________________
ma
५५०
आनाराङ्गमा ____ अयमग्निकायलोकः स्वात्मवन्नेय अभ्याख्येय इति प्रतिबोधितम् , इदानीमग्निकायजीयोपादनाद् विनिटल एवं मुनिर्मवितुमर्हतीत्यार-'जे दीह०' इत्यादि।
जे दीहलोगसत्यस्स खेयने, से असत्यस्स खेयन्ने, जे असत्यरस खेयन्ने से दीहलोगसत्यस्स खेयन्ने ॥ सू० २॥
' छाया-' . यो दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः, सोऽशस्त्रस्य खेदज्ञः । योऽशस्त्रस्य खेदश, स दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः ॥ सु. २ ॥
टीकायो भन्यः, दीर्घलोकशस्वस्य दीर्घश्वासी लोकश्च दीर्घलोकायनस्पति, तस्य शस्त्रं दीर्घ लोकशस्त्रम् अग्निः । वनस्पतिकायस्य दाहकरणेन विनाशकतया
अग्निकायलोक, आत्मा की तरह निषेध करने योग्य नहीं है, यह बतला दिया। अव बतलाते हैं कि अग्निकाय के जीवों की हिंसा से निवृत्त होने वाला पुरुप ही मुनि होता है:-'जे दीहः' इत्यादि।
मूलार्थ--जो दीर्घलोक (वनस्पतिकाय) के शस्त्र (अग्निकाय ) के दुःख को जानता है वही संयम के खेद को जानता है और जो संयम के खेद को जानता है वह दोघलोक के शस्त्र के खेद को जानता है ।। सू० १॥
टीकार्थ----जो भव्य पुरुष दीर्घलोक अर्थात् वनस्पति के शस्त्र अग्नि के दुःख को जानता है, वही अशस्त्र अर्थात् संयम के खेद को जानता है । वनस्पति काय की विराधना - અનિકાયલેક, આત્માની પ્રમાણે નિષેધ કરવા ગ્ય નથી; તે બતાવી આપ્યું છે. હવે બતાવે છે કે-અનિકાયના જીવોની હિંસાથી નિવૃત્ત થવાવાળા પુરુષ भुनि डाय छ: 'जे दीह' त्यादि
મલાઈ—–જે દીલેક (વનસ્પતિકાયના શસ્ત્ર (અગ્નિકાય)ના દુખને જાણે છે. તેજ સંયમના ખેદને જાણે છે, અને જે સંયમના દિને જાણે છે. તેજ દીલકને શસ્ત્રના ખેદને જાણે છે. (સ. ૨)
ટીકાઈજે ભવ્ય પુરુષ દીર્ઘલેક અર્થાત, વનસ્પતિનું શસ્ત્ર અગ્નિના દુઃખન જાણે છે, તે જ અશજી અર્થાત્ સંયમના ખેદને જાણે છે. વનસ્પતિકાયની વિરાધના કરવાના