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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू.५. आत्मवादिन व्यापित्वं, तत् कादाचित्कमिति न तेन व्यभिचारः । । आत्मा श्यामाकतण्डुलमात्रो न भवति, अङ्गष्ठपर्वमात्रो वा न भवति,
मात्रस्योपात्तशरीरव्यापित्वात् , तिले तैलवत् त्वपर्यन्तशरीरव्यापित्वेन । भ्यमानगुणत्वात् , तस्मादुपात्तशरोरे त्वपर्यन्तशरीरव्यापीति सिद्धम् ।
___(१०) अमूर्तत्वनिरूपणम्-- त्मिा अमूर्तः, इन्द्रियैरग्राह्यत्वात् , खड्गादिभिरच्छेद्यत्वात् , शूलादिभिरभेद्यरहितत्वात् , अनाद्यमूर्तपरिणामत्वात् , नित्यत्वात् । कभी-कभी होनेवाला) है, उस से व्यभिचार नही आता । . श्यामाक धान्यकण बराबर नहीं है, न अंगूठे के पर्व (पोर) के बराबर ही है,
एक साथ समस्त शरीर में व्यापक नहीं हो सकता, मगर आत्मा के र में उपलब्ध होते हैं, जैसे तिलों में तेल सर्वत्र पाया जाता है, अत एव मा प्राप्त शरीर में त्वचापर्यन्तव्यापी है ।
(१०) आत्मा का अमूर्तत्वहै, क्यों कि वह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता, वह खड्ग सकता, शूल आदि से भेदा नहीं जा सकता. वह अरूपी है, रिणामवाला है और वह नित्य है । , तभी व्यलिया२ मावत नथी. અન્યના કણ બરાબર નથી; તેમજ અંગૂઠાના પર્વ (પિર) આમા એક સાથે સમસ્ત શરીરમાં વ્યાપક થઈ શકતે તે સંપૂર્ણ શરીરમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, જેમ તલમાં થી એ સિદ્ધ થયું કે આત્મા આ પ્રાપ્ત શરીરમાં
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मात्मानु भभूत व
धन्द्रियो द्वारा अहए। श તે નથી, ફૂલ આદિથી ભેદી શકાતે
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શરીરનું જ શરીરપરિમાણુ
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