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________________ - m eena आचारचिन्तामणि-टीका अध्य,१ उ. ४ सू. २ दीर्घलोकशब्दार्थः ५५३ पल्लयानुसारी वायुरपि तत्र संभाव्यते, तदेवं वनस्पतिशस्त्रीभूय दहनो बहुतरजीवानाशयतीति सूचनाय भगवता दीघलोकशस्त्रशब्दः परिगृहीत इति ।। यद्वा-दीर्घलोकः पृथिवीकायादिः, पृथिव्यवायुवनस्पतिकायानां भवस्थितियथाक्रमं द्वाविंशति, सप्त-त्रि-दश-वर्यसहसपरिमाणा, अग्निकायस्य तु त्रीण्येवाहोरात्राणि । यथा बादरामिकायाः पर्याप्तकाः स्वल्पाः सन्ति, अन्ये पृयिव्यादयः पर्याप्तकाः बहवः सन्ति, अतो दीर्घलोकः पृथिव्यादिस्तस्य शस्त्रम् अग्निकायः। अग्निरुत्पाद्यमानः प्रज्वाल्यमानो वा पृथिव्यादिजीवसमूई मणिहन्तीति तस्य शस्त्रत्वम् । उक्तञ्चपत्तों (कोपलों) का अनुसारी वायु भी वहाँ संभव है । इस प्रकार अग्नि वनस्पति का शस्त्र हो कर बहुतेरे जीवों का विनाश करता है। यह सूचित करने के लिए भगवान ने 'दीर्घलोकशस्त्र' शब्द का अग्नि के लिए प्रयोग किया है। अथवा---'दीर्घलोकका' अर्थ पृथ्वीकाय आदि है । पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय की भवस्थिति क्रम से वाईस, सात, तीन और दश हजार वर्ष की है, मगर अग्निकाय की तीन रात्रि-दिन ही है । बादर अग्निकाय के पर्याप्त जीव स्वल्प हैं मगर पृथ्वी आदि के पर्याप्त जीव बहुत हैं । अतः दीर्घलोक' शब्द से पृथ्वीकाय आदि का ग्रहण करना चाहिए और उनका शस्त्र अग्निकाय समझना चाहिए । अग्नि उत्पन्न होते ही और जलते ही पृथ्वी आदि के जीवों के समूह का घात करता है, अतः वह पृथ्वी आदि का शस्त्र है। कहा भी है: aaman અને અત્યંત કેમલ પત્તા (કુંપળોના અનુસારી વાયુને પણ ત્યાં સંભવ છે. આ પ્રમાણે અનિ, વનસ્પતિનું શસ્ત્ર બની ઘણા જ જીવોને વિનાશ કરે છે. આ હકીકત सूयवा भाट पाने 'दीर्घलोकशन' नेयति भाटे प्रयोग या छे. અથવા–દીધલકને અર્થ પૃથ્વીકાય આદિ છે, પૃથ્વીકાય, અષ્કાય, વાયુકાય, અને વનસ્પતિકાયની ભવસ્થિતિ ક્રમથી બાવીસ, સાત, ત્રણ અને દસ હજાર વર્ષની છે. પરતુ અગ્નિકાયની ત્રણ રાત્રિ-દિવસ જ છે. જેમકે–બાદર અગ્નિકાયના પર્યાપ્ત ०१ २५६५ छ. परन्तु पृथ्वी माहिना योao uple छे. मे भाटे 'दीर्घलोक' શબ્દથી પૃથ્વીકાય આદિનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ, અને તેનું શસ્ત્ર અગ્નિકાય સમજવું જોઈએ. અગ્નિ ઉત્પન્ન થતાંજ અને બળવાની ક્રિયા થતાંજ પૃથ્વી આદિના ના સમૂહને વાત કરે છે. તેથી તે પૃથ્વી આદિનું શસ્ત્ર છે. કહ્યું પણ છે કે – म. आ.-७०
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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