शन, रसना और घ्राण, ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं । चतुरिन्द्रिय जीवोके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु, ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। पंचेन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना घ्राण, चक्षु और श्रोत्ररूप पाँच इन्द्रियाँ होती हैं ।
जो जीव इरादापूर्वक या बिना ही इरादे के, ऊपर नीचे या तिरछे चलते हैं वेस जीव हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार द्वीन्द्रिय आदि तथा अग्निकाय और वायु भी त्रस कहलाते हैं । मुख्यरूप से त्रम जीवों के दो भेद हैं- (१) गतित्रस और (२) लब्धित्रस । गति कहिए अथवा किया, चलना अथवा एक देश से दूसरे देश में पहुँचना कहिए । विना इरादे के यह गतिक्रिया मौजूद होने के कारण अग्निकाय और वायुकाय भी त्रस हैं। उन्हें गतित्रस कहते हैं । नाकर्म का उदय होने पर लब्धि
કહેવાય છે. શ્રીન્દ્રિય જીવેાને સ્પર્શન (ચામડી) અને રસના (જીભ) આ બે ઇન્દ્રિયે હોય છે. ત્રોન્દ્રિયોને ચામડી, જીભ અને નાસિકા રૂપ ત્રણ ઇન્દ્રિયા હોય છે ચતુરિન્દ્રિય છવાને ચામડી, જીભ, નાસિકા અને નેત્ર, આ ચાર ઇન્દ્રિયા હૈાય છે. પચેન્દ્રિય लवोने थामडी, लुल, नासि, नेत्र यने श्रोत्र-न ३५ पांथ इन्द्रियो होय छे.
જે જીવ ઈચ્છાપૂર્વક અથવા ઇચ્છા વિના ઉપર, નીચે અથવા તિરછા ચાલે છે તે ત્રસ જીવ છે. આ વ્યુત્પત્તિ અનુસાર દ્વીન્દ્રિય આદિ તથા અગ્નિકાય અને વાયુકાય पशु नस उडेवाय छे, भुभ्य३पथी त्रस भवाना मे लेह छे - (१) गतित्रस (२) धित्रस. ગતિ કહેા અથવા ક્રિયા કહેા તે એકજ છે. ચાલવું અથવા એક દેશથી ખીજા દેશમાં પહેાંચવુ કહો, વિના ઈચ્છાથી આ ગતિ કરવાની ક્રિયા હાજર હોવાથી અગ્નિકાય અને વાયુકાય પણ ત્રસ છે. તેને ગતિત્રસ કહે છે. ત્રસનામકમના ઉય હોવાથી ત્રિસતા
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आचार चिन्तामणि -टीका अध्य. १३. ६ . १ प्रसजीव भेदाः
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इह सर्वेषां सजीवानामष्टविधं जन्म प्रतिबोधितम्एतदेव संमूर्च्छनगर्भो पपातेषु समावेदय त्रिविधं जन्मेत्यपि शास्त्रेऽभिहितम् । सन्तीत्यनेन प्रसानामप्यस्तित्वं त्रिकालवर्तीति बोध्यते । मन्दस्य कुशास्ववासनायुक्तस्य, अत एव - अविजानतः = हिताहितविवेकरहितस्य, एप: अण्डजादिसमुदायः संसारः प्रोच्यते, अष्टविधत्रकाये कुशात्रवासनावतः पुनः पुनरुत्पत्तिरूपं संसरणं भवतीति स एपः संसारो निगद्यत
इत्यथः ।
अथ कायस्य सम्यग्ज्ञानार्थं लक्षणाद्यष्टद्वाराणि निरूपणीयानि । तत्र लक्षण-प्ररूपणा - परिमाण - शस्त्रो-पभोग- वेदना द्वाराणि यथाक्रमं प्रदर्श्यन्ते, अवशिष्ट-वध-निवृत्ति-द्वारद्वयं पृथिवीकायोद्देशे यथाऽभिहितं तथैवावगन्तव्यम् ।
यहाँ सभी जीवों का आठ प्रकार का जन्म वतलाया गर्म और उपपात में समाविष्ट कर देने से तीन प्रकार का जन्म 'संति' इस पद द्वारा त्रस जीवों का त्रिकालवत अस्तित्व सूचित अर्थात् मिथ्याशास्त्रों के संस्कार से प्रभावित, अत एव हित-अहित के विवेक से शून्य पुरुष के लिए अण्डज आदि का समूहरूप संसार कहा गया है । आठ प्रकार के सकाय में मिथ्याशास्त्रों के संस्कार वाले का पुनः पुनः जन्म-मरणरूप संसरण होता है । वही संसरण संसार कहलाता है !
गया है। इसे संमूर्च्छन,
शास्त्र में बतलाया है ।
किया गया है । मन्द
काय का समीचीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए लक्षण आदि आठ द्वारों का निरूपण करना चाहिए। उन में से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र उपभोग और वेदना द्वार क्रम से बतलाते हैं । वध और निवृत्ति द्वार जैसे पृथ्वीकाय के उद्देश में कहे हैं वैसे ही यहाँ समझ छेने चाहिए ।
અહિં સ* ત્રસ જીવેને આઠ પ્રકારના જન્મ બતાવ્યે છે. તેને સમૂન, ગર્ભ અને ઉપપાતમાં સમાવેશ કરી દેવાથી ત્રણ પ્રકારનો જન્મ શાસ્ત્રમાં ખતાન્યે છે. 'संति' मा पह द्वारा अस लवोनुं त्रिश्रसवर्त्ती अस्तित्व सूचित उरवामां मान्यु છે. મદ્ય અર્થાત્ મિથ્યાશાસ્ત્રાના સંસ્કારથી પ્રભાવિત, એવ' હિત અહિતના વિવકથી શૂન્ય પુરૂષ માટે અાજ આદિના સમૂહપ સ સાર કહેવામાં આવ્યે છે. આઠ પ્રકારના ત્રસકાયમાં મિથ્યાશાસ્ત્રાના સંસ્કારવાળાએનું પુનઃ પુનઃ જન્મ મરણુરૂપ સંસરણુ થાય છે. એજ સ’સરણ તે સંસાર કહેવાય છે.
ત્રસકાયનું સારૂં જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા માટે લક્ષણ આદિ આઠ દ્વારાનુ નિરૂપણુ કરવું જોઈએ, તેમાંથી લક્ષણ, પ્રરૂપણા, પરિમાણુ, શસ્ત્ર, ઉપલેગ અને વેદના દ્વાર ક્રમથી બતાવે છે, વધ અને નિવૃત્તિ દ્વાર જેવી રીતે પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં કહ્યાં છે તેવી રીતેજ હું સમજી લેવા જોઈ એ.
प्र. या ८२
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भावाराने
६४८ लब्धित्रसानां गतित्रसत्वेनाझीकारात् । गतित्रसानां लब्धिसत्वाभावात् द्वीन्द्रियादीनां गतित्रसत्वेन शास्त्रेऽनङ्गीकाराच ।
प्राणाः माणिनः, इमे प्रत्यक्षतोऽवगम्याः, यद्वा-वक्ष्यमाणपकारकाः सन्ति । ते यया-(१) अण्डमा अण्डाज्जाता:-पक्षियकोकिलादयः, (२) पोतनाः-पोता एव जायन्त इति पोतनाः-हस्तिवल्गुलीचर्मजलूकादयः, (३) जरायुजाः जरायुगर्भवेष्टनचर्म, तत्र जाता:-गोमहिप्यजा, विकमनुष्यादयः, (४) रसना विकृतरसाज्जाताः, (५) संस्वेदना संस्वेदाज्नाता:-मत्लुणयूकादयः, (६) संमूर्छिमाः संमूर्छनजाःमक्षिकापिपीलिकाशलभादयः, (७) उद्भिज्जा उद्भेदनम् उद्भित् तस्माज्जाताः-पतङ्गखञ्जरीटादयः,(८) औपपातिकाः उपपाते भवा देवानार
क्यों कि लब्धित्रसों को गतित्रसरूप में अंगीकार किया गया है। मगर गतित्रस लब्धित्रस नहीं हो सकते । द्वीन्द्रिय आदि में गति का सदभाव है अतः शास्त्र में ऐसा अंगीकार नहीं किया गया।
त्रस प्राणी इस प्रकार हैं-(१) अण्डज-अंडों से उत्पन्न होने वाले पक्षी, गृहकोकिला आदि । (२) पोतज-पोतरूप पैदा होने वाले हाथी, बल्गुली, चर्मजल्ल आदि । (३) जरायुज-गर्म जिस से लिपटा रहता है वह पतली चमड़ी जरायु कहलाती है। उस से उप्तन्न होने वाले गाय, भैंस, बकरी, मनुष्य आदि जरायुज कहलाते है । (४) रसज-निकृत रस में पैदा हो जाने वाले, (५) संस्वेदज-पसीने से पैदा होने वाल खटमल, जू आदि । (६) संमूछिम-मक्खी, कीडी, शलभ आदि । (७) उद्भिजउभेदन से उप्तन्न होने वाले पतंग, खंजरीट आदि । (८) औपपातिक-देव और नारकी।
કારણ કે લધિત્રને ગતિગ્રસનાં રૂપમાં અંગીકાર કરવામાં આવ્યો છે, પરd ગતિવ્યસ લબ્ધિત્રસ થઈ શકતા નથી. કીન્દ્રિય આદિમાં ગતિને સભાવ છે, તથા શાસ્ત્રમાં એ પ્રમાણે અંગીકાર કરવામાં આવ્યો નથી.
स प्रा मा प्रभारी छ-(१) 43०१-४थी 64-1 थवावाणां पक्षी, -
(राणा) माहि. (२) पात-पात३५ पहा थवाणा डाथी, पक्षी, यमજલક (જળ) આદિ. (૩) જરાયુજ-ગર્ભ જેનાથી વિટાએલું રહે તે પાતળી ચામડી જરાય કહેવાય છે. તેમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા ગાય, ભેંસ, બકરી, મનુષ્ય આદિ જરાયુજ કહેવાય છે. (૪) રસજ-વિકૃતરસમાં પેદા થવાવાળા. (૫) સંદજ-પરસેવાથી પેદા थपावणा भा४, माहि. (6) भूछिभ-भाभी, डी, ती माहि. (७) SANહભેદનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પતંગ, ખંજરીટ આદિ. (૮) પપાતિક–દેવ અને નારકી.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ मृ. १ सजीवभेदाः ६४९
इह सर्वेषां सनीवानामप्टविधं जन्म प्रतियोधितम्एतदेव संमूर्च्छनगर्भोपपातेषु समावेश्य त्रिविधं जन्मेत्यपि शास्त्रेऽभिहितम् । सन्तीत्यनेन सानामप्यस्तित्वं त्रिकालवर्तीति योध्यते । मन्दस्य- कुशास्त्रशसनायुक्तस्य, अत एव-अविजानता हिताहितविवेकरहितस्य, एपा अण्डजादिसमुदायः संसारः प्रोच्यते, अष्टविधत्रसकाये कशास्त्रवासनावतः पुनः पुनरुत्पत्तिरूपं संसरणं भवतीति स एपः संसारो निगद्यत इत्यर्थः।
अध सकायस्य सम्यग्ज्ञानार्थ लक्षणाधष्टद्वाराणि निरूपणीयानि । तत्र लक्षण-मरूपणा-परिमाण-शस्त्रो-पभोग-वेदना-द्वाराणि यथाक्रमं प्रदर्यन्ते, अवशिष्ट-वध-निवृत्ति-द्वारद्वयं पृथिवीकायोद्देशे यथाऽभिहितं तथैवावगन्तव्यम् । ___यहाँ सभी उस जीवों का आठ प्रकार का जन्म बतलाया गया है । इसे संमूर्छन, गर्म और उपपात में समाविष्ट कर देने से तीन प्रकार का जन्म शास्त्र में बतलाया है। 'संति' इस पद द्वारा इस जीवों का त्रिकालवी अस्तित्व सूचित किया गया है । मन्द अर्थात् मिथ्याशास्त्रों के संस्कार से प्रभावित, अत एव हित-अहित के विवेक से शून्य पुरुप के लिए अण्डज आदि का समूहरूप संसार कहा गया है। आठ प्रकार के उसकाय में मिथ्याशास्त्रों के संस्कार वाले का पुनः पुनः जन्म-मरणरूप संसरण होता है। वही संसरण संसार कहलाता है !
सकाय का समीचीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए लक्षण आदि आठ द्वारों का निरूपणा करना चाहिए। उन में से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र उपभोग और वेदना द्वार क्रम से बतलाते हैं । वध और निवृत्ति द्वार जैसे पृथ्वीकाय के उद्देश में कहे हैं वैसे ही यहाँ समझ लेने चाहिए।
અહિં સર્વ ત્રસ ઇવેને આઠ પ્રકારને જન્મ બતાવ્યા છે. તેને સંપૂર્ણન, ગર્ભ અને ઉપપતમાં સમાવેશ કરી દેવાથી ત્રણ પ્રકારને જન્મ શાસ્ત્રમાં બતાવ્યા છે. • 'संति' मा ५६ धारा १स वार्नु विडापत्ती अस्तित्व सुथित ४२काम साव्य છે. મંદ અર્થાત્ મિથ્યાશાના સંસ્કારથી પ્રભાવિત, એવં હિત સહિતના વિવેકથી શૂન્ય પુરુષ માટે અંડજ આદિના સમૂહપ સંસાર કહેવામાં આવ્યું છે. આઠ પ્રકારના ત્રસકાયમાં મિથ્યાશાના સંસ્કારવાળાઓનું પુનઃ પુનઃ જન્મ-મરણ રૂપ સંસર થાય છે. એજ સંસરણ તે સંસાર કહેવાય છે.
ત્રસકાયનું સારું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા માટે લક્ષણ આદિ આઠ દ્વારનું નિરૂપણ કરવું જોઈએ, તેમાંથી લક્ષણ, પ્રરૂપણા, પરિમાણ, શસ્ત્ર, ઉપગ અને વેદના દ્વાર ક્રમથી બતાવે છે, વધ અને નિવૃત્તિ દ્વાર જેવી રીતે પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં કહ્યાં છે તેવી રીતે જ અહિં સમજી લેવા જોઈએ. प्र. आ.८२
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भाचारायचे
लक्षणद्वारम्-- सुखदुःखेच्छापादिकं चेतनलक्षणं प्रमकाये परिस्पटमस्ति । अस्य सचेतनत्वे विवादा नास्ति केपाश्चित् अस्य व्यक्तोझासादिलक्षणमाणयोगात् । अपरश्च
त्रसकायस्य लक्षणं शास्त्रे नवविधं पक्षप्तम् यथा-(१) अभिक्रमणम् , (२) प्रति क्रमणम् , (३) संकोचनम्, (४) प्रसारणम् , (५) स्तम्, (६) भ्रमणम् , (७) असनम् , (८) पलायनम् , (९) आगतिगतिविज्ञानम्, इति ॥
अभिक्रमण-मज्ञापकं मत्यभिमुखं मणम्, प्रतिक्रमण-प्रज्ञापकात् मतिकूलं क्रमणम् । संकोचनम् गात्रसंकोचकरणम् , प्रसारण गात्रविततकरणम् ।
लक्षणद्वारसुख, दुःख, इच्छा और द्वेष आदि चेतना के लक्षण उसकाय में स्पष्ट मालूम होते है। इस की सचेतनता में किसी को भी विवाद नहीं है। प्रकट उच्छ्वास आदि प्राण होने के कारण त्रस जीव प्राणी हैं।
शास्त्र में उसकाय का लक्षण नव प्रकार से बतलाया गया है । जस(१) अभिक्रमण (२) प्रतिक्रमण (३) संकोचन (४) प्रसारण (५) रुत (६) भ्रमण (७) त्रसन-त्रास पाना (८) पलायन-भागना और (९) गति-आगति का ज्ञान । प्रज्ञापक की अपेक्षा से सामने जाना अभिक्रमण है । प्रज्ञापक की अपेक्षा से प्रतिकूल जाना-पीछे लौटना प्रतिक्रमण है । शरीर को सिकोडना संकोचन है। शरीर को फैलाना
क्षाસુખ, દુઃખ, ઈચ્છા અને ઠેષ આદિ ચેતનાનું લક્ષણ ત્રસકાયમાં સ્પષ્ટ માલ પડે છે, તેની ચેતનતામાં કેઈને પણ વિવાદ–વાં નથી. પ્રગટ ઉસ આદિ પ્રાણ હેવાના કારણથી ત્રસ જીવ પ્રાણી છે.
શાસ્ત્રમાં ત્રસકાયના લક્ષણે અનેક પ્રકારે બતાવવામાં આવ્યાં છે. જેમકે(१) मलिम, (२) प्रतिभy, (3) संयन, (४) प्रसारण, (५) ३त, (६) भए, (७) सन-त्रास पाभवा, (८) पसायन-
सासन (6) गति-भागतिर्नु ज्ञान. प्रज्ञापन અપેક્ષાથી સામે જવું તે અભિમણ છે. પ્રજ્ઞાપકની અપેક્ષાથી પ્રતિકૂલ જવું–પાછા ફરવું તે પ્રતિકમણ છે. શરીરને સડવું તે સકેચન છે. શરીરને ફેલાવવું તે પ્રસારણ છે.
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आचारचिन्तामणि-दीका अध्य. १ उ. ६ म. १ सजीवलक्षण-प्ररूपणा ६५१ रुतं शब्दकरणम् , भ्रान्तम्-इतश्चेतश्च गमनम् , असनम् दुःखादुद्वेजनम् , पलायितम्पलायनम् , आगतेः कुतश्चित्कचित् , गतेच कुतश्चित् कचिदेव च विज्ञानम् । उक्तञ्चैतद्भगवता दशकालिकसूत्रे -
__ "जेसि केसिंचि पाणाणं अभिकंतं पडिक्कत संकुचियं पसारियं रुयं मंतं तसियं पलाइये आगइगइविण्णाया"॥१॥ इति ।
प्ररूपणाद्वारम् - असकायाश्चतुर्विधाः-दीन्द्रिय --त्रीन्द्रिय -- चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियभेदात् । इहैव प्रथमोद्देशके लोकवादिप्रकरणे प्रसानां भेदमभेदाः मरूपिताः। विस्तरतो प्रसारण है । बोलना रुत कहलाता है । इधर-उघर जाना भ्रमण है । दुःख से उग पाना सन है । भागने को पलायन कहते हैं। एक जगह से दूसरी जगह आने जाने का विज्ञान आगतिगतिविज्ञान कहलाता है।
भगवान् ने दशवकालिक सूत्र में कहा है:----
"जिन किन्हीं प्राणियों में अभिकमण, संकोचन, प्रसारण, रुत, भ्रमण, वसन, पलायन और आगतिगतिका विज्ञान (पाया जाता है वे सब त्रस जीव हैं।"
प्ररूपणाद्वारसकाय के चार भेद हैं-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इसी राम के पहले उद्देश के अन्दर लोकवादी प्रकरण में उस जीवों के भेद-प्रभेद फहे हैं। विस्तार से जानने के इच्छुक वहीं से जान लेवें । इस सूत्र में भगवान ने બેલિવું તે રૂત કહેવાય છે. અહીં-તહીં જવું તે ભ્રમણ છે. દુઃખથી ઉગ પામવું તે વ્યસન છે. ભાગવું તેને પલાયન કહે છે. એક જગ્યાથી બીજી જગ્યાએ આવવાજવાનું વિજ્ઞાન તે આગતિગતિવિજ્ઞાન કહેવાય છે. ભગવાને દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છે -
यामा समिम, प्रतिम, सायन, प्रसारण, स्त, प्रभार, વ્યસન, પલાયન અને આગતિ-ગતિનું વિજ્ઞાન (વામાં આવે છે તે સર્વ ત્રસ જીવ છે.)
प्ररूपा ત્રસ કાયના ચાર ભેદ છે-ઢીદ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પન્દ્રિય. આજ શાસ્ત્રના પ્રથમના ઉદેશમાં લોકવાદી પ્રકરણમાં ત્રસજીવના ભેદ-પ્રભેદ બતાવ્યા છે, વિસ્તારથી
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आधाराणसूत्रे जिज्ञासुभिस्तत एवारगन्तव्याः । अस्मिन् सूत्रेऽपि भगवता--भण्डजपोतजादिभेदाः प्रदर्शिवास्तेऽपि तत्रैव समाविष्टाः ॥
परिमाणद्वारम् - क्षेत्रतः संवर्तितलाकमतरासंख्येयभागर्तिप्रदेशराशिप्रमाणाः उसकायपर्याप्रकाः । एते च वादरतेजस्कायपर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणाः, असकापपर्याप्तकेभ्यस्तसकायिकाऽपर्याप्तकाः असंख्ययगुणाः ।
तथा कामतः प्रत्युत्पन्नत्रसकायिकाः सागरोपमलपृयक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टप्रदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वपरिमाणा एवेति । तथा चागमाअंडन और पोतज आदि नो भेद बतलाये हैं, ये सब भी उन्हीं में अन्तर्गत हो जाते हैं।
परिमाणद्वारउसकाय के पर्याप्त जीव क्षेत्र की अपेक्षा संवर्तित लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवता प्रदेशों की राशि के बराबर हैं । ये बादर तेजस्काय पर्याप्त जीवों से असंख्यातगुणा हैं । पर्याप्त सकायिक जीवों की अपेक्षा अपर्याप्त अस नीव असंख्यातगुणा हैं । काल की अपेक्षा जघन्यपद में प्रत्युत्पन्न स जीव एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समय-राशि के बराबर हैं और उत्कृष्ट पद में भी एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समयराशि के बराबर ही है। आगम में भी कहा है--
જાણવાની ઈચ્છાવાળા ત્યાંથી જાણે છે. આ સૂત્રમાં ભગવાને-અંડજ અને પિતાજી આદિના જે ભેદ બતાવ્યા છે, તે સને તેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે.”
પરિમાણદ્વાર– ત્રસકાયના પર્યાપ્તજીવ ક્ષેત્રની અપેક્ષા સંવર્તિત લેકમતરના અસખ્યાતમાં ભાગવતી પ્રદેશની રાશિના બરાબર છે. તે બાદ તેજસ્કાય પર્યાપ્ત જીવોથી અસંખ્યાત ? ગણા છે. પર્યાપ્ત ત્રસકાયિક જીવોની અપેક્ષા અપર્યાપ્ત સજીવ અસંખ્યાત ગણ છે.
કાલની અપેક્ષા જઘન્યપદમાં પ્રત્યુત્પન વસજીવ એકલાખ થી નવલાખ સુધીના સાગરોપમની સમય-નાશિના બરાબર છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ એક લાખથી નવલાખ સુધીના સાગરોપમની સમય-રાશિના બરાબર જ છે. આગમમાં પણ કહ્યું છે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ सू. १ सजीवपरिमाणम् ६५३
"पडप्पना तसकाइया केवइकालस्स निल्लेवा सिया ? गोयमा! जहन्नपए सागरोवमसयसहस्तपुहत्तस्स, उक्कोसतएवि सागरोरमसयसहसपुहत्तस्स" ॥ इति ।
विरहापेक्षया प्रसानां निष्क्रमणमुपपातच जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु मतरस्यासंख्येयभागप्रदेशपरिमाणाः । वसेपु जीवानां नैरन्तर्येणोत्पत्तिनिष्क्रमो वा जघन्येनैक समयं द्वौ समयौ त्रीन् वा समयान् भवति । उत्कृष्टतस्त्वावलिकाया असंख्येयमागपरिमितं कालं सततमेवोत्पत्तिनिष्क्रमो वा भवति। नैरन्तर्येणेकजीवस्यावस्थानं तु जघन्यतोऽन्तमुहूर्त उसकाये भवति, तदनु स पृथिव्यायेकेन्द्रियेषु समुत्पद्यते । उत्कृष्टत: सातिरेकं सागरोपमसहस्रद्वयं सततं नैरन्तर्येण सकाये तिष्ठति । ततः
"पत्युत्पन्न उसकायिक जीव कितने काल के बराबर हैं ? गौतम ! जघन्य पद में एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम के बराबर और उत्कृष्ट पद में भी इतने ही है।
विरह की अपेक्षा स जीवों का निष्क्रमण और उपपात जघन्य एक, दो या तीन हैं, और उत्कृष्ट प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों के बराबर है। उसकाय में जीयों को निरन्तर उत्पत्ति या ध्यवन जघन्य एक समय, दो समय, तीन समयतक है। उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग परिमित काल तक निरन्तर उत्पत्ति और व्यवन होता रहता है । निरन्तर एक जीव की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त तक उसकाय में होती है और उसके बाद वह पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय में उप्तन्न होता है। उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार सागरोपमतक निरन्तर सकाय में ठहर सकता है। तत्पश्चात
પ્રત્યુત્યને ત્રસકાયિક જીવ કેટલા કાલની બરાબર છે ? ગૌતમ! જઘન્ય પદમાં એક લાખથી નવલાખ સુધીનો સાગરેપમની બરાબર અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ એટલાં જ છે.”
વિરહની અપેક્ષા ત્રસ જુનું નિષ્ક્રમણ અને ઉપપાત જઘન્ય એક, બે અથવા ત્રણ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પ્રતરના અસંખ્યાતમ ભાગવત્તી પ્રદેશોની બરાબર છે. ત્રસકાયમાં જીની નિરંતર ઉત્પત્તિ અથવા નિષ્ક્રમણ (યવન) જઘન્ય એક સમય, બે સમય અથવા ત્રણ સમય સુધી છે. ઉત્કૃષ્ટ આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગ પરિમિત કાલ સુધી નિરંતર ઉત્પત્તિ અને નિષ્ક્રમણ (નિકળવું) થતું રહે છે. નિરંતર એક જીવની સ્થિતિ જઘન્ય અનહીં સુધી ત્રસકાયમાં હોય છે. અને તે પછી તે પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ઉત્કૃષ્ટ કાંઈક અધિક બે હજાર સાગરોપમ સુધી
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भवारा सूत्रे
जिज्ञासुभिस्तत एवावगन्तव्याः । अस्मिन् सूत्रेऽपि भगवता - अण्डजपोतंजादिभेदाः मदर्शितास्तेऽपि तत्रैव समाविष्टाः ॥
परिमाणद्वारम् -
क्षेत्रतः संवर्तितलाकमतरासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिपमाणाः सकायपर्या सकाः । एते च वादरतेजस्काय पर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणाः, त्रसकायपर्याप्तकेभ्यख सकायिका पर्याप्तकाः असंख्येयगुणाः ।
तथा काळतः प्रत्युत्पन्नत्र कायिकाः सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टप्रदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वपरिमाणा एवेति । तथा चागमःअंडज और पोतज आदि जो भेद बतलाये हैं, ये सब भी उन्हीं में अन्तर्गत हो जाते हैं । परिमाणद्वार -
काय के पर्याप्त जोव क्षेत्र की अपेक्षा संवर्तित लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवत प्रदेशों की राशि के बराबर हैं । ये बादर तेजस्काय पर्याप्त जीवों से असंख्यातगुणा हैं । पर्याप्त त्रसकायिक जीवों की अपेक्षा अपर्याप्त त्रस जीव असंख्यातगुणा हैं । काल की अपेक्षा जघन्यपद में प्रत्युत्पन्न त्रस जीव एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समय-राशि के बराबर है और उत्कृष्ट पद में भी एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समयराशि के बराबर ही हैं । आगम में भी कहा है
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જાણવાની ઇચ્છાવાળા ત્યાંથી જાણી લે. આ સૂત્રમાં ભગવાને અડજ અને પાતજ આદિના જે ભેદ ખતાવ્યા છે, તે સર્વના તેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. -
परिभाएद्वार
ત્રસકાયના પર્યાપ્તજીવ ક્ષેત્રની અપેક્ષા સંવતિતલાકપ્રતરના · અસ"ખ્યાતમા ભાગવત્ત પ્રદેશેાની રાશિના ખરાખર છે. તે ખાદર તેજસ્કાય પર્યાપ્ત જીવાથી અસ’ખ્યાત ગણા છે. પર્યાપ્ત ત્રસકાયિક જીવાની અપેક્ષા અપર્યાપ્ત સત્ર અસ’ખ્યાત ગણા छे.
કાલની અપેક્ષા જઘન્યપદમાં પ્રત્યુત્પન્ન ત્રસજીવ એકલાખ થી નવલાખ સુધીના સાગરાપમની સમય—રાશિના બરાબર છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ એક લાખથી નવલાખ સુધીના સાગરાપમની સમય-રાશિના ખરાબર જ છે. આગમમાં પણ કહ્યું છે:
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ . १ सजीचपरिमाणम्
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uster denapar baइकालस्स निल्लेवा सिया ? गोयमा ! जहन्नपए सागरोवमसयसहस्त्रपुहत्तस्स, उक्कोसतएव सागरोवमसय सहसपुहत्तस्स" | इति । विरापेक्षया त्रसानां निष्क्रमणमुपपातच जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु उत्कृष्टतस्तु मतरस्यासंख्येयभागमदेशपरिमाणाः । बसेषु जीवानां नैरन्तर्येणोत्पत्तिनिष्क्रमो वा जघन्येनैकं समयं द्वौ समय श्रीन् वा समयान् भवति । उत्कृष्टतस्त्वावलिकाया असंख्येयभागपरिमितं कालं सततमेवोत्पत्तिर्निष्क्रमो वा भवति । नैरन्वर्येणैकजीवस्यावस्थानं तु जघन्यतोऽन्तसुहूर्त काये भवति, तदनु स पृथिव्याये केन्द्रियेषु समुत्पद्यते । उत्कृष्टतः सातिरेकं सागरोपमसहस्रद्वयं सततं नैरन्तर्येण त्रसकाये तिष्ठति । ततः
"
पत्युत्पन्न कायिक जीव कितने काल के बराबर हैं ? गौतम ! जघन्य पद में एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम के बराबर और उत्कृष्ट पद में भी इतने ही है" ।
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विरह की अपेक्षा त्र जीवों का निष्क्रमण और उपपात जघन्य एक, दो या तीन हैं, और उत्कृष्ट प्रतर के असंख्यातवें भागवत प्रदेशों के बराबर है | THEIR में जीवों की निरन्तर उत्पत्ति या ध्यवन जघन्य एक समय, दो समय तीन समयतक है । उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग परिमित काल तक निरन्तर उत्पत्ति और व्यवन होता रहता है । निरन्तर एक जीव की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक सकाय में होती है और उसके बाद वह पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय में उप्तन्न होता है । उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार सागरोपमar निरन्तर सकाय में ठहर सकता है । तत्पश्चात्
પ્રત્યુત્પન્ન ત્રસકાયિક જીવ કેટલા કાલની ખરાખર છે? ગૌતમ! જવન્ય પદમાં એક લાખથી નવલાખ સુધીના સાગરે પમની ખરાખર અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણુ
मेटला छे, "
વિરહની અપેક્ષા ત્રસ જીવેાનું નિષ્ક્રમણ અને ઉપપાત જઘન્ય એક, બે અથવા ત્રણ છે, અને ઉત્કૃષ્ટ પ્રતરના અસખ્યાતમાં ભાગવત્ પ્રદેશની ખરાખર છે. ત્રસકાયમાં જીવાની નિર’તર ઉત્પત્તિ અથવા નિષ્ક્રમણુ (ચ્યવન) જઘન્ય એક સમય, એ સમય અથવા ત્રણ સમય સુધી છે. ઉત્કૃષ્ટ આવલિકાના અસખ્યાતમા ભાગ પરિમિત કાલ સુધી નિરતર ઉત્પત્તિ અને નિષ્ક્રમણ (નિકળવું) થતુ રહે છે. નિરતર એક જીવની સ્થિતિ જધન્ય અન્તમુહૂત સુધી ત્રસકાયમાં હોય છે. અને તે પછી તે પૃથ્વીકાય ખાદિ એકેન્દ્રિયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ઉત્કૃષ્ટ કાંઈક અધિક એ હજાર સાગરાપમ સુધી
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६५२ जिज्ञासुभिस्तत एवावगन्तव्याः । अस्मिन् सूत्रेऽपि भगवता-अण्डजपोतजादिभेदाः प्रदर्शितास्तेऽपि तत्रैव समाविष्टाः ॥
परिमाणद्वारम् - क्षेत्रतः संवर्तितलोकमतरासंख्येयभागवर्तिमदेशराशिप्रमाणाः त्रसकायपर्यासकाः । एते च चादरतेजस्कायपर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणाः, प्रसकायपर्याप्तकेम्यस्त्र सकायिकाऽपर्याप्तकाः असंख्येयगुणाः ।
तथा काइतः प्रत्युत्पन्नत्रसकायिकाः सागरोपमलमपृथक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टप्रदेऽपि सागरोपमलक्षपृथत्वपरिमाणा एवेति । तथा चागमः
अंडज और पोतज आदि जो भेद बतलाये हैं, ये सब भी उन्हीं में अन्तर्गत हो जाते हैं।
परिमाणद्वारवसकाय के पर्याप्त जीव क्षेत्र की अपेक्षा संवर्तित लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवती प्रदेशों की राशि के बराबर हैं । ये बादर तेजस्काय पर्याप्त जीवों से असंख्यातगुणा है । पर्याप्त त्रसकायिक जीयों की अपेक्षा अपर्याप्त त्रस नीव असंख्यातगुणा हैं । काल की अपेक्षा जघन्यपद में प्रत्युत्पन्न त्रस जीव एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समय राशि के बराबर हैं और उत्कृष्ट पद में भी एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समयराशि के बराबर ही हैं। आगम में भी कहा है
જાણવાની ઈચ્છાવાળા ત્યાંથી જાણી લે. આ સૂત્રમાં ભગવાને–અંડજ અને પિતજ આદિના જે ભેદ બતાવ્યા છે, તે સવને તેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે.
परिभा - । ત્રસકાયના પર્યાપ્તજીવ ક્ષેત્રની અપેક્ષા સંવર્તિત લેકમતરના અસંખ્યાતમાં ભાગવતી પ્રદેશોની રાશિના બરાબર છે. તે બાદ તેજસ્કાય પર્યાપ્ત જીવોથી અસંખ્યાત કે ગણા છે. પર્યાપ્ત ત્રસકાયિક જીવોની અપેક્ષા અપર્યાપ્ત ત્રિસજીવ અસંખ્યાત ગણુ છે.
કાલની અપેક્ષા જઘન્યપદમાં પ્રત્યુત્પન્ન વસજીવ એકલાખ થી નવલાખ સુધીના સાગરોપમની સમય-નૈશિના બરાબર છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ એક લાખથી નવલાખ સુધીના સાગરેપમની સમય-રાશિના બરાબર જ છે. આગમમાં પણ કહ્યું છે
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ ३.६ स. २ प्रसस्थावरयो:सुखम् ६५५ निध्याय-मनसा समालोच्य, मतिलेख्य-विलोक्य सम्यग विज्ञायेत्यर्थः, ब्रवीमिकथयामि-सर्वेषां प्राणानां प्राणाः सन्ति येषां ते प्राणा: मणिनस्तेषां, सर्वेषां भूतानाम् उत्पत्तिशीलानाम् , सर्वेषां जीवानां कालत्रये जीवनाद् चैतन्यस्वरूपाणामित्यर्थः, सर्वेषां सत्चानां सदाऽस्तित्वक्ताम् , सजीवानाम् , यद्वा-सपामित्वस्य पुनः पुनरुपादानेन स्थावरा अपि गृह्यन्ते, तेन त्रसानां स्थावराणां च जीवानामित्यर्थः। परिनिर्वाण मुख, मत्येकम्-एफैकं पृथक् पृथगस्ति ।
शब्दव्युत्पत्या विभिन्नार्थयोधकत्वात् माणभूतादिशब्दानामुच्चारणं न पुनरुक्तिदोपः । 'निझाइता' 'पडिलेहिता' इति पदद्वयेन जीवानां पुनः पुनरनुसन्धान प्रतिलेखनं च भूचितम् , तदेव पुनः पुनर्विधेयतया प्रतिबोधनार्थ
स्वरूप मन से विचार करके तथा सम्यक् प्रकार से जानकर कहता हूँ। सभी प्राणियों का सभी मूतों अर्थात् उत्पत्तिशील जीवों का, सभी जीवों (निकाल में जीवित रहने वालों ) का और सभी सत्वों (सर्वदा अस्तित्व वाले उस जीवों ) का, अथवा बार-बार सम्वेसि' पदका प्रयोग करने के कारण यह अर्थ लेना चाहिए कि सभी उस और स्थावर जीवों का मुख पृथक्-पृथक् है।
शब्दशास्त्र की दृष्टि से भिन्न-भिन्न अर्थ के योधक प्राण, भूत आदि शब्दों का उच्चारण करने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं है । अथवा प्राण भून आदि शन्दों को एक ही अर्थ का वाचक मान लिया जाय तो भी पुनरुक्तिदाप नहीं है। 'निम्झाइत्ता' पडिलेहित्ता' इन दो पदों द्वारा जीवों का पुनः पुनः विचार एवं प्रतिलेखन सूचित किया है। उसी को पुनः पुनः विधेयरूप से समझाने के लिए
આદિ સમસ્ત જીનું સ્વરૂપ મનથી વિચાર કરીને તથા સમ્યક્ પ્રકારે જાણીને કહું છું-સર્વ પ્રાણીઓનું, સર્વભૂતેનું અર્થાત્ ઉત્પત્તિશીલ જીવોનું, સર્વ જી (ત્રણ કાલ જીવિત રહેવાવાળા)નું, અને સર્વ સો-(સર્વદા અસ્તિત્વવાળા ત્રસ જીવ)નું, २५५पा पार पार 'सव्वेसि पहन प्रयोग ४२वाना आगे को 24 देव नये - સર્વ રસ અને સ્થાવર જેનું મુખ પૃથ-પૃથક્ છે.
શબ્દશાસની દૃષ્ટિથી ભિન્ન-ભિન્ન અર્થના બેધક પ્રાણ-ભૂત આદિ શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરવાથી પણ પુનરૂક્તિ દેપ આવતું નથી અથવા પ્રાણભૂત આદિ શબ્દને એકજ અર્ધના पाय मानी सेवामा सावता ५ धुन३ति नथी 'निज्झाइत्ता' 'पहिले हित्ता' मा પદે દ્વારા અને પુનઃ પુનઃ વિચાર અર્થાતુ પ્રતિલેખન સૂચિત કર્યું છે. તેને પુનઃ પુનઃ
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૬૪
पृथिव्यादिपूत्पद्यते । ॥ ० १ ॥
आचारात्सूत्रे
सजीवानां सुखं दुःखं वा यथा भवति तदाह - 'निज्झाइत्ता.' इत्यादि ।
मूलम्---
निज्झाइना पटिलेद्दित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं सवेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सब्वेसि जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्याणं महत्भयं दुक्खं-ति बेमि ॥ सू० २ ॥
छाया-
निध्याय प्रतिलेख्य प्रत्येक परिनिर्वाणं सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सच्चानाम् असातम् अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमिति
ब्रवीमि ॥ सू० २ ॥ प्रकरणसम्बन्धात्
पृथिव्यादिसकलजीवस्वरूपं वा
सजीवस्वरूपं
पृथ्वीका आदि स्थावरों में उत्पन्न होता है | सू० १ ॥
त्रसजीवों को सुख-दुःख जिस प्रकार होता है सो कहते हैं: - ' निज्झाइता. '
इत्यादि ।
मूलार्थ - विचार करके और अच्छी तरह देखकर कहता हूँ कि सभी प्राणियों का, सभी भूतों का, सभी जीवों का, और सभी सत्वों का परिनिर्वाण अर्थात् सुख पृथक्-पृथक् है । तथा असातारूप, अपरिनिर्वाणरूप महाभयरूप दुःख भी पृथक्पृथक् है | || सू० २ ॥ टीका---
जीवों का प्रकरण होने के कारण ' विचार करने का आशय यह है कि सजीवों का स्वरूप, अथवा पृथ्वीकाय आदि समस्त जीवों का નિર'તર સકાયમાં રહી શકે છે, તે પછી પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરામાં ઉત્પન્ન થાય छे. ॥सू० १॥
छे:- 'निज्झाइत्ता' इत्यादि.
त्रस भवने सुभ-हु:म ने अरे थाय छे, ते ४ મૂલા—વિચાર કરીને સારી રીતે જોઈને કહુ છુ. ભૂતા, સર્વ જીવા અને સ સત્ત્વાનું પરિનિર્વાણુ અર્થાત સુખ छे, तथा असातारूप अपरिनिर्वायुरुप भहालयइम हुः भूहां-हां छे. सू० २!! ટીકા —ત્રસજીવેાનું પ્રકરણ હેાવાના કારણે ત્રસવાનુ' સ્વરૂપ અથવા પૃથ્વીકાય
કેસવું પ્રાણીએ સ પૃથક્પૃથક્ જૂદા જૂદાં
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सु. ३ त्रसजीवसंचरणम्
छाया
त्रस्यन्ति माणाः प्रदिश: दिशासु च । तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति, सन्ति प्राणाः पृथक् श्रिताः || सू० ३ ॥
टीका
६५७
प्राणाः प्राणिनः प्रकरणसम्वन्धात् सजीवाः प्रदिशः मगता दिक् प्रदिक् विदित्यर्थः, ततः प्रदिशः, तथा-दिशासु प्राच्यादिदिक्षु च समागन्तुकेभ्यो दुखेभ्य, स्यन्ति विश्यति । सर्वदिविदिक्षु प्रसाः सन्ति, ते च सर्वदिविदिग्भ्यः समागन्तुकेभ्यो दुःखेभ्यस्त्रस्यन्तीत्यर्थः ।
कुतस्तेषां दुःखसंभवः ? इति जिज्ञासायामाह - ' तत्र तत्रे' त्यादि । तत्रतत्र = तेषु तेषु, पृथक विभिन्नेषु प्रयोजध्नेषु, आतुरा:=अर्चाचर्ममांसादिगृध्नवः श्रसान् परितायन्ति = परिपीडयन्ति । विविधवेदनोत्पादनेन माणव्यपरोपणेन च सर्वथा दुःखं जनयन्तीत्यर्थः । कीदृशास्ते त्रसाः, यानातुराः परितापयन्ति ? इति जिज्ञासाया
}
टीकास का प्रकरण होने से 'प्राण' शब्द का अर्थ यहाँ सजीव समझना चाहिए । प्राणी विदिशाओं में आगन्तुक दुःखों से त्रस्त हैं । तात्पर्य यह है कि सभ विदिशाओं में और सभी दिशाओं में त्रसजीव विद्यमान हैं और सभी विदिशाओं और दिशाओं से आने वाले दुःखों से वे पीडित होते हैं ।
उन्हें दुःख क्यों होता हैं ? इसका उत्तर यह है - विभिन्न प्रयोजनों से आतुर लोग अर्थात् अर्चा (शरीर), चर्म, मांस, आदि के लोलुप पुरुष त्रस जीवों को पीडा पहुँचाते हैं । उन्हें भाँति-भाँति की वेदना उत्पन्न करके उनके प्राणों का व्यपरोपण करते हैं और सब प्रकार से दुःख उत्पन्न करते हैं । वे सजीव पृथिवी आदि के
ટીકા
ત્રસનું પ્રકરણ હોવાથી પ્રાણુ · શબ્દના અર્થ ત્રસજીવ સમજવા જોઇએ ત્રસ પ્રાણી વિદિશાઓમાં તથા દિશાઓમાં આગન્તુક દુઃખથી ત્રાસ પામે છે. તાત્પર્ય એ છે કે:-સર્વ વિશિાઓમાં અને સર્વ દિશાએમાં ત્રસ જીવ વિદ્યમાન છે, અને સર્વ વિદેશાઓ તથા દિશાએથી આવવાવાળા દુ:ખેાથી તે પીડા પામે છે.
તેને દુઃખ શા માટે થાય છે? તેના ઉત્તર એ છે કે જૂદા જૂદા પ્રત્યેાજનાથી આતુર લેક અર્થાત્ અર્ચા (શરીર), ચમ, માંસ વગેરેના લાલચુ' પુરુષ ત્રસ જીવાને પીડા પહોંચાડે છે, તેને જૂદી-જૂદી જાતની વેદના ઉત્પન્ન કરે છે. તે ત્રસ જીવ પૃથ્વી આદિના આશ્રયે “
प्र. आ.-८३
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६५६ . .
भाचाराजको मनेकपर्यायशन्देस्तेपामुपादानात् ।।
तथा सर्वेषां दुःखं प्रत्येकं पृथक् पृथगस्ति | कथम्भूतं दुःखमित्याह' असात'-मित्यादि । असातम् असात वेदनीयकर्मफलभूतम् , तथा-अपरिनिर्वाणम् सर्वथा शरीरमनः पीडाकरम्, तथा-महाभयम् दुःखादधिकं भयमन्यन्नास्ति, यतः सर्वेऽपि प्राणिनः शारीरान्मानसादपि दुःखादद्विजन्ते, तस्मान्महामयस्वरूपमित्यर्थः ॥मू०२॥
एतच्च ब्रवीमीत्याह ' तसंति पाणा.' इत्यादि ।
तसंति पाणा पदिसो दिसामु य । तत्थ पुढो पास आतुरा, परिताति, संति पाणा पुढो सिया ॥ मू०३ ॥ अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है।
इसी प्रकार सब जीवों का दुःख भी पृथक्-पृथक है । दुःख किस प्रकार का है ! सो कहते हैं-वह असातावेदनीय कर्म का फल है, शरीर और मन को पूरी तरह पीड़ा उत्पन्न करता है और महाभयंकर है-दुःख से बढकर और कोई भय नहीं है, क्यों कि सभी प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःख से घबराते हैं, अतः वह महाभयकारी है । सू० २ ॥
और मैं यह कहता हूँ:--'तसंति पाणा.' इत्यादि ।
मलार्थ-प्राणी विदिशाओ में और दिशाओ में उद्वेग पाते हैं। अलगअलग प्रयोजनो के लोलुप लोग उन्हें संताप पहुंचाते है । वे त्रस प्राणी पृथ्वी आदि विभिन्न आश्रयो पर आश्रित हैं । सू० ३ ॥ વિધેયરૂપથી સમજાવવા માટે અનેક પર્યાયવાચી શબ્દ પ્રયોગ કરવામાં આવ્યા છે.
આ પ્રમાણે સર્વજીના દુઃખ પણ જૂદા-જૂદા છે. દુઃખ કયા પ્રકારના છે? તે કહે છે–તે આ અસાતા વેદનીય કર્મનું ફળ છે, શરીર અને મનને પૂરી રીતે પીડા ઉત્પન્ન કરે છે. અને હા ભયંકર છે. દુઃખથી વધારે કઈપણ ભય નથી કારણકે સર્વ પ્રાણું–શારીરિક અને માનસિક દુઃખથી ગભરાય છે. તેથી તે મહાભકારી છે. સૂત્ર રા.
भई ४९ छ:-'तसंति पाणा. त्यादि.
મૂલાર્થ–પ્રાણી વિદિશાઓમાં અને દિશાઓમાં ઉગ પામે છે. અલગ-અલગ પ્રજથી લેલુપ લોક તેને સંતાપ પહોંચાડે છે. તે ત્રસ પ્રાણી પૃથ્વી આદિ વિભિન્ન આશ્રયે પર આશ્રિત છે. સૂત્ર ૩ -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ रु. ३ असजीवसंचरणम्
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अस्यन्ति माणाः प्रदिशः दिशासु च । तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति, सन्ति माणाः पृथक् श्रिताः ॥ सू० ३॥
टीकाप्राणाप्राणिनः प्रकरणसम्बन्धात् त्रसजीवाः प्रदिशगता दिक् मदिक विदिगित्यर्थः, ततः प्रदिशा, तथा-दिशासु प्राच्यादिदिक्षु च समागन्तुकेभ्यो दुखेभ्य, त्रस्यन्ति-विश्यति । सर्वदिग्विदिक्षु प्रसाः सन्ति, ते च सर्वदिग्विदिग्भ्यः समागन्तुकेन्यो दुःखेभ्यखस्यन्तीत्यर्थः।
कुतस्तेषां दुःखसंभवः ? इति जिज्ञासायामाह-तत्र-तत्रे' त्यादि । तत्रतत्र तेषु-तेषु, पृथक्नविभिन्ने प्रयोजनेषु, आतुरा-अर्याचममांसादिगृघ्नवः प्रसान् परितायन्ति परिपीडयन्ति । विविधवेदनोत्पादनेन माणव्यपरोपणेन च सर्वथा दुःखं जनयन्तीत्यर्थः । कीदृशास्ते असाः, यानातुराः परितापयन्ति ? इति जिज्ञासाया
टीकार्थ-वस का प्रकरण होने से 'प्राण' शब्द का अर्थ यहाँ त्रसजीव समझना चाहिए । यस प्राणी विदिशाओं में भागन्तुक दुःखों से त्रस्त हैं । तात्पर्य यह है कि-समी विदिशाओं में और समी दिशाओं में सजीव विद्यमान हैं और सभी विदिशाओं और दिशाओं से आने वाले दुःखों से वे पीडित होते हैं ।
___ उन्हें दुःख क्यों होता हैं ? इसका उत्तर यह है-विभिन्न प्रयोजनों से आतुर लोग अर्थात् अर्चा (शरीर), चर्म, मांस, आदि के लोलप पुरुष उस जीवों को पीडा पहँचाते हैं। उन्हें भांति-भांति की वेदना उत्पन्न करके उनके प्राणों का व्यपरोपण करते हैं और सब प्रकार से दुःख उत्पन्न करते हैं। वे सजीव पृथिवी आदि के
ટીકાથત્રસનું પ્રકરણ હેવાથી “પ્રાણ” શબ્દને અર્થ ત્રસજીવ સમજ જોઈએ ત્રસ પ્રાણી વિદિશાઓમાં તથા દિશાઓમાં આગતુક દુઃખોથી ત્રાસ પામે છે. તાત્પર્ય એ છે કે સર્વ વિદિશાઓમાં અને સર્વ દિશાઓમાં ત્રસ જીવ વિદ્યમાન છે, અને સર્વ વિદિશાઓ તથા દિશાઓથી આવવાવાળા દુખેથી તે પીડા પામે છે.
તેને દુઃખ શા માટે થાય છે તેને ઉત્તર એ છે કે-જૂદા-જૂદા પ્રયોજનાથી આતુર લોક અથૉત્ અ (શરીર), ચર્મ, માંસ વગેરેના લાલચું પુરુષ ત્રસ જીવેને પીડા પહોંચાડે છે, તેને જુદી-જુદી જાતની વેદના ઉત્પન્ન કરે છે. તે ત્રસ જીવ પૃથ્વી આદિના આશ્રયે જ
म. आ.-८३
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भावाराचे मनेकपर्यायशब्दस्तेपामुपादानात् ।
तथा सर्वेषां दुःखं प्रत्येकं पृथक् पृथगस्ति । कयम्भूतं दुःखमित्यार' असात'-मित्यादि । असातम् असातवेदनीयकर्मफलभूतम् , तथा अपरिनिर्वाणम् सर्वथा शरीरमनः पीडाकरम्, तथा-महाभयम्-दुःखादधिकं भयमन्यन्नास्ति, यतः सर्वेऽपि माणिनः शारीरान्मानसादपि दुःखाद्विजन्ते, तस्मान्महामयस्वरूपमित्ययः ॥ मू०२॥
एतच ब्रवीमीत्याह ' तसंति पाणा.' इत्यादि।
तसंति पाणा पदिसो दिसामु य । तत्थ पुढो पास आतुरा, परिताति, संति पाणा पुढो सिया ॥ सू० ३॥ अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है। ___इसी प्रकार सब जीवों का दुःख भी पृथक्-पृथक् है । दुःख किस प्रकार का है ! सो कहते हैं-वह असातावेदनीय कर्म का फल है, शरीर और मन को पूरी तरह पीडा उत्पन्न करता है और महाभयंकर है-दुःख से बढकर और कोई भय नहीं है, क्या कि सभी प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःख से घबराते हैं, अतः वह महाभयकारी है ॥ सू० २॥
और मैं यह कहता हूँ:--'तसंति पाणा.' इत्यादि ।
मूलार्थ-प्राणी विदिशाओ में और दिशाओ में उद्वेग पाते हैं। अलगअलग प्रयोजनो के लोलुप लोग उन्हें संताप पहुंचाते है । वे उस प्राणी पृथ्वी आदि विभिन्न आश्रयो पर आश्रित हैं । सू० ३॥
વિધેયરૂપથી સમજાવવા માટે અનેક પર્યાયવાચી શબ્દોને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યો છે.
આ પ્રમાણે સર્વજીના દુઃખ પણ જૂદા-જૂદ છે. દુઃખ કયા પ્રકારના છે ! તે કહે છે–તે આ અસાતવેદનીય કર્મનું ફળ છે, શરીર અને મનને પૂરી રીતે પીડા ઉત્પન્ન કરે છે. અને મહા ભયંકર છે. દુઃખથી વધારે કેઈપણ ભય નથી. કારણકે સર્વ પ્રાણ-શારીરિક અને માનસિક દુઃખથી ગભરાય છે. તેથી તે મહાભકારી છે. સૂત્રો
मन ई थे ५५ हुँ छु:-'तसंति पाणा.' त्याह.
મૂલાથ–પ્રાણી વિદિશાઓમાં અને દિશાઓમાં ઉગ પામે છે. અલગ-અલગ પ્રજનેથી લોલુપ લેક તેને સંતાપ પોંચાડે છે. તે ત્રસ પ્રાણી પૃથ્વી આદિ વિભિન્ન माश्रयो ५२ याश्रित छ. ॥सू० ॥ .
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्यं. १ उ. ६ सू. ४ ससमारम्भका:
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लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पत्रयमाणा, जमिणं, विरुवस्वेहि सत्येहिं तसकायसमारंभेणं, तसकायसत्यं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूबे पाणे विहिंसति ।। मू० ४ ॥
छायालजनमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्मः, इति एके प्रवदमानाः, यदि विरूपरूपैः शस्त्रसकायसमारम्भेण, सकायशस्त्रं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसन्ति । सू० ४ ॥
टीका---
लज्जमाना:-परमकरुणयाऽऽर्द्रहृदयतया उसकायसमारम्भे पराङ्मुखाः त्रसकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनागारा इत्यर्थः । पृथक्-विभिन्नाः, केचित्प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनःपर्ययकेवलिना, केचित्-परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः, सन्तीति पश्य । यद्वा-पृथक्-द्रव्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य । इमे त्रस
मूलार्थ-सकाय के आरंभ में संकोच करने वाले (अनगारों को) अलग समझो। 'हम अनगार हैं' ऐसा कहने वाले कोई-कोई (द्रव्यलिंगी) नाना प्रकार के शस्त्रो का प्रयोग करते हुए और भी अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं उनको अलग देखो । सू० ४ ॥
टीकार्थ-----परम करुणा से जिनका हृदय द्रवित है ऐसे अनगार सकाय के मारंभ से सर्वथा विमुख रहते हैं। ये अनगार अलग-अलग हैं। कोई अवधिमानी कोई मनःपर्ययज्ञानी और कोई केवलज्ञानी हैं। कोई-कोई परोक्षज्ञानी भाविमासा *
મૂલાઈ—ત્રસકાયના આરંભમાં સંકેચ કરવાવાળા અણુગારોને અલગ-જદાસમજે, “અમે અણગાર છીએ એ પ્રમાણે કહેવાવાળા કઈ-કઈ વ્યલિંગી, નાના પ્રકારનાં શસેથી ત્રસકાયને આરંભ કરીને, ત્રસકાયનાં શોનો પ્રયોગ કરતા શકા બીજી પણ અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. તેને અલગ જુઓ. સૂ૦ ૪
ટીકાથ–પરમ કરૂણાથી જેનું હૃદય દ્રવિત છે એવા અણગાર ત્રસકાયના આરંભથી સર્વથા વિમુખ રહે છે-દૂર રહે છે. તે અણગાર અલગ-અલગ છે. કેઈ , અવધિજ્ઞાની, કોઈ મને પર્યયજ્ઞાની, અને કઈ કેવલજ્ઞાની છે. કઈ-કઈ પરીક્ષાની
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आचाराम माह-सन्ति' इत्यादि। श्रिताः पृथिव्यादीन समाश्रित्यावस्थिताः, पृथक्वविभिनाः द्वीन्द्रियादयः, माणामाणिनः सन्ति ।
यद्यपि सर्वदिग्विदिग्भ्य आगामिनो दुःखाद विम्यन्तस्त्रसजीवाः स्वात्मरक्षाये पृथिव्यादीन् समाश्रित्व वर्तन्ते तथापि मांसचर्मादिलब्धा आतुरास्तान् बन्धनवाडनादिना शावकाधपहारेण प्राणायपहारेण च परिपीडयन्ति, ततः संसारं प्राप्नुवन्ति । तस्मादेतत् परिज्ञाय सकलसावधव्यापारपरिहारेण संयमानुप्ठाने प्रवर्तितव्यामात भावः। स०३॥
अथ सर्वथा उसकायसमारम्मपरित्यागिनोऽनगारान् , तया त्रसकायसमारम्भमवृत्तान् द्रव्यलिगिनश्च विविच्य मतियोधयितुमाह-'लज्जमाणा.' इत्यादि। सहारे अलग-अलग रहे हुए हैं।
यद्यपि सब दिशाओं और विदिशाओं से आनेवाले दुःखों से डरने वाले त्रस जीव अपनी रक्षा के लिए पृथ्वी आदि के सहारे टिके रहते हैं फिर भी मांस और चर्म आदि के लोमी लोग उन्हें बंधन एवं ताडन द्वारा, उनके बच्चोंका अपहरण करके तथा उनके प्राणों का हनन करके उन्हें पीडा पहुँचाते हैं और इस कारण वे हिंसक, संसार को प्राप्त होते हैं। आशय यह हैं कि-यह सब जानकर सम्पूर्ण सावध व्यापार का त्याग करके संयम की साधना में प्रवृत्त होना चाहिए ।। सू० ३ ॥
अब पूर्णरूप से त्रसकाय के आरंभ का त्याग करने वाले अनगारों का तथा उसकाय के आरंभ में प्रवृत्ति करने वाले द्रव्यलिंगियों का विवेचन करके समझाते हुए कहते हैं'लज्जमाणा.' इत्यादि।
म1-11 से छे.
જે કે સર્વ દિશા અને વિદિશાઓથી આવનારા દુખોથી ડરવાવાળા ત્રસજીન પિતાની રક્ષા માટે પૃથ્વી આદિના આશ્રયે ટકી રહે છે. ફરી પણ માંસ અને ચામડી આદિના લોભી લેક તેને બંધન એ પ્રમાણે તાડન દ્વારા, તેના બચ્ચાંઓનું અપહરણ કરીને ચોરી જઈને) તથા તેના પ્રાણનું હનનનાશ કરીને તેને પીડ પોંચાડે છે. અને આ કારણથી તે હિંસક–સંસારને પ્રાપ્ત થાય છે. આશય એ છે કે-એ સર્વ જાણ કરીને સંપૂર્ણ સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યાગ કરીને સંયમની સાધનામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ. ll
હવે પૂર્ણ રૂપથી ત્રસકાયનાં આરંભને ત્યાગ કરવાવાળા અણગારોનું તથા વસકાયના આરંભમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા દ્રવ્યલિંગિઓનું વિવેચન કરીને સમજાવતા થકા ४३ -'लजमाणा.' त्यादि..
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ६ . ४ शस्त्रमेदनिरूपणम्
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द्विविधम्, तत्र द्रव्यशखं स्वकाय परकायो - भयकायभेदात् त्रिविधम् । तत्रस्वकायशस्त्रसकायस्य सकायः, यथा - मृगादीनां व्याधकुक्कुरादयः, मनुष्यादीनां मनुष्यादयः । परकायशस्त्रम् - पापाणजलाग्निलगुडखङ्गतोमरछुरिकादयः । उभयकायशस्त्रम्-लगुडखङ्गादिधारिणो मनुष्यादयः । भावशस्त्रं तु कार्यं प्रति मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानम् । सकापसमारम्भेण सः त्रसनशीलः कायः शरीरं यस्य स त्रसकायस्तस्य समारम्भः = पीडाकरः साधव्यापारस्तेन, इसकायं विहिंसन्ति ।
3
-
anaraftarai प्रवृत्ताः खलु पजीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह--' सकाशम्' इत्यादि । कायशस्त्र = त्रसजीवोपमर्दकं शस्त्रं पूर्वोक्तप्रकारं समारम्भमाणाः सकार्य प्रति प्रयुञ्जानाः अन्यान् सकायभिन्नान्
मेद हैं- स्वकाय, परकाय, और उभयकाय । त्रसका का काय स्वकायशत्र हैं, जैसे मृग आदि के लिए व्याध, कुत्ता आदि, मनुष्य के लिए मनुष्य आदि । परकायास्त्र जैसे पत्थर, जल, अग्नि, लकड़ी, तलवार, तोमर, शेरी आदि । उभयकायशत्र जैसे लाठी, तलवार आदि कारण करने वाला मनुष्य आदि । सकाय के प्रति मन, वचन, और कायका अप्रशस्त व्यापार होना arara है। इन नाना प्रकार के शस्त्रों से सकाय का समारंभ करके लोग काय को पीडा पहुँचाते है ।
काय को हिंसा में प्रवृत्ति करने वाले छह प्रकार के जीवनिकायरूप सम्पूर्ण लोक की हिंसा करते हैं, यह बात कहते हैं - सकाय में, काय की हिंसा करने वाले शस्त्रों का जो प्रयोग करते हैं वे सकाय के अतिरिक्त अनेक प्रकार के पृथ्वीकाय आदि
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પરકાય અને ઉભયફાય, ત્રસકાયનું ત્રસકાય તે સ્વકાયશસ્ત્ર છે, જેમ મૃગ આદિને માટે વાધ-કુતરા આદિ, મનુષ્યને માટે મનુષ્ય આદિ. પરકાયશસ્ત્ર, જેમકે પથ્થર, रस, अग्नि, साउडी, तरवार, लाडु, छरी आदि, लयायशत्र, प्रेम-साडी, તલવાર આદિ ધારશું કરવાવાળા મનુષ્ય આદિ. ત્રસકાયના પ્રતિ મન, વચન અને કાયાના અપ્રશસ્ત વ્યાપાર થા તે ભાવશસ્ત્ર છે. તે નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રોથી ત્રસકાયને સમારભ કરીને લેફ ત્રસકાયને પીડા પહોંચાડે છે.
ત્રસકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા છ પ્રકારના ગનિકાયરૂપ સમ્પૂર્ણ લાકની હિંસા કરે છે. એ વાત કહે છેન્ત્રસકાયમાં, ત્રસકાયની હિંસા કરવાવાળા શસ્રાને જે પ્રયેાગ કરે છે, તે ત્રસકાયથી જૂદા અનેક પ્રકારના પૃથ્વીકાય આદિ પાંચ સ્થાવર
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आगारागसूत्रे कायसमारम्भकरणे भीताखस्ता उद्विग्नाखिकरणत्रियोगैससकायसमारम्मपरित्यागिनो विद्यन्ते, इति विलोफयेत्यर्थः ।
एके पुनरन्ते तु 'वयमनगाराः स्मः' इति सामिमान प्रवद्रमानाः 'वयमेव उसकायरक्षणपरा महावतधारिणः' इति प्रलपन्तो व्यलिगिनः सन्ति, तान् पृथक् पश्य ।
इमे खल्वनगाराभिमानिनो न्यलिनिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रर्वतन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्तीति दर्शयति- यदिमम्. ' इत्यादि ।
यद्यस्माद् विरूपरूपैः विभिन्न स्वरूपैः शौः, शस्त्रं हि द्रव्यभावभेदाद् इन्हें देखो । अथवा इन्हें द्रव्यलिंगियों से अलग समझना चाहिए। ये उसकाय का आरंभ करते हुए डरते हैं, त्रस्त होते है, उद्विग्न होते हैं-तीन करण, तीन योग से उसकाय के आरंभ के त्यागी हैं, यह देखो।
__ और कोई-कोई 'हम अनगार है। इस प्रकार अभिमानपूर्वक कहते हुए तथा 'इम ही त्रसकाय के रक्षक और महावतधारी हैं। इस तरह प्रलाप करते हुए कई द्रव्यलिंगी हैं, उन्हें अनगारों से अलग समझो ।
अनगार होने का अभिमान करने वाले ये व्यलिंगी अनगार के गुणों में तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते और न गृहस्थ के किसी काम का त्याग करते हैं। यह बात आगे बतलाते हैं:-'यदिमम्' इत्यादि ।
द्रव्य और भाव के मेद से शस्त्र दो प्रकार का है। द्रव्यशस्त्र के तीन
ભાવિતાત્મા છે. આને જુઓ. અથવા એને દ્રવ્યલિંગીઓથી અલગ સમજવા જેઈએ. જે ત્રસકાયને આરંભ કરતાં ડરે છે, ત્રસ્ત થાય છે, ઊંદ્વિગ્ન થાય છે-ત્રણ કરણ ત્રણ રોગથી ત્રસકાયના આરંભના ત્યાગી છે એ જુઓ.
અને કઈ-કઈ “અમે અણગાર છીએએ પ્રમાણે અભિમાકપૂર્વક કહેતા થક તથા “અમેજ ત્રસકાયના રક્ષક અને મહાવ્રતધારી છીએ” એ પ્રમાણે પ્રલાપબકવાદ કરનારા કેટલાક દ્રવ્યલિંગી છે. તેને અણગારોથી જુદા સમજે.
અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળા એ દ્રવ્યલિંગી અણગારના ગુણેમાં જરાપણ પ્રવૃત્ત નથી અને ગૃહસ્થના કેઈ પણ કામને તેઓએ ત્યાગ કર્યો નથી. पातमा मा छ- यदिमम्.' त्याल. દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી શમ બે પ્રકારનાં છે. દ્રવ્યશના ત્રણ ભેદ છે. રૂકાય,
शामा
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ६ मू. ४ शस्त्रमेदनिरूपणम्
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द्विविधम्, तत्र स्वकाय - परकायो - भयकायभेदात् त्रिविधम् । तत्रस्वकायशत्रकायस्य कायः, यथा मृगादीनां व्याधकुक्कुरादयः, मनुष्यादीनां मनुष्यादयः । परकाशस्त्रम् - पापाणजलानिलगुडखङ्गतोमरछुरिकादयः । उभयकायशखम्-लगुडखङ्गादिधारिणो मनुष्यादयः । भावशस्त्रं तु सकार्य प्रति मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानम् | सकायसमारम्भेण सः =सनशीलः कायः शरीरं यस्य स सकायस्तस्य समारम्भः = पीडाकरः सावध व्यापारस्तेन, इमं त्र सकार्य विहिंसन्ति ।
काहिंसायां खलु पड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह - ' सकायाम्' इत्यादि । कायशस्त्र = सजीवोपमर्दकं शस्त्रं पूर्वोक्तप्रकारं समारम्भमाणाः सकार्य प्रति प्रयुञ्जानाः अन्यान् = त्रसकायभिन्नान्
भेद हैं- स्वकाय, परकाय, और उभयकाय । त्रका का काय स्वकाय हैं, जैसे मृग आदि के लिए व्याय, कुत्ता आदि, मनुष्य के लिए मनुष्य आदि । परकायात्र जैसे पत्थर, जल, अग्नि, लकड़ी, तलवार, तोमर, शेरी आदि । उभयकायास्त्र जैसे लाठी, तलवार आदि कारण करने वाला मनुष्य आदि । सकाय के प्रति मन, वचन, और कायका अप्रशस्त व्यापार होना arara है। इन नाना प्रकार के शस्त्रों से सकाय का समारंभ करके लोग
काय को पीडा पहुँचाते है ।
काय को हिंसा में प्रवृत्ति करने वाले छह प्रकार के जीवनिकायरूप सम्पूर्ण लोक को हिंसा करते हैं, यह बात कहते हैं सकाय में, सकाय की हिंसा करने वाले aat का जो प्रयोग करते हैं वे त्रसकाय के अतिरिक्त अनेक प्रकार के पृथ्वीकाय आदि
પરકાચ અને ઉભયકાય, ત્રસકાયનું ત્રસકાય તે સ્વકાયશસ્ત્ર છે, જેમ મૃગ આદિને માટે વાઘ-કુતરા આદિ, મનુષ્યને માટે મનુષ્ય આદિ. પરકાયશસ્ત્ર, જેમકે પથ્થર, छल, शक्ति, सामुडी, तरवार, शाहु छरी आदि, लयायशस्त्र, प्रेम-साडी, તલવાર આદિ ધારશુ કરવાવાળા મનુષ્ય આદિ. ત્રસકાયના પ્રતિ મન, વચન અને કાયાને અપ્રશસ્ત વ્યાપાર થવા તે ભાવશસ્ત્ર છે. તે નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રોથી ત્રસકાયને સમારણ કરીને લેાક ત્રસકાયને પીડા પહેાંચાડે છે.
ત્રસકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા છ પ્રકારના જીનિકાયરૂપ સમ્પૂર્ણ લેાકની હિંસા કરે છે. એ વાત કહે છે-ત્રસકાયમાં, ત્રસકાયની હિંસા કરવાવાળા શસ્રાન જે પ્રયાગ કરે છે, તે ત્રસકાયથી જૂદા અનેક પ્રકારના પૃથ્વીકાય આદિ પાંચ સ્થાવર
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आचाराङ्गमुत्रे
अनेकरूपान् पृथिवीकायादीन् पञ्चस्थावरान, माणान् पाणिनः, विहिंसन्ति ।
द्रव्यलिङ्गिनो
इह चहुविधा द्रव्य लिङ्गिनो विद्यन्ते । तत्र शाक्यादयः कन्दमूलपत्रपुष्पफलादि भोक्तुं तदाश्रितत्र सजीवसमारम्भेण पृथिव्यादिस्थावरसमारम्भेण च त्रसजीवान् पृथिव्यादीन् स्थावरांथ घ्नन्ति घातयन्ति हिंसवोऽनुमोदयन्ति च । दण्डिनोऽपि -
"
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वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनाज्ञाराधका अनगाराः स्मः " इत्यादि प्रवदमानाः साध्वाभासाः सावयमुपदिशन्ति शास्त्रमतिपिद्धमपि पड्जीवनिकायसमारम्मं कारयन्ति । प्रतिमामन्दिरादिनिर्माणार्थं गर्तकरणे, पापाणादीनां खण्डशः करणे, तेपामूर्ध्वतो निपतने च मनुष्यादीन् तथा बहुतरनृक्षच्छेदने पाँच स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करते हैं ।
संसार में बहुत प्रकार के द्रव्यलिंगी हैं। उन में से शाक्य आदि कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल आदि भोगने के लिए उन पर रहे हुए सजीवों का समारंभ करके त्रस और स्थावर जीवों की घात करते हैं, कराते हैं और घात करने वाले की अनुमोदना करते हैं । दण्डी भी-
"
हम पंचमहाव्रतधारी, जिनाज्ञा के कहने वाले झूठे साधु सावध का उपदेश देते हैं और समारंभ कराते हैं । प्रतिमा, मन्दिर, आदि का निर्माण पत्थरों के टुकडे करने में, उन्हें ऊपर से पटकने में मनुष्य आदि का घात कराता हैं । बहुत-से वृक्षों को छेदने में वृक्षाश्रित अण्डजों के पंचेन्द्रिय बच्चों का घात कराते हैं ।
आराधक अनगार हैं ऐसा शास्त्र में निषिद्ध पड्जीवनिकाय का करने के लिए - खड्डे खोदने में,
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પ્રાણીઓની પણ હિંસા કરે છે.
સંસારમાં ઘણાં પ્રકારનાં દ્રવ્યલિંગી છે. એમાંથી શાકય આદિ કન્દ, મૂળ, પત્ર, પુષ્પ, ફૂલ આદિ ભાગવવા માટે–ઉપચેગ કરવા માટે, તેના પર રહેલા ત્રસ જીવાના સમારંભ કરીને અને પૃથ્વી આદિ સ્થાવર જીવેાના સમારંભ કરીને ત્રસ અને સ્થાવર જીવાના ઘાત કરે છે. કરાવે છે, અને ઘાત કરવાવાળાને અનુમાદન આપે छे. हंडी पशु “ अभे पंथभडाव्रतधारी, निनाज्ञाना भाराध माशुगार छीये." मे પ્રમાણે કહેવાવાળાનુડા સાધુ સાવધના ઉપદેશ આપે છે. અને શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ ષનિકાયના સમારંભ કરાવે છે.
પ્રતિમા, મંદિર વગેરેનુ’ નિર્માણુ કરવા માટે ખાડા ખેાદવા, પત્થરના ટુકડા કરાવવા, તેને ઉપરથી પછાડવામાં મનુષ્ય આદિને ઘાત કરાવે છે. ઘણાંજ વૃક્ષાને કાપવાથી વૃક્ષાના
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ६ सृ. ४ द्रव्यलिङ्गिभेदाः
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तदाश्रितान् अण्डजशावकादीन् पञ्चेन्द्रियान् पिपीलिकापतङ्गादिबहुविधविकलेन्द्रि यांच, प्रतिमापूजनार्थ पुष्पवाटिकाकरणे पुष्पपत्रफलादिग्रोटनेऽपि च पहजीवनि - कायान् घातयन्ति ॥ मु० ४ ॥
अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति--' तत्थ खलु. ' इत्यादि ।
६६३
मूलम् -
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेड़या, इमस्स चैव जीवियस परिवंदण - माण- पूणाए जाइमरणभोयणाए दुःखपरिघायहेतुं से सयमेव तसकायसत्यं समारंभ, अहि या तसकायसत्यं समारंभावेह, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाण, तं से अहियाए, तं से अवोहीए ॥ ०५ ॥
hist पतंग आदि बहुत प्रकार के चिकलोन्द्रिय जीवों का घात कराते हैं । प्रतिमापूजन के लिए फूलांका बगीचा बनाने में, ल, पत्ता और फल आदि तोडने में भी पदकाय के जीवों की मात कराते ॥ सू० ४ ॥
अब सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं: -- तत्थ खलु' इत्यादि ।
मूलार्थ - काय के आरंभ के
विषय में भगवान्ने उपदेश दिया है । इसी जीवन के चन्दन, मानन, और पूजन के लिए, तथा जन्म-मरण से छूटने के लिए और दुःख का विनाश करने के लिए वह स्वयं त्रसकाय के शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों द्वारा काय का समारंभ करता है और काय का समारंभ करने वाले अन्य लोगों का अनुमोदन करता है । यह उसके अहित के लिए हैं, उसको संबोधि के लिए है | सू० ५ ॥
આથી રહેલા અડજ જીવાના પચેન્દ્રિય અગ્ગાએઅને ઘાત કરાવે છે. કીડી પતંગ આદિ ઘણાજ પ્રકારના વિકલેન્દ્રિય જીવાને ઘાત કરાવે છે. પ્રતિમાપૂજન માટે ફૂલાના બગીચા બનાવવામાં ફૂલ, પતાં ( પાંદડા) અને કુળ આદિ તેડવામાં પણ षडायना भवानी घात हरे छे. ॥ ४ ॥
हवे सुधर्मा खाभी भ्णू स्वाभीने हे छे:-' तत्थ खलु. ' त्यिाहि.
ભૂલાય - ત્રસકાયના આરભના વિષયમાં ભગવાને ઉપદેશ આપ્યા છે. આ જીવનના વંદન, માન, અને પૂજનને માટે તથા જન્મ-મરણથી છૂટવા માટે અને દુઃખના નાશ કરવા માટે તે પાતે ત્રસકાયના રાસ્રના સમારંભ કરે છે, બીજા પાસે ત્રસકાયના આરભ કરાવે છે. અને ત્રસકાયને સમારભ કરવાવાળા અન્ય લેાકેશને અનુમેદન આપે છે, તે એમના અહિત માટે છે, એમની એધિ માટે છે. સૂ॰ પા
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૧૬૨
आचारात्रे
अनेकरूपान् पृथिवीकायादीन् पञ्चस्थावरान, माणान: मणिनः, विहिंसन्ति ।
इह बहुविधा द्रव्यलिङ्गनो विद्यन्ते । तत्र शाक्यादयः कन्दमूलपत्रपुष्पफलादि भोक्तुं तदाश्रितत्र सजीवसमारम्भेण पृथिव्यादिस्थावरसमारम्भेण च सजीवान् पृथिव्यादीन् स्थावरांथ घ्नन्ति घातयन्ति हिंसवोऽनुमोदयन्ति च । दण्डिनोऽपि -
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" वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनावाराधका अनगाराः स्मः" इत्यादि प्रवदमानाः साध्याभासाः सावयमुपदिशन्ति शास्त्रमतिपिद्धमपि पड्जीवनिकायसमारम्मं कारयन्ति । प्रतिमामन्दिरादिनिर्माणार्थं गर्तकरणे, पापागादीनां खण्डशः करणे, तेपामूर्ध्वतो निपतने च मनुष्यादीन् तथा बहुतरक्षच्छेदने
पाँच स्थावर प्राणियों को भी हिंसा करते हैं ।
संसार में बहुत प्रकार के द्रव्यलिंगी हैं। उन में से शाक्य आदि कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल आदि भोगने के लिए उन पर रहे हुए सजीवों का समारंभ करके त्रस और स्थावर जीवों की घात करते हैं, कराते हैं और घात करने वाले की अनुमोदना करते हैं । दण्डी भी -
'हम पंचमहात्रतधारी, जिनाज्ञा के आराधक अनगार हैं ऐसा कहने वाले झूठे साधु सावय का उपदेश देते हैं और शास्त्र में निषिद्ध पड्जीवनिकाय का समारंभ कराते हैं । प्रतिमा, मन्दिर, आदि का निर्माण करने के लिए खड्डे खोदने में, पत्थरों के टुकडे करने में, उन्हें ऊपर से पटकने में मनुष्य आदि का घात कराता हैं । बहुत-से वृक्षों को छेदने में वृक्षाश्रित अण्डजों के पंचेन्द्रिय बच्चों का घात कराते हैं । પ્રાણીઓની પણ હિંસા કરે છે.
સૌંસારમાં ઘણાં પ્રકારનાં દ્રવ્યલિંગી છે. એમાંથી શાકય આદિ કેન્દ્ર, મૂળ, પત્ર, પુષ્પ, કુલ આદિ ભાગવવા માટે—ઉપયોગ કરવા માટે, તેના પર રહેલા ત્રસ જીવાના સમારંભ કરીને અને પૃથ્વી આદિ સ્થાવર જીવેાના સમારંભ કરીને ત્રસ અને સ્થાવર જીવાના ઘાત કરે છે. કરાવે છે, અને ઘાત કરવાવાળાને અનુમૈાદન આપે છે. ફ્રેંડી પણ હું અમે પંચમહાવ્રતધારી, જિનાજ્ઞાના આરાધક અણુગાર છીએ.” એ પ્રમાણે કહેવાવાળા જુઠા સાધુ સાવધના ઉપદેશ આપે છે. અને શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ ષડ્થવનિકાયના સમારંભ કરાવે છે.
પ્રતિમા, મંદિર વગેરેનું નિર્માણુ કરવા માટે ખાડા ખેાદવા, પત્થરોના ટુકડા કરાવવા, તેને ઉપરથી પછાડવામાં મનુષ્ય આદિના ઘાત કરાવે છે. ઘણાંજ વૃક્ષાને કાપવાથી વૃક્ષાના
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ स.४ द्रव्यलिंगिभेदाः ६६३ तदाश्रितान् अण्डजशावकादीन , पञ्चेन्द्रियान् पिपीलिकापतगादिबहुविधविकलेन्द्रियांच, प्रतिमापूजनार्थे पुष्पवाटिकाकरणे पुष्पपत्रफलादिम्रोटनेऽपि च पजीवनिकायान् घातयन्ति ।। मू०४ ॥ अध सुधर्मा स्वामी जम्वृस्वामिनं कथयति-तत्थ खलु.' इत्यादि।
मूलम् - तत्य खलु भगवया परिणा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-- माणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए दुःखपडियायहेउं से सयमेव तसकायसत्यं समारंभइ, अण्णेहि वा तसकायसत्यं समारंभावेइ. अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाणड़, तं से अहियाए, तं से अवोहीए । मु. ५॥ कीडो पतंग आदि बहुत प्रकार के विकलोन्द्रिय जीवों का घात कराते हैं। प्रतिमापूजन के लिए फूलोका बगीचा बनाने में, ल, पता और फल आदि तोडने में भी पदकाय के जीवों की घात कराते हैं ।। सू० ४ ॥
अब सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं। 'तत्य खलं.' इत्यादि।
मूलाथ-सकाय के आरंभ के विषय में भगवान्ने उपदेश दिया है। इसी जीवन के वन्दन, मानन, और पूजन के लिए, तथा जन्म-मरण से छूटने के लिए और दुःख का विनाश करने के लिए वह स्वयं उसकाय के शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों द्वारा सकाय का समारंभ करता है और उसकाय का समारंभ करने वाले अन्य लोगों का अनुमोदन करता है। यह उसके अहित के लिए हैं, उसकी अंबोधि के लिए है ।। सू० ५॥
આશ્રયે રહેલા અંડજ જીના પંચેન્દ્રિય બચ્ચાઓને ઘાત કરાવે છે. કીડી પતંગ આદિ ઘણજ પ્રકારના વિકલેન્દ્રિય જીવોને ઘાત કરાવે છે. પ્રતિમાપૂજન માટે ફૂલના બગીચા બનાવવામાં ફૂલ, પતાં (પાંદડા) અને ફળ આદિ તેડવામાં પણ षयन वोनो घात 3रे छे. ॥४॥
हवे सुधी पाभी म्यू स्वामीने ४९ छ:-"तत्य खलु.' त्याहि.
મૂલાઈ-સકાયના આરંભના વિષયમાં ભગવાને ઉપદેશ આપે છે. આ જીવનના વંદન, માન, અને પૂજનને માટે તથા જન્મ-મરણથી છૂટવા માટે અને દુઃખને નાશ કરવા માટે તે પિતે ત્રસકાયના અને સમારંભ કરે છે, બીજા પાસે વસાયને આરંભ કરાવે છે. અને ત્રસકાય સમારંભ કરવાવાળા અન્ય લોકેને અનુમોદન આપે છે, તે એમના અહિત માટે છે, એમની અદ્ધિ માટે છે. સૂત્રો પાસે
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आचारासो छायातत्र खलु भगवता परिमा मवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखप्रतिघातहेत. स स्वयमेव प्रसकायशवं समारभते, अन्यैर्वा प्रसकायशस्त्रं समारम्भपति, अन्यान् या प्रसकायशवं समारभमाणान् समनुजानाति, तत्तस्याहिताय, तत्तस्याबोधये ॥ सू० ५॥
टीकातत्र यसकायसमारम्भ भगवता-श्रीमहावीरेण परिक्षा-ज्ञ-प्रत्याख्यानभेदाद् द्विविधा, खलु निश्चयेन प्रवेदिताम्मतियोधिता। कर्मरजापरिहरणार्थ जीवेन परिशाsवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतियोधितमिति भावः ।
उपभोगद्वारम्लोकः फस्मै प्रयोजनाय उसकायमुपमर्दयतीत्याह-'अस्य चैत्र जीवितस्य ' इत्यादि । अस्यैव-अचिरस्थायिनः, जीवितस्य-जीवनस्य सुखार्थम्मांसचाद्यर्थम् , तथा-परिवन्दन-मानन-पूजनाय, परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थम् , यथाव्याघ्रादिमृगयादौ, माननं-जनसत्कारस्तदर्थम् , यथा-राज्ञः सकाशात् पदकादि
टीकार्थ-~-त्रसकाय के समारंभ के संबंध में श्री महावीरने परिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा का उपदेश दिया है । अर्थात् भगवान्ने कहा हैं कि-कर्मरज को हटाने के लिए जीव को परिज्ञा अवश्य स्वीकार करनी चाहिए।
उपभोगद्वारलोग किस प्रयोजन से त्रसकाय की हिंसा करते हैं। सो कहते हैं--इसा अस्थायी जीवन के सुख के लिए, मांस और चमडी के लिए, तथा प्रशंसा के लिए, जैसे व्याघ्र आदि का शिकार करने में, मानन के लिए, जैसे राजा से पदवी पाने के उद्देश्य से 1 ટીકાથે—ત્રસકાયના સમારંભના સંબંધમાં શ્રી મહાવીર જ્ઞપરિણા અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાને ઉપદેશ આપે છે. અર્થાત્ ભગવાને કહ્યું છે કે-કર્મ રજને દર કરવા માટે જીવે પરિજ્ઞા અવશ્ય સ્વીકારવી જોઈએ.
उपसागवारલેક શું પ્રયોજનથી ત્રસકાયની હિંસા કરે છે? તે કહે છે–આ અસ્થિર જીવનના સુખ માટે, માંસ અને ચામડીના માટે, તથા પ્રશંસા માટે. જેઅ કે-વાઘ આદિને શિકાર કરવામાં. માન માટે, જેમ કે-રાજા પાસેથી પદવી મેળવવાના ઉદ્દેશ્યથી જીવતા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६० ५ त्रसकायसमारम्भदोपः ६६५ लधुं सजीयसदृशव्याघ्रादिमृतकलेवरनिर्माणादौ, तथा-पूजनचत्ररत्नादिलाभस्तदर्थम् , यथा-देवीपूजार्थं बलिदानादौ,
तथा-जातिमरणमोचनार्थम् = जन्ममरणयन्धपरिहारार्थव्यथा मोक्षकामनया यागादौ, यथा-वातादिव्याधिमतीकाराय तैलादौ, स:-जीवनसुखाद्यर्थी स्वयमेव त्रसकायशवं समारभते-व्यापारयति, अन्यैर्वा बसकायशस्त्रं समारम्भयतिप्रयोजयति, अन्यान् वा प्रसकायशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति अनुमोदयति, तक्त्रसकायसमारम्भणम् , तस्य-सकाय समारम्भं कुर्वतः, कारयितुः, अनुमोदयितथ, अहिताय भवति । तथा तत्-तस्य अवोधये सम्यक्त्वालाभाय भवति । जीवित व्यान आदि के समान व्याव आदि का कलेवर बनाने में, और पूजक के लिए जैसे वन रत्न मादि की प्राप्ति के लिए, तथा-देवीकी पूजा करने के लिए प्रयोजन से वलिदान आदि करने में हिंसा करते हैं।
___-तथा-जन्म-मरण-बंध आदि से छुटकारा पाने के लिए, जैसे-मोक्ष की कामना से यज्ञ आदि करने में, वात आदि के रोगों का प्रतीकार करने के लिए तैल आदि तैयार करने में, जीवन के सुख का अर्थी स्वयं ही उसकाय के शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों से त्रसकाय के शस्त्र का समारंभ कराता है और उसकाय के शस्त्र का समारंभ करने वालों का अनुमोदन करता है। यह उसकाय का आरंभ उस आरंभकर्ता के लिए अहितकर और अबोधिजनक होता है।
વાઘના સમાન વાઘ આદિનું કલેવર બનાવવામાં અને પૂજન માટે જેમકે-વઝ, રત્ન આદિ પ્રાપ્તિ માટે. તથા દેવીની પૂજા કરવાના પ્રયજનથી બલિદાન આદિ કરવામાં હિંસા કરે છે.
તથા–જન્મ, મરણ, બંધ આદિથી છુટવા માટે. જેમકે-મોક્ષની કામનાથી યજ્ઞ આદિ કરવામાં, વાત આદિ રોગને પ્રતિકાર કરવા માટે રાગની દવા કરવા માટે) જીવનના સુખના અર્થી સ્વયં-પોતેજ ત્રસકાયના શસ્ત્રને સમારંભ કરે છે. બીજા પાસે ત્રસકાયના શસ્ત્રને સમારંભ કરાવે છે. અને ત્રસકાયના શઅને સમારંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે છે. તે સ્કાયનો આરંભ એ આરંભ કરનારને માટે અહિતકર્તા અને અબાધિ ઉત્પન્ન કરનાર છે. प्र. मा.-८४
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बापारासरे
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. वेदनाद्वारम्अत्र प्रसङ्ग तहसमायस्य चेदनोच्यते-घेदना यथासंभवं द्विविधा-का यिकी, मानसी च । शल्यमच्यादिवेधाज्जाता, ज्वरातिसारकासादिव्याधिजनिता वा कायिकी, प्रियवियोगादकता मानसी ॥ ० ५॥
येन तु तीर्थद्धरादिसमीपे असकायस्वरूपं परिसातं स एवं विभावयतीस्या:-- 'सेतं.' इत्यादि।
मूलम् - से तं संयुच्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णाय भवइ, एस खल गंथे, एस खलु मोहे, एस खल
वेदनाद्वारप्रसंग पाकर उसकाय की वेदना का निरूपण किया जाता है-यथासंभव वेदना दी प्रकार की है-कायिक और मानसिक । कांट, सुई आदि चुमने से अथवा ज्वर, अतिसार, खांसी आदि रोगो से उप्तन्न होने वाली वेदना कायिक कहलाती हैं। प्रिय वस्तु के वियोग आदि कारणों से होने वाली वेदना मानसिक वेदना है ।। सू० ५ ॥
जिसने तीर्थंकर आदि के समीप सकायका स्वरूप समझ लिया है, वह इस प्रकार विचारता है:-'से ते.' इत्यादि ।
मूलार्थ-भगवान् अथवा अनगारों के समीप सुनकर वह उसकाय का ज्ञाता प्रसकाय को जानता हुआ संयम धारण करके इस प्रकार जानता है--यह त्रसकाय का आरम
वहनावारપ્રસંગ હોવાથી ત્રસકાયની વેદનાને નિરૂપણ કરવામાં આવે સાધારણ રીતે વેદના બે પ્રકારની છે-કાયિક અને માનસિક કાંટા, સેય આદિ વાગવાથી, અથવા જવર-તાવ, અતિસાર-ઝાડા, ખાંસી આદિરેગોથી ઉત્પન્ન થવાવાળી વેદના કાયિક કહેવાય છે. પ્રિય વસ્તુના વિગ વગેરેના કારણોથી થનારી વેદના માનસિક–વેદના છે. સૂપ
જેણે તીર્થકર આદિના સમીપમાં ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ प्रभार पियारे ~' से तं. त्यादि
મૂલાઈ-ભગવાન અથવા અણુગારના સમીપ સાંભળીને તે ત્રસકાયના શાંત ત્રસકાયને જાણતા થકા સંયમ ધારણ કરીને આ પ્રમાણે જાણે છે--આ ત્રસકાય આરંભ
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ . ६ त्रसहिंसाया ग्रन्थादिता ६६७ मारे, एस खलु णरए, इच्चत्यं गढ़िए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेदि तसकायसमारंभेण, तसकायसत्यं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ || सू० ६ ॥
छाया---
स तद् संबुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतोsनगाराणां वा अन्तिके, इहैकेषां ज्ञातं भवति - एष खलु ग्रन्थः एप खलु मोहः, एष खलु मारः, एप खलु नरकः । इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शनैः senteenमेण सकायशस्त्रं समारभमाणोऽन्यान् अनेकरूपान माणान् विहिनस्ति || सू० ६ ॥
टीका
यः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्प, अनगाराणां वदीयश्रमण निर्ग्रन्थानां वा अन्तिके श्रुत्वा, आदानीयम् उपादेयं सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं, समुत्थाय = अङ्गीकृत्य, विरहति स तत् सकायसमारम्भणं संयुध्यमानः = अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता सन् एवं विभावयति---
ग्रन्थ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । लोलुप लोग नाना प्रकार के शत्रों द्वारा काका आरंभ करके, सकायका आरंभ करते हुए अनेक प्रकारके अन्य प्राणियोंका ( भी ) विराधाता करते हैं || सू० ६ ॥
टीकार्थ जो पुरुष भगवान् तीर्थंकर के मुख से अथवा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थ श्रमणों के मुख से सुनकर सर्व सावद्य के व्यागरूप चारित्र को अंगोकार करके विचरता है, वह साय के समारंभ को अहितकर और अयोधिजन समझता है । वह इस प्रकार सोचता है -----
ગ્રન્થ છે, આ મેહુ છે, આ માર છે; આ નરક છે, લાલુપ લેાક નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રાદ્વારા ત્રસકાયના આરંભ કરીને, ત્રસકાયને! આરંભ કરતા થકા અનેક પ્રકારના અન્ય પ્રાણીઓને પણ ઘાત કરે છે. સૂ॰ ૬|
ટીકા? પુરૂષ ભગવાન તીર્થંકરના મુખથી અથવા તેમના અનુયાયી નિગ્રન્થ શ્રમણેાના મુખથી સાંભળીને સ સાવધ ત્યાગરૂપ ચારિત્રને અંગીકાર કરીને વિચરે છે તે ત્રસકાયના સમારલને અહિતકર અને અધિકર-અએધિ ઉત્પન્ન नार समते मा प्रभा पियार घरे छे
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आधाराङ्गमत्रे इह-मनुष्यलोके, एकेपां-धमणनिग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव शातं भवति । किं ज्ञावं भवती ?-त्याकाक्षायामाह--' एस खलु ग्रन्थः' इत्यादि।
एप-सकायसमारम्भः, खलु-निश्चयेन, ग्रन्या कर्मवन्धः, कारणे कार्योपचारात्, एयमग्रेऽपि योध्यम् । तथा एप उसकायसमारम्भः मोह:विपर्यासः-अज्ञानम् । तथा-एप एव मार: मरणं निगोदादिमरणरूपः । तथा-एप एव नरका=नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् ।
इत्यर्थम् एतदधै अन्य-मोह-मरण-नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव लोका अज्ञानवशवर्ती जीवः, गृद्धः-लिप्मुरस्ति । यद्धा-गृद्धा भोगामिलापी, लोकः संसारी जीवः, इत्यर्थम् एतदर्थमेव अन्यमोहमरणनरकाथेमेव प्रवर्तते ।
इस मनुष्य लोक में श्रवण निम्रन्थों के उपदेश से सम्यग् ज्ञान और वैराग्य प्राप्त कर लेने वाले ही यह जान लेते हैं कि-त्रसकाय का समारंभ निश्चय ही कर्मबंध है । यहा कारण में कार्यका उपचार करके कर्मबंध के कारण को कर्मबंध कहा है । आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए । यह त्रसकाय का समारंभ मोह अर्थात् अज्ञान है । वह मार अर्थात् निगोद आदि में मृत्यु का कारण है । यह समारंभ नरक है अर्थात् दस प्रकार की नारकीय यातना का स्थान है।
ग्रंथ, मोह, मरण और नरकरूप घोर दुःखमय फल प्राप्त करके भी अज्ञानी लोग बार-बार इसी के इच्छुक होते हैं । अथवा भोगों की अभिलापा करने वाले संसारी लोग इस ग्रंथ, मोह, मार और नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं।
આ મનુષ્ય લેકમાં નિગ્રન્થના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરીલેવાવાળા જ એમ જાણે શકે છે કે-ત્રસકાય સમારંભ નિશ્ચયજ ગ્રંથકમબંધ છે. અહિં કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને કર્મબંધના કારણને કર્મબંધ કહ્યો છે. આગળ પણું આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ.
આ ત્રસકાયને સમારંભ મેહ અર્થાત અજ્ઞાન છે. આ માર અર્થાત નિગોદ આદિમાં મૃત્યુનું કારણ છે. આ સમારંભ નરક છે. અર્થાત દસ પ્રકારની નારકીય યાતનાનું સ્થાન છે.
ગ્રંથ, મેહ, મરણ અને નરક ૫ ઘેર દુઃખમય ફલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની , વારંવાર તેની ઈચ્છાવાળા થાય છે. અથવા ભેગેની અભિલાષા કરવાવાળા સંસારી લોક આ ગ્રંથ, મેહ, માર અને નરક માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १. ६ सु. ६ सहिंसाया ग्रन्थाद्यर्यम् ६६९ 'लोकः पुनः पुनर्ग्रन्याद्यर्थमेव प्रवर्तते' इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह - ' यदिमम् ' इत्यादि ।
यद्=यस्माद्, विरूपरूपैः = नानाविधैः शस्त्रैः पूर्वोक्तमकारैः सकायसमारम्भेण त्रसकायोपमर्दनरूपसावद्यव्यापारेण, इसकार्य विहिनस्ति । तथा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणःव्यापारयन् अन्यान् पृथ्वीकायादीन् स्थावरान् प्राणान् = प्राणिनः, विहिनस्ति - उपमर्दयति ॥ सू० ६ ॥
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यस्मै प्रयोजनाय सकायो हन्यते, तत् प्रयोजनं यद्यपि - 'इस्स चैव जीवियस्स.' इत्पादिनाऽभिहितम्, तथापि विशिष्य ततत्प्रयोजनं पुमः प्रदर्शयितुमाह'से बेमि' इत्यादि ।
लोग वारम्वार ग्रंथ आदि के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं, यह बात कैसे मालूम हुई : इस का समाधान के लिए कहते हैं- 'यदिमम्' इत्यादि ।
क्यों कि वे नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा काय का समारंभ करके काय की हिंसा करते हैं और काय का समारंभ करते हुए पृथ्वीकाय आदि अन्य स्थावर प्राणियों का भी विराधना करते हैं || सू० ६ ॥
जिस प्रयोजन से सकाय की हिंसा की जाती है वह योजन 'इस जीवन के सुख के लिए' इत्यादि कथन द्वारा बतलाया जा चुका है, फिर भी विशेष रूप से उस हिंसाका प्रयोजन बतलाने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं - 'से बेमि' इत्यादि ।
લેક વારવાર ગ્રંથ આહિના માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે. એ વાત કેવી રીતે માલૂમ घडी ? मेनु समाधान ४२ भाटे हे छे:-' यदिमम्' इत्यादि.
કેમ કે નાના પ્રકારના શàદ્વારા ત્રસકાયને સમારંભ કરીને ત્રસકાયની હિંસા કરે છે, અને ત્રસકાયના સમારંભ કરતા થકા પૃથ્વીકાય આદિ અન્ય સ્થાવર પ્રાણીमन पशु घात करे छे. ॥ सू० ६ ॥
જે પ્રત્યેાજનથી ત્રસકાયની હિંસા કરવામાં આવે છે. તે પ્રત્યેાજન “આ જીવનના સુખ માટે” ઈત્યાદિ વિવેચનદ્વારા બતાવ્યું છે. ( બતાવી ચૂકયા છીએ, ) ક્રી પશુ વિશેષરૂપથી એ હિંસાનું પ્રચેાજન બતાવવા માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ
'से बेमि.' इत्याहि.
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. आचारागसूत्रे इह मनुष्यलोके, एकपाश्रमणनिग्रन्योपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणा: मात्मार्थिनामेव ज्ञातं भवति । किं ज्ञावं भवती ?-त्याकाक्षायामाह-'एस खलु ग्रन्थः' इत्यादि।
एप त्रसकायसमारम्भः, खलु-निश्चयेन, ग्रन्या कर्मवन्धः, कारणे कार्योपचारात्, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । तथा एपसकायसमारम्भः मोहः विपर्यासः-अज्ञानम् । तथा-एप एव मारः मरणं निगोदादिमरणरूपः । तथा-एप एव नरका नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् ।
इत्यर्थम् एतदर्थ ग्रन्थ-मोह-मरण-नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव लोका अज्ञानवशवर्ती जीवः, गृद्धा-लिप्मुरस्ति । यद्धा-गृधःभोगामिलापी, लोकः संसारी जीवः, इत्यर्थम् एतदर्थमेव ग्रन्थमोहमरणनरकाथेमेव प्रवर्तते ।
इस मनुष्य लोक में श्रवण निम्रन्थों के उपदेश से सम्यग् ज्ञान और वैराग्य प्राप्त कर लेने वाले ही यह जान लेते हैं कि-त्रसकाय का समारंभ निश्चय ही कर्मबंध है । यही कारण में कार्यका उपचार करके कर्मबंध के कारण को कर्मबंध कहा है। आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए । यह त्रसकाय का समारंभ मोह अर्थात् अज्ञान है । वह मार अर्थात् निगोद आदि में मृत्यु का कारण है । यह समारंभ नरक है अर्थात् दस प्रकार की नारकीय यातना का स्थान है।
ग्रंथ, मोह, मरण और नरकरूप घोर दुःखमय फल प्राप्त करके भी अज्ञानी लोग बार-बार इसी के इच्छुक होते हैं । अथवा भोगों की अभिलापा करने वाले संसारी लोग इस ग्रंथ, मोह, मार और नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते है।
આ મનુષ્ય લેકમાં નિર્ચના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરીલેવાવાળા જ એમ જાણી શકે છે કે-ત્રસકાયને સમારંભ નિશ્ચયજ ગ્રંથ-કર્મબંધ છે. અહિં કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને કર્મબંધના કારણને કર્મબંધ કહ્યો છે. આગળ પણ આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ.
આ ત્રસકાયને સમારંભ મેહ અર્થાત્ અજ્ઞાન છે. આ માર અર્થાત નિગોદ આદિમાં સત્ય કારણ છે. આ સમારંભ નરક છે. અર્થાત્ દસ પ્રકારની નારકીય યાતનાનું સ્થાન છે.
ગ્રંથ. મેહ, મરણ અને નરકરૂપ ઘોર દુઃખમય ફલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની લોક વારંવાર તેની ઈચ્છાવાળા થાય છે. અથવા ભેગેની અભિલાષા કરવાવાળા સારી લોક આ ગ્રંથ, મેહ, માર અને નરક માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ मु०७ प्रसकायहिंसाप्रयोजनम् ६७१
टीकायदर्थ सजीवा हन्यन्ते, तद् अवीमि-अप्येक केचिच्च, अत्रापिशब्दः वक्ष्यमाणापेक्षया समुघयार्थः, अर्चाय-अय॑ते-पूज्यते-इत्यर्चा-शरीरं, तदर्थ नन्ति हिंसन्ति, यथा मुलक्षणं पुरुष व्यापाद्य तच्छरीरेण विद्यामन्त्रं, साधयन्ति, यद्वा-स्वर्णपुरुषनिर्माणार्थ द्वात्रिशष्टक्षणं पुरुपं प्रतप्ततैले निक्षिप्य निम्नन्ति । तथा अप्येके केचन अजिनाय चर्मार्थ मृगव्याघ्रदीन् घ्नन्ति । तथा अप्येके केचन मांसाय छागादीन नन्ति । अप्येके केचन शोणितायत्रिशूलालेखकरणादौ शोणितं ग्रहीतुं नन्ति । एवं हृदयाय-हदयं गृहीत्या साधका मनन्ति, तदर्थ धनन्ति । पित्ताय मयूरादीन , यसाय व्याघ्रादीन , पिच्छाय मयूरादीन, पुच्छाय रोझादीन, पालाय चमर्यादीन् , गङ्गाय मृगादीन् ,
टीकार्थ-हे जम्बू जिस प्रयोजन से सकाय की हिंसा होती है, व्ह करता है। फोई-कोई अर्चा अर्थात् शरीर के लिए विराधाना करते हैं, जैसे किसी पुरुष को अच्छे लक्षण वाला समझकर उसे मार डालते हैं, और उसके शरीर से विद्या तथा मंत्र का साधन करते हैं । अथवा स्वर्णपुरुष के निर्माण के लिए यत्तीस लक्षण वाले पुरुष को तपे हुए तेल में डालकर मारते हैं । कोई चर्म के लिए मृग और वाघ आदि का धात करते हैं। कोई मांस के लिए चकरा आदि को मारते हैं। कोई त्रिमूल का चि बनाने आदि के लिए तथा रक्त पीने के उद्देव्य से घात करते हैं । इसी प्रकार हृदय के लिए धात फरते हैं-घातक लोग हृदय देकर मथते हैं। इसी तरह पित्तके लिए मयूरों को चकि लिए वाघ मादि को, पंखों के लिए मयूरों को, पूछके लिए रोझ आदि कों, वाल के
ટીકાથ-જે પ્રજનથી ત્રસજીની હિંસા થાય છે, તે કહું છું. કઈ-કઈ અર્ચા અથૉત્ શરીરના માટે ઘાત કરે છે. જેમકે-કેઈ પુરૂષને સારા લક્ષણવાળ સમજીને તેમ મારી નાખે છે, અને તેના શરીરથી વિદ્યા તથા મંત્રની સાધના કરે છે અથવાસ્વર્ણ પુરૂષના નિર્માણ માટે બત્રીસ લક્ષણવાળા પુરૂષને તપાવેલા તેલમાં નાંખીને મારે છે. કેઈ ચામડા માટે મૃગ અને વાઘ વગેરેનો ઘાત કરે છે. કેઈ માંસ માટે બકરા વગેરેને મારે છે. કોઈ ત્રિશુલનું ચિહ્ન બનાવવા વગેરે માટે લોહી પ્રાપ્ત કરવાના ઉદ્દેશ્યથી ઘાત કરે છે. એ પ્રમાણે કેઈ હૃદય માટે ઘાત કરે છે-ઘાતકી લેક હદય લઈને મળે છે. એ પ્રમાણે પિત્ત માટે મેરને, ચરબી માટે વાઘ આદિને વાળ માટે ચમરીગાય આદિને, શીંગ માટે મૃગ આદિને મારે છે. વિષાણ-શોદ જો કે હાથી
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आचारासने
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से चेमि-अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिमाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं हिययाए, पित्ताए, बसाए, पिच्छाए, पुच्छाए, वालाए, सिंगाए, विसाणाए, दंताए, दाढाए, णहाए, हारूणीए, अहीय, अट्टिमिजाए, अटाए, अणटाए, अप्पेगे "हिसिम में ति वा वहति, अप्पेगे 'हिंसंति में' त्ति वा वहंति, अप्पेगे 'हिसिस्संति मे' त्ति या वहति ।। सू० ७ ॥
छाया-- तद् ब्रवीमि-अप्येके अचायै नन्ति, अप्यके अजिनाय मन्ति, अप्येके मांसाय नन्ति, अप्येके शोणिताय घ्नन्ति एवं हृदयाय, पित्ताय, वसाय, पिच्छाय, पुच्छाय चालाय, शङ्गाय, विपाणाय, दन्ताय, दंष्ट्रायै, नखाय, स्नायवे, अस्न, अस्थिमज्जाय, अर्थाय, अनर्थाय, अप्येके 'अवधीपुरस्मा'-निति वा नन्ति, अप्येके 'हिंसन्त्यस्मा' निति वा नन्ति, अप्येके 'हनिप्यन्त्यस्मा'-निति वा घ्नन्ति ।। सू०७॥
मूलार्थ--में वह (प्रयोजन) कहता हूँ-कोई अर्चा शरीर के लिए उसकाय का विराधना करते हैं, कोई चर्म-चमडे के लिए घातं करते हैं, कोई मांस के लिए घात करते हैं, कोई रक्त के लिए घात करते हैं, कोई हृदय के लिए, पित के लिए, चर्बी के लिए पंख के लिए, पूंछ के लिए, बाल के लिए, सींग के लिए, विषाण (सुअर का दांत) के लिए, दांत (हाथीदांत) के लिए, दाढों के लिए, नख के लिए, स्नायु के लिए, हड्डी के लिए, मज्जा के लिए, अर्थ के लिए, अनर्थ के लिए-(निरर्थक) कोई 'हमें मारा था' इस भावना से, कोई 'हमें मारता है इस भावना से, और कोई 'हमें मारेगा' इस भावना से त्रसकाय का घात करते हैं। सू०७॥
મૂલાઈ—કહું છું –કેઈ અર્ચા (શરીર) માટે ત્રસકાયને ઘાત કરે છે. કેઈ ચાંમડી માટે ઘાત કરે છે. કેઈ માંસ માટે ઘાત કરે છે. કોઈ રક્ત-લેહી માટે ઘાત કરે છે. કેઈ હદય માટે, પિત્ત માટે, ચરબી માટે, પાં માટે, પૂછડા માટે, वाण भाटे, शी। भाटे, विषाय (सूपरना ii) भाटे, साथी id भाटे, हाढा भाट, નખ માટે, સ્નાયુ માટે, હાડકાં માટે, મજા માટે, અર્થ માટે અનર્થ નિરર્થક),
भने भार्या उता' मे लानाथी, th' भने मात्र छ । समानाथी, भनाई समन भारसे' मा मापनायी सायना धात ४३ छ. ॥ २०७॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ सू०७ प्रसकायहिंसाप्रयोजनम् ६७१
टीका-~~ यदर्थ त्रसजीवा हन्यन्ते, तद् ब्रवीमि-अप्येक केचिच्च, अवापिशब्दः वक्ष्यमाणापेक्षया समुच्चयाः, अर्चाय-अय॑ते-पूज्यते-इत्यर्चा-शरीरं, तदर्थ नन्ति-सिन्ति, यथा मुलक्षणं पुरुषं व्यापाद्य तच्छरीरेण विधामन्त्रं, साधयन्ति, यद्वा-स्वर्णपुरुपनिर्माणार्थ द्वात्रिशल्लक्षणं पुरुपं प्रतप्ततेले निक्षिप्य निघ्नन्ति । तथा अप्येक केचन अजिनाय चर्मार्थ मृगव्याघ्रदीन् घ्नन्ति । तथा अप्ये के-केचन मांसाय छागादीन् नन्ति । अप्येके केचन शोणितायत्रिशूलालेखकरणादौ शोणितं ग्रहीतुं नन्ति । एवं हृदयाय-हदयं गृहीत्वा साधका मध्नन्ति, तदर्थ ध्नन्ति । पित्ताय मयूरादीन , वसाय व्याघ्रादीन , पिच्छाय मयूरादीन् , पुच्छाय रोझादीन , वालाय चमर्यादीन् , शृङ्गाय मृगादीन्,
टीकार्थ-~-हे जग्वृ जिस प्रयोजन से सफाय की हिंसा होती है, वह करता है। कोई-कोई अर्चा अर्थात् शरीर के लिए विराधाना करते हैं, जैसे किसी पुरुष को अच्छे लक्षण वाला समझकर उसे मार डालते हैं, और उसके शरीर से विद्या तथा मंत्र का साधन करते हैं । अथवा स्वर्णपुरुप के निर्माण के लिए बत्तीस लक्षण वाले पुरुष को तपे हुए तेल में डालकर मारते हैं। कोई चर्म के लिए मृग और वाघ आदि का घात करते हैं। कोई मांस के लिए बकरा आदि को मारते हैं। कोई त्रिशल का चि बनाने आदि के लिए तथा रक्त पीने के उद्देश्य से घात करते हैं । इसी प्रकार हृदय के लिए घात करते हैं-घातक लोग हृदय लेकर मथते हैं। इसी तरह पित्तके लिए मयूरों को चकि लिए वाघ आदि को, पंखों के लिए मयूरों को, पूछके लिए रोझ आदि को, चाल के
ટીકાથજે પ્રયોજનથી ત્રસજની હિંસા થાય છે, તે કહું છું. કઈ-કઈ અચી અર્થાત્ શરીરના માટે ઘાત કરે છે. જેમકે-કઈ પુરૂષને સારા લક્ષણવાળે સમજીને તેમ મારી નાંખે છે, અને તેના શરીરથી વિદ્યા તથા મંત્રની સાધના કરે છે અથવાસ્વર્ણ પુરૂષના નિર્માણ માટે બત્રીસ લક્ષણવાળા પુરૂષને તપાવેલા તેલમાં નાંખીને મારે છે. કેઈ ચામડા માટે મૃગ અને વાઘ વગેરેને ઘાત કરે છે. કોઈ માંસ માટે બકરા વગેરેને મારે છે. કોઈ ત્રિશુલનું ચિહ્ન બનાવવા વગેરે માટે લેહ પ્રાપ્ત કરવાના ઉદેશ્યથી ઘાત કરે છે. એ પ્રમાણે કઈ હદય માટે ઘાત કરે છે-ઘાતકી લેક હૃદય લઈને મળે છે. એ પ્રમાણે પિત્ત માટે મેરને, ચરબી માટે વાઘ આદિને વાળ માટે ચમરી–ાય આદિને, શીંગ માટે મૃગ આદિને મારે છે. વિષાણુ-શબ્દ જે કે હાથી
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आचाराङ्गो विपाणाय, विपाणशब्दो गजदन्ते स्वस्तयापीठ सुकरदन्तो ग्रायः, तदर्थ मुकरम् , दन्ताय इस्त्यादीन, दंष्ट्राय वराहादीन्, नखाय व्याघ्रादीन, स्नायवे गवाटीन्, अस्थ्ने शमादीन, अस्थिमज्जाय-अस्थिमज्जा अस्थिगतरसः, तदर्थ, महीपादीन् , घ्नन्ति । इत्थम्-अर्थाय प्रयोजनकशात केचिद नन्ति । तथा- अनर्थायविनाऽपि प्रयोजनं केचिद नन्ति । अप्येके केचिच्च, "हमे व्याघ्रसपेसकरादयः शनयो वा अरमान अपीडयन् , अरमदीयान वाऽधिपुः" इति द्वे पचासनया नन्ति । अप्येके केचिच्च, "हमे व्याघ्रादयः शत्रवो वा वर्तमानकालेऽरमान् , अरमदीयान् या हिंसन्ति." इति मत्वा नन्ति ।
लिए चमरी गाय आदि को, सींग के लिए मृग आदि को मारते हैं । विषाण शब्द यद्यपि हाथीदांत के अर्थ में रूढ है तथापि यहा 'सुअर का दांत' अर्थ लेना चाहिए । सुअर के दांत के लिए सुअर का घात किया जाता है। दांत के लिए हाथी आदि को, दादों के लिए शूकर वगैरह को, नख के लिए बाघ भादि को, स्नायु के लिए गाय आदि को, हड्डी के लिए शंख आदि को, अस्थिमज्जा अर्थात् हड़ियों में रहने वाले एक प्रकार के रस के लिए भैंसा वगैरह का घात करते हैं । इस प्रकार कोई-कोई प्रयोजन के लिए प्रसजीवों की हिंसा करते हैं और कोई-कोई विना प्रयोजन ही हिंसा करते हैं । कोई-कोई 'इस वाघ, सर्प और शूकरने तथा शत्रुओने हमें पीडा पहुँचाई है, अथवा हमारे आत्मीयजन का वध किया है। इस प्रकार की द्रुप-वासना से इनका घात करते हैं। कई लोग यह सोचकर कि-'ये व्याघ्र आदि अथवा शत्रु वर्तमान कालमें हमें या हमारे लोगोंको मारते हैं। उनका घात करते हैं। कोई लोग यह विचार करके कि-'यह
દાંતના અર્થમાં રૂઢ છે, તે પણ અહિં “સૂઅરનાં દાંત એ અર્થ લેવું જોઈએ. સૂઅરના દાંત માટે સૂઅરને ઘાત કરવામાં આવે છે. દાંત માટે હાથી આદિનો, દાઢને માટે શ્કરભંડ વગેરેને, નખ વગેરે માટે વાઘ આદિને, નાયુને માટે ગાય આદિને, હાડકાં વગેરે માટે શંખ આદિ, અસ્થિમજજા અર્થાત, હાડકાંમાં રહેનારા એક પ્રકાર રસ માટે
સા-પાડા વગેરેને ઘાત કરે છે, આ પ્રમાણે કઈ-કઈ પ્રયોજન માટે ત્રસ જાની હિંસા કરે છે. અને કોઈ-કઈ પ્રયોજન વિનાજ હિંસા કરે છે. કઈ-કઈ આ વાઘ સર્ષે અને શકર-ભૂંડે તથા શત્રુઓએ અમને પીડા પહોંચાડી હતી. અથવા અમારા આત્મીય જાનો (તેવધ કર્યો હતો. આ પ્રકારે દ્વેષ-વાસનાથી તેનો ઘાત કરે છે. કોઈ માણસ એવો વિચાર કરીને કે-આ વાઘ આદિ, અથવા શત્રુ વર્તમાન કાલમાં જ અથવા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १. उ. ६ सु. ७ जसकायहिंसामयोजनम् ६७३ अप्येके केचिच्च, 'अस्मान् अस्मदीयान् वा इमे व्याघ्रादयः शत्रयो वा हनिष्यन्ति" इति हेतोत्रसकायान् घ्नन्ति ।। {०७॥
एवं त्रसकायसमारम्भ विदित्वा मुनित्वलाभाय तत्समारम्भः सर्वथा परिहर्तव्या, इत्याशयेनोद्देशकार्थमुपसंहरन्नाह--" एत्य सत्य." इत्यादि ।
__ एत्य सत्यं समारंममाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिगाया भवंति । एत्य सत्य असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी
व सयं तसकायसत्यं समारंभेज्जा, णेवण्णेहि तसकायसत्य समारंभावेज्ना, णेवण्णे तसकायसत्यं समारंभंते समणुनाणेज्जा । जस्सेते तसकायसमा
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व्याघ्र आदि अथवा यह शत्रु हमें या हमारों को मारेंगे। उन्हें मार डालते हैं । इस प्रकार लोग सकाय की हिंसा करते हैं ।। सू० ७॥
इस प्रकार प्रसकाय के समारंभ को जानकर साधुता प्राप्त करने के लिए त्रसकाय का आरंभ सर्वथा त्याग देना चाहिए । इस आशय से इस उद्देश का उपसंहार करते हुए कहते हैं-'एत्य सत्य'. इत्यादि ।
मूलार्थ-सकाय में शस्त्र का समारंभ करने वाले को यह आरंभ अपरिज्ञात होते है । उसकाय में शस्त्र का समारंभ नहीं करने वाले को यह आरंभ परिज्ञात होते हैं। मेधावी पुरुप उन्हें जानकर स्वयं उसकाय में शन का समारंभ न करे, दूसरों से त्रसकाय के शस्त्र का समारंभ न करावे, और उसकाय में शस्त्र का समारंभ करने वाले का अनु
અમારાને મારે છે. તેથી તેને ઘાત કરે છે. કેઈ લોક “આ વાદ્ય આદિ અથવા આ શત્ર મને અથવા અમારાને મારશે.” એવું વિચારીને તેને મારી નાખે છે. આ प्रभावी सायनी डिसा रे छ. ॥९० ७॥
આ પ્રમાણે ત્રસકાયના સમારંભને જાણીને સાધુતા પ્રાપ્ત કરવા માટે ત્રસકાયનો આરંભ સર્વથા ત્યાગી દેવું જોઈએ-ત્યજી દેવો જોઈએ. એ આશયથી AL उद्देशन पसा२ ४२ २४१ ४३ छ-' एत्य सत्य'. त्याहि.
મૂલાર્થ-ત્રસકાયને વિષે શસ્ત્રનો સમારંભ કરવાવાળાને આ આરંભ અપરિજ્ઞાત “હેય છે. ત્રસકાયને વિષે શસને સમારંભ નહિં કરવાવાળાને આ આરંભ પરિસાત છે. (જાણવામાં છે. બુદ્ધિમાન પુરૂષ તેને જાણીને પિતે ત્રસકાયમાં શસન સમારંભ કરે નહિ બીજા પાસે ત્રસકાયના અને સમારંભ કરાવે નહિ અને ત્રસકાયમાં અને સમારંભ
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আশা रंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिष्णाय कम्मे-त्ति बेमि ॥ मू०८ ॥
छटो उद्देसो समत्तो ॥ ६ ॥ छाया-अत्र शस्त्रं समारममाणस्यइत्येते आरम्भा अपरिझाता भवन्ति । अत्र शस्त्रसमारममाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं त्रसकायशस्त्रं समारभेत, नवान्यवसकायशस्त्रं समारम्भयेद , उसकायशवं समा रममाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते त्रसकायशस्त्रसमारम्माः परिझाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिजातकर्मा, इति ब्रवीमि ।। सू० ८॥
॥पप्ठोदेशः समाप्तः ॥ ६॥ टीका-अत्र अस्मिन् सफाये, शव-पूक्तिप्रकार, समारममाणस्यन व्यापारयतः, इत्येते पूर्वोक्ताः त्रिफरणत्रियोगे: आरम्भा बनस्पतिकायोपमर्दनरूपाः सावधव्यापाराः, अपरिज्ञाताः कर्मबन्धकारणत्वेनानगता भवन्ति ।
अत्र अस्मिन्नेवत्रसकाये, शस्त्रं पागुक्तमकारम् , असमारभमाणस्य अप्रयुजा नस्य, इत्येते पूर्वोक्ताः, आरम्भाःसावधव्यापाराः परिज्ञाता भवन्तिमपरिक्षया बन्धकारणत्वेन विज्ञाता भवन्ति, मत्याख्यानपरिज्ञया परिवर्जिता भवन्तीत्यर्थः।। मोदन न करे । जो सकाय के समारंभो का ज्ञाता है वही मुनि है, परिज्ञातकर्मा है ।।सू० ८॥
टीकार्थ-सकाय के विषय में पूर्वोक्त शस्त्रों का व्यापार करने वाले को 'तीन करण और तीन योग से होने वाले सावध व्यापार कर्मबंध के कारण हैं' ऐसा ज्ञात नहीं होता।
और त्रसकाय में पूर्वोक्त शत्रों का व्यापार न करने वाला पर्वोक्त सावध व्यापारी को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण समझता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग । कर देता है। કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ, જે ત્રસકાયના સમારંભને જાણે છે. તે જ મુનિ छ. परिज्ञातर्भा छ. ॥९० ८॥
ટીકાથ–સકાયના વિષયમાં પૂર્વોકત (આગળ કહેલાં) શને વ્યાપાર કરવાવાળા ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચોગથી થવાવાળો સાવધ વ્યાપાર કમબંધનું કારણ છે. એ પ્રમાણે જાણતા નથી. અને ત્રસકાયમાં પૂર્વોકત (આગળ કહેલાં) શોના વ્યાપાર નહિ કરવાવાળા પૂર્વોકત (આગળ કહેલા) સાવધ વ્યાપારને પરિક્ષાથી કર્મબંધનું કારણ સમજે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરી દે છે.
rpur mammun... -
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०९ उ. ६ सु. ८ उपसंहारः
ज्ञपरिज्ञापूर्विका मत्याख्यानपरिज्ञा यथा भवति तं प्रकारं दर्शयति-तत् परिज्ञाये'-त्यादि । त-सकायारम्भणम् , परिताय कर्मवन्धस्य कारणं मवतीत्यवयुध्य, मेधावी हेयोपादेयविवेकनिपुणः, नैव स्वयं उसकायशस्त्रं समारमेत व्यापारयेत् , अन्यैवां नैव उसकायशवं समारम्भयेद , प्रसकायशस्वं समारभामाणान् अन्यान् वा न समनुजानीयात्म्नानुमोदयेत् ।
___ यस्यैते त्रसकायसमारम्भावसकायोपमर्दकसावद्यच्यापाराः, परिज्ञाता:ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिताः, प्रत्याख्यानपरिजया च परिहता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा-त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसापद्यव्यापारः, मुनिर्भवति । 'इति ब्रवीमि ' इति । अस्य व्याख्यानं पूर्ववत् ॥ ०८॥ ॥ इत्याचाराममूत्रस्याचारचिन्तामगिटीकायां मथमाध्ययने पप्ठ उद्देशकः संपूर्णः ॥
ज्ञपरिज्ञापूर्वक होने वाली प्रत्याख्यानपरिज्ञा का स्वरूप शास्त्रकार दिखलाते हैं उसकाय के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर बुद्धिमान् अर्थात् हैय-उपादेय का विवेकी पुरुष स्वयं बसकाय के शस्त्र का उपयोग न करे, दूसरों से उसकाय के शस्त्र का उपयोग न करावे और उसकाय के शन का उपयोग करनेवाले का अनुमोदन न करे ।
जिसने उसकाय का घात करने वाले सावध व्यापारों को परिक्षा से बंध का कारण समझ लिया है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है वही तीन करण तीन योग से सर्व सावध व्यापारों का ज्ञाता पुरुप मुनि होता है । त्ति बेमि' पदको व्याख्या पहले के समान समझनी चाहिए ।। सू० ८॥
श्री आचाराङ्गमूत्रके प्रथम अध्ययन का छठा उद्देश समाप्त १-६॥
રૂપરિક્ષાપૂર્વક થવાવાળી પ્રત્યાખ્યાનપરિસાનું સ્વરૂપ શાસ્ત્રકાર બતાવે છેત્રસકાયના આરંભને કર્મબંધનું કારણ જાણીને બુદ્ધિમાન અર્થાત્ હેય-ઉપાદેયનો વિવેકી પુરૂષ પિતે ત્રસકાયના શસ્ત્રને ઉપયોગ કરે નહિ, બીજા પાસે ત્રસકાયના અને ઉપગ કરાવે નહિ, અને ત્રસકાયના અને ઉપયોગ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ.
જેણે ત્રસકાયને ઘાત કરવાવાળા સાવધ વ્યાપારને જ્ઞપરિણાથી બંધનું કારણ સમજી લીધું છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી ત્યજી દીધું છે. તે ત્રણ કરણ, ત્રણ ચોગથી सर्वसावधयापारीना ज्ञात-mst२ ५३५ मुनि डाय छे. 'त्ति वेत्ति' पनी व्याया પહેલાં પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. સૂ૮
શ્રી આચારાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનનો છઠ્ઠો ઉદ્દેશ સમાપ્ત, ૧દા
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आचाराने । अथ सप्तमोद्देशकः। वायुकायस्य चाक्षुपमत्यक्षविषयत्वाभावात् तस्य सचितत्वे स्वतः अदा नोत्पद्यते, किन्तु पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां, द्वीन्द्रियादेखसकायस्य च स्वरूपं विदित्वा जातश्रद्धो वायुकार्य सुतरां विज्ञानातीत्याशयेन ततिपयकवरमः सप्तमोऽयमुद्देशकः भारभ्यते । ___ यया वायुकायोपमर्दननिवृत्त्या मुनित्वं प्राप्यते, तं प्रकार प्रदर्शयितुमाह'पहू एजस्स.' इत्यादि ।
पह एजस्स दुगुंछगाए आयंकदंसो अहियं-ति नच्चा । जे अज्यत्य
सातवा उद्देशवायुकाय के जीव चक्षु के गोचर नहीं होते, अत एव वायु की सचित्तता में स्वतः श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती । किन्तु पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रियों का, तथा द्वीन्द्रिय आदि उस जीवों का स्वरूप समझ लेने से जिसे श्रद्धा उत्पन्न होगई है वह वायुकाय को स्वयं ही जान लेता है। इस आशय से वायुकायसंबंधी यह अंतिम सातबा. उद्देश आरंभ किया जाता है।
वायुकाय की हिंसा त्यागने से ही साधुपन प्राप्त होता है, यह बात आगे प्रदर्शित करते हैं:-'पहू एजस्स.' इत्यादि ।
मूलाथे-~~-दुःखदर्शी पुरुष (वायुकाय के आरंभ को) अहितकर जानकरके वायुकाय के आरम्भ को त्यागने में समर्थ होता है । जो अध्यात्म को जानता है वह
સાતમે ઉદેશવાયુકાયના જીવ નેત્રથી જોવામાં આવતા નથી, એ કારણથી વાયુની સચિત્તતામાં સ્વતઃ શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થતી નથી. પરંતુ પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિયેના તથા હન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીના સ્વરૂપને સમજી લેવાથી જેને શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ ગઈ છે, તે વાયુકાયને પિતેજ જાણી લે છે, એ આશયથી વાયુકાયસંબંધી આ અંતિમછેલ્લા સાતમા ઉ દેશને આરંભ કરવામાં આવે છે.
વાયુકાયની હિંસા ત્યાગવાથી સાધુતા પ્રાપ્ત થાય છે. એ વાત આગળ બતાવે छ-'पहू एजस्स.' त्याह
મૂલા–દુઃખદર્શ પુરૂષ (વાયુકાયના આરંભને અહિતકર જાણીને વાયુકાયના આરંભને ત્યજી દેવામાં સમર્થ હોય છે, જે અધ્યાત્મને જાણે છે. તે બહારને જાણે છે,
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ७ सू. १ उपक्रमः
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रिंगर
जाइ, से बहिया जाण, जे वहिया जाणड़, से अज्झत्थं जाणः । एयं तुल्लमन्नेसि । इद संतिया दविया णावकखंति जीवितं ॥ मृ० १ ॥
छाया-
प्रभुः एजस्य जुगुप्सायाम् आतङ्कर्शी अहित-मिति ज्ञात्वा । यः अध्यात्मं जानाति, स बहिर्जानाति । यः वहिर्जानाति स अध्यात्मं जानाति । एतत् तुल्यमन्येषाम् । इह शान्तिगताः द्रविकाः नावकाक्षन्ति जीवितुम् ॥ सू० १ ॥
टीका
यः आतङ्कः = कृच्छ्रजीवनं, दुःखं, तच्च शारीरमानसभेदाद् द्विविधम्, तत्र कण्टकशास्त्रादिजनित शारीरम्, प्रियवियोगामियसंयोगाभिलपिताला मदारिद्रयादिकृतं मानसम् । एतद् द्विविधदुःखरूपमातङ्कं पश्यति तच्छीलश्वेत्यातङ्कदर्शी, यद्वापड्जोय काय समारम्भेग वायुकायसमारम्भेग वा यदुखं स आतङ्कः, तं
Spring?
को जानता है, जो बाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है । यह (सुख - दुःख) दूसरों का भी अपने समान है । उपशम को प्राप्त और राग-द्वेष से रहित संयमी पुरुष, पर की हिंसा करके अपने जीवन की इच्छा नहीं करते ॥ सू० १ ॥
टीकार्थ- कष्टमय जीवन या दुःख को आतंक कहते हैं। शारीरिक और मानसिक भेद से दुःख दो प्रकार का है। कंटक एवं शत्र आदि से होने वाला दुःख शारीरिक कहलाता है । प्रियवियोंग और अप्रिय संयोग, इस की अमाप्ति और दरिद्रता आदि से होने वाला दुःख मानसिक कहलाता है, इन दोनों प्रकार के दुःखरूप आतंक को देखने वाला आतंकदर्शी कहलाता है । अथवा षड्जीवनिकाय या वायुकाय के समारम्भ से होने वाला दुःख आतंक कहलाका है, और उसे देखने वाला अतंकदर्शी है । वह જે બહારને જાણે છે તે અધ્યાત્મને જાણે છે. આ (સુખદુઃખ) ખીજાઓને પણ આપણા સમાન છે.
ઉપશમને પ્રાપ્ત અને રાગ-દ્વેષથી રહિત સંયમી પુરૂષ પરની-મીજાની હિંસા કરીને પેાતાના જીવનની ઈચ્છા કરતા નથી. ।। સૂ॰ ૧ ||
ટીકા કષ્ટમય જીવન અથવા દુઃખને આતંક કહે છે. શારીરિક અને માનસિક ભેદથી દુઃખ એ પ્રકારનાં છે. કોટક અર્થાત્ શસ્ત્ર આદિથી થવાવાળાં દુઃખ શારીરિક કહેવાય છે. પ્રિર્યાવયેગ અને અપ્રિયસયેાગ, ઈષ્ટની અપ્રાપ્તિ અને રિદ્રતા આદિથી થનારા દુઃખે તે માનસિક કહેવાય છે. આ બન્ને પ્રકારનાં દુઃખરૂપ આતંકને જેવાવાળા આત કદર્શી કહેવાય છે. અથવા ષડૂજીવનકાય અથવા વાયુકાયના સમાર’ભથી
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आचाराने पश्यतीत्यातङ्गदर्शी भवति, स हिताहितविवेककृशललाद् अहितम् अनुमकर वायुकायसमारम्भगमस्तीति ज्ञात्वा, एजस्य एजतीत्येजः कम्पनशीलवाद वायुः, तस्य, जुगुप्सायां-निन्दायां, सेवनपरिवर्जने समारम्भनिवृती, इति यावत् ,
प्रभुः समर्थों भवति । जुगुप्सा, संयमना, अकरणा, वर्जना, व्यावतेना, निवृत्तिरित्येकार्थाः।
___ अयमाशयः-चायुकायसमारम्भकरणे शारीरं मानसं च सर्वमेव दुःख मयि समापयेत, तस्मादिदमातङ्कजनकलादहितमिति विशाता, तत्सेवनलक्षणसमारम्भपरिहरणे समर्थो भवतीति।
यः अध्यात्मम् अात्मनीति अध्यात्मम् स्वात्मगतं मुखं दुःखं वेत्यर्थः, हित-अहित के विवेक में कुशल होने से वायुकाय से आरम्भ को अहितकर समझकर वायु के आरम्भ का त्याग करने में समर्थ होता है । मूल में आये हुए जुगुप्सा (दुगुंछा) शब्द के कई अर्थ होते हैं । जैसे-संयमन, अकरण (न करना), वर्जन (स्यागना), व्यावत्तेन (हटना) और निवृत्ति (त्याग)।
आशय यह है-'वायुकाय का आरम्भ करने से मुझे शारीरिक और मानसिक सभी दुःख प्राप्त होगे अतः यह आरम्भ अतंकजनक होने के कारण अहितकर है' । ऐसा जानने वाला उसके सेवनरूप भारम्भ के त्याग में समर्थ होता है ।
जो अध्यात्म को अर्थात् अपने आत्मा में स्थित सुख-दुःख को जानता है।
થનારૂં દુઃખ આંતક કહેવાય છે, અને એને જોવાવાળા આતંકદશી છે. તે હિતઅહિતના વિવેકમાં કુશળ હોવાના કારણથી વાયુકાયના આરંભને અહિતકર સમજીને पायुना मार सने त्याग ४२वामा समय डाय छे. भूसभा मा 'दुगुंछणा-जुगुप्सा' શબ્દના કેટલાય અર્થ થાય છે. જેમકે -સંયમન, અકરણ-(નહિ કરવું) વર્જન, (साग) व्यापत्तन, (88) मने निवृत्ति (या).
આશય એ છે કે-વાયુકાયને આરંભ કરવાથી મને શારીરિક અને માનસિક સર્વ દુઃખ પ્રાપ્ત થશે એ માટે એ આરંભ આતંકજનક હોવાના કારણે અહિતકર છે. એ પ્રમાણે જાણવાવાળા એના સેવનરૂપ આરંભના ત્યાગમાં સમર્થ હોય છે.
'જે અધ્યાત્મને અર્થાત પિતાના આત્મામાં સ્થિત સુખ-દુખને જાણે છે, તે જાણ
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सु. १ वायुकायचिराधनाविवेकः ६७९ जानाति स वहि: परकीय मुख दुःखं वा जानाति । ममात्मनि दुःखमसातवेदनीयकर्मोदयात् समापतितं, मुखमपि सातवेदनीयकर्मादयात् स्वानुभवसिद्धम् , एवं स्वात्मगतमुखदुःखमत्यक्षेण परकीयमुखदुःखानुमान कतुं शक्नोतीत्यर्थः । उक्तमर्थ दृढीकतुं पुनस्तमेव परावर्तयन्नाह--'यः बहिर्जानाति '. इत्यादि ।
___ यः, पहिः परात्मगतं सुखं दुःखं वा जानाति, स अध्यात्म-स्वात्मगतं सुख दुःखं वा जानाति । परेषां स्वस्य च सुखदुःखयोरनुकूलपतिकूलवेदनीयरूपे स्वरूपे साम्यादिति भावः ।
यहा-परविराधनापरिहारेण तत्फलभूतं स्वात्मनः सुख, तथा परपीडनेन तत्फलभूतं स्वात्मनो दुःखं भवति, एवं परकीयमेव सुख दुःखं वा वह बाह्य अर्थात् दूसरे के सुख-दुःख को जानता है । मेरे आत्मा में असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख आया है और सातावेदनीय कर्म के उदय से सुख स्वानुभव सिद्ध है । इस प्रकार अपने आत्मा का सुख और दुःख जो प्रत्यक्ष से जानता है, वह दूसरों के सुख-दुःख का अनुमान कर सकता है । इसी अभिप्राय को पुष्ट करने के लिए यही बात पलटकर कहते हैं-जो वाम को जानता है वह अध्यात्म को जानता है।
अर्थात् जो पराये सुख-दुःख को जानता है वह अपने आमा के सुख दुःख को जानता है । पराये और अपने सुख-दुःख का अनुकूल वेदन और प्रतिकूल वेदन रूप स्वरूप समान है।
___ अथवा-परको पीडा पहुंचाने का त्याग करने से सुखरूप फल प्राप्त होता है और पीडा पहुंचाने से दुख मिलता है। इस प्रकार पराया सुख और दुःख
અર્થાત બીજાના સુખ-દુખને જાણે છે. મારા આત્માને વિષે અસાતાદનીય કર્મના ઉદયથી દુઃખ આવ્યું છે, અને સાતવેદનીય કર્મના ઉદયથી સુખ સ્વાનુભવસિદ્ધ છે. આ પ્રમાણે પિતાના આત્માનાં સુખદુઃખનું અનુમાન કરી શકે છે. એ અભિપ્રાયને પણ કરવા માટે એજ વાત પલટાવીને કહે છે -જે બાહ્યને જાણે છે તે અધ્યાત્મને જાણે છે.
અર્થાત-જે પરાયા સુખ-દુખને જાણે છે, તે પિતાના આત્માના સુખ-દુઃખને જાણે છે. પરાયા--બીજના અને પિતાના સુખ-દુઃખનું અનુકૂલ વેદના અને પ્રતિકૂલ વેદનરૂપ સ્વરૂપ સમાન છે.
અથવા-બીજાને પીડા પહોંચાડવાનો ત્યાગ કરવાથી સુખરૂ૫ ફલ પ્રાપ્ત થાય છે. અને પીડા પહોંચાડવાથી દુઃખ મળે છે.
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भाचारास्त्रे पश्यतीत्यातदर्शी भवति, स हिताहितविवेककुशललाद् अहितम् अमकर वायुकायसमारम्भगमस्तीति ज्ञात्वा, एनस्य एजतीत्येजः कम्पनशीलत्वाद, वायु, वस्य, जुगुप्सायां निन्दायां, सेवनपरिवर्जने समारम्मनिवृती, इति यावत् ,
प्रभु समर्थो भवति । जुगुप्सा, संयमना, अफरणा, वर्जना, व्यावर्तना, नित्तिरित्येकार्थाः।
अयमाशयः-वायुकायसमारम्भकरणे शारीरं मानसं च सर्वमेव दुःखं मयि समापयेत, तस्मादिदमातङ्कजनकलादहितमिति विज्ञाता, तत्सेवनलक्षणसमारम्भ परिहरणे समर्थों भवतीति।
यः अध्यात्मम् आत्मनीति अध्यात्मम् स्वात्मगतं मुखं दुःखं वेत्यर्थः,
हित-अहित के विवेक में कुशल होने से वायुकाय से आरम्भ को अहितकर समझकर वायु के आरम्भ का त्याग करने में समर्थ होता है । मूल में आये हुए जुगुप्सा (दुगुंशा) शब्द के कई अर्थ होते हैं। जैसे-संयमन, अकरण (न करना), वर्जन (त्यागना), व्यावत्तेन (हटना) और निवृत्ति (ल्याग)।
आशय यह है-'वायुकाय का आरम्भ करने से मुझे शारीरिक और मानसिक सभी दुःख प्राप्त होंगे अतः यह आरम्भ अतंकजनक होने के कारण अहितकर है । ऐसा जानने वाला उसके सेवनरूप भारम्भ के त्याग में समर्थ होता है ।
जो अध्यात्म को अर्थात् अपने आत्मा में स्थित सुख-दुःख को जानता है
થનારૂં દુઃખ આંતક કહેવાય છે, અને એને જોવાવાળા આતંકદર્શ છે. તે હિતઅહિતના વિવેકમાં કુશળ હેવાના કારણથી વાયુકાયના આરંભને અહિતકર સમજીને पायुना मालने त्यास ४२वामां समर्थ हाय छे. भूसमा मा 'दुगुंठणा-जुगुप्सा' શબ્દના કેટલાક અર્થ થાય છે. જેમકે -સંયમન, અકરણ-(નહિ કરવું) વર્જન, (साग) व्यापत्तन, (88) मने निति (त्या).
આશય એ છે કે-વાયુકાયને આરંભ કરવાથી મને શારીરિક અને માનસિક સર્વ દુઃખ પ્રાપ્ત થશે એ માટે એ આરંભ આતંકજનક હોવાના કારણે અહિતકર છે.” એ પ્રમાણે જાણવાવાળા એના સેવનરૂપ આરંભના ત્યાગમાં સમર્થ હોય છે.
'જે અધ્યાત્મ અર્થાતુ પિતાના આત્મામાં સિયત સુખ-દુઃખને જાણે છે, તે બાહ્ય
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ मू. १ वायुकायविराधनाविवेकः ६८१
अन्यत्र च---" मर्तव्यमिति यहवं, पुरुषस्योपजायते । शक्यस्नेनानुमानेन, परोऽपि परिरिक्षतुम् " ॥१॥ इति ।।
स्वपर--सुखदुःखयास्तुल्यस्ववेदिनो न वायुफायं विराधयन्तीत्याह'इह शान्तिगताः' इत्यादि। इह-जिनमवचने, शान्तिगता स्वपरमुखदुःखयोः समत्मविज्ञानाद् औपशमिकभाव प्राप्ताः सम्यक्त्विन इत्यर्थः यद्वा-शान्तिासावधव्यापारपरिहारः, तामुपगताः द्रविकारागद्वेपरहिताः, यहा-द्रवःसंयमः कर्पद्रवणकारित्वात् , स विद्यते येषां ते द्रविका:- कर्मनिवारणशीला: संयमिनः जीवितम् व्यजनादिना वायुकायस्य समारम्भेण प्राणान् परिरक्षित नावकाक्षन्ति-नेच्छन्ति।
दूसरी जगह कहा है
'तेरा मरना ही अच्छा है, ऐसा वाक्य सुनने मात्र से पुरुष को जो दुःख होता है, इसी में अंदाज लगाकर दूसरों की रक्षा करनी चाहिए" ।१।
जो पुरुष स्व--पर सुख-दुःख को समान समझते हैं वे वायुकाय की विराधना नहीं करते, यही बात कहते हैं:----
जिनशासन में अपने और पराये सुख-दुःख को समान समझकर जो उपशम भावको प्राप्त हुए हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं, अथवा पापमय व्यापारों के त्यागी हैं, तथा राग-द्वेष से रहित हैं, अथवा कर्मों को निवारण करनेवाले संयम से विभूपित हैं, वे पंखा आदि से वायुकाय का समारम्भ करके अपने प्राणों की रक्षा करने की इच्छा नहीं करते।
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બીજી જગ્યાએ પણ કહ્યું છે કે
તારે મરવું જ સારું છે.” એ પ્રમાણે સાંભળવાથી પુરૂષને જે દુઃખ થાય છે. તે અનુમાનથી બીજની રક્ષા કરવી જોઈએ. જે ૧ |
2 ५३५ स्१-५२ना (पोतन मने पाना ) सुम-दामने समान समन छ, તે વાયુકાયની વિરાધના કરતા નથી. તે વાત કહે છે
જિન શાસનમાં પિતાનાં અને બીજાનાં સુખ-દુઃખને સમાન સમજીને જે ઉપશમ ભાવને પ્રાપ્ત થયા છે, અર્થાત સમ્યગ્દષ્ટિ છે, અથવા પાપમય વ્યાપારના ત્યાગી છે. તથા રાગ-દ્વેષથી રહિત છે, અથવા કર્મોનું નિવારણ કરવાવાળા સંયમથી વિભૂષિત છે તે પંખ આદિથી વાયુકાય સમારંભ કરીને પોતાના પ્રાણની રક્ષા કરવાની ઈચ્છા કરતા નથી.
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आधारासो स्वात्मनः सुखरूपेण दुःखरूपेण या परिणम्यते । एवं तयोः कार्यकारणभावं यो विजानाति, स एव स्वात्मगतसुखदुःखविज्ञातेति भावः।
परकीयसुखदुःखविज्ञाता स्वात्मनः मुखं दुःखं वा जानातीत्युक्तार्य हेतु प्रदर्शयन्नाह- 'एयं तुल्लमन्नेसिं' इति । एतत्-मुखं दुःखं वा, तुल्यं सदशमेक, अन्येपाम्=परेपा जीवानां स्वस्त्र चेत्यर्थः ।
" कटेण कंटणए य, पाए विद्वस्स वेयणट्टम्स । जा होइ अणिव्याणी, णायव्या सन्यजीवाणं ।।
जह मम ण पियं दुक्वं, जाणिय एमेव जीवाणं " ॥ छाया-- काष्ठेन कण्टकेन वा पादे विद्धस्य वेदनातस्य ।
या भवति अनिर्वाणि-तिव्या सर्वजीवानाम् ।। यथा मम न प्रियं दुःखं ज्ञात्वा एरमेव सर्वनीवानाम् । " इति । ही अपने सुख-दुःख के रूप में परिणत हो जाता है । इस प्रकार जो उनके कार्यकारण __ भाव को जानता है वही अपने आत्मा के सुख-दुःख का ज्ञाता होता है।
दूसरों के सुख-दुःख का ज्ञाता ही अपने सुख-दुःख को जानता है, इस कथन में हेतु दिखलाते हुए कहते हैं:-'यह मुख और दुःख दूसरों के और अपने समान ही है । कहा भी है:
___ लकडी से या कंटक से पैर में विंध जाने की वेदना से पीडित पुरुष को जो असंतोष होता है, वही सब जीवों को होता है।
जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार अन्य अन्य प्राणियों को भी दु:ख प्रिय नहीं हैं"।
આ પ્રમાણે બીજાના સુખ અને દુખજ પિતાના સુખ-દુઃખના રૂપમાં પરિણુત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે જે તેના કાર્ય-કારણ ભાવને જાણે છે, તે જ પિતાના આત્માનાં સુખ-દુઃખના જ્ઞાતા હોય છે.
બીજાનાં સુખ-દુઃખનાં જ્ઞાતા જ પિતાના સુખ-દુઃખને જાણે છે. આ કથનમાં હેતુ બતાવતા થકા કહે છે કે –
આ સુખ અને દુઃખ બીજાનાં અને આપણાં સમાન છે.” કહ્યું છે કે જ લાકડીથી અથવા કાંટાથી પગમાં વિધાઈ જવાની વેદનાથી પીડિત પુરુષને २ मतहना थाय छ, तपी स वोन (वहना) थाय ."
જેમ મને દુઃખ પ્રિય નથી, તે પ્રમાણે બીજા પ્રાણીઓને પણ દુખ પ્રિય નથી.”
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १७. ७. १ वायुकोयलॉगम्
लक्षणद्वारम्ननु कयमिदं ज्ञायते वायुः सचित्त इति?, अत्रोच्यते-गृह्यतां तावदनुमानं प्रमाणम्, चायुश्चेतनावान् अनन्यप्रेरिताऽनियततिर्यग्गमनवत्त्वात् , हरिणगवयादिवदिति । अनियतविशेषणोपादानात् परमाणो अपरप्रेरिततिर्यग्गतिसत्वेऽपि नानकान्तिकत्वम् , तस्य हि परप्रयोगनिरपेक्षस्य स्वा. भाविकी गतिरनुश्रणिर्भवति तस्मात् सा नियतैव । आगमोऽपि प्रमाणं, यथादशवकालिकमूने-" वाउ चित्तमंतमरखाया अणेगनीया पुढोसत्ता अन्नत्य सत्यपरिणएणं " । इति,
वायुवित्तवानाख्यातोऽनेकजीवः पृथक्सवः अन्यत्र शलपरिणतात् । इति च्छाया,
लक्षणद्वारशंका-~-वायु सचित्त है, यह बात किस प्रकार जानी जाय ?
समाधान--पहले अनुमान प्रमाग ही लोजिए: वायु चेतनायुक है, क्यों कि वह दूसरों की प्रेरणा विना अनियत रूप से तिरछी गति करती है, जैसे हिरन, रोझ आदि । हेतु में 'अनियत' विशेषग लगा देने से प्रेरणा का अभाव और तिरछी गति होने पर भी परमाणु ज्यभिचार नहीं होता। परमाणु दूसरे की प्रेरणा के बिना जो गति करता है यह गति श्रेणी के अनुसार नियत ही होती है-अनियत नहीं। इस विषय में आगम भी प्रमाण है। दशवकालिक सूत्र में कहा है
"वायु सचित्त कही गई है । वह अनेक जीवोवाली है, और उन जीयों का अस्तित्व पृथक-पृथक् है । सिके शस्त्रपरिणत वायु सचित्त नहीं है"।
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सद्वार
શકા-વાયુ સચિત્ત છે એ વાત કેવી રીતે જાણી શકાય ?
સમાધાન~~થમ અનુમાન પ્રમાણ લઈએ-વાયુ ચેતનયુક્ત છે, કેમકે તે બીજાની પ્રેરણા વિના અનિયતરૂપથી તિરછી ગતિ કરે છે, જેમ-હરણ, રૂઝ આદિ, હેતુમાં “અનિયત વિશેષણ લગાવી દેવાથી પરપ્રેરણાને અભાવ અને તિરછી ગતિ હોવા છતાંય પણ પરમાણુથી વ્યભિચાર થતું નથી, પરમાણુ બીજાની પ્રેરણા વિના જે ગતિ કરે છે, તે ગતિ શ્રેણી–અનુસાર નિયત જ હોય છે, અનિયત નહિં.
આ વિષયમાં આગમ પણ પ્રમાણ છે. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છે
“વાયુ સચિત કહેવામાં આવ્યો છે. તે અનેક જીવવાળો છે અને તે જીવનું અસ્તિત્વ પૃથક-પૃથફ (જુદું જુદું) છે, માત્ર શરિણુત વાયુ સચિત્ત નથી. .
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आचाराने जिनमवचनोक्तचरणकरणसेविना म्वप्राणरक्षणार्थमपि परजीवोपमदनं नेच्छन्ति, ते हि अचाक्षुपवायुजीवचिराधनाविनित्ताः कथमन्यचाचपएथिव्यादिजीवोपमर्दने भवतेत, न कयमपीति भावः।
अथ वायुवायरय सम्यगहानार्थ रक्षणाघप्ट द्वाराणि निरूपणीयानि । तत्र लक्षणारूपणापरिमाणशस्त्रोपभोगद्वाराणि यथाक्रमं निरूप्यन्ते । अत्रशिष्ट-वध्वेदनानिवृत्ति द्वाराणि पृथिवीकायोदेशे यथा कथितानि तथैवावगन्तव्यानि ।
जिनागम में कथित चरण-करण का सेवन करने वाले अपने प्राणों की रक्षा फरने के लिए भी दूसरे जीव की हिंसा करने की अमिलाया नहीं करते । वे चक्षु से न दिखाई देने वाले बाकाय के जीवों की विराधना से भी निवृत होते हैं तो चक्षुगोचर अन्य पृथ्वीकाय आदि के जीवों की विराधना में कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं-किसी प्रकार भी नहीं।
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वाटुकाय वा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए लक्षण मादि आठ द्वारों का निरूपण करना चाहिए । उनमें से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र और उपभोग द्वारों का क्रम से निरूपण करते हैं। शेष वध, वेदना और निवृत्ति द्वार जैसे पृथ्वीकाय के उद्देश में कहे हैं
से हो यही समझ लेने चाहिए।
જિનાગમમાં કહેલા ચરણ-કરણનું સેવન કરવાવાળા પિતાના પ્રાણેની ૨૪ કરવા માટે પણ બીજા ની હિંસા કરવાની અભિલાષા કરતા નથી. તે નેત્રથી નહિ દેખાતા વાયુકાયના જાની વિરાધનાથી પણ નિવૃત્ત હોય છે, તે પછી નેત્રથી જોઈ શકાય તેવા બીજા પૃથ્વીકાય આદિના જીવોની વિરાધનામાં કેવી રીતે પ્રવૃત્ત થઈ શકે છે? કોઈ પ્રકારે પણ થઈ શકતા નથી.
વાયુકાયનું સભ્યજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા માટે લક્ષણ આદિ આઠ કાનું નિરૂપણ કરવું જોઈએ. તેમાંથી લક્ષણ, પ્રાણા, પરિમાણ, શસ્ત્ર અને ઉપગ દ્વારાનું ક્રમથી તિરૂપણ કરે છે, શેષ-(બાકી વધ, વેદના અને નિવૃત્તિ દ્વારા જેવી રીતે પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં કહ્યા છે, તેવી જ રીતે અહિં સમજી લેવું જોઈએ.
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सु. १ वायुकायपरिमाणम्
सचित्ताः, उद्गारोच्छ्रासादयोऽचित्ताः सचित्ताचित्तयोः संमिश्रणेन मिश्राः ।
परिमाणद्वारम् -
ये चादरपर्याप्तका वायुकायास्ते संवर्तितलोकपतरासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेपास्त्रयोऽपि राशयः पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति, विशेपश्चायमत्रावगन्तव्यः - बादराएकायपर्याप्तकेभ्यो वादरवायुपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, वादरापकायाऽपर्याप्तकेभ्यो
बादरवायुकायाs
पर्याप्तका असंख्येयगुणाः । सूक्ष्मापकाया पर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुकायाऽपर्याप्तका सूक्ष्मापकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मायुकायपर्याप्तका
विशेषाधिकाः, विशेषाधिकाः || सू० १ ॥
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(३) मिश्र | उकालिकावात आदि सचित हैं, उद्गार और उच्द्यास आदि अचित हैं, और मिली हुई सचित्त-अचित्त वायु मिश्र है ।
परिमाणद्वार -
बादरपत्रकाय के जोव संवर्तित लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवत प्रदेशों के बराबर है। शेष तीनों प्रत्येक राशिया असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं । यहाँ इतनी विशेषता समझनी चाहिए- बादर अकाय के पर्याप्त जीवों की अपेक्षा वायुकाय के बाद पर्याप्त असंख्यात गुणा हैं । अपूकाय के अपर्याप्त चादर जीवों से वायुकाय के अपर्याप्त बादर असंख्यात गुगा हैं । अनूकाय के सूक्ष्म अपर्याप्त जीवों से सूक्ष्म वायुकाय के अपर्याप्त विशेष अधिक हैं । अपूकाय के सूक्ष्म पर्याप्त जीवों से सूक्ष्म वायुकाय के पर्याप्त विशेषाधिक हैं | सू० १ ॥
1
ઉત્કાલિકાવાત આદિ ચિત્ત છે. ઉદગાર અને ઉચ્છ્વાસ આદિ ચિત્ત છે. અને ચિત્ત તથા અચિત્ત એ બંને એક સાથે મળેલા હાય તે વાચુ મિશ્ર છે. પરિમાણહાર.-
બાદરપર્યાપ્તવાસુકાયના જીવ સ્વર્તિત લેક પ્રતરના અસ`ખ્યાતમા ભાગવત પ્રદેશના ખરાખર છે. બાકી ત્રણ પ્રત્યેક રાશીએ અસખ્યાત લેાકાકાશના પ્રદેશોની ખરાખર છે. અહિં એટલી વિશેષતા સમજવી જોઇએ-આદર અચૂકાયના પર્યાપ્ત જીવેની અપેક્ષા વાયુકાયના ખાદર પર્યાપ્ત અસંખ્યાત ગણા છે. અકાચના અપર્યાપ્ત ખાદર જીવાથી વાયુકાયના અપૌંપ્ત આદર અસ ંખ્યાત ગણા છે. અકાયના સૂમ અપર્યાપ્ત જીવાથી સૂક્ષ્મ વાયુકાયના અપર્યાપ્ત વિશેષ અધિક છે. સૂકાયના સૂક્ષ્મપર્યાપ્ત છવેથી, સૂક્ષ્મ વાયુકાયના પર્યાપ્ત વિશેષાધિક છે. ! સૂ॰ ૧ ||
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भावारागरने
मरूपणाद्वारम्वायुकाया द्विविधाः-सूक्ष्मा पादराथेति । तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्यापिना, पादरास्तु लोकैकदेशे सन्ति । चादराः पञ्चविधाः-उत्कलिकावातः, मण्डलिकांवातः, गुअावातः, धनवातः, शुद्धायतश्चेति । ये तु ते पौरस्त्यादिमेदा लोकवादिप्रकरणे भागभिहितास्तेऽप्यत्रैवान्तर्भूताः । यः स्थित्वा स्थित्वा उत्कलिकाभिवाति स उत्कलिकायातः, पातोलीरूपो मण्डलिकावातः, यो गुञ्जन् वाति स गुञ्जावाता, पृथिव्यादीनामाधारतया व्यवस्थितो हिमपटलकल्पोऽतिघनीभूतो धनवातः, मन्द स्तिमितः शीतकालादिषु शुद्धयातः ।
संक्षेपेण वायुकायात्रिविधा:-सचिता अचित्ता मिश्राश्च । उत्कलिकाबातादयः
भरूपणाद्वारवायुकाय दो प्रकार का है-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म जीव समस्त लोक में रहते हैं। बादर पाच प्रकार के हैं-(१) उस्कलिकावात (२) मण्डलिकावात (३) गुजावात (४) घनवात और (५) शुद्धवात । पौरस्त्य आदि जो भेद लोकवादी के प्रकरण में पहले बतलाये हैं वे सब भी इन्हीं भेदों में अन्तर्गत हो जाते हैं । ठहर-ठहर कर उत्कलिकारूप से बहनेवाली वायु उत्कलिकावात है। वातोलीरूप वायु को मण्डलिकावात कहते हैं । गूंज-गूज कर बहने वाली वायु को गुजावात कहते है । पृथ्वी आदि के आधार पर स्थित हिमपलट के समान अत्यन्त सघन वायु को धनवात कहते हैं । शीतकाल आदि में धीमेधीमे चलने वाली वायु शुद्धचात है।
___ संक्षेप से वायुकाय के तीन भेद हैं-(१) सचित (२) अचित और
प्ररूपाद्वारવાયુકાય બે પ્રકારના છે. (૧) સૂક્ષમ અને (૨) બાદર, સૂક્ષ્મ જીવ સમસ્ત લેકમાં व्यात छ. मन मार, ना मे-देशमा रहे छे. मा६२ पांय प्रारना छ. (1) SBIG. पात, (२) भलिपld, (3) सुपात, (४) धनपात मन (५) शुद्धपात.
પીરસ્ય આદિ જે ભેદ કવાદીના પ્રકરણમાં પહેલાં બતાવ્યાં છે, તે સર્વે આ ભેદમાં અન્તર્ગત થઈ જાય છે. જરા–રહી રહીને ઉત્કલિકાજપમાં વહેવાવાળે વાયુ તે ઉત્કલિકાવાત છે. વાલીપ વાયુને મંડલિકાવાત કહે છે. ગૂંજી-ગૂંજી ને વહેવાવાળી હવાને ગંજાવાત કહે છે. પૃથ્વી આદિના આધાર૫ર સ્થિતિ હિમપટલ સમાન અત્યંત સઘન વાયુને ઘનવાત કહે છે. શીતકાલ આદિમાં ધીમે-ધીમે વહેતી વાયુ તે શુદ્ધવાયુ છે.
सपथी वायुयना y से छे. (१) सयित (२) मथित मन (3) मिश्र
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सु.२ वायुकायाहिंसकहिंसको ६८७
टीकालज्जमानाः परमकरुणयाऽचित्तया वायुकायसमारम्भे पराङ्मुखाः, चायुकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनागाराः, पृथवभिन्नाः, केचन प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनःपर्ययकेवलिनः, केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः सन्तीति पश्य । यद्वा-पृथक्-व्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य । इमे वायुकायसमारम्भकरणे भीतासस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैर्वायुकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते इति विलोकयेत्यर्थः ।
एके पुनरन्येतु 'वयमनगाराः स्मः' इति साभिमान प्रवदमानाः 'वयमेव चायुकायरक्षणपरा: महाप्रतधारिणः' इति मलपन्ता द्रव्यलिगिनः सन्ति, तान् पृथक पश्य ।
टीकार्थ-~-परम करूणा से आई-चित्त होने के कारण वायुकाय के समारम्भ से विमुख, चायुकाय के समारम्भ का सर्वथा त्याग करने वाले अनगार भिन्न हैं-कोई भवधिज्ञानी कोई मनःपर्ययज्ञानी और फोई केवलज्ञानी हैं, और कोई मतिश्रुतज्ञान के धारक भावितामा साधु हैं. उन्हें देखो। अथवा उन्हें द्रव्यलिंगियों से भिन्न समझो। ये अनगार वायुकाय का समारम्भ करने में भीत हैं, उस्त हैं, उद्विग्न हैं तथा तीन करण तीन योग से घायुकाय का समारम्भ करने के त्यागी हैं।
और कोई-कोई 'हम अनगार है' इस प्रकार अभिमानपूर्वक कहते हुए, 'हम ही • वायुकाय की रक्षा करने वाले पंचमहारतधारी हैं ऐसा प्रलाप करने वाले द्रष्यलिंगी
, उन्हें अनगारों से अलग समझो।
ટીકાથ–પરમ કરુણથી આદું-ચિત્ત હેવાના કારણે વાયુકાયના સમારંભથી વિમુખ, વાયુકાયના સમારંભને સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા અણગાર જુદા છે-કેઈ અવધિજ્ઞાની, કેઈ મન:પર્થયજ્ઞાની અને કઈ કેવલજ્ઞાની છે, અને કેઈ મતિ-શ્રુત જ્ઞાનના ધારક ભાવિતાત્મા સાધુ છે, તેને જુઓ, અથવા તેને દ્રવ્યલિંગિઓથી જુદા જાણે, તે અણુગાર વાયુકાય સમારંભ કરવામાં ભીત (બીવા વાળા) છે, ત્રરત છે, ઉદ્વિગ્ન છે. તથા ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી વાયુકાય સમારંભ કરવાના ત્યાગી છે.
અને કઈ-કઈ “અમે અણુગાર છીએઆ પ્રમાણે અભિમાનપૂર્વક કહે છે, કે “અમેજ વાયુકાયની રક્ષા કરવાવાળા પંચમહાવ્રતધારી છીએ.” એ બકવાદ કરનારા વ્યલિંગી છે. તેને અણુગારથી જૂદા જાણે.
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आचारात्सूत्रे
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अथ सर्वथा वायुकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान् तथा वायुकाय समारम्भमवृत्तान् द्रव्यलिङ्गिनथ विविन्य प्रतिबोधयितुमाह--' लज्जमाणा.' इत्यादि ।
अथ शस्त्रद्वारम् -
मूलम् --
लज्जमाणा पुढो पास । अणगारा मो-त्ति एगे पत्रयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहि वाउकम्मसमारंभेणं, वाउसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति ॥ सु० २ ॥
छाया
लज्जमानाः पृथक् पश्य । अनगाराः स्म इति एके मवदमानाः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः वायुकायसमारम्भेण, वायुकायशखं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसन्ति ॥ ०२ ॥
वायुकाय के समारंभ का सर्वथा त्याग करने वाले मुनियों को और वायुकाय के समारम्भ में प्रवृत्ति करने वाले द्रव्यलिंगियों को अलग-अलग बतलाने के लिए कहते हैं:'लज्जमागा.' इत्यादि ।
शत्रद्वार
मूलार्थ - - वायुकाय का समारम्भ करने में संकोच करने वाले अनगारों को अलग देखो, और कोई-कोई 'हम अनगार हैं' ऐसा कहते हुए नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय का समारम्भ करके, वायुकाय का समारम्भ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं उनको अलग देखो || सू० २ ॥
વાયુકાયના સમારંભના સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા મુનિઓને અને વાયુકાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા દ્રવ્યલિંગિઓને જૂદા જૂદા અતાવવા માટે કહે છેઃ— ' लज्जमाणा' त्याहि.
शस्त्रद्वार
મૂલા વાયુકાયના સમારભમાં સ``ચ કરવાવાળા અણુગારાને જૂદા જાણે, અને કોઈ-કઈ અમે અણુગાર છીએ? એવું કહેનારા અને નાના પ્રકારના શસ્ત્રોથી વાયુકાયના સમારંભ કરીને, વાયુકાયને સમારંભ કરતા થકા બીજા અનેક પ્રકારના आयिोनी डिसा ४रे छे. तेने भाष्य ब्लूहा-हा भो ॥ सू० २ ॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ मु.२ वायुकायाहिंसकहिंसको ६८७
टीकालज्जमानाः परमकरणयाऽचित्तया वायुकायसमारम्भे पराङ्मुखाः, वायुकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनागारा, पृथ-विभिन्नाः, केचन प्रत्यक्षशानिनोऽवधिमनापर्ययकेलिना, केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः सन्तीति पश्य । यहा-पृथक्-द्रव्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य । इमे वायुकायसमारम्भकरणे भीतासस्ता उद्विग्नाखिकरणत्रियोगैर्वायुकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते इति रिलोकयेत्यर्थः ।
एके पुनरन्येतु 'वयमनगाराः स्मः' इति साभिमान प्रवदमानाः 'वयमेव वायुकायरक्षणपराः महाव्रतधारिणः' इति मलपन्ती द्रव्यलिगिनः सन्ति, तान् . पृथक् पश्य ।
टीकार्थ-परम करूणा से आई-चित्त होने के कारण वायुकाय के समारम्भ से विमुख, वायुकाय के समारम्भ का सर्वथा त्याग करने वाले अनगार भिन्न हैं-कोई अवधिज्ञानी कोई मनःपर्ययज्ञानी और कोई केवलज्ञानी हैं, और कोई मतिश्रुतज्ञान के धारक भावितामा साधु हैं. उन्हें देखो । अथवा उन्हें द्रव्यलिंगियों से भिन्न समझो। ये अनगार वायुकाय का समारम्भ करने में भीत हैं, अस्त हैं, उद्विग्न हैं तथा तीन करण तीन योग से वायुकाय का समारम्भ करने के त्यागी हैं।
और कोई-कोई 'हम अनगार हैं' इस प्रकार अभिमानपूर्वक कहते हुए, 'हम ही वायुकाय की रक्षा करने वाले पंचमहाव्रतधारी हैं। ऐसा प्रलाप करने वाले द्रव्यलिंगी हैं, उन्हें अनगारों से अलग समझो।
ટીકાથ–પરમ કરુણથી આચિત્ત હેવાના કારણે વાયુકાય સમારંભથી વિમુખ, વાયુકાયના સમારંભને સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા અણગાર જૂદા છે-કેઈ અવધિજ્ઞાની, કેઈ મનપર્યયજ્ઞાની અને કઈ કેવલજ્ઞાની છે, અને કેઈ મતિ શ્રત જ્ઞાનના ધારક ભાવિતાત્મા સાધુ છે, તેને જુએ. અથવા તેને દ્રવ્યલિંગિથી જૂદા જાણે, તે અણગાર વાયુકાય સમારંભ કરવામાં ભીત (બીવા વાળા) છે, ત્રરત છે, ઉદ્વિગ્ન છે. તથા ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી વાયુકાય સમારંભ કરવાના ત્યાગી છે.
અને કઈ-કઈ “અમે અણુર છીએ આ પ્રમાણે અભિમાનપૂર્વક કહે છે, કે “અમેજ વાયુકાયની રક્ષા કરવાવાળા પંચમહાવ્રતધારી છીએ.” એ બકવાદ કરનાર વ્યલિંગી છે. તેને અશુગરોથી જૂદા જાણે.
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आचाराचे इमे खल्बनगाराभिमानिनो द्रव्यलिगिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किश्चित् परित्यजन्तीति दर्शयति-'यदिमम्.' इत्यादि ।
यस्यस्माद्, विरूपरूपैः विभिन्नस्वरूपैः, शस्त्रः शस्त्रं हि द्रव्यभावमेदाद द्विविधम् , तत्र द्रव्यशस्व-स्वकायपरकायोभयकायभेदात त्रिविधम् । तत्र स्वकायशस्त्रं-शीतवायोरुग्णवायुः, उप्णवायोश्च शीतवायुः पूर्वदिगादिवायोः पश्चिमदिगादिवायुः स्वकायशवम् । व्यजन-तालसन्त-शूर्प-चामर-पत्र-वेलकर्णाभिधारणादयः, धर्मातों यद् यहिरवतिष्ठते वातागमनमार्गे साऽभिधारणा,
तथा-चन्दनोशीरादीनो गन्धाः, अग्निालामतापश्च, तथा मुशलादिना
अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी अनगार के गुणो में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते और गृहस्थों के किसी काय का त्याग नहीं करते हैं। यह आगे कहते हैं:
द्रव्यशख और भावशत्र के भेद से शस्त्र दो प्रकार का है। द्रव्यशन के तीन भेद हैं-(१) स्वकाय (२) परकाय और (३) उभयकायशस्त्र । उणवायु, शीतवायु का और शीतवायु, उष्णवायु का, तथा पूर्वादिदिशाओका वाय, पश्चिमादिदिशाओ के वायु का स्वकायशन है, पंखा, तालवृन्त, सूप, चामर, पत्र, कपडा और अभिधारणा आदि, धूप से पीडित पुरुष हवा आने के रास्ते में ठहरता है उसको अभिधारणा कहते हैं।
तथा-चन्दन, खसखस आदि को गंध, आगकी ज्वाला, ताप आदि परकायशस्त्र है।
અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળાઓ દ્રવ્યલિંગી (સાચા) અણગારના ગુણેમાં જરા પણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, અને ગૃહસ્થના કઈ પણ કાર્યને ત્યાગ કરતા નથી તે આગળ કહે છે.
દ્રવ્યશસ્ત્ર અને ભાવશચના ભેદથી શક્ય બે પ્રકારના છે, દ્રવ્યશસ્ત્રના ત્રણ ભેદ छ. (१) स्पाय, (२) ५२४१य, (3) BHयाय-शस, Bायु, शीतपायुने। मने શીતવાયુ, ઉષ્ણવાયુને તથા પૂર્વાદિ દિશાઓના વાયુનો પશ્ચિમ આદિ દિશાઓને વાયુ સ્વકાશસ્ત્ર છે. વાંસને બનાવેલ તથા તાલપત્રને બનાવેલો પંખે, સૂપડા, ચામર, પત્ર, વાખંડ અને અભિધારણ આદિ, તાપથી પીડિત પુરુષ હવા આવવાના રસ્તામાં થોભી જાય છે, તેને અભિધારણ કહે છે.
તથા-ચન્દન, ખસખસ, આદિની ગંધ, અગ્નિ, અગ્નિની જવ તા આદિ તીર્થ
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ७ सु. १ वायुकायशस्त्राणि.
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कण्डनं, तुपाद्यपसारणार्थं शूर्पास्फालनं, वस्त्रादिगतरजःप्रभृतिवारणाय वखादीनामाच्छोदनमास्फोटनं प्रस्फोटनं च, तथा शीघ्रगमनं वायुकायस्य विराधकं परकायशस्त्रम् । उमयकायशस्त्रम् - अनावृतमुखेन भाषणम् एतत्सवं द्रन्पशस्त्रम् | भावशस्त्रं तु मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानम् । एवंविधैः शस्त्रैः, वायुकायसमारम्भेण वायुकायोपमर्दकसावद्यव्यापारेग, इमं वायुकायं विदिसन्ति ।
वायुकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु पड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह - ' वायुकायशस्त्रम् इत्यादि । वायुकायशस्त्रं वायुकायोपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्रं पूर्वोक्तमकारं समारभमाणाः = वायुकायं प्रति प्रयुञ्जानाः अन्यान्वायुकायभिन्नान् अनेकरूपान् पृथिवीकायादीन् स्थावरान् द्वीन्द्रियादीन्त्रसांथ प्राणान् = प्राणिनः, विहिंसन्ति ।
मूसल से कूटना, छिलके हटाने के लिए सूप से फटकना, धूल-रेत आदि झाडने के लिए वत्र आदि को फटकारना - झटकना तथा जल्दी चलना भी वायुकाय का विराधक परकाय शत्र है खुले मुख से बोलना उभयकायशत्र । मन, वचन, और कायका अप्रशस्त व्यापार भाव है । इन नाना प्रकार के शस्त्रों से इव्यलिंगी वायुकाय की हिंसा करने वाले सावध व्यापार करके वायुकाय की हिंसा करते हैं ।
जो वायुकाय की हिंसा में प्रवृत्त होता है वह पट्कायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है, यह कहते हैं- वायुकाय की विराधना करने वाले पूर्वोक्त द्रव्य और भावशस्त्रों का वायुकाय के प्रति प्रयोग करने वाले वायुकाय से भिन्न अनेक प्रकार के पृथ्वीकाय आदि स्थावरों की तथा द्वीन्द्रिय आदि सजीवों की भी हिंसा करता है ।
મૂસળથી ફૂટવું, છાલ કાઢવા માટે, સૂપડાથી આદ્રકવું, ધૂળ રેતી વગેરેને ખંખેરવા માટે વસ્ત્ર વગેરેને ઝટકવું-પછાડવું, તથા જલદીજલદી ચાલવું તે પણ વાયુકાયનું વિરાધક પુરકાય શરૂ છે. ઉઘાડા-ખૂલ્લા મેઢ ખેલવું તે ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. આ સવ વાયુકાયનાં દ્રવ્યશત્રુ છે, મન, વચન અને કાયાના અપ્રશસ્ત (વખાણવા લાયક નહે તે) વ્યાપાર તે ભાવશ છે. આ નાના પ્રકારના શસ્ત્રાથી દ્રલિંગી વાયુકાયની હિંસા કરવાવાળાએ સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને વાયુકાયની હિંસા કરે છે.
જે વાયુકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે તે ષટ્કાયરૂપ સમસ્ત લેાકની હિંસા કરે છે. એ કહે છેઃ-વાયુકાયની વિરાધના કરવાવાળા પૂર્વોક્ત દ્રષ્ય અને ભાવશસ્રના વાયુકાયના પ્રતિ પ્રયેળ કરવાવાળા વાયુકાયથી ભિન્ન અનેક પ્રકારના પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરાની, તથા દ્વીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવાની પણ હિંસા કરે છે.
प्र. आ-८७
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आचाराासूत्रे इमे खल्यनगाराभिमानिनो द्रव्यलिनिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किश्चित् परित्यजन्तीति दर्शयति-'यदिमम्.' इत्यादि ।
यम्यस्माद्, विरूपरूपैः विभिन्न स्वरूपैः, शसः. शत्रं हि द्रव्यभावमेदाद द्विविधम् , तत्र द्रव्यशस्त्र-स्वकायपरकायोभयकायभेदात त्रिविधम् । तत्र स्वकायशस्त्रं-शीतवायोरुणवायुः, उप्णवायोश्च शीतवायुः पूर्वदिगादिवायोः पश्चिम दिगादिवायुः स्वकायशस्वम् । व्यजन-तालसन्त-शप-चामर-पत्र-वेलकर्णाभिधारणादयः, धर्मा” यद् यहिरवतिष्ठते वातागमनमार्गे साऽभिधारणा,
तथा-चन्दनोशीरादीनां गन्धाः, अग्निालापतापश्च, तथा मुशलादिना
अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी अनगार के गुणो में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते और गृहस्थों के किसी कृत्य का त्याग नहीं करते हैं | यह आगे कहते हैं:
द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र के भेद से शस्त्र दो प्रकार का है । द्रव्यशस्त्र के तीन भद हैं-(१) स्वकाय (२) परकाय और (३) उभयकायशस्त्र । उप्णवायु, शीतवायु का
और शीतवायु, उष्णवायु का, तथा पूर्वादिदिशाओंका वायु, पश्चिमादिदिशाओं के वायु का स्वक्रायशस्त्र है, पंखा, तालवृन्त, सूप, चामर, पत्र, कपडा और अभिधारणा आदि, धूप से पीडित पुरुष हवा आने के रास्ते में ठहरता है उसको अभिधारणा कहते हैं ।
तथा-चन्दन, खसखस आदि को गंध, आगकी ज्वाला, ताप आदि परकायशस्त्र है।
અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળાઓ દ્રવ્યલિંગી (સાચા) અણગારના ગુણેમાં જરા પણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, અને ગૃહોના કઈ પણ કાર્યને ત્યાગ કરતા નથી તે આગળ કહે છે.
દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને ભાવશસ્ત્રના ભેદથી શસ્ત્ર બે પ્રકારના છે, દ્રવ્યશાસ્ત્રના ત્રણ ભેદ . (१) २१४५य, (२) ५२४14, (3) यय-शस, वायु, शीतवायुन। मने શીતવાયુ, ઉષ્ણવાયુને તથા પૂર્વાદિ દિશાઓના વાયુને પશ્ચિમ આદિ દિશાઓને વાયુ સ્વકાયશસ્ત્ર છે. વાંસને બનાવેલ તથા તાલપત્રને બનાવેલો પ, સૂપડા, ચાર, પત્ર, વઅખંડ અને અભિધારણ આદિ, તાપથી પીડિત પુરુષ હવા આવવાના રસ્તામાં થોભી જાય છે, તેને અભિધારણ કહે છે.
તથા-ચન્દન, ખસખસ, આદિની ગંધ, અગ્નિ, અગ્નિની વાલા, તાપ આદિ તથા
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सू. २ वायुकायविराधना
छाया-गन्धर्ववृत्यवादिन-लवणजलारात्रिकादिदीपादयः। यत्किञ्चित्कृत्यं तत्सर्वमप्यरतरत्यग्रपूजायाम् ॥ १ ॥ इति । किञ्च-सप्तदशमेदिपूजाविधावपि गीतनृत्यवाधानि कर्तव्यतयोपदिशन्ति ।
किश्चैकविंशतिविधपूजायामपि नृत्यगीतवादित्रैश्वामरवीजनैश्च वायुकायसमासम्मं कारयन्ति। उक्तश्च---"स्नात्र विलेपनविभूषणपुप्पवास---
धूपमदीपफलतन्दुलपत्रपूगैः। नैवेद्यवारिवसनैश्चमरातपत्र,वादित्रगीतनटनस्तुतिकोशद्धया ॥१॥ इत्येकविंशविविधा जिनराजपूना" इत्यादि ।
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"गाना, नाचना, बजाना, लवण-जल, आरती करना, दीपक जलाना आदि जितने कार्य हैं, वे सब अप्रपूजा में किये जाते हैं " ॥१॥
तथा वे द्रव्यलिंगी दण्डो 'सत्तरहप्रकार की पूजा में भी गीत, नृत्य और वाघ आदि क्रियाएँ करनी चाहिए' ऐसा अपदेश देते हैं।
तथा इक्कीसभेदी पूजा में भी नृत्य, गीत, वादिन तथा चामर और पंखा भादि के द्वारा वायुकाय कर समारंभ कराते हैं। जैसा कहा है:---
स्नान, विलेपन, आभूषण, पुष्प, वास, धूप, दीप, फल, चावल पत्र, सुपारी, नैवेद्य जल, वन, चामर, छत्र, वादित्र, गीत, नाट्य, स्तुति और कोशवृद्धि, इस तरह इक्कीस प्रकार की जिन भगवान की पूजा होती है " ॥१॥
ong, नयj, 4, भी, ६, मारती ४२वी, दीप-दीव माया આદિ જેટલાં કાર્ય છે, તે સર્વ અગ્રપૂજામાં કરવામાં આવે છે. ૫ ૧
તથા તે દ્રવ્યલિંગી-દંડી “સત્તરપ્રકારની પૂજામાં પણ હમેશાં નૃત્ય અને વાઘવાત્ર આદિ ક્રિયાઓ કરવી જોઈએ.” એ ઉપદેશ આપે છે.
તથા એકવીસભેદી પૂજામાં પણ નૃત્ય, ગીત, વાજીંત્ર તથા ચામર અને પંખા આદિ દ્વારા વાયુકાય સમારંભ કરાવે છે. જેમ કહ્યું પણ છે
नान, विलेपन, माभूष, ०५, पास, ५५, ५,३सयामा, ५२,सारी,नवधा, જલ, વસ્ત્ર, ચામર, છત્ર, વાત્ર, ગીત, નાટક, રસુતિ અને કેશવૃદ્ધિ (ધર્માદાના નામે नgi-यन-जीवृद्धि) २ प्रमाणे वीस मी निसाननी पून याय 9."॥१॥
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भाराको इह पहुविधद्रव्यलिनिनो विद्यन्ते, तत्र शाक्यादयो व्यजनादिशौर्वायुकायसमारम्भं कुर्वन्ति, फारयन्ति, कुर्वतोऽनुमोदयन्ति, तथा च संपातिमादीनां हिंसनेन पड्जीवनिकायविराधका भवन्ति । दण्डिनोपि-"वयं प्रश्नमहाप्रतधारिणो जिना ज्ञाराधका अनगाराः स्मः" इत्यादि प्रबदमानाः साध्वाभासाः सावधमुपदिशन्ति, शास्त्रमतिपिद्धमपि चायुकायसमारम्भ कुर्वन्ति, कारयन्ति च । ते हि अनासतमुखेन वदन्ति गायन्ति च । तथा अग्रपूजादौ विविधवाधनृत्यादिकं कारयन्ति, एतत्सर्व मिथ्यादर्शनशल्याभिधं पापमाचरन्ति । उक्तञ्च-"गंधवनवाइय-लवणजलारतिआइदीवाई ।
जं किच्चं तं सच-पि ओअरइ अग्गपूयाए" ॥१॥
संसार में तरह-तरह के द्रव्यलिंगी हैं, उन में से शाक्य आदि पंखा वगैरह से वायुकाय का आरंभ करते हैं, कराते हैं और आरंभ करने वाले की अनुमोदना करते हैं,
और संपातिम ( उडकर अचानक आजाने वाले ) आदि जीवों की हिंसा करके पट्काय के विराधक बनते हैं । झूठे साधु दण्डी भी 'हम पंचमहाव्रतधारी तथा जिन भगवान् की
आज्ञा के आराधक अनगार हैं। इस प्रकार कहते हुए सावध का उपदेश देते हैं । शास्त्र में निषिद्ध वायुकाय का समारंभ करते हैं और कराते हैं। वे खुले मुख से बोलते और गाते हैं, तथा अग्रपूजा आदि में विविध प्रकार से वाय एवं नृत्य आदि कराते हैं । यह सब मिथ्यादर्शनशल्यनामक पाप है । वे इसका आचरण करते हैं। जैसे कहा है
સંસારમાં તરેહ-તરેહના દ્રવ્યલિંગી છે, તેમાંથી શાક્ય આદિ પંખા વગેરેથી વાયુકાયો આરંભ કરે છે, કરાવે છે, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે છે, અને સંપતિમ (ઉડીને અચાનક આવવાવાળા) આદિ જુની હિંસા કરીને ષકાયના વિરાધક બને છે. દંડી પણ અમે પંચમહાવ્રતધારી તથા જિન ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક અણગાર છીએ.’ આ પ્રમાણે કહેતા થકા સાવાને ઉપદેશ આપે છે. શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ મનાએલા વાયુકાય સમારંભ કરે છે અને કરાવે છે. તે ખુલ્લા મુખથી-ઉઘાડા મેઢેબેલે છે અને ગાય છે, તથા અમપૂજા વગેરેમાં વિવિધ પ્રકારથી વાવ અને નૃત્ય આદિ કરાવે છે. આ સર્વે મિથ્યાદર્શનશલ્ય નામનું પાપ છે. તે એનું मायरले ४२ छ.भाधु :- ,
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ७ . ३ वायुविराधनामयोजनानि,
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वन्दनमाननपूजनाय, जाविमरणमोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेव वायुशस्त्र समारभते, अन्यैर्वा वायुशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वायुशखं समारभमाणान् समनुजानाति, तत् तस्याद्दिताय, तत् तस्यावोधये ॥ सू० ३ ॥
टीका
Cate
तत्र = वायुकायसमारम्भे, भगवता श्रीमहावीरेण परिज्ञा-ज्ञ-प्रत्याख्यानभेदाद् द्विविधा, खलु निश्रयेन, म वेदिता=मतिबोधिता । कर्मरज:- परिहरणार्थ भव्यजीवेन परिarsari शरणीकरणीयेति भगवता प्रतियोधितमिति भावः ।
उपभोगद्वार --
लोकः कस्मै प्रयोजनाय वायुकायमुपमर्दयतीत्याह- अस्य चैव जीवितस्य ' इत्यादि । अस्यैव = अल्पकालावस्थायिनः जीवितस्य = जीवनस्प सुखार्थम् व्यजन- तालवृन्त- मन- ध्मात फुत्कारा वासादिभिव, शीतोष्णवायु
टीकार्थ वायुकाय के समारंभ के विषय में श्री महावीरने ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानप्ररिज्ञा बतलाई है । तात्पर्य यह है कि-कर्मरूपी रजको हटाने के लिए भव्य जीव को परिज्ञा मवश्य स्वीकार करना चाहिए, ऐसा उपदेश भगवान् ने दिया है ।
उपभोगद्वार -
लोग किस प्रयोजन से वायुकाय की विराधना करते हैं? यह बतलाते हैं इस अल्पकालीन जीवन के सुख के लिए पंखा, ताडपंखा हिलाना, धौंकनी का धौंकना, फूंक मारना, श्वास लेना आदि क्रियाओं द्वारा, तथा शीत और उष्ण वायुका सेवन द्वारा वायुकाय की हिंसा करते हैं ।
ટીકા વાયુકાયના સમારભના વિષયમાં શ્રીમહાવીરે સરિજ્ઞા તથા પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા પતાવી છે. તાત્પર્ય એ છે કે-કરપી ૨જને દૂર કરવા માટે ભવ્ય જીવેાએ પરિત્તાના અવક્ષ્ય સ્વીકાર કરી લેવા જોઇએ. આ પ્રમાણે ભગવાને ઉપદેશ આપ્યું છે.
उपभोगद्वार-
લાક કયા પ્રત્યેાજનથી વાયુકાયની વિરાધના કરે છે? એ બતાવે છે. આ અપકાળના જીવનના સુખ માટે પંખા, તાડપ ́ખા હલાવવા, ધમણુ ધમવી–ફૂંક મારવી, શ્વાસ લેવા, આદિ ક્રિયાઓદ્વારા તથા શીત અને ઉષ્ણ (ઠંડા અને ગરમ) વાયુના સેવનદ્વારા
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भाचाराने अलमधिकेन-एवमपि ते मलपन्ति-यदि जिनमत्युटेकेण साधुरपि नृपेचदा नास्ति दोप इति ।। सू०२ ॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिन माह-'वत्य खल्ल.' इत्यादि ।
मूलम्तत्य खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिचंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिधायहेर्ड से सयमेव वाउसत्यं समारंभइ, अण्णेहि वा वाउसत्यं समारंभावेइ, अण्णे वाउसत्यं समारंमंते समणुजाणइ, ते से अहियाए, तं से अवोहीए ॥ सू० ३ ॥
छायातत्र खलु भगवता परिक्षा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परि
ज्यादा क्या कहें ! वे यहाँ तक भी बकते हैं कि-जिनराज की भक्ति में मस्त होकर अगर साधु भी नाचने लगे तो भी कोई दोष नहीं है अर्थात् वह आराधक है ॥ सू० २।। ___सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं:-'तत्थ खलु' इत्यादि ।.
मूलार्थ-भगवान् ने वायुकाय के आरंभ के विषय में उपदेश दिया है। इसी जीवन के परिवन्दन, मानन, और पूजन के लिए, जन्म-मरण से छुटकारा पानेके लिए, दुःख का नाश करने के लिए लोग स्वयं वायुकायशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से वायुकायशस्त्र का आरंभ कराता है और वायुकायशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों की अनुमोदना करता है । यह उसके अहित के लिए और उसकी अबोधि के लिए है ॥ सू० ३ ॥
વિશેષ શું કહીએ, તે એટલે સુધી પણ કહે છે કે-જિનરાજની ભક્તિમાં મસ્ત થઇને અગર સાધુપણનાચ કરવા લાગે તે પણ કઈ દોષ નથી અર્થાત તે આરાધક છે. પારા
सुधस्वामी सम्पूरपाभान ४ छ:-'तत्थ खलु.' इत्यादि.
મૂલાર્થ––ભગવાને વાયુકાયના આરંભના વિષયમાં ઉપદેશ આપે છે. આ જીવનના પરિવંદન, મનન અને પૂજા માટે, જન્મ, મરણથી છુટવા માટે, દુઃખને નાશ કરવા માટે. લોક સ્વયં-તે વાયુકાયશઅને આરંભ કરે છે, બીજા પાસે વાયુકાયશનો આરંભ કરાવે છે. અને વાયુકાયશ અને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે
ना (ताना) महित भाटे मन भनी दिन भाटे छे. ॥३॥,
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आचारचिन्तामणि- टीका अध्य० १३. ७ . ३ वायुकायोपभोगः
तस्य वायुकायसमारम्भणं
जानाति अनुमोदयति । तद् = वायुकायसमारम्भणं, कुर्वतः कारयितुः अनुमोदयितुव अहिताय भवति । तथा तत् तस्य अबोधये= सम्यक्त्वालाभाय भवति ॥ सू० ३ ॥
येन तु तीर्थङ्करादिसमीपे वायुकायस्वरूपं परिज्ञातं स एवं विभावयतीत्याह-' से तं. ' इत्यादि ।
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मूलम्
से तं संयुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय सोचा खलु भगवओ अणगाराणां वा अंतिए, इहमेगेसि णायं भवइ एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गए । इच्चत्थं गढ़िए लोए, जमिणं विख्वरूवेहिं सत्येहि चाउकम्मसमारंभेणं, चासत्यं समारंभमाणे अण्णे अणेगख्वे पाणे विहिंसा || सू० ४ ॥
करते हैं । वायुकाय का यह आरंभ करने वाले, कराने वाले और उसकी अनुमोदना करने वाले को अहितकर होता है तथा अबोधिजनक होता है | सू० ३ ॥
तीर्थंकर आदि के निकट जिसने वायुकाय का स्वरूप समझ लिया है, वह इस प्रकार विचार करता है:-' से तं.' इत्यादि ।
मूलार्थ -- भगवान् से या उनके अनगारों से सुनकर -समझकर जिसने संयम धारण किया है वह जानता है कि यह वायुकाय का समारंभ ही ग्रंथ है, यही मोह है, यही मार है, यही नरक है । इसी में लोग गूद्ध हो रहे है, क्यों कि नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय के समारंभद्वारा वायुशस्त्र का आरंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं | सू० ४ ॥
આરબ, આરંભ કરવાવાળાને, કરાવનારને અને તેની અનુમેાદના આપવાવાળાને महितर थाय छे, तथा सोधिन्न थाय छे. ॥ सू० ३ ॥
તીર્થંકર આદિના સમીપમાં જેણે વાયુકાયનું સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ अभाषे विचार करे छे:' से तं. त्यादि
भूदार्थ- ભગવાન પાસેથી અથવા તેમના અણુમાર પાસેથી સાંભળી-સમજી ને જેણે સંયમ ધારણ કર્યું છે તે જાણે છે કે આ વાયુકાયને સમારંભ ગ્રંથ છે, એજ માહ છે. એજ માર છે. એજ નરક છે, એમાં લેકે શુદ્ધ થઈ રહ્યા છે, કેમકે નાના પ્રકારના શસ્ત્રથી વાયુકાયના સમાર ભદ્વારા વાયુશને આરંભ કરતા થકા અન્ય અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. {{સૂ॰ ૪
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चारा
सेवनेथ, तथा परिवन्दन - मानन-पूजनाय, परिचन्दनं मशंसा, तदर्थ - तित्राद्यवेणुमाननं=जनसत्कारस्तदर्थं,
प्रभृतिवादनादी,
व्यजनयन्त्रादिमचालनादी,
पूजन = वस्त्ररत्नादिलाभस्तदर्थं
वायुयान - वायुयन्त्रादिनिर्माणादौ, तथा जातिमरणमोचनार्थ देवप्रतिमाभिमुखं नृत्यगीतवादित्रप्रयोगे, व्यजनचामरादिवीजने च, तथा दुःखप्रतिघात देतुं = व्याधिमतीकारार्थं randज्ञानिकोद्भावितवायुचिकित्सायां तथा तालवृन्तादिना वायुकायोद्भावने सजीवनसुखाद्यर्थी, स्वयमेव वायुशखं वायुकायोपमर्दकं शस्त्र समारभते व्यापारयति अन्यैर्वा वायुकाय शस्त्रं समारम्भयति = प्रयोजयति, अन्यान् वायुशस्त्र समारभमाणान् समनु
तथा परिवन्दन अर्थात् प्रशंशा पाने के लिए, मशकवाघ और वॉसुरी बजाकर, मानन अर्थात् जनसत्कार के लिए व्यजनयंत्र (बोजली का पंखा ) गानयंत्र ( रेडियो, ग्रामोफोन आदि) बजाकर, पूजन अर्थात् वस्त्रों एवं रत्नो आदि के लाभ के लिए वायुयान (एरोप्लेने) वायुयंत्र आदि के बनाने में, तथा जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए, जैसे- जिनप्रतिमा के आगे नृत्य, गीत और वादित्र का प्रयोग करने में, चामर पंखा आदि डुलाने में; तथा दुःख का नाश करने के लिए, जैसे-याधि मिटाने के लिए आधुनिक वैज्ञानिको द्वारा निकालो हुई वायुचिकित्सा में तथा ताडपंखा आदि द्वारा वायुकाय को उदीरणा करने में वायुकाय की हिंसा करते हैं । इस प्रकार इस जीवन के सुख के अर्थी स्वयं वायुकाय के घातक शस्त्रों का समारंभ करते हैं, दूसरों से कराते हैं और वायुकाय का समारंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन
તથા પરિવન્દન, અર્થાત્ પ્રશ'સા મેળવવા માટે સશકવાદ્ય અને વાંસળી વગેરે મજાવીને, વ્યંજનયંત્ર તથા ગાનયત્ર (વિજળીથી ચાલતા પંખા અને રેડીએ તથા ગ્રામફાન વગેરે ખાવીને, પૂજન અર્થાત્ વજ્ઞે એવ' રસ્તે આદિના લાભ માટે વાયુયાન ( એરપ્લેન ) અને વાયુયત્ર આદિ બનાવવામાં. તથા જન્મ-મરણુથી છુટવા માટે. જેમકે: દેવપ્રતિમાની પાસે નૃત્ય-ગીત અને વાજીંત્રના પ્રયોગ કરવામાં, ચામર, ૫ખા આદિ હલાવવામાં, તથા દુઃખના નાશ કરવા માટે, જેમકે ઝ્યાધિ મટાડવા માટે આજકાલના વૈજ્ઞાનિકદ્વારા શાધ કરાએલી વાયુચિકિત્સામાં, તથા તાડપુત્રના પંખાદ્વારા વાયુકાયની ઉદીરણામાં વાયુકાયની હિંસા કરે છે, એ પ્રમાણે આ જીવનના સુખના અર્થી પોતે વાયુકાયના ઘાતક શસ્ત્રોના સમારંભ કરે છે, બીજાની પાસે કરાવે છે, અને વાયુકાયના સમારંભ કરવાવાળા ખીજાને અનુમેાદન આપે છે. વાયુકાયના શે
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १३.७ सु. ३ वायुकायोपभोगः
जानाति = अनुमोदयति । तद् = वायुकायसमारम्भणं तस्य वायुकायसमारम्भणंकुर्वतः कारयितुः अनुमोदयितुश्च अहिताय भवति । तथा-तत् तस्य अबोधये= सम्यक्त्वालाभाय भवति ॥ सू० ३ ॥
येन तु तीर्थङ्करादिसमीपे वायफायस्वरूपं परिज्ञातं स एवं विभावयतीत्याह-' से तं. ' इत्यादि ।
६९५.
मूलम्---
सेतं संयुज्झमाणे आयाणीयं समुद्वाय सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणां वा अंतिए, इहमेगेसि णायं भवइ एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गए । इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूत्रख्वेद्दि सत्येहिं वाउकम्मसमारंभेणं, वास समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ॥ सू० ४ ॥
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करते हैं । वायुकाय का यह आरंभ करने वाले कराने वाले और उसकी अनुमोदना करने वाले को अहितकर होता है तथा अबोधिजनक होता है | सू० ३ ॥
तीर्थंकर आदि के निकट जिसने वायुकाय का स्वरूप समझ लिया है, वह इस प्रकार विचार करता है:-' से तं.' इत्यादि ।
मूलार्थ - - भगवान् से या उनके अनगारों से सुनकर - समझकर जिसने संयम धारण किया है वह जानता है कि यह वायुकाय का समारंभ हो ग्रंथ है, यहाँ मोह है, यही मार है, यही नरक है। इसी में लोग गृद्ध हो रहे है, क्यों कि नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय के समारंभद्वारा वायुश का आरंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं । सू० ४ ॥
આરંભ, આરંભ કરવાવાળાને, કરાવનારને અને તેની અનુમેદના આપવાવાળાને अडितार थाय छे, तथा भोधिन्न थाय छे ॥ सू० ३ ॥
તીર્થંકર આદિના સમીપમાં જેણે વાયુકાયનું સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ प्रमाणे विचार करे छे:' से तं.' इत्यादि.
મૂલા ભગવાન પાસેથી અથવા તેમના અણુગારે પાસેથી સાંભળી-સમજી ને જેણે સયમ ધારણ કર્યું છે તે જાણે છે કેઃ- વાયુકાયના સમારંભજ ગ્રંથ છે. એજ મેાહ છે, એજ માર છે. એજ નરક છે, એમાં લેાકેા શુદ્ધ થઈ રહ્યા છે, કેમકે નાના પ્રકારના શસ્ત્રાથી વાયુકાયના સમારંભદ્વારા વાયુશસ્ત્રના આરંભ કરતા થકા અન્ય અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીએની હિંસા કરે છે. સૂ॰ ૪
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आचाराने सेवनेश्व, तथा परिवन्दन-मानन-पूजनाय, परिवन्दन-प्रशंसा, तदर्थ-रविवाघवेणु. मभृतिवादनादी, माननं जनसत्कारस्तदर्थ, व्यजनयन्त्रादिपचालनादों, पूजन-अस्त्ररत्नादिलाभस्तदर्य वायुयान-यायुयन्त्रादिनिर्माणादी, तथा जातिमरणमोचनार्थ-देवप्रतिमाभिमुख नृत्यगीतवादित्रमयोगे, व्यजनचामरादिवीजने च, तया दुःखप्रतिघातहेतु व्याधिमतीकारार्थ नवीनवैज्ञानिकोद्भावितवायुचिकित्सायां, तथा-तालवृन्तादिना वायुकायोद्भावने सम्जीवनसुखाया, स्वयमेव वायुशस्त्रं वायुकायोपमर्दक-शस्त्र समारमते व्यापारयति, अन्यैर्वा वायुकायशस्त्रं समारम्भयति-भयोजयति, अन्यान् वायुशस्त्र, समारममाणान् समनु- .
तथा परिवन्दन अर्थात् प्रशंशा पाने के लिए, मशकवाय और वाँसुरी बजाकर, मानन अर्थात् जनसत्कार के लिए व्यजनयंत्र (बोजली का पंखा) गानयंत्र (रेडियो, प्रामोफोन आदि) बजाकर, पूजन अर्थात् वस्त्रों एवं रनो आदि के लाम के लिए वायुयान (एरोप्लेने) वायुयंत्र आदि के बनाने में, तथा जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए, जैसे-जिनप्रतिमा के आगे नृत्य, गीत
और वादिन का प्रयोग करने में, चामर पंखा आदि डुलाने में तथा दुःख का नाश करने के लिए, जैसे-ज्याधि मिटाने के लिए आधुनिक वैज्ञानिको द्वारा निकालो हुई वायुचिकित्सा __ में तथा ताडपंखा आदि द्वारा वायुकाय को उदोरणा करने में वायुकाय की हिंसा करते
हैं। इस प्रकार इस जीवन के सुख के अथों स्वयं वायुकाय के घातक शस्त्रों का समारंभ करते हैं, दूसरों से कराते हैं और वायुकाय का समारंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन
તથા પરિવન્દન, અર્થાત પ્રશંસા મેળવવા માટે મશકવાદ્ય અને વાંસળી વગેરે બજાવીને, વ્યજનયંત્ર તથા ગાનયંત્ર (વિજળીથી ચાલતા પંખા અને રેડીઓ તથા ગ્રામેફેન) વગેરે બજાવીને, પૂજન અર્થા–વો એવું રત્ન આદિના લાભ માટે વાયુયાન (એપ્લેિન) અને વાયુમંત્ર આદિ બનાવવામાં તથા જન્મ-મરણથી છુટવા માટે. જેમકે –દેવપ્રતિમાની પાસે નૃત્ય-ગીત અને વાજીંત્રને પ્રયોગ કરવામાં, ચામર, પંખા આદિ હલાવવામાં, તથા દુઃખને નાશ કરવા માટે, જેમકે-વ્યાધિ મટાડવા માટે આજકાલના વૈજ્ઞાનિક દ્વારા શોધ કરાએલી વાયુચિકિત્સામાં, તથા તાડપત્રના પંખાદ્વારા વાયુકાયની ઉદીરણામાં વાયુકાયની હિંસા કરે છે. એ પ્રમાણે આ જીવનના સુખના અર્થી પિતે વાયુકાયના ઘાતક શોને સમારંભ કરે છે, બીજાની પાસે કરાવે છે. અને વાયુકાય સમારંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે. વાયુકાય છે
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ.७ में. ४ वायुकायविराधनादोपः ६९७ फार्योपचारात् । एवमग्रेऽपियोध्यम् । तथा-एफ वायुशस्त्रसमारम्भः, मोहा विपर्यासः =अज्ञानम् । तथा एप एव मार: मरणं निगोदादिमरणरूपः । तथा एप एव नरक! नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् ।
इत्यय एतदर्थ ग्रन्थमोहमरणनरकरूपं घोरदुःखफल प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव, लोक: अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्धा लिप्सुरस्ति । यद्वा गृद्धा भोगाभिलाषी, लोका-संसारी जीवा, इत्यर्थ-एतदर्थमेव अन्यमोहमरणनरकार्थमेव प्रवर्तत इति शेषः ।
लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव प्रवर्तत इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह-'यदिमम्.' इत्यादि ।
यद्-यस्माद् विरूपरूपैः नानाविधैः शस्त्रैः पूर्वोक्तप्रकारैः वायुकर्मकार्य का उपचार फरके कर्मबंध के कारण को मूल में कर्मबंध कहा है। आगे भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए । तथा यह वायुकाय का समारंभ अज्ञानरूप है, यह निगोद आदि में मृत्यु का कारण है, और नरक है अर्थात् नारकीय यातनाओं का स्थान है।
___ ग्रंथ, मोह मरण और नरकरूप धोर दुःखमय फल पाकर भी अज्ञानी जीव बार-बार इसी की लालसा करते हैं । अथवा भोगों के अभिलाषी संसारी जीव इस ग्रंथ, मोह, मरण और नरकरूप फल के लिए ही प्रवृत्ति करते है।
लोग कर्मबंध के लिए ही पुनः-पुनः प्रवृत्ति करते हैं, यह जो कहा है सो किस प्रकार आना जाय ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं। यदिमम्' इत्यादि ।
क्यों कि नाना प्रकार के, वायुकाय की विराधना करने वाले सावध व्यापार
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કાર્યને ઉપચાર કરીને કમબંધનાં કારણને મૂલમાં કર્મબંધ કહેલ છે. આગળ પણ આ પ્રકારે સમજી લેવું જોઈએ. તથા એ વાયુકાય સમારંભ અજ્ઞાનરૂપ છે. એ નિગદ આદિમાં મૃત્યુનું કારણ છે (અથર્ નિગદમાં લઈ જવાવાળે છે) અને નરક છે. અર્થાત્ નારકીય યાતનાઓનું સ્થાન છે.
ગ્રંથ, મેહ, મરણ અને નરકરૂપ ઘોર દુઃખમય ફલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની જીવ વારંવાર એની લાલચ કરે છે, અથવા ભોગોના અભિલાથી સંસારી જીવ આ ગ્રંથ, મોહ, મરણ અને નરકપ ફલ માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે.
લેક કર્મબંધ માટેજ પુનઃ પુનઃ પ્રવૃત્તિ કરે છે. એ પ્રમાણે જે કહ્યું છે તે हैवी रीत roll शाय१ वी १२१ २di ४९ छ- यदिमम्.' त्यादि.
કેમકે નાના પ્રકારથી વાયુકાયની વિરાધના કરવાવાળા સાવઘવ્યાપારદ્વારા તે प्र. आ-८८
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छायास तत् संयुध्यमान आदानीयं समुत्याय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेपा ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्या, एप खल्ल मोहः, एप खलु मारा, एप खलु नरकः, इत्पर्य गृद्धो लोका, यदिमं विरूपरूपैः शरः वायुफर्मसमारम्भेण वायुशखं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिनस्ति ।। सू०४ ॥
टीकायः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्य, अनगाराणां तदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानां वा अन्तिके श्रुत्वा आदानीयम्-उपादेयं सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं समुत्थायअङ्गीकृत्य, विहरति, स तत्चायुकाय समारम्भणं संयुध्यमाना-अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता सन्ने विभावयति
इह मनुष्यलोके, एकपाश्रमणनिग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव, ज्ञात-विदितं भवति । किं ज्ञातं भवतीत्याकाइमायामाह-एष खलु ग्रन्थः' इत्यादि। __एपः वायुशस्त्रसमारम्भः खलु निश्चयेन अन्य कर्मवन्धः, कारणे
टीकार्थ-- जिस पुरुपने तीर्थंकर भगवान् या उनके अनुयायी श्रमण निम्रन्थों के मुखारविन्द से सुनकर सर्व सावध का त्यागरूप संयम अंगीकर किया है वह वायुकाय के समारंभ को अहितकर और अबोधिजनक समझता हुआ इस प्रकार विचारता है-~
इस लोक में श्रमण निर्मयों के उपदेश से सम्यग्ज्ञान और वैराग्य प्राप्त करने वाले आत्मार्थी जनों को ही यह विदित होता है कि----
वायुशस्त्र का यह समारंभ निश्चितरूप से कर्मबंध का कारण है। कारण में
ટીકાથે—જે પુરુષે તીર્થકર ભગવાન અથવા તેમના અનુયાયી શ્રમણ-નિગ્રંથાના સુખારવિન્દથી સાંભળીને સર્વ સાવધના ત્યાગરૂપ સંયમ અંગીકાર કર્યો છે, તે વાયુકાયના સમારંભને અહિતકર અને અબાધિજનક સમજતા થકા આ પ્રમાણે વિચારે છે
આ લોકમાં શ્રમણ નિર્મના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરવાનું વાળા આત્માર્થી ને જ એ જાણવામાં છે કે
વાયુશસ્ત્ર અને સમારંભ નિશ્ચિતપથી કર્મબંધનું કારણ છે. કારણમાં
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सु. ५ वायुविराधनादोपः ६९९
टीका---- तद् ब्रवीमि वायुकायहिंसया यथा बहुविधाः प्राणिनः प्रणश्यन्ति, तत् कथयामि-संपातिमा उत्पत्योत्पत्यपतनशीला, प्राणाः पाणिनः सन्ति = वायुकायमाश्रित्व विद्यन्ते । एते संपातिमाः आहत्य व्यजनतालचन्तवस्त्रादिभिः मोद्भावितवायुकायादाघातं माप्य, संपतन्तिम्-वायुवेगसमाकृप्टाः प्राणापगमायोद्विग्नास्तत्रैव वायुकाये संविशन्ति, संश्लिप्यन्तीत्यर्थः ।। ___स्पर्श चेति । स्पर्शोऽस्यास्तीति स्पर्शः स्पर्शवान् , तं स्पर्शवायुकाय, स्पृष्टाः = स्पर्शकर्तार, आपत्वात् कर्तरि क्तः । एके वायुवेगसमाहताः प्राणिनः, संघातमापधन्ते-परस्परसंघर्पण गात्रसंकोचं प्राप्नुवन्ति ।
ये तत्र वायुकाये संपतिताः संघातमापधन्ते, ते तत्रयायुकाये
टीकार्य--वायु की हिंसा से अनेक प्रकार के प्राणियो का धात किस प्रकार होता है सो कहता हूँ । संपातिम अर्थात् उड-ऊडकर पड़ने वाले अनेक जीव वायुकाय के आश्रित रहते हैं। ये संपातिम जीव पंखा, तालवृन्त-पंखा कि एक जाति, वस्त्र आदि से ऊदीरणा की हुई वायुकायद्वारा आघात पाकर गिर पडते हैं, अर्थात् वायु के वेग से खिंचकर घबराये हुए वायुकाय के साथ हो जुड-से जाते हैं।
यहा स्पर्श का अर्थ हैं स्पर्शवान् अर्थात् वायु । कोई-कोई वायु के वेग से आहत हुए जीव संघात को प्राप्त होते है अर्थात् परस्पर रगड खाकर सिकुड जाते हैं।
वायुकाय में पड़े हुए जो जीव सिकुड जाते हैं वे वायुकाय के आघात से
ટીકાથ-વાયુકાયની હિંસાથી અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીઓને ઘાત કેવી રીતે થાય છે. તે હું કહું છું –સંપતિમ-ઉડી-ઉડીને પડવાવાળા અનેક જીવ વાયુકાયના આશ રહે છે. તે સંપતિમ જીવ, પંખા, તાડપત્ર, વસ્ત્ર આદિથી ઉદીરણા કરાએલા વાયુકાયદ્વારા આઘાત પામીને પડી જાય છે. અર્થાત્ વાયુના વેગથી ખેંચાઈને ગભરાએલા વાયુકાયની સાથે જ જોડાઈ જાય છે
અહીં સ્થને અર્થ છેસ્પર્શવાન--અર્થાત વાયુ કેઈ–કઈ વાયુના વેગથી આહત-તાડન કરાએલા જીવ સંઘાતજથાપણાને પ્રાપ્ત થાય છે. અર્થાત્ પરસ્પર ઘસડાઈને સંકોચાઈ જાય છે.
વાયુકાયામાં પડેલા જે છ સંકોચાઈ જાય છે તે વાયુકાયના આઘાતથી મુછિત
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आचारास्त्रे
समारम्भेण = वायुकायोपमर्दनरूपसावद्यव्यापारेण, इमे= वायुकार्य विहिनस्ति । तथावायुशखं समारभमाणः - व्यापारयन्, अन्यान् पृथिवीकायादीन् अनेकरूपान् स्थावरांसांथ, माणान् =माणिनः विहिनस्ति = उपमर्दयति ॥ सू० ४ ॥
वायुशखं समारभमाणा अनेकविधान जीवान् कथं विहिंसन्ति, तत् च प्रतिघोधयितुं श्रीसुधर्मा स्वामी माह---' से चेमि. ' इत्यादि ।
मूलम् -
से मि-संति संपाइमा पाणा आहच्च संपर्यंति य, फरिसं च खलु पुडा एगे संघायमाज्जेति । जे तत्थ संघायमाज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति । जे तय परियावज्जति ते तस्य उदायंति ॥ सू० ५ ॥
छाया
तदब्रवीमि - संति संपातिमाः प्राणाः, आहत्य संपतन्ति च स्पर्श च खलु स्पृष्टा एके संघातमापद्यन्ते । ये तत्र संघातमापद्यन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते । ये तत्र पद्यन्ते ते तत्रापद्रावन्ति ॥ ५ ॥
द्वारा वे वायुकाय का घात करते हैं। तथा वायुकाय के शखों का प्रयोग करते हुए पृथ्वी काय आदि अनेक प्रकार के स्थावरों का, तथा त्रस जीवों का उपमर्दन करते हैं ॥सू. ४॥ वायुकाय के शस्त्रों का प्रयोग करने वाले नाना प्रकार के जीवों को हिंसा कैसे करते हैं ? यह बतलाने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं:--' से बेमि . ' इत्यादि । मूलार्थ -- वह मैं कहता हूँ - एकाएक उडकर आपडते हैं, और वायुकाय से स्पृष्ट होकर कोई-कोई संघात को प्राप्त होते हैं उनका शरीर सिकुड़ जाता है, जाते हैं | सू० ५ ॥
पडने वाले जीव हैं जो अचानक
संघात को प्राप्त होते हैं । जो मूर्छित हो जाते हैं, वे मर भी
વાસુકાયને ધાત કરે છે. તથા વાયુકાયના શસ્રાના પ્રયોગ કરતા થકા પૃથ્વીકાય साहिने प्रअरना स्थावरे। तथा त्रसलवानुं उपभर्हन (नाश) उरे छे. ॥ ४॥ વાસુકાયના શસ્ત્રોના પ્રત્યેાગ કરવાવાળા નાના પ્રકારના જીવાની હિંસા કેવી રીતે मेरे छे ? मे तापपा भाटे श्री सुधर्मा स्वाभी डे छे:-' से बेमि. ' इत्यादि.
મૂલા~હું તે કહુ છું-એકાએક (એચિતા) ઉડીને પડવાવાળા જીવ છે. તે અચાનક આવી પડે છે, અને વાયુકાયથી પૃષ્ઠ થઈને કઈ-કઈ જથારૂપે થાય છે. જે સધાત-સમુદાય-જથારૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે, તેનું શરીર સ ફ્રેંચાઈ જાય છે, भूर्छित य लय छे, भने ते भरी पशु लय है. ॥ सू. ५ ॥
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सु. ६ वायुविराधनापरिहारः ७०१ एत्यं सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। तं परिणाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽगणेहिं वाउसस्थं समारंभावेज्जा, णेवण्यो वाउसत्थं समारंभते समणुजाणेज्जा, जस्सेते बाउसत्यसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणो परिण्णायकम्मे-त्ति वेमि ।। सं०६ ॥
छायाअत्र शत्वं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रमसारभमाणस्य इत्येते आरम्माः परिज्ञाता भवन्ति । तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वायुशस्त्र समारभेत, नैवान्यैर्वायुशस्त्र समारम्भयेत् , नैवान्यान् वायुशवं समारममाणान् समनुजानीयात् । यस्येते वायुशस्त्रसमारम्भा परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ सू०६॥ ।
टीकाअत्र-अस्मिन् वायुकाये, शस्त्रं-पूर्वोक्तमकार समारभणास्य व्यापास्यतः, इत्येते--पूर्वोक्ताः त्रिकरणत्रियोगैः कृता आरम्भाचायुकायोपमर्दनरूपाः
को कर्मव का कारण नहीं समझता । वायुकाय में शस्त्री का व्यापार न करने वाला इन व्यापारों को कर्मबंध का कारण समझता है। उसे जानकर विवेकी पुरुप स्वयं वायु शस्त्र का
आरम्भ न करे, दूसरों से वायुशस्त्र का आरम्भ न करावे और वायुशल का आरम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे । जो वायुकाय के शस्त्रों के व्यापार को जानता है वही मुनि है, वहीं सावध व्यापार का त्यागी है। ऐसा मैं कहता हूँ ।। सू० ६ ॥
टीकार्थ-वायुकाय के विषय में पूर्वोक्त शस्त्रों का उपयोग करने वाला तीन करण तीन योग से किये जाने वाले और वायुकाय के घातक सावध व्यापारों को कर्मबंध
કર્મબંધનું કારણ સમજતા નથી, વાયુકાયમાં શોને વ્યાપાર નહિ કરવાવાળા તે વ્યાપારને કર્મબંધનું કારણ સમજે છે. તેને જાણીને વિવેકી પુરૂષ પોતે વાયુશાસ્ત્રને આરંભ કરે નહિ, બીજા પાસે વાયુશઅને આરંભ કરાવે નહિ, અને વાયુ અને આરંભ કરવાવાળાને અનુદાન આપે નહિ, જે વાયુકાયના શસ્ત્રોના વ્યાપારને જાણે છે તેજ भुनि छ. तर सावध व्यापारन त्यागी छे. मार्च-( 40 प्रमाणे) ई ई ध्रु.॥सू. १॥
ટીકાઈ–વાયુકાયના વિષયમાં પૂર્વોક્ત શસ્ત્રોને ઉપયોગ કરવાવાળા, ત્રણ કરણ ત્રણગથી કરવામાં આવતા અને વાયુકાયના ઘાતક સાવધ વ્યાપારને કમબંધનું કારણ
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भाचारागसत्रे संश्लिष्टा पर्यापद्यन्ते वायुकायापातेन मूमिाप्नुवन्ति-प्रणष्टचेतना भवन्तीत्यर्थः । ये तत्र-पर्यापधन्ते, ते तत्र वायुकाये, अपद्रावन्तिमाणेवियुज्यन्ते ।।
वायुशस्त्रसमारम्भेण न केवलं वायुजीवविराधना जायते, किन्तु सर्वदिक्संचारिणां संपातिमजीवानामन्येपां च बहुविधानां हिंसाऽपि दुर्निवारा भवतीवि भावः ॥ सू०५॥ ___एवं वायुकायस्य सचित्तत्वं विदित्वा मुनित्वमाप्तये त्रिकरण-त्रियोगैस्तत्समारम्मो वर्जनीय इत्याशयेनाह- एत्य सत्यं.' इत्यादि ।
मूलम्एत्य सत्य समारम्भमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति ।
मूर्छित हो जाते हैं-उनकी चेतना नष्ट हो जाती है, और जो मूर्छित हो जाते हैं वे प्राणों से रहित हो जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं ।
वायुकाय के शस्त्र का आरम्भ करने से अकेले वायुकाय की ही विराधना नहीं होती वरन् समी दिशाओ में फिरने वाले संपातिम जीवों की तथा अन्य अनेक प्रकार के जीवों को हिंसा होना भी अनिवार्य है ॥ सू० ५ ॥
इस प्रकार वायुकाय की सचित्तता समझकर साधुता प्राप्त करने के लिए तीन करण तीन योग से वायुकाय का समारम्भ त्यागने योग्य है । इस आशय से सूत्रकार कहते हैं-- 'एस्थ सत्य.' इत्यादि।
मूलार्थ-वायुकाय के विषय में शस्त्र का व्यापार करने वाला इन ब्यापारों
થઈ જાય છે તેની ચેતના નાશ પામી જાય છે. અને જે મૂછિત થઈ જાય છે તે પ્રાણથી રહિત પણ થઈ જાય છે અર્થાત્ મરણ પામે છે.
વાયુકાયના શસ્ત્રને આરંભ કરવાથી, એકલા વાયુકાયના જીનીજ વિરાધના થાય છે એટલું જ નહિ પરંતુ સર્વ દિશાઓમાં ફરવાવાળા સંપાતિમ છવાની તથા અન્ય અનેક પ્રકારના જીની ઘાત થવી તે પણ અનિવાર્ય છે. . પણ
આ પ્રમાણે વાયુકાયની સચિત્તતા સમજીને સાધુતા પ્રાપ્ત કરવા માટે ત્રણ કરણ ત્રણ ચોગથી વાયુકાય સમારંભ ત્યાગ કરવા ચોગ્ય છે. એ આશયથી सार ४ छ:-'एत्य सत्यं.' त्या
મલા --વાયુકાયના વિષયમાં શબને વ્યાપાર કરવાવાળાઓ એ વ્યાપારને
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ.७ मू. ६ वायुविराधनापरिहारः ७०३ सावधव्यापाराः, परिज्ञाता-स-परिक्षया बन्धकारणतया विदिताः, प्रत्याख्यानपरिजया च परिवनिता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा-त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसावधव्यापारः, मुनिर्भवति ।
- ननु त्रिकरणत्रियोगैर्वायुकायविराधनापरिहारेण यस्तु परिज्ञातकर्मा स एव मुनिर्भवतीत्युक्तं तत्कथमुपपद्यते ? यतो हि गच्छता तिष्ठता आसीनेन स्वपता भुञानेन भापमाणेन वायुकायविराधना दुष्परिहरा कथं तर्हि मुनिश्चरेत् तिष्ठेत आसीत शयीत भुन्जीत भाषेत ? इति । अत्रोच्यते-मुनिनां सर्व स्वकर्तव्यं यतनयैव संपादनीयम् , अत एवोक्तं भगवता-- फर्मयध का कारण जान लिया और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है वही तीन करण और तीन योग से त्याग करने वाला मुनि होता है ।
शंका---'तीन करण और तीन योग से वायुकाय की विराधना का त्याग करने वाले ही मुनि होते हैं। यह कथन किस प्रकार सही हो सकता है ? चलने, ठहरने, वैठने, सोने, आहार करने और भाषण करने में वायुकाय की विराधना से बच नहीं सकते । ऐसी दशा में मुनि कैसे चले, कैसे ठहरे कैसे बैठे, कैसे सोए, कैसे भोजन करे और कैसे बोले ?
समाधान---मुनि को अपनी सब क्रियाएँ यतनापूर्वक ही करनी चाहिए। भगवान्ने कहा है:
બન્ધનું કારણ છે” એમ જાણી લીધું છે અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી તેને ત્યજી દીધા છે, તે ત્રણ કરશું અને ત્રણગથી ત્યાગ કરવાવાળા મુનિ હેાય છે.
શકા–ત્રણ કરણ અને ત્રણગથી વાયુકાયની વિરાધનાને ત્યાગ કરવાવાળા જ મુનિ હોય છે. આ વચન કેવી રીતે સાચું હોઈ શકે છે? ચાલતાં, બેસતાં, રોકાતાં, સુતાં, ભોજન કરતાં અને ભાષણ કરતાં વાયુકાયની વિરાધનાથી બચી શકાતું નથી. એવી દશામાં મુનિ કેવી રીતે ચાલે, કેવી રીતે બેસે, કેવી રીતે કાય, કેવી રીતે સુવે, કેવી રીતે ભજન કરે અને કેવી રીતે બેલે?
સમાધાન–મુનિએ પિતાની સર્વ ક્રિયાઓ યતનાપૂર્વક કરવી જોઈએ, ભગવાને
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सावद्यव्यापाराः, अपरिज्ञाताः=कर्मबन्धकारणेत्वेनानवगताः भवन्ति ।
अस्मिन्नेव वायुकाये, श= मागुक्तमकारम्, असमारभमाणस्य = अमयु जानस्य इत्येते= पूर्वोक्ताः, आरम्भाः साधव्यापाराः परिज्ञाता भवन्ति परिज्ञया परिज्ञाताः, मत्याख्यानपरिज्ञया परिवर्जिता भवन्तीत्यर्थः ।
चारा
ज्ञपरिज्ञा पूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा भवति, तं मकारं दर्शयति- 'तत् परिज्ञाय' इत्यादि । तद् = वायुकायारम्भणं, परिज्ञाय = ' कर्मबन्धस्य कारणं भवती ' त्यवगत्य, मेधावी = हेयोपादेयविवेकनिपुणः स्वयं वायुशस्त्रं नैव समारभेत नैव व्यापारयेत्, अन्यैर्वायुशस्त्रं नैव समारम्भयेत्, वायुशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् नैव समनुजानीयात् = नैवानुमोदयेत् ।
यस्यैते
वायुशस्त्रसमारम्भाः=वायुकायमुद्दिश्य
शस्त्रस्तदुपमर्दनरूपाः
का कारण नहीं समझता । अर्थात् उसे यह ज्ञान नहीं होता कि -' इन पाप - कृत्यों से मुझे कर्म का बंध होगा '
लेकिन इसी वायुकाय के विषय में शस्त्रों का आरंभ न करने वाला सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से जानता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से व्याग देता है ।
ज़परिज्ञापूर्वक प्रत्याख्यानपरिज्ञा जिस प्रकार होती है सो दिखलाते हैं - वायुकाय के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर हेयोपादेय का विवेक रखने वाला पुरुष स्वयं वायुशस्त्र का आरंभ न करे, दूसरों से वायुशस्त्र का आरंभ न करावे और वायुशस्त्र का आरंभ करनेवालों का अनुमोदन न करे ।
जिसने वायुकाय संबंधी इन
आरंभों का अर्थात् सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से
સમજતા નથી. અર્થાત્ તેમને એ જ્ઞાન થયું નથી કે- પાપકૃત્ચાથી મને કમને મધ થશે.' પરંતુ આ વાયુકાયના વિષયમાં શસ્ત્રોના આરંભ નહે કરવાવાળા સાવધ વ્યાપારને સરિજ્ઞાથી જાણે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યજી દે છે. જ્ઞપરિજ્ઞાપૂર્વક પ્રત્યાખ્યાનરિજ્ઞા જે પ્રમાણે હાય છે. તે બતાવે છે વાયુકાયના આરંભને કમખ ધનું કારણ જાણીને હેય-ઉપાદેયના વિવેક રાખવાવાળા પુરુષ પોતેજ વાયુશસ્ત્રના આરંભ કરે નહિ. ખીજા પાસે વાયુસના આરંભ કરાવે નહિ. અને વાયુશનના આરંભ કરવાવાળાને અનુમાદન આપે નહિ.
જે વાયુકાયસ બધી એ આર લેને અર્થાત્ સાવદ્ય વ્યાપારોને રૂપજ્ઞાથી ‘કમ
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य० १ उ. ७ सू. ६ वायुविराधनापरिहारः
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सावध व्यापाराः परिज्ञाता:-ज्ञ-परिज्ञया चन्धकारणतया विदिताः प्रत्याख्यान - परिज्ञया च परिवर्जिता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा - त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसावध व्यापारः, मुनिर्भवति ।
ननु त्रिकरण त्रियोगैर्वायुकायविराधनापरिहारेण यस्तु परिज्ञातकर्मा स एव मुनिर्भवतीत्युक्तं तत्कथमुपपद्यते ? यतो हि गच्छता तिष्ठता आसीनेन स्वपता सब्जानेन भाषमाणेन वायुकायविराधना दुष्परिहरा कथं तर्हि मुनिश्वरेत् तिष्ठेत् आसीत शयीत भुजीत भाषेत ? इति । अत्रोच्यते मुनिनां सर्वं स्वकर्त्तव्यं यतनयैत्र संपादनीयम्, अत एवोक्तं भगवता -
कर्म का कारण जान लिया और प्रत्याख्यानपरज्ञा से त्याग दिया है वही तीन करण और तीन योग से व्याग करने वाला मुनि होता है ।
शंका---'तीन करण और तीन योग से वायुकाय की विराधना का त्याग करने वाले ही मुनि होते हैं" यह कथन किस प्रकार सही हो सकता है ? चलने, ठहरने, बैठने, सोने, आहार करने और भाषण करने में वायुकाय की विराधना से बच नहीं सकते। ऐसी दशा में मुनि कैसे चले, कैसे ठहरे कैसे बैठे, कैसे सोए, कैसे भोजन करे और कैसे बोले ?
समाधान – मुनि को अपनी सब क्रियाएँ यतनापूर्वक ही करनी चाहिए | भगवान् कहा है:
અન્યનું કારણ છે' એમ જાણી લીધું છે અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને ત્યજી દીધા છે, તે ત્રણ કરણ અને ત્રણચૈાગથી ત્યાગ કરવાવાળા મુનિ હાય છે.
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શકા ત્રણ કરણ અને ત્રણયેાગથી વાયુકાયની વિરાધનાના ત્યાગ કરવાવાળા જ મુનિ હૈાય છે.” આ વચન કેવી રીતે સાચુ' હેઈ શકે છે? ચાલતાં, બેસતાં, શકાતાં, સુતાં, ભાજન કરતાં અને ભાષણ કરતાં વાયુકાયની વિરાધનાથી ખેંચી શકાતું નથી. એવી દશામાં મુનિ કેવી રીતે ચાલે, કેવી રીતે એસે, કેવી રીતે શાકાય, કેવી રીતે સુવે, કેવી રીતે ભાજન કરે અને કેવી રીતે બેલે ?
સમાધાનમુનિએ પેાતાની સર્વ ક્રિયાએ યતનાપૂર્વક કરવી જોઇએ, ભગવાને
ऽधुं छे.
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" जयं चरे जय चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुजतो भासतो, पावकम् न धंधई " ॥ १ ॥
आचारात्सूत्रे
ननु गमनागमनादौ यतनायाः संपाद्यत्वेऽपि भाषणयतना कथं विधेया ? कथमपि भाषणे हि वयुकायविराधना परिहने न शक्यते कथं मुनिर्यतनया भाषेत ? भाषणे वायुकायविराधनया सार्द्धं मृक्ष्मव्यापिसंपातिमजीवानामपि विराधनाऽवश्यम्भाविनी, तेषां चायुवेगसमाकृष्टानामाहत्य संपतनेन, बायुसंस्पर्शेन च संघात पर्यापत्य-पद्रावणान्तं भवतीत्यत्रैवोद्देशेऽभिहितत्यात १ इति चेदुच्यते
मुखवत्रिकाबंधनं भाषणयतना भगवता प्रतियोधिता, एप
वायुकाय"यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खडा रहे, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोए, यतनापूर्वक भोजन करे और यतनापूर्वक बोले तो (साधु) पापकर्म का बंध नहीं करता है " ॥१॥
शङ्का - जाने-आने में यतना सरलता से हो सकती है मगर बोलने की यतना किस प्रकार करनी चाहिए ? बोलने में चायुकाय की विराधना कीसी भी प्रकार नहीं टल सकती तो मुनि किस प्रकार भाषण करे ?, भापण करने में वायुकाय की विराधना के साथ सर्वत्र व्याप्त छोटे-छोटे संपातिम जीवों को विराधना भी अवश्य होती है । इसी उद्देश में बतलाया गया है कि-संपातिम जीव वायु के वेग से खिंचकर आ पडते हैं और वायु के स्पर्श से संघात को प्राप्त होते हैं, मूर्छित हो जाते हैं और मर, भी जाते हैं ।
समाधान -- भगवान् ने मुखवत्रिका बाँधना भाषणो को
यतना बतलाई है ।
યતનાપૂર્વક ચાલે, ચતનાપૂર્વક એસે, ચતનાપૂર્વક રાકાય; ચતનાપૂર્વક સુવે, यतनापूर्व लोन ४रे, अने यतनापूर्व ४ गोले तो (साधु) पाथ मनोध उश्ता नथी. ॥१॥
શંકા—જવા આવવામાં યતના સરલતાપૂર્વક થઈ શકે છે, પરંતુ ખેલવાની યતના કેવી રીતે કરવી જોઈએ? ખેલવામાં વાયુકાયની વિરાધના કાઈ પણ પ્રકારથી ટળી શકતી નથી, તે મુનિ કેવી રીતે ભાષણ કરે ? ભાષણ કરવામાં વાયુકાયની વિરાધનાની સાથે સર્વત્ર વ્યાપ્ત નાના-નાના સપાતિમ જીવાની વિરાધના પણ અવશ્ય થાય છે. આ ઉદ્દેશમાં બતાવવામાં આવ્યુ છે કેસ...પાતિમ જીવ વાયુના વેગથી ખેંચાઈને આવી પડે છે; અને વાયુના સ્પર્શથી સંઘાત–(સમુદાય)ને પામે छे, भूर्छित य लय छे. मने भरषु पछु थामे छे. સમાધાન-ભગવાને મુખવિકા ખાધવી તે ભાષણુની યતના મતાવી છે. આ વાયુકાયના
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ७सू. ६ मुखवस्त्रिका विचारः
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समारम्भः ग्रन्थमोहमारनरकरूपस्तस्मादहितोऽयमिति मत्वा वायुकायविराधनया शान्तिमार्गावलम्बिनः संयमिनः प्राणान् धारयितुमपि नावकाङ्क्षन्तीत्यत्रैवोदेशे समुपदिशता भगवता भाषणयतनारूपं मुखवस्त्रिकावन्धनमिति सूचितम् । उक्तञ्च समुत्थानसूत्र-
“........ तओ पच्छा गोयमा ! सलिंगे मुहपति मुहेण सद्धिं बंधे ॥ १ ॥
arat: णं भंते! पिमाणा १ गोयमा! मुहष्पमाणा मुहपत्ती | मुहपत्ती णं भंते ! कस्स वत्स कडे ? गोयमा ! एगस्सवि सेयवत्यस्स णं अपुडलाए मुहपत्ति करेह ॥ २ ॥
कस मुहपत्ती
अन पुढलाई ? गोयमा ! अनुकम्म दहण हूं ||
मुद्दती णं भंते १, कहं बंधे ?, गोयमा ! एगकन्नेण दुच्चन्नप्पमाणेण दोरेण सद्धि मुहे बंधे | मुहपीएणं भंते 1 के अहे ?, गोयमा ? जण्णं मुहअंते सइ वट्टति से तेणं मुहपत्ती । कस्सद्वंभंते ! मुहपत्ति मुहेणसद्धिं बंधे ?, गोयमा ! सलिंगवाउजीवरक्खटुं ॥ ३ ॥
जणं भंते ! मुहपत्ती वाउजीवरक्खणट्ठाए तो कि सुहुमवाउका यजीवरक्खणडाए वा वायरवाकयजीवरक्खणट्टाए वा ? गोयमा ! गोति सुहुमबाउकायजीवरक्खणट्टाए वायरवाकयजीवरक्खणट्टाए । नो-ति अविसेस, एवं ते सव्वेवि अरिहंता पवच्चति ॥ ४ ॥ " इति ।
यह चायुकाय का समारंभ ग्रन्थ है, मोह है, मार है, नरक है और इस कारण महितकारी है, अत एव शान्ति - मोक्षमार्ग का अवलम्बन करने वाले संयमी वायुकाय की विराधना करके अपने प्राणों की भी इच्छा नहीं करते । इसी उद्देश में भगवान् ने उपदेश देते हुए भाषा यतनारूप मुखवस्त्रिका का बाँधना सूचित किया है । समुत्थान सूत्र में कहा भी है:
सभारंभ ग्रंथ छे, भोड छे, भार छे, नरह छे, अने ते शर भडितारी है. भेटला માટે શાંતિ-મક્ષ માર્ગનું અવલંબન કરવાવાળા સંયમી વાયુકાયની વિરાધના કરીને પાતાના પ્રાણની પણ ઈચ્છા કરતા નથી. આ ઉદ્દેશમાં ભગવાને ઉપદેશ આપતા થકા ભાષા ચતનારૂપ મુખસ્તિકા બાંધવાની સૂચના કરી છે.
સમુત્થાનસૂત્રમાં કહ્યું પણ છે.
प्र. आ.-८९
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छाया" ....ततः पश्चात् गौतम ! सलिगो मुखपत्री मुखेन साई पनीयाइ । मुखपत्री खल्ल भदन्त ! किंममाणा ?, गौतम ! मुखममाणा मुखपत्री । मुखपत्री खलु भदन्त ! केन यत्रेण कृता ?, गौतम ! एफस्यापि तवस्त्रस्याष्टपुटको मुखपत्री कुर्यात् ॥ २॥
कस्मै अर्थाय भदन्त ! मुखपत्री खलु अपपटका ?, गौतम ! अष्टकम दहनार्थम् । मुखपत्री भदन्त ! कथं वध्नीयात् ?, गौतम ! एककर्णेन द्वितीपकणे
"....गौतम । तत्पश्चात् स्वलिंगी साधु मुख के साथ मुखपत्ती बाँधे ॥१॥ प्रश्न-भगवान् । मुँहपत्ती का क्या प्रमाण है। उत्तर-गौतम । मुंह के बराबर मुंहपत्ती होती है। प्रश्न-भगवान् । मुँहपत्ती किस वस की होती हैं ! उत्तर-गौतम ! एफ सफेद वन की आठ पुटकी मुँहपत्ती होती है ॥२॥ प्रश्न-भगवान् ! मुंहपत्ती माठ पुटकी क्यों होनी चाहिए ! उत्तर-गौतम ! आठ फर्मों को भस्म करने के लिए। प्रश्न-भगवान् ! मुँहपत्ती किस तरह बाँधनी चाहिये !
उचर-गौतम ! एक कान से दूसरे कान तक लम्बे डोरे के साथ मुंहपत्ती मुख पर चादनी चाहिए।
"....गौतम! तपश्चात् ५गिी साधु भुग साथै भुमपत्ति धि. (१) પ્રશ્ન-ભગવાન મુહપતીનું શું પ્રમાણ છે? ઉત્તર-ગૌતમ! મુખની બરાબર મુહપત્તી હોય છે. પ્રસ–ભગવન! મુંહપતી કયા વરની બને છે? ઉત્તર–ગૌતમ! એક સફેદ વસ્ત્રની આઠ થડની મુંહપતી હોય છે. (૨) પ્રશ્ન–ભગવન્! મુંહપત્તી આઠ પડેની શા માટે હેવી જોઈએ ? ઉત્તર–ગૌતમ! આઠ કર્મોને ભરમ કરવા માટે. પ્રશ્ન–ભગવન, મુંહપત્તી કેવી રીતે બાંધવી જોઈએ? ઉત્તર–ગૌતમ! એક કાનથી બીજા કાન સુધી લાંબા દોરાની સાથે મુંહપત્તી
મુખ પર બાંધવી જોઈએ.
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. ७ सु. ६ मुखपत्रिकाविचारः
७०७
प्रमाणदवरकेण सर्द्ध मुखे बध्नीयात् मुखपत्र्या भदन्त ! कोऽर्थः ?, गौतम ! यत्खलु मुखान्ते सदा वर्त्तते तेनार्थेन मुखपत्री । कस्मै अर्थाय भदन्त ! मुखपत्र मुखेन सार्द्ध वघ्नीयाद ?, गौतम ! स्वलिङ्गवायुजीवरक्षणार्थम् ॥ ३ ॥
यदि खलु भदन्त ! मुखपत्री वायुजीवरक्षणार्थाय तत्किं सूक्ष्मवायुकायजीवरक्षणाय या यादवाकयजीवरक्षणार्थाय ? गौतम ! नो इति सूक्ष्मवायुकायजीवरक्षणार्थाय ( किन्तु ) वादरवायुकायजीवरक्षणार्थीय, नो इति अविशेषम् एवं ते सर्वेऽपि अन्तः ध्रुवन्ति ॥ ४ ॥ इति ।
,
?
संमति केचिन्मुनिम्मन्या सुखवस्त्रिकावन्धनं प्रतिषेधयन्ति तेषामाचार्यास्तु
प्रश्न- भगवान् ! मुँहपत्ती का अर्थ क्या है !
उत्तर - वह सदैव मुँह पर बंधी रहती है इस लिए वह मुँहपत्ती कहलाती है ।
प्रश्न- किस प्रयोजन से मुँहपत्ती मुख पर बांधनी चाहिए ?
उत्तर - मुँहपत्ती बाँधना साधु का स्वलिंग है इस लिए, तथा वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिए मुँहपत्ती धी जाती है ||३||
प्रश्न- भगवान् अगर वायुकाय की रक्षा के लिए मुँहपती है तो सूक्ष्म वायुकाय की रक्षा के लिए है या चादर वायुकाय की रक्षा के लिए ?
उत्तर - सूक्ष्म वायुकाय की रक्षा के लिए नहीं किन्तु वादर वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिए है। सभी अर्हन्त ऐसा ही कहते हैं " ॥४॥
आजकल अपने को मुनि मानने वाले कोई-कोई मुखवत्रिका के बाँधने का
प्रश्न- भगवन् ! मुंडयत्तीना अर्थ शुं छे ?
उत्तर--गौतम ! ते हमेशां मुध्मपर मांधी रहे छे. तेथी ते मुंडपत्ती वाय छे, પ્રશ્ન-શું પ્રયજનથી સંતુપત્તી સુખપર બાંધવી જોઈએ ? ઉત્તર-મુહપત્તી ખાંધવી તે સાધુનું સ્વલિંગ છે એ માટે, તથા વાયુકાયના જીવાની રક્ષા માટે મુહપત્તી બાંધે. (૩)
પ્રશ્ન-ભગવન્ ! અગર વાયુકાયની રક્ષા માટે, સુંહપત્તી છે. તે શુ' સૂક્ષ્મ વાયુકાયની રક્ષા માટે છે. અથવા આદર વાયુકાયની રક્ષા માટે છે? ઉત્તર—સૂક્ષ્મ વાયુકાયની રક્ષા માટે નહિ પરન્તુ ખાદર વાયુકાયના જીવાની रक्षा भाटे छे. सर्व अर्हन्त से प्रभावेन हे छे. (४) માજ કાલ પાતાને મુતિ માનવાવાળા કાઇ કેઈ સુખસ્ત્રિકા માંધવાને નિષેધ
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७०६
मापाराचे
छाया
".....ततः पश्चात् गौतम ! सलिगो मुखपत्री मुखेन सार्द्ध वनीयात् ।' मुखपत्री खल्ल भदन्त ! किंममाणा?, गौतम ! मुखममाणा मुखपत्री । मुखपत्री खल भदन्त ! केन वस्त्रेण कृता ?, गौतम ! एकस्यापि श्वेतवस्त्रस्याटपुटकां मुखपत्री कुर्यात् ॥ २॥
कस्मै अर्थाय भदन्त ! मुखपत्री खलु अष्टपटका ?, गौतम ! अकमेदहनार्थम् । मुखपत्री भदन्त ! कथं वघ्नीयाव ?, गौतम ? एककर्णेन द्वितीयकणे.
"....गौतम । तत्पश्चात् स्वलिंगी साधु मुख के साथ मुखपत्ती बाँधे ॥१॥ प्रश्न-भगवान् । मुँहपत्ती का क्या प्रमाण है ! उत्तर-गौतम ! मुंह के बराबर मुँहपत्ती होती है। प्रश्न-भगवान् ! मुँहपत्ती किस वस्त्र की होती हैं ! उत्तर-गौतम ! एक सफेद वस की आठ पुटकी मुँहपत्ती होती है ॥२॥ प्रश्न-भगवान् । मुँहपत्ती आठ पुटकी क्यों होनी चाहिए ! उत्तर-गौतम ! आठ कर्मों को भस्म करने के लिए। प्रश्न-भगवान् ! मुँहपती किस तरह बाँधनी चाहिये ?
उत्तर-गौतम । एक कान से दूसरे कान तक लम्बे डोरे के साथ मुंह्पत्ती मुख पर बाँधनी चाहिए।
"....गौतम! तत्पश्चात् पलिंगी साधु भुम साथे भुमपत्ति सांधे. (१) પ્રશ્ન-–ભગવાન ! મુંહપતીનું શું પ્રમાણ છે? ઉત્તર–ગૌતમ. મુખની બરાબર મુહપતી હોય છે. प्रश्न-मपन्! मुंपत्ती ४या पसनी मन छ ? ઉત્તર–ગૌતમ! એક સફેદ વસ્ત્રની આઠ પડની મુંહપતી હોય છે. (૨) પ્રશ્ન––ભગવન્! મુંહપત્તી આઠ પડની શા માટે હેવી જોઈએ? ઉત્તર–ગૌતમ! આઠ કમેને ભસ્મ કરવા માટે. HA-! मुंडपत्ती व शत माधवी नये ? - ઉત્તર–ગૌતમ! એક કાનથી બીજા કાન સુધી લાંબા દેરાની સાથે મુંહત્તા
भुभ ५२ माधवी न . ।
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आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. ७ नं. ६ मुखवस्त्रिकाविचारः
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प्रमाणदवरकेण सर्द्ध मुखे बध्नीयात् मुखपच्या भदन्त ! कोऽर्थः ?, गौतम ! यत्खलु मुखान्ते सदा वर्त्तते तेनार्थेन मुखपत्री । कस्मै अर्थाय भदन्त ! मुखपत्रीं मुखेन सार्द्धं वघ्नीयात् ?, गौतम ! स्वलिङ्गवायुजीवरक्षणार्थम् ॥ ३ ॥
यदि खलु भदन्त ! मुखपत्री वायुजीवरक्षणार्थाय तत्किं सूक्ष्मवायुकायजीवरक्षणाय वा वादरायुकायजीवरक्षणार्थाय ? गौतम ! नो इति सूक्ष्मवायुकायजीवरक्षणार्याय, ( किन्तु ) वादरवायुकाय जीवरक्षणार्थीय, नो इति अविशेषम् एवं सर्वेऽपि अन्तः ब्रुवन्ति ॥ ४ ॥ इति ।
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संपति केचिन्मुनिम्मन्या मुखवखिकावन्धनं प्रतिपेधयन्ति तेषामाचार्यास्तु
प्रश्न- भगवान् ! मुँहपत्ती का अर्थ क्या है ?
उत्तर-वह सदैव मुँह पर बंधी रहती है इस लिए वह मुँहपत्ती कहलाती है ।
प्रश्न- किस प्रयोजन से मुँहपत्ती मुख पर बांधनी चाहिए !
उत्तर- मुँहपती बाँधना साघु का स्वलिंग है इस लिए तथा वायुकाय के जोनों को रक्षा के लिए मुँहपती बाँधी जाती है ॥३॥
प्रश्न- भगवान् अगर वायुकाय की रक्षा के लिए मुँहपती है तो सूक्ष्म वायुकाय को रक्षा के लिए है या चादर वायुकाय की रक्षा के लिए 1 उत्तर- सूक्ष्म वायुकाय की रक्षा के लिए
नहीं किन्तु बादर वायुकाय के जीवों को
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रक्षा के लिए है। सभी अर्हन्त ऐसा ही कहते हैं
11811
आजकल अपने को मुनि मानने वाले कोई कोई मुखfant के बाँधने का
પ્રશ્ન-ભગવન્! સુહુપત્તીના અથ શું છે?
ઉત્તર-ગૌતમ! તે હમેશાં મુખપર બાંધી રહે છે. તેથી તે સુહુપત્તી કહેવાય છે. પ્રશ્નનું પ્રચાજનથી સુંહપત્તી મુખપર માંધવી જોઈએ? ઉત્તર-મુહુપત્તી બાંધવી તે સાધુનું લિંગ છે એ માટે, તથા વાયુકાયના જીવાની રક્ષા માટે મુહપત્તી ખાંધે. (૩)
प्रश्न--(भगवन्! अगर बायुभयनी रक्षा भाटे, भुंडपत्ती छे, तो शुं सूक्ष्म વાયુકાયની રક્ષા માટે છે. અથવા માદર વાયુકાયની રક્ષા માટે છે? ઉત્તર—સૂક્ષ્મ વાયુકાયની રક્ષા માટે નહિ પરન્તુ ખાદર વાયુકાયના જીવોની रक्षा भाटे छे. सर्व अर्हन्त से प्रभावेन हे छे. (४) આજ કાલ પેાતાને મુનિ માનવાવાળા કઈ-કઈ મુખવસ્ત્રિકા માંધવાના નિષેધ
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माबारागाचे मुखवत्रिकाबन्धनं स्वीकुर्वन्त्येव । उक्तश्च जिनमतिशिष्यपूर्णभद्रगणिकतातिमुक्तकचरित्रे (श्लोकेषु ८०-८१-८२)
" अथानन्यमुखस्तिष्ठन् , पुरवो निश्चलासनः । मान्नलिवंदनद्वारे, दधानो मुखवत्रिकाम् ।। ८० ॥ इत्यादि यावत्श्रुश्रावासौ श्रुतस्यार्थ,-मतिमुक्तमुनिर्मुदा" ॥२॥ इति
विक्रमसंवत्सरे द्वघशीत्यधिकद्वादशशत (१२८२) परिमिते पूर्णभद्रगणिना विरचितोऽयमतिमुक्तकचरित्रनाघेयो ग्रन्यः, यस्यास्मिन् विक्रमसंवत्सरे द्वयधिकद्विसहस्र (२००२) परिमिते विंशत्यधिकसप्तशत (७२०) वर्षाणि व्यतीतानि इतश्च स्फुटमेतदवगम्यते मुखवस्त्रिकायन्धन-सादर परिगृहोतं तेपामाचार्यस्तदनुयायिभिश्च । निषेध करते हैं । परन्तु उनके आचार्य मुखवत्रिका बांधना स्वीकार करते हैं । जिनपति के शिष्यपूर्णभद्रगणिविरचित 'अतिमुक्तकचरित्र' (ग्लोक ८०-८१-८२). में कहा हैं:
___ "पर-पदार्थों में सुख न मानने वाला, निश्चल आसन से सामने हाथ जोडकर मुख पर मुँहपतो धारण किये हुभ अतिमुक्तक मुनिने श्रुतका अर्थ सुना ॥८०-८२।।
विक्रम संवत १२८२ में पूर्णभद्र गणिने यह अतिमुक्तकचरित्र नामक ग्रंथ लिखा है । इस संवत् २००२ तक उसे ७२० वर्ष हो चुके हैं । इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उनके आचार्योने और उनके अनुयायियोंने -मुखवत्रिका का - बाँधना आदरपूर्वक-- अंगीकार किया है।
કરે છે. પરંતુ તેમના આચાર્ય મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાનું સ્વીકાર કરે છે. જિનપતિના શિષ્ય પૂર્ણભકગણિ-વિરચિત “અતિમુક્તકચરિત્ર”માં શ્લોક ૮૦-૮૧-૮૨માં કહ્યું છે
પર પદાર્થોમાં સુખ નહિ માનવાવાળા નિશ્ચલ આસનથી સામે હાથ જોડીને મુખપર મુંહપત્તી ધારણ કરેલા અતિમુક્તક મુનિએ શ્રતને અર્થ સાંભ. ૮૦-૮રા
વિક્રમ સંવત ૧૨૮૨માં પૂર્ણભદ્ર ગણિએ આ અતિમુક્તક ચરિત્ર નામને ગ્રંથ લખ્યા છે. આ સંવત્ ૨૦૦૨ સુધીમાં તેને ૭૨૦ વર્ષ વ્યતીત થઈ ચૂક્યાં છે. એથી સ્પષ્ટ જાણમાં આવે છે કેઃમના આચાર્યોએ અને તેમના અનુયાયિઓએ. મુખત્રિકા બાંધવાનું આદરપૂર્વક અંગીકાર કર્યું છે.
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ ३.७ रु. ६ मुखवत्रिकाविचारः ७०९ .
अपरच जिनपतिशिष्य व विरचिते सनत्कुमारचरित्रे सनत्कुमाररतीय-पूर्वभविक-'विक्रमयशो'-नृपवर्णनेभिहितम्
" मुखेन्दुराजन्मुखवत्रिकय
__कयास लेमे विरजा द्विजौथैः । निपेवितः पान्तनिविष्टराज,---
इंसीव विभ्राजि सरः श्रियं यः॥१॥" सनत्कुमारः, तृतीयपूर्वजन्मनि विक्रमयशो नाम नृपोऽभवद् । स च परिपदि धर्मकथाश्रवणार्थ यथोपविष्टस्तद्वर्णनं कुर्वनाइ
" मुखेन्दुराजन्मुखवत्रिकथ" इत्यादि । व्याख्या-इन्दुरिव मुखं मुखेन्दुः, मुखेन्दी राजन्ती मुखवत्रिका यस्य स मुखेन्दुराजन्मुखरस्त्रिका, मुखोपरिनिवद्धातिशुक्लवस्त्रविनिर्मितदेदीप्यमानमुखवत्रिकः । विरजा निर्मलान्तः करणः,
इसके अतिरिक्त जिनपति के शिष्य लवद्वारा रचित सनत्कुमारचरित्र में सनत्कुमार के तीसरे पूर्वभववर्ती विक्रमयश नामक राजा का वर्णन करते हुए कहा है
सनत्कुमार अपने तृतीय पूर्वभव में विक्रमयश नामक राजा था । वह परिषद में धर्मकथा सुनने के लिए जिस प्रकार बैठा था उसका वर्णन करते हुए कहते हैं....'मुखेन्द.' इत्यादि । इसकी व्याख्या इस प्रकार है:----
जिसके मुखचन्द्र पर मुखवस्त्रिका सुशोभित थी अर्थात् मुख के ऊपर बँधी हई, सफेद वस्त्र की बनी हुई मुखवस्त्रिका से जिसका मुख शोभायमान हो रहा था, जिसका अन्तःकरण निर्मल था और जो दिनों के समूह से सेवित था ऐसा विक्रमयश
એ સિવાય જિનપતિના શિષ્ય વિદ્વારા રચિત સનકુમારચરિત્રમાં સનસ્કુમારના ત્રીજા પૂર્વભવવત્ત “વિક્રમશ' નામના રાજાનું વર્ણન કરતા થકા કહે છે કે
સનકુમાર પિતાના ત્રીજા પૂર્વભવમાં વિક્રમથશ નામના રાજ હતા, તે પરિષદમાં (સભામાં) ધર્મકથા સાંભળવા માટે જે પ્રમાણે બેઠા હતા તેનું વર્ણન કરતા થકા કહે
-'मुखेन्दु. त्यादि. शनी व्यायामा प्रमाणे -
જેના સુખચન્દ્ર પર મુખવાચિકા સુમિત હતી, અર્થાત મુખ ઉપર બાંધેલી સફેદ વસ્ત્રની બનેલી મુખવઝિકાથી જેનું મુખ ભાયમાન થઈ રહ્યું હતું, જેનું અન્તાકરણ નિમલ હતું, અને જે દ્વિજોના સમૂહથી સેવિત હતા, એવા વિક્રમ યશ નામના રાજા -
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आचारस
द्विजौधैः = द्विजसमृदै निपेचितः यः = विक्रमयशो नृपः कथासु धर्मकथापरिषत्नु श्रियं = शोभां लेभे =माप्तवान् । किमिव ? शान्ते निविष्टा राजहंसी यस्य तत् मान्तनिविष्टराजहंस, विभ्राजि - देदीप्यमानं सर इव ।
यथा प्रान्तनिविष्टया राजहंस्या विभ्राजमानं सरः श्रियं लभते तथा मुखोपरिनिवद्वदेदीप्यमानमुखवत्रिकया विक्रमयशो नृपः सदसि श्रियं लघवानित्यर्थः ।
करेण मुखवत्रिकाधारणे तु करतलावृतमुखबत्रिकाया दीप्तिः समाच्छादिता स्यात्, कथं तर्हि ' .... राजन्मुखवत्रिक : ' - इत्यत्र 'राजन् '- पदमयोग संसूचितमुखवस्त्रिकागतमभायाः प्रकाशमानता तिरोहिता भवेत्, तर्हि राजहंसीप्रभया 'विभ्राजी ' - ति सरोविशेषणेन साम्यमपि न सिद्धयेत् ।
नामक राजा धर्मकथा की परिषद् में शोमा को प्राप्त हुआ । कैसी शोभा को प्राप्त हुआ ? जैसे जिसके किनारे राजहंसी बैठी हो वह तालाव सुशोभित होता है ।
जिसके किनारे राजहंसी बैठी हो वह तालाव जैसे शोभित होता है उसी प्रकार मुख पर बंधी हुई और देदीप्यमान मुखवस्त्रिका से विक्रमयश राजा व्याख्यानपरिषद् में शोभित हुआ ।
अगर हाथ से मुखवस्त्रिका पकडी होती तो मुखवस्त्रिका को दीप्ति हथेली से छिप जाती। ऐसी स्थिति में '.... राजन्मुखवत्रिक:' इस पद में 'राजन' शब्द के प्रयोग से मस्वस्त्रिका की जो प्रभा सूचित की है वह प्रकाशमान कैसी होती ? फिर तो वह छिपी हुई प्रभा रहजाती 1 और फिर सरोवर के किनारे बैठी हुई राजहंसिनी को उनमा भो ठीक नहीं बैठ सकती ।
ધમ કથાની 'સભામાં શાભાને પામ્યા છે. કેવી શાભાને પામ્યા છે જેમકે—જેના કિનારે રાજસી એઠાં હાય તે તળાવ સુરભિત થાય છે.
1
જેના કિનારે રાજહુંસી એઠાં હોય તે તળાવ જેવી રીતે સુશોભિત હાય છે તે પ્રમાણે મુખ પર બાંધેલી અને ઝગમગાટ શાભાયમાન મુખવસ્તિકાથી વિક્રમયશ રાજા व्याच्या परिष६ - (सला ) भां शोलता हता.
· माभां ' राजन् '
અથવા હાથથી મુખસ્ત્રિકા પકડી હાતે તે તે મુખવઅંકાની દ્વીષ્તિ-પ્રકાશ इथेसीथी अर्ध लत सेवी स्थितिभां 'राजन्मुखवत्रिकः શબ્દના પ્રયાગથી મુખવગ્નિકાની જે મા(પ્રકાશ) સૂચિત કરી છે, તે પ્રકાશમાન કેવી રીતે થાત? પછી તેા તે ઢંકાએલી જેવી પ્રભા. રહી જાત અને પછી સાવરના કિનારે બેઠેલાં રાજહ ંસીની ઉપમા ખરાખર ઘટી શકત નહિ.,
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ ३. ७ मृ.६ मुखवत्रिकाविचारः .७११
अपरञ्च सरसि राजहंसी यथा सर्वथाऽनाता सती सरःशोभा जनयति तथा मुखवस्त्रिका नृपस्य श्रियं करोतीति तात्पर्य करतलेन मुखवस्त्रिकाधारणे कथमपि नोपपद्यते।
तस्मादेतत्सनत्कुमारचरित्रपद्यं विक्रमयशोनृपस्य सदोरकमुखवस्त्रिकावन्धनमासीदिति मुस्पष्टमावेदयति । ___ अहो! महीयान् मोहमहिमा यत्स्वकीयगुरुवराणां संप्रदायवाक्यमपिसमुल्ला यन्तो नवीना न कथचित्रपन्ते।
विस्तरतस्तु जिज्ञासुभिर्दशवैकालिकसूत्रस्य मत्कृताचारमणिमपाटीकायां मयमाध्ययने विलोकनीयम्।
इसके अतिरिक्त--जसे राजहंसिनी विलकुल उघाडी होकर ही सरोवर की शोभा बढाती है उसी प्रकार मुखवस्त्रिका राजा की शोभा बढाती थी। यह तात्पर्य हाथ से मुखवत्रिका धारण करने में किसी भी प्रकार नहीं घट सकता।
अतः सनत्कुकारचरित्र का यह पद स्पष्टरूप से प्रकट करता है कि-विक्रम यश राजा के मुख पर डोरासहित मुखवत्रिका बंधी थी।
अहो ! मोह की महिमा महान है, जिस के प्रभाव से माधुनिक लोग अपने गुरुओं के परम्परा वाक्य का उल्लंघन करते हुए भी लज्जित नहीं होते ।
विस्तार से समझने की इच्छा रखने वाले मेरी रची हुई दशवकालिक सूत्र की 'आचारमणिमंजपा-टीका के अन्दर पहले अध्ययन में देख सकते है।
એ સિવાય-જેવી રીતે રાજહંસની એકદમ ઉઘાડી થઈને જ સરોવરની શોભા વધારે છે, તેવી જ રીતે મુખવઝિકા રાજાની શોભા વધારતી હતી. આ તાત્પર્ય હાથથી મુખવસ્ત્રિકા ઘારણ કરે છે અથવા કરવાથી કેઈ પણ પ્રકારે બની શકે નહિ.
એ કારણથી સનકુમારચરિત્ર એ પદ સ્પષ્ટરૂપથી બતાવી આપે છે કે – વિક્રમ યશ રાજાના મુખપર દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા બાંધી હતી.
અહે! મોહને મહિમા મહાન છે, જેના પ્રભાવથી આધુનિક લોક પિતાના ગુરુઓના પરમ્પરા વાકયનું ઉલ્લંઘન કરતા પણ શરમાતા નથી.
વિસ્તારથી સમજવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા, મારી રચેલી દશવૈકાલિકસૂત્રની 'माचारमणिमंजुषा'-राजानी १२ पडेअध्ययनमा न छ .
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७१२
इति प्रवीमि इति तत्सर्वं प्रवीमि भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथया
"
मीत्यर्थः ॥ ०६ ॥
अथ पजीवनिकायारम्भकरणेन कर्मबन्धो भवतीत्याह-' एत्यपि इत्यादि ।
मूलम्
एपि जाण उपादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणाविणयं वयंति, छन्दोवणीया अज्झोववरण आरंभसत्ता पकरंति संगं ॥ सू० ७ ॥
छाया
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"
अवापि जानीहि उपादीयमानाः ये आचारो न रमन्ते, आत्ममाणा विनयं वदन्ति छन्दोपनीता अध्युपपन्नाः, आरम्भसक्ताः प्रकुर्वन्ति सङ्गम् ॥ सू० ७ ॥
सुधर्मा स्वामी कहते हैं - यह सब भगवान् के समीप जैसा सुना है, वैसा कहता हूँ || सू० ३ ॥
2
are यह कहते हैं कि-पड़जीवनिकाय का आरंभ करने से कर्मबंध होता है:-- 'पत्थपि . ' इत्यादि ।
मूकार्थ--वायुकाय के विषय में भी आरंभ करने वाले, कर्मों से बद्ध होते हैं, ऐसा समझो। जो आचार में रमण नहीं करते आरम्भ करते हुए भी अपने को चिनय (चारित्र) वाले मानते है, इच्छानुसार चलते है, गृद्ध हैं और आरम्भ में आसक्त हैं वे कर्मों उपार्जन करते हैं || सू० ७ ॥
સુધાં સ્વામી કહે છેઃ~~~આ સ* ભગવાનની સમીપમાં જેવું સાંભળ્યું છે તેવુંજ કહું છું. If ૬ In
-
હવે એ કહે છે કે-જીવનિકાયના આરલ, કરવાથી કમખલ થાય છેઃ'grify.' Jule,
;
મૂલા વાયુકાયના વિષયમાં પણ આરંભ કરવાવાળા, કર્મોથી ખદ્ધ થાય છે એ પ્રમાણે સમજો. જે આચારમાં સ્મણુ કરતા નથી, આરંભ કરતા થકા પણ પેાતાને विनय (यारित्र) वाणा भाने छे, छानुसार थाले छे, शुद्ध छे, मने सारसभां भासहत छे, ते भान पुरे हे ॥ सू० ७ ॥
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भाचार चिन्तामपिटीका अध्य. १ उ. ७ सृ. ६ पहजीवनिकायारम्भदोपः ७१३
टीका--- अत्रापि एतस्मिन् वायुकायेऽपि, अपिशब्दाद अवशिष्टे पृथिव्यादिचतुम्के स्थावरे प्रसकाये च ये भोगलोलुपाः स्वार्थवशगाः आरम्भं कुर्वन्ति, ते उपादीयमानाः ज्ञानावरणीयादिफर्मभिर्वध्यमाना भवन्तीत्येवं जानीहि ।
- एकजीवारम्मप्रवृत्तः शेपजीवनिकायारम्भजनितकर्ममिद्धो भवतीत्येवं विद्धीत्यर्थः । के पुनः पृथिव्याघारम्भकरणेन शेपजीवारम्भजन्यकर्मभिरपि वध्यमाना भवन्तीति जिज्ञासायामाह-'ये आचारे न रमन्ते' इति ।।
. ये आचारे ज्ञानदर्शनादिपञ्चविधाचारे न रमन्ते-न धृतिं कुर्वन्ति, तान् फर्मभिर्वध्यमानान् जानीहि । के पुनराचारे न रमन्ते ? दण्डिशाक्यादयः ।
कथमेतद्विज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह-' आरममाणा विनयं वदन्ति'
टीकार्थ-इस वायुकाय के विषय में भी-(अपि) शब्द से पृथ्वी आदि अन्य स्थावरों में तथा उसकाय में जो भोगों के लोलुप और स्वार्थपरायण होकर आरम्भ करते हैं, के ज्ञानावरण आदि कर्मों से बद्ध होते हैं, ऐसा समझो।।
तात्पर्य यह है कि-एक जीव के भारम्भ में प्रवृत्ति करने वाला शेप जीवनिकायोंके आरम्भ से उत्पन्न होने वाले कर्मों से भी बद्ध होता है।
ऐसे कौन हैं जो पृथ्वी आदि एक कायका आरम्भ करके शेष जीवनिकायों के आरम्म से होने वाले कर्मोद्वारा बद्ध होते हैं ? इस का समाधान करने के लिए कहते है
जो ज्ञानाचार दर्शनाचार आदि पाँच आचारों में स्थिर नहीं होते उन्हें कर्मबंध होता है, ऐसा जानो। भाचार में कौन स्थिर नहीं होते ? दण्डी तथा शाक्य आदि ।
यह कैसे ज्ञात हुआ ? इसके उत्तर में कहते हैं-वे पृथ्वीकाय आदि की विराधना ટીકાથ-આ વાયુકાયના વિષયમાં પણ “અપિ” શબ્દથી પૃથ્વી આદિ અન્ય સ્થાવરોમાં તથા ત્રસકાયમાં જે ભેગોના લાલચુ અને સ્વાર્થપરાયણ થઈને આરંભ કરે છે. તે જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોથી બદ્ધ થાય છે. એ પ્રમાણે સમજે.
તાત્પર્ય એ છે કે એક જીવના આરંભમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા બાકીના જીવ– નિકાના આરંભથી ઉત્પન્ન થવાવાળા કર્મોથી પણ બદ્ધ થાય છે.
એવા કેણુ છે કે જે પૃથ્વી આદિ એક કોયને આરંભ કરીને બાકીના જીવનિકાના આરંભથી થનારા કર્મો દ્વારા થાય છે? તેનું સમાધાન કરવા માટે કહે છે
જે જ્ઞાનાચાર-દર્શાનાચાર આદિ પાંચ આચારોમાં સ્થિર નથી થતા તેને કમર બધે થાય છે, એ પ્રમાણે જાણે.
આચારમાં કેણ સ્થિર નથી રહેતા? દહી અને શાકય આદિ, એ કેવી રીતે જાણ્યું? તેના ઉત્તરમાં કહે છે તે પૃથ્વીકાય આદિની વિરાધના
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आचारात्सूत्रे
इति । आरभमाणाः पृथिव्यादीन् पीडयन्तोऽपि विनयं कर्मणां विनयाद् विनयः संयमस्तं वदन्ति' वयमेव संयमि सेवनपराः ' इति निःशङ्कं निगदन्तीत्यर्थः ।
ननु स्वात्मानं संयमिनं मन्यमानास्ते कस्मात्पृथिव्यादिजीवहिंसनपराः १ इति जिज्ञासायां हेतुगर्भविशेपणपदद्वयमाह-'छन्दोपनीताः ' ' अध्युपपन्नाः ' इति । 'छन्दोपनीताः ' = छन्दः = स्वाभिमायः, तेनोपनीताः स्वतन्त्राः शास्त्रविरुद्ध विचारशीला इत्यर्थः ।
यद्वा छन्दः - अभिप्रायः इच्छा, विषयाभिलापस्तेनोपनीताः, तथा 'अभ्युपपन्नाः, ' अधि=अधिकम् अतिशयेन उपपन्नाः = तद्गतचित्ताः विषयसंनिविष्टचित्ताः विषयभोगार्थमातुरा इत्यर्थः । यतश्छन्दोपनीता अभ्युपपन्नाच तस्मात्ते पृथिव्यादीन् विहिंसन्तीति भावः । एवं पृथिव्यादिहिंसनेन पुनः कर्मवन्धं प्राप्नोतीत्याह- आरम्भसक्ताः' इत्यादि । आरम्भः = सावद्यव्यापारः, करते हुए भी अपने आपको निश्शंक होकर संयमी कहते हैं । वे यह मानते हैं कि हम ही संयम का सेवन करने में तत्पर हैं ।
वे लोग अपने आपको संयमी मानते हुए भी पृथ्वीकाय आदि के जीवों की हिंसा में तत्पर क्यों होते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर दो विशेषण कहते हैं, जिन में हेतु छिपा है'छन्दोपनीत ' और 'अध्युपपन्न'
छन्द का अर्थ है - अपना अभिप्राय, उससे स्वतंत्र विचार करने वाले । अथवा छन्द का अर्थ इच्छा है । कहाँ को छन्द कहा है, उस में जो स्वतंत्र हो । तथा अध्युपयन्न अर्थात् विषयों में अत्यन्त आसक्त - विषयभोगों के लिए आतुर । तात्पर्य यह है कि - छन्दोपनीत और अध्युपपन्न होने के कारण वे पृथ्वी आदि की हिंसा करते हैं और कर्मों का बंध करते हैं। आरम्भ કરવા છતાંય પણ પાતે-પેાતાને નિઃશંક થઈને સયમી કહે છે. તે એવું માને છે કે-અમે પણ સંયમનું સેવન કરવામાં તત્પર છીએ.
તે લેક પાતે-પેાતાને સંયમી માનતા થકા પણ પૃથ્વીકાય આદિના જીવાની હિંસામાં તત્પર શા માટે હોય છે? એવી જીજ્ઞાસા થતાં એ વિશેષણુ કહે છે જેમાં હેતુ छुपायेले। छे 'छन्दोपनीत' भने 'अध्युपपन्न' '७न्ह'तो अर्थ छे पोतानो अलिप्राय तेनाथी સ્વતંત્ર અર્થાત્ શાસ્ત્રથી વિરુદ્ધ વિચાર કરવાવાળા, અથવા છન્દ્વના અથ ઈચ્છા છે. અહિં વિષયભાગાની અભિલાષાને છન્દ કહેલ છે. તેમાં જે સ્વતંત્ર હોય. તથા અધ્યુપપન્ન અર્થાત્ વિષયામાં અત્યન્ત આસકત--વિષયભેગા માટે આતુર. તાત્પર્યં એ છે કે છદીપનીત અને અગ્રુપપન્ન હોવાના કારણે તે પૃથ્વી આદિની હિંસા કરે છે અને મારા અધ કરે છે. આરંભ અર્થાત્~સાવધ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત પુરુષ જ્ઞાનાવરણીય
अर्थात् शास्त्र से विरुद्ध विषयभोगों की अभिलाषा
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ मुं०७ पइजीवनिकायारम्भदोपः ७१५ तत्र सक्ता प्रवृत्ताः, सङ्ग-सज्यन्ते-श्लिप्यन्ते जीवा अनेनेति सङ्गा-ज्ञानावरणीयादिकं कर्म, तं सङ्गप्रकुर्वन्ति-समुत्पादयन्ति ।
एवं पड्जीवनिकायारम्भकारिणः खलु कर्मबन्धनपराधीनतां समुपेत्य जन्मजरामरणेप्टवियोगानिष्टसंयोगेप्सिताऽसिद्धिविविधव्याधिजनितदुःख संकुलेघोरतरसंसारदावानले पुनः पुनः स्वात्मानमिन्धनीकुर्वन्तीति भावः ।। सू०७॥
अथ यस्तु पृथिव्यादिपइनीवनिकायारम्भकरणाद्विनिवृत्तः स एव मुनिर्मवतीत्युद्देशार्थमुपसंहरन्नाइ~' से वसुम.' इत्यादि ।
से वसुमं सबसमयागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्ज पावं कम्मं जो अण्णेसि ॥ सू०८॥
छाया--- स बसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पाप कर्म नो अन्वेपयेत् ॥ मू०८॥ अर्थात् सावध व्यापार में प्रवृत्त ज्ञानावरणीय आदि कर्मी को ऊपार्जन करते हैं।
इस प्रकार पड्जीवनिकाय का आरम्भ करने वाले कर्मवन्धन के अधीन होकर जन्म मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, इट की असिद्धि तथा विविध प्रकार की व्याधियों से उत्पन्न होने वाले दुःखों से व्याप्त, घोरतरसंसाररूपी दावानल में अपने आत्मा को ईंधन बनाते हैं। सू०७॥
जो पृथ्वी आदि पड्जीवनिकाय के आरम्भ से निवृत्त है वही मुनि होता है; इस उद्देश के अर्थ का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं:-'से वसुमं.' इत्यादि।
मलार्थ-वहीं वसुमान है (सन्याव-चारित्रवान्-सम्यादृष्टि है) जो यथार्थ पदार्थो को जाननेवाले ज्ञानात्मा से पाप को अकरणीय समझकर नहीं करता है । सू० ८ ॥ આદિ કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે,
આ પ્રમાણે વરૂછવનિકાયને આરંભ કરવાવાળા કર્મબન્ધને આધીન થઈને જન્મ, જરા, મરણ, ઈટવિયોગ, અનિષ્ટસંગ, ઈડેલી વસ્તુની અપ્રાપ્તિ, તથા વિવિધ પ્રકારની વ્યાધિઓથી ઉત્પન્ન થનારાં દુખેથી વ્યાપ્ત, ઘેરતર સંસારરૂપી દાવાનલમાં પોતાના આત્માને ઈધન-(બળતણરૂપ) બનાવે છે. તે સૂ૦ ૭
જે પૃથ્વી આદિ વડૂજીવનિકાયના આરંભથી નિવૃત્ત છે તેજ મુનિ હોય છે. मा देशना मना 6५ २ ४रीने शा१२ ४९ छ:-"से वसुमं.' त्यादि.
મૂલાથ–તેજ વસુમાન છે (સમ્યફવ-ચારિત્રવાન્ સમ્યગ્દષ્ટિ છે, જે યથાર્થ પદાર્થોને જાણવાવાળા જ્ઞાનામાથી પાપને અકરણીય (કરવા ગ્ય નથી એવું) સમજીને કરતા નથી. સૂત્ર
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आचाराङ्गसूत्रे
इति । आरभमाणाः, पृथिव्यादीन् पीडयन्तोऽपि विनयं = कर्मणां विनयाद् विनयः संयमस्तं वदन्ति = ' घयमेव संयमि सेवनपरा:' इति निःशङ्कं निगदन्तीत्यर्थः ।
ननु स्वात्मानं संयमिनं मन्यमानास्ते कस्मात्पृथिव्यादिजीवहिंसनपराः १ इति जिज्ञासायां हेतुगर्भविशेषणपदद्वयमाह-'छन्दोपनीताः 'अभ्युपपन्नाः ' इति । 'छन्दोपनीताः 'छन्दः = स्वाभिप्रायः, तेनोपनीताः स्वतन्त्राः शास्त्रविरुद्ध विचारशीला इत्यर्थः ।
यद्वा छन्दः - अभिप्रायः = इच्छा, विषयाभिलापस्तेनोपनीताः, तथा 'अभ्युपपन्नाः, ' अधि=अधिकम् अतिशयेन उपपन्नाः तद्गतचित्ताः विषयसंनिविष्टचित्ताः विषयभोगार्थमातुरा इत्यर्थः । यतञ्छन्दोपनीता अभ्युपपन्नाच तस्मात्ते पृथिव्यादीन विहिंसन्तीति भावः । एवं पृथिव्यादिहिंसनेन पुनः कर्मवन्धं प्राप्नोतीत्याह- 'आरम्भसक्ताः' इत्यादि । आरम्भः = सावद्यव्यापारः, करते हुए भी अपने आपको निश्शंक होकर संयमी कहते हैं । वे यह मानते हैं कि हम ही संयम का सेवन करने में तत्पर हैं ।
वे लोग अपने आपको संयमी मानते हुए भी पृथ्वीकाय आदि के जीवों की हिंसा में तत्पर क्यों होते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर दो विशेषण कहते हैं, जिन में हेतु छिपा है'छन्दोपनीत ' और 'अध्युपपन्न'
छन्द का अर्थ है-अपना अभिप्राय, उससे स्वतंत्र अर्थात् शास्त्र से विरुद्ध विचार करने वाले । अथवा छन्द का अर्थ इच्छा है । कहाँ विषयभोगों की अभिलाषा को छन्द कहा है, उस में जो स्वतंत्र हो । तथा अध्युपयन्न अर्थात् विषयों में अत्यन्त आसक्त - विषयभोगों के लिए आतुर । तात्पर्य यह है कि - छन्दोपनीत और अध्युपपन्न होने के कारण वे पृथ्वी आदि को हिंसा करते हैं और कर्मों का बंध करते हैं । आरम्भ કરવા છતાંય પણ પાતે-પેતાને નિઃશંક થઈને સંચમી કહે છે. તે એવું માને છે કે: અમે પણ સંયમનું સેવન કરવામાં તત્પર છીએ.
તે લેાક પેાતે-પેાતાને સંયમી માનતા થકા પણ પૃથ્વીકાય આદિના જીવાની હિંસામાં તત્પર શા માટે હોય છે? એવી જીજ્ઞાસા થતાં એ વિશેષણ કહે છે જેમાં હેતુ छुपाये। छे 'छन्दोपनीत' अने 'अध्युपपन्न' 'छन्द'नो अर्थ छे पोताना अलिप्राय तेनाथी સ્વત ંત્ર અર્થાત્ શાસ્ત્રથી વિરુદ્ધ વિચાર કરવાવાળા, અથવા છન્દના અથ ઇચ્છા છે. અહિં વિષયલાગેાની અભિલાષાને છન્દ કહેલ છે. તેમાં જે સ્વતંત્ર હાય. તથા અધ્યુપપન્ન અર્થાત વિષયામાં અત્યન્ત આસકત વિષયભાગેા માટે આતુર. તાપ એ છે કે છટ્ઠાપનીત અને અગ્રુપપન્ન હવાના કારણે તે પૃથ્વી આદિની હિંસા કરે છે અને કર્મોના બંધ કરે છે. આરંભ અર્થાત્—સાવદ્ય વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત પુરુષ જ્ઞાનાવરણીય
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्यं. १ उं. ७ . ८ वायुविराधनापरिहारः
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-कलदाऽभ्याख्यान- पैशुन्य - परपरिवाद - रत्यरति मायामृपा - मिथ्या- दर्शनशल्याभिधानमष्टादशप्रकारं नान्वेपयेत्न स्वयं कुर्यात् न चान्यैः कारयेत् न चान्यं कुर्वाणमनुमोदयेदित्यर्थः ।
योsयमात्मा स्वकीयमज्ञानेन सर्वद्रव्यपर्यायसमाकलनयोग्यतां धारयति, येन च मोक्षमार्गावलम्बनतः शिवपदमपि शक्यते गन्तुम्, तस्यात्मनः पुनरधःपतनकारित्वाद पापं कर्म सर्वया परित्याज्यमिति विभाव्य पजीवनिकायारम्भकरणासर्वधा विनिवर्तितव्यमिति भावः ।। ० ८ ॥
पजीवनिकायारम्भस्य सर्वथा परिहार एवं मुनित्वं प्रापयतीत्याह--' तं परिणाय ' इत्यादि ।
मूलम् -.
तं परिणाय मेहाची व सयं छज्जीवनिकायसत्यं समारंभेज्जा पोवऽण्णेहिं छज्जीवनिकायसत्यं समारंभावेज्जा, पत्रऽण्णे छज्जीवनिकायसत्यं (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति--अरति (१७) माया - मृपा और (१८) मिथ्यादर्शनरूप अठारह प्रकार का पाप जो स्वयं नहीं करता है, दूसरों से नहीं कराता है और दूसरे करने वाले का अनुमोदन नहीं करता है वही पुरुष वसुमान् है ।
तात्पर्य यह है कि जो आत्मा अपने प्रज्ञान से समस्त द्रव्यों और पर्यायों को भली भाँति जानने की योग्यता धारण करता है और जो मोक्ष मार्ग का आश्रय लेकर मुक्तिपद भी प्राप्त कर सकता है उसको 'आत्मा का अधःपतन करने वाले पापकृत्य सर्वथा त्याज्य हैं? ऐसा विचार करके यड्जीवनिकाय के आरंभ से विरत हो जाना चाहिए ||सू० ८|| पटुकाय के आरंभ का त्याग ही साधुता प्राप्त कराता है, यह बात आगे कहते हैं:- 'तं परिण्णाय.' इत्यादि ।
(८) भाया, (ङ) बोल, (१०) राज, (११) द्वेष, (१२) ४सड, (१३) अल्याभ्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) परपरिवाह, (१६) इति भरति, (१७) भाया - भृषा भने (१८) મિથ્યાદર્શનરૂપ અઢાર પ્રકારનાં જે પાપ તેને તે કરતા નથી, બીજા પાસે કરાવતા નથી, અને ખા કરવાવાળાને અનુમેદન આપતા નથી. તેજ પુરૂષ વસુમાન છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે આત્મા પેાતાના પ્રજ્ઞાનથી સમસ્ત દ્રવ્યે અને પર્યાયને રૂડી રીતે જાણવાની યોગ્યતા ધારણ કરે છે, અને જે મેાક્ષમાગના આશ્રય લઇને મુક્તિપદ પણ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, તેને, આત્માનું અધઃપતન કરનારાં પાપકૃત્ય સવ થા ત્યાજ્ય છે’ એવા વિચાર કરીને પ′′નિકાયના આરભથી નિવૃત્ત થઈ જવું ોઈએ. સૂ॰ દ્વા ષકાયના આરસના ત્યાગજ સાધુતા પ્રાપ્ત કરાવે છે. એ વાત આગળ કહે છેઃ'तं परिण्णाय.' इत्याहि.
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७१६
आचारात्सूत्रे
टीका
यस्तु पदजीवनिकायारम्भनिवृत्त्या संयमपालनपरायणः, स वसुमान्, द्विविधानि हि वसूनि सन्ति द्रव्यभावभेदात् तत्र द्रव्यवमूनि - सुवर्णादीनि, भाववसूनि - सम्यक्त्वादीनि अत्र भावयतात्पर्यको वसुशब्दः, तानि वसूनि यस्य यस्मिन् वा सन्ति स वसुमानित्यर्थः, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन सर्वाणि समन्यागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतमज्ञानः यथावस्थितविषयग्राहिसर्वविषयकज्ञानवान् तेन ।
,
1
यद्वा - सर्वेषु द्रव्यं पर्यायेषु समन्वागतं = सम्यक्रमाप्तं तत्तद्विपयमाकलय्य सर्वद्रव्यपर्यायगतं प्रज्ञानं यस्य स सर्वसमन्वागतमज्ञानः, तेन, आत्मना, अकरणीयम् - अकर्तयन्म्, ऐहिकपारलौकिकसुखविघातकत्वादनाचरणीयम् इति मत्वा, पापं कर्म माणातिपात - मृपावादां- दत्तादान - मैथुन- परिग्रह - क्रोध-मान- माया-लोभ-राग-द्वेष
"
टोकार्थ---जो पुरुष पड्जीवनिकायसंबंधी आरम्भ का व्याग करके संयम के पालन में तत्पर होता है वहीं वसुमान् हैं। वसु के दो भेद हैं- (१) द्रव्यवसु और (२) भाववसु । स्वर्ण आदि धन द्वन्यवसु कहलाता है, और तप संयमादिरूप ऋद्धि को भाववसु कहते हैं । यहाँ 'वसु' शब्द से भाववसु ही समझना चाहिए। वसु जिसे प्राप्त हो वह वसुमान् है, अर्थात् सम्यक्त्व आदि से युक्त पुरुष वसुमान् कहलाता है ।
जो वस्तु जैसी हैं उसे उसी रूप में जानने वाला सर्वग्राही ज्ञान 'सर्वसमन्वागत प्रज्ञान' कहलाता है । अथवा समस्त द्रव्यों और पर्यायों को यथार्थरूप से जानने वाला ज्ञान 'सर्वसमन्वागत प्रज्ञान' कहलाता है । ऐसे ज्ञानरूप आत्मा से पाप को इस लोक तथा परलोकसंबंधी सुखों का घातक होने से अकर्तव्य समझकर (१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन 1 (५) परिग्रह (६) क्रोध, (७) मान (८) माया (९) लोभ
ટીકા જે પુરૂષ ષડ્ઝનિકાયસખ`ધી આરંભના ત્યાગ કરીને સયમના घासनभां तत्पर थाय छे. ते वसुभान् (सभ्य हष्टि) छे. वसुना में लेह छे. (१) द्रव्यવસુ અને (ર) ભાવવસુ, સુવણૅ આદિ ધન દ્રવ્યવસુ કહેવાય છે. અને સમ્યક્ત્વ આદિ રૂપ ઋદ્ધિને ભાવવસુ કહે છે. 'અહિં વસુ' શબ્દથી ભાવવસુ જ સમજવું જોઇએ. વસુ જેને પ્રાપ્ત હોય તે વસુમાન છે. અર્થાત્ સમ્યક્ત્વ આદિથી યુક્ત પુરૂષ વસુમાન કહેવાય છે. જે વસ્તુ જેવી છે તેને તેવા રૂપમાં જાણવાવાળા સર્વગ્રાહી જ્ઞાન સર્વ સમન્વા ગત પ્રજ્ઞાન, કહેવાય છે. અથવા સમસ્ત દ્રબ્યા અને પર્યાયાને યથાર્થ રૂપથી જાણુવાવાળું જ્ઞાન સર્વ સમન્વાગત જ્ઞાન” કહેવાય છે. એવા જ્ઞાનરૂપ આત્માથી પાપને આ લેાક તથા પરલેકસ બધી સુખાનું ઘાતક હોવાથી અકર્તવ્ય સમજીને (૧) પ્રાણાતિપાત, (२) भृषावाह, (3) महत्ताहीन, (४) मैथुन, (4) परिथड, (९) हाथ, (७) भाक
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आचारचिन्तामणि- टीका अभ्यं. १ उ. ७ सू. ८ वायुविराधनापरिहारः
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-कदाऽभ्याख्यान- पैशुन्य - परपरिवाद - रत्यरति मायामृपा - मिथ्या- दर्शनशल्याभिधानमष्टादशप्रकारं नान्वेपयेत् न स्वयं कुर्याद, न चान्यैः कारयेत् न चान्ये कुर्वाणमनुमादयेदित्यर्थः ।
योsयमात्मा स्वकीयमज्ञानेन सर्वद्रव्यपर्यायसमाकलनयोग्यतां धारयति, येन Head: शिवपदमपि शक्यते गन्तुम्, तस्यात्मनः पुनरधःपतनकारित्वात् पापं कर्म सर्वया परित्याज्यमिति विभाव्य पजीवनिकायारम्भकरणासर्वथा विनिवर्तितव्यमिति भावः ॥ सु० ८ ॥
पजीवनिकायारम्भस्य सर्वथा परिहार एवं मुनित्वं प्रापयतीत्याह तं परिणाय' इत्यादि ।
मूलम् -
तं परिणाय मेहावी व सयं छज्जीवनिकायसत्यं समारंभेज्जा asure छज्जी निकायसत्यं समारंभावेज्जा, rasoi छज्जीवनिकायसत्यं (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति-अरति (१७) माया - मृया और (१८) मिध्यादर्शनरूप अठारह प्रकार का पाप जो स्वयं नहीं करता है, दूसरी से नहीं कराता है और दूसरे करने वाले का अनुमोदन नहीं करता है वही पुरुष वसुमान् है ।
तात्पर्य यह है कि जो आत्मा अपने प्रज्ञान से समस्त कयों और पर्यायों को भली भाँति जानने की योग्यता धारण करता है और जो मोक्ष-मार्ग का आश्रय लेकर मुक्तिपद भी प्राप्त कर सकता है उसको 'आत्मा का अधःपतन करने वाले पापकृत्य सर्वथा त्याज्य हैं' ऐसा विचार करके षड्जीवनिकाय के आरंभ से विरत हो जाना चाहिए | सू० ८|| काय के आरंभ का व्याग ही साधुता प्राप्त कराता है, यह बात आगे कहते हैं: -- 'तं परिण्णाय.' इत्यादि ।
(८) भाया, (ङ) बोल, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) उस, (१३) अभ्याभ्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) परपरिवाह, (१६) रति-मरति, (१७) भाया -भूषा भने (१८) મિથ્યાદર્શનરૂપ અઢાર પ્રકારનાં જે પાપ તેને તે કરતા નથી, બીજા પાસે કરાવતા નથી, અને બીજા કરવાવાળાને અનુમેદન આપતા નથી. તેજ પુરૂષ વસુમાન છે. તાત્પર્ય એ છે કેઃ—જે આત્મા પોતાના પ્રજ્ઞાનથી સમસ્ત દ્રવ્યે અને પોચાને રૂડી રીતે જાણવાની યોગ્યતા ધારણ કરે છે, અને જે મેાક્ષમાના આશ્રય લઇને મુક્તિપદ્ધ પણ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, તેને, ‘આત્માનું અધઃપતન કરનારાં પાપકૃત્ય સર્વથા ત્યાજ્ય છે? એવે વિચાર કરીને પડ્વવનિકાયના આરંભથી નિવૃત્ત થઈ જવું જોઈએ. સૂિ
ષટ્કાયના આર બને ત્યાગજ સાધુતા પ્રાપ્ત કરાવે છે. એ વાત આગળ કહે છેઃ' तं परिण्णाय.' त्यिाहि.
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आचारागयो समारंभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते छज्जीवनिकायसत्यसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिणायकम्मे-त्ति बेमि ॥ स०९॥
॥ सत्तमो उद्देसो समत्तो ।। १ ॥ ७॥ || आयारमुत्ते पढमज्झयणं समत्तं ॥१॥
छायातत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पड्जीवनिकायशस्त्रं समारभेत, नेवान्यः पड्जीवनिकायशस्त्रं समारम्भयेत, नैवान्यान् पड्जीवनिकायशस्त्रं समारममाणान् समनुजानीयात् । यस्यैते पड्जीवनिकायशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ सू० ९ ॥
॥ सप्तम उद्देशः समाप्तः ॥१-७॥ ॥ आचारसत्रे प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ॥
टीकातत्-पड्जीवनिकायारम्भणं, परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया 'कर्मवन्धस्य कारणं भवतीति बुद्ध्वा मेधावी हेयोपादेयविवेकनिपुणः, नैव स्वयं पड्जीवनिकायशस्त्रं समारभेत । अन्य व समारम्भयेनैव प्रयोजयेत् । अन्यान् पइजीवनिकायशस्त्रं समारभमाणान् नैव समनुजानीयात्-नैवानुमोदयेत् ।
यस्यैते पड्जीवनिकायशस्त्रसमारम्माः-पडूजीवनिकायानां शस्त्रैः
मूलार्थ--यह बात जानकर बुद्धिमान् पुरुप पड्जीवनिकायसंबंधी शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से पड्जीवनिकायसंबंधी शस्त्र का समारंभ न करावे, और षड्जीवनिकायसंबंधी शस्त्र का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे । पड्जीवनिकायसंबंधी आरंभ को जो बंध का कारण जान लेता है, वही मुनि है और वही परिज्ञातकर्मा है । ऐसा मैं कहता हूँ |सू० ८॥
टीकार्थ-पड्जीवनिकाय के आरम्भ को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण जानकर हेय-उपादेय का विवेक रखने वाला पुरुष पड्जीवनिकाय के शस्त्र का स्वयं आरम्भ न करे, दूसरों से न करावे और आरम्भ करने वालों की अनुमोदना न करे ।
पड्जीवनिकायसंबंधी जो शस्त्र पहले बतलाये जा चुके हैं उनके द्वारा पइजीवनिकाय को
મલાથ–એ વાત જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ પછવનિકાયસંબંધી શસ્ત્રને સમારંભ કરે નહિ, બીજા પાસે જવનિકાયસંબંધી શઅને સમારંભ કરાવે નહિ, અને પડજીવનકાયસંબંધી અને સમારંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ.
જીવનિકાયસંબંધી આરંભને જે બંધનું કારણ જાણી લે છે. તેજ મુનિ છે, અને त परिक्षातभा छ. ई ई ई थुः ।। सू० ८॥
શ્રીકાથ–પજીવનિકાયના આરંભને પરિસ્સાથી કર્મબંધનું કારણ જાણીને હેયઉપાદેયને વિવેક રાખવાવાળા પુરૂષ પછવનિકાયને શસ્ત્રનો પતે આરંભ કરે નહિ બીજા પાસે કરાવે નહિ, અને આરંભ કરનારને અનુમોદન આપે નહિ.
પહજીવનિકાયસંબંધી જે શસ્ત્ર પ્રથમ બતાવી આપ્યાં છે. તેના દ્વારા જ નકાયને
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ.७ पृ. ९ उपसंहार:
७१९ स्वस्वशस्त्रैः समारम्भा पीडाकरसावधव्यापाराः परिज्ञाता परिक्षया बन्धकारणत्वेन विदिताः, प्रत्याख्यानपरिजया च परिहृता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा त्रिकरणत्रियोगः: परिवर्जितसकलसावधव्यापारः, मुनिर्भवति । इति एतत् सर्वम् , ब्रवीमि भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथयामि ॥ मू०९॥
॥ इत्याचारामने आचारचिन्तामणिटीकायां शास्त्रपरिज्ञाख्ये
प्रथमाध्ययने सप्तमोद्देशः सम्पूर्णः ॥ १-७॥ पीडा पहुंचाने वाले सावध व्यापारों को जपरिज्ञा से कर्मबंघ का कारण जानकर प्रत्याख्यानपरिक्षा से त्याग देता है वही पुरुष तीन करण औन तीन योग से सावध व्यापारों का त्यागी मुनि होता है । यह सब भगवान् के मुखारविन्द से जैसा मैंने साक्षात् मुना है वसाही कहता हूँ ।। सू० ९॥
॥ इति श्री आचारागसूत्रकी आचारचिन्तामणिटीका के हिन्दी-अनुवादमें
प्रथम अध्ययनका सातवा उद्देश सम्पूर्ण ॥१॥
પિડા પહોંચાડવાવાળા સાવધ વ્યાપારને જે રૂપરિક્ષાથી કર્મબંધનું કારણ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી ત્યજી દે છે, તે પુરૂષ ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચોગથી સાવદ્ય વ્યાપાર ત્યાગી મુનિ હોય છે. આ સર્વે ભગવાનના મુખારવિંદથી જેવું મેં સાક્ષાત सामन्यु छ, तर ४ छु. ॥ सू०६॥
छति श्रीमायानसूत्रनी 'आचारचिन्तामणि' सना शुभरातीमनुवाहमा
પ્રથમ અધ્યયનને સાતમે ઉદ્દેશ સંપૂર્ણ. ૧-૭
MARA
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७२०
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आधे चाध्ययने प्ररूपितमिदं संसारचक्रेऽनिशं,
भ्राम्यन् दिक्षु विदिक्षु गच्छति ततश्चात्मा समागच्छति । इत्येवं कथितं मही-जल-शिखि-प्राण-द्रमाणां तया,
जीवत्वं प्रस-कायिकस्यचतदारम्मे परिवाऽपि च ॥ १ ॥ · इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशमाषाकलित
ललितकलापालापक-मविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दकश्रीशाहछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितफोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारिजैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालप्रति विरचितायाम् आचाराङ्गसूत्रस्याऽचारचिन्ता मणिटीकायां शस्त्रपरिज्ञाख्यं मयममध्ययनं संपूर्णम् ॥ १॥
-
प्रथम अध्ययन में यह निरूपण किया गया है कि-आत्मा संसार चक्र में पड़कर नाना दिशाओं में और नाना विदिशाओं में निरन्तर भ्रमण करता रहता है । साथ ही पृथ्वी, अप् , तेज, वायु बनस्पति और, ब्रस की सचित्तता भी सिद्ध की गई है, और उनका भारम्भ करने में परिज्ञा भी प्रदर्शित की गई है ॥ १ ॥
॥ इति श्री-आवारागसत्रको आचारचिन्तामणि' टीका के हिन्दी अनुवाद में 'शत्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन
પ્રથમ અધ્યયનમાં એ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે કે – આમાં સંસારચક્રમાં પડીને અનેક દિશાઓમાં અને અનેક વિદિશાઓમાં નિરન્તર ભ્રમણ કરતો રહે છે. સાથેજ પૃથ્વી, અપ, તેજ, વાયુ, વનસ્પતિ અને ત્રસની સચિત્તતા પણ સિદ્ધ કરી છે. અને તેને આરંભ કરવામાં પરિણા–વિવેક પણ પ્રદર્શિત કરેલ છે. / ૧ /
पति श्री आयारागसूत्रनी 'थाचारचिन्तामणि' न गुमशती सनुवाहमा 'शस्त्रपरिज्ञा' नाभनुं प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण ॥१॥
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દાતાઓની નામાવલી
આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, મુરબ્બીશ્રી, સહાયક મેમ્બર
તથા મેમ્બરની યાદી
ગામવાર કક્કાવારી લીe
તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૨૮-૨-૧૮ સુધીમાં
દાખલ થએલ મેમ્બરે.
-
-
.
.....
છે (૨૫૦ થી ઓછી રકમ આ યાદીમાં સામેલ કરી નથી.)
પાન કા નગમા રકમ ન કર
| શ્રી અખિલ ભારત શ્વે સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
ગરેડીઆ કુવા રેડ-ગ્રીન લોજ પાસે
રાજકેટ.
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:
*→*
નખર
નામ
ગામ રૂપિયા
૧ શેઠશાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા મંગલમાલીક અમદાવાદ ૧૦૦૦૦ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ વારીયા, હા. શેઠ લાલચંદભાઈ, જેચંદભાઈ નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ, તથા વલભદાસભાઈ ભાણવડ ૬૦૦૦
૨
K
આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ-૪
( ઓછામા ઓછી રૂા. ૫૦૦૦ ની. રકમ આપનાર)
૩ કાઠારી જેચંદ્રભાઈ અજરામર હા. હરગાવીદભાઈ એચ દભાઈ
૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ
૨ દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ
3 શ્વેતા ગુલાખચંદ પાનાચંદુ
૨.
મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૨
( ઓછામાં એછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર )
વકીલ જીવરાજભાઈ વમાન કાઢારી હા. કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ
૪ સ્વ. પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે હે. ભાવસાર ભાગીલાલ છગનલાલ
૫ મ્હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય
*
સઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાખચંદ ૭ શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી
. નામદાર ઠાકર સાહેબ લખધીરસ હજી બહાદુર
શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ્ર હેરચંદ
શાહ છગનલાલ હેમચંદ વસા
હા. માહનલાલભાઈ તથા માર્તીલાલભાઈ
૧૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સધ
૧૨
મ્હેતા સામચંદ તુલસીદાસ તથા તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. મણીગૌરી મગનલાલ
રાજકોટ પ૨૫૧ સાલાપુર ૫૦૦૧
:૧૩ મ્હેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ
૧૪ દાશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામભાઈ
૧૫-મગરી જગજીવનદાસ .રતનશી
જેતપુર ૩૬૦૫ રાજાટ ૩૬૦૪
૩૨૮૯ના
..
અમદાવાદ ૩૨૫૧ ઘાટકીપર ૩૨૫૦ જામનગર ૩૧૦૧ રાજકોટ ૨૫૦૦ મારી ૨૦૦૦
સિદ્ધપુર ૨૦૦૦
મુખઇ ૨૦૦૦ મારી ૧૯૬૩
રતલામ ૧૫૦૦
જામજોધપુર ૧૩૦૧
૧૦૨
,
ક્રામનગર ૧૦૦૬ -
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૧૬ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૧૭ શેઠ માણેકલાલ ભાણાભાઈ
પિરિબંદર ૧૦૦૧ ૧૮ શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી મહેતા (રેલ્વે મેનેજર સાહેબ) કલકત્તા ૧૦૦૧ ૧૯ મહેતા સમચંદ નેણસીભાઈ (કરાંચીવાલા) મોરબી ૧૦૦૧ ર. શાહ હરીલાલ અનોપચંદભાઈ
ખંભાત ૧૦૦૧ ૨૧ ફોઠારી છબીલદાસ હરખચંદભાઈ
મુંબઈ ૧૦૦૦ ૨૨ કેરી રંગીલદાસ હરખચંદભાઈ
સિહોર ૧૦૦૦ સહાયક મેમ્બરો-૩૬ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ શાહ રંગજીભાઈ મેહનલાલ
અમદાવાદ ૭૫૧ ૨ મોદી કેશવલાલ હરીચંદ્ર
સાબરમતી ઉપર ૩ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ઝુંઝાભાઈ વેલસીભાઈ
વઢવાણ શહેર ૭૫૦ ૪ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ
જોરાવરનગર ૭૦૦ પ શોઠ રતનશી હીરજીભાઈ હે. ગોરધનદાસભાઈ જામજોધપુર ૫૫૫ ૬ બાટવીયા ગીરધાર પ્રમાણંદ હા. અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીઆ પંર૭ ૭ મોરબીવાળા સંઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા
તેમના ધર્મપત્નિ એ. સી. મણીબાઈ તસ્કુથી હા. મુળચંદ દેવચંદ (કરાંચીવાળા)
મલાડ ૫૬૧ ૮ વાર મણલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ ૧૦૨ હ ગોસળીયા હરીલાલ લાલચંદ તથા
. સૌ. ચંપાબેન ગોસળીયા ૧૦ શેઠ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા એ. સી. સમરતબેન
(રાજસીતાપુરવાળા) અમદાવાદ પર ૧૧ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂતમદાસ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૨ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૩ શાહ શાન્તીલાલ માણેકલાલ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાંચીવાળા)
લીંબડી ૧૫ કામદાર તારાચંદ પોપટલાલ રાજીવાળા - રાજકેટ ૫૦૦ ૧૬ મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ
રાજકેટ પ૦૦ ૧૭ શેઠ ગોવીંદજી પિપટભાઈ
રાજકોટ પહo ૧૮ શેઠ રામજીભાઈ શામજી વીરા
-
રાજકેટ ૫૦૧
અમદાવાદ પર
૫૦૧
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સવ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે
હ, વેરચંદ શાન્તીલાલ (જાબુવાળા) મેઘનગર પ૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હ. શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી
ઓરંગાબાદ ૫૦૦ ૨૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
ઔરંગાબાદ ૧૫૦ શેઠ શેપમજી જીવરાજ ૧૨૫ , અનરાજજી લાલચંદજી : ૧૨૫ ધુડચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ દગડુમલજી ચાંદમલજી -૧ ,
૫૦૦
૨૩ મહેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા, મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ પ્રાણા ૫૦૦ ૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરૂત્તમ હા, ઈન્દુકુમારભાઈ. . . ચારવાડ ૫૦૧ રપ શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા . . , રાણાવાસ ૫૦૧ ૨૬ સ્થા. જૈનસંઘ હા. બાટવીયા અમીચંદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ૫૦૧ ૨૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ , . .. . . . .
હા. ફુલચંદભાઈ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. મુળજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ પટેલ ૨૯ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હશેઠ બાલચંદ સાકરચંદ મુંબઈ ૫૦૧
કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) - • મુંબઈ. ૫૦૧ ૩૧ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ
* . . શીવ પ૦૧ ૩૨ વેરા મણીલાલ લક્ષમીચંદ
. શીવ પ૦૧ ૩૩ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ
, ખારોડ પ૧ ૩૪ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા . ભાણવડ ૫૦૧ ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જનસંઘ
* ૧ બાફો. ૫૦૧ ૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ *
રાજકેટ પ૧
૩.
કામee ,
૩૨૬ મેમ્બરાનું ગામવાર લીસ્ટ
- અમદાવાદ તથા પરાઓ . : : ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ - - ; , , , : ૨૫૧ ૨ શેઠ છેટાલાલ વખતચંદ હસ્તે ફકીરચંદભાઈ - ૨૫૧ ૩ શાહ કાન્તીલાલ ત્રીભવનદાસ
. . ૨૫૧ ૪ શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ
૧૧ ૨૫૧ ૫ શાહ પિટલાલ મેહનલાલ , , * * * * * * : ૨
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૨૫૧
૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ
૨પ૦ ૭ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ
૨૫૧ ૮ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ
ર૫૧ ૯ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હસ્તે કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨૫૧ ૧૦ ભાવસાર ભોગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા)
૨૫૧ ૧૧ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ
૨૫૫ ૧૨ શાહ નરસિંહદાસ ત્રિીભવનદાસ
૨૫૧ ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટકર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂષોતમદાસ
૨૫૬ ૧૪ શ્રી છીપાપોળ દરીયાપુરી આઠેકેદી સ્થા. જનસંઘ હી. ચંદુલાલ અમૃતલાલ
૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ co શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામ ૨૫૧ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા, ડે. કુસરસવતીબેન શેઠ
૨૫૧ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈનસંઘ હ. શાહ કાન્તીલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૯ મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ
- ૨૫૧ ૨. શાહ મોહનલાલ ત્રીકમદાસ
૨૫૧ ૨૧ શ્રી છઠેટી સ્થા. જૈનસંઘ હ. શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૨ શેઠ પોપટલાલ હંસરાજના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ ૨૫ ૨૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા, ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨૫૬ ૨૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય
૨૫૧ ૨૫ શાહ મણીલાલ આશારામ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ
૨૫૧ ૨૭ શાહ હરજીવનદાસ ઉમેદચંદ
ર૫૧ ૨૮ રાહે રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ
૨૫૧ ૨૯ સંઘવી જીવણુલાલ છગનલાલ (સ્થા. જૈન)
ર૫૧ ૩૦ શાહ શાંતિલાલ મોહનલાલ ધાંગધ્રાવાળા ૩૧ અ. . બેન રતનબાઈ નાદેચા હા. શાહ ધુલાછ ચંપાલાલજી ૩ર શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા * ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠકેટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય “ હા, ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ
૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા
૨૫૧ ૩૫ શિઠ લાલચંદ મીઠીલાલ
૨૫૧
૨૫૧
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૧૯ સ્વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે
હ. વેણીચંદ શાન્તીલાલ (જાબુવાળા) મેઘનગર ૫૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હ. શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજ)
* ઓરંગાબાદ ૫૦૦ ૨૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
ઔરંગાબાદ પ૦૦ ૧૫૦ શેઠ વમળ જીવરાજજી : ૧૨૫ ૪ અનરાજ લાલચંદજી “ ૧૨૫ ધુડચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ દગડુમલજી ચાંદમલજી
૨૩ મહેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ પ્રફ પ૦૦ ૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરૂત્તમ હ. ઇન્દુકુમારભાઈ , ચોરવાડ પ૦ ૨૫ શેઠ કેસરીમલ વસતીમલજી ગુગલીયા . . રાણાવાસ ૫૦૧ ૨૬ સ્થા. જૈનસંઘ હા. બાટવીયા અમીચંદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ૧૦૧ ર૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ , . .. . . . . . .
હા. કુલચંદભાઈ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ, મુંબઈ. ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણીલાલ મોહનલાલ ડગલી છે. મુળજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ પટેલ ૨૯ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના મરણાર્થે હા.શેઠ બાલચંદ સાકરચંદ મુંબઈ ૫૦૧ ૩૦ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા), . . મુંબઈ પ૦ ૩૧ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ , , ,
, , શીવ ૫૦૧
. '' ૩૨ વેરા મણીલાલ લહમીચંદ
! - શીવ ૫૦૧ ૩૩ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ
ખારાડ- ૫૦૧ ૩૪ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા
ભાણવડ ૫૦૧ ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
રાજકેટ ૫૦૧
પ્રાફ ૫૦૧
૩૧દ મેમ્બરનું ગામવાર લીસ્ટ . : -
અમદાવાદ તથા પરાંઓ , ' . ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ , , - , . . . : : ૨૫૧ ૨ શેઠ છોટાલાલ વખતચંદ હસ્તે ફકીરચંદભાઈ . . ૨૫ ૩ શાહ કાન્તીલાલ ત્રીભવનદાસ
.+ ૨૫૧ ૪ શાહ ચાલાલ પીતામ્બરદાસ
- - ૨૫૧ ૫ શાહ પિપટલાલ મોહનલાલ . * - * ૨૫
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- ૨૫૧
૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ
૨૫૦ ૭ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ
૨૫૧ ૮ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ
૨૫૧ ૯ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સમરણાર્થે હસ્તે કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨૫૬ ૧૦ ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા)
૨૫૧ ૧૧ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ
૨૫૧ ૧૨ શાહ નરસિંહદાસ ત્રિીભવનદાસ
૨૫૧ ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટકર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂતમદાસ
૨૫૧ ૧૪ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠકટી સ્થા. જનસંઘ હા, ચંદુલાલ અમૃતલાલ
૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ C/o શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામ ૨૫૧ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી
૨૫૧ ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડેકુ. સરસ્વતીબેન શેઠ
૨૫૬ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈનસંધ હ. શાહ કાન્તીલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૯ મોદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૨૦ શાહ મેહનલાલ ત્રિકમદાસ
૨૫૧ ૨૧ શ્રી છકેટ સ્થા. જૈનસંધ હા. શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૨ શેઠ પિપટલાલ હંસરાજના સમરણાર્થે હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ ૨૫૧ ૨૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા, ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨૫૧ ૨૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય
૨૫૧ ૨૫ શાહ મણલાલ આશારામ
૨૫૬ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ
૨િ૫૧ ૨૭ શાહ વિરજીવનદાસ ઉમેદચંદ
૨૫૧ ૨૮ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ
૨૫૧ ર૯ સંઘવી જીવણલાલ છગનલાલ (સ્થા. જન)
૨૫૧ ૩૦ શાહ શાંતિલાલ મોહનલાલ ધાંગધ્રાવાળા
૨૫૧ ૩૧ અ, સૌ. બેન રતનબાઈ નાદેચા હ. શાહ ધુલાજી ચંપાલાલજી ૨૫૧ ૩ર શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા *
૨૫૧ ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ
૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા
૨૫૧ ૩૫ શેઠ લાલચંદ મીશ્રીલાલ
૨૫૧
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૧૯ સ્વ. પિતાશ્રી ન’દાજીના સ્મરણાર્થે
. હા. વેણીશ શાન્તીલાલ ( જાણુવાળા )
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ
२०
૨૧ શેઠે તારાજી પુખરાજ છ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
૨૨
રૂ
૧૫૦ શેઠ શેષમજી જીવરાજજી ૧૨૫ અનરાજજી લાલચ દૃષ્ટ ૧૨૫ ઢચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ દગડુમલજી ચૌક્રમલજી
૫૦૦
૨૩ શ્વેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા, મગનલાલભાઇ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૫૦૦
૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરૂષાત્તમ હા. ઇન્દુકુમારભાઇ
ચારવાડ ૧૦૧
શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા
રાાવાસ
૫૦૧
૨૬
સ્થા. જૈનસંધ હા, બાટવીયા અમીચઢ ગીરધરભાઈ. ખાખીજાળી ૫૦૧ ૨૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ
૩૦
૩૧
૩૨
33
વેારા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ્ર
શેઠ ગુલાબચંદ્ર ભુદરભાઈ
૩૪
મહાન ત્યાગી અને ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મ્હેતા.
૩૫
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસ ધ
૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
હા. કુલચŁભાઇ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ, મુંબઇ ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. મુંળજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ ૧૦૧ સ્વ. કાંતીલાલભાઇના સ્મરણાર્થે હા..શેઠ માલચંદ સાકરચંદ્ર `મુખઇ ૨૦૧ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા)
૨૯
' ડ્યુઅ†, ૧૦૧
શાહે જયંતીલાલ અમૃતલાલ
શીવ પ શીવ ૫૦૧ ખારાડ ૨૦૧
*
'
૩૧૬ મેમ્બરાનું ગામવાર લીસ્ટ અમદાવાદ તથા · પર
શાહે કાન્તીલાલ ત્રીભાવનદાસ
શાહે પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ
શાહે પેપટલાલ માહનલાલ
૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ
૨ શેઠ છેટાલાલ વખતચંદ હસ્તે [કીરચ`દભાઈ
3
*
પ
મેન્દ્રનગર ૧૦૧
૫૦૦
ઔર શાખારું ૫૦૦ ઔરગામાદ ૫૦॰
21"
"
ભાણુવડ ૫૦૧ ધ્રાફા: ૫૦૧ રાજકાઢ ૫૦૧
૨૫
૨૫૧
૫૧
પા ૨૫
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________________
૨પ૧
૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ
૨૫૦ ૭ શાહ રસ્તીલાલ વાડીલાલ
૨૫૧ ૮ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ
૨૫૧ ૯ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હસ્તે કાનજીભાઈ
અમૃતલાલ દેસાઈ ૧૦ ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા)
૨૫૧ ૧૧ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ
૨૫૧ ૧૨ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભોવનદાસ
રયા ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટક્ત શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂતમદાસ
રપ૧ ૧૪ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા, જનસંઘ હા. ચંદુલાલ અમૃતલાલ
૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ Co શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામ રપ૧ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી
૨૫૧ ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. 3. કુ. સરસ્વતીબેન શેઠ ૨૫૧ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈનસંઘ હા શાહ કાતીલાલ જીવણલાલ ૨પ૧ ૧૯ મોદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ
૩ ૨૫૧ ૨૦ શાહ મેહનલાલ ત્રીકમદાસ
૨૫૧ ૨૧ શ્રી છકેરી સ્થા. જૈનસંઘ હ. શાહ પિચાલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૨ શેઠ પિપટલાલ હંસરાજના સ્મરણાર્થે હા, શેઠ બાબુલાલ પોપટલાલ ૨૫૧ ૨૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન ખાપેદરાવાળા હા, ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨પ૧ ૨૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય
૨૫૧ ૨૫ શાહ મણીલાલ આશારામ
૨૫૧ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ ૨૭ શાહ હરજીવનદાસ ઉમેદચંદ
૨૫૧ ૨૮ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ
૨૫૧ ૨૯ સંઘવી જીવણલાલ છગનલાલ (સ્થા. જન)
૨૫૧ ૩૦ શાહ શાંતિલાલ મોહનલાલ ધાંગધ્રાવાળા ૩૧ અ. સી. બેન રતનબાઈ નાદેચા હ. શાહે ધુલાઇ ચંપાલાલજી રપ૧ ૩ર શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આશ્કેટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા, ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ
૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા
૨૫૧ ૩૫ શેઠ લાલચંદ મીથીલાલ
૨૫૧
૨૫૧
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________________
૧૯ સ્વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે
હા. વેણીચંદ શાન્તીલાલ ( જાબુવાળા). મેઘનગર ૫૦૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ પ૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી
ઓરંગાબાદ ૫૦૦ ૨૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૧૫૦ શેઠ શેપમજી જીવરાજ * ૧૨૫ % અનરાજજી લાલચંદ • ૧૨૫ ધુમડચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ દગડુમલજી ચાંદમલજી - -
૫૦૦ . ૨૩ હેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૫૦૦ ૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરૂત્તમ હા. ઈન્દુકુમારભાઈ , ચોરવાડ ર૫ શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા , , , રાણાવાસ ૫૦૧ ૨૬ સ્થા. જનસંઘ હા. બાટવીયા અમીચંદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ૫૦૧ ર૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ ; . . . . . . . .
હ. ફુલચંદભાઈ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ. મુંબઈ ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. મુંળજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૯ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સમરણાર્થે હા, શેઠ બાલચંદ સાકરચંદ મુંબઈ ૫૧ ૩૦ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) , મુંબઈ, ૫૦૧ ૩૧ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ ૩૨ વેરા મલાલ લીમીચંદ
શીવ ૫૦૧ ૩૩ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ
ખારેડ ૫૦૧ ૩૪ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા : ભાણવડ પ૦ ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જનસંઘ ૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
રાજકોટ ૫૧
વ
• 1
૫૦૧
-
• • •
*
*
બ્રાફી ૫૦૧
૩૧૬ મેમ્બરાનું ગામવાર લીટ , “ ”
અમદાવાદ તથા પરાઓ , ' , ' ' . ' ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ . - - , ' . . . ' ' . રપ૧ ૨ શેઠ છોટાલાલ વખતચંદ હસ્તે ફકીરચંદભાઈ . ; : ૨૫૧
શાહ કાન્તીલાલ ત્રીભાવનદાસ , , ' . ', ' ૨૫૧ ૪ શાહ, પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ ' . . - , , ૨૫૧ પ શાહપોપટલાલ મોહનલાલ , , , , , , ૨૫
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________________
૨૫૧
દ પૂજ્ય પિતાશ્રી મોતીલાલજી મહેતાના સ્મરણાર્થે
છે. ૨gછતલાલજી મોતીલાલ મહેતા ૭ છગનલાલ ગાગરેચા
ઉમરગાવડ ૧ શાહ મેહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા
૨૫૧ ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ
૨૫૧ ૨ સ્વ. બેન સંતોકબેન કચરા હા. ઓતમચંદભાઈ, છોટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા).
રપલ, ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા, શેઠ પ્રતાપભાઈ
૨પ૧ ૪ સંઘાણી મૂળશંકર હરજીવનભાઈને સમરણાર્થે હ. તેમના પુત્ર જયંતીલાલભાઈ તથા રમણીકલાલ
એડન કેમ્પ ૧ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી
કલોલ ૧ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈને મરણાર્થે હ. શેઠ આત્મારામ મોહનલાલ
૨૫૧ ૨ ડે. મયાચંદ મગનલાલ શેઠ હા. કે. રતનચંદ મયાચંદ ૨૫૧ ૩ સ્વ. નાથાલાલ ઉમેદચંદના સમરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા. મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૬
૧ શ્રી થા. દરીયાપુરી જનસંધ હા, ભાવસાર દાદરદાસ ઈશ્વરભાઈ ર૫૧
કોલકી ૧ પટેલ ગોવીંદલાલ ભગવાનજી
૨૫૧ ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી (તેમના સ્વ. સુપુત્ર રામજીભાઈને મરણાર્થે).
૩૦૨ ૧ શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ
ખંભાત ૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ
૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હ. પટેલ કાન્તીલાલ અંબાલાલ
૨૫૫ ૩ શાહ સાકરચંદ મોહનલાલ
૧૫૧ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ
૨૫૧
ખીચન
૨૫૧
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________________
૨૫૧
૨૧
૩૦૧
૨૫
ર૫૧
૨૫૦.
૩૬ સ્વ. પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂત્ય ચાચાજી હજારમલ
બરડીયાના સ્મરણાર્થે હ. મૂળચંદ જવાહરલાલ ૩૭ સ્વ. ભાવસાર બબાભાઈ (મંગળદાસ) પાનાચંદના સમરણાર્થે
હા. તેમના ધર્મપત્નિ પુરીબેન સ્વ. પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ. માતુશ્રી મૂળીબાઈના
સ્મરણાર્થે હ. કઠલભાઈ કે ઠારી ૩૯ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ ૪. શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા. પાર્વતીબેન ૪૧ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા
(સાબરમતી) .. ૪૨. શ્રી રથા. જૈનસંઘ (સાબરમતી) • .. • ૪૩ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગોપાણું (રાણપુરવાળા)
અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ . - ૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંધ હા શાહ ગાંડાલાલ ભીખાલાલ :
આણંદ ૧ રમણીકલાલ એ. કપાસી હા. મનસુખલાલભાઈ
આસનસેલ ૧ બાવીસી મણીલાલ ચત્રભુજના સમરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ મણીબાઈ તરફથી હા. રસીકલાલ, અનીલકાંત, વિનેદરાય,
આટકેટ ૧ શાહ ચુનીલાલ નારણુજી
ર૫૧
૨૫૧
રપ.
૨૫૧
૩૦૧
૧ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ - ૨ શેઠ મગનલાલજી બાગચા * - * ..
અ.સૌ. બહેન ચંદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલજી નાહરનાં
ધર્મપત્નિ હા. શેઠ રણુજીલાલજી હીંગડ ૪ સ્વ. શેઠ કાબુલાલજી લોઢાના સ્મરણાર્થે હ. શેડ દોલતસિંહજી લેઢા ૫૧ ૫ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સમરણાર્થે
હા. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા
૨૫૧
૨૫૧
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________________
૯, -
૨૫૧
૨૫
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૬
જુનાગઢ ૧ શાહ મણીલાલ મીઠાઈ હા. હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીઓવાળા) ૨૫૧
જુનારદેવ (મધ્યપ્રાંત) ૧ ઘેલાણી ત્રિકમજી લાધાભાઈ
જેતપુર ૧ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા. નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૨ દેશી ટાલાલ વનેચંદ ૩ કોઠારી કેલરકુમાર વેણીલાલ
જેતલસર ૧ શાહ લયમીચંદ કપુરચંદ ૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જનકબેન તરફથી હ. શાન્તીલાલભાઈ ગાંડલવાળા
ડભાસ ૧ સ્વ. તુરખીઆ લહેરચંદ માણેકચંદના સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ જીવતીબાઈ તરફથી હા. જયંતીભાઈ
૨૫૧ ડેડાઈચા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ચંપાલાલ મારે
૨૫૦ થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરસનજી
૨૫૧ ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભોવનદાસ ૩ શાહ ધારશી પાશવીર હા. સુખલાલભાઈ
દહાણુ રેડ (થાણા) ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખંધાર (કરાંચીવાળા)
૨૫૧ | દિલ્હી ૧ લાલા પર્ણચંદજી જન સિન્ટ્રલ બેંકવાળા)
ધાર (મધ્યપ્રાંત) ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી
૨૫૧
છે
૨૫૧
૩૫૧
૨૫૧
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૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
ગુંદા ૧ વ. મહેતા પુનમચંદ ભવાનભાઈના સ્મરશુ હા, તેમનાં ધર્મપત્નિ દીવાળીબેન લીલાધર પતિ કાળીએ વીહાર
રૂપ ગેડલ ૧ સ્વ. બાખડ વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્નિ કમળબાઈ તરફથી
હા, માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીઆ લીલાધર દામોદર તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સી.
લીલાવતી સાકરચંદ કોઠારીના બીજા વરસીતપની ખુશાલીમાં ૩ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હ. હરીલાલ જુઠાભાઈ ૩૦૧
ગોધરા ૧ શાહ ત્રીવનદાસ છગનલાલ
- ઘટકણું ? ૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ
દેલવાડ (થાણા) . ૧ મહેતા ગુલાબચંદ ગંભીરમલજી '' : -
૩૦૧
૧ શ્રી થા. જૈનસંઘ હ. રતીલાલ ગાંધી પ્રમુખ :
જલેસર (બાલાસર) . - ૧ સંઘવી નાનચંદ પિપટભાઈ થાનગઢવાળા
- - - -
-
જામજોધપુર
=
. ! . ૩૮૭
૨૫
૨૧
૨૫૧
૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ ૨ શાહ ત્રીભોવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા
જામનગર - , • • • ૧ શેઠ છોટાલાલ કેશવજી ' ૨ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી . . . ૩ વાર ચીમનલાલ દેવજીભાઈ . - , , . .
જામખંભાળીઆ, ૧ શેડ વસનજી નારણજી ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. મહેતા રથ છોડદાસ પરમાણંદ
છીહરાત્રિ પરમાણુદ : ૩ સંધવી પ્રાણુલાલ લવજીભાઈ
૨૫૧ ૨૫૧
•
૫
૬
*
* *
* કws
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________________
૧૯
મગસરા (ભાયાણી)
૧ સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી જલબાઈના સ્મરણાર્થે હું. દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ
૨ શેઠ પેપરલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હૈ શેઠ માનસંગ પ્રેમચંદ
મેરાન્ત (કચ્છ)
૧ શેઠ ગાંગજી કેશવજી (જ્ઞાનભડાર માટે )
એટાદ
સ્વ. વસાણી હરગાવીઢંઢાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ છપ્પલબેન
૨ શ્રી સ્થાનવાસી જૈતસધ (૨૫૦ બાકી)
ખેડેલી
E શાહ પ્રવીણચંદ્ર નરસિંહદાસ ( સાણુંદવાળા ) ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ
૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચ જી
ભાણવડ
મનાર (થાણા)
૧ શાહ શેરમલજી દેવીચ દજી જસવ તગઢવાળ હું. પૂનમચંદ્રજી શેરમલજી એલ્યા
૧
૨૫૧
૨૫૧
૧. શેઠ જેચંદભાઈ માણેકચંદ
૩૧
૨ સધવી માણેકચંદ્ર માધવજી
૨૫૧
૩ શેઠે લાલજીભાઈ માણેકચંદ ( લાલપુરવાળા )
૨૫૬
૪ શેઠે રામજી જીણાભાઈ
૨૫૧
પૂ.શેઠ પદમશી ભીમજી ફરી
૨૫૧
દૂ કારીઆ ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા. અ. સૌ. શાંતાબેન વસનજી ૨૫૧
સાસ
માનકુવા (કચ્છ)
સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલના સ્મરણથ હા. તેમનાં ધર્મપત્નેિ કુંવરમાઈ હરખચ (માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ માટે)
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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________________
,
,
૨૫૧
ધાંગધ્રા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ હા. શેઠ માવજીભાઈ જીવરાજ' * ૨૫ ૨ સંઘવી નારણદાસ વખતચંદ. ૩ ઠકકરનારણદાસ હરગોવિંદદાસ
ધોરાજી ૧ મહેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ
૩૫૧ ૨ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈ સ્મરણાર્થે હ. પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી
૨૫૧ ૩ અ.સૌ. બચીબેન બાબુભાઈ ૪ ધી નવ સૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા. લીમીટેડ ૫ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થે હો. ચમનલાલ રાયચંદ ૩૦૧ ૬ ગાંધી પિપટલાલ જેચંદ
૨૫૧
૨૧૧
૨૫૦
૧ ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ •
૨૫૧ ૨ શેઠ પોપટલાલ ધારશી
૨૫૧ ૩ સ્વ. ગુલાબચંદભાઈને સમરણાર્થે હા. વેરા પિપટલાલ નાનચંદ ૨૫૧ ૪ વસાણું ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ
* ૨૫૧ નંદુરબાર ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ - ૨૫૦
પાણુસણું ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
૨૫૧ પાલણપુર , ૧ લમીબેન હ. મહેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ : ૨ શ્રી કાગચ્છ સ્થા. જૈન પુસ્તકાલય : ''
પાલેજ . • .. . * * * * ,૧ સ્વ. મનસુખલાલ મોહનલાલ સંઘવીના સ્મરણાર્થે , હા. ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ * * * * *
બરવાળા (ઘેલાશા) ૧ સ્વ. મોહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે
હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ સુરજબેન મોરારજી
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫
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________________
હ
૨૬ સ્વ. કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઇના ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસંગે હા. જયંતીલાલ કાનજી કાળાવવાળા (મલાડ) ૨૫૧ ૨૭ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઇ
૨૫૦
૨૮ શાહ પ્રેમજી માલશી ગુ’ગર (મલાડ)
૨૫૧
૨૯ સ્વ. પિત્તાશ્રી પતુભાઈ માનાભાઇના સ્મરણાયે' હા, કાનજી પતુભાઇ ૨૫૧ ૩૦ શાહ વેલજી જેશી ગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં
ધર્મપત્નિ અ. સૌ. સ્વ. નાનભાઈના મરણુાથે
૩૦૧
૩૧ સ્વ.પિત્તાશ્રીરામશી વેલજીના સ્મરણાર્થે હા.શાહ દામજી રામશી(મલાડ) ૩૦૧ ૩૨ શેઠ ત્રમ્બકલાલ કસ્તુરચંદ લીંબડીવાળા તરફથી
શ્રી અજરામર શાસ્ત્ર ભંડાર, લીંબડી માટે (માટુંગા) ૩૩ સ્વ, પિત્તાશ્રી ભીમશી કારશી તથા માતુશ્રી પાલાબાઈના માથે હા. શાહ ઉજમશીભાઇ ભીમશીભાઈ કચ્છપતરીવાળા ( મલાડ) ૩૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા
૩૫ શાહ વૃન્તગભાઈ શીવજી (મલાડ)
૩૬ રતીલાલ ભાઈચ' મ્હેતા
૨૧૧
૩૧
૨૫૧
૫૧
૫૧
૩૭ શાહ ખીમજી મૂળજી પૂજા (મલાડ )
૨૧૧
૩૮ મેસસ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ કંપની હા, શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૩૯ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ હા. નરશીભાઇ વલલજી
૧૫૧
૪૦ અ.સૌ. સમતાબેન શાન્તોલાલ C/oશાન્તીલાલ ઉજમશી શાહ(મલાડ) ૨૫૧ ૪૧ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ
૧૫૧
૫૧
૪૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ
૪૩ સ્વ. પિતાશ્રી કેશવલાલ વછરાજ કાઢારીના સ્મરણાર્ચ સુરજબેન તરફથી હા, તનસુખલાલભાઈ (મલાડ)
૪૪ દડીયા અમૃતલાલ મેાતીચંદ (ઘાટāાપર ) ૪૫ શેઠ સરદારમલજી દેવીચંદ્રજી કાવેડીયા (સાદડીવાળા)
૪૬ દેશી ચત્રભુજ સુંદરજી ( ઘાટકીપર) ૪૭ દેાશી જુગલકીશેર ચત્રભુજ (ઘાટàાપર) ૪૮ દેશી પ્રવીણચંદ્ર ચત્રભુજ ૪૯ શાહુ ત્રીભાવનદાસ માનિસંગ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થ
(ઘાટકોપર )
હા. શાહુ હરખચંદ ત્રીભાવનદાસ
૨૫૧
૫૦ શાહે જેઠાલાલ ડામરશી ધ્રાંગધ્રાવાળા હા. શાહે વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૫૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૫૧
૫૧
૨૫૧
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૧ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ
૨
શાહે હેરજીવન કેશવજી
૩ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રીકમજી (રીવલી )
૪ શેઠ છેટુભાઈ હરગોવિંદદાસ ટારીવાલા
શ્રીવધ માન સ્થા.જૈનસંઘ હા.કૅસરીમલજી અનેાપચછ ગુગળીયા(મલાડ)૨૫૧
૬ શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા
૨૫૧
७ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. સૌ. કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૫૧ વ શાહ હિંમતલાલ હરજીવનદાસ
૨૫૧
શાહ રતનશી માણશીની કંપની
૨૫૧
૧૦
શાહે શીવજી માણેક કચ્છ (ખેરાજાવાળા)
૨૫૧
૧૧ વારા પાનાચંદ સંઘજીના રમરણુાથે' હા, ત્રંબકલાલ પાનાચદ વારા બ્રધર્સ ૨૫૧ સ્વ. પૂ. પિતાશ્રી વીરચંદ જેસીંગભાઈ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ
૧૨
શાહ કુંવરજી હેસરાજ
in
મુંબઈ તથા પરાંઓ
૧૩
૧૪ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબેનના સ્મરણાર્ચ
હા. શેઠ વઠ્ઠલદાસ નાનજી (પોરબદરવાળા)
૧૫ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પૂનમીયા સાદડીવાળા એક સગૃહસ્થ હા. શેઠ સુંદરલાલ માણેકચ'
૧૬
૧૭
અ. સૌ. પાનમાઈ હા. શેઠ પદમશી નરિસ’હુભાઈ (મલાડ) ૧૮ શ્રી અમૃતલાલ વમાન માપોદરાવાળા હા. .દલીચંદ અમૃતલાલ સ્વ. શાહ નાગશી સેજપાળ ગુંદાળાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. રામજી નાગશી (મલાડ)
૧૯
૨૦ શાહે રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા
૨૧
શાહે નગીનદાસ કલ્યાણજી વેરાવળવાળા શીવલાલ ગુલાબચંદ શેઠ મેવાવાળા
૨૨
૧૩
૨૪
૨૫
સ્વ. જટાશંકર દેવજી દેશીના સ્મરણાર્થે
હા. રણુછેાડદાસ (બાબુલાલ) જટાશ’કર દેશી સ્વ. ગેાડા વણારશી ત્રીલેાવન સરસઈવાળાના સ્મરણામે હા, જગજીવન વણારશી ગાડા (મલાડ)
૫૧
૫૧
પર
૫૧
સ્વ. ત્રીભાવનદાસ વ્રજપાળ વીંછીયાવાળાના સ્મરણામે હા, હુરગેવિંદદાસ ત્રીભાવનદાસ સજમેરા
રા
૨૫૧
૩૦૧
૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૩૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૩૦૧
૨૫૧
પા
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________________
૨૫૧
૬ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ : ‘,
૨૫૧ ૭ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ
૨૫૧ ૮ શાહ દેવશી દેવકરણ
૨૫૧ ૯ વેરા ડોસાભાઈલાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હા, વારા નાનચંદ શીવલાલ ૨૫૧ ૧૦ વેરા ધનજીભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈનસંઘ હ. વોરા પાનાચંદ ગોબરદાસ ૨૫૧ ૧૧ દેશી વીરચંદ સુરચંદ હ. દોશી નાનચંદ ઉજમશી
૨૫૧ ૧૨ સ્વ. વિરા મણલાલ મગનલાલ હા. વારા ચત્રભુજ મગનલાલ ર૫૧
વટામણ ૧ શ્રી વટામણ સ્થા. જૈનસંઘ હ. શ્રી ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ પટેલ રપ૧
વલસાડ ૧ શાહ ખેમચંદ મૂળજીભાઈ
વણું ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્નિ સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના મરણાર્થે હા, ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ
વડેદરા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ ફેસર સાહેબ (ગોંડલવાળા) ૨૫૧ ૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ ૩ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ ફકીરચંદ પુજાભાઈના સ્મરણાર્થે હા, શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ
વડીયા ૧ પંચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ (જેતપુરવાળા)
વાંકાનેર ૧ માસ્તર કાન્તીલાલ ત્રંબકલાલ ખઢરીયા
૨પ૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (રૂ. ૨૫૦ બાકી)
૨૫૧ દતરી ચુનીલાલ પિપટભાઈ મેરબીવાળા હા. પ્રાણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧
વીંછીયા ૧ શ્રી. સ્થા. જૈન સંઘ હ. અજમેરા રાયચંદ વ્રજમાળ • ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫
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૧
રગુન -
૧ કામદાર ગરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. કમળાબેન
લખતર
૧ શાહે રાયચન ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહુ, શાન્તિલાલ રાયચ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે
ર
હા. ભાઈ ત્રીભાવનદાસ હેરજીવનદાસ
૩૫
3
શાહે તલકશી હીરાચદના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૨૫૧ શાહ ચુનીલાલ માણેકચ
૪
પા
૫ શાહે જાદવજી એઘડભાઈ સદાદવાળાના સ્મરણુાર્ચ
હા. ભાઈ શાન્તીલાલ જાદવજી
૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાખચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ સમરતઍન વ્રજલાલ તરફથી હા, જયંતીલાલ ઠાકરશી
૧ માસ્તર જેઠાલાલ માનજીભાઈ હા, મ્હેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એન્જીનીઅર સાહેબ)
લીમડી (પંચમહાલ)
૧
૨
શાહુ કુંવરજી ગુલામચંદ
છાજેડ ઘાસીરામ; ગુલામદ
લાલપુર
૧. શેઠ નેમચં સવજીભાઈ માટ્ટી હા. મગનલાલભાઈ
૫૧
૨ શેઠ મૂળચક્ર પાપટલાલ હા. મણીલાલભાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ ૨૫૧ લાખેરી (રાજસ્થાન)
લાનાવલા
૧ શેઠ ધનરાજજી મૂળચદજી મૂા
૫૧
વઢવાણુ શહેર
શાહે દીલીપકુમાર સવાઈલાલ હા. સવાઈલાલ ત્રખકલાલ શાહે શાહ મગનલાલ ગેાકળદાસ હા. રતીલાલ મગનલાલ કામદાર સંઘવી મૂળચ'દ બેચરભાઈ હા. જીવણુલાલ ગલદાસ
૧
૨
3
૪.
શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ
પ શેઠ કાન્તીલાલ નાગરદાસ
યા
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા ૫૧ન
પા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
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૧૯
સતારા ૧ સ્વ. મદનલાલજી કુંદનલાલજી કોઠારીના સ્મરણાર્થે હા, તેમનાં ધર્મપત્નિ રાજકુંવરબાઈ મદનલાલજી
સાલબની (બંગાળ) - ૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચંદ મોરબીવાળા
૨૫૧
૨૫૦
સાદ
૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હ. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ ૩૦૧ ૨ અસૌ. ચંપાબેન હા. દેશી જીવરાજ લાલચંદ
૨૫૧ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ દેસાભાઈ
૨૫૧ ૪ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ
૨૫૧ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લીંબડીવાળાના સમરણાર્થે હા. વાડીલાલ મેહનલાલ કંઠારી
૨૫૧ ૬ પારેખ નેમચંદ મોતીચંદ મૂળીવાળાના સમરણાર્થે
હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ ૭ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. જયંતીલાલ નારણુદાસ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
સુરત ૧ ટી. સ્થા. જનસંઘ હ. શાહ છેટુભાઈ અભેચંદ
સુવઈ (કચ્છ) ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનંદી જૈન મુનીશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા. જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ ૨૫૧
સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ
૨૫૧ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ
૨૫૧ ૩ સ્વ. કેશવલાલ મૂળજીભાઈનાં ધર્મપત્નિ અમૃતબાઈના સમરણાર્થે
હા. ભાઈલાલ કેશવલાલ (થાનગઢવાળા) * શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ
૨૫
૨૫૧
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૨૫૦
૨૫
૨૫૨
વીરમગામ ૧ શાહ વાડીલાલ નેમચંદ વકીલ ૨ શાહ વિઠ્ઠલભાઈ મોદી માસ્તર
૧૫૧ ૩ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ
૨૫૧ ૪ શાહ મણીલાલ જીવણલાલ (શાહપુરવાળી
૨૫૧ ૫ શાહ અમુલ (બચુભાઈનાગરદાસનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. બેન લીલા
વતીના વરસીતપના પારણાની ખુશાલીમાં હા ભાઈ કાન્તીલાલ નાગરદાસ ૩૦૦ ૬ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના કમરશ્નાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હ. શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ
૨૫૧ ૭ સ્વ. મણીલાલ લહમીચંદના મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી
હા. ખીમચંદભાઈ (ખારાઘોડાવાળા) ૮ સ્વ. શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ ૨૫૧ ૯ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણુદાસ ૧૦ સ્વ. શાહવેલશીભાઈ સાકરચંદભાઈને મરણાર્થે છે. ચીમનલાલ વેલશી (કત્રાસવાળા)
૨૫૧ ૧૧ પારેખ મણીલાલ ટોકરશી લાતીવાળા તરફથી માટીબેનના મરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૨ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીલાલભાઈનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. નારંગીબેનના વરસીતપ નીમતિ હા. શાન્તીભાઈ
૨૫૧ ૧૩ સ્વ. છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ
કમળાબેન તરફથી હા. મંજુલાકુમારી ૧૪ શ્રી થા. જૈન શ્રાવિકાસંધ હા. પ્રમુખ અ. સૌ. રંભાબેન વાડીલાલ રપ૧ ૧૫ સ્વ. શ્રીભવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ. અ. સૌ. ચંચળબેનના સમરણાર્થે હ. ડેકટર હિંમતલાલ સુખલાલ
૨૫૧ ૧૬ શાહ મૂળચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા. શાહ નાગરદાસ ધડભાઈ ૨૫૧ ૧૭ શેઠ મોહનલાલ પીતાંબરદાસ હે. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૨૫૧ ૧૮ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વરસીતપ નીમિત્તે
હા. નથુભાઈ નાનચંદ શાહ ૧૯ સ્વ. મણીયાર પરસોત્તમ સુંદરજીનાં મરણ હા. શેઠ સાકરચંદ યાતમદાસ
૨૫૧ ૨૦ પોઠ મણીલાલ શીવલાલ
૨૫૨ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઈ *
. ૨૫૧ ૨ શાહ ખીમચંદ સૌભાગ્યચંદ વસનજી
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
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વેરાવળ
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________________ 25 251 5e સંજેલી (પંચમહાલ) 1 શાહ લુણાજી ગુલાબચંદ 2 શ્રી. સ્થા. જૈનસંઘ હ. શેઠ પ્રેમચંદ દલીચંદ હાટીનામાળીયા "1 શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ હારીજ . 1 શાહ અમુલખભાઈ મૂળજી હા. પ્રકાશચંદ અમુલખ 2 સ્વ બેન ચંદ્રકાન્તાનાં સ્મરણાર્થે હા. અમુલખ મૂળજીભાઈ હુબલી 1 શેઠ હીરાચંદ વનેચંદજી કટારીઆ 301 301 કુલ્લ મેમ્બરની સંખ્યા તા. 28-2-58 સુધી 4 આદ્ય મુરબ્બીશ્રીઓ ૩૧દ પ્રથમ વર્ગના મેમ્બરે 22 સુરીશ્રીઓ : 83 બીજા વર્ગના મેમ્બરે 36 સહાયક મેમ્બર 461 કુલ્લ મેમ્બરે (બીજા વર્ગને સદંતર બંધ કરવામાં આવેલ છે.) રાજકોટ, તા. 1-3-58 સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ મંત્રી, અ. ભા. શ્વે. સ્થા. જૈન શા. સ. શ્રી નોટ તા. 23-12-17 ના દિને મુંબઈ મુકામે ધી યુનિયન બેંક ઓફ ઈન્ડીઆ લી. માં રૂ. 251-0-0 એક સદગૃહસ્થ ભરેલા છે. જેનું નામ તે ભરનાર ભાઈ તરફથી મળેલ નથી તેમજ બેંક તરફથી વધુ વિગત મળી નથી તે તે રૂ. 251 ડીપોઝીટ તરીકે હાલ જમા પડયા છે જેનું નામ અને મળતાં લીસ્ટમાં લેવામાં આવશે.