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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
(४) हृदय पर व्रणशोथ का परिणाम परिहृच्छदपाक ( Pericarditis) हृदय की लसीकला परिहृच्छद कहलाती है। इसे परिहृत् भी कहते हैं। इसके भी दो पर्त होते हैं एक जो हृदय से चिपका रहता है और दूसरा जो उसके ऊपर रखा रहता है। दोनों पर्तों के बीच में रिक्त स्थान होता है। इस स्थान में श्लेष्मा का स्वाभाविक स्राव उतना होता है कि एक दूसरे पर गति करता रहे। जिस प्रकार अन्य लसीकलाओं में पाक होता है उसी प्रकार यहाँ भी देखा जाता है। परिहृच्छद में दो प्रकार के पाक होते हैं इनमें एक साधारण और दूसरा सपूय कहलाता है। साधारण परिहृच्छदपाक में अन्तश्छद के अधिकांश का विस्तृत विनाश होता है जिसमें लस्यतन्त्वि ( sero-fibrinous) स्राव होता है तन्त्वि का एक स्तर परिहृत् के दोनों पर्दो को आच्छादित कर लेता है जिसके कारण दोनों पदं एक दूसरे से चिपक जाते हैं। दोनों पतों के बीच के अवकाश में एक शुक्लाभ तरल भर जाता है । यह तरल कभी कभी बहुत अधिक परिमाण में हो जाता है जिसके कारण परिहृत्स्यून ( pericardial sac ) खूब फूल जाता है। तन्त्वि का जो स्तर दोनों पदों पर चढ़ता है वह एक अत्यन्त तनु रोपण (जो केवल परिहृत् की. चमक को धुंधली कर देता है) से लेकर । इञ्च मोटे आवरण तक हो जाता है। जब व्रणशोथ का शमन होता है तब तरल प्रचूषित हो जाता है तथा तन्त्वि का समङ्गीकरण ( organisation ) हो जाता है । जहाँ तरलाधिक्य और तन्त्वि-अल्पता रहती है वहाँ परिहृत् के दोनों पर्यों में अभिलाग ( adhesions ) नहीं बनते तथा तरल का पुनश्चूषण पूर्णतः हो जाता है। अधिक गम्भीर अवस्थाओं में जहाँ तन्त्वि का समङ्गीकरण होता है वहाँ पतले पट्टों ( bands ) के रूप में भी अभिलाग मिलते हैं तथा दोनों पर्दे पूर्णतः चिपके हुए भी देखे जाते हैं। कभी कभी तन्त्वि पूर्णतः चूर्णियित (calcified) हो जाती है और ऐसा लगता है मानो कि हृदय एक घोंघे (shell) में बन्द हो गया हो । ___ परिहृच्छदपाक के कारण शरीर तथा हृदय पर क्या प्रभाव पड़ता है वह भी अत्यन्त महत्त्व का होने के कारण हम निम्न शब्दों में उसे गिनाते हैं
१. सर्वप्रथम दोनों स्तरों की रगड़ से शूल उत्पन्न होता है।
२. घर्षण का शब्द सुनाई पड़ता है जो तन्त्वि के दृढ होने के साथ साथ तेज होने लगता है।
३. प्रायशः परिहृत्पाक गौणरूप से होता है इस कारण प्रमुखउपसर्ग द्वारा शरीर में सज्वरावस्था बहुधा मिल जाती है अतः बिना ज्वर यह रोग देखा नहीं जाता; पर कभी • कभी जब धातुक्षय अधिक होने के साथ यह रोग होता है तो शरीर की ऊतियों की
प्रतिक्रिया शक्ति इतनी अल्प रहती है कि बिना ज्वर वा शूल के भी यह रोग देखा जाता है।
४. प्रारम्भ में जब घर्षण होता है या जब तरलाधिक्य का दबाव पड़ता है दोनों अवस्थाओं में हृदय की कार्यशक्ति कम हो जाती है विशेष करके अलिन्दों तथा दक्षिण निलयों की क्रियाशक्ति में कमी आ जाती है।
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