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. नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवचरिना शिष्य - महाकवि श्री निनवल्लभमूरि विरचित 18. संघपट्टक
नामनो चाळीश काव्यनो अत्युत्तम शिक्षामय ग्रंथ.
षष्ठिशतकपना कर्ता श्रीनेमिचंधनांमागारिकना गुरु महानेयायिक श्रीजिनपतिसूरिए रचेली त्रण हजार श्लोक प्रमाणनी
दत् टीका.
जेमां चैत्यवासिउँना शिथिलाचार- पूरेपूरं खंकन करीने विधिमार्गनी, युक्तिपूर्वक संपूर्ण पुष्टि करेली . श्रा बन्ने ग्रंथोना मूळपाठ तथा तेनी साथे तेनुं
गुजराती-नाषांतर.
उपावी प्रसिद्धकर्ता श्रावक जेगलास दखसुख.
अमदाबाद-श्री जैन प्रिंटिंग प्रेस.
वि. सं. १९६३-सने १ए०७. कीमताकmachोस्टेज जु.
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सर्व हक स्वाधिन
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→* प्रस्तावना.
वीरप्रजुना साधुन " निग्रंथ " तरीके खोळखाया डे. ग्रंथ एटले धन दोलत तेथी रहित ते निर्बंध तेमंना श्राचारनुं प्रति पादन करवा जे सूत्रो रचायां बे ते पण ते कारले “ निर्भयप्रववन " तरीके ओळखवामां आवे छे. ए निर्बंथप्रवचनमां साधुने माटे जे जे नियम बांध्या बे ते प्रमाणे ज पूर्व साधु वर्त्तता इता. ते मुख्यत्वे करीने गामना पादरे रहेल वन एटले वर्गीचाश्रोमां वसति मागीने ऊतरता हता अने वखते गाममां रहेता तो गृहस्थनुं मकान मागी लइ तेमां निवास करता हता. तेमना माटे नद्देशीने रांधेला श्राहारपाणीने वेओ आधाकर्मिदोषवालुं गणी ग्रहण नहि करता, धर्मोपकरण बोमीने बीजी चीज वस्तु नहि संघरता, गादी तकीया नहि वापरता छाने क्लेश कंकासथी वेगळे रही समाधिमां लीन रहेता हता. ते साथे तेन बळ, प्रपंच, दंत्र तथा कदाग्रहथी अळगा रही लोकोने साचो मार्ग बतावता हता. एथी करीने तेश्रो पोतानुं तथा परनुं न करवा समर्थ थता दता.
झाकी रीते वीरमञ्जुश्री एक हजार वर्ष पर्यंत सरखी परंपराए तेवा, साधुओोनो सीधो कारभार चालु रह्यो केमके ए वखतसुधी तेमना गुरु महाप्रतापी, विद्वान्, अने नमविहारी यह पोताना ताबे रहेला शिष्योने सीधे मार्गे दोरता रह्या हता. बतां नगवानयी वसो पचाश वर्षे थोमाक यतिश्रोए वीरप्रजुना शासनथी बेदरकार बनी भविहार बोमीने चैत्यवासनी शरुआत करी हृती.
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अय भी संघपट्टक
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पण मुख्य नाग तो वसतिवासी ज रह्यो हतो अने ते जागमा अग्रेसर तरीके ओळखाता देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणे नगवान्थी ए८० मा वर्षे वबजीपुरमा संघने एकत्रित करी जैनसूत्रोने पुस्तकारुढ कयाँ ले. सदरहु देवा:गणि, नगवान्थी १००० वर्षे स्वर्गवासी थया अने ते साथे खलं जिनशासन गुम थई तेना स्थाने चैत्यवासिनोए पोतानो दोर अने जोर चलाववा मांगयो. श्रामाटे नवांगी वृनिकार श्रीअन्नयदेवसुरि श्रागम अठोत्तरी नामना ग्रंथमां नीचेनी गाथा आपे डे के:... देवहिखमासमणजा-परंपरं जावन वियाणेमि,
सिढिलायारे छविया-दवेण परंपरा बहुदा. १
नावार्थः-देवर्धिक्षमाश्रमण सुधी नावपरंपरा ढुं जाएंबु, बाकी ते पड़ी तो शिथिलाचारिओए अनेक प्रकारे अव्यपरंपरा स्थापित करी .
श्रा रीते जगवान्थी बासो पचाश वर्षे चैत्यवास स्थपायो तोपण तेनुं खरेखलं जोर वीरप्रनुथी एक हजारवर्ष वीत्या केके वधवा मांमयं,श्रा अरसामा चैत्यवासने सिकरवा माटे आगमना प्रतिपक्ष तरीके नियमना नामतळे नपनिषदोना ग्रंथो गुप्त रीते रचवामां आव्या अने तेश्रो दृष्टिवाद नामना बारमा अंगना त्रूटेला ककमा जे एम लोकोने समजाववामां आव्यु. ए ग्रंथोमां एवं स्थापन करवामां आव्यु डे के आज कालना साधुओए चैत्यमा वास करवो व्याजबी ने तेमज तेमणे पुस्तकादिना जरुरी काममां खप बागे माटे यथायोग्य पैसाटका पण संघरवा जोश्ये. इत्यादिअनेक
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. अथ श्री संघपट्टकः
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शिथिलाचारनी तेश्रोए हिमायत करवा मांगी ने जे थोमा घणा वसतिवासि मुनिश्रो रह्या हता तेमनी अनेक रीते श्रवगणना करवा मांगी.
देवर्द्धिगणिपर्यंत साधुननो मुख्य गद्य एकज हतो, बतां कारापरत्वे तेने जूदा जूदा नामथी उळखवामां श्रावेल बे. जेमके श रुयातमां तेना मूळस्थापक सुधर्मेगणधरना नामपरथी ते सौधर्मगद्य कहेवातो हतो. त्यार केके चौदमा पाटे सामंतनद्रसूरिए वनवास स्वीकार्यों एटले ते वनवासि गन्ह कदेवायो. त्यारकेमे कोटिमंत्रजापना कारणे ते कोटिकग कद्देवायो बे. बतां तेमां अनेक शाखा छाने कुळो यया पण ते परस्पर विरोधी इता. केमके कोने पण पोताना गहनो या शाखानो या कुळनो श्रंकार अथवा ममत्वजाव न इतो. पण चैत्यवास शरु यतां तेमणे स्वगद्यनां वखाण अने परगडनी हेलना करवा मांगी एटले रसपरस विरोधी गडो उन्ना थया.
गच्छ शब्दनो मूळ अर्थ ए बे के गच्छ अथवा गए एटले साधुननुं टोलुं. माटे गन्नु शब्द कंद खराब नथी, पण गड माटे अहंकार, ममत्व के कदाग्रह करवो तेज खराब बे. बतां चैत्यवासमां
वो कदाप्रद वधवा मांगयो. या उपरथी तेश्रोमां कुसंप वध्यो, ऐक्य त्रुटयुं. दवे एक गछमांथी चोरासी गड थर पड्या. तेश्रो एकमेकने तोवा मंगा ने श्रा रीते समाधिमय धर्मना स्थाने. कलह कंकाशमय अधर्मनां बीज रोपायां.
पांचमा श्रारारुप अवसर्पिणी काळ एटले पमतो काळ तो हमेशां आव्या करे बे पण गाउ कां या जैनधर्ममां खावी धांधळ
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अथ श्री संघपट्टका
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उन्नी थइ नथी, पण हमणानो पमतो काळ साधारण रीते पमता काळना करतां कंश्क जूदी तरेहनो होवाथी ते ढुम एटले अतिशय सुमो होवाथी तेने हुँमावसर्पिणी काळ कहेवामां श्राव्यो . श्रावो काळ अनंती अवसर्पिणीयो वीततांज आवे . तेवो आ चालु काळ प्राप्त थयो बे. ते साथे वीरप्रजुना निर्वाण वखते बे हजार वर्षनो नश्मग्रह बेठेलो ते साथे मळ्यो, तेमज तेनी साथे असंयति पूजारुप दशमो अछेरो पोतानुं जोर बताववा लाग्यो. एम चारे संयोगो नेगा थवाथी था चैत्यवासरुप कुमार्ग जैन ध. मना नामे चोमेर फेलावा मांमयो. गुरुश्रो स्वार्थी थश् योग्यायोग्यनो विचार पमतो मुकी जे हाथमां श्राव्यो तेने मुंमीने पोताना वामा वघारवा मांमया, श्रने बेवटे वेचाता चेला लश् विना वैराग्ये तेमने पोताना वारस तरीके नीमवा मांगया.
हवे कहेवत ने के “ यथा गुरु स्तथा शिष्यो यथा राजा: तथा प्रजा" ते प्रमाणे गुरुयो शिथिल थतां तेमना ताबा नी-1 चेना यतिम्रो तेमना करतां पण वधु शिथिल थया. तेथो दवादारु दोराधागा वगेरे करीने लोकोने वशमां राखवा लाग्या, वेपार करवा लाम्या तथा खेतरवामी सुझां करवा तत्पर थया. तेम बतां तेश्रो पोताने महावीरप्रन्नुना वारस चेलामो तरीके ओळखावी पोतानुं मान साचववा मांझया.
श्राणीमेर तेमना रागी श्रावको आंधळा बनी तेमना पंजामां सपमाइ तेओ जे कांश बंधुंचतुं समजावे ते बधुं वगरविचारे अने कार तकरारे हाजीहा करीने स्वीकारवा लाग्या. कारण के खोकोनो
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-48 अथ श्री संघपट्टकः --
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मुख्य जाग हमेशां जोळो रहे बे. तेथी तेवा जोळाधोने, कपटी वेषधारी चैन्यवासियो अनेक बाढानां ना करीने ठगवा मांगया.
श्रावी गमबम थोमाज वखतमां बहु वधी पी एटले देवझिंग बिना पढी २५ वर्षे स्वर्गवासी थएला दरिनप्रसूरिए महानिशीथनो नकार करतां चैत्यवासनो सारी रीते तिरस्कार कर्यो बे. सदरहु दरिद्रसूरि चैत्यवासिश्रोना मंगळमां दीक्षित थया दता तां परम विद्वान् होवाथी तेमणे तेमना पनुं खुब खंमन कयुं बे.
श्री मामलो एटले लगण वध्यो के निर्गंथ मार्ग विरलप्राय rs पयो, निर्गंथ प्रवचनपर ताळां देवायां ने कपोल कल्पित ग्रंथो तेमनी जग्याए नजा करवामां श्राव्या, एटलुंज नहि पण संवत् ८०१ नी सालमां वनराज चावकार ज्यारे दिलपुर पाट वसाव्यं त्यारे तेमना चैत्यवासि गुरु शीळगुणसूरिए तेना पासेबी वो रुक्को लखावी लीधोके या राजनगरमां श्रमारा पदना यतिधो सिवाय वसतिवासि साधुखोने दाखल थवा नहि देवा. ते रुक्काने तोरुवा माटे जयदेवसूरिना गुरु जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसुरिए सं. १००४ मां डुर्लजदेवनी सजामां चैत्यवासियो साथै विवाद करी जय मेळव्या, त्यारथीज पाट मां वसतिवा सियोनी यावजाव शरु थ.
श्रा रीते चैत्यवासिनी पेहेली दार जिनेश्वरसूरिए करी बतां जु मारवाकमां तेमनुं जारे जोर रह्युं दतुं ते जोर तोकवा तेमना अशिष्य जिनवल्लज सूरिखमा थया. तेमणे आगमना पहने अनुसरी पोतानी अद्भुत कवित्वश चिना बळे युक्तिपुरस्सर तेमनुं खंकन करवा
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अथ श्री संघपट्टका
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नांमयु. ते प्रसंगे तेमणे या संघपट्टक' नामनो चालीश काठयनो
उत्तम ग्रंथ रच्यो बे. एमां तेमणे ते वखते चैत्यवासिओन के, जोर · हतुं, केवी रीते ते सूत्र विरुद्ध प्रवर्त्तता इता अने सुविहितमुनि
तरफ ते केवो वेषनाव राखता हता ते सघळ आबेहुब दर्शावीने तेमनी सारी रीते काटकणी करी विधिमार्गना रागिजनोने उत्ते. जित कर्या बे.
त्यारबाद तेमणे चीतोमना मुख्य श्रावकोने प्रतिबोधित कर्या एटले ते श्रावकोए त्यां वीरप्रजनुं विधिचैत्य बंधाव्युं ते चैत्यना गर्नगृहना दरवाजाना बे स्तंनोमां एक उपर श्रा संघपट्टकनां चाळीश काव्य अने बीजा स्तंन उपर तेज आचार्ये रचेल धर्मशिकानां चुमाळीश काव्य शिलालेखमां कोतरावी ते ग्रंथो शिलारुढ कराव्या. ते नपरांत बजामां ते चैत्यमां केवी रीते वर्तवं ते माटेना नियमोनां काव्यो पण कोतराव्यां ने जेमांनां बे काव्य श्रा प्र. माणे :
अत्रोत्सूत्रि जनक्रमो न च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयौ न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि; जाति ज्ञाति कदाग्रदो न च न च श्राक्षेषु तांबूल मित्याला त्रेय मनिश्रिते विधिकृते श्रीवीर चैत्यालये १
जावार्थः-श्रा स्थळे सूत्रविरुद्ध चालनार माणसनो हुकमहुदो नथी, हमेशां रात्रे स्नान करवामां आवनार नथी, साधुऊनी मालकी श्रथवा रहेगण शहां नथी, रात्रे स्त्रीउने पेसवा देवामां श्रावशे नहि, नात जातनो कदामह श्हां करवामां श्रावशे नहि,
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-49. अथ श्री संघपक:
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अने श्रावकोने थूकवा वगेरेनी मनाई करवामां आवे बे एम निश्रारहित विधिए करेला वीरप्रजुना श्रा चैत्यालय माटे फरमान करवामां आवे बे.
इह न खलु निषेधः कस्यचि बंदनादौ, श्रुतविधि बहुमानी त्वत्र सर्वाधिकारी; त्रिचतुरजन दृष्ट्या चात्र चैत्यार्थ वृद्धि, व्यय विनिमय रक्षा चैत्य कृत्यादि कार्य
जावार्थः-इहां कोइने पण दर्शन पूजन करवा माटे ना पामवामां आवनार नथी; वळी सूत्रनी विधिने मान आपनार हरकोइ माणसने इहां अधिकारी तरीके गणवामां आवशे; तेमज श्रा देरासरना पैशाने त्रण चार जणानी नजर हेठे व्याजे धीरी वधारवा, खरचवा, नथल पाथल करवा, संनाळी राखवा, तथा देरासरना कामकाज करवानुं फरमाववामां आवे बे. ___ आबे श्लोकपरथी खुब्यु जणाय डे के तेमणे बहुज महापण जरेला नियमो त्यां कोतराव्या बे.
श्रा रीते आ संघपटक नामनो ग्रंथ रचवामां आव्यो तथा चीतोममा विधि चैत्य नहुँ थयुं एटले श्री जिनवानसूरिपर चैत्यवासिव अतिशय गुस्से थर पांचसो जण लाकमोन लश् तेमने मार मारवा तेमना मुकामे श्राव्या, परंतु चीतोमना राणाए तेमने तेम करतां अटकाव्या. ___तेम तां जिनवराजसरिए हिम्मत राखो आखी मारवाममा
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* अथ श्री संघपट्टकः -
तेमने उघामा पानी तेमने जेटला बने एटला जांखा पाया. श्र ते एम चैत्यवास खंरुन माटे या संघपट्टक नामे ग्रंथरूपी म हेल चणीने जो कर्यो.
बाद तेमना माटे महा प्रतापी श्री जिनदत्तसूरि दादा थया, तेमणे विद्याना चमत्कारथी मोटा मोटा श्रावकोने पोताना पक्षमां लइ चैत्यवा सिर्जना चैत्याने अनायतन एटले पेशवाने योग्य ठरावी पोताना गुरुए चणेला महेलपर कळशारोपण कर्यु.
जिनदत्तसूरिए घणा रजपूताने प्रतिबोधी नवा श्रावक कर्या ते दादाजी तरीके आज लगण ओळखाय बे. त्यार के प्रवखुशिळीने न्याय निपुण श्री जिनपत्तिसूरि पेदा थया. तेमणे पूरा जोसथी चैत्यवासिश्रोने खोखरा करवा मांड्या, छाने श्री जिनसूरिए रचेला संघपट्टक उपर त्रण हजार श्लोक प्रमाणनी न्यायथी नरपुर मोटी टीका रची, जिनवल्लनसूरिए चणेला महे लने चुनाथ बोबंध करी तेने अतिशय टकाउ कर्यो; ते उपरांत एमणे चोराशी वादस्थळ करीने पोतानी प्रथाग बुद्धि जगजाहेर करी बे.
सदरहु जिनपतिसूरिना प्रतिबोधित नेमिचंद्र नांमागारिक नामना पाटणना निवासी श्रावक पण एटला महाविद्वान् थया के तेमणे प्राकृत जावामां एकसो साठ गाथानो षष्टिशतक नामे विधिमार्ग उत्तम ग्रंथ रची चैत्यवासिखोने दिग्मूढ कर्या. श्रा रीते नेमिचंद्रनंमारिए जिनवल्ल नसूरिए चणेला महेलपर धजा फरकती करी.
बाद सदरहु नेमिचंद्रजंगारोना पुत्रे जिनपत्तिसूरि पाले दीक्षा लर जिनेश्वरसूरि नाम धारण कर्यु- तेमना शिष्ये जिनदनसूरिए
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अथ श्री संघपट्टका
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रचेली संदेहदो'लावली नामना ग्रंथउपर टीका रची तेमां चैत्यवासिओना चैत्योने न्याय पुरस्सर अनायतन ठरावी जिनवबन्ने चणेला महेलने फरतो किबो बांध्यो.
आ रीते पेहेला जिनेश्वरसूरि के जेथोए सं. १४ मां चैत्यवासियोने पहेल प्रथम हराव्या त्यारथी मामीने तेमना वंशना आचार्योए ठेठ सं. १४६६ लगी तेमनो पराजय करवो चालु राख्यो. थाथी करीने मारवाममां सघळा स्थळे तेमनी जममुळ नखमी गइ अने वसतिवासीोनो विजयको वाग्यो.
श्राणीमेर गुजरातमां तो मुळथी ज तेमनुं जोर कमती हतुं बतां मुनिचंडसूरिए तेमने सऊमरीते उखेमवा मांगया हता अने त्यार के पुनमिया गाना आचार्यों उठया, बीजी तरफ आंचfळक नग्या, त्रीजा श्रागमिक गठया अने तेमना केमे तथा सोमसुंदरसूरिना शिष्य मुनिसुंदरसूरिए बाकी रहेला चैत्यवासियोने पुरती रीते पायमाल करी श्राखी गुजरात, तथा सौराष्ट्र, अने माळवामां वसतिवासि मुनिश्रोनो विजयनाद वगाड्यो.
श्रा रीते विक्रमनी पंदरमी सदीना आखरे चैत्यवासनुं जोर तूटयुं, अने फरीने वसतिवासियोनी मान्यता वधी. एम वीरप्रनुना निर्वाणथी एक हजार वर्ष वीत्या बाद जोर पर चमेलो चैत्यवास लगनग एक हजार वर्ष लगी चालीने पालो सदंतर बंध पड्यो तेनी हिमायतमां रचायली नियमोनी नपनिषदो गुम थई भने फरीने निर्मथप्रवचन विकाशमान थवा लाग्यो.
परंतु काळनो महिमा विचित्र डे एटले के जे आचार्योए कमर
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4. अथ श्री संघपट्टका
कसी चैत्यवास तोड्यो तेमना ज वंशजो फरीने शिथिलाचारमा हमणा पाला फसी पड्या बे. ते हाल पोताने गोरजीना नामे उलखावे के अने जो के ते चैत्यमां-निवास नथी करता तोपण चैत्यना पमखे बांधेला अपासरारुप मठमां रहीने हाल मठवासी बनेला बे, ते मांजे समजु ले ते पोताना शिथिलाचारने पोतानो प्रमाद जणावी सत्यमार्गने पूषित नथी करता, पण अणसमजु वर्ग एम समजे ले के था मठवास तो अमारी असल परंपराथी ज चाल्यो श्रावे ले तो तेवा जनोने सत्य वात जणाववा खातर आ संघपट्टक तथा तेनी टीकार्नु नाषांतर उपावी प्रसिक करवामां आवे बे.
वळी आजकालना वसतिवासि मुनि पण गृहस्थना घरनी वसति नहि शोधतां खास करीने तेमने उतरवा माटे ज बंधावेली धर्मशाळाउंमां नतरे वे ए पण एक जातनो तेमनो प्रमाद ज . केमके तेमना पूर्वगुरुनए तेम करवा पण अनुज्ञा आपी नथ कारणके एवी धर्मशाळायो आधाकर्मिदोषक्षित ने हवे श्रा समये पूर्वना माफक वनवास के वसतिवास करवो ए अलबत कठण काम बे, तोपण श्रावा ग्रंथो आद्योपांत वांचवाथी एटली असर तो जरुर थशे के समजु मुनियो पोताना ए प्रमादने पोतानी जूल तरीके ज कबूल राखी खरा वसतिवासना निंदक के सोही नहि थशे. कारण के शास्त्रमा कहेलु डे के.
धन्नाणं विदिजोगो-विहिपकारादगा सया धन्ना, विदिबहुमाणी धन्ना-विदिपरकपइसगा धन्नाः
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49 अथ श्री संघपट्टकः
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.. नावार्थ:-जाग्यशाळी जनोने ज विधिनो योग मळे ने माटे विधिपदना सेवनारने हमेशां धन्यवाद देवो घटेले. तेमज विधिने बहुमान देनार तथा बेवटे विधिपदने दोष नहि देनारने पण धन्यवाद देवो घटित .
था कारणथी आज काळमां पण फरीने प्रमादरुप अंधकारनुं जोर वध्युं ने एटले तेमां प्रकाश श्रापनार संघपट्टक, संदेहदो'लावळी, तथा षष्टिशतक जेवा ग्रंथोनी टीकाओनां गुजराती भाषांतरो बाहेर पानी लोकोने फरीने जागृतिमां लाववानी जरूर उनी थई बे.
ते जरुरने पूरी पामवा थोमा वर्षपर विधिमार्गना पक्षनी हिमायतमां तत्पर थएला अने सत्यप्ररुपकरुप पदने धारण करनार मुनिराजश्री बुटेरावजी महाराजना परमजक्त श्रीयुत शांतिसागरजी महाराजे पोताना फूरसदना वखतमां संघपट्टकनी टीकार्नु लाषांतर तैयार कर्यु हतुं. तेज नाषांतर हाल अमे मूल पाठ साथे कायम राखीने जेम रचेढुं तेम पाव्युं .
श्रा नाषांतरनी जाषा हालनो नाषा पहतिने बंधबेस्ती थाय तेवी नथी तेमज तेमां प्रमाण तरीके अपायला पाउनो पण घणा स्थळे संपूर्ण अर्थ आपवामां नथी श्राव्यो तथा बीजी पण केटलीक खामी हशे ज केमके तेमनो ए प्रथम प्रयास ज हतो, बतां तेमनी कृतिमां तेममा हृदयनी केवी सरळता अने उच्चता हती ते जेवी स्पष्ट जणाय देवी जाषांतर फेरवी नाख्याथी नहि जणाय ए कारपने अनुसरी श्रमे तेमां कंश फेरफार नहि करतां हाल, जेम तुं
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4 अथ श्री संघपट्टकः
तेम कायम राख्युं बे. बतां बीजी यावृत्ति कहारुवानो प्रसंग याव शे तो वर्त्तमान भाषाशैलीने अनुसरतुं जाषांतर उपाववानो ज - मारो इरादो .
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टीकाना मूलपाठने तथा भाषांतरने श्रमे श्रमाराथी बने तेटलो प्रयास लइ शुद्ध करावी बपाव्यां बे, बतां तेमां असल प्रतनी शुद्धिना कारणे तथा प्रुफ तपाशनारनी नजर चूकना कारणे जे कंड जूलो रही बे ते माटे सुइ वाचकोने विनंति करवामां आवे छे केते ते बाबत मारापर क्षमा करीने ते सुधारी वांचवी. कार
के श्राश्रमारी प्रथमावृत्ति वे एटले तेमां अवश्य भूल चूक रहे. माटे ते दरगुजर करी सुइ वांचको आा पुस्तक वांची तेमांथी सार ग्रहण करी विधिमार्गना रागी थइ सद्गुणो तरफ आकर्षित थशे तो मारो प्रयास सफळ थयो गणीभुं.
आजकाल लोकोनी दृष्टि रास वगेरे कथानिक ग्रंथो उपर वधती दोने बे, पण खरी रीते तो श्रावा चाबुक समान पुस्तको वांचवामां ज वधु फायदो मळे बे. केमके कद्देवत बे के " करुवे उसम विन पिए मिटे न तनको ताप " माटे प्रमादरुप तावने उतारवा खातर यावा कटुकौषधसमान बतां परिणामे तावने दूर करी श्रारोग्यता आपनार उत्तम ग्रंथो दरेक जणे अवश्य वांचवा तथा विचारवा जोइये.
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मां पण मुख्यत्वे करीने आजकालना यतिओ तथा मुनिश्रोए तो खास व्याख्यानमां ज श्रावा ग्रंथो वांचीने जोळा लोकोने सीधे मार्गे दोरवा जोश्ये.
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* अथ श्री संघपट्टका
वळी संस्कृतनापानी शैलीथी तद्दन अजाण रहेता केटलाएक ढुंढकमार्गी जनो परमार्थ तपाश्या वगर आंखो बंध राखीने एम लखता रहे डे के संघपट्टकमां जिनवबनसूरिए जिनप्रतिमा मानवानी ना पामी , तो तेमणे जरा धीरज राखोने या पुस्तक एकवार आद्योपांत वांची जवु जोश्ये के जेथी तेमने पक्की खातरी थशे के जिनवबजसूरिए जिनप्रतिमा तथा जिनचैत्यने तो मगले ने पगले स्थापित कर्यां बे, बाकी फक्त तेश्रोए चैत्यमा यतिम्रोए वास न करवो ए बाबतनो ज पोकार करेल ..
श्रा रीते या पुस्तक एकंदरे दिगंबर, श्वेतांबर, तथा ढुंढक ए त्रणे पक्षना अनुयायिउँने तथा अध्यात्म मार्गिनने पण वाचवायो. ग्य ले एमां जराए संशय नथी.
हवे ा प्रस्तावना समाप्त करवा पहेलां अमारे लोकोमा चाखता थोमाक शब्दन्त्रमने नांगवानी पण खास जरुर जे. त्यां संघ शब्दनो मूल अर्थ ए के संघ एटले साधुऊनो समुदाय, अगर चतुर्विध संघ कहेवामां आवे तो साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकानो समुदाय गणाय. तेना बदले आजकाल फक्त श्रावकना समुदायने ज संघ कदेवामां आवे . प्रथम यात्रार्थे जे संघ नीकळतो तेमां साधुसाध्वीओ पण साथे रहेतां एटले तेना माटे संघ शब्द वापरवामां कंइ पण वांधो न इतो, पण हवे तो एकला श्रावकोना टोळाने पण संघ कहेवामां आवे , ते शब्दज्रम थएल लागे . माटे आ संघपट्टकमां वपरायला संघ शब्दनो अर्थ साधुसमूह अथवा च. तुर्विध संघ डे एम जाणवू.
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48 अथ श्री संघपट्टकः --
बीजो शब्दम आजकाल का वगेरे स्थळे देराने माननार मासने देशवासी कक्षेवामां आवे बे ते बे. देशवासी ए शह चैत्यवासीनो पर्याय बे, छाने तेनो अर्थ देरामां रहेनार एवो थाय बे; वे याजकाल देराने माननारा देरामां कं रहेता नथी, बतां पोताने ढुंढियाथी खळगा उळखाववा माटे पोताने देशवासी त रीके नळखावे वे एटलुंज नहि पण खुद मुंबई जेवा शहरमां की वीशा श्रोशवाळा पोतानी पाठशाळाने देशवासी बीशा श्रोशवाळ पावशाळा तरीके नाम आप्युं वे ए केटलीबध अज्ञानता बे ! एज रीते ढुंढिया श्रावको पोताने स्थानकवासी तरीके ओळखाववामां मोटुं मान समजे बे पण ते विचाराने पण खबर नथी के स्थानक एटले शुं ? तेमले पोताना साधुधोने उतरवानुं जे मकान बंधाव्युं होय बे तेने तेयो स्थानक एटले ठेकाएं एवा नामथी उळस्खे बे. कारण के ते मकानने व्याजबी रीते शुं नाम खापवुं जोयेते तेमने संस्कृत जापाना अज्ञानपणार्थी मालम पमयुं नहि लेथी सेम यहाथी तेनुं स्थानक एवं नाम आप्युं. हवे ते नाम कबूल राखीये तो पण तेमना साधुओ स्थानकवासी कद्देवाय, पण श्रावको तो घरवासी ज बे बतां पोताने स्थानकवासी तरीके ओोळखावी अजाणपणे मृषाभाषी थाय बे एप एक आश्चर्यनीज वात े.!
वी रीते शब्दमर्थी लांबा काळे अथैना अर्थ थाय बे, इतिहासना खरा मुद्दापर पाणी फरी वळे बे, छाने विनोमां हास्यास्पद थ पके बे. माटे सुइजनोए धार्मिक संस्थानां नामवाम विचार कर्या पूर्वक ज पावां जोइये.
हवे, या प्रस्तावना पूरी करतां अमो या पुस्तकना सुझ
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
(१७) वाचकोने एवी विज्ञप्ति करीए बीए के आ ग्रंथ शा उद्देशथी रचवामां आव्यो बे ते नद्देशपर तेमणे खास नजर राखवी जोइए अने तेम नजर राखवामां आवे तोज ग्रंथकारनो आशय समजी शकाय बे. ते उद्देश एबे के खरो जिनमार्ग शो बे तेनी शोध करीनें ते प्रमाणे वर्त्ततुं श्रनेकदाग्रह तथा कुतर्कने डर करी निष्कपटजावे पोताथी जेटलुं धर्मकार्य थाय तेटलुं तेनी विधि साचवीने साधकुं के जेथी स्वपरनुं कल्याण याय.
या ग्रंथ उपावी प्रसिद्ध करवामां मने योग्य सलाद थापनार मारा परमप्रिय मित्र शा. जमनादास घेलामाइनो या स्थळे उपकार मानवामां आवे छे कारण के मने तेमणे तन, मन, अने धनी मदद करी उपकारी कर्यो बे. तेथी ते माटे तेमनो या स्थळे आजार मानुं बुं.
आ पुस्तक प्रसिद्ध करवामां मारो प्रथम प्रयास बे. तेथी कोइपण जातनी जुलचुक जोवामां आवे ते वांचको सुधारी सुज्ञ लेशे अने मने सुचना करवामां श्रावशे तो द्वितीयावृतिमां सुधारी बइश,
बी. प्रसिद्ध कर्त्ता.
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श्री जिन वल्लनसूरिनो संक्षिप्त इतिहास.
- विक्रमनी बारमी सदीनी शरुवातमां श्रीअजयदेवसूरिनामे महाविद्वान् श्राचार्य थया. तेमणे स्थानांगसूत्र विगेरे नव अंगोनी टीका सं. ११२० थी सं. ११२७ लगीमां रची ने तेथी ते नवांगी वृत्तिकार तरीके नळखाय . ते उपरांत तेमणे नववा नामना नपांगनी टीका तथा दरिनजसूरिकृत पंचाशकनी टीका पण रची.
ते समयमां को जिनेश्वर नामना चैत्यवासि यतिनो जिनवखन नामे शिष्य हतो. ते व्याकरण तथा न्याय शीखी सूत्रो वांचवा तैयार थयो. त्यारे तेना गुरुए तेने सूत्रोनुं ज्ञान मेळववा माटे अजयदेवसूरिना पासे मोकलाव्यो.
आ जिनवखन व्याकरण श्रने साहित्यमा मूळथीज एवो प्रवीण थयो हतो के तेणे अन्नयदेवसूरि पासे आवतां काव्यो बोखीने सवाल पूडवा मांड्या. हवे अन्नयदेवसू रिए तेने खरेखरो बुझिशाली जोश्टुंक वखतमां सूत्रज्ञान कराव्यु.सूत्र झान थतां जिनवडूनने नारे वैराग्यनो रंग चड्यो एटले तेणे पोताना गुरु पासे जइ जणाव्युं के मने रजा श्रापो तो हूं अन्नयदेवसूरिनो शिष्य थर नग्र विहार श्रादरु. गुरुए तेनापर कृपा करो तेने तेम करवा रजा यापी. ते उपरथीते अजयदेवसूरिने उपसंपन्न थर जयविहारी मुनि थया.
हवे अजयदेवसूरि स्वर्गवासी थतां तेउ तेमना पाटे बिराज मान थया था बखते मारवार तथा मेलामा चैत्मवासि बोकोनो
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(२०)
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अथ श्री संघपट्टका
एटलो जोरदोर चालु हतो के तेन सूत्र विरुडआचारने सूत्र सिक तरीके नोळा:लोकोने समजावी धमधोकारपणे जैनमार्गथी उलटुं आचरण चलाववा लाग्या हता. तेश्रो एटला गर्विष्ट बन्या हता के साधुः कहेनारने लाकमायो मारवा तैयार थता हता. एथी तेमना सामे माथु नचकवाने कोश्नी हिम्मत चालती नहि. __ श्रावो मामलो जोश्ने श्रा जिनवबनसूरिना हृदयमा लोळा खोकोना नपर करुणा पेदा थर तेश्रो:मूळथीज नारे हिम्मतवान्, वैराग्यवान् अने अने महा विद्वान् इता एटले तेमणे पोताना मनमां ठराव कर्यों के गमे तो जीव जाय तो तेवा जोखमे पण मारे आ कुमार्ग तोमवा मथ. या ठरावने अनुसरी तेमणे चीतोममां जश्ने चैत्यवासिओनी सामे पोकार नगव्यो. तेमनो सत्य नपदेश सांजळी त्यांना समजु श्रावको तेमना रागी थया. ते जोश्ने श्राजुबाजुना चैत्यवासियोने जय पेठगे के था माणस एवी सत्तावाळो ले के एने बूटो मेलीशुं तो आपणी मोमेवेहले जम उखेमी नांखशे. तेपरथी चीतोममां पांचसो चैत्यवासि यतिश्रो एकठा थइलाकमी. श्रो खेश्ने जिनवबजने मारी नांखवा तैयार थया, पण त्यांना रागी श्रावकोए ते बाबत चीतोमना राणाने चेतावतां राणाए तेम करतां तेमने अटकाव्या.
श्रा तकरार नपरथी चीतोमना विधिमार्ग रागी श्रावकोए पोताना माटे त्यां खास नवु मंदिर बंधाव्युं अने तेमां जिनववन्नसूरिना हाथे वीरप्रजुनी प्रतिष्टा करावी. ...श्रावी रीते जिनववनसूरिए मारवाममां गमे गमे खरा
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अथ श्री संघपका
मार्गनो नदघोष चाबु को. ते साथे तेमणे संघपट्टक नामे चाळीश काव्यनो ग्रंथ तथा धर्मशिक्षा नामे चुमाळीश काव्यनो बीजो ग्रंथ रचीने ते बे ग्रंथ चीतोमना मंदिरमां शिळापर कोतरावी कायम कर्या. ए शिवाय तेमणे छादशकुलक एटले बार कुलको रच्यां तथा श्रागमिकवस्तुविचार तथा सूदमार्थ विचार नामे बे कर्मग्रंथना उत्तम ग्रंथ रचेला बे. ते बे ग्रंथोपर तेमना पड़ी थएला मखयगिरि वगेरे धुरंधर श्राचार्योए टीका रची जिनवखनसूरिनी रुमी रीते कीर्ति, गाइ जे. वळी तेमणे संस्कृत सरखी प्राकृतनाषामां जावारिवारण नामर्नु वीरप्रजनुं स्त्रोत्र रची पोतानी अनुत काव्यशक्ति जगजाहेर करी .......... .: जिनववनसूरिना श्रा महा पराक्रमथीज चैत्यवासिउनुं जोर तूटयुं ते वात ध्यानमा राखीने सर्वे गडवाळा तेमने अंतःकरणथी धन्यवाद प्रापे . ... खरेखर श्रावा महापुरुषनां श्रापणे जेटलां वखाण करीये तेटलां थोमां . केमके एवा हिम्मत बहाउर माणसो था जगत्मा बहु विरलाज जन्मे .
श्रा जिनवखनसूरि क्यारे श्राचार्यपदारुढ थया अने क्यारे स्वर्गवासी श्रया तेनी अमने शालसंवतनी चोकस माहिती मालम नथी तापण तेमना गुरु अजयदेवसूरिए सं. ११२७ मां टोका रची तैयार करी एटले तेपरथी थापणे एटली अटकळ बांधी शकीये बीये के तेमना शिष्य था जिनवल्सनजी बारमी सदीना मध्यमां गाजता वाजता होवा जोश्ये.
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(२२)
अभीमी संप
इतिहासद्वारा तपासतां तेमना वखतमां सिद्धराजनुं राज्य दतुं केमके सं. १२४५ मां सिद्धराज गादीए बेठगे दतो अने तेथे पचाश वर्ष राज्य कर्यु डे. माटे या जिनवल्लजसूरिने सिद्धराज स. मकाळीन गणी शकाय.
महापुरुष पासे बीजी एक एवी विद्या पण इती के तेना बळे ते सर्पाने बोलावी शकता छाने पाढा तेमने विसर्जन करी होकता हता.
तेमा स्वर्गवास पढी लेमना पाटे जिमदतसूरि बेम. तेथो जिनवल्लनसूरिना जेवा जारे विद्वान् नहि दता तोपण तेमना पासे मंत्र सिद्धि एवी सरस इती के तेमथे हजारों रजपूताने प्रतिबोधी श्रावको कर्या. तेथी तेश्रोना चरणकमळ आजलगण दादाजीनां पगलां तरीके गामोगाम पूजाय डे.
श्रा रीते जिनवल्ल सूरितो संक्षेपमां श्रमारी जाप प्रमाणे श्रमे इतिहास श्राप्यो बे. तेम बतां श्रमने खरतरगच्छनी मोटी पट्टावळी तथा गणधर सार्द्धशतकनी टीका हाथ लागी नथी, पपा जो ते हाथ लागी होत तो चोकस साल वगेरे आपीने वधु ब्यान थापी शकत.
ली. प्रसिद्ध कर्त्ता.
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॥ श्री वीतरागाय नमः॥ ~* ॥ श्री संघपट्टकः ॥ *र
यस्यां तःसन्न मायतांसलजुजाः स्तन्व श्चतस्त्रः समं नांतिस्म च्युततांतिकांतिलहरीलोल त्रिलोकश्रियः। शंक वल्गदनविग्रहनवोपग्राहिकर्महिषा . मास्यूता विजिगीषया नगवता पायात् सवीरोजिनः ॥१॥
अर्थः-जेना समोसरणनी सनामां चारे दिशाने विषे चार मूर्ति साथे शोजे . ते वीरजिन सर्वेनी रक्षा करो, ते मू. नि केवी ? तो के, शोजायमान खन्नाना नागथी सुंदर दीर्घ हाथ जेना एवी, जेनी मोटी कांतिना समुहरूपी तरंगने विषे त्रण लोकनी लक्ष्मी विलास करी रही जे एवी चार मूर्ति जणाय . ते उपर कवि उत्प्रेक्षा अलंकार करे , जेम नवोपग्राही चार कमरूपी शत्रु आत्मा साथे एकनावने न पामे एवाज कारणथी जाणे जीतवानी श्वाए ते लगवाने चार मूर्ति साथे धारण करी डे के शुं ? ॥१॥ क्वेमा श्रीजिनवबनस्य सुगुरोः सूमार्थसारागिरः क्वाहंतम्वृितौक्षमः क्लमजुषा धुर्मेधसामग्रणी॥ छिद्गन्नछिपदंतमंजनजुजस्तंन्नै जयश्री क्वनु प्राप्यासंगरमूर्द्धनि व्यवसित क्लीवाक्वतशिप्सया ॥२॥
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(२)
8. अथ श्री संघपटकः --
अर्थः-टीकाकार कहे डे के मारा सुंदर गुरु जे श्री जिनववनसूरी तेमनी घणा सूक्ष्म अर्थवाळी ने प्रधान एवी था ग्रंथ रूपी वाणी ते क्या ? ने खेद पामनार मंदबुद्धि पुरुषमा अग्रेसर एवो हुँ ते क्यां? जे तेमना ग्रंथनी टीका करवाने समर्थ था ? ते उपर दृष्टांत असंकार कहे जेम मोटा संग्राममां, जेणे शत्रुना मदोन्मत्त हाथीना दांत, पोताना हाथरूपी थंन वझे चुरा कर्या ने, एवा शूरवीर पुरुषने पामवा योग्य, जे जयलक्ष्मी ते नपुंसक पुरुषने क्यांथी मळे ? अर्थात् नहींज मळे. ते नपुंसक पुरुष केवो ? तोके ते जय लक्ष्मीने पामवानी श्वाए संग्रामना मस्तक उपर निश्चय करी रह्यो ने एवो. ॥५॥
तथापि तस्यैव पदप्रसादःफलिष्यति प्राक् मम निर्विवादः ॥ किमंग पंगो नवनांगणस्ट कल्पमापूरयते न कामान् ॥३॥
अर्थः-तो पण ते श्रीजिनबबनसूरिना चरणनो प्रसाद मारा उपर दे, तो शीघ्र फळीभूत अशे तेमां कांश विवाद (संशय) मथी. ते उपर दृष्टांत कहे जे-जे शरीरे पांगळो जे. तेना घरना खानपा आगल रहेलो कल्पवृक्ष धुं तेना मनोरथ नहीं पूरे श्र
र्थात् पूरो ज. तेम मंदबुझिवाळो हुँ पस ते गुरुना प्रतापपी टी'का करीश ॥३॥
टीकाः-श्हहि सदृशां पदार्थसार्थप्रकटनपटीयसि समूलकाषंकषितनिशेष दोषे निर्वाणचरमशिखरीशिखर मधिरूढे जगवति नामवति श्रीमहावीरे ॥
अर्थः-श्रा लोकने विषे समकितष्टिवाळाने नव तत्वादिक पदार्थनो समूह प्रगट करी देखामवामां अतिशे चतुर अने मूळ
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....... अथ श्री संघपटक .. मांथी नाश कर्या ने समस्त दोष जेणे एवा जगवान महावीररूपी सूर्य निर्वासरूप चरम शिखरिना शिखर उपर गये ते पटले महावीर स्वामी मोद पामे बते.
टीकाः-तदनु सुषमासमयन्नविष्नुदामाश्चर्यमहादोषांधकारोदयात्तनिमान मासादयति जिनराजमार्ने ।
अर्थः-त्यार पठी दुःखमा समयने विषे यतुं जे दशभु श्र. संयति पूजा रूपी आश्चर्य ते रूपी महारानीना अंधकारना उदयथी जिनराजनो मार्ग अतिशे हानि पामे बते.
टीकाः-मंदायमानेषु सदृष्टिषु सात्विकेषु सत्वेषु प्रोज्जूंनमाणेषु सदालोकबाह्येषु तामसेषु ॥
अर्थः-समकित दृष्टि सात्विक प्राणी मंद आये उते,अनेसारी दृष्टि थकी रहित तमोगुणी प्राणी अतिशे उदय पामे उते.
टीका:-निरंकुशमत्तमतंगजबद्यथेच गर्जत् संचरिष्णुषु प्रमादमदिरामदावदायमानानक्य विद्यासंपत्तिषु सातशीलतया स्वकपोलकल्पनाशिस्पिकस्पित जिनजवननिवासेषु ॥ ___ अर्थः-वळी ते तमोगुणी असदृष्टि प्राणी अंकुश विनाना मदोन्मत्त हाथीनी पेठे पोतानीज का प्रमाखे चालता एवा ने प्र. मादरूपि मदिराना केफे करीने सारी विद्यारूपि संपत्ति जेमणे खंमन करी अथवा जेमनी विद्या संपत्ति नाश पामी ने एषा ते पुरुष सुखशीलपणे जिननुवनमा निवास करवो एवी पोतानी कपोल करूपनानी चतुराइ कहें उते.
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(४)
8. अथ श्री संघपट्टकः :टीकाः-चौलुक्यवंशमुक्तामाणिक्यचारुतत्वविचारचातुरी धुरीण विलसदंगरंगनृत्यन्नीत्यंगनारंजितजगजानसमाजश्रीदुलजराजमहाराजसन्नायां ॥
अर्थः-चौबुक्य राजाना वंशमां मोतीमाणिक्य समान शोलायमान ने तत्वविचारनी चतुराई करवामां घणो श्रेष्ट ने जेना सुंदर अंगने विष नीति रूपी स्त्रीविलास करी रही , तेणीए करीने जगतना जनसमूहने प्रसन्न करतो एवो श्री दुर्लनराज नामे मोटो राजा तेनी सन्नाने विषे.
टीकाः-अनपजल्पजलधिसमुबलदतुविकल्पकबोलमालाकवलितवहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्या संविग्नमुनिनिवहाग्रण्या सुविहितवसति पथप्रथनर विणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा॥. ..
. अर्थः-घणा वादरूपी समुज्थी उपलता मोटा विकल्परूपी कबोलोनी श्रेणीये करीने घणा प्रतिवादि पंमित समूहना तर्कनुं जक्षण करता एटले प्रतिवादीने हगवता जे पंमित ते मध्ये श्रेष्टने संवेगी साधु समूहमा अग्रेसर ने सुविहित पुरुषोना परघर निवास मार्गनो विस्तार करवाने अथवा शास्त्रमा कहेलो जे मुनिने थाप्रकारना स्थानकमा रहेवू इत्यादिक जे सिद्धांत मार्ग तेनो विस्तार प्रकाश करवाने सूर्य समान वादि सिंह श्री जिनेश्वरसूरि जे तेमणे.
टीकाः श्रुतयुक्तिनि बहुधा चैत्यवासव्यवस्थापनं प्रति प्रतिक्षिप्तेष्वपि लांपव्यानिनेवेशान्यां तन्निबंध मजहत्सु यथादेषु
अर्थः-लिंगधारीए करेखा चैत्यवासनास्थापनने घणा सि
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अथ श्री संघपट्टकः ..
शांतनी युक्तिए करी खंमन कर्यु तो पण लंपटपणाथी तथा श्रनिनिवेशक मिथ्यात्व (कदाग्रह) ना उदयथी पोताना हग्वादने नहीं मूकनारा अने पोतानी इच्छा प्रमाणे वर्तनारा एवा ते लिंगधारी थये बते.
टीकाः-तत स्तमुत्सूत्रदेशनाविरलगरललहरी चरीकृष्यमाणहृदयनूमिनिहितचेतनाबीज मुदग्रदुर्निग्रहकुग्रहावग्रहशोशुष्यमाणविवेकांकुरं निरर्गल मुखकुहरनिःसरदुर्वाणी कृपाणीकृत्तधार्मिकमर्माणं श्रासंघ निरीक्ष्य ॥
अर्थः-त्यार पठी ते लिंगधारीनी उत्सूत्र देशनारूपी मोटा हलाहल फेरनी लेहेरोए करीने; “जेनुं हृदयरूपी पृथ्वीमा रहेढुं ज्ञानरूपी बीज, अतिशे खेंचाइ गयुं जे एवो तथा जेना विवेकरूपी अंकुरा आकरा अने माग कदाग्रहरूपी दुकाळ पमवाथी अतिशे सुकाया ने एवो, तथा जेने बोले बंध नथी एवां मुखरूपी रिमांथी नीकळती माठीवाणीरूप तरवारे करीने धार्मिक लोकोनां मर्मस्थळ जेणे द्यां , एवो श्रावकनो समूह थयो ते देखीने
टीकाः-तदुपचिकीर्षयाहृद्यानवद्यसमग्रविद्या नितंबिनीचुंबितवदनताम रसः सांसंवेगशास्त्रार्थरसायनपानवांतकामरसः॥ ... अर्थः-तेमनो उपकार करवानी श्छाये, सुंदर अने निर्दोष एवी समस्त विद्यारूपी स्त्रीयोये जेना मुख कमलने चुंबन कर्यु में, अर्थात् जेना मुखकलमां सर्व विद्यायो पोतानी मेळे श्रावीने रहेखी ने एवा, अने घणां वैराग्यवंत शास्त्रनोनावार्थ जाणवा रूप रसायन औषधनुं पान करीने कामरस वमन कर्यो ने एवा.
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8. अथ श्री संघपट्टकः ।
टीका-सुविहितमुनिचकवालशिखामणिः सिद्धांतविपर्यस्तनरूपणमहांधकारनिकारतरणिः सुगृहीतनामधेयःप्रणतप्राखिसंदोह वितीर्ण शुननागधेयः ॥
अर्थः-(तथा) सुविहित मुनिना समूहमां चूमामणि समाम, अने सिकांतनी अवळी प्ररूपणा करवारूप मोटा थंधारानो नाश करवामां सूर्य समान, तथा सुंदर ग्रहण करवा योग्य नाम ले जेनुं एवा, तथा नमस्कार करनार प्राणीना समूहने शुल जाग थापनार अर्थात तेमनु हित करनार एवा.
टीका:-चैत्यवासदोषनासन सिद्धांताकर्णनापासितकृतचतुमंतिसंसारायासजिनजवनवासः॥
अर्थः-ने चैत्यवासना दोषने प्रकाश करनार सिकांतना सांनळवाथी चार गति संसारमा ब्रमण करबारूप खेद, जेथी थाय एको चैत्यवास जेणे त्याग कयों ने एवा.
टीकाः सर्वज्ञशासमोत्तमांगस्थानादिनवांगवृत्तिकृड्रीमदनबदेवसूरिपाइसरोजमूले गृहीतचारित्रोपसंपत्तिः॥ ..
अर्थ:-ने जिन शासनना उत्तम अंग (मस्तक) समान जे स्थानांम श्रादि नव अंग तेमनी वृत्ति करनार श्री अन्नयदेवसू- . रिना चरण कमल समीपे जेणे चारित्र संपदा ग्रहण करी डे एवा.
टीका-काणासुधातरंगिणीतरंगरंगत्वांतःसुविधिमार्माचमाखनमापुपाहिशदकीर्तिकौमुदी निषूदित्तदिवसीमंतिनीवदनध्वांतः॥ ..
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8. अथ श्री संघट्टका
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अर्थः करुणारूप अमृत नदीना तरंगे करीने जेनुं मन रं. गायुं ने सुविधि मार्गने प्रकाश करवाथी प्रगट यएली निर्मल कीर्तिरूप चंडकांतिये करीने नाश कर्यु ले विशारूपी स्त्रीयोना मुखनुं अंधारु जेणे एवा,
टीकाः-खस्योपसर्ग मन्युपगम्पादि विदुषादुरध्वविध्वंसनमेवा धेय मिति सत्पुरुषपदवी मदवीयसीं विदधानः समुजितजूरिनगवान् श्रीजिनवल्लनसूरिः॥
अर्थः-अने पोताने उपसर्ग थाय तो पण जे विद्वान् होय तेणे कुमार्गनो नाश करवो ए प्रकारनी सत्पुरुषनी रीतिनुं श्रासंबन करता एवा अने घसा कुमति लोकनो त्याग करनारा एवा समर्थ जिनवल्लनसूरि जे ते. . टीका-मोहांधतमसम्बंसनपटिष्टसत्पथप्रकाशनगरिष्टरमदीपायमानं दुर्वासनाशिलासंचयकुवाकं श्रीसंघपटकाख्यं प्रकरणं चिकीर्षुनिखिलप्रत्यूह व्यूहव्यपोहायावा वमु मिष्टदेवतानमस्कार माविश्चकार ॥
अर्थः-मोहरुप गाढ अंधकारने नाश करवामा अतिशे च. तुर, सन्मार्ग प्रकाश करवामां मोटा रत्नदीप समान, हुष्ट वासना रूप शिला समूहने सुरो करनार एका संघषक मामे प्रकरणने करवाने श्वता सता समस्त विन्न समूहमे मा करवाये श्रर्षे इष्ट देवता नमस्काररूप या प्रथम का प्रवाह को ..
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28 अथ श्री संघपट्टकः
॥ मूल काव्यं ॥ वन्दिज्वालावलीढं कुपथमथनधी र्मातु रस्तोकलोकस्याग्रे संदर्श्य नागं कम मुनितपः स्पष्टयन् पुष्ट मुच्चैः यः कारुण्यामृताब्धि र्विधुरमपि किल स्वस्य सद्यः प्रपद्य ॥ प्राज्ञैः कार्य कुमार्गस्खलन मिति जगा देव देवं स्तुम स्तम् ॥ १ ॥ .
टीका:
अर्थ-अथ शब्द मंगलिक बे.
( ८ )
संघपट्टक इति कः शब्दार्थः ॥
प्रश्न - संघट्टक एवं ग्रंथनुं नाम बे तेनो शो शब्दार्थ बे. टीकाः ॥ उच्यते ॥ संघस्य ज्ञानादिगुणसमुदायरूपस्य साध्वादे श्वतुर्विधस्य पट्टकः व्यवस्थापत्रं ॥ यथा राजादयः स्वनियोगियो व्यवस्थापत्रं प्रयचंत्य ऽनया व्यवस्थया युष्मानि व्यवहर्त्तव्यमिति एवमिहापि साक्षा द्विपक्षडुः संघदोषदर्शनद्वारेण स्वपक्ष सुसंघस्य व्यवस्था वक्ष्यमाणा दश्यते इतिन. वति संघपट्टकः ॥
अर्थ उत्तरः- ज्ञानादि गुणना समूहरूप साधु, साधवी, भावक श्राविका ए चार प्रकारनो संघ तेमनो पहक एटले व्यवस्था करनार लेख बे. जेम राजादि कोइ श्रेष्ट माणस होय ते पो ताना सेवक लोकोने व्यवस्था पत्र व्यापे बे. जे या रीते तमारे व्यवहार करवो. एम अहीं पण प्रत्यक्ष जातो शत्रुरूप पुष्ट संघ तेना दोष देखावा ए द्वारे पोताना पक्षरूप रूमा संघनी आगळ
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भथ भी संघपट्टकः --
( ९ )
कड़ीशुं पवी व्यवस्था देखामी छे, माटे संघपट्टक ए प्रकारनुं था प्रथनुं नाम स्थापन कयुं ठे.
टीका- तथाप्यनिधेयादिषयवैकल्या दिद मनर्थक मिति चेतन ॥ प्रतिपादितसंघपट्टकशब्दार्थविवेचनेन त्रयस्या प्या
पात् ॥
अर्थ - तो पण निधेय एटले कहेवा योग्य वस्तु, संबंध तथा प्रयोजन ए त्रण वानां कला विना या ग्रंथ निरर्थक थशे. एम जो आशंका थाय तो ते न करवी. केम जे संघपट्टक एशदानी विवेचना करी तेथे करीनेज ए त्रणे वस्तुनुं व्याकर्षण थयुं वे माटे.
टीका - तथाहि प्रकरणानिधानार्थपर्यालोचनयौ द्देशिक भोजनादिदोष दर्शनद्वारेण तत्परिहाररूपा व्यवस्था ऽत्रानिधेयेति गम्यते ॥
अर्थः- तेज देखाने बे जे संघपट्ट ए नामनो अर्थ विचारी जोतां उद्देशिका दि श्रादार दोष जोवा एटले पोताना निमित्ते नोजन करावी जमे बे, इत्यादि दोष देखवाना द्वारे दोष देखीने ते दोष युक्तनो त्याग करवो ने निर्दोषनुं ग्रहण करवुं यदि शब्दे करीने जिनग्रह वासनो परिहार करवो इत्यादि रूप व्यवस्था श्रा ग्रंथमां निधेय वस्तु बे एम जगाय बे.
टीका:- प्रयोजना विनानावाच्चानिधेयस्य, तदाक्षेपेण प्रयोजन मप्या क्षितं ॥ नहि निःप्रयोजनस्य पदार्थस्या निधानाय सतः प्रवर्तते तत्वहानि प्रसंगात् ॥
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(१०)
8. अथ श्री संघपहा
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. अर्थः-ने प्रयोजन विना अन्निधेय होय नहीं: माटे अग्निधयना थाकर्षणे करीने प्रयोजन- पण थाकर्षण थयु केमके संतपुरुष प्रयोजन विना पदार्थ कहेवाने अर्थे प्रवर्तता नथी शाथी के तत्वहानिनो प्रसंग थाय माटे. एटले सत्पुरुषपणानी हानिने प्रसंग थाय ए हेतु माटे अथवा सार वस्तु (ज्ञान, दर्शन, चारित्र ) नी हानि न थाय एज ग्रंथ करवानुं प्रयोजन .
टीकाः-तच्च विविध मनंतरं परंपरं च ॥ पुन स्तदपि कर्तृश्रोतृन्नेदा विविधं ॥ तत्र कर्तु रनंतरप्रयोजनं विनेयानां संघव्यवस्थाधिगम करणं श्रोतु श्चानंतरं संघव्यवस्था धिगमः परंपरं तु योरपि परमपदप्राप्तिः ॥
अर्थः-ते प्रयोजन के प्रकारनुं ने एक अनंतर ने बीजं परंपर. वळी ते पण कर्त्ता पुरूषने श्रोता पुरूषना नेदथी बे प्रकारनुं ने तेमां कर्ताने अनंतर प्रयोजन तो शिष्योने संघनी व्यवस्थानुं जाणपणुं करावq एज . ने श्रोताने अनंतर प्रयोजन ए ले के सं. घनी व्यवस्था जाणीने ते प्रमाणे प्रवर्तवु, ने वळी कर्ता तथा श्रोता वेने पण एथी मोक्षपदनी प्राप्ति थवी ते रूप परंपर प्रयोजन .
टीकाः तथाऽस्य प्रकरणस्ये दमनिधेय मिति झापयता ज्ञापित एवास्योपायो पेयत्नावलक्षणः संबंधः ॥
. अर्थः-वळी या प्रकरणने आ कहवा योग्य . एमजणावता या ग्रंथकारे उपाय नावने उपेयनाव डे लक्षण जेनुं एवो संबंध जणाव्योज .
टीकाः-तथाही दं प्रकरणं व्यवस्थितसंघव्यवस्थाधिगमो- पाय: उपेयं च तदधिगम इति ॥ .
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28 अथ श्री संघपट्टकः -
(??)
अर्थः तेज देखा बे जे, निर्धार करेली जे संघनी व्यवस्था तेनुं जाप करवानो उपाय ते या प्रकरण ग्रंथ बे, ( ते कारण बे ) ने ते संघनी व्यवस्था जाणवी ते उपेय ( कार्य ) बे.
टीका: - या द्वितीयवृत्तवर्त्तिना “ सुधीरित्युच्यसेत्वंमये " स्यनेनाभिधेयस्य तद विनाजावेनच प्रयोजनसबंधयोः स्वयमेव प्रकरणकृता प्रतिवादनात् नानर्थकता प्रकरणस्येति ॥
“
अर्थ:-अथवा बीजा काव्यमां " हुं तने सारी बुद्धिवान एवो जाणीने संघ व्यवस्था प्रत्ये कहुं हुं, " ए प्रकारनुं कहेतुं जे वाक्य तेथे करीने प्रयोजन तथा संबंध ग्रंथकारे पोतेज प्रतिपादन. कयां बे, केमजे निधेयनुं प्रयोजन संबंध विना थवाप नथी. नथी. माटे या प्रकरणनुं अनर्थकपणुं नथी.
टीका:- ाथ वृत्तव्याख्या ॥ स्तुमः प्रणुमः अस्मद्य प्रयुज्यमानेपयुत्तमपुरुष प्रयोगप्रतिपादना द्वय मितिकर्तृपदं स्वय मिह योज्यम् ॥
अर्थ:- हवे प्रथम काव्यनी व्याख्या कहे ते जे नमस्कार करीए बीए व्याकरण शास्त्रमां कधुं बे के अस्मत् शब्दनो प्रयोग न करयो होय तो पण क्रियापदमां उत्तम पुरुषना प्रयोगनुं प्रतिपादन करवाथी " वयं " ए प्रकारनुं कर्त्तापद, उपरथी लेवाय माटे वहीं पोतानी मेळे अध्याहार करें। जोगवुं. तेथी अमो नमस्कार करीए बीए ए प्रकारे अर्थ थयो.
टीका:- कं देवं दिवे स्तुत्यर्थस्यापि भावात् दीव्यते स्तूयते शक्रादिनि रिति देवः ॥ सचात्र प्रकरणादा विष्टदेवतास्त्वनस्तवा
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(१२)
8. अथ श्री संघपक:
हवाजिामः ॥ सोपीह कम तपोष्टतास्पष्टनलकणासाधारणविशेषणयोगात्पार्श्वनाथ स्तदेवं स्तुमः ॥
अर्थः-कीया देवने नमस्कार करीये बीए ? तो के शादि देव जेनी स्तुति करे ने एवा देवने ॥ दिवधातुनो स्तुति श्रर्थ पण बे.माटे देव शब्दनो ए प्रकारे अर्थ थयो.ते देव पण या प्रकरणादिकने विषे इष्ट देवतापणे स्तुति करवा योग्य अरिहंत . तेमां पण थहीं कम तापसनुं पुष्ट तप डे ए प्रकारे लोकमां प्रगट करी देखामवारूप ले लक्षण जेनुं एवं असाधारण विशेषण बांध्युं . तेथी पार्श्वनाथ ने ते अरिहंत देवनी अमो स्तुति करीए बीए ए प्रकारे अर्थ थयो.
टीकाः यो जगादेव प्रतिपादयामासेव ॥ श्व शब्दो त्रोस्प्रेक्षाद्योतकः ॥ किं इति ॥ इति शब्दः कर्म स्वरूप प्रतिपादनार्थः तेन इति एतत् ॥ एत देवाह ॥ विधुरमपि किस स्वस्य सद्यः प्रपद्य प्राज्ञैः कार्य कुमार्गस्खलन मिति ॥
अर्थ:-जे पार्श्वनाथ कहेता होयने शुं एटले प्रतिपादन करता होयने शुं॥ अहीं श्व शब्द ले ते उत्प्रेक्षालंकारने प्रकाश करे ॥ किं इति ॥ ए जगाये इति शब्द ले तेनो कर्मना वृत्तांतनुं प्रतिपादन करवा रूप अर्थ ने एटले कुमार्गनी प्रवृत्तिने बंध करवारुप क्रिया करकी ए अर्थ डे इति कहेतां ए प्रकारे कहेता होयने शुं ? ते प्रकार कहे जे. जे पोताने कष्ट थतुं होय तोपण तेनो अंगीकार करीने निश्चे तत्काल सारा पुरुषोये कुमार्गनो उल्लेद करवो. . टीका-प्राः प्रज्ञावलिः कार्यः विधेयं किं कुमार्गस्खलनं सर्वसामयेन पूर्वा पराऽविसंवादिशास्त्रविरुद्धमतनिराकरणं ॥
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भय श्री संघपट्टका
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MANANA
Animaamanna
अर्थ:-बुद्धिवान पुरुषोए शुं करवु ? तो पूर्वापर जेमो कि संवाद नथी एवां जे शास्त्र तेथी विरुष एवो जे मत तेनो नाश सर्व सामर्थे करीने करवो अर्थात् सर्व प्रकारे कुमार्ग बंध करको.
टीकाः किं कृत्वा प्रपद्य स्वीकृत्य किं विधुरमपि व्यसनमपि ॥ अपिः संजावने एतत् संन्नावयति ॥ पुष्करमपि स्कवेधुर्यस्त्रीकरण मैकन विकं ॥ सति सामर्थ्य स्वापायशंकया कु. पथस्खलनावधीरणं त्वनंतजंतुसंसारकारणत्वेन महतेऽनर्यायेति।। . अर्थ:-शुं करीने कुमार्गनो छेद करवो? तो कष्टन पण अंगीकार करीने ॥ अपि शब्दनो संन्नावनारूप अर्थ ले माटे ऐ वात संजवती ने जे पोतानी मेळे कष्टनुं अंगीकार करई ते कुकर में तो पण ते कष्ट एक नव संबंधी ने ने उती शक्तिये पोताने कष्ट थशे एवी आशंकाये करीने कुमार्गनी स्खलनानी उपेक्षा करवी (कुमार्गमा पनि रहेवारूप परानव सहन करचो) तेतो अनंत जंतुने संसार कारणपणुं थवाथी मोटा अनर्थ जपी . माटे कुमार्गको स्याग करी सन्मार्गे चालवू ए नाव डे.
टीकाः कस्य विधुरं ॥स्वस्यात्मनः कथं सथ स्तरक्षणात्ता किलेत्याप्तवादे ॥ श्राप्ता एव माहु रिति कस्मादेवं जगादेवेत्यः तबाह ॥ कारुण्यामृताब्धिः कथमयंजनो मया कुमार्गपंका दु. करणीय इतिकृपापीयूषसागरों जगवान् ॥ नहिलोकानुकंपा मंतरेण कश्चित् स्ववैधुर्यागीकारेण कुमार्ग प्रतिहंतीति ॥ ..
अर्थः-कोने कष्ट थाय तो पण कुमार्गमो छेद करवो तो पोताना आरमाने, तत्काळ कष्ट थाय तोपण किला शब्दे करीनेवाला
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( १४ )
-48. अथ श्री संघपट्टकः
हितकारी पुरुषनुं वचन ने एम सूचना करी ॥ केमजे जे हितकारी बे तेज या प्रकारे कहे बे. शा हेतु माटे ? एम कहता होयने शुं ए. प्रकारे क एव शंका करी कहे बे जे पार्श्वनाथजी तो करुखाना समुद्र बे. माटे एम विचार कर्यो जे मारे किया प्रकारे या ला, कुमार्गरूपी कादवथी उधरवो, ए प्रकारनी दया रूप मृतना समुद्र भगवान े. साथी के लोक उपर अनुकंपा कर्या बिना कोई पण पोताने दुःख धनुं ते अंगीकार करीने कुमार्गने म हणे माटे.
टीका:- किंकुर्वाण एवं जगादेवे स्यतश्राह स्पष्टयन् प्रकटी कुर्वन् ॥ किं कम मुनितपः कमवा निधान लौकिक तपस्विनः पंचा निरूपकष्टानुष्टानं ॥
अर्थः- शुं करता बता एम कहता होयने शुं ए प्रकारनी आशंका करी कहे बे जे कमठ तापसनुं तप प्रकट करता बता, कमठ नामे लोकमां तपस्वी कहेवातो तो तेनी पंचाग्नि साधनरूप कष्ट क्रिया हती ते प्रसिद्ध करी.
टीकाः ननु कमवतपो लोके स्पष्टमेव किं तत्स्पष्टनेने - त्यता ॥ दुष्टंप्राणिवधमुग्धप्रतारणलान पूजाख्यातिकामनाविदोषकलापयुक्तं ॥
प्रर्थः - तर्क करी विशेषणनुं प्रयोजन देखाने बे जे कम तापसनुं तप लोकमां प्रगटज हतुं माटे तेने प्रगट कर्यु एमां शुं विशेष ? एवी आशंका करी ते तपनुं विशेषण देखाने बे, जे ए तप दुष्ट बे, पाप रूप बे, अनेक जंतुनी जेमां हिंसा बे, अज्ञानी जोळा माक्सने ठगवाना उपाय रूप बे, अनेक प्रकारना लान तथा लोकमां
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8. अथ श्री संघपट्टक: - पूजावयु, तथा जस थवानी श्छा इत्यादि दोषना समूहे युक्त ए सपने।
टीकाः-अत्र च विशेषणे तात्पर्य ॥ स विशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेष मुप संक्रामत शतिन्यायात्॥ तेनदुष्टत्वेनख्यापयन्निति पुष्टत्वमत्र तपसो विधेयम् ॥
अर्थः-अहीं विशेषणमा तात्पर्य . विशेषणे सहित एवां विधि वाचक ने निषेधवाचक पद , ते विशेषमा मळी जाय, एटले विशेष्य पदमां बाध श्रावे त्यारे विशेष्य विशेषणमा मळी जाय, ने विशेषणमा बाध आवे त्यारे विशेषण विशेष्यमां मळी जाय. ए प्र. कारे न्याय शास्त्रनुं वामन कृत सूत्र ते वचनना न्यायथी आजगाए तप विशेष्य पद मे. “दुष्ट” ए तपर्नु विशेषण ले ते हेतु माटे पुष्ट पणे ए तप प्रसिद्ध कर्यु ए प्रकारे उष्टपणुं तपने आधीन थयुं. एटले तप पदमां दुष्ट पणुं मळीने पोतानुं मुख्य पणुं जगव्यु ॥ .
टीकाः कथं दुष्टं उचै रतिशयेन किंकृत्वा स्पष्टयन संदये दर्शयित्वा के नागं पंचाग्नितपोनिमित्नज्वलितज्वलनकुमातर्वर्तित्वाद् दारुकोटर मध्यगं जुजंगम् ॥ । अर्थः-कीये प्रकारे ए तप दुष्ट , तो अतिशे पुष्ट जे. शुं करीने प्रगट कर्यु ? तो पंचाग्नि तप निमित्त बाल्यो जे अग्निनो कुंक तेमा रहेढुं जे काष्ट तेना कोतरनीमध्ये रहेलो बलतो नाग देखामीने,
टीका-किविशिष्ट नागं वन्हि ज्वालावलीढं ॥ निरंतरं प्रज्वलनिखिशिखाकवलितं ॥ अर्फदग्धमिति यावत्॥ क्वथग्रेपुरतः कस्याः मातुर्वर्मा निधाया महादेव्याः स्वजनन्याः॥ न केवल माः तुस्तथाऽस्तोकसोकस्य कोतूहखादिमिलित सकलजनतायाः
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अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः ते नाग केवो बे ? तो, अग्निनी ज्वालाखे व्याप्त बे एटले निरंतर प्रतिशे बळतो जे यग्नि तेनी ज्वालाये कोळी यो क रलो एटले रधो बळेलो एवो सर्प क्यां यागळ देखायो ! तो पोतानी माता वर्मा नामे पट्टराणीनी आगळ देखायो || एकलो मातानी यागळज देखायो एम नहीं, त्यारे शुं ? तो कौतुहला दि कारणे मळेला सकळ लोकना समूहनी घ्यागल पण देखायो.
(3)
टीका:-- थकस्मात् सकल जनमध्ये भगवान् तत्तप स्तिरश्चकार ॥ यतः कुपथ मथन धीः ॥ श्रसन् मार्गोछेद प्रवीण बुद्धिमान् ॥ नहिततपोदोषापादनं विना कुमागछेद कर्त्तुशक्यः ॥ एतदुक्तं जवति ॥ नहि जगवता तत् साक्षादनिहितं प्रेक्षावतां यदुतद्भवद्भिः कुमार्ग स्खलनं विधेयमिति ॥ किंतुज्ञान वलाऽवसित कमठ विधास्यमाना विरल जलधरपटल विगलत्सलिल धारासंपातादिस्वापायाभ्युपगमेनापि कमठतपसो दुष्टत्वं स्पष्टयताऽर्थादेव तत् प्रत्यषादि ॥ यन्मवद् वदद्भिरपि कुमार्गस्खलनं स्वापायांगी का रेणापि कार्यम् ॥
अर्थः- दवे शा हेतु माटे सकल लोकनी मध्ये जगवान तेना तपने तिरस्कार करता हवा ! तो जे हेतु माटे असत् मार्गने उद करवामां प्रवीण बुद्धिवाला जगवाने एम विचायुं जे ते तपना दोषनं संपादन कर्या विना कुमार्गनो उच्छेद नहीं करी शकाय. माटे एम कही देखामयुं. पण जगवाने बुद्धिमानने साक्षात् कथं नथी जे तमारे कुमार्गनो नाश करवो, त्यारे शी रीते कछु बे ? तो, पोते ज्ञान बचे करीने जाये से निश्चय कर्यो बे जे कमव तापस घणा मेघ मंगजथी पकती पाणीनी धारा ते यदि घणा उपद्रवथी आपने डुख देते तोपण कमल तापसनुं तप दुष्ट प्रगट करी देखायुं माटे
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28 अथ श्री संघपट्टकः
( १७ ) र्थात् प्रतिपादन कर्यु जे मारी पेठे तमारे पण पोताने कष्ट थाय तो ते अंगीकार करीने पण कुमार्गनो उच्छेद करवो.
- टीका:- स्वामि चरितानुसारित्वादनु जी विचरितस्येत्युत्प्रेक्षाद्योतकेवशब्द सूचितवृत्ततात्पर्यार्थः । अतएवात्र प्रकरण - कारेणापि विपक्षडुः संघदोषख्यापनपुरःसरं स्वपक्षसुसंघव्यवस्था प्रदर्शनेन स्ववैधुर्यं संज्ञावयता स्वव्यसनाभ्युपगमपूर्वककुमार्ग विध्वंसन विधातुर्जिनस्य नमस्कारःकृत चौचित्यप्रतिपादनाये ति
अर्थः- म जे स्वामीना आचरण प्रत्ये सेवकनुं याचरण अनुसरे वे ए हेतु माटे या प्रकारे या काव्यनो तात्पर्यार्थ उत्प्रेक्षा अलंकारने प्रकाश करनार " व " शब्दे सूचना कर्यो वे. एज कारण माटे यहीं प्रकरण कर्त्ताए पण प्रतिपक्षरूप मागे संघ तेना दोष प्रसिद्ध कहेवा पूर्वक स्वपक्ष जला संघनी व्यवस्था देखामवी तेणे करीने पोताने कष्टनो संजव वे एम जाणीने पण या ग्रंथ रच्यो तेमां पार्श्वनाथजीने नमस्कार कर्यो, केम जे पार्श्वनाथजीये पोताने कष्ट यशे एवं जाणीने पंप कुमार्गनो नाश कर्यो माटे तेमने नमस्कार कर्यो ते उचितपणुं प्रतिपादन करवा जणी बे, माटे एमने प्रथम नमस्कार करवो घटे छे.
टीका:- अस्मिन्नेवार्थे संप्रति वृद्धसंप्रदायोऽनिधीयते ॥ आस्ते सु रचितावासा पवित्रवृषशालीनी ॥ उपगंगं सुरागारा -कारा वाराणसीपुरी ॥ १ ॥
अर्थ:- एज नावार्थ निमित्त दवे वृद्ध संप्रदाय कहुं. एटले वृद्ध परंपराने अनुसरती श्री पार्श्वनाथजीनी कथा कहुंं. जेमां सारा रचेला निवास बे ने पवित्र धर्मव शोजती तथा देव
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8. अथ श्री संघटक :
मंदिर जेवो जेनो श्राकार ने एवी मंगाने कांठे वाराणसी नामे नगरी . ॥१॥
टीका:-अभू तस्यां महाकूटदाणीभृत्पहातकणः ॥ श्रश्वसेनः सुधर्मास्थः पृथ्वीपालो यथावृषा ॥२॥
अर्थः-ते नगरीमा मोटा कपटी प्रतिपक्षी राजाना पकने नाश करनार अश्वसेन नामे राजा हतो जेम सुधर्मा सन्नामां इंस ने तेम. ते इंझे पण पर्वतरूपी शत्रुनी पांखो नाश करी, ते वात लौकिक शास्त्रमा डे. जे एक समे इंश सन्नामां बेगे हतो. त्यारे ऋषि लोकोए जश्ने पृथ्वीनुं वृत्तांत कडं हे त्रिलोकि स्वामिन् पर्वतोने मोटी मोटी पांखो डे माटे उसे डे ने मोटां माम नगर उपर अश्ने पमतां नांखे , तेथी तेमनो नाश थाय , माटे ए मोटा दुःखथी प्रजानु रक्षण करो, ते वात सांनळी इंसे कोप करी पृथ्वी
पर श्रावीने वज्र वते मेरु श्रादि पर्वतोनी पांखो कापी नांखी ते पर्वतोए पण पांखोनी वृष्टि इंछ उपर घणी करी तेवामां केटलाक मैनाकादि पर्वत समुअमां जश्ने पड्या तेमने अद्यापि पाखो बे. इति कथा. ॥॥
टीकाः-वर्मा तस्य महादेवी रुचिताखंमलकणा ॥ शचीन सुमनःपूज्या कुसंगविकताऽजनि ॥३॥
अर्थः-ते अश्वसेन राजाने सुंदर अखंझ सारां लक्षणवाळी सत्पुरुषने मानवा योग्य ने कुसंगथी रहित एवी वर्मा नामे पट्टरा. णी हती. जेम इंडने स्त्री खाणी डे तेम. ते इंशाणी पस देवताने पूजवा योग्य डे ने पृथ्वीना संगथी रहित . ॥३॥..
टीका:-जयतश्व नासत्यभृ सयो रंगचू रजूत् ॥ जिनःपा.
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( १९ )
भव भी संघपकः ४
त्रयोविंशो विषुधाराधितक्रमः ॥ ४ ॥
प्रर्थः ते इंद्र इंद्राणीने जेम जयंल नामे पुत्र बे, तेम ने स्त्री पुरुषने सत्य वक्ता ने देवता जेनां चरणनुं धाराधन करे ढे, एवा वशमा पार्श्वनाथ जिनपुत्र थया. खौकिक शास्त्रमां इंनो पुत्र जयंत नामे ले, तेनुं देवत्ताना औषध करनार अश्विनी कुमार नामे बे वैद देवता ते चरण पोषण करे बे, ने देवता ते इंद्र पुत्रना पग शेवे बे. ॥ ४ ॥
टीका:- उपेविवान् कुमारत्वं ततः शक्तिदतादितः ॥ स जवानी हितस्वांतो गमयामास वासरान् ॥ ५ ॥
अर्थः-त्यारपठी पोतानी शक्तिवते शत्रुनो नाश करनार एवा पार्श्वनाथजी कुमार अवस्थाने पाम्या, ने संसारमां जेनुं चित्त श्रासक्त नयी एवा बता दिवस निर्गमन करे बे, अन्यशास्त्रमां शीवनो पुत्र स्वामी कार्तिक नामे बे, तेनुं नाम पण कुमार बे, ने देवताना सैन्यनो पति डे ने शक्ति नामना युवते शत्रुनो नाश करे ढे, ने पार्वती नामे पोतानी माता तेनुं हित करवामां जेनुं मन बे एवार्थने जासन करनार पद मुकवाची पार्श्वनाथजीनां शक्ति पराक्रम दयाळुता इत्यादि क्या गुण कविए सूचन कर्या बे. ॥ ५ ॥
टीकाः
तप्यमानोऽन्यदा पंचपावकं दुस्तपं तपः ॥ जगप्रतिप्राच्य जन्मसंस्तृत विग्रहः ॥ ६ ॥ उव्र्व्वमुवीं परिचाम्यम् कर्मङः क्रमः शतः । तम्यसुर्वदि रुयाने तां पुरं प्रापतापसः ॥ 9 ॥ युग्मम्
अर्थः- एक दिवस पांच अग्नि मां रखा ठे, एवं करूं
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(२०)
9. अथ श्री संघपट्टका
तप तपतो ने जगत्प्रजुश्री पाश्वनाथ प्रत्ये जेने पूर्व जन्मथीज वेर बंधायुं , एवो ने तापस कर्म करवामां कुशल ने धुतारो एवो कमउ नामे तापस घणी पृथ्वीमां नमतो जमतो बाहारना उद्यानमां तप करवाने श्छतो ते पूरीने प्राप्त थयो. ॥ ६ ॥७॥ .... टीका:-अथा शा स्वग्निकुंमानि स चतस वचीखनत् ॥
गतिस्थानानि चत्वारि स्ववासाये व शास्वतम् ॥ ७॥.. • अर्थः-त्यारपड़ी ते तापसे चार दिशाने विषे चार श्रग्निना कुंम रच्या ते जाणे निरंतर चार गतिमां पोताने रदेवानां स्थान कयां होय ने शुं?॥॥ . . ...
टीकाः-दिदीपिरे ऽनला स्तेषु चारुदारुनिवेशतः॥ जंघाखज्वालजटिला स्तत्कषाया श्वोच्छूिताः॥ ए॥ . अर्थः-ते अग्निना कुंमने विषे सुंदर काष्टना प्रवेश थकी चारे अग्नि वेगवंत ज्वालाए व्याप्त अतिशे जाज्वल्यमान थया. ते जाणे ते तापसना अग्निशिखा जेवा चारे कषाय साथे उदय पाम्या होयने शुं? ॥ ए॥ . . ढीका:-तदंत:स्थः स्वमूर्होर्चचममार्त्तमममलः॥ चकासे नून मायास्यन् महानरक मध्यगः ॥ १० ॥ . .
अर्थः-ते चार अग्निना कुंमनी वच्चे उन्नो रह्यो, ने पोताना मस्तक उपर थाकलं ने सूर्य मंगल जेने एवो ते तापस पंचाग्नि साधन करती वखत या प्रकारे शोन्ने . ते शोना उपर उत्प्रेक्षा अलंकार कहे जे महा नरक मध्येथी नारकी पुरुष जाणे साक्षात् श्राव्यो होथ ने शुं ? ॥ १०॥...... ..
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•g. अथ श्री संघपट्टकः .
.
(२१)
टीका:-कृशानुन्नानुसंतापं सहिष्नो रथ दारुणं ॥ पारणां विदधानस्य स्वयं शीणैः फलै दसैः ॥ ११ ॥समाहृतपद स्तस्य . स्तंनस्येवोर्ध्वतस्थुषः अयमेव तपस्वीति प्रससार यशः पुरि ॥ : युग्मम् ॥ १२॥
अर्थः-हवे ए रीते अग्नि तथा सूर्य तेनो श्राकरो ताप स. हन करतो ने पोतानी मेळे पमेला जे फळ तथा पत्र तेणे करीने पारणुं करतो ने बे पग एकग करी थांजलानी पेठे श्रटंट उन्नो रहेलो एवो तापस तेनो जा नगरीमा पसख्यो जे बाज खरो तपस्वी जगत्मां ॥१५॥
टीकाः-गतानुगतिकत्वेन निर्विवेकतया नया॥ निरीक्षितुं त माकांदन् पौरा गौरवत स्ततः ॥ १३ ॥ .
अर्थः-ए प्रकारे विवेक रहितपणुं लोकमां जे. ए हेतु माटे, एक चाल्यो, तेनी पडवामे बीजो पण चाले, एक गामर चाले तेनी पलवामे बीजी पण चाले एवी रीते लोकमां गामरीन प्रवाह , तेने गतानुगति कहीए ते हेतु माटे नगरना लोक मोटपथी ते वापसना दरशननी श्वा करता हवा. ॥ १३॥ .
टीकाः फ्लुप्तसंवनना नूनं गंतुमारेनिरे ऽथ ते ॥चिरनष्टंस्य सौजन्यसिंधोधो रिवा गमे ॥ १५ ॥ .. अर्थः-त्यार पछी ते तापसे जाणे वशीकरण करयुं होय नहि एम ते पुरना लोके जवानो आरंज कर्यो ते उपर दृष्टांत-जेम सारा गुणनो समुज, ने घणा काळथी गयेलो एको पोतानो बंधु आव्यो होय ते प्रत्ये जाय तेम आदरपूर्वक लोक दर्शने चाल्या.
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محشيخقققققققققق
(१२) . - अथ श्री संघपट्टका -
टीका-निरंकुशं विनियन्ति नागरैः सागरै रिव ॥ राजमार्नाः प्रथीयांसोभूयांसोपि धनीकृताः ॥ १५ ॥
अर्थः-ते नगरना लोक निबंधपणे समुपनी पेठे उराया एटले समूहे समूह चाल्या तेणे करीने राजमार्ग घणा मोटा हता तो पण अति सांकमा थया.
टीकाः-सुपर्व निखये सौधे जातरूपमहीभृति । इतः सिंहासनासीनो नगवान् विबुधाधिपः ॥ १६ ॥ .. अर्थ:-त्यार पठी एक दिवस गवान श्री पार्श्वनाथ स्वामि देवाधि देव, देवमंदिर समान ने सुवर्णमय पृथ्वीनुं धारण करती एवी पोतानी हवेखीने वीषे सींहासन उपर बेग हता.
टीका:-यांतमेकाशथा लोक मक्सोक्य विदन्नपि ॥ असा वेति जन:क्वेति पपृडानुचरं जनम् ॥ १७॥
अर्थः-सर्व लोक एक चित्ते जता इता तेने देखीने पोते जाणे सोपण था लोक सर्वे क्यां जाय ले. एम पोसाना सेवकाने पूजकुं. ॥
टीकाः-पंचवहितपस्वी ह समायातोऽ स्त्यतो जनः वंदितुं तं प्रयातीति कुमारं सबजिज्ञपत् ॥ १७ ॥
अर्थः-त्यारे ते सेवक श्री पार्श्वनाथ कुमार प्रत्ये विज्ञापना करतो हवो जे हे महाराज अहीं पंचाग्नि साधन करनार तपस्वी श्राव्यो डे माटे तेने वंदन करवा था सर्वे लोक जाय के. ॥ ७ ॥
टीका-अथोवाच प्रजु चित्रं विपर्यस्त थियोऽयमा मो. हांधत्वात् स्वयं नष्टा नाशयंत्य परानपि ॥ २५॥
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19. अथ श्री संघपट्टका
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(२३)
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अर्थः-त्यार पड़ी प्रनु बोख्या जे अहो अधर्ममां धर्म मान्यो ने माटे विपरीत बुझियोवाला अधम पुरुष मोहे करीने अंध थथा . ए हेतु माटे पोते नाश पाम्यो डे ने बीजाने पण नाश प्रमाके ने ए मोटुं श्राश्चर्य .॥ १५ ॥ - टीकाः-उपादेयतया देथ मवस्य स्थबुधा अहो । सुखं हि मन्वते मुग्धाः कामिनी पादतामनम् ॥ २० ॥
अर्थः-अहो अज्ञानी घुरुष जे त्याग करवा योग्य से सेनुं प्रहण करवा पणे निश्चय करे , ते उपर दृष्टांत ॥ जेम मुग्ध पु. रुष (कामीजन) ते स्त्रीउना पगर्नु तामन ते सुख रूप माने , ए. टले स्त्रीउना पगनी लातो खाय के, ने तेमां सुख माने जे. तेम मुड पुरुष गंगवा योग्य जे अधर्म तेमां धर्मपणानो निश्चयं करीने अमे सारं करीए जीए. एम खोटामा सारु माने ले ए श्राश्चर्य .
टीकाः-जन्युमन्युकृता धर्मः पंचा मितपसा यदि॥ स्या - श्येत् तृष्णज: तृष्णा मृगतृष्णांनसा तदा ॥१॥
अर्थः-उत्पन्न थकानुं ने शीस जेने एटले खाजाविक उत्पन्न थतो एहवो जे क्रोध तेने श्रति उत्पन्न करनार एहवू पंचाग्नि तपे करिने जो धर्म थाय तो स्वाभाविक सस्शो प्राणी तेली अति उ. स्पन्न थर तरस ते कांजवानां जले करिने नाश पामे एटखे प्रकानि तपे. करिने धर्म पण न थाय ने फांऊवाना मले करिने तर या न जाय ॥१॥......... . .
टीकाः-बोधयामिततोगत्वामुर्मेधसमिमंजन प्रबन्यमानमेतेमबाखवन्ति हुणाततः ॥ २५ ॥ . .
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(२४)
8. अथ श्री संघपट्टकः ।
- अर्थः-ते हेतु माटे हुं जईने उर्बुद्धि एवा या लोकने बोध करूं केमजे ए निखारी तापसे बालकने जेम लोनावे तेम था लोकने लोनाव्या माटे ॥ ॥
टीका:-नक्तागमजागनाथ स्तपोसिसिषयाततः॥ मात्रामीत्रैः समंयानमधिश व्यतदंतिकम् ॥ ३॥
अर्थः-एम कहिने जगत् स्वामी श्री पार्श्वप्रचुंजी त्यार पली ते तपने खोटुं करि देखामवा वादन उपर बेसिने पोतानी माता तथा मित्र तेणे सहित ते तापसनी पासे गया ॥ २३ ॥...
टीकाः-श्तश्चा नलःकुंमांतः प्रजु गुरुणि॥ दारुणि मध्ये कोटर मैक्षिष्ट. नागं लीनं नयादिव ॥ २४ ॥
अर्थ:-त्यार पठी प्रजुए अग्निना कुंममां मोटा काष्टना मध्यने विषे पोलाणमां जय थकी जाणे संताश्ने रहेला नागने ज्ञाने करीने दीगे ॥२४॥ .
टीका-प्रनु रूचे वृषार्था भूतपस्या जापतापस ॥धर्मव्याजादयः किं नो प्रक्रांतं पातकं त्वया ॥२५॥
अर्थः-देखीने प्रनु बोल्याजे, हे जापतापस एटले जपतपना करनार तपश्चर्या तो धर्मने अर्थे , माटे धर्मना मिषथी था तें शुं प्राप आरंन्मुडे ॥२५॥
टीका:-मूलं धर्मस्य कारुण्यं पुण्यं बीजं तरोरिव ॥ ज्वलनज्वालना तञ्च कुतस्त्यं गृह मुन्नतेः॥ २६॥ .
अर्थ:-धर्म- मूल कारण दया ने, जेम वृदनु मूल कारण
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- अथ श्री संघपट्टकः
(२५)
सारं बीज बे तेम ते मूल कारण अग्निमां बालवाची मोटयपनु घर क्यांथीज याय ? एटले जेम बीज बालवाथी वृक्ष उत्पन्न न थाय तेम दया रूपी मूलनो नाश करवाथी धर्म न थाय ने धर्म विना मो व्यप नथी ॥ २६ ॥
टीका:- चेत् स्वांगस्या निषं गेण श्रेय स्त दनिषज्यताम् तदेव शीतवातायैः किं जंतुनिरमंतुनिः ॥ २७ ॥
अर्थः- ने जो पोताना शरीरने कष्ट करवाथी श्रेय मान्यो होय तो शीत वातादिके करीने ते शरीरने कष्ट कर. पण निरपराधी अंतुनो नाश शा माटे करे ठे. ॥ २७ ॥
टीका:- आयुर्जा मिवे ब्रूना मातुराणां शरीरिणां ॥ धमोरदैव साधीयान् किमु जो स्तपसा मुना ॥ २८ ॥
अर्थः- जेम रोगातुर प्राणी औषधने इडे तेम श्राखाने इता प्राणीनी रक्षा करवी एज प्रतिशे श्रेष्ठ धर्म बे माटे हे तापस ! या निर्दय तप व शुं ? ॥ २७ ॥
टीका:- प्रादुर्भवति न श्रेयो न्हणां प्राणिप्रमापणात् ॥ संपादयति नो जातु शिलाशकल मंकुरं ॥ २५ ॥
अर्थ:-माणसने प्राणीना वधथी क्यारे पण श्रेष्ठ प्रगट यतुं नथी ते उपर दृष्टांत जेम पाषाण खंग धान्यना अंकुरने क्यारे पण उत्पन्न करे नहीं तेम ॥ २७ ॥
टीका:- अलंकर्मीणदोः स्तंन संस्तं नितरिपुद्विपः ॥ निम्न निर्विघ्नराज्यश्रीर्विना नीतिं यथा नृपः ॥ ३० ॥ चंद्रमा श्व
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(२६)
8. अथ श्री संघपट्टकः ।
विणतंजिकां चंडिकांविना ॥ न विराजति मिमीरपांमुराखं
ममंगलः ॥३१॥ धर्मकर्म तथा नावो दामतामसनाशने ।। ब'. लवत्त लितोद्गच दरुणां करुणां विना॥३॥ त्रिनिर्विशेषकम्॥ ..
अर्थः-युद्धादि क्रिया करवामां कुशल एवा हस्तरूपी र्थन तेणे करी थंजाव्या . शनरूपी हाथी जेणे एवो ने निर्विघ्न राज्य सदमीने वश करतो एवो समर्थ राजा पण जेम नीतिविना न शोले तथा फीण सरखं घोढुं ने अखंम मंगल जेनुं एवो चंद्रमा जेम सुंदर प्रकाशक कांतिविना न शोने, तेम उगता सूर्य समान करुणा विना पाप रूपी मोटा अंधकारने नाश करवाने धर्म कर्म बलवान् नथी. ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३ ॥
टीकाः-प्राणिघातेन चेद् धर्मो धिवराः पीवरा स्तदा । धातुका जंतु संदोहा नश्रुवीरं दिवं शिवम् ॥ ३३ ॥ ... अर्थ:-जो प्राणी घाते करीने धर्म होय तो सष्टपुष्ट अने जंतु समूहने नाश करनार एवा माठी लोक स्वर्ग सुखने अथवा मोद सुखने लोगवत् ॥ ३४॥ .. . - टीकाः-महानुन्नाव तन्मुंच पंचवन्हितपो ऽधुना ॥ इत्युक्त जगदीसेन तं ललाप स तापसः ॥ ३४ ॥
अर्थः-ते हेतु माटे हे महानुन्नाव! पंचाग्नि तपने हमणेश्रीज मूकी दे. ए प्रकारे जगदीश्वर श्री पार्श्वनाथजोये कयुं. त्यारे से तापस ते प्रनु प्रत्ये बोटयो ॥ ३४ ॥
टीकाः-चातुरी राजबीजि स्ते दमनीतिविचारणे न धर्मग्रं. थचर्चासू झुनतेधी वादृशाम् ॥ ३५ ॥
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8. अथ श्री संघपट्टक:
-
(२७)
अर्थः-हे राजकुमार तारी बुद्धि दमनीति विचारवामांच तुर मे, पण धर्मग्रंथनी चर्चाउने विषे तमारा जेवानी बुकि उदय पामती नथी. ॥ ३५ ॥
. टोकाः-ममुक्तं नान्यथे ती श स्त मवादीत् प्रियंवदः ॥ न ... चे प्रत्येषी तत्पश्य तपसः स्वस्य हास्यताम् ॥ ३६ ॥ .... अर्थः-त्यार पनी प्रिय बचन बोलनार पार्श्वनाथ स्वामी ते तापस प्रत्ये बोल्या जे मारूं कहेढुं अन्यथा नथी ने जो तने विश्वास न आवे तो पोताना तप, हांसीपणुं थाय ते जो॥३६ ।।
टीकाः-ततः परशुना नेतां तर्गतार्होषितोरगम् ॥. द्विधाविधापयामास दारु तस्य तपो ध्रुवम् ॥ ३ ॥
अर्थः-त्यार पछी पार्श्वनाथ स्वामीए अग्निकुंममाथीम काष्टमां सर्प अ| दाध थयो , ते काष्टने कढावीने फरसी वते बे नाम कराव्या ते जाणे ए तापसना तपनुज निश्चे बेदन कर्यु के शुं॥३७॥ .. टीकाः-ततः कंठोपकंगप्तजीवित: प्युष्ट विग्रहः ।। दिदृकयेव निरगाद पकर्तु महोरगः ॥ ३० ॥
अर्थः-त्यार पठी कंठने समीप प्राप्त थयुं ने जीवित जेने एटले कंठे प्राण आव्याथी मरवानी तैयारी थएवी एवो, ने अर्ड दग्ध थयुं ने शरीर जेनुं एवो एक मोटो सर्प ते काष्टमांथी नीकल्यो, ते जाणे अपकार करनार ए तापसने सवानी श्वाए नीका ट्यो होय ने शुं ? ॥ ३० ॥ .
टीका:-दापिता विजुना पंच ॥ परमेष्ठिनमस्कृतिः ॥ क..
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28 अथ श्री संघपट्टकः
रुणातरुणा तस्मैपुंसा नेदीयसा ततः ॥ ३ ॥
अर्थः- त्यार बढी समर्थ जगवान् श्री पार्श्वनाथजीए पोताने नजीक रहेला माणस पासे ते सर्पने पंचपरमेष्टि नमस्कार एटले नवकार मंत्र (जेथी दयानो उल्लास घणो थाय ए प्रकारे ) देवमाव्या एटले संभळाव्या. अथवा करुणाना काम समान अथवा करुणाएं जीजाता एवा कोइ पासेना माासनी पासे नवकार संजलाव्या. ३७ टीका :- लघुकर्म का स्ततः संज्ञितया ऽनया । श्रवोंजलिपुटाज्यां ता मधा सीत् स सुधामिव ॥ ४० ॥ -
( २८ )
अर्थः- यार पी ए सर्प लघुकर्मी के अने संज्ञी पंचेंद्रिय बे ए हेतु माटे एका थइने कानरूपी अंजली पुट वने ते नवकार मंत्ररूपी अमृत पान करतो वो ॥ ४० ॥
टीका:- तन्महिम्ना स नि: सीम्ना विपद्य समपद्यत ॥ जवनाधिपदेवेषु धरण: फख भृत्पतिः ॥ ४१ ॥
अर्थः- जेनो अवधि नथी एवो ते नवकारना महिमाए करीने ते वर्प मरीने जवनपति देवने विषे नागनो राजा घरणेंद्र नामे उत्पन्न थयो. ॥ ५१ ॥
टीका:- द्वादशांगी विदो प्येनं निधनानेहसि स्वयं जव्यान् पंचनमस्कारमत एवा ध्यजीगपन् ॥ ४२ ॥
अर्थः- एज हेतु माटे द्वादशांनीमा जाण मोटा पुरुष पथ मरणकालने विषे पोते जव्यप्राणी थकी पंचनमस्कारने जो वे एटले व्यप्राणी नमस्कार देबे ने पोते ग्रहण करे बे ॥ ४२ ॥
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8. अथ श्री संघटकः
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टीका-असा वेव चिरोपात पापसर्वकषो न्हणां । घनाघना हते कोऽन्यः ॥ प्लोष मोष कमो वने ॥४३॥
अर्थ-एज नमस्कार माणसना घणां काल सुधी उपार्जन करेला पापनो नाश करनार ले ते उपर दृष्टांत जेम वनने विषेश. ग्निदाहथी रक्षा करवामां समर्थ मेघविना बीजो कोण होय ? को नही तेम॥
टीकाः-ये मुं नव्या अपव्याज लनंते पोतव नवं लंघयंति नवांनोधि ते गनीर मन्नीरवः ॥ ४ ॥
अर्थः-जे नव्यप्राणी फाऊसमान नवकार मंत्रने पामे डे, ते प्राणी निर्नय थका गंजीर संसार समुज्नु उलंघन कर ॥४॥
टीकाः-पशवो प्येन मासाद्य नाकं साकं महच्छूिया ॥विंदंति कृत संसार तानवा मानवा व ॥४५॥
अर्थः-पशु पण ए नवकार मंत्रने पामी मोटी खदमीये सहित स्वर्गने पामे , जेम कर्यु ले संसार हलकास पणु जेमणे एवा माणस स्वर्गने पामे तेम ॥ ४५ ॥
टीकाः-नमत्सुर शिरोमौलिबिशासनवैन जुनक्ति शक्तिमान् प्राज्य स्वाराज्य य बचीपतिः ॥ ४६॥...
अर्थः-जे नवकार मंत्रना प्रजावथी समर्थने, इंसाणीना स्वामीने नमता जे देवताना मस्तक मुकुट तेमणे अंगीकार करी ने याज्ञा वचननी कुरा जेमां एवं पोतानुं मोटुं इंज. पदवीनुं राज्य लोगो ने ॥४॥
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8. अथ श्री संघपट्टका
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- टीका:-दिक्कूल मुदुजख्यातिस्फातिप्रीणितविष्टपं ॥ कनं
भारत साम्राज्यं सार्वनौमः पिपर्चियत् ॥४७॥ . र अर्थः-जे नवकार मंत्रना प्रनावथी दिशायोना समूहने जेदन करी चालतो जे जसनो विस्तार तेणे करीने प्रसन्न कर्यु ले जगत् जेणे ए, सुंदर चक्रवर्ती राज्यने चक्रवर्तीराज थर पालन करे ॥ ४ ॥
टीकाः-चंचछाया नृतः पंच नमस्कारफलग्रहः विपक्रिम फलस्या स्य फलिका त हिजूंनते ॥ ४ ॥
अर्थः-देदीप्यमान लक्ष्मीनुं धारण करतो अथवा उज्जवल याने धारण करतो एवो ने परिपक्व डे फल जेनां एवा पंचनमस्काररूप फलवान वृकनी इंछ पदवी मलवी तेतो एक फलीमात्र प्रगट शिंग थ .
टीकाः-देवभूयं गते नागे तझाम्ना थ प्रनुं जनाः ॥ नुनुवं सूक्तिपीयूषस्यंदिनो बंदिनो जनाः ॥४॥ । अर्थः-ते नाग देवपणु पाम्या पली सुंदर वाणी रूप अमृतने बरसता एवा लोक तथा बंदिजन, तेमणे नजरे दीठेला मोटा प्र. तापे करीने प्रजुनी स्तुति करता हवा ॥ ४ ॥
टीका:-कोन्यः संवेदमेदस्वी नगवंतं विना त्र यत् ॥ १तान् पद मप्येन मंतर्दारूरगं विजुम् ॥ ५० ॥ .
अर्थः-जे अहींयां नगवान विना, बीजो कोण मोटो घुरुष नजरे न दीवामां आवे एवा पण काष्टना पोलाणमा रहेला ए मोटा सर्पने देखे ॥ ५० ॥
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8. अथ श्री संघपट्टका :
(३१)
टीकाः-कस्यापरस्य कारुण्यनरमंथरतारकाः ॥ निपतंति दृशः प्रेष्टाः कोदिष्टष्ट्वपि जंतषु ॥५१॥ - अर्थः--दयाना समूह वो मंद ले नेत्रनी कीकीयो जेमनी एवा नगवान विना बीजा कोनी सुंदर दृष्टियो अतिशे कुछ एवा पण जंतुने विषे पमे ॥ ५ ॥
टीकाः-तपो दूषयितुं कोन्यः प्रजु रस्य तपस्विनः ॥ तृणे ढि वियतो बाढं कस्तमस्तपनं विना ॥ ५५ ॥ . अर्थः-ए तपस्वीना तपने खोटु करी देखामवामे नगवान विना बीजो कोण समर्थ डे, जेम श्राकाश थकी अंधाराने सूर्यवि. ना बीजो कोण अतिशे माश करी शके डे ॥ ५५ ॥
टीका गोत्रनेदांकितः शक्र स्तमसा मलिनःशशी ॥ मंदः । सहसिघमांशुः केनो पमिनुमः प्रनुम् ॥ ५३॥ . अर्थः-जगवाननी उपमा कोनी साथे करीए ? केम जे इंस
ते तो गोत्र एटले पर्वतनो नेद करवे करीने लांडित थयो .(ज. गतमां पण जेणे गोत्रनु दन नेदन कर्यु होय ते सारो न कहेवाय ए नाव ठे) ने चंड पण अंधाराये करीने मलिन ने एटले कलंकिन डे अने सूर्य पण मागशर मासमां मंद थाय ने एटले शियाळामां एनो प्रताप ही जाय , माटे इंड चंड अने सूर्य ए ऋण प्रतापी कहेवाय ने तो पण ते प्रतापमां एक एक मोटुं दूषण ले माटे नि दर्दोष नगवानने कोनी उपमा करिये ॥ ५३॥ * .. टीका:--प्रतु रत्र न चे देष्य ऊन प्रतिपदं स्खलन् तदा जात्यंधव मोहा दपतिष्यद् नवावटे ॥ ५५ ॥ ....
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(३२)
अब भी संघपार:
anwANAMA
अर्थः-जो प्रजु अहीं न आव्या होत त्यारे तो जन्माराना अंध पुरुषनी पेठे मगले मगले स्खलना पामतो था लोक मोही, संसाररूप कूवामां पमत एटल्ले प्रजुए जो अहीं श्रावीने ए तप कुष्ट न करी देखामयुं होत तो लोको मोहथी जूगमा साचुं मानीने संसार रुप कूपमां पमी मरत ॥ ५४॥
टीकाः-ततो विनो गुण स्तोत्र मसहिष्नुः स तापसः ॥ ततो देशादपक्रांतः प्रकाशा दंधकारवत् ॥ ५५ ॥
अर्थः-त्यार पठी ते तापसथी जगवाननी गुण स्तुति सहन न यशए कारण माटे जेम अजवालाथी अंधारुं मासे तेम ते देशथी नागे ॥५॥
टोकासदर्कोपि संपर्कोविन्नो दुःखाय केवलम् ।। तस्या जव दुलूकस्य प्रकाश श्च जास्वतः ।। ५६ ॥
अर्थः-सारु उत्तर फल जेनुं एवो पण नगवाननो संबंध ते केवल ते तापसने पु:ख जणी थयो. जेम सूर्यनो प्रकाश घूमने ॐख जगी थाय तेम ॥ १६ ॥
टीका:-ततः कृत्वा तदज्ञानात् जरवः कमठ स्तपः ॥ मेधमालीतिविबुधो ऽजनि स्तनितनामसु ॥ ५ ॥ .अर्थ:-त्यार पठी ते वृद्ध कम नामे तापस श्रज्ञानथी तप करीने स्तनित नामे दशमी निकायने विषे मेघमाली नामे देवता थयो. ॥५॥ -- टीका:-गीयमानो जगन्नाथो गाथकै नगरी ततः॥ विवेश पेशसस्थेम्ना बृत्रहेका मरावतीम् ॥ २७॥
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8. अथ श्री संघपटकः
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(३३)
. अर्थ:-त्यारपळी जगतना नाथ श्रीपार्श्वनाथजी गायक सोकोये गान कर्या बतां मोटा महिमाए सहित जेम इंऽ श्रमरावती नमरीमा प्रवेश करे तेम पोतानी नगरी प्रत्ये प्रवेश करता हवा ॥७॥ .: टीकाः-ततो लोकांतिकैर्देवैः प्रजुरागत्य बोधितः ॥ नगवंतं स्वयं मुर्त्य वरीतुं प्रहितैरिव ॥५॥
अर्थः-त्यार पड़ी मुक्ति कन्याए पोतानी मेले जगवंतने वरवाने मोकल्या होय ने शुं? एम लोकांतिक देवताउँए श्रावीने प्रजुने बोध को ॥ एए॥
टीकाः-स्वर्णस्तोमस्य वर्षेण तापनिर्यापणक्षमः ॥ जगत्यास्तर्षमाकर्षन् घनाकृतिरदीकत ॥ ६॥
अर्थः-सोनयाना समूहना वरसवे करीने लोकना संतापने नाश करवाने समर्थ अने तृष्णानो नाश करता अने मेघनासरखी डे श्राकृति जेनी एवा नगवान दिदा लेता हवा. एटले वार्षिक दान थापीने दीक्षा लीधी. मेघपके मेघ सारा जखनी वृष्टिए करीने पृथ्वीना तापने नाश करवामां समर्थ ने तरशने मटामनार जे. ६०
टीकाः-श्रथाश्रमपदोद्याने कदाचिदिहरन प्रजुः ॥ बस्यौ मौनं समास्थाय प्पानध्यानैकतानधीः ॥ ६१॥ .
अर्थः-त्यारपती कोश्क वखत विहार करता थाश्रमपद नामे उद्यानने विषे, वृति पामता ध्यानने क्केि एकतान अश्बुद्धि जेमनी एवा नगवान् मौनपणुं धारश करी उता रहेता. हवा. ६१
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अथ श्री संघहरुः
टीका:- स्मृत्वा प्राक्तनं वैरमन्वीशं मेघमालिना ॥ श्र मर्षोन्मत्तालाल कुटिशालिना ॥ ६२ ॥ प्राग्जन्मनिचितस्वैरवैर निर्यातनाम ॥ विदधामीत्युपत्रष्टुं वक्ररथेन प्रचक्रमे ॥ ६३ ॥ युग्मम् ॥
अर्थ:- स्यार पछी मेघमाली जगवान प्रत्ये केटलाक ज वयी अनुसरतु जे पूर्वनुं वैर तेने संजारीने क्रोधथी उंच उपकतुं जे विशाल ललाट तेने विषे चकुटी करीने शोभता एवा ते देवे एम विचायुं जे हुं पूर्वजन्मने विषे संचय करेलुं पोतानुं वैर ते प्रत्ये निर्यातना करूं, एटले वैरनो बदलो वालुं श्रर्थात् वैर वाळु. एम धारीने वकपणे उपद्रव करवाने श्रारंभ कर्यो. ॥ ६२ ॥ ६३ ॥
( ३४ )
टीका:- प्रेख निशात विशिख शिखासमनखांकुरान् ॥ मुखनिर्यदूधनस्वान विदीर्ण गिरिकंदरान् ॥ ६४ ॥ दिग्गजैयों मुत्पित्सूनिव सिंहान् महीयसः ॥ विनिर्ममे जगन्नेतुरुपरिष्टात्स दुष्टधीः ॥ ६५ ॥ युग्मम् ॥
अर्थः- चलकता जे तीक्ष्ण बाण तेनी शिखा सरखा बेनखना अंकुरा (ख) जेना ने मुखी नीकलता मेघ जेवा गंजीर क काकाना शब्दे करीने करुका करी (फामी) ठे पर्वतनी गुफा जेमणे एवा, धने दिग्गज (हाथी) नी संघाते जाणे युद्ध करवाने उबलता होय ने शुं ? एवा मोटा सिंहने ते दुष्टबुद्धि देवे जगस्वामी श्री पार्श्वनाथजी उपर विकुर्व्या ॥ ६४ ॥ ६५ ॥
टीका:- अवग्रहं प्रनोस्तेऽथ स्प्रष्टुमप्यसहिष्णवः ।। अभूव- निष्फला यह निर्धनानां मनोरथाः ॥ ६६ ॥
अर्थः- सिंह प्रजुन श्रवग्रह स्पर्श करवाने समर्थ न यया अर्थः ते
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- अथ श्री संघपट्टक
जेम निर्धन पुरुषना मनोरथ सफळ न थाय तेम ॥ ६६ ॥ टीका :- गंरुस्थल गलाननी रशीकरवर्षुकाः ॥ सव्रिताचंशुंमाढ्यास्तेन स्तंबेरमास्ततः ॥ ६७ ॥
(३५)
अर्थः- त्यापटी गंगस्थल थकी नीकळतुं जे मदनुं जल तेना बिंदवाने वरसता ने श्राकरा डे शुंडादक जेना एवा हाथी विकुर्व्या ॥ ६७ ॥
टीका:- उदामान: प्रचौ तेऽपि तेजस्विनि तमोपड़े | बहुमंदधामानो दीपाः प्राजातिका इव ॥ ६० ॥
अर्थ:-ते मोटा हाथ पण तेजवंत ने अज्ञान अंधकारने नाश करनार एवा प्रजुने विषे जेम प्रजातकालना दीवा निस्तेज थाय तेम प्रतापरहित थया ॥ ६८ ॥
टीका:-इत्यादि निर्महाजीमैर्कमरैः समरैरिव ॥ शत्रुयति जिने जिष्णौ मेघमासीत्यचिंतयत् ॥ ६ए ॥
अर्थः- पूर्वे का ए यदि संग्रामनी पेठे मोटा जयंकर एवा उपद्रवव जीतवानुं जेने शील बे एवा जिनपार्श्वनाथजी कोन न पामे उसे मेघमाली देव एम विचारतो हवो ॥ ६५ ॥
टीका: - कथमेष मया होज्यो दीप्रोकंप्रः सुमेरुवत् ॥ श्रा ज्ञातं सलिलौधेन प्रक्षिपामि सरस्वति ॥ ७० ॥
अर्थः- जे मेरु पर्वतनी पेठे देदीप्यमान छाने कंपे नहीं एवा या जगवंतने हुं कीये प्रकारे दोन पमाऊं एम विचार करतां अरे एमां शुं डे ? एम अवगणना पूर्वक विचार कर्यो जे पाणी ना प्रवाह
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(३६)
19. अथ श्री संबपट्टकः
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वमे एने समुअमां खेंची नांखु ॥ ७० ॥
टीकाः-कर्णपालीललत्तार-प्राशुतारांशुन्नासुरा ॥ महछिस्फूजबर्जखिबृंहिता गजता यथा ॥ १ ॥
अर्थः-एम विचारीने आकाशमां मेघ पंक्ति विस्तारी, तेनुं पांच श्लोक वमे वर्णन करे . जे काननी मर्यादाने विष रह्या ने सुंदर अतिशे उंचा जे तारानां किरण, तेणे करीने देदीप्यमान ज. पाती एटखे मेघ पंक्तिरुप स्त्रीये कान सुधी सुंदर अतिशे तेजस्वी तारा रुपी मोती धारण कयों ने तेनी कांति वमेशोन्ने ले. ते उपर दृष्टांत, जे मोटाने बल पराक्रमने जणावता एवा ने शब्द जेने विषे एवी हाथीनी श्रेणी शोने तेम जणाती हाथीनी श्रेणी पण मोतीना समूह धारण करवाथी शोने ने ॥१॥
टीका:-लिना खनिमणिविनिरञ्जनाचलरिव ॥कुंजगुंजत्कुरंगारि-प्रतिश्रुन्मिश्रितांबरा ॥ २ ॥
अर्थः-वली ते मेघपंक्ति केवी ले ? तो खाणने विषे रहेला मणिनी कांतिवमे मिश्र थएली एवी अंजनाचलनी जूमि होय ने शुं ? एम जणाती. वली कुंजने विषे शब्द करता एवा जेसिंह एटले ज्यारे मेघ गर्जना करे त्यारे सिंह पण पोताना माथा उपर गर्जना थती सांजलीने अहंकारथी तेमना सामी गर्जना करे एवो स्वन्नाव ले माटे, तेमना पमबंदाना शब्दवमे मिश्रित थयु ने श्राकाश ते जे थकी एवी ॥ २ ॥ .
टीकाः-अंतःस्थकालियव्याल-मौलिरत्नांशुकीलिता का "लिंदीवानिलोदंवधीचिको हलाकुला ॥ ७३ ।। .
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4 अथ श्री संघपट्टकः
( १७ )
:
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अर्थः- वली ते मेघपंक्ति केवी बे ? तो के जेना जलमां • कालियनामे नाग रह्यो बे तेना मस्तकमां रत्न रह्यांबे तेनी कांतिवने व्यास एली ने वायुवमे उबलता तरंगना कोलाहल शब्दवमे श्राकुल व्याकुल एवी जुमनां नामे नदी होयने शुं ? कवितामां जमना नदी जल कालु व न थाय तेमां कालिय नामे मोटो मशिधर नाग परिवार सहित रह्यो तो तेने कृष्ण वासुदेवे समुद्रमां काडी मुक्यो शाथी के तेना केरथी ते नदीनुं कालु पाणी लोक पान करीने मरण पामता हता. ते कथा पुराणमां प्रसिद्ध बे, माटे मेघमाला पण एम 'जाती एवी. ॥ ७३ ॥
टीका:- उद्यत्सौदामनी दामकाम संवलितच बिः ॥ तुम्यदंजो निषिध्वानगंजीरध्वनिराकुरा ॥ ७४ ॥
अर्थ:- वली ते मेघपंक्ति केवी बे तो के उत्पन्न यता जे लीना बकरा तेथे करीने यति व्याप्त थ वे बबी जेनी, छाने दोन पामता समुद्रना शब्द सरखा गंजीर शब्दवमे व्याप्त एव ॥ ७४ ॥
टीका:- आशा निसं बिनीवक्त्र बिंबनीलांबर श्रियम् ॥ संदधानाम्बरं तेन तेने कादंबिनी ततः ॥ ७५ ॥
अर्थः- वली ते मेघपंक्ति केवी बे तो के दिशारूपी श्रीश्रोतुं मुख ढांकवानुं कालुं वस्त्र तेन शोभाने धारण करती एवी मेघपंक्ति ते देवे विस्तारी ॥ १५ ॥
टीका:-यस्ततंप्रास्ततः सांड्राजगवन्मस्तकोपरि ॥ नि: पेतुः सलिलासारा नाराचा श्व दुःसहाः ॥ ७६ ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः-त्यार पढ़ी जगवानना मस्तक उपर खालसरदित अंतरावरहित पाणीनी धारान पामी ते जाणे दुःसह बाणवृष्टि मी होय नहि शुं एम जाती ॥ ७६ ॥
(,३८.)
टीका:- जिनदेहं ततः स्पृष्टाव ते लुवं तिस्म भूतले ॥ अंतः समुच्चरध्यानमरुता विधुता इव ॥ ७७ ॥
अर्थ:-त्यार पनी ते जलधारा पार्श्वनाथजीना देहना स्पर्श करीने भूतलमां लोटी पकी एटले पृथ्वीमां पसरी, ते जाणे अंतरने विषे रुके प्रकारे चालतु जे ध्यान ते रूपी वायुवमे तिरस्कार पामी होय ने शुं ? एम देवल (नीचे) पमी ॥ 99 ॥
टीका:- नीरन्धं नीरधाराभिः पातुका जिः समंततः ॥ एकावे इवाभूतां युगांतश्व रोदसी ॥ ७८ ॥
अर्थ:- त्यारपटी घामपणे निरंतर चारे पास पकती पाणीनी धाराए जेम युगांत कालमां आकाश पृथ्वी एक समुद्रमय थाय तेम सर्व जलमय थयुं ॥ ७८ ॥
टीका:- सोऽजितो जिनमप्पूरोऽज्रियः क्षीरोदसोदरः ॥ बजार तनुजा भिन्नः कालोदजल धिश्रियम् ॥ ७९ ॥
अर्थ :- जिननी चारे पास मेघमांथी पकतो ने कीर समुद्र जेवो ते पाणीनो समूह पार्श्वनाथजीनी काली कांतिवने मि श्र थयो माटे तेथे कालोद नामे समुद्रनी शोना धारण करी ॥१९॥
टीका:- समालकालजीमूत निष्टयूंतः पयसां रयः ॥ स वरीवृध्ध्यते स्मोध्वं भारं जारं जुवं तथा ॥ ७० ॥ यथा जगवतः कंठमारुरोह निरंकुशः। संपद्यते ऽपकाराय नीचगामी सुपेक्षितः 10 १ |
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48 अथ श्री संघपट्टकः
( ३९ )
अर्थ:-तमाल वृक्षना जेवा काला मेघथी पलो जे पाणी नो प्रवाद ते पृथ्वीने जरी जरीने ते प्रकारे उंचो प्रतिशे वच्यो जे प्रकारे जगवानना कंठ उपर निरंकुशपणे आरोहण थयो. ते उपर अलंकार करे बे. जे ए वात घटेज, जे नीचाणमां गमन करनार तेनी उपेक्षा करवी ते पोताना अपकार जणी थाय बे. जेम नीच पुरुष बेतेनी वेखणा करी जे इशे आपणुं अपमान कर्यु तो करवा यो इत्यादि प्रकारे जो करे तो ते नीच पुरुष अंत्ये जतां श्राप गळु काले तेम ते नीचाण चालनार जल बे तेमो एवो स्वजाव थयो जे हलवे हलवे परमात्माना कंठ उपर घ्यावी बेटुं ॥ ८० ॥ ८१ ॥
टीका:-अमोघः पायसामोघः समैधिष्ट यथा यथा ॥ इर्ष्याa जिनस्यापि ध्यान वन्हिस्तथैौर्ववत् ॥ ८२ ॥
अर्थ:-सफळ एवो पाणीनो प्रवाह जेम जेम वृद्धि पायो तेम तेम परमात्मानो पण ध्यानरुपि अनि इर्ष्याए करीने जाणे रुवान भीनी पेठे देदीप्यमान थतो वो ॥ ८२ ॥
टीका:- नीलकुंतलरोलंबं पदमला हिदमलम् ॥ दंत कि मधुस्वंदि प्रीवानालोपल हितम् ॥ ८३ ॥ इंदीवर श्रियं बिज्र वइयजनतान नम् ॥ घनमुक्तपय पूरनिमग्नवपुषः प्रनोः ॥ ८५
युग्मम्
अर्थः- यार पढी मेघे मुकेला पाणीना पुरमां निमन ययुं बे शरीर जेनुं एवा नगवान तेमनुं जे, काला कमलनी शोजाने धारण करतुं एवं मुख ते प्रत्ये, लोकना समूह जोता हवा. ते
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( ४० )
- अथ श्री संघपट्टकः 8
कमल केतुं बे तो काला केशरूपी जमरा जेमां रह्या बे एवं ने सुंदर नेत्ररुपी निर्मळ पत्र जेमां रह्यां वे एवं, ने दांतनी कांति रूप मकरंदने करतुं ( उत्पन्न करतु) ने कंवरूप नाले करीने जयातुं एवं भगवंतनुं मुख, कमल सदृश जणाय बे ॥ ८४ ॥
टीका:- अनी योमणी रश्मि कि म्मि रितककुन्मुखम् ॥ इतश्च नागराजस्य सिंहासनम कंपत ॥ ८५ ॥
अर्थ:-एटलुं यया पती मोटा मणीनी कांतियोवत् चित्र विचित्र कय के दिशाश्रनां मुख जेणे एवं नागराजनुं सिंहासन कांपतु हवुं ॥ ८५ ॥
टीकाः - वृत्तांतस्तेन कृत्तांतःकरणस्थैनसा ततः ॥ प्रयुक्तावधिनाऽबोधि प्रोः पादप्रसादवत् ॥ ८६ ॥
अर्थ:-त्यार पछी जेदन थयुं वे अंतःकरणमा रहेलं पाप जेनुं एवा ते नागराजे अवधिज्ञान प्रयोजीने प्रभु संबंधी सर्वे वृतांत प्रजुना पादप्रसादनी पेठे जाएयुं. एटले जेम तीर्थंकरनो जन्मोत्सव जाणे वे तेम. अथवा पोता उपर जे पूर्वे प्रजुना चरणनो अनुग्रह थयो म अथवा कमठ योगीना पंचाग्नि कुंरुमां पूर्वे बलतो हतो तेथी जगवाने पोताना चरणप्रसादवने या प्रकारनी पदवी पमामी बे, ए पादप्रसादसहित जेम होय तेम जाणतो दवो ॥ ८६ ॥
क
टीका - सत्पलकुचारोहा स्तिलकानुगता लिकाः ॥ सिंकारचितच्छाया सामंजुलवलीलताः ॥ 09 ॥ बन्यासमाः समादाय देवी: पद्मावती मुखाः ॥ धरणेंद्रस्ततो जक्त्या स्वा-नं समुपेयिवान् ॥ ७७ ॥ युग्मम्
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
( ४१ )
अर्थ:-त्यार पढी सुशोभित बे स्तन ने कटी थी नीचब्यो जाग ते जेमनो एवी; अने तिलक सहित बे ललाट जेमनां एवी तथा काननां श्राजुषणव में रची बे सुंदर शोना जेमनी एवी ने सुंदर बे त्रीवलीरुपी लता जेमनी एवी ने वनदेवी सरखी जाती जे पद्मावतीप्रमुख देवखोने संघा लइने धरणेंद्र नक्तिएकरीने पार्श्वनाथ स्वामी पासे श्रावता हवा. वनदेवी प्रत्ये विशेषणनो अर्थ जे सारा पत्र जेने बे एवा लकुच नामे वृनो वे श्राश्रय जेमने एहव ने पोताम वधारे सुगंध ठे माटे तिलकना वृथी प्राप्त
या बे चमर जेमने एहवी ने कर्णिकारनां वृकवके य े बाया जेमने एवी ने सुंदर बे लवली नामे लताओ जेनी पासे एहवी.
|| 09 || GG ||
टीका:- विजुरीांबभूवेथ तेन मध्येजलोच्चयम् ॥ उर्मि - संवर्मितः शौरिरंतनराधिपं यथा ॥ ८ ॥
अर्थ:-त्यार पढी ते धरणेंद्रे जलना समूह मध्ये तरंग व व्यातथला जगवान दीवा. जेम समुद्रनी मध्ये नारायणने देखे तेम. ए दृष्टांत अन्य शास्त्र अनुसारी बे ते कबुंबे. समुनी मध्ये शेषनागना शरीर उपर नारायण सूत्रे बे ने ते नाग पोतानी हजार फणारुपी ar तेमना उपर धरे बे ने पासे लक्ष्मीजी पग चांपे बे, तेथी तेमनुं नाम शेषशायी भगवान कहेवाय बे इत्यादि कथा बे ॥ ८५ ॥
टीका :- मणिदीधितिनिद्भूतघनसंतमसं ततः ॥ अपारस्फारदुर्वारांबुधाराचौरगौरवम् ॥ ० ॥ श्रातपत्रं श्रियः संत्र फुल्लन्नबफणामयम् ॥ जुवनाधिपतेरूर्ध्वं प्राग् बिजरांबभू
व सः ॥ १ ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः--त्यार पटी ते धरणेंद्र, मणीनी कांतीव नाश कर्यु बे घाढ अंधकार जेणे एवं ने घणी मोटी ने दुःखथी निवारण थाय एवी जे जलधारान तेने हरनार बे मोठ्यप जेनी एवं ने शोभानुं घर प्रफुल्लित नवफारुपी वत्र जगवंत उपर शीघ्रपणे धारण क रतो वो ॥ १ ॥
( ४२ )
टीका:-सोsधस्ताने तु रुद्यामधाम तामरसं मुदा ॥ उन्नालं रचयामास दासवद्वासवोपमः ॥ २ ॥
अर्थः- :- वासव इंद्र बे उपमा ते जेनी स्वामी एवा भगवंत श्री पार्श्वनाथनी देवळ घणुंबे तेज ते जेनुं एवं अने उंचां मुखनुं बे कमलनी हर्षे करीने दासनी पेठे रचना करतो
एवो जे धरणेंद्र ते अपरिमित एटले नाल ते जेनुं एवा २ ॥
वो ॥
टीका:- थोपरि फणावत्रवारितांबुद विप्लवः ॥ श्रधोज - बूनदांनोजन्यस्तशस्तपदः प्रभुः ॥ ७३ ॥ प्राग्वत् प्रववृते
कामं परम
ध्यातुं किंबनंबरवर्जितः ॥ सर्वावस्थासु साम्यं योगिनाम् ॥ ए४ ॥
अर्थ :- त्यारपढी जेना उपर फलारुप बत्र व मेघनोपद्रव निवारण कर्यो बे एवा ने नीचे सुवर्ण कमलने विषे याच्या बे सुंदर पग जेणे एवा प्रभु पूर्वनी पेठेज उपद्रवनो जे श्रामंबर तेणे रहित ध्यान करवाने प्रवर्त्तता हवा ते वात घटेज मोटा योगीश्वरने सुख दुःखादि सर्व अवस्थाने विषे प्रतिज्ञे समपणुं होय वे
॥ ए३ ॥ ॥ ए४ ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः
( ४३ )
टीका:- तथापीशे महामर्षप्रकर्षं मेघमालिनम् ॥ मेघमालिनमुीक्ष्य ततोऽवादी दहीश्वरः ॥ ९५ ॥
अर्थः- त्यार पी धरणेंद्र मेघमाली प्रत्ये पूर्वे को एवो उपद्रव कर्यो ने तो पण प्रजुने विषे महाक्रोधे करीने पाठी मेघ मालानी वधारे वृष्टि करवामां तत्पर थयो एवो मेघमाली देवने देखी ते प्रत्ये नागपति धरणेंद्र बोलतो वो ॥ए॥
टीका:- मूढ पापीयसां धुर्य मौले होदीयसां नवान् ॥ जिनेपि किमेतद्नो व्यंजयस्य समंजसम् ॥ ए६ ॥
अर्थ :- हे मूढ ! ति पापी मां प्रेसर, अति नीच प्राणीना माथाना मुगट समान एवो तुं जगाय वे शाथी के जिनेश्वरने विषेपण शुं या तें घटित प्रगट कर्यु ! ॥ ए६ ॥
टीका:- द्विषन्नीशमधस्त्वंनो मापस्तप्तमानसः
॥ याने
वश्ये पयोराशौ को नु निर्व्वऊ मऊति ॥ ए७॥
अर्थ :- हे मेघमाली ? प्रजुनो द्वेष करी तप्युं बे मन जेनुं एवोतुं नरकमां मां केम जे हे निर्व्वक पोताने वश नौका मली पी समुद्रमां को मुबी मरे ॥ ए७ ॥
टीका:- हो कारुणिकायापि जिनायेष्यंति बालिशाः ॥ द्विषत्या म्रदीयांसं करनाः कंटकाशिनः ॥ ए ॥
अर्थ:- मूर्ख पुरुष करुणाना समुद्र एवा जिननली इर्ष्या करे बे ते वाश्वर्य बे. त्यां अलंकार बतावे बे जे ए वात घटे बे. मूर्खनो एवो स्वभाव होय छे. जेम कांटानुं जक्षण करनार उंट बे ते प्रतिशे कोमल एवो आंबो ते प्रत्ये द्वेष करेबे तेम ॥ ए८ ॥
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8 अथ श्री संघट्टकः
टीका:- विजुनाइतपोऽसारं तेने तेऽनुजिघृक्षया ॥ नहि जातु सतां वृत्तिः परेषां विप्रलिप्सया । एए ॥
( ४४ )
अर्थः- नगवाने तारा उपर अनुग्रह करवानी इच्छाये तारुं अज्ञान तप खोढुं करी विस्तार्यु केम जे क्यारेय पण सत् पुरुषनी प्रवृत्ति बीजा पुरुषने ठगवा कारणे होयज नहीं ॥ एए ॥
टीका:- बालिश वादृशा यहा हितमप्यऽदितं विदुः ॥ संपद्यते विरहिणां हरिणां कोऽपि दारुणः ॥ १०० ॥
अर्थ:-माटे हे मूर्ख तारा सरखा पोतानुं हित पण करेलुं तेनेति माने वे ए न्याय तो या प्रकारे थयो. जेवो विरही (वियोगी माणस) ने शीतल चंद्रमा बे तो पण आकरो दुःसह लागेढे तेम ॥ १०० ॥
टीका:-तत्वं तात्विकत्वेन चित्रं निश्चिन्वते जमाः ॥ शुक्तिकाशकलं जांता मन्वते रजतात्मना ॥ १०१ ॥
अर्थ:- जे जम पुरुष बे ते यथार्थ वस्तुप्रत्ये यथार्थपणानो निश्चय करे बे. जेम जांति पामेलो पुरुष बीपना कम का प्रत्ये धातो aurat aasta एम माने बे तेम ॥ १०२ ॥
टीका:- एवं कमवजीवः स नागराजेन तर्जितः ॥ अपराद्धेवने दिया मंतु विलक्षताम् ॥ १०२ ॥
प्रर्थः- प्रकारे कमठना जीवने ते नागराजे तिरस्कार कर्यो त्यारे, लक्ष्य चुक्यो छे बाण ते जेनो एवा पुरुषनी पेठे तत्काल लगाये करीने विलक्षण पाम्यो. एटले जुगे परुयो ।। १०२ ।।
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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(४५)
टीका:-उपप्लवैरपि ध्यानसंपटलंपटमानसम् ॥ स निकंपं जिनं वीक्ष्य निस्तरंगपयोधिवत् ॥ १०३ ॥ प्राग्जन्मवैरसंजारवि प्रतिसारनाक् ततः॥ ममरामंबरं सद्यः संजहार वि. शारदः ॥ १०४ ॥
अर्थः-त्यार पठी उपनवे करीने पण ध्यान संपदाने विषे लंपट डे मन जेनुं एवा अने तरंग रहित समुनी पेठे कंपाराए रहित एवा जिन श्रीपाश्वनाथजीने देखीने पूर्व जन्मना वैरनो जे समूह तेणे करीने विपरीत जजतो एटले अबबु आचरण करता एवा ते बुद्धिवंत मेघमालीए तत्काल उपवनो जे आमंबर तेने संहयों ॥ १०३ ॥ १०४ ॥
टीकाः स्वागांसि सम्यगानम्य दायित्वा जिनं ततः ।। तापस्त्यनें जियग्रामः स्वकं धाम जगाम सः॥ १०५॥
. अर्थः-त्यार पड़ी ते मेघमाली पोताना सर्व अपराध खमावीने जिन श्रीपार्श्वनाथजीने नमस्कार करीने, पोताने पश्चाताप थयो जे जे श्रा में खोटुं कर्यु, ते तापथी कृश थयो इंजियोनो समूह जेनो एवो ते देव पोताना स्थान प्रत्ये जतो हवो ॥ १५ ॥
टीकाः-अथ कृतनयमाथं श्रीजिनं पार्श्वनाथं कमविजयददं बुझसद्ध्यानलदम् ॥ मुदितजनसमाजः कीर्तयित्वा- . हिराजः स्वनवनमुरुशक्तिः प्राप सत्स्वामिन्नक्तिः ॥ १०६ ॥
॥ इति कथा ॥ .. अर्थः-त्यार पठी कर्यो रे नयनो नाश जेणे एवा, ने कमउने जीतवामां चतुर एवा, ने प्रगट थयुं ले सारा ध्यानने विषे लक्ष
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(४६)
49. अथ श्री संघपट्टका
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जेमने एहेवा श्रीजिन पार्श्वनाथजी ते प्रत्ये, हर्ष पमाड्यो लोकनो समूह जेणे एवो, ने घणी में शक्ति जेनी एवो ने सुंदर ले स्वामी नक्ति जेनी एवो नागराज वखाण करीने अथवा स्तुति करीने पोताना स्थान प्रत्ये जतो हवो ॥ १०६ ॥ ए प्रकारे कथा संपूर्ण थई ॥ ..... टीका:-तदेव मिष्टदेवतास्तवमनिधायेदानी संघव्यवस्थो
पदेशरहस्यं प्रतिपादनीयं तच्च योग्यस्य पुरुषस्य प्रतिपाद्यमानं ... साफल्यमासादयेत् । अयोग्याय तु दीयमानं प्रत्युत्तापकाराय
स्यात् । यदुक्तम्-अप्रशांतमतौ शास्त्रतनावप्रतिपादनम् ॥ दोषायाचिनवोदीर्णे शमनीयमिव ज्वरे ॥
अर्थः-एवी रीते इष्ट देवतानी स्तुति कही हवे संघनी व्यवस्थाना उपदेशनु रहस्य कहेवानुं बे. ते रहस्य योग्य जीवने उपदेश कर्याथो सफलताने पामशे ने अयोग्य पुरुषने अपाये तुं कदाच उलटुं अपकार- कारण थाय. कह्यु बे के, जेनी बुद्धी स्थिर नथी ते जीवने शास्त्रना खरा तत्वनो उपदेश दोषy कारण थाय जे.जेम जेने ताव चढ्यो बे ते माणसने शांतिने बास्ते श्रापाती दवा दोषनुं कारण थाय तेम.
टोकाः-श्रतोऽनिधेयमुपक्रममाण उपदेशरहस्यगणन. योग्यं श्रोतारं निरूपयितुमाह ॥ - अर्थः-ए हेतु माटे कहेवा योग्य वस्तुनो श्रारंज करता अनिधेय वस्तुनो उपन्यास करता बता ग्रंथकार उपदेश रहस्यने कहेवा योग्य श्रोता पुरुषतुं निरुपण करता बता कहे , एटले श्रोता पुरुषनां लक्षण कहे .
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8. अथ श्री संघपट्टक:
3.
(४७)
॥ मूल काव्यं ॥ कल्याणानिनिवेशवानिति गुणग्राहीति मिथ्यापथ प्रत्यर्थीति विनीत इत्यऽशठ इत्यौचित्यकारीति च ॥ दाक्षिण्यीति दमीत नीतिनृदिति स्थैर्थीति धैरुति सत् धर्मार्थीति विवेकवानिति सुधीरित्युच्यसेत्वंमया ॥२॥
टीकाः-नच्यसे व्यपदिश्यसे त्वमिति युष्मदा विवक्षितश्रोतृनिर्देशः मयेति कतरात्मनिर्देशः ततश्च नो श्रोतर्मया त्वं संघव्यवस्थां प्रतिपाद्यसे इत्यर्थः ॥ .. अर्थ:-त्वं' एप्रकारे युष्मत् शब्दनो प्रयोग कर्यो, तेथी श्रा काव्यमां कहेला लक्षण सहित जे श्रोता पुरुष तेनो निर्देश को अने 'मया' एप्रकारना प्रयोगथी कर्त्ताए पोतानो निर्देश कर्यो, तेथी हे श्रोता पुरुष हुँ तारा प्रत्ये संघनी व्यवस्था प्रतिपादन करुंई एटलो अर्थ थयो.
टीकाः-कस्मादित्याह ॥ कल्याणानिनिवेशवानिति । इति शब्दाः सर्वेप्यत्र हेत्वार्थाः॥ कल्याण: शुनोनिनिवेश
आग्रहः सद्ग्रह इत्यर्थः ॥ तहान् ॥ ... अर्थः-शा हेतु माटे एवा श्रोता. प्रत्ये आ ग्रंथ कहा एवी आशंका करी कहे जे जे या काव्यमा जे सर्व इति शब्द तेनो हेतुरुपि अर्थ डे माटे कल्याण एटले शुजने विषे प्रवेश शुन वस्तुनो आग्रह एटले सद्वस्तुनुं ग्रहण करवू ने असद् वस्तुनो त्याग करवो एवा गुण सहित श्रोता पुरुष होय.
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(४८)
8. अथ श्री संघपट्टः
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टीकाः-यतः सद्ग्राहिणो हि सदुपदेशरत्नश्रवणे परमानंदः समुससति।असद्ग्राहीतु तवणेपि कदाग्रहग्रस्ततया सयुक्ती. रपि स्वमतिकल्पिताऽतात्विकवस्तुसमर्थकत्वेन योजयति ॥
अर्थः-जे हेतु माटे साची वस्तुने ग्रहण करनार पुरुषने तो सारा उपदेशरुपी रत्न सांजळीने परमानंद (उदलास) प्राप्त थाय , ने असद् वस्तुने ग्रहण करनार पुरुषने तो ते सारी वस्तु सानले तो पण पोते कदाग्रहमा गळायो डे माटे शास्त्रोक्त सारी युक्तिने पण पोतानी मतिये कट्पेली जे खोटी वस्तु तेनुं प्रतिपादन करवा नणी जोमे ॥
टीका-यदुक्तं ॥ आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ॥ पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशमिति ॥
अर्थः-ते वात शास्त्रमा कही जे जे आग्रही पुरुष ज्यां पो.तानी मति प्रवेश थ त्यां युक्ति पमामधा श्छे ले एटले जे कदाग्रहमां पोतानी मति चोंटी ने त्यां शास्त्र युक्तिने लइ जवा इच्छे ने. ने पक्षरहित जे पुरुष तेनी मति तो ज्यां युक्ति त्यां प्रवेश पामे ले एटले युक्ति सहित ले तेनुज ग्रहण करे ले ए प्रकारे अहिं पण सारो पुरुष ले ते सारनुं ग्रहण करे ने ने अप्सत् पुरुष ले ते असत्नुं ग्रहण करे ३ ॥
टीकाः-श्रथवा कल्याणं मोदः तत्रानिनिवेशोऽध्यवसायस्तछान् यतो नवाजिनंदिनां समुपदेशोपि न चेतसि स्थिति बध्नाति ॥
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अथ श्री संघपटक
રહીસિંહ
___ अर्थी कल्याण शब्दनो बीजी- गते अर्थ कोने में कल्याण कहेतां मोक्ष तेमां जेनो अध्यवसाय, स्टने निश्चय बे, एवो श्रोता पुरुष होय केमजे नवानिनंदी जे प्राणी तेना चित्तमां साचो एवो पण उपदेश रही शकतो नथी॥
टीकाः-यमुक्तं ॥ कल्याणकांक्षिणां नृणामुपदेशः . सुधायते ॥ नवानिनंदिनां चित्रं स एव गरलायते ॥ __अर्थः-ते का जे जे मोक्ने इच्छता जे पुरुष तेमने साचो उपदेश अमृत जेवो लागे डे, ने नवाजिनंदि प्राणीने तेज उपदेश फेर जेवो लागे . ए वात आश्चर्यकारी . ॥ कवि शब्द घटनानो तात्पर्यार्थः ॥ जेम सुवर्णने इच्छता लाग्यशाली प्राणीने ते संबंधि जे उपदेश एटले या प्रकारे निश्चे सुवर्ण सिद्धि थाय डे एवो, जे साचो उपदेश ते अमृत जेवो थाय , एटले लोकमां कहेवाय जे जे श्रमृत बिंबवझे सुवर्ण तथा अजर अमर इत्यादि गुण उत्पन्न थायने, ने ते अव्य इच्छक पुरुषने जेवो शतवेधी सहस्त्रवेधी रस प्राप्त थाय बे, ने जे नवान्निनंदि एटले जे पोताने मद्युं बे तेज दारिज पणामां खुशी एवा निर्लाग्य प्राणीने ते सुवर्ण सिद्धिनो उपदेश केर जेवो लागे डे ए आश्चर्य जे ए प्रकारे अर्थातर पण सूचना कयों.
टीकाः तथा गुणग्राहीति ॥ अल्पीयसोपि गुणस्य ग्रहण प्रवणः ॥ दोषैकग्राहिणो हि अविद्यमानेपि दोषे तग्राहकत्वमेव स्यात्
अर्थ:-वली श्रोता पुरुष केवो होय, गुणग्राही, अतिशे योमो गुण होय तेनुं पण ग्रहण करवामां प्रवीण, ने जे दोषमाही . ते
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( ५० )
अथ श्री संघपकः
तो जेमां दोष न होय तेमां पण दोष खोली काढीने दोषनुंज प्र इ करे बे ॥ दण
टीका :- यदुक्तं ॥ नात्रातीव विधातव्यं दोषदृष्टिपरं मनः ॥ दोषो विद्यमानोपि तच्चितानां प्रकाशत इति ॥ २ ॥
अर्थ :-- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे अतिशे दोष दृष्टिने विषे तत्पर मन न करवुं केम जे दोष न होय तो पण दोष दृष्टिवा - लाना चित्तमां दोष नासे बे ॥ इत्यादि ॥
टीका:- तथा मिथ्यापथप्रत्यर्थी ति ॥ मिथ्यापथो वक्ष्यमा - पलक्षणो यथानंदप्ररूपितोत्सूत्रमार्गः ॥ तस्य प्रत्यर्थी विरोधी ॥ उत्सूत्रमार्ग श्रोतुमप्यनिच्तुः ॥ उत्सूत्रपथा जिलापूकस्य हि ययार्थ सिद्धांतोपदेशस्त्रासाय स्यात् ॥
अर्थः-- वली ते श्रोता केवो होय तो मिथ्यामार्गनो शत्रु, एटले गल कहीशुं एवां जेनां लक्षण बे एवो पोतानी इच्छा प्रमाणे प्ररूपणा करयो जे उत्सूत्र मार्ग तेनो विरोधी एटले उत्सूत्र मार्गने सांगलवानी पण इच्छा नथी करता, केम के उत्सर्ग मार्गना अनि लाषी पुरुषने निश्चे यथार्थ सिद्धांतनो जे उपदेश ते त्रासजणी थाय बे. टीका:--यदुक्तं । खुद्द मिगाणं पुण सुद्धदेसणा सीहनायसमेति
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे क्रुद्र पुरुष रूप मृग तेमने शुद्ध देशना बे ते सिंहनाद जेवी बे एटले त्रास उपजावनारी इत्यादि ॥
टीका:- तथा विनीत इति ॥ गुर्वादिष्वन्युत्थानादिकरणलालसः ॥ विनीतायैव हि गुरुवः सिद्धांततत्त्वं प्रतिपादयंति ॥
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( ५१ )
अथ श्री संघपट्टक: अर्थः-वली ते श्रोता केवो होय तो विनीत होय एटले गुरु आदिक प्राप्त थये बते उजु थर्बु इत्यादिक विनय करवानी लालसा वालो, केम जे गुरुमहाराज विनीत शिष्य जणीज सिद्धांतनुं तत्व आपे बे. _____टीकाः-यमुक्तं ॥ विणयन्नयंमि सीसे दिति सुथं सूरिणो किमथ्थरियं ॥ कोवा न दे निख्खं किं पुण सोवन्निए थाले ॥
अर्थः-शास्त्रमा कडं ले विनयनो जाण एटले विनयनो करनार एवो शिष्य, ते नणी आचार्य सिद्धांत आपे ले एमां शुं श्राश्चर्य ले दृष्टांतः-जेम कोई मोटो पुरुष सोनानो थाल लश्ने निक्षा मागवा श्रावे तो तेने न आपे अर्थात् सर्वे आपे तेम ॥
टीकाः-पुर्विनीताय पुनर्न किंचिदुपदिशति ॥ यदुक्तं ॥ सेहंमि मुव्विणीए विषयविहाणं न किंचि आख्खे ॥ न यदिजश्याहारणं पलियंचियकन्नहत्थ्थस्स ॥
अर्थः-अने दुविनीत शिष्य नणी श्राचार्य काइ उपदेश न करे जे हेतु माटे शास्त्रमा कडं ले जे पुर्विनीत.शिष्य नणी विनय विधानादि कां पण नथी कहेता, ते उपर दृष्टांतः-जेम बेदन थया डे कान हाथ जेना एवा पुरुष प्रत्ये शोनाने अर्थे नरण नथी आपता तेम.
टीकाः तथा अशक इति ॥ ऋजुस्वन्नावः ॥ गुर्वादिषु जीविकानिरपेक्षप्रवृत्तिरित्यर्थः ॥ शगे हि न विद्यायोग्यः ॥ यतो विनीताय बुब्धायाऽनृजवे न मां ब्रूयादिति विद्यैवाहेति ॥
अर्थः-वली ते श्रोता पुरुष केवो होय ? तो अशव एटले सरल स्वन्नावी गुर्वादिकने विष आजीविकादिकनी अपक्षारहित
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( ५२ )
अथ श्री संघपट्टकः
सेवामां प्रवर्त्ततो एवो होय. जे शठ पुरुष बे ते विद्या योग्य नथी जे माटे सरस्वतीये पोते कथं बे जे विनीत तथा लोजी तथा शव पुरुष एटला जणी मारुं उच्चारण न कर ॥
टीका:- तथौचित्यकारीति च ॥ लोकागमाविरोधेन गुर्वा - दिषु यथानुरूपं विनयादिप्रवृत्तिरौचित्यं ॥ तत्करणशीलः ॥ श्रोचित्यहीनस्य हि शेषगुणाः संतोपि काशकुसुमसंकाशाः ॥
अर्थः- वळी ते श्रोता पुरुष केवो होय तो के उचितपणुं क - रनार एटले लोकमां तथा शास्त्रमां विरोध ना यावे तेम गुरुयादिने विषे जेम घटे तेम विनयादिकनुं करवुं तेने उचितपणुं कही ये तेने करवाना जेनो स्वभाव बे एवो, उचितपणा विना बीजा सर्वे गुण कदापि होय तो पण काश नामे कोई तृणविशेष तेना पुष्प जेवा नाकामा बे ॥
टीका :- यदुक्तं, औचित्यमेकमेकत्र गुणानां कोटिरेकतः विषायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जित इति ॥ चो विशे. पणसमुच्चये ॥
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे एक उचितपणुं करवा रूपि गुण स्थापो ने एक पास कोटी गुण थापो तो पण उचितपणा विना ते सर्व गुण फेर जेवा थाय छे, या जगाये चकार मूक्यो बे, ते सर्व विशेषणने एक हारमां नेलां करे बे ॥
टीका:- तथा दाक्षिण्यीति ॥ दाक्षिण्यमनुकूलता ॥ जनचित्तानुवर्त्तित्वं ॥ तद्वान् ॥ निर्दाहिएयो हि बांधवानामप्युठेजनी यो भवति ॥
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अथ श्री संघपट्टकः
( ५३ ) अर्थः वली ते श्रोता पुरुष केवो तो के माहापण (अमुकस) पणाये सहित लोकना चित्तने अनुसरवापणुं, अर्थात् जेने दे. खोने बुद्धिवान्ने एम जणाय जे था पुरुष तो माह्यो ठे एवा गुण सहित. केमके जेमां माहापणपणुं नथी, ते पुरुष पोताना बंधुने पण उहेग करनार थाय ॥
टीकाः--॥ यमुक्तं ॥ निदिएयो मुच्यते बंधुनत्यस्तन्मुक्तस्य कीयतेऽस्य त्रिवर्गः॥ क्षीणे चास्मिन्मेदिनीनारकारी कारीषानो जीवति व्यर्थमेष इति ॥७॥
अर्थ:- जे माटे शास्त्रमा कयु डे जे पुरुष माहापणपणाए रहित , तेने पातानो बंधु तथा सेवक ते पण त्याग करे ने ज्यारे तेमणे त्याग को त्यारे ते पुरुषना धर्म अर्थ ने काम ए त्रणे पुरुषार्थ नाश पाम्या त्यारे ते पुरुष निःकेवल पृथ्वीनो नार करनार थयो ने सुका गणनी पेठे बालवा विना बीजा कोइ कार्यमां उपयोगी न थयो माटे एनुं जीवन व्यर्थ ॥
टीकाः-तथा दमीत ॥ जितेंजियः ॥ अजितेंजियो हि गुरुसेवायामपि मंदायते॥ यदुक्तं ॥अनिर्जितेंजियग्रामः कांताललितकीलितः ॥ न सेवते गुरुं तस्मात् कुतस्त्यस्तत्व निर्णय इति ॥ ७॥
अर्थः-वळी ते श्रोता पुरुष केवो ने तो के दमी एटले जितेंजिय. जेणे यो जीती नथी ते गुरुसेवाने विषे पण मंद थाय जे जे माटे शास्त्रमा कडं जे जे, नथी जीत्यो इंजियोनो समूह जेणे एवो ने स्त्रीयोना विलासना विषे जे बंधायो एवो पुरुष गुरुने सेवे
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( ५४ )
अथ श्री संघपट्टकः
नहीं, ते माटे ते पुरुषने तत्वनो निश्चय क्यांथीज होय ? ॥ ८ ॥ टीका:- तथा नीतिनृदिति ॥ सदाचारपरायणः ॥ तद्वतो हि सर्वेपि साहाय्यं जजंते ॥ तद्विपरीतस्य च वैपरीत्यम् ॥
अर्थः-- वली ते श्रोता पुरुष केवो होय तो के नीतिनो धारण करनार एटले सदाचारने विषे तत्पर, सदाचारवालाने निचे सर्वे पण सहाय करे बे ने सत् आचरण करनारनुं विपरीतपणुं करे ॥
टीकाः -- ॥ यदुक्तं ॥ यांति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यचोपि सहायताम् ॥ अपंथानं तु गच्छन्तं सोदरोपि विमुंचतीति ॥ ए ॥
अर्थः-॥ शास्त्रमां कह्युं बे जे न्याय मार्गे चालनारनी सहाय तिर्यंच एटले पशु पक्षी पण करे बे, ने उन्मार्गे चालनार पुरुषनो सोदर (ना) पण त्याग करेने ॥ ए ॥
टीका:- तथा स्थैर्यीति ॥ स्थैर्य कार्याने छानोत्सुक्यं तड़ान ॥ उत्सुका हि राजस्येन कार्यमारभमाणाः शास्तारमप्यु - जयंति ॥
अर्थः- वली ते श्रोता पुरुष केवा होय तो, स्थैर्यी केहेतां कार्यना आरंभ विषे स्थिरतावाला, छाने जे स्थिरतावाला नथी' ने कार्यनो आरंभ करे बे ते पुरुष पोतानो जे शिक्षक तेने पण उद्वेग पमा तेमां शुं कहेतुं ?
टीका: - यदुक्तं ॥ [ स्थिराः स्वैरिणो नूनं क्षोजयंति प्रभूनपि ॥ चलाना कुलारंजा युगांतपर्वता इवेति ॥
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कनुं डे जे अस्थिर होय ने स्वेच्छा
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'अथ श्री संघपट्टकः
( ५५ )
चारी होय. ते निश्चे मोटा पुरुषने पण दोन पमाने बे, जेम प्रलय कालनो वायु पर्वतोने पण कंपावे छे तेम ॥
टीका:- तथा धैर्यौति ॥ धैर्यमापत्स्वपि मनसो कोन्यत्वं ॥ तद्वान् ॥ अधीरो हि विघ्नाकुलितचेता गुरुमपि हीलयति ॥ यदुक्तं ॥ विघ्नविदोजितस्वांतः कदाचिद्धर्मकर्मणि ॥ कातरः सातर सिको गुरुमप्यवमन्यत इति ॥ ११ ॥
अर्थः- वली श्रोता पुरुष केवो होय ? तो, धैर्य एटले धैर्य ते आपत् कालमां पण मननुं न कोनवापणुं एवा गुणे करी सहित ते धीरजवालो कवाय ने जे अधीर पुरूष बे. ते तो विघ्नवरे - कुल बे चित्त जेनुं एवो बतो गुरूनी पण हीलना करे बे. जे माटे शास्त्रमां कj बे जे क्यारेक विघ्नवमे दोन पाम्युं बे चित्त जेनुं एवो पुरुष धर्म कर्म विषे रंक जेवा थाय बे ने शातासुखनो लालची थाय बे, त्यारे गुरूनी पण अवगणना करे बे.
AP
टीका:- तथा सद्धर्मार्थीति ॥ सन् शोभनो धर्मो लोकप्रवाहरहितः ॥ ज्ञानुगतः प्रतिश्रोतोपरनामा पारमेश्वरः शुद्धो मार्गस्तस्यार्थी गवेषकः ॥ लोकप्रवाह निरते हि पुंसि जलनृतकुंनोपरिपातुकजलबिंदु वि गुरूपदेशो बहिर्बुवति
अर्थः- वली ते श्रोता पुरूष केवो होय ? तो सद्धर्मार्थी एटले सारो शोजतो जे लोकप्रवाद रहित तीर्थंकरनी श्रज्ञाने अनु सरतो प्रतिश्रोत ए प्रकारनुं जेनुं बीजुं नाम बे एवो परमेश्वर संबंधी शुद्ध मार्ग तेनो गवेखणा करनार एवा लक्षण सहित श्रोता जोइए. केम जे लोकप्रवाहने विषे श्रति आशक्त थयो जे पुरुष
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(५६)
अथ श्री संघपट्टक तेने विषे गुरू महाराजनो उपदेश प्रवेश पामतो नथी बारणे नीकली जाय जे जेम जलवमे संपूर्ण नरेला कुंल उपर जेटलुं पाणी पो ते सर्वे बारणे नीकली जाय ले तेम..
टीकाः-- ॥ यदुक्तं ॥ अंधं प्रति यथा लास्यं गानं च बधिरं प्रति ॥ अनथिनं प्रति व्यर्थं तथा सद्धर्मदेशनम् ॥ १५ ॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयु जे जे आंधला प्रत्ये सुंदर नृत्य करवू तथा बेहेरा प्रत्ये सुंदर गान करवू जेम व्यर्थ , तेम जे पुरुषने साचा मार्गनी अभिलाषा नथी ते प्रत्ये साचा मार्गनो उपदेश करवो व्यर्थ ॥
टीका:-तथा विवेकवानिति ॥ पारिणामिक्या बुद्ध्या युक्तायुक्तविमर्शो विवेकस्तछान् ॥ विवेकी हि हेयपरित्यागेनोपादेयमुपादत्ते ॥
अर्थः-वली ते श्रोता पुरूष केवो होय तो के विवेकवालो एटले जे करवाथी पश्चाताप न थाय, एवं करावनारी जे बुद्धि तेने पारिणामिकी बुद्धि कहीए तेवी बुद्धिये करी युक्त, तथा युक्त अयुक्तनो जे विचार करवो तेने विवेक कहीए तेवा विवेक सहित जे होय ते विवेकी कहीए ॥
टीका:-तदुक्तं-हेयं विहाय विरलाः सद्सद्विवेकादादेय मत्र समुपाददते पुमांसः॥ संप्रत्यहो जगति हंत पिबंति नीरात्, दीर विविच्य सहसा विहगाः कियंतः ॥ १३ ॥
अर्थः-ते कयु , जे पुरूष सत् असत्ना विवेकयी त्याग करवा योग्यनो त्याग करे ने, ने ग्रहण करवा योग्यतुं ग्रहण करे बे,
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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(५७)
तेवा पुरुष श्रा जगतमा विरला बे. एटले थोमा ॥ जेम वर्तमान काले जगतमा केटलाक पती दूधने. जल बेनेगां होय जे तेमांथी ते बेने शीघ्रपणे जूदां करीने दूधनुं पान करे ने ने जलनो त्याग करे जे ॥१३॥
टीकाः-॥तथा सुधारिति ॥ सुधी प्राज्ञः ॥ अझे हि व. तापि गुरुर्न किंचित् संस्कारमाधातुमीष्टे ॥ यदुक्तं ॥ व्या. ख्याता कं गुणं कुर्याद्विनेये मंदमेघसिादुरेधसि शितोप्येति कुगर: कुंचता हगत् ॥ १४ ॥ तदेवं पूर्वोदितसकलगुणगणसंपन्न स्त्वं नोः श्रोतस्ततो मयोपदेशसर्वस्वं श्राव्यसे इति कृतार्थः ॥ __ अर्थः-वळी ते श्रोता पुरुष केवो होय तो, सुधी एटले माह्यो, केम जे अज्ञानी पुरुषने विषे, सारं कहेनार एवा पण गुरु, कां पण सारो संस्कार चमाववा समर्थ नथी. जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे मंद बुद्धिवाला शिष्यने विषे, उपदेश करनार गुरु शो गुण करी शके ? कां न करी शके. जेम कुहामाथी न दाय एवं दु:खदायी काष्ठ तेने विषे तीखो एवो पण कुहामो बलात्कारथी कुंवित थाय ने तेम ते माटे पूर्वे कह्या एवा सकल गुण गण तेणे सहित एवो तुं श्रोता पुरुष बुं माटे, हुं उपदेशनुं सर्वस्व संन्नलावू. अर्थात् एवा श्रोता प्रत्ये था सर्वोपरि उपदेश संनलाववा योग्य , ए प्रकारे या बीजा काव्यनो अर्थ थयो ॥n
. टीकाः-श्दानी योग्यश्रोतारं प्रति याक्तव्यं तत्प्रस्तावनामारचयितुं वृत्तघ्यमाह ॥
अर्थः-हवे योग्य श्रोता पुरुष प्रत्ये जे कदेवा योग्य ले तेनी प्रस्तावना कहेवाने बे काव्य संघाथे कहे बे..
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__e. अथ श्री संघपट्टका
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के मूलकाव्यं रह किल कलिकालव्यालय कत्रांतराखस्थितजुषि गततत्वप्रीतिनीतिप्रचारे ॥ प्रसरदनवबोधप्रस्फुरस्कापथौघ.
स्थगितसुगतिसर्गे संप्रति प्राणिवर्गे ॥३॥ प्रोत्सर्पघ्नस्मराशिग्रहसखदशमाश्चर्यसाम्राज्यपुष्य. मिथ्यात्वध्यांतर जगति विरलतां याति जैनेज्मार्गे ॥ संविष्टद्विष्टमूढप्रखलजमजनाम्नायरक्तैर्जिनोक्तिप्रत्यर्थी साधुधेर्विषयिनिरजितः सोयमप्राथि पंथाः ॥४॥
टीकाः-एवं विषे प्राणिवर्गे सति साधुवेषैः सोयं पंथा श्र. प्राथीति संबंधः । श्रप्राचि श्रतानि । यत्रचामाथीति प्रथेरिनंतस्य इचि वेत्यनेन सानुबंधत्वारिकल्पीय-हस्वनिर्मु
तपके रुपम्॥ - अर्थः-प्राणीनो समूह, श्रागल कहीशुंए प्रकारनो थये इते, साधु वेष धारी पुरुषोए था मार्ग विस्तार्यो . था ठेकाणे व्याकरण विचार जे प्राधि एवं जे रूप थयुं ते तो इनंत एवो जे प्रथम धातु, तेनुं “चिवा" ए सूत्रे करीने जे पदे विकल्प-हस्वता नथी चती ते पके अप्राथि ए, सिक रूप थाय ॥
टीका:-कोऽसौ पंथा मार्गः स्वमनीषिकाकरिफ्तं मतासोऽयं स इति सकलजनप्रतिको ऽयमिति इदानी प्रत्यकोपलन्यमानः कथमप्राथि ? अनितः समंताद् जूरिदेशेष्वित्यर्थः॥
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- अथ श्री संघपट्टकः
(१९)
अर्थ:- ते की यो मार्ग एटले पोतानी बुद्धिये कल्पना कर्यो एवो ते कीयो मत बे ? तो सकल जनने प्रसिद्ध एवो कम प्रत्यक्ष जगातो मत बे. ते कये प्रकारे विस्तार्यो ? तो चारे पासे घणा देशमां विस्तार्यो.
टीका:-कैः साधुवेषैः साधोः सुविदितस्येव वेषो रजोदरणादिनेपथ्यो न त्वाचारो येषां ते तथेति ॥ सन्मुनिलिंगमात्रधारिनिः॥
अर्थः- कोणे मार्ग विस्तार्यो ? तो रजोदरणादि सुविहित साधुनो भूषण रूपी जे वेष, तेनुं धारण करता पण ते सुविदितना याचारनुं धारण न करता एवा, वेष मात्र धारी एटले साचा मु निना लिंगमात्रनुंज धारण करनार एवा पुरुषोये ॥
टीका:- कुत एमदित्यत श्राह ॥ विषविनिः ॥ विधि एवं सि संसारगुप्तौ वनंति से विनं प्राशिनमिति विषयाः शब्दादयः ॥ तद्वदिनरिं प्रियार्थव्यासंगिजिः ॥ विषयासंगो हि यतीनां दीया विरुध्यते ||
अर्थः- दा हेतु माटे तो त्यां कहे छे जे संसार रूपी बंधीखानाना घरने विषे पोताने सेवन करनार प्राणीने बांधी राखे ते विषय कहीए, ते शब्दादि पांच विषय तेणे सहित एटले निःकेवल विषय मात्रमांज श्रासक्त एवा ते साधुवेषि के माटे केम जे यतिने, विषयमां पाने दीक्षाएं ए बेने परस्पर विरुद्ध ठे. झी रीते ? तो ज्यां दीक्षापणुं छे त्यां विषयासक्तपणुं नयी वने यां विषयास पणुं छे त्यां दीक्षापणुं नथी
टीका: । यदुक्तम् ॥ मुहुर दियमाणाः सारयो के रि
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8 अथ श्री संघपट्टकः 8
वा, वफलक उदारेऽतीव बंज्रम्यमाणाः ॥ वधविशसन बंधैः सादमासादयंते, परम विषयजाजो दीक्षिता भूरिकालम् ॥
(६०)
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कहां बे जेम पासा वमे सोगटां, बाजी मां चारेपार घरोघर नमेबे ने त्यां अनेक प्रकारे घात तथा नाश तथा बंधन खेद पामे वे तेम चतुर्गति संसाररूप चोपट खेलने विषे विषयोगी दीक्षावंत प्राणी पण अतिशे मरा करता करतां घणा काल सुधी अनेक प्रकारे नाशघात बंधनादिके करीने खेदपामे बे.
टीकाः । किंरूपः पंथाः, जिनानामनामुक्तिर्वचनमागमः तस्य प्रत्यर्थी विरोधी पारमेश्वर सिद्धांत विपर्यस्तार्थप्ररूपरूपतया तदनिहितयुक्तिवाधितः ॥ कस्मादेवंविधः पंथाः प्रथितस्तेरित्यत श्राह ॥
अर्थ:- केवो मार्ग तेमले विस्तार्यो ? तो जिन जे अरिहंत तेमना वचनरूपी जे शास्त्र तेनों विरोधि, एटले परमात्मानो कहेलो जे सिद्धांत तेथी विपरीत जे अर्थनी प्ररूपणा तेरो करीने ते सिमां कहेली जे युक्ति तेथी बांध पामेलो. शा माटे ए प्रकारनो मार्ग तेमणे विस्तार्यो ? ते कहे बे..
टीका:- संक्लिष्टेत्यादि ॥ संक्लिष्टः सातत्येन धार्मिकजनो प्रतापकार्त्तरौद्राध्यवसायवान्, द्विष्टो मत्सरी गुणवद्गुणजंशनप्रवणबुद्धिः ॥ मूढः ॥ हेयोपादेय विमर्शशून्यः ॥ प्रखलः ॥ प्र कर्षेण पिशुनः गुणवद्गुण सदूवणारोपणचतुरः जो दुम्मेधा यो जनस्तेषामेव चतुर्विधः संघस्तस्याम्नायः शिष्यप्रति शि- धीदिसंतानः ॥ तत्र रक्ताः प्रीतिमतः ॥ यद्वा संक्लिष्टादिवि
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-g. अथ श्री संघपट्ट:: ...
शेषणोपेतो जनो नाम सुविहितसंघस्तस्यानायः गुरुपारंपर्यागतः श्रुतविरुकाचरणा तत्र रक्ता: पक्षपातिनस्ते, ते हि स्वस- .. दृशजनाचरितं प्रामाण्येन प्रतिपद्यते
सन प्रातपद्यत अर्थः-जे निरंतरपणे करीने धार्मिक जनने उपताप करनार एवा जे श्रातरौ अध्यवसाय तेमणे सहित अने मत्सर सहित एटले गुणवान पुरुषना गुणने नाश करवा तत्पर जेनी बुद्धि श्रने त्याग कर तथा ग्रहण करवू ते संबंथि जे विचार तेणेरहित माटे मूढ पुरुष अने अतिशे खल एटले अतिशे चामिन, गुणवानना गुणने विषअसत् दोषना धारोपण करवामां चतुर अने जम एटले दुष्ट बुद्धिवालो. एवो जे लोक तेनो चार प्रकारनो संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप) तेनो जे आम्नाय एटले शिष्यने तेना शिष्य इत्यादि विस्तार ते विषे श्राशक्त (प्रीतिवाला) ते पुरुष बे, ए हेतु माटे अथवा तुंमा अध्यनसायवालो, वेषी, मूढ, प्रखल, जम ए प्रकारनां विशेषणे सहित एवो जे जन एटले नाम मात्रे करीनेज सुविहित संघ पण गुणवमेनहीं, एवानो जे आम्नाय एटले गुरु परंपरागत शास्त्र विरुष्क जे आचरण तेने विषे श्राशक्त एटले पक्षपाति एवा जे साधुवेषी पुरुषो जे ए हेतु माटे, केम जे तेज पोताना सरखा जे लोक तेनुं आचरण प्रमाणपणे अंगीकार करे .
टीका:--॥ यमुक्तं ॥ एगरि मनता, सयंपि तेसिं पएसु वदंता ॥ रागदोसबायणघा, केश पसंसंति निकम्मे ।। . .... अर्थ:-जे माटे शास्त्रमा कहेंढुंठे जे एक श्राचारवालाने माननार केटलाक पुरुष ले ते तेमना मार्गमा पोते पण वर्नता बता
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* अथ श्री संघपट्टकः
पोताना दोषने ढांकवाने अर्थे धर्मरहित पुरुषोने पण प्रशंसा करे.
टीका:-त एवंविधा जिनोक्तिप्रत्यर्थिनमेव मार्ग प्रथयंति ॥ अथ जास्वतीव दीप्यमाने पारमेश्वरे पथिकृत एवंविधपथप्रथनस्य तमस इवावकाशः ॥ तत्राह ॥ जगति लोके विरलतां स्तोकतां अल्पजनान्युपगमनीयतां याति पाप्नुवति सति ॥ कस्मिन् ॥ जिनेंद्रमार्गे जगवत्प्रणीते शुद्धे प्रतिश्रोतसिं पथि ॥
( ६२ )
•
अर्थ:-ही कारण माटे ए प्रकारनो जिनेश्वर जगवंतना वचनना शत्रुरूपज मार्ग तेने विस्तारे वे. ते उपर यहांका करे बे, जे सूर्यनी पेठे देदीप्यमान परमात्माना मार्गने विषे शाथी ए प्रकारना मार्गना विस्तार रूपी अंधकारनो प्रवेश भयो ? तो कड़े बे के जगतमां जिनेंद्र भगवंते कडेलो ने संसार मार्गथी उसटो एवो शुभ मार्गाने एटले योकापणाने पामे बते नावार्थ-खोकमां छाप पुरुषज शुध्ध मार्गने पामवार्थी उत्सूत्र मार्ग विस्तार पाक्यो. टीका:- कस्मादेतदित्यत श्राह ॥ प्रोत्सर्पद्मस्मेत्यादि ॥ प्रोत्सर्व्वन् जगवी महावीरमुक्तिसमये तज्जन्मराशिसंक्रांत्या तत्पक्षसंघस्य बाधा विधायित्वात् प्रोंनमाणो नस्मराशिनामा मंगालादिवस्क्रूरो ग्रहस्तस्य सखा मित्र राजा दित्वादन् ॥ ततश्च प्रोत्सर्पद्नस्मराशिग्रहसखं यद्दशमाश्चर्यमसंयतिपूजाख्यं ॥
अर्थ:- शाथी एम युं ? तो त्यां कहे हे जे नगवान श्री महावीरस्वामि मुक्तें गया ते समये उदय पाम्यो, ने तेमनी जन्मराशीने संक्रमण थयो ए माटे. तेम महावीर स्वामीना परूपाती
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- अथ श्री संघपट्टकः
• ( ६३ )
संघने बाधा पमागतो जस्मराशि नामा ग्रह बे, ते मंगलादि प्रहनी पेठे महा करो ग्रह बे तेनुं मित्ररूप जे आश्चर्य वे तेथी.
संयति पूजा नामे दशमुं
टीका:- अत्र च सख्यं स्मराशिदशमाश्चर्ययोर्लो किकसखयो रियोरपि साहचर्येण पुष्करैककार्यकारित्वं ॥ तच्चेड़ कार्यं द्वयोरपि यथानंदमावल्यका रित्वेन मिथ्यात्वपोषः ॥ क्वचिदसंज्ञाव्यवस्तुदर्शनं ह्याश्वर्यं ॥ श्रसंयजनपूजा चानंतकाल - जावित्वादसंज्ञाव्या वर्त्ततेऽतो भवत्याश्चर्यंतच्च दशमं ॥
अर्थः- अहीं स्मराशी ग्रहने अने दशमाश्चर्यने परस्पर लौक्तिक मित्रनी पेठ मित्रता बे केम जे बेने पण संघाते डुष्कर एवं एक कार्य प्रत्ये करवाएं बे, ते एक कार्य की युं ? तो ते बेने पण पोतानी नजरमां यावे तेम वर्त्तता माटे यथानंद एवा जे पुरुष तेमनुं प्रबलपणं करावीने मिध्यात्वनुं पोषण कर. जावार्थ:स्मराशि ग्रह पण घणा मिथ्यात्वनो पोषण करनार बे, ने दशमुं श्राश्वर्य पण घला मिथ्यात्वने पोषण करनार बे. माटे ए कामने बे जब संघाते चलावे बे, तेथी तेमने मित्रता थइ बे. मांटे घणुं मिध्यात्वनुं बल वृद्धि पाम्युं डे. श्राश्चर्य ते शुं ? तो क्यारे पच संवे नहीं एवी वस्तुनुं देखयुं ते । असंयति पूजा पस अनंत काले प माटे एश्वर्य बे ते गणती मां दशमुं बे ॥
टीका:- किल जिनप्रवचने दशाश्चर्याणि निरूपितानि ॥ तदुकं । उवसग्ग गप्जदरणं, इथ्वी तिथ्यं श्रमाविया परिस्य कन्ट्स्स अमरकंका अवयरणं चंदसूराणं ॥ हरिवंश कुप्पनी
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( ६४ )
चमरुप्पार्ड य णं तेण कालेा ॥
48 अथ श्री संघट्टकः ॐ
स सिध्धा ॥ अरसंजयाण पूया, दस विद्या
अर्थ:--जिन प्रवचनमां दशे या निरूपण कर्या बे, तेनां नाम गणाव्यां वे जे १ उपसर्ग २ गर्भहरण ३ स्त्री तीर्थ ४ चनावित सजा, ५ कृष्ण वासुदेव अमरकंकामां गया, ६ चंद्र सूर्यनुं अवतरण, हरिवंश कुलनी उत्पति, चमर उत्पात, ए एक समे एकसोने या सिध्ध थया, १० असंयति पूजा ए दशे पण - वर्य अनंत काले थाय.
टीका:- तत्र नवानां स्वरूपं ग्रंथांतरादवसेयम् ॥ असंयतपूजाश्चर्यस्यैवोपयोगित्वात् तदोषप्रदर्शनोद्देशेन प्रकरणप्रवृत्तेः तस्य साम्राज्यमिव साम्राज्यं, यथा राज्ञः कस्यचित्सकलमंरु. लाधिपत्यं रिपु विजयपुरस्सर माइश्वर्य साम्राज्यमुच्यते एवमिहापि सुविहितजन तिरस्कारेण सकललोकस्या संयतजनाज्ञावशवर्त्तित्वं दशमाश्चर्यस्य साम्राज्यं ॥
अर्थः- तेमां नव आश्चर्यनुं स्वरूप तो ग्रंथांतर थकी जावं. असंयति पूजा नामे दशमा आश्चर्यनुं यहीं उपयोगी पांडे माटे तेना दोष देखाnaraो उद्देश करीने या प्रकरणानी प्रवृत्ति बे मांटे ते दशमा प्राश्चर्यनुं चक्रवर्ती राज्य बे, जेम कोइ राजाने सकल मंगल अधिपति पणुं ने शत्रुने जीतवा पूर्वक श्राज्ञाए करीने - श्वर्यपणुं जेमां बे एवं चक्रवर्त्ति राज्य होय, एम छाहीं पण सुविद्दित जननो तिरस्कार करो तेथे करीने सकल लोकने यसंयतिनी थाज्ञामां वर्ताव ए दशमा आर्यनं चक्रवर्त्ति राज्य बे.
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8. अथ श्री संघपट्टका
(६५)
टीका:-तेन पुष्यदेधमानं मिथ्यात्वं ॥ अतत्त्वे तत्वप्रतिप्रतिरुपं ॥ तदेव ध्वान्तं तमिश्रं सम्यग्ज्ञानालोकनिरासकमत्वात् ॥ तेन रुके व्याप्ते ॥ जैनेंउमार्गे ॥
अर्थः ते राज्ये करीने पुष्ट थ] एटले वृद्धि पामतुं जे मिथ्यात्व, मिथ्यात्व एटले अतत्वने तत्वपणारूपे अंगिकार करवू, ते मिथ्यात्वरूप अंधकार ज्ञानरूपी प्रकाशनो नाश करवाने समर्थ डे, माटे अंधकारे व्याप्त थएलो जिने मार्ग बते ॥ . .
टीकाः-श्रयमर्थः ॥ यथा ॥ श्यामायां नीरंधांधतमसेन लोचनप्रकाशावरणातस्करादिनयेन जनाऽसंन्नारामाजमार्गस्य विरलत्वं, तथा जगवति विद्यमाने तन्म हिम्नैव यथाबंदानां निरस्तत्वान्न मिथ्यापथप्रथावकाशोऽभूत् ॥ निवृत्ते तु जगवती- . दानी दशमाश्चर्यप्रवृत्तेर्निरगलयथाबंदोत्सूत्रदेशनया नूरिलो- . कस्य वासितत्वेन प्रबल मिथ्यात्वोदयात्सम्यग्दृशां न्यग्नूतत्वेन जिनेंजमार्गो विरलतां प्राप्तः ॥ . . .. .. .
अर्थ:-जेम रात्रीने विषे गाढ अंधकारे करीने नेत्रनो प्रकाश श्रावरण पामे , माटे चौरादिकना नये करीने लोकनो सं. चार थतो नथी, माटे राजमार्गर्नु विरलपणुं थाय . तेम नगवान विद्यमान हता त्यारे तेमना महिमावमेज पोतानी इछामां आवे एम चालनार लोको नासता हता माटे मिथ्यामार्गनो प्रकाश न हतो. ने ज्यारे जगवान भोलेगा त्यारे मशः
आश्चर्यनी प्रवृत्ति जे. माटे बंधन रहित पोतानी वामां आवे तेम उत्सूत्र देशनावमे घणा लोकोने उत्सूत्रनो पट (माघ) बेसाड्यो एटले उत्सूत्ररूपी उगंध लोकना हृदयमा चोटामो दीधी ले. ते
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18. अथ श्री संघपट्टकः
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हेतु माटे प्रबल मिथ्यात्वनो उदय थयो, ते माटे सम्यक् दृष्टि लो. कोए नीचां मुख का एटले समकित दृष्टी पोताना स्वरूपमा वरते जे. पण पोतानो उपदेश निरर्थक जाय माटे कहेता नथी माटे जिनेंद्र मार्ग विरलपणाने पाम्यो के एटले घणोज थोमो मालम प .
टीका-यथोक्तं ॥ पातः पूष्णो नवति महते नोपतापाव यस्मात् कालेनास्तं क श्व न गता यांति यास्यति चान्य।एतावत्तु व्यथयति यदा लोकबायैस्तमोनिस्तस्मिन्नेव प्रकृतिमहति व्योम्नि लब्धोऽवकाशः ॥ . अर्थः-ते वात दृष्टांते करीने कही जे. जेम सूर्यनुं पातुं एटखे सूर्यनुं श्राश्रमवू ते मोटा उपताप जणी नथी. जे हेतु माटे काले करीने कोण अस्त नथी पामतुं, ने नहीं पामे अने नथी पाम्यो, सर्वे पण काले करीने नाश पामे , पण आटली वात तो पीमा करे , जे स्वान्नाविक मोटुं एहेवू श्राकाश तेने विषे लोक निंद्य एवं जे अंधकार तेणे आकाशने विषे अवकाश पाम्यो एटले निवास कर्यो । भावार्थ:-स्वानाविक निर्मल एवा आकाश जेवा जिने मार्गने विषे अंधकार जे, मिथ्यात्व आवीने रघु ए कात मने व्यथा करे ने एम ग्रंथकारे सूचना करी.
टीकाः-अथ कसति जैनेडमार्गे मिथ्यात्वरुत्वालिरलतां प्राप्त इत्याह ॥ श्ह किल कलिकालेत्या दि॥ इह जगति किलशब्दार्थस्त्वग्रे वयते ॥ प्राणिवर्गे मानवसमुदाये सति
किंरूपे लोकोक्त्या कलिकालो जिनोक्त्या च दुषमाकाल. . स्तेन कलिकाल एव खमाकाल एव निखिलानाचारगरल
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10. अथ श्री संघपट्टकः .
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(६७)
निलयत्वाच्यालः सर्पस्तस्य वक्त्रांतरानं वदनमध्यं ॥ तत्र स्थिति अवस्थानं जुषते सेवते यस्तस्मिन् ॥
अर्थ:-हवे शुं बते जिनेंड मार्ग मिथ्यात्ववमे व्याप्त थवाथी विरलपणाने पाम्यो एवी आशंका करीने कहे . किल शब्दनो अर्थ श्रागल कहीशुं आ जगतमा प्राणीनो समुदाय, लोकोक्तिये कलिकाल अने जिनोक्तिए करीने दुःखमाकाल , ते हेतु माटे कालिकास एज दुःखमाकाल ते रूपी सर्प केम जे सकल श्रनाचाररूपी केरनुं स्थान डे माटे ते (कलिकालरूपी सर्प) ना मुलमा स्थिति करते बते. ___टीकाः-श्रयमर्थः-यथा कश्चिन्महानागमुखांतवर्ती व देष्ट्रानिस्सरनिरंतरगरलन्नरगलितचेतनत्वान्न किंचित् कृत्याकृत्यं वेत्ति ॥ एवं कलिकालवय॑ऽपि प्राणिवर्गस्तत्प्रनवकुशी खताकृतघ्नतामोहप्रलंननदंनाद्यनेकदोषपोषकलुषितांतःकरणत्वानात्मनो हिताहितमवस्यतीति
अर्थः॥ श्रा लावार्थ ॥ जेम कोई पुरुप महा सर्पना मुखमा रयो ने ते सर्पनी दाढथी नीकलतुं जे निरंतर फेर तेना समूहथी जेनु चेतनपणुं गयु . ए हेतु माटे करवा योग्य अमे न करवा योग्य तेने कांश पण जाणतो नथी एम कलिकालमा रहेनारो प्राणीनो समूह पण ते कलिकालथी उत्पन्न थयुं जे कुशीलपणुं तथा कृतघ्नीपणुं, जोह, उगाइ, कपट ए आदि अनेक दोषो जेनुं अंतःकरण जरायुं बे, ए माटे पोतान हित. तथा अहित तेने नथी जाणतो.
टीका जात छन तत्वेषु' जगवत्प्रणीतेषु जीवाजीवादित
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अथ श्री संघपट्टकः
प्रीतिरेतान्येव वास्तवानि तत्वानि न तु कुतीर्थिकन खितानी ति चेतसः प्रमोदः ॥ तथा नीतेर्न्यायस्य सदाचारस्य प्रचारः प्रवृत्तिस्ततश्च गतौ यथाक्रमं कुदर्शनाच्या सदुर्विदग्धत्वेन प्रमादनूधरनाराकांतत्वेन च नष्टौ तत्वप्रीतिनीतिप्रचारौ यस्य स तथा तस्मिन् ॥ कलिकालमाहात्म्याद्धि प्राणिनां तत्वप्रीतिन्यायप्रवृत्तिश्च नष्टा ॥
(१८)
अर्थ:-एज कारण माटे भगवंते कलां जे जीव जीव आदि तत्व तेने विषे प्रीति एटले या जे जगवंते कह्यां बे एटलांज वस्तुताए तत्व बे पण कुतीर्थिक कहेलां ते तत्व नथी. ए प्रकारनो जे चित्तमां हर्ष ते प्रमोद कहीए. वली नीति कहेतां न्याय एटले सदाचार तेनो प्रचार एटले प्रवृत्ति ते नीति प्रचार कही ये एबे कुदर्शनना श्रन्यासथी थइ जे पोतानी श्रणसमजण तेथी, तथा प्रमादरूपी पर्वतना जारथी दबायां बे एटले जे पुरुषनां गयां बे एवा पुरुष थये ते कलिकालना माहात्म्यथी प्राणी बे तत्व प्रीति तथा न्याय प्रवृत्ति ते बे नाश पाम्यां बे.
टीका: - यक्तं ॥ कलौ कुमतसंस्कारवारपूर्णे नृणां हृदि । अवकाशमविंदती, तत्वप्रीतिः श्रुता ध्रुवं ॥ नष्टाः श्रुतिः स्मृतिलुप्ता, प्रायेण पतिता द्विजाः ॥ मसेन नाशिताः शिष्टा, हा वृद्धो वर्त्तते कलिः ॥
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे कलिकालने विषे घणा कुमतना संस्कारथी माणसनां हृदय नरायां बे माटे तेने विषे तत्व प्रीति पेसती ( प्रवेश करती नथी तेथी निश्वे तत्वप्रीति नाश पार्मी इमारतु जे वचन ते वेद कहीए अथवा श्रुति कहीए तथा ते वच
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. अथ श्री संघपट्टका 8
नने अनुसरतुं जे ऋषितुं वचन ते स्मृति कहीए ते श्रुति स्मृति बे पण खोप थयां केम जे तेना प्रवर्तक ब्राह्मण एटले ब्रह्मने जाणनार पुरुष ब्रह्मज्ञानी एटले श्रात्मा अनात्माने यथार्थ जाणनार ते पुरुष पतित थया. एटले अधम पुरुष थया ने जे लोकमां सारा पुरुष कहेवाता हता ते मेले करीने नाश पाम्या. एटले असाधु पुरुपना वचनमा विश्वासथी तेमना अंतरमा अनेक प्रकारे मल जराया माटे नाश पाम्या कहेवाय श्रा वात खेद जरेली . श्रहो कलिकाल घणो वृधि पाम्यो .
म
टीकाः-तथा प्रसरन् ॥तथाविधगुरुसंप्रदायानावात् प्रानवन अनवबोधः सम्यकसिद्धांतापरिज्ञानं ॥ तेन प्रस्फुरत उन्मीलंतः कापथानां कुमार्गणामोघा:समूहास्तैः ॥ स्थगितस्तिरस्कृत: सुगतरपवर्गलक्षणाया: सर्गो निष्पतिर्यस्य स तथा तस्मिन् श्दमुक्तं नवति संप्रति हि कालदोषेण बुद्धिमांद्यात् सातिशयगुरुसंप्रदायानावाच्च सम्यगागमार्थापरिझानेन स्वस्वमतमास्थाय बहवः कुतीथिकाः प्रादुर्जूताः ॥ ___ अर्थः-वली यथार्थ गुरु संप्रदायनो श्रजाव ले. माटे प्रगट पतुं जे श्रज्ञान एटले सिझांतना अर्थनुं अजाणपणुं तेथी प्रगट घया जे कुमार्गना समूह तेणे करीने मोक्ष जेनुं लक्षण जे एकी जे सुगति तेनो मार्ग तिरस्कार पाम्यो एटले ढंकायो . मोक्षमार्ग जेनो एवो प्राणीनो समूह थये ते लिंगधारीयोए था कुमार्ग च. साव्यो , ए प्रकारे शास्त्रमा कडं जे जे हालमां कालदोषे करीने बुझिनुं मंदपणुं माटे अने अतिशये सहीत जे गुरु संप्रदाय तेनो अजाव ले माटे सारो श्रागमनो जे अर्थ तेनुं जाणपणुं मथी माटे
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(96)
अथ श्री संघपट्टकः
पोते पोताना मन अंगीकार करीने घणा कुतीर्थिक लोको प्रगट या बे.
टीका:- तेषां च परस्पर विरुद्धानेककुमतशतश्रवणोद्यमानसंदेहदोला धिरुढमनसः प्राणिवर्गस्य कुतः सुगति, नहि सा के कमार्ग साध्या ॥ तात्विकसम्यक्ज्ञान दर्शनचा रित्रात्मक मार्गसाध्यत्वात् तस्याः ॥ नच दोलायमानमानसानां वास्तवैकमुचिपथतत्वनिर्णयः ॥ तदभावाच्च कथं मुक्त्युपाया नुष्टानलेवनं तदजावाश्च कथं मुक्तिरिति संप्रति इदानीं किले ति संभावने ॥ संभाव्यते एतद्यत्कलिकालानुभावात् संप्रत्येवंविधः प्राणिवर्गः ॥ इति वृत्तद्वयार्थः ॥
अर्थ:-ने तेमना परस्पर विरुद्ध एवा अनेक प्रकारना मन तेमनुं सेंकको बार जे सांजल ते थकी उत्पन्न थया जे संदेद, ते रूपी जे हिंचालो ते उपर बेतुं बे मन जेनुं एवो, एटले एक वातनो निरधार थतो नथी, माटे अति चंचल जेनुं चित्त बे एवो प्राणी नो समूह तेने क्यांथी सुगति थाय, केम जे ते सुगति बे ते अनेक मार्ग वने सिद्ध थती नथी, ते सुगतिनो यथार्थ सारां ज्ञान दर्श. नने चारित्र ते रूपज एक मार्ग, तेथे करीने साधवा योग्य बे ए हेतु माटे, ने जेमनुं चंचळ मन बे तेमने यथार्थ एक मुक्ति मार्गना तत्वनो निश्चय थतो नथी धने ज्यारे मुक्ति मार्गनो निश्चय न थयो त्यारे मुक्तिना उपाय रूप जे अनुष्टान तेनुं सेवन पण क्यांची थशे थाने ज्यारे मुक्तिना उपाय रूप अनुष्टाननुं सेवन न थयुं त्यारे मुक्ति पण क्यांथी थशे. इत्यादि वर्त्तमान कालमा ए वात संभवे बे जे कलिकालना महिमाथी ए प्रकारनो प्राणिःसमूह यो देखाय
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8. अथ श्री संघपटक
(१)
तेथी लिंगधारीयोए आ कुमार्ग चलाव्यो . ए प्रकारे बे काव्यनो संघाने अर्थ कहो.
टीका-इदानी योग्यस्य श्रोतुः पुरतःसाधुवेषकल्पिते पथि दजिरिस्तत्प्ररूपितं धर्म प्रतिपादयन्तस्य च कर्म निर्मूलनाकमवं संजावयत्रिदमाह ॥
अर्थः-हवे योग्य श्रोतानी श्रागल साधुवेषधारी लोकोए पोतानी मतिथी कल्पेला मार्गने विषे दशहारे करीने तेमणे प्ररूपणा कयों जे धर्म ते देखा . ने ते धर्म कर्मने मूलमाथी नखे. मवाने समर्थ नथी, एम संभावना करता बता था काव्य कहे .
॥ मूखकाव्यं ॥ .. अत्रौदेशिकनोजनं जिनगृहे वासो वस्त्यऽदमा,
स्वीकारोर्थगृहस्थचैत्यसदनेषप्रेदिताद्यासानं ।। सावद्याचरितादरः श्रुतपथावज्ञा गुणिद्वेषघी,धर्मः कर्महरोऽत्र चेत्पथि नवेन् मेरुस्तदाब्धौ तरेत्॥५॥
टीका:-अत्र पथि अयं धर्मश्चेत्कर्महसे लवेत् तदा मेरुरब्धौ तरेदिति संबंधः ॥ अत्र अस्मिन् प्रत्यक्षोपलन्यमाने पथि लिंगिकदियते मते धर्म औदशिकनोजनादिकः ॥ अयं चेबदि कर्महरो ज्ञानावरणादिनिरासदो वेत्स्या.. तदा तदानी मेरुलक्षयोजनयस पर्वतराजः ॥ अब्धौ सा. मरे तरेत् प्सवेत् ॥
अर्थः- लिंगाधारीये कपेक्षा मार्गनो धर्म जो कर्मनो
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(७२)
अथ श्री संघपट्टको
नाश करे तो मेरु पर्वत समुअमां तरे ए प्रकारे संबंधः, या प्रत्यक जणातो लिंगधारीये कल्पेलो जे मत तेने विषे औदेशिक लोजनादिक जे धर्म ते जो कर्मने हरे एटले ज्ञानावरणादिक कर्मनो जो नाश करवामां माह्यो होय तो लाख योजननो मेरुनामे पर्वतनो रामा ते समुजमा तरे, एटले जेम मेरु पर्वत समुजमा न तरे तेम लिंगधारीये कहेलो धर्म कर्मने न हरे. .. ..
टीका:-अयं च निदर्शनालंकारः ॥ अजवन् वस्तुसंबंध, उपमापरिकल्पक इति तबकणात् ॥ ततश्चात्र प्रस्तुतधर्मकमहरवयो मेरुसमुतस्णयोश्च संबंधोऽनुपपद्यमान उपमानोपमेयत्नावे पर्यवस्यति ॥ मेरोः समुअतरण मिव प्रस्तुतधर्मस्य कर्महरत्वं ॥ ततश्चायमर्थः ॥ समुझे पाषाणशकलमात्रस्यापि तरण मसंनवि, किंपुनर्भरोः ॥ ततो यथा मेरो समुअतरण मघटमान मेव मस्य धर्मस्य कर्महरत्व मिति ॥
अर्थः-या निदर्शना नामे अलंकार थयो, तेनुं लक्षण - संकार शास्त्रमा कडं ने उपमानी परिकल्पना करनार न थयेलो वस्तुनो संबंध ते निदर्शना नामे अलंकार कहीये माटे या जगाये वर्णन कयों जे लिंगधारीनो धर्म तथा तेने कर्मनुं हरवापणुं ए उपमेय वस्तु . तेनो मेरुपर्वतने तथा ते पर्वतनुं समुषमा तरवापणुं ए बे उपमान वस्तु ले तेमनो न थएलो एटले अघटतो जे संबंध ते जे ते उपमान उपमेय नावने विषे पर्यवसान पामे में ए. टले स्थिति करे ने इति अलंकार विचार:-मेरु पर्वत, जेतुं समुप्रमा तर ते वर्णन करीशुं एवो लिंगधारीये कहेलो धर्म तेने कर्मनुं इर मादे आ जावार्थ सिको जे समुपने विषे पाषाराना
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-18 अथ श्री संघपट्टक:
( ७३ )
ककमाने पण तरवानुं संजवनुं नयी तो मेरुपर्वतने न संजये तेमा
शुं कहेतुं ? जेम मेरुने समुद्र तरयुं रीए कला धर्मने पण कर्मने दरवापणुं
घटतुं वे तेम या वेषधाघटतुंज बे.
टीका: - यत्र यस्मिन् पथि किं यतीनामौदेशिक नोजनादिर्धर्म इष्यत इति सर्वत्र क्रियाध्याहारः ॥ तत्र उद्देशेन विकल्पेन यतीन्ममसि कृत्वा निर्वृत्तं निष्पादितम् श्रदेशिकं ॥ की तादिस्वादिका ॥ तच्च तद् जोजनं चाशनादि ॥ यद्यपि सिद्धांत औदेशिकशब्द उदमदोष द्वितीयज्ञेदार्थः श्रूयते ॥ त थापी इ वक्ष्यमाणतृतीयवृतार्थपर्यालोचनेन श्राधामिके व र्त्तते ॥ तस्यैवेह केवलयति निमित्त विधीयमानत्वेन महादोषतया विवक्षितत्वात् ॥ उद्देश निर्वृत्तत्वस्य च सामान्यव्युत्तस्य र्थस्पोयत्रापि समानत्वान् ॥
अर्थः- जे मार्गने विषे शुं बे ? तो यतिने श्रदेशिक जोजन कर ए च्यादिक धर्म तेने विषे धर्म श्छे बे, एम. सर्व जगाये क्रियापदनो अध्याहार करवो, त्यां उद्देश शब्दनो विकल्प एटलो अर्थ . एटले यतिने मनमां राखीने नीपजान्युं जे जोजन ते
देशिक कहीए ॥ व्याकरण विचार ॥ क्रीतादिकमां ए शब्दमो पाठ के माटे इक प्रत्यय घ्यावीने औौदेशिक शब्द सिद्ध थयो छे माटे बौदेशिक एवं जे अशनादिक नौजन त्यां सिद्धांतने विषे
देशिक शब्द जे ते सोल उद्गम दोष ब्रे तेनो बीजो नेव बे ॥ ए प्रकारनो अर्थ सांगलीए बीए तो पण या जगाए आगल कदीशुं जे श्रीजुं काव्य तेनो अर्थ विचारी जोतां श्राधार्मिकरूप अर्थ- जाय े. या जगाए केवल साधु निमित्त जे करेलुं होय ते
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(७४)
8. अथ श्री संघपट्टका
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नोज महादोषपणे पागल कहेवानी इच्छा , माटे उदेशे करीने निपजाव्युं एवो जे सामान्य व्युत्पत्तिनो अर्थ ते तो बे जगाए सरखो डे ए हेतु माटे.
टीकाः-अत्र च यतीनामौदेशिकलोजनग्रहणे यथाबंदा उ. पपत्तिं दर्शयति ॥ पूर्व हि श्रधरितधनाधिपकोशागाराणि चैत्यसाधुषु यउपयुज्यते तदेवास्माकं वित्तमन्यदनर्थ इत्यध्यववसायव्यंजितदेवगुरुनक्ति नराणि महीयांसियांसि दानश्रद्धासुश्राद्धकुलान्यजूवन् ॥ ततस्तेषु कुलेषु तत्कालीनयतीनां प्रासुकैषणीयेनापिनदयण निराबाधं निर्वाहोऽनविष्यत् ॥ .
. अर्थः-श्रा जगाये साधुने श्राधाकर्मिक नोजन ग्रहण करवामां स्वेछाचारी लिंगधारी पुरुषो सिद्धांतथी विरुद्ध पोतानी मति कल्पनाथी युक्ति देखा, जे पूना कुबेर नंमारीनो अव्य जमारने तिरस्कार करे एवां धनाधिपति श्रावकनां कुल हतां. ने एम जाणता हता जे आपणुं अव्य जेटलं चैत्य साधु निमित्त वप'राशे तेटलुंज सार्थक , ने बीजं तो निरर्थक ने ए प्रकारना अध्य"वसायथी देवगुरुनी नक्तिना समूह जेणे प्रगट कयों ने एवां अ. "तिशे मोटां घणांक दान धर्मने विष श्रद्धावाला श्रावकनां कुल
हतां, ते हेतु माटे ते कुलने विषे ते कालना साधुने प्रासुक एष‘णीय निकाये करीने एटले निर्दोष आहारे करीने पण निराबाध निर्वाह थतो हतो पण.
टीकाः-अधुना तु दुःषमाकालदोषात् दुनिकराजोपनवपरचकादिप्राचुर्येण दरिषतामहपतां च गच्छत्सु तथा विधसं.
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अथ श्री संघपट्टकः
(७१)
हननशक्ति विकलानां शुद्धेन जक्तादिना संयमयात्रा निर्वाह जावे यदि कश्चिद्दानश्रध्धालुस्तीर्थाव्यवच्छेदमिच्छुः श्रावकः श्रमण संघनिमित्त निर्वृतनक्ता दिनापि नदा को दोष: ?
धर्माधारशरीरमुपष्टंनये
अर्थः- दमणां तो दुःखमा कालना दोषथी दुकाल तथा रा
जानो उपद्रव तथा परचक्रादि (शत्रुना सैन्यनां युध्धादि ) कारणथी. ते श्रावकनां कुल दरिद्रपणाने तथा अल्पपणाने पाम्यां बे माटे तेने विषे या कालना ते प्रकारनी संघयण शक्तिये रहित एवा साधुने शुद्ध जक्तपानादिक करीने संयमयात्रानो निर्वाह नयी थतो माटे एज निमित्त कोइक दान श्रद्धावालो ने तीर्थनो उच्छेद न थाय एम तो एवो जे श्रावकने साधुनिमित्ते निपजान्युं जे जो जनादि तेणे करीने पण धर्मनुं आधारभूत एवं शरीर तेनुं उपष्टंन करे एटले साधु शरीरनो निर्वाह करे तो तेमां शो दोष बे अर्थात् कां पण नथी.
टीका:- आत्मा च यतिना यथाकथंचन रक्षणी यः ॥ धर्मसाधनत्वात् ॥ यक्तं ॥ सव्वथ्थ संयमं संजमा अप्पाणमेव: रक्खंतो ॥ मुच्चइ अश्वाया पुणो विसोही नया विरई ॥
अर्थ:-साधुए जेते प्रकारे आत्मा राखवो, एटले पाप लागे तो पण श्रात्मानी रक्षा करवी. जे माटे शास्त्रमां कहां बे जे सर्व जगाये संयमनी रक्षा करतो ने संजमधी श्रात्मानी रक्षा करतो एवो जे पुरुष ते पापथी मुकाय ठे फरीथी शुद्ध थाय बे पण अविरति नथी यतो एटले चारित्रमी रहित नयी येतो.
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8 अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- तथा कथंचित् रूक्षनक्ता दिदातृसमावेपि घृतादिव्यतिरेकेणाद्यतनयतीनां शरीरधारणानुपपत्तेः ॥ तत्कृते घृतादिनिश्रापि केनचित्पुण्यात्मना श्राद्धेन विधीयमाना समीची नैव प्रतिज्ञासते ॥
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अर्थ:-वळी कोइक प्रकारे लूखं जोजनादिकना देनार मले पण घृतादिक विना या कालना साधुने तेथी शरीर धारण थ शकतुं नथी, माटे ते शरीर धारण करवाने ार्थे घृतादिकनी निश्रा पण कोइक पुण्यात्मा श्रावके करी होय ते ठीकज बे एम जगाय से.
टीका:- किंच ॥ यथाकथंचित् साधुनिः श्राद्धानां श्रद्धावृये अशुद्धमपि ग्राह्यं ॥ तथैव तेषां पुण्योत्पत्तेः ॥
अर्थः- वली शुं ? तो जेते प्रकारे साधुये श्रावकनी श्रद्धा वधवाने अर्थे अशुद्ध पण ग्रहण कर केम जे तेवीज रीते ते श्रावकने पुण्यनी उत्पत्ति थाय बे ते माटे.
'टीका:- तडुक्तं ॥ अनेन पात्राय नियोजितेन स्यान्निर्जरा मे वसुनाधुनेति ॥ बुद्ध्या निराशंसतया ददानः पुण्यं गृहस्थः पृथु संचिनोति.
अर्थ:- ते वात शास्त्रमां कहीं वे जे, पात्रमां श्राप्यं जे झा धन तेथे करीने मारे हमणां निर्जरा थशे ए प्रकारनी बुद्धिए करीने कोइ प्रकारनी वांडा रहित आपतो जे गृहस्थ ते घएं पुण्य उपार्जे बे.
टीका:- परोपकारश्चायं स्वकार्यमुपेक्ष्याप्यवश्यं कर्त्तव्यः
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48. अथ श्री. संघपटकः
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॥ यमुक्तं । नियकङ यरकजांब, जे पमुतूण के क्सिंतिपरकमां नियकां क, ते सु सप्पुरिसया वसर ... अर्थः-ने श्रा परोपकार तो पोतानुं कार्य मूकीने पण श्रवश्य करवा योग्य वे, जे माटे शास्त्रमा कयु जेजगतमा केटलाफ पुरुषो परकार्यनी पेठे पोतानुज कार्य मुकीने पोताना कार्यनी से पारकुं कार्य करे ने एवा परोपकारी पुरूषने विषे सरपुरुषता निल वास करे . . टीका-तस्मायतीनामाधाकर्मिकनोजनमपुष्टं, संयमशारीरोपष्टंनकत्वात् ॥ कल्पग्रहणवत् ॥ शुकनोजनका.. तथा पतिनिराधाकर्मिकनोजनं विधेयं, श्राफझाडिहेतु: धर्मदेशनवत् ॥ इति प्रयोगावप्युपपद्यते ॥ ... .. अर्थः-ते हेतु माटे यतिने श्राधाकर्मिक जोजन कर, ते निर्दोष के केम जे संजम शरीरने राखनार ने ए हेतु माटे कल्प (वस्त्र) ग्रहण पेठ, एटले जेम वस्त्रादि ते संयम शरीरनु पुष्टालंबन डे, तेम आधार्मिक नोजन पण बे, अथवा जेम शुकमो. जन शरीर संयम शरीरने राखनार , तेम आधार्मिक नोजम पण . वली तेमज साधुए आधार्मिक नोजन पण करवा योग्य , केम जे श्रावकनी प्रजा वधवामां कारण डे ए हेतु माटे धर्म देशनानी पेठे जेम धर्म देशना बे, ते श्रावकनी श्रद्धा वधवामां कारणाने माटे साधुने करवा योग्य , तेम ए प्रकारे अनुमान प्रमाणना पण बे प्रयोग था स्थलमा सिद्ध थाय .
टीका-तथा जिनानामहतां गृहमायतनं तत्र वासः
ए देता
कार माम देशना
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•8. अथ श्री संघपट्टा
सर्वदावस्थानं ॥ इह केचित् सप्तशीलतयोद्यतविहारं कर्तुमशक्नुवंतो यतीनां चैत्ये सर्वदावस्थानं युक्तमिति प्रतिपेदिरे।। ..... अर्थः-वली जिनराजनुं घर एटले चैत्य तेमां साधुने निरंतर रहे एमने लिंगधारी साधुनो धर्म देखामे , तेमां केटसाक थति सुखसीलिया थया ने ते माटे उग्र विहार करवाने असमर्थ थया माटे साधुने निरंतर चैत्यमा रहे ते युक्त , एम अंगिकार करे , तेमां सिद्धांत विरुद्ध नाना प्रकारनी युक्ति देखाके ले.
. टीकाः-तथाहि आधुनिकमुनीनां चैत्यवासमंतरेण उद्यानवासो वास्यात्, परगृहवासो वेति, घ्यी गतिः ॥ तत्र परग्रहवासोऽये निराकरिष्यते ॥ स्त्रीसंसक्त्याद्याधाकर्मिकादिदोषकलापन्नावात् ॥
अर्थः-ते युक्ति टीकाकार कही बतावे जे. जे था कालना मुनिने चैत्यवास विना उद्यानमा रहेवू अथवा परघरमा रहेवू ए बे प्रकारनी गति , तेमां स्त्रीनो संसर्ग थाय तथा आधार्मिक आदि घणा दोष उत्पन्न थाय ए हेतु देखामीने परघर रहेवार्नु भागल खंगन करीशुं ने उद्यानमा रहेवार्नु हाल खंमन करीए बीए. ... टीकाः-उद्यानवासो यतीनां युक्त इति चेन्न ॥ तत्रापि
नूतनचूतांकुरास्वादकूजत्कलकंठपंचमोद्गारेण उन्मीलहिचकिलबकुलमालतीपरिमलेन च समाहितमनसामुत्कलिकादर्श. नात् ॥पंचमोद्गारादीनांचोहीपन विनावकत्वेन जरतादिशास्त्रः ऽनिधानात् ॥
अर्थः-लिंगधारी सुविहित प्रत्ये जे बोल्या तमे साधुने उद्यान
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, -8. अथ श्री संघपट्टका
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• (७१)
मां रहेवानुं युक्त कहेता हो तो ते वात युक्त नयी केम जे त्यां पण नवो आंबानो अंकुर तेनुं जहण करवाथी मधुर स्वर बाखता जे कोयल तेना पंचम स्वर एटले सात स्वरमां पांचमो कामोद्दीपक स्वर तेना उहासे करीने तथा चारे पास प्रसरतो एवा प्रफशित बहल मालती थादिना सुगंधे करीने वश करेलां एवां पण मन मोकलां थाय एवं देखाय ने ए हेतु माटे अने पंचम स्वरनो उ. हास ते कामोद्दीपन थवानुं कारण एम जरतादि शास्त्रमा कडं बे ए हेतु माटे.
टीकाः-तथचिक्रीमिषागतकामुककामिनीसंकुलत्वेन च स्त्रीसंसक्त्यादेरपि तत्र नावात् ॥ अथवा माभूवननवरतशास्त्राच्यासपरावर्तनादिपराणां यतीनामेतजन्या दोषाः ॥ तथापि लोकसंचारशून्योद्याननूमौ वसतां चरटतस्करादिन्नि रुपकरणापहारस्यापि संनवात्, तदपहारे च शरीरसंयमविराधनाप्रसंगात् ॥ .
अर्थः-वली क्रीमा करवानी श्वाए त्यां श्राव्यां जे कामी परुष ने कामिनी स्त्रीयो तेणे करीने व्याप्तपणुं ले माटे स्त्रीना संबंध आदिकनो पण त्यां संभव ॥ अथवा निरंतर शास्त्रनो श्रन्यास तथा गणवू ए श्रादिकने विषे तत्पर एवा मुनिने ते उद्यान संबंधी दोष म था तो पण लोकना संचारथी रहित ते उद्यान मिने विषे रहेता जे मुनि तेमनां उपकरण पण नील चोर आदिक,था. वीने हरशे एवो संनव डे माटे ते ज्यारे उपकरण गयां त्यारे शरी. रनी तथा संयमनी विराधना थवानो प्रसंग प्राप्त थाय ए हेतु माटे मुनिने उद्यानमा रहेवं घटतुं नथी.
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(८०)
. अथ श्री संघपट्टकः -
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ॐ टीका-यत्नधानवास श्रागमे श्रूयते सोऽनापातासंलोकगुकहारोद्यानविषयस्तस्य च प्रायेण कलिकाले लोकस्य राजचौरचरटायुपप्लवैर्वाधितत्वेन दौस्थ्यावसंजव एवेत्यद्यानवासः! कयमधुनातनमुनीनां कहप्यमानः शोलते ? तस्माविदानी जिनग्रहवास एव साधूनां संगत: प्रतिनाति.
- अर्थः-ने जे उद्यानवास आगममा संललाय ते तो जेमां लोकनो श्रावरो न होय गुप्त एक हार होय. एवा उद्यानमा यतिने रहे, एवो शास्त्रनो अभिप्राय डे ने बहुधा तो ते प्रकारना उपनवे करीने लोक दुःखित थया ले. तथा दरिति थया , माटे संनवतुज नथी. तेथी आ कालना मुनिने उद्यानवास करपे एवं जे कहे ते केम शोने ? नज शोने. माटे था कालमांना साधुने चैत्यमांजरहेवु ए पद सारो घटतो जणाय ले.
टीका:-न च तत्र धार्मिकादयो दोषाः ॥ तथ च प्र. योगः ॥ चैत्यमिदानीतनमुनीनामुपत्नोगयोग्यं ॥ श्राधाकर्मादिदोषरहितत्वात् ॥ तथाविधाहारवत् ॥ नचायमसिको हेतुः
जिनप्रतिमार्थं निष्पादित आयतने आधाकर्मादिदोषोनव"," काशात् ॥ यत्यर्थ क्रियमाणे हि तस्मिन्स स्यात् ॥
अर्थः-ने. त्यां श्राधा कर्मिश्रादि दोष पण जणाता नथी ने वसी अनुमान प्रयोगयी ए वात सिफ थाय ॥ ते उपर न्यायशास्त्र विचार जे चैत्य था कालना मुनिने उपनोग करवा योम्य , श्राधाकर्मादि दोष रहित ने ए हेतु माटे जेम श्राधाकर्मादि दोष रहित आहार मुनिने जोगववा योग्य , तेम चैत्य पण आ कालना मुनिने नोगववा योग्य ॥ पण या हेतु असिद्ध नथी
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- अथ श्री संघपट्टकः-
( ८१ )
केप जे जिन प्रतिमाने अर्थे निपजावेला स्थानकमां व्याधाकर्मादि दोषने पेसवान का पण नथी माटे अनुमान निर्बाध बे, केम जे मुनिने कर्यु होय तो तेमां ते याधाकर्मादि दोष होय ने या तो मुनिने अर्थे कर्यु नथी माटे आधाकर्मी दोष नथी. टीका:- तथागमोक्तत्वमप्यस्यास्ति ॥ तथा चागमः ॥ " निस्सककम निस्सकमे” वावि चेइए सञ्वहिं थुद्धं तिनि ॥ वेलं व चेश्यासि व नाउं कि किया " वि ॥
अर्थ:- तेमज गममां कहुं बे जे निश्राकृत तथा अनिश्राकृत ए सर्वे चैत्योमां त्रण थुइ देवी बाकी असुर थती होय - थवा काजा चैत्यो होय तो एक एक थुइ पण पाय ठे.
टीकाः ॥ यत्र हि निश्राकृतव्यपदेशात् चैत्यवासः साधूनां सिध्यति ॥ अन्यथा यत्र साधूनां निश्रा तन्निश्राकृतमित्यन्वर्थानुपपत्तेः ॥ तन्निवासेनैव तन्निश्रायाः संभवात् ॥ यदि च साधूनां तत्र वासो न स्यात् तदाऽनिश्राकृतमेवैकं चैत्यं जवेत् ॥ न्यस्य निश्राकृतपदवाच्यस्यानुपपत्तेः ॥
अर्थः- या शास्त्र वचनमां निश्राकृत एवं चैत्य एम कहेवापहुंबे, ए हेतु माटे साधुने चैत्यवास सिद्ध थयो. ने जो एम न कहीए तो जे साधुनी निश्राये कर्यु ते निश्राकृत कहीए ए प्रकारना साचा अर्थनी सिद्धि न घाय ए हेतु माटे साधुना निवासे करीनेज साधुनी निश्रानो संजव बे, ने जो साधुनो निवास चैत्यमां न होय तो निश्राकृत एवं एकज चैत्य कहेत, माटे निश्राकृत पदवमे कहेलुं जे बीजुं चैश्य तेनी सिद्धी न थाय ए हेतु माटे साधुने चैत्यमा रहेवानुं सिद्ध ययुं.
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-48. अथ श्री संघपहकः
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टीकाः-तथाच निश्राकृतपदवाच्यस्य शशविषाणायमानत्वेनानिश्राकृततुल्यकतया तत्र वंदनानिधानमपि कथं घटामटाट्यते॥ तस्मात्तव्यपदेशान्यथानुपपत्त्यैव यतीनां तत्र वासो ऽवसीयते ॥
अर्थः ने वली ससलानां शींगमानी पेठे वस्तुताये निश्राकृत चैत्यज नथी ने निकेवल अनिश्राकृत एवं जे एक चैत्य डे, एम अंगिकार करो तो निश्राकृत चैत्यने विषे वंदन- जे कहेवू ते कीये प्रकारे घटशे, निश्राकृत चैत्यनो अंगीकार नहीं करोतो तेनुं कहे, व्यर्थ थशे माटेज निश्चय करीए बीए जे साधुने चैत्यमा रहेवार्नु ,
टीकाः-तथा संजावणे विसदो देखियखरंटजयणउवएसो इत्याद्यागमे ग्लानप्रतिजागरणचिंतायां देवकुलिकशब्दादपि चैत्यवाससिद्धिः देवकुलिकनिवासमंतरेण देवकुलिकव्यपदेशानुपपत्तेजनहि ग्रामानावे सीमाविधानं नामेति लौकिकन्यायात्। एवं चैवमाद्यागमवचनप्रामाण्यादागमाक्तत्वमप्यस्येति निश्चीयते ॥ ..... ... ... अर्थ:-वली संन्नावण इत्यादि आगम गाथाने विष देवकुलिक शब्द कह्यो , ते देवकुलिक शब्दथी पण चैत्यवासनी सिद्धि थाय डे, केम के देवकुल कहेतां देवालय ते जेमने डे ते देवकुखिक कहीए, एटले देवमंदिरवाला एटलो अर्थ थयो, देवमंदिरमां निवास कर्या विना देवमंदिरवालो एम कहेवू न घटेते उपर लौकिक न्याय देखामे जे जेम के गाम विना सीमामानुं करवू ते निश्चे होय नहीं ए प्रकारना लौकिक न्यायथी चैत्य निवास कर्या विना चैत्यवाला अमुक पुरुषो एवो व्यवहार होय नहीं. एवं कहेतां ए प्रकारना
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8. भथ श्री संघपट्टका -
(८३)
लौकिक न्यायथी तथा एवमादि केहेतां श्रा कडं इत्यादि श्रागम वचनना प्रमाणपणाथी ए चैत्यवासने श्रागमोक्तपणुं एम निश्चय करीए बीए.
टीका-तथा च प्रयोगः ॥ चैत्य निवास इदानींतनमुनीना मुचित श्रागमोक्तत्वात् ॥ चैत्यवंदनवत् ॥ नन्वेवमपि सिकांतान साक्षात् चैत्यवासः सिध्यति॥ विधेयतया तस्य क्वचिदप्यननिधानादिति चेत् । सत्यमेवं तर्हि गीतार्थाचरितत्वा दयमुपपत्स्यते ॥ तथाच साधूनां जिननवनवासो विधेयः । गीतार्थाचरितत्वात् । चतुर्थी पर्युषणापर्ववत् नचायम सिद्धो हेतुः ॥ गीतार्थाचरितत्वस्योजयत्रापि प्रतीतत्वात् । तथाहि ॥ श्रीमदार्यरक्षितपादैनंगवति महावीरे निश्रेयससौधमध्यासीने गीतार्थानां बलमेधासंहननधैर्यादिहानि पृष्ठवंशादिसहितवसतिव्यवछेदं चोपलन्य चैत्यवासो यतीनामाचरितः
अर्थः-ते उपर अनुमान प्रयोग करी देखामे जे जे साधुये जिनजवनमा वास करवो केम जे गीतार्थ पुरुषोए आचर्यों ए देत माटे चोथने विषे पर्युषणा पर्व करवानी पेठे. एटले जेम चोथने विषे गीतार्थ पुरुषे पर्युषणा पर्व कयु . ते साधुने करवा योग्य ने तेम चैत्यवास पण करवा योग्य , ने श्रा हेतु श्रसिद्ध पण नथी केम जे गीतार्थ पुरुषे जे पाचर्यु ते वादि प्रतिवादि ए बेने प्रसिक पणे मानवा योग्य २ ॥ ते देखा जे जे नगवान् महावीर स्वामी मोक्षरूपी महेलमां पधार्या पठी श्री श्रार्यरक्षित श्राचार्ये गीतार्थ पुरुषनां बलबुद्धि, शरीरनां संघयण, धैर्य थादिकनी हानी जोड्ने
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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तथा लक्षण युक्त जे साधुने रहेवानां स्थान तेनो उल्लेद थयो एम जाणीने साधुने चैत्यवास कराव्यो बे.
टीकाः-कुत एतदवसितमिति चेत् ॥ श्राप्तोपदेशात् ॥ तथाहि ॥ छवाससएहिं वीसुत्तरोहिं, सिडिं गए महावीरे ॥वुच्छिन्नं च जणं, पिहीवंसाश्यं गणं ॥बलमेहाबुद्धीणं, हार्णि नाऊण सुविहियजणस्त ॥ चेश्यमग्यावासो पकप्पियो अजारकेटिं।
अर्थः-वली लिंगधारी सुविहित प्रत्ये बोल्यो जे, जो तमे एम कहेता हो जे क्याथी ए वातनो निश्चय कर्यो ? तो कहीए बीए जे हितकारी मोटा पुरुषना उपदेशथी ते देखामीए बीए जे महावीर स्वामी सिकि गया पली बसें ने वीश वर्ष थयां त्यारे यतिने रहेवा योग्य स्थानक उच्छिन थयां ने सुविहित जननां बल, बुद्धि, अने मेधानी हानि थई ते जाणीने आर्यरक्षित आचार्थे चैत्यमां निवास कटप्यो .
टीका-न चागमाविरोधिन्याचरणा प्रमाणं, श्यं तु न . तथेति वाच्यं श्रागमाविरोधस्य निस्सकमेत्यादिना समर्थितत्वात्
॥ गीतार्थाचरणा चागमं प्रमाणयन्निरवश्यमन्युपेतव्या ॥ यदुक्तं ॥ अवलंबिऊण कर्जां, जंकिंची आयरंति गीयथ्था ॥ . थोवावराहबहुगुण, सवेसिं तं पमाणंति
अर्थः-वली लिंगधारी सुविहित प्रत्ये कहे जे जे जो तमे एम कहेता हो जे श्रागमने विरोध न आवे एवं आचरण प्रमाण के श्रने बातो तेवी रीते नथी माटे प्रमाण नथी तो तेनो उत्तर
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9. अथ श्री संघपट्टकः
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जे आगमनी साये विरोध नथी ए प्रकारे निस्सकम इत्यादि शास्त्र ववने करीने श्रागन साथे मन तो चैत्यवास ने एबुं प्रतिपादन पूर्वे कर्यु ले ने गीतार्थनुं आचरण आगमने प्रमाण करनार पुरुषने श्रवश्य प्रमाण करवा योग्य ले. जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे गीतार्थ जनो ज्ञानादिरूप कार्यनुं आलंबन करीने जे कांश पण कार्य करे ३. तेमां थोगो अपराध अने घणो गुण रह्यो डे माटे ते सर्वने प्रमाणरूप .
टीकाः-इति जगवत्प्रतिपादितमुमुकुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपागमश्रुतादिव्यवहारपचंकांतःपात्यागमविरुझाचरणानन्युपगमे ' च नगवदप्रामाण्यसंजनात् ॥ तथाच नगवदाशातनाप्रसंगात् .. अर्थः-ए हेतु माटे लगवाने प्रतिपादन कर्या जे मुमुकुने प्रवृत्ति निवृति रूप आगम श्रुतादि रूप पांच व्यवहार तेमांनुश्रागमथी अविरोध भावे एवं जे आचरण तेनो अंगीकार नहीं करो तो नगवानने पण अप्रमाणपणानी प्राप्ति थशे माटे, वली जगवाननी श्राशातना थवानो प्रसंग थशे ए हेतु माटे
टीकाः-आचरितलक्षणस्येहोपपत्तेः ॥ तथा चागमः ॥ असढण समान्नं जं कथ्थई केणई असावजं न निवारियमः । न्नेहिं, बहुगुणमणुमयमायरियं . अर्थः-शिष्ट पुरुषे जे आचरण कर्यु ते आचरण लक्षणनी अहींयां सिद्धि , एटले शिष्ट पुरुषना सरखं आचरण कर ते युक्त बे, ते उपर शास्त्रनुं प्रमाण , जे शग्नाव विनाना जे पापरहित मोटा पुरुष तेमणे ज्यां जे कंश्क आचरण कर्यु ते निर्दोष ठे
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8. अथ श्री संघपट्टक
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माटे बीजाए अव्य क्षेत्र काल नावना अनुमाननी अपेक्षाये घणो गुण जाणी निवारण कर्यु नथी तो ते पाचरण कल्पे , एटले करवा योग्य . - टीका:-अयं च न तावच्छ समाचीर्णो, अव्यक्षेत्रकाला- पपेक्षया गुरुलाघवचिंतया धार्मिकैरेवास्य प्रवर्तितत्वात् ॥ " नाप्ययं सावधः सावधं हि पापं,तच्च जीववधादि। नच यतीनां
चैत्यवासविधौ जीववधादिकं प्रयत्नेनान्वेषयंतोष्युपलन्नेमहि ॥ निरवद्यत्वादेवं च न बहुश्रुतैस्तत्कालनाविनिर्गीताथैर्निवारितः अत एव बहूनां धार्मिकाणामनुमतः ॥
अर्थः ने श्राजे चैत्यवास ले ते शठ पुरुषोए श्राचर्यो नथी एतोऽव्य क्षेत्र कालादिकनी अपेक्षाये गुरु लाघवना विचारथी एटले दोष थोमो ने गुण घशो एवा विचारथी धार्मिक पुरुषोयेज ए चैत्यवासनी प्रवृत्ति करी बे, ए हेतु माटे, वली आ चैत्यवासले ते सावय पण नथी केमजे अवद्य जे पाप तेतो जीववधादिक ने, ने मुनिने चैत्यवास करतां कांश जीव वधादिक पाप प्रयत्नथी खोलतां पण नथी जमतुं, माटे ए चैत्यवास निरवद्य ने ए हेतु माटेज ते काले थएला बहुश्रुत गीतार्थ पुरुषोए निवारण कर्यो नथीने एहीज कारण माटे धार्मिक पुरुषोने चैत्यवास करवानो संमत . . ___टोकाः-सिद्धांतनिकषपट्टानां विरचितानेकश्रुतोद्धारसारशास्त्रासां श्रीहरिजप्रसूरीणां तथाप्रवृत्तिश्रवणात् ॥ स्वरचितग्रंथेषु चैत्यवासप्रतिपादनेन च तथाप्रवृत्तेस्तैः सत्यापनात् ।। . ॥ तथाच तग्रंथः ॥ जिणविपश्यं, अहवा तक्कम्मतुल्झति॥ सया जिणबिंबस्स पश्हा साहुनिवासो य इत्यादि ।
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- अथ श्री संघपट्टकः --
wwwwwwwwwwwwwwwwwww __ अर्थः-श्रने सिद्धांतनी कसोटी समान, श्रने रख्या अनेक आगमना उझारथी श्रेष्ट शास्त्र जेणे एवाश्री हरिन सूरी तेमनी प्रवृत्ति संजयाय ने जे हरिजप्रसूरिए चैत्यवास कयों हतो केम जे पोताना रचेला ग्रंथोने विषे चैत्यवासनुं प्रतिपादन कर तेणे करीने चैत्यवासनी प्रवृत्ति ते तेमणेजे सत्य थापी जे ए हेतु माटे चैत्यवास करवो वली था तेमना ग्रंथनु वचन , जे जिनबि. बनी प्रतिष्टाने अर्थे अथवा जिन कर्मतुल्य, तथा जिनबिंबनी प्र. तिष्टा डे त्यां साधु निवास डे इत्यादि___टीकाः देयं तु न साधुन्यस्तिष्ठति यथा च ते तथा कार्य। श्रदयनीव्या ह्येवं, शेयमिदं वंशतरकांममिति
अर्थः-चैत्य साधुने श्रापी न दे, जेवी रीते ते साधु रहे तेम करवू अक्षय नीवीये करीने एटले मूल धननो नाश न थवा देवो, ए प्रकारे जे करवू ते वंशतरकांम जाणवू एटले वंश परंपराए चादयुं जाय.
टीकाः-तथा समरादित्यकथायामपि जिनलवनांतर्गतप्रति'श्रयस्थितायाः साध्व्याः केवलोत्पादप्रतिपादनात् ॥ तथाधु-: निकमुनीनां बहूनां चैत्यवासप्रवृत्तिदर्शनात् ॥ यदि पयं. गीतार्थानां नानुमत: स्यात्तदा कथमकवाक्यतया सर्वत्रा तिहतप्रसरः प्रवर्त्तते
अर्थ:-वली समरादित्यनी कथामां पण जिनजवनना अंतगत जे प्रतिश्रय तेमा रहेली जे साध्वी तेने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं के एम प्रतिपादन कर्यु ले ए.रेतु माटे. वली आधुनिक घणा
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(८८)
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अथ श्री संघपटकः
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मुनि चैत्यवास करे जे तेनी प्रवृत्तिनुं देखवापणुं ने माटे. जो ए चैत्यवास गीतार्थाने संमत न होत तो केम एक वाक्यपणे सर्व जगाये निरंतर तेमनो पसार प्रवर्ते ले ? एटले जो चैत्यवाप्त नज करवानो होत तो सर्वे गीतार्थोनुं वचन तथा प्रवर्तवू ते एक साथे मलतुं केम आवत ?
टीकाः न च विशेषदोषोपलंनमंतरेण गीतार्थाचरितमप्रमाणीकर्तुं युक्तं ॥ नापि विरुधः साध्यविपर्ययाव्याप्तत्वात् ॥ नहि गीतार्थाचरितत्वं यत्य विधेयत्वेन व्याप्तं ॥ तथासति पर्युषणाया अपि चतुर्थ्यामकरणप्रसंगात् ॥ नाप्यनैकांतिकः वि. पदेऽगतत्वात् ॥ नहि गीतार्थाचरितत्वं यत्यविधयेप्यनुष्ठाने गतं ॥ प्राणातिपातादीनामपि गीतार्थाचरितत्वेन हि तत् स्यात् ॥ न चैवम स्ति
- अर्थः-माटे विशेष दोषनी प्राप्ति विना गीतार्थ पुरुषतुं श्राचरण अप्रमाण करवू ते युक्त नथी. ते उपर न्याय शास्त्रनो विचार जे, चैत्यवास साधुने करवा योग्य ले. गीतार्थ पुरुष आचरण कर्यो ए हेतु माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगने विषे जे हेतु दे ते वि. रुद्ध नथी एटले खोटो नयी केम जे साधुने न करवा योग्य जे वस्तु तेमां गीतार्थना श्राचरण रूप जे हेतु ते होय नहीं माटे जे गीतार्थन श्राचरण ते साधुने करवा योग्य , ने जो एम न मानता हो तो चोथने विषे पर्युषणा पर्व करो गे तेने न करवानो प्रसंग प्राप्त थशे. वली अनुमान प्रयोगने विषे जे हेतु ले ते एकांतिक पण नथी एटले खाटो नथी केम जे यतिने न करवा योग्य जे अनुष्ठान मात्र ते रूप जे विपक्ष तेने विष गीतार्थाचरणरूप जे हेतु ते ठे
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अथ श्री संघपट्टका
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सिद्ध थयो....
नही माटे, ने जो प्राणातिपातादिकनुं गीतार्थ आचरण करता होत तो ए हेतु विपक्षमा गयो कहेवात, माटे एम तो नहीं, तेथी अनुमाम प्रयोग निर्दोष सिद्ध थयो.
टीका:-॥किंच, यतीनां चैत्यवासमंतरेण सांप्रतिकजिनजवनानां हानिः स्यातू ॥ तथाहि ॥ पूर्व कालानुजावादेव श्रीमंतोऽव्यग्रचेतसो देवगुरुतत्वप्रतिपत्तितरनिर्भरतया ह्येतदेव परं तत्व मिति मन्यमानाः श्रावकाश्चैत्यचिंत्यचिंता .. परमादरेणाऽकरिष्यन् ॥ सांप्रतं तु दुःषमादोषा नक्तंदिवं कु. . टंबसंबलचिंतासंतापजर्जरितचित्ततयेतस्ततो धावतां प्रायेण . दुर्गतानां श्राद्धानां स्वनवनेप्यागमनं दुर्लजमास्तां जिनमदिरे तथाच कुतस्त्या तत्समारचनादिचिंता तेषां . अर्थः-वली यतिने चैत्यवासविना श्रा कालनां जिननवननी हानि थाय. तेज देखामे डे जे पूर्व कालना महिमाथीज ने श्रीमंत लोक हता ते व्यग्र चितवाला न हता.ने देवगुरु तत्वनी घणी नक्तियो नरेला हता, ने ते देवगुरुने एज परमतत्त्व एम मानता. एवा जेने श्रावक ते चैत्य संबंधी चिंताने परम आदरव करता ने हालमा तो दुःखमा कालना दोषथी रात्रि दिवस कुटुंबन नरणपोषरा करवानी चिंताना संतापयोाकुल व्याकुल चित्तवाला थया . ए हेतु माटे चारे पास दोमता ने बहुधा दरिति एवा श्रावक लोकोने पोताने घेर परा आच पुर्वन डे तो जिनमंदिरे श्राववानी वाततो लेटे रही, माटे ते जिनमंदिरने समार, इत्यादिक चिंता तो तेमने क्याथीज होय ?
टीकाः-श्रीमतां तु प्रतिक अमदाससवार विखासिनीपन
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- अथ श्री संघपट्टकः
साइबल मलयजरस पंकिलपीनकुचकलशपीन जितामां निरंतर मेत्र नूरिनूरिलिप्सया पार्थिव सेवा देवा किनां जिनगृहावलोकनमेव न संपद्यते दूरे तश्चिंता ॥ तदभावे च कालेन जिनसदनानां विशरारुता स्यात् ॥ तथाचतो यच्छित्तिरापनीपद्यते
अर्थ:- कालना श्रीमंत श्रावक लोकोने तो ते चैत्य चिंता क्यांथीज होय ? केम जे ते तो क्षणे कसे पोताना रूपादिक गुणनी केफे करीने खालसु एवी जे वेश्याओ तेमना बरास कर्पूरवती मिश्रित जे मलय चंदननो रस तेथे करीने व्याप्त थरला अने पुष्ट थला जे स्तन कलश ते रूपी पीठने विषे लोट पोट थता एटले केवल विषय शक्ति बे ने ते धर्म कार्य नथी करी शकता तेथ दरिडी जेवा बे ने केटलाकने तो निरंतरज घणी घणी Sव्य पामवानी इच्छाये करीने राजा योनी सेवा करवानी कुटेव पकी बे. एवा ते गृहस्थ श्रीमंत लोकोने जिन जवननुं देखतुंज नयी यतुं, तो तेनी चिंता तो बेटे रही ने ज्यारे ते जिननवनमी चिंता न रही त्यारे सार संभाल विना काले करीने जिन जवननो विनाश याय ने ज्यारे जिनजवननो विछेद थयो त्यारे तीर्थनो विवेद एनी मेलेज खावी पड्यो एम जावं.
टीकाः चैत्यांतर्वासे तु यतीनां तदुद्यमेन नूरिकालं जिननवनान्यवतिष्टेरन् ॥ तथा च तीर्थाव्यवच्छेदः ॥ तदव्यवच्छि तितोश्च किंचिदपवादासेवनस्यागमेपि समर्थनात् ॥ यदाह ॥ जो जेण गुणेल हिश्रो, जेण विणा वा नसिजए जंतु इत्यादि । तदेवं सूक्ष्मे दिक्या विमृश्यतां विदुषां चेतसि चैत्यवास एवे. दानींतनमुनीनां संगतिमंगती लि.
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-ta. अथ श्री संघपट्टका
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___ अर्थ:-ने ज्यारे मुनि चैत्यवास करे त्यारे तो मुनिनो ते संबंधि जे उद्यम तेणे करीने जिनन्नुवन घणा काल सुधी रहे त्यारे तीर्थनो पण उच्छेद न थाय माटे तीर्थनो उच्छेद न थाय ए हेतु माटे कांक अपवाद सेववानुं शास्त्रमा पण कडं जे जे जे गुणे करीने अधिक होय अथवा जेना विना जे सिक न थाय इत्यादि. ते माटे सूक्ष्म दृष्टिए विचार करो तो विद्यानना चित्तमा एम आवो जे था कालना मुनिने चैत्यवास करवोज जोश्ए.
टीकाः-तथा वसत्यक्षमेति ॥ वसतौ परगृहे निवासं प्रति अक्षमा मात्सर्य परगृहवासोग्रे निराकरिष्यत इति यदुक्तं, तदिदानी व्यज्यते । सर्वव्रतेषु निरपवादं हि ब्रह्मवतं यतीनामागमे गीयते, यदुक्तं ॥ न वि किंचि अणुनायं, पमि सिद्धं वा वि जिगवरिंदेहिं । मुत्तुं मेहुणन्नावं, न सो विषा रागदोसेहिं ॥ नच तत् स्त्रीशब्दश्रवणादेः सम्यक् निर्वोढुं पार्यते ॥ उत्कलिकादिप्रादुर्भावात् ॥ परगृहे वसतां चाकश्यंनाविनः तच्छूवणादयः॥
अर्थः-वली ते लिंगधारी या प्रकारनी प्ररूपणा करें जे वसति एटले परघर तेमां जे रहे ते प्रत्ये मत्सर करवो एटले मुनिने परघरमां न रहे, ए रीते ते प्रतिपादन करे . पूर्वे एम कडं हतुं जे परघरमा रहेवानुं पागल खंमन करीशुं ते था खंगन करी प्रगट करे . जे सर्व व्रतमां साधुने जेमां अपवाद मार्ग नयी एवं तो एक ब्रह्मवत आगममां कडं , ते शास्त्रवचन ए जे जे जिनवरेंज तीर्थकरे एक मैथुन जाव मूकीने बीजुं कांइ पण थाज्ञा कर्यु नथी. तथा निषेध पण कर्यु नथी. केम जे ते मैथुन राम विना
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अथ श्री संघपटकः
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होय नहीं एटले रागनी जोमे द्वेष पण श्राव्यो. ने ते पनवामे सर्वे दोष श्राव्या माटे, ते ब्रह्मव्रत स्त्रीवोना शब्दो सान्नसवा तथा तेने देखवी इत्यादिकथी सारी रीते निर्वाह करते पार पमातु नथी, केम जे कामोद्दीपन आदी प्रगट थवान ए कारण माटे, ने परघरमा रहेनाराने ते श्रवणादिक अवश्य थाय ...
टीकाः-॥तथाच नितंधिनीनां तुलितकोकिलाकसकूजितं गीतादिरवमधरितरतिसौंदर्य च रूपमुपलभ्य जुक्तभोगानां पूर्वानुजूतनिधुषनविलसितप्रतिसंधानादयोऽजुक्तनोगानां च तत्कुतूहलादयः प्रार्जवेयुः॥ . अर्थः-वली स्त्रीयोनो कोयलना मधुर शब्द जेवो गीतादिकनो शब्द साजलीने तथा कामदेवनी स्त्री तेनुं सुंदरपणुं ते जेणे लघुता पमामयुं . एवं स्त्रीयोनुं रूप देखीने पूर्वे गृहस्थावस्थामां जेणे लोग नोगव्या . ते साधुने पूर्वे अनुन्नव थएलो जे मैथुनविलास तेनुं अनुसंधान थq एटले स्मरण थq इत्यादि घणा दोष प्रगट थाय ने जे साधुये पूर्वे गृहस्थावस्थामा जोग नोगव्या नथी. तेने ते मैथुन- कौतुक वारूप घणा दोष प्रगट थाय.
टीकाः यतिनां च सततं कर्णपीयूषवर्षिविशदगंभीरम. धुरस्वाध्यायध्वानं निशम्य केषां चिनु शरीराण्यगएयलावण्यश्री-णि निर्वये प्रोषितपतिकादीनां तरुणीनांरिरसादयः प्राध्युः॥
एवं चान्योन्यं निरंतररूपावलोकनगीतश्रवणादिनिर्मथमन्म- थोन्माथदौस्थ्यचारित्रमोषादयोऽनेकदोषाः पुष्येयुः॥
अर्थ ने साधुनो निरंतर कानने अमृत समान जे सुंदर
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भय भी संघपट्टक
मधुर स्वाध्यायनो शब्द तेने सांजलीने तथा केटलाक साधुनां असंख्य लावण्य शोन्नानां धारण करनार सुंदर शरीर तेमने देखीने विरहिशी जुवान स्त्रोयोने काम क्रीमा करवानी इच्छा थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय. ए प्रकारे स्त्रीयोने तथा साधुने परस्पर निरंतर रूपनुं देख गीतनुं सांजलq ए श्रादि कारणे करीने दुःखदायी महा कामदेव संबंधी विकारे करीने चारित्रनो नाश थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय माटे साधुए परघरमां निवास न करवो.
टीकाः ॥ यथोक्तं ॥ थीवडियं वियाणह इत्थोणं जथ्थ काणरूवाणि॥सहायन सुच्चंती, ताविय तेसिं न पेच्छेहि ॥बनवयस्स अगुत्ती, खजानासो यपीवुढी य ॥साधु तवोवणवासो, निवारणा तिथ्थ परिहाणी
अर्थः-ते शास्त्रमा कयु ने जे साधुने रहेवानुं स्थान स्त्री वर्जित जाणवू जे स्थाने स्त्रीयोनां रूप तथा शब्द न देखाय न संललाय तथा ते स्त्री पण ते साधुने न देखे एवं स्थान साधुने रहेवा योग्य ले केम जे एवी रीते न होय तो ब्रह्मवतनी गुप्ति न रहे तथा लजानो नाश थाय तथा प्रीतिनी वृद्धि थाय, माटे सा. धुने तपोवनमां निवास करवो जेथी तीर्थनी हानिनुं निवारण थाय.
टीका:-तथा लौकिका अप्याहः॥ शृण हृदयरहस्यं य प्रशस्यं मुनीनां, न खलु न खलु योषित्संनिधिः सं विधेयः॥ हरति हि हरिणादी दिप्रमदिकुरप्रप्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नतानां.
अर्थः सौकिकमां पण एम कहे जे जे, मुनिने पण वखा
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(१४)
-18 अथ श्री संघपट्टकः
थवा योग्य एवं हृदयनुं रहस्य कहुं हुं ते सांजळो जे साधुने त्रिनुं समीपपणुं निश्चे नज करवु केम जे हरिणना जेवां जेनां नेत्र बे एवी स्त्री नेत्ररूपी तीखा शस्त्रना प्रहारवमे उपशमरूप बखतरनो नाश करे बे ने उत्तम पुरुषनां पण मन हरे बे.
टीका:- अत एव निशीथे पंचमोद्देशके एकद मूलगुणेसुं विसुद्धा इत्थि सारिया बीया ॥ तुहारोवणवसही, कारणि तहि कत्थ वसियां ॥ त्र तुल्लारोवपत्ति ॥ उत्सर्गेणोन्नयोरपि वसत्योर्वासे तुल्यं प्रायश्चित्तमित्यर्थः ॥ यथापवादे क्व वस्तव्यमितिप्रश्ने || हवा गुरुस्स दोसा, कम्मे श्वरीय हुंति ससिं ॥ जइ ए तवोवणवासं, वसंत लोगे छा परिवार्ड ॥
अर्थ :-- एज हेतु माटे निशीथने विषे पांचमा उद्देशामां कघुं बे जे एक निवास तो मूल गुणने शुद्ध राखे एवो नथी ने बीजो निवास स्त्री संसक्तिवाळो बे, माटे ए बेमां निवास करतां तुल्य प्रायश्चित्त के कारण पके त्यारे ते बेमांथी कीयामां रहे, ए जग्याए तुल्लारोवल ए शब्दनो अर्थ टीकाकार कहे बे जे उत्सर्ग मार्गे वे ए निवासने विषे रहेनारने पण तुल्य प्रायश्चित े. अथ अपवाद मार्गे क्यों रहे एम शिष्ये प्रश्न कर्तुं त्यारे गुरु कड़े ने जे
टीका:--त्र इतरस्यां स्त्रीसंसक्तायां वसतौ वासे प्रागनुनूत विलसितस्मृतिकरणा दिना चतुर्थत्रतजंगप्रसंगेनाऽन्यशुद्धवसत्यलाजेन च यतीनामाधाकर्मिक्यपि वसतिरनुज्ञाता ग्रामाद्यंतर्वसद्भिश्च स्त्रीसंसक्ति वियुता श्रुतोक्त निखिलगुणयुता दुरापा वसतिः ॥ चंतत स्त्रीशब्दश्रवणस्यापि संभवात् ॥
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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अर्थः-श्रा जगाये बीजो स्त्री संसक्त निवासने विषे जो साधु निवास करे तो पूर्वे गृहस्थपणामां स्त्री साथे अनुन्नव करेखो जे विलास तेनुं स्मरण थq इत्यादिके करीने चोथा व्रतना नंगनो प्रसंग थाय तेणे करीने, ने बीजो शुरू निवासनो लाज न पाय तेथी पतिने श्राधाकर्मिक निवास तेनी आज्ञा करेली .ने प्रामादिमां रहेनारने तो स्त्री संबंध रहितने शास्त्रमा कहेला जे सर्व गुण तेणे सहित एवो निवास मळवो उर्लन , केम जे घरना अं. दरमां तो स्त्रीयोना शब्द सांनळवानों संचव ए हेतु माटे महासाधुए परघर वास न करवो.
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टीकाः-जिनगृहवासे तु यतीनां न तथासंसक्तिसंन्नवः, चैत्यवंदनार्थमेव क्षणमात्रमागत्य गंत्रीणां श्राविकादीनां यतिनिः सह तथा विधप्रसंगानुपपत्तेः ॥ नच एका मूलगुणेसुमित्याद्यागमबलेन प्रत्युत स्त्रीसंसक्तवसतित्यागेना धार्मिकवसतिवासो यतीनां संगतो, न तु जिनगृहतास इतिवाच्यं ॥ श्राधाकर्मस्त्रीसंसक्त्यादिदोषजालरहितजिनगृहवासलान आधाकमवसतिवासस्यात्यंतमनुचितत्वात् ॥
. अर्थः-जिन घरमां निवास करे त्यारे तो यतिने ते प्रकारना स्त्री संबंधनो संजव नथी केम जे चैत्यवंदनने अर्थेज क्षण मात्र आवीने जनारी एवी श्राविकादिक साथे यतिने ते प्रकारनो प्रसंग नथी थतो जेवो तेना घरमा रहे थाय ने तेवो वली “ एका मलगुणेसुं” इत्यादि आगमना बले करीने उलटो स्त्री संबंधरहित निवासनो त्यांग करवी तेणे करीने आधार्मिक निवास साधुने करवानो संनव्यो, पण जिनघरमा रहेवा- संनव्यु नहीं.ए प्रकारे
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१९६)
8. अथ श्री संघपट्टका
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जो तमे कहेता हो तो ते न कहे केम जे आधार्मिक तथा स्त्री संबंध जेमां ने इत्यादि दोष समूह रहित जे जिन घर निवास तेनो लान थये उते आधार्मिक निवास करवो ते अत्यंत अघटतोज ॥
टीकाः-को ह्युन्मत्तः पथ्याशनावाप्तावपथ्यमश्नीयात् ॥ तस्मात्परगृहवसतिरसमीचीनाऽधुनातनयतीनां य स्त्वागमे परग्रहवासः श्रूयते स तात्कालिकातिसात्विकयत्यपेदयेति ॥ तथा च प्रयोगः॥ यतीनां परग्रहवासोऽनुपपन्नः ॥ अनेक दोष . दुष्टत्वात् प्राणातिपात वदिति ॥ - अर्थः-केमजे कोण उन्मत्त पुरूष पथ्य नोजननी प्राप्ति थये बतें अपथ्य लोजन जमे ते माटे आ कालना मुनियोने परघरमां निवास करवो ते ठीक नहीं, ने जे आगममां परघर निवास करवो एम संजळाय , ते तो ते कालना अति सात्विक धीरजवाळा जे मुनि, तेनी अपेक्षाए , वली ते उपर अनुमान प्रयोग पण सिक थाय जे जे यतियोन परघरमां रहे ते अघटित . केम जे ते श्रनेक दोषे करीने पुष्ट डे ए हेतु माटे प्राणातिपातनी पेठे जेम प्रापातिपात ले ते अनेक दोष पुष्ट ले तो यतिने करवा योग्य नथी, तेम परघर वास परा करवा योग्य नथो.
टीका:-तथा स्वीकारः स्वसत्तापादनं केम्वित्याह ॥ श्रयोजविणं गृहस्थः श्रावकः चैत्यसदनं जिनायतनं ॥ ततोर्थ: श्चेत्यादि इंधः तेषु ॥ तत्र अव्यस्वीकारस्यागमे निषिद्धत्वेऽपि सांप्रतिकयतीनां तत्स्वीकारो युक्तः ॥ तमंतेरेण ग्लानपरचक्रलिकाद्यवस्थायां नैषज्यपथ्यायनुपपत्तेतहिना च धर्म
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9. अथ श्री संघपट्टका .... (९७) शरीरस्यानावप्रसंगात् ॥ गृहमेधिनां च प्रायेण कालदोषाः निर्धर्मत्वेन च यतिचिंताद्य विधानात् ॥
अर्थः-वली ते वेषधारी सुविहित प्रत्ये बोले जे जे व्य तथा गृहस्थ तथा जिनमंदिर ते पोतानां करी राखवां तेमां अव्यनो अंगिकार करवो तेनो शास्त्रमा निषेध ने तो पण आ कालना साधुने ते अव्यनो अंगिकार करवो ते युक्त ने केम जे ते अव्य विना ग्लान अवस्थामां तथा परचक्रनो नय थाय तथा उकाल पके इत्यादि अवस्थामां औषध तथा पथ्य लोजन इत्यादिकनी प्राप्ति न थाय ए हेतु माटे ने ते विना धर्म शरीरने नाश थवानो प्रसंग थाय ए हेतु माटे ने गृहस्थ तो बहुधा काल दोषे करीने धर्म र. हित थया तेणे करीने यतिनी चिंतादिकने करता नथी माटे ॥ .. टीका:-तथा सांप्रतं चैत्यव्यमपि यतिन्निः स्वीकृत्य वर्डनीयं मूलधनं रजिस्तै वृष्ट्यादेरधिकीनवता अव्यग प्रवचनाव्यवच्छित्तये दुर्बलश्राद्धानामुछारकरणात् ॥ तेषां च तथादौर्गत्यपंकादुकृतानां कालेनानवरतचैत्यसपचिंता दिना तीर्थप्रत्नावनया बहुतरपुण्यार्जनसंन्नवात् ॥ तदुकारं विना तु प्रवचनोच्छेदप्रसंगात् ॥ इत्यर्थस्वीकारोऽधुनातनमुनीनां संगत श्वानातीति ॥४॥ .
अर्थः-वली सांप्रतकाले यतियोने चैत्य व्यनो अंगिकार करी वधारQ जोश्ये. केम जे मूल अव्यनी रक्षा करी वृष्ट्या विकथी अधिक थतु जे ते ऽव्य तेणे करीने प्रवचनना उच्छेद न पाय तेने अर्थे ने दुर्बल श्रावकनो पण उद्धार कराय ए हेतु' माटेने ज्यारे दरिअतारूपी कादवथी ते श्रावकनो उकार कयों त्यारे काले
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- अथ श्री संघपट्टकः
करीने निरंतर चैत्यनी पूजा अर्चादिक चिंताये करीने तथा तीर्थनी प्रभावनाये करीने अतिशे पुण्य उपार्जन करवानो संजव बे ए देतु माटे, ने ते श्रावकनो उद्धार कर्या विना तो प्रवचननो उच्छेद थवानो प्रसंग बे ए हेतु माटे द्रव्यनो अंगीकार ते तो आधुनिक मुनिने संगत बे, एटले करवो घटतो होय ने शुं ! एम जणाय बे.
(१८)
टीका:- तथा श्रावकस्वीकारोप्यद्यतन मुनीना मुत्सर्गापधादपदवी विदुराणां न निर्युक्तिकः ॥ पूर्वं हि कालस्य सौस्थ्यादतिशयवरपुरुषबाहुल्यात् कुतीर्थ्यानामपीयस्त्वात् लोकस्य प्रायेणासं क्लिष्टत्वात् च जैनमतबाह्या अपि जनाः सितांब रनिकुभ्यः सबहुमानं निक्षा दिकं व्यतरिष्यन् ॥ सांप्रतं तु प्रादुर्भवद्भूरिकृतीर्थिकसार्थकुमत कदर्शितांतकरणतया जैनमावैमुख्येन तेषां तथाविधश्वेतांवरदी काया श्रावात् ॥ श्रतः श्राद्धस्वीकारं विना निक्षावातेरनुपपत्तेः युक्तं संप्रति तस्वीकारः ॥
अर्थः- वली ते लिंगधारी सुविहित प्रत्ये बोले बे जे श्रा कालना उत्सर्ग अपवाद मार्गना जाणनार मुनिने पोताना श्रावक करी राखवा ते युक्त बे ॥ केम जे पूर्वे तो काल सारो हतो ने अतिशयशाली घणा मोटा पुरुष हता ने कुतीर्थिक घणा Jar दता. ने लोक पण प्राये सारा हता ए हेतु माटे जैन मत विनाना पण लोक श्वेतांबर साधुने बहु मान सहित निक्षादिक थापता धने या कालमां तो प्रगट थयो जे घणो कुतीर्थिकनो समूह तेनो जे कुंमतं तेणे करीने कदर्थना पाम्यां जे अंतःकरण ते हेतु माटे तेमने ते प्रकारे श्वेतांबर साधुने आपवानी इच्छानो पण अनाव
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• अथ श्री संघपट्टका
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(९९)
बे. ए हेतु माटे पोताना श्रावक न करी राख्या होय तो निका. नी प्राप्ति पण न थाय माटे या कालमां श्रावकनो अंगीकार करखो ते युक्त .
टीका:-तथा श्रागपि ॥ जा जस्स विई जा जस्स सं... हई, पुवपुरिसकया मेरा ॥ सों तं श्रइकमंतो, अशंतसंसारित होइ इत्यादिना स्वीकृतगुरुपरिहारेणापरगुरोरंगीकारः श्रावकाणामनंतसंसारित्वायेतिपतिपादनेनास्यार्थस्यान्युपगमात् ॥ हरिन सूरिणापि सम्यक्त्वदीक्षारोपणावसरे श्राद्धानां धनधान्यस्वजनपरिजनादिसमेतस्या त्मनो गुरुसमर्पणानिधानेन तत्स्वीकारस्य समर्थनात् ॥
अर्थः-श्रागममां पण तेमज कडं ले जे जेनी स्थिति पूर्वपुरूषे करेली मर्यादा एटले गच्छनी स्थिति तेने जो अतिक्रमे तो अनंत संसारी थाय, इत्यादिके करीने पोते अंगिकार कर्या जे गुरु तेनो त्याग करे ने अन्य गुरूनो जो अंगिकार करे तो श्रावकने अनंतसंसारीपणानी प्राप्तिनुं प्रतिपादन कयु तेणे करीने या श्र. मारा कहेला अर्थनी प्राप्ति थाय ले ए हेतु माटे. ने हरिजप्रसूरिये पण समकित दीक्षा आपवाना अवसरमां श्रावकने धन धान्य स्वजन परिजनादिके सहित एवो पोते श्रावक गुरूने अर्पण थाय एम कहेवाथी ते सर्वनो अंगीकार गुरूने थयो एम प्रतिपादन कर्यु ने ए हेतु माटे.
टीकाः-॥ यदाह ॥ अह तिपयाहिणपुवं, सम्मं सुद्धेण चिनरयणेण ॥ गुरूणो निवेयणं सबहेव दढ मप्पणो इत्थ ॥ -
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28 अथ श्री संघपट्टकः
प्रर्थः - जे माटे तेमनुं वचन बे जे अथ त्रण प्रदक्षिणा कवापूर्वक शुद्ध चित्तरत्ने करीने सारी रीते सर्व प्रकारे गुरूने - त्मानुं निवेदन दृढपणे हीं कर.
. (१००)
टीका:- गुरुणा च श्राद्धानां श्रानुगुयेन दानोपदेशात् ॥ गुरोस्तत्स्वीकारं विना च तेषां तथा निवेदनाद्यनुपपत्तेः ॥ अन्योन्यापेक्षत्वात्स्वीकारस्य ॥ अन्यथेत्थमात्मनिवेदना जि. धानस्य लोकपंक्तिमात्र फलत्वापत्तेः ॥ एतेन दिग्बंधो पि गृहिणां यतिवन्न दुष्यतीति ॥
अर्थः- गुरूए श्रावकनी श्रद्धाने अनुसारे दान श्रापवानो उपदेश करवो ने गुरु जो ते श्रावकनो अंगीकार न करे त्यारे श्रावके जे पोतानुं निवेदन कयुं ते न कर्या जेवुं थाय. केम जे पोतापणानो जे अंगीकार बे तेने परस्परनी अपेक्षाएं बे ए हेतु माटे. ॥ भावार्थ ॥ श्रावक पोताना गुरू जाणे तो गुरू पोताना श्रावक जाणे ने एम न कहीए तो ए प्रकारना आत्म निवेदननुं केहेतुं ते लोक व्यवहार मात्र फल याय एणे करीने जेम साधुने दिग्बंध बे एटले पोतपोताना आचार्य उपाध्याय करी प्रवर्त्तवापणुं वे ते निर्दोष छे तेम श्रावकने पण दिग्बंध दोष नली नथी एटले श्रावक. ने पोताना गुरूने पोताना श्रावक करी राखवा ॥ ५ ॥
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टीका:- तथा चैत्यसदनस्वी कारोप्यधुनातनमुनीनां समीचीनः ॥ उक्तन्यायेन संप्रति गृहमेधिनां चैत्यचिंतां प्रति निरवधानतया यतिस्वीकारमंतरेण कालेन तदुत्रंशसंभवात् ॥ मार्गलोपप्रसंग्रेन चागमेप्यर्थापत्त्या तत्स्वीकारस्यानिधानात् ॥
अर्थ:-बली चैत्यनो एटले चैत्य पोतानुं करी राखनुं, ते पण
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8. अथ श्री संघपट्टक
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श्रा कालना मुनिने युक्त (घटे) केम जे पूर्वे कह्यो जे न्याय तेणे करीने या कालना गृहस्थ लोकोने चैत्यनी चिंता प्रत्ये सावधानपणुं नथी माटे यतिये ते चैत्यनो अंगिकार कर्या विना काले करीने तेनो उछेद थवानो संनव ने ए हेतु माटे मार्गलोप थवानो प्रसंग प्राप्त थाय ते माटे शास्त्रमा पण ते चैत्यने पोतानुं करी राखq एम कहेवापणुं बे.
टीकाः-सीलेह मंखफलए इयरे चोयति तंतुमाईसु ॥ अहिजुज्जति सवित्तिसु? अणिज्जफेमंतदीसंता॥अत्राहि लिंगिन: प्रति सुविहितानां चैत्यसमारचनादिव्यापारणमुक्तं ॥ नच तस्वीकारं विना तेषां तत्संनवति॥ अस्वीकृते च वस्तुनि श्तरप्रेरणयापि प्रायेण लौकिकानां समारचनायप्रवृत्तेरिति ॥६॥
अर्थः-श्रा जगाए लिंगधारी एम बोले ने जे प्रत्येक सुविहितने चैत्यनी सार संजाल राखवादि व्यापार कह्यो , ते चैत्यनो पोतापणानो अंगीकार कर्या विना ते सार संजाळ राखवानो संजव नथी. केमजे जे वस्तुनो अंगिकार को नयी तेमां बीजो प्रेरणा करे तो पण बहुधा ए लोकनी सुधारवाने विषे प्रवृत्ति देखाती नथी माटे ॥६॥
टीकाः-तथा न विद्यते प्रेदितं प्रत्युत्प्रेदणा चकुषा निरीक्षणमादिशब्दात्प्रमार्जनं रजोहरणादिना सूक्ष्मजीवापसारणं च यत्र तत्, श्रासनं. विष्टरं स्यूतगब्दिकादि शुषिरगंनीरसिंहासनादौ च प्रत्युपेशादि यतीनां न शुभ्यति, तेन च । तत्र न कल्पते उपवेष्टुं चैत्यवासिनस्त्वेवं प्रतिपद्यते ॥प्रवच
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(१०२)
... अथ श्री संघपट्टकः
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AAAAAAA
प्रत्नावनाहेतोस्ताहशासनोपवेशनस्यापि साधीयस्त्वात् प्रव चनप्रन्नावनायाः प्रधानदर्शनांगत्वेन यथाकथंचन विधेयत्वात् ॥
अर्थः--वळी नथी पमिलेहण एटले नेत्र वझे देखq. श्रादि शब्दथी प्रमार्जवं, रजोहरणादिक करीने सूक्ष्म जीवनुं दूर करवू ने जेमां एवू श्रासन एटले दोरमाए शीवेली गादी तकीया तथा जेमां गंनीर बिज, एवां सिंहासनादि तेने शुद्ध पमिलेहणादि थश शकतां नथी ते माटे तेने विषे बेसबुं न कटपे तेने चैत्यवासी विंगधारीतो एम माने जे जे प्रवचननी प्रनावना थवानुं कारण माटे तेवा गादी तकीयामां तथा तेवां सिंहासनादिकमां मुनिने बेस ते अतिशे सारं ले केम जे ते तो प्रवचननी प्रत्नावनानुं प्रधान देखातुं अंग माटे जे ते प्रकारे गादीए तथा सिंहासन उपर बेसवार्नु अवश्य करवा योग्यपणुं ने एटले कट्पे ॥
टीकाः-॥ यथोक्तं ॥ नाणाहिजे वरतरं, हीणो वि हु पवयणं ' पनावितो इति ॥ तथा सिंहासनोपवेशनस्य गणधराणां व्या
ख्यान विधावागमेऽपि श्रवणात् ॥ यदाह ॥ राठवणीयसीहासणोवविछो व पायपीढंमि ॥ जिहा अन्नयरा वा गणहारिकहे। बीयाए॥तथाच तदनुसारेणाधुनिकसूरीणामपि धर्मदेशनादौ तउपवेशनस्य समीचीनत्वात् ॥
अर्थः-ते शास्त्रमा कवू दे जे ज्ञानथी तथा चारित्रथी र. . हित होय तो पण प्रवचननी प्रत्नावना करता इत्यादि. वळी व्या
ख्यान विधिने विषे गणधर सिंहासन उपर बेसता एवं आगममां पण सांनळीए बीए, ते श्रागमनुं वचन ए जे राजाये श्रापेला सिंहासन उपर तथा पादपीठ उपर बेठा जेष्ठ गणधारी अथवा श्र
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48. अथ श्री संघपट्टका :
(१०३ )
MAAAAAAN
न्यतर गणधर बीजी पोरुषीमां देशना करे ते प्रकारे या कालना श्राचार्योने पण धर्मदेशनादिकने विषे ते उपर बेसबुं ते ठीक .
टीकाः-अत एव नगवान् दशपूर्वधरः श्री वैरस्वामी, अहो नगवतः सर्वातिशायिनी व्याख्यालब्धिः किंतुन तादृशी रूपसंपदिति राजांतःपुरावचनाकर्णनानंतरं द्वितीयेन्हि नैस- . गिकी शरीरसौंदर्यसंपदमावि व्य यत्यऽनुचितमपि हिर-... एमयकुशेशयमध्यास्य प्रवचनप्रनावनायै संसदि धर्मकर्मकथां .... प्रथयांबवेति ॥ ततः सिझमिदमाचार्याणां गब्दिकाद्यासन . मुपादेयं, प्रवचनप्रनावनांगत्वान्, सम्मत्याद्यध्ययनवदिति॥॥ ...
अर्थ:-एज कारण माटे नगवान् दश पूर्वधर श्री वयरस्वामी तेमने देखीने राजाना अंतेउरनी स्त्रीओए एम का जे अहो नगवान् वयरस्वामीनी व्याख्यान लब्धि तो सर्व करतां अतिशे पण तेवी का रूप संपत्ती नथी एवं वचन सनिलीने त्यार पठी बीजे दिवसे पोतानी स्वानाविक शरीर सुंदरता संपत्ति प्रगट करीने यतिने अघटित एवं पण सोनामय कमल तेने विषे बेसीने प्रवचननी प्रनावना थवाने अर्थे सन्नामा धर्म देशना विस्तारता हवा ए. कारण माटे ए वात सिद्ध थइ जे आचार्योंने गादी आदि आसन ग्रहण करवं, केमजे प्रवचननी प्रनावनानुं अंग ए हेतु माटे संमति आदिक शास्त्रना अध्ययननी पेठे जेम संमत्यादिकनुं अध्ययन डे ते प्रवचननी प्रजावनानुं अंग तो आचार्यने करवा योग्य ले तेम.
टीका तथा सावधं सपापमाचरितं श्राचरणा गृहिणां नियतगगनजनादिलक्षणं ॥ तत्रादर आग्रहः। श्राचरणा हि ।
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११०४)
-g. अथ श्री संघपट्टकः
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निरवद्यैव प्रमाणं एषा च सावद्या गृहिदिग्बंधाद्याचरणाच्यु पगमे हि यतेस्त विधीयमाननिखलपापारंजानुमत्याद्यापत्तेः तथाप्येषा चैत्यवासिनिरादृता
अर्थः-वली पाप सहित जे आचरण एटले गृहस्थोने नियमाए पोतपोताना गच्छने नजq ए श्रादि जेनुं लक्षण ले तेने विषे आदर एटले जे आग्रह (आचरण) ते पाप रहित होय तेज प्रमाण ले ने आ जे पाप सहित गृहस्थोने दिग् बंधादि आचरणा तेनो अंगिकार करवाने विषे निश्चे यतिने ते गृहस्थोए करवा मांमया जे समस्त पापना आरंज तेमां अनुमोदनादिकनी प्राप्ति बे ए हेतु माटे सावद्य ने. तो पण ए सावध आचरण चैत्यवासिये आदर्यु .
टीकाः यतस्तेषामयमाशयः देवकालाद्यपेक्षया हि सर्वजैन मतानुष्ठानं व्यवसथितं ॥ ततो यदि गृहिनियतगगनजनादिकामाचरणां वयं नाजियेमहि ततः कषायकलुषितहृदयत्वात्प्रायेण संप्रतितनयतीनां गृहस्थान्योन्याकृष्ट्या कलदेनाव्यवस्थायां सर्वमसमंजसमापद्येत तस्मादेषाप्याचरणा ऽद्यतनकालापेक्षया युक्तिमती
अर्थः--जे हेतु माटे ते चैत्यवासीनो श्रा अभिप्राय जे जे केत्र कालादिकनी अपेक्षाये सर्व जैनमतनुं अनुष्ठान निश्चे रद्यु ने ते हेतु माटे जो गृहस्थने पोत पोताना गच्छनी नजनादिक आचार ते प्रत्ये अमो न आदर करीए तो, कषाय वमे अंतर मेला थएलांडे माटे बहुधा आ कालना यतिने गृहस्थोनुं परस्पर खेंचवाथी कलेशे करीने अमर्यादाए करीने सर्व अघटतुं थाय माटे आ पण आचरण श्रआ कालनी अपेक्षाये युक्त बे.
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अथ श्री संघपटक
टीका:-॥यमुक्तं उत्पद्यते हिसावस्था देशकालामयान् प्रति ॥ यस्य मेऽकार्य कार्य स्यात्कार्य कर्म च वर्जयेदिति॥॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं वे जे देश कालने रोगादि प्रत्ये मारी ते अवस्था उत्पन्न थाय ने जेसां न करवानुं करवा योग्य थाय ने ने करवा योग्यनो त्याग थाय रे ॥७॥
टीकाः-तथा श्रुतस्य सिद्धांतस्य पंथा मार्गस्तत्रावज्ञाऽमादरस्तेह्येवमाहुः नगवत्सिकांतो हि नैकांतेनैव विहितानुष्टाननिष्टः निषिकानुष्टाननिषेधनिष्टोवास्ति॥ विहितानामGि केषांचिदनुष्टानानां कचिनिबेधात् ॥ निषिकानामपि
क्वचिद्विधानात् ॥ अतोनास्थामास्थाय सिद्धांतव्यवस्थया - केवलया किमपि कर्तुं परिहर्तुं वा पार्यते ॥
अर्थः-वळी सिद्धांतनो जे मार्ग तेनो अनादर ते लिंगधारी एम कहे जे जे जगवाननो जे सिद्धांत ने ते अनेकांत ले ते एकांतपणे करवा योग्य जे अनुष्टानक्रिया तेने विषे तत्पर नथी. एटले एकांतपणे आ क्रिया तो करवीज एम सिद्धांत कहेतुं नथी. ने निषिक जे अनुष्टान तेनो निषेध करवामां पण तत्पर नथी. एटले एकांतपणे था क्रिया तो नज करवी एम सिद्धांत कहेतुं नथी केम जे करवा योग्य केटलांक अनुष्टान तेनो परा कोइ जगाए निषेध देखाय डे ए हेतु माटे ने निषेध करेला पण केटलांक अनुष्टान तेनु कोइ जगाए करवापणुं ए हेतु माटे. केवल सिझांतमां कहेढुं ते उपर आस्था राखीने कां पण करवा योग्य तया परिहवा योग्य पार पामोए एम नयो.. .
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अथ श्री संघपहका
टीकाः ॥ एवंच ॥ नविकिंचि श्रेणुनायं पमिसिद्धं वा वि जिणवरिंदोहि ॥ इति वचनादागमबहिष्टापि काचित्सुकुमारा क्रियाऽद्यतनसाधुप्रवर्त्तिता विवे किनां निःश्रेयसाय नविध्यति किं श्रुतेनेति।यदुक्तं रूग्विणः कस्यतां यांति मृध्यापिक्रियया यथा ॥ कालेन धर्म क्रियया तथा मुक्तिं शरि-- रीण इति ॥ ए॥
अर्थः-ते नपर वली शास्त्र वचन ले जे जिनवरे कांइ पण श्राझा करेलुं नथी तेम निषेध्यं पण नथी ए प्रकारना वचनथी; आगमथी वेगली रही एवी पण कोश्क सुखे सुखे थाय एवी कियाने आ काळना साधुए प्रवर्तीवेली एवी पण क्रिया ते मोक्षणी थशे माटे शुं शास्त्रवते ने कांश पण नथी. जे माटे का ये जे थोमी क्रियाये करीने सेभीयानो रोग जाय त्यारे काजी क्रियानुं शुं प्रयोजन ! शास्त्रमा तेम सुखे सुखे अती जे या क्रिया तेणे करी देहधारी मुक्ति पामे जे. जेम घणा काल सुधी धर्मक्रिया करे तेणे करीने मुक्ति पामे ॥ ए॥
टीकाः-तथा गुणिषु ज्ञानादिगुणवत्सु यतिषु वेषधीर्मात्सर्यबुद्धिः॥ स्वयं निर्गुणानां तद्गुणानसहिष्णूनां तदुपजिघांसया दुष्टामतिरिति यावत् ॥ कथमियं तन्मते न धर्म इति चेषुच्यते ॥ इदानी हि नगवहिरहात्सम्यग् मार्गापरिज्ञानेन बहुलोकप्रवृत्तिरेव मोक्षमार्गः ॥ महाजनो येन गतः स पंथा। इति न्यायात् ॥
अर्थः-वनी ज्ञानादि गुणवान् जे यति तेमने विषे द्वेकबुद्धि
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अथ श्री संघपटक
( १०७
एटले मत्सर बुद्धि पोते निर्गुण बे ने गुणवानना गुण सहन नयी करता माटे तेमने मारवानी इछा राखे बे माटे दुष्ट बुद्धिवाला ले वेषधारी शंका कहे बे जे गुणी पुरुष उपर द्वेषबुद्धि राखवी तेने धर्म की प्रकारे लिंगधारी थापे ढे, तो कहीएबीए जे या कामां निश्चे भगवाननो विरह थयो छे माटे सारी रीते मोक्षमार्गनुं ज्ञान नयी यतुं ते हेतु माटे बहु लोकनी जे प्रवृत्ति तेहीज मोह मार्ग े केम जे जे मार्गे महाजन एटले घणा लोक चाले ते मार्ग एवो न्याय के माटे ॥
`दीका :- एते च परग्रहवा सिनो धार्मिकं मन्या आत्मानमेवैकं प्रदूषयंतो निखिलानप्यपरान् दूषयंत दंयुगीनं संघमप्य
विशे स्तत्प्रवृत्तिं दूरेण परिहरंतो लोकव्यवहारमप्यजानंतः पाकारंच. तः सर्वयैतत्तव्या इति द्वेष एवैतेषु श्रेया
नवति ॥ -
र्थः - वली ते लिंगधारी एम कहे बे जे या परघरमा रशने पोताने विषे धार्मिकपणुं माननाराने पोताना श्रात्मानेज एक गुणे करीने मोटो 'देखामताने वीजा सर्वेने पण दोष पमागता - ने या कालना संघने पग न मानताने या कालना संघनी प्रवृत्तिने पण बेटे परिहरताने लीक व्यवहारने पण न जाणता माटे ते संघ बाहार बेज. ए हेतु साटे सर्व प्रकारे उबेदवा योग्य बे. ए प्रकारनो जे द्वेष करवो तेज एमने विषे अतिशेश्रेष्ठ वे इत्यादि ॥ १० ॥
टीका :- गौतमादिषु वर्त्तित्वात्तादृशेषु यतिध्वनिः ॥ कथमेतेवर्चेत निर्गुणेष्वंसेषुचेत् ॥ १॥ कल्पदोषी रुहां यद्वगुणा योपिवर्त्तते ॥ निंबादिषु तरुध्वानो विनाविप्रतिपत्तितः ॥
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+8 अथ श्री संघपट्टकः --
अर्थ:--एवी रीते दश प्रकारनो धर्म प्ररूपण करनार ते नि
कालना वेषधारी तेने विषे मुनि शब्द केम प्रवर्त्ते बे ? केम जे मुनि शब्द तो गौतमादि महान् पुरुष तेने विषे प्रवर्त्तेलो माटे त्यां उत्तर कहे बे जे जेम लिंब आदि वृक्षने विषे कल्प वृक्षना गुण नथी, तो पण केवल रुढीथी तरु ए प्रकारनो शब्द प्रवर्चे . ते ते लिंगधारीने विषे मुनि शब्दनी प्रवृत्ति रुढीथी बे.
( १०८ )
टीका: - यथा जात्यरत्नानां गुणानावेपितादृशां ॥ च सांद्रां शुचिर्चिक्ये मणी शब्दः प्रवर्त्तते ॥ ३ ॥ गौत गुणायोगे - पीदानींतन साधुषु ॥ उद्यच्छत्सु स्वशक्यैवं तियति ध्वनिः ॥ ४ ॥ इति वास्तवकांत्यादि दश स्पर्द्धयेव यथाउंदैः प्रदर्शितो धर्मः श्रयं चेत्कर्महरो पूर्वव्याख्यातमिति वृत्तार्थः ॥ ५ ॥
अर्थ:--वली जेम जातिवंत रत्नना गुण न होय, ता काचना ककमानो घणा किरणनो चकचकाट बे तेने विषे मणी शब्द प्रवर्त्ते बे. तेम ते लिंगधारीने विषे मुनि शब्द प्रवर्ते बे ॥ गौतमादि मुनिने विषे रह्या जे गुण ते गुण या कालना साधुने विषे नथी तो पण पोतानी शक्तिये उद्यम करनारने विषे यति शब्द प्रवर्त्तशे ॥ ४ ॥ ए प्रकारे साचो जे कमाच्यादि दश प्रकारनो यति धर्म तेनी स्पर्द्धाये जाणे शुं लिंगधारी ए देखायो जे धर्म श्रा जो कर्मने हरे तो मेरु समुद्रमां तरे इत्यादि पूर्वे व्याख्यान कर्यु बे ए प्रकारे पांचमा काव्यनो अर्थ थयो । ५ ॥
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19. अथ श्री संघपट्टका - (१०) . टीका:-सांप्रतमेतानि दशहाराणि यथाक्रमं प्रत्याचिख्यासुः प्रथमं तावज्जीवोपमईनाद्यनेकदोषाविर्तावपुरस्सरं ।' उद्देशिकनोजनहारं प्रत्याख्यातुमाह ॥
अर्थः-हवे ए दश झारने अनुक्रमे खंमन करता ग्रंथकार प्रथम जीवनो नाश ए आदि अनेक दोषने प्रकट करी देखामवा पूर्वक औद्देशिक नोजनहारनुं खंमन कहे .
मूलकाव्यं. टुकायानुपमृद्य नियमृषी नाधाय यत्साधितं शिषु प्रतिषिध्यते यदसकृन्नि स्त्रिंशताधायि यत् ॥
युपमं यदाहु रथयजुत्का यतिर्यात्यधः नाम जिघित्सती (जिघुदतीत्यपिपागंतरं) द
। सघृणः संघादि नक्तिं विदन् ॥६॥ टीकाः कः सघृणो दयावुः विदन् संघादिनिमित्तमेतन्निष्पअमितिजानन् हति प्रवचने जिघित्सति अत्तमिच्छति ॥ अदेः सनंतस्य घसादेशेरुपं किं तत् संघः साधुसाध्वीरुपः श्रमणगणः श्रादिशब्दादेकहिआदि श्रमणपरिग्रहः तस्य नक्तं तत्कृते निवृत्तमर्शनादिनामेति कुत्सायां अतीवकुत्सितमेतद्नक्तं मुनीनां ॥ जानतो मुनेः कृपालोरेवं विधं नक्तं नोक्तुं न कटपत इत्यर्थः॥
अर्थ:-कोण दयालु पुरुष श्रा, संघादिनिमित्ते निपजाव्युंडे एम जाणतो श्रा जिन शासनने विषेनोजन करवा इच्छे अर्थात् कोर न इच्ने श्रा जगाए व्याकरणः-जे सन् प्रत्ययांत जे अद् अक्षणे
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..-49. अथ श्री संघपट्टका
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धातु तेनो घसादेश थये सते जिघित्सति एबुंरुप थयुं ॥संघाति॥ साधुसाधवीरुप श्रमणनो समूह बे॥ आदि शब्दथी एक बे त्रण श्रादि साधुनुं ग्रहण करवू तेथी या प्रकारे अर्थ थयो जे एक साधुने निमित्ते नीपजाव्यु नोजनादि बे साधुने निमित्ते निपजाव्यु जोजनादि त्रण साधु० इत्या दिया जगाये नाम शब्दनो निंदितरुपी अर्थ जाणवो. तेथी आम अर्थ थयो जे आनोजन साधु निमित्त नीपजाव्यु डेएम जाणीने पण तेनुं ग्रहण करवू ते अति निंदित , ए प्रकारलोजन कृपालु मुनिने लोगवq न कल्पे एटलो अर्थ थयो.
टीकाः-अत्रच विदनितिग्रहणाच्बूतोपयोगेन बाह्यलिंगपरिकापुरःसरं यतमानस्य यतेः कदाचिदाधाकर्मग्रहणेऽपि सम्य नवगमात्तगंजानस्यापि न दोषः ॥ यथोक्तं ॥ थोवंति न। कहियं व गूढेहि नायरो वकओ ॥ श्यबलियो विन लग वउत्तो असढ नावो ॥ ___ अर्थः-श्रा जगाये विदन् ए प्रकारना शब्दनुं गृहण का माटे शास्त्रना उपयोगे करीने बाहारना चिन्हथी/परीक्षापूर्वक यतनायेथी ग्रहण करता एवा साधुने क्यारेक आवाकर्मि आहारग्रहण थाय तो पण सम्यक् न जाणवाथी तेनुं पण लोजन करे ले तो पण दोष नथी । ते शास्त्रमा कयु डे जे
टीकाः-अवैतस्मिन् को दोषो येनैतदेवं कुत्सितमत आह यत्साधितं तच्छब्दस्य यच्छब्देन नित्याशिसंबंधानतश्च यद् नक्तं साधितं निष्यादितं गृहस्थेनेतिशेषः ॥ किं कृत्वा आधायनदित्स्यकान् ऋषीन् यती यतिन्यो 'मयैतद्देयमिति म... नसिकरवेत्यर्थः ।
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अथ श्री संघपट्टकः
(८१११०
अर्थः- आशंका करी कहे बे जे ए जोजनमां शो दोष दे जे हेतु माटे एने या निंदित कहो वो तो त्यां कहे बे जे सत्शबदने यत् शब्द साथे नित्ये संबंध बे माटे जे जोजन सिद्ध कयुं बे
raaja (गृहस्थपद उपरथी लेवुं ) तो अर्थ आम थयो जे, गृहस्थ जे तेणे साधुने उद्देशिने निपजाव्युं जे या जोजन मारे साधुने आप एम मनमां धारीने कर्यु एटलो अर्थ बे.
टीका:-थ निरवद्यवृत्या यतिनिमित्तं साधितेप्यस्मिन् कोदोष इत्यत श्राह ॥ उपमृद्य विध्वस्य कान् पटकायान् षट् विधजीवनिकायान् कथं उपमृद्येत्याह । निर्दयमिति क्रिया विशेषणं निरनुकंपं यथा भवति ॥ श्रयमर्थ एतावत्किल वन्दि पाकारंनो न सानुकंपस्य नापि षट्जीव निकायोपमर्दनमंतरेण संजवति ॥ एवं च निरवद्यवृत्या न नक्तसाधनं कथमपि संगवले ॥
अर्थः- आशंका करी कहे वे जे पापरहित क्रियाए करीने यति निमित्त भोजन सिद्ध करे तेमां शो दोष बे तो त्यां कड़े ने जे जीवनकायनुं उपमर्दन करीने' कीय प्रकारे ? तो निर्दयपणे, वि. पद a ते उपमर्दनरूप क्रियानुं विशेषण बे एटले आम अर्थ निर्दय जीव निकायनुं मर्दन करी ए जोजन साधु निमित्ते नी पजान्युं ते निपाकनो प्रारंभ ते दयाळुने न होय ने षटू जीव निकायना मर्दन विना ते पाक पण संजवे नहीं माटे पापरहित क्रियाये करीने पाक साधन कोइ प्रकारे पण याय नहीं.
टीका: यदर्थं चैतावानारंभस्तस्य तान्यस कल पापानुषं. गात्त्रतजंगप्रसंगः ॥ यदाह ॥ जस्सहा आहारो धारंशो
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(१११) .. अथ श्री संघटकः - स्त होइ नियमेण ॥श्रारंजे पाणी वहो पाणी वहेहोश्वयनंगो॥ श्रतःकथमस्य जक्तस्य न कुत्सितत्वं ॥
अर्थ:-जेने अर्थे आटलो बधो आरंन ने तेने ते अर्थ थारंथी उत्पन्न थयु जे सकल पाप तेनो संबंध थवाथी व्रत नंगनो प्रसंग थशे. जे माटे शास्त्रमा का जे जेने अर्थे आहारनो श्रारंल ले तेनेज नियमाए पाप ने केम जे आरंजने विषे प्राणीनो वध होय ने प्राणी वध थयो एटले व्रतनो जंग थयो माटे एनोजननिंदितपणुं केम न होय अपितु होयज ॥
टीका:-एतेन वस्तुत आधाकर्मपर्यायता संघादिनक्तस्य सूचिता ॥ आहाय वियप्पेणं जश्ण कम्ममसणाइ करणंज० ॥ बकायारंजेणं तं श्राहाकम्माइंसु ॥ इत्यागमे श्राधाकर्मशब्द स्यैवं व्युत्पादनात् __ अर्थः-एणे करीने वस्तुताये श्राधाकर्मर्नु पर्यायपणुं संघादि जोजनने ने एम सूचना करी ॥ केम जे तेनुं लक्षण शास्त्रमा कछु डे जे जेने मनमां धारीने उ कायनो आरंन करवो तेने श्राधाकर्म कहे , इत्यादि श्रागमने विषे आधाकर्म शब्दनी ए प्रकारे व्यु. त्पत्ति करी ने ए हेतु माटे .. टीका:-ननु नवत्वेतद्यथार्थसाधितं तथापि सिहांतानि...
षेधानऽष्यतीति अताह॥ शास्त्रेषु ग्रंथेषु निशीथादिषु प्रतिविध्यते यतिन्नोज्यतया निवार्यते यदनक्तं ॥ कथं असकृदत्यंत पुष्टता ख्यापनाय मुहुर्मुहुः ॥ तथाच आहारोपधिवसत्याधाकर्म विचारावसरे निशीथेऽभिहितं ॥
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अथ श्री संघक: -
टीकाः-अत थाह ॥ निश्रृंशतां निःशूकतां निर्दयत्व मिति यावत् आधत्ते करोति यत् तदाधायि निःशूकताकारकं यदनक्तं अयं नावः॥ स्वयमकृताद्यप्याधाकर्म जानन् गृह्णानो मुनिर्भक्ति मगृहिणः प्रसंगात्संजा इत्यंतरध्रुनिःशूकत्वेन सञ्चित्तमपि न जह्यात् अतः कथं न दोषः । __ अर्थ:-ए प्रकार- लिंगधारीनुं वचन तेना उत्तर रुप विशेषण कहे २ ॥ जे ए नोजन निर्दयपणाने करे आ लव जे जे पोते कयु नथी ने कराव्युं नथी ने अनुमोयुं नथी. तो पण आधाकर्मने जाणीने गृहण करतो जे मुनि ते जक्तिवंत एंवा गृहस्थनो प्रसंग थवाथी अतिशे गृधिल [रसास्वादवाळो] थश्ने सवितनो पण त्याग नहीं करे माटे क्यम दोष नथी ? दोष रुपज ॥ - टीकाः-॥ तमुक्तं ॥ सञ्चं तह विमुरांतो गिएहंतो वढश्प. संग से ॥ निद्धंधसो अगिो न मुअश् सजिअंपि सो पछा।
अर्थः ते शास्त्रमा कां ले जे श्राधाकर्मी जाणे डे ने गृहण करे ले तो गृहस्थनो प्रसंग वधारतो ने निर्दय रस लोनी ते थइने पली. सचिनने पण नही मूके ॥
टीका:--अत एवात्यंतमेतजिहापयिषया गणधरा आनुरू। प्पेणैतनोचराएयुपमानानि दर्शयामासुः ॥ तथा चाह ॥ गोमां सादीति ॥ गोःसुरासं विसितं ॥ आदिशब्दाहांतोच्चारसु. 'राग्रहः तैरुपमा सादृश्यं यस्यतत्तथा यद्नक्तमाहुर्बुवते गणधराः स्वप्रणितागमेषु ॥ ____ अर्थः-एज कारण माटे गणधर महाराजाए औदेशिक जो
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( ११४ )
अथ श्री संघपट्टकः
जननी अत्यंत त्याग कराववानी इष्ठाए ते औौदेशिक जोजनने घटे तेवी तेनी उपमा देखामी बे ते उपमा विशेषणे करी ने कही देखाने बेजे, गायनुं जे मांस ते सरखं ए भोजन बे आदि शब्दथी वांति तथा विष्ठा तथा मदिरा तेनी संघाथे वे सदृशपशुं जेनुं एटले ते वस्तुना जेवुं ए जोजन पोताना ग्रंथाने विषे कयुं बे.
टीकाः - यथा हि गोमांसनणं लोके धर्मविरुद्धत्वेन महापापहेतुत्वादत्यंतनिंदितत्वाच्च विवेकिनां सर्वथा हेयं । तथा श्रा धाकमपि ॥ एवं वांतादिष्वपि यथासंभवं योज्यं ॥ यथोतं ॥ तुच्चारसुरागो मंससममिमंति तेष तज्जुत्तं ॥ पतंपि कयति कप्पं कप्पड़ पुव्वंक रिसघमं ॥
अर्थ:- कही देखा बे. जे गोमांसनुं जण लोकने विषे धर्म विरुद्ध पणे महा पापनुं कारण बे ए हेतु माटे अने अति निंदित बे ए हेतु माटे विवेकी पुरुषने सर्वथा त्याग करवा योग्य बे. तेम आधाकर्म जोजन पण त्याग करवा योग्य ठे. ए प्रकारे बांति
दिनी उपमा पण जेम घटे तेम जोगवी. ते उपर शास्त्रनुं वचन जे वांति तथा विष्टा तथा सुरा तथा गोमांस ते सरखं श्रधाकर्म नोजन बे.
टीका:- अथ प्रकारणांतरेणाधाकर्म शब्दार्थ व्युत्पादयन् जोत्पादनेनास्यावश्य देयतां दर्शयति ॥ यथेति प्रकारे यद्भक्तं नुक्त्वाऽशित्वा यतिर्मुनिर्याति गच्छति अधोऽधस्तात्संयमादिति इष्टव्यं ॥ अथवाऽधोगतिं नरकं ॥ एतेनाधाकर्म शब्दस्यार्थ इयं व्युत्पादयता प्रकरणकारेणाऽपरमप्यर्थद्वयं सूचितं ॥
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6. अथ श्री संघपट्टका - (११५) अर्थः-हवे बीजे प्रकारे श्राधाकर्म शब्दनो अर्थप्रगट करतां जयने उत्पन्न करवं तेणे करीने ए आधाकर्म जोजन अवश्य त्याग करवा योग्य जे एम देखामे . यथा शब्दनो प्रकार एटलो अर्थ करवो, एटले जे प्रकारे जे जोजनने जमीने मुनि संयमथी हेग्ल थाय २ (ज्रष्ट थाय ) श्रथवा अधोगति (नरकने) पामे डे एणे करीने श्राधाकर्म शब्दना बे अर्थ प्रगट करता जे प्रकरणना कर्ता तेणे बीजा पण बे अर्थ सूचना कर्या . ... टीका-यथात्मन्नमिति ॥ श्रात्मकर्मेतिच॥ तत्रात्मानं चारित्रात्मानं हंति श्रात्मघ्नं ॥ श्राधाकर्मनोजिनो हि तावत्पाकारंजानुमत्यादिनिश्चारित्रात्मा हन्यते॥ तथा श्रात्मनि कर्मश्रात्म कर्म श्राधाकर्म । परिणतो हियति रेषणीयमपि गुह्णन् गृहिणा स्वार्थं पाकारंजादि यत्कर्म निर्तितं तदहोमत्कृते शोजनमिदमन्नं निष्पन्न मिति परितोषादात्मनि निवेशयति तेन च बध्यत इतिजवत्यात्मकर्म ॥
अर्थः-ते कहे जे जे एक तो श्रात्मन ने बीजो श्रात्मकर्म, तेमां चारित्र रुपी श्रात्माने हणे माटे श्रात्मन्न कहीए. केम जे श्राधाकर्म नोजिनो चारित्र रुपी श्रात्मा ते पाकना श्रारंजनी अनुमोदना करवी इत्यादिकवमे हणाय . वली श्रात्माने विषे जे कर्म ते श्रात्मकर्म कहीए. केमजे श्राधाकर्म ग्रहण करवा तत्पर थयो जे यति ते एषणीय जोजन- ग्रहण करतो सतो पण गृहस्थे पोताने श्रर्थे पाकादि जे काश् आरंन कर्म नीपजाव्युं तेने एम माने ले जे अहो आ गृहस्थे मारे अर्थे ा सारं अन्न नीपजाव्यु ले एम मानीने घणा संतोषथी (आनंदथी) पोताना श्रात्माने विषे तेनो
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(११६)
9. अथ श्री संघपहकः
अनिनिवेश करे ले तेणे करीने एबंधाय ने माटे ए श्रात्मकर्म कहीए.
टीकाः यमुक्तं ॥ अहवा जंतग्गाहिं, कुणश् अहे संजमाउ. नेए वा ॥ हणश्व चरणायं से अहकम्म तमाय हम्मंवा ॥ श्राहाकम्मपरिणजे, फासुअमवि संकिलिष्परिणाम ॥ श्राययमाणो. बजार तं जाणसु अत्तकम्मंतु ॥
अर्थः-श्रा बे गाथानो नावार्थ उपर श्रावी गयो बे.
टीकाः-एवं विधाधाकर्मशब्दस्य चतुर्दा व्युत्पतिरार्षस्वात् ॥अत्रच वृत्ते एक वाक्यस्थेनैव यचब्देन शकलवाक्यार्थे दीपिते यत्प्रतिपदं यचब्दोपादानं तत्संघादिलक्तस्यात्यंतपरिदरणीयताख्यापनार्थं ॥ एतेन यतीनामाधाकर्मन्नोजनसमर्थनाय यत्परैरज्यधायि पूर्व ह्यधरितः धनाधिपत्यादि श्रमणसंघनिमित्त निर्वृतनक्तादिनापि धर्माधारं शरीरंधारयेत्तदा को दोष इत्यंत तदीप प्रतिक्षिप्तं मंतव्यम्
अर्थः-ए प्रकारे श्राधाकर्म शब्दनी चार प्रकारे व्युत्पति करी जे एक तो आधायकर्म, बीजी अधःकर्म, त्रीजी श्रात्मन्न ने चोथी श्रात्मकर्म; तेतो ऋषि वचनथी प्रमाणरुप डे. श्रा काव्यने विषे एक वाक्यमा रहेलो जे यत् शब्द तेणे सकल वाक्यनो अर्थ प्रगट कयों ने जे पदेपदे यत् शब्दनुं ग्रहण कर, ते तो संघादि लोजन- अत्यंत परिहरवापणुं जणाववाने अर्थे जे. एणे करीने यसिने श्राधाकर्म नोजन करवाने अर्थे लिंगधारीए प्रतिपादन कयुं हतुं जे पूर्वे मोटा गृहस्थ हता, इत्यादि आरंनीने श्रमण संघ निमित्त नीपजाव्यु जे नोजनादि तेणे करीने धर्मनुं आधारभूत शरीर धारण
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अथ श्री संघपटक
NWAR
करवामां शो दोष दे त्यां सुधी ते सर्व खंडन कर्युः
टीका:-तथाहि ॥ यदिदानींतनकालापेक्षया यतीनामाधा कर्मजोजन मिष्यते नवन्निस्तत्किं यावज्जीवतया श्राहो स्विकादाचित्कतया ॥यद्याद्यः कल्पः सोऽनुचितः॥ श्राधाकर्मनोजनस्य यावजीवतयाशास्त्रेऽननिधानात् ॥ . अर्थः-लिंगधारी प्रत्ये सुविहित पुढे जे तुं आ कासनी अपेक्षाये यतिने आधाकर्म नोजन श्च्छे बे,ते तुं जावज्जीव आधाकर्म नोजन कर, एम कहे जे के क्यारेक करवू एम कहुं हुं॥ जो श्रादि पर जे जावज्जीव करवं ते श्च्छतो हुँ तो ते अघटीत . केम जे
आधाकर्म नोजननुं जावज्जीव करवापणुं शास्त्रमा कोश्जगाए कयु नथी; ए हेतु माटे.
टीकाः-तस्यापवादेनैव तत्र प्रतिपादनात् ॥ तस्यच कादाचित्कत्वात् ॥ पुष्टालंबनेन कदाचिदित्यकृत्यवस्तु सेवन पवादः न चासौ सार्वदिकः ॥ तत्त्वे नत्सर्गत्वापत्तेः॥
अर्थः ते श्राधाकर्म जोजनशास्त्रने विषे श्रपवादे करीनेज प्रतिपादन कयु ए हेतु माटे, ने ते अपवादन पण क्यारेक आचरवापणुं ने ए हेतु माटे, केम जे अपवाद-लक्षण ए जेधुष्ट श्रालंबने करीने क्यारेक न सेववा योग्य एवी वस्तु, जे सेवन तेने अपवाद कहीए.ने ए अपवाद सर्व जगाए लेवातो नथी.ने जोसर्व जगाए अपवाद लेवातो होय तो एने 'उत्सर्गगुणानी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे ॥
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( ११८ )
7 अथ श्री संघपटकः 8
टीकाः - यथोक्तं ॥ सामान्न विही जणीओ, नस्सग्गो तव्विसेसि इयरो ॥ ॥ पाणिवहाइ निवत्ती तिविद्धं तिविद्वेष जाजी - वं ॥ पुढवाइस सेवा, नष्पन्ने, कारणं मि जयणाए ॥ मिगर हियस्स हियस्सव, श्रववाओ होइ नायव्वो.
अर्थ :- सामान्य विधि ते उत्सर्ग बे, अने विशेष विधि ते अपवाद बे, त्यां यावज्जीव त्रिविधे प्राणिवध न करवो ए उत्सर्गवे अने कारण उपजतां यतनाथी पृथ्व्यादिकनी आसेवना निदंजी पुरुष करे तो ते अपवाद बे.
टीका: -- श्रत एव युगप्रधानैरनेका तिशय निधानैरपि श्री वैरस्वामी पादै महादुर्निदेण हेतुना विद्यापिंगमुपभुज्या पि तस्य चाधाकर्म भोजनन्यून दोषस्यापि | पिंक असो तो प्रचरिती इत्यसंस नत्थि । चारितंमि असने सव्वा दिरका निरत्थिया || इति वचनादू दुष्टतां पर्यालोचयद् निस्तीर्थाव्यवचित्तये शिष्यमेकमन्यत्र प्रेष्य सपरिवारैः प्रवचन विधिनाऽनशनं प्रतिपेदे ॥
अर्थः- एज कारण माटे युगप्रधान एवा ने अनेक अतिश यनाजंकार एवा श्री वैरस्वामीए ज्यारे महा दुकाली पमी त्यारे शुद्ध जोजननी प्राप्ति न थइ ए हेतु माटे श्रधाकर्म भोजनथी न्यून दोष युक्त एवो विद्यापिंक तेनुं जोजन कर्यु; तोपण शास्त्रमां कडुंबे जे, अशनादिक आहार प्रत्ये अणशोधतो चारित्री कहीए मां संदाय नथी, चारित्रने अजावे सर्व दिवा निरर्थक ले. ए वचनथी ते नोजनना दुष्टपणानी आलोचना करता वैरस्वामी
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* अथ श्री संघपट्टकः
( ११९ )
जे ते तेनुं दुष्टपणं वीचारीन तीर्थनो नच्छेद न थाय माटे एक शिष्यने बीजी जग्याए मोकलीने परिवार सहीत शास्त्र विधिये करीने अनशननो अंगिकार करता हवा.
टीका:-यदिही दानी माधाकर्मजोजनं यतीनां यावज्जीव तया विधेयंस्यात्तदा कथं तादृशाः प्रवचनधुरंधरा विद्यापिंग दोष जिया तादृशं महासाहसं कुर्व्वीरन् ॥ तस्य ततो न्यूनदोषत्वात् ॥ कालस्य च तदानीमपि दुषमात्वात्.
अर्थ :- जो यतिने आधाकर्म भोजन जावज्जीव करवा योग्य होत तो तेवा महान पुरुष प्रवचनना धुरंधर ते विद्यापिंगना दोषजये करीने ते प्रकारनं एटले अनशनरुपी मोटु साहस कर्म करे !!! नज करे. केम जे ते विद्यापिंगनो धाकर्मि जोजनथी न्यून दोष बे ए देतु माटे. ने ते वखत काल पण दुखमा हतो ए हेतु माटेटीका:-न च का शक्तिरस्माकं मंदसत्वानां तच्चरितमनुविधातुं न हि गजानामुदर्यं ते यो वटकाष्टम शितं पचतीत्यस्माकमप्यु. दर्येण तेजसा तथा जाव्यमितिवक्तव्यं ॥ यतो न हि तच्चरितकीर्त्तनेन वयं तच्चरितमनुविधापयितुं जवद्भिर्व्यवसिताः किंतु कालानुसारेणाऽद्यापि तादृशेषु दानकुलेषु सत्सु प्रासुकैषणीयेनापि प्रायेण वृत्तौ संभवत्यां किमित्याग्रहेण संवादिकमेवादी. यते वङ्गिः ॥
अर्थ:-एवी रीते सुविहितनां वचन सांजळीने लिंगधारी बोल्या जे मंद सत्ववाळा एटले निर्बळ ते अमारी एवी शक्ति क्यांथी होय जे महंत पुरुषना आचरणने अनुसरीए, केम जे हाथी नो
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१२० )
- अथ श्री संघपट्टकः
जठराग्नि बे ते जण करेलां वमनां लाककां पण पचाने वे पण हमारी जठराग्नि एवो नथी एटले जे ते मोटा पुरुषतो थोको दोष लाग्यो तेने पण न सहन करीने अनशन करी गया पण अमाराथी तो कां एवं या नहीं. त्यारे सुविहित बोल्या. जे जो एम तमो कहता हो ते न कदेवं जे ए हेतु माटे ते मोटा पुरुषनुं चरित्र कहि देखायुं तेथे करीने कांइ तेमनी पेठे तमारी पासे मारे कराव एवो व्यवसाय नथी एटले अभिप्राय नथी. त्यारे शुं ? तो कालने अनुसार आज पण तेवां देनारनां कुल सते पण प्रासुकने एषणीय एटले निर्दोष एवा जोजने करीने पण निर्वाह बते शा वास्ते संघा दि निमित जोजननेज हे करीने तमो ग्रहण करोबो.
टीका:--दृश्यं चाद्या पिके चिन्महात्मानः शुद्धेन नक्तेन संयपानात्मानं यापर्यंतः ॥ श्रथ शुद्धेनाल्पी यसामेवेदानीं शरीर यापनात धाकर्माच्युपगमः ॥ तर्हि तावंत एव दीक्ष्यतां किंनूयिष्टैः। तावद् निरेवतीर्थाव्यवच्छेद सिद्धेः ॥ बहु मुंमा दिवचनस्य जवतामपि प्रसिद्धेः ॥ तदवस्यामो नूनं संघनताग्रदोऽधुनातनयतीनामतिगृधुता निबंधनो न धर्म शरीरधारणाहेतुक इति नाथः
पक्षः ॥
अर्थ :- कालमा पण केटलाक महात्मा पुरुष देखाय बे जे शुद्ध भोजन करने संयम पासवाने अर्थे श्रात्मानो निर्वाह करे नेवळी जो एम कहता हो जे शुद्ध नोजने करीने थोमानो निवह काळमां था माटे प्राधाकर्मनो अंगिकार करीए बीए, तो त्यां कहीए बीए जे, “ तमो जेटलानो शुद्ध नोजने करीने निर्वाह थाप तेटलांनेज दीका आपो घणाने शुं करवा आपो गे तेलावते
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- अथ श्री संघ पट्टकः 8
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जतीर्थनो नच्छेद नहीं थाय केम जे श्रमण अल्प ने बहु मुंगां ए वचननी तमारामां पण प्रसिद्धि ने एटले तमो पण एने प्रमाण करो बोते हेतु माटे. या काळना यतियो संघादि जोजननुं जे ग्रहण करे बे. तेनुं कारण एज बे एम श्रमो निश्चय करीए बीए जे ते प्रतिशे रसलोनी थया बे. तेथी आधाकर्मी जोजन कर बे. पण धर्मशरीरनुं धारण कर ए कांइ कारण नथी, ए प्रकारे जावज्जीव आधाकर्मी जोजन करवारुप तमारो प्रथम पक्ष तेनुं खंकन थयुं.
टीका:-- अथ द्वितीयः तदेवमेतत् ग्लानाद्यवस्थायां डुर्जि - कादिषु शुद्धेना निर्वाहे चाधाकर्मग्रहणस्याप्यागमे प्रतिपादनात् ॥ शुद्धेन निर्वातु तस्य कादाचित्कतयापि ग्रहणे दातृगृहीत्रो रहिलत्वेना निधानात् ॥ यदाह || संथरणंमि सुद्धं, हुन्छ वि गित दितया हियं ॥ श्रनर दिहतेणं, तंचेव हियं असंथरणे.
अर्थ:-हवे बीजो पक्ष जे क्यारेक ग्रहण करवा रुपी कल्प ते पण आ प्रकारे जे ग्लानादि अवस्थामां, डुकाल पने इत्यादि कारणे शुद्ध जोजनवते निर्वाह न थाय त्यारे आधाकर्म ग्रहण करवानुं आगममां प्रतिपादन कर्यु बे ने शुद्धवते निर्वाह याय त्यारे तो तेनुं ग्रहण करनार तथा देनार ए बेनुं प्रहित थाय एम शास्त्र - मां क बे. ते वचननो अर्थ जे.
टीका: - यदप्युक्त "मात्माच यतिना यथाकथंचन रक्षणीय" इत्यादि ॥ तदप्यनालोचितानिधानात् ॥ नह्येतत्सूत्रं देहस्य धर्मसाधनत्वेन यतीनां यावजीव माधाकर्मसेवनपरं, किंतु तथा विधालंबनसद्भावे कदाचिदाधाकर्मा दिसेवनेनापि पुनः सं
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9. अथ श्री संघपट्टका
यमकरणायात्मा रक्षणीय इत्येतत्परं प्रायश्चित्तविधानेन तजन्य पापनाशनस्य पुणो विसोहीति वचनेन प्रतिपादनात् ॥
अर्थः-वळी जे तमे एम कयु जे यतिये जेतेप्रकारे पोताना आत्मानी रक्षा करवी इत्यादि, ते पण विचार विनायूँ कहेवू डे पण विचारथी नथी. केम जे ए सूत्र कांइ एम कहेवाने तत्पर नथी जे देह धर्म साधन डे माटे साधुने जावजीव श्राधाकर्म सेवन कर. त्यारे शुं ? तो ते प्रकारचें एटले कोइ मोढे आलंबन उत्पन्न थये सते क्यारेक आधाकर्मी आदि सेवन करीने पण फरीथी संयम करवाने अर्थे श्रआत्मा राखवो ए प्रकारना अर्थने कहेवाने तत्पर ने केम जे प्रायश्चित्तना विधिये करीने ते आधाकर्म थकी थयु जे पाप तेने नाश करवाने पुणोविसाही इत्यादि वचने करीने शास्त्रमा प्र. तिपादन कर्यु डे. . टीका:-यावजीवं तदासेवने तु शुद्धे रखसराजावेन पुणोविसोहीति वचनस्याऽचरितार्थत्वप्रसंगादिति ॥ एतेन यत्यर्थं घृतादिनिश्राविधानमपि प्रत्युक्तं ॥ तस्याधाकर्मस्थापनाकीतादि दोषकलापकलितत्वेना नेकजंतुविध्वंसहेतुत्वेन च लगवनि निवारणात्, इतरथा सत्रागारादीनामपि तत्कल्पत्वेन जैनधर्मे विधेयत्वप्रसंगात् ॥
अर्थः-ने जो जावजीव आधाकर्मी नोजनहुँ सेवन होत तो शु जोजननो अवसर न आवत तेणे करीने “ पुणोविसोही ” ए वचननु व्यर्थपणुं थवानो प्रसंग थात ए हेतु माटे एनुं खंगन कर्यु तेणे करीने साधुने अर्थे घी आदि वस्तुनी निश्रानुं जे करवू तेनु
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- अथ श्री संघपट्टकः
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पण खंकन थयुं केम जे तेने श्रधाकर्म स्थापना वेचाथी लाववुं 5त्यादि दोषना समूहे करीने सहीतपणुं बे ए हेतु माटे ने अनेक जंतुना नाशनुं कारण बे, माटे जगवान तीर्थंकरे घृतादि निश्रा निवारण करी बे, जो एम न होत एटले निश्रानुं निवारण न कर्यु होत तो जैनधर्मने विषे साधुने सदावर्त्त आदिकनुं जोजनादि लेवानो एटले कल्पपणे करवानो प्रसंग होत पण तेतो नयी ए हेतु माटे निश्वा न कल्पे ॥
टीका:-नच सत्रागारादीनामसंयतजनपोषकत्वेन पापहेतु त्वादविधेयत्वं घृतादिनिश्राणां तु संयतोपष्टंनक्त्वेन पुण्यनिबंधनत्वा द्विधेयत्वं भविष्यतीत वाच्यम् ॥
अर्थ :- लिंगधारी बोले बे जे सदावर्त्त श्रादिकनुं जोजनादि जे साधुने न कल्पे तेनुं कारण तो ए वे जे सदावर्त्त तो संजति एवा लोकनुं पोषण करे बे. ए हेतु माटे पापनुं कार कि बे, माटे ए साधुने लेवा योग्य नथी, पण घीयादिकनी निश्रातो संज: तिने उपष्टंन करनार बे एटले टेको देनार पुष्ट करनार बे एवी बे तेणे करीने पुण्य बांधवानुं कारण बे ए हेतु माटे करवा योग्य थशे त्यारे सुविहित बोल्या जे एम तमारे न बोलवु
टीका:- निश्रादिषु घृतादिप्राहिणां यतीनामपि गाद्धर्यादिना सिद्धांत निषिद्धकारित्वेना संयतत्वानिधानात् ॥ तथा चोयोरप्यनयोः समानदोषत्वेन जैनमते निषेधात् ॥ घृतादिसंग्रहस्यच श्रावकाणामपि रसवाणिज्यत्वेनागमे निषेधादतः कथं यत्यर्थं तत्संग्रहः क्रियमाणः शोत्रेत ॥
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(१२४)
8. अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-निश्रादिकने विषे घृतादि ग्रहण करनार यतिने पण रसलोनिपणुं थवादिक दोष ने तेणे करीने सिद्धांतमा निषेध कर्यु डे तेनो करनार ए थयो माटे असंजतिपणुं प्राप्त थयुं माटे ए बेनो सरखो दोष थयो एटले सदावर्त्तनुं लेवूने निश्रा करेलु से, ए बे असंजतिने माटे ए बेनुं जैनमतने विषे साधुने लेवानो निषेध ए हेतु माटे, ने श्रावकने पण घृतादि संग्रहनो ने तेनो वेपार करवानो आगममा निषेध डे माटे यतिने अर्थे घृतादिनो संग्रह करवो ते केम शोने.
टीकाः-इदानी गृहिगृहेष्वलानेन घृतादिनिश्रां विनायतीनां शरीरधरणस्याप्यालंबनमात्रत्वात् ॥ श्रमानुगृहेष्वधुनापि यथेछ शुद्धघृतादिप्राप्तेः॥पुर्निवाद्यपेक्षयातु कदाचिदलानेप्यूनोदर तायास्तपस्त्वेनोपकारित्वातू॥यदुक्तालन्यते लन्यते साधु, साधु चैव न लभ्यते अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणातदहो मूढा आलंबनानासेनाद्यूनतामेव पुरस्कुर्वाणाः सर्वथायतिक्रिया मुत्सृजंतोनसांते ॥
अर्थः-वळी या काळमां गृहस्थना घरने विष घृतादिन मळे माटे घृतादि निश्रा विना यतिने शरीर-धारण थश् शकतुं नथी एम जे कहो बो ते पण आलंबन मात्र ने एटले श्रोटु देखामवानुं डे कहेवा मात्र केम जे श्रधातु गृहस्थना घरमा श्राज पण पोतानी श्वा प्रमाणे शुद्ध घृतादिकनी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे, उकालादिकनी अपेक्षाये तो क्यारेक न्यून लान थये बते उणोदरपणाने पण तपपणुं ने ए हेतु माटे उपकारी हे ते शास्त्रमा कथु ने
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8. अथ श्री संघपट्टका
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जे को वखत सारु मले कोइ वखत सारं न मले को वखत मुद्दल पण नमळे त्यारे साधु पुरुष तो नमळे त्यारे तपनी वृद्धि थाय ने मळे त्यारे देहनुं धारण थाय जे एम माने ते कारण माटे अहो मूढ पुरुष तो बालंबनना थानास मात्रे करीने केवल पोतानुं खौकमपणुं श्रागळ करी देखामता सर्व प्रकारे साधुनी क्रियानो त्याग करे ने पण खजाता नथी एटले ए पेटन्नरा एम लाज पामता नथी जे था वेष धारण करीने आते शुं करीए बीए ए मोटुं आश्चर्य .
टीकाः-यदाह॥संघयणकालबलदूसमरूवालंबणाईघेत्तूर्ण। सबंचिय नियमधुरं, निरुज्जमाओ पमुंचंति.
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं जे के केटलाक निरुद्यमी पुरुष संघयण तथा कालबल तथा दूषमारो ते रुप आलंबन गृहण करी सर्व पोताना नियमरुपी धुराने निश्चे मुकी दे.
टीका:-यदपि श्राश्रमावृद्धयेशुभग्रहणमप्यदुष्ट मित्याद्यवाचि, तदपि विस्मृतजिनवचनस्य नवतोऽनिधानं॥शुक पिंमस्यदातृगृहीत्रोरहितत्वेन प्रागेव प्रतिपादनात्। तथाश्रमाबधुरस्यापि त्नरतपतेःशकटपंचशत्युपनीतस्निग्धमधुरस्वाकुनदयै यतिदानंप्रति जगवतायुगादिदेवन प्रतिषेधात् ॥
अर्थः चळी सुविहित लिंगधारी प्रत्ये कहे जे तमे का जे जे श्रावकनी श्रद्धा वधवाने अर्थे अशुभ ग्रहण करवामां दोष नथी तोपश विसार्या जिन वचन जेणे एवो जे तुं, ते तारूं कहे डे केम जे अशुरू पिमर्नु दान तो दाताने ने ग्रहण करनार ए बेने श्रहितनुं करनार बे. एम अमोए प्रथम प्रतिपादन कयु ए हेतु
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18. अथ श्री संघपट्टकः
माटे. वळी भरत राजा पांचसे गामां सुंदर मधुर स्वाड एवां नोंजन गरिने साधु दान प्रत्ये श्रति श्रद्धावंत थया तोपण भगवान श्री युगादि देव ते दाननो निषेध कर्यो बे ए हेतु माटे.
टीका :- राजपित्वात्प्रतिषेधइतिचेन्न ॥ श्रधाकर्मत्वेनैव तप्रतिषेधस्यागमे श्रवणात् ॥ श्रतः प्रथमपश्चाडुपनीतयोरशुद्धशुद्ध पिंकयो राजपिंगत्वेन समानत्वेपि यद्भगवान ऽशुद्ध पिंकमाधाकर्म त्वेनैव न्यषेधत् तेनावगच्छाम श्राधाकर्मैव सर्वदोषे ज्योमहीयःन्यथाऽ शुद्धवद् शुद्धमपिराज पिंगत्वेनैवन्यषेधत् ॥
अर्थ:-त्यारे लिंगधारी बोल्या जे एतो राजपिंग हतो ए हेतु माटे निषेध कर्यो, त्यारे सुविहित बोल्या जे एम तारे न बोलवु केम जे श्रधाकर्मपां हतुं एज हेतु माटे निषेध कर्यो बे. एम शामां सांजळीए बीए केम जे प्रथम जे त्याग कर्यों ते अशुद्धपिंक इतो ने पी जे गृहण कर्यो तेशुद्ध पिंक हतो माटे ए बेने राजपिंपणुं तो सरखुंज हतुं तो पण भगवान एने अशुद्धपिंग एटले
धाकर्मपणुं मां वे एम जाणीने निषेध कर्यो ते हेतु माटे एम जीए बोए जेधाकर्मज सर्व दोष थकी मोटो बे. एम जो न होय तो जेम शुद्धनो त्याग कर्यो तेम शुद्धपिंगनो पण राजपिंक बे एम जाणीनेज निषेध करत.
टीका:- तथा तिसारा पसरणाय भगवन्निमित्तनिर्मितमोदकं दातुं समुद्यतायारेवत्या भगवता निषेधनाञ्च ॥ तस्माच्छुद्धदानेनैव श्राद्धानामपि पुण्योत्पादः ॥ श्रधाकर्मग्रहणेन च यतेः स्वार्थपरिहाएयाकीदृशः परार्थः ॥ स्ववंचनेन वस्तुतः परोपकारानुपपत्तेः ॥
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-4 जय श्री संघपट्टकः
(१२७ )
अर्थ:-वळी रेवतीजीए अतिसार रोग मटारुवाने जगवानन निः मिते मोदक निपजाव्यो ने तेने देवा उजमाल थइ त्यारे भगवाने तेनो निषेध कर्यो ढे ते कारण माटे शुद्धदाने करीनेज श्रावकने पण पुण्य उत्पन्न याय बे ने आधाकर्म ग्रहण करीने यतिने स्वार्थनी हान थाय बे माटे परार्थ केवो थाय ? नज थाय. केम जे वस्तुतातो पोताना आत्मानुं वंचन करीने परोपकारनी सिद्धि यती नथी ए हेतु माटे ॥
टीका: - यथोक्तं ॥ जाणेणं चतंत्र्यप्पणयं नापदंसण चरित्तं ॥ तश्या तस्स परेसिं, अणुकंपा नत्थिजीवेसु ॥
अर्थ:- जे माटे शास्त्रमां कहुं बे ज्यारे जे पोताना ज्ञानदर्शन चारित्रने तजे बे त्यारे जाणवुं के तेने परजीवोमां अनुकंपा नथी टीका:- तथान्यत्राप्युक्तं ॥ परलोक विरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ॥ श्रात्मानं योतिसंत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात् कथं हितः ॥
अर्थ:--वळी बीजे पण कयुं बे जे, परलोकने बिरुद्ध करतोजे पुरुष तेनो बेटेथी त्याग करवो केम जे पोताना आत्मानुं बगामे ते बीजानो हितकारी कीये प्रकारे होय.
टीका:- एवंच संयम शरीरोपष्टंजकत्वादिति हेतुप्रयोगोप्यनुपपन्नो विशेषणासिद्धत्वात् ॥ उक्तन्यायेन सतताधाकर्मजोजिनो यतेः शरीरस्य संयमशरीरत्वानुपपत्तेः ॥ तथा श्राद्धश्रवृद्धिहेतुत्वादिति द्वितीयहेतुप्रयोगोप्यसमीचीनः प्राधाकर्म जनोपादानस्यागम विरुद्धत्वेन देतो बधित विषयत्वात् ॥ ब्राह्मणेन सुरा पेया द्रवद्रव्यत्वात् ही रख दित्यादिवत् ॥
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( १२८ )
- अथ श्री संघपटकः
अर्थ:-वळी संयम रूपी शरीरने उपष्टंज करनार बे एटले टेको आपनार े, ए हेतु माटे ए प्रकारनो जे हेतुप्रयोग कर्यो ते घटित . म जे विशेषणे करीने असिद्ध बे, एटले हेतुग खोटो म जे पूर्वे कां ए प्रकारना न्याये करीने निरंतर धाकर्मनुं भोजन करनार यतिने संयमरूप शरीरनीज सिद्धि बेटे वळी श्रावकनी श्रद्धावृद्धि थाय ए हेतु माटे ए प्रकारनो बीजो हु प्रयोग कर्यो ते पण सारो नथी केम जे श्राधाकर्म जोजननुं ग्रहण करवुं ते गम विरुद्धपणे बाधहेतुनुं स्थान बे एटले ए अनुमान प्रयोग निर्वाध न कीये दृष्टांते ? तो जेम ब्राह्मणने सुरापान करवुं ए सुरा दुघनी पेठे नरम वस्तु बे ए हेतु माटे ए प्रकारनो अनुमान प्रयोग जेम बाधित बे तेम या अनुमान प्रयोग पण बाधित एटले खोटो बे.
टीका :- तथापि प्रतिवाद्युपन्यस्तहेतुदूषणमात्रेण न स्वपक्ष सिद्धिरिति स्वपदे पिसाधनमुच्यते ॥ यतीना माधाकर्मजोजन मनुपादेयं षटजीवनिकायोपमर्द निष्पन्नत्वात् तथा विधवसत्यादिवत् ॥ तथा यतीना माधाकर्मजोजनमनोज्यं धर्मलोक विरुद्ध त्वाद्गोमांसवदिति ॥ एवंचोपपन्नमेतत्संघा दिनक्तं यतिना न नोक्तव्यमितिवृत्रार्थः ॥ ६ ॥
अर्थ: तो पण प्रतिवादिये स्थापन कर्या जे हेतु तेमां दूषण देखावा मात्रे करीने पोताना पहनी सिद्धि नथी यती माटे पोताना पक्षने विषे पण अनुमान साधनना प्रयोग करी देखाने बे. जे यतीने श्रधाकर्म जोजन गृहण कर योग्य नथी केम जे ब जीव निकायना मर्दन थकी उत्पन्न यवापां ए हेतु माटे जेम व जीवनि
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ॐ अथ श्री संग्रहकः
(२२९ ) कायना मर्द्दन थकी निष्पन्न थयो एवो निवास ग्रहण करवा योग्य नयी तेम ते प्रधाकर्म जोजन पण गृहण करवा योग्य नथी वळी बीजो अनुमान प्रयोग जे यतिने आधाकर्म जोजन जमवा योग्य नयी केम धर्म ने लोक ए बेमां विरुद्ध बे ए हेतु माटे गोमांसनी पेठे. जेम गोमांस बे ते धर्मने लोक ए बेमां विरुद्ध बे. माटे अजय बे तेम यतिने आधाकर्म जोजन पण अजक्ष्य है | एम सिद्ध
युं जे संघादि निमित्त जे जोजन ते यतिने जोगववा योग्य नथीं ए प्रकारे ST काव्यनो अर्थ थयो ॥ ६ ॥ ए प्रकारे हे शिकनोजननो प्रथम द्वार संपूर्ण थयो.
टीका:-- इदानीं देवव्योपभोगादिदूषण प्रर्दशनद्वारे जिनगृहवासद्वारं निरा चिकीर्षया ।
अर्थ:- दवे देव द्रव्यनो उपजोग ए यदि दूषानुं देखामकुं ए द्वारे करीने जिन मंदिरमां निवास करवा रुप द्वारनुं नीसकरण कखानी इच्छाये कड़े बे.
मूल काव्यं. गायगंधर्वनृत्यत्परमणिरणद्वेणुगुंजन्मृदंग
खत्पुष्पत्र गुद्यन्मृगमदल सल्लो चचंचजनौघे ॥ देवव्योपजोगध्रुवमव पतिताशातनाच्यत्रसंतः संतःसद्द्भक्तियोग्ये नखलु जिनगृहेऽर्हन्मतज्ञा वसंति॥ ॥
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अथ श्री संघपट्टकः
टीका :- खलु निश्चये जिनगृहे ऽर्हद्वनेऽईन्मतज्ञा जगवंदा गम निष्णाता यतयोनैव वसंति सततमवतिष्ठते ॥ तदागमे तन्निवासस्यात्यंतं निवारणात् ॥ संतो विवेकिनः ॥ कुतइत्यतद ॥ सती शोभनाऽकृत्रिमा नक्तिः शारीरसंचमा तिशय स्तस्य योग्य मुचितं तस्मिन् ॥ तिरेव यतस्तत्र कर्त्तुं युज्यत इतिनक्तियोग्यता मेव विशेषतो विशेषणद्वारेण दर्शयति
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अर्थ:-अरिहंत मतना जाग एटले भगवाननां श्रगम तेना पारगामी एवा साधु निचे जिनघरमां निवास नहीज करे, एटले मां निरंतर नहीं रहे. साधुने जिनमंदिरमां निवास करवानुं शामां अत्यंत निवारण कयुं बे माटे संत जे विवेकी पुरुष ते त्यां नहीं रहे. शाहेतु माटे ? तो त्यां कहे बे जे, जिनमंदिर केवुं बे, तो सारी कपटरहित जे भक्ति तेने योग्य एटले नक्ति करवा घटित बे माटे नक्तिनुं योग्यपणुंज विशेषे करीने विशेषणद्वारे कही देखाने बे.
टीकाः - गायतः कलमंद्रादिस्वरेण ग्रामरागे गवद्गुणानेवोत्कीर्त्तयं तो गंधर्वाः प्रधानगायना यत्र तत्तथा ॥ नृत्यंती नाट्य शास्त्रोक्तक्रमेण करचरणाद्यंग विक्षेपं कुर्वती पणरमणी वारस्त्रीनर्त्तकी यत्र तत्तथा
अर्थ:- मधुर गंजीर एवा स्वरे करीने नाना प्रकारना रागरा गणये सहित गंधर्व एटले प्रधान गायक लोक ते जैं जिनमंदिरमां गान करे ठे एवं ने नाट्यशास्त्रमां का प्रमाणे हाथपंग आदि -
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4. अथ श्री संघपट्टका गनो विकेप करवो ते रुप नृत्यने करतीळे वेश्याङ (नर्तकीयो जिनमंदिरने विषे एवं ॥
टीकाः-रणंतोवैणविकैर्मुखमरुता निघातान्मधुरध्वनंतो वे पबोवंशा पत्र तत्तथा गुंजतोमार्दगिकै पाणिज्यां तामनाद् गंभीर स्वनंतःमृदंगा मुरजा यत्र तत्तथा
अर्थः-वांसळीने वगामनारा पुरुष तेमना मुखवायुनो प्रवेश अवाथी मधुर वागे ने वेणु ते जे जिनमंदिरने विषे एवं श्रने मृदंगना वगामनारा पुरुषोना हस्ततामनथी गंन्नीर शब्द करती ने मृदंगो ते, जे जिनमंदिरने विषे एवं.
टीकाः-खंत्योलंबमानत्वान्मंदपवनेन कंपमाना देवसपर्यार्थ विरचिताःपुष्पस्रजःप्रसूनमाला यत्र तत्तथा। पुष्पग्रहणेनच पुप्फामिसथुश्नेया. इत्यादिना साहचर्यानिधानात्पक्वान्नादिबलिस्तुतिलक्षणपूजाध्यस्यापीह ग्रहणं दृष्टव्यं
अर्थः-मंदपवने करी कंपनी ने लांबी, पूजाने अर्थे रचेली ने पुष्पमाला ते जे जिनमंदिरने विषे, एवं आ जगाये पुष्पनुं ग्रहण कर्यु ले तेणे करीने तेनी संघाथे शास्त्रमा ग्रहण करेली जे पक्वान्न बलिपूजा, तथा स्तुतिपूजा. ए बे पूजानुं पण अहीं ग्रहण करवू.
टीकाः-उद्यन् जगवत्प्रतिमाविलेपनाथविमईनसमुठल दामोदकारेण प्रसरन्मृगमदः कस्तूरिका यत्रतत्रया॥ असंतः प.
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-18 अथ श्री संघष्ट्रक:
हांशुकमयत्वात् मुक्ताफलादिविधि नियुक्तत्वाच्च दीप्यमाना नछोचा वितानानि यत्र तत्तथा ॥ चंचंतो महाधनवसन विभूषण गरागप्रसाधितशरीरत्वाद् चाजिष्णवोजनौघाः श्रावकसमुदाया यत्र तत्तथा ॥ ततश्च गाय द् गंधर्वचतत् नृत्यत्पण्यरमणि चेत्यादि कर्मधारयः तस्मिन् ॥ एतानिहि भगवद्गुणगानादी नि प्रवराषि जिनगृहे तितुकानि व्यानां शुभाषोल्लासहेतुत्वाद्वालु निर्विधीयते ॥
( १३२ )
अर्थः- भगवाननी प्रतिमाना विलेपनने अर्थे मर्दन करो माटे उबल्यो जे सुगंध ते द्वारे करीने प्रसरती ने कस्तूरी ते जे जिनमं दिरने विषे, ने पट्टकूल वस्त्रमय वे माटे शोजता ने मोतीनी विचित्र रचनाए युक्त माटे देदीप्यमान ए प्रकारना बे चंदवा ते जे जिनमंदिरने विषे एवं ने मोटा मूलनां जारे एवां वस्त्र तथा भूषण तथा अंगराग तेथे करीने देदीप्यमान एवा बे श्रावकना समूह ते जे जिनमंदिरने विषे एवं, ए प्रकारनां सर्व जिनमंदिरनां विशेषण
न कर्मधारय समास करवो जिनमंदिरने विषे ए सर्व जगवाननां गुणगानादि श्रेष्ट ह्यां ते जिनघरने विषे जक्तिनां कारणिक बे माटे जव्य प्राणीने भावना उल्वासनां कारण बे माटे श्रद्धालु पुरुष करे बे.
टीका:--यडुक्तं ॥
पवरेहिं साहहिं पायंनावोवि जायएपवरो ॥
tय अन्नो जवनगो एएसि स्यालहयरो ||
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे सारां कास्खे करीने जाव पण प्राये सारो थाय ते.
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अब श्री संघपट्टका
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(१३)
PANA
टीकाः-अथैवं विधनक्तियोग्य जिनगृहे किमिति साधवोन निवसंति अताह ।। त्रसंतोबिज्यंतःकुतोदेवाव्यस्य जिनवितस्य नपजोगःसततं तत्र शयनासनानोजनादिकरणेनोपजोगः तथा ध्रुवा शास्वती यावजीवं अथवा ध्रुवं निश्चितं मगे जिनगृह · जगतीसंबछोयतिनिमित्तनिष्पन्नउपाश्रयस्तस्य पतिता आधिपत्यं जिनगृहलेखकोद्ग्राहणिकाकर्मांतरादिसकसचिंताकारित्वेनाधिकारित्व मितियावत् ॥ चैत्यवासिनो हि निरंतरसंच रिष्नुजनसंकुलतया तत्राव्यग्रं स्थातुमशकुवंत स्तदनुषक्तनुवि म विधाप्य सर्वां तचिंता विदघतीति नवतिमाउपत्यं ।।
अर्थः-हवे लिंगधारी सुविहित प्रत्ये पूरे दे जे प्रा प्रकारे नक्ति करवा योग्य जे जिनमंदिर तेमा साधु केम निवास न करे? . त्यारे सुविहित कहे जे जे आ प्रकारना दोषयी जय पामता साधु नथी निवास करता, ते दोष कहे , जे देव ऽव्यनो उपन्नोग थाय माटे नपजोग ते शुं तो निरंतर जिनमंदिरमा सूq तथा भोजनादिकनुं करवू ते उपलोग ले तथा निरंतर एटले जावजीव अथवा निश्चे मठपतिपणुं थाय माटे मठ एटले जिनघरनी जगती संबंधि जे यतिनिमित्त निपजाव्यो नपाश्रय तेना पतिपणुं एटले धणीपएं, जिनमंदिरनुं से लखवू तथा नघराणी करवी इत्यादि बीजां कामकाज करवां एम सर्व चिंतातुं करवापणे अधिकारीपणुंडे वळी चैत्यवासी जे ते निरंतर त्यां आवता जता लोके करीने व्याप्त ले माटे अव्यग्रपणे एटले समाधिपणे रहेवा समर्थ नथी थता ते जिनमंदिर संबंधी पृथ्वीमा मठ करावीने सर्व तेनी चिंताने पोते करे - दे मारे मत्पत्तिपयुं तेमने खे.
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(१३४)
अब श्री संघपटक
टीका तथा नगवत्प्रतिकृतिप्रत्यासत्तौ जोजनशयनासन निष्टीवनायविधिकरणेन ज्ञानाद्यायस्य शातना घंशनं ॥ नगवसंनिधौहि नोजनादि कुर्वाणो यतिाना दिलानाद श्यतीति जवत्याशातनाऽवज्ञा॥ ततश्च देवव्योपलोग श्चेत्यादिकंताज्यः
अर्थः-वळी नगवाननी प्रतिमाना समीप जोजन कर " तथा सूर्बु तथा आसन करवू तथा धुकवू इत्यादि अधिकरणे करीने जगवाननी पाशातना प्राय जे. ते आशातना शब्दनो अर्थ जे ज्ञानादिकनो जे लाल तेनो नाश थाय जेथी एटले जगवंतनी समीपे नोजनादिकने करतो जे यति ते ज्ञानादि लानथी भ्रष्ट थाय बे, माटे अशातना एटले अवज्ञा ले. देवव्योपचोग इत्यादि पदनो कंछ समास करवो. ..
टीकाः-अथगृहिणा नगवन्निमित्तं स्वप्रव्येण निर्मापिते देवगृहे वसत स्तदव्यंच कनकादिक मनुपशुंजानस्य यतेः कथं देवषव्योपजोगः, जिनअव्यनिष्पन्ने हि तत्र निवसत स्तदूजन्य साक्षादू जुंजानस्य वा स्यादितिचेत् न ।
अर्थः-हवे लिंगधारी सुविहित प्रत्ये बोले ने जे, गृहस्थ लोक पोताने अव्ये करीने नीपजाव्युं जे देवघर तेमां निवास करनार यतिने देवअध्यनो उपजोग केम करीने भयो ? केम जे तेजव्य ते सुवर्णादिक तेनो तो नपजोग करतो नथी माटे, ने जो जिनामध्ये करीने नीजावला स्थानमां निवास करे अथवा तेज न्यनो साक्षात् उपलोग करे त्यारे जिनशानो उपजोग कहेवाय
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4 जय श्री संघपट्टक
खरो, त्यारे सुविहित बोल्या जे तारे एम न बोलवु
( १३५ )
टीका:- गृहिणा स्ववसु निर्मा पितत्वेपि देवसदनस्य देवत्राकृतत्वेन देवद्रव्यत्वा तथाच तत्र वसतः साक्षातद्धनमनुपझुंजानस्यापि मुनेर्देवव्योपगोपपत्तेः ॥ साक्षाद्देवद्रव्य निष्पन्ने तु का वार्त्ता । किंच नित्यं तत्र वासेन निःस्पृहस्यापि तच्चितादौ व्या प्रियमाणस्य साक्षात्तद्ग्रंथोपयोगस्यापि संजवात् राजनियोगादिषु प्रथमं निरीहाणामपि पश्रात्तथाभावोपलब्धेः
2
अर्थः- केम जे गृहस्थे पोताना द्रव्ये करीने नीपंजावेलुं एवं पण देवघर ते देवने अर्पण कयुं बे, ए हेतु माटे देवद्रव्यपं दे माटे त्यां बसनारने छाने साक्षात् ते धनने जोगवनार ए बेने पण देवद्रव्यना उपभोगनी प्राप्ति बे, ने साक्षात् देव द्रव्ये करीने निपजावेलुं होय त्यारे तो तेनी शी वात कवी, वळी शुं ? तो निरंतर त्यां निवासे करीने निस्पृह एवा मुनीने पण ते द्रव्यनी चिंता दि
विषेपात वाथी साक्षात् ते ग्रंथना उपयोगनो पण ए'टले साक्षात् ते द्रव्य संबंधी उपजोगनो पण संभव बे, केम जे प्रथम केटलाक निरीह एटले जोगादिकनी वांढाए रहित मुनि दता ते पण राजानी आज्ञा इत्यादि कारणे ते द्रव्यसंबंधने पाम्या तो व्यना उपजोगनी वांडा प्राप्त थइ बे ए हेतु माटे.
मुनि
·
टीका:- प्रास्तां तत्र वसतो मुनेर्देव द्रव्योपभोग स्तथापत्रको दोष इतिचेदुच्यते तद्द्भोगस्यनित जन्म सुदारुण विपाकत्वेन जगवता निधानात्
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अथ श्री संघका
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अर्थः-हवे लिंगधारी कहे जे जे जिन मंदिरमा रहेनारने देव अव्यनो उपलोग थाय तो पण तेमां शो दोष , त्यारे सुवि. हित कहे के घणो दोप बे. जे देव अव्यनो उफ्नोग करे ले तेने अनंत जन्म सुधी महा श्राकलं पापनुं फल जोगक्षु पके डे ए हेतु माटे एम जगवान श्री तीर्थंकरे कडं .
टीकाः यदाह ॥ देवस्स परीलोगो अणंतजम्मेसुदारुणविवागो ।
जं देवनौगभूमिसु बुढी नहु वडश्चरिते॥ अत्रहि देवजूमिनुंजानस्ययतश्चारित्रानावेन दारुणो विपाकः प्रतिपादितः ॥ तथा संकासादिश्रावकाणां चैत्यभव्योपजोगिना मत्यंतदारुण विपाकस्यागमेपि बहुधा श्रवणात् ॥
अर्थः-जे माटे ते शास्त्र वचन जे देवाव्यनो परिजोग करे हे ते अनंत जन्मने विषे दारुण पापफलने लोगवे , ए जमाए देव भूमिने जोगवमार यतिने चारित्रनो नाश थयो तेणे करीने दारुण पार फळनुं लोगवq प्रतिपादन कडं वळी संकासादि श्रावके चैत्र अत्यनो नपजोग को तेणे करीने अनंत दारुण पापफळ लोगयुं ते आगममा घणी जगाए संजळाय ने ए हेतु माटे.
टीकाः-तथा जिणपवयणवुद्धिकरं पन्नावगं नाणदसणगुगाणं, नरकंतो जिणवं अनंतसंसारिई दोश् ॥ तथा चेल्य
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- अथ श्री संघपट्टकः
( १३७)
दवं सादारणं च जो डुद मोहियमई धम्मंच सोन यापइ अड्वा बद्धाउ नरए.
अर्थ:- ते उपर शास्त्रना वचन जे, जिनना प्रवचननी वृद्धि करनार ने ज्ञान दर्शनना गुणनुं प्रजावक एवं जिनद्रव्य तेने
क्षण करनार जे पुरुष ते अनंत संसारी होय वळी मोह पामी बे. मति ते जेनी एवो पुरुष चैत्य द्रव्यने तथा साधारण द्रव्यने बगाये, ते पुरुष धर्म प्रत्ये जाणता नथी. एटले परनवे धर्म न पामे ए जान अथवा ते पुरुष, बांध्यु बे नरकनुं आनखं ते जेणे एवो थाय.
टीकाः - इत्याद्यपरापरागमवचनानि । चिंतयंतो महामुनयो देवव्योपनोगेन जवकूपपातात्कथं न त्रस्यंति तथा माठपत्यादपि महामुनयो विज्यति ॥ यतः मोहि देवद्रव्य निष्पन्नोवास्यात् गृहिणा यत्यर्थ स्वद्रव्येणकारितोवा ॥ तत्राद्यपके तन्निवासो यतीना मुक्तप्रकारेण देवद्रव्योपनोगप्रसंगादेवानुचितः ॥
अर्थः इत्यादि बीजां बीजां आगम वचनने विचारता म हामुनि, देवद्रव्यना नपनोगे करीने संसाररुप कुवामां पद्मवानुं थाय वे माटे केम न त्रास पामे तेमज मठपतिपणं थवाथी पण मंहामुनि जय पामे बे. जे हेतु माटे मठ जे ते देवद्रव्ये करीने नि. पजाव्यो होय अथवा गृहस्थे यतिने श्रर्थे पोताना द्रव्ये करीने निपजान्यो होय, तेमां प्रथम पक्ष जे देवद्रव्ये करी नोपजावेला निवासने विषे साधुने रहेवं तेनुं पूर्वे कनुं ए प्रकारे खंकन थयुं केम जे देवद्रव्यना नमनोगतो प्रसंग घाय माटे अघटित बे:
१८
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अब भी संघपटक
- टीका-हितीयेत्वकल्पनीयत्वात्तनिवासानुपपत्तेः ॥ तस्य केवलसाधुनिमितं निष्पन्नत्वेन महासावद्यशय्यारूपत्वात् ॥ यथोक्तं ॥ कालाश्कं तु वहाणा अनिकंताचेव अणनिकंताय॥ वजाय महावजा सावजा महप्पकिरियाय ॥ समपहा सा. वजा य साहूणमिति ॥
अर्थः-गृहस्थे यतिने अर्थे पोताना अव्ये करीने निवास कराव्यो होय ते रूप जे बीजो पक्ष तेने विषे पण ते निवासवें प्रक
पवापणुं जे. केम जे ते निवास केवल साधु निमित्ते नीपजाव्यो ने माटे महा सावद्यरूप ले ए हेतुं माटे साधुने न कल्पे, ते शास्त्रमा कामु. जे॥
टीका:-अकल्पनीयवसत्यादेर्यतीनां ग्रहणनिषेधात ॥ ॥ यदाह ॥ पिमं सिङ च वढं च, चनथ्थंपायमेवय ॥
अकप्पियं न गिहिका, पम्गिादिङ कप्पियं ।
अर्थः-न कल्पवा योग्य जे निवास आदिक तेनुं यतिने य. हण करवानो निषेध डे, ने शास्त्रमा का ये जे पिंक तथा निवास तथा वस्त्र तथा चोथु पात्र ते सर्व न कट्पे एवां होयतो न ग्रहण करवां ने जो कल्पे एवां होय तो ग्रहण करवां.
टीका:-श्रथापवादेन महासावद्यशय्यावासस्याप्यागमे-- जिभानात्तपमठवासे यतीनां को दोषइतिचेन्न ॥
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अथ श्री संघपट्टक
(१९)
... अर्थः हवे लिंगधारी कहे जे जे अपवादे महा सावय स्थानमां पण निवास करवो एम शास्त्रमा कह्यु माटे सावद्यरुप जे मम्वास तेमा रहेनार यतिने शो दोष ने त्यारे सुविहित बोट्या जे एम तारे न बोलवं,
टीका:-गृहिणा स्वभव्येणापि यतिविधास्यमानदेवचिंतानिसंधिना तस्य निर्मा पितत्वेन देवनुवि निष्पन्नत्वेन च जिनगृह वस्तुतो देवव्यत्वात् ॥ अपवादस्य चकदाचित्कत्वेन नित्यं अवतां तत्रवासे तस्याप्यनुपपत्तेः॥
-गृहस्थे पोताना अव्ये करीने तेस्थान नीपजाव्युंपण एमां प्रा.अनिप्राय रह्यो बे, जे था स्थानमा यति रदेशे ने रहीने देवचिंतादिक करशे एवा अनुसंधाने करी नीपजाववापणुं बे, ए हेतु माटे ने वळी देव संबंधी पृथ्वीने विषे नीपजाववापर्यु ले माटे जिनगृहनी पेठे वस्तुताये देवाव्यपणुं ले ए हेतु माटे, ने अपवादने तो कदाचित्पणुं माटे निरंतर लेमा रहेनार एवा तमारे तो अपवादनी सिद्धि प्राप्त थती नथी.
टीकाः-एवं मम्वासंसदोष मन्वाना मुनयः कथमिव मठपतितामंगीकुरिन् ॥ तथा जगवदाशातनातोपि विवेकिनस्त्रस्यंति
अर्थः-ए प्रकारे मठवासने दोष सहित मानता मुनि जे ते मपतिपणानो केमज अंगीकार करे ! नज करे. वळी विवेकी पुरुष जेम मठवासथी त्रास पामे तेम नगवंतनी श्राशातनाथी पण त्रास पामे के
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(३०)
अय श्री संघपट्टकः । टीकाः-श्रथ केयं जगवत्प्रतिकृतीनामाशातना? किं गुरुणामिवासन्नगमनावस्थानादिना मुखनाशाकुहरनि:सरद विरलोब्बासनिःश्वासादिनिस्तदेहोपतापाद्यापादनलक्षणा नन तासु जगवदध्यारोपेण पूज्यबहुमान प्रकर्षसूचकसंत्रमातिशयरूपा॥
अर्थ:-हवे लिंगधारी बोले जे जे लगवाननी प्रतिमानीमा. शातना ते कश थाय ने, शुं गुरुनी पेठे ते प्रतिमाने समीप जq तथा बेसवू इत्यादिके करीने मुख तथा नासिका तेना रंध्रथी नीकळतो जे श्वासोश्वास इत्यादिके करीने तेमना देहने नपतापादिकं थाय ए रुपनी आशातना कहो बो के ते प्रतिमाने विषे नगवाननो अ. ध्यारोप थवो तेणे करीने पुज्यनुं जे बहुमान तेनो जे उत्कर्ष तेनेसू. चना करनार एवो जे अतिशे संत्रम ते रुपनी शांशातना कहो हो.
टीका:-न तावदाद्यः, नगवतां परमपदप्राप्तत्वेन तत्प्रतिकसीनां तदसंबंधेन तदसंञवात् ॥ नापिद्वितीयः, गर्लागाराद्यवादं विहाय तिष्ठतां तदसंनवात् ॥. ॥ यथोक्तं ॥ सोलालंदबलाणे रहघमियानीममढविवित्तेसु॥
ठंति मुणीजयणाए तित्थयरावग्गहं मुत्तुं
अर्थ:-तेमा प्रथम कही जे आशातना ते संन्नवती नथी केम ने लगवान तो मोक्षपदने पाम्या डे माटे तेमनी प्रतिमाने नगबानने कांड संबंध नथी माटे ते आशातना संजवती नथी ने बीजा पानी पण आशातना संजवती नथी केम जे जेमा प्रतिमा खेले
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अथ भी संघपट्टकः
(२१४१)
थोरमो परसाल इत्यादि स्थान तेना अवग्रहनो त्याग करीने रहेता जे मुनि तेमने ते प्रतिमानी श्राशातनानो संभव नथी ने माठे शास्त्रमां करूं बे जे.
टीकाः अन्यथा जिनप्रतिमाध्यासिते गृहे वसतां भावकाणां जगवदाशातनाजयेन बहिरवस्थानप्रसंगात् ॥ किंच न संभवत्येव सर्वथा जगवत्यनक्तिः, न हि पितुर्भवने वसतां तत्त नयानां पितर्य क्तिर्नाम, प्रत्युत पितरं विहाय युतकसदने वसतां तेषां लोके महानयशः पटः प्रसरति
अर्थः-जो एम न कहीए तो जिनप्रतिमा जेमां रही है एटले घर देरासर जेमां बे एवां घरने विषे रहेनार श्रावकने पण नः गवाननी श्राशातनाना जये करीने घर मुकीने घर बारणे रहेवानो प्रसंग प्राप्त थशे ए हेतु माटे वळी सर्वथा जगवानने विषे तेमने नक्ति नथी एम कहे पण संभवतु नथी पिताना घरमा रहेनार जै तेना ना पुत्र तेमने पिताने विषे जक्ति नथी एम कहेतुं संभवतुं नथी, उल पिताने मूकीने सासरामा रहेनारनो लोकमां मोटो अपयशरुपी मो पसरे वे एट्ले मोटो अपजश गवाय बे,
टीका: - जगवंतस्तु सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रदानेन संसार कांतार निस्तारकत्वात् यतीनां पितृज्योप्यभ्यधिकाः ॥ श्रतस्तेने दिष्टतया तेषामवश्यमादरणीया अतएव भगवतामपूर्वसमवसtural तत्र सन्निकृष्टानां श्रमणानामनागमने प्रायश्चितमा समेत्यादि
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अथ श्री संघपट्टकः
अर्थ :- भगवान तो सम्यक् ज्ञानदर्शनचारित्रनुं दान करीने संसाररूपी मोटी वीथी निस्तार करनार बे. ए हेतु माटे यतिने पिता की पण अतिशे अधिक बे माटे ते जगवंत तो अतीशे समीपपणे ते साधुने अवश्य आदरवा योग्य बे. एज हेतु माटे जगवंतना पूर्व समवसरणादिकने विषे, त्यां समीपे रहेनार साघु जो जगवंतनी पासे न यावे तो तेमने शास्त्रमां प्रायश्चित करवानुं प्रतिपादन कर्यु बे.
(१४२)
टीका :- यदाह ॥ जथ पुव्वोसरणं श्रदिपुव्वं व जेएसमषेण ॥ बारस दि जोयणे हिं सो एइ अागमे लहुया तदेवं जिन वनांतर्वासेपि यतीनां न भगवदाशातनाप्रसजतीति ॥
अर्थ:- ते शास्त्रनुं वचन जे ते कारण माटे यतिने जिननवनमां रहेतां पण भगवाननी श्राशातनानो प्रसंग नथी.
टीकाः अत्रोच्यते ॥ यत्तावदनिहितं जगवतां परमपदप्रासत्वेन प्रथम विकल्पोक्ताशातनाऽसंभवइति तदयुक्तं ॥ भगवतां मुक्तत्वेपि तत्प्रतिकृतीनां तद्गुणाध्यारोपेण तत्वेनाध्यवसानादू जक्तिवदाशातनायाश्रपि संजवात् ॥ श्रन्यथा मुक्तत्वा विशेषे नक्तेरप्यनुपपत्तेः
;
अर्थः- दवे लिंगधारी या प्रकारे चैत्यवासनुं मंगन कर्यु, तेनुं सुविहित पुरुष खंगन करे ढे, जे तुं एम बोले ने जे जगवानतो
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ना
, -4 जय श्री संघपक
0 मोक्षपदने प्राप्त थया ले. माटे प्रथम विकल्पमां कही जे आशातना तनो संनव नथी; ते तुं अयुक्त बोले डे केम जे जगवान मुक्तिए गया , तोपण तेमनी प्रतिमा विषे, ते जगवानना गुणनो आरोप करीने नगवत् रुपे करीने निश्चे करवाथी जेम नक्ति उत्पन्न याय
तेमज आशातना उत्पन्न थवानो पण संनव , ने जो एम नकहीए तो जगवंत मुक्ति गया , तेमनी अहीं नक्ति करवाथीन. गवंतने मुक्तिमां कांश विशेष यतुं नथी. माटे नक्तिनी पण अ सिद्धि प्राप्त थई एटले नक्ति पण तारे मते न करवी जोश्ए, तेतो तुं माने ले ने आशातना केम मानतो नथी.
टीकाः-तत्प्रतिमानक्त्यनक्तिमतामुपकारापकारयोर्बहुधागमे श्रवणाच ॥ अतएवासन्नावस्थाना दिना जगवत्याशातना सिद्धेस्तहेतुकश्चैत्यवासप्रतिषेधः पूर्वपकपुरःसरं सिकांते निरचायि ॥ यथाह ॥ जातित्थयराण कया वंदणमाव रिसणापाहुमिया ॥ जत्ती सुरवरेहिं समणाण तहिं कहिं नणियं
अर्थः-वळी आगममां जगवाननी प्रतिमानी जे नक्ति तथा अन्नक्ति तेना करनारने उपकार तथा अपकारनुं बहुधा सांगळवा पणुं , एटले नगवतनी प्रतिमानी नक्ति करनारने उपकार थयो ते तथा अन्नक्ति करनारने अपकार थयो ते बे शास्त्रमा संजळाय , एज कारण माटे समीपनिवास आदि करवाथीनगवानने विष श्राशातनानी लिहिले. ते आशातनानुं कारण जे चैत्यवास तेनो निषेध सिमांतने विषे पूर्वपक्षप्रगट करीने घणोजे चरच्यो ले ते कहे जे.
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AAN
im) - अथ श्री संघपट्टका -
टीका-अस्यार्थः, यद्याशातनादोषाच्चैत्यावस्थानं यतीनां म संगडते तदा तीर्थंकृतां सुरैर्याावर्षणादिका गंधोदकसेवन समवसरणरचनप्रमुखा प्राभृतिका पूजोपचाररूपा कृता, तब समवसरणे श्रमणानां कथं केन प्रकारेणाऽवस्थानं नणितमिति
अर्थः-ए शास्त्रनां वचन कह्यां तेनो अर्थ टीकाकार कहे हे प्रथम पूर्वपक्ष करीने नत्तर कहेशे जे जो आशातनाना दोषयी यतिने चैत्यमां निवास करवो नथी संजवतो तो तीर्थकरनी देवतावेजे पुष्पवृष्टि, सुगंधीमान जलनुं सिंचवं, समवसरणनी रचना श्यादि जेट सामग्री पूजाना उपचार रुप करी ते समोसरणने विषे सा. धुने कीये प्रकारे रहेवार्नु कयु .
टीका:-अत्रैव परःस्वपक्षसिझये प्रसंगमाह ॥जश्सममाण न कप्पक्ष एवं एगाणिया जिणवरिंदा ॥ कप्पइय गइम जे सिकाययाणे तयविरुधं ॥ अत्राहि यथा जिनानामेका कित्यप्रसंगेनाऽनाहार्यप्रातिहार्यप्रतिसमवसरणनुवि यती नामवस्थानं कल्पते एवं चैत्यायतनेपि न विरुध्यते ॥
अर्थः-या जगाये जेम साधु विना जिन- एकाकीपणुं थवाना प्रसंगे करीने क्यारे पण प्रातिहार्य विनानुंसमवसरण होय नहीं माटे निश्चे प्रातिहार्य सहित जे समवसरणनी पृथ्वी तेने वित्रे साधने रहे कल्पे ने तेमज चैत्यमां पण साधुने निवास करवो तेनं का विरोध नथी.
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अथ श्री संघपट्टकः :
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टीका:-इत्यादौ पूर्वपदे परेण कृतेप्राचार्येण प्रसंगाच्चतुर्विधेपि चैत्ये यतीनां कल्पाकल्पयोः समाधिरनिहितः, यथा, साहम्मियाण अहा चविहे लिंगठजह कुमंबी ॥ मंगलसासय आत्तीए जं कयं तत्थ आएसो ॥
अर्थः-इत्यादि पूर्वपद बीजाए को त्यारे आचार्य प्रसंगथी चार प्रकारना चैत्यने विषे पण साधुने आ कल्पवा योग्य ने आ कल्पवा योग्य नथी एवा प्रकारनुं समाधान कर्यु ॥ ते गाथा ।।
टीकाः अत्रहि प्रथमा. लिंगवचन नेदेन चतुर्विधस्य साधर्मिकस्य मध्यात् कुटुंबिनो वारत्तकादेराय यत्कृतं चैत्यादि तत्र यतीनामवस्थानादिकं कल्पतइत्युक्तं ॥ द्वितीयाःतु मंग- . लादि चैत्यमध्याद् नक्तिकृतेऽयमा देशोव्यवस्थारूपः प्रतिपादितस्तमाद ॥
अर्थः-टीकाकार ते गाथानो अर्थ कहे जे जे आ गाथाना प्रथम अर्डने विष लिंग वचनना नेदे करीने चार प्रकारना साधमिकनी मध्ये कुटुंबी जेवारत्तकमुनि इत्यादिकने अर्थे जे चैत्यादिक कयु होय तेमां साधुने रदेवा, कल्पे जे एम कडं अने गाथाना बीजा अईने विषे तो मंगलादिक चैत्यनी मध्ये नक्तिये कयें जे चैत्य तेने विषे आ आदेश जे ते व्यवस्थारूप प्रतिपादन कर्यो । तेने कहे ॥
टीका:- जवि न आहाकम्म, जत्तिकयं तहवि वाियं तेहिं॥ जत्ती खलु होइ कया जिणाण लोएवि दिइंतो॥बंधित्ता ।
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(१४६) . - अथ श्री संघपट्टकःकासवो, वयणं अगुणापोतीए पत्थिवमुवासए॥खनु, वित्ति निमित्तं जयाचेव ॥ दुन्निधि मलस्स वि तणुरप्पेस अन्हाणिया ॥ उन्न वानवहो चेव, तेण तिनचेश्ए ॥अत्रहि देवनिमित्तनिर्मितत्वेन जिननवनस्याधाकर्मत्वान्नावेपि यतीनां तदंतर्वासे जगवति शरीरदौगंध्यादिहेतुकाशातनादोषप्रसंगाद् जक्तिनिमित्तं तन्निवासो मुनीनां निवारितः ॥ श्रतएवाति परिहारख्यापनाय चैत्यवंदनादिगतानां तत्रावस्थानकालपरिमाणलणनेन प्रकारांतरेणापि तनिवासप्रतिषेध स्तत्रैवागमेऽन्यधायि ॥
अर्थः-आ गाथाश्रोने विषे देव निमित्त नीपजाव्यु डे ए हेतु माटे जिन जवनने श्राधाकर्मपणुं नथी तो पण ते साधुनी समीपे जगवंत रहे बे ते शरीरनो जे दुर्गंध ए श्रादी कारणे करी श्राशातनादोष थवानो प्रसंग डे. माटे नक्ति निमित्ते जगवंतनी समीपे मुनिने रहेवानो निषेध कर्यो के एज कारण माटे अतिशे निषेध प्रसिद्ध करवाने चैत्यवंदनादिकने अर्थे चैत्यमा गएला जे साधु तेमने त्यां रहेवाना काल- परिमाणकयुं बे, बीजे प्रकारे पण चैत्यमां निवास करवानो निषेध तेहीज आगममां कह्यो ॥
टीकाः-यथा, तिन्नि वा कई जाव, थुश्श्रो तिसिलोइया॥ ताव तत्थ अणुनायं, कारणेण परेणवि ॥
अर्थः-त्रण श्लोकनी त्रण थोयो कहेवाइ रहे तेटलोज वखत त्यां रहेवानी रजा ले बाकी कारणे वधु रहेवाय तेनी जूदी वात ले
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18. अथ श्री संघपट्टका
(१४७) टीकाः-श्रतएव तद्दर्शने तदवग्रहनूमिप्रदेशे वा संघमएव विधातव्यो न त्ववज्ञा॥ यमुक्तं ॥ इत्तोओसरणाइसु, दसणमित्ते गयाइ ओयरणं ।। सुच्चइ चेश्य सिहराश्एसु सुस्सावगाणंपि ॥ गुरुदेवग्गह नूमी जुत्तओचेव हो। परिजोगो॥श्फल सादगो सर, अणहिफलसाहगो इहरा ॥
अर्थः-एज कारण माटे ते जगवंतना दर्शनने विषे वा तेमनी अवग्रह लूमिना प्रदेशने विषे नक्तिनुं श्राधिक्यपणुं करवू पण श्रवा तो नज करवी जे माटे शास्त्रमा कडं जे जे ॥
. टीका: इतरथाशातनाप्रसंगात् तस्याश्चानंतसंसारकारण . त्वात् ॥ यमुक्तं ॥ आसायण मिबत्तं; श्रासायणवजाणार सम्मत्तं ॥ श्रासायणानिमित्तं, कुव्वश्दीहंच संसारं ॥ तदंतर्वासे तु यतीनां सततमशनपानशयनादि क्रियासंन्नवादवश्यंन्नाविनी नगवदाशातना ॥
अर्थः-जो एम न करे तो श्राशातनानो प्रसंगथाय ने ते श्राशातना ते अनंत संसारचं कारण ले ए हेतु माटे शास्त्रमा का ले जे श्राशातना एज मिथात्व ले ने आशातनानुं वर्जq ए समकित जे. केमजे श्राशातना निमित संसारनी वृद्धि करे ले माटे ते चैत्यमां निवास करे त्यारे तो यतिने निरंतर जोजन तथा पान तथा शयनादि क्रिया करवानोसंजवडेमाटे अवश्य नगवंतनी आशातनाथशेज.
टीकाः-अत एव पूजार्थं जिनसदनांतर्वर्तिनां तद्नंक्तिमतां पूर्वाचाय रशनादिक्रिया निवारिता ॥
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(१४८)
अथ श्री संघपट्टक
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॥ यथोक्तं ॥ तंबोलपाणनोयणुपाणहथीनोगसयण निठवणे॥
मुत्तुच्चारं जूझं वजार, जिमंदिरस्संतो॥
निहिवणादकरणं, असकहा अणुचियासणाया ॥ आययणं मि अन्नोगो, श्वं देवा उदाहरणं ॥ देवहरयंमि देवा, विसयविस विमोहिया वि न कया वि ॥ अबरसाहिपिसमं, हासरिखड्डाइवि करंति ॥
अर्थः-एज कारण माटे पूजाने अर्थे जिनन्नवनमा रहेला जे नक्तिवंत पुरुष तेमनी नोजनादिक क्रिया ते मंदिरने विषे करवानो निषेध कह्यो . जे माटे ते शास्त्रनुं वचन जे तंबोल, पान, नोजन, पगरखां, स्त्रीनो संनोग, शयन, थुकवू, मल, मूत्र, तथा जुगटुं ए दश वानां जिन मंदिरमा वर्जवां. वळी देवताने दृष्टांते ए आशातना न करवी, जेम देवता सुधर्मा सजामां जिननी दाढा ले तेथी स्त्रीनोगादिक करता नथी तेमज थुकवू तथा जोजन करवू, असत्कथा करवी, ऊंचा आसने बेसवू इत्यादि . जिनमंदिरमां न करवां. वळी विषयरुपी विषे करीने मोह पाम्या एवा देवता पण देरासरमां क्यारे पण अप्सरायोनी साथे हास्य क्रीमा इत्यादि नथी करता.
टीकाः यदपि गर्लागारं विहायेत्यादिना द्वितीयविकल्पोक्ता शातनाऽनाव प्रतिपादनं तदप्यऽदृष्टागमतां जवतो व्यंजयति ॥ यतः॥ सालालंदेत्यादि वचनस्य निपुणनिरूपणेनापि
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।१४९)
8. अथ श्री संघपट्टकः - क्वचिदप्पागमेनुपलनात्, स्वमनीषाकल्पितपागनांत्वागमत्वानिधाने सर्वत्रानाश्वासप्रसंगात् ॥
अर्थः-वळी तें कडं जे गन्नाराने मूकीने रहेता इत्यादिके करीने बीजा विकल्पमां आशातना नथी एवं प्रतिपादन कर्यु ते पण हारुं जिनागमनुं अजणपणुं ने तेने प्रगट करी आपे जे जे हेतु माटे " सालालंद ” इत्यादि तारी मतिकल्पित वचन को सारा पुरुषना निरुपण करेला ग्रंथ विषे पण तथा आगममां पण देखातुं नथी माटे पोतानी बुझिये कटपेला पाउने जो आगम कहीये तो सर्व जगाए अविश्वास थवानो प्रसंग थाय ए हेतु माटे ॥
टीकाः-किंच निश्राचैत्य विचार प्रक्रमे यात्रा निमित्तागामुकसंयतार्थ गृहिणा स्वप्रव्येण देवप्रव्येण वा बदिनिर्मापितस्य मंगपादेनिषेवरोनाधाकर्मानुमत्या देवप्रव्योपत्नोगेन वा सुविहितानां निश्राचैत्ये गमनानावः प्रत्यपादि ॥
अर्थः-वळी निश्राचैत्य विचारनाप्रकरणने विषे यात्रा निमित्ते आवता जे साधु तेमने अर्थे गृहस्थे पोताना अव्ये करीने अथवा देवप्रव्ये करीने गाम बारणे निपजाव्यां जे मंगप श्रादि रहेवानां स्थानक तेनुं सेवन करवं तेणे करीने आधाकर्मनी अनुमोदना अ. थवा देवजव्यनो नपन्नोग तेणे करीने सुविहितोने निश्राचैत्यमांजवानो निषेध प्रतिपादन कर्यो .
टीका:-तथाच कल्पनाष्य ॥ गश्मगश्नोसरण मंगवा संजयदेसेवा ।। पेडियनूमीकम्मे; निसेक्श्रो श्रणुमई दोसा।।
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( ११० )
अथ श्री संघपट्टकः
अर्थ:- ते उपर कल्पनाप्यनुं वचन प्रमाण श्रापे बे जे.
टीका :- एवंच यदाब हिमप निषेवणादिनापि प्रायश्चित्ता पतिरनिहिता तदा का कथा गञ्जगारादिपरिहारेण शालाबलानका दिष्ववस्थाने यतीनां, तत्र ततोप्य धिकतरदोषसंभवादिति
अर्थ:- ए प्रकारे जो बाहिर मंरुपमां निवासादि करे तो पण प्रायश्चित्तनी प्राप्ति कढ़ी बे तो केवल गन्नारादिकने मूकीने था. सपास निवास करनार यतीनी तो शी वात कहीए केम जे त्यां ते थकी पण अतिशे अधिक दोषनो संजव वे ए हेतु माटे
टीका: -- यद्यप्यन्यथा जिनप्रतिमेत्यादिना श्राद्धानां गृह बदिर्वासप्रसंजनं ॥ तत्रापि तदवग्रहक स्पितभू नागस्यैव देवालय त्वात् अन्यस्य च सकलस्यापि गृहिगृदत्वात् तत्रवसतां श्राद्धानां नाशातनासंज्ञवः, जिनमंदिरस्यतु समस्तस्यापि जिनोद्देशेन निर्मा पितत्वात् कथं तदेकदेशेपि वसतांयतीनां नाशातानादोषः स्यादिति ॥
अर्थ:-वळी अन्यथा जिनप्रतिमा इत्यादि वाक्ये करीने श्रावकने घर थकी बारशे रहेवानो प्रसंग थशे एम जे कहुं तेनो उत्तर पण एम बे जे त्यां पण जिनमंदिरनो श्रवग्रह कल्पेलो एटखोज जे पृथ्वीनो नाग तेने देवालयपएं बे ने बीजा समस्त नागने तो गृहस्थनुं घर एवी संज्ञा बे माटे ते घरमा रहेनार श्रावकने प्रा
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ॐ अथ श्री संघपट्टकः
११)
शातनानो संन्नव नथी ने जिनमंदिरने तो समस्तने पण जिनना न. देशे करीने निपजाववापणुं बे माटे ते जिनमंदिरना एक देशमां पण रहेनार यतिने केम आशातना थाय ? थायज.
टीकाः-किंच पूजार्थं समुद्घकस्थापितलगवदंगबहुमान निबंधनत्वेनचात्यंतविषयिणामपित्रिदशानां सुधर्मासन्नापरिवर्जनेनांगनासंजोगादेः सिझाते श्रवणात् ॥
अर्थः-वळी देवताये पूजाने अर्थे मान्नमामां स्थापेल जे जगवाननां अंग तेनुं बहुमान करवू ए हेतु माटे अत्यंत विषयी एवा पण देवता सुधर्मा सनामां स्त्रीना संजोगादिकनो त्याग करे जे एम सिद्धांतमां सांजळीए गए माटे जगवाननी प्रतिमानुं बहुमान कयु जोश्ए ॥
टीकाः यदपि लौकिकोदाहरणेन जिनजवनएव यतीनां वाससमीचीनताव्यवस्थापनं तदपि जवतो जिनमतानपुएयं सूचयति ॥ लोकलोकोत्तरमार्गयोर्निन्नत्वात् ॥ लोकोत्तरमार्गेहि नगवति विद्यमानेपि वंदनव्याख्यानाद्यवसरएवसाधूनां तत्प्रत्यासत्तिश्रवणात् ॥
अर्थः-वळी लौकिक दृष्टांत-जे पिताने घेर पुत्र रहे इत्यादि तेणे करीने जिन जवनमांज साधुने निवास करवो, एजीक डे एम जे ते स्थापन कर्यु हे पण तारुं जिन मतमां अजाणपणुं ले तेनी
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( १५२ )
-18 अथ श्री संघपट्टकः
सूचना करे बे केम जे लौकिक मार्गने लोकोत्तर मार्ग तेमां जेदपणुं रघुंडे माटे, ने लोकोत्तर मार्गने विषे पण भगवान विद्यमान ब साघुने भगवंतनु वंदन करवुं अथवा व्याख्यान सांजळवं इत्यादिकार्थे जगवत् पासे जे श्रावनुं ते पण अवसरे दतुं एम शास्त्रमां सांजळीए बीए ए हेतु माटे.
टीका: - वैयावृत्यकरस्यापि जोजनादिसमय एव तत्सन्निकर्षजावात् सततंशयनाद्यासक्त्या हि तदाशातनापत्तेः ॥ श्रागमेच जगवतः पारणकादौ पादन्यासभूमावपि महागौरवाईतया तदना क्रमणार्थं रत्नमयपीठ निर्माणश्रवणात् ततश्चैवं विधगौरवा
जगवतां प्रतिकृतिसदने पिकथं यति निवासः श्रेयान् स्यात् ॥
अर्थ:-वळी जगवतनी वैयावच्च करनारने पण जोजना दि समय विषे जगवती समीपे जवानुं बे केम जे निरंतर जो शयनादिक पासे करे तो भगवंतनी आशातना थाय ए हेतु माटे,
गमने विषे पण जगवतना पारणादिकने विषे एटले नगवंत ज्यां पारं करवा बेसे त्यां तथा पग मूकवानी भूमिने विषे पण ते जगवतनुं आक्रमण न थाय एटले संघटादिक न थाय माटे रत्नमय पीठ नीपजावे बे एवं शास्त्रमां सांजळीए बीए ते हेतु माटे ए प्रकारनी मोठ्यप करवा योग्य जे जगवंत तेमनी प्रतिमाना घरने विषे पण यतिने नीवास करवो ते श्रेय जी केम होय एटले चेत्यनिवास सारो ते कया प्रकारे तुं कड़े बे ? ॥
टीका :- लोकेप्येकगृहवासेपि तनयानां च बहुमान योग्यत्वेन पितृशय्यादि परिजोगाऽदर्शनात् । यदप्य पूर्वसमवसरणादौ
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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(१५)
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निकटश्रमणाना मनागमने प्रायश्चित्तापादनेन विद्यमानलगवदासत्या चैत्यवासव्यवस्थापनं तदपि भवतो मुग्धस्य केयूरपादबंधनन्याय मनुहरति ॥
- अर्थः-लोकने विषे पण एक घरमा रहेता एवा पण पुत्र तेमने पिता बहुमान करवा योग्य माटे पितानी सुखशय्यादिकनो उपन्नोग करवानुं देखातुं नथी ने जे अपूर्व समोसरण आदिकने विषे पासे रह्या जे साधु ते न आवे तो प्रायश्चित करवा-प्रतिपादन कर्यु ले तेणे करीने जगवाननो संबंध थाय माटे चैत्यवास अवश्य करवा योग्य बे एवं जे तुं स्थापन करे ले ते तो अपसमजु एवो जे तुं, ते तारे या प्रकारनो न्याय थयो जे हाथर्नु आजूषण बाजुबंध तेने लश्ने पगे बांधq एवा प्रकारे अणसमजुना न्याने अनुसरे ॥
टीकाः-यदिह्यपूर्व समवरणे जगवंतं वंदितु मनागडतोज्यर्ण देशस्थस्य मुनेःप्रायश्चितमुक्तं एतावतायतेर्जिन गृहवासस्य कि मायातं, वंदनार्थ हि यतेनंगवत्समीपागमनं वयं मन्यामहएव ॥ सततं शयनादिना निवासंत्वन्यासे तदाशातनापत्त्या नेहामः ॥
अर्थः-जो अपूर्व समवसरणने विषे जगवंतने वंदन करवान श्रावता समीपदेशमा रहेनार मुनि तेमने प्रायश्चित कयु एणे करीने यतिने जिनमंदिरमां निवास करवा संबंधी शुं प्रमाण आव्यु? चंदनने अर्थे यतिने जगवंतनी समीपे आवq एम तो अमो पण मा. नीए बीएज पण निरंतर शयनादि क्रियाए सहित तेमां निवास करे तो ते जगवतनी आशातना थाय माटेते निवास करवानुनथी इसता.
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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टीकाः-इत्यबुध्वैवागमार्थ यत्रतत्र युंजानस्य कस्ते प्रतिमहति ॥ तदेवं व्यवस्थितमेतत्, लगवदाशातनातस्त्रासो महामुनीनामिति ॥ ए तेनाधुनिकमुनीनां चैत्यवासमंतरणोद्यानवासो वा स्यादित्यादि कथमुद्यानवासोऽधुनातनयतीनां कपमानःशोनेतेत्यंतं यदुक्तं परेण तत्र संप्रतिपत्तिरुत्तरं ॥
- अर्थः-ए प्रकारे आगमनो अर्थ जाण्याविना जेम तेम आगमना अर्थने जोमतो एवो जे तुं, तेने निवारण करवा कोण समर्थ बे, माटे ए प्रकारे स्थापन थयुं जे जगवतनी आशातना थाय तेथी महामुनिने चैत्यवास करवामां त्रास नपजे डे एणे करीने लिंगधारीए जे का तुं जे आ कालना मुनिने चैत्यवास विना उद्यानवास थशे इत्या दिथी ते यतिने आ कालमां नद्यानवास केम शाने त्यां सुधी तेने विषे उपन्यास पूर्वक नत्तर ए .
टीकाः-यथोक्तोदयानानावेन तस्करादिनयेन च संप्रत्युद्यानवासनिषेधस्यास्मानिरप्युपगमातू ॥ ततश्चैत्यं मुनीना मुपनोगयोग्य, आधाकर्मदोषरहितत्वादितिहेतु रुक्तन्योयन मु. नीनां चैत्योपत्नोगयोग्यताया देवव्योपजोगादिदोषे रागमेन बाधित्वात् कालात्ययापदिष्टः॥
. अर्थः-जे शास्त्रमा जेवू नद्यान कह्यु डे, तेवू था कालमा मळतुं नथी. ने चोर आदिकना नय करीने या कालमां उद्यान वासनो जे निषेध कर्यो ते पण अमारे मान्य ले. वली सिंगधारीए का हतुं जे तेज कारण मादे मुनिने चैत्यवास करवा योग्य वे.
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- अथ श्री संघपट्टकः --
( १५५ )
श्रधाकर्मादि दोष रहित पणुं वे ए देतु माटे, ए प्रकारना हेतु तो मोए कयुं एवा न्याये करीने चैत्यनो उपनोग करतां देव द्रव्यनो नपनोग थाय बे इत्यादि दोष करीने शास्त्रनी रीते बाधित लागे बे. माटे ए जे तमारो आधाकर्मादि दोष रहित रूपी हेतु ते खानास यो एटले खोटो थयो .
टीका:--- यदपि निस्सक मेत्यादि सिद्धांतवचनाच्चैत्यावासज्युपगम तदप्यविदितागमानिप्रायस्य जवतो वचः, सम्यक् निश्राकृतशब्दार्थाऽपरिज्ञानात् ॥ नहि यत्र साधूनां निवासद्वारेण निश्राश्रायत्रता जवति तन्निश्राकृतमिति निश्राकृत शब्दार्थः ॥ किंतर्हि यद्देशतः पार्श्वस्थादिप्रतिबोधितश्रावकैः . स्वयं तथा विविमकुर्वाणैरपिविधि श्रद्धालुनिः पार्श्वस्थादीनां चैत्यगृहादन्यत्र वसतामेव निश्रया निर्मार्पितं तन्निश्राकृत मिति
अर्थ:-वळी जेतुं निस्सकम इत्यादि सिद्धांतना वचनथी चैत्यवासांगिकार करवानुं कहे बे ते पण आगमना अभिप्रायने न जाणतो जेतुं ते तारु वचन बे, केम जे निश्राकृत शब्दना अर्थ - नु सारी रीते तने ज्ञान नथी. तेथी एम कह्युं बे जे ज्यां साधुनो निवास होय ते द्वारे निश्रा आधीन बे एटले जे साघुनी निश्राए कर्यु ते निश्राकृत कहीए, एम निश्राकृत शब्दनौ अर्थ तारा कह्या प्रमाणे नथी, त्यारे शो बे ! तो जे दैशथी पासथ्यादिक पुरुषे प्रतिबोध कर्या पण पोते जेम शास्त्रमां विधि को वे ते प्रकारे विधि मार्गने न कर सकता पण विधि मार्गना श्रद्वालु एवा जे श्रावक तेमणे चैत्य घर थकी बीजे रहेता जे पासथ्यादिक तेमनीज मिश्रा
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(१५६)
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अथ श्री संघपट्टकः
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ये नीपजाव्यु ते निश्राकृत कहीए एम निश्नाकृत शब्दनो अर्थ बे.
टीकाः कथमयमों निश्राकृतशब्दस्य निर्णीतइतिचेत् ॥ नसन्नाविय तत्थेव ती चेइवंदगाजेसि निस्साइ तंजवणं सजाईहियकारिय मितिवृक्षसंप्रदायात्, श्रयमपि कुत इति चेत् ॥हाइमगओसरण मंगवा संजयहदेसेवाति कल्पनाष्यवचनात् ॥
..... अर्थः-लिंग धारी पूजे जे जे एवो निश्राकृत शब्दना अर्थ एम कीये प्रकारे निर्णय को एटले एवा अर्थ क्याथी लाव्या त्यारे सुविहित उत्तर आपे जे जे जो तुं एम कहे तो होय तो पास
था उसना चैत्यवंदन करवा आवे ने जेमनी निश्राए श्रावकादिके जे चैत्य निपजाव्यु डे त्यां ए प्रकारना बृद्धसंप्रदायथी निश्चय करीए ऐ त्यारे लिंग धारी.पु जे जे ए प्रकारनो वृक्षसंप्रदाय पण क्यांथी आव्यो ! त्यारे सुविहित नत्तर आपे ले जे कल्पनाज्यमांथी, ते नाष्यनुं वचन ए प्रकारे कल्पनाष्यना वचनथी एवो निर्णय करीए बीए.
टीका-अब्रह्मवसन्नादय स्तत्रैव निश्राकते चैत्ये वंदनाय गचंतीत्युक्तं ॥ अन्यत्रवसतां च तेषां तत्रागमनं संनवेत् ॥ य. दिच ते तत्रैव वसेयुस्तदायत्यर्थं बहिर्मळपकरणं वंदनायागमनं चं तेषां तत्र नोपपद्येत॥ नहि तत्रैव वसतां तदर्थ मंमपविधानं ततएव वा तत्रागमनं नाम ॥ तस्मादेवमागमवचनेन निश्राकृत शब्दार्थालोचना न श्रुते निश्राकृतव्यपदेशेन यतीनां चैत्यबाससिकिः॥
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* अथ श्री संघपट्टकः 8
( १५०)
अर्थः- या कल्पनायना वचनमां अवसन्नादिक ते निश्राकृत एवं जे चैत्य तेमांज वंदन करवा जाय बे एम कहां माटे बीजी जगाऐ रहेता एवा ते पासस्था दिक तेमने ते निश्राकृत चैत्यने विषे जवानो संजय बे, ने जो ते चैत्यमांज रहेता होततो यतिने अर्थे बाहिर मंप कर तथा तेमनुं चैत्यने विषे वंदनने अर्थे श्राव एबे वाना घटे नहीं केम जे ते जो चैत्यमां रहेता होततो तेमने
मंप करत नहीं ने तेमने पोताना स्थान थकी चैत्यमां श्राववुं पण न कहेत माटेज श्रागम वचने करीने निश्राकृत शब्दनों अर्थ विचारी जोतां श्रागमने विषे निश्राकृत शब्द कहेवाने मिषे यतिने चैत्यवास करवो एम सिद्ध यतुं नथी.
टीका: - निस्सकमइत्यादिनाहि राजनिमंत्रादिषु पुष्टालंबनेन प्रत्यासन्नग्रामादेर्निश्राकृत चैत्ययात्राद्यवसरे: समागतानां सुविहितानां वंदन विधिरनिहितः॥वस्तुतस्तुत्सर्गेण तत्र पार्श्वस्थादि संसर्गपरिजिहीर्षया प्रत्यवंदनमपि निवारितमेव ||
अर्थः- निस्सकम इत्यादिके करीने तो कोइक राजानुं निमंऋण आदिककार्य प्राप्त थयुं होय तो पुष्टालंबन जाणीने समीप रहेला are frera चैत्यनी यात्रादिकना श्रवसरने विषे खाव्या जे सुविहित तेमनो वंदन विधि को बे ने वस्तुताये तो नत्सर्गथी त्यां पासथ्यादिकनो संबंध थाय तेनो त्याग करवा माटे निरंतर ते चैत्यमां वंदन करवानुं पण निवारणज कर्यु बे.
टीका:~ तत्थासो जहसु निस्समिति कल्पनाप्यवचनातु ॥
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(१५८)
18. अब श्री संघपट्टक:
तत्रहि नि:कारणगमने प्रायश्चित्तप्रतिपादनादिति ॥ निस्सको गगुरू कइवयसहिओ, इयवरा वए वसहिं॥ जत्थपुण अन्निस्स कपूरिति तहिंसमोसरणं ॥ पूरिति समोसरणं, अन्नासइ निस्सचेश्एसुंपि॥ इहरा लोगववान, सद्धानंगोय सहाण मित्यागमः ॥ पुनरनिश्राकृतानावे लोकापवादरिरक्षिषया श्राफश्रद्धाविवर्षयिषया च माजूद्देवगृहागततथाविधोबृंखलसमुज्वलनेपथ्यपार्श्वस्थाद्यवलोकनेनामीषां विपरिणाम इत्यगीतार्थानां वसतो प्रेषणेन व्याख्यानादिकृते कतिपयगीतार्थयतिपरिवृतस्य सुविहिताचार्यस्य निश्राकृतेऽवस्थानं प्रतिपादयन् वसतिवासमेव य. तीनां प्रत्युत प्रतिष्ठापयति ॥
- अर्थ:-वळी निश्राकृत चैत्यने विषे लोकापवादनी रक्षा करवानी जाए अथवा श्रावकनी श्रझा वधारवानी श्छाए वळी ते प्रकारना एटले स्वेच्छाचारी निरंकुशने नजला वेषने धारण करताअने देवघरमां आवेला एवा पासथ्यादिक तेमने देखवाथो ए लोकोनी विपरित बुद्धि न थाय ए हेतु माटे अगीतार्थना निवासने विषे व्याख्यानने अर्थे केटलाक गीतार्थ साधुये वीटेला जे सुविहित आचार्य तेमनुं निश्राकृत चैत्यने विषे जे रहेवं तेने प्रतिपादन करतां साधुने वस्तीमा रहेकुंपण चैत्यमांन रहेqएम नलटुं स्थापन थायले.
टीकाः-श्तरथा श्यरा वए वसहि मित्यस्यांतर्ग:मात्रतापत्तेः॥ तदेवं निस्सकमेत्यादिना चैत्यवासं सिसाधयिषतस्तव वसतिवास सिद्धा यत्नेनोप्ता माषाः स्फुटमेते कोजवाजाता इतिन्यायेन विपरीतमापतितमिहो भागमार्थकौशलं नवतः॥
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- अथ श्री संघपट्टकः
( -११९)
अर्थः- केम जे जो एम वसतिवास सिद्ध थयोन होत ने चैत्थवास सिद्ध थयो होत तो “ इयरावए वसहिं " एटले बीजा वस्तीमां रहे बे ए पदनी अंतर्गांठ तारे यावी पकत ते माटे निस्सकम एटले निश्राकृत इत्यादिके करीने चैत्यवासने सिद्ध करवाने तो वो जे तुं, ते तारे उलटो वसतिवास सिद्ध थयो माटे प्रयत्न करीने वाव्या जे मद ते प्रत्यक्ष कोदरा थया एवो न्याय थयो माटे तारे तो अवयुं प्रावी पमयुं ग्रहो ! तारुं श्रागमना - र्थने जाणवानुं महापण !
टीका :- यदपि देन लियखरंटेत्यादिना देवकुलिकशब्दाचैत्यवाससाधनं तदप्यसम्यक्, यतिवेषमात्रधारिणामेव देकुलिक व्यपदेशात् ॥ एतद्गाथा विवरले देवकुलिका देवकुलपरिपा लका वेषमात्रधारिण इति व्याख्यानात् ॥
अर्थ:-वळी देउलिय इत्यादिके करीने देवकुलिक शब्दथी चैत्यवासनी सिद्धिकरी ते पण साची न करी केम जे यतिना वेष मात्र धारण करनार ते देवकुलिक शब्दे करीने कहेवाय बे, ए गाथाना विवरण व देवकुलिक शब्दनो अर्थ देवकुलने पालन करनार ने तिवेष मात्रनोज धारण करनार एवो पुरुष ए प्रका रनुं व्याख्यान कर्तुं बे. माटे
टीका:तएव तेषां प्रवचनोपदेशपूर्वक परुवनरानरुपा ख रंटना जिहिता ॥ श्रगमोक्तत्वेतु चैत्यवासस्य तेषां यथोक्तकारित्वेन सुविहिततखरं नानुपपत्तेः ॥ तस्मात्थार्श्वस्थायनमा
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(१६०)
8. अथ श्री संघपटकः
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नामेव देवकुलिकव्यपदेशात्, तेषांचानंततमेन कालेन दशमाश्चर्यमहिम्ना नवतेव स्वमतिकल्पित चैत्यवासाज्युपगमप्रति पादनाचतत: सुविहितानां चैत्यवास सिभिः ।
. अर्थः-एज कारण माटे ते देवकुलिक प्रत्ये सिद्धांतना नप. देश पूर्वक कठोर नाषण करवा रुप खरंटना एटले तर्जन तिरस्कारादिक करवानुं कडं बे, ने जो चैत्यवास सिद्धांतमां कह्यो होत तो शास्त्र प्रमाणे चालनार सुविहित ने ए हेतु माटे, तेमने सुविहित थावीने तर्जनादिक करे ने एम कहेवू न थात ते कारण माटे पासथ्थादिक जे अधमपुरुष तेमनेज देवकुलिक शब्दवते कहेवानुं बे, ने ते पासथ्थादिक अतिशे अनंताकाले करीने दशम आश्चर्यना महिमाए तमारीज पेठे पोतानी बुद्धिये कटप्यो जे चैत्यवास तेनो अंगिकार • करवानुं प्रतिपादन करे ने माटे सुविहितने चैत्यवास नथी. माटेतुं
चैत्यवास सिद्ध करे नेते खोटो .
टीका:-किच यत्र मुनयों वसंति तनिश्राकृतं स्यात्तदा ज. त्थ साहम्मिया बहवेत्याद्यागमेन यत्र चैत्यादौलिंगिनो वसंति तदनायतन मित्यनायतनत्वानिधानं विरुध्येत ॥ तस्मानतएवा वसीयते साधुनिवास रहितं निश्राकृतमिति ॥
__ अर्थः-वळी ते कडं हतुं जे, जे, जगाये मुनि निवास करे ले, ते निश्राकृत होय ए प्रकारचें तारूं कहेवं साचं होय तो “ जथसाइम्मिया बहवे” इत्यादि आगमे करीने जे चैत्यादिकने विषे लिंगभारी बसे ले से अनायलन कहीए ए प्रकार- अनायतनपणानुं क
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9. अथ श्री संघपट्टकः
(१६१)
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हेवं ते विरुद्ध थात एटले ए प्रकारचें कहे, न थात एवं कहवाथीज निश्चय थाय जे जे साधु निवास रहीत ने तेज निश्राकृत .
टीकाः-एवं च चैत्यवास इदानींतनमुनीनामुचित श्राग. मोक्तत्वादिति हेतुरुक्तन्यायेना गमोक्तत्वस्यासिद्धत्वादसिधः॥ यदप्युदितंमा सैत्सीत्सादासिकांताच्चैत्यवास स्तथापि गीतार्थाचरित्वा त्सेत्स्यतीति यच्चतस्यैव च श्रीमदार्य रक्षितपादैरित्यादिमा च्छवास सएही त्यंतेन समर्थनं तदप्य संगतं ॥
अर्थः-वळी ते कयुंजे या कालना मुनिने चैत्यवास करवो 'उचित , आगममां कडं ठे ए हेतु माटे एम जे स्थापन कयु हतुं ते पूर्व कही देखामयो एवा न्यायथी भागममां कहेवापणुं असिक थ, माटे ए हेतु पण असिक थयो एटले खोटो थयो आगममा चैत्यवास करवानो कोई जगाए कह्योज नथी वळी तें कह्यु जे सादात् सिझांतमां चैत्यवास कयो नथी तो पण गीतार्थ पुरुषे आच. रण कर्यो जे तेथी सिद्ध थशे जे माटे थार्यरक्षित आचार्य इत्यादि श्रारंनीने “ च्छवाससएही ” त्यां सुधचैत्यवास करवानुं समर्थन कर्यु ते पण असंगत अघटतु .
टीकाः-च्छवास सएहीत्याद्याप्तोपदेशस्य नगवत्प्रणोता गमेष्वनुपलंनात् ॥ मूलागमेन विरोधाच ॥ तथाहि ॥ श्रीमदार्यरक्षितपादेषु स्वर्गगतेषु प्रागेव प्रतिवादि निराचिकीर्षया । मथुरापुरीप्रेषितेन गोष्टामाहिलेन जनपरंपरया गुरूणां स्वर्ग गमनं उर्बलिकापुष्पमित्रस्य सूरिपदप्रतिष्टा माकर्ण्यदर्पोध्धुर
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*(१६२)
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. अथ श्री संघपट्टकः
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चेतसा जातमत्सरेण तत:समागत्य व्याख्याणे श्रीपुर्बलिका पुष्पमित्रेण साई प्रारब्धे विवादे ततोयुक्तिसिद्धांतान्यां प्रतिपाद्यमानेनापि मिथ्यानिनिवेशात्तद्वचन मनन्युपगच्छता संघोद्घाटना निन्हवत्वं प्रतिपेदे इत्यनिहित मावश्यके ॥
अर्थः-जे च्छवाससएही इत्यादि हितोपदेशकनुं वचन तें बढुं ते तो नंगवंतनां कहेलां जे श्रागम तेने विषे क्यांश पण देखातुं नथी ने मूल आगमथी ए वचन विरुफ ने एटले मूल आगमनी साथे ए वचन मलतं नथी श्रावतुं ते कही देखामे ठे आर्य रक्षित श्राचार्य स्वर्गमां गया पहेबुंज प्रतिवादिनुं निराकरण करवानी श्छाये मथुरांपुरीमा मोकल्यो जे गोष्टामाहिल तेणे लोकनी परंपराये गुरूस्वर्गमां गया अने दुर्बलिका पुष्प मित्रने सूरिपदनी प्रतिष्टा आपी ए वात सांजळी गर्वे करीने नन्मत्त जेनुं चित्त ले ने थयो ने अहंकार जेने एवो ते गोष्टामाहिल त्यांथी थावीने व्याख्यानने अवसरे श्री दुर्वलिका पुष्पमित्रनी साथे विवाद श्रारंज्यो त्यार पठी युक्तिथी तथा सिद्धांतथी घणुं समजाव्यो पण मिथ्याबना अन्तिनिवेश थकी ते दुर्वलिका पुष्प मित्र श्राचार्य वचन थंगीकार न करतां एवो ते गोष्टामाहिल संघनो नमाह करवाथी निन्दवपणाने पाम्यो एम आवश्यकजीमां कडं बे.
.टीकाः-तथाहि कार्यमत्र ज्ञानादिकं ॥ कऊंनाणाय मितिवचनात् ॥ तस्य च लेशेनाप्यत्रानुत्सर्पणात् ॥ गीतार्थाचरितत्वस्य कालमानविरोधेना पास्तत्वात् ॥ देवप्रव्योपजोगाशातनादि निश्च महादोषत्वेनास्य ॥ स्तोकापरायस्वानुपपत्तेः॥
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48. अथ श्री संघषट्टकः
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(१६३)
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अर्थः-ते कही देखामे ले जे अहीं कार्य ते ज्ञानादिक जाणवू केमके कार्य तो ज्ञानादिक एवं शास्त्रनुं वचन , ने ते तो लेश मात्र पण अहीं प्रगट नथी ए हेतु माटे, गीतार्थ जे पाचरित तेने कालमाननो विरोध आवे बे. तेणे करीने दूर कयु माटे चैत्यवास करवामां देवयनो नपन्नोग थाय तथा आशातना थाय तेणे करीने महा दोषनी प्राप्ति थाय ने माटे एने थोमा अपराधपणानी प्राप्ति नथी, एटले घणोज अपराध एमां रह्यो ।
टीकाः-अत एवन बहुगुणत्वमिति आगमाविरूझाचरणानन्युपगमे जगवदप्रामाण्या संजनंत्वस्या श्रागमविरोधन निरस्तं चैत्यवासप्रतिषेधकागमेनैव प्रागुक्तेनास्या आगम विरोधस्य स्फुटत्वात् तद विरूझाया एवचास्या प्रामाएयो पगमात् ॥
अर्थः-एज कारण माटे “न बहुगुणत्वं इत्यादि जे तें कडं ते तो श्रागमथकी अविरूद्ध आचरणानो अंगीकार न करीए तो नगवंतना वचननुं अप्रमाणिकपणानी प्राप्ति श्रावे पण आचरणानुं तो श्रागमना विराधे करीने निराकरण करवापणुं माटे पूर्वेकह्यो जे चैत्यवासना निषेधनुं आगम वचन तेणे करीने ए आचरणाने बागम विरोधपणुं स्पष्ट डे, माटे ते आगमथी. अविरूक एवीज. आचरणानुं प्रमाणिकपणुं .
टीकाः-ययुक्तं ॥ श्रायरणा विहु श्राणाविरूगाचेव होई नायंतु शहरा. तिस्थयरासायणत्ति ..............
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः- आचरणा पण जे तीर्थंकरनी श्रज्ञाने श्रविरुद्ध होय ते प्रमाण गाय बाकी बीजी तो तीर्थंकरनी आशातना दे ||
( १६४ )
टीका :- यदप्यत्राशहा चरितवाद्या चरितलक्षणोपपादनं तदवयं ॥ तथाहि ॥ कालाद्यपेक्षया गुरुलाधवचिंतया यशद्वैरियमाचरणा व्यधायीत्यवादि जवताव तत्रनताव दुत्सूत्रा चरशापराणां कालापेक्षा परित्राणाय ||
अर्थः-वळी जे तें यहीं शव पुरुषे जे श्राचरण कर्यु इत्यादि श्राचरण लक्षणनुं जे प्रतिपादन कर्यु ते पण दोष नरेलु बे तेज कही देखा ने जे कालादिकनी अपेक्षाये करीने तथा गुरूलाघवना विचारे करीने शह पुरूषोए चैत्यवासनुं श्राचरण कर्यु बे एम जे तमे कहयुं. तिहां पण उत्सूत्र आचरणाने विषे तत्पर एवा जे पुरुष तेने कालादिकनी अपेक्षा करवी ते कां रक्षण मणी नथी.
टीका:- तथाच तन्निर्युक्तिः पंचसीए चुलसीए तझ्या सिद्धिं मस्त वीरस्स ॥ श्रवठियापदि दसनरनयरे समुप्पन्ना ॥
अर्थः- वली तेनो नियुक्तिकारे को वे जे.
टीका:- तथाचा नयोगथयो व्यक्तदृष्टयुत्पाद जवदुपदशितार्यरक्षित प्रकल्पित चैत्यवासयोः कालमानं पर्यालोच्यमानं न घटांप्रांचतीति कथं न विरोधः ॥ किंच सिद्धांतात् साक्षाद
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+8 अथ श्री संघपट्टकः
( १६५ )
सिद्धागमोक्त देतौदूषिते स्तुताईंगीतार्थाचरितत्वं देतुरिति ब्रुवाणस्य जवतो हेत्वंतर निग्रहस्थानापत्तेः ॥
अर्थ: "बळी बे गाथाने विषे अव्यक्त दर्शन ने तें बतावेला श्रार्यरक्षित ते कलप्यो जे चैत्यवास तेनुं कालमान विचारी जोतां प्रतिशेज घटतुं नथी माटे विरोध केम न याव्यो कहुं हुं, वळी सिद्धांतथी साक्षात् सिद्ध नथी यतो एवो जे आगमोक्तरुपी तारो हेतु ते दोष माने सते तें कयुं जे गीतार्थनुं श्राचरणपणा रुपि हेतु था. ए रोते कहेतो एवो जे तुं, ते तारा बीजा देतुने पण निग्रहस्थाननी प्राप्ति थर एटले खंमन थयुं.
टीका: - यदपि निस्सकमेत्यादिना श्राचरणाया श्रागमावि - रोधानिधानं तदपि निस्सकमेकाइगुरुइत्याद्यागमस्य वस्तुतोव - सतिवासस्थापकत्वेना पास्तं ॥ यदपि विलंबीनणेत्यादिना चैत्यवासाचरणायाः प्रामाण्याच्युपगमवर्णनं तदप्यत्र कार्याव लंबनादेरनावाद पाकर्णनीयम् ॥
अर्थ:-वळी तें निस्सकन इत्यादि वचने याचरणानुं आगमी विरोधपणुं कं ते पण निस्कने हाइगुरु इत्यादि श्रागमने वस्तुताये तो वसतिमां साधुने रहेतुं एवं स्थापन करी देखामयुं ते करीने खंगन कर्यु वली ते जे विलंबिण इत्यादिके करीने चैत्यवासनी श्राचरणानुं प्रामिणिकपणुं कयुं हतुं ते पण इहां कोई कार्यनुं अवलंबनादिक नथी माटे एतो सांजळवा जेवुंज नथी.
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(१६६)
-50 अथ श्री संघपट्टकः
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टीका:-॥ यदाह ॥ कालोवि वितहकरणेगं तेणे वहोश्करगं तु ॥ नहि एयंमिविकाले विसाइ सुहयं श्रमंतजुझं ॥
अर्थः-खोटुं काम करवामां काल, आलंबन प्रमाण गणाय नहीं केम के श्रा कालमां पण मंत्रित कर्या वगर विषादिक खावाथ। प्राण जाय .
टीका-किंच कयंगुरु लाघवचिंता किंस्तोक गुणपरित्यागेन प्रजूततम गुणोपार्जनं ॥ यदाह ॥ अप्पपरिचा एणं बहुतरगुः णसाहणं जहिंहोइसा गुरुलाघवचिंता जम्हानानववन्नत्ति ॥
अर्थः-वळी ते कही जे गुरु लाधव चिंता ते कइ . शुं थोमा गुणना त्यागे करीने अतिशे घणा गुणर्नु उपार्जन कर, एडे के बीजी जे. जे माटे शास्त्रमा कयुं जे जे अपनो परित्याग करीने अतिशे घणा गुणनुं ज्यां साधन डे ते गुरु साघव चिंता कहीए.
टीकाः-तथाहि अस्यांचैत्यवासा चरणायां तीर्थानुहित्यादयो नूयांसो गुणाः ॥ दोषश्च देवचिंताकरणेन अव्यस्तवांगी कारोऽपति॥अहोस्विद् गुरोजगवतो लाघवं अवज्ञाचिंतयेति॥
अर्थः-तेज कहे जे जे आ चैत्यवासनी आचरणाने विषे तीर्थनो उबेद न थाय इत्यादिकघणा गुण ने दोषतो देवनी चिंत्या करवी तेणे करीने अन्य स्तवनो अंगीकार करवारुप अल्प डे इ.
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8. अय श्री संघपट्टकः
(१६७)
त्यादि ए तारे कद्देवानुं ले के गुरु एवा जे जगवंत तेनुं लाघवपणुं एटले अवज्ञा तेनी चिंता तेणे करीने गुरु लघुपणुं तारे केहेवार्नु
टीकाः-नतावदाद्यः पदः ॥ चैत्यवासाचरणान्युपगमे यतीनां देवकुलकर्मांतरवाटिकादेत्रादिचिंतादिनिश्चारित्रस. र्वस्वापहारेण बहुत्यागात् ॥ न चाल्पगुण लिप्सया बहुगुणत्यागाय स्पृहयंति प्रेहावंतः ॥
यदुक्तं॥ नय बहुगुण चाणेणं थेव गुणपसाहणं बुहजणाणं ॥
झंक्याश् कांकुसलासु पयहियारंना ॥
अर्थः-तेमां तारो जे प्रथम पद ते घटतो नथी केम जे चैत्यवासनी आचरणानो अंगीकार करे त्यारे यतिने देवकुल संबंधि जे बीजां कर्म वामी खेतर इत्यादिकनी चिंता करवी पमे तेणे सर्व चारित्र जाय माटे घणो त्याग थाय ए हेतु माटे अल्प गुणने पामवान श्छाए बुद्धिवान पुरुष घणा गुणनो त्याग करवानी स्पृहा नथी करता. जे माटे शास्त्रमा कयुं जेघणा गुणनो त्याग करीने थोमा गुणनुं साधन पंमित जन नथी श्चता ने कुशल पुरुष कदापि करे तो सारी पेठे विचारीने आरंन करे.
टीकाः अथद्वितीय पक्षः ॥ तदेवमेतत् ॥ एवं विधोत्सुत्रा चरणाया जगवद्वाघवहेतुत्वात् ॥ यदाह ॥ सुयबळाचरणरया पमाणयंतो तहाविदंलोगं ॥ जुवणगुरुणो वराया पमाणयनावगच्छति ॥
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( १६८ )
-18 अथ श्री संघपट्टकः -
अर्थ:- दवे बीजो जें पक्ष कह्यो ते तेमज दें. जे ए प्रकारनी उत्सूत्र याचरणा करवी. तेनेज भगवाननी लघुतानु हेतुपण बे जे
माटे शास्त्रमांक बे जे शास्त्रमां बांधेली जे याचरणा तेने विषे श्रासक्त एवा जे पुरुष ते जे प्रमाणे करे बे ते, जे प्रकारे करे बे ते प्रकारे लोक पण करे बे केमजे मोटा पुरुष विना बीजानुं प्रमाण नथी थतुं.
टीकाः - श्रतएवैवं विधानां धर्मायोग्यतैव सिद्धांते प्रतिपादिता ॥
यदाद || सुत्ते चोजो न्नं उद्दिसि तं न परिव सो तं तवायवको न होई धम्मं मि श्रहिगारी ॥
अर्थ :- एज कारण माटे ए प्रकारना पुरुषोने धर्मनुं श्रयो ग्यपणुंज सिद्धांतने विषे प्रतिपादन कर्यु दे.
टीका:- एवंचोत्सूत्रं चैत्यवास माचरंतस्ते कथमाहास्तादृशांश्रुते शठत्वा निधानात् ॥
यदाह ॥ नस्सूत्तमायरंतो बंधई कम्मं सुचिक्कणं जीवोसंसारं च पवइ मायामासं पक्कुवश्य ॥
अर्थ:- माटे ए प्रकारे उत्सूत्र चैत्यवासने श्राचरता ते केम
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8. अथ श्री संघपट्टकः
(१६९)
अशठ कहीए शास्त्रमांतो तेवा पुरुषने शठ कह्या बे, ते शास्त्र वचन कहे जे नत्सूत्रने आचरता जे पुरुष ते अतिशे चीकणां कर्मने बांधे ले ने संसारने वधारे . तथा माया कपट अतिशे करे ..
टीका:-जीववधायवद्यरहितत्वान्न सावद्यैषा चरणेत्येत दप्ययुक्तं ॥ जीववधादिसकलपापेज्योप्यधिकत्वेन प्रतिपादना.. पुत्सूत्रप्ररुपणायाः॥ तथा चाहुः श्रीमत्पूज्या एतत्प्रकरणकारा.. एव ॥ अहह सयलन्नपावाहि वितहपन्नवण मणुमवि पुरंतं ॥ जं मरिइनवतदजियमुक्यअवसेसलेसवसा ॥ सुरथुयगुणो. वि तित्थेसरोवितिहुअणअतुबमोवि ॥ गोवाहिवि बहुहा कथि तिजयपहु तपि ॥ थीगोबंजणणंतगावि केश्पुण द. ढप्पहारा ॥ बहुपावावि पसिझा सिझा किर तंमिचेव जवे ॥
अर्थः-वली तें कडं जे, जीववधादि पापरहितपणुंए हतु माटे ए चैत्यवासनी आचरणा सावद्य नयी ए जे का ते श्रयुक्त , केम जे जीववध आदिक सर्व पाप थकी अधिकजे नतसूत्र प्ररुपणा तेनुं प्रतिपादन डे ए हेतु माटे ते प्रकारे श्रीमत् पूजनीक एवा ा प्रकरणना कर्त्ता तेणे कडं ने जे.
टीका:-अत एवैषा नूनं गीतार्थे निवारितापिकैश्चिदेवैहिक सुखलोलुपतया परलोकनिरपदै राहता ॥ यदपि हरिनाचार्यादीनां तथाप्रवृत्तिश्रवणादेषा बहूनामनुमतेत्यवादि तद. पिकिं हरिनाचार्यादीनां तथाप्रवृत्ति श्रवण प्रवादपारंपर्यात उतस्वित्तद्यथेषु चैत्यवासप्रतिपादनात्
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
अर्थ:-एज कारण माटे निश्चे गीतार्थोये ए चैत्यवालनी चरण निवारण करी बे तोपण केटलाक या लोकना सुखमां लोपिने परलोकनी अपेक्षा रहित एवा लिंगधारी पुरुषोये यादर करी . वळी तें कह्युं जे हरिनादिक आचार्यनी ते प्रकारनी प्रवृत्ति के एटले चैत्यमा रहेवानी प्रवृत्ति सांजळीए बीए माटे श्रा प्रवृति बहु पुरुषोए अनुमोदेली बे एम जे कधुं ते पण शुं हरिजजादि आचार्यनी तेवी प्रवृत्ति संजळाय बे ते लौकिक वातनी परंपराथी संजळाय बे के ते हरिभद्रसूरिना ग्रंथने विषे चैत्यवासनुं प्रतिपादन कर्यु बे तेथी संजळाय डे ?
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टीका:- न तावदाद्यः ॥ प्रमाणशून्यस्यप्रवाद पारंपर्यस्याक्षारक इत्या दिवद सत्यत्वात् ॥ श्रस्त्येवात्र तद्ग्रंथेषु चैत्यवास प्रतिपादन मेव प्रमाणं द्वितीयः पक्ष इतिचेत् ॥ ॥ तदूग्रंथार्थ पर्यालोचनेन यतीनां चैत्यवास निषेधाध्यवसायात् ॥
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अर्थः- तेमां पेहेलो पक्ष जे लोकनी परंपरारुप तेतो प्रमाण शून्य एटले लोकनी वातनुं कां प्रमाण शास्त्र चर्चामां पाय नही मजे कोइ युं जे तुं यांख राख, इत्यादि लोक वचन श्र सेत्य माटे तारो पहेलो पक्ष खंमन थयो एटले युक्त नथी. ने बीजो पक्ष जे ए हरिज सूरिना ग्रंथने विषे चैत्यवासनुं प्रतिपादन कयुं वे एम जो कहे बे तो तेनो उत्तर जे ए हरिजसूरिना ग्रंथना नुं पूर्वापर विचारी जोवुं तेणे करीने यतिने चैत्यवास न करवो एज निश्चय थाय वे.
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9. अथ श्री संघपट्टकः
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(१७१)
टीकाः-तथाहि ॥ तैरेव जिनन्नवन निर्मापणं विधि पंचाशके श्राजस्य स्वाशयवृद्धि मधिकृत्योक्तं ॥ पिहिस्सं एत्य अहं, वंदणग निमित्त मागए साहू ॥ कयपुन्ने जगवते, गुणरयणनिही महासत्ते
अर्थः तेज कही देखामे ले जे ते हरिना सूरियेज जिननवननो नीपजाववानो विधिपंचाशक नामनो ग्रंथ कर्यो तेने विषेश्रावकने पोताना आशयनी वृझिनो अधिकार करीने कडं ले जे
टीका:-यदिह्ययं चैत्यवासमनिप्रेयात् तदा जिनजवन निमापयितुः श्रामस्याशयवृद्धिं निरूपयन् चैत्यवंदननिमित्त मा
गतान् साधूनहमत्र प्रेक्षिष्य इति नानिदधीत किं त्वत्र वसतः .. साधून प्रेक्षिष्य इति प्रतिपादयेनचैवमतो निश्चीयते नाय- .
मस्य चेतसि निविशत इति.
अर्थ:-जो था चैत्यवास करवो एवी रोये हरितप्रसूरिने वसन होत तो जिननवन निपजावनार श्रावकना आशयनी वृद्धिनुं निरुपण करता सता चैत्यवंदन निमित्त श्रावेला साधु तेमने हुँ श्रहीयां देखीश एम न कहेत ॥ त्यारे शुं कहेत जे अहिं चैत्यमां वसता जे साधु तेने देखीश एम प्रतिपादन करत. ते तो एम प्रतिपादन नथी कर्यु माटे निश्चय करीए बीए जे ए चैत्यमा रहेवार्नु ए हरितप्रसूरिना चित्तमांज न हतुं माटे ॥
टीका ननु कथमयं निश्चयोयावताऽस्यैव ग्रंथांतरेषु जि.
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(१७२ )
- अथ श्री संघपट्टकः
बिंब पइत्य मित्यादिना चैत्यवासप्रतिपादनोपलंना दितिचेत् ॥ न ॥ ग्रंथांतराणा मप्येतद विरोधनैव व्याख्यानात् ॥ नहि तथाविधा महाग्रंथकाराः परमात्मान दयुगीनसमय सिकांतार्थपारावारपारगताः परस्पर विरोधिनमर्थं स्वयंथेषु नि अंत्संतीति संभवति ॥
अर्थ:-त्यारे लिंगधारी बोले वे जे एवो निश्चय क्यांथी कर्यो, माटे मना करेला बीजा ग्रंथने विषे कां बे जे जिनबिंबन प्रतिष्टाने इत्यादि वचने करीने चैत्यवासनुं प्रतिपादन मोए कर्यु बे, त्यारे उत्तर करनार कहे बे जे एम जो तारे कहे होय तो तेन कहीश केमजे बीजा ग्रंथनुं पण ए ग्रंथनी साथे विरोध र हित व्याख्यान बे ए हेतु माटे, केम जे तेवा मोटा पुरुष मोटा ग्रंथ कनार ने या कालना समयनां सिद्धांत, तेना अर्थ ते रुपी समुद्र तेना पारगामी ते परस्पर विरोध सहित अर्थने पोताना ग्रंथाने विषे केम बांधशे नहिज बांधे एवो संभव बे.
टीका:-- अन्यथा तेषाम पिलोक विप्र लिप्सयैव प्रवृत्तत्वेना ना. तत्वप्रसंगात् ॥ तस्मात् तदूग्रंथः सकलोपि पूर्वापरा विरोधेन सम्यक् विविच्य व्याख्येयः ॥
अर्थः- जो एम न कहीए तो ते मोटा पुरुषने पण लोकने उगवानी इवाए प्रवर्त्तवाथी हितकारी पणानो प्रसंग थाय ते हेतु माटे ते सर्वे ग्रंथ पण पूर्वां पर विरोध रहित सारी पेठे विचारीने व्याख्यान करवा योग्य बे, पण एक ककको तेमांची लेइने पोताना
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-49. अथ श्री संघपट्टक
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मुंमा अजिप्राय साथे मेलवीने जेम तेम व्याख्यान न करवू.
टीका:-तथाह्यल्प क्रियांवसतिं व्याचदाणेन श्रीहरिननसूरिणा व्याख्यातं॥ इथ्य सयहा नेया,जा नियत्नोगं पमुच्चकारविया ॥ जिणबिंबपश्त्थं, अहवा तकम्मतुबति॥या निजन्नोगं स्वकुटुंबोपन्नोगं प्रतीत्योदिश्य गृहिणा कारिता सास्वार्थावसतिरत्रच स्वोद्देशेन कारितत्वात् स्वार्थास्फुटैव न केवल मियमेव यावदन्यापीत्याह ॥
.. अर्थः-ते विरोधनो परिहार करीने व्याख्यान कही देखाने,
जे अल्प क्रियावाली वस्ती एटले निवास तेने कहेता एवा श्री हरिनमसूरिये व्याख्या करी जे जे, पोताने नोगववाने अथवा पोताना कुटुंबने जोगववानो नद्देश करीने गृहस्थे करावी ते स्वार्थी वसति कहीए केम जे अहीं पोताना नद्देशे करीने कराववापj ले माटे स्वार्थ प्रगट जणायज डे पण केवल एज स्वार्थ एम नहीं त्यारे शुं ? तो बीजी पण स्वार्था डे एम कहे .
टीका:-जिनबिंबप्रतिष्टार्थ ॥ अथवेत्यनेन स्वार्थकारितेत्य नुषज्यते ॥ जिनबिंबप्रतिष्टामुद्दिश्य गृहिणा कारिता सापिस्वाA ॥ नन्वेषा साधर्मिकनिमित्तं कृतत्वाद्यतीनां न कस्पिष्यत इत्यत्र थाह ॥
अर्थ:-जिनबिंबनी प्रतिष्टाने अर्थे करावी ते पण स्वार्था २ ॥ अथ ए पदे करीने पोताने अर्थे करावी एवो संबंध थाय बे. जिन
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1 अथ श्री संघपट्टका
बिंबनी प्रतिष्ठानो उद्देश करीने गृहस्थे करावी ते पण स्वार्था कहीए, पण ए साधर्मिक निमित्त करावी . माटे यतीने नही कल्पे एम नही कहे, एतो साधुने कल्पे ने एम कहे .
टीकाः-तत्कमतुल्या जिनाधाकर्मसमा ॥ यथा जिनस्थासाधर्मिकत्वातन्निमित्तं निष्पन्नं नक्तादिमुनीनां कल्पते एवं वसतिरपि॥ यथोक्तंसाहम्मिन न सक्खा, तस्सकयं तेण कप्पर जईणं ॥ जंपुण पमिमाण कयं, तस्स कहा का अजीवत्ता ॥
अर्थः-जे ते जीवना कर्मने तुल्य जे. एटले जिनना प्राधाकर्म समान केम जे जिनना साधर्मिक जे. ए हेतु माटे ते जिनने अर्थे निपज्यु जे नक्तादि ते मुनिने पण कल्पे ते शास्त्रमा कछु जे.
टीका-तेनैतदुक्तं जवति ॥पूर्व हि प्रतिष्ठा प्रयोजनेन पहिणा स्वरविणेनपृथकू मंगपादिः कारितः॥ ततः पश्चादृत्ने प्रतिष्ठाप्रयोजने प्रतिमा मध्ये जिनगृह निवेशिता, मंम्पादिश्च प्रतिमाधिष्टानशून्यः श्रावकसत्तयैव ॥ ततस्तदनुझ्यातद्गो हे व तत्रापि यतीनां निवासे न चैत्यवाससिभिः जिनबिंबशून्य त्वात्तस्येति ॥
अर्थः-तेहीज कारण माटे कयु ले जे पूर्व प्रतिष्ठानुं प्रयोजन के ते हेतु माटे गृहस्थे पोताना अव्यवते जूदा मंगपादिक -
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अथ श्री संघपट्टक:
सव्यो होय डे ने त्यार पडी प्रतिष्ठानुं प्रयोजन समाप्त थया पछी प्रतिमा जिनघरनी मधे स्थापन करीने ए मंगपादिक प्रतिमा वि. नानुं शून्य श्रावकनीज सत्ताये रघु होय जे. त्यार पड़ी ते श्रावकनी श्राज्ञा लश्ने जाणे ते श्रावकना घरमांज निवास करे तेम ते मंगपादिकने विषे साधु निवास करे .माटे ए प्रकारे चैत्यवासनी सिकि डे केमजे ते मंगपादि जिन बिंबवमे रहित बे. ए हेतु माटे...
टीकाः-एवं जिनन्नवनोद्देशेन निर्मापयितुरुत्तरोत्तरफल प्रतिपादयता तेनैवानिहितं. ॥ जिणबिंबस्स पका, साहुनिवासोय इत्यादि ॥ पूर्व हि श्राझोजिनगृहं कारयति ॥ ततोजिनबिंब ततस्तत्प्रतिष्टां ॥ ततस्तत्र ग्रामादौ साधूनां निवासोऽवस्थानं जवति ॥ वैत्यगृहाध्यासितेहि नगरादौ प्रायेण विहारकर्मा- . दिनायतीनां निवासो नवति नत्वत्रोक्तं जिनगृहे साधुनिवास इत्यतः कथमितो जिनजवनवासः सिध्येत ॥
अर्थः-एहीजप्रकारे जिननवनना नद्देशे करीने निपजावनार पुरुषने नुत्तरोत्तर फल थाय एम प्रतिपादन करता तेहीज हरिता सरि तेणेज कडं डे जे जिनबिंबनी प्रतिष्ठाने साघुनो निवास ज्यां ने इत्यादि श्रावक प्रथम जिन घर करावे .ने त्यार पनी बिंब करावे के ने त्यार पठी तेनी प्रतिष्ठा करावे डे त्यार पड़ी ते प्रामादिकने विषे साधनो निवास थाय जे. केमजे चैत्यगृह जेमा रह्यं होय एवं नगरादिके तेने विषे बहुधा विहारक्रम आदिके करीने थाव्या एवा साध तेनो निवास थाय हे पण एम नथी कडं जे ए जिनसमा
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(१७)
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अथ श्री संघपट्टकः
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साधुनो निवास थाय माटे ए वचन थकी केम जिनभवन वास सिक थाय.
टीकाः-एवंदेयंतु न साधुन्य इत्यस्याप्ययमर्थः ॥कारयिवापि गृहिणा साधुन्यः पुनर्वस्तुं जिनगृहं न देयं जगवदागमे निवारणात् ॥ यथाच येनच प्रकारेण शुभवसतिनक्तपानकादि धर्मोपग्रहदानेन तत्र नगरादौ विहारक्रमेणागताः संतस्ते तिष्टंति तथा कार्यं ॥ वसहीसयणासानत्तपाणनेसजावत्थरनाशाजइविन पङात्तघणो, थोवा विहु थोवयं दे ॥इतिवचनात् ।। वसत्यादिदानं विना तत्रागतानामपि यतीनामवस्थानानुपपत्तेः।।
अर्थः-वळी एमज साधुने न आप, तेनो पण आ अर्थ जे. जे गृहस्थे करावीने पण साधुने निवास करवाने जिनधर न आप, केम जे जगवत्ना आगममां निवारण कयु डे ए हेतु माटे जे प्रकारे एटले शुद्ध निवास जक्तपान आदिक धर्मनां उपकरण देवे करीने त्यां नगरादिकने विषे विहारना अनुक्रमे आव्या जे साधु ते रहे तेम करवू, निवास, शयन, आसन, नक्त, पान, औषध, वस्त्र, पात्रा"दिक यतिने आपे केम जे यतिनो विनय करवाने विषे जेणे धन जो. मयुं वे एवो वितित गृहस्थ थोमामांथो थोडं पण आपे इत्यादि वचनथी निवास आदीक दीधा विना त्यां नगरादिकने विषेश्राव्या एवा पण यतिने रहेवानुं न थाय ए हेतु माटे.
टीकाः-गृहिणोपि च यति विहारदेश मंतरेणोत्सर्गेण वासानाधिकारान् ॥
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अथ श्री संघपट्टकः
यमुक्तं ॥
श्रावकविधि मजिद्घता श्रीविरहांकेन॥निवसिङ तत्थ सट्ठो, साहूणं जथ्थ होई संपाउँ ॥ चेहरा जम्मि, तदन्नसाहम्मिया चेव।।
___ अर्थः-गृहस्थने पण जे जगाए साधुनो विहारन थतो होय तेवा स्थळमां नत्सर्ग मार्गे रहेवानो अधिकार नथी. जे माटे श्रावक विधिने कहेता श्री विरहांक तेमणे कयुं जे जे, त्यां श्रावक रहे ज्यां साधुनुं आगमन थतुं होय तथा ज्यां चैत्य देरासर साधर्मिक र हेता होय ते जगाए रहे.
टीका:-तथाऽदयाऽविनश्वरीनीवीमूलधनंगृहिणाहि जिनगृहं कारितवता शीर्णजीर्णतत्समारचनाय समुद्घके प्रत्यं निक्षिप्तं ॥ तस्य च अव्यस्य वृध्ध्यादि विर्डितलानेन जिनगृह समारचनया नवत्यक्षया नीवी.
अर्थ:-वळी अक्षय एटले नाश न पामतुं एवं मूल धन कीयु तो जिनघरने करावतो एवो गृहस्थ तेरो पमतुं अथवा जिर्ण थतुं एवं जिनघर तेने समारवाने अर्थे मानमामां नाख्युं तेने मूल धन कहीए ते अव्यने वधारवाथी जे लाज थाय तेणे करीने जिनघरनी सार संजाळ थया करे माटे ए धन अक्षयनीवी एप्रकारे कद्देवाय.
टीका--तथाहि यस्मात् एवमनेन प्रकारेण इदं जिनगृहं ज्ञेयं . वातरको । एतदुक्तं जवति ॥ तत्र नगरादौ स्थितानां हि
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( १७८ )
- अथ श्री संघपट्टकः
साधूनां जिनगृहागतानां धर्मदेशनया नव्यलोकस्योत्तरोत्तर गुणस्थानप्रापणेनाक्षयनीवी समारचनादिना भूरिकाल मनुवृत्याच कारयितुस्तद्वंश्यानां तदन्येषां चाचिंत्यपुण्यसजारकारणत्वात् संसाराकूपारतारणाच्च भवति जिनजवनं वंशतर कांममिति ॥
अर्थ :- तेज कही देखा बे जे जे हेतु माटे ए प्रकारे ए जिनघर वंशतहकांम बे एम जाएवं एटले वंश परंपराने तारणहार धुं बेजे ते नगरादीकने विषे रह्या जे साधु ते धर्म देशना देवीए हेतु माटे जिनघर प्रत्ये श्रावेला तेमनी धर्मदेशनाएं करीने जव्य प्राणीने उत्तरोत्तर गुण स्थाननुं पामवुं थाय ए हेतु माटे ने
नवी करीने जिनधरनी सारसंजाळ घणा काळ सुधी चालती रहे तेथे करीने करावनारने तथा तेना वंशमां थ एला पुरुषोने तथा बीजाने चिंतनमां पण न यावे एवो पुन्यनो समूह थवानुं कारण े. ए हेतु माटे ने संसार समुद्र थकी तारण करनार बे माटे ए जिनजवन वंशतरकांम बे एटले वंश परंपराने तारण करनार बे.
टीका:- एवंचास्य तात्विके व्याख्याने कुतश्चैत्यगृहवासा वकाश ॥ यदपि समरादित्यकथायां साध्व्याचैत्यांतः प्रतिश्रय प्रतिपादनेन चैत्यवासव्यवस्थापनं तदपि सकलजनताप्रकृतिसु जगत्वेनास्यामसर्व दोषायाम तिसरसायां माधुर्यसौकुमार्य वर्यायां कथायां पृथिव्यामिव निहितं चैत्यवास प्रतिपादनं बीजमिव प्रचते इति विचिंत्य केनापि धूर्चेना लेखी ति संचात्यते ।।
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अथ श्री संघपट्टक
(१७९)
अर्थः-ए प्रकारचें यथार्थ व्याख्यान करीए त्यारे क्याथी चैत्यवासनो अवकाश आवे एटले चैत्यवासवें स्थापन क्याथीज थाय वळी तें कडं जे समरादित्यनी कथाने विषे साध्वीनो चैत्यनीमांही प्रतिश्रय डे एटले तेमां रही तेने केवलज्ञान उपज्यु ले इत्यादि प्रतिपादन कर्यु तेणे करीने चैत्यवासनुं स्थापन करे ते पण समग्र लोकनी प्रकृतिने सुंदर लागे माटे निर्दोषने अतिशे सरस ने मधुर सुकुमार एवी श्रा श्रेष्ट कथा तेने विषे जेम सारी पृथ्वीमां बीज नांखे ने ते विस्तार पामे तेम कोइक धूर्त पुरुषे ए चैत्यवासनुं प्रतिपादनरुपी बीज नांख्युं बे. एटले ल ख्यु एम संनव थाय ..
टीकाः-श्रतएवावश्यक टीकायां पंचनमस्कारनिर्युक्तौ॥रागदोस कसाया, इंदियाणी य पंचवि इत्यादि श्लोकं विवृण्वन् समरादित्यकथाकार एव चित्रमयूरनिगीर्णोदीर्णहारा दिप्रतिवझायां सर्वांगसुंदरीगणिन्याःकथायां चैत्यवासानचिलापनैव केवलज्ञानोत्पादंप्रत्यपीपदत् ॥
अर्थः-एज हेतु माटे आवश्यकजीनी टीकाने विषे पंच नमस्कारनी नियुक्तिने विषे रागद्वेष कषाय पांच इंडियो पण इत्यादि श्लोकहुँ विवरण करता जेम समरादित्यनी कथाना करनार तेणे चित्रमयूरे हारादिक गळी लीधो ने पागे काढी नांख्यो । त्यादि वात वझे बंधायली जे सर्वांगसुंदरी गणिकानी कथा तेने विषे चैत्यवास कह्या विनाज केवल ज्ञाननी उत्पत्तिनुं प्रतिपादन कर्यु .
टीका-इत्थं च तत् ॥ कथमन्यथा तथा विधाः श्रुतधराः
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अथ श्री संघपटक
स्वग्रंथेषु वसतिं विस्तरेण यतीनां व्यवस्थाप्य क्वचिदागम वि. रुखचैत्यवास मनिधास्यति ॥ श्रागमविरोधश्चात्र स्फुटएव ॥
अर्थः-माटे ए वात जो ए प्रकारे न होय श्रने तुं कहे ले ते प्रकारे होय तो एवा मोटा पुरुष श्रुतधर पंचवस्तुकादि पोताना ग्रंथने विषे साधुने वसतिमां निवास करवो एम विस्तार सहित स्थापन करीने क्यारे पण श्रागम विरुष्क एवा चैत्यवास, स्थापन थाय एवं कहेज नहीं ने ते आगम विरुक तो श्रा जगाए प्रगटज देखाय .
टीकाः-तथाहि ॥ अवस्यपिण्यां सुषमःषमाउःषम सुषमयोः सामान्येनैव केवलज्ञानोत्पादप्रतिपादनात् ॥ दुष मायां तु चतुर्थारकप्रनजितानामेव तदनिधानात् ॥ चैत्यवासस्य चानंत तमेन कालेन दुःषमायामेवसमाम्नातत्वात्॥
अर्थ:-तेज विरोध देखामे ले जे अवसर्पिणीकालमा सुख दुःखमा जे त्रीजो थारो ने दुःखमसुखमा जे चोथो आरो तेने विषे सामान्ये करीने ज केवलज्ञाननी उत्पत्तिनुं प्रतिपादन कयु .माटे अने फुःखमा जे पांचमो पारो तेने विषे तो जे चोथा. धारामां प्रव्रज्यो होय तेनेज केवलज्ञान थाय, बीजाने न थाय एम कडं ढे
ए हेतु माटे चैत्यवास, अनंतेकाले दु:खमा कालमांज थवापj. . कडुं ने माटे ए विरोध जणातोज .
टीकाः नच तदारंजएव चैत्यवासान्युपगमः इतिवाच्यं ॥
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8. अब श्री संघपट्टका
(११)
बारसवाससएहिं सढेहि मित्यादिना गणधरपूर्वधरादिपुरुषसिंहात्यय एव सातशीलैः कैश्चिदेव तत्प्रकल्पनस्य श्रवणात्, तत्दत्रन्यायस्य क्षेत्रांतरेष्वपिनवसु प्रज्ञापनात् ॥ अतः कथं चैत्यवासकाले केवलोत्पादः संगच्छेत इति ॥
अर्थः-वळी तारे एम कहेवं होय जे चोथा श्राराना अंते पांचमा आराना थारन कालने विषेज चैत्यवास हतो एम मा. नीशुं तो, ए प्रकारे न कहे, केमजे साढाबारसें वरस थया पनी चैत्यवास थयो. इत्यादि शास्त्र वचने करीने ज्यारे गणधर तथा पूर्व घर आदि मोदा पुरुष [सिंह] नाश पाम्या त्यारेज शाता शीललंपट एवा केटलाक पुरुषोए चैत्यवास कलप्यो जे. एम विशेषावश्यकमां संजलाय ने ए हेतु माटे ने ते श्राश्चर्य क्षेत्र न्याये करीने एटले जेम था नरतक्षेत्रमा दस आश्चर्य थयां तेम बीजां जे नव क्षेत्र तेने विषे पण बीजे रुपे दस आश्चर्य थाय ने एम कदेवापणुं माटे चैत्यवास काले केवलज्ञाननी उत्पत्ति केम संजवे.
टीका- यदपीदानी बहूनामेकवाक्यतयो चैत्यवासप्रवृत्यातत्समर्थनां तदप्यसंगतं॥ सुखलोलतयाश्रुतनिरपेक्षाया बहुजन प्रवृत्तेरप्वमाएयोपगमात् ॥ अन्यथा मरीच्या दिप्रज्ञप्तप्रवृतरपिप्रामाण्योपपत्तेः॥
अर्थः-वळी जे तें कडं के हालमा चैत्यवास करवो एम बहु पुरुषनी एक वाक्यता . एटले घणा पुरुष एम कहे जे ने करे . तेणे करीने चैत्यवासनी प्रवृत्ति बे, एवी रीते प्रतिपादन कर्यु ते पण .
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(१८२)
अथ श्री संघपट्टकः
असंगत ने एटले खोटुं बे. केमजे सुखनी लोलुपताये शास्त्रनी - पेक्षा विना घणा लोकनी जे प्रवृत्ति, तेनुं पण प्रामाणिकपणुं नथी ने तेनुं जो प्रामाणिकपणुं कहीए तो मरीचि यादिक पुरुषोए कहेल. जे शास्त्र विरुद्ध प्रवृत्ति तेनुं प्रामाणिकपणुं थशे ए हेतु माटे
टीका :- सातसंपलं पटानांचेयं प्रकृता प्रवृत्तिः ॥ यदुक्तं ॥ श्रमांमे हि नामाइरियनवद्यायसाहुलिंगी हिं ॥ जिणघरमढावासो, पक प्पि सायसी लेहिं
अर्थः- शाता सुखमां लंपटी एवा पुरुषोनी प्रवृत्ति बे, जे माटे शास्त्रमां कर्तुं वे जे धमाधम एवाने केवल नामे करीनेज श्राचार्य नपाध्याय ने साधु प्रकारे कहे वाता ने शाता सुखना लोलुपी एवा लिंगधारी पुरुषोए जिनघरमां तथा मठमां निवास करवानो कलप्यो बे.
टीका :- यदपि विशेषदोषानु पलंजात् गीतार्थाचरितस्यास्या प्रामाण्यनिरसनं तदप्यसमीचीनं ॥ उत्सूत्राचरणाया विशेषदोषस्य प्रागेव दर्शितत्वात् ॥ गीतार्थाचरितत्वस्य च पार्श्वस्थादिनिराचरितत्वेनापास्तत्वात् ॥ तेषां बहूनामप्या चरणाया अशुद्धिकरत्वेनाप्रामाण्यांगीकारात् ॥ गीतार्थस्य चै कस्यापितस्याः प्रामाण्योपगमात् ॥
अर्थ:-वळी तें कह्युं जे विशेष दोष देखातो नथी माटे गी
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9. अथ श्री संघपट्टकः
(१८३)
तार्थ पुरुषोए ए चैत्यवास आचर्यो बे, माटे अप्रमाणिक नथी. एम जे तारूं कहेवं ते सारं नथी. एटले खोटुं कहुं हुं केमजे नत्सूत्र आचरणा करवी एज मोटो विशेष दोष , एम अमोए प्रथम दे. खाम्युं . ने पासथ्यादिके ए चैत्यवास श्राचर्यो , ए प्रकारे कही देखामवं तेणे करीने गीतार्था चहितरुपी हेतुनुं खमन कर्यु बे. माटे ते घणा पासथ्थाए चैत्यवास आचरण कों तो पण अशुहिनो करनार डे; अप्रमाणिक ले केम जे जो एक गीतार्थ पुरुषे आचरण कयों होय तो पण प्रामाणिकपणुं थाय ए हेतु माटे
टीका:- यदाह ॥
जं जीय मसोहिकरं पासत्थपमत्त संजया मं बहुएहि विआनंनतेजीएण ववहाशे॥ जंजीयं सोहिकरं संविग्गपरायणेण दंतेण ॥ इकेणवि श्राश्नं तेएय जीएण ववहारो ॥
अर्थः-शास्त्रमा कयु डे जे ते अशुद्धि करनार कल्प जे जे पासथ्था ने प्रमत्त एटले मनमां आवे तेम चालनार नाम साधु एवा घशा पुरुषोए आचरण कर्यु ते जीतकल्पे करीने व्यवहार करवा योग्य नथी ने ते जीतकल्प शुद्धि करनार जे जे संविग्न परायण ने दांत एवा एक पुरुषे पण जे आचरण कर्यु जे. ते जीतकल्पे करीने व्यवहार करवा योग्य .
टीकाः-एतेन यदपि गीतार्थाचरितत्वस्या सिक्षाविहेवा
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( १८४) .
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अथ श्री संघपट्टक:
नासनिरासप्रतिपादनं तदपि मुग्धस्य निविममंशुक ग्रंथी कांचनं बधतस्विरेण तत्पतनमनुपलकतो वृत्तांतमनुहरति ॥ हेत्वा
नासोझारं कुर्वतापि जवता हेतोर्गीतार्थाचरितत्वस्योक्तन्यायेन • पतनानवगमात् ॥
अर्थः-एणे करीने जे ते पूर्वे गीतार्थ आचरणरुपी खोटा हेतुनो नाश प्रतिपादन कर्यो हतो एटले चैत्यवास साधुने करवा योग्य . गीतार्थे थाचरण कयों जे. ए हेतु माटे ए प्रकारना हेतुनुं सत्यपणुं प्रतिपादन करवा गयो, तो पण जेम कोश्क मुर्ख पुरुषे सोनानो कमको वस्त्रने मे आकरी गांठ वाळीने बांध्यो पण ते वस्त्र काएं हतुं तेमांथी नीकळी पम्यो ते न दीगे तेम तुं पण ते मूर्ख जेवो डं केम जे तेनुं दृष्टांत तारा उपर लागु थाय ने शाथी के जेम जेम ते हेतुने साचो करवा प्रयत्न करुं हुं तेम तेम ते हेतु पूर्वे कह्यो एवा न्यायथी खोटो पमतो जाय डे ने नलटुं गीतार्थोये चैत्यवास कों नथी, तेमणे पण घणो निषेधज कों ने माटे करवा योग्य नथी एवं स्थापन थाय .
टीका:-यदपि किंच चैत्यवासमंतरेणेत्यादिना तथा तीर्थाव्यवद इत्यंतेन तीर्थाव्यवलित्या चैत्यवासपूतिष्टापनं तदपि न सुंदरं ।। यतः ॥ केयं तीर्थाव्यवछिनिः? किं यतीनां चैत्यांतर्वासेन बहुकालं लगवद्देवगृहबिंबाद्यनुवृत्तिः ॥ अहोस्वित् शिप्यप्रतिशिष्यपारंपर्येणाविचिन्नमसरा सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्रप्रवृत्ति
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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(१८५)
अर्थ-वळी ते चैत्यवास विना अहींथी आरतीने तीर्थनो उल्लेचे न पाय माटे चैत्यवास करवो त्यां सुधी स्थापन कर्य हेतु ते पणं सुंदर नथी. केमजे तीर्थना नच्छेदन नथवापणुं ते शुं ? न.थवो ते कीयो जे साधु चैत्यमां निवास करे तेणे करीने बहु काल सुधी नगवत् तथा देवघर बिंब इत्यादिकनी सेवा चालती रहेवी ए प्रयोजन ले ? के शिष्य तेना शिष्य एवी परंपराये करीने विच्छेद रहित समकित ज्ञान दर्शन चारित्रनी प्रवृत्ति थाय ए प्रयोजन ले ते कहो
... टीकाः-न तावदाद्यः ॥ चैत्यवासमंतरेणापि जगवबिंबा
यत्तिमात्रदर्शनात् ॥ तथाहि पूर्वदेशेऽद्यापि ताहप्राकृतज. नेन कुलदेवताबुझ्या नमसितकीकृतापेयानदयादिनापि नम
स्यमानानां जिनबिंबानामनेकधोपलब्धेः ॥ अन्यतीर्थिकप. रिंगृहीतानां च तेषां तथैवानुवृत्त्युपलं जाच ॥ .
अर्थः-तेमां पेला पद जे जगवत् पूजादिक निरंतर चालती रहे ए रुपी तीर्थनो उच्छेद न थाय माटे चैत्यवास करवो यो. ग्य तेनो नतर चैत्यवास विना पण नगवत्नां प्रतिबिंबनी सेवादि अनुवृत्ति मात्रनुं देखवापणुं , तेज कही देखामे डे जे पूर्व देशमा हजु सुधी पण केटलाक प्राकृत लोको पोताना कुल देवतानी बुझिए नमें ने खीरखांम सुखमा इत्यादि नोजन करोने सेवेलां अनेक जिनबिंब जणाय बे ने अन्यतीर्थिक लोकोए ग्रहण कर्यां जे ते बिंब तेनी पण अनुवृत्ति सेवा तेज प्रकारे चालती देखाय .
...टीका तथाचैतावतैव नवनिमततीर्थाव्यवबित्तिसिझे
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( १८६)
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अथ श्री संघपट्टकः
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किं निष्फलेन चैत्यवाससंरजेण ॥न चैतावता तीर्थाव्यछेदकायनिःश्रेयसादिफल सिकिः ॥ मिथ्याइष्टिपरिगृहितानां प्रतिमानां मोक्षमार्गानंगत्वेनानिधानात् ॥ मिदिहिपरिग्रहित या पमिमानावगामो न हुँतित्ति वचनात् ॥
अर्थ-माटे एटलाज वसे तें मानेलो जे तीर्थनो न उल्ले तेनी सिजि थई माटे शा वास्ते निष्फल चैत्यवासनो समारंन करूंढुं ने जो तुं एम कहे जे एटला वमेज तीर्थनो नछेद न थाय ने मो. दादि फलनी सिकि पण थाय तो मिथ्याष्टिए ग्रहण करी जे प्र. तिमा तेने मोक्षमार्गना अंगपणुं पण नथीएम शास्त्रमा कडं डे ते हेतु माटे जे मिथ्याष्टिये ग्रहण करी जे प्रतिमा तेथी नावनो समूह न होय एवा वचनथी ए प्रथम पक्षने मुकी बीजा पहनो अंगीकार कर.॥
टीका:-अद्वितियः कल्पः॥ तर्हि सैवतीर्थाव्यवहित्ति र. न्युपेयतां मोक्षमार्गत्वात् ॥ किं तदननुगुणोत्सूत्रचैत्यवासाश्रयणेन ॥यदाह सीसो सङ्गालगोवा गणिवेठवान सुग्गर्शनंति॥ जं तत्थ नाणदंसणचरणा ते सुगईमग्गो ॥
अर्थ-हवे ते बीजो पक्ष कहीए जीए जे परंपराये ज्ञानदर्शन चारित्रनी प्रवृत्ति थाय ए रुप बोजो कल्प तेज तीर्थनो न उच्छेद ए प्रकारे अंगीकार करो केम जे मोक्षमार्ग डे ए हेतु माटे ते मोदामार्गने अनुगुण नहीं एवो जे उत्सूत्र चैत्यवास तेनो श्राश्रय करवो तेणे करीने शुंजे माटे शास्त्रमा कयुं जे....
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49 अथ श्री संषपदक
(१७) टीकाः-सम्यग् ज्ञान दर्शनचारित्रनुवृत्तिं विनाच जिनगृह बिबसलावेपितीर्थोचित्तिः ॥ श्रतएव जिनांतरेषु केषुचिलत्रयपवित्रमुनि विरहात् कापि जिनबिंबसंनवेपि तीर्थोच्छेदः प्रत्यपादि ॥ स्वमतिकल्पिता चेयं प्रकृतातीर्थाव्यवच्छि. तिरागमविसंवादित्वाखैयेव ॥
अर्थः-ते माटे एम सिद्धांत थयो जे सारी ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी अनुवृत्ति एटले परंपरा ते विना जिनगृह बिंब होय तो पण तीर्थनो उच्छेद थाय माटेज केटलाक जिननां श्रांतरां तेने विषे रत्नत्रयवते पवित्र एवा मुनिनो विरहथी को जगाए पण जिन विंबनो संनव ले तोपण तीर्थनो नच्छेद शास्त्रमा पतिपादन कर्यो , माटे आ चैत्यवास ते तीर्थनो न नच्छेद ते तो पोतानी मति कस्पेलो ने शास्त्र विरुद्ध २ माटे त्याग करवा योग्य .
टीकाः-यदाह ॥ नय समइवियप्पेणं, जहातहा कयमिणं फलंदेश॥ अवि श्रागमाणुबाया रोगतिगिच्छाविहाणं व ॥ किंच नवतु जिनगृहाद्यनुवृत्ति स्तीर्थाव्यवित्तिस्तथापिन यति
चैत्यवासजिनगृहाधनुवृत्त्योः श्यामत्वचैत्रतनयत्वयो वि प्रयोज्यप्रयोजकनावः ॥ नहि यतिचैत्यांतवासप्रयुक्ता तदनुवृत्तिः॥ तदंतर्वसनिरपि यतिलि रतिसातशीलतया तब्बीर्णजीर्णोकारादिचिंतामकुर्वाणै स्तदनुवृत्तेरनुपपत्ते स्तस्मात्तचिंताप्रयुक्ता तदनुवृत्तिस्तांच श्राद्धैरेव कुर्वनिस्तदनुवृत्तिः कथं न स्यात् ॥
अर्थ:-जिनघर श्रादिकनी अनुवृत्ति करवी एज तीर्थनो उ
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( १८८)
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अब श्री संघपट्टकः ।
वेद ए प्रकारे होय तो पण यतिने चैत्यवास करवो ने जिनघर श्रादिकनी अनुवृत्ति करवी ए बेने प्रयोज्य प्रयोजक नाव संबंध नाही. एटले कार्य कारणनाव नथी के जिनघरनी अनुवृत्ति थाय. ए का. रण माटे साधुने चैत्यवास करवा योग्य डे एम नथी. जेम श्यामपणुं ने देवदत्त पुत्रपणुं ए बने कार्य कारणनाव नथी तेम. केमजे श्यामपणुं तो श्यामने विषे रडं . ने देवदत्त पुत्रपणुं ते देवदत्त पुत्रने विषे रघु . माटे यति चैत्यवास करेतोज जिनघरनी अनुवृत्ति थाय एम कांश नथी केमजे ते चैत्यमां निवास करता ने अति सुख शीलीयापणे ते जिनघर पमे त्रुटे अथवा जीर्ण थाय तो पण तो लद्धार करवो इत्यादि चिंताने न करता एवा यतिये करीने पण ते जिनघरनी अनुवृत्ति आदिक थवानी सिद्धि नथी. एटले जिनपरती सेवादि यश् शकतुं नथी. माटे जिनघरनी चिंतादिक जे सेवा केने करता एवा जे श्रावक तेणे करीनेज शुं सेवादि अनुवृत्ति नहि श्राय थशेज. माटे शास्त्र विरुक चैत्यवास शीद करोगे.
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..।
टीका-नचोक्तन्यायेनश्राझानां दुर्गतानां श्रीमतां चेदानीं तचिंताकरणासन्नवशति वाच्यं ॥ उषमदोषात्केषांचित्तथात्वेप्यन्येषां महात्मनां शुझाबंधुराणां तत्संनवात् । तथाहि ॥ दृश्यंत एव संप्रति केचन पुण्यनाजः श्रावकाः स्वकुटुंबन्नाराटोपं क्षमतनयेषु निक्षिप्य जिनगृहादिचिंतामेव सततं विदधानाः ॥ अतस्तैरेवानुवृत्तिहेतुतचिंता सिझेः किममी इदानींतना मुनयश्चैत्योपदेशादनेकानारंजानारंचमाणा मुधवै किश्यंति ॥ .
अर्थः-वळी तें कडं जे श्रावकनो श्रा कालमा वरिछी थया
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-18 अथ श्री संघपट्टकः 8-
ने केटलाक श्रीमंत वे तेमने अमे कह्यो एवा न्याय करीने ते जिन मंदिरनी चिंतादि करवानो या कालमां संभव नथी. माटे कामो क रीए बीए. इत्यादि न बोलवु केम जे दुषमा कालना दोषथी क्रेटलाक श्रावक एवा हशे तो पण बीजा महात्मा पुरुष शुद्ध श्रद्धावते शोभता एवा श्रावक लोक या कालमां पण बे माटे तेज वात कही देखा बे जे या कालमां केटलाक पुण्यशाळी श्रावक पोताना कु
बनी नार नंबर सर्व, समर्थ एवा पोताना पुत्रने विषे नांखीने एटले सौंपीने जिनमंदिरादिकनी चिंतानेज निरंतर करता देखाय छे. माटे ते करीनेज ते जिनमंदिरादिकनी सेवादि अनुवृत्तिनुं कारण सिद्ध यो. एटले जिनमंदिरादिकनी सार संभार राखनार श्रावक विद्यमान बतेज । वास्ते या कालना लिंगधारी यतियो चैत्यनुं मित्र ने अनेक प्रकारना आरंजने करता सता फोगटज क्लेश पामेवे.
( १८९ )
टीका :- यदपि जो जेणेत्यादि तीर्थानुच्छित्तिहेतोरपवादासेवनेन चैत्यवासस्थापनं तदपि नवतोऽविदित सिद्धांतानप्रायतां प्रकटयति ॥ अन्यार्थत्वादस्य || अहि यःकश्चिद्यत्यादियेन ज्ञानादिना गुणेनाधिकः येनच विनायत्संघादिकार्यं महत्तमं न सिध्यति तेन तत्र स्वगुणवीर्यस्फोरणं विधेय मित्ययमर्थ: ।। तथाह्येतत्तरार्द्धमेवं स्थितं ॥ सो ते तंमि कडे सवत्थामं न हावे इति ॥ अतोनैतस्मादपि जवदनिप्रेतसिद्धिः ॥
अर्थः--वळी तें जे एम करूं जो जेणे इत्यादि वचने करीने तीर्थनो नच्छेद न पाय ए हेतु माटे अपवादनुं सेवन कर ए प्रकारे चैत्यवासनुं स्थापन कर्यु ते पण तारुं सिद्धांतना अभिप्राय प्र
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( १९० )
जय श्री संघपट्टकः
जाणपणुंढे तेने प्रगट करी आपे डे. केम जे " जोजेण " इत्यादि वचननो अन्य अर्थ बे ते कडे बे जे श्रा जगाये यति श्रादि जे कोइक ज्ञानादि गुणे करीने अधिक दोय ने जेना विना जे जगावे संघादिकनुं मोढुं काम सिद्ध न यतुं होय ते पुरुषे ते जगाए पोतानुं वीर्य फोरaj ए प्रकारनो वर्थ डे ते अर्थने प्रकाश करनारुं ए गा थानुं उत्तरार्द्ध या प्रकारनुं डे जे बीजा वते आ कार्य याय एवं नथी मॉंटे ते जगाए जे पोतानुं सर्व सामर्थ्य फोरववुं माटे ए गाया वचनथी पण तारा वांटित अर्थनी सिद्धि नथी. एटले गाथा वचनोवल अर्थ करीने चैत्यवासनुं स्थापन करे बे ते नहीं थाय.
टीका: - एवंच समस्तपरोपन्यस्तोपपत्तिनिराकरणात् यतीनां जिनजवनास निषेधसिद्धौ स्वपक्षे साधनमभिधीयते ॥ जिनगृहवासो मुनीना मयोग्यो, जायमानदेवद्रव्योपजोगत्वात् प्रतिमापुरतो जक्त वितीर्णबलिग्रहणवत् ॥
अर्थ:- ए प्रकारे समस्त लींगधारी पुरुषोए चैत्यवासनुं स्थापन कुयुक्तिथी कयुं हतुं तेनुं सिद्धांतने अनुसरति युक्तिश्रो वते खंगन करवाथी यतिने जिनजवनमां निवास करवानो निषेध सिद्ध यो माटे पोताना पक्षमां पुष्टि आपनार न्याय शास्त्र अनुमान प्रयोगनुं साधन कहे बे जे मुनिने जिनजवनमां निवास करवो ते अयोग्य बे शाथी जे देवद्रव्यनो उपजोग थाय ए हेतु माटे | ह. ष्टांत ॥ जेम प्रतिमानी श्रगळ नक्तजने बलिदान मुक्यां दोय एटले नैवेद्य मुक्यां होय ने तेनुं जेम ग्रहण करतुं मुनिने अयोग्य डे. तेम जिनजवनमां निवास करवो ते योग्य बे.
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-18. अथ श्री संघपटक
(१९१)
टीकाः-नचायमसिझो हेतुस्तत्र वसतां देवव्यनोगस्यो. कन्यायेन साधितत्वात् ॥ नापि विरुधः हेतोर्मुनियोग्यतयाव्याप्यस्वेहि स स्यानचैव मस्ति ॥ देवव्योपत्नोगस्य मुनियोग्यतायाः प्रागेवापाकरणात् ॥ नाप्यनेकांतिकः ॥ मुनियोग्ये पिशुद्धवसत्यादौहेतोवृत्तौ हि सत्नवेनचैवं॥तत्र देवप्रव्योपन्नोगस्य लेशतोप्यनावात् ॥
अर्थः न्याय शास्त्रमा पांच प्रकारनो हेत्वानास डे एटले हेतु जेवा जणाता होय पण हेतु नहि, खोटा हेतु. तेनां नाम जे एक तो श्रसिद्ध,बीजो विरुझ,अने त्रीजो अनै कांतिक अथवा सव्यनिचारी, चोथो सप्रिपद अने पांचमो बाधित ए पांच प्रकारना हेत्वानासमांनो एक हेत्वानास जे अनुमान प्रयोगमांन आवतो होयते अनुमान प्रयोग साचो कहेवाय ने बीजो जुठो कहेवाय एटले अप्रमाणिक कहेवाय माटे श्रा जगाए मुनिने जिनजुवनमां निवास करवो देवव्यनो उपजोग थाय ए हेतु माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगने विषे ए पांच प्रकारनो हेत्वान्नास डे तेमांनो एके पण श्रा. वता नथी. के जेथी ए प्रयोग खोटो थाय. ए प्रकारनी दृढता टी. काकार करे ले जे चैत्यमा रहेनारने देवमुच्यनो उपजोग थाय ए हेतु असिफ नथी केमजे तेमा रहेनारने देवव्यनो उपजोग पूर्वे कहो एवे न्याये करीने सिझ थाय ने ए हेतु माटे. वळी ए हेतु वि. रुड पण नथी. केमजे देवव्यनो नपनोग मुनिने योग्य नथी एम पूर्वे निषेध देखाम्यो डे माटे मुनिनी योग्यताए सहित जो ए हेतु होय एटले मुनिने देवभव्य जोगववान शास्त्रमा जो होय तो ए हेतु विरुद्ध थाय पण ते तो नथो माटे, ने वळी एहेतु अनेकांतिक पण
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( १९२)
.. अथ श्री संघपट्ट कः
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नथी केमजे मुनिने योग्य एवी पण शुद्ध वसति आदिकने विषे ए हेतुर्नु रहेवापणुं होत तो ए हेतु अनेकांतिक केहेवात पण ते शुद्ध निवासने विषे देवव्यना उपनोगनुं लेशमात्र पण देखवापणुं नथी माटे ए हेतु अनेकांतिक पण नथी एटले व्यन्निचारी नथी.
टीका:-नापि सत्प्रतिपक्षः प्रतिबलानुमानानागमोक्तत्मदिनां प्रागेव निरस्तत्वात् ॥ नापि बाधित विषयः प्रत्यक्षादिजिर
नपदृतविषयत्वातू ॥ ननुप्रत्यदेणेव संप्रति जिनगृहेवासदर्शनेन ___तहासस्य धर्मिणो मुन्ययोग्यतायाः साध्यधर्मस्य हेतुविषयस्य
वाधितत्वेन विषयापहारात्कथं नहेतु बाधितपिषय इतिचेन्न ।
. अर्थ:-वळी ए हेतु सत्प्रतिपद नथी केमजे प्रतिवादिनां
अनुमान जे शास्त्रोक्त चैत्यवास ने तेनुं पूर्वे खंमन कर्यु माटे ए हेतुने हमवनार प्रतिपकीनो हेतु नथी. माटे वळी ए हेतु बाधित विषय पालो पण नथी केमजे प्रतिपक्षादि प्रमाणवमे ए हेतुनो विषय नाश पाम्यो नथी. माटे एटले प्रत्यक्ष जणाय जे जे मुनि होय ते चैत्यमां रहेता नथी माटे ए प्रकारे पांच हेत्वान्नास एटले दोष ते श्रा हेतु
मां नथी माटे आ सकेनु कहेवाय प्रतिवादिना जे सर्व हेतु ते श्र.. सद्धेनु करी देखामया माटे हवे लिंगधारी आशंका करे ले जे श्रा • कालमा प्रत्यक्षपणे जे जिननुवनमां साधुनो निवास देखाय के तेणे , करीने ते साधुना निवासरुपी जे धर्म तेने मुनिनी अयोग्यतारुपी जे . साध्य धर्मरुप देवव्यनो उपन्नोग थाय ए रुपी जे हेतु तेनो विषय जेशयोग्यता तेनुं वाधितपणुं थयुं तेणे करीने विषयनो अपहार यो पहले विषय नाश पास्यो एटले अयोग्य हेतुनुं योग्यपणुं अयुं सादे
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8. अथ श्री संघपट्टक
केम ए हेतु न बाध पाम्यो त्यारे सुविहित उत्तर आपे ले जे एम तारे न बोल.
टीकाः-तेषां मुन्याजासत्वेन तत्र तहास दर्शनेना पितासस्य मुन्ययोग्यताया बाधितत्वमितिहेतोर्विषयापहाराजावान्न बाधित विषयत्वमिति ॥ एवं साधनांतरमपि प्रकृतसिध्ध्यैदयते ॥ जिनगृहवासो यतीनांवर्जनीयः ॥ पूज्याशातनाहेतु:स्वात् ॥ गुर्वासनावस्थानवदिति ॥ अत्रापि हेत्वान्नासोझारः स्ववजूह्यः ॥ तदेवमुपपन्नमेतद्यतिनिर्जिनगृहे न वस्तव्य मितिवृत्तार्थः॥ ७॥
अर्थः केम जे ते चैत्यमा रहेनारा मुनि नथी, एतो मूनिना आन्नास ने एटले मुनि जेवो वेष राखे ने पण मुनि नथी. माटे तेनो चैत्यमां निवास देखाय तेणे करीने पण साधुने चैत्यमा निवास करवो तेनुं अयोग्यपणुं माटे बाधित डे एटले निषेध छे ए हेतु माटे हेतुनो विषय जे अयोग्यपणुं तेनो नाश जे योग्यपणुं ते नथी, माटे ए हेतुने बाधित विषयपणुं नथी. ए प्रकारे बीजं पण अनुमान साधन था प्रकृत वातनी सिकिने अर्थे देखाय . जे, जि. नघर वास यतिने वर्जवा योग्य ले केम जे पूज्यनी आशातना थाय ने ए हेतु माटे ॥ दृष्टांत ॥ जेम गुर्वा दिकना आसन नपर बेस ते श्राशातना डे माटे वर्जवा योग्य ले तेम था श्रनुमानमां पण हे. स्वाजासनो उजार पोतानी मेळे तर्क करी लेवो ते हेतु माटे एम सिक थयुं जे यतिने जिनघरमां न रहेq ए प्रकारे सातमा काव्यनो वर्ष यो ति यतिने चैत्यवास निषेधनो नधार थयो ॥७॥
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48 अथ श्री सघपट्टकः 8
यू टीका :- इदानीं जिनाद्या सेवितत्वेन सिद्धांतोकत्वेन च यतीनां परग्रहवसतिं व्यवस्थापयन् वसत्यकमाद्वारं वृत्तयेन: निर सिसिषुराह ॥
( १९४ )
अर्थ:- दवे साधुने परघरमां निवास करवो रमात्मा श्रादिक पुरुषोए परघर वास कर्यो बे ए
केमजे जिन पमाटे ने सि
मां पण परघर वास करवाना कह्यो बे, माटे साधुने परघर वास aral ए प्रकारे स्थापन करता सता वसति अकमा नामे द्वारने बे काव्य व निराकरण करता एटले वसति जे परघर तेमां साधुने न रहेतुं एवां जे लिंगधारीनां वचन तेनुं खंरुन करता सता कहे बे.
॥ मूलकाव्य ॥
साक्षाजिनैर्गणधरैश्च निषेवितोक्तां, निःसंगताग्रिमपदं मुनिपुंगवानां ॥ शय्यातरोक्ति मनगारपदं च जानन् विद्वेष्टि कः परगृहे वसतिं सकर्णः ॥ ८ ॥ चित्रोसर्गापवादे यदि शिवपुरी दूतते निशीथे, प्रागुक्ता भूरिनेदा गृहिगृहवसतीः कारणे पोद्य पश्चात् ॥ स्त्रीसंसक्तादियुतेप्यनिहितयतनाकारिणां संयतानां सर्वत्रागारिघाम्निन्ययमि नतु मतःक्वापि चैत्ये निवासः ॥ ॥
टीकाः कः सकर्णः पुमान् परगृहेगृहिसदने वसतिं निवास विद्वेष्टि अनुशेते मात्सर्यान्नक्षमते निषेधती तियावत् । मुनिपुंग
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- अथ श्री संघपट्टका
(१९५) वानां सुविहितयतीनां न कश्चिदित्यर्थः ॥ श्रयमर्थः ॥ अकलोहिकर्णो विना सिद्धांतोक्तामपि परगृह वसतिमनाकर्णयन् द्विपादपि यतोलोकेपि बधिरस्तोकमपितछचना श्रवणान्मा मेषोधिक्षिपतीति मन्यमानोद्विषन्नुपलभ्यते ॥ यःपुनः सकर्णः स श्रवणोऽथच हृदय:परगृहवासचैत्यांतर्वासगुणदोष विचारचतुर . इतियावत् ॥ सपरगृहवसतिं यतीनामनुमोदयत्येव नतु वेष्टि ॥
अर्थः-कोण माह्यो पुरुष साधुने परघरमां निवास करवो ते प्रत्ये द्वेष करे ? नज करे जे हेतु माटे लोकमां पण बेहेरो पुरुष उपदेशकनी थोमी पण वात सांजळी शकतो नथी माटे एम जाणे ले जे श्रा पुरुष मारो तिरस्कार करे . एम मानीने ते उपर वेष करतो जपाय . पण जे कानवाळो ने ते द्वेष करतो नथी. केमजे ते माह्यो पुरुष परघर निवासने चैत्यमां निवास ए बेनो गुण दोषनों विचार करवामां चतुर ले माटे ते पुरुष साधुने परघरमां निवास करवो तेनी अनुमोदनाज करे ले पण शेष नथी करतो.
टीकाः-किंरूपांवसतिमित्याह ॥ निषेविता निवासेनोपजुक्ता नक्ताच स्वमुखेन यत्याश्रयणीयत्वेनागमे प्रतिपादिता निषेविता चासावुक्ताचेतिकर्मधारयः कथंसाक्षात्प्रत्यदंस्वय मित्य
र्थः ॥ कैर्जिनैस्तीर्थकृतिः गणधरै गौतम स्वामिप्रभृतिनिः॥चः समुच्चये ॥
. अर्थ:-ते निवास केवो ते कही देखा ले जे जे गहस्थोए पोतानो निवास करवो तेणे करीने जोगवेलो ने वळी शा
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अथ श्री संघाहक
समां साधुने एवा निवासनो पाश्रय करवापणे कहेलो प्रतिपादन करेखो माटे शास्त्रमा कहेलो ने गृहस्थोए जोगवेलो ए वे पदनो कर्मधारय समास करवो. कये प्रकारे कहेलो ? तो साक्षात् प्रत्यक् पोते कस्रो एटलो अर्थ बे, कोणे कहेलो तो तीर्थंकर तथा गौतमस्वामी आदि गणधरोए कहेलो चकारनो समुच्चय अर्थ करवो.
टीका:-तथाहि ॥ नगवान् श्रीमहावीरोवर्षाचतुर्मासके तिष्टासुईयमानपाखंझिनामाश्रमं गतस्तत्कुलपतिना जगवत् फ्लुिक्यस्येन सबहुमानमनुज्ञातस्तछुटजमध्युवासेत्यादि शूयते तथाचावश्यकचूर्णिः ॥ ताहे सामी वासावासे नवागएतं वेव दूरांतग गामं ए॥ तत्थे गंमि उमए वासावासंठियोति॥ सया ॥ ताहे सामीरायगिह तत्थवाहिरिगाए तंतुवायसालार . एगदिसिं श्रहापभिरूवंधवगहं श्रणुन्नवित्ता चिति॥
अर्थः-परघर वास तीर्थंकर महाराजे कर्यो ने ते कही दै. खामे . जे जगवान श्रीमहावीर रवामी वर्षाचोमासु रहेवा इच्छतासता, उख पामता पाखंमि तेमना आश्रममां गया त्यारे लगवानना पितानो मित्र कुलपति तेणे बहुमानपूर्वक अनुज्ञा करी त्यारे तेनी पर्ण शाळामां निवास कर्यों इत्यादि सांजळीए बीए वळी आवश्यक चूर्णिमां कडं ने जे.
टीकाः तथा श्री सिंहगिरिसूरयोवैरमुनिक्सतिपालं संस्थाव्य बहिः संज्ञाभूमिं गता इतिचभ्रूयते॥ तथाहि ॥ अन्नयामा
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(PRO)
-29 अथ श्री संघषकः
- यरिया मा हे साहुसु निसुं निग्ज एसुसन्नाभूमिं निजया वरसामी वि पस्सियपालोनि ॥
अर्थ:-वळी श्री सिंह गिरि श्राचार्य वैरस्वामीने वसतिपालथापिने बारणे संज्ञानू मि प्रत्ये गया एम सांजळीए बीए ते वचन जे.
टीका:- एवं निषेविता जिनादिनिः परगृवसतिः ॥ तथा संविग्गसन्निगसुन्ने नीयाइमुत्तहादे ॥ वञ्चंतस्सेएसुं वसई । एमग्गाहो ॥ इत्यादिना वहुधा सप्रपंच जिनादि जिरुक्ता चतां ॥ तत्रच निषेवितोक्ते ति समासकरणं जगवद्वचन क्रिकयो: सर्वदाप्य विसंवादं सूचयति ॥
अर्थ:-ए प्रकारे परघरनो निवास ते जिनयादि महांत पुरुपोए सव्यो छे.
टीका:- तथा सज्यते जनो स्मिन्नितिसंगः ॥ सदमधनकनक स्तनय व नितास्व जनपरिजनादिपरिग्रहः ॥ निर्जतः संगत्रिः • संगस्तेषांनाव: तस्याः श्रयिमंमुख्यंपदं स्थानं मुनीनां परगृहबसतिः सत्यां हि तस्यां नि:संगता पदमनुबध्नाति ॥
कार्य:-तळी लोक जेमे विषे बंधाय ते संग काही मे से क्यों, तो यमः धनः सुवर्णः पुत्रः स्त्री; समांसबंधि, सेवक्रादि सर्व परिग्रह कहीए, ते निसंगतानुं मुख्यस्थान सुनिये परर
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( १९८)
अब श्री संघपट्टक:
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प
वासले माटे ते परधरनिवास करयेसते निःसंगतापदनो अनुभव करे . एटले निःसंग पणुं स्थिति करीने टके ले.
टीका-तथाहि ॥साधूनां परगृहवसति मुपलभ्य लोके व. कोरोजवंति ॥ किलातिधतानामपि प्रायेण तणकटीरकमात्र स्वसत्तायां नवत्येषां तु तदपि नास्तीत्यहो नि:परिग्रहताऽमीषां ॥ तमुक्तं ॥ धन्याश्रमी महात्मानो नि:संगामुनिपुंगवा: ॥ श्रपिक्वापिस्वकं नास्ति येषां तृणकुटीरक॥ परगृहवासं विनातु सं प्रत्युद्यानवासस्याशक्यत्वेन मुनीनां स्वगृहार्थमारंजसंजवे मुनित्वहान्या जनोपहासापत्तेः ॥
अर्थः-ते देखामे जे जे साधुने परघरमा रहेई देखीने लोकने विषे कहेनारा थाय ले जे जुने दरिजि मुखीयाने पण बहुधा तु. णनी कुंपमी मात्र पण पोतानी सत्तामां होय ने श्रा साधुने तो ते पण नथी माटे था साधुनुं परिग्रह रहितपणुं तो मोटुं श्राश्चर्य कारी ते आ श्लोकमां कडं जे जे श्रा महात्मा पुरुष नि:संगमु. नि मध्ये श्रेष्ट , जेमने पोता संबंधि को जगाए पण तृणनीखें: पनी पण नथी माटे एवा पुरुषोने धन्य ले माटे परघर वास विनानो श्रा कालमा नद्यानवास करवो ते तो अशक्य . ए हेतु माटे मु. निने पोताने अर्थे रहेवानुं घर करवानो संलव थये सते मुनिपणानी हानि थशे तेणे करीने लोकने उपहास करवानी प्राप्ति थशे ए हेतु माटे पाचर वास करवो एज श्रेष्ट बे..
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- अथ श्री संघपट्टकः - (१९९) टीका:-॥ तक्तं ॥ जे घरसरणपसत्ता बकायरिन सकिं चणा अजया ॥नवरं मोनण घरं निसंकमणं कयं तेहिं ॥ निःसं-:: गताया अग्निमं मौलंपदं लक्ष्म लिंग मित्यर्थः॥ पदं व्यवसिति त्राणस्थानलदमांधिवस्तुष्ट्रित्यनेकार्थवचनात् ॥ नि:संगताहि. मुनित्वस्य लक्षणं वह्निरिवदाहपाकादि सामर्थ्यस्य तस्याश्चलिंगं.. परगृहवसति:धूमश्ववढे:नि:संगतामंतरेण हि नि:स्पृहस्य पर.. गृहवस तिर्हि विना धूमलेखेवानुप पद्यमानतां गमयति.
अर्थः-अथवा श्रा प्रकारे अर्थ करो जे नि:संगतानुं श्रमिमपद कहेतां मुख्य विह ए परघर निवास बे. एटलो अर्थ बे, ते पद शब्दनो चिन्हरुपि अर्थ कर्यो ते उपर कोश- प्रमाण आपे ले जे, पदशब्द जे ते रक्षण; स्थान, चिह्न, चरण, वस्तु एटला अर्थने विषे प्रवर्ते ए प्रकारे अनेकार्थ कोशनुं वचन डे माटे नि:संगता जे ते निश्चे मुनिपणानुं लक्षण जे. जेम दहन थर्बु परिपक्व थq इत्यादि जे सामर्थ्य ते अग्निनुं लक्षण ले तेम मुनिप. णानुं लक्षण नि:संगता दे, ते नि:संगतानुं चिह्न परघर निवास डे जेम अग्निनुं चिह्न धूम डे, ज्यां धूम डे त्यां अग्नि होयज तेम निस्पृह पुरुषने परघर निवास डे त्यां नि: संगपणुं पण होयज जेम अग्नि विना धूमरेखा घटती नथी तेम नि:संगता विना निस्पृहने परघर निवास घटतो नथी. .
टीका:-श्रतो नि:संगतानांतरीयकत्वाद् नवति निस्पक्षस्य परघरवसति स्तद्विगं ॥ नहि स्वाधीने विनवे मनस्वी कश्चित्परमुपजीवेदिति ॥ अत्रच पदशब्दश्य विष्टलिंगत्वान्न विशे. व्य लिंगता ॥
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(२००)
8. अथ श्री संघपट्टकः
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अर्थः-ए हेतु माटे निःस्पृहने परघरमां रहे, ए नि:संगतार्नु चिन्ह डे केमजे निःसंगता ढांकेली नथी नघामी डे ए हेतु माप्टे ने कोई पण माह्यो पुरुष पोताने श्राधिन विनव उते. परघर प्रत्यें निवास करीने उपजीका करे ? न करे था जगाए पद शब्द अजहत् लिंगे . माटे विशेष्पना जे स्त्री लीगपणुं न थयुं, नित्य नपुंसकपद शब्द रह्यो.
टीकाः-किं कुर्वन् न विशेष्टीत्यताह ॥ जानन् आगम श्रवणेंनी वबुप्यमानः ॥ कांशय्यांतर श्त्युक्ति नाषा तां ॥ सि"कौतेहिं शय्यातरशत नाषा श्रूयते ॥ नचासौ साधूनां प: रगृहवास विनोपपद्यते ॥ तथाहि ॥शय्यावसत्यायतिच्योदाना तरत्ति संसारपारावार मिति शय्यातर शब्दार्थः॥.
अर्थः-शुं करतो तो विद्वेष न करे एवी था शंकाथी कहे जे श्रागमना श्रवणे करीने शय्यातर ए प्रकारनी उक्ति एंटले भाषा तेने जाणतो तो सिमांतमा शय्यातर ए प्रकारनी नाषा संनळाय , ते साधुने परघरमां निवास विना घटती नथी माटे तेज कही देखामे जे शय्या जे वसति एटले निवास तेनुं साधुने आपवा थकी संसार समुज्ने तरे. तेने शय्यातर कहीए एम श. व्यातर शब्दनो अर्थ बे.
टीकाः तदुक्त। शय्यावसतिराख्यातायतिन्योदानतस्तया। यस्तरति नवांशोधि शय्यातर मुशंति तं ॥ परगृहवसति किना
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
(२०१)
तु यतीनां न कस्य चित्साधुशय्यादानेन तरणमस्तीति शय्यातर शब्दस्य स्वार्थालान निर्विषयत्वापत्या सिद्धांते प्रतिस्थानमुच्चारणं कथमिवशानां विभृयात् तस्मादागमे शय्यातरशब्दश्रुते रवि परगृहवस तिर्मुनीनामवसीयते ॥
अर्थः- शास्त्रमां को वे जे शय्या ए प्रकारनुं निवासनुं नाम क बे, तेनुं साधुने पवाथकी जे संसार समुद्रने तरे बे. तेने शय्यातर कहीए माटे मुनिने परघर निवास विना तो कोइने पण मुनिने शय्या देवाची तरवापणुं नहि थाय त्यारे शय्यातर श बदने पोताना प्रर्थनी प्राप्ति न थाय तेणे करीने ते शय्यातर शब्द प्रवर्त्तबानुं स्थान न रधुं तेणे करीने व्यर्थ पकशे, ने सिद्धांत मां तो गम गम शय्यातर शब्दनुं उच्चारण कर्तुं बे, ते केम करीने शोभानुं धारण करशे, ते माटे आगममां शय्यातर शब्द सांजळीए बीए तेथ पण साधुने परघर निवास करवो एवो निश्चय थाय बे.
टीका: -- तथाचागमः ॥ सिद्धायरु चिजान्नइ श्रालय सामिति।। तथा सिकायरो पहूवा पहुसंदिठो व हाइकायवो इत्यादि ॥ मुत्तू गेरंतु सपुत्तदारो वणिमाइ दिन कारणेहिं ॥ सयंव अन्नं वडा देसं सज्जायरो तत्थ सएव होइ ॥ तथा ॥ जो देइ नवसयं मुविराण तव नियम बंनजुताण ॥ तेां दिन्ना वत्थन्नपाणसयलास विगप्पा इत्यादि ॥ तथाऽनगारपदंचजानन्निति सबंध्यते ॥ ॥ चः समुच्चये ॥ नवद्यतेऽगारंगृहं यस्या सावनगारस्ततश्चानगार इतिपदं व्यपदेशस्तत् श्रुतेनगारपदंश्रूयते ॥ तच्चतेषां स्वागारानावेन परागारवासेन च संगइते ॥ अन्यथा स्वगारसद्
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- अब श्री संघपट्टक नावे चैत्यवासे वा यथाक्रमं यते गुंहपतिमपतिव्यपदेशप्रसंगेना नगारपदवैयर्थ्यमापद्यतेति ॥
अर्थः-वळी शुं जाणतो सतो शेष न करे ? तो श्रनमार पदने जाणतो ए प्रकारे संबंध करवो ने चकार ले तेने समुच्चय अर्थने विषे जाणवो, नथी घर जेने तेने अनगार कहीए ते हेतु माटे श्रनमार ए प्रकारना पदनो व्यपदेश जे. एटले व्युत्पत्ति सहित पदनो अर्थ ने ते सांनळे सते जे शास्त्रमा अनगार पद संजळाय . ते तो साधुने पोताना घरनो अन्नाव करवो एटले परित्याग करवो तेणे करीने परघरमां निवास करवो ए प्रकारे ए शब्दना अर्थनो संबंध थाय ने एम जाणवू ने जो एम जाणे तो पोतानुंघर बते अथवा चैत्यवास बते साधुनुं नाम गृहपति अथवा मठपति ए प्रकारे स्थापवानो प्रसंग थाय एटले साधुने जो पोता संबंधी घर होय तो ते गृहपति कहेवाय पण अणगार न कहेवाय ने जो साधुने चैत्यवास होय तो ते मठपति कहेवाय पण अणगार न कहेवाय तेणे करीने अनगार पदनुं व्यर्थपणुं प्राप्त थशे माटे मुनिने परघर वास ने एम सिक थयु.
टीकाः-ननुकथमेतदेवं यावता यहि सर्वथागमे चैत्यवासोऽनलिमतः स्यात्तदापरगृहवसतिः क्षम्येतापि ॥ यदातु तत्र क्वचिचैत्यवासेनिहिते पिहठेनैव नवनिः परगृहवसतिराश्रीयतेतदा कथं क्षम्यत इत्यत आह ॥
अर्थः-लिंगधारी शंका करी बोले ले, जे श्रा एम केम कहो
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___ अथ श्री संघपट्टकः - (२०३) हो? जो सर्वया श्रागममां चैत्यवास अनिमत न कह्यो होत तो परघरवास जे तमे थाप्यो तेनी क्षमा करीए पण ज्यारे तो ते श्रागममां को जगाए चैत्यवास कह्यो होय, तोपण हव्वादथीज तमो परघरवासनो श्राश्रय करोडो त्यारे तो क्षमा करीए ए प्रकारनुंलिंगधारीनुं श्राशंकावाक्य धारि सुविहित चित्रात्सर्ग ए काव्ये करीने उत्तर श्रापे ,
टीका:-चित्रोत्सर्गेत्यादि ॥ यत् यस्मात् श्हेति सन्मुनीनां नित्यान्यास विषयत्वेन पुरोवर्तिनि अथवा इह प्रवचने निशीथे प्रकल्पाध्ययने पंचमोद्देशकादौ किंजूते ? सामान्य विधिरुत्सर्गः विशेष विधिरपवादः ॥ नज्जुयमग्गुसग्गो अववा तस्स चेवपमिबरको ॥ उस्सग्गाज पमंतं धरेश्सालंबण मवान ॥ इतिवचः नात् ॥ नत्सर्गश्चापवादश्चेति इंछः ततश्च चित्रौनानाविधौवसत्या दिगोचरावुत्सर्गापवादौ सामान्यविशेष विधीयत्र सतथा तत्र
अर्थः-जे चित्रोत्सर्गापवादे आ निशीथ सूत्रमा नाना प्र. कारनो उत्सर्गअने अपवाद संबंधि मार्ग था निशीथ सूत्रमा एम जे कह्यं तेनो अनिप्राय ए जे सारा मुनियोने तेनो नित्य अज्यास करवे करीने या प्रत्यक्ष जणातुं जे निशीथ सूत्र तेन विषे अथवा श्री प्रवचनमां निशीथ सूत्रने विषे प्रकल्प अध्ययनना पांचमा उ. देशाने विषे ए प्रकारे इह शब्दनो अर्थ करो तेमां सामान्य विधि ते उत्सर्ग कहीए ने विशेष विधि ते अपवाद कहीए, ते का ते जे उत्सर्ग मार्ग ते रुजु मार्ग कहीए ने ते नत्सर्गनो प्रतिपक अपवाद"मार्ग कहीए ने जे नत्सर्ग मार्गथी पके . तेने आलंबन
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(२०४) 49. अथ श्री संघपट्टकःसहित होय ने शुं एम डे केम जे अपवाद मार्ग धारण करे , ए प्रकारना वचनथी नत्सर्ग तथा अपवाद ए बे पदनो छ समास करवो त्यार पली नाना प्रकारना निवासस्थान श्रादिकने विषे जपाता ने उत्सर्ग अपवाद कहेतां सामान्य विशेष विधि जेने विषे एबुं सूत्र .
टीकाः-शिवपुर्य्या निःश्रेयसनगऱ्या दूतनूतःसंदेशहरसहशस्तत्र जूतशब्दस्यात्रसदृशवाचित्वात् ॥ तेनायमर्थः ॥ यथा कश्चित्परराजदौवारिकादिः कस्यांचित्पुरिप्रविविकुस्तत्पृथ्वीपतिसंदिष्टदतनणितेन प्रवेशं प्राप्नोति तथा यतिरपि निःश्रेयसपुरे निशीथप्रतिपादितविधिनेतिप्राक् प्रथमं नक्त्वा प्रतिपाद्य नरिनेदाः प्रजूतप्रकारा गृहिगृहवसतीगुहस्थसदनरूपोपाश्रयान् पश्चाचरमकारणे तथाविधवसत्यलान्नलक्षणे हैतो श्रपोद्य अपवाद विषयीकृत्य ताएवेति गम्यते ॥
अर्थ:-वळी निशीथ सूत्र मोहनगरीना दूत जेवू ले. भूत शब्द था जगाए सदृश वाची ले तेणे करीने श्रा अर्थ थयो. जेम कोइक परराजानो झारपाळ होय, तेम कोश्क नगरीमा प्रवेश करवा श्वतो पुरूष ते पृथ्वीपति राजाए श्राज्ञा आपेला दूतना कहेवाथी ते नगरीमा प्रवेश पामे ले तेम यति पण मोक्षपुरीमा, निशीथ सूत्रमा प्रतिपादन करेला विधिये करीने प्रवेश करे ले माटे मोक्षः पुरीना दूत जेवू निशीथ सूत्र कयुं तेमां प्रथम घणा प्रकारनां गहस्थनां घररूपी उपाश्रय प्रतिपादन कर्या ने पली बेटा कारणमा
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* अथ श्री संघपट्टकः 8
( २०५ )
ते प्रकारना निवासनो लान नथाय ए हेतु माटे अपवादरूप तेनेज प्रतिपादन कर्या .
टीका :-- श्रयमर्थः ॥ निशीथे हि पूर्वमौत्सर्गिका वसतिनेदा यति निवासयोग्यत्वेन प्रतिपादिताः यथा मूलुत्तरगुण सुद्धं थी पसुपंग विवद्धियं वसहिं, सेवि सङ्घकालं विवजए हुंति दोसाॐ ॥ विछिन्ना खुड्डलिया पमाणजुत्तान तिविश्वसदि ॥ पढमबिया सुट्टा ॥ तत्थय दोसा इमे हुँति ॥
अर्थः- या स्पष्ट अर्थ बे जे निशीथ सूत्रमां प्रथम साधुने रहेवा योग्य निवासना जेद नत्सर्ग मार्गे प्रतिपादन कर्या बे जे मूल गुण ते करीने शुद्ध स्त्री तथा पशु तथा नपुंसक तेणे रहित ए कारना निवासने सर्व काले सेववो ने जो दोष होय तो ते निवासनो त्याग करवो.
टीका:- साध्वीरुद्दिश्योदिता ॥ गुतागुत्तदुवारा कुलपत्ते सत्तिमंतगंजीर ॥ जीयपरिसमदविए अजा सिद्धायरे नलिए ॥ घणकुड्डा सकवाका सागारियन गिणिमाइपेरता ॥ निप्पच्चवायजोगा विछिन्नपुरोहमा वसी ॥
वळी साध्वी नद्वेशीने कधुं बे जे
टीका:- तदलाने पश्चात्ता एवापोदिताः ॥ यथा ॥ द्रव्य प्रतिक्कायामपि वसतौ कारणेन वस्तव्यं ॥ तथाचार | श्रद्धा
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Mana
(२०६ ) - अथ श्री संघपट्टकः - ण निग्गयाई तिख्खुत्तो मग्गिऊण असईयागीयत्याजयणाए व संति तो दव्वपमिबके ॥
रूवं बाजरणविहि वहालंकारनोयणे गंधे ॥ श्रानजनद्दनामयगीये सयणे य दव्वंमि ॥ अजाण निग्गयाई तिख्खुत्तो माग्गिएण असईए॥ गीयत्था जयगाए वसंति तोनावपमिबजे। जह कारणपुरिसेसु तह कारण इत्थियासुवि वसंती । थकाण वाससावय तेणेसुय कारणे वसइ ॥
टीकाः-ततोऽपोद्यकिंकृतमित्याह ॥ न्ययमि संयतानां निनिवास इति संबंधः। संयतानां निवासोऽवस्थानन्ययमि ॥ सं. यतवासस्य सामान्येन सर्वत्र प्रसृतस्य पाक्षिक्यांचैत्येपि प्राप्तावेक विषयतया व्यवस्थापने नियमः ॥ नियमः पाक्षिके सतीति वचनात् ॥ तेनैकविषयतया व्यवस्थापित इत्यर्थः विषयैक्यमेव दर्शयति ॥ अगारिधानिगृहस्थागारे ॥
अर्थः त्यारं पड़ी अपवाद कहीन शुं कर्यु तो त्यां कहे के साधुना निवासनो नियम को एटले सुविहित मुनिने रवाना स्थाननो नियम कयों केम जे सामान्यपणे सर्व स्थान कह्यां तेमां सर्व जगाए मुनिने रहेवामी प्राप्ति थ त्यारे एक पहें चैत्यमां पण रदेवानी प्राप्ति थइ ने नियम तो कोने कहेवाय ? जे घणी जगाउँमांथी एक जगाए रहेंवानुं स्थापन कर तेनुं नाम नियम कहीए ते नियम तो चैत्यवासादिक जोमे पक्ष होय त्यारे थाय प्रका
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Awww.
- अब श्री संघपट्टकः
(२००) रनुं वचन डे माटे मुनिने रहेवानो विषय एक स्थानकनो. एटलो अर्थ ले. ते मुनिने रहेवा विषे एक स्थानक तेने देखाके ले ले गृहस्थना घरमां रहेढुं बीजे न रहे.
टीकाः कीदृशे स्त्रीणां योषितां संसक्तिः संसोरूपायापातप्रत्यासत्तिः ॥ श्रादिग्रहणात् पशुपंमका दिग्रहः तद्युक्तेऽपि तत्सहितेपि ॥ श्रास्तां तरहित इत्यपिशब्दार्थः । नजा वयस्स अगुत्ति इत्यादि वचनात् स्त्रीसंक्तिमति पशुपंमगे सविहं मोहानलदीवियाण जं हो ॥ पायमसुहा पवित्ती पुवन्नवप्नासर्ड तहयेत्या दिवचनात्यशुपंमकसंसक्तिमति च परसदने वसतां .. संयतानां मन्मथोत्कलिकाद्यनेकदोषसंजवात् कथं तत्र वासो :नियमित स्तत्राह ॥
अर्थः-ते गृहस्थy घर केवु ने, तो स्त्रीश्रीना संबंध सहित के. एटले स्त्रीश्रोनां रुपधादिकनुं इत्यादि जेमां स्त्री संबंध रह्यो ... श्रा जगोए आदि शब्दनुं ग्रहण कर्यु डे माटे गृहस्थ- घर पशु तथा नपुंसक इत्यादिके करी सहित होय तोपण तेमां मुनिने निवास करवो, तो जेमां स्त्री आदिकनो संबंध न होय ने तेमां निवास करखो तेनी तो शी वात करवी. ए प्रकारे अपि शब्दनो अर्थ बे ए प्रकारनां वचन सांजळीने लिंगधारी आशंका करे ले जे ब्रह्म ब. तनी अगुप्ति इत्यादि वचनथी स्त्रीनो जेमां संबंध ने जेमां पशु अ. थवा नपुंसक रह्या जे. तेथी जेमां मोहरुपी अग्नि प्रदिप्त थाय इत्यादि बचनथी पशु तथा नपुंशक तेनो संबंध जेमांडे, एवा परघरमा रेहेनारा साधुने कामनुं उद्दीपन थाय इत्यादि दोषनो संजय
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(२०४) -9. अथ श्री संघपट्टका - डे माटे केम त्यां निवासनो नियम कयों तेनो उत्तर सुविहित साधु उत्तर श्रापे .
टीका:-अनिहिता निशीथे प्रतिपादिता यतना स्त्रीसंसक्त्यादिसंन्नवात्कंदर्प विकाराद्यसत्प्रवृत्ति नीवृत्ति पटीयसी तिरस्करणीकटायंत नरूपाचेष्टा ॥ यदाह ॥ जीइपजूवतरासप्प वित्तिविणिवितिलकणं वत्, सिज्जर चिहा जो साजयणा पाइविविशमि ॥
अर्थ-जे साधुने गृहस्थना घरमां निवास करवो एम नि. शीथ सूत्रमा प्रतिपादन कयु . ने तेमां स्त्रिया दिकनो संबंध थतो होय तो यतना करवानी कही . ते यतना तेशुं ? तो काम विकार आदि असत्प्रवृतिनी निवृत्ती करवामां चतुर एवी चेष्टा करवी तेनुं नाम यतना कहीए एटले स्त्रीयादिकनां रुपादिक न देखाय माटे चक नांखवो अथवा कमीत, सादमी, इत्यादिकनो वच्चे पमदो बांधवो जेथी ते न देखाय एम करवू ए प्रकारनी यतना करीने पण गृहस्थना घरमां निवास करवो पण चेत्यादिकमां न करवो.
टीकाः-आणाइ विविज्ञमिति॥श्राझ्यायाप्तोपदेशनीत्या विपदिव्यदत्रकालभावादीत्यर्थः ॥ तत्कारिणां तऽद्यतानां ॥ .. यदाह ॥नामि गयमाणा पढमं गयंति रूवपमिबद्ध॥ तहियं . "कमगचिलमिणी तस्सासइ ति पासवणो॥ पासवणमत्तएसुं.. हाणे अन्नथ चिलिमिणीरूवे सज्जाए झाणेवा आवरणेसहकर
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७ अथ श्री संघपट्टकः
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ऐय ॥ जहि श्रप्ययरा दोसा ॥ श्रानराई दूरश्रय सिया चिलमिलि निसिजागरणं गीए सज्जायजाणाइ ॥ श्रद्धा निग्गयाई तिखुत्तो मग्गिऊ असईए ॥ ग्गीयत्था जयणाए वसंति तो दवसा गरिए ॥ श्रद्धा निग्गयाई वासे सावयतिए व तेणजए, आवलिया तिविहेवी, वसंति जयणाए गीयत्था |
अर्थ:-गळ पावळ यावी गयो बे.
टीका:- इयं यतना स्त्रीसंसक्तवस तिमधिकृत्योक्ता ॥ पशु पंग संसक्तायामपि वसतौ वसतामेतदनुसारेण संजविनीयय-: तना दृष्टव्या । तदयमर्थः ॥ स्त्री संक्त्या दिसंनवेप्येवं विधयतनासावधानानां मुनीनां न तज्जन्या दोषाः प्राडुष्यंति स र्वत्र सर्वस्मिन्नपि वत्यधिकारप्रवृत्तोदेशका
|
अर्थ:- प्रकारनी यतना स्त्रीना संबंध सहित ज्यारे निवास होय तेनो अधिकार करीने कही बे माटे पशु तथा नपुंसकना संबंधवाळा निवासमां पण रहेनारने या यतनाने अनुसारे जेम संवे ते यतना करवी तेनो अर्थ प्रगट ने जे स्त्रीनो संभव आदिक थवानो संभव होय त्यां पण ए प्रकारनी यतना करवामां सावधान रहेता मुनियोने ते स्त्रीयादिकना संबंधथी थरला दोष नहीं प्रगट याय एम सर्व जगाए एटले साधुना निवासना अधिकारमां प्रवर्त्तेला सर्व नदेशक यादिकने विषे एम जाणवुं यतनावालाने स्त्रीया दिकना संबंधथी यएला दोष नही प्रगट याय
२५
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(२१० )
-18 अथ श्री संघपट्टकः 8
टीका:- नन्वेवं यतनावतां चैत्यवासे पि कोदोष इत्यतश्राह ॥ नतु ॥ तुदेऽवधारसेवा ॥ तेन नपुन नैववा मतइष्टः ॥ क्वापि द्देशादौ चैत्ये जनगृहे निवासो ॥ निवास इत्युन्नयत्रयोज्यते ॥ एतडुक्तं भवति ॥ यदिहि चैत्यवासो यतीनां क्व चिन्मतः स्यातदा स्त्रीसंसक्त्यादियुक्तइव गृहे वसतां तत्रापि कांचिद्यतनां ब्रूयान्नचैवं ॥ ततोऽवसीयते श्रागा रिधाम्न्येव संयतानां वासो, न चैत्य इति तस्मान्न सकर्णेन तत्र विद्वेषो विधेयइति स्थितं ॥
अर्थः- प्रतिवादिये तर्क कर्यो जे ए प्रकारनी यतनावालाने चैत्यवासमां पण शो दोष बे ? ते तर्कनुं समाधान कहे बे के कोई उद्देशादिकने विषे चैत्यमां साधुने निवास करवो अभिमतज नथी एटले कह्योज नथी. तु अव्यय नेदरूपी अर्थने विषे अथवा निश्चय रुपि अर्थ विषे माटे चैत्यवास मान्य नथीज एटलो अर्थ थयो निवास शब्दनी योजना वे पास करवी तेणे करीने या प्रकारे अर्थ थयो जे साधुने चैत्यमा निवास करवानुं को जगाए कझुंज नथी. साधुने गृहस्थना घरमांज निवास करवो एम कनुं वे जे जो कोइ जगाये साधुने चैत्यवास करवानुं कधुं होय तो जेम गृहस्थना घरमां निवास करनारे स्त्रीयादिकनो संबंध थाय त्यां यतना करवी कही बे तेम चैत्यवासमां पण कांइक यतना कहेत पण ते तो कही नथी. माटे एम निश्चय करीए बीए जे गृहस्थना घरमां निवास करनार मुनिने विषे द्वेष न करवो एटलुं सिद्धांत थयुं ॥
टीका :- एतेन सर्वत्रतेषु निरपवादे दीत्यादिना बंजवयस्त अगुती इत्याद्यंतेन यद्यतीनां परगृहवसतिदूषणं बनावे परे
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4
अथ श्री संघपट्टकः ।
NAAM
- तदपि पराकृतं ॥ तथाहि ॥ यदीयं परगृहवस व्रता यतीनां तत्किं सवर्दा उतस्विदिदानीमेव ॥
अर्थः-एणे करीने सर्व व्रतमां अपवाद रहित ब्रह्मवत ३. स्यादिथी आरंजीने ब्रह्मवतनी अगुप्ति थाय त्यां सुधी जे लिंगधारीये यतिने परघरमां निवास करवा विषे दूषण कह्यां हता ते सर्वेनुं खंगन कर्यु ते हवे कांइक देखामे . सुविहित लिंगधारीने पूछे
जे, ते साधुने परघरमा रहेवा विषे दोष कह्यो ते शुं निरंतर सर्व कालमां के था कालमांज ए दोष लागे .
टीकाः-॥ यद्याद्यः पदस्तदानीमुद्यानादिषु वसतां यतीनां कयंचिच्चौराद्युपजवात्कथं प्रतीकारः स्यात् ॥नच तदानीं कालसोस्थ्येन चौराद्यपसर्गानावाद्यानवासएव यतीनां श्रूयते न परगृहवास इतिवाच्यं ॥ तदानीमपि चौराद्यपध्वस्य बहुधा श्रवणात्॥तथा तदापि यतीनां परग्रहाश्रयणस्यागमेऽनिधानाच
.. अर्थः-त्यारे तुं जो प्रथम पदनुं ग्रहण करीश जे सर्वकाले गृहस्थना घरमां निवास करतां दोष लागे ने तो कहीए जीए जे ते कालमां नद्यान आदिकने विषे निवास करनार यतिने कांपण कोश प्रकारे चौरादिकना उपप्रवथी गृहस्थना घरमा रहेवा रुपि उपाय थतो हशे ए वचन सांजळीने लिंगधारी बोल्यो जे ते काल तो घणो सारो हतो माटे चौरादिकनो नपसर्ग हतोज नहीं माटे साधुने नयानमा रहेवानुं शास्त्रमा संनळाय पण गृहस्थना घरमा रहेवार्नु संजलातु नथी त्यारे सुविहित वोल्या जे एम तारे न बोलq ते काले
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(२१२)
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अथ श्री संघपट्टकः
NAA
पण चौरादिकनो उपजव बहुधा शास्त्रमा संजळाय , वली ते काले पण यतिने परघरनो आश्रय करवानुं शास्त्रमा कडं डे ए हेतु माटे ॥
टीकाः-॥ यदाह ॥ बाहिरगामे वुत्था उज्जाणे गणवसहि पमिलेहा ॥ इहरान गहियजमा वसहीवाघायउड्डाहो ॥ सवेविय हिंमंता वसहिं मग्गंति जहन समुयाणं ॥ लढे संकलियनिवेयणं तु तत्थेवउ नियाहे॥
अर्थ:-श्रावी गयो .
टीकाः-॥ तथा वृषनकल्पनया स्थापिते ग्रामादौ यतीनां वसतिगवेषण चिंतायामुक्त यथा, नयराइएसु धिप्पर वसही पुत्वामुहं नविय वसई॥वासकमी निवि दीकय अग्गंमिकापयं ॥ सिंगरकौमे कलहोछाणं पुण नात्थ होइ चलणेसु॥अहि. ठाणे पुट्टरोगो,पुछमिय फेमणं जाण ॥मुहमूलं मिय चारंसिरेय क. कुहेय पूयसकारे ॥ खंधे पहीश्नरो पुठं मिय धाययो वसहो॥
अर्थः-अर्थ पाधरो .
टीकाः-नचैवं विधावसतिर्यामादिमध्यमंतरेण संभवति ॥ नद्यानवासएवच तदानी मनिमते प्रतिपदमुक्तन्यायेन प्रामायं. तर्वसतिनिरूपणानोपपद्येत॥ एवचं तदानीमपि परगृहवसतेर्यतीना जावान्नप्रथमपक्ष॥
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-18. अथ श्री संघपट्टक:
. अर्थः-ए प्रकारनो निवास ग्रामादिना मध्ये होय त्यारेज संजवे पण ते विनानं संनवे जो तुं एम कहीश जे ते काले तो मु. धानवासज हतो तो पूर्वे कह्यो एवा न्यायथी सिद्धांतमा मगले नगले गाममां मुनिनिवासनी प्ररुपणा आवे जे ते केम घटे माटे ते काले पण मुनिने परघरवास हतो ए प्रकारे प्रथम पदनुं खंमन थयुं.
टीका-अर्थ द्वितीयः परः॥अत्रापि वक्तव्यं कुतोदोषादधुनैव यतीनां परग्रहवासोदृष्यते स्त्रीसंसक्त्यादेरितिचेत् ॥ न॥ अस्य दोषस्य तदानीमपि नावात् ॥
अर्थः-हवे बीजो पद जे, साधुने परगृहमां निवास करतां श्रा कासमां दोष लागे जे ए पकनुं सुविहित खंगन करे ले जे श्रा पक्षमां पण कहेवा योग्य ए जे जे शा हेतु माटे आ कालमांज साधुने परघर निवास करतां दोष लागे ? त्यारे तुं कहीश के स्त्री. यादिकना संबंधथी तो एम नही कहेवाय केम जे ए दोष तो तेकाले पण हतोज माटे.
टीका-नच तदापि तत्संसक्तिरहितवसतिपरिग्रहे तदलाने चान्निहितयतनां विहायान्यः समाधिः ॥ तथाच स श्दानीमप्या श्रीयतां न्यायस्य समानत्वात् ॥ एवं चोक्तयतनाविधायिनां स्ट्यादि संसक्तवसता विदानीमपि ब्रह्मचर्यागप्त्यादयोदोषार परास्ताः ॥
अर्थः-ते काले पण स्त्री संबंध रहित निवासनो परिमन हतो,
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(२२४)
६ जय श्री संघपट्टकः
सेवा निवासनी प्राप्ति न थाय. त्यारे शास्त्रमां कहेली यतना करीने मां निवास करवो पण ते विनानुं बीजुं समाधान न हतु तेमज या कामां पण तेज प्रकारनो श्राश्रय करो केम जे ए न्याय तो ते काले ने काले सरखो ढे ए प्रकारे शास्त्रमां कही एवी यतनाने करता एवा मुनीयोने स्त्रीयादिकना संबंध सहित एवा पण निवासमां रतां तेमने ब्रह्मचर्यनी गुप्तियादि दोष नही थाय ए प्रकारे लिंगधारीए जे परघरमां निवास करनार ने दोष देखा मया दता तेनुं खंगन कर्यु.
टीका: - यद्यपि तात्पर्यवृत्या चैत्यवासप्रसाधनार्थे एकामूलगुणेसु मित्यवष्टजेन स्त्री संसक्ताधाकर्मिक वसत्यो: संजवे श्राधाक म्मिकमेव वसतिग्रहणमुपपादितं तदप्यनवगत जिनमत तत्वस्य तो वचः ॥ नत्र सामान्यस्त्री संसक्तवसत्यपक्षयाऽधाकर्मिक वसत्युपादानमुदितं किंतु तरुणयो षित् संसक्ति महसत्यपेक्षये खि बोद्धव्यं ॥
अर्थ:- जे चैत्यवासनी सिद्धि करवानी तात्पर्य वृत्तिए करीने एटले तमारे जे ते प्रकारे चैत्यवास सिद्ध करवो एवा अभिप्रायथी एका मूलगुणे ॥ ए गाधानुं श्रालंबन करीने एक तो स्त्रीना संबंध सहित निवास बे ने बीजा श्राधाकर्मिक निवास बे तेमां धाकर्मिक निवासनुं ग्रहण करवुं एवं जे तमे प्रतिपादन कर्यु ते तमारुं जिन मतना तत्वनुं अजाणपणुं बे. तेथी एवं वचन कहो वो ॥ केम जे ए जगाए सामान्य स्त्रीना संबंध सहित निवासनी अपेक्षाए कार्मिक निवासतुं प्रहण करवानुं कां कथं नयी ए तो जवान
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मय श्री संघपgs:
(२)
स्त्रीधना संबंध सहित जे निवास तेनी अपेक्षाए कर्छु एम जाणो
टीका:- अन्यथा पुरुषाकी बालवृद्धस्त्री संसक्तवसत्यपेक्षयाsधार्मिक वसतिवर्जना निधानस्य वैयर्थ्य प्रसंगात् ॥
यडुक्तं ॥
श्रवा पुरिसाइन्ना नायायाराय जीयपरिसाय ॥ बालासु य वृद्वासु य नारीसु य वज्जए कम्मं ॥
अर्थः ॥ एम जो न होय एटले जवान स्त्रीखोना संबंध सहित निवासना त्याग करबो एम जो अभिप्राय न होय तो जे निवास पुरुष युक्त होय बाल अथवा वृद्ध स्त्रीधोना संबंधित । निवास होय तेनी अपेक्षाए श्राधाकर्मिक निवासनो त्याग करवानुं जे कयुं बे तेने व्यर्थ यवनो प्रसंग यशे ए हेतु माटे ॥ ते शास्त्रम कबे जे.
टीका:- किंच उज्जय प्राप्तावाधाकर्मिकवसति ग्रहणमेव चैत्यवासं निषेधयति ॥ अन्यथा यधाकर्मा दिदोष विकलसङ्गावे श्राधाकर्मिकवसतिग्रहणं नाचकीत ॥ तथा स्त्रीसंसक्ताधाकर्मिकवसत्योरिव स्त्रीसंसक्तवस तिजिन गृड्योरेकतर निर्धारण स्यागमें कारणे पक्व चिदप्रतिपादनात् ॥
अर्थ:-वळी वे प्रकारना निवासनी प्राप्ति थये ढते ट
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( २३ )
48 अथ श्री संघपट्टकः
जवान स्त्रीयांना संबंध सहित निवासने याधाकर्मिक निवास ए बेनी प्राप्तिये सते याधाकर्मिक निवासनुं ग्रहण कर ॥ एज वचन चैत्यवासनो निषेध करे बे ॥ ने जो एम न होय तो श्राधाकर्मादि दोष रहित नवासनि प्राप्ति थये बते जे श्राधाकर्मिक नि वासनुं ग्रहण कर क ते न कहेत ॥ वळी स्त्रीधना संबध सहित निवास ने धार्मिक निवास ते बेनी पेठे जवान स्त्रीमना संबंध सहित निवास ने चैत्यवास ए बेमांथी एकनो निर्धार कारण बते पण कोइ आगममां प्रतिपादन कर्यो नथी.
टीका: यद्यपि ग्रामाद्यंतर्व संगिरित्यादिनाऽधुना जिनगृह वासस्या स्मीचीनतापादनं तदप्यज्ञान विजृंत्रितं ॥ जवद जिमत जिन सदनवास पक्षेप्य धिकतर विवक्षितदोषसद्भावात् ॥
अर्थः-वळी जे तमे ग्रामादिकना मांदी वसताने ॥ ए व चनथी प्रारंभीने दालमां जिन घरवास करवो ए ठीक बे ए प्रकारे धुं ते पण तमारा अज्ञाननुं प्रकाशपणुं छे. केमजे तमे मान्यो जे चैत्यवास ते पक्षमां पण आगळ मे कहीभुं एवा अतिशय अधिक दोनुं विद्यमान बे माटे ॥
टीका:- तथाहि प्रत्यहं जगवत्पुरतः शृंगार सार गायन्नृत्य द्वारांगनां गनंगा पांग निरीक्षण स्तनतटाव लोकनादिना तत्र वसतामिदानीं तनमुनीनांकथं सातिरेका मन्मथ विकारांगारान दीप्येरन् ॥ ततश्चेदमुपस्थितं यत्रोजयोः समोदोषः परिहारश्च तादृशः ॥ नैकःपर्यनुयोक्तव्य स्ताकृशार्थ विचारणे ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
(२१७-)
अर्थः- ते कही देखा बे जे नित्ये जगवाननी समीप शृंगार रसथी गान करती ने नृत्य करती जे वेश्यान तेना शरीरनो विलास तथा कटाक्ष तेनुं देखतुं तथा स्तनकळशनुं देखतुं इत्यादिके करीने त्यां रहेनार या काळना मुनिने कामना विकाररुपी अंगारा प्रतिशे घणा केम दि दीप्यमान नहि थाय ? थशेज माटे तेमांथी
निर्धार प्राप्त थयो जे ज्यां बे वस्तुनो सरखो दोष प्राप्त थयो ने परिहार पण सरखो प्राप्त थयो तेवा अर्थना विचार करवामां एक पदार्थनो पण निर्धार थाय नहि जे या स्थान ग्रहण करवा योग्य a ने स्थान परिहरवा योग्य बे.
टीकाः - श्रयंच विशेषः ॥ अस्मत्पदे स्त्रीसंसक्तपरगृहे कदाचिद्वसतामप्युक्तदोषासंभवः तत्र यतनानिधानात् ॥ नवत् पतु चैत्यवासस्य सर्वथा वर्जनीयत्वेन क्वचिदपि यतनान जिधाना देतद्दोष पोष: केन वार्येत ॥
अर्थ:--माटे तेवी जगाए सामान्य विशेषनी कल्पना करवी जोइए, तेमां श्रमारो जे पक्ष घरघरमां निवास करवारुपी तेमां क दापि स्त्रीजनो सम्बन्ध थाय त्यारे तेमां निवास करनार मुनियोने पूर्वे को जे स्त्रीजना संबंधरुपी दोष तेनो संभव नथी, केम जे तेमां तो जतनानुं केवाएं बे माटे ॥ ने तमारो पक्ष जे चैत्यवास करवो तेनुं तो सर्वथा त्याग करवायएं बे, माटे कोई शास्त्रमां तेमां रहेनारने जतना करवानुं कथं नथी माटे ए दोष घणो पुष्ट थयो तेनुं
कोण निवारण करी शके
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( २१८) - अप श्री संघपट्टका
टीका-नच वक्तव्यं गृहिग्रहाणां संकीर्णत्वाद्यतनाकरणेपि नोक्तदोषमोषक शक्यत इति प्रमाणयुक्तस्यैव गृहिमंदिरस्य प्रायेण यत्याश्रयणीयत्वेनानिधानात् ॥ तत्रंचोक्तदोषपरिहा. रस्य सुशकत्वात् ॥ श्रतएव गृहिणा सकलगृहसमर्पणेपि यतीनां तस्यान्यस्य वा दौर्मनस्य निरासाय मितावग्रहाध्यासनं सूत्रे प्रत्यपादि ॥
अर्थ:-वळी तमारे एम न कहेवू जे गृहस्थनां घर संकीर्ण होय माटे तेमां यतना करे तो पण पूर्वे कहेला दोषनो परिहार करवाने समर्थ न थवाय ॥ केम जे बहुधाए प्रमाणयुक्त एवंज गृहस्थy घर साधुने आश्रय करवा योग्य , एम शास्त्रमा कहेवापणुं माटे तेमां तमारा कहेला दोषनो परिहार सुखेथी थाय एवो
॥ एज कारण माटे गृहस्थ पोतानुं समस्त अर्पण करे तो पण यतिने परिमाण युक्त एवाज अवग्रहने विषे रहे, केम जे ते गृहस्थने अथवा बीजा कोश्ने ए स्थान संबंधी मनमां माटुंचितवन न थाय माटे ए प्रकारे सूत्रमा प्रतिपादन कर्यु बे.
टीका-॥ यदुक्तं ॥ एवंझवि जं जोग्गं तदेयं जश्नणिका यन्नणि ॥ चुलीखट्टाय मम, सेसमणुन्नाय तुजा मए॥अणुणा एवि सबंमि, नग्गाहे घरसामिणो॥ तहाविसीम बिंदति, साह तप्पियकारिणो ॥ जाणच्या जायणधोवणठा, दुळाच्या अत्थण हेउयं च, मिउग्गहं चेव अणिहयंति, मासो व अनोवकरिनुमन्नति ॥ ....
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अब श्री संघका
(२१९)
अर्थः॥ टीका ॥प्रमाणयुक्तपरगृहालाजेतु संकीर्णेपि तस्मिन् यतनया वसतां न दोषः॥
॥ यमुक्तं ॥
नस्थि उ पमाणजुत्ता, खुज्जुलियाएव संति जयणाएत्ति ॥ यदपि नच एका मूलगुणसुमित्यादिना तस्मात्परवसतिरसमीचीने संतेन जिनगृहवाससमर्थनं तदपि न शोनावहं ॥
___ अर्थः-शास्त्रमा कहेला प्रमाण युक्त्त एवं पण परघर न मळे ने संकीर्ण मले तो पण ते घरमां यतनाये करीने रहेनार साधुने दोष न थाय जे माटे शास्त्रमा कडं जे प्रमाणे जुक्त तुझ घरमां यतनाथी रहेनारने दोष न थाय वळी एका मूलगुणे सुं ए वचनथी श्रारंजीने तस्मात्परगृह वसति रसमीचीना ए वचन सुधी जिनघरमां निवास करवानुं जे समर्थन कर्यु तेपण शोन्नतु नथी.
टीका:-जिनगृहस्याधाकर्मरहितत्वेपि जवि न श्राहाकम्म मित्यादिना तदंतर्वासस्य मुनीनां जगवदाशातनाहेतु त्वेनोक्तत्वात् ॥ तस्याश्चापीयस्या अप्पनंतनवामयवृद्धिकारणत्वेनापथ्याशनतुल्यत्वात् ॥ तस्मात्कथंचिदाधाकर्मिक्यामपि तस्यां वस्तव्यं नतु जिनगृह इति स्थितं ॥
अर्थः चैत्यवास करवामां श्राधाकर्म रहितपणुं होय तो पण ॥ जइविन ॥ इत्यादि गाथा वचने करीने तेमा रहेनार मुनि
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(१०)
1 अथ श्री संघपट्टका
योने नगवतनी श्राशातनानुं कारणपणुं ने ए हेतु माटे ने ते थोमी पण पाशातनाने अनंत नवज्रमण रुपी रोगनी वृद्धि थवानुं कार
पणुं ने माटे अपथ्य नोजन तुल्य ने कोई प्रकारे श्राधाकर्मिक एवा पण निवासने विषे वसवू पण जिनघरमां तो निवास करवोज नहि ए प्रकारे निर्धार थयो.
टीका:-तस्माउक्तन्यायेन यतीनां परगृहवासस्यतदानी मिवेदानीमपि दोषान्नावात्समीचीनं यतीनां परगृहवासोनुपपन्नः अनेकदोषऽष्टत्वात् प्राणातिपातवदिति साधनप्रयोगो पि अपरोदित उक्तानेकदोषनिरासासिझत्वादसिमः प्रतिपादितो जवति, स्वपक्षसाधनं तु यतीनां परगृहवासो विधेयः नि:संगता निव्यंजकत्वात् शुद्धोंडग्रहणवदिति ॥ तदेवं यतीनां चैत्यपरित्यागेनपरग्रहवसतिरेव श्रेयसी ने तरेति वृत्त ध्यार्थः ॥ ए॥
अर्थः-ते हेतु माटे अमारा कहेला न्याये करीने यतीने परघर निवास करवामां ते काले जेम दोष न हतो तेमज आ कालमां पण दोष नथी. माटे परघर निवास करवो ते ठीक डे ने तमे जे अनुमान प्रयोग को हतो जे यतिने परघर निवास करवो ते अघटित , अनेक दोषे करीने दुष्ट ने ए हेतु माटे प्राणातिपातनी पेठे एवो जे अनुमान प्रयोग ते पण रमी पमयो एटले व्यर्थ गयो।। केम जे अमे कह्या जे अनेक दोष तनुं निकारण न थतुं. माटे श्रसिक प्रतिपादन कर्यो , हवे अमारा पदमां तो अनुमान साधन शा प्रकारचें , जे यतिने परघर निवास करवो ॥ निःसंगपणाने
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अथ श्री संघपट्टकः
जलावनार हे ए हेतु माटे दोष वर्जित आहारने ग्रहण करवो तेनी पैठे ॥ जेम दोष वर्जित आहार ग्रहण करवामां निःसंगपणुं जणाय
म परघर निवास करवामां निःसंगपणं जणाय बे. माटे ए प्रकारे तिने चैत्यवासन त्याग करीने परघर निवास करवो. तेज प्रति शय कल्याणकारी बे, ए प्रमाणे बे काव्यनो जेगो अर्थ थयो || ||
(३१)
टीका: - सांप्रतं यथाक्रमं दीक्षाप्रातिकुल्यसावद्यत्वमाठ पत्यापत्तिदोषैरर्थादित्रयगोचरस्वीकारद्वारत्रयमेकवृत्तेन प्रत्यादि
विकुराह ॥
अर्थ:- हवे धन तथा सर्व आरंभ तथा चैत्यनो अंगिकार ए त्रणमां दीक्षानुं प्रतिकुळपणुं, तथा सावद्यपणुं तथा मठपतिपणु एत्रण दोष अनुक्रमे देखामी तेनुं खंमन करता सता एत्रण द्वा रने एक काव्ये करीने कहे बे.
॥ 11 भूल काव्यम् ॥
प्रव्रज्याप्रतिपथिनं ननु धनस्वीकारमाडु र्जिना. सर्वारं परिग्रदं त्वतिमदासावद्यमाचक्षते ॥ चैत्यस्वीकरणेतु गर्हिततमं स्यान्माठपत्यं यते, रित्येवं व्रतवैरिणीति ममता युक्ता न मुक्त्यर्थिनां ॥ १० ॥
टीकाः - नन्वित्यऽक्षमायां न कम्यते एतत् यदुत साधून
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(२१२)
48. अब श्री संघपट्टा
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धनस्वीकार इति यतो धनस्वीकारं प्रविणसंग्रहमाहुब्रुवति जिना नगवंतः॥अत्र च जिनानां मिदानीमतीतत्वेनोपदेशा संनवादाहु रित्यतीत विन्नक्तिप्राप्तावपि शर्तमानप्रतिपादनं तत्तेषां स्वागमै ग्रंथसंग्रह विपाकप्रतिपादकैः स्फुरसुपतयाऽद्ययावदनुवृत्त्यनेदाध्यवसायेन वर्तमानतयावनासात्तउपदेश प्रदः र्शनेन विनेयानां धनस्वीकारं प्रत्यतिपरिजिहीर्षा यथा स्यादिति ज्ञापनार्थं ॥ एव मुत्तरपदेपि योज्यं ॥
अर्थः-ननु उपसर्गनो अकमा एटलो अर्थ था जगोए ले तेथी थाम अर्थ थयो जे श्रमो ए वात सहन करता नथी जे साधूने धननो अंगिकार करवो ते जे माटे धननो अंगिकार ए. टले संग्रह तेने जिन जगवंत, श्रागळ कही शुंए प्रकारनो कहे के ए हेतु माटे आ जगाए वर्तमान काळनो प्रयोग मूकयो ने ने जिन नगवंत तो थर गया माटे तेना उपदेशनो असंचव डे माटे आहुः ए प्रयोगने विषे अतीत काळनी विजक्ति प्राप्त थइ, पण जे वर्तमान काळy प्रतिपादन कयु डे ते तो जे अव्य तेना संग्रहनो विपाक तेनुं प्रतिपादन करनारने स्फुरणायमान रुपे करीने श्रयापि चाट्यां श्रावतां एवां जे पोतानां श्रागम एटले सिद्धांत तेनी साथे ते जिन जगवंतनुं अजेदपणाना अध्यवसाये करीने वर्त्तमानपणुंडे ते वर्तमानपणाना आन्नासथी ते सिद्धांतना उपदेशन दान दे, तेणे करीने पोताना शिष्योने धननो अंगिकार करवानी श्या प्रत्ये त्याग करवानी सिद्धांतरुप नगवंतनी श्वा ते जणाववाने अर्थे अतीत कालने ठेकाणे वर्तमान कालनो प्रयोग मूकयो जे.॥ए प्रकारे पागळ पण जाण.....
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अब श्री. संघपहका
टीका:-प्रवज्याया:सर्व संगत्यागरूपाया दीक्षायाः प्रतिपंथिनं विरोधिनं विरोधश्चात्र वध्यघातकलक्षण स्तथाहि ॥अव्य संग्रहो मूळपरिणामः प्रव्रज्या तहिरतिपरिणाम स्तयोश्चात्र बलवता मूळ परिणामेनतहिरतिपरिणामो बाध्यतति ॥
" अर्थः-सर्व संगनो त्याग करवो ए रुप जेदीक्षा तेनो विरोधी एवो ऽव्यसंग्रह . श्रा जगाये विरोध केवो जाणवो के वध्यघातक ने लक्षण जेनें एवो जावो. हवे ते वध्यघातक लक्षण देखामे जे. जे अव्य संग्रह ते मू नो परिणाम डे ने प्रव्रज्या बे ते तो अव्यसंग्रहथी विरति पामवाना परिणाम रुप ले माटे ते बेमांबळवान एवो मुर्बानो परिणाम तेणे करीने ते अव्यसंग्रहथी विरती परिणाम बाध पामे ॥
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥ अर्थगृहीति मूळ,दीका तहिरतिपरिणतिःप्रोक्ता॥अनयोई रिमृगयो रिव,विरोधश्हं वध्य घातकतेति॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयुं जे जे अव्यनोजे संग्रह करवो ते मर्ग कहीए ने तेथी विरती पामवानी परिणति तेने दिदा कहीए ॥ ने ए मूर्गने दीक्षा ए बेने परस्पर एक बीजाने नाश करवापणुं रह्यं डे ॥ज्यां मूर्ग होय त्यां दोदा न होय, ने ज्यां दीक्षा होय त्यां मूळ न होय ने एक नाश पामवा योग्य थाय ने बीजें तेनो नाश करनार थाय तेने वध्यघातक कहीए, जेम मृगने सिंह ने तेम ॥ माटे दीक्षाने विषे धननो स्वीकार करयो ते संजवे नहि ।
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- अथ श्री संघपट्टकः --
टीका:- सहानवस्थानं ॥ तथाहि ॥ द्रव्य संग्रहः संगो दीक्षा च निःसंगता संगनिः सगतयो च युगपदेकत्रावस्थाना भावात् ॥ यदाह ॥ ग्रंथस्य संग्रह: संगो, दीक्षा निःसंगता स्मृता ॥ सहावस्थानमनयो, र्न छायातपयोरिव ॥
( २२४ )
अर्थः- ए बेनुं संघाथे रद्देवापणुं संभवतुं नथी ॥ ते देखा जे द्रव्य संग्रह ते संग कहीए ने दीक्षा ते निःसंगता कहीए ते संग ने निःसंगता एबेनुं एक काळे एक जगोए रहेतुं थतुं नर्थ ॥ ॥ जे माटे ते शास्त्रमांक बे जे ॥ ग्रंथ एटले द्रव्य तेनो जे संग तेने कहीए ने दीक्षा ते निःसंगता कहीये ॥ ए बेनुं जेम तमको ने छांयोतेनी पेठे एक जगाए रहेवापणुं न होय.
टीका:-- द्रव्यस्वीकारे हि यतीनां गृहिला मिव दिवानिशं तवर्धनरक्षणोपनोगव्यग्रत्वात् कुतस्त्या प्रव्रज्या || तस्मात द्विरोधित्वान्न द्रव्यांगिकारः संगतः
॥ युक्तं ॥
कामाधुन्माद देतुत्वा जनितानेक विग्रहः कथंचन मुमुकुण न युक्तो द्रव्यसंग्रहः ॥
अर्थ :-- द्रव्यनो अंगिकार करे तो यतिने गृहस्थनी पेढे रात दिवस ते धनने वधावुं तथा तेनुं रक्षण करवुं तथा तेनो उपभोग करवो इत्यादिकने विषे कुळव्याकुळप याय माटे क्यांथी रहें,
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-49. अथ श्री संघपट्टक
ते हेतु माटे ते दीक्षानो विरोधि अव्यनो अंगिकार थयो ॥जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे अव्बनो संग्रह ले ते कामादिक नन्मादनुं कारण डे ए हेतु माटे अनेक विरोधने उत्पन्न करनार ॥माटे संसारथकी मूकावाने श्चता जे पुरुष तेने अव्य राखq युत नथी.
टीका:--उपदेशमालायामप्युक्तं ॥ दोससयमूलजालंवुव्वरिसिविवङियं जईवंतं॥ अत्थं वहसि अणत्थं,कीस अणत्यंत चरसि॥ वहबंधणमारणनेयणा का परिग्गहे नस्थितं जइ प- . रिग्गहुच्चिय, जश्वम्मो तो नणु पवंचो ॥
अर्थः-नपदेशमालामां पण कां बे जे धन ले ते सेंकमो. दोषनुं मूळ ॥ ने पूर्वना मुनीउए त्याग करेलुं ने माटे जो तेमणे वमन कयु डे एटले वांतिनी पेठे त्याग करेढुंढे तो ए अर्थ एटले धन ते अनर्थन धारण करे ने एटले अर्थ ले ते अनर्थरुप डे माटे अनर्थक एटले फोगट तप केम आचरण करे ॥ एटले तप करनारनुं तप धन राखेथी निष्फळ थाय डे ॥ वळी ए परिग्रहने विषेशी वेदना नथी रही वध, बंधन, मारण इत्यादि सर्व रह्यं डे माटे जो ते परिग्रहनो त्याग करे तो यतिधर्म प्रपंच रहित होय.
टीका:-अत्रच विशेषणे तात्पर्य ॥धनस्वीकारस्य सिद्धस्य प्रवज्याप्रतिपंथित्वेन यतीनां निषेधे विश्रामात् ॥ एतेन - व्यस्वीकारस्यागमे निवारित्वेपीत्यादिना यतिचिंताय विधानादित्यंतेन यजव्यस्वीकारसमर्थनं सांप्रतिकयतीनां प्रतिपादितं
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(२२६)
8. अय श्री संघपट्टका
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: परेण तदप्यपास्तं मंतव्यं ॥ केषांचिद्गृहिणां निर्धनत्वा दिना सांप्रतं यतिचिंताद्यविधानेप्यन्येषां तथोपलंनात् ॥
अर्थः-श्रा जगाए दीक्षानुं विरोधी एवं जे अव्य ने एमजे विशेषण दीधुं तेमां ा तात्पर्य जे तमे यतिने धननो अंगिकार दीक्षानो विरोधी ने माटे तेनो निषेध सर्वथा सिह कर्यो एणे करीने तमे एम जे कयु हतुं जे शास्त्रमा साधुने धन राखवानो निषेध कयों डे. तो पण इत्यादी आरंजीने श्रावक यतीनी चिंतादि करता नथी त्यां सुधी जे धननुं अंगिकार कर सिद्ध कर्यु हतुंआ कालना यतिने ते सर्वेनुं खमन थयु एम मानवू केम जे केटलाक गृहस्थोनुं निर्धनपणुं ने तेणे करीने हालमा यतिनी चिंतादिकने करी शकता नथी पण बीजा केटलाक गृहस्थो साधुनी चिंतादिकने करी शके एवा देखाय बै एवा हेतु माटे ॥
टीकाः-॥ तथाहि दृश्यंतएवाद्यापि केचिदुदाराशया ग्लानाद्यवस्थायां निरवग्रहा जिग्रहपुरस्सरं पथ्यौषधादि दानेनयतीनां संयमशरीरोपष्टंनं विदधाना:पात्रस्य अविण विसावका: श्रावकाः ॥ तत्तावतैव पर्याप्तं, किं सिद्धांत निषिद्धेनानर्थ सार्थमूलेन वित्तपरिग्रहेण ॥
अर्थः-ते देखामे जे जे आ काळमां पण केटलाक नदार चित्तवाळा श्रावक देखाय बे के जे ग्लानादिक अवस्थाने विषे श्रवग्रह रहित अनिग्रह पूर्वक पथ्य औषध आदिकनुं जे दे, तेणे करीने साधुनुं संयमरुप जे शरीर तेनो उपष्टंन करे ये एटले सा
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
( २२७ )
इज करे बे ने पात्रने विषे पोताना द्रव्यनो व्यय करे बे माटे एवा श्रावक लोकवमेज कार्य थयुं त्यारे सिद्धांतमां निषेध करेलो ने अनर्थना समूहनुं मूळ एवो द्रव्यनो परिग्रह करवो तेणे करीने सयुं एटले द्रव्यनो अंगिकार करवो घटतो नथी.
टीका:- परमेवं कालाद्यौचित्येन
पथ्यादिदातृसङ्गावेपियदिदानींतना यत्याजासा बालकाध्यापनमंत्रादिप्रयोगवैद्यकादिजिः पथ्यपुस्तक लेखना दिव्यपदेशेन गृयिज्योऽयमय मिकदा स्वापतेय निचयंसं चिन्वाना उपलज्यंते तयनं विषयतृषा कर्षितान्तःकरणतयातेषामेवं द्रव्यसंग्रह प्रवृत्तिर्नतु ग्लानादि हेतुना ॥
"
अर्थ:--परंतु या काळने उचित एवां पथ्यादि श्रौषधना देनार विद्यमान ते पण जे काळना था लिंगधारी पुरुषो बाळकोनुं जणावतुं मंत्रादि प्रयोग करवा तथा वैडुं कखं तथा जेने जेवां जोइए तेने तेवां पुस्तक लखी आपवां इत्यादि द्रव्य उपार्जन करवानी क्रियानो मिषवमे हूं मोटो धनाढय थनुं हुं मोटो धनाढय थनं एवा अभिप्रायथी गृहस्थ लोको पासेथी धनना समूह ग्रहण करनारा एटले गृहस्थ पाथी अनेक युक्तिवमे धन लइ संचय करनारा देखाय बे ते निचे विषय तृष्णावके आकर्षण थयां जे अंत:करण तेथे करीने ते लिंगधारीने द्रव्य संग्रह करवामां प्रवृत्ति देखाय बे, एटले ते लिंगधारी विषय जोगववानी इच्छाएज द्रव्य पासे राखे बे पण ग्लानादि कारणे राखता नथी.
टीका :- यक्तं । एका कित्वा विशुपठनतो मंत्रतंत्रैश्च
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अथ श्री संघपट्टकः
केचिन्मारस्वाम्यान्मधुरवचनात् सर्वतः केपि नष्टाः ॥ रागालोजाऊन विढपनध्यान मापूरयंतो, लब्जालिंगं विदधतितरां नैष्टिनैव वृत्तिं ॥
( २३८ )
अर्थः- शास्त्रमांक बे जे केटलाक तो बोकरांने जणाव. art ष्टथया ने केटलाक मंत्रतंत्र करवाथी ऋष्ट थयाने केटलाक म. पतिपणाथी ष्टथया, केटलाक स्त्रीयादिना मधुर वचनथी ब्रष्ट, थया, ने केटलाक तो रागथी लोनथी सर्वथा भ्रष्ट थया. एम धन राख़वाना ध्यानने वधारता पुरुषो साधु वेश धारण करीने पण पोतानी जे साधुपणानी वृत्ति तेने यतिशे नथी करता.
टीकाः न च शिशुपावनाद्यपि यतिना विधातव्यमिति वक्तुमुचितं गृहिशां मातृका दिपाठनादि विधानस्य मुनीनां चारित्रनंग देतुत्वेनागमे निवारणात् यदाह || जोःसनिमित्त - रकवर को एसइकम्मेहिं ॥ करणाणुमोअणे दियसादुस तवरको होइ ॥
अर्थ:- बोकरांने जणाववुं इत्यादिक साधुने करवा योग्य बे एम बालबुं पण घटतुं नथी केमजे गृहस्थने लिपिारया दिनmaj इत्यादिकने करनार मुनिने चारित्र जंगनुं कारण बे ए हेतु माटे शास्त्रमां निबारण कर्यु बे ते शास्त्र वचन कहे बे ॥ ज्योतिष तथा निमित्त कहे इत्यादिथी तप नाश पामे बे.
टीका: - यद्यपि सांप्रतं चैत्यद्रव्यमपि यतिजि रित्या निदा
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
( २२९ )
दुर्धसादिधीर्षया यतीनां चैत्यद्रव्यस्वीकारतऊर्द्धन मुपपादितं तदप्यसंगतं ॥ यदाहि द्रव्यमात्रस्वीकार स्याप्युक्त क्रमेण यतीनामागमे निषेधः प्रत्यप्रादि तदा कैव कथा चैत्यsor स्वीकारस्य ॥ तथा द्रव्येण श्राद्धोद्धारस्याप्यागमे क्वचि - दप्यप्रतिपादनात् ॥ देवद्रव्यपुंज मात्रग्रहणस्यापि श्राद्धानां सिद्धांते प्रतिषेधाच्च ॥
प्रर्थः--वळी जे तें कह्युं जे या कालमां चैत्य द्रव्य पण साधुए इत्यादिथी आरंभीने दुर्बल श्रावकना उद्धार वास्ते यतिने चैत्य द्रव्यनो अंगिकार करवो तेने वधावुं त्यां सुधी जे प्रतिपादन कर्तुं ते पण घटतुंबे ॥ जे माटे श्रमे कह्यो ए अनुक्रमे साधुने द्रव्य मात्रनो अंगिकार पण सिद्धांतमां निषेध कर्यो के एम प्रतिपादन कर्यु त्यारे चैत्य द्रव्यनो अंगिकार करवानी तो वातज क्यांथी होय ॥ ने ते प्रकारना sव्ये करीने श्रावकनो उद्धार करवानुं कोइ सिद्धांतमां पण प्रतिपादन कर्यु नथी माटे सिद्धांतमां श्रावकने देवद्रव्य संबंधी, रुनुं घूमकुं पण ग्रहण करवानो निषेध कर्यो बे हेतु माटे ॥
टीकाः ॥ यक्तं ॥ वज्रेश् चेश्यालयदद्वंांगे वरिं मिनहारं ॥ साहारणं च एयं, न जान से पुंजयं लेइ ॥ तद्दव रिपियजायण विडीए सगमवइल मणुयाणं ॥ श्रहवाविखरा लएही करे तद वया ॥ यं पुंजं न कुण, सरका वोइ किमिह वुञ्चति ॥ वय तह, विसुभावो सयाकालं ॥
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(230)
अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः ॥ टीका ॥ एवंच श्राद्धानां यदापुंजमात्रस्याप्येवं निषेधaar at वार्ता नद्दिधीर्षया यतिवितीर्णसाक्षाद्देवद्रव्य ग्रहणस्येति ॥
अर्थ:-ए प्रकारे श्रावकने एक पूमरुं मात्र पण ग्रहण करवानो निषेध शास्त्रमां कह्यो बे त्यारे उद्धारवानी इहाए यतिए आयुं जे साक्षात् देवद्रव्य तेनुं जे ग्रहण करवुं तेनी तो वातज क्यांची होय.
टीकाः - ॥ तटुक्तं ॥ नरके जो न विरके, जिणदव्वं तुसा वन ॥ पन्नाहीणो नवे सोन, लिप्पई पावकम्मुणा ॥ श्रयाणं नव मुंजइ, पविन्नधणं न देइ देवस्स ॥ नस्संतं समुविस्कड़, सो विदु परिजम संसारे ॥
अर्थ:- ते वात शास्त्रमां कही बे जे.
टीकाः - देवद्रव्यरक्षणवर्द्धनादादेव श्राद्धानामधिकारातस्यैवच तेषां परमकोटिप्राप्तिफलाधायकत्वेन जणनात् ॥ ॥ यटुक्तं ॥
जिrपवयावुडिकरं, पजावगं नाणदंसणगुणाणं ॥ ररकंतो जिणदवं परित्तसंसारिन्हो || जिणपवयावुद्विकरंपजावगं नणदंसण गुणाएं, वहू॑तो जिणदव्वं, तित्थयरत्तं लड्इ जीवो ॥ जिपवयवुटिकरं ति ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः - (२१) अर्थः-देव अव्यनुं रक्षण करवू ने वधार, इत्यादिकने विषे श्रावकनोज अधिकार उ ए हेतु माटे श्रावकनेज ते अव्यनुं रक्षण करवू, बधार इत्यादिकथी परमकोटीने पामेढुं एटले अतिशय मोटुं फळ तेनुं धारण करवापणुं ने एम सिद्धांतमां कडं ने जे माटे ते सिद्धांतनुं वचन जे जिनप्रवचननी वृद्धि करनार एवं ते ज्ञानदर्शन गुण- प्रत्नावक एवं जिनअन्य तेनी रक्षा करता जे पुरुषो ते अल्प संसारी होय . ने वळो एज्यनी वृद्धि करता जे जीव ते तीर्थकरपणा रुपी रत्नने पामे ले जिणपवयणं ए पदनो अर्थ टीकाकार पोतेज कहे ॥
टीका-जीर्ण जिननवनादेरुद्धारविधिना तत्स्थबिंबायव लोकन विहारक्रमागतसुविहितयतिधर्मोपदेशहारेण भूयसां नव्यसत्वानां बोधिविधीयकृत्वानवति जिनपव्यं प्रवचनवृझिकरमिति संकासानदाहरणेनचास्यार्थस्य प्रतीतत्वात् ॥ श्राझोद्धारे च यतीनां सर्वथाऽनधिका रित्वाच्च ॥ तस्माबारेव स्वप्रव्येण साधारणसमुदाव्येण वा वात्सल्य करपाबाद्धोछारेण तीर्थानुबित्तिः सेत्स्यति ॥ किं यतीनां ताकाराय विहितेन देवाव्यस्वीकारेणेति ॥
अर्थ-जे जुनां जिनन्नवन श्रादिकनो नझार करवाना वि. धिए करीने ते जिनन्नवनमा रह्यां जे बिंब आदिक तेने दर्शन करवाने विहारना अनुक्रमे आवेला जे सुविहित मुनि तेना धों. पदेश छारे करीने घणाक नव्य प्राणीने समकीतनु धारण करवा
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(२३२) 9. अथ श्री संघपट्ट - पणं शायदेत माटे जिन अन्य नेते प्रवचननी वक्रि करनार ले. संकाश श्रावक आदिकना दृष्टांते करीने ए अर्थन प्रसिद्धपणुंडे ए हेतु माटे वळी श्रावकनो उद्धार करवामां यतिने सर्व प्रकारे अधिकार नथी ए हेतु माटे ॥ श्रावकज पोताना अव्ये करीने तथा समुद्रक अव्ये करीने अथवा सामी वत्सल करवाथी श्रावकनो नकार करशे तेणे करीने तीर्थनो नुच्छेद न थवो जोइए,ए वात सिक थशे. माटे श्रावकनो उधार करवाने अर्थे यतिने देवअध्यनो अं. गिकार करवो तेणे करीने शुं॥ कां पण अव्य राखवानुं प्रयो. जन नथी.
टीकाः-तथा सारं निणां सकलसावद्यारंजप्रवृतानां गृ. हिणां परीग्रहो मर्गहेतुः पामकत्वबुद्धिस तथा तं ॥ तुशब्दोऽर्थस्वीकारादस्य नेदप्रदर्शनार्थः अतिशयेन महासावयं महापापं आचरते वदंति जिना इति पूर्वस्मादनुकृष्यते ॥ अत्र चाहु रिति क्रियानुवृत्त्यैव साध्यसिंझावाचकत इति पुनर निधानं छारांतरनिराकरणमेतदिति झापनार्थम् ॥
अर्थः-वळी सकल सावद्य आरंजने विषे प्रवर्तेला गृहस्थोनो परिग्रह करवो ते मुर्गन कारण ॥ एटले ते गहस्थने विष ममत्व बुद्धि करवी जे आ गृहस्थ तो अमारा के एम जे कर तेने जिन जगवंत अति महा सावद्य कहे ने महा पाप कहे . जिन एटलु पद प्रथम वाक्यमांथी आकर्षण करवू ॥ श्रा जगाए 'तु' श्र. व्यय ले ते धन अंगिकार करवाथी गृहस्थनो परिग्रह करवो ते तो अति महा सावध डे एम नेद देखामवाने अर्थे .या जगाए 'आहुः'
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-48. अथ श्री संघपट्टकः :
कहतां 'कहे' डे ऐ प्रकारचें क्रियापद तेनी अनुवृत्ति थती हती तो पण 'श्राचदते' कहेतां 'कहे' ले ए प्रकारचं फरीथी क्रियापद कडं ते तो आ बीजो हार नथी एम जणाववाने अर्थे कडं डे.
टीका:-अयमर्थः ॥ गृहिपरिग्रहेहि तत् कृतकारितादिसकलमहारंजमहापरिग्रहजनितपापानुमत्यादिना यतीनामपि तत्कृतादिनाखिलपापसत्वप्रसंगोऽत: कथं तस्य नातिमहा. सावद्यता परकृतमहापापस्यात्मन्यऽध्यारोपणमेव चेति शब्दार्थः॥
अर्थः-एनो स्पष्टार्थ तो श्रा ने जे, गृहस्थना परिग्रहे करीने निश्चे ते गृहस्थोए पोते करेला तथा बीजा पासे करावेला जे सम
स्त मोटा आरंज तथा मोटा मोटा परिग्रह तेथी उत्पन्न थयुं जेपाप - तेनी अनुमोदनादिके करी यतिने पण ते गृहस्थोए कर्यु कराव्युंजे
समस्त पाप तेने पामवानो प्रसंग थाय . माटे ते गृहस्थोनुं अंमिकार करवं तेमां अति महासावधपणुं केम नहि. केम जे बोजार्नु कर पाप तेनुं पोताने विषे आरोपण करवू एज अति शब्दनो अर्थ डे, एटले अति महा सावधपणुं बे.
- टीकाः-॥ तदुक्तं ॥ प्रारंजनिर्जरगृहस्थपरिग्रहेण, तस्वातकं सकलमात्मनि संदधानाः, सत्यात् पतंत्यहह तस्करमोष-. दोष मामव्यनिग्रहनयं सितनिकुपाशा, इति॥
अर्थः-ते कडं , जे आरंजने विष नरपुर एवा गृहस्थ
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अथ श्री संघपट्टकः
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लोक तेमनो परिग्रह करवे करीने श्वेतांबरी निकुमां अधम एटले लिंगधारी पुरुषो ते गृहस्थोए करेलां पापने पोताना विषेधारण करे
॥ते जेम चोरे चोरी करीने तेनो दोष मांमव्य नामे ऋषिने लाग्यो तेथी ते ऋषिनो निग्रह थयो एवा न्यायने सत्य करे , ते कथा अन्य दर्शनमा जे जे एक नगरने विषे राजाना राजधारमा चोर चोरी करीने नाग ते मांमव्य नामे ऋषिना आश्रममां गया त्यार पनी राजाए चोरने कालवा लश्कर मोकट्युं तेणे सर्वे चोरने काट्या ते नेगा मांमव्य ऋषि तप करता हता तेने पण काल्या, त्यार पठी राजाए आज्ञा करी जे सर्व चोरने फांसी आपो, पनी सर्व चोरने फांसी दीधी ते नेगी मांगव्य ऋषिने पण फांसी दीधी ते ऋषिए यमराज पासे जइने पूब्युं जे में कोई दिवस पाप कर्यु नथी ने मने फांसी केम मळी.त्यारे यमराजेपोतानो चित्रगुप्त नामे पाप पुण्यनुं ले राखनार पुरुष पासे सर्वे नामुं लेखू जोवमाव्यु तेमां एटलुंज पाप नीकळ्युं जे त्रण वरसनी अवस्था हती त्यारे रमत करतां एक देमकीने बावळनी शूळमां परोवी डे ते वात - पिने कही जे था पापे करीने तमने चोरी नथी करी तो पण शूळी मळी, त्यारे ऋषिए कह्यं जे शास्त्रमा तो एम कयुं ले जे पांच वरस सुधी जे जे पाप बाळक करे ने तेतो तेना माबापने लागे डे माटे ए पाप, फळ अमने शाथी दीधुं, त्यारे यमराजे कडं जे घणा कामना घनराटथी नूलमा ए काम बन्यु ने. त्यारे ऋषिए यमरा. जने शाप दीधो इत्यादि मोटी का बे. माटे जेम चोरे चोरी करी ने मांमव्य ऋषिने फांसी मळी तेम गृहस्थ लोके पाप कर्यु तेनी अनुमोदनाथी साधुए ली, तेथी अति महा सावधपणुं गृहस्थना परिग्रहथी कह्यु.
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* अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- अतएव गृहिपरिग्रहो यतीनां प्रायश्चितापत्या श्रुते निवारितः ॥ नसन्नगि हि सुलहु गेत्यादि । एतेन गृहिस्वी कारं प्रति यत्रस्य पूर्वं हि कालस्य सौस्थ्या दित्यादिना युक्त्यनिधानं तदपि निरस्तं ।। कालदोषात् कुतीर्थिका दिनूयस्त्वेपि गृहिस्वी - कारमंतरेणापि जक्त प्रकादिश्राद्धेन्यो यतीनामधुनापि जिकादिप्राप्ते रुपपत्तेः ॥
अर्थ:- ए हेतु माटे साधुने गृहस्थनो परिग्रह प्रायश्चित्त क रवा ढे माटे शास्त्रमां निवारण कर्यो बे, उसन्नगि हित्यादि गाथा करीने, एणे करीने गृहस्थनो अंगिकार करवा प्रत्ये जे लिं गधारी पूर्वे तो काल सारो हतो इत्यादि युक्ति कही ती तेनुं खंरुन कर्यु. काळना दोषथी कुतीर्थिकादिक घणा बे तो पण गृहइस्नो गिकार कर्या विना जक्त जक इत्यादि श्रावक थकी यतिने हालां पण निकादिकनी प्राप्ति थाय बे. ए हेतु माटे.
टीका:-तः केवलौदरिकत्वा पक्ष्याती वोपहासपदं विदुषां तदर्थस्तत्स्वीकार इति ॥ योपि, जा जस्स विश् इत्याद्यागमो पन्यासः सोपि न जवदमितप्रसाधकः ॥ श्रन्यार्थत्वात् ॥ नहि गृहिपरिग्रहसाधकोयं प्रकृतागमः ॥ किंतु गणधरादीनां शिष्य प्रतिशिष्यपरिग्रह विषयः ॥
अर्थ:--एथी एम जणाय बे जे पंकितने उपहास करवा योग्य एवं केवळ पेट जर्यापर्ण लिंगधारीउनुं बे तेथी ते गृहस्थोने पोताना करी राखे बे वळी जेनी जेटली स्थिति मर्यादा इत्यादि या
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( २३६)
9. अथ श्री संघपट्टकः
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गमर्नु थापन कर्यु ते पण ते तमारुं लिंगधारीउनु इजितने सिद्ध करनार नथी, केम जे ए आगमनो तो बीजो अर्थ , पण साधुने गृहस्थनो परिग्रह करवो एम सिह करनार 'जास्सहि' ए श्रागम वचनथी तारे शुं सिद्ध करनार ने तो ए के गणधरा दिकना शिष्य तेमने बीजा गणधरा दिकना शिष्य तेमनो परिग्रह करवा विषे ए आगम वचननो अर्थ .
टीकाः-तथाहि ॥या काचिद्यस्य गणधरशिष्यप्रतिशिष्यादेः स्थितिः प्रतिक्रमण वंदनादौ न्यूनाधिकदमाश्रमणदानादि लक्षणा समाचारो याच यस्य संततिर्गुरुपारंपर्येणालाचनादिदान विषयः संप्रदायः याच पूर्वपुरुषकृता गणधरा दिप्रवर्तिता मर्यादा गच्छव्यवस्था तामनति कामननंतसंसारिको न नवतीति ॥
अर्थः-तेज स्पष्ट करी देखामे के जे जे कोइ जे गणधरना शिष्य प्रतिशिष्य आदिकनी स्थिति एटले प्रतिक्रमण वंदना. दिकने विषे न्यून तथा अधिक खामणां देवा इत्यादि लक्षण समाचार , तथा जेनी जे संतति एटले गुरु परंपराये आलोयणथा. दिक देवाने विषे संप्रदाय . वळी जे पूर्व पुरुष करली ते गणधर श्रादिके प्रवर्त्तावली मर्यादा एटले गलनी व्यवस्था तेनुं नबंधन जे नथी करता ते अनंत संसारी नथी थता.
टीकाः-श्रत्रहि गणधरशिष्यादीनां स्वस्वगुरुप्रदर्शित स्थित्याद्यतिक्रमेऽनंतसंसारितापत्या प्रतिनियतगणधरपरिबह विषयत्वमवसीयते ॥ श्रावकाणांतु सर्वधार्मिकगच्छविशेषण
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- अथ श्री संघपट्टकः --
नक्तपाना दिनक्त्य निधानात् ॥ यदुक्तं ॥ तगघयगुलगोरसफा सुप मिला हांस मणसंधे ॥ सगण वाइगाणंति ॥ तथा.... सङ्केणं सइविहवे साहूणं वत्थमाइ दायव्वं गुणवंता विसेसो त्ति ॥
( २३७)
अर्थः जे माटे या जगाए तो गणधरना शिष्यादिकने पोत पोताना गुरुए देखामी जे स्थिति आदिक तेनुं उल्लंधन थये सते अनंत संसारीपणुं याय एम कधुं बे माटे जे जे गणधरना शिष्य होय तेने तेने पोतपोताना गणधरनी मर्यादा ग्रहण करवी एवा अभिप्राय ए शास्त्र वचन बे एम निश्चय करीए बीए. ने श्रावने तो सर्वथा धार्मिक गच्छने विषे विशेष रहित जक्त पान था दिक भक्ति करवानुं कहेवापणुं वे ए हेतु माटे, ते शास्त्रमां कहुंबे जे.
टीका:- तो नेदानींतन रुढ्या प्रतिनियतगष्ठपरिग्रह वि पयत्वं तेषां सिध्यति ॥ यच्वशक्तस्य ॥ तदसइसस्स गछस्स ॥ तथा दिसाइत विन जे सत्य इत्युक्तगाथयोश्चतुर्थपादान्यां धर्मगुरुषु तछेवा विशेषण दाननक्तिप्रतिपादनं तत्तेषां दुःप्रतिकारतया नतु तत्स्वीकार विषयतयेति ॥
अर्थ:-- हेतु माटे या काळनी रुढि प्रमाणे पोते पोतानां गठ बांधीने ते गहना अजिमानवाळा श्रावकने पोताचा करी रा खवा एम शास्त्र के सिद्ध थतुं नथी ने वळी अशक्त तमे कयुं जे तदस सबस्स ' ए गाथा तथा 'दिसाइछतवि' ए गाथा, ते बेगाथाना चोथा पादथी धर्मगुरुने विषे तथा तेना गहना विषे विशेष
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(२३८)
अथ श्री संघपट्टकः
दान प्रक्तिनुं प्रतिपादन कर्यु, ते तो तेमना नृपकारनुं सहजपणुं नथी माटे धुंडे. पण तेनो अंगिकार करवा विषे नथी कां
टीका :- यदपि सम्यक्तदीक्षावसरे श्राद्धानां गुरोरात्मसर्वस्वसमर्पणेन परिग्रहसमर्थनं तदपि न शोजनं ॥ तथा हि ॥ • कोयं परिग्रहः ॥ किमुपास्योपासक संबंध, श्राहो प्रतिनियता जाव्यव्यवस्था विषयतया नियमनं ॥ तत्राद्यपक्षे सिद्धसाधनं ॥ एवं विधपरिग्रह विषयतायाः साधुश्राद्धानामस्माकमप्यनुमतत्वात् ॥
अर्थ:-वळी जे तमे समकित दीक्षाने अवसरे श्रावकने पोताना गुरुने सर्वस्व अर्पण कर तेथे करीने परिग्रह करवानुं प्रतिपादन कर्यु ते पण शोजतुं नथी, ते कही देखा बे ए परिग्रह ते कयो ? ॥ शुं उपास्य नृपासक संबंध रुपी बे, के नियम पूर्वक जे श्राव्यव्यवस्था बे तेथे करीने नियम करवो ए बे. तेमां प्रथमनो पक्ष जे उपास्य उपासक संबंध ते तो घटतो नथी; केम जे तेमां तो सिद्ध साधन दोष यावे के जेए प्रकारनो परिग्रह तो साधुने तथा श्रावकने तथा हमारे पण मान्य बे ए हेतु माटे ॥
टीकाः - श्रथ द्वितीयः ॥ तन्न ॥ श्राव्यव्यवस्थायाः प्रवित्र जिषूत्प्रत्र जितगृहि विषयतयै वागमेदर्शनात् ॥ तथाहि ॥ कल्पव्यवहारोक्तादि गव्यवस्थैव मुपलभ्यते ॥ यः प्रवित्र जिषु-सा- मायिका दिपाठप्रवृत्तः स त्रीणि वर्षाणि यावत् पूर्वाचार्यस्य स - म्यक्तदातुरेव जवति ॥
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अथ श्री संघपट्टकः
(२३९)
अर्थः-वळी बीजो श्रात्मा व्यवस्था रुपी पक्ष तेने विषे पण ते परिग्रह नथी केम जे आगमने विषे जेने प्रव्रज्या लेवानी इमा होय अथवा जेणे प्रवज्या लश्न त्याग करी बे एवा गृहस्थने विषेज थानाव्यव्यवस्थानुं देखवापणुं डे ए प्रव्रज्या लेवानी श्वा होय ते सामायीकादि पाउने विषे प्रवर्तेलो त्रण वरस सुधी प्रथमनोआचार्य जे समकितने पमामनार तेनोज होय.
टीकाःयक्तं ॥ सामाश्याश्या खलु, धम्मायरियस्स तिनि जा वासा ॥ नियमेण हो सेहोउक्वमन तवरिंजयणा ॥ यस्तु निङवादिर्तृत्वा पुन:प्रवित्र जिषति तस्य यदृच्छयादिक ॥ श्रत्यक्तसम्यक्तस्तूत्प्रवृज्ययःप्रव्रजति स त्रीणि वर्षाणि यावत् पूर्वाचार्यस्यैव ॥ यदाह ॥ परलिंगि निळाएवा, सम्मéसण जढे उ वसंते ॥ तदिवसमेव श्वा सम्मत्तजुए समा तिनि ॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा का डे जे निवादिक थैने फरीथी प्रवज्या लेवानी इच्छा करे , तेने तो ज्या इच्छामां आवे त्यां रहे, ए दिश ने, ने जेणे समकितनो त्याग कयों नथी ने ते प्रव्रज्या ग्रहण करे तो ते त्रण वरस सुधी पूर्वाचार्यनोज एम जाणवू, जे माटे कडं डे जे.
टीकाः-उत्प्रवजितस्तु द्विधा सारुपी गुहस्थश्च ॥ तत्र सा रूपी रजोहरणवर्जसाधुवेषधार॥ सचयावजीवं पूर्वाचार्यस्यैव। तन्मुंमीकतान्यपि ॥यानिपुनस्तेन नमुंमीकृतानि केवलंबोधिता...
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( २४० )
-18 अथ श्री संघपट्टकः --
न्येवता नियमाचार्य मिच्छंति, तस्यासौददाति तदीयां निचतानि नवतीत्यन पत्यस्यायं विधिः ॥
अर्थ:-- जेणे प्रवज्या मूकी बे ते पण बे प्रकारनो वे एक तो सा रुपी ते रजोहरण विना केवळ साधुवेषनो धरनार बे. ते तो जावव पूर्वाचार्यनोज बे ने तेणे सुंमन करेला अथवा तेले सुंमन न करेला केवळ प्रतिबोधनेज पमाड्या ते सर्वेतो जे श्राचार्यने इच्छे ते. नेज ए पे ते तेनाज ए कदेवाय विधि बे ते जे शिष्य विनाना होय तेनोज ए विधि बे.
टीका: - सापत्यस्यत्वऽपत्यान्यपि पूर्वाचार्यस्यैव ॥ यदाह || सारुवी जाजीवं पुव्वायरियरिस्त जेय पवावे ॥ श्रहवावि एस दो इठा जस्स सादेइ ॥ गृहस्थःपुनर्द्विविधो मुंमितः सशिखश्व स च द्विविधोपि पूर्वाचार्यस्य ॥ यानिच तेनोत्प्रव्रजनानंतरं वर्ष याज्यंतरे बोधयित्वा मुंगीकृतानि तान्यपीति ॥ श्रहच ॥ जोपुहित्यको व मुंमोन तिन्निवरिसाए । चारे घवावे सयंच वायरियस ||
अर्थ :- ते जे शिष्य परिवार सहित बे तेने तो पोताना शिष्य बेते पण पूर्वाचार्यनाज बे; जे माटे ते कधुं वे जे गृहस्थ पण वळी बे प्रकारो ने एक तो कितने बीजो शिखा सहित ते बे प्रकारनो बेसे पण पूर्वाचार्यनेोज़ बे ने जे तेथे प्रवज्या मूक्या पढी त्रण वरसर्मा बोध पमाकीने सुंमन कर्यो ढे ते पस पूर्वाचार्यनाज बे ते कबुं बेजे.
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48 अथ श्री संघपट्टकः
( २४१ )
टीका:--एवं चाजाव्य व्यवस्थाया मागमे व्यवस्था पितायां नवत्प्रकल्पित सामान्यगृहि विषयानाव्यव्यवस्थायाः क्वावकाशः येनेदानींतनरूढया प्रतिनियतगच्छविषयतया गृहिपरिग्रहः क्रियमाणो भवतः शोभेत ॥ किंच एषाप्पानाव्यव्यवस्था सुविहितानामेव प्रतिपादिता न पार्श्वस्थानां ॥
अर्थः- ए प्रकारे श्रागममां आजाव्यवस्था स्थापी बे तेमां तमे कल्पी जे सामान्य गृहस्थने विषेयाजाव्यव्यवस्था तेने रहेवानो अवकाश क्या वे जे जेथे करीने या काळनी रुढिये नियम बांधी पोतपोताना गच्छने विषे गृहस्थनो परिग्रह करो बो ते केम शोने नज शोने. वळी या जे श्राजाव्यव्यवस्था ते तो सुविहितनेज करवानी म प्रतिपादन कर्यु पल पासस्थाने करवानुं नथी प्रतिपादन कर्यु.
टीका:-- नन्वेवं तर्हि सम्यक्तूदी काकणे श्राद्धानां गुरवे स्वसमर्पणमुपचारवचनं प्रसज्येत तन्नेदानी तथा विधशरीरादि चेष्टा निव्यंग्य बहुमानसारं नैसर्गिकनक्त्या तथा निदधतां तेषा मौपचारिकजावाजावात् इतरथा सम्यक्त्वप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः ॥
अर्थः- वळी तमो एम आशंका करता हो जे समकित दाने अवसर गुरु पासे श्रावकनुं जे पोतापणाना समर्पानुं वचन ते उपचार मात्र वे एम थवानो प्रसंग श्रावशे, तो एवी या कांइ शंका न करवी केम जे ए अवसरे ते प्रकारनी शरीर आदिकनी चेष्टाथ जातुं जे बहुमान ते पूर्वक स्वाभाविक प्रक्तिए करीने तेम कता एटले पोतानुं समर्पण करता जे पुरुष तेमने नपचारिक जाव
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(२४२ )
-48 अथ श्री संघपट्टकः
न होय ए हेतु माटे ॥ ने जो एम न कहीए तो समकित प्राप्ति - नी सिद्धि न थाय ए हेतु माटे ॥
टीका:- तडुक्तं ॥ काजक्तिस्तस्य येनात्मा सर्वथा न हि युज्यते ॥ श्रनक्तेः कार्यमेवाहु, रंशेनाप्य नियोजनं ॥ नचैवंगुरोरपि तदनुमत्यादिना तताधिकरणप्रसंग || ममकार विरहित रत्वेन तस्य जगवदाज्ञयैव प्रवर्त्तमानस्य तदभावात् ॥
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अर्थ:- जेनो प्रक्तिए करीने आत्मा सर्वथा न जोमाय तो से पुरुषनी ए नक्ति सारी न कहेवाय केम जे अंश मात्र पण जेने जोमा तेतो अक्तिनुं कार्य वे एटले गुरुने आत्मानुं समर्पण कर ते गुरु साथै पोतानो आत्मा जोवा ने जो आत्मा अंश मात्र पणन जोमाय ए जक्ति न कहेवाय. ने वळी एम पण आशंका न करवी जे गुरुने पण तेनी अनुमोदना श्रादिके करीने तेमां रह्यां जे किरण तेनो प्रसंग गुरुने पण थाय; केम जे ते गुरुने ममतारहितपणे जगवंतनी श्रझाए करीनेज प्रवृर्त्तपणुं बे, माटे ते अधि करणी प्राप्ति नथी.
टीका :----यदुक्तं ॥ गुरुणोवि नाहिगरणं, ममत्तर हियस्स एत्थ वत्युं मि ॥ तन्नावसुद्धिहेतुं, आणा पयट्टमाणस्स ॥ एतेन श्रकानुगुयेन दानोपदेशादिना गुरोर्यछ्राद्ध स्वीकारसमर्थनं, तदप्पसंगतमेव ॥ स्वीकार मंतरेणैव नावानुरूप्येण धर्म्म वृध्यर्थं गुरोस्तेषु सद्विषयदानाद्युपदशप्रवृत्तेः ॥ यदुक्तं ॥ नाऊणयतबजावं, जह होइ इमस्स धम्म वृद्वित्ति । दाणा डुवएसाउं, श्रणेण तहइत्यजइव्वं ॥
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अब-श्री संघपट्टकर
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___ अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कां ले जे एणे करीने श्रझाने अनुसरतो जे गुरुनो दानादि उपदेश ए श्रादिके करीने जे श्रावकना अंगिकारनुं प्रतिपादन कयुं ते पण अघटतुंज डे केम जे श्रावकनो अंगिकार कर्या विनाज नावने अनुसरतो धर्मनी वृद्धिने अर्थ गुरुनो ते श्रावकने विषे सत्पुरुषने दान श्रापq इत्यादिक उपदेशनी प्रवृत्ति के ए हेतु माटे ॥ जे माटे ते शास्त्रमा कडं जे.
टीका:-यदप्युक्तं ॥ गृहिणां दिग्बंधोपि यतिवन्न पुष्यतीति तदप्यसमीचीन॥ऽविहा साहूण दिसा,तिविहा पुण साहुणीण : - विनेया ॥ इतिन्यायेन यतिदिगूबंधवद्गृहिग्रबंधस्य क्वचिदप्य श्रवणादिति ॥ एवंच ग्रदिपरिग्रह स्सर्वथायतीनां नोचितः ।।
अर्थः-वळी तमे जे कह्यु के यतिनी पेठे गृहस्थोने पण दिबंध करवामां दोष नथी इत्यादि ते पण तमाळं वचन अघटतुं . केम जे शास्त्रमा एम कर्तुं ले जे साधुने बे प्रकारनी दिशाने साध्वीने त्रण प्रकारनी दिशा जाणवी. इत्यादि न्याये करीने साधुना दिग्बंधनीपेठे ग्रहस्थने दिग्बंध करवान कोइ शास्त्रमा सांजलता नथी. ए हेतु माटे एम सिद्धांत थयो जे ग्रहस्थनो परिग्रह करवानुसा धुने सर्वथा अणघटतुं . ॥५॥
टीका:-चैत्यस्य जिन गृहस्य स्वीकरणं स्वायत्ततापादनं तत्र ॥ तुरत्रापि प्रथमहारादस्य नेदभाद ॥ गर्हिततमं प्रत्यह सकलचैत्यकृत्यचिंतातव्योपत्नोगादिना लोकेप्यतिनिदित माउपत्यं मनायकत्वं स्यानवेत् यतेर्मुनेः ॥ एतरुक्तंनवति।
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(२१४)
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अथ श्री संघपट्टक
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चैत्यस्वीकारेहि यतीनां तच्चिंतनं संकलमनुष्टेयं तस्यचारंज दोषवत्तया अव्यस्तवत्वेन यतीनां निवारणात् ॥ तदधिकगुणस्थानकलावस्तवनिष्ठत्वातेषां ॥ तदशक्तस्यच अव्यस्तवेधिकारानिधानात् ॥
अर्थः-वळी चैत्य केतां जिनमंदिर तेनो स्वीकार एटले पो तानुं करी राखq ते पण अति निंद्य . तेमां तु शब्द जे जे ते प्र. थमछार थकी श्रा छारनो नेद कहे . ने साधुने निरंतर समस्त चैत्यना कामकाजनी चिंता करवी तथा ते चैत्यना अव्यनो नपजोग करवो इत्यादिके करीने लोकमां अति निंद्यपणुं बे. ने तेथी मुनिने मपतिपणुं होय ए वात कही जे जो चैत्यनो अंकिारग करे तो निश्चे साधुने ते चैत्यनुं चिंतन आदि सकल करवा योग्य कार्य तेना
आरंजनो दोष आवे ए हेतु माटे ने ए अव्यस्तव कहेवाय ए हेतु माटे यतिने एनुं निवारण कर्यु डे केम.जे ए अव्यस्तव करतां अधिक गुणस्थानक जे नावस्तव तेने विषे ते मुनिने रहेवापणुं २ माटे ने जे नावस्तव करवाने अशक्त ने एटले असमर्थ डे तेने अव्यस्तव करवानो अधिकार जे एम कर्दा ने.
टीकाः-नावञ्चण मुग्रविहारिया उदवच्चणं तु जिणपूश्रा।। जावञ्चणाननहो,ह विज दववणु जुज्तो॥तचिंतनेतु यतीनां नाव स्तवानावप्रसंगात् ॥ अव्यस्तवस्यच षटूजीवनिकाय विरोधि त्वेन ततोन्यूनतरत्वात् ॥ तत्संयमस्यैवच पूर्णस्य नगवता मनिमत्त्वात् ॥
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अथ श्री संघपट्टका
अर्थः ते चैत्यना कामकाजनी चिंता करे त्यारे तो यतिने जावस्तवना अनावनो प्रसंग थाय ए हेतु माटे ने जे अव्यस्तव ने ते तो न जीव निकायनो विरोधी ने ते हेतु माटे ते नावस्तव थकी अतिशय तेमां न्यूनपणुं ने माटे ने नगवंते तेज संजमने पूर्णमान्या डे जे जावस्तव रुप ले ते.
टीका:-यदाह॥ दवत्थय नावत्यनय हव्वत्थो बहुगुणुत्ति बुधिसिया ॥अनिनणजणवयणमिणं, जीवहियं जिणाविति॥ बजीवकाय संजमदवत्थ ए सोविरुज्न ए कसिणो, तो कसिणसंजमवि आ पुप्फाश्यं न छति ॥
अर्थ:--पाधरो बे.
टीकाः-अथ चैत्ययमुद्दिश्यारंनादयोपि यतेन विरुध्यते ॥ तथाहि ॥ नगवान् श्रीवैरखामी त्रिदश विनिम्मितमणिमयविमानस्योपरिष्टात्सातकौंजमुज्ज॑नमंनोजमध्यासीनो जंजक वृंदारकवदेनपुरतोविधीयमानाऽवि गानगानदृद्यनाद्यातोय... निनादपूरितसमस्तनजस्तलो हिमगिरिशिखर व ते श्रीदे.. वताया:सकाशा निरर्गलसमुबलदतुच्छावंध्यसौगंध्यसुरजितककु. कांताननानि विशप्रसूनानि हुताशनगृहाचप्रसूनानि समादाय पुऱ्या तथागतायतनानि विहाय विहायसा मंदानिलचल श्वेतकेतनं जिननिकेतनं पर्युषणमहसि समाजगामेतिश्रूयते ॥यथोक्तं ॥ चेइयपूया किं वश्रसामिणा मुणिपुव्वसारण ॥न
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(२४६ )
- अथ श्री संघपट्टकः
कयापुरी तइया मुरकंगंसावि साहूणं ॥ श्रतस्तच्चरितमनुवर्त्तमानाः संप्रति कथं वयमुपालनमहीम इति चेन्न ||
अर्थः--वळी तमेकयुं जे चैत्यने उद्देशीने जे आरंभ श्र दिक करवा ते पण तिने विरुद्ध नथी | तेज कही देखाने बे जे जगवान् एटले समर्थ श्री वैरस्वामी देवताए निपजावेला मणिमय विमान उपर सोनानुं विकस्वर कमल ते उपर बेठा, ने जूंनक देवताना समुहे आगळ कर्या जे सुंदरगान तथा मनोहर नाट्य तेना शब्दव जेणे समस्त आकाशतल पूरण कर्तुं बे एवी शोजाने धरता थका हिमाचलना शिखर नपर रही जे श्री देवता तेना समीप थकी श्रतिशे नबलती जे मोटी सुगंधी तेथे करीने दिशारुपी स्त्रीजनां मुख जेमणे सुगंधिमान् कर्या बे एवां कमल तथा हुताशन ग्रह थकी पुष्प ए बेने लेइने मारगनी नगरीउंमां जे जे बौद्धना मंदिर यावे बेतेन तेनो त्याग करीने श्राकाश मार्गे करीने मंद वायुवमे जे जिन मंदिरनी धोली धजा चंचल बे ए प्रकारना जिनमंदिर प्रत्ये पजुसना उत्सवने विषे यावता हता. जे माटे शास्त्रमां कीं बे जे चैत्य पूजा शुं वर स्वामिये नथी करी, करी बे ते वरस्वामि केवा बे, तो जाएयुं वे पूर्वनुं सार जेणे एवा माटे ते पूजा साधुने पण मोनुं अंग बे ए देतु माटे तेमना चरित्रने अनुसरता जे अमे ते तमारा लंना योग्य केम होय नथीज एवं लिंगधारीनुं वचन सांजळीने सुविहित बोले बे जे एम तमारे न बोलवुं.
टीका: - जगवच्चरितस्य भवतामालंबनी कर्त्तुमनुचितत्वात् नहि स्तंबेरमस्यर्द्धयाऽस्मदादीनामिकुजक्षणं युज्यते ॥ तेन हि
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-18 अथ श्री संघपट्टकः 8
जगवता तथा विघ संघप्रार्थनया तथागतमनेारथपथमथनाय स्वतीर्थ प्रोत्सर्पणायच स्वपाणिग्रहणं विना पूर्वोचितानि धूपेनाऽचित्तीकृतानिच कुसुमानि सकृदान तानि भवतांच माला काराणामिव सततं स्वयमुच्चयन गुंफनपाणिग्रहणादिना प्रकृत प्रवृत्तिरुपलभ्यते ॥ अतोजगवच्चरितमालंव्य देवनमस्याद्मना खोपभोगायैव केवलम नियुंजानाः कथंकारं जवंतो नत्री मंते.
खी
अर्थः- केम जे महा समर्थ पुरुषनुं व्याचरण तमारे आलंबन करवुं घटतुं नथी, शाथी के मोटा हाथी शेरमी आखीने एटले कुचा कहा मया विना जक्षण करी जाय बे ते हाथीनी साथे स्पर्द्धा करीने आपला जेवाने याखी ने व्याखी शेरमी नक्षण करवी योग्य नथी. ने ते जगवान् एटले महा समर्थ एवा वर स्वामी तथा प्रकारनी एटले घणीज संघनी प्रार्थनाए करीने तथा बौद्ध लोकोना मनोरथ मारगनुं मंथन करवाने एटले बौद्धनो पराजय करवाने, ने पोताना तीर्थना जय वृद्धि करवाने पोताना हाथे लीधा विनाज पूर्वे धूपथी चित करेलो जे पुष्पनो समूह, ते एक फेरोज आयो ने तमारी तो माळीनी पेठेज निरंतर पोतानी मेळे पुष्प चुंटवां तथा गुंथवां हाथे कालवां इत्यादि हालमां प्रवृति देखा ए हेतु माटे मोटा पुरुषना चरित्रनुं किंचित उटुं लेइने देव नमस्कारनुं मित्र लइने केवळ पोताना उपभोगने श्रर्थेज पुष्पने वावरताने या प्रकारं कपट जावण करता तमो केम बोलतां लजवाता नथी.
टीका:--यमुक्तं ॥ चेश्यकुलगणसंधे, अन्नं वा किंचि काट
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( २४८ )
- अथ श्री संघपट्टकः --
निस्साए ॥ श्रहवा विप्रवरंतो सेवंती कर लिऊं ॥ श्रोहावणं परेसिं सतित्थोन्नावणंच वच्छलं, न गणिति गणे माणा पुव्वु - चियपुष्कम हिमंच ॥ गणेमापत्ति प्रालंबनानिगण्यतः इत्यहो
विवेकसेकः सातिरेक: प्रत्र जितानामपि यदेवमंकुरयति महारं अमीरुहान् ॥ चनण घरावासं आरंभ परिग्गदेसु वहंती ॥ जं सन्नाने एवं एयं प्रविवेयसामत्थं ॥ सन्नान्नेति देवाद्यर्थ मेतदितिनामभेदेन ॥ मंसनिवित्तिकाउं सेवइ दंतिक्खयंति ध गिनेया ॥ इय चइकणारं परववएसा कुणइ बालो॥ श्रथ, चोएइ वेश्याएं खित्त हिरन्नाइ गामगोलाइ | लग्गं तस्सन मुषिलो तिगरण सुद्ध कहनु नवे ॥ इत्यादिना चैत्यक्षेत्रादिचिंतां विदधतो यते त्रिकरणशुद्धं दूषयतः पूर्वपक्षिणो वचनादवसीयते यतेश्चैत्यो देशेनारंजो न दुष्यती तिचेतन सिद्धांतार्था परिज्ञात् ॥ श्रागमेद्युत्सर्गतस्तावदारंजा दिदोषेण सत्तायां क्षेत्रग्रामादीनां निषेध एवप्रत्यादि ॥ तथाच कुतस्त्या तचिंता यतेः ॥ अथ कथं चित् केनापि का दिना राज्ञाचैत्यस्य ग्रामादयो वितीर्णा संति ते च कदाचिद्दलवता केनापि हवेनापहर्तुमारब्धास्तदा संघलाघव रिरक्षिषया साधुभावकाणां तचिंताऽनुज्ञाता यदि तुलोजा दिना यतिः स्वयं देशनाद्वारेण वा तान् मार्गयेत्तच्चितां वाविदध्यात्तदा तस्यचारित्राशुद्धिरेव ||
अर्थः- इत्यादि चैत्य संबंधी खेतीवामीनी चिंता करतो ते त्रिकरण शुद्धिने दोष पमागतो ने पूर्व पक्ष करतो एवो जे लिंगधारी तेना वचनथीज जाणीए बीए जे यतिने चैत्यनो नदेश
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अथ श्री संघपट्टकः
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करीने आरंन करवा तेनो दोष नथी एम जो तुं कहेतो होय तो ते न कहे. केम जे सिद्धांतना अर्थ- परिज्ञान नथी, माटे एम कहो जो ने सिद्धांतमा उत्सर्ग थकीज आरंजादि दोष करीने चैत्य सचामां एटले चैत्य संबंधी देत्र गाम आदिकनुं जे करवं तेनो निषेधज प्रतिपादन कों ने. तो ते चैत्य संबंधी खेतरगाम. होयज क्यांथी ? जे तेनी चिंता यतिने करवी पमे ने एम करतां कदाचित् को प्रकारे महा आग्रहथी कोश्क नपकादि राजाए चैत्य संबंधी गाम आदिक याप्यो होय; तेने क्यारेक कोश्पण बळवान पुरुषे ह. गतकारे लेवानो आरंन को. त्यारे संघनी लघुता थाय माटे तेनी रक्षा करवानी श्चाए साधु श्रावकने तेनी चिंता करवानी थाझा
आपी . पण ज्यारे तो लोन्नादिके करीने यति पोतानी मेळे देशना छारे तेने मागी ले अथवा पोतानी मेळेज तेनी चिंता करे तो ते साधुना चारित्रपणानी अशुहताज थाय .
टीकाः--तमुक्तं ॥ ननर इत्थ विनासा, जो एयाई सयंविमग्रिजा ॥ नहु होइ तस्स सुद्धी, अह कोवि हरिजएयाइंसब बामेण तहिं, संघेणं होइ लग्गियवंतुं ॥ सचरित्तचरित्तीणं एवं सवेसिकऊंति ॥ अत:कथं सस्पृहतया चैत्यारंनं कुर्वतामधुना तनमुनीनां न दोषइति ॥ यदिच संप्रति संपूर्ण जावस्तवस्याशक्यतेन तदपेक्ष्या चैत्यकृत्यचिंतनमपि महाफलमन्युपेयते तदा तेजकरजोहरणादिपरिहारेण गृहिनेपथ्यमन्युपगम्य जिनपूजनमाजियतां ॥
। अर्थः-ए हेतु माटे स्पृहाये सहित चैत्यनो श्रारंभ करनार
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( २५० ) ...
-4 अथ श्री संघपट्टकः
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या काळना यतिने केम दोष न लागे. ने बळी जो श्री काळमां एवो संपूर्ण नावडे जे नाव पूजा करवा समर्थ नथी. माटे तेनी अपेक्षाए चैत्य संबंधी चिंता करवी तेमां पण मोटुं फळ बे एम जो जाणता हो तो ते साधुपणाने जणावनार रजोहरणादिक तेनो त्याग करीने गृहस्थना श्राभूषणरुप रुप जे जिनपूजा तेनो श्रादर करो.
टीका:-यडुक्तं ॥ जइ न तरसि धारेनं, मूलगुणनरं सउत्तर गुणंच ॥ मुतू तो तिमी सुसावगत्तं वरतरागं ॥ श्ररहंतचे - श्याणं, सुसाहुप्यारन दढायारो ॥ सुस्सावगो वरतरं न साहुवे - से धम्मो ॥ रजोहरणादिलिंगं विज्रतां तु चैत्योद्देशना पि यतीनामारंभ विधानं महते पापाय लोकशोकायच ॥ यदाह ॥ जीव निकायद्याविव जिन नेव दिख्खि न गिही ॥ जइधम्मा चुक्को, चुक्कड़ गिहिदाणधम्मार्ज ॥
अर्थ :- रजोहरणादि लिंग धारण करनार यतिने तो चैत्यनो नद्देश करीने आरंभ करवो ते मोटा पाप जणी े ने लोकने शोक जणी ठे.
टीका:- तथा ॥ संप्रति तिवेषेण, लोक मोषमेष्वहो ॥ सितांबरेषु जातेषु, चौराः किं निर्मिता मुधेति । एतेनोक्तन्यायेन संप्रति गृहमेधिनामित्यादिना यतीनां चैत्यस्वीकारसमर्थनंतदपि श्रद्धा समृद्धानां केषां चिच्छ्राद्धाना मया पिश्रुतोक्त विधिना चैत्यचिंताकरणदर्शनेन निरस्तं ॥
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. 49. अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-वळी श्रा काळमां साधुवेषे करीने उगी लीधामा समर्थ एवा श्वेतांबरी नितु जगतमां विद्यमान ले ते शुं करवा चोर, मिथ्या, निपजाव्या हशे ? माटे ए मोटुं आश्चर्य जे. एकह्यो जेन्याय तेणे करीने, 'संप्रति गहमेधिनां' इत्यादि वचनथी श्रारंजीने यतिने चैत्यनो अंगिकार करवानुं प्रतिपादन कर्यु हतुं ते सर्वेनुं खंगन थयु. केम जे श्रद्धावंत केटलाक श्रावक हजु सुधी पण शास्त्रमा कहेला विधि प्रमाणे चैत्यनी चिंतादिक करे ले तेने प्रत्यक्ष जोए गए, ए हेतु माटे.
टीकाः यद्यपि चैत्यस्वीकारार्थतया, सीलेह मखफलए त्यागमोपदर्शनं तदप्टसंगतं ॥ अस्यान्यार्थत्वात् ॥ तथाहि ॥ केचित् सुविहिता विहारक्रमेणांतरा कंचिमुबनभावकं मध्यस्थनुरिलोकमंत:स्थितचैत्यचिंता निरवधान देवकुलिकजीर्णशीर्ण प्रायैकजिनसदनाधिष्टितं ग्राममेकं प्राप्तास्तत्रच तेपवादेन देवकुलिकानां शिदाद्यर्थ देवकुलं गताएतत्समारचनसंनवे कालेन गबता तत्रत्यलोकस्य नकतया जैनमार्गान्युपगम गुणं सुविहितसंपातेन संन्नावयंतो देवकुखिकान्प्रत्याहुःसीलेहेत्यादि ।
अर्थः-जो पण चैत्यनो अंगिकार करवाने “सोखेहमख' इत्यादि आगम वचन देखामयां, ते पण अघटतां देखामयां केम जे ए आगमनो अर्थ बीजो . तेज कही देखा जे केटलाक सुविहित साधुने अनुक्रमे विहार करता थका कोइक बच्चे एबुं गाम श्राव्युं जे तेमां श्रावकनो नवेद थयो डे पण गाममां तो लोकनी वस्ती घणी ने तेमां चैत्यनी चिंता करवामां असावधान एवा
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19. अय श्री संघपट्टकः
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पूजारी रह्या डे ने जूनुं ने बहुधा पमेयूँ एवं एक जिनमंदिर जे गाममा २ ए प्रकारना गाममां आव्या सता तेमां ते सुविहित साधु अपवाद मार्गे देवपूजारीनी शिक्षादिकने अर्थे देवकुळमां गया ने विचार करे ले जे था चैत्यनुं समारवू थये सते या गामना नजिक लोक ते जैन मार्गनो अंगिकार करशे, एवं संलव डे केम जे सुविहित पुरुष, जे आगमन ने ते जैन मार्गनो अंगिकार करवारुप गुण नणी माटे देवकुलीक प्रत्ये ते सुविहित बोले जे जे ‘सीले. हमंख' इत्यादि गाथाए करीने कहे डे.
टीकाः-नोदेवकुलिका एतानिमंखफलकानीव मंखफल कानि यथा मंखस्य फलकोज्वलतया ग्रासनिर्वाह एवं नवता. मपि चैत्य निर्मलतया तत्सदनसजातयाच निर्वाहः॥ अतो निर्वाहहेतुचैत्यानि शीलयत समारचयत ॥ इतरे सुविहिताः चोयंति प्रेरयंति तंतुमाश्सु लूतातत्वप्रसारणादिषु ॥ अथ ते लिंगिनः सवृत्तयः चैत्यचिंता विनापि प्रासंचितप्रविणनिचयेत विद्यमान निर्वाहा स्तदा तान् अनियोजयंति ॥ अंबामिति निष्टुरवाचा शिक्षयंति ॥ यथानोऽझाकिमित्येतानि चैत्यानि न समारचयथ यतएता निविना पश्चादपि न नविता न'वतां निर्वाहः॥
. अर्थः-जे नो देवकुलिक श्राजे चैत्य ले तेतो मंखफलक जेवां के एटले मंख ते कोश्क जाति विशेष पुरुष, ते पोतानी आ जिविकाना कारणरुप जे चित्रफलक तेनी उज्वलता राखे तो ते थकी तेनो जेम निर्वाह थाय ने तेम तमारे पण चेत्यनी निर्मळता
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___-8. अथ श्री संघपट्टकः .
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राखवी तथा तेनी सारी संन्नाळ करवी तेथी तमारो निर्वाह ले माटे निर्वाहना कारणरुप जे चैत्य तेने समारो एटले गीक करो ने वळी सुविहित एम प्रेरणा करे जे श्रा करोळीयानां जाळां काढी नाखीने साफ करो. इत्यादि प्रेरणा करे ले तो पण वळी ते लिंगधारीयो पोतानी आजीविकाये संपूर्ण बे तेथी चैत्यनी चिंता कर्मा विना पण प्रथमथी संचय करेलो जे अव्यनो समूह तेणे करीने ते. मनो निर्वाह विद्यमान बे. एवं देखे त्यारे तेमने कठोर वाणीथी शिक्षा आपे जे नो अज्ञानी आ चैत्यनी केम संजाळ करता नथी, जे माटे ए चैत्य विना पलीथी पण तमारो निर्वाह नहि थाय.
' टोकाः-श्रणिच्छत्ति ॥ अथ देवकुलिकाः सातलंपटतयैत. दपि कर्तुनेछति तदा सुविहिताःस्वयमेव तंतुजालादीनि फेमिति अपसारयति ॥ नपहासनयाद् गृहिनिरहश्यमानाः कथमेवं सुविहितानां स्वयं चैत्यसमारचनप्रवृत्तिरिति यदि कश्चिदृब्रूयात् - तत्रैत्समर्थना येदंगाथा युगलमुत्तिष्टते ॥
८. अर्थः-हवे देवकुलिक अतिशय साता सुखमां लंपट थया ने माटे ए करोळीयानां जाळां दूर करवां एटयं पण करवा न वे तो ते सुविहित पोतानी मेळेज ते तंतुजाळ आदिकने दूर करे बे. तेमां पण गृहस्थ लोक जेम न देखे एवी रीते ते काम करे ने केम जे सुविहित साधुनी पोतानी मेळे चैत्यने समारवू तेमां था प्रवृत्ति । केम थ? ए प्रकारनुं गृहस्थ लोक नपहास करे तेना जयथी. जो वळी कोश्क था वातमां संशय करे तो तेना समर्थननी करनारी आबे गाथा प्रसंगथी लखीये बीए.....
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अथ श्री संघपट्टक
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टीका: अन्नांनावे जयणाश्थग्गनासो हविज्जमा तणापुव्व कयायगणासु सिंगुश संनवेशहरा।। चेइयकुलगणसंये श्रायरियाणं च पवयणसुएय॥सव्वेसुविते ह कयं,तवसंजममुज्जुमंतेणअस्यार्थः-अन्यानावे श्रावकायनावे यतस्तत्र श्राझान संति येन तएव समारचनं कुर्वीरन् यतःस्वयंयतनया कुर्वति॥ माभूचैत्यसमारचनं ॥कावोहानिरितिचेत्यताह ॥मार्गनाशो जैन मार्गोच्छेदोमाजूत्तत्रतेन हेतुना पूर्वकृतायतनादिषु चिरंतनजिनगृहेषु ईषगुणसंजवे सति मनागलोकस्य जिनमार्गप्रवृत्ति संजावनायां ॥
अर्थः-श्रा बे गाथानो अर्थ टीकाकार लखे जे जे श्रावक थादिनो अन्नाव सते जे हेतु माटे ते गाममां श्रावक रहेता नथी, जे.ते चैत्यनुं समारवु इत्यादि करे. ए हेतु माटे सुविहित यतनाये करीने ते काम करे जे. त्यारे कोश् कदेशे के चैत्यनुंसमारन थाय एमां तमारी शी हानी ? एवी आशंका करे तो ते उपर कहे जे जे वैतमार्गनो उछेदमां थाय ते गाममां ए हेतु माटे पूर्वे करेला माटे अतिशयजुतां थयेलां जिनमंदिर विद्यमान ले ते थोमोक गुण थवानो संजव जे. एटले लोकने जिन मार्गमा प्रवृत्ति थाय एम संजव .
टीकाः-श्रयमाशय॥ तत्रहि देशेतदेवैकं जिनन्नवनं ततश्च श्रावकानावेन देवकुलिकानांचसुखरसिकत्वेन चैत्यचिंताग्रजा. वे तत्रदेशे जिनगृहाजावान्मार्गादामानूदिति ॥ तत्रत्यसाकस्य
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48. अथ श्री संघपट्टकः
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(२५५ )
माध्यस्थ्येन गुणसंभावनया सुविहिता अपितत्र जिनगृहे का. चिञ्चितायतनया विकति ॥
अर्थः-या अभिप्राय जे ते देशमा एकज जिन जवन देने तेमां श्रावक नथी ने देवकुलिक ते घणा सुख शीलिया ले माटे . चैत्य चिंतादिक कांश्पण करी शकता नथी माटे ते देशमां जिन मंदिरनो अन्नाव ने तेथी मार्ग तो उच्छेद न थाय ए हेतु माटे ने मध्यस्य दृष्टिए जोतां ते देशना लोकने गुण थवानुं संनवे . माटे सुविहित पण ते जिनमंदिरने विषे यतनाये करीने कांश्क चिंता करे ने एटले तेने पोते पण समारे .
टीकाः-॥ श्हरति ॥ इतरथा एवं विधगुणानावे चैत्यकुल गणसंघाचार्यप्रवचनश्रुतेषु सेवेष्वपि वैयावृत्यस्थानेष्ठ तेषु तेषुतेन सुविहितेन कृतं वैयावृत्यं तपःसंयमोद्यमं कुर्वतेति॥ एवं रूपालबंता नावे सुविहितस्य न चैत्यचिंतया काचित् स्वार्थ सिकिः संयमोद्योगस्यैव तस्य सर्वोत्तमत्वादित्यर्थः॥ .
अर्थः-जो एम न होय तो एटले ए प्रकारनो गुण न होय तो तप संयममा उद्यमवंत एवा ते सुविहित साधु जे तेमणे चैत्य १ कुल ५ गण ३ संघ ४ श्राचार्य ५ प्रवचन ६ श्रुत, ए सर्व वियावच्छ करवानां स्थानक तेमने विषे वियावच्छ करीज . केम जे ए रुपनुं जो थालंबन न होय तो सुविहितने चैत्यचिंता करवाथी कांपण स्वार्थ सिद्ध करवानी नथी तेमने तो संजमने विषे नद्योग करवो एज सर्वोत्तमपणुंडे एवो अर्थ ने ए हेतु माटे.
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( २५६)
अथ श्री संघपट्टकः
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टीकाः-एवंचास्या गमस्य तात्पर्ये नास्माञ्चैत्यस्वीकारसिधिः॥ मार्गोच्छेदनयेन हि श्रावकानावे तञ्चैत्यसमारचनंप्रति सुविहितानां देवकुलिकप्रेरणं नतु यतीनां कृत्यमेतदित्यनिसंधातेन ॥ अत कथमयमागमश्चैत्य स्वीकारार्थतया यतीनां पयवस्येदिति ॥
अर्थः--माटे ए आगमनुं तात्पर्य विचारी जोतां ए थकी चैत्यनो अंगिकार करवो ए वात सिक थती नथी ने श्रावकनो अ. नाव ते मार्गोच्छेद थवाना जय थकी ते चैत्यनुं समारतुं कडं माटे सुविहित यतिनुं ए कृत्य ने एटले सर्वे सुविहितने ए करवा योग्य डे एवा अनुसंधाने करीने देवकुलिकने प्रेरणा करवी एवो ए थागमनो अन्निप्राय नथी. ए हेतु माटे यतिने चैत्यनोअंगिकार करवो. ए प्रकारे ए श्रागमनो नावार्थ केम सिझ थाय ? नज थाय.
. टीकाः-एवंच त्वमेव परिजावया मार्गानुसारिण्यामनीषया यन्मुनेर्देवाधिकारं चिंतयतःकथं माउपत्यमतिकुत्सितं न प्रस. ज्यतति ॥ लौकिकाअप्पाहुः ॥ यदीच्छन्नरकं गंतुं, सपुत्रपशुबांधवः ॥ देवेष्वधिकृतिकुर्यागोषुच ब्राह्मणेषुच॥ तथा ॥ नरकाय " मतिस्तेचेत्, पौरोहित्य समाचर ॥ वर्षयावकिमन्येन माउपत्यं दिनत्रयमिति ॥
अर्थः-वळी ए मार्गने अनुसरति बुड़िये तुं पण विचारी जो जे देवाधिकारनी चिंता करनार मुनिने मपतिपणुं केम अतिशय
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-4 अथ श्री संघपट्ट्कः
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निंदित नहि होय. एतो अतिशय निंदा थवानोज प्रसंग डे केमजे लौकिक शास्त्र पण एम कहे बे जे पुत्र, पशु, बांधव तेमना सहित जो नरकमां जवानी इच्छा होय तो देवने विषे तथा ब्राह्मणने विषे अधिकार करने वळी जो तारी नरकमां जवानी मति होय तो एक वरस सुधी पुरोहितपणुं कर ने वळी ते करतां ए सर्वे नरकमां जवानां साधननुं शुं प्रयोजन वे एक ऋण दिनसुधी मठपतिपणुं कर. जेणे करीने कुटुंब सहित नरकनी प्राप्ति शीघ्र थाय इत्यादि महा निंदित अन्य दर्शनमां पण बे.
टीका:-- इदानीं निगमयति ॥ इतियस्मादर्थे यस्मात् एव मित्युक्तक्रमेण व्रतवैरिशी चारित्रप्रतिपंथिनी इतिहेत्वार्थो जिनक्रमः सचाग्रे योदयति ॥ ममतां श्रर्थादिषु स्वीकारबुद्धिः इति तस्मातो र्नयुक्ता नोपपन्ना मुक्त्यर्थिनां निर्वाणानिलाषिणां मुनीनामिति वृत्तार्थः ॥
अर्थः- हवे ए वातनी समाप्ति करता सता कहे बे ॥ जे इति शब्दनो एवो अर्य करवो, एटले जे हेतु माटे पूर्वे को एक्रम थकी चारित्रनी वैरी एटले नाश करनारी ममता ने एटले द्रव्यादिकनो अंगिकार करवानी बुद्धि ए प्रकारनी ठे. ए हेतु माटे मुक्तिना वांचक मुनिने ए ममता करवी युक्त नथी, एम ए काव्यनो अर्थ बे.
मसंयमादिदोषप्रदर्शनेनाप्रेक्षिताद्यासन
टीका: - सांप्रत द्वारं निराकर्तुमाह ॥
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(२१८ )
- अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः- वे संजम यदि दोष देखावे करीने पलेवण न थाय एवां श्रासन तेनो द्वार प्रत्ये निषेध करता सता कहे बे..
॥ मूल काव्यम् ॥
नवति नियतमत्रा संयमः स्याविभूषा, नृपतिककुदमेत लोक दासश्च ोिः ॥ स्फुटतरइद संगः सात शीलत्वमुच्चै, रिति नखलु मुमुदोः संगतं गन्दिकादि
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टीका:- नवति जायते नियतं सर्वदा छात्र गब्दिकाद्यासने Siयमो जीवरक्षाऽनावः ॥ गब्दिकादेर्नित्यस्यूतत्वादिना प्रत्युdauraara विवरादिना तदंतः प्रविष्टानां तदंतरेचोत्पन्नानां वा प्रसादीनां तत्रोपवेशनेन विनाशसंभवात् ॥ निकोरितिवृत्त मध्यस्थपदं सर्वत्र संबध्यते स्यात् भवेत् विभूषा शोना तत्रोपविष्टस्य जगतोप्युपरिवह मिति विभूषाकार्या निमानप्रवृत्तेर्विनूषा च यतीनामवश्यं वर्जनीया ॥
अर्थ:- गादी आदिक यासन राखे ते निश्चे निरंतर छा संजम थाय बे एटले जीव रक्षा थइ शकती नथी केम जे गादी श्रादिक जे आसन ते निरंतर शीवेलां वे ए हेतु माटे पमीले थादिक थइ शकतुं नथी माटे तेनां विश्रादि द्वारे करीने तेमां पेठा जे जीव तेमनुं तथा तेमां उत्पन्न थया जे त्रसादिक जीव तेमनुं ते
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अथ श्री संघपक
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प्रासन उपर बेसवाथी विनाश थवानो संनव . व्रतने मध्ये रघु जे निंा एटदुं पढ़ तेनो सर्व जगाए संबंध करवो. निहु एटले साधु ते गादी उपर बेसे त्यारे हुँ जगतना पण उपरी रहेनार ढुंए प्रकारनी शोनाथी कार्य करवामां अजिमाननी प्रवृत्ति थाय ए हेतु माटे ने मुनिने शोना तो अवश्य त्याग करवा योग्य .
टीकाः-यमुक्तं ॥विभुसावत्तियं निक्खू, कम्मं बंधचिकणं ॥संसारसागरे घोरे, जेणं पम उत्तरे ॥ इति ॥ .
अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे शोलामां वर्ततो जे निकु तेने चीकणां कर्म बंधाय बे ने ते करीने नितु जे ते शोजाए करीने महाघोर ने पु:खथी तराय एवो जे संसाररुपी समुज तेमां पके डे, इत्यादि शास्त्र वचन बे.
टीका:-नृपते राज्ञःककुदं चिह्न राजादीनामेव प्रायेण महकिानां तत्रोपवेशदर्शनात् ॥ लोकहासो जनतोत्प्रासनं च शब्दोदोषसमुच्चये निदोर्यतेः ॥ अहोनिदोपजीविनो मुं. मिता अप्येवं विधासनेषूपविंशतीत्यादिसेय॑जनवचनश्रवणात् ॥ स्फुटतरो लोकप्रकट इह गब्दिकादौ संगः परिग्रहो महाधनत्वेन मू हेतुत्वात् ॥ सातशीलत्वं सुखलालसत्वं ॥ तदंतरेण हंस रुतादिपूर्णेषु स्पर्शेषु तथाविधासनेषु यत्वनुचिततया सिकांत निषिकेषूपवेशाऽसंन्नवात् ॥
अर्थः-चढ़ी ए गादी श्रादिक भाका राजाने चिहाने
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(२१० )
-18 अथ श्री संघपट्टकः
बहुधा राजा श्रादिक महर्द्धि लोक ते तेवा आसन उपर बेसे बे एम देखीए बीए, ने वळी यतिनी लोकमां हांसी थाय बे. च शदनो ए अर्थ डे जे दोषनो समूह एथी थाय बे. लोकनी दांसी एम थाय बे जे अहो! जीख मागीने श्राजीविका करनार मुंगीत माथावाला पण या प्रकारना आसन उपर बेसे बे इत्यादि इर्षा सहित लोकनां वचन संतलाय ए हेतु माटे लोकमां श्रतिशय प्रसिद्ध गादी श्रादिकनो परिग्रह के ते महा धनपणे संसारमां मूर्खानुं कारण बे ने वळी सुखकारी जेनो स्पर्श बे ने अतिशय कोमळ रु आदिक वस्तुए नरेलां सात शीलपणने जणवनार एवां ते सिद्धांत मां मुनिने अघटितपणे बेसवानो निषेध करेलो बे माटे गादी श्रादिक आसन तेने विषे साधुने बेसवानो संजवज नथी.
टीका:- उच्चैरतिशयेन इतिहेतौ एज्यो हेतुभ्यो न खलु नैव खलु वधारणे मुमुक्षोर्मोक्षार्थिनो यतेः संगतं युक्तियुक्तं गब्द काद्यासनं नपनोगतयेति शेषः ॥ लोकप्रसिद्ध रूतादिनूतयासन विशेषो गब्दिका ॥ श्रादिशब्दान्मसूरकसिंहासनादिपरिग्रहः ॥ एतेन यदपि - नाणादिवरतरमित्याद्यागम बलेन प्रवचनप्रजावनांगतया यतीनां गब्दिकासिंहासनाद्यासनोपवेशन समर्थनं तदपि सुखशीलता विलसितं ॥
अर्थ :- मोना श्रर्थी यतिने गाद। श्रादिक शासन श्रतिशय अघटितज बे. ' न खलु' ए अव्ययनो निश्चयवाचक अर्थ बे, माटे यतिने ए प्रकारना श्रासननो उपजोग करवो ते जुक्ति जुक्त निथीज. 'उपयोग तया' एटलुं पद उपरथी शेष लेवुं. लोक
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अब श्री संघपट्टक
LAW
मां प्रसिक रूश्रादि वस्तुए नरेखं जे श्रासन विशेष ते गादी कहीए. श्रादि शब्दथी मशरूनी तलाश सिंहासन इत्यादिकनुं ग्रहण करवू. एणे करीने जे पूर्वे 'नाणाहित' इत्यादि आगम वचनबळ लइने प्रवचन- प्रनावक अंगपणे यतिने गादी सिंहासन आ. दिक शासन नपर बेसवार्नु प्रतिपक्षीए प्रतिपादन कर्यु हतुं ते सर्वे पण सुखशीलीयापणानो विलास .
टीकाः-तथाहि॥ किं यतेमहार्हगब्दिकाद्यासनोपवेशनमेव प्रवचनप्रसिद्धसम्यग्ज्ञानादित्रयानिव्यंजनं ? न ताववदायः॥ श्दांनीतनरूढया निर्गुणस्य कस्यचिदनागमज्ञस्याचार्यादेःसदसि व्याचिख्यासया महार्हासनोपवेशनेपि प्रवचनप्रजावनाया अनुपपत्तेः प्रत्युत तादृशस्तस्य तथाभूतासनमध्यासीनस्य केनापि तर्ककर्कशवाग्जबिशख्यितारातिको विदेन प्रतिवादिना क्षिप्तस्य स हृदय हृदयंगम प्रतिवचनानावेन महाप्रवचन लाघवापादनात् ॥
अर्थः-तेज प्रतिपादन करे ले जे यतिने मोटा मोटा मूलनी गादी श्रादिक श्रासन उपर बेस, एज प्रवचननी प्रनावनानुं अंग ने के प्रवचनमा प्रसिद्ध एवं सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र ए त्रणनो प्रकाश करवो ए प्रवचननी प्रनावनानुं अंग डे तेनो उत्तर बोर्बु तेमां प्रथमनो पक्ष ते तो अंगिकार करवा योग्य नथी. केम जे श्रा काळनी रुढीए कोइक श्राचार्य श्रादिक ते आगमनो अजाण ने गुणरहित ले तेने सजामां व्याख्यान कराववानी लाए मोटा मोटा मूखना आसन पर बेसारीए तो पण प्रवचननी प्रज्ञावना तेथी थर शकती
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(२६१)
8. अय श्री संघपट्टकः
नथी. उलटो ते पुरुष प्रवचननी लघुता करे . केम जे ते पुरुष तेवा प्रकारना आसन उपर बेगे ते वखत कोश्क आकरी वाणीरुपी शस्त्रना प्रहारवते शत्रुना पराजय करवाने पंमित एवो तर्कवादी प्रतिवादी पुरुष ते परानव पमा बे. शाथी के पंमितना मनने प्रसन्न करे एवो तेथी नत्तर न थाय ए हेतु माटे तेवो पुरुष तो प्रवचननी लघुता करनार .
.. टीकाः-तथाच पठ्यते ॥ गुणै रुत्तुंगतां याति, नचोच्चासन । संस्थितः ॥ प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुमायते ॥
अर्थः-वळी ते नुपर साहित्यनो श्लोक श्राप्रकारनो कहेवाय जे जे गुणे करीने मोटापणुं पमायहे. पण नंचा श्रासन उपर बेगथी नथी पमातुं. जेम मोटी हवेलीना शिखर नपर कागमोजइने बेगे पण ते शुं गरुम पक्षीनी पेठे मोटापणानुं काम करी शकशे ? नहि करे. तेम ते पुरुष पण प्रवचननी प्रन्नावना नहि करी शके.
टीकाः-श्रथ द्वितीयः ॥ तर्हितत्रैव प्रस्तावनाकल्पलता मूलतया प्रयत्यतां किंवृहदासनाद्याटोपेन मुग्धजनबंधीकरणेन ॥ यमुच्यते ॥ गुणेषु यत्नः क्रियतां, किमाटीपैः प्रयोजनं॥ विक्री. यंते न घंटानि, गावः वीरविवर्जिताः॥
अर्थः-हवे बीजो पद अंगिकार करो जे गुणने विषे प्रयत्न कर केम जे ते गुण मांहेज प्रजावनारुपी कल्पलतानुं मूळपणुं रद्यु
माटे लोळा माणसने बंधन करनार एवो मोटा आसननो आटोप
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- अथ श्री संघपट्टकः
( २६३ )
तेणे करीने शुं ? जे माटे नीतिवचन या प्रकारनुं बे जे गुणने विषे प्रयत्न करतुं तेमां आटोपनुं शुं प्रयोजन बे केम जे ते उपर दृष्टांत जेम दूध रहित गाय ते घंटावते वेचाती नथी. एटले जेम कोइक 'गाय सदाकाळ दूध देतीज नथी. ते तेनुं सारूं मूल उपजाववा वास्ते तेनी कोटे घणी घंटा बांधीने आटोप करीए पण तेनुं मूल सा उपजे नहि तेम गुएा विना केवळ मोटा मोटा आसन उपर बेठा तेथे करीने प्रवचननी प्रभावना थायज नहि.
टीका :- आगमे च शिष्योपध्या दिनिरेवसूरिनिषद्या विधानाभिधानात् ॥ उपदेशमालायामपि ॥ नवि धम्मस्त जमकेत्यत्र मक्का वृहदासनाद्याटोप इति व्याख्यानेन वस्तुतः सिंहासनाद्यासन निषेधप्रतिपादनात् ॥ किंचाप्रत्युपेक्षत्वेनाकल्पनीयतयागम निषिद्धद्रूष्यपंचकांतर्वर्त्तित्वेन
गब्दिकायासनस्य
प्रवचनप्रजावनानंगत्वात् ॥
अर्थः- श्रागमने विषे पण कह्युं वे जे शिष्य तथा उपंधि इत्यादिके करीनेज सूरिने निषधानु विधान कहेवापणुं बे एटले सूरी यावे त्यारे शिष्य श्रासन पाथरी आपे, त्यारे जो सिंहासन उपर बे सवानुं होय तो एम नकहेत. उपदेशमालामां पण 'नविधम्मस्तनमक्का ' ए जगाए जमक्का जे मोटा श्रासनादिकनो घटाटोप एम व्याख्यान्न करवे करीने वस्तुताए सिंहासनादि आसननो निषेधनुं प्रतिपादन देखाय ने ए हेतु माटे. वळी जेनी पमिलेहण न थ शके माटे कल्पवापणे श्रागममां निषेध कर्यो जे दूष्य पंचक ॥ दुखे जेनी पकलेह चाय माटे दोषयुक्त जे पांच वस्तु तेमां गा
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(२६४)
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अथ श्री संघपटक .
दीयादि जे आसन ते गणावेलां माटे तेने प्रवचननी प्रजावनानुं अंगपणुं नथी ए हेतु माटे.
टीकाः-यदाह ॥ अप्पमिलहियदूसे तूली उवहाणगं चना यद्या ॥ गंऽवहाणालिंगिणि मसूरए चैव पोत्तमएप॥हविकोय विवावारनवय अतहया दाढगालीय ॥ उप्पमिले हियदूसे एयं बीयं नवे पणगं ॥
अर्थः ते शास्त्र वचन श्रा प्रकारनां ने जे,
टीका:-अत्रहि तूट्युपधानगब्दिकाप्रावरणपुष्पपटादयोऽप्रत्युपेदयतया यतीनाम संयमहेतुत्वेनानु पादेयतयोपन्यस्ताः ॥नवंतस्तु तूट्युपधान गब्दिकादीन्येव जगवत् सिद्धांतमात्सर्येणे व :हगदविरतमुपजुंजानाःप्रवचनमालित्यमानयंत नपसन्यंत इत्यहोमहामोहमदिरा मदयति विदुषोपि ॥
अर्थः-श्रा शास्त्र वचनने विषे तलाश, उशिका, गादी, र. जार, पुष्पपट इत्यादिकनी पमिलेहण न थाय तथा उ:खे एवा का. रणथी यतिने असंयमनुं कारण ले माटे न ग्रहण करवापणे थाप्यां डे ने तमोतो तलाइ, ओशिका, गादी इत्यादिक नगवंतना सिद्धांतनी साथे मत्सर पणेज एटले विपरीतपणेज हगत्कारे निरंतर नपत्नोग करो बो; तेथी प्रवचननुं मलीनपणुं करता देखाउँ जो माटे अहो एतो मोटा मोह रुपी मदीरा विद्यानने पण एटले जाण पुरुषने पण मद करे .
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-48अब श्री संघपटक
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टीकाः यदपि रानवणीय इत्यागमबलने व्याल्यानादौर्सिहासनोपवेशनोपपादनं तदपि न सचेतसांचतेश्चमत्कारकरं। तथाहि ॥राजोपनीतसिंहासनोपविष्टा गणधरा व्याल्यांतीति किंरानोपनीतएव सिंहासनउपविष्टा अहोराजोपनीतेपि उपविष्टाश्त्यपि किमुउपविष्टा एव नतोपविष्टा अपीतिचत्वारः पक्राः कषायाइव जवदजिमतव्याघातददातत्तिष्टंते ॥
अर्थः-जे पण राउवणीय इत्यादिके श्रागम बले करीने व्या. ख्यानादिकने विषे सिंहासनने विषे बेसवानुं प्रतिपादन कर्यु ते पण पंमितना चितने चमत्कारनुं करनार एवं नथी. तेज कही देखामे जे जे राजाए प्राप्त कर्यु जे सिंहासन ते उपर बेग एवा जे गणधर ते व्याख्यान करे ने इत्यादि. ए जगाए तने पूीए जे शुं राजाए
आपेईं एवुज सिंहासन ते उपर बेठेला के अहो राजाए आपेला सिंहासनने विषे पण बेठेला ने बेगए जगाए जे अपिशब्द तेथी बीजा बे विकल्प जे शुं बेगज के बेग पण ए चार प्रकारना पक नुत्पन्न थया, ते जाणे तारा चार कषाय मूर्तिमान उत्पन्न थया होय ने शुं? एम तारा मतने नाश करवामां अतिशे माझा .
टीका:-तत्र यद्याद्यः पदस्तदागणधरन्याय नुसारेण न. वतामपि राजोपनीतसिंहासनस्थानामेव व्याख्याप्रसंमः ॥ अथ द्वितीयस्तदा राजोपनीते तदन्योपनीतेपीत्ययमर्थ स्तत्रापि विकल्प किं तदन्योपनीते राजव्यतिरिक्तजनोपनीतं
शाहोस्वोपनात।।
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(२६६)
4. अथ श्री संघपट्टक
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.. अर्थः-तेमां जो प्रथम पक्षनो अंगिकार करो त्यारे तो गणधरना न्यायने अनुसारे तमारे पण राजाए आपेला सिंहासनने विषेज बेशीने व्याख्यान करवानो प्रसंग आवशे. ने वळी बीजो पक्ष, जे राजाए आपेतुं ने बीजाए पण आपेलु एवा पक्षनो अंगिकार करशो तो तेमां पण बे विकल्प ले जे शुं राजा विना बीजा लोके आपेलुं के अहो पोताने अर्थे करावीने एटले यतिने अर्थे करावीने बीजा लोके श्राप्यु राजाए पोते आपेलु.
टीकाः न तावदाद्यः ॥ राजव्यतिरिक्तलोकानां सिंहासना जावेनतपनीतत्वानुपपत्तेः ॥ नृपासनं विनाऽन्यस्यानिधान कोशादिषुसिंहासनव्यपदेशासिझैः ॥ नृपासनंयत्ततजासनसिंहासनंचतदितिवचनात् ॥अन्यत्रतु तव्यपदेशस्य नाक्तत्वात्।। ननुलवत्वग्निर्माणवकश्त्यादौ सर्वथातदाकारधारणतदर्थक्रिया कारित्वादिविरहेण कतिचित्तद्गुणयोगादग्निशब्दस्य माणव
केन्नाक्तत्व मिहतुमात्रयापितहिरहालावेन सकल तजुणोपपत्तेः - कथंनाक्तत्वं ॥
अर्थः-तेमां प्रथमनो विकल्प जे राजा विना बीजा लोके श्रापेलु तो राजा विना बीजा लोकोने सिंहासन होय नहीं माटे तेणे आपेलुं एवात केम सिह थाय ने राजासन विना बीजानुं सिंहासन एवं नाम अजिधान कोशादिकने विषे सिक कर्यु नथी.॥ केमजे ते कोश- वचन आ प्रकार ने जे राजानुं आसन ते जजासन कहीए तथा सिंहासन कहीए ए हेतु माटे ने बीजी जगाए ते सिंहासन, नाम कहेवाय जे ते तो लाक्षणिक के एटले मुख्य
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अथ श्री संघपट्टक
(१७)
पणे नथी गौणपणे २ हवे प्रतिवादीनी आशंका ग्रहण फरीने कहे जे जे ॥ अग्निर्माणवकः ॥ एटले श्रा बोकरो अग्निरुप झ्यादि स्थलने विषे सर्वथा प्रकारे ते अग्निना जेवा श्राकारनुं धारण ते बोकरो करतो नथी तथा ते अग्निना गुण तेना योग ए गेकरामां ते माटे अग्नि शब्दनु बोकराने विषे आरोपण कर्यु तेथी ए अग्नि शब्द लाक्षणिक कहेवायो पण श्रा जगाए तो सिंहासनना जेटला गुण डे ते सर्व गुण सहित एवं सिंहासन कहेवानुं . लगार पण गुण बोबो कहेवो नथी माटे आ जगाए सिंहासन शब्दनुं लाक्षणिक पणुं केम कहेवाय ? नज कहेवाय.
टीकाः-श्रन्निधानकोशपाठोप्युपलक्षणतयासमाधास्यते अन्यथा जगवत्प्रातिहाांतःपातिन्य पितस्मिनू सिंहासनशब्दे गौणत्वं प्रसज्येत् ॥एवंचराझोपनीते तदन्योपनीतेवा तस्मिन्नुपविष्टा गणधराव्याचक्षते तदनुसारेण वयमपीति किमनुपपन्न मि. तिचेत् ॥ एवंताईप्रत्युपेक्षाद्यनईतया तद ध्यासनस्यमुनीनामननु गुणत्वादितिपरिहारोस्तु ॥
अर्थ:-वळी अनिधान कोश पण उपलक्षणथी समाधान करे जे जे सकल सिंहासन गुण सहित ए सिंहासन ने ने जो एम न कहीए तो जगवंतना प्रातिहार्यमां रडं जे सिंहासन तेने विषे पण सिंहासन शब्दनुं गौणपणुं प्राप्त थाय वळी जो तमो एम कहेता हो जे राजाए श्रापेलुं अथवा ते विना बीजाए आपेलुं ते सिंहासन नपर बेसीने गणधर व्याख्यान करे , तेने अनुसारे अमे पण व्याख्यान करीए बीए, एमां शुं अघटतुं . एम जो तुं कहेतो
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(२१८)
होय तो परिखेहणादि करवा योग्य ए वस्तु नथी माटे से नपर मुनिने बेसवु ते गुणकारी नथी. ए प्रकारे तारी आशंकानो परिहार थशे.
टीकाः-नापि द्वितीयः स्वार्थनिापितसिंहासनस्यावा कर्मत्वेन यतीनां तत्रोपवेशनायोगात् ॥ यत्यर्थनक्तश्रावकाविनिर्माषितस्यापि तहदेव वर्जनीयत्वात् ॥
अर्थः-हवे बीजो पक्ष पण घटतो नथी केम जे तेमां पो. ताने अर्थे नीपजाव्यु जे सिंहासन तेने विषे श्राधाकर्मिक दोष सागे ए हेतु माटे साधुने ते नपर बेसद् ते अयोग्य . ने यतिने अर्थे कोइक जक्त श्रावकादि तेणे नीपजाच्युं होय तो पण. पूर्वनी पेठेज त्याग करवा योग्य .
टीकाः-नापि तृतीयः ॥ तथाहि ॥ राजोपनीतसिंहासन समावेपि कुतोपिदेतोस्तत्रोपवेशनासंजवे न मणधराणां ज्या ख्यानानावप्रसंगः॥ तथाच तदा नुसारेण नवतामपि ॥
अर्थः-त्रीजो पक्ष जे बेगज ते पण घटतो नथी केम जे राजाए सिंहासन आपे सते पण को कारण माटे ते उपर बेसवानो संभव न थाय त्यारे गणधरथी पण व्याख्यान न थाय एवो प्रसंग आचशे तेम तमारे पण ते गणधरने अनुसारे राजाए सिंहासन बायु होय त्यारेज आपेला सिंहासन नपर बेसीनेज ब्याख्यान थाय नहीं तो न माय एको प्रसंग पावशे माटेत्रीजो पक्ष पण घटयो नहीं
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8 अथ श्री संघपट्टक
टीका: - || नापिचतुर्थः ॥ तथाहि ॥ जवतुगलधराणांराजोपनीत सिंहासनोपवेशनानुपवेशान्यां व्याख्यान विधिः ॥ राजोपनीतसिंहासनोपवेशन संभावनास्पदत्वात्तेषांनवतां राजोपनी तसिंहासनप्राप्ति संभावनायां सत्यामेवान्यपाप्युपविष्टानां व्याख्यानकरणं संगत ॥
तु
( २६९
अर्थः-वळी चोथो पक्ष जे, बेठो पण, तेपण घटतो नयी, जे गणधरने तो राजा श्रापेल सिंहासन उपर बेसीने अथवा न बेसीने व्याख्यान विधि करवानुं हो केम जे ते गणधरने तो राजाए पेला सिंहासनने, ते उपर बेसवानुं संभवे बे. पण तमारे तो रानए पेल सिंहासननी प्राप्ति कदाचित् संनवेज तोपण ते विना बीजे बेसीने व्याख्यान करवानो संजव बे.
टीका:- एवंच
प्रदर्शितागमावष्टंजेनसिंहासनोपवेशनं कथमपि भवतां नोपद्यते ॥ तस्मादयमस्यागमस्या निप्रायः ॥ यदोगल नृतां व्याख्यानानेह सि कचिङ्गकादिः पृथ्वी पतिरुपवेशनाय एवं सिंहासनमुपनयति तदातच्चेतोनुवृत्यातत्राधिकं ते प्रभावना दिलानं संजावयंतस्तदा तदासनमध्यास्यापि व्याचक्षते ॥
अर्थ:-ए प्रकारे तमे देखामयुं जे श्रगम वचन तेनुं श्रावलंबन करवे करीने सिंहासन उपर बेसवानुं तमारे कोइ प्रकारे पण शास्त्री सिद्ध यतुं नथी ते हेतु माटे ए श्रागमनो तो या प्रकारनो अभिप्राय वे जे ज्यारे गणधरने व्याख्यान करवो समय होय त्यारे कोइक नजिक राजा गणधर महाराजाने बेसवा सारु पोतार्नु सिं
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(२७).
48 बय श्री संघपट्टा
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ANNA
हासन त्यां लइ जाय . त्यारे तेना चित्तनी अनुवृत्ति राखवे करीने प्रत्तावनादि लाननी संजावना करता सता ते श्रासन उपर बेसीने पण व्याख्यान करे .
टीकाः-श्रन्यथातु तेषांजगवत्समीपवर्तिनामुत्सर्गेणतत्पाद पागध्यासनेन कदाचित्ततः पृग्विहरतांचौपग्रहिकपट्टाघुपवे
शनेन स्वनिषद्योपवेशनेन वा व्याख्याविधिःप्रतिपादितः ॥ एव - मधुनापिगीतार्थसूरिनिरुत्सर्गेणौपग्रहिक पट्टस्वनिषद्याधुपवेश नेन व्याख्यानं विधेयं ॥
अर्थः-एम जो न होय तो जगवतनी समीप रहेनार एवा ते गणधरने नत्सर्गे मार्गे ते लगवंतना पादपीठ नपर बेसवान ए हेतु माटे ने कयारेक ते जगवंतथी जुदा विहार करे त्यारे तो चौद नपकरणथी बाहार जे उपकरण ते औपग्रहिक कहीए ते उपग्रहीक एवां पाटप्रमुख श्रासन ते उपर बेस, तेणे करीने अथवा पो ताना श्रासन नपर बेसबुं तेणे करीने व्याख्यान विधि प्रतिपादन कों ने. एमआ कालमां पण गोतार्थसूरीये नत्सर्ग मार्गे नपग्रहीक पट्ट अथवा पोतार्नु श्रासन ते उपर बेसीने व्याख्यान करवू.
टीकाः-अपवादतस्तु कदाचिमाजकुलादिगमने तत्प्रार्थः । नया सिंहासनायुपवेशनेनापि॥ नविदानींतनरुढयाय थाकथंचिसिंहासनादावुपवेष्टव्यमिति ॥ एतेन यदपि वैरस्वाम्युदाहरणेन यतीनां महाईसिंहासनाध्यासनप्रतिपादनं तद
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-49 मय श्री संघपट्टक:
(२०१)
प्यपास्तं ॥ कनककमल सिंहासनादीनां गब्दिकाद्यपेक्षयाऽस्पदोषत्वेन कथंचिदपवादेन सातिशयानां तथैवजव्योपकार संना. वनया व्याख्यानादौ सिझते श्रवणात् ॥ गब्दिकादीनां चकेवलसातशीलताव्यंजकत्वेन सिंहासनाद्यपेक्षया महादोषत्वेन चव्याख्या विधौ क्वचिदप्यननुज्ञानात् ॥
अर्थ:-अपवाद थकी ते क्यारेक राजकुलादिकमां गये बते ते राजादिकनी प्रार्थनाए करीने सिंहासनादिक नपर बेसीने पण व्याख्यान करे पण या कालना साधुनी रुढीए जे ते प्रकारे सिंहासनादिक उपर चढी वेसवु एम नथी एणे करीने जे श्री वैर स्वामीना दृष्टांते करीने साधुने मोटा मूलना सिंहासनादिक उपर बेसवार्नु प्रतिपादन कर्यु हतुं तेनुं खंमन थयुं ने सुवर्ण कमळ सिंहासनादिक तेनुं गादी आदिकनी अपेक्षाए अल्प दोषपणुं ने तेहेतु माटे कोश्क प्रकारे अपवाद मार्गे अतिशय सहित एवा मोटा पुरुषोने
ते प्रकारे नव्य प्राणीनो नपकार थाय एवं संजवतुं होय तो व्या. . ख्याना दिकने विषे सिंहासन नपर बेसवानुं सिद्धांतने विषेसांनलीए
बीए पण गादी आदिक तो केवल साता सुखनु जणावनार ने ने सिंहासनादिकनी अपेक्षाए महा दोषपणुं बे ए हेतु माटे व्याख्यान श्रा. दिकने विषे को जगाए पण शास्त्रमा आशा आपी नथी.
टीकाः-यदपिक्वचिदपवादेन तेषामपझानं तदपिग्लाना वस्थायां गुप्तवृत्या पुरुष विशेषमाश्रित्य न यथाकथंचित् ॥ तस्मात्तच्याग एवयतीनां न्याय्यः ॥ एतेन गब्दिकाद्यासनमुपादेय
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अथ श्री संघपट्टक
मित्यादौप्रयोगेपि गब्दिकादेः प्रवचनप्रनावनां गत्वस्योक्तन्याये .न निरस्तत्वाद्धतुरसिझोवेदितव्यगास्वपक्षसाधनं तु यतीनां गब्दिकायासन मनुपादेयं असंयमहेतुत्वात् श्राधाकर्मिक जोजनवदितिवृत्तार्थः ॥ ११ ॥
अर्थ:-वळी जे क्यारेक अपवाद मार्गे तेमने गादी श्रादिकनी श्राा ापी , ते पण ग्लानादिक अवस्थामां गुप्तवृत्तिये करीने पुरुष विशेषने आश्रीने का डे पण जे ते प्रकारे गादी - हण करवानुं नथी, ते गादीनो त्याग करवो एज यतिने न्याय , . एणे करीने गादी आदि श्रासन गृहण कर, ए प्रकारनो जे अनुमान प्रयोग कह्यो हतो ते पण गादी आदिकने प्रवचन प्रचावनानुं अंगपणुं नथी माटे कह्यो ए प्रकारनो न्याय तेणे करीने तेनुं खंगन अवापर्यु ले माटे ए हेतु श्रसिद्ध थयो एम जाणवू ने पोताना प. झटुंजे अपमान साधन ते तो साधुने गादीश्रादिक श्रासन न ग्रहण * करवं. असंयमनु कारण ले ए हेतु माटे; आधाकर्मिक नोजननी
फे जेम आधार्मिक नोजन ले तेम मादि आदि श्रासन- महण करवू ते पण असंयमनुं कारण जे. ए प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ थयो ..॥ ११ ॥ गादी आदि आसनना खंमननो सातमो द्वार थयो.
टीका-सांप्रतं सनामोच्चारसावद्याचरितानिधान पुरस्सरत दोषप्रदर्शनेन सावद्याचरितादरद्वारं निरस्यन्नाह ॥
___ अर्थ:-हवे नामनु कहेवू तेणे सहित सावध आचरीतनुं
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AAAAAAAAJEknanana
8. अथ श्री संघपटक ...कहे ते पूर्वक तेना दोष देखामवा तेणे करीने सावध आचरणनो श्रादर करवा रुप हारनुं खंमन करतासता ग्रंथकार कहे ."
॥ मूल काव्यम्॥ गृहीनियतगन्नागू जिनगृहे धिकारोयतेः प्रदेयमशनादि साधुषुयथा तथारंनिभिः॥ वतादि विधिवारणं सुविहितां तिकेगारिणांगतानुगतिकैरदः कथम संस्तुतं प्रस्तुतम् ॥१२॥
टीकाः-गतस्य पूर्वप्रस्थितस्य कस्यचित अनुपश्चाद्गतंगमनमन्यस्य यत्तद् गतानुगतं तदेषामस्तीतिगतानुगतिकाः॥ श्रस्त्यर्थेप्रत्ययस्तद्धितः॥श्रयमर्थः॥ यथा गड्डरिकाः कांचन दिशं प्रतीत्यकां चिदेकामविकां पुरोगच्छंतीमवलोक्य तदनुमाएँण पाश्चात्याः सर्वाश्रपितामनुगच्छति न मार्गस्य सुगमर्गम-. त्वादिकं मृगयंति.
अर्थः-जेम लोकमां गामरियो प्रवाह कहेवाय बे तेम चालनार पुरुषोए अयुक्त करवा मांमयु डे एम आगल कहेशे, कोश्क प्रथम चाल्यो ने तेनी पळवामे विचार्या विना बीजानुं जे चालवू ते गतानुगतिक कहीए, ने गतानुगत जेमने डे ते गतानुगतिक कहीए व्याकरण शास्त्रमा अस्त्यर्थे ए प्रकारना तद्धित सूत्रे करीने गतानुगतिक एवो प्रयोग सिद्ध थयो तेमां था परमार्थ डे जे जेम
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अथ श्री संघपट्टकः
गामरनो समूह कोइक दिशनी प्रतिति करीने कोइक एक आगल चालनार गाकरने जोड़ने तेनी पढवाने मार्गे मार्गे पाउली सर्व गाकर पण जाय बे पश श्रा मार्ग सुगम बे के दुर्गम बे एम कोश्पण विचारती नथी.
टीका:- तथा जिनप्रवचने सुखलोलतया कंचिदेकं प्रवाह मार्गे गच्छंतं वीक्ष्य तच्छीलतयान्येपि तन्नयाय्यान्याय्यतामविचारतोये तमनुगच्छंति ते सांसारपथानिनंदित्वात्तथोच्यते ॥ तैर्गतानुगतिकैर्लोकप्रवाहपतितैर्यत्यात्नासैः अदएतत् सकलजन प्रत्यक्षग्र हि नियतगच्छनजनादिकं सावयाचरितं.
अर्थ :- तेमज जिन प्रवचनने विषे सुखनी लालचपणे कोइक एकने लोक प्रवाह मार्गे चालतो देखीने तेना जेवा न्याय प्रन्यायने न विचारता बीजा केटलाक पुरुष जे तेनी पडवामे चाले बे ते संसार मार्गमांज खुशी थएला बे ए हेतु माटे ते गामरीआ प्रवानी पेठे चालनार कहीए बीए ते जे गतानुगतिक लोक प्रवामां मेला यतीनो श्रमास मात्रवमे जाता ते लिंगधारी पु. रुषो आ प्रत्यक्ष जगातु जे गृहस्थाने नियमोए पोताना गच्छनुं सेवन कर इत्यादि सावध श्राचरण प्रगट कर्यु बे.
टीका: श्रस्य सावद्याच रितस्यानेक विधस्यापि समुदायरूप तयैकत्वविवक्षणात् श्रदइत्येकवचनं कथमितिक्षेप गर्नप्रकार वचनो निपातकन कुत्सितप्रकारेण श्रसंस्तुतं यती नामकृत्यतया
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* जय श्री संघपट्टकः 8
( २८३ )
अपरिचितमप्यनुचितमितियावत् प्रस्तुतं प्रारब्ध मादृत मित्यर्थः॥
तदेव नामग्रामाद
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टीका:- अनेक प्रकारनुं पण सावध श्राचरण तेनो समुदाय रुपे एकपणुं कहेवानी वा बे ए हेतु माटे अदस् शब्दनुं एकवचन कं वे कथं प्रकारनो श्राक्षेपगर्जित एटले तिरस्कार सूचना करनार निपात बे ते श्रा जगाए को डे लिंगधारीए शा प्रकारनं श्राचरण प्रगट कर्यु बे ? तो निंदित प्रकारे एटले यतिने न करवापणे जेबे ते अनुचितनो आदर कर्यो के एटलो अर्थ बे तेनु नाम ग्रहण करीने कहे बे एटले वस्तु न करवानी बे तेनो आदर करे बे ते वस्तुनुं नाम जे.
टीका :- गृही श्रावको नियतं गच्छांतरपरिहारेणैकतरं गच्छमाचार्यप्रतिबद्धयतिसमुदायं जजते परिगृहातिस तथा।। गृहिनियः तगच्छनाक्त्वेन दि यतीनामिदानी सर्वनक्त पानादि निराबाधं निर्वहतीतिधिया जवतीति क्रियापदंयथा संजवमत्राभ्याहार्थं ॥ गृहिनियतगच्छनाक्त्वंच यतीनां तद्गतसकलारंभानुमत्यादिना पापसत्वप्रसंगेनासंस्तुतं ॥
अर्थ :- गृहस्थाने पोत पोताना गहनो अंगीकार करवो बीजा गच्छमां न जतुं इत्यादि अघटीत स्थापन करे बे एटले श्रावक बीजा गनो त्याग करीने हरेक कोइ एक गच्छ एटले श्राचार्य प्रतिबद्ध जे यतिनो समुदाय ते रुपी गड तेने नजे तेनुं सेवन करे ए प्रकारनो उपदेश करे बे कारण के ज्यारे गृहस्थ नियमाये करी एक
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अथ श्री संघपट्टकः
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गच्चने विषे रहे तेणे करीने निश्चे श्रा कालना यतिने सर्व जक्त पानादिक निराबाध प्राप्त थाय, सुखे करी निर्वाह थाय, ए बुझिये करीने श्रावकने गच्छर्नु अनिधान धरावे . जवति क्रियापदनोश्रध्याहार करी ज्यां जेम घटे तेम जोम ने ज्यारे गृहस्थ एक गच्छने नजे त्यारे यतिने ते श्रावकोए करेला जे सकळ आरंज तेनी अनुमोदनादिके करीने पाप लागवानो प्रसंग थाय ते हेतु माटे ए लिंगधारी न करवानुं करे .
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टीका-यदप्युत्पद्यतेहीत्यादिनाऽद्यतनकालापेक्षया तत्समर्थनं तदपिन युक्त तस्यापवादिक तयागमोक्ताधाकादिविषयत्वानसर्वथानिषिद्धगृहिनियतगबन्नजनविषयत्वं ॥ किंचगृहिनियतगटनजनमंतरेणाधुनातनयतीनां मात्सर्याग्रहस्थान्योन्याकृष्टयाकलहःस्यादिति नवतांतदन्युपगमःसचासंगतः॥
अर्थः-वळी लिंगधारी प्रत्ये कहे जे जे तमोए नत्पद्यते इ. त्यादि वचनने आरंजीने आ कालनी अपेक्षाए साधुनो निर्वाह थाय इत्यादि कारण गृहस्थने पोते पोतानो गच्छ करी राखवार्नु प्रतिपादन कर्यु ते पण युक्त नथी केम जे ते तारुप्रतिपादक वचननो अपवादपणे करीने शास्त्रमा कहेलो जे आधाकर्मादि दोष तेनुं विषयपणुं जे. ए हेतु माटे सर्वथा निषेध करेलुं जे गृहस्थने नियमाथी एक गहमा रहेवापणुं तेनुं ए स्थान ने वळी तमे कडं जे गृहस्थने 'नियमाये एक गठमां रह्या विना हालकालना यतीने मत्सरपणा थकी माहोमांहे एक बीजाने खेंचाताण करवाथी क्लेशनी उत्पत्ति थाय ए प्रकारनु जे तारुं कहेवू तथा जाणवू ते अंघटतुं ने...
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अब श्री संघपट्टका
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टीकाः कालदोषान्नवनवप्रार्जवस्सुविहितदर्शनने गुणवत्वादिबुझ्या श्रावकाणां तदंतिकगमनादिना नवतामिदानी प्रत्युत विवक्षितकलहस्याधिक्योपलंगात् इत्यहोदंदशूकनियां पलायमानस्य केसरीमुखे निपातः ॥
अर्थः केम जे नवा नवा प्रगट थता जे सुविहित तेमने दे. खीने गुणीपणानी बुड़िये करीने श्रावक तेमनी पासे गमनादिक करशे त्यारे तो तमारे या काळमां पण नलटो अधिक क्लेश थशे जे श्रमारा गच्छना श्रावक थश्ने ए सुविहित पासे केम गया । त्यादि, माटे अहो आतो मोटुं आश्चर्य जे जे तमे अल्प क्लेला मटामवानुं प्रगट करवा जतांज मोटो क्लेश प्राप्त तमारे थयो माटे ए न्याय तो ए प्रकारनो थयो जे जेम कोश्क सर्पना नयथी नांगे ते सिंहना मुखमां जश् पम्यो तेम तमारे थयुं.
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टीकाः-तथा जिनगृहे देवसदनेऽधिकार सकलतत्कृत्यचिं. तननियोगोयतेच्नेश्राझानामिदानीं तच्चितानिरवधानताव्याजैन ॥ अस्यचासंस्पतत्वं चैत्यखीकारद्वार निराकरणे प्रागेवदर्शितं ॥
अर्थः-वळी मुनिने जिनमंदिरने विषे अधिकार एटले समस्त देवमंदिर संबंधी कामकाजनी चिंतानुं जोमवू शाथी कैथा कालमां श्रावकने देवमंदिर संबंधी चिंता करवामां सावधान मथी इत्यादि मिष लश्ने श्रघटनुं करवा मांमयुं तेश्रयुक्त डे ते चैत्य अंगिकार करवाना झारनुं खमन कर्यु तेने विषे प्रथम देखामयु ....
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(२८६)
9 अथ श्री संघपट्टक
टीका:- तथा प्रदेयं वितरणीयं श्रशनादि अशनं जोजनमोदनादि श्रादिशब्दात् पानका विग्रहः साधुषु यतिषु प्र त्रच संप्रदानेपि विषयविवक्षया सप्तमी ॥ यथातथा येन तेन प्रकारे शुद्धमपीत्यर्थः ॥ रंजिनिगृहस्थै रघुना केवलेन शुद्धेनाशनादिना निर्वाहाजावादिति ॥ अशुद्धाशना दिदानप्रवर्त्तनस्यचासंस्तुतत्वमौद्दे शिकनोजन निरसनावसरे प्रतिपादितं।।
अर्थ:-वळी साधुने पवा योग्य जे श्रोदनादि जोजन तथा आदि शब्दथी पानकनुं पण गृहण करवुं श्रा जगाए चतुर्थीना मां सप्तमीविनक्ति थइ बे, अशनपान जे ते प्रकारे एटले - शुद्ध होय तोपण श्रावके साधुने आप ए प्रकारे बोले डे. केम जे श्री काळमां शुद्ध जोजनादिके करीने साधुनो निर्विद न थाय माटे ए प्रकार मिष लेने अमुद्ध जोजनादि दवानुं प्रवर्तन अघटित बे ते देशिक जोजननुं खंगन कर्यु ते श्रवसरे प्रतिपादन कर्युं छे.
टीका:- तथा व्रतं सर्व विर तिरा दिशब्दादेश विर तिसम्यक्त्वारोपणतदंतिकगमनादिग्रहः ॥ ततश्च व्रतादिविधेः सर्वविर - त्याद्यन्युपगमस्य वारणं निषेधः सुविहितांतिके सन्मुनिसमीपेऽ गारिणां श्राद्धानामेतद्देशनापरिणतांतःकरणानां ॥ नास्मत्पार्श्वे दीक्षादिकमपि ग्रहीष्यंती तिबुद्धया ॥ एतस्यचासंस्तु तत्वं तेषां सुविहिताच्या देशनाकर्णनत्रतादिनिषेधेनय त्याच्यासोत्सूत्र देशना सिलतालून विवेकमस्तकतया तद्धेतुका तिवारितप्रसर दुर्गतिवजूपातापादनात् ॥
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18 अब श्री संघपट्टक
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___ अर्थः-वळी व्रत एटले सर्व विरतिरुप, आदि शब्दथी देश विरतिरुप, तथा समकितनुं श्रारोपण इत्यादि व्रतना विधिनो निषेध करे हे एटले सुविहित पासे जइने श्रावकने कोश् व्रतनो अंगिकार न करवो एम निषेध करे ने शाथी के ए लिंगधारी एम जाणे जे था श्रावक सुविहित पासे जशे ने व्रतादिक लेशे ने श्रापणी पासे दिक्षादी नहि ले त्यारे श्रापणो या प्रकारनो निर्वाह नहि चाले ए प्रकारनी बुद्धि राखे डे माटे ए अघटतुं करवा मांमयुं बे ने ते श्रा. वक सुविहित पासे जशे, देशना सांनळशे व्रतादि ग्रहण करशे ए हेतु माटे उत्सूत्र प्ररुपणारुपी तरवारवमे ते श्रावकनां विवेकरुपी माथां कापी नांखे के ए हेतु माटे ते लिंगधारी अतिचारना प्रवेशथी पुर्गतिरुप वजूपात पोताना नपर नांखे .
टीका-अन्यतिपातनं चयतीनां पापादपिपापीयः
॥ तदुक्तं॥
किमतोपि महापाप, मज्ञानातूतुक: स्वयं ॥ पातयत्यंधकूपे यन्मूढः सहचरानपि ॥ श्रागमेप्युक्तं ॥ किं एनो कहयर, सम्म श्रणहिगयसमयसलावो ॥अन्नं कुदेशणाए कयरागंमि पाम॥ कोश्तो पावायरो,जोन निउत्तो पमाणगणम्मि॥ जाणंतो जिणवयणं पमाणमपमाणयंतोन ॥ एवंच चिंत्यमानमाधुनिकमुनीनां सावद्याचरितमागमविरुखतया न घटामियत्तीतिवृत्तार्थः॥१२॥
अर्थः-वळी बीजाने उर्गतिमा नांख ए तो यतिनां पाप
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( ( २८८ )
- अथ श्री संघपट्टकः
करतां पण अति मोटुं पाप बे. ते शास्त्रमां कहुं बे जे जे पुरुष अज्ञानयी पोते पापम पमयो बे तेने बीजो पापमां नांखे बे एथी बीजं शुं मोटु पाप डे ? केम जे मुढ पुरुष पोतानी संगाथे चालनार पण आंधळा कुवामां नांखे बे. श्रागममां पण कहां बे जे, ए प्र कारनो विचार करतां या कालना मुनीने सावधनुं आचरण कर श्रम विरुद्ध हेतु माटे प्रतिशे घटतुं नथी.
साव किया निषेधनो अष्टमद्वार संपूर्ण थयो.
टीका:- इदानीं श्रुतपथावज्ञाद्वार निरासमुपक्रमते ॥ तत्रचनानाविधाः श्रुतावज्ञा जिनाज्ञाबाह्यलिंगि निरुपकल्पिता स्तत्र प्रथम मयोग्यस्या पिस्वगुरु शिष्यस्य गन्नग्रहान्महाजना पूजोपलंजेन श्रुतपथावज्ञां पश्यं स्तामेवमोहम हिमप्रदर्शनद्वारेण निराकुर्वन्नाह ।।
अर्थ:- हवे सिद्धांत मार्गनी अवज्ञा एटले अपमान ते द्वार खंकन यारं वे तेमां नाना प्रकारनी सिद्धांत मार्गनी - वज्ञा जिन जगवंतनी श्राज्ञाथी रहित एवा लिंगधारी लोकोए कल्पी मां प्रथम पोते पण योग्य ने पोताना सरखो अयोग्य गुरु जेनो एवो जे ते शिष्य ते गच्बना आग्रहथी महाजन संबंधि पोताने पूजानी प्राप्ति याय ए हेतु माटे सिद्धांत मार्गनी श्रवज्ञा करे. बे. तेने जोतां जे ग्रंथकारने, एतो मोटा मोहनो महिमान े. ए प्रकारनुं देखानार द्वारे करीने ते सिद्धांतनी श्रवज्ञानुं खंकन क जता बता कहे बे.
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4- अब श्री संघपटक
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॥ मूल काव्यम्॥
निर्वाहार्थिनमुजितं गुणलवैरझातशीलान्वयं,ताहग्वंशजतद्गुणेन गुरुणा स्वार्थाय मुंगीकृतम् ॥यनिख्यातगुणान्वयाअपि जना लग्नोग्रगच्छग्रहा,देवेन्यो धिकमर्चयंति महतो मोदस्य तनिनतम् ॥ १३ ॥
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टीका:-निर्वाहार्थिनं केवलं उदरजरणप्रयोजनंनप संसारनिस्तारकांक्षिणं, नजितं हीनं गुणलवैः क्षमादिलेशैरपि ॥ प्रवज्यायोग्यो हिपुरुषः कमादि गुणवान् भवति ॥ यमुक्त पक्काए जोग्गा,यारियदेसंमिजे समुप्पन्नाजाश्कुलेहिविसिला : तहखीणप्पायकम्ममला॥ एवंपयशएच्चियअवगयसंसारनिम्गुण, सहावा ॥ तत्तो तविरत्तापयणुकसायप्पहासाय.
अर्थः-जे आ प्रकारनो शिश्य केवल नदर लरवानुज जेने प्रयोजन के एवो पण संसरनो निस्तार करवानी जने इबा नथी.एवोने वळी क्षमादि गुणनो लेश करीने पण रहित एवोने प्रवज्या योग्य जे पुरुष ते तो कमादि गुणवाळो जोश्ए, जे माटे शास्त्रमा कोले जे.जे आर्य देशमां नत्पन्न थयो होय ने जाति तथा कुल ए बेसारां होय तशाजेनो कर्ममल बहुधानाश पामेलो होय ने जेणे संसारनो गुण रहित खजाव जाएयो बे ने जेना कषाय भोग थएसा एवा गुणवालों पुरुष दीक्षाने योग्य . .
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(२१)
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अथ श्री संघपट्टकः
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टीका:-अयंतु क्षमायंशेनापि त्यक्तः॥ तथा शीलं स्वन्नावः सवृत्तंच ॥ अन्वयश्च कुलं शीलंचान्वयश्चेति इंधः॥ ततश्चाज्ञातावविदितौशीलान्वयौ यस्य स तथा तं ॥ परी दतशीलकुलस्यहि प्रवज्यादानं शास्त्रेऽन्निहितं ॥ अविदितस्वनावोहिकषाय उष्टादिः क्वचिदपराधे गुर्वा दिनाशिक्षितस्तमपि जिघांसति ॥
अर्थः-ने आतो कमादि गुणना अंशे करीने पण रहित ने, वळी शीळ कहेतां स्वन्नाव तथा शील केहेतां स्वन्नाव तथा शील केहेतां सारु वृत्तांत तथा अन्वय कहेतां कुल ॥ शीलने अन्वय ए बे पदनो इंछ समास करवो त्यारपठी नथी जाण्युं शीलकुल ते जेनुं एवो शिष्य , शास्त्रने विषे कयु डे जे शोल कुलनी परीक्षा करीने गुर्वादिक अपराध थये सते शिदा देता रेते गुरुने पण मा. रवाने इच्छे माटे.... ...
टीका-एवमझातवृत्तोपि तस्करादिः प्रवृजितस्तच्चीलत्वास्तैन्यादिकं कदाचिदाचरन् गच्छमपि तुलायामारोपयति॥ तथाऽ विदितकुलोदीक्षितः कथमपि कर्मोदयादीका जीहानिरंकु. शतया जहात्येव॥कुलीनस्तुकदाचिदकार्यचिकीर्षुरपि कौलिन्यसततगुरुशिक्षानिविभनिगमनियमो न करोत्येव.
- अर्थः-ए प्रकारे नथी जाएयु वृत्तांत ते जेनुं एवा जे पुरुष ते पण कदापि चोर होय ने तसे दीक्षा लोधी होय त्यारे तेने चोरी करवानो स्खलाव होय ए हेतु माटे कदापि कोइक चोरी आदि के
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- अब श्री संवपक करीने बधागच्छने पण शूळीने विषे श्रारोपण करावे वळी जेर्नु कुल जाएयु नथी. ते पण कोइक कर्मना उदय थकी दीक्षाने त्याग करवा च्छे तो निरंकुशपणे दीदानो त्याग करीज दे, ने कुलवान तो क्यारेक न करवानें काम करवाने इच्छे तो पण एने विष कुलीनपणुं रडं जे ए हेतु माटे निरंतर गुरुनी शिक्षारुपी आकरी बेमीवमे बंधायो २ माटे न करबानुं काम करी शकेज नही.
टीकाः-यमुक्तं ॥ श्रपि निर्गतुमनसा, प्रव्रज्यामंदिरान्नरान्। रुपछि पुरत: स्थाष्णुंरगलेव कुलीनता जशविहुनिग्गयत्नावोतह- . विदु ररि कजए सयन्नोहि ॥ वंसकुमंगीच्छिन्नोवि वेणुन पावए. न माह..
अर्थ-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे दिक्षारुपी मेंदिरथी नीकलवाने इच्छता पुरुषोने पण बंधननी पेठे कलीनपणुंजे ते आगळ आगळ श्रावीने रोके बे.
टीकाः-मुंमीकृतंदीक्षितं ॥ गुरुणाश्राचार्यण ॥ तादृशंविने..यवंशसमे वंशे जात: सतथाअज्ञातकुलोनवश्त्यर्थः ॥ तथा ते • तत्सजातीयविनेयतुल्यागुणाः निःशीलतादयो धर्मा यस्यस तथा ततः कर्मधारयसमासकरणेन गुरुशिष्ययोवंश गुणात्यंतसाजात्यं व्यनक्ति ॥ तादृशोहितादृश मेव मुंमयते ॥ समानशील व्यसनेषु सख्यमितिवचनात्..
अर्थ:-ते प्रकारनी दिक्षा, ते प्रकारना गुरु आपे , शिष्य
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- अनी संघ
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श्री समान वंशने विषे याला गुरु अजाण्या कुलमां बयेलो एटलो अर्थ बे. वळी ए गुरु शिष्यने तुल्य गुणवालो ने एटले शिष्यनी पे. मेज शीलरहित जेना धर्म डे एवो, त्यारपडी तादक्वंशज ने तशुपए बे पदनो कर्म धास्य समास करवो तेणे करोने ए गुरुना शिष्यना वंशने गुण ए बेनुं अतिशे सजातिपणुं एटले सरखापणुं प्रगट करी देखा जे, तेवो गुरुज तवा शिष्यने मुझे केम जे जेना गुण तथा आचरण सरखां होय तेनज मित्रपणुं थाय ने एम नीति शास्त्रनुं वचन ले म हेतु माटे.
टीका: स्वार्थाय स्वप्रयोजनाय स्वशरीरशुश्रूषादिहेतवे नतु संसारखेच्यो मोचयितुं तमेवंविधं यदर्चयंति मलयजघुसृण घनसारा दिना वस्त्रादिनाच सततं पूजयंति अधिकमिति क्रियाविशेष अतिरिक्तं देवेज्योपि जनाः श्रावकलोकाः ॥ ननु तेपित पूजयंवस्ताहग्गुणा एव नविष्यतीत्यताह ॥ विख्यातगुणान्वका अपि जगतीप्रतीतगांनीौदार्य दमादिगुणमहाकुलाश्रपि । आसतांतदितर इत्यपि शब्दार्थः ॥
अर्थः-पोताना शरीरनी सेवा कराववी इत्यादि जे पोतानो स्कार्य तेने अर्थे ते शिष्यने मुझे डे पण संसारना मुख थकी भु. कावकाने नाथी मुमता ए प्रकारना मुमेला केवल लिंगधारी गुरुने श्रावक स्रोको सखयागरु, केशर, चंदन, कुंकम आदिक वस्तु बके तथा वस्त्रादिक, करीने निरंतर तेमने पूजे जे देव यकी पर अधिक पूजे , त्यारे आशंका करी कहे जे ते श्रावक पण तेवा गुरुने लेने माटे ने प्रश्न लेवा हो ? तो ते जगए विशेषण प्रापे के जे
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49 अथ श्री संघटक
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“विख्यात गुणवंशअपि” एटले जगतमां गंजीरपणुं तथा उदारपणुं तथा मोटु कुल, क्षमादिगुण ए सर्वे जेमनो प्रसिद्ध बे, एवा सारा श्राक्क पण गच्छरुपि गल बंधने करीने तेमने पूजे तो बीजासामान्य श्रावक पूजे जे तेमां शुं कहेवू ए प्रकारे अपिशब्दना अर्थ .
टीका:-कस्मादेव मित्यतबाह ॥ लग्नोयगच्छग्ग्रहा इतिहेतु गर्नविशेषणं ॥ लग्नश्चेतसि निविष्ट नग्रोदृढोगप्रतिबंधोयेषां ते तथा॥ जवतु निर्गुणो वा गुणीवायं किं नोऽनयाचिंतया ॥ गुरु निरयमस्माकं प्रदर्शितः तथा अस्मश्यै रप्पयंगुरूत्वेनानैनहास्याम तिविहितस्वस्वगच्छगोचरमनोनिनिवेशाश्त्यर्थः॥
अर्थः-शा हेतु माटे तेमने पूजे हे त्यां विशेषण आपे जे श्रावक केवा ने तो“ लग्नोग्रच्छग्रह" ए विशेषण हेतु गर्जित जे जे. मना चित्तमां आकरो ( दृढ ) गच्चनो प्रतिबंध डे एटले श्रावक एम जाणे जे जे थापणो गुरू गुणी हो अथवा गुणरहित हो, श्रापणे एनो विचार न करवो मोटा पुरुष गुरुए आ आपणने देखाड्यो के, वळी आपणा वंशमां थएला सर्व पुरुषोए था पुरुष गुरुपणे दे. खामयो डे आपण कांश ते करतां परिक्षा करवामां माह्या नथी ए हेतु माटे तेमनी परिपाटीनो अनुसार करीने आ गुरुनो त्याग न करवो जेवो तेवो पण ए आपणो गुरु है. ए प्रकारे पोताना गड संबंधी मोटा श्राग्रह वमे गळाया ने ए हेतु माटे ते लिंगधारीने पूजेने
टीका अध विराणामपि तेषां तादृक् चेतोनिबंधे कोहेतु रित्यताह ॥ महतोऽति प्रबलस्य मोहस्य मिथ्यानिनिवेशस्या
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अब श्री संघपट्टक
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तदिति तादृशस्यापि तथाविधाज्यर्चनादिकं जनितं लीलायितं ॥ तथाहि ॥ नगुरुपदर्शितत्वं निर्गुणेपि तबिष्येऽन्यर्चनादि निबंधनं ॥ यदिहिगुरुःस्वाजन्यादिना निमित्तेन निर्गुणमपिशिष्य मोहादगुरुतया दर्शयति नेतावता सौ बहुमान मर्हति विवेकिना। गुणानामेव बहुमानहेतुत्वात् ॥ ते चेत्तत्र नसंति तदा किं निः फलेन गुरुपदर्शितेन ॥
अर्थ:-हवे जाणता एवाय पण श्रावकने ते प्रकारनो चितमां गबनो आग्रह रहे तेनुं शुं कारण ले ? तो ए जगाए नत्तर कहे
जे ते प्रकारना जाण पुरुषोने ते प्रकारना लिंगधारीओन पूजन करवु ए सर्व मोहनी लीला . एटले ए सर्व मिथ्याजि निवेशन प्रगटपणुं . तेज देखामे जे जे गुण रहित शिष्यने विषे पूजादिक जे करवानुं ते गुरुनु देखामे न जाणवू. केम जे गुरु थइने आपो. तानो शिष्य ने इत्यादिक कारणे पण निर्गुण शिष्यने गुरुपणे देखामे तोपण ए शिष्य बहुमानपणाने न पामे केम जे विवेकीया योनी मध्ये गुणनुज बहुमानपणुं जे ए हेतुं माटे जो ते गुण ते शिष्यमां नथी तो निष्फळ एवं गुरुनुं देखामधुं तेणे करी शुं ? कांइ नहि...
. टीकाः-यमुक्तं ॥ गौरवबीजं शिष्ये,गुणाःसतांनगुरुदर्शित. त्वं यत्॥गुरुदिष्टमप्पसवा होकायतमतमगौरव्यं ॥ तथा स्ववंशजान्युपगमस्यापि निर्गुणगुरुबहुमानहेतुत्वे बदमीप्राप्तावपि नृणां स्वकुलक्रमागतदारियादरे परित्यागप्रसंगान चैवं लोके नपलज्यते ॥ .
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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॥ यमुक्तं ॥
सुगुरुप्राप्ती कुगुरुं क्रमानुषक्तमपि जहति धीमंतः ॥ चिर परिचितमपिनोजति निधिलाने कोनु दौर्गत्यं ॥अतएव सिझांते गुरुगुण हीनस्य गुरोरगुरुत्वेन यतीनाम प्यंगारमर्दक शिष्याणामिव सशुरुगडांतरसंक्रमणेन तत्परित्यागः प्रत्ययादि ॥
अर्थ:-जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे शिष्यने विषे गुण देते ज सत्पुरुषने गौरवपणानुं कारण . पण गुरुनु देखाम ते काइ गौरवपणानुं कारण नथी. जेम गुरुए देखायो होय तोपण नास्तिकनो मत असत् ले माटे गौरव करवा योग्य नथी. तेमने निर्गुण शिष्य पण मानवा योग्य नथी. वळी आपणा वंशमां थयेला सर्वे वृकोए ए निर्गुण शिष्यने गुरुपणे मान्या माटे आपणे पण मानवा, बहुमान करवं. त्याग न करवो. एम जो मानता होतो लदमीनी प्राप्ती थाय तोपण पुरुषने पोतानी कुळ परंपराथी चादयुं श्रावतुं जे दरिउपर्यु इत्यादिकनो पण त्याग न करवो जोइए. ते तो त्याग करोडो माटे श्रा निर्गुण गुरु शिष्यनो केम त्याग करता नथी. जगतमां पण ल. दमी मळे तो दलदर राखवानुं जणातुं नथी. ते लौकीक शास्त्रनुं वचन जे सुगुरुनी प्राप्ति थये बते कोण बुद्धिमान पुरुष परंपराथी चाल्यो आवतो जे कुगुरु तेनो त्याग न करे. दृष्टांत जेम निधनी प्राति थये ते घणा काळथी परिचय करेलुं एवं पण दारिउपर्यु तेनो कोण त्याग न करे ? एज कारण माटे सिद्धांतनां पण गुरु गुण रहित जे गुरु तेनो अगुरुपणे त्याग करबार्नु प्रतिपादन कर्यु . जेम अंगार मईकना शिष्य साधुए अंगार मईक गुरुनो त्याग करीने सारा गुरु जे गबमां ते गबनां प्रवेश को तेम.
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अब श्री संवपट्टक
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टीका-यदाह ॥ गुरुगुण रहियो य गुरु न गुरु विहित्या गमोयतस्सिहो ॥ अन्नत्थसंकमेणं नन एगागितणणंपि॥ लोकिकामप्याहुः ॥ गुरोरप्यवलिप्तस्य, कार्याकार्य मजानतः॥ उत्पथं प्रतिपन्नस्य, परित्यागो विधीयते ॥ ततश्चवं स्थिते यन्निर्गुणेपि गुरुवान्युपगमेनाच्यर्चना निसंधिःसमहामोहम हिमेतिवृत्तार्थना
अर्थः-जे कारण माटे ते वात शास्त्रमा कही जे. लोकिक शास्त्रमा पण कडं जे जे गुरु अहंकारी होय ने श्रा करवा योग्यने श्रा न करवा योग्य एवं न जाणता होय ने नन्मार्गे चालता होय ते गुरुनो सर्व प्रकारे त्याग करवो. ते हेतु एम सिद्धांत थयो जे गुणने विषे पण जे गुरपणुं मानीने पूजनादिक करवू ते मोटा मो. हनो महिमा जे ए प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ थयोः ॥ १३ ॥
टीका:-एतर्हि गच्छ मुजामुजिततया लोकानां सद्धर्माप्रति पत्त्यादिना श्रुतावामी दमाणः सविषादमाद ।
_ अर्थः-हवे गुरुपी बंधने करीने बांघेला लोकोने सारा धमनी प्राप्ति नथी थती ए हेतु माटे सिद्धांतनुं अपमान जोता सता ग्रंथकार खेद सहित कहे .
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8. अथ श्री संघपट्टक
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(२८९)
॥ मूल काव्यम् ॥
दुःप्रापा गुरुकर्मसंचयवतां सधर्मबुद्धिर्नृणां,जातायामपि दुर्खनः शुजगुरुः प्राप्तस पुण्येन चेत् ॥ कर्तुं न स्वहितं तथाप्यलममी गच्चस्थितिव्याहताः, कं ब्रूमः कमिदाश्रयेमदि कमाराध्येम किं कुर्महे ॥ १४ ॥
टीकाः-:प्रापा दुर्लजा सधर्मबुद्धिर्भगवत्प्रणीतनिरुपचरितधर्मजिघृक्षा ॥ अथ पारमेश्वरस्य सर्वस्यापि शोजनत्वा विशेषात् किं सदिति विशेषणेनेतिचेत् न तस्यापीदानी कालदो.. षादनुश्रोतः प्रतिश्रोतोरुपत्वेन विध्यदर्शनात् ॥
अर्थः-जे सारा धर्मने विषे बुद्धि थवी ते पुर्खन ,एटले तीर्थकरे, उपचार रहित कहेलोजे धर्म तेनी ग्रहण करवानीजे इच्छा ते पुर्खन्न . आ शंका करे जे जे परमेश्वरे कहेलो जे ते सर्वे सारोज डे तेमां को उबो वधारे नथी, माटे सत् ए प्रकारचं धर्मर्नु विशेषण कहेवानुं शुं प्रयोजन ! उत्तरः-ए प्रकारे तमारे आशंका न करवी केम जे आ कालना दोषथी धर्मर्नु बे प्रकारे देखq थाय डे एक तो अनुश्रोतपणे न बाजु प्रातश्रीतपणे ॥
टीकाः-तथाहि ॥ विषयकुमार्ग व्यक्रियानुकूष्ये सुखशीलजनैः सिद्धांतनिरपेक्षखच्छंदमतिप्ररुपितो बहजनप्रवृत्ति गोचरम्पथा अनुश्नोत- ॥ श्रयमर्थः ॥ अनुपथेनहि गच्छतः
३५
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-49 अथ श्री संघपट्टक
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पुरुषस्य नदीश्रोतः सुगम सागरगामिच जवति ॥ एवमयमपि प्रकृतो मार्गः सुकरत्वात् संसारप्रापकत्वाच तथोच्यते श्रुतोक्त सकलयुक्त्युपपन्नः स्वयंचगवतूप्रज्ञापितः प्रेक्षावत्प्रवृत्ति विषयस्तु प्रतिश्रोतः॥ एतमुक्तं नवति प्रतिपथेन प्रतिष्ठमानस्य हि नदीश्रोतो मुर्गमंपारप्रापकंच जायते एवमयमपि. पंथा कुलकरत्वात्संसारतारकत्वाच्चैवम निधीयते ॥
अर्थः-तेज अनुश्रोत, प्रतिश्रोतपणुं देखा जे. जे विषय तथा कुमार्ग तथा व्यक्रिया तेमनुं अनुकूळपणुं सते जे सुखशी. लीया लोकोए सिद्धांतनी अपेक्षाए रहित पोतानी श्वामां आवे तेम प्ररुपणा करेलो जेमा घणा लोकनी प्रवृत्ति थाय डे एवो जे मार्ग तेने अनुश्रोत मार्ग कहीए. श्रा परमार्थ जे जे प्रवाहने अ. नुसरीने चालनार पुरुषने नदीनो प्रवाह सुगम डे ने समुप प्रत्ये जवार्नु पण थाय . एम आ लोक प्रवाह मार्ग पण संसार समुज्ने पमामनार ले सुगम ने माटे तेम कहीए बीए. ने शास्त्रमा कहेली सकळ जुक्ति तेणे सहित पोते लगवंते कहेलो ने जे मार्गे बुद्धिमंत चाले ने ते प्रतिश्रोत मार्ग कहीए. ए कह्यु जे सामा मार्गे चालताने एटले सामे पुर चालनार नदीनो मार्ग दुर्गम डे. दुखे जवाय एवों केम जे ते मार्ग पार पमामे एवो जे. एम आ मार्ग पण सं. सारने तारनार ले माटे उखकर ले तेथी ए मार्गने प्रतिश्रोत कहीए बीए.
टीका:-यमुक्तं ॥ अणुसोयपठिए बहुजणं मिपमिसोयलसकखणं ॥ पमिसोयमेव अप्पादायबो होज कोमणाश्रषुसोय
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जय श्री संघपट्टकः
(२९१ )
सुहो लोगो परिसोर्ट प्रासवो सुविदिया। अलोट संसारो परिसोर्ट तस्स उत्तारो ॥ श्रत्रासवइतिइंद्रियजया दिरुपपर मार्थपेशलः कायवाङ: मनोव्यापारः बहुजनप्रवृत्तिविषयत्वादनु श्रोतसएव सद्धर्मत्वमि चेत् न विकल्यासहत्वात् ॥ तथा हि ॥ किं बहुजनप्रवृत्तिगोचरमात्रं सद्धर्मनिबंधनं श्राहो सिद्धांतोक्तत्वं ॥
अर्थः- जे माटे ते बात शास्त्रमां कही वे जे ए गायामां आ सव ए प्रकारनुं पद बे तेनो अर्थ इंद्रियोनुं जितकं इत्यादिरुपनो बे. परमार्थ करवामां चतुर एवो जे शरीर वाणीने मन तेमनो जे व्यापार तेमां बहुजननी प्रवृत्ति याय बे. माटे अनुश्रोत एज सफ़र्म बे तुंकदेतो होय तो ते न कहेतुं केम जे एमां विकल्प बे तेनुं सहन घाय एम नथी. तेज विकल्प कही देखाने बे जे बहुजननी प्रवृत्ति जे मार्गमां थाय ते शुं सारा धर्मनुं निबंधन बे. एटखे का रण बे, के सिद्धांत मां कह्या प्रमाणे करवुं ए सारा धर्मनुं निबंधन बे. एटले सारो धर्म बे.
टीका:- न तावदाद्यः ॥ बहुजनप्रवृतिगोचरत्वस्य सद्धर्म निबंधनत्वान्युपगमे लौकिकधर्मस्यैव सद्धर्मत्वप्रसंगात्तस्यैवदानीं पार्थिवादिपुरुषसिंहप्र रुत्तिविषयत्वात् ॥ अथ तस्य पार्थिवा दिनरु त्तिविषयत्वेपि जगव द्विनेयाप्ररुर्त्ति तत्वेन न सद्धर्मत्वमस्य तुजगवद्विनेयप्रणी तत्वेन तच्च मितिचेत् न ॥
अर्थः- तेमां पहेलो पक्ष मानवा योग्य नथी, केमजे जेनां
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(२९२)
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अथ श्री संघपट्ट
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बहु जननी प्रवृत्ति थाय तेणे करीने जणातो जे धर्म ते जो सफर्म पण अंगिकार करीए तो लौकिक धर्मने पण सद्धर्मपणानी प्राप्ति थवानो प्रसंग श्रावशे केम जे ते लौकिक धर्मने विषे श्रा काळमां मोटा मोटा राजा आदि पुरुष मध्ये सिंह समान पुरुष तेमनी प्र. वृत्ति देखाय . माटे ने वळी तारे एम कहे होय जे ते लौकिक धर्ममा राजादि प्रव्वार्तेला ने पण जगवंतना शिष्य प्रवर्तेला मथी. माटे एने सर्मपणुं नथी ने या धर्म तो नगवंतना शिष्योए कदेखो ए हेतु माटे सद्धर्म एम तारे जो कहे होय तो ते न कहे.
... टीका-बहुजनप्रवृत्तिविषयत्वेन सहर्मत्वे प्रतिज्ञायाश्र
निष्टप्रसंगेन तजाहतो जवतोहेतुहान्योपपत्तेः ॥ किंच नवतु . जगवहिनेयप्रणीतत्वेनास्य तत्त्वं तथापि जगवहिनेयत्वमेवक
थमेषा मनुश्रोतप्रणेतृणां ॥ किं नगवन्मुंगीकृतत्वेन तदाज्ञा कारित्वेनवा ॥
अर्थः-केम जे बहु लोकनी जे प्रवृत्ती तेणे करीने जणातो ए धर्म ने ए हेतु माटे एने सर्मपणे प्रतिज्ञा पूर्वक स्थापन कर. नारने अनिष्टनी प्राप्ति थाय जे. एटले सद्धर्म एने कहेवायज नहि ने जो तुं एम कहीश के हुँ बहु लोकनी प्रवृत्तिने सद्धर्म कहेतो नथी तो तारा हेतुनी हानि थशे. एटले तारो हेतु खोटो थशे. ने वळी तुं कहुं हुं जे नगवंतना शिष्योए कहेलो माटे एने सधर्मपणुं ने तो त्यां तुने पूबीए बीए जे लोक प्रवाह जे अनुश्रोत मार्ग तेना कहेनार लिंगधारीने जगवंतना शिष्यपणुंज क्यांबे. ने जो तुं कहीश के तेमने जगवंतना शिष्यपणुं दे तो त्यां तेने पूलीये बीएजे
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( २९३ )
अथ श्री संघपट्टकः
शुं तेमने जगवंते पोते मुंड्या बे तेणे करीने शिष्यपणुं वे के तेमनी आज्ञा पालवे करीने शिष्यप बे.
टीका:- न तावदाद्य: ॥ जगवन्मुंगीकृतत्वेन तद्विनेयत्वे - जमाल्यादीनामपि तद्विनेयत्वप्राप्तेः ॥ श्रथ जमाख्यादीनां तद्विनेयत्वं सकलभूतलप्रतीतमशक्यापह्नवमिति चेन्न ॥ तेषां निहूनवत्वेन सिद्धांते तद्विनेयानासत्व प्रसाधनात् ॥
अर्थः- तेमां प्रथमनो पक्ष अंगिकार करवा योग्य नथी, केम जे जगवंते मुंरुन कर्यु तेथे करीने जो भगवंतना शिष्यपणं होय तोज माली आदिकने पण जगवंतना शिष्यपणानी प्राप्ति थशे ने वळी तुं कहीश के जमाली यादिकने जगवंतनुं शिष्यपणुं बे ते सकळ जगत्मां प्रसिद्ध बे ते तमारुं ढांक्युं ढंकाशे नहि तो एम तारे न कहेतुं . केम जे ते जमाली आदिकने तो निह्नवपणे सिद्धांतने विषे भगवंतना शिष्यपणानो खाजास मात्रज प्रतिपादन कर्यो ए हेतु माटे.
टीका:- नापिद्वितीयः || जगवदागमात्यंत विरुद्ध चैत्यवासादि प्रज्ञप्त्यतमेव कदर्थयतां कथंतेषां तदाज्ञाकारित्वं तथाच कथं नेियत्वं ॥
॥ तटुक्तं ॥
गंजीर मिणं बालातप्रत्तामोचित हकयत्थता ॥ तचैव यमशं
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( २१४ )
अथ श्री संघपट्टकः
ता, यवमत्रता न याति ॥ न हिलो केपि सत्पितृ विरुद्धमाचरतस्तदाज्ञामप्यकुर्वतः पुत्रस्यापि वस्तुतः पुत्रत्वं नाम ॥ तस्मातद्विनेयान्मासास्तेऽतस्तत्प्रणी तत्वेनोत्सूत्र त्वाङ्गवाजिनंदि बहुजनप्रवृतिविषयत्वेप्यऽनुश्रोत सद्धर्मत्वमेव ॥ अथ द्वितीयः तदेवमेतत् प्रतिश्रोत स अएव तुजगवत् प्रइस सिद्धांतो करवेन कतिपय महासत्वप्रवृतिगोचरत्वेपि सद्धर्मत्वात् ॥ श्रतोनुश्रोतसो व्यवढेदे न प्रतिश्रोतः संगृहीतुं स दिति विशेषणं विधीयमानं न विवादपदवीमधिरोहति ।
अर्थः- बीजो पक्ष पण अंगिकार करवा योग्य नथी केम जे गवंतनी खाज्ञाथी अत्यंत विरुद्ध एवो चैत्यवास यादिक स्थापवे करीने ले जगवंतनी कदर्थना करनारा एवा ते लिंगधारी खोने लगवंतनी आज्ञानुं करवाणुं कयांथी होय ने वळी भगवंतना शिष्यपशुं कयांथी होय. ते वात शास्त्रमां कही बे जे लोकने विषे परा सारा पिताए जे कहेलं तेथी विरुद्ध एटले नलद्धं श्राचरण करे तो एवो पुत्र एटले पितानी श्रज्ञाने अंशमात्र पण न करतो एवा पुपण वस्तुताए पुत्र नथीज. ते हेतु माटे ते जगवंतना शिष्य कदेवाय बे ते तो केवल आनास मात्र ब्रे माटे तेमनुं जे कहेतुं तेने उत्सूत्रपणुंढे ते हेतु माटे ' जवाजिनंदि ' एटले संसारमांज श्रानंद मानता घणा लोक तेमनी प्रवृत्ति ए मार्गमां वे तोपण अनुश्रोत मार्गनो त्याग करीने प्रतिश्रोत मार्गनुं ग्रहण करवाने सत् ए प्रकारनं धर्म शब्दने विशेषण आष्युं बे ते कांइ विवाद करवानुं ए स्थानक नथी.
टीकाः केषां प्रापा नृणां पुसां गुरुकर्म संचयवतां महाज्ञा
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अथ श्री संघपट्टक
(२९५)
नावरणादिसंभारना ।। संप्रतिदि गुरुकर्मस्वा ज्जीवानां न प्रायेण प्रतिश्रोतसि प्रवृनिरुपलभ्यते॥
॥ यमुक्तं ॥
अयोग्यनावातू गुरुकर्मयोगालोकप्रवाहस्पृहया उरापा ॥ प्रायोजनानामधुना प्रवृतिः प्रथि प्रतिश्रोतसि जैनचं ॥
अर्थः-कोने ए सद्धर्मनी प्राप्ति दुःख पामवा योग्य ने तो ज्ञानावरणादि जारे कर्मना समूहवाळा पुरुषोने ते वात घटे . केम जे या काळमां जारे कर्मी जीव ने ए हेतु माटे बहुधा प्रतिश्रोत मार्गमां तेमनी प्रवृत्ति देखाती नथी. जे माटे शास्त्रमा कडं जे जे श्री जिनेश्वर अगवंतना कहेला प्रतिश्रोत मार्गने विषे श्राकाळमां बहुधा लोकनी प्रवृत्ति थती नथी एटले उखे थाय . शाथी के अजोग्य नावथी तथा नारे कर्मनो योग ने तेथी तथा लोक प्रवाह नी स्पृहा जे. एटले लोक प्रवाह जे मार्गे चाले ले ते मार्गे श्वा राखे ३. ए हेतु माटे सहर्मनी प्राप्ति पुर्खन बे.
. टीकाः-श्रागमेप्युक्तं ॥ बहुजणपवित्तिमित्तं, श्छतेहिं इहयोश्चेव ॥ धम्मो न उजियवोजेण तहिं बहुजणपवित्ती॥ तो प्राणाणुगयं जं,तंचैव बुहेण से वियवंतु॥ किमिदं बहुणाजदेणंहंदिन सेयस्थिणो बहुया ॥रयण स्थिणोतिथोवा तदायारोधि जहन लोग मि॥श्यसुधम्म रयणस्थिवाय गादढयरंनेया॥
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( २९६) 49 अथ श्री संघपट्टकः - बहुगुणविहवेण जन एए लब्नंति ता कहमिमेसुं॥ एयदरिदाणं तह, सुमिणेवि पयट्टई चिंता॥
टीकाः-जातायामपि कथंचित्किंचिन्नव्यत्वपरिपाकात्मा {तायामाप सद्धर्मबुझौ पुर्खनोदुरासदः शुज गुरुर्यथार्थसिद्धांत प्ररुपणनिपुणोलोकप्रवाहबहिर्भूतेचतोवृत्तिःप्रतिवादिमददो ददमः कालाद्यपेक्षानुष्टानपटिष्टःसूरिः ॥ अयमर्थः ॥ सद्धर्म मनोरथजावेपि समुपदेश गुरुविना नासावासाद्यते ॥
अर्थः-कोर प्रकारे कांक जव्यपणानी परिपाक अवस्थाने विषे सद्धर्म बुद्धि थये सते पण शुनगुरु मलवो उर्लन . तोजथार्थ सिद्धांतनी प्ररुपणा करवामां कुशळ बे ने जेना चित्तनी वृत्ति लोकप्रवाह थकी रहित डे, ने जे गुरु प्रतिवादिना मदने नास करवामां समर्थ डे ने वळी काळादिकनी अपेक्षाए अनुष्टान क्रिया करवामां अतिसे माह्यो डे एवौ गुरु एटले आयार्य ते मळवो उर्लन . श्रा अर्थ प्रगट जे जे सधर्म करवानो मनोरथ थये उते पण सारो उपदेष्टा गुरु मख्या विना सद्धर्म पमातो नथी.
टीकाः-यदुक्तं ॥ धम्मायरियेण विणा, अलहंता,सिकिसाहणोवायं ॥ अरएव तुंबलग्गा नमंति संसारचक्रमि।सच प्रायेण सांप्रतमुत्सत्रन्नाषकाचार्यप्राचुर्येण तथाविधोनाल्पजाग्यलय।
अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही जे जे धर्माचार्य मळ्या विना सिद्धि पासवानां साधननो उपाय न पामता जीव संसार चक्रमां
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- अथ श्री संघपट्टकः --
( १९७ )
बे. जेम गामाना तुंबने लागेला वारा जमे बे तेम संसार चक्रमां प्राणी मेवे माटे बहुधा या काळम उत्सूत्रना भाषण करनार श्राचार्य घणा बे माटे जेवो सिद्धांतमां को बे तेवा लक्षणवाळो धर्माचार्य air atग्ये करीने पमाय बे.
टीका: - यक्तं ॥ यस्यानल्प विकल्पजल्पलही युग् युक्तयः सूक्तयः सज जर्जरयं ति संसदि मदं विस्फूर्जतां वादिनां ।। यश्चोत्सूत्रपदंन जातु दिशति व्याख्यासु सप्राप्यते सच्चारित्र प वित्रितः शुनगुरुः पुण्यैरगण्यैर को ॥
अर्थः-- जेनी वाणी : अनेक विकल्प सहित जे भाषण तेनी लहेरो एटले परंपरा ते सहित युक्तिन ते जेने विषे एवी बे. वळी जे गुरु समाने विषे प्रति शय दिदीप्यमान एवं वादी लोकना प्र बलमदने नाश करे बे ने जे गुरु व्याख्यान ते विषे क्यारेय पण उत्सूत्ररूपण नयी करता एवा सुंदर चारित्रवने पवित्र थयेला शुन गुरु ते जो गणित पुण्यनो उदय होय तो तेने मळे बे.
टीका:- प्राप्तः समासादित्तः सनदित्तगुणः गुरुगुरुः पुण्येन नवांतरसंतृत सुकृतेन चेत्यदि तथापि शुजगुरु प्राप्तावपि - कर्तुं विधातुं स्वहित मात्मनश्रायति सुखावहं कर्म सद्धर्मप्रतिपत्ति लक्षणं नालं न समर्थाः ॥ श्रमी पुण्य प्राप्त शुजगुरवो मर्त्याः ॥ श्रासादितसुगुरुवोपि ते किमिति न स्वहिताय यतंत इत्यत आह ॥
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(२९८ )
49 अथ श्री संघपट्टक
अर्थः- ते पूर्वे कला गुण सहित गुरु जन्मांतरमां संच करेला पुण्यवमे जो कदापि मळे तोपण पोताना आत्मानुं परिणामे हित करनार एवं सद्धर्म कर्मना अंगिकाररुपि पोताने हितकारी व स्तु तेने करवाने या पुरुष समर्थ थता नथी. शुभ गुरु मळ्या पटी पण ते पुरुष केम पोतानुं हित करवानणी प्रयत्न करता नथी तो त्यां कहे .
टीकाः - गच्छस्य स्ववंश्यान्युपेतयतिवर्गस्य स्थितिः युष्मत् कुलातोयं गच्ोऽतएनं विहाय युष्मानिनीन्यपार्श्वे देशना श्रवणसम्यक्तप्रतिपत्यादिकं विधेयमिति गृहिणः प्रतीत्य लिंगिकृता व्यवस्था तया व्याहता एवं विधशुनगुरुप्राप्तावपि निःसत्वतया किमेनां गच्छस्थिति चामो नवेती तिकर्त्तव्यतोद्धांतांतः करणाः एवं गच्छस्थिति व्याहताः तेषां स्व हितकरशासामर्थ्य मुपलभ्यतदुपचि किषुश्चेतः समुल्लसत्करुण || पारावारः प्रकरणकारः प्राह ।
4
अर्थ:- गनी जे स्थिति तेणे करीने ए पुरुष दणाया बे. ग ते शुं तो पोताना वंशमां थयेला जे पुरुषो तेमणे अंगिकार कर्यो एवो जे यतिनो समूह ते गन्न कहीए ने तेनी स्थिति जे म यदा एटले तमारा कुळना वृद्ध पुरुषोए या गहनो आदर कर्यो बे माटे ने मूकीने तमारे बीजानी पासे देशनानुं सांजळ तथा सम कितनुं अंगिकार कर इत्यादि कांइ पण न करवुं ए प्रकारे गृइथने श्रने लिंगधारीए करेली जे मर्यादा तेने गच्छ स्थिति कहीए. तेथे करीने इणायेला एटले व्याकुल थयेला पुरुषो शुभ
ए
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अथ श्री संघपट्टका
(२९९)
गुरु मळ्या पली पण सद्धर्म करवा समर्थ नथी थता. वळी ए पुरुषो केवा ने तो ए प्रकारनी शुज गुरुनी प्राप्ति थये बते पण निसल एटले पुरुषार्थ होण ले माटे एम विचारे जे जे आपणे आ गवनी मर्यादा मूकीए के न मूकीए ए प्रकारना विचारमा जे करवा योग्य
ते करवामां नमी गयां ने अंतःकरण जेमनां एवा थाय बे. ते गच्छ स्थिति व्याहत कहीए.ते पुरुषने पोतानुं हित करवानुं सामर्थ्य नथी, एम देखीने ते पुरुषोनो नपकार करवाने इच्छतो ग्रंथकार पोताना चिंतमां नत्पन्न थयो जे दयानो समुष तेणे करीने कहे .
टीका:-किं ब्रूम इत्यादि। अतःकं पुरुषविशेषं ब्रुमो जणामः कं शह जगति श्राश्रयेमहि सेवेमहि ॥ कं आराध्येम दामादिनोपचरामः ॥ एतेषां जणनादीनां मध्यात्किं कुर्महे विद्महे ।। यदिदि कस्यचिन्महात्मनो जणनेनाश्रयणेनाराधनेन वा गड स्थिति विमुच्य संझमप्रतिपत्तौ ते स्वहितमाचरंति तदेतदपि क्रियते ॥ परोपकृतिदीदितत्वात्सत्पुरुषाणामिति ॥
अर्थः-जे कया पुरुषने प्रत्ये आ वात कहीए. वळी जगतमा कीया पुरुषनी सेवा करीए जे पुरुष सेवा वते था वातने समजे. वळी कया पुरुषनी आराधना करीए एटले दानादिक वते तेनो उ. पचार करीए. ए सर्वनी मध्ये शुं करीए. जो कोश्क मोटा पुरुषना कहेवाथी श्राश्रय करवाथी अथवा आराधन करवाथी गढ स्थितिने मूकीने सधर्मनो अंगिकार करीने पोतार्नु हित करतो पण करीए. केम जे सत् पुरुषे तो पारको नपकार करवो एज दीक्षानो अंगिकार को ले ए हेतु माटे.
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(३०.)
अथ श्री संघपट्टकः
टीकाः॥अथवा ॥ यदाहिप्राप्तसुगुरुवोपि तत्वंजानाना अप्येवंगडस्थित्याव्यामुह्यति तदा कं ब्रुम इत्यादि ॥ अयमर्थ। अजानानोहि तत्वं स्वयं वा कस्यचिङ्गणनाराधनादिना वा तद्दोधयित्वा सद्धर्मे स्थाप्येतापि एतेच मूढा जानंतोपिगच्छस्थितिव्या हता इति कथं तत्र स्यापयितुं पार्यते॥ तत्सर्वथास्मञ्चेतस्यमीषां · सन्मार्गव्यवस्थापने न कश्चिउपायः प्रतिस्फुरति। अतःकिं कुमह इतिविषादवचनं ॥
अर्थः-॥अथवा ज्यारे तत्वना जाण एवा सुगुरु मख्या तो पण गच्छनी स्थितिये करीने व्यामोह पामे डे त्यारे कोना प्रत्ये कहीए इत्यादि जाणवू. सेमां आ प्रगट अर्थ जेपोतानी मेळे तत्वने न जाणतो होय तेने तो कहेवाथी, आराधन करवाथी हरेक प्रकारे बोध करीने मार्गने विषे स्थापन करीए. पण आतो मूढ पुष २ केम जे पोते जाणे ने तो पण गडनी स्थितिमा हणाय ने ए हेतु माटे तेमने सद्धर्ममां स्थापन करवानें केम पार पामीए ? एटले केम समर्थ थए ? ते माटे सर्व प्रकारे अमारा चित्तमा एमने स. न्मार्गमा स्थापन करवाने विषे कोइ उपाय फुरतो नथी; माटे शुं करीए. ए प्रकारे खेद जरे वचन कह्यु.
टीका:-श्दमत्रैदंपर्यं ॥ महासत्वसत्वोपादेयोह्ययं सर्म एतेचातिक्लीबा अन्यथा कि विपुषां गढस्थितिजिया॥ यदिहि लिंगिनःस्तलाजादिहेतुनागन्छ स्थितिंदर्शयति तथापिगृहिणा परीक्षापुरःसरंधर्मप्रतिपत्तव्यः॥
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अथ श्री संघपट्टकः
( ३०१ )
अर्थ :- जगाए बेवट कहेवानुं के तात्पर्य था बे जे या सद्धर्म बे तेनुं महासत्व एटले महाबलवाळो प्राणी तेनाथी प्रहण याय एम बे ने जे पुरुष बे ते तो अतिशय नपुंसकडे. केम जो एम न होय तो जे जाए पुरुष बे तेने गच्छ स्थितिनो जय केम राखवो जोइए ? नज राखवो केम जे जो पण लिंगधारी पोताने लान थाय बे इत्यादि कारणे गबनी स्थिति देखाने बे. तो पण गृहस्थोए परीक्षा पूर्वक धर्म अंगिकार करवो.
टीका:-यतो गवाने वाद ॥ निकषछेदतापाच्यां सुवर्ण मिव पमितैः ॥ परीक्ष्य निक्षवो ग्राह्यं महचो नतु गौरवात् ॥ श्रागमेप्युदितं । सब्बुधरण निमित्तं गीयरसनेसणान नकोसा जोयणसयाई सत्त न बारसव रिसाई काय वा ॥
अर्थ:- ते वात जगवाने पोते कही बे जे जेम सुवर्णनी परीक्षा कसोटीथी, बेदवाथी, ताप देवाथी थाय बे तेम हे निळु सोको पंदितो मारुं वचन परीक्षा करीने ग्रहण कर. पण मारी महोबती न ग्रहण कर. वळी ए वात श्रागममां पण कही बे जे.
टीका:- तथा संप्रदायागतस्यापि निर्गुणस्य गच्छस्यागमे यतीनामपि परिहारश्रवणात् ॥
॥ यटुक्कं ॥
सारणमा वित्तं गवं विदु गुरुगुणेण परिहीणं ॥ परिचत्तनाश्वग्गो चइजतं सुत विहिणान ॥
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( २०२ )
-18 अथ श्री संघपट्टकः
अर्थ:-वळी श्रागमने विषे साधुने पण पोताना संप्रदायथी वायो श्रावेलो एवो निर्गुण गच्छ तेनो परित्याग करवो एम सांजकीए बीएए हेतु माटे गहनो ममत्व त्याग करीने शुभ गुरु थकी सद्धर्म पामवो जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे.
टीका - एवंच यदा कृतदिगबंधानामपि यतीनां निर्गुणगन्छ परिहारः पतिपादित स्तदा का कथा श्राद्धानामिति ॥ तदेवं विधानामपि अब स्थितिनिया तेषां न सद्धर्माच्युपगम बलीयसी मुद्रा तिरयति विवेकांकुरं ॥
॥ यमुक्तं ॥
जीवाः प्रमादमदिरा हृतहृय विद्या श्रप्यन्यथा सुपथिसंप्रति नोत्सहते | हामऊनाय तु नवांजसि लिंग निः किंग च्छ स्थिति विनिहतेव गले शिलैषा ॥ तद्गच्छ स्थितेरपि विज्यतो धर्मान धिकारि ए वतेवरका अनात्मनीना श्रसमर्थत्वात् समर्थस्यैदिशास्त्रे तत्थ हिगारी अच्छी समत्थश्रो इत्यादिना धर्माधिकारिव प्रतिपादनात् ॥ समर्थस्यैवलक्षणत्वात् ॥ होइ समत्यो धम्मंकुणमाणो जो नवाह परसिं || माइ पिइसा मिगुरु माझ्याप धम्मेण जिन्ना ॥ तद्यवस्थितमेतत् कंब्रम इत्यादी ती वृत्तार्थः १४
अर्थ :- एम ज्यारे कर्यो बे दिग्बंध ते जमणे एवा साधुने पथ निर्गुण गच्छमां रहेवानो निषेध कर्यो त्यारे श्रावकने निर्गुण ग
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अथ श्री संघपट्टक
च्नो परित्याग करवो तेनी तो शी बात कहेवी. ए हेतु माटे श्रा निर्गुण गच्छे एम जाणनारने पण तेनी मर्यादाना जयथकी सद्धर्मनो अंगिकार नथी थतो माटे अतिशय बळवान एवी ए ग मुद्रा जे तेज विवेकरुपी अंकुराने ढांकी दे बे जे माटे ते वात शास्त्रमां कड़ी
जे प्रमादपि मदिरावते नाश पामी बे सारी विद्या ते जेमनी एटले सारं ज्ञान जेमनुं गयुं बे एवा जे जीव जे ते बीजी रीतनों जे सारो मार्ग ते ते प्रत्ये पण जवानो उत्साह नथी करता. ते उपर तर्क थाय डे जे संसार समुद्रमां बुरुयोज रहे ते माटे गच्छ स्थितिथकी जय पामनार पुरुषो धर्मना अधिकारी तथी. माटे ए बचारा आ त्मानुं हित करवामां श्रतिशय शंकमा डे केम जे असमर्थ यया बे ए देतु माटे शास्त्रमां तो समर्थं पुरुषोज धर्मना अधिकारी कया बे. ते हेतु माटे एवो निश्चय कर्यो जे कोना प्रत्ये कहीए कोनी धाराधना करीए जेथी या बात समजे इत्यादि. या चउदमा काव्यनी अर्थ संपूर्ण थयो. ॥ १४ ॥
(३०२)
टीका :- इदानीं कस्यचिदयोग्यस्याचार्यपदप्राप्त्या तद सच्चेष्टितप्रदर्शनेन श्रुतावझां ज्ञापयन्नाह ॥
अर्थः- दवे कोइक अयोग्य पुरुष श्राचार्य पढ़ने पाम्यो तेनी असत् चेष्टा देखावी तेथे करीने सिद्धांतनी अवज्ञा प्रत्ये जाणावता सता ग्रंथकार कहे बे.
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(३०४)
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अथ श्री संघपट्टक
॥ मूल काव्यम् ॥ क्षुत्क्षामःकिल कोपिरकशिशुकःप्रव्रज्य चैत्यै क्वचित्, कृत्वा कंचन पदमदतकलिः प्राप्त स्तदाचार्यकं ॥ चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गोकुटुंबीयतिस्वं, शकीयति बालिशीयति बुधान विश्वंवराकीयति ॥१५॥
. टीका:-कुतकामो बुजुक्षा श्लदणाकुक्षिः गृहस्थावस्थायां किले ति:संजावनायां प्रत्यक्षोपलब्धमायर्थं संजावनास्यदतयवसंतो वदंतीतिन्यायः ॥ श्रतः स्तदज्ञापनाय किलेति पदं ॥ अन्यथा संप्रति प्रत्यक्ष एवायमर्थ इति ॥
अर्थः-जुखवते जेनुं पेट चोंटी गयुं डे ने आंखो मी नतरी गने एवो रांकनो पुत्र गृहअवस्थामां होय एवं संनवे . माटे आ जगाए किल अव्ययनो संभावनारुप अर्थ करवो. केम जे सतपुरूष ते प्रत्यक्ष जणातो एवोपण अर्थने संन्नावनानुं स्थानक के ए प्रकारेज कहे जे. एवो न्याय . ए हेतु माटे ते न्याय जणा. ववाने किल ए प्रकारचें पद मूक्यु डे जो एम न होय तो आ का. ळमां ए अर्थ प्रत्यक्ष देखाय ने एटले रांकना नोकरा ए प्रकारना थयेला प्रत्यक्ष देखाय ले तो एवात संजवे जे एम संन्नावना शीद कहेत?
टीकाः कोपि श्वसात नामा रंका निकाकोऽत एव कुत्सि:
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अथ श्री संघपट्टकः
( ३०५ )
तोऽनुकंपितो वा शिशुरर्नकः शिशुकुत्सायामनुकंपने वा कः ॥ ततोरंकश्चासौ शिशुकश्चेति कर्मधारयः ॥ रंकस्य वा कस्यचि - विशु इति ॥ नेन परंपयापि तस्य निक्षाकत्वं निवेदितं । एतेन प्रब्रज्यायापि तस्या योग्यता माह ||
अर्थः- कोइक एटले जेनुं नाम पण जाणता नथी एवो रंक एटले निखारी एज हेतु माटे निंदित अथवा दया करवा योग्य वो बालक निंदा अर्थने विषे अथवा अनुकंपा अर्थने विषे कप्रत्यय जावो. त्यार पछी रंक एवो जे शिशु कहीए, एम कर्मधारय समास करवो. अथवा कोइक रंक तेनो बालक एम छार्थ करवो. एणे करीने परंपराथी एनुं जीखारीपणुं चाल्युं श्रावतुं वे एम जणाव्युं. तेरो करीने प्रव्रज्या देवाने पण ए पुरुष योग्य नथी.
टीका: -- कुलशीला दिविकलत्वात्तद्युक्तस्यैव दीक्षा योग्यतायाः प्राक्प्रतिपादनात् ॥ प्रवज्य मुंकीनूय ॥ चैत्ये लिंगि संबंधिन जनगृहे क्वचिद निर्दिष्टनाम्नि कृत्वा विधाय लंचा दिना कंचन कमपि बद्धमूलं बलीयांसं संयतं श्रावकं वा पक्षं सहायं ॥ नहि तादृक् साहाय्यं विना तादृशामाचार्यपदलाज संभवः ॥
अर्थः- ते योग्यपणाने कहे बे जे ए पुरुष कुलशील यदि करीने रहीत ए हेतु माटे ने पूर्वे तद्युक्त पुरुषनेज दीक्षा देवानुं योग्यपणुं वे एम प्रतिपादन कर्यु बे. ए हेतु माटे ने ते पुरुष लिंगधारी संबंधी कोइक जिनधरने विषे सुंकित थइने कोइने लांच
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49 अथ श्री संघपट्टक
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श्रापवी इत्यादि कारणे करीने कोइक बळवान साधु अथवा श्रावक तेनी सहाय्य करीने एटले ते प्रकारना पुरुषने आचार्य पदनो लाज थवो ते कांश साहाय्य विना थाय नहि माटे.
टीका-अक्षतकलिः यत् किंचिन्निमित्तमात्रं प्राप्य शिष्या . दिनिः सह नक्तंदिनमखंमितकलहः ॥ एतेनाचार्यपदानौ चित्यं तस्याह ॥ निनिमित्तात्यंतकोपनस्य सकलगच्चगेटेगवेग. हेतुत्वेनाचार्यपदायोग्यत्वात् ॥ सोमो पसंतहियो गुरू होशत्या दिवचनात् ॥
अर्थ:-ते पुरुष प्राचार्यपद पाम्या पनी जे ते कांक निमित्त मात्रनुं ग्रहण करीने शिष्यादिकनी साथे रात दिवस कलह करे जे. एणे करीने ए पुरुष श्राचार्यपदने योग्य नथी एम जणव्यु केम जे कारण विनानो अत्यंत क्रोधी ए पुरुष सकल गहने नहेग कर. वानुं कारण ले माटे एने श्राचार्यपदनुं अयोग्यपणुंडे ए हेतु माटे.
टीकाः-हच कलिग्रहणमन्येषामप्याचार्य पदायोग्यता पादकानां स्तंनदंनलोजमूर्खत्वादिदोषाणामुपलक्षणं ॥ ततः सकलसूरिपदानुगुणगणरहित इत्यर्थः ॥ अतएवापात्राणां सूरिपददातुरपि पापीयस्त्वमुक्तमागमे ॥
अर्थः-आ जगाए कलि कहेतां कलह ए शब्द ग्रहण कर्यु के तेथे करीने बीजा. पण जेथी श्राचार्य पद न देवाय एवा प्राई।
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अथ श्री संघपट्टक
(१०७)
कार, दल, लोन, मूर्खपणुं इत्यादि दोष पण ए पुरुषने विषे ले एम उपलकणथी जाणवू. ते हेतु माटे सूरिपदने अनुसरता एवा समस्त गुण तेणे रहित ए पुरुष ने एटलो अर्थ थयो एज हेतु माटे अपात्र सूरिपद देनारनुं पण अतिशय पापीपणुं ने एम आगममां कडं .
टीकाः यदाह ॥ बूढो गणहरसदो, गोयममाई हिं धीरपुरिसहिं, जोतं उवश् अपत्ते, जाणंतो सोमहापावो।लोगंमिवि उ. वघाउँ, जत्थ गुरू एरिसो तहिं सीसा॥ लघ्यरा अन्नेसिं,श्रणाय रो होश्य गुणेसुत्ति ॥ प्राप्तश्रासेदिवान्सन् तदिति विवेकिनां विमंबनास्पदं श्राचार्यकं श्राचार्यत्वं सूरिपद मित्यर्थः ॥
अर्थः-जे हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे ते हेतु माटे विवेकीनी मध्ये विलंबनाने पाम्युं एवं प्राचार्यपणुं ,एटले सू. 'रिपद विमंबना पाम्युं एटलो अर्थ डे.
टीकाः अत्रच यो पधावृतीयादिगुरोरकणित्यनेन जावे ऽकण तहितः॥ चित्रमद्भुतमेतत् यच्चैत्य गृहे देवन्नवने गृहीयति गृहंश्वाचरति यथा निजसदने गृही शयनासनपानपचनसंनोग तांबूलनक्षणादिकं नि:शंकमाचरति तथायमपि केवलनक्ति योग्येपि जिनमंदिरेऽत्यंतानुचितमप्येतद्यय, समाचरनेव मुच्यत इति ॥
अर्थः-आचार्यकः ए शब्दने विषे 'योपधात् ' ए सूत्रे करीने जावमा तद्धितनो अकण प्रत्यय भावीने ए शब्द सिक थयो .
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(३०८)
49. अथ श्री संघपट्टकः
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वळी श्रावात आश्चर्यकारी जे जिनमंदिरने विषे घरनी पेठे आचरे डे एटले जेम गृहस्थ पोताना घरमा सुवे, नोजन करे, पीये, रांधे, संनोग करे, पान चावे इत्यादि क्रिया निःशंकपणे करे, तेम श्रा लिंगधारी पण केवळ नक्ति करवा योग्य एवं जिनमंदिर तेने विषे अत्यंत अघटती एवी पण ए क्रियाने पोतानी इच्छामां आवे तेम करे ने माटे घरनी पेठे आचरे बे एम कहीए बीए.
टीकाः-निजे वकीये गळे कुटुंबीयति कुटुंब इशचरति॥ यथाहि गृहस्थः स्वकुटुंबे पर्वदिनेषु नातृजामातृमातृनगिनिपुत्रिका दिसंबधैन निमंत्रणादानानुप्रदानादिषु प्रवर्तत एवमेषोपि साध्वादिवर्गे तथा प्रवर्त्तमान एवमुच्यते ॥
अर्थः-वळी लिंगधारी गुरु पोताना गच्चने विषे कुटुंबनी पेठे श्राचरे ने. जेम गृहस्थ पोताना कुटुंबने विष पर्व दिन आवे त्यारे नाइ, जमाइ, फोई ए त्रण प्रकारनो जे संबंध एटले मातापितानो तथा पोतानो जे संबंध तेणे करीने तेमने निमंत्रण करवू तथा आपq लेवू इत्यादि क्रियाने विषे प्रवर्ने बे, तेम लिंगधारी पण पोताना जेवो जे साधुनो वर्ग तेने विषे तेमज प्रवर्ते ने माटे ते गृहस्थनी पेठेज प्रवर्ते जे एम कहीए बीए.
टीकाः-यदि वा श्राचार्येण हि स्मारणवारणादिपुरसर प्रत्युपेक्ष पराप्रमार्जनविनयाध्ययनाध्यापनादिनोत्तरोत्तरगुण , स्थानाधिरोपणेन स्वगच्छःप्रतिक्षण मवेदणीयः यथा गुणंच प्र
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49अथ श्री संघपट्टक
(३०९).
तीक्ष्यो यथादोषं च शिक्षणीय इति सिद्धांत स्थितिः॥ अयंतु गर्वोद्धरकं धरतया तामवगणय्य यथा गृही प्रायेण कुटुंबमध्यात् सौजन्यपरोपकारादिसत्पुरुषगुणहीनमपि ग्रंथार्जनगृ. हकर्मकरणादिमात्रप्रवणं पुत्रादिकं बहुमन्यते तदन्यं चाव मन्यते तथा गच्छमध्याहि श्रामणादिषु शुश्रूषाकारिणं सदोषमपि जूषयति ॥ तदन्यं च सद्गुणनूषणमपि दूषयति इति गृहिकुटुंबप्रक्रियावर्तित्वात्तथानिधीयत इति ॥ ..
अर्थः–वळी आचार्ये पोताना गच्छनो क्षणे क्षणे तपास राखवो जे कोश्कने विस्मरण थयुं होय तो तेने संन्नारी श्राप तथा को विपरीत करतो होय तो तेनुं निवारण करवं. इत्यादि पूर्वक जे जोवं प्रमार्जq तथा शिष्य, नणदुं जणावq इत्यादिके करीने पोताना गबने जोवो तपासवो तथा जेनो जेवो गुण तेने तेवं मान आप तथा जेनो जेवो दोष तेने तेवी शिक्षा श्रापवी, .. ए प्रकारनी सिद्धांतनी स्थिति के एटले मर्यादा डे ने श्रा श्राचा.
यतुं तो अहंकारे करीने नंचं माथु डे ए हेतु माटे ते सिांतनी मर्यादानी अवगणना करीने जेम गृहस्थ बहुधाए कुटुंबना मध्यथी श्रा प्रकारनो पुत्रादिक तेने बहु माने ले जे जे पुत्रादिकने विषे सुजनपणुं तथा परोपकार इत्यादि सत्पुरूषना गुणे करीने रहितपणुं के तो पण ते अव्य उपार्जन करवु तथा घरनुं काम करवू इत्यादिकने विषेज चतुर होय तो तेने घणुं मान आपे ने ते थकी अन्य गुणी होय तो तेनुं अपमान करे ले तेमज गच्छ मध्ये जे को दोषवाळो होय ने ते जो विसामा करावतो होय, सेवा करतो होय तो तेने माने हे शोनावे दे ने ते विना बीजो महागुणी होय, गुणरूपी
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( ३१० )
जय श्री संघपट्टकः
भूषणनुं धारण करनार होय तो पण तेन दोष पमाने वे, ए हेतु माटे गृहस्थनी क्रियाने अनुसरे बे माटे कुटुंबी गृहस्थ जेवो एने कह्यो.
टीका:- तथा स्वमात्मानं शक्रीयति ॥ शक्रमिव पुरंदर मिवाचरति ॥ सहि नीचत्वात्तथाविधचैत्यद्रव्य शिष्यश्रावकादि समृद्धिदर्शनान्म दिष्णुः शक्रोह मित्य जिमन्यत इति तथा कतिपयाक्षरलेशलेप दिजिहूतया मदावलेपाद्दालिशीयति बालिशानिव मूर्खानिवाचरति बुधान् कुशाग्रीयबुद्धीन् विचक्षणान् श्रहमेव सकलवाङ्मयपारपारदृश्वा किममी अज्ञा वीदंतीति ॥
अर्थः- वळी ते श्राचार्य पुरूष पोताना आत्माने इंडनी . पेढे खाचरे बे. केमजे ते पुरुषने विषे नीचपणुं रचुं बे माटे ते प्रकारनं चैत्य तथा द्रव्य तथा श्रावकादि समृद्धि तेने देखवार्थी अहंकारी भयेलो एवो ए पुरूष एम माने बे जे हुं इंड हुं वळी केटलाक अक्षर ए एयो बे तेनो लेश मात्र लेप एटले थोकुं जाएपते करीने चारे पास मुख घालतो पण एके ग्रंथ यथार्थ न जाणतो पण मदे करीने अहंकारी बे ए हेतु माटे सारा सूक्ष्मदर्शी पंकिताने पण मूर्खनी पेठे श्राचरे बे एटले तेमने मूर्ख जाणे बे ने पोताने महा पंक्ति जाणे बे. जे ढुंज सर्व शास्त्ररूप समुमो पार देखनार तुं माटे श्रज्ञान। शुं बोले वे शुं समजे बे इत्यादि.
टीकाः तथा श्रतएव विश्वं जगद्वराकीयति वराकमिव कमिवाचरति ॥ संहि रसा दिगौरवमदिरामवार्थमान
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- मय श्री संघपटक
(३१७) नयनतया जगदपि मत्पुरतः हितकमिति मनुते ॥ .......
॥ यमुक्तं ॥
श्रखर्वगर्वसंचाराः समासाद्य महापदं ॥ नीचा स्तृणाय मन्यते, निर्विकल्पतया जगत् ॥
अर्थः-वळी एज हेतु माटे जगतने रंक जेवं श्राचरे ने एटले रंक माने , केमजे ते पुरूष रसादि गारवरूपी मदिराना मदे करीने घुमरायमान जेनां नेत्र थयां , एवो डे ए हेतु माटे जगत पण मारा आगळ तरणा तुल्य के एम माने ,जे माटे तेवू कयुं जे महा गर्विष्ट नीच पुरूष मोटुं पद पामीने निःशंकपणे जगतने तृण समान माने जे.
टीकाः-श्रयमाशयः ॥ ईश्वरोहि कश्चित् प्रव्रज्य प्राप्ता. चार्यपदः सन्निविवेकतया कथंचित्तञ्चैत्यग्रहादिषु गृहीयितादिकं विदधानोपि न तथा लोकानां चित्रीयते॥ गृहवासेपि - ललितत्वस्य लोकैस्तथा दर्शनात्॥ अयंतु रंकशिशुर्दीक्षित्वा सू. रिपदासादनेन तथा कुर्वाणो जनानामुपहास विषयतया महदाश्चर्यनाजनमिति ॥ तदहो अत्यंतमाचार्याद्यनुचित चैत्यगृहगृहीयितादिनाऽसच्चेष्टितेन श्रुतपथावज्ञा पापानां मनि नयति प्रवचन मिति वृत्तार्थः ॥ १५ ॥
- अर्थ:-तेमां या अजिनाय जे कोइ समर्थ धनात्य होय
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(३१२)
-48-अथ श्री संघपट्टक:
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ने ते दीक्षा लश्ने आचार्य पद पाम्यो बतो निर्विवेकपशाए करीने क्यारेय चैत्य गृहादिकने विषे गृहस्थनी पेठे आचरणादिकने करतो होय तो पण ते प्रकारे लोकने आश्चर्यकारी न थाय पण जेनुं गृहस्थावस्थामा दालिजपणुं दीटुं होय ने तेनी आ प्रकारनी नुकत दशा देखीने लोकने केम आश्चर्य न थाय, ने श्रआ तो वळी रांकनुं बोकरुं दीक्षा लश्ने आचार्य पद पामीने तेवूझतपणुं करवा मांमयु माटे लोकने उपहास करवानुं ठेकाणु ए बे, ए हेतु माटे मोटा श्राश्चर्यनुं पात्र जे ते माटे अत्यंत प्राचार्या दिकने अघटतुं जे चैत्यमां घरमां गृहस्थनी पेठे आचरवू इत्यादिक जे ग्रैमी चेष्टा एटले नगरुं आचरण तेणे करीने सिद्धांत मार्गनी जे अवज्ञा करवी ए पापे करीने प्रवचनने मलीन करे ने एटले सिझांतनुं अपमान करे ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो. ॥ १५ ॥
टीकाः-संप्रति पितृपुत्रादिसंबंधं विनापि हगदिलगि विहितलोकवाहनोपलनहारेण श्रुतवज्ञा प्रतिपादयन्नाह ॥
अर्थः-हवे पिता पुत्र आदिक संबंध विना पण हगत्कारे लिंगधारीए पोते स्थापन करीने लोक पासे जपामावी जे रीति ते संबंधी जे उलंनो देवो ते छारे करीने सिद्धांत अवज्ञानुप्रतिपादन करता सता ग्रंथकार कहे .
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
(ITF)
॥ मूख काव्यम् ॥
ये जतो नच वर्द्धितो नच नचक्रीतोऽधमर्णोनच । प्राग्दृष्टो नच बांधवो नच नच प्रेयान्नचप्रीतिः ॥ तैरेवात्यधमाधमैः कृतमुनिव्याजैर्बलाद्वाह्यते । नस्योतः पश वजनोयम निशं नीराजकं हा जगत् ॥ १६॥
टीका: - यैलिंगिनिरयं जनो नवजातो जनेरंतर्जावितयर्थत्वान्न जनितः पित्रादिरूपतया न जन्म लंनितः ॥ चकाराः सर्वेपि समुच्चयार्थाः अवधारणार्थ वा ॥ श्रथ मानूज्ञातस्तथापि करितो विष्यत्ये तावतापि बलात्तद्वान सिद्धिस्तथा ॥ वर्द्धितोनचेति एवमुत्तरपदेष्वप्याशंक्य योजना कार्या वर्द्धितो योगमादिसंपादत्तेन शरीरपोषं प्रापितः ॥
•
अर्थः- जे लिंगधारी श्रा श्रावक जननो कां बाप नथी जे एनुं जेम तेम कहेलुं श्रावक अंगिकार करे बे एटले लिंगधारीए या जन उत्पन्न कर्यो नथी. जन धातुनां अंतर्नाविञ्यंतनो अर्थ
ए हेतु माटे नथी उत्पन्न कर्यो ए प्रकारनो अर्थ थयो. एटले पितादि रूपपणे जन्म श्राप्यो नथी. श्रा जगाए सर्वे पण चकारनो समुच्चयरुपी अर्थ बे, अथवा अवधारणरूपी अर्थ डे वळी आशंका करी कहे वे जे जन्म अपनार न होय तो पण वृद्धि करनार तो हो, के जेपी बलात्कारे ते लिंगधारीना वचननी माथे नपाकी लेवानी सिद्धि याच. एज हेतु माढ़े विशेष कहे दे जे ए लिंगवारीद
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(३१४)
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जय श्री संघपट्टकः ॐ
पालण पोषण करीने काइ था जननी वृद्धि पमामी नथी के जेथी एनुं अवलूं कहेवू पण माथे नपामी ले ए प्रकारे श्रागल्यां पदने विषे पण आशंका करीने योजना करवी. वर्द्धित शब्दनो ए अर्थडे जे न मळेली वस्तुनो योग करवो ने मळेली वस्तुनी रक्षा करवी ए रुप जे योग देम इत्यादिकनुं जे करवं तेणे करीने जे शरीरनुं पोषण करतुं ते.
टीकाः-नच क्रीतो मूल्यदानेनाऽन्यस्माद्गृहीतः ॥श्रधमों नच उत्तमर्णसकाशाद्धारादिप्रयोगेणार्थ गृहीतोऽधमर्णः ॥ अत्रच यैरितिकर्तृतया संबंधानुपपत्तेर्येषामिति संबंधविवक्षया यबब्दो योज्यः ॥ अर्थवशाहिजक्तिपरिणाम इतिवचनात् ॥ तेन येषां लिंगिनामयंजनोऽधमोर्थधारयितान जवति एवमुत्तरत्रापि यथासंजवं येषामिति संबंधनीयम् ॥
अर्थः-वळी लिंगधारीए था श्रावक कोई पासेथी मूख आपीने वेचातो लीधो नथी जे एनुं बोल्युं माथे नपामे वळी या जन एटले श्रावक लोक ए लिंगधारीजनो देवादार नथी जे पोतानी आज्ञा पराणे पळावे.धनादि वस्तु आपनार जे पुरुष ते नत्तमर्ण का हीए. ने जे धनादि वस्तुनो लेनार पुरुष ते अधर्मण कहीए. माटे उत्तमर्ण पासेथी नधार प्रमुख प्रयोगे करीने अर्थनो गृहण करनार एटले अधर्मण थयेलो आ जन नथी.श्रा जगाए व्याकरणादि विचार जे आ जगाए यैः ए प्रकारनुं कर्ता पद ले तेणे करीने संबंधनी सिद्धि नथी थती माटे येषां ए प्रकारना संबंधनी केहेवानी ज्ञाए करीने यत् शब्दनी योजना करवी. केम जे अर्थना वाथी वित
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जय श्री संघपट्टक
( ३१५ )
किनो परिणाम याय ए प्रकारनुं वचन छे ए हेतु माटे या प्रकारनो यो जे जे लिंगधारीनो या जन जे ते अधमर्ण नथी. एटले ते लिंगधारी थकी द्रव्यनो लेनार नथी, एम आगळ पण जेम घटे तेम ' येषां' कहेतां जे संबंधी ए प्रकारे पदनो संबंध करवो.
टीकाः - तथा ॥ यैः प्राग् पूर्वं दृष्टोऽवलोकितो नच॥ श्रयमर्थः ॥ यैलिंगि निःस्वश्राद्धाद विष्टदेशवर्ति त्वात्कदा चिदपि न दृष्टास्ते पि स्वगवग्रहप्रस्तत्वादन्यं गुरुं वाचापि न संज्ञापंते ॥ तमेव गष्ठ गुरुं ध्यायतः कालमतिवाहयंति ॥
अर्थः- वळी जे लिंगधारीउए पूर्वे दीठो पण नथी एटले तेनोआ अर्थ बे जे लिंगधारीए पोताना श्रावक अतिशय दूर देशमां रह्या बे माटे क्यारेय पण ते दीवा नथी ते श्रावक पण पोताना गच्छना आग्रह वते गलाया वे ए हेतु माटे बीजा गुरुने वाणीए करीने पण न बोलावता. ने केवळ तेज गच्छ गुरुनुं ध्यान करता ता कालो निर्वाह करे बे.
टीकाः – बांधवः पितृमातृव्यादि संबंधनाग् न च येषां ॥ नच प्रेयान वनतरो मैत्र्यादिसंबंधेन नच प्री पितो दानज्ञानातिशयादिना तोषितः । अत्रचेदानींतनरूढ्या यद्यपि केषां चिह्नर्द्धितत्वादिसंभव स्तथाप्ययं पटसंवृतएव शोजत इति म्यायेना तिलऊनी यत्वा दिना तदविवक्षणान्नचवर्द्धित इत्यायु तथा केषां चिह्नांधवत्वादिसंजवेपि दवीयसां भूयसां च तद संजवेन तदविवक्षणान्नच बांधवइत्यायुक्तमिति ॥
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(१६)
अव श्री संघपट्टका
अर्थः-वळी ए लिंगधारीनो आजन बांधव पण नथी ने श्राज्ञा नपामावे बांधव एटले पिता, जाता इत्यादि संबंधवाळो जे होय ते. वळी ए लिंगधारीने श्राजन मैत्री श्रादिक संबंध वते - तिशय वहालो पण नथी. वळी ए लिंगधारीए था जन दान ज्ञान
आदि अतिशय आपीने प्रसन्न पण कर्यो नथी.जे एनुं अवलु कहेडं वघन अंगिकार करे. श्रा जगाए था काळनी रुढिए करीने जो पण को लिंगधारीना श्रावकने वृद्धि पमानवी इत्यादिक गुण संनवे तोपण एतो जेम आ पट ढांकेलोज शोने जे ए प्रकारना न्याये करीने अतिशय सजा पामवा योग्यपणुं एमां रघु डे इत्यादि कारणे करीने ते ढांकेली वात नघामी करी देखामवानी अमारी इच्छा नथी. ए हेतु माटे एम कयुंजे नथी वृद्धि पमाड्यो इत्यादि कह्यु. वळी को. इनो को बांधव पण हशे एवो संजव थये बते पण अतिशय दुर रहेनार घणाक लोकने ते संबंध संजवतो नथी माटे तेसंबंध कडेवानी इच्छा पण नथी माटे नथी बांधव इत्यादि कह्यु.
टीकाः-तैरेव प्रागुक्तसंबंधानावेन लोकवाहनयोग्यता. विकलैलिगिन्निरेव एवेत्यव्ययमिह परिजवे ॥ षदर्थे पारनवे प्येवौ पम्येऽवधारण इति विश्वप्रकाशवचनात्॥ ततश्चमहान् परानवोऽयं यत्तादृशैरपि लिंगिनिलोंको वाह्यत इति ॥ बलात् हरेन नतु प्रणयेन बाह्यते वशीकृत्य स्वकार्याणि कार्यते॥
अर्थ:-श्राझावहन कराववाने अयोग्य एवा लिंगधारीएज पूर्वे संबंध कह्या तेमांनो एके संबंध नथी, तो पण श्रा जगाए एव'
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अब श्री संघाहक
(११)
ए प्रकारनो श्रव्यय , ते परानव रुपी श्रर्थने विष ने केस जे एव अव्यय ले ते लगारेक एवा श्रर्थने विषे प्रवर्ते, तथा परानव रुपी अर्थने विषे प्रवर्ते तथा 'तथा' निश्चयरुपी अर्थने विषे प्रवर्ते एम विश्वप्रकाश नामे कोशनुं वचन ने ए हेतु माटे यहीं पराजवरुपी अर्थ लेवो तेथी श्रा प्रकारनो अर्थ थयो जे तेवा पण लिंगधारी था लोक पासे थाज्ञा नपामावेडे एटले बलात्कारे पण स्नेहयी नहि ते श्रावक लोकने वश करीने पोतानां काम करावे ने एतो मोटो पराजेव कर्यो एम जाणवू.
टीका:-अयं गच्छमहाग्रहगृहीतःप्रत्यक्षोपसन्यमानोजनाश्राद्ध लोको नस्योतो नास्तितश्व पशुवत् वृषनादिरिव ॥ ...यथा रज्जुनियमितनासो वृषनादिर्यदृच्छया बाह्यते यत्रतत्र नी
यते तथा लोकोपि लिंगिवाह्यत्वेनोपचारानश्योत इत्युच्यते ॥
अर्थः-श्रा प्रत्यक्ष जणातो जन एटले श्रावक लोक ते ग. छनो जे मोटो आग्रह तेणे करीने ग्रहण थयेलो . श्रथवा गच्छ एज महा मोटो पुष्ट ग्रह तेणे गळी खीधेलो बे. केम जे नाके नायेस्रो बलद श्रादि पशुनी पेठे एटले जेम बलद आदि पशु नाके नाथीने बांधेदुं होय तेने ज्यां पोतानी इच्छामां आवे त्यां नार उपामावीने लश् जाय तेम लिंगधारीयो श्रा श्रावक रुपी बळदने पशुने गबनी ममतारुप नाके नाथ घालीने पोतानी श्राझारुप नार वहन करावीने पोतानी नजरमां आवे तेम फेरवे ने माटे नपचार यकी नाके नाथेला कहीष बीए...
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49 अब भी संघपटक
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टीका:-ननुपशुवप्रज्जुबद्धनाशतया अनिशमनवरतन तु सकृत् वारमेकं किलैवमपि कोपिवाह्यतापिाएतमुक्तं नवति। किल जननवर्जनक्रयणाधमर्णत्वप्राग्दर्शनबांधवत्व प्रेयस्त्वनीपनादिसंबंधैर्बलादपि जनो वाहयितुंपार्यते लोके तथाव्यवहार दर्शनात् ॥ लिंगिनिस्तूदितसंबंधानंतरेणापि यदेवं लोको वाह्यते तन्महापरिनव इति ॥
अर्थः-आशंका करीने कहे जे जे पशुनी पेठे नाके दोरां पांधीने निरंतर पण कोश्क काम करावे पण खरं केमजे खोकमां तेवो व्यवहार देखाय .जे कोइए उत्पन्न कर्यो होय, वृद्धि पमामयो होय, तेनुं करज कामयु होय, तेणे प्रथम दीगे होय, तेनो बांधव होय, तेनो वहालो होय, तेणे प्रसन्न कर्यो होय इत्यादि संबंधना बळबते तोकदापि पोतानी आज्ञानुं वहन करावq संनवे . लोक व्यवहारथी पण था तो लिंगधारीए पूर्वे कहेला संबंध विना पण जे श्रावक खोक पासे पोतानी आज्ञानुं वहन करावे ए तो मोटो पराजव देखाय . एटले मोटो अन्याय देखाय .
टीका:-ननूक्तसंबंधप्रतिबंधं विनापि सद्गुरुत्वेन तेषां मस्तितपशुवबोकाः कार्याणि निर्मापयिष्यते ॥ नानुपकृतपरहितरतानां गुरूणां धर्मदानोपकारस्य प्रत्युपकारः कर्तुं शक्यते।।
॥ यउक्तं ॥
नावाणुवत्तणं तह, सव्वपयत्तेण तेण कायव्वं, :: समत्तदायगाणं, उष्पमियारंजनपियं ॥
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मय श्री संघपट्टका
अर्थः-प्रथम वितर्क करीने आगळ विशेषणरुप समाधान आप डे माटे कहे जे जे पूर्वे संबंध कह्या ते विना ते लिंगधारीउने विषे सद्गुरुपणुं रघु ने तेणे करीने ते श्रावक लोक तेमनां कार्य करशे केम जे जेनो नपगार थइ शकतो नथी एवाने पारकुं हित करवामांज
आसक्त एवा गुरुनो जे धर्म दाननो उपगार तेनो प्रत्युपकार एटले तेनो बदलो वाळवाने कोइ समर्थ थतुं नथी. ते वात शास्त्रमा कही
जे माटे ते लिंगधारी गुरुनी आज्ञा माथे नपामी जोइए एम जो तुं कहेतो होय तो ते उपर विशेषणरुप समाधान आपीए बीए जे.
टीका:-अताह ॥ अत्यधमाधमै रिति॥ लोकलोकोत्तर गर्दिततमसाध्वी प्रतिसेवादेवऽव्यनकणसुविहितघातशासनोडा. हप्रभृतिभृरिपापकर्मनिर्माणादतिशयेनाधमेन्योपि हीन जाती. येन्योप्यधमै रही नैर्यमुक्तं ॥ संजप मिसेवाए देवदवस्तन क्खणेणंच॥इसिघाएपवयषुड्डाहे, बोहिधा निदंसियो॥श्रतः - कथमेषां सद्गुरुतया लोको वाहनीयो नविष्यति ॥
. अर्थः-एज हेतु माटे ते लिंगधारी गुरु केवा ने तो अधम करतां पण महा अधम एटले नीच करतां पण महा नीच केमजे लोकने लोकोत्तर तेमां अतिशय निंदित एवां जे साध्वीनी प्रतिसेवा करवी तथा देवाव्यतुं नदण कवू तथा सुविहितनो घात करवो, तथा शासनना उड्डाह करवो इत्यादिक जे घणां महा पाप कर्म तेने करवा थकी अतिशय अधम एवाहीन जातिवाळा पुरुषोते थकी पण प्रतिशय अधम महानीच एवा एलिंगधारी गुरु .जे माटे शास्त्रमांकपुंजे साध्वीनी प्रतिसेवा,देवभव्यतरुण,सुविहितनो घात, शास:
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(१०)
49 अथ श्री संघपट्टक
मनो नड्डाद एटलांवानां बोधिरतननां घात करनार कह्यांए हेतु माटे प.सिंगधारी ने सद्गुरुपणे लोक पासे पोतानी आज्ञानुं वहन कराव, क्याथी थाय! नज थाय एटले आज्ञा करवा योग्यज नथी..
. टीका:-अथैवंविधैरेनिः कथंतर्हि वाहयितुं लोकः पार्यते , अत शाह कृतमुनिव्याजैः ॥ प्रपंचचतुरतया विश्वासो त्पादनेन मुग्धजनस्य विप्रलित्तयारचितशांतरुपमासोपवास करपादिसुविहितबद्मतिः ॥ अयमर्थः ॥ एवमसमंजसकारिणोपि लिंगिनो विधेनहेतुतथाविधय तिरूपप्रदर्शनेन सुखकर पथप्ररूपणेन च सुखसुब्धान् मुग्धान प्रलोज्य यथेचं वादयंतीति।
अर्थः-हवे ए लिंगधारी ए प्रकारना डे त्यारे लोक पासे पोतानी आज्ञानुं वहन कराव, केम करी शके ने तो ए प्रकारनी आशंकाना उत्तर रुप विशेषण श्रापे , जे कयु मुनिपणानुं कपट ते जेमणे एवा.ए डे माटे एटसे प्रपंच करवामां जे पोतानुं चतुर. पणं तेणे करीनेनोळां माणसने विश्वास नपजावीने तेमने उगवानी इच्छाए उपरथी कयु डे शांत रुप ते जेमणे ने मासोपवास थादि जे सुविहितनुं आचरण तेनुं मिष जेमणे ग्रहण कयु डे एवा तेनो मा प्रगट श्रर्थ जे ए प्रकारना अति नमुआचरण करवामा महा कपटी ने तो पण लिंगधारी पणुं ते विश्वासन कारणले माटे ते प्रकार यतिरुपतुं देखामवं तेणे करीने तथा सुखे थाय एको मार्ग प्ररुपवो तेणे करीने सूखमां लोजायला एवा जोळा माणसोने लोनावीने जेम पोतानी नजरमां आवे तम पोतानी अाझा तेमनी पासे उपासावे .
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8. अथ श्री संघपटक टीकाः-यमुक्तं ॥ श्रवरें नियमिपहाणा पयमिवेसासियं :: षणं रूवं ॥ सुहबुखाजणवंचणेण कप्पिंति नियवित्तिं ॥
अमुमेवार्थ समर्थयितुं प्रकारांतरेण लोकवाहनप्रतिकारमसंजावयन् सविषादमनुगुणं वैधयेणार्थांतरन्यासमाह ॥
. 'अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही ने एज अर्थने समर्थ करवाने लोकने जे ए लिंगधारी उगे ले तेनो नपाय बीजे प्रकारे संजवतो जणातो नथी माटे ग्रंथकार खेदसहित जेने अनुसरतो गुण रह्यो ए प्रकारचें वैधर्मी दृष्टांते करीने अर्थांतर न्यास अखं. कारने कहे .
टीका:-नीराजकं ॥ विगतसहाज्ञैश्वर्यन्यायगोपायित . प्रजपुष्टशिदा शिष्टरक्षा विचक्षणपं किंराजसहितमपि नी . राजकमिव नीराजकमुच्यते हा इतिविषादे जगद्जुवनं ॥ न . ह्यन्यथोदितगुणन्नाजि राजनि बलाबोकवाहनं कर्तुं लच्यते ।। श्रयमाशयः ॥ यथा सगुणं राजानं विना तद्देशः प्रतिभूपमलिम्युचादिनिरुपज्यते एवं संप्रति प्रौढसातिशयबहुजनापेक्षपीयगणधरादिपुरुषसिंहविरहाविंगिनिरयं श्राद्धजनो वाह्यत इतिवृत्तार्थः ॥ १६ ॥
अर्थः जे श्रा जगत् हा इति खेदे राजा रहित होय ने शुं एम थयुं निधणीश्रातुं थयुः केमजे आज्ञाए सहित भैश्वर्यपणुं तथा न्याये करीने प्रजानुं रक्षण करवू तथा पुष्टनी शिक्षा करवी तथा साधु पुरुषनी रक्षा करवी तेमां चतुरा रुप जे राजापणुं तेणे
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( ३२२)
अथ श्री संघपट्टक
'
रहित आ जगत् थयु डे माटे आशंका करीने कहे जे जे राजा सहित एवं श्रा जगत् डे तेने राजा रहित होय ने शुं एम केम कहो बो तो ते उपर कहे जे जे श्रा लिंगधारीओ उगे डे ए मोटी खेद नरेली वात डे केमजे जो एम न.होय ने पूर्वे कहेला गुण सहित राजा होय तो बळाकारे लोक पासे पोतानी आझा मनावे जे ते केम थाय ? तेमां आ अतिप्राय डे के जेम पूर्वे कह्या एवा गुणवाळा राजा विना ते राजाना देश प्रत्ये शत्रु. तथा चोर इत्यादिक उपव करे ले तेम ा काळमां पण मोटाने अतिशये सहित एवा घणा , जनने अपेक्षा करवा योग्य एवा गणधर आदि पुरुषसिंहनो विरह ले ए हेतु माटे लिंगधारीओ श्रा श्रावक जनने उगे एटले पोताने मनमां श्रावें तेम प्ररुपणा करीने पोताना स्वार्थ साधवानी वात तेमना माथा उपर चमावीने नमावे ले ए प्रकारनो श्रा काव्यनो अर्थ थयो ॥ १६ ॥
टीकाः-अधुना लिंगिनो वैशसं दृष्ट्वापि कदाग्रहात्तत्प्रथित कापथादऽनिवृत्तमानान्मूढान्दिग्मूढत्वादिना विकल्पयन्नाह ॥
अर्थः-हवे लिंगधारीश्रोनी करेली प्रत्यक्ष हिंसा देखीने पण कदाग्रह थकी तेणे प्ररुषण करेलो जे निंदित मार्ग ते थकी निवृत्ति न पामेला एटले ते मार्गे चालता एवा मूढपुरुषोने दिग्मूढपणुं इत्यादिक दोष ले तेन विकल्प करता सता कहे .
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48 अथ श्री संघपटकं
(१२)
॥मूल काव्यम् ॥ किं दिग्मोहमिताः किमंधबधिराःकि योगचूर्णीकृताः किं दैवोपहताःकिमंग गिताः किंवा ग्रहावेशिताः ॥ कृत्वा मूर्ध्निपदं श्रुतस्य यदमी दृष्टोरुदोषाअपि । व्यावृत्तिं कुपथा ज्जमा न दधते सूर्यति चैतत्कृते ॥१७॥
टीकाः-किंशब्दाः सर्वेपि विकल्पार्थाः ॥ किममी जमा दिग्मोहःकुतश्चिददृष्टादिनिमित्तात् प्रांच्यादिदिनु प्रतीच्यादि जमस्तमिताः प्राप्ताः ॥ श्रयमर्थः।यथा दिग्मूढाः प्राची प्रतीचीत्वेनाध्यवस्यंतो लोकेन युक्त्या ज्ञापिततत्वाश्रपि तदध्य वसायान निर्वर्तत एवमतेपि विदिसकुपथदोषाअपि कुतोपि हेतोस्ततोऽनिवर्तमानास्तत्साम्यात्तथोच्यते ॥
अर्थः- काव्यमां सर्वे पण किं शब्द ले ते विकल्प अथने कहेनारा ले तेथी या प्रकारे अर्थ थयो, जे श्रा श्रावक लोक जम पुरुषे एटले ते कोइक कारणथकी : दिग्मूढ थयो के शुं एटले कोश्क श्रदृष्टादि कारणथकी पूर्वादि दिशाओने विषे पश्चिम आदि दिशाओनी ब्रांति थाय तेने दिग्मूढ कहीए. ते दिग्मूढपणाने श्रा जम पुरुषो पाम्या डे के शुं ? तेनो प्रगट अर्थ आले जे जेम दिग्मूढ पुरुष पूर्व दिशाने पश्चिम दिशारुपे निश्चय करे ले. तेने बीजा लोक युक्तिए करीने यथार्थ समजावे ले तोपण ते पोताना खोटा निश्चयथकी पाडो निवृत्ति पामतो नथी. एम श्रा जक पुरुषो
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( ३२४ )
43. अथ श्री संघपट्टकः
पण कुमार्गना दोष जाणे वे तोपण कोण जाणे कया कारण माटे ते की निवृत्ति पामता नथी. एटले ए लिंगधारी योना दोष देखे बे जाणे बे तेज पण तेनो त्याग करी शकता नथी माटे तेमने दिग्मूढ कहीए बीए.
टीका: किमंधानयनहीना बँधिराउपहतश्रवणाः अंधाश्च धिराचेतिः ॥ ते किमंधाः किं बधिराइत्यर्थः ॥ यथांधादृग्विकलत्वात्सम्यक्पंथानमजानानां श्रपथमपि सत्पथतयाऽवगम्य तत्रगच्छंतो हितैषिणा तत्वं ज्ञाप्यमाना श्रपि स्वग्रहान्न निवर्त्तते यथाच बधिराः श्रुतिविकलत्वादन कर्णयतो दुष्टवैतालिका दि वचो निंदार्थमपि स्तुत्यर्थतयावगम्य तद्दानादौ प्रवर्तमाना स्तत्वंबोधिता अपि स्वनिर्बंधान्न निवर्त्तते ॥ एवमिमेपि सदोषमपि कुपथं स्वगच्छादिग्रहान्निर्दोषतयावबुध्य ततोऽनिवर्त्तमाना स्तथोच्यते ॥ एवमुत्तरपदेष्वपि भावनीयं ॥
•
अर्थः- वळी ते जम पुरुषो शुं अांधळा बे अथवा बहेरा ए लिंगधारी खोने माने बे, केम जे जेम अंध पुरुष होय ते सारा मार्गने न जाणे ने कुमार्ग होय तेने पण सन्मार्ग पणे जाणीनेते मार्गे चालवा मांगे त्यारे कोइक हितेन्छु पुरुष तेने समजावे जे यात कुमार्ग बे, माटे या मार्गथी पाठो वळ. तो पण पोताना कदाग्रही पाठो वेळे नहि ने वळी जेम बहेरो होय तेने कान नथी
सांजळतो न हो ने तेनी यागळं 'कोइक पुष्ट लोक निंदा करे ते वचनने स्तुतिरुपे जाणीने तेने सरपाव आदिक यापवाने प्रवर्त्ते, त्यारे तेने कोइक यथार्थ वात समजावे जे या तो स्तुति नथी
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49. अथ श्री संघपट्टक
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(२९)
' करतो निंदा करे ने एम बोध करे तोपण पोताना कदाग्रह थकी न निवृत्ति पामे ॥ एम आ श्रावक लोको पण दोष सहित कुमार्ग ने पोताना गछना आग्रह थकी निर्दोषपणे जाणीने ते कुमार्ग थकी निवृत्तिने नथी पामता माटे तेमने आंधळा बहेरा कहीए बीए एम आगळ बीजां पदने विषे पण नावना करवी.
टीकाः-तथा किं वशीकरणादिहेतु रनेकाव्यमेलकः पाद प्रलेपादियोगः तादृगेव नयनांजनादिचूर्णयोगश्च चूर्ण ते विद्यते येषामितिविग्रहे तदस्यास्तीतीन्. ॥ श्रयोगचूर्णिनो योगचू. •णिनःकृताभ्योगचूर्णीकृता अभूततनावेच्विः मस्तकादिषु योग चूर्णदेबेण वशीकृता इत्यर्थः ॥ यथा केनापि धूर्नेन क्षिप्तयोग चूर्णाः पुमांस आत्मानो हितैषिणमपि तंहितैषितया मन्यमानाः केनापि तत्वं प्रतिपाद्यमाना अपि योगादिप्रनावेन तहचनकरणान निवर्तते तथैतेपि कुपथादिति पूर्ववत् ॥
___ अर्थः-वळी ते लिंगधारीश्रोए वशीकरणनी वस्तुवके श्रा · श्रावक लोक वश कर्या डे के शुं ? वशीकरण- कारणरुप जे अन्य। नो मेळाप जे पादप्रलेप आदिक तेने योग कहीए. नेते प्रकारर्नु जे नेलांजन आदिक तेने चूर्ण कहीए ते योगने चूर्ण ए बे वस्तुए सहित कर्या एटले मस्तका दिने विषे योग चूर्ण खेपवीने वश कर्या, एटलो अर्थ था जगाए व्याकरण विचार जे योग शब्द तथा चूर्ण शब्द ते बेनो इंछ समास करीने अस्त्यर्थने विषे इन् प्रत्यय खावीने अजूतं तनाव अर्थने विषे च्चि प्रत्यय लाववो,जेम कोश्क धर्त पुरुषे योग चूर्ण खेपवीने वा करेला पुरुष ते पोतानुं श्रहित करनार
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( ३२६ )
* अथ श्री संघपट्टकः
स्वो ए धूर्त पुरुष पोतानो हितकारी माने बे ने तेने कोइक यथार्थ बात कहे बे जे खातो तारुं जुंकुं करनार बे एनो संग त्याग कर. एम यथार्थ कनार मळे - तोपण ते योग चूर्णादिकना प्रजावधी त पुरुषं वचन त्याग करी शकतो नथी तेम या श्रावक लोक एम लिंगधारीना कुमार्गरुपी वशीकरणअकी बुटी शकता नथी इत्यादि पूर्वनी पेठे संबंध करवो.
टीका:- किं दैवेन प्रतिकूल विधिनोपहताः सद्बुद्धिवंश प्रापिताः ॥ तेहि विधिवशेन विपर्यस्तमतित्वादकृत्यमपि स्तेयादिकं कृत्यतया मन्वाना स्तत्वं प्रतिपाद्यमानाश्रपि दुर्दैवम- ' हिम्ना ततो न निवर्तते तथैतेपि किं अंगेति पा र्श्ववत्यांमंत्रणं किं गिताः मंत्रादिप्रयोगेण स्वायत्तीकृताः ॥
•
अर्थ:- वळी प्रतिकूल दैवे एटले विपरीत दृष्टे श्रावक लोकनी सारी बुद्धिनो नाश कर्यो ठे केधुं केमजे जेनुं प्रतिकूल दैव बेतेनी विपरीत मति ने ए हेतु माटे चोरी प्रमुख न करवानुं का
नेपण करवांप माने बे. तेने कोइक कहेनार मळे बे जे या काम करवा योग्य नथी एम यथार्थ कडे तोपण पुष्ट अदृष्टना महिमाये करीने ते चौर्यादिक कर्मथ| निवृत्ति नथी पामता. तेम ए श्रावक पण न करवानुं करे बे माटे एमनुं श्रदृष्ट वांकु ययुं के शुं ! अंग एप्र कारनुं पासे रहेलाने संबोधन थापे बे जे तमो वगाया बो के शुं ! एटले हे श्रावक लोको ए लिंगधारी नए मंत्रादि प्रयोगे करी ने तमने ग्गी बीधा ढें के शुं !
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49 अथ श्री संघपट्टकः --
(३२७)
तथाकृता
टीका :- यथा हि केचन केनापि दुर्मा त्रिकेण वशीकरण मंत्रेष स्तद्वचनमसमीचीनमप्यत्यंत समीचीनतयाऽभ्युप तस्त्वमवगमिताश्रपि मंत्रमहिम्ना न ततो निवर्तते एव मेसेपि ॥ किंचेति पक्षांतरे ग्रहैर्भूतादिभिरावेशिताः कृतावेशाविहितशरीराधिष्टाना इतियावत् ॥
•
अर्थ:-जेम कोइ इष्ट मांत्रिक पुरुषे कोइक वशीकरणना मंत्रे करीने तेवी रीते वश कर्यो होय जे तेनुं विपरीत वचन होय तेने पण सारुं करीने माने पढी तेने कोइ पुरुष यथार्थ समजावे तो पण ए मंत्रना महिमाए करोने तेथी निवृत्ति न पाने एटले ते खोटाने पण साधुं जाणीने काली रहे ए प्रकारे या श्रावकं लोक पस थया छे शुं !.
किंच - एंटलो अव्यय बीजा पहने कड़े बे के चळी भूतादिग्रहे प्रवेश कर्या बे के शुं एटले ए श्रावक लोकना शरीरनुं अधिष्टान करीने भूत वळग्यां बे के शुं ?
टीका :- यथा जूताद्यधिटिता स्तदावेशा द्विधेयापरिज्ञानेना विधेयमपि पितृप्रहारादिकं विदधाना स्ततो निवर्त्यमाना पिन निवर्त्तते एवमेतेपि सदसद्विवेक विकल तया कुपधान्न निवर्त्तत इति ॥ अत्रच दिम्मूढा दिबहुधा विकल्प प्रदर्शनमाधुनिक श्राकलोकानामत्यंता निवर्त्यस्वगवग्रस्तत्वज्ञापनार्थं ॥
अर्थः- केम जे जेना शरीरने जूतादि वळग्यां दोष तेमा
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(१२८)
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अथ श्री संघपट्टक
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श्रावेश थकी तेने या ते करवा योग्य बे के आते करवा योग्य नथी एवं ज्ञान नथी रहतुं माटे पिता दिकने पण प्रहार करवा मां त्यारे तेने कोइ तेनाथी निवृत्ति पमामवा जाय तोपण निवृति पामे नहि एम था श्रावक लोक पण सारा खोटाना विवेके रहित डे माटे,ते कुमार्गथकी नथी निवृत्ति पामता हवे श्रा काव्यमां घणा विकल्प देखाड्या तेनो अनिप्राय ए जे या काळना श्रावक लो. को अत्यंत जेमांथी निवृत्ति न पमाय एवो पोतानो गरुपी ग्रह तेणे. करीने गळाया एम जणाववाने अर्थे घणा विकदा कह्या बे.
.. टीकाः कृत्वा विधाय मूर्ध्नि शिरसिपदं पादश्रुतस्य सिद्धांतोक्तातिक्रमेण निःशंकतया स्वगुरुलिं गिप्रवर्त्तितासन्मार्गपोषणमेव श्रुतमूर्ध्नि पादकरणं श्रुतमूर्ध्नि पादच्यासे च तेषामिदं बीजं ॥ जगवसिद्धांतो हिनैकांतेनैव विहितानुष्टान विधिनिष्टश्त्यादि विवे किनां निःश्रेयसाय नविष्यति किं श्रुतेनेत्यंत लिंगिनिर्यमुक्तं मूलपूर्वपदे ॥ तस्योपदेशस्य सततं तत्सकाशे श्रवणमिति ॥ एतच्चायुक्तं ॥
.
- अर्थः-शुं करीने ए प्रकारना थया तो सिद्धांतना मस्तक उपर पग दश्ने केम जे सिद्धांतमा जे कयुं तेनुं निशंकपणे उदसंघन करवू ने पोताना जे लिंग धारी गुरु तेने प्रवर्ताव्यो जे असत् मार्ग तेनुं पोषण कर, एज सिद्धांतने माथे पग दीधो कहेवाय माटे तेमने सिद्धांतने माथे पग .दीधार्नु तो आ बीज ले. जे लगवत्नो सिद्धांत तो एकांतिकपणे कह्यो एवो, जे अनुष्टान विधि तेने विषे जतात्पर्य तेजेनुएवो नथी ए वचनथी भारतीने विवेकीओन मोद
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- अंथ श्री संघपट्टक
( १२९ )
जणी सिद्धांत थवे शुं ए वचन पर्यंत लिंगधारी ए. जे कयुं हतुं. मूल पूर्वपने विषे एटले पूर्वे ते उपदेशनुं ते लिंगधारीन पासे' निरंतर सांजळ एतो घणुंज प्रयुक्त बे.
टीकाः — यतः, नवि किंचीत्याद्यागमशकल स्येद मुतरार्द्ध ॥ एसा तोसें आणा, को सच्चे होयव मिति ॥ श्रस्य चायमर्थः ॥ एषा जगवता माज्ञा यत् कार्ये सत्येन जवितव्यं ॥ कोर्थः कार्यं ज्ञानादित्रयं ॥ सत्यंच संयमः ॥ यथा यथा ज्ञानादिकं संयमश्चोत्सर्पत स्तथातथा यतिना निर्मायं यतितव्यं ॥
अर्थः- जे हेतु माटे 'न विकिंची ' इत्यादि श्रागमनो ककमो लइने ए लिंगधारी बोले बे पण ते गाथानुं उत्तरार्द्ध तो श्रा प्रकार. बे जे 'एसा' इत्यादि एनो आ प्रकारनो अर्थ बे जे श्र भगवंती आज्ञा जे कार्यने विषे सत्यपणे थ. तेनो प्रगट अर्थ જે शो यो ? तो या प्रकारे थयो जे कार्य एटले करवा योग्य ज्ञानादि ने सत्य एटले संयम ते बेय जेम जेम वृद्धि पामे तेम तेम मायारहितपणे यति प्रयत्न करतो.
•
टीकाः - पदाह ॥ कज्जं नापाईयं, सच्चं पुण संजमो मुणे यो | जह जड़ सो हाइ थिरो, तहतह कायवयं कुणसु ॥ दोसा जेण निरुज्जंति, जण खिज्जंति पुव कम्माई ॥ सो सो मुरकोचा श्रो, रोगावच्छासु समव ॥
अर्थः- जे माटे ए वात शास्त्रमां कहीं बे जे ज्ञानादि त्रय
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अब श्री संघपटक
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एने कार्य कहीए ने वळी सत्य ते संयम जाणवो. ते बेय जेम जेम स्थिर थाय तेम तेम कार्य करवू. जेणे करीने दोष जाय ने जेणे करीने पूर्वे करेलां कर्म खपाय ते ते मोदनो उपाय जाणवो.
. टीका:-नयागमे सुखलिप्सया किंचित्सूत्रितं, किंतर्हि- . यावता विना संयमज्ञान दियात्रा नोत्सर्पति तावन्मात्रस्यैव . विहितनिवारणस्यनिवारितविधानस्य च नगवनिः पुष्टालंबनेन कादाचित्कतया तत्रानुज्ञानात् ॥
अर्थः-आगमने विषे सुखनी लालचे कांपण कर्जा नथी सारे शुं तो जेना विना संयम ज्ञानादियात्रा वृद्धि न पामे, तेटला विधिनो निषेध कह्यो ने निषेधनो विधि को ले नगवते पुष्टांलंबन जाणीने क्यारेक करवापणे तेनी आज्ञा आपी डे पण निरंतरपणे आपी नथी.
टीका-एवंचकथं श्रुतस्याव्यवस्था ॥ नवन्मार्गस्यचोद्देशिकन्नोजनादेः सर्वस्यापि सार्वदिकतया निस्तूंशत्वेन केबल सुखानुनवोदेशेनैव प्रवृत्तेः॥ तथाच तस्य महासावद्यत्वेन ज्ञानादियात्राह्रयमाणत्वात् कथं प्रामाएयमित्यहो अकलितगुण. दोष विनागः स्वपदानुरागः खलानां यनगवन्मतस्याव्यवस्थापादनेन स्वमतस्योत्कर्षप्रर्दशनं । नहितेजसः सकाशातू कदाचित् तमसउत्कर्षसंन्नव इति ॥
अर्थः ने जो विधिनो निषेध, निषेधनों विधि निरंतरपणे
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48 बप श्री संघपहा
. (३३१)
होय तो जगवत्ना मार्गनी तथा उद्देशिक जोजन इत्यादि सर्व व.स्तुनी व्यवस्था न रहे, केमजे सर्वने सार्वदिकपणुं थाय तेम निर्दयपणे केवळ पोताने जेम सुख नपजे तेमज प्रवर्तवार्नु रहेखें ए हेतु माटेवळी ते उद्देशिक नोजनादिकने महा सावधपणं के तेणे करीने झानादियात्रानी हानिपणुं तेमां रडं जे माटे केम प्रमाणिकपणुं कहेवाय ने आतो आश्चर्य हे जे खळ' पुरुषोने जेमां गुणदोषना विनाग नीकळता नथी एवा पोताना पदनो अनुराग ले जे माटे नगवंतना.मतनी अव्यवस्था संपादन करवी तेणे करीने पोताना मतनुं उत्कर्षपणुं देखामे डे पण ते एम नथी जाणता जे क्यारेय पण तेजना म्होंमा आगळ अंधकारनो नत्कर्ष संजवशे? नहिज संनवे. . टीकाः-किंच तीर्थंकरगणधरपूर्वधरा दिसातिशयमहापुरुषविरहे संप्रति तत्सिद्धांतएव नःप्रमाणं ॥ यदुक्तं ॥ नो पिडामो सव्वन्नुणो सयं न मणपजाव जिणाई ॥ नय चन्दस दसपुब्विप्पमुहे विस्सुयसुयहरे वि ॥ एवं पि अह्मसरणं ताणं चस्कू गइ पइवोय॥ जयवं सितोच्चिय,अविरुको श्ठ दिहिं।
अर्थः-वळीशुं तो तीर्थंकर गणधर श्रादिक जे महा अतिशय वाला पुरुष तेमनो विरह थये सते या काळमां तेमनां सि. द्धांत एज हमारे तो प्रमाण ले जे माटे ते शास्त्रमा कडं ले जे.
टीकाः-तस्य च प्रामाण्यानन्युपगमे तत्षणेतु जंग- . वतोप्याप्रामाण्यान्युपगमप्रसंगेन' नवतस्तन्मूलरजोहरणादि वेषपरित्यागापतिः॥
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(३२)
8. अयं श्री संघपट्टक
॥ यमुक्तं ॥
आणाएञ्चिय चरणं,तब्नंगे जाण किं न लग्गं तिाश्राणं च अश्कतों कस्साएसा कुणइ सेसं ॥
अर्थः-सिद्धांतनुं जो प्रमाणपणुं अंगिकार न करो तो तेना कहेनार जगवंतनुं पण प्रमाणपणुं न श्वानो प्रसंग थशे. तेणे क. रीने जगवंत ने मूल ते जेनुं एवो जे तारो रजोहरणादि धारण करेलो वेष तेनो परित्याग करवानी प्राप्ति थशे. एटले जो नगवंतनुं सिद्धांत नथी मानतो तो जगवंतनो कहेलो रजोहरणादि वेष तेने मूकी दे. जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे लगवंतनी आज्ञा एज निश्चे चारित्र , माटे ते आझा जागे सते शुं न लाग्यु ! सर्वे लाग्युं.
... टीका:-तथाचायं सुखाशया नवत्कल्पितः पंथाः सक. खोपि विशरारुता मापयेते त्यहोलानमिबोनी व्याअपि. व्ययः संवृत्तः॥ यदपि,रुग्विणः कल्यतां यांतीत्या विश्लोकबलेन स्वप्रकल्पितक्रियायाः सुकुमाराया मोक्षांगत्वसमर्थनं तदप्य . सुंदरं ॥ यत एत छलोकार्थ एव मागमे विधीयते ॥ मन । एवि किरियाए कालेणारोगयं जह नवेंति ॥ तहचेव न निव्वाणं जीवा सिद्धंत किरियाए ति॥अत्रहि सिद्धांतक्रियायाएव चिरंतनमुनिक्रियापेक्षया कोमलाया अपि निर्वाणांगत्वं प्रतिपाः दितं नतु त्वदनिप्रेतोत्सूत्र क्रियाजासस्य ॥
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अब श्री संघपह
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(३१)
-- अर्थः-वळी सुखनी श्राशाए जे करतुं तेणे करीने जगवते करेलो जे मार्ग ते सर्व नाश पामे माटे अहो श्रातो मोर्ट थाश्चर्य जे लाननी इछा करनारने मूळ धननो पण नाश थयों. तेम वळी जे पुर्वे तमे प्रतिपादन कर्यु जे रोगी पण सारा थाय त्यादि नावने कहेनार श्लोकनुं बळ लश्ने पोतानी कपोल कल्पित क्रिया सुकुमार ने एटले सुख समाधे थाय एवी . तेने मोकना अंगपणुं प्रतिपादन कर्यु ते पण शोजतुं नथी केमजे ते श्लोकनो अर्थ आगमने विषे या प्रकारनो कह्यो जे जे था जगाए सिद्धांतने विषे पूर्वना महंत मुनीनी क्रियानी अपेक्षाये जे सुकुमार क्रिया कहीले तेने मोक्षy अंगपणुं प्रतिपादन कयु ले तेणे करीने कां तारो मानेलो जे नत्सूत्र क्रियानास तेने मोदनुं अंगपणुं प्रतिपादन नपर प्रमाणे न थयुं.
टीकाः-श्रतो नवदनिमतक्रियाया उपदर्शितन्यायेन तविपर्ययप्रसाधनान्न तत्श्लोकबलेन. नवत्प्रकल्पितश्रुता प्रामाण्यसिद्धिः॥ एवंच लिंगदेशनया श्रुतस्य मूर्ध्नि पदकरणमसांप्रतमपि कृत्वा यदमी प्रत्यक्षगोचराः श्रावकजनाः सुदृढगबग्रहग्रंथयोदृष्टो रुदोषाअपि साक्षाकृतगुरुतरपूर्वोदित कुपथापराधा अपि ॥ अदृष्ट दोषाहि विवेकिनोपि कु पथादपि न निवर्तितुमीशते किं पुनरन्य इत्यपि शब्दार्थः ॥ ..
.... अर्थः-ए हेतु माटे तें मानेली जे क्रिया तेनो प्रथम देखा
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- ( ३३१ )
-48 जब भी संघपट्टकः
कयो जे न्याय तेथे करीने विपर्ययनुं साधन करवापतुं ने एटले तेमां माली जे क्रिया तेनुं खंकन करवापणुं बे ए हेतु माटे ए श्लोकना बळे करीने ते कल्पना करी जे सिद्धांतनुं श्रप्रमाणपणुं तेनी सिद्धि न थइ माटे लिंगधारी उनी देशनाए करीने सिद्धांतना मस्तक उपर पग मूकवो ते अघटित बे तोपा तेना करनारा जे श्रा प्रत्यक्ष जपाता श्रावक लोको बे ते अतिशय दृढ बंधाइ बे गन्ना ग्रहरूपी ग्रंथी ते जेमने एवा बे माटे ते लिंगधारीनुना प्रत्यक्ष घणाक दोष देखे बे ने वळी साक्षात् अतिशय मोटा पूर्वे का बे कुमार्गमां प्रवर्त्तवारुप अपराध ते जेमना एवा बे तोपणं कोइक अदृष्टना दोषे करीने जे विवेकी छे ते पण कुमार्गमांथी निवृत्ति पामवाने समर्थ यता नथी तो बीजा विवेक कुमार्गथकी निवृत्ति पामवाने कयां थी। समर्थ याय एम पि शब्दनो अर्थ बे.
-
•
टीकाः — व्यावृत्तिमपसरणं कुपथात् अधिकृतात् कुमार्गात् जमाः स्वं हिताहित विवेकशून्याः नदधते न चेतसि धारयंति न कुर्वतीत्यर्थः नकेवलं व्यावृत्तिं स्वयं न दधते श्रसूयंति चइति सगुणे दोषमारोपयंती तियावत् चः समुच्चये एतां कुंपथव्यावृत्तिं करोति एतत्कृत् तस्मै ॥ कुधडुहेष्येत्या दिना च'तुर्थी ॥ महासत्वाय कस्मैचित्कुपथव्यावृत्तिविधायिने ॥
अर्थः- जे पोतानुं हित ने श्रदितनो जे विवेक तेथे करीने शून्य एवा जमपुरुषो कुमार्ग थकी निवृत्ति पामवाने विचार पण करता नथी एटलो अर्थ बे. केवळ एटलुंज नथी करता त्यारे शुं तो इर्ष्या पण करे बे पटले गुणवानने विषे घोषनो धारोप
•
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- जय श्री संघपट्टकः
करे बे. चकार अव्यय बे तेनो समुच्चय रुपी अर्थ बे. तेथे करीने म यो जे ए कुमार्गथकी निवृत्ति पामनार कोइक महासस्ववंत प्राणी ते प्रत्ये उलटा इर्ष्या करे बे. व्याकरण विचार जे म हासत्वाय ए जगाए 'कुध दुहेर्ष्या' ए सूत्रे करीने चतुर्थी किनती बे.
थइ
(334)
:
टीकाः - अत्रचोलरवाक्यार्थगतत्वेन प्रयुज्यमानो यच्छव्दस्तच्छब्दोपादानं विनापि तदर्थंग मियति ॥ यथा ॥ साधु चंद्रमसि पुष्करैः कृतं, मीलितं यदभिरामताधिकं ' इति ॥ तेनायमर्थः ॥ तेषां हि दृष्ट दोषत्वात् कुपथात्तावत्स्वयं व्यावृत्तिः क
युक्ता । श्रथ कुतो पिहेतोः स्वयं न व्यावर्तते तदा तद्व्यावृत्ति कारिणि प्रमोदो विधातुं संगतः ॥ यत्पुनरमी द्वयमध्यादेकमपिकर्तृ नोत्सहते प्रत्युत कुपथ निवृत्तिविधायिनि कस्मिन्नपि - तुझोपड़वाय यतंते तत्किममी दिग्मोमिता इत्यादि योज्यं ॥ तेनैतटुक्तं जवति ॥ दिग्मूढादयो हि हितैषिणा व्यावर्त्तमाना श्रपि दिग्मोहादेव्यवृत्ति मालमेवन कुर्वति ॥ एते तुनकेवल कुपथान्न व्यावर्तते यावताकुपथव्यावृत्तिकारिणे ऽसूयंत्यपीति तेज्योप्यमी कुत्सिताइति वृतार्थः ॥ १७ ॥
•
अर्थः - श्रा जगाए उत्तर वाक्यार्थमां रहेलो जे यत् शब्द से तत् शब्दनुं ग्रहण कर्या विना पण तेनो अर्थ पमाने बे जेम सारो चंद्रमा नदय पामे सते जे कमल मीचायां ते शेोजानुं अधि क पणुं कथुं बे ते हेतु माटे या अर्थ थयो जे पोते दोष दीठा माटे पोतानी- मेळे ज कुमार्गथी निवृत्ति पामनुं जोइए ए युक्त के ने
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(१६)
अथ श्री संघपट्टक
वाळी कोइ कारणे पोतानी मेळे ते कुमार्गथी पाहुं न वळाय त्यारे जे पुरुष ए कुमार्गथी पाठा वळ्या होय ते उपर प्रमोद करवो घटित बेवळी या श्रावक तो ए बेमांथ एके पण करवानो उत्साह नथी करता. नलटो जें कुमार्गथी कोइक निवृत्ति पामे ठे तेना उपर पण क्रुद्र उपद्रव करवानो प्रयत्न करे बे ते माटे या ते शुं दिग्मोह पाम्या के शुं थयुं वे इत्यादि योजना करवी तेो करीने या स्पष्टार्थ को बे जे दिग्मोह पामेला जे पुरुष ते निचे हितकारी पुरुषे तेथ निवृत्ति पमावा मांड्या ने तोपण ते दिग्मोहादिकथीजं के• वळ निवृत्ति नथी पामता ने या तो केवळ कुमार्गथी निवृत्ति नयी पामता एटलुंज नहि त्यारे शुं तो जे ए कुमार्गथी निवृत्तिं पामे बे ते पर उलटा इर्ष्या करे ढें माटे ते दिग्मूढ थंकी पण तो • - तिशे निंद्य बे. भूमा बे. ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो || १ ||
टीका: - सांप्रतलिं गिदेशनया श्राद्धैरविधिविहितस्य जि. नमजनस्यापि दुर्गतिपातहेतुत्वप्रतिपादन द्वारेणश्रुतपथावज्ञां दर्शयन्नाह ॥
अर्थः- हवे लिंगधारीनी देशनाये करीने श्रावक लोको विधि रहित जे जिनमज्जन उत्सव करे बे तेपण डुगर्तिमां परुवानुं कारण छे एम प्रतिपादन करनार द्वार करीने सिद्धांत मार्गनी श्रवा देखाता सता कड़े बे.
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अथ श्री संघपट्टा
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(३३७).
www
॥मूल काव्यम् ॥
श्ष्टावाप्तितुष्टबिटनटनटचेटकपेटकाकुवं निधुवनविधिनिबद्धदोहदनरनारीनिकरसंकुलं ॥ रागोषमत्सेरयाघनमघपंकेथनिमज्जनं जनयत्येवचमूढजनविदितमविधिनाजैनमज्जनं ॥ १० ॥ • टीका: जैनमजानं जगवहिबस्नात्रं कर्तृ जनयत्येव संपादयत्येव नतु कदाचिन्न जनयत्येवकारार्थः ॥ अघपके पापकर्दमे निमनं जुनं कर्म तत्कर्तृणामितिशेषः ॥ अथ कथं पुण्यायः विधीयमानं जिनस्नात्रं पापपंकनिमऊनाय प्रजवतीत्या तयाह॥
अर्थः-जे नगवत्विंबनुं स्नात्र तेज पापरुपी कादव प्रत्ये बुमामे बे एम अर्थ जणावनार एवकारनो अर्थ , ते कोने बुझाके । ने तो जे स्नात्र करे ने तेने एम कर्तृपदशेष उपरथी लेवु त्यारे हवे अहीं आशंका करीने कहे जे जे पुण्यने अर्थे कर्यु ने जिन स्नात्र ते पापकादवमां बुमामवाने केम समर्थ थाय ? तो तेनो - नत्तर कहे जे जे.
टीका:-अविधिना सिद्धांतोक्तक्रमविपर्ययेण प्राक्तन विशेषणान्यथानुपपत्या रात्रावित्यर्थः॥ सिद्धांते हिरजन्यां जिन स्नानं निवारितमतस्तत्र तत्कुर्वतां कथं न पातकमित्यर्थः॥
ya
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(३३८) .
अथ श्री संघपट्टका
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अथ के दोषमजिप्रेत्य सिद्धांते रात्रिस्नात्र निवारण मिति दोषप्रदर्शनाय हेतुगर्न विशेषणत्रयं मज्जनस्याह ॥
अर्थः-विधिरहित एटले सिद्धांतमा जे अनुक्रम कह्यो तेथी विपरीत पूर्वे कहेलां विशेषणने सार्थक करवाने रात्रिने विषे स्नात्र करे ने एटलो अर्थ थयो.. विधि रहित ने रात्रि विषे जे प. रमात्मानुं स्नान करवू ते पूर्वे कयु ए प्रकारनुं जे. एटले सिद्धांतने विषे रात्रिमा जिननुं स्नान निवारण कर्यु डे ए हेतु माटे रात्रिने विषे स्नात्र करनारने केम पाप न होय एटलो अर्थ ने. हवे शो दोष अंगिकार करीने सिद्धांतमां रात्रिने विषे स्नात्र करवानुं निवारण कर्यु ले ए दोष देखामवाने हेतुर्जित ए स्नात्रनां प्रण विशेषण कहे .
टीकाः-श्ष्टावाप्ति इत्यादिः॥ श्ष्टाया वहनाया मज्जन दर्शनमिषेणागताया अवाप्ति मेलकस्तया तुष्टा निःशंकमत्रा
द्य नः सुरतलीला प्रवर्त्यतीतिधिया मुदिता विटा वेश्यापतयः . नटा नाटकालिनयनादिकलोपजीविनः नटाः शस्त्रादिकलाजीविनः नेटका मासादिनियमितवृत्तिग्राहिणः एषां पेटकं समुदाय स्तनाकुलं दुनितं प्रेयस्वीप्राप्त्या सात्विकन्नावेनाकुलीकृत विटादिजना कीर्णत्वात् मज्जनमप्युपचारादाकुलं ॥ ..
. अर्थः जे ए स्नात्र के, जे जेमा पोताने वबन्न एवी जे स्त्री तेनी प्राप्ति थाय एटले स्नात्र देखवानुं मिष करीने आवेली जे पोतानी वांबित स्त्री तेनो समागम तेणे करीने राजी ययेला
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-49. अथ श्री संघपट्टक
( ३३९ )
एटले आज शंका रहित आपणी संजोग लीला प्रवर्त्तशे ए. प्रकारनी बुद्धिवते हर्ष पामेला जे विट कहेतां वेश्यापति, तथा नट कतां नाटक यादि कळाव आजीविका करनार पुरुषो तथा जट कतां शास्त्रादिक कळाव श्राजीविका करनारा तथा चेटक कहेतां महिने महिने अथवा वर्षे जे जे पोतानी नियमाये याजी विका बांधी बेनुं ग्रहण करनारा एवा जे पुरुषो तेनो जे समुदाय तेणे करीने दोन पामेलुं एवं स्नात्र बे एटले वांछित स्त्रीनी प्राप्ति थ ते रुप शृंगार रसनो हेतु भूत सात्विक नाम श्रव्यभिचारी एटले शृंगारनी पुष्टीनो कारणयोग तेथे करीने याकुल व्याकुल थयेला जे लोक तेथे करीने व्याप्त थयेलुं बे माटे ए स्नात्र पण उपचारथी श्राकुल थंयुं एम कहेवाय.
टीका:- तथा निधुवनविधिनिबद्धदोहदा मोहनविलसित विहिता जिलाषा ः या नरनार्यः पुरुषयोषित स्तासां निकरेण निचमेन संकुलं व्याप्तं ॥ नारीणां हि प्रायोनिधुवनार्थमेव म ज्जनावलोकनद्मना तत्रागमनात् ॥ तथाविधव्याजमंतरेण रात्रौ तत्राप्यागमनासंजवात् ॥ तथाविधव्याजेन चान्यत्र गंतु मशक्तत्वात् ॥
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अर्थ:-वळी ए स्नात्र केवुं बे जे जेमणे मैथुन विलास कवानी अभिलाषा बांधी ने एवी स्त्री ने पुरुष तेमनो जे समूह तेथे करीने व्याप्त एवं एटले बहुधा स्त्रीनने मैथुनने अर्थेज स्नात्र जो वाना कपटे करीने त्यां श्रावतुं थाय बे. ए हेतु माटे केमजे ते प्रकारनं कपट कर्या विना रात्रिने विषे त्यां यावतुं संजवतुं नथी. ने
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अब भी संघटक
ते प्रकार- कपट करीने बीजी जगाए पण जवा समर्थन थायमाटे.
... टीकाः-श्रतएवरागः कांचित् परवर वर्णिनीं प्रत्यनिगः देषः स्वप्रेयसीमन्येन सह संगच्छमानां पश्यतस्तजियांसा मस्सरः किंचित्सौलाग्येन कयाचित्संघट्टमानमालोकयतः स्वयंच तां कामयमानस्य तत्सौन्नाग्य विच्या विषा, ईर्ष्या स्विवचनामन्येन साऊं संलपंतीमीक्षमाणस्याऽसहिष्णुता ॥ ततो रागश्चेत्यादिः ॥ तानिर्घनं सांडं ॥ अत्रापि रागादिमौकघनखान्मजनमप्युपचारात्तथा ॥
• अर्थः-एज कारण माटे राग एटले कोश्क पारकी स्त्री प्रत्ये अति आसक्ति, ने शेष एटले पोतानी वहाली स्त्री बीजा पुरुष संघाथे संगम करती देखीने ते पुरुषने हणवानी श्वा करवी ते, तथा मत्सर एटले कोश्क पुरुषे कोइक स्त्रीनी कामना करेली एटले प्रथम वाच्छा करेली ते स्त्री ते विना ते करतां अधिक सुंदर बीजो पुरुष मळ्यो तेनी संघाचे संघटन करती ते स्त्रीने प्रथमना पुरुष देखी पड़ी जेनी साथे संघटन करे ले ते पुरुषना सौलाग्यपपानो नाश करवो तेनी जे इच्छा ते, तथा इर्ष्या एटले पोतानी व. ब्रज स्त्री बीजानी संघाथे आलाप संलाप करती देखीने जे असइनपj थाय ते सर्वे करीने ए स्नात्र अतिशे व्याप्त जे. रागादि पदजो समास करवो. श्रा जगाए पण रागादि सहित पणा मेक ए प्रकारवा ठे पण नपचारथी ते प्रकारचें स्नात्र कषु.
टीका:-कामुक्कलोकमेलकेहि जिनरहेपि निशायां रागा
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अब श्री संघाहक
?
व्यएबोज्जंनंते नत्वणीयस्यपि धर्मनावना ॥ तदुक्तं ॥ प्रा. रब्धे जिनबिंबमजन विधौ मुग्धै निशि श्रावकैः, श्रेयोर्थं जिनमदिरे समुदिताश्चित्रं रिरंसास्पृशः ॥ स्त्रीपुंसा रनसाउपात्तसमयास्तांबूलबिंबांधरा, गाढालिंगननंगिसंगमसुखं विदंति नंदंतिच॥
अर्थः- रात्रिए जिनघरने विषे कामि लोकनो मेलाको थाय तेमां रागादिकज उत्पन्न थाय पण अतिशय थोमी पण धर्मनीला. वना तो नत्पन्न थायज नहि ते शास्त्रमा कयु डे जे रात्रिये जिनमं. दिरमा श्रावक लोके स्नात्र विधि श्रेयने अर्थे आरंन्यो जे एम जे कहे ते तो महा आश्चर्यकारी , केमजे क्रीमा करवानी इच्छाए वेगे करीने नेळां थयां जे स्त्री पुरुष ते ए समय पामीने तांबूल जक्षण करवाथी लाल होउ जेमना थया ले ने परस्पर थालिंगननी स्वनावते संगमनुं सुख अनुजव करे ने अने आनंद पामे .
टीकाः-एतमुक्तं नवति जिनस्नपनं हि स्वस्य परेषांचष्ट्रणांरागलेषांदिक्षयाय विधीयते॥ निशायांतद्विधानेच कामुका- . नांसुरताद्यसमंजसप्रवृत्याऽप्रतिहतप्रसरस्तत्प्राउ व इति कथं तक्षाय विधायिता तस्य स्यात् ॥
अर्थः-ए वात कही डे जे जिन परमात्मानं स्नात्र ते पो. ताने तथा परने तथा देखनारने राग द्वेषना क्षयने अर्थे करीए बीए ने रात्रिए ते करे सते तो कामी पुरुषनी संजोगादिक लुमी प्रवृत्ति रोकाश् शकाय एवी नथी माटे ते जिन स्नात्र रागषनुं नाश करनार केम थाय ? उलटुं रागद्वेषनी करनार .
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(R) -
अव श्री संघपट्टका है
.. टीकाः-अथास्तु नटविटादीनां तत्यापुर्जावः किनश्चिन्न। नह्येतावतापि श्राकानां श्रध्या स्नात्रं विदधानानां तजन्यपुएयहानिरितिचेन्न ॥ तेषां तत्मापुनीवस्यसुरतादिवशप्रापुष्यन्नगवदाशातनायाश्चानंतसंसारकारिएया रात्रिस्नात्रकारिश्रावक निबंधनत्वात् ॥ मजनव्याजमंतरेण निशीथिन्यां तेषां रतार्थ• मपि प्रायेण जिननवनागमनासंनवात् ॥ एवंच नटादिरागादि
वृकिनिमित्तन्नावमासेषां श्रावकाणां कथं न मजनजन्यपु. एयनाशः ॥
अर्थः-हवे तुं एम कहेतो होय जे एतो नटविटादिक 'कामी पुरुषोनी एवी प्रवृत्ति थाय ने तेमां श्रमारं शुं गयुं? हमारु शं.दायुं ? एणे करीने जे श्रावके स्नान करनार श्रावक लोकोने ए स्नात्र थकी थयुं जे पुण्य तेनी हानी थती नथी. एम तारे न कहे, केम जे तेनो नत्तर कहीए बीए जे ते कामी पुरुषोनी जूमी प्रवृत्तिनी उत्पत्ति थवी तेनुं कारण ते रात्रि स्नात्र करनार श्रावक हे ए हेतु माटे ने ते कामी पुरुषो संजोगादिकने विषे परवश थाय ने ते थकी उत्पन्न यश् जे जगवंतनी आशातना तेने अनंत संसारकारणपणुं . माटे रात्रि स्नान करनार ए सर्वेनो कारणिक थयों ए हेतु माटे केम जे रात्रिए स्नात्रना मिष विना तेमनुं संजोगने अर्थे पण बहुधा जिनमंदिरमा आववानो संजव नथी ए हेतु माटे नटादिक पुरुषोनी रागादिकनी वृद्धि निमित्त कारणने पमामनार श्रावक लोकने एस्नात्र थकी केम पुण्यनो नाश न थाय एतो थायज.
टीकाः-किंच नटाद्यसमंजसप्रवृत्तिदर्शनेन श्राझानामप्य
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अथ श्री संघपट्टका
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(३५)
‘विवेकिनां केषांचिदिदानी जिनगृहे तथा प्रवृत्र्युपलंजात् ॥त.
एकेण कंयमकांकरे तप्पच्चया पुणो अन्नो।साया बहुलपरंपखुच्छेन संयमतवाणं ॥
अर्थः-वळी नटादिकनी जूंमी प्रवृत्ति देखवे करीने अविवेकी केटलाक श्रावकने पण या काळमां जिनमंदिरमां ते प्रकारनी मी प्रवृत्ति करवानुं देखीए बीए हे हेतु माटे ते वात शा. स्त्रमा कही जे जे.
टीकाः–तथाच तेषां कथं मऊनादिजन्यपुण्यगंधोपीति चिंत्यतां सूदमधिया ॥ लगवनिः श्रीजिनदत्तसूरिजिरप्येनं दोषसमूहं रात्रिस्नात्रस्योपलन्य प्रतिपादितं ॥जा रत्ती जारती मिह र जण जिणवरगिहेवि॥सा रयणी रयणियरस्स होनकह नीरयाण मया ॥
पा ।।
अर्थः-वळी तमे सूक्ष्म बुद्धि करीने विचारो जे ते पुरुषोने स्नात्र श्रादिक थकी थयुं जे पुण्य तेनो गंध पण क्याथी होय नज होय, समर्थ एवा श्री जिनदत्त सूरि तेमणे पण ए रात्रि स्नात्रनो दोष लश्ने निषेध प्रतिपादन कर्यु डे जे.
टीकाः-अह्नि जिनमज्जन विधानेच नोक्तदोषले शस्यापि संजवः॥ जनसमदं दिवा तथाप्रवृत्तेर्लज्जनीयत्वेन राजनिप्रहलयेनच प्रायेणासंजवात् ॥ तस्मादिनएव जिनस्नात्रं धर्मार्थिनां विधिप्रवणानां श्रेयो न निशायामिति ॥
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अथ श्री संघपटक :
अर्थ:-दिक्सने विषे जिन स्नात्र विधि करे सते तो पूर्वे . कहेला दोषनो लेश पण संजवतो नथी केमजे दिवसने विष लोकनी समद ते प्रकारनी प्रवृत्तिवाळाने लज्जा पामवापणुंडे ए हेतु माटे तथा राज दंग नो लय डे ए हेतु माटे बहुधा ए वातनो संनव नथी. धर्मना अर्थी एवा ने विधि विषे तत्पर एवा प्राणीने दिवसमां ज जिनस्नात्र करवू एज श्रेय नणी पण रात्रिने विषे जे स्नात्र कर ते. श्रेय जणी नथी एतो दोष नणीज बे..
टीकाः-अत्र यद्यपीष्टावाप्तीत्यादि विशेषणंकदंबकं जिनगृहस्यैव संजवति न मज्जनस्य तथापि मज्जने सति तस्यैवं विधत्वमितिमज्जनस्य प्राधान्येन विवक्षणा उपचारेणमज्जनमप्येवं विशेषणानां चान्यत्र निवेशने विशेषण विशिष्ठ मुक्तमिति अन्य रात्रिमज्जनस्यात्यंतदोषतया सर्वथा निवार्यत्वंव्यज्यते।
अर्थः-श्रा जगाए जो पण इष्टावाप्ती एटले वडज व. स्तुनी प्राप्ती. इत्यादि विशेषणनो समूह ते तो जिनमंदिरनुज सं. नवे ले पण स्नात्रनो संनवतो नथी तोपण जिन स्नात्र सतेज ते जिनमंदिर ए प्रकारे थाय माटे स्नात्रनुं अहिं प्राधान्यपणे कहे. वानी श्याने तेथी उपचार मात्रे करीने स्नात्र पण ए प्रकारना वि. शेषणे सहित एम कह्यु. केमजे अन्य विशेषणर्नु अन्य जगाए स्थापन करे सते रात्रि स्नातने अत्यंत दोषपणे करीने सर्वथा निवारण करवापणुं २ एम सूचना करी.
टीकाः-एतेन यदपि कैश्चिदनिधीयतेरात्रिस्नाऽपि जग
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. 49. अथ श्री संघपट्टक
(३४) वतोन कश्चिदोषः जिनजन्ममजनस्य शक्रेण तथाविधानात् ॥ . तथाहि सर्वविजिनेडा निशीथिनीयामध्यसमयएव जायतेतदै. वच सुरेंजश्चामीकर गिरिशिखरं नीत्वा तान स्नपयतीतिश्रूयते ॥
तस्यच तथासदोषत्वे शक्रस्तथा न तत् कुर्वीत ॥महताह्यन्यथा.. करणेतलोचनत्वात्तत्पथानुवर्तिनीनां प्रजानां दुर्गतिपाते नतेषां
महाहान्यापत्तेः॥ . अर्थः-जो पण केटलाक एम कहे ले जे रात्रि स्नान जगवतनुं करे सते पण दोष नथी केमजे इंजमहाराजे जिन जगवंतनुं जन्मस्नान रात्रिए कर्यु . ए हेतु माटे तेज देखा ले जे सर्वे पण जिने रात्रिना बे पहोर समयमां एटले मध्य रात्रिये जन्मे २ त्यारेज इंज महाराज मेरु पर्वतना शिखरं उपर लइ जश्ने ते जिन परमात्माने स्नान करावे . एम सिकांतमां सांजळीए बीए माटे रात्रि स्नान करतां तेज प्रकारनो दोष होत तो तेम इंज महाराज न करत. शाथी जे मोटा पुरुष अन्यथा आचरण करे एटले विपरीत आचरण करे तो तेमना मार्गने अनुसरती जे प्रजा तेमने तो . ते मोटा पुरुष एज नेत्र . एटले मोटा पुरुषनी आचरण - माणे आचरण करवु एमज देखे जे एटले जाणे २ ए हेतु माटे ते प्रजाने फुगतिमां. पम थाय तेणे करीने ते मोटा पुरुषने मोटी हाण प्राप्त थाय ए हेतु माटे ए रात्रि स्नान करवामां दोष नथी.
टीकाः-स्नात्रादिविधाविंशाचरितस्य सर्वैरपि जिनपथ वर्तिन्निःप्रामाण्योपगमात् ॥ ॥ यमुक्तं ॥
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( २४६ )
48 अथ श्री संघपट्टक
तित्थयरे बहुमाणो, अन्नासो तढ्य जीयकप्पस्स ॥ देविंदा गिर, गंजीरपलोयणा लोए ॥ ·
अर्थः- स्नात्रादिक विधि विधे इंडना आचरणनुं जिनमा - र्गमां वरतनार पुरुषोए प्रमाणपणे अंगिकार कर्यु बे ए हेतु माहे a.
•
टीकाः - तस्मादिंद्राचरितस्यप्रामाएया निशायामपि स्नपनं विधातव्यमिति तदपास्तं ॥ शक्रो जिनजन्ममनं मेरौ - करोतीति मन्यामहे ॥ नतु यामिनीयामद्वितयइति ॥ मेरु शिखरे सूर्योदयास्तमयानावेनरात्रिं दिवव्यवहाराजांवात् ॥
अर्थः- ते देतु माटे इंडनुं जे श्राचरण तेनुं प्रमाणपणुं ठे माटे रात्रिए पण स्नान विधि कराववो, एम जे कहे बे ते मत पल खंकन कर्यो शाथी के इंद्र जिनजगवंतनुं जन्म स्नान मेरु पर्वतने विषे करे बे एम मानीए बीए पण रात्रिना बे पड़ोर थये सते एम नभी मानता केम जे मेरुपर्वतने विषे सूर्यनो उदय ने सूर्यनो अस्ततेनो श्राव बे ए हेतु माटे त्यां रात्रि दिवस एवो व्यवहार नथी.
टीकाः - तथाहि ॥ प्रत्यस्तमितै तत्क्षेत्रवर्त्ति दिनकर किरण निकारः काल विशेषो हि रात्रिरित्युच्यते तद्विपरीतश्च दिन मिति ॥ मेर्वपेक्षया खेरत्यंतनी चैर्वा हितत्वेन किरणानां चोपरिष्टां तथात्रसरानावेनाधस्तननागस्यैवतत्प्रकाश विषयत्वात्तथाच कथं तत्र रात्रिं दिव विभागः स्यात् ॥
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अब भी संघषका
(१४७)
अर्थः तेज देखा जे जे क्षेत्रमा रह्यो जे सूर्य तेना किरणनो समूह श्राथमे सते जे काळ विशेष ते क्षेत्रने विषेरात्रिकही. ये, ने ते थकी जे विपरीत काळ विशेष ते दिवस कहीए ने मेरु पर्वतनी अपेक्षाए अत्यंत नीचो गमन करतो एवो सूर्य जे ए हेतु माटे किरणनो नपर तथाविध पसार थतो नथी. एतो हेग्ला नाग. नेज ते किरणवमे प्रकाश करवानो विषय ए हेतु माटे रात्रि दिवस नो विजाग त्यां कये प्रकारे ले ? को प्रकारे नथी..
टीकाः-कथं तर्हि प्रकाशाजावेत आणां जिनमऊनादि विधिरितिचेन्न ॥ रत्नसानोरधित्यकायाश्रतापकेन निरस्तपूषमयूखद्योतेन सततमुञ्चरता बहल विमलमाणिक्यशिलामरीचि निचयेन देवमहिम्ना च शश्वघ्नास्वरत्वात् ॥ एवंचेंजाचरितावष्टं नेन कथं रात्रिस्नात्रं समर्थ्यमाणं चारिमाणमंचेत् ॥
अर्थः-त्यारे त्यां सूर्यनो प्रकाश नथी त्यारे इं जिन स्नाननो विधि कये प्रकारे करे जे एम जो तुं श्राशंका करतो होय तो ते न करवी केम जे रत्ननां ले शिखर ते जेनां एवा मेरु पर्वतनी नपली भूमिने विषे ताप रहित ने जेमां सूर्यना किरणनो प्रकाश नथी ने निरंतर अतिशय देदीप्यमान एवी जे घणी निर्मळ मापीक्य रत्ननी शिलान तेमना किरणनो जे समूह तेणे करीने ते वळी देवताना महिमाए करीने निरंतर अतिशय देदीप्यमानपंणुं ने ए हेतु माटे ए प्रकारे इंजना आचरणर्नु आलंबन करीन जे रात्रिस्नात्रनुं समर्थन करतुं एटले स्थापq ते केम अतिशय शोजा प्रत्ये पामशे नहिज पामे :
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(३८)
अक श्री संघपट्टका
टीका:-श्तोपि न रात्रिस्नानं पुण्यपात्रं ॥ जगवत्प्रतिकृ. तिपातुकसलिलपूरप्लाव्यमानस्य पिपीलीकादिजंतु संतानस्य . रक्षायतनाया रात्रौ पुःशकत्वात् ,तत्प्रधानत्वाञ्च जिनशासनस्य॥ ॥ यमुक्तं ॥ 'जयणाय धम्म जणणी,जयणा धम्मस्स पालपणीचेव ॥ तबुष्टिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥
अर्थः-वळी हेतु माटे पण रात्रि स्नात्र जे ते पुण्यने रहे. वार्नु पात्र नथी, एटले रात्रिस्नात्र थकी पुण्य यतुं नथी.जे जगवाननी प्रतिमा नपर पमतो जे जळनो समूह तेणे करीने खेंचातो ज़े कीमी श्रादिक जंतुनो समूह तेनी रक्षा जतना तेनुं रात्रिये करवं ते महा पुष्कर ने एटले थश्शकतुं नथी ने जिनशासनतो जतनाप्रधान डे ए हेतु माटे ते शास्त्रमा कडं ने जे जतना ले ते धर्मनी नत्पत्ति करनारी ने जतना ते धर्मनी पालन करावनारी ३ माटे एकांत सुख करनारी जतना डे इत्यादि.
.. टीकाः-किंच मानूहबब्देन सत्वसंहारकारिणां गृह गोधिकादिनां क्रूरजंतूना मुत्थानमिति प्रानातिकं प्रतिक्रमण मपि साधूनां मृङखरेणा निहितमागमे ॥ यामिन्यां च ... मजन्नादिविधौ निरंतरगंजीरोडरवाद्यमानातोद्यनिनादश्रवणेन बिलातमिति मन्यमानस्य तप्तायोमोलकल्पस्यासंयलजनस्य । जागरणात् ॥
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अथ श्री संघपट्टक
अर्थः- वळी मोटा शब्दे करीने प्राणीनो संहार करनार ज़े घरोली प्रमुख क्रुर जंतुनुं नठवुं म थाव ऐटले न थाव. केम जे साधु प्रजात काळ परिक्रमणं पण कोमळ स्वरे करीने करवानुं शास्त्रमां कथं ठे तो रात्रिए स्नात्र विधि करे सते निरंतर गंभीर ने मोटा शब्दे वागतां जे वादित्र तेना शब्द सांभळवे करीने या तो प्रातःकाळ थयो के शुं एम मानता जे तपावेला - लोह जेवा कुरं श्रसंजति लोको तेमनुं जागनुं याय ए. हेतु माटे.
श्रा
( १४९)
टीका:- तथाच तत्क्षणतदारम्यमाणाने कपापकर्म निमिराजवेन कथं रात्रिस्नात्रकर्त्रणां पापबंधो न जवेत् ॥ एतेन यदपि क्वचित्कथा दिषु केषां चित् स्त्रीपुंसानां गिरिकाननादि स्थित देवगृहेषु निशायां जिनप्रतिमास्नानादिश्रवणेन तदद्भ्युपगमः सोप्यली कालंबनमात्ररुचितां भवतोव्यनक्ति मोक्षार्थस्नानादे रिहाधिकृतत्वात् ॥ तस्यच सिद्धांते रात्रौ निवारणात् ॥
·
अर्थः- वळी ते अवसरे आरंज कर्या जे अनेक पाप कर्म. तेनुं निमित्त कारण वे ए हेतु माटे रात्रिस्नात्र करनारने केम पाप. बंधन थाय ए तो थायज एणे करीने जे कोइक कथानने विषे कोइंक स्त्री पुरुषोए करावेतुं पर्वतना वनमां रह्यां देवमंदिर तेने विषे रात्रीए जिम प्रतिमानुं स्नात्र यादिक तेने सांभळीने ते वातनो जे 'अंगिकार करवो ते पण जुठी वातनुं श्रालंबन करनारी तमारी रूची
एम प्रगट कही देखाने बे छाहीं तो मोहने श्रर्थे स्नात्र आदि करवानो अधिकार करेलो बे तेथी रात्रिस्नात्र सिद्धांतमां निवारण कर्यु बे जे ए हेतु माटे न करवुं.
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(
५०)
अयश्रीसंघपटक
टीकाःतथाहि ॥ सिद्धांते संका तिनि तावउहण मिति क्चनात् संध्यात्रयलक्षणो जिनपूजायाः कालो नियमितोरात्रा- वपि तहिधानेच कालंमि कीरमाणं किसिकम्मं बहुफलं जहा॥ . होश्श्य सबच्चिय किरिया,नियनियकालं मिविनेयेत्यादिना कृषि.
दृष्टांतेन काल विधीयमानजिनपूजादिक्रियाणांसा फल्यानिधान • व्यर्थ मापद्येत ॥
अर्थः तेज देखामे जे जे सिकांतमा त्रण संध्या उधे कही जे माटे त्रण संध्यान डे लक्षण जेनुं एवो जिनपूजानो काळ नीम्यो . ने रात्रिने विषे ते करे सते, जे क्रिया काळने विषे करीए ते क्रिया फळदायी होय जेम कृषिकर्म एटले खेती जे काळने विषे बहु फळदायी होय जे एम सर्वे किया पोतपोताना काळने विषे करवी एम जाणवू इत्यादि खेतीना दृष्टांते करीने काळमां करेली जे जिनपूजादिक क्रिया तेनुं सफळपणुं जे कयुंडे ते अकाळे करवाथी व्यर्थपणाने पामे.
टीका:-नच वित्तिकिरियाविरुद्धो,श्रहवा जो जस्सजावश्उतिवचनापात्रावपितत्प्रतिपादन मिति वाच्यं॥श्रावकाणां त्रि. संध्यं जिनपूजायादिनकृत्यत्वेनसिद्धांतेनिधानात् ॥ ततश्चवितिकिरियाविरुको इत्यादेरयमों यः प्राजातादिसंध्यायां वृत्ति निमित्तवाणिज्यादिव्यग्रत्वात्कथंच्चिदेवपूजायां न व्याप्रियते स दिनमध्यएव मूहू दिनासध्या तिक्रमप्यपवादतः पुजांकरोतु॥ • नपुनरस्यायमर्यायउतापवादेन रात्रौ करोति दिनकृत्यताहानि : प्रसंगादिति ॥ .
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(1)
48 अथ भी संघपट्टकः 8
अर्थ:-वळी 'वित्ति किरिया' इत्यादि वचनथी रात्रिए पण पूजा यादिकनुं प्रतिपादन थशे. एम न बोलवु केमजे श्रावकने पण संध्याकाळने विषे जे जिन पूजा करवी ते दिन कृत्य ने एटले दिवसनी करणी बे ते हेतु माटे 'वित्ति किरिया विरुद्धो' इत्यादि. कनो अर्थ बे जे प्रनातादि काळनी संध्याने विषे पोतानी आजीविका निमित्त जे व्यापार तेने विषे व्यग्रपणा यकी एटले आकु· · ळव्याकुळपणा थकी कोइक प्रकारे देवपूजामां न प्रवर्त्ताय तो ते पुरुष मध्यानने विषे पण करे एटले पूजा करवानो जे काळ ते बे घादिक अतिक्रमीने पण अपवादथी पूजा करे एम अर्थ बे. पण एम नथी जे अपवाद मार्गे रात्रिए पण पूजा करे ने जो एम होय तो दिनकृत्यपणानि हानि थवानो प्रसंग यावे एटले ए पूजननी दिनकृत्य एवी संज्ञाज न थाय ए हेतु माटे.
टीकाः - एवंच यद्यपि विद्या दि सिद्ध्यर्थिनां केषां चिद्भवा जिनं दित्वेन गिरिकाननादौ जिनस्नात्रा दिषु रात्राव पिप्रवृत्तिः भूयतेतथापि न तच्चरितमवलंब्य श्रुतोक्तमज्जनादिसमयं परिहृत्य रात्रौ द्विधानेन विवे किनात्मगुहा नवितव्यमिति ॥
अर्थः- जो पण विद्या दिकनी सिद्धिने इनारा केटला जवाजिनंदी पुरुषोनी पर्वतना वन यदिकने विषे रात्रिए पण जिन स्नात्र या दिने विषे प्रवृत्ति संजळाय बे. तो पण तेनुं चरित्र श्रवलंबन करीने सिद्धांतमां कहेलो स्नात्र श्रादिकनो समय तेनो परिहार करीने रात्रिने विषे स्नात्र कराववुं ते विवेकी पुरुषोने श्रात्मडोह बे एटले श्रात्माने वगवाजणी बे माटे ते करतुं नयी घटतुं इत्यादि.
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(३३२ )
-4 अय श्री संघपट्टकः 8
टीकी:- - एतेन रात्रौ जिनसदने बलिदाननंदिप्रतिष्ठा दि विधानमपि प्रत्युक्तं ॥ प्रायोमजनेन समानयोगक्षेमत्वात् ॥ निशिस्नपनोक्तदोषाणां बलिदानादावपि संजवात् ॥ किंचिदाधिक्याच्च सत्र प्रथमं तावद्द लिदानमधिकृत्य तदुच्यते ॥
अर्थः- - एणे करी ने रात्रिने विषे जिनमंदिरमां बलीदान तथा नंदित प्रतिष्ठा इत्यादिकनुं करवुं ते पण खंमन कर्यु, केम जे बहुधा स्नानी संघाथे एनुं समानपणुं सरखापणुं वे ए हेतु माटे एटले योग केम सरखो के केम जे पाप सरखुं लागे. बे माटे रात्रि स्नानमां कहेला जे दोष ते बलिया दिकने विषे पण संजवे ने ए देतु माटे वळी ते करतां अधिक दोषपणुं बे, तेमां प्रथम बलिदाननो अधिकार करीने दोष कहे बे.
टीका:- भगवत् प्रवचने विज्ञाव चतुर्विधाहारस्यापि सक्तिमवप्रतिपादनात् ॥ तथाच निशि जिनपुरतस्तादृगाहारदानेन कथं तत्प्रजवासंख्यजीववधजन्यः कर्मबंधो दातृणां
न स्यात् ॥
अर्थ:-- जगवंतना सिद्धांतने विषे रात्रीए चार प्रकारना आहारने पण संसक्तिमत्व दोषनुं प्रतिपादन कर्यु बे माटे वळी रात्रिए जिन भगवंतनी श्रागळ ते प्रकारना आहारनुं देवुं तेणे करीने ते थकी थयो जे असंख्य जीवनो नाश ते थकी थयो जे कनबंध ते बलि देतारने केम न थाय ? ए तो थाय ज.
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-9 अथ श्री संघपट्टक.
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mmmmmnama: जय श्री संघपटक
.... टीका:-तमुक्तं ॥ रात्रौ बलिं वृषनिमित्तमतीवजीवसं
सक्तिमंतमपि तीर्थपतेः पुरस्तात्॥ये ढौकयंतिबलिनाकलिना जि. तास्ते, नूनं शुनेन तलिना मलिना अघेन ॥
अर्थ:-ते शास्त्रमा कडं जे जे रात्रिये तीर्थकरना म्होंमा प्रा. गळ अतिशय जीवनी संसक्ति दोषवाद्यं बलीदान धर्मनिमित्तजे पुरुष ढोके ले अर्पण करे बे. ते पुरुष निश्चे बळवान एवा कलिकाले जीत्या पुण्य रहित एवा थाय ने पापवमे मलिन थाय बे.एटले रात्रिए बलिदान आपतां पुण्य तो थतुंनथी पण नलटुं पाप बंधाय .
टीकार--तथा लोकविरुद्धोपि अहो अमी श्रावकाःस्वयं रात्रिनोजन निषेधे पिस्वदेवस्य पुरतो निशिबलिमुपढौकयंत्यतः कीदृगमीषां रात्रिन्नोजनविरतिरितिसोत्प्रासलोकवाक्यश्रव. पात्॥थाग़मे पिनगवत्पुरतोब्यारव्यानावसाने समवसरणनुवि . राजादिनिः सिकस्य सिक्थरूपस्य कलमतंकुलबलेर्दिवसएवोपढोकनप्रतिपादनात् ॥ ..
.
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त.
... अर्थः-वळी ए लोकविरुद्ध पण बे, केमजे लोक एम बोले जे अहो आ श्रावक लोक पोताने रात्रि भोजननो निषेध ने तोपण पोताना देवनी आगळ रात्रिये बलिदान आपे . माटे एमनुं रात्रि जोजनथी विराम पामवारूप व्रत के, एम कही उपहास करे ले ते धन वचनहुँ सानक थाय . वळी आगममां पण लगवंतनी व्यायाननी समाप्ती थये सते सम्मोसरणनी. पृथ्वीने विषे
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( ३५४)
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A
अय श्री संघपट्टका
सिद्ध करेला चंची मांगरना तंमुस तेनुं बलिदान राजादिक मूके डे ते पण दिवसने विषेज एम प्रतिपादन कर्यु डे ए हेतु माटे..
टीकाः यदाह॥रायावरायमच्चो,तस्सास पनरजणवठेवा. ळि ॥ सुब्बहिलखंमिश्रबलिउमियतंडुलाणाढयंकलमं । जाश्यपुणाणियाणं अखंम्फुमियाण फलगसरियाण॥ कीरबली. ' सुराविय, तत्थेव बुंहति गंधाश्॥ .
टीकाः-देवार्चनत्वात् बलिदानं रात्रावप्पुचितं तथाच किमायातं लोक विरोधस्येतिचेत् न ॥ देवार्चनस्यापि रात्रौ सिद्धांते निषेधात् महिमं च सूरुग्गमणे करितीत्यावश्यकचूर्णिव. चनप्रामाएयात् ॥
- अर्थः--वळी देवपूजन ए हेतु माटे बलिदान रात्रिए पण कर उचित ले ने लोकने विरुद्ध डे तेमां आपणुं शुं गयुं ने शुं आव्यु. एम जो तारे कहेवं होय तो ते न कहे, केमजे देवपू. जन पण रात्रिए करवानो सिद्धांतमा निषेध . सूर्य उगे पूजना. दिक महिमा करवौ एम श्री आवश्यकचूर्णिना वचननुं प्रमाणपणुं डे ए हेतु माटे.
... टीकाः-लौकिकमार्गेपि. रात्रौ स्नात्रदेवार्चनादे निवा- . . रणात् ॥ तदुक्तं ॥ नैवाहुति नचस्नात्रं, न श्राऊं देवतार्चनं ॥ दानं वाविहित्तं रात्रौ, जोजनं तुविशेषतः ॥
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अथ श्री संघपटक
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(३९५)
manna
अर्थः-लौकिक मार्गमां पण रात्रिए स्नात्र तथा देवपूजनादिकनुं निवारण करवापर्यु ले ए हेतु माटे ते कडं जे जे रात्रिए बाहुती तथा स्नात्र तथा श्राइ तथा देवपूजन तथा योग्य एवंदान तेटलां वानां करवां ने नोजन तो विशेषे करीने न करवू. .
टीका:-श्रथ नावशुद्धिहेतुस्वानिशायामपि बलिस्नात्रादि.विधानं संगतं । तथाहि ॥ रात्रावपि जिनगृहे पुग्ध दधिसुरजिनीविपूरेणातिनीरजीकृतन्नगवज्ञानं स्नानं विदधते . विकच विच किलबकुलमालतीनवमालिकादिनिश्च वाँ सपर्या विरचयतो रुचिरचना निर्मितजनमनोहारं स्निग्धमधुर पक्वान्नफलोपहारंच ढौक्रयतः श्रद्धाबंधुरबुझे हिणो दूरीकृत कुगतिवासो नावोल्हासो जायते ॥ तस्यैवच सुगतिहेतुत्वेन नगवतो बहुमतत्वात् ॥
अर्थः-प्रतिवादी बोले , जे नावशुछिनुं कारणपणुं एमां रघु ने माटे रात्रिए बलिस्नात्र श्रादिकनुं करवं संगत एटले घटित ले तेज कही देखामे जे रात्रिने विषे पण घरमां दूध दहीं सुगंधीमान जळ तेना समूहबजे अतिशय रजरहित कर्यु एटले अतिशय स्वछ निर्मक कर्यु ले नगवंतनुं शरीर ते जेथी एवं जे स्नात्र तेने करतो ने प्रफुल्ल विकस्वर जे बकुल तथा मालती तथा नवो मोगरो इत्यादिकनां सुंदर पुष्पवमे करी जे नवी माळाओ एटले हार प्रमुख तेणे करीने श्रेष्ठ पूजा करतो ने सुंदर रचनावके कर्यु डे लोकना मनन हरण ते जेणे एवं सुंदर मिष्ट पकवान तथा फळ तेमनो नपहार एटले लेटणुं बलिदान ते प्रत्ये विस्तारतो ने अझावमे सुंदर थइ
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१३१६)
अय श्री संघपट्टक:*
ने बुद्धि जेनी एवा गृहस्थोने दूर को ले कुगतिनिवास ते जेणे एवो एवो नावनो नहास थाय . ने तेज प्रकारना नाव 'उल्हासने सुगति, कारणपणुं ने तेथ। ते नाव नवासने नगवते बटु मान्यो २ ए हेतु माटे.
टीकाः यदाह ॥ जोचेव जावलेसो, सोचैवय नगवर्ड
बहुमति॥
अर्थः-जे कारण माटे शास्त्रमा कयुं । जे जेची लावशु. द्धि खेश मात्र पण थाय तेज जगवते बहु करीने मान्युं में एटले श्रेष्ठ कह्यु बे.
. टीकाः-इति चेत् तन्न ॥ मार्गानुसारिण्याः कदाग्रहरहितायाः प्रज्ञापनायोग्यायाएव नावशु रिहाधिकारात् ।।
॥ यमुक्तं ॥
जावशुधिरपि शेया, यैषा मागानुसारिणी ॥ प्रज्ञापनाप्रियात्यर्थ नपुनः स्वाग्रहात्मिका ॥
औचित्येन प्रवृत्तस्य कुग्रहत्यागतो भृशं ॥: ____ सर्वत्रागमनिष्टस्य नावशुहिर्यथोदिता ।।
. अर्थः-सुविहित उत्तर श्रापे एम जो तुं कहे तो होप से ते न कहे केम जे मार्गानुसारिणी ने कदाग्रह रहित ने प्रज्ञापनो
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अथ श्री संघपटक
. (५७)
करवा योग्य एटले प्ररुपणा करवा योग्य एवीज नावशुद्धिनो यहीं अधिकार वे ए हेतु माटे शास्त्रमा कयु जे जे एज नावशुद्धि पण जाणवी के जे मार्गानुसारिणी ने तथा जेनी प्रज्ञापना अतिशय प्रीतिकारक डे एज नावशुद्धि सारी जे पण पोताना कदाग्रहरूप जामशुद्धि सारी नथी केम जे जे पुरूष कदाग्रहनो अतिशय त्याग करीने उचितपणे प्रवयों ने सर्व जगाए श्रागममा जेनी निष्ठा एषाने यथार्थ लावशुझिनो उदय ले.
। टीकाः भवद्विवदितायाश्च नावशुद्धैः सिद्धांतविरोधीस्वेन मुक्तिमार्गानुसारित्वान्नावात् 'अस्मत्पूर्वजैरेतावतमने : हसंरात्रावेवेदं स्नात्रं कारितमतोऽस्मानिरपीत्थमैवर्तव्य मिति कदाग्रहग्रस्ततया प्रज्ञापनानुचितत्वाच्च कथं मुक्त्यंगता स्यादिति॥
' अर्थः–तमे कहेवाने इच्छेली जे ज्ञावशुद्धि ते सिद्धांतथकी विरूड डे माटे मुक्तिमार्गने अनुसारीपणानो अनाव जे ए हेतु माटे ने कदाग्रह जे अमारा पूर्वज वृक्षोए आटला काळ सुधी रात्रिएज श्रास्नात्र कराव्यु माटे अमारे पण एजप्रकारे करवू इत्यादि कदाग्रहवमें सहितपणुं ने ए हेतु माटे प्रज्ञापना करवाने अनुचितपणुं डे. माटे केम मुक्तिना अंगपणुं होय. . .. - टीकाः-नंदिविधानमपि रात्रो महादोषं ॥ तथाहि दी.
कायर्थ हिंनं दिकरणं ॥. दीक्षाच स्थूलसूदमप्राणातिपातविर"तिलक्षणा ॥ रात्रौच प्रकाश निमित्तोज्वालितभूरिदीपकरूपते. जस्कायिकजीवानां शरीरस्पर्शेनव्यापादनात् प्रतिदीपेषुच निरंतर
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(३९८)
नव श्री संघाहक
marwaranana
निपततां लक्षश पतंगादिजंतूनांव्यापत्तिनिमित्तजावान्कीदृशी. दीक्षादातगृहीत्रोः सर्वविरतिः ॥
- अर्थः-ते रात्रिए नांद्य मांगवी ते पण महा दोषने करनारी . तेज वात. कही देखामे ले जे दीक्षादिकने अर्थे निश्चेना. धनुं करवापणुं ने ने जे दीक्षा ले ते तो स्थूल सूक्ष्म प्राणातिपात ते थकी विराम पामवारुपी ले सकण जे ते रात्रिये प्रकाश निमित्त नजवल कर्या जे गणाक दीवारुप जे तेजस्कायिक जीव तेनुं पो. तानी मेळे शरीरने फरश थवाथी नाश थवापणुं जे ए हेतु माटे दीवादीवाने विष निरंतर पमतां जे लखो पतंगियादिक जीब तेना नाशनुं निमित्त कारण वे ए हेतु माटे दीक्षा लेनारने ने दीका था. पनारने सर्व विरतिरुप दीक्षा केवी थर एटले एते सर्व विरितरुप दीक्षा थके सर्व हिंसामयी दीक्षा थश्ते तुं तारा मनमां विचारी जो.
टीकाः-तथाच करेमितेसामाश्यमित्यादि सर्वविरतिसामायिकसूत्रस्यापि तत्क्षणं शिष्येणोच्चार्यमाणस्य वैयर्थ्यप्रसंगः ॥ शिष्यस्य दीक्षाप्रथमक्षणादारन्यप्राणातिपातप्रवृत्तेः ॥ तमुक्तं ॥सवंतिनाणिनणं,विरश्खलुजस्स सबिया नस्थि ॥ सोसब विरश्वाई. चुक्कं देसंचसबंच ॥
अर्थः-वळी दीक्षा लेती वखत — करेमिजंत ' इत्यादिक सर्व विरति सामायिक सूत्रनुं जे उच्चारण शीखे कर्यु तेनुं तेज वखत व्यर्थ थवानो प्रसंग पावशे केमजे शिष्यने दिवाना प्रथम
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
( ३५९ )
क्षणथी आरंजीनेज प्राणातिपातने विषे प्रवृत्ति थइ ए हेतु माटे ते कयुं वे जे.
टीका:- दीक्षादातुश्च दोषसंख्यापि वक्तुं न शक्यते । त हिदया तावर्जतुजा तव्याघातप्रवृत्तेः॥ तदहोमूंढा एतावतं पापकलापमात्मन्यारोपयंतोजा विजवज्रमणान्मनागवि न बिभ्यतीति ॥
अर्थ :-- दीक्षा देनारने पण जे दोष थाय ते ते दोषनी संख्या पण कलेवा समर्थ नथी केमजे ते दीक्षा यापनारनी दिक्षाए करीने तेटला जंतुना समूहनो नाश थवामां प्रवृत्ति थइ ए हेतु माटे अहो तो आश्चर्य ने जे ए मूढ पुरुष थाटलोबधो पापनो पोताने विषे आरोपण करें बे पण आगळ थये एवं संसारमां मण थशे तेथी लगार मात्र पण जय पामता नथी.
समूह
टीका:- तडुक्तं || ज्यो तिज्यों तितकृत्स्नदेवसदनप्रायः प्र
दी पोच्चरही पाञ्चिर्निकुरंबचुंबननवत्तंगत्पतंगैषणां ॥ निस्त्रिंशानिशि सूत्रयं तिकुधियो मुग्धामुधामी हहा नंदिंसंदितिसम्मितां स्वपरयोः संसार कारागृहे ॥
.
अर्थः- ज्योतिः एटले ग्रह, नक्षत्र जेवुं देदीप्यमान जै समस्त देवमंदिर तेमां घणा दीवाथी उत्पन्न यह दिव्यकांति तेनो जे समूह तेना स्पर्शथी जंपापात करता जे पतंगीया तथा तेनका यि प्राणि तेना नाशं करवामां तरवार समान दुष्ट बुद्धिवाला था मुग्ध
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. .
. अथ श्री संघपट्टक
-
स
लोक प्रोताने ने परने संसार रुप बंधी खानाना घरने विष नाखनारी बंधन समान जे रात्रिये नांद मांगी ते प्रत्ये विस्तार करे एटले विस्तार सहित नांद मांडे. हा! श्रातो मोटी खेद नरेली वात ठे केमजे अनेक जीवनी हिंसा प्रत्यक्ष करे ...............
टीकाः-अहिदीक्षा दिलग्नबलानावरात्रौच तनावे विहारक्रमवदपवादेन कदाचित्रात्रावपि नंदिविदधतां कोदोय इतिचेन।। -विहारक्रमस्यापवादेन रात्रावपि प्रतिपादनात्तत्र कदाचित्तकरणं... युक्तं ॥ नंदिविधानस्यचापवादेनाप्यागमे रात्रावननिधानात्कथं.
सहिधानं तत्र संगत ॥
. अर्थ: बळी दिवसने विषे दीक्षादीकनु लग्न बळ न होव ने रात्रिए ते होय त्यारे जेम अपवादे करीने रात्रिए विहार करे ने तेम क्यारेक रात्रिने विषे पण नांद करनारने शो दोष ? एम जो तुंकहेतो. होय-तो. ते न कहेवं. केमजे विहारक्रमनुं तो अपवाद मार्गे रात्रिए पण करवान शास्त्रने विषे प्रतिपादन कर्यु ,माटे ते तो कदाचित करवू युक्त जे पण नांद करवानुं तो अपवादमार्गे पण शा. स्रने विषे कयुं नथी माटे रात्रिए नांद करवी केम घटती आवे.
टीकाः-किंचापवादिक कृत्यानांरात्रिविहारक्रमादीनां सर्वेषां प्रायश्चित्तम निहितमागमे ॥ नच निशि नंदिविधानस्य जवनीत्यापवादिकस्यापि क्वचित्तदनिधानं श्रृयते ॥ ततोवगम्यतेनास्त्यपवादेनापिरजन्यांनंदि विधानं ॥ तथा जगवदज्ञाता,
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8 अथ श्री संघपट्टक
AviaW
. दपि रात्रौ तद्विधानमसमीचीनं ॥ जगवताहि विमलकेवला लोकेनापि तावतां विनेयलक्षाणां मध्यात्कस्यचिदपि क्षणदायामदीक्षणात्
... अर्थः-वळी शुं तो रात्रि विहार आदिक अपवादिक कृत्य एटले अपवाद मार्गे करवा योग्य जे सर्वे कृत्य तेमर्नु शास्त्रमा प्रायश्चित करवानुं कडं . पण रात्रिए नांद मांगवानुं तमारा न्याये अपवाद मार्गे पण को जगाए प्रायश्चित करवानुं कर्तुं नथी ते माटे एम जाणीए गए जे अप. वाद मार्गे पण रात्रिए नांद मांगवान नथी. वळी नगवंतनी वंदनाना दृष्टाते पण रात्रिए नांद मांमवी ते पण अघटित . केम जे जगवंत केवलज्ञानी हता तो पण तेमणे लाखो शिष्यनी मध्ये को. ने पण रात्रिए दीक्षा दीधी नथी ए हेतु माटे...
टीकाः-दिवसाश्यं तित्थंदिणं पसत्यं चेत्याद्यागमवचनप्रा. माएयात् ॥ तत्पथवर्तित्वाच्च तहिनेयानामैदंयुगीनानां कथं निशि तत्कर्तुयुज्यतइति ॥ एवं निशि जिनप्रतिमाप्रतिष्टायामपि सकलमेतदूषणजातं विविच्य वाच्यं ॥
अर्थः-दिवसादिकनुं जे कृत्य ते दिवसने विषे कर तजे प्रशस्त एटले दिवसमांज करवू पण रात्रिये न करवू,इत्यादिक श्रागम वचनना प्रमाणपणाथी ते मार्गमां रदेवापणुं बे, ए हेतु माटे या काळना जे तेमना शिष्य तेमने ते नांद थादिकनुं करवं ते
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( १५२ )
-1 अथ श्री संघपट्टक
रात्रि केम घटे ! एम रात्रिये जिन प्रतिमानी प्रतिष्टाने विषे पण या समप्रदोषनो समुह जुदो जुदो करी विवेकथी कहेवो.
टीकाः - तडुक्तं ॥ प्राडुः षद्दोषपोषायां, दोषायां साधयं तिये॥ जिनबिंब प्रतिष्टां ते, प्रतिष्टां स्वस्य दुर्गतौ ॥ तदेवं दोषकलापदर्शना रात्रौमजना दिविधायिनां पापपंके निमज्जनं भवतीति व्यवस्थितं । इदं वक्ष्यमाणं च वृत्तद्वयं द्विपदी बंद इतिवृत्तार्थः ॥ १८ ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कहीं बे जे घणा दोषने पुष्ट कर नारी जे रात्रि तेमां जे पुरुष जिन बिंबनी प्रतिष्टा साधे ने एटले जे रात्रिये जिनबिंबनी प्रतिष्ठा करे बे ते पुरुष पोताना आत्माने दुर्गतिमां स्थापे . ए प्रकारे दोषना समूह देखीने रात्रिस्नात्र कनारने पापरूपी कादवमां परुवुं थाय बे एम सिद्धांत थयो. दवे या काव्यनुं वृत तथा श्रागंळ कहीशुं ए काव्यनुं वृत ए बे द्विपदी द नामे . ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो.
टीका: सांप्रतं प्रसंगेन मज्जमा दन्यस्यापिधर्मकृत्यस्य वि. धिरहितस्य संसारनिमित्तत्वं प्रकटयन्नाह ॥
अर्थः- हवे या प्रसंगने विषे स्नात्र विना पण जे विधिरदित धर्मकृत्य तेने संसारनुं निमित्तपणुं वे एम प्रगट करता सता कहे बे.
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वय श्री संघषका
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(११)
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॥ मूल काव्यम्॥ जिनमतविमुखविदितमदिताय न मज्जन मेव केवलं । किंतु तपश्चरित्रदानाद्यपि जनयति न खलु शिवफलं॥
अविधिविधिक्रमा जिनाझापियशुनशुलाय जायते। किंपुनरितिविम्बनैवादितहेतु न प्रतायते ॥१॥
टीका:-जिनमतविमुखविहितं लगवदागमवैपरीत्य निर्मितं मज्जनमेव स्नपनमेव केवलमेकं श्रहिताय संसाराय न जवति स्नानमेवैकमविधिविहितं संसारकारणमितिनास्ति किंतु किंतर्हि तप्यते धातवोशुज कमाणिवानेनेतितपोनशानादि।
. अर्थ:-नगवानना श्रागमथी विपरीत कयु जे स्नान तेज केवल कहेतां एक संसारजणी थाय ने एम नथी, शुं त्यारे तो बीजुं .पण ए प्रकारे जे जे तप जेणे करीने शरीरना धातु तथा श्रशुज कर्म तपावीए ते तप कहीए.अशनादिक ते पण आगम विरुष्क करे तो संसारने अर्थ थाय .
टीका:-यमुक्तं ॥ मज्जास्थिरुधिरपलरसमेदाशुकायने न तप्यते ॥ कर्माणि चा शुजानी त्यतस्तपो नाम नैरुक्तं। तथा . चारित्रं सर्वविरतिः दानं पात्रे ऽन्यायार्जितशुलनकादिवित्तरणं ॥ आदिशब्दाधिनयवयावृत्या दिग्रहः ॥ ततस्तपश्चेत्यादि मंगों बहुब्रीहि ॥ ततथैवमानप्यनुष्टानं जिनमतवेपरीत्य
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(३
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8अथ श्री संघपट्टका
विहितं न केवलं मज्जन मित्यपि शब्दार्थः॥ न खा नैव जन यति संपादयति शिवफलं मुक्तिरुपं फलं ॥
अर्थः-हवे ते तपः शब्दनो अर्थ शास्त्रमा कह्यो ले जे जेणे करीने शरीरना सात धातु जे मीजो,हामकां, रुधिर, मांस, रस, मेद, वीर्य ए सर्व तपे लेने वळी अशुल कर्मने तपावे तेथी तप एवं नाम निरक्त कयुं ने एटले ए प्रकारनो तपशब्दनो अर्थ रुपिना वचनथी जाणवो.वळी चारित्र एटले सर्व विरतिरुपने दान एटखे पात्रने विषे न्यायव नपार्जन कर्यु जे जक्तपान तेनुं श्रापवू. श्रादि शब्दथी विनय तथा वीयावन इत्यादिकनुं ग्रहण करवं ते हेतु माटे तपश्च इत्यादि कंछ समास गर्मित बहुव्रीहि समास करवो, माटे एप्रकारजे जे अनुष्टान श्रादिक पण जिन मतथी विपरीत करेलुं होय ते पण ग्रहण कर केवळ स्नात्रज नहि एम अपि शब्दनो श्रर्थ डे माडे ते ते अनुष्टान मुक्ति रुपि फळने नथीज उत्पन्न कर.
टीकाः-अथ कस्मादेवमित्यत आह ॥ हीयस्मात् अवि. विविधिक्रमात् सिद्धांतानुक्ततमुक्तप्रकारेण जिनाज्ञापि जगवबासनोक्तानुष्टानमपि अशुनशुनाय अश्रेयः श्रेयसे ॥ इंबैकव. नावादत्रैकवचनं ॥ जायते संपद्यते ॥ यथासंख्येनात्रयोजना ॥ तेनायमर्थः ॥ किल जिन पूजातपःप्रनृति प्रवचनप्रसिद्ध जि. नाज्ञा॥नगवता निश्रेयस साधनत्वेन ज्ञापितत्वात्। तथाच तदप्यविधिक्रमण कालेसुश्लूएणमित्याद्युक्तविधिपर्ययेण क्रियमाणमशुजाय नवति ॥ विधिक्रमेणतु संध्यात्रयाराधनशुचिजूत
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-48 अथ भी संघपट्टकः
त्वादिनातदेव शुजाय ॥ विध्यं विधिन्यां जगवदाज्ञाराधनानाराधनयोरेव मोहसंसारफलत्वात् ॥
( २३५ )
अर्थः- हवे श्या माटे एम कहो तो एवी श्राशंका धारीनें त्तररूप कड़े ने जे जे हेतु माटे अविधिक्रम ने विधिक्रम थकी एटले सिद्धांतमां न कहेला प्रकारवमे ने सिद्धांतमां कहेला प्रकारवमे ज़िन जगवंतना शासनमां कहेलुं अनुष्टान पण अशुनने श्रर्थे तथा शुमने अर्थे एटले श्रेय जणी तथा श्रेय जणी थाय बे. अनुक्रमे या जगाए शब्दोनी योजना करवी. तेणे करीने या प्रकारे अर्थ थाय बे जे जिनपूजा तथा तप आदि श्रगम प्रसिद्ध जे बे ते जिन भगवंते मोक्ष साधनपणे कयुं बे. माटे वळी ते पण अविधि क्रमे करीने एटले यथाकाळे पवित्र थइने इत्यादि विधि कह्यो बे तेथी विपरीत जे कयुं ते सर्व अशुभ मणी थाय बे ने विधिक्रमे करीए तो एटले ऋण संध्याकाळे पवित्र थश्ने इत्यादि जे विधिक्रम तेणे करीने जे कर्यु ते शुन जणी थाय बे. एटले विधि ने अविधि जे भगवंतनी आज्ञा प्रमाणे आराधना करवी ने भगवंतनी श्राज्ञा विनानी आराधना करवी ते बेनेज मोक्षफळ तथा संसारफळ ए बेनुं
पाप ए हेतु माटे. जावार्थ:- जे जगवंतनी श्राज्ञारूप जे जे विधि तेथे करीने जे आराधना करे बे तेने मोक्ष फळ याय डे ने जें जगवंतनी श्राज्ञा रही तरुप जे अविधि तेथे करीने जे श्राराधना करे बे तेने संसार भ्रमणरुप फळ याय बे
टीकाः–यदाद ॥ जहचेवन्रमोरकफलाश्राणा श्रारा दियाजिüिदाणं || संसार डुरकफलया, तदचैव विरादिया होई ॥
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(४६)
4 अब श्री संघपट्टकः
र्थ:- वात शास्त्रमां कही बे जे जितेंद्र जगवंसनी
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ा आराधन करवाथी निश्चे मोक्ष थाय ने तेज श्राज्ञा विराधवाथी दुःख जेनुं फळ बे एवो संसार थाय बे
टीका:- अथवा जिनाज्ञापवादिकी आधाकर्मनोजनादिका क्रिया ॥ साप्यविधिक्रमेण संस्तरणादौ तद्ग्रहणादिना. शुनाय विधिक्रमेण वाऽसंस्तरणादौ तद्द्मणा दिना शुभायेति ॥ किंपुन रित्या दिवाक्यं काक्कायोज्यं ॥ श्रत्रच किमित्याक्षेपे पुनरपि वाक्यदे इतिप्रकरणे ॥ तेनैषाप्रकृता रात्रि जिनमजनादिका क्रियाविमंबनैव प्रवचनात्र चाजनैव लोकोपहासास्पदं ॥ नत्वेषा जिनाज्ञापीत्येवकारार्थः ॥
अर्थः- जे जिन भगवंतनी अपवाद मार्गे जे श्रधाकर्म नोजमादिकनुं करवुं ते रूप आज्ञा ते पण विधि क्रमे करीने निवादा दितां पाळ होय तो अशुभ जली थाय बे, ने जो विधि क्रमे करीने निर्वाहादि नहि यतां ग्रहण करेली होय तो शुभ मणी या तो रात्रिस्नात्रा दिकनुं शुं कहेतुं ए तो अशुन जणी थायज. एम ए वाक्य काकु अर्थवमे जोक. श्रा जगाए 'किं' एटला पदनो आप अर्थ करवो ने 'पुनरपि' ए पदनो वाक्य भेदरूप अर्थ करवो ने 'इति' अव्ययनो श्रा प्रकरणने विषे एटलो अर्थ करवो. तेणे करीने आ कहेवाने आरंभ करेली जे रात्रिए जिन स्नात्र आदिक करवानी क्रिया ते विश्वना मात्रज ते एटले प्रवचननी हलकाश करनारीज के तिरस्कार करावनारी डे ने लोकने उपहास करवानुं
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-48. अथ श्री संघपट्टक
(4)
स्थानक डे ने ए जिन नगवंतनीयाडा पण नथीएम एवकारनो अर्थ डे एटले ए वात निश्चे एमज .
टीकाः-श्रहितहेतुः संसारनिबंधनं न प्रतायते न विस्तायते ॥ किंत्वहितहेतुत्वेन प्रत्याख्याप्यत एव ॥ तमुक्तं ॥ रात्रिस्नात्र विधापनादिजिरहो संसारपस्ल्यां हगत्पार्श्वस्थादि मलि म्युचै बलितया अाग्नीयमानं जनं ॥ दृष्ट्वा संप्रति शुदेशनमिपाये पूत्कृतिं कुर्वते. धन्यैस्तैःशितधाम धाम विशदं जैनं मतं भूषितं ॥
अर्थः-संसार बांधवानुं कारण जे एनो विस्तार नथी करता त्यारे शें करीए बीए तो ए अहित, कारण जे एम जाणीने प्रत्याख्यानकरीए बीएएटले ए रात्रिस्नात्रादिक कोइ दिवस न करवां एम पचखाणज करीए बीए ते शास्त्रमा कयु डे जे पासथ्थादिक चोर लोको बळवान डे ए हेतु माटे संसाररुपी लूटवानी जग्या प्रत्ये श्रा लोकने हगत्कारे लइ जतां देखीने आ काळमां शुरू देशना. रुपी मिषवमे ते ते पासथ्थादिक पासेथी जे बोमावे ते चंडकांति जेवाशीतल पुरूषोने धन्य छे ने तेणे करीनेज आजैनमत शोनित ने,
टीका:-दमुक्तं जवति ॥ जिनाज्ञापि तपः प्रभृतिका आपवादिकाधाकर्मन्नोजनादिका वा यदा श्रविधिना विधीयमाना जवफला तदा किंपुनरस्यापि विबनायाःसर्वथा जिनवचन बाह्याया रात्रिमऊनादि कायावक्तव्यं ॥ सुतरामेषा नवहेतुरेवा. अतोऽहितहेतुत्वेन प्रत्याख्यापते ये नसा तथा प्रत्याख्याप्यमाना
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अय श्री संघपट्टका
कस्यापि पुण्यात्मनः स्वतो निवर्तनाय प्रजवती तिवृत्तार्थः॥१७॥
अर्थः-एमां श्रा प्रकारनो प्रगट अभिप्राय कह्यो जे जिन जगवंतनी आज्ञा पण तप श्रादिक अपवाद मार्ग संबंधी ने श्रथवा आधाकर्म लोजनादिकनी आळा पण अपवाद मार्गे ले ने ज्यारे अविधिवमे त्यारे ते पण संसार फळने आपनारी ने त्यारे तो सर्वथा जिनवचन बाह्य एवी था रात्रिस्नात्र आदिक विमंबना संसारफळने आपे एमांशुं कहेवू अतिशयज संसारनुं कारण ले ए हेतु माटे अहितनुं कारण जे एम जाणीने पचखाण करीए बीए एटले निषेध करीए बीए जे हेतु माटे ते निषेध देखी कोइ पण पुण्यात्मा पोतानी मेळे निवृत्ति पामशे ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो ॥१९॥
टीकाः-इदानीं निर्वाणकारणमपि निसर्गेणजिनगृहादिनिर्मापणं गृहिणःकुमतादिलेशस्याप्यनुवेधानवहेतवे नवती. त्येतत्प्रदर्शनायाह ॥
अर्थः-हवे स्वन्नावथी मोहनुं कारण एबुंजे जिनगृह था. दिकनुं निपजावq ते पण गृहस्थने कुमत आदिकना लेशनो पण अनुवेध थवाथी एटले कुमतनो मिश्रन्नाव थवाथी संसारना कारण जणी थाय ने ए देखामवाने कहे .
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49. अथ श्री संघपट्टका
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(६९)
NAVANWVVVVVVVNA
॥ मूल काव्यम्॥
जिनगृहजिनबिंबजिनपूजनजिनयात्रादिविधिकृतं । दानतपोव्रतादिगुरुनक्तिश्रुतपठमादिचाहतं॥ स्यादिह कुमतकुगुरुकुमादकुबोधकुशिनांशतः . स्फुटमननिमतकारिवरजोजनमिव विषलवनिवेशतः॥३०॥
टीकाः-जिनगृहं परमेश्वरजवनं जैनबिंब नागवती प्रतिमा जिनपूजनं जगवत्प्रतिमायाः कुसुमादिमिरन्यर्वनं जिनयामा जिनानप्रतीत्याष्टाहिकाकल्याराकरथनिष्क्रमणादिमहामहकरणं
अर्थः-जिनेश्वर नगवंतनु मंदिर तथा जिनप्रतिमा तथा लगवाननुं पुष्पादिकामे पूजा तया जिन नगवंतने नदेशाने श्र. ष्टाहिका नत्सव करवो तथा कल्याण रययात्रा इत्यादि महामहोत्सव करवा.
... टीका:-यमुक्तं ॥ जत्तामहसवोखनु, नदिस्तजिणे स की
रई जोन ॥सो जिणजत्ता जनइ तीएविहाणं न दाणाइ ॥ ततोजिनरहं चेत्यादिवंग!बहुत्री हिरेवनुत्तरपद्ययोरपि ॥ आदि ग्रहणाजिनवंदनप्रतिष्टादिग्रहः इहचासकृझिनपदोपादानं जगवतोऽत्यंतनक्तिगोचरतया तदुदेशेन विधिना गृहादिनिर्मा पक्षस्य परममुक्त्यंगत्वख्यापनार्थ ॥ एवमादि धर्मकर्मजातभितिशेषः॥
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अय श्री सघपट्टका
अर्थः-पड़ी जिमगृह, जिनबिंब, जिनपूजन,.जिनयात्राए सर्व पदनो इंछ समास गर्जित बहुव्रीहि समास करवो एम आ. गलां जे बे पद तेने विषे पण तेमज समास करवो ने श्रादी शब्दने ग्रहण कर्यो के ए हेतु माटे जिनवंदन तथा प्रतिष्टा इत्यादिकनुं ग्रहण करवं. आ जगाए वारंवार जिनपदनुं जे. ग्रहण करवू ते दोनगवंतनी अत्यंत चक्तिनुं प्रगट करतुं तेणे करीने जे जगवंतने उद्देशीने विधि सहित जिन मंदिरनुं निपजाव तेने परम मुक्तिनुं अंगपणुं ने एम जणाववाने अर्थे बे. सर्व धर्मकर्मनो समूह एज प्रकारे ने एम उपरथी शेष लेवू.
टीकाः-विधिना श्रुतोक्न प्रकारेण कृतं निर्मापितं ॥ तथाहि ॥ जिनगृहनिर्मापणविधिः शुधभूमिपरिग्रहादिकः ॥ यमुक्तं ॥ . . जिणनवणकारण विही सुद्धा जूमीदवंचक हा ॥ नियगाणसंधाणं सासयवुढीय जयणाय ॥
'अर्थ:-जे शास्त्रमा कहेलो जे विधि ते प्रकारे कर्यु होय तेज कही देखामे ले जे जिनमंदिरने नियजाववानो विधि या प्रकारनो जे जे शुद्ध नूमिनो परिग्रह आदिक, ते शास्त्रमांकह्यो जे.
टीका:-तद्विधापना नंतरं चैतस्मिन्नपिशिला पित्तमादि घटितप्ततिरूपसंप्रतिनगवहिरहेतगुणानध्याराप्यतपूजयामीति प्रणिधानेन श्राशस्य नगवहिबनिसापणं ॥ तन्निर्मापणे विधि
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अब श्री संघपट्टका
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सूत्रधारस्यदानादिसन्मान पूर्वविजवौचित्येन घटितबिंब मूल्यसमर्पणं॥
अर्थः-ए शास्त्र प्रमाणे जिनमंदिर कराव्या पडी ए मंदिरने विष शिखानी तथा पितलनी इत्यादिकनी घमेली जे प्रतिमा तेने विषे भगवंतना गुणनो अध्यारोप करीने केम जे हाल काळम न-। मकंतनो विरह के ए हेतु माटे तेने पूनुं बु ए प्रकारना प्रणिधाने करीने श्रावकने नगवहिबर्नु निपजाव. ते निपजाववानो विधि तो श्रा प्रकारनो जे जे सूत्रधारने एटले प्रतिमाना घमनारने दानादि सन्मानपूर्वक पोताना वैनवने घटित एटले पोतानी शक्ति प्रमाणे बिंब घमवानुं मूल श्राप.
टीका:-यदाद ॥ इह सुझबुद्धिजोगा काले संपूरऊण कत्तारं ॥ विनवोचियमप्पिका मूखं अणहस्स सुहनावो ॥
..
• अर्थः ॥ टीका ॥ तदेवं जिनबिंबे विधिना निर्मापिते प्रतिष्टावितेचायं पूजन विधिः ॥ संध्यात्रये विधिना शुचि —त्वा चगवहिवंश्रद्धावान् पुष्पादिजिरचयति ॥ तदुक्तं ॥ काले सुर पुरणं विसिहपुष्फारएहिं विहिणान ॥ सारथुश्थुत्तगई जिणा हो कायवा ॥
अर्थः–ते जिनबिंब ए प्रकारे विधिये करीने निपजावेसते प्रतिष्ठा करे सते या प्रकारनो पूजन विधि , जे त्रण संध्याकाळने
विधिए करीने पवित्र थश्ने श्रद्धावाळो पुरुष मे ते पवित्र थश्ने जगवताबिंबने पूजे जे ते वात शास्त्रमा कही ले जे... .
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( ३७२ )
अथ भी संघपट्टकः
टीका:- तथाच नत्रच कल्याणकादि दिनेषुयात्रा प्रस्तूयते ।। तत्रचायं विधिः ॥ यथाशकिदानतपश्चरणशरीर विभूषा जिम गुणगान वादित्रादिकरणं ॥ यदाह ॥ दाणं तवोवहाणं सरीर सक्कार मो जदासत्तिं ॥ उचियंच गीयबाश्यथुईथुनापि
पाय ॥
अर्थ:-वळी कल्याण आदिक दिनने विषे जे यात्रा कही बे मां पण या प्रकारनो विधि बे जे पोतानी शक्ति प्रमाणे दान तथा तपश्चर्या शरीरनी शोना जिनगुणनुं गान तथा वादित्र संहित उत्सवादिकनुं करवुं ते वात शास्त्रमां कही बे जे..
टीका तथा दर्शनतपसी पूर्व व्याख्याते व्रतानि स्थूल प्राणातिपात विरमणादीनि ॥ श्रादिशब्दा द्विचित्रानिग्रहग्रहः॥ ततोदानं चेत्यादिद्वंद्वः ॥ तथा गुरोर्धर्माचार्यस्य नक्तिः शुश्रूषा आग दनि मुखगमनो स्थितान्युत्थान गद्यदनुगम निश्रामणा विशुद्धप्रक्तपानादिदान चित्तानुरंजनादिका ॥
'अर्थ:- दर्शन ने तप ते बेनुं प्रथम व्याख्यान कर्यु ले ने व्रत ते स्थूल प्राणातिपात विरमणादिक जाणवां ने श्रादिशब्दयी नाना प्रकारना निग्रह ग्रहण करवा, त्यार पढी दान आदिक श ब्दनो द्वंद्व समास करवो. वळी गुरु जे धर्माचार्य तेनी नक्ति तेमनी सेवा करवी एटले ते ज्यारे श्रावे त्यारे सन्मुख जनुं ने ते छठे त्यारे ननुं यनुं ने ते जाय त्यारे पढवामे जनुं तथा विसामो कराववो तथा विशुद्ध जक्क पान आदिक देवा ने तेमना चित्तने प्रसन्न कर इत्यादिक से' जारावी.
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अथ श्री संघपट्टक
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टीकाः – डुतं। अड्वा विगुरु समन्तदायगा ताप हारे सुस्सा | ताण निमुहगमां नत्थाणं न थिए सुच ॥ विस्सामाइसम्मं वियाणणुध्वयण मेव जंताणं ॥ संपारण मेयाणंस+ मिडिया विसुद्धा | नावाणुवत्तणं तद् सवपयत्तेण ताण काय व्र्व्वसम्मत्तदाय गाणं डुप्प मियारं जर्ज नयिं ॥ श्रुतपठनं सिद्धांताध्ययनं ॥ आदिग्रहणातदर्थश्रवणमननादिग्रहः ॥ एतच्च विवेकिना विशेषेण विधेयमेतत्पुरस्सरत्वात् सकलप्रागुक्त जिनगृहादि करण विधिप्रतिपत्तेः ॥ यदाह ॥ अन्नेसि पवित्तीए निंबधणं हो विहिसमारंजो सासुत्तान नज्जइ ता तं पढमं पढेयवं । सुत्ता श्रत्थे ज नवर होइ कायो ॥ इतो उन्नयविसुद्ध ति सूयगं
केवलं सुतं त्ति ॥ अर्थः- सिद्धांतनुं
वुं श्रादि शब्दथकी तेना अर्थ जा. वा तथा सांजळवं तथा मनन कर इत्यादिकनुं ग्रहण कर एटलां वानां विवेकी पुरुषाएं विशेषे करीने करवां केमजे ए प्रथम करे तोज • समस्त पूर्वेकयुं जे जिनगृह श्रादिकनुं करवुं तेनोज विधि तेनी सिद्धि थाप ए हेतु माटे ए वात शास्त्रमां कहीं वे जे.
टीका :- एतदंतरेणसमस्तस्यापि क्रियाकलापस्यांधमूकसाम्यापत्तेः ॥ ततो गुरु नक्तिश्चेत्यादि द्वंद्वः ॥ वा समुच्चये ॥ चादृतंस बहुमानं नत्ववदेलया ॥ एतत्सकलं जिनगृहादिदाना दिगुरुक्त्याद्यनुष्टानं किमित्याह ॥ स्याद्भवेत् इह प्रवचने अन चिमतकारी तिसंबंधः । कस्मादतश्राह ॥ कु मतेत्यादि ॥ तत्र कुमतंपरतीर्थिकसमया निहितं क्रिया कदंब कंश्राऽचंद्रसूर्योपरागसंक्रां तिमाघमालाप्रपादानादि ॥
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Man) . अथ भी संघषका है . अर्थः-ए विनाना सर्व पण क्रिया कलापने अंध तथा मू. कनो सरखापणानी प्राप्ति थाय ने ए हेतु माटे त्यार पठी गुरु भक्ति इत्यादि पदनो इंछ समास करवो. वा अव्ययनो समुच्चयने विषे अंर्थ करवो ए सर्व जिनगृह आदिक तथा दान श्रादिक तथा गुरु जक्ति श्रादिक अनुष्टान जे बहुमान सहित थादर कयु ने ते श्रा प्रवचनने विषे अंनिमत नथी. एटले मानवा योग्य नथी. एम संबं. ध करवो शाथी के ते सर्व कुमत जे अन्य दर्शनी तेमना शाखमां को जे क्रियानो समूह श्राफ तथा चंद्र सूर्यनुं ग्रहण तया संकाति तथा माघ माला इत्यादिकनुंजे प्रतिपादन तेने कुमत कहीए.
____टीकाः-कुगुरु रुत्सूत्रदेशनाकरण प्रवणः सन्मार्गदूषणपरायणो धार्मिक जनकुञो पजवतत्परःसुखलोल तयायतिक्रिया विकलोज़नविप्रलिप्सयाकरक्रियानिष्टोपिवा लानपूजा ख्यातिकामः कुत्सितश्राचार्यः॥ कुग्राहः सिद्धांतबाह्य स्वमति कल्पितस्वान्युपेतासत्पदार्थसमर्थनानुष्टानगोचरो मानसोजि . निवेशः॥ .
..अर्थः-ने कुगुरु जे नुत्सूत्र देशना करवामां तत्पर ने सारा माने दोष पमानवाने तत्पर ने धर्मवंतं लोकने कुछ उपजव करवामां तत्पर ने विषय सुखनी लालचे यतिक्रियाथी भ्रष्ट थलो ने लोकने गंवानी श्चाए दुःकर क्रिया करे तो पण लाज तथा • पूजा तथा पोतानी ख्याती तेमनी श्छावाळो ते कुगुरु कहीए, कुत्सित श्राचार्य कहीए, ने कुमाह ते सिद्धांतनी बाह्य एटले सिकांतथी उलटो पोतानी बुधिए कल्पना कों ने अंगीकार क्यों
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6. अथ श्री संघपट्टक
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जे असत् पदार्थ तेनुं समर्थने करनार एटले प्रतिपादन करनार पर्बु जेअनुष्टान एटले क्रिया तेणे करीने प्रत्यद जणांतो जे मन संबंधी अनिनिवेश एटले हव्वाद तेने कुग्राह कहीए.
- टीकाः-कुबोधोऽन्यथाव्यवस्थितस्य नंगवदागमार्थस्या ज्ञानाछिशिष्टसंप्रदायाजावाहाऽन्यथापरिजेदः ॥ यद्योजया नावादन्यथापरिछेदः ॥ कुदेशना श्रुतोक्तार्थानां संशयादशानान्मिथ्यानिनिवेशाचा वैपरी येन प्ररूपणं ॥ * ॥ यमुक्तं ॥
सिद्धांतान्निहितार्थानां व्यत्यासेन प्ररूपणा ॥ - याग्रहानिनिवेशादेर्जणिता सा कुदेशना ॥
अर्थः-कुबोध ते. अन्यथा प्रकारे एटले बीजे प्रकारे व्यवस्थित एटले रहेलो जे नगवानना आगमनो अर्थ तेनुं अज्ञानथी अथवा कोक विशिष्ट संप्रदायना अनावयी एटले शुरू गुरु परपराना अन्नावथी बीजो रीते परिछेद करवो एटले निर्धार करवों. तेने कुबोध कहोए अयवा बेना अनावथ। एटले पोताना अज्ञाः नको तथा तेवो को ज्ञान। गुरू मल्यो नहि ते कारणयी विपरीतपणे जे शास्त्रने जाग तेने कुबोव कहोए, ने कुदेशना ते सिझांतमा कहेला अर्थना संशय थकी अथवा अज्ञान थकी अथवा 'मिथ्यानिनिवेशथो जे विपरीत प्ररूपया तेने कुदेशना कहोए. ते वात शास्त्रमा कही जे जे लिहातमां कहेला अर्थतुं आग्रहथी. उलटोरोतेज प्ररूपस कर तेने कुदेशना कहोए.
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- अथ श्री संघपट्टक
टीकाः - श्रत्र च कुगुरुग्रहणेन कुदेशनालानेपि पृथगुप-: दानं तस्याः सकलेतरदोषेज्यो महत्त्वज्ञापनार्थं ॥ ततः कुमतं चेत्यादिद्वंद्वः ॥ तासामं शोलेशस्तस्मात् श्रस्तांकुमता दिभ्यः समयः किंत्वेषामंशमात्रादपि स्फुटंव्यक्तं निश्चितमितियावत् ननिमतकारि अनिष्ट विधायिडुरंत संसार कांतार निरंतर पर्यटन कारणमित्यर्थः ॥
(२७३ )
अर्थः- जगाए कुगुरुना ग्रहणवमे कुदेशनानो बान थये सते पण जे कुदेशना पदनुं जुडुं ग्रहण कर्यं ते तो ते कुदेशनानो समस्त बीजा दोषथ मोटो दोष के एम जणाववाने श्रर्थे ग्रहण कयुं बे. त्यार पछी कुमत इत्यादि पदको द्वंद्व समास करवो. ते कुमतादिकना अंश मात्र पूर्वे कह्यो जे समस्त क्रियाकलाप ते व्यर्थ थाय बे तो समस्त कुमतादिकनी तो वातज शी कदेवी ए तो वातज बेटे रहो. पण ए कुमतादिकना अंश मात्रथी पण निश्चे - निष्टकारी थाय बे एटले महा दुःखवमे जेनो अंत बे एवी संसाररुपी व तेने विषे सर्व क्रियाकलाप परिभ्रमण करावनाएं बे एटलो अर्थ.
ए
टीका: --- एतदुक्तं नवति ॥ जिन, प्रवचनं हि सम्यग् ज्ञानदर्शनचा स्त्रिसमुदायरूपं कुमतादी नितु मिथ्यात्व रूपाणि तथाच श्राद्धादीनि कुतीर्थिककर्माणि यः श्राद्धो जिनाचना दिवत्कर्त्तव्यान्येतानी तिधिया समस्तान्यपि करोति तस्य प्राक्तन मनुष्टानं सकलमपि विफलमिति किमत्रवक्तव्यं ॥ यावदेतन्मध्यादेकादिकमपि तद्शादिकं वायो विधत्ते तस्याप्येतदेवमेव ॥
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48. अथ श्री संघपट्टका ---
अर्थः-ए बधुं कडं तेमां सार अर्थ श्राटलो कह्यो ले जे जिन परमात्मानुं प्रवचन ने ते निश्चे सम्यक्त तथा ज्ञान दर्शन चारिजना समुदायरुपी ने ने कुमतादि समस्ततो मिथ्यात्वरुप डे ने वळी श्राफ आदिक जे कुतीथि लोकोनां कर्म तेने जे श्रावक थश्ने नगवाननी प्रतिमाना पूजनादिकनी पेठे आतो आपणे.करवा योग्य २ एवी बुझिए करीने ते समस्त कुतीर्थिकनां कर्मने पण करे ले ते पुरुषने पूर्वे कहेढुं सर्व अनुष्टान निष्फळ थाय ने एमां ते शुं कहेवु ए सर्वमांथी एके पण होय तो पण निष्फळ थाय ने अथवा तेनो अंश लेश मात्र पण जो होय तो तेनुं पण सर्ब अनुष्टान ए प्रकारे निश्चे निष्फळ थाय . .
टीका-यमुक्तं ॥ श्राप्रपार विशशिग्रहमाघमाला संकांतिपूर्वपरतीर्थिकपर्वमालाः ॥ पापावहाविगलज्ज्वलयुक्ति । जाला जैनाः स्ववेश्मसु कथंरचयंति बालाः ॥
अर्थ:-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे श्राफ तथा पर्व ममाववी ते,तथा सूर्य चंऽनुं ग्रहण तथा माघमाला तथा संक्रांति आदिक जे अन्य तीथिकना पर्वनो समूह ते पापने वहन करनार डे ने.सर्व पर्व जे ते सारी निर्मळ युक्तिना समूहथी रहित ले तेने जैन लोक पोताना घरने विषे रचे एटले शुं करे ? नंज करे एटले अज्ञानी होय ते तो ए पर्व करे पण जैनी तो नज करे. .
टीकाः-तथा' कुगुरुर पियोनूयांस्युत्सूत्रपदानिप्रज्ञापयति तदाझ्यावर्त्तमानस्यसमेतनवहेतु रिति किमतंयावतायः
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३ ३७८)
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अप भी संघपट्टकः।
• पदमात्र मप्युत्सूत्रं प्ररूपयति तदगिरापि प्रयतमानस्य तस्य मिथ्याष्टित्वेन तदाज्ञाप्रवृत्ते नवनिबंधनत्वात् ॥
अर्थः-चळी जे कुगुरु पण घणांक उत्सूत्र पदने कहे लेने तेनी आज्ञाये करोने वर्ततो एवो जे पुरुष तेने ए सर्व क्रिया संसा. तुं कारण थाय ने एमां शुं आश्चर्य डे केमजे जे पुरुषपद मात्र पण उत्सूत्र प्ररुपे ने तेना कह्या प्रमाणे जे प्रयत्न करे नेते पुरुषने पण मिथ्यादृष्टिपणे करीने तेनी आशामां प्रवयों ने माटे संसारखें. बांधवापणुं थाय ले ए हेतु माटे. .
टीकाः-ययुक्तं ॥ उस्सूत्रोच्चयमुचूषः सुखजुषः सिद्धांतपयामुषः प्रोशर्ण्यनवतापकापथपुषः सम्यग्दृशांविद्विषः॥ येतु. जाः प्रतिजानते गुरुतया जूरीन्कुसूरीनहो,ते चुंबतिसहस्रशः श्रमन्नरोदश्राश्चतस्रो गतीः॥ .
अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे नस्सूत्रना समूहने बोधता ने विषय सुखने लोगवता ने सिद्धांत मार्गना लोपनारने जेथी संसार ताप घणो वृद्धि पामे एवा कुमार्गनी पुष्टी करनारने समकित दृष्टिवंतना वेषी एवा घणाक कुगुरुने गुरुपणे नाणे बेमाने ए मोटुं आश्चर्य . ते कुछ प्राणी एटले नीच माणस हजारो हजारवार महा फुःखवाळी चारे गतीयो प्रत्ये ब्रमण करे .
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टीकाः तस्मादेवं विधस्यगुरोः परिहार एवश्रेयान् ॥ य3. कं॥ अहितनयतः संत्रस्तानां नृणांशरणार्थिनां ॥ सुगतिस.
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व श्री संघपटक
रबिनव्यानां यः कुदेशनयानया ॥ कुनृपसुतवछीर्षश्रेणिं डि. नत्स्यसिलेखया, जबतिकुगुरुः स त्यक्तव्यः शिवस्पृहयाबुतिः ॥ __ अर्थः- ते माटे ए प्रकारना गुरुनो त्याग करवो एज श्रेष्ट जे माटे शास्त्रमा कयु २ जे कुगुरु दुःखदायि एवा संसार थकी त्रास पामेला एवा ने शरणपणाने खोळता एवा नव्य पुरुषोने सुगतिरुपी मारगने कुदेशना एटले उत्सूत्र देशना तेणे करीने नाश करे के जेम नवारो राजा तेनो पुत्र पण तेना जेवो नगरो ते तरवारवके जे सर्वेना मस्तकने बेदे तेम ए कुगुरु पण माथु कापनारज ने माटे मोक्षनी स्पृहावाळा पुरुषोए ते कुगुरुनो त्याग करवो. .
टीकाः–तथाकुयाहस्याप्यानिनिवेशिकमिथ्यात्व रूपत्वातबाहुल्येनतत्तीव्रपरिणामतयावा सर्व मेत विधीयमानमसमंजसमिति किंचित्रंयावत्तदन्यतमत्वेन तन्मंदपरिणामतयावातदेकदेशेनापि ॥ .
अर्थः-वळी कुग्राह एटले मागे कदाग्रह तेने पण आन्निनिवेशिक मिथ्यात्वरुपपणु में ए हेतु माटे यानिनिवेशिक मिथ्यावन जेने होय ते मानने नदये करीने जाणीने जूगे फाखेलों कदाग्रह डोमे नहि ते रुपपणुं बे. माटे अथवा ते कदाग्रहy बहुपणुं ने ए हेतु माटे अथवा ते कदाग्रह- तीव्र एटले आकरुं परिणाम पामवापणुं जे ए हेतु माटे अथवा ते कदाग्रहना एक · देशे करीने पण मिथ्यात्वपणुं ए हेतु माटे तथा ते सर्वनुं मंद परिणाम पा. मवापणुं ने ए हेतु माटे एमांनुं हरकोई एक होय तो सर्व करेलु
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
घटतुं थाय तो ए सर्व होय तेमां अयोग्यपणुं
( ३८० )
तप आदि अनुष्टान थवामां शुं आश्चर्य वे कांइपण नथी.
टीका - तक्तं ॥ कुग्रहाः समयनी तिबहिष्टस्वाश्रयस्वमतिकल्पन निष्टाः मानसाश्रनि निवेश विशेषा दुर्बदाइव जवार्तिकृतस्ते ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कहीं बे जे कुग्रह जे ते सिद्धांतनी नी तिथी बाहिर बे ने जेमां श्राश्रव रह्या बे ने पोतानी में तिकeपनाये स्थापेला बे ने मन संबंधी कोइक प्रकारना श्रनिंनिवेश विशेष ने एटले हठवादरुप बे ते जेम माठा ग्रह संसारमां दुःख देना a ते कदाग्रह पण संसार दुःखने आपनार दे.
टीकाः - श्रतएव जगवत् प्रवचनप्रतिपत्तावपिकुगुरुकुग्रादग्रस्तानां दारुणो विपाकः प्रतिपादित ॥ यदाह ॥ तुहपवयणं पिपा विय संज्ञाविय साहुसावगतंपि ॥ कुग्रह कुगुरुहर्ज न तखुत्तो दुपत्तो ||
अर्थ:-एज कारण माटे जगवंतना प्रवचननी प्राप्ति यये सते पण कुगुरु तथा कुग्राह एटले मागे कदाग्रह तेणे करीने ग ळाला प्राणीने महा करो विपाक एटले ए पापनुं महा करूं फळ प्रतिपादन कर्यु बे जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे तमारुं प्रवचन पामीने तथा साधुपणुं श्रथवा श्रावकपणुं सुंदर पामीने जे पुरुष माठो कदाग्रह तथा कुगुरु तेथे करीने दणाया बे. एटले. हुंका
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19. अथ श्री संघपट्टक
(३८१ )
कुगुरूंना वचन प्रमाणे चालनारा ते अनंतवार संसार कादवने विषे खुत्या ने एटले चोंट्या बे ते महादुःखने पामशे.
टीकाः - तथा कुबोधस्यापि विपर्यय ज्ञानत्वेन मिथ्यात्वरुप त्वाद् बहुजगवदुपदिष्टपदार्थ विषय विपर्ययज्ञानरुपतत्साकल्येनैव क्रियमाण मेतन्नकेवलं संसाराय किंत्वऽल्पतर जिनेोक्तार्थ विषय विपर्ययज्ञानरुप तदंशेनापि ॥
अर्थः- वळी कुबोधने पण विपरीत ज्ञानपणुं बे ए हेतु माटे घणी रीते जगवंते उपदेश कर्या जे पदार्थ ते संबंधीं जे विपरीत ज्ञान ते रुप जे कुबोध तेनुं समस्तपणुं तेणे करीनेज जे कयुं तेज केवळ संसारजण बे एम न जाणवुं. त्यारे शुं तो प्रतिशे अल्प भगवंते कहला जे अर्थ ते संबंधी विपरीत ज्ञान ते रुप जे कुबोध तेनो अंशमात्र पण संसार जणी बे. जावार्थ:-- वीतरागे उपदेशेलो एटले कहेलो जे अक्षर तेनो अर्थ पोतानी मति कल्पनाए अवळो करे तो उत्कृष्ट जांगे अनंतो संसार वृद्धि पामे तो समस्त वीतरागे कहेला' पदना अर्थनुं मति कल्पनाए वो अर्थ करे तेनुं तो शुं कहेतुं.
टीकां:- यदाह ॥ सिद्धांतमन्यार्थतयावगम्य, प्रवर्त्तमाना नफलं लग्नंते ॥ विपर्ययात्काचतयेव जात्यं माणिक्य मज्ञाः परिवर्तयतः ॥
अर्थः- जे माटे ते शास्त्रमां कयुं बे जे सिद्धांतना अर्थ बीजी रीते जाणीने प्रवर्त्तता जे पुरुष ते फळने नथी पामता. जेम
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(२०२०)
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अयश्री सघपट्टकर।
बहानी पुरुष जातिवंत माणिक्य मणिने काच जेवो जाणीने आप डे ते माणिक्य मणीना फळने नथी पामतो तेम.
'टीकाः-तथा कुदेशनाबाहुल्येनानुविधं सकल मेव पुगैतिहेतवेइति किमाश्चर्य यावत्तदशेनापि ॥ अतएवश्रीमन्म. हावीरस्य मरीचिन्नवे पदमात्रोत्सूत्रदेशना निबंधनं नूरिनवनमणं श्रूयते ॥
अर्थः-वळी कुदेशनानुं जे बहुपणुं तेणे सहित जे सकस एटले समस्त शुजकार्य तेमांज पुर्गतिनुं कारण होय तेमांशुं श्राश्चर्य. केम जे ते कुदेशनाना अंश मात्रे करीने पण पुर्गति थाय ने. एज कारण माटे श्री महावीरस्वामीने मरीचि नवने विषे पदमाअनी जे नत्सूत्र देशना तेणे करीने बांध्यु जे कर्म ते घणा लक न मण करवानुं कारण थयु एम सांजळीए बीए.
' . टीका:-यमुक्तं ॥ नत्सूत्रपदमात्रस्य, देशनेनापिजंतवः ॥ बंत्रम्यते नवांनोधौ, जूरिकालंमरी चिवत् ॥
- अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे उत्सूत्र एक पदमात्र थीपण देशनाये करीने प्राणी जे ते संसार ससुअने विषे घणा काळ सुधी मरीचीनी पेठे अतिशय ज्रमण करे . .
टीकाः-श्रागमेप्युक्तं ॥ फुभवागममकहंतो जहहियं बोहिलाजमुवहणजहलग विसालोजरमरण महोही श्रासि .
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-4
अथ श्री संघपट्टक
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(१४)
। अर्थः--ते वात श्रागमने विषे कही जे जे.
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टीका:-अथ कथं पुनर्विधिकृते जिनगृहादौकुमतायंशानुवेधः॥ नच्यते॥ पूर्वोक्तानेककुतीर्थिक मत मध्यादेकमपिजिन . गृहादिषु विदधतो नवति कुमतांशानुवेधः ॥ तथैकपदायल्पोसूत्रजाषिणः कुगुरोराज्ञा या किंचिंदेकरा त्रिस्नानादिकं जिननवनादौकुर्वतोयहान्युपेतसुगुरूक्तसमस्तधर्मकर्मविधायिनोपि कथंचि कुगुरूक्तमापार्किचित्तत्र विदधानस्य नवति कुगुरु खेशस्पर्शः॥
__अर्थ--हवे प्रतिवादी बोले ले के विधिए करीने करेलां जे जिनमंदिर श्रादिक तेने विषे कुमतादिकनो अंशनो प्रवेश केम थाय. शी रीते थाय ले तो तेनो उत्तर कहे जे पूर्वे कह्या एवा जे अनेक कुतीर्थिक मत तेना मध्यथी एक पण जिनमंदिरादिकने विषे करनार पुरुषने कुमतना अंशनो प्रवेश थाय . वळी एक पदादि अस्प पण नत्सूत्रने कहेनार एवा कुगुरुनी श्राझाए करीने जिन मंदिरादिकने विषे रात्रि स्नात्र आदिक कांश एक पण करनारने कुमतना अंशनो प्रवेश थाय ने अथवा प्राप्त थयेला जे सुगुरु तेणे कयुं एवं जे समस्त धर्म कर्म तेने करतो एवो जे पुरुष तेने पण को प्रकारे ते जिनमंदिरादिकने विषे धर्म कर्म करनार कुगुरुना देशनो स्पर्श थाय बे..
टीकाः-तथा दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितानां जंगवत्प्रतिमा नांस्नान विधानेऽस्माकमाम्नायस्तस्मा तत्रस्थितैरस्मानिरेवस्नानं
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(१८७)
8. अथ श्री संघपट्टक
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विधातव्यमित्याद्यनेककुग्राहान्यतमेन कुग्राहेनतन्मंदपरिणाम रूपतयावा तत्रस्नानादिकंरचयतःकुग्रहांशश्लेषः ॥
... अर्थः-वळी नगवंतनी प्रतिमाना स्नात्र विधिने विषे द. क्षिण आदिक देशमा रहेq एवो अमारो आम्नाय बे माटे तेजदिशमा रहीने अमारे स्नात्र करQ इत्यादिक अनेक प्रकारना कुग्राह एटले माग कदाग्रह तेमांथी हरेक को कुग्राह तेणे करीने अथवा तेना मंद परिणाम रुप कदाग्नहना अंशथी जिन मंदिरने विषे स्नात्र आदिक क्रियाने रचतो एवो जे पुरुष तेने कुग्रहना एटले.कदाग्रहना अंशनो प्रवेश थाय बे.
रीका:-तथा जाजस्सहिश् इत्याद्यागमार्थमन्यथा बुझा .. तदनुसारेण श्राकानां खस्य दिग्बंधाद्यन्यतमं प्रतीचतां कुबोध
लवानुषंगः॥ तथाऽनेकोत्सूत्रवादिन श्राचार्यादे जूंयस्याःकुदेशनायाःएकतरं किंचिउत्सूत्रपदंरात्रिनंद्यादिकं तत्रकारयतःश्राहस्य कुदेशनालेशप्रवेश इत्येवं सर्वत्रोक्तधर्मकर्मसु कुमताद्यनुवेधः स्वधियाऽन्यूहनीय इति ॥
अर्थवळी जे जेनी स्थिति इत्यादि आगमना अर्थने विपरीतपणे जाणीने तेने अनुसारे श्रावकने दिग्बंध एटले दिशन बांधवं इत्यादिक हरेक को अवळी समजण तेने ग्रहण करनारने कुबोधना लवमात्रनो प्रवेश थाय ने ए प्रकारे सर्व जगाए कह्यां एवां जे धर्मकर्म तेने विषे कुमतादिकनो प्रवेश जे ते पोतानी बुद्धिए करीते कल्पना करी लेवो.
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- अथ श्री संघपट्टकः --
( ३८५ )
टीका:- ननुकथमेतानि गरीयांसि धर्मकृत्या नि कुमता दि - लेशमात्रेणापि प्रतिरुध्यते ॥ नहिमृणालतंतुना दंतिनः प्रतिबहुं पार्यंत इत्याशंक्य विव हितार्थप्रसाधनानुगुणमुपमानमाद ॥ चरनोजनमिव स्निग्धमधुर सुस्वादजेमनमिव ॥ श्वेत्युपमानद्योतकमव्ययं ॥ विषलव निवेश तोगरलकणप्रक्षेपात् ॥
•
अर्थः- तर्ककरि समाधान थापे वे जे श्रा अतिश मोटा धर्म कृत्य जे जिनमंदिरादिक ते जे ते कुमतादिकना लेश मात्रे करीने पण केम प्रतिरोधने पामे एटले केम हितकारी थाय केम जे कमलना तांतणाव हाथी जे ते बांधवा न समर्थ थइए तेम लगार कुमता दिके करीने ए प्रकारनां मोटां धर्मकृत्य दोषरूप म या एवी आशंका करीने कद्देवानी इडा कर्यो एवो जे अर्थ तेनुं जे सिद्ध कर तेने अनुसरतो बे गुण जेनो एवं नृपमान कहे एटले तेनी उपमा दे बे जे श्रेष्ट भोजन एटले सुंदर मधुर सारूं स्वादिष्ट भोजन जेम फेरना लवनो प्रवेश थवाथी अहितकारी थाय म ए सर्व धर्मकृत्य ते कुमतादिना लवथकी अहितकारी घाय जगाए उपमा अलंकारने कहेनार इव श्रव्यय बे.
टीकाः - श्रयमर्थः ॥ इहशी हि विषकणस्यापि परिणामिकाशक्तिर्ययाद्यमपि बह्र पिनोजनं कृणादैव सकलमसौस्वात्मनावेनपरिणमयति सथा परिणमितंचत भुज्यमानमपायायजायते यथा तथा कुमता दिलेशस्यापि मिथ्यात्वरूपत्वादेवंविधम हिमायेन मदीयो पिजिनगृह विधानादि धर्मकर्म स्वस्वरूपतया जावयति ॥ तथाजावितं च तद्विधीयमानमपि संसाराय संपद्यत इति ॥
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( १८६)
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अय श्री सघपट्टका
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... अर्थः-एनोस्पष्टार्थ या प्रकारे के म फेरनाकरानी एज प्रकारनी परिणामिक शक्तिले जेणे करीने सुंदर एवं पण घणुं भोजन जे ते क्षण मात्रमांज एजेर जे ते समस्त थनने पोता जेवूज करेबे एटले पोताजेQज परिणाम पमाने ते प्रकारे परिणाम पमाम्युं जे अन्न ते नोजन करनारने निश्चे नाश पमाझे .तेम कुमत आदिकना सेशने पण मिथ्यात्वरूपपणुं ए हेतु माटे एनो ए प्रकारनो महिमा ले जे जेणे करीने अतिशे मोटुं एबुं पण जिनमंदिर कराववा आदिक धर्म कर्म तेने पोताना रूपपणे एटले मिथ्यात्वरूपपणे परिणमावे . एटले मिथ्यात्वमय करे ने ते.मिथ्यात्वरूप थयुं जे धर्म कर्म ते: संसार जणी थाय डे एटले घणुं सारूं धर्म कर्म डे पण तेमां मिथ्या-. त्वरूपी फेर नळवाथी संसार- कारण थाय ..
.:. टीका:-दमत्र तात्पर्य । यद्यपि विषयसादगुण्येन जिन . . .. गृहादिकरणं निसर्गमधुरं तथापि तद्भगवदाज्ञापुरस्कारेणैव सुग. तिफलाय कल्पते नगवदाज्ञामंतरेण जिनगृहादिकरणे पितदाराधनाऽनावेन तदनुपपत्तेः ॥
अर्थः-श्रा जगाए कहेवानु था तात्पर्य जे. जो पण विषय आधीन थश्ने विषय नोगववाने कारणे जिनगृहादिकनुं जे कर ते स्वान्नाविक देखातुं तो सुंदर जणाय ले तो पण जगवंतनी आज्ञापूर्वक जे करवू तेने जे सुगतिरुपी फळ श्रापवापणुं जे माटे जगवं. तनी श्राझारहित जिनगृहादिक करे सते पण ते लगवंतनी बाराधना तेमां थती नयी तेमां तो विषयनी आराधना थाय बे ए हेतु माटे ते जिनमंदिरादिकने करवानुं फळ थतुं नथी..
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-g. अथ श्री संघपट्टक 8
(१८७)
... टीकाः कुंतलदेव्यादीनां तत्करणेपि ऽर्गतिगमनश्रवणात् ॥थाज्ञासंप्रदानस्यैव तदाराधनोपायस्वात् ॥ यदाह ॥ तुम... मबीहिंनदोससि नारा हिज सिपयपूयाहिं ।। किंतुगुरुजत्तिरागे‘ण वयणपरिपासणेणंच ॥ - अर्थः-कुंतल देव्यादीके पण ते धर्मकृत्य कर्यां ले तो पण तेमनी पुर्गति थ डे एम शास्त्रथी सांजळीए बीए. जे माटे ते
... टीकाः–तथा ॥ यस्यचाराधनोपायः सदाझान्यास एव
हि ॥ यथाशक्तिविधानेन नियमात्स फलप्रदः ॥ लोकेपि स्वा.. मिशासनं विना तदनुकुलं किंचनविदधानोपि नृत्योनस्वामिन स्तोषाय जायते प्रत्युत रोषाय ॥ तस्याज्ञानंगजनितवैधुर्यप्राप्तेः।।
अर्थः-वळी जेने आराधननो उपाय सत्पुरुषनी आझानो अन्यास एडीज डे पोतानी शक्ति प्रमाणे नियमथी जिनमंदिर थादिकर्नु करावq तेणे करीने फळ आपनार थाय डे लोकमां. पण को पुरुष पोताना स्वामीनी श्राझा विना ते स्वामिने अनुकुल कांश्क करे ले तो पण ते सेवक स्वामिने प्रसन्न करवा नणी नथी थतो. उलटो ते स्वामिना रोषजणी थाय' ने केम में ते स्वामीनु. आज्ञानु नागवं ते. थकी थयु जे कष्ट तेनी प्राप्ति थाय ने ए हेतु माटे.
। टीकाः--यमुक्तं ॥ जिञ्चावि सामिणों शह जनेण कुषंति जेवः सनिंग ॥ हुँतिफलजायणं ते श्यरेसि किलेसमित्तंतु ।। एवमिहापिकुमतादीनिज़मवदाझा विरोधीन्यतस्तदंशानुवेधेनाफि
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(३८८)
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अथ श्री. संघपट्टक :
सर्वाएयपि जिनगृह निर्मापणादीनितन्निमिचान्यपि नगवदाझा नंगहेतुत्वानबफलान्येव.॥
अर्थः--ए प्रकारे था लोकने विषे पण नगवाननी श्रामनां विरोधी एवां जे कुमतादिक तेना थंश मात्रनो पण प्रवेश थवाथी सर्व पण जिनमंदिरादिकनुं निपजाव इत्यादिक सर्वे धर्म कार्य जे ते नगवाननी श्राझानंगनुं कारणपणुं एमां रघु बे ए हेतु माटे संसाररुपी फळनेज थापनारां.
टीकाः-समप वित्ती सबा आणावज्जति जवफलाचेव ॥ तित्थगरुहेसेणवि न तत्त सातदेसा॥ अतएवसम्यक्तशुझिहे. तवे कर्तव्यतयाऽनिहितान्यप्येतान्यसमंजसवृत्या क्रियमाणानि तदनावापादकत्वेन श्रूयंते ॥ यदाह श्री हरिनसूरयः ॥ पाएणणंतदेउसजिणपमिमा कारियान जीवहिं । असमंजस वित्ती ए नय सिको दसणलवोवि ॥ तदेवंविषलवसंवलितनोजनो . पमानेम जिनगृहादिविधानस्य कुमतादिलेशसंस्पर्शिनोप्यन निमतकारित्वं व्यवस्थित मिति वृत्तार्थः ॥ २०॥
अर्थ--एज कारण माटे समकितनी शुद्धिना कारण माटे में शास्त्रमा करवा योग्यपणे कह्यां एवां जिनमंदिरादिक तेने श्रघट-: ती वृत्तिए करीने करे तो ते धर्म कर्म न करूं कहेवाय. एम शास्त्रमा प्रतिपादन कयु बे ते संजलाय . जे माटे श्री हरिजप्रसूरिए कडंडे जेतेहिज कारण माटे विष लवमिश्रित जेन्नोजन तेंनी नपमा देवी तेणे करीने जिनमंदिर श्रादिकनुंजे कर तेने कुमत आदिकाना
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-48 अथ श्री संघषक:
( ३८९ )
लेश मात्रनो पण स्पर्श थाय तो वांछितकारी ते न थाय एटले ते जिनमंदिरादिकने कराववानुं फळ न थाय एम सिद्धांत थयो. ए प्रकारे श्री काव्यनो अर्थ समाप्त थयो. ॥ २० ॥
टीका:-- श्रधुना मुग्धजनाकर्षण निमित्तं जिनबिंब प्रदर्शनादिद्वारेण लिंगिनां लोकप्रतारणं दर्शयन्नाह ॥
अर्थः- दवे जोळा लोकने यार्कषण करवाने काजे जिंनविंब देखाng इत्यादि द्वारे करीने लिंगधारीन लोकने ठगे वे तेने देखाकृता सता कहे .
मूल काव्यम्.
आकृष्टुं मुग्धमीनान् बंमिश पिशितवद्विबमादर्श्य जैनं । तत्राम्ना रम्यरूपानपवरकमठान् स्वेष्ट सिद्र्ययै विधाप्य ॥ यात्रास्नात्राद्युपायै र्नमसितक निशा जागरा श्वश्व | श्रद्धासुर्नाम जैनैश्वलित इव शवैर्वच्यते दा जनोऽयम् ॥ २२ ॥
टीकाः - श्रकृष्टुं मुग्धमीनान् जैनबिंबमादर्य नामजैनैर्जनोयं वच्यत इति संबंधः तत्राकृष्टुमितिः स्ववशमानेतुं नतु पुण्य-: मर्जयितुं मुग्धा देयोपादेय विचारशून्यतया धर्मश्रद्धालवस्तएव
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अथ श्री संघषकः ।
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जमप्रकृति तयास्वहिताहितपरिज्ञानवैकल्पसाधान्मीनामस्यास्तान् बिंबं प्रतिमां जैनं नागवतं श्रादर्यदर्शयित्वा यथा "नोजव्या ऐहिकामुष्मिकसुखसाकल्पनिधानकस्पमिदमहि । - पूजयत नक्त्येति सामान्यतोऽथवा नवत्पूर्वजैरतबिमार्हतं नि
मापित। तथेदमेव प्रत्यहं नियमेनापुपूजन् ॥ततो नवनिरपोदमेव विशेषेण पूजनीयं ॥
अर्थः-विचार रहितपणे धर्मनाश्रमायुएवाजे पुरुष तेहिज नम प्रकृतिपणे पोताना हितनुं तथा अहितनुं यथार्थ ज्ञान नथी माटे ए पुरुषने मत्सर्नु समानपणुं डे माटे मत्स जेवा तेमने जिन जगवंत संबंधी बिंब एटले प्रतिमा तेने देखामीने एटले लिंगधारी ए श्रावक लोकोने एम कहे जे नोनव्याः एटले हे नाविक प्राणी, था लोकना तथा परलोकना समस्त सुखना निधि समान प्रा अईतनुं प्रतिबिंब ले तेने नक्तिनावे पूजो अथवा तमारा पूर्वज एटले वृको तेमणे मा जिन प्रतिमा निपजावी डे ने एज प्रतिमार्नु नित्य पूजन तमारा वृद्धो करता हता माटेतमारे पण श्राज प्रतिमानुं विशेषे करी पूजन कर.
.. टीकाः-तथाईहिंबनिर्मापणमेव संप्रति जवजलधिनिप। ततुतारणायालमितिनवनिः स्वश्रेयसे नवीनं जगवहिबं स्व: नानाविधापनीयमिति विशेषतोमुग्धजनपुरतः प्रज्ञाप्येत्यर्थः । किल यतिना देशनाद्वारेण जिनर्षिबार्चनादेगुहिपुरः फलमुपवर्णनीयं ॥ तत्फललिप्सया तदनुसारेण मृहिणः स्वयमेव तत्रप्रवृश्युपपत्तेः॥
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-48 अथ श्री संघपहक 8
अर्थः- वळी आईनी प्रतिमानुं निपजावतुं एज था काळने विषे संसार समुद्रमां पमेला प्राणीने तारखा समर्थ बे ए हेतु माटे तमारे पोताना कल्याणने अर्थे नतुं भगवंतनुं बिंब एटले प्रतिमा ते पोताना नामनी नवी प्रतिमा कराववी जोइए ए प्रकारे विशेषे करीने जोळा माणसनी आगळ प्ररूपणा करीने एटलो अर्थ बे. वळी साधुए देशना द्वारे करीने गृहस्थनी आगळ. जिन प्रतिमाना पूजनादिकनुं फळ वर्णन करतुं जोइए ने ते फळने पामवानी इच्छाए गृहस्थ पोतेज ते प्रकारनी क्रियादिक करवामां प्रवर्त्तशे.
( ३९१ )
टीकाः नतु साक्षात् तन्निर्माण निर्माणयोरुपदेशो दासव्यस्त डुपदेशस्य सावद्यतया यतेर्निषेधात् ॥ लिंगिनस्तु कथमा जन्मामी गृहिणोऽस्माकं वश्या जविष्यंती तिधिया मै दिकमेव स्वार्थं केवलं चिंतयंतोधूर्त्ततया पूर्वपुरुषसंबंधितादिक्रमेण मुग्धेयो जिनबिंबमादर्शयति ॥
अर्थ :- पण ते प्रतिमानुं करावतुं तेनो उपदेश करवानो यतिने निषेध बे ए हेतु माटे ने लिंगधारी तो एम जारो बे जे श्रा गृहस्थ लोक जन्मारा सुधी आपणे वश केम करीए तो थाय एवी बुझिए या लोकनोज केवळ स्वार्थ तेनो धूर्तपणे विचार करता सता प्रथमतो या जगाए तमारा वृद्ध पूजनादिक करता हता ए प्रकारनो पुरुष संबंध देखावो एवा अनुक्रमे करीने मोळा लोकोने जिनबिंब देखाने बे.
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( ३९२ )
अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- तेस्तु मुग्धत्वात्तदाशयमनवबुध्यमानाकजु श्रद्धालुतया पूर्ववंश्यस्नेहस्वकारितममतादिना तत्र जिनबिंबादौ नित्यं द्रव्यं व्ययंते लिंगिन श्वेत डुपयुंजते स्वेनयेति ॥ नवति तदाकर्षणार्थं लिंगिनां जिनबिंब दर्शन मिति ॥ किमिवेत्याइ ॥
अर्थ:-ने ते जोळा लोकोतो अणसमजु बे माटे लिंगधारीउनो उगवारुप दुष्ट अभिप्राय तेने नथी जाणी शकता ने सरल श्रद्धालुपणे वृद्धपरंपराथी चाली श्रावती ने पूर्वजना स्नेहथकी थयेली जे ममता इत्यादि कारणे करीने ते लिंगधारी उए उपदेश करेली जे जिन प्रतिमा तेने विषे नित्य द्रव्य खरचे बे. ते द्रव्य लिंगधारी जुने उपयोगी थाय छे तेने पोतानी इछा प्रमाणे वापरे बे माटे ते मोळा लोकोने आकर्षण करवा एटले पोताना जणी खेची लाववाने लिंगधारीन जिनबिंब देखा बे ते कोना जेवुं बे तो ते हवे कढ़े बे जे.
टीका:-मिशं मत्सवेधनं तदग्रे मत्स्य विलोभनाय स्थापितं पिशितंमांसं तद्वत् ॥ वतिरुपमाने ॥ तदिव ॥ यथाधीवरा मत्स्याकर्षणाय व मिशाग्रेपिशितं स्थापयंति तेच तल्लोजतया स्वापायमागा मिनम विजावयंतो गभीरादपिनी राशया निर्गत्यमुधत्वात्तत्र लीयमानाबध्यते एवं लिंगिनो पिमुग्धजनानां स्ववशता विधानायोक्त विधिना जगवदूर्बिक्मादर्शयति नतु संसारनिस्तारणाय ॥
अर्थः- मत्सने विंधवानो जे लोढानो कांटो तेने बमिश
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अथ श्री संघपट्टक
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(१९३)
कहीए ने तेनी आगळ मत्स्यने लोनाववाने अर्थे स्थापन कयु जे मांस तेनी पेठे या जगाए वत् प्रत्ययनो उपमारुपी अर्थ करवो तेणे करीने बमिश मांसनी पेठे एम अर्थ थयो एटले माली लोक मानखां खेंची लेवाने लोढाना कांटानी श्रागळ मांसनो कमको स्थापन करे डे तेने लेवाना लोनथी माउला पोताना ए लीधाथी प्राण जशे एम न.विचारतां महा गंजीर एवा मोटा ध्रोमांथी नीकळीने ते कांटा. नी आगळ रहेला मांसने लक्षण करवा जतांज बंधन पामी मरण पामे डे शाथी के ए माउलांमां लोळापणुं रह्यु डे ए हेतु माटे. तेम जिंगधारीन. पण नोळा लोकने नोळवीने पोताने वश करवाने पूर्वे कमु ए प्रकारना विधिए जगवंतना बिंबने देखामे पणसंसारं तारवाने अर्थे जिनबिंब देखामता नथी.
टीकाः--तेचश्राझाः स्नेहादिना प्रत्यहमे वतत्पूजनादिकं विदधाना विवेकशून्यत्वादनगवगुणबहुमानेन पूजादिक्रियमाणं मोक्षाय नतु ममतादिनेत्यजानाना नाविनमात्मनोऽर्गतिपातमचिंतयंतो लिंगिनिर्वशीकृत्यसततमुपजीव्यंत इति नवति पशिपिशितसमानं जिनबिंब मिति ॥
- अर्थ:-ते श्रावक लोक जे ते स्नेहादिके करीने निरंतरज तेनुं पूजन प्रमुख प्रत्ये करे ले विवेक शुन्यपणुं बे ए हेतु माटे ने नगवंतना गुणर्नु बहुमान कर, तेणे करीने पूजनादिक जे कर ते मोक्ष लणी बे. पण ममतादिके करीने जे करवू ते कांश मोक्ष जणी नथी ए प्रकारना अनिप्रायने न जाणता. एवा जे ते पुरुष पोताना आत्मानुज पुर्गतिमा पमवापणुं तेने न विचारता एवा ते लोकोने
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( ३९४ )
48 अथ श्री संघपट्टकः
वश करीने निरंतर ए लिंगधारी पोतानी आजीविका करे वे माटे ए जिनबिंब मत्स्य कालवाना कांटाने विषे रयुं जे मांस ते समान कुसुंबे.
टीका:- ननुकथं जिन बिंबब मिश पिशितयो रुपमानोपमेयभावः॥ समान गुणयो रेवोन्नयोरलंकारग्रंथेषूपमानोपमेयनाव. प्रतिपादनात् || महाकविकाव्येषु तथा दर्शनात् ॥
अर्थ:- ए जगाए प्रतिवादि तर्क करे बे जे जिनबिंबने मत्स्य जलवाना कांटाने विषे रयुं जे मांस ए बेने नृपमान ने उपमेय एवा जे नाव ते केम थाय. केमजे बरोबर गुणवाळां जे उपमान ने
पमेय ए बेने अलंकारना ग्रंथने विषे उपमान तथा उपमेय नाव या एम प्रतिपादन कर्यु बे ए हेतु माटे ने वळी महा कविना काव्यने विषे तेम देखाय बे ए हेतु माटे.
टीका:- त्रतु जिन बिंबस्यसकल त्रिभुवनातिशायिनः सर्वोपमातीतत्वादत्युत्तम वस्तूपमायोग्यत्वात् वा ब किश पिशितस्य. च सर्वात्यंतहीनत्वात् कथं तेनोपमा. उत्तममात्रस्यापि हीनमात्रेणाप्युपमानोपमयेय जावो नयुक्तः । किंपुनः सर्वोत्तमस्याधमेन ॥ एवंच जिनबिंबस्य ब मिला पिशितेनोपमानोपमेयभावप्रदर्शने कवितुर्महापापप्रसंग ः ॥
अर्थः - श्रा जगाए तो समस्त त्रिलोकने विषे महा छातिशयवंत पटले सर्वोपरि एवं जे जिन बिंब ते तो सर्व उपमा थकी
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-48 अथ श्री संघपट्टकः 8
( १९१ )
रहीत बे एटले एवी कोइ त्रिजगतमां वस्तु नथी जे जेनी जिन बिंबने उपमा करीए ए हेतु माटे अथवा उत्तम वस्तुनी उपमा दे - वानुं योग्यप ने ए हेतु माटे ते बनिश मांस तो सर्व थकी अत्यंत हीन बे एटले अति नीच बे माटे केम तेनी साथे उपमा संजवे नज संजवे केमजे उत्तम मात्र जे वस्तु तेनी पण हीन मात्रनी संघाथे उपमान तथा उपमेय नाव करवो युक्त नथी तो सर्वोत्तम जे जिन बिंब तेनी अधम जे वमिश मांस तेनी साथे उपमा घटे ज क्यांथी ने वळी ए प्रकारनी कविता करनारने पण जिन बिंबने an मांस ते बेनी उपमान उपमेय जाव देखा बते महा पापनो प्रसंग याय वे एटले एम कह्याथी कविने मोटुं पाप बंधाय के.
टीकाः -- किंच काव्यालंकारमार्गे चंगा खियुष्माभिः साहसं परमं कृतमित्यादिन्यायेन हीनोत्तमस्योपमानकरणे कवे-महाकाव्याकौशलदोषा निधानात्तत्सर्वथा नायमुपमानोपमेयजावो घटां प्रांचतीति ॥
अर्थ:----वळी शुं तो काव्य तथा अलंकार तेना मारगने विषे को इक पुरुषे सारा पुरुषना माटे एम कविता करी जे चंकालनी पेठे
तमोर मोटुं साहस कर्म कर्यु ते कविता जेम दोषवंत बे ए. न्याये
करीने धमनी उपमा उत्तम पुरुपने करे सते कविने महा काव्य
नुं जे महापणपणुं तेमां दोष बे एम कयुं बे माटे ते मत्स्य काखवाना कांटानुं मांस तेनी उपमा जिनबिंबने श्रापवी ते सर्व प्रकारे पं. उपमान उपमेय जान घटतो नयी सर्वथा अघटित के.
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- अथ श्री सघपट्टकः
टीकाः - तन्न ॥ खोकाकर्षणेन स्व निर्वाहहेतोर्लि गिपरिगृही-तस्य जिनबिंबस्योत्तमस्याप्यसडुपाधिवशात् दुःपरिवारपरिवृतराजादेखि वांछितफलासाधकत्वा द्धीनताध्यारोपेणोप 'मानेन साम्यापादनादुपमानोपमेयभावोपपत्तेः ॥
( १९६ )
अर्थ:-- हवे उत्तरकार कहे बे जे जे तुं कहुं हुं ते तेम नथी केम जे लोक आकर्षण करवा माटे तथा पोताना निर्वाहने काजे - जे लिंगधारीए ग्रहण कर्यु जे जिनबिंब ते उत्तम ढे तो पण असत् उपाधिना वशथी जेम राजादिक बे ते मागे परिवार तेथे करीने बींटी लीधो होय ते वांचित फळ एटले इचित फळ तेनुं साधन करी शकतो नथी तेम हीनपणानो यारोप करनार एवो मारे पण ए बशिमांस साधे ए जिन बिंबनुं समपणुं प्रतिपादन करवाथी उपमान उपमेय जावनी सिद्धि यशे ए हेतुं माटे.
टीका:- ननु तथापि नैतटुपमानं जिनबिंबस्य संगहते !! सिद्धांते कचिदपि जिनबिंबोद्देशेनैवं विधोपमानानुपलं नात् ॥
अर्थः-वळी ते प्रतिवादी आशंका करे वे जे एम बे तो पण जिन बिंबने एवी उपमा घटेज केम केम जे सिद्धांतमां कोइ जगाए पस जिनबिंबने नद्देशीने एंवी उपमा दीधी देखाती नथी.
* टीका: -- इति चेन्न तत्राप्युपलब्धेः ॥ तथा हि ॥ शीलेह मंखफल इत्याद्यागमे स्वनिर्वाहा दिहेतु चैत्यादी नामुपमेयानामत्यंतस्वसमताप्रदर्शनायोपमानैर्मखफलकै र तिहीनैः स्वांत निमीर्थ-
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- अथ श्री संघपट्टक :
(३९७) तयाऽभ्यवसिताना मुपमापेक्षयातिशयोक्त्याऽतिहीनतायाः प्रति- :पादनात् ॥
अर्थः-सिद्धांतो कहे जे जे जो तुं एम कहेतो होय तो ते न कहेवू केम जे ते सिझांतमां पण एम नपमा देवा जे ए हेतु माटे तेज कही देखा जे जे 'शीलेहमखफलए' इत्यादिक आगम तेने विषे पोताना निर्वाह आदि कारणे कराव्यां एवां जे चैत्य प्रादिक उपमेय वस्तु तेनी साथे अत्यंत पोतानुं समपणुं ते देखामवाने नपमान एवां ते अतिहीनमंखफलक तेने मनमांराखीने नपमानी अपेक्षाए अध्यवसाय कर्यो के एटले निश्चय कयों ने एटले. चैत्यने मंखफलकनी नपमा दीधी ले तेनुं अतिशयोक्ति अलंकारे करीने श्रतिहीनपणानुं प्रतिपादन कर्यु जे ए हेतु माटे.
टीकाः-नपमायांद्युयोरपि स्वतंत्रतया पार्थक्येन प्रतीते स्तुल्यतामात्रमवगम्यते ॥ अतिशयोक्तौतु कमलमनंजसिकमखेचकुवलये इत्या दिवदेव नामसाम्यमुपमेयस्योपमानेन, ॥ येनमंखफलकैः सर्वथात्मनैकात्म्यमापादितानि जिनबिंधानि मंखफलकान्येव चैतानि लिंगिनिर्वाहहेतुचैत्यानि नतु जगवहिंबानीति ॥
अर्थः-नुपमा अलंकारने विषे नपमान जे चंडादिकने उपमेय जे मुखादि ए बेनुं पण स्वतंत्रपणे जुईजुईजे जासन तेथे करीने तुल्य मात्रपणुंज देखाय डे ने अतिशयोकि अलंकारने क्पेि तोस्थखकमल तथा जलकमळं ए बेने विषे जेमः कमळ शब्द वष
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(३९८)
अथ श्री संघपट्टकः
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राय डे इत्यादिकनी पेठेज उपमाननी साथे उपमेयर्नु तुल्यपणुं ले जे हेतु माटे मंखफलकनी संघाथे एक रुपपणाने प्रतिपादन कर्यो जे जिनबिंब तेज मंखफलकज. केम जे लिंगधारीए निर्वाह कारणे कयों जे चैत्य ते मंखफलकनी पेठे श्राजिवीका हेतु . माटे ते जगवद्विबज नथी ए से पूर्वे का ए, बहिशमांसज .
टोकाः-तथाचातिशयोक्तिलक्षणं ॥ निगीर्याध्यवसानंच प्रकृतस्यपरेणय दित्येवंच कथं नागमे एवं विधोपमानोपलंजसन
वस्तथाच सिद्धांतानुसारेणोपमानोपमेयनावं निबनतः कवेः - कथं पापलेशोपि ॥ कथं चोक्तन्यायेन समानगुणयोरुनयो
स्तन्नावं अथ्नतः कवितुः काव्यानैपुणदोषप्रसंगोपीतियुक्त मुक्त प्रकरणकारेण बमिशपिशितवदित्युपमानं प्रकृतजिनविंबस्येति॥
. . अर्थः-वळी अतिशयोक्ति अलंकारनु लक्षण जे वएयं वस्तुने पोलवीने श्रवर्य वस्तु एटले परवस्तु तेणे करीने जे प्रकृतवस्तुनो धारोप करवो ते. हे प्रकारनो श्रागमने विषे उपमान वस्तुने देखवानो केम संन्नव नथी तो संजव ने माटे सिद्धांतने अनुसारे नपमान उपमेय नावने बांधतो एवो जे कवि तेने पापनो लेश पण क्याथीज होय ने वळी पूर्वे कह्यो एवो जे 'न्याय तेणे करीने समान ले गुण ते जेना एवो जे नपमान नावने उपमेय नाव तेने बांधतो एवो जे कवि तेना काव्यमां महापणपजाने विष दोषनो प्रसंग क्याथीज होय माटे प्रकरणना कर्ता पुरुषे . जे कछु ते युक्तज कमुळे ते शुं तो ने सिंगधारीए प्रहण करेखां
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-4 अथ श्री संघपट्टकः 8
जिनबिंग सेने बशिमांसनी उपमा दीधी ते ठीक कयुं छे.
( ३९९ )
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टीकाः - श्रत्रचापवित्रेण व शिपिशितेनोपमानं लिंगिपरिगृहीतस्य जिनबिंबस्याऽत्यंतदेयताज्ञापनार्थं ॥ श्रागमेऽतिदेयस्याधाकर्मादेगोमांसादिनैवोपमानोपमेयदर्शना दिति ॥ - नेन चोपमानेन सिद्धांता निहितमंखफलकोपमानसंवादिनालिंगि परिगृहीत जिनबिंबस्योपाधिकमनायतनत्व मपिसूचितं ॥
अर्थः- :- जगाए अपवित्र एवं जे बशिमांस तेनी उपमा लिंगधारी गृहण कर्यु जे जिनबिंब तेने दीधी तेथी ए जिनबिंबनुं अतिशय त्याग करवापणुं बे एम जणाववाने श्रर्थे कधुं छे. याग• मने विषे अतिशय त्याग करवा योग्य एवं जे प्राधाकर्मादिक तेने गोमांस श्रादिकनी संघाथेज उपमेय. पणुं देखाय, बे ए हेतु माटे ने सिद्धांतने विषे मंखफलकनी जेम उपमा दीधी बे तेम लिंगधारीए ग्रहण कर्यु जे जिनबिंब तेने उपाधिथकी थयुं एवं जे अनायतनपशुं तेनी पण सुचना करी एम जाणवुं.
"
टीका:- तथादि ॥ बहुशस्तावदागमेयतीनां श्राद्धानां चायतनसेवाऽनायतनप रिहारोपदेशः श्रूयते ॥ तत्रकिमिदमायतनं किंवानायतन मिति ॥ तत्रप्रथमं प्रतिपक्ष निर्नयेनायतनस्वरूपं सुगमंत्रवती त्यनायतनस्वरूप मुच्यते ॥
अर्थ :- घणीवार श्रागमने विषे साधुने तथा भावकने आ यतमनुं सेवन करवुं ने अनायतननो त्याग करतो एवो उपदेश सां
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( ४०० )
- अथ श्री संघपट्टक
जळीए बीए तेमां श्रा ते शुं श्रायनन डे के अनायतन बे एवो विचार कहीए बीए तेमां प्रथम प्रतिपक्षनो निर्णय करवो तेथे करीने आयतननुं स्वरुप तो सुगम माटे नायतननुं स्वरुप कहीए बीए.
टीकाः – तथाह्यनायतन मस्थानं ज्ञानादिगुणानामिति सामम्यं ॥ श्रथवा ॥ ज्ञानाद्याऽऽयहा निजननादनायतनं ॥
॥ यमुक्तं ॥
सावमाययणं ॥ सोदिगणं कुशीलसंसग्गी ॥ एगहाकुंतिपया एविवरीय आय ॥
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प्रर्थः -- तेज कही देखा बे जे अनायतन एटले अस्थान ते स्थान कोनुं तो के ज्ञानादिक गुणनुं. एटले ज्ञानादिक गुण मां स्थान करी रह्या नयी तेने अनायतन कहीए. ए प्रका मो अर्थ सामर्थ्य थकीज प्राप्त थयो अथवा ज्ञानादि गुणनो श्राय एटले लाज तेनी हानि करनार ए वे माटे अनायतन कहीए. ते वात शास्त्रमां कही वे जे सावय जेमां बे ते अनायतन जाणवुं तथा ते अशुद्धपणानं स्थान बे ने तेमां कुशीलनो संबंध रह्यो बे माटे ए सर्व पद एक अर्थवाळां वे केम जे एने सावय कहो अथवा चनायतव कहो अथवा अशुद्धिस्थानं कहो अथवा कुशील संबंधी कहो ने एथी जे विपरीत तेने श्रायतन कहीए.
टीकाः तच्चद्वेषा ॥ लौकिक लोकोत्तरिकभेदात् ॥ लौकिमपि द्रव्यभावनेदाद्विधा ॥ तत्र द्रव्यती लौकिकमनाय
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-4 अथ श्री संघपट्टकः 8
( ४०१ )
तनंद्रसदनादि भावतोवेश्यादयः जिनप्रवचनबाह्यस्य यथासंख्यं द्रव्यरूपस्याशुमजाव रूपस्य च सतोद्वयस्यापि यथासंभवं संसर्ग वंदनसेवनादिना सम्यग्दृशां ज्ञानादिविघातनिमित्तत्वात् ॥
अर्थः-- अनायतन बे प्रकारनां एक तो लौकिक ने बीजो लोकोत्तर ए वे प्रकारना नेदे बे. तेमां लौकिक पण द्रव्य तथा जाव बे प्रकारे बे मां द्रव्यथी जे लौकिक अनायतन ते तो शिव मंदिर यदि जावं. ने जावथी जे अनायतन ते तो वेश्या दिकनुं घर जाणवुं. जे जिनना प्रवचनथी बाह्य ययुं ने एटले सिद्धांतथी विरुद्ध बे ते द्रव्यरूपे तथा जावरुपे होय तो पण ए बेनुं संसर्ग, वंदन तथा सेवनादि जे ते समकित दृष्टिवंत प्राणीनुना ज्ञानादिकने विघातनुं निमित्त कारण बे ए हेतु माटे ते अनायतन त्याग करवा योग्य बे.
टीका: दवे रुहाइ धरा श्रलाययण जाव विहमेव ॥ लोइयलोनत्तरियं तहियं पुए लोइयं इमो || खरिया तिरिक्खजोली तालायरसमणमाहण सुसाणे वग्गुरियवाङ्गुम्मियदरिएसपुलिंदमच्छंधा ॥ लोकोत्तरिकमपि जावतोऽनायतनं सुविदिताचारपरिभ्रष्टा लिंगमा त्रधारिणः शक्तिमंतोपि संयम क्रियामणीयसीमप्यकुर्वाणाः यत्याजासाः ॥ यदाद || अहलोगुत्तरियं पुष्षणायण नाव, मुणेयवं ॥ जे संजमजोगाएं करिंत दाणिं समत्यादि ॥
अर्थः लोकोन रिक जे ते पण जावथी अनायतन ए बेजे
પા
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( ४०२ )
- अथ श्री संघपट्टकः
सुविहितना आचारथकी भ्रष्ट थयेला एवा ने केवल लिंगमात्रने धारण करता ने शक्तिवंत बे तोपण अतिशय थोमी पण संजमनी क्रियाने करता नथी एवा जे यतिना श्रनासरुप पुरुष ते लोकोत्त रिकनाथ अनायतन बे जे माटे ते वात शास्त्रमां कही ते जे.
टीका:- तेषांजैन लिंगस्थितानामशुजन्नाव रूपाणां सतामा -- लापवंदनादेर्ज्ञानाद्यायहा निदेतुत्वात् ॥ तटुक्तं ॥ घालावो संवासो वी संजो संथवो पसंगो वा ॥ ही पायारे हि सम्मं सब जिि दिपकुठे ॥
अर्थः- ते अशुन जावरुप एवा ने जिन संबंधी जे लिंग एटले चिह्न तेने विषे रहेला एटले लिंगधारी तेमनी साथे जे बोलवु तथा वंदन करवुं इत्यादिकने पण ज्ञानादिना लाननी हानीनुं कारण बे. ए हेतु माटे ते वात शास्त्रमां कही जे जे पासथ्यादिकनी साधे बोलतुं, तेमनी साथे निवास करवो, तेमनो विश्वास करबो तथा तेमनो परिचय करवो. एटले वस्त्रादिक आप लेतुं इत्यादिक व्यवहार ते सर्वनो जिनेश्वरे निषेध करेलो बे.
टीका: श्रतएव जिनशासन स्थितानामपि तेषां वंदनादिकं निवारित मागमे ॥ यदाद || वंदणपूयणसक्कारणारं सवं न कप्पएकानं ॥ लोगुत्तमलिंगीण विकेसिंचेवंजन शियं ॥ पासत्थोसन्नकुसी लनीयसंसत्तजणमहाबंदं ॥ नाऊपतंसु विहियासवप्पयत्तेण वज्जंति ||
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अथ श्री संघपट्टक
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(४०३)
अर्थः-एज हेतु माटे जिनशासनने विषे रह्या एवा ते लिंगधारी पुरुषोनुं वंदनादिक जे ते पण शास्त्रमा निवारण कयु ले माटे ते शास्त्रमा आ प्रकार, वचन ले जे.
टीकाः अथ कथं निर्गुणत्वेपि पार्श्वस्थादीनां वंदनादि प्रतिषेधः॥ लिंगमात्रस्यैव हि वंद्यत्वेनान्युपगमात् ॥ तस्यच तेषामपि सनावात्।। लिंग ग्रहणेन कथंचिदकार्य चिकीबोरपियतेजनायवादशंकया तत्र प्रागेवाप्रवृत्तेः॥
___ अर्थ:-हवे ते लिंगधारी प्रतिवादी बोले जे पासथ्थादिक गुण रहित ले तोषण तेमने वंदनादि करवानो केम निषेध करोडो केमजे वंदन करतुं तेमां तो केवळ लिंगमात्रनुंज अंगिकार करवापणुंडे एटले मोटा पुरुषनो वेषमात्र देखीने नमस्कार करवो. पा का गुण जोवा नहिने ते लिंगमात्रनुं धारण करवापणुं तो पासथ्यादिकमांडे ने जो तेमणे लिंगधारण कयु हो तो कोई न कस्कार्नु कार्य करवा श्वशे तोपण ते यतिने खोकापवादनी शंकाये करीने तेमां प्रवृतिज प्रथमयी थशे नहि माटे ए प्रकारनो गुण ए वेषमा रह्यो ने माटे ते वेषधारीने नमस्कार करवानो पण केम निषेध करोडो ए जाव .
टीकाः चेषपदास्य 'धम्मररका वेसो' इत्यादिनोपदेशमालायामपिचारित्ररक्षकत्वेन प्रतिपादनात् ॥ श्रेणिकादीनामपि जिनप्रवचने प्रवादपारंपर्येण रजोहरणादिमात्रस्य वंदन श्रवणात् ॥
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(४०४)
4. अथ श्री संघपट्टकः
Aware
. अर्थः-वेष ग्रहण करवो ते पण चारित्रनी रक्षा करनार बे केमजे ते वात उपदेशमाळामां प्रतिपादन करी जे जे वेषजे ते चारित्र धर्मनी रक्षा करे ने इत्यादि वचन ने ए हेतु माटे वळी श्रेणिकादीक राजाए पण रजोहरण मात्र देखीने वंदन कर्यु डे एम जिन शासनने विषे वृद्ध परंपराए सांनळीए बीए ए हेतु माटे.
टोकाः-किंच नवतु सगुणस्यैवयतेवंदनं तथापि संप्रतिजिनगणधरादिशातिशयपुरुषविरहे प्राणीना मंतरंगशुकाशुझाध्यवसायपरिज्ञानाजावान्नास्मदादिनिः सगुणनिर्गुणमु. निविनागः सम्यगवसातुंपार्यते ॥ तस्मान्नेदानींतनजनानायतिगुणागुणचिंतया तवंदनादिकर्नु मुचितं किंतर्हि रजोहरणादिगिमात्रदर्शनेनेति ॥
अर्थः-वळी तमे एम कहेता हो जे गुण सहित जे यति ले तेनुंज वंदन हो तो पण या काळमां जिन तथा गणधर इत्यादिक अतिशयवंत जे पुरुष तेनो विरह थये सते प्राणीना अंतरंगना जे शुभ अथवा अशुद्ध एवा जे श्रध्यवसाय तेनुं आपणने ज्ञान नथी माटे श्रामुनि गुण सहित ने श्रा मुनि गुण रहित ठे एवा विजाग करी यथार्थ जाणवाने श्रापणा जेवा को पुरुष समर्थ थता नथी. माटे आ काळना लोकने मुनिना गुण तथा अवगुण ते बेनो विचार डोमी दश्ने ते मुनिने वंदनादिक कर घटे ने तो रजोहरण मात्र लिंगने देखीने वंदन करवू तेमां तो शुं कहेवू ए तो वंदन करबुज.
टीका:-यमुक्तं ॥
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- अथ श्री संघपट्टक
केवलमणोदिचनदसदसनवपुब्वीदिं विरहिए इहिं ॥ सुमसुद्धं चरणं ॥ को जाइ कस्स जावंवा ॥ (तथा) सुविहियडु विहियंवा नाहं जाणामहंखुग्नमत्थो ॥ सिंगंतुपूययामी तिगरण सुद्धे जावेति ॥
(809)
टीकाः - श्रत्रोच्यते ॥ यत्तावुक्तं लिंगमात्रस्यैव वंद्यत्वादिति तदयुक्तं ॥ संयमब्रह्मचर्या दिगुणानामेव यत्यनुषंगियां बंध: नागमेऽ निधानान्नतुलिंगस्य ॥
यमुक्तं ॥
वंदामि तवं तह संजमंचखंती यबंजचेरंच || जं जीवाण नहिंसा जंच नियत्ता गिढ़ावासा ॥
अर्थः- श्रा जगाए सुविदित समाधान करे बे जे तमोए कयुं जे लिंग मात्र देखीनेज वंदन करवुं ते प्रयुक्त बे. केमजे यतिने विषे रह्या एवा संजम तथा ब्रह्मचर्य इत्यादिक गुणनुंज शास्त्रमां वंदन करतुं कथं वे पण लिंग मात्रनुं वंदन करवुं कथं नथी जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे तमारा गुण जे तप, संयम, शांति, ब्रह्मचर्य, जीवनी श्रहिंसा, तथा अनियत गृहवास एटले एक ठेकाणे नियमाये न रहेवुं इत्यादि ते गुणने हुं नमस्कार करूं हुँ.
टीका: - लिंगमात्रस्तु वंद्यत्वे निह्नवानामपिवंदनीयत्वापत्तेः ॥ लिंगमात्रदर्शनस्य तत्राप्यविशेषात् ॥
यमुक्तं ॥
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- अथ श्री सघपट्टकः 8
जते लिंगपमाणं वंदाही निहुए तुमं सव्वे ॥ एए अवंद माणस लिंगमवि अप्पमाणं ते ॥
( ४०६ )
·
अर्थः--- जो लिंगमात्र वंदनीक होय तो निह्नवने पण बंद - नीकपणानी प्राप्ति थाय के मजे लिंग मात्रनुं देखतुं ते तो निहुव पुरु पने विषे पण बे ए हेतु माटे ते शास्त्रमां कहुं बे जे जो वंदनपयाने विषे लिंग मात्र प्रमाणभूत होय तो सर्व निह्नवने पण वंदन करवानी प्राप्ति थाय पण निह्नवतो वंदनीक बे माटे लिंग पा प्रमाणिक a.
टीका:-थ निहृवानां संघबाह्यतया प्रकाशितत्वेनागमे तद्वंदनप्रतिषेधान्नतद्विधीयते ॥ पार्श्वस्थानांतु तत्वेनाप्रका शितत्वात्तद्विधास्यतइतिचेन्न ||
अर्थः- दवे लिंगधारी आशंका करे बे जे निह्नवतो संघ थकी बाहिर करेला प्रसिद्ध बे माटे तेमनुं वंदन शास्त्रमां निषेध कयुं बे माटे तेमने वंदन नयी करता ने पासथ्या तो निह्नवपणे प्रसिद्ध प्रकाश्या नथी माटे तेमने वंदन करतुं जोइए. त्यारे सिद्धांति कड़े बे जो तमे एम कहेता होतो ते न कहेतुं -
टीकाः -- तत्तयानुद्द्घाटितानामपि सर्वाकृत्य विधायिनां निःशंकतया गृहस्थवत्सकलपापारंभप्रवृत्या प्रवचनोड्डाइका रिणां यत्यात्नासानां रंगांगणवर्तिदर्शन विमंत्रनाथंपरिक दिपत यतिनेपथ्यधा रिशैलूषा दिववन निवारणात् ॥
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8. अथ श्री संघपटकः
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(४०७)
अर्थः-केम जे ते सिझांतमां निहवपणे उघामा कही देखाम्या नथी तो पण सर्व न करवानां कार्यने करता एवा ने निःशंकपणे गृहस्थनी पेठे समस्त पापना श्रारंजने विषे प्रवृत्ति करे ने माटे प्रवचनना उड्डाह करनाराने जेम रंगमंझपना प्रांगणामां ए. टले नाटक करवाना स्थानकमां रहेलो ने जैन दर्शननी विवना करवाने अर्थे यतिनो वेष कल्पीने रह्यो एवो जे वेषधारी नट तेनी पेठे केवळ यतिना थानास मात्र जगाता जे ते पासथ्था लिंगधारी पुरुषो तेमना वंदननो निषेध बे.
टीकाः-यदाद ॥ जह वेलबगलिंगं जाणंतस्स नमोहवर दोसो॥ निबंधसति नाऊणवंदमाणेधुवंदोसो॥ यदप्युपदेशमालावचनावष्टंनेन वेषपदणस्यधर्मरक्षकत्वेन समर्थनं तदप्य संबझानिधानं ॥ यदिहिकस्यापिमहात्मनः कदाचित्कमार्दयाद.. कृत्यं विधित्सोरपि वेषग्रहणादिलजया तदविधानं तदा किमायातमिदानीतनरुढ्या निस्त्रिंशत्वेनाऽसमंजसवृत्या व्याप्रियमाणाना मक्षिपझ्म निमेषमात्रेणापिलोकापवादमगषयतां सिंगिनां वेषग्रहणस्य ॥
अर्थः-वळी जे उपदेश माळाना वचन- आलंबन करीने वेष ग्रहण करबो ते धर्मनी रक्षा करमार जे एम जे प्रतिपादन कयु ते पण संबंध विनानुं कर्तुं ने एटले ते ग्रंथनो संबंध जाएया विना ए तारुं प्रतिपादन खोटुंबे. केम जे ए ग्रंथनो संबंध तो श्रा प्रकारनो जे जे कोइ मोटा पुरुषने क्यारेक कर्मना नदययी.च करवातुं काम करवानी श्छा नत्पन्न थइ होय तोपण वेष ग्रहण करेलो डे
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(१.८ )
-19 अथ श्री संघपट्टक
माटे श्राम केम थाय इत्यादिक लजाए करीने ते कार्य करी शके नहि. माटे या प्रकरणमा तेमांनुं शुं श्राव्युं, कांश पण न आव्यु. श्रातो निर्लजपणे जेमतेम मनमां आवे तेवां जूंमां श्राचरण करता एक आंखना निमेष मात्र पण लोकापवादने न गणता एवा लिंगधारी वेष विम्बक तेने तो शुं कहेवू.
टीका:-नहिते वेषादिशंकयापिकथंचिदकार्या दंशमात्रेणाविनिवर्तमाना नपसन्यते तस्मात्सत्पुरुषविशेष विषयं तत्सूत्रं न सामान्य विषयमिति न तद्बलेन वेषग्रहणप्रामाएयादधुनात नानां वेषमात्रभृतां वंदनं संगच्छत इति ॥ ..
. अर्थः-केम जे ते लिंगधारी वेषादिकनी शंकाये करीने सगार मात्र पण न करवाना कार्य थकी कोइ प्रकारे पण निवृत्ति पामता देखाता नथी एतो न करवानां कार्य कर्या करे ले ते हेतु माटे ए उपदेश माळानुं जे वचन तेनो विषय तो कोश्क सत्पुरुष ले पण ए लिंगधारीनने ए वचननो संबंध लागतो नथी. केमजे ए सूत्रनो सामान्य विषय नथी जे तेनुं बळ लश्ने वेष ग्रहण करवाना प्रमाणपणा थकी आ काळना केवळ वेष मात्र धारण करनार यतिने वंदन करवानुं सिंह थाप माटे श्रा काळना वेष विबक यतिने वंदन न करवं एम सिद्धांत थयो. इतिनाव ॥
टीकाः-यदपि प्रवादपारंपार्येण श्रेणिकादेरजोहरणव- दनानिधानं तदप्यागम निर्मूलस्य प्रवादपारपर्यस्या प्रामाण्या
पगमेन निरस्तं ॥ नदि श्रेणिकनृपतिकथास्वागमेऽनेकधा वि
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अथ श्री संघपट्टकः
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(४०९)
AAAAAAAAM
सृतास्वपि क्वचिच्चुनःपुचसंयमितरजोहरणवंदनं श्रूयते प्रत्युत दोजणनिमित्तागतमुनिवेषगीर्वाणादिदर्शने तदवंदनमेवोपखन्यत इति ॥
अर्थः-वळी जे लोक प्रवाद परंपराए करीने श्रेणीकादिक राजाए रजोहरण देखी वंदन कर्यु जे एम जे तुं कहुं बु ते पण शास्त्र विरुफ निर्मूळ ए लोक वातोनी परंपरा ते का प्रमाण नथी माटे ए तारूं कहेवू जूटुंडे शास्त्रमा अनेक प्रकारे श्रेणिक राजानी कथा विस्तारवंत तो पण कोइ जगाए कूतराना पूढनी पेठे काट्यु जे रजोहरण तेनुं वंदन संनळातुं नथी उलटुं एमज देखाय डे जे देवतादिकःमुनि वेष धरीने दोन पमामवा निमिते श्राव्या तेमनुं वंदन न कयु ए प्रकारे श्रागमने विषे प्रसिद्ध देखाय बे.
टीकाः-यदप्यन्युपगमवादेन किंच नवत्वित्यादिना सांप्रतं सगुण निर्गुण विन्नागानवगमेन लिंगमात्रप्रणामप्रतिपादनं सदप्यविदितजिनागमस्य तेवचः ॥ यतोशेषविशेषविषय- तया जिनादिव बद्मस्थै रिदानी मा नाम निश्चाथि देहिनां मान साध्यवसाय स्तथाप्याकारेंगितबाह्य क्रियादिजिरंतरंगः प्राणि परिणामःसामान्यतया तैरपि निश्चेतुं शक्यत एव॥तथैवदर्शनात्॥
अर्थः-वळी जो पण लौकिकवादनो अंगिकार करीने एम कदाचित् वंदन होय, परंतु वर्तमानकाळमां सगुण निर्गुण विजाग जाएया विना केवळ लिंगमात्र देखीने प्रणाम करवो ए जे प्रतिपादन कयु तेतो जिन परमात्माना आगमने न जाणतो एवो जे
પર
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(४१.)
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अय श्री संघपट्टक
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तुं ते तारुं वचन डे केम जे जे हेतुमाटे जिन परमात्मा जेम समस्त नाव जाणे ने तेम बनस्थ पुरुष पण या काळमां देहधारीना म. नना अध्यवसायने पण आकार तथा चेष्टा इत्यादि बाह्य क्रियादि कारणे करीने जाणी शके ले. अंतरंगना प्राणधारीना प्रणाम सामान्यपणे पण ते उद्मस्थ निश्चय करवाने समर्थ थाय ने केम जे अमे कयु ए प्रकारे श्राज पण देखाय जे ए हेतु माटे.
टीकाः-यमुक्तं ॥सुझमसुई चरणं जहान जाणंति नहि नाणा, श्रागारेहि मणंपिडुतह छनमत्यावि जाणंति। अतएव जगवता नाबाहुस्वामिना सौविहित्यं लक्षयितुं वसतिविहारा दिका बाह्यक्रिया लक्षणत्वेनोपन्यस्ताः ॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही ले जे जेम अवधि, मनपर्यवज्ञानी, केवळझानी शुद्धचारित्र तथा अशुभ चारित्र तेने जाणे ने तेम उद्मस्थ पण श्राकारे करीने मनना अध्यवसायने पण निश्चे जाणे . एज कारण माटे नगवान नप्रबाहु स्वामिए सुविहितपणुं उळखाववा सारुं निवास तथा विहार इत्यादिक बाह्य क्रियारुप लक्षण स्थापन कयुं ने एटले सुविहितपणुं बाह्य क्रियाथीळखाय केम जे निवास करवामां इत्यादि क्रिया लक्षण देखीने बुकिमान पुरुष एना अंतरना जावनी परीक्षा करीने ते पुरुषने विषे सुविहितपणुं सत्य जाणी लेने. .
टीकाः-यउक्तं ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
आलए विहारेणं ठाणाचंकमणेषय | सक्का सुविहियानाऊंनासावेण एणय |
( ४११ )
टीका :- लोकेप्याकारें गिता दिजिरेव पार्थिवादी नामांतर प्रसादादिनाव परिच्छेदन विज्ञानुजी विप्रभृतीनां विज्ञप्त्या दि प्रवृत्तिदर्शनात् ॥ एवमनभ्युपगमेच जगद्व्यवहारोच्छेदप्रसंगात् ॥ किंच माजूद तिगूढाशयतया बकवृत्तीनां केषांचिच्छद्मस्थैर्मान
साध्यवसायावसायः ॥
अर्थः- लोकने विषे पण बाह्य आकार चेष्टादिके करी - नेज राजा श्रादिकना अंतरनी प्रसन्नता या दिक जे जाव तेने जाणीने चतुर एवा जे सेवक यादिक पुरुषो तेमनी राजाने विज्ञप्ति करवी एटले अरज करवी इत्यादिकनी प्रवृत्ति देखाय बे एटले चतुर सेवक बाह्य श्राकारथी राजानी अंतरनी खुशी वर्तिने कोई कामकाज कहे होय ते कड़े बे इत्यादि व्यवहार प्रत्यक्ष देखाय बे ने जो एम नहि मानो तो जगतना व्यवहारने उच्छेद थवानो प्रसंग श्राव. ए हेतु माटे वळी केटलाक गूढ निप्रायवाळा बे ए हेतु माटे बगलानी पेठे उपरथी सारी प्रवृत्ति देखामता तेमना मननो श्रध्यवसायनो निश्चय बद्मस्थ पुरुषोवते कलनामां कदापि नहि. आवे तो पण बीजाना तो कलनामां आवशे माटे ते दांजिक पुरुपोना जिप्राय जागवानो उपाय देखाने बे.
टीकाः तथा च तदनवसायात् क्रियतां तेषामंगारमई का दिवां जिकानामपिवंदनं ॥ येषांत्वाधु निकन्यायेन प्रकटप्रति
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(४१२)
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अथ श्री संघपट्टकः
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सेविना मतिवैशसकृत्या लवनिरप्यं तरंगन्नावो पलंजस्तेषां तावदन्युपगम्यतामवंदनमिति ॥
अर्थः-जे ते प्रकारना दांनिक पुरुषोनो अंतरंग अध्यव. सायनो निश्चय श्राकार चेष्टाथी न थ शके तो तेमनी परीक्षा क. रीने अंगारमईक श्राचार्यनी पेठे तेमनुं वंदन पण करो केमजे परीक्षा करवाथी तेमनुं अवंदनीकपणुं जणाय माटे एटले वंदन न कर, एम वरशे प्रगटपणे न करवानां हिंसक कार्यने करता एवा पुरुषोनो पुष्ट अंतरंग नाव जाणीने तमो तेनुं वंदन निवारण करो.
टीकाः-ननु तथापिकृष्यायकरणेन गृहिज्य उत्तमत्वात्तेषांवंद्यत्वं संगस्यत इतिचेन ॥ संप्रतिकेषांचित्तापलंनेपिलजनीयतया तदविवक्षयापि सिझते गृहियतिधर्मबाह्यत्वेन गृहिज्योपि तेषां हीनत्वप्रतिपादनात् ॥
- अर्थः-हवे आशंका करीने कहे जे गृहस्थ खेतीवामी श्रादिक करे ने था लिंगधारी करतो नथी तेमाटे ते गृहस्थ थकी उत्तम ने माटे तेमने वंदन कर, घटित जे एम जो तुं कहेतो होय तो ते न कहे केम जे श्रा काळमां केटलाकनुं तो गृहस्थ जेज आचरण देखीए बीए तो पण ए वात लजा पाम्या जेवी डे माटे ते कहेवानी चा नथी पण सिद्धांतमां ते पुरुषने उजयन्रष्ट कह्यो ने एटले गृहस्थ धर्मथी तथा यति धर्मथो नष्ट करो डे माटे ए पुरुष गृहस्थथी पण हीन ने एटले नीच जे ए पुरुषनी अपेक्षाए गृहस्थ सारो एम प्रतिपादन कयुं .
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48 अथ श्री संघपट्टक -
टीकाः - यक्तं ॥
केसिंपिसंजयाणं केहिंपि गुणेहि सावगा श्रहिगा ॥ जम्हा ते देसजई, इयरे पुण उजयो ना ॥
( ४१३ )
अर्थ- जे माटे ते वात शास्त्रमां कहीं बे जे केटलाक संजति करतां केटलाक गुणे करीने श्रावक अधिक बे. जे माटे ते श्रावक देशथी यतिबे ने ए लिंगधारी तो नजयाथी एटले श्रावक तथा साधु ए वे प्रकारना धर्मथी ऋष्ट थयो माटे.
टीका: --- नन्वेवं यदि सर्वथा पार्श्वस्थादीनां वंदन निषेधस्तर्हि कथं " काल म्मिसं कि लिट्टे" इत्या दिनापार्श्वस्थादि पंचकान्यतरेण संवासः ॥ तथा वायाएनमुक्कारो इत्यादिना सुविहितानामपि तद्वाग्नमस्काराद्युपदेशश्च सिद्धांतेश्रूयते इति चेत्तन्न ॥
अर्थ:-- हवे लिंगधारी आशंका करी पूढे बे जे जो एम सवथा पासथ्याने वांदवानो निषेध होय तो 'कालम्मि ' इत्यादि शास्त्र वचने करीने पासथ्यादिक पांच मध्ये सुजते एक पुरुष साथे मुनिने निवास करो को बे वळी 'वायाए नमुक्कारो ' इत्यादि शास्त्र वचने करीने सुविहितने पण ते पुरुषोने वाणीथी नमस्कारादिक करवानो उपदेश सिद्धांतमां सांजळीए बीए ते केम घटे हवे सुविदित मुनि एनो उत्तर धापे बे जे एम तमारे न बोलवु
टीकाः- सदोषादपि पार्श्वस्थादिसंवासान्महादोषमेका
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- अथ श्री सवपट्टकः
कित्यतीनामित्येकाकित्वात्यंत निषेधपर्यवसायित्वेनकालम्मिसंकिलिडे इत्याद्यागमस्यापवादिकसंवासा निधाय कस्यापि सर्वदा तद्वंदनाप्रसाधकत्वात् ॥
( ४१४ )
अर्थः-कम जे दोष सहित एवो पण पासथ्यादिकनो सहवास ते करतां पण जे एका कि यतिने रहेतुं ए महा दोष बे माटे एकाकी रहेवाना निषेधने प्रतिपादन करनार जे कालम्मि इत्यादि आगम ते अपवाद मार्गे तेनो सहवास करवानुं कहे बे तो पण निरंतर तेमनी वंदना प्रमुख करवानुं प्रतिपादन नथी करतु.
टीकाः तथा वायाए नमोकारो इत्यादिर पिम्लेखा चुपप्लवात्पार्श्वस्थायनाकीर्णक्षेत्रेषु स्थित्यनावे तदाकीपि क्षेत्रे सुविदितैः समागत्य तदनाद्यनुवृत्त्यापि स्वसंयम क्रिया विधातव्या ॥ अन्यथा तावन्मात्रतदनुवृत्य करणे तेन्यस्तेषां बहुलाघवापत्तेरित्यादिहेतु निः क्षेत्रकालाद्यपेक्षया तत्रैव अग्गीयादाइन्ने खित्तेान्नत्य विश्वनावमि इत्यादिना विशेषविषयत्व समर्थनात् ॥
अर्थ:--वळी वाणीए नमस्कार करवो इत्यादि वचन बे पण ग्लेन्नादिकना उपद्रवथी पासध्यानी जग्या विना बीजे रहेवानो जोग न होय तो ते पासथ्या सहित स्थानने विषे पण सुविदित पुरुषोए जनुं ने तेनी वंदनादिकनी अनुवृत्तिए करीने पल पोतानी संयम क्रिया करवी ने जो एटलं पण न करे तो ते पास
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-48 अथ श्री संघपट्टक
( ४१५ )
ध्यानी घणी लघुता थाय इत्यादि कारणे करीने क्षेत्रकाळ यादिकनी अपेक्षाए वंदन करवानुं वे केम जे तेज शास्त्रने विषे.
टीका :- ननु तथापि यथाऽर्हहिंबानामद्गुणवंध्यत्वेऽपि तद्गुणाध्यारोपेण वंदनं वांछितफलावं ॥ तद्वत्पार्श्वस्थादीनांय ति गुणशून्यत्वेऽपिलिंग साम्येन तदारोपात् तथा घटिष्यतइतिचेन्न ॥
अर्थः--प्रतिवादी लिंगधारी आशंका करे बे जे तमो एम कहो बो तो पण जेम अरिहंतनी प्रतिमामां अरिहंतना गुण नथी तो पण ते गुणनो आरोप करीने जे वंदन करवुं ते वांछित फळने
पनार थाय बे तेम पासथ्यामां मुनिना गुण नथी तो मुनिना जे लिंगधारण करे वे माटे मुनिना गुणनो श्रारोप करीने तेनुं वंदन कर घटो. दवे सुविहित कहे बे जे एम जो तुं कड़ेतो होय तो तेनो उत्तर पीए बीए.
टीकाः - श्रहिंषुह्यनुपयोगरूपत्वाद्यथा गुणानामजावस्तथा दोषाणामपि ॥ तथाचोनयस्याप्यजावाद्युक्तं तेषुसतो विद्यमानाईरुणानध्यात्ममध्यारोप्य फलार्थिनां वंदनं ॥ पार्श्वस्थादीनां तु प्रत्यक्षलक्ष्यमाण निखिल दोष कलापानां सर्वथा मुनिगुणोकतत्वेन लिंगसाधर्म्यात्तद्गुणारोपेण तद्विधीयमानं - कथंकारं घटामाटीकेत ॥
अर्थः- जे अरिहंतना वित्रने विषे तो उपयोग रुपपणुं नथी
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( ४१६ )
- अथ श्री संघपट्टकः 8
ए हेतु माटे जेम गुरानो अजाव े तेम दोषनो पण श्राव डे. एप्रकारे गुणदोष बे ए नथी. माटे ते प्रतिमानुं वंदन करतुं ते तो युक्त . म जे ते अरिहंतने विषे विद्यमान एवा जे गुण तेनुं श्रा - माने विषे श्रारोपण करीने फळना अर्थी पुरुषोने वंदन करवुं घटीत पपासादिक तो प्रत्यक्ष जलाता सकल दोषना समूहरूप बे, ने सर्वथा मुनिगुणवमे रहित बे, माटे केवल लिंगना समानपणाथी तेमना विषे मुनिना गुबनुं यारोपण करवुं ते केम घटे ! नज घटे.
टीका:- कोयनुन्मत्तः पीतिमचाकचक्यादिसाधर्म्यात्कांचनगुणानारोप्यारकूटं कनकमूल्येन क्रीणीयात् ॥ तदुक्तं ॥ नाङ्गादृते मुनिगुणान धिरोप्य लिंगसारुप्यतः परिचरत्यवकीतोन्यः ॥ क्रीणातिरुक्म मितितद्गुणरोपणात्को रीतिं सुवर्णतुलयेतर जन्मदिष्णोः
प्रर्थः- पीतळनो पीळो चकचकाट देखीने केवळ पीळा गुथीज सुवर्णना गुणनुं आरोपण करोने सोनानुं मूल श्रापीने पीतळने कोण माह्यो पुरुष बेचातुं ले ? कोइ न ले. ते वात शास्त्रमां कही बे ते वचन जे, सरखा वेषथी लिंगधारीमां मुनिना गुणनो श्रारोप करोने अज्ञानी विना बीजो कोण पुरुष तेनी सेवा करे एतो अज्ञानीज करे जेम पीतळने विषे सोनाना गुणनो आरोप करीने सोनाना मूलवमे पीतळने महा मूर्ख विना बीजा कोण ले तेम लिंगधारीमां मुनिना गुणानो यारोप करी वंदन कोण करे, जे मूर्ख होय ते करे.
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-49. अथ श्री संघपट्टक
(४१७)
टीकाः-तस्माद्यत्किंचिदेतदपीति ॥ तस्मानलिंगमात्रं सुविहितानां वंदनगोचरः किंतु गुणः नचलिंगमात्रस्यावंद्यत्वेछिजादिवदपवादेनापितेषांवंदनानिधानं सिकाते न संगत इति वाच्यं, तेषा मनुद्घाटितत्वेन लिंगमात्रसाधादपवादेन वपु. पपत्ते रिति॥
अर्थःते हेतु माटे सुविहितनुं कांक लिंग मात्र पक्ष वंदनीक जे. एम नथी त्यारे शुं वंदनीक ? तो सुविहितना गुख के तेज वंदनीक .
टीकाः-ननुमाजूवन्पार्श्वस्थादयः क्रियाहीनत्वाइंदनी. याः ॥ येतुगछेबहुयतिसंकुलत्वात्स्वमत्या पिंमाशुद्धयादिदोष संजाक्नया ततो निर्गत्य स्वातंत्र्येण पुष्करक्रियां कुर्वतिते संयम कियातत्परत्वाद्यानविष्यंतीतिवेत् न ॥ तेषामपि सुगुरुतंप्रदायाजावात् सम्यगागमार्थापरिझानेन विपर्यस्तमतितयोत्सूत्रन्नाषित्वात् ॥ कुग्रहाद्छुष्कर क्रियाकरणेप्युत्सर्गापवाददेवकालादि विषयविन्नागानवबोधेन प्रवचनमालिन्यकारिवाचयतित्व निषेधात् ॥
. अर्थः प्रतिवादी बोले जे जे पासथ्थादिक क्रियाहीन ले माटे वंदनीक न था पण जेना गबने विषे घणा यतिथी संकलपणुं थयुं . ए हेतु माटे मिनी अशुद्धि आदिक दोषनी संजावना करीने ते जगामांथी नीकळीने स्वतंत्रपणे पुष्कर क्रियाने करे . ते संयम क्रियाने विष तत्पर बे ए हेतु मापे वंदनीय थशे
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(४१८)
अथ श्री संघपट्टक
वे सुवित बोले बे जे एम तमारे न बोलवु केम जे सारा गुरुना संप्रदायन व ए हेतु माटे सम्यक् शास्त्रना श्रर्थनुं परिज्ञान बे नथी माटे एनी वळी बुद्धि थइ बे माटे उत्सूत्रभाषीप एने रधुं वे ए हेतु माटे, ने वळी कदाग्रहथी दुःकर क्रिया करे बे तो पण उत्सर्ग, तथा अपवाद क्षेत्रकाळ इत्यादिक संबंधि विजागनो एने बोध नथी माटे प्रवचनने मलिन करनार बे एटले जिनशासनना कलंकरूप बे, ने जे ए प्रकारनो पुरुष बे, तेने विषे यतिपणानो निध. ए हेतु माटे ते वंदनीक नथी.
टीका:- तथा चावंदनीयत्वात्तद्बहुमान विधायिनां चोपथानुमोदनेन दुर्गतिपातप्रतिपादनात् ॥ यदाह ॥ जेन तद् विवजथ्था सम्मं गुरुलाघवं छायाणंता । सग्गाहा कि रियरया पवयखिंसावा खुद्दा ॥ पायं निन्नगंडी तमान तह डुक्करं पि कुवंता ॥ बवन ते साहू खंभा हरयेण विन्नेया ॥ तेसिं बहुमाणेसं उम्मग्गणुमाया अफिला ॥ तझा तित्ययराला टिएस जुनुथ्य वहुमाणो
अर्थ:- बळी ए लिंगधारी वंदनीक बे ए हेतु माटे तेमनुं बहुमान करनार पुरुषोने पण उन्मार्गनी अनुमोदना करवी तेणे करीने तेमनुं दुर्गतिमां परुवापणानुं शास्त्रमां प्रतिपादन कर्युं छे. ते शास्त्रनुं वचन ए बेजे
टीका:- तस्माद् गुणवतामेव वंदनं श्रेयो नलिंग क्रियामात्रधारिणामिति ॥ तथा पूर्वत्वादज्ञातगुणदोषो पियतिः पर्यु
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* जय श्री संघटक र
(२९)
पासनीयः प्रथमंयावत्परिशीलनेन तस्याद्यापिदोषोपलंनो न भवति ॥ तउपखंतु सोपिदूरतो वर्जनीयः॥ - अर्थः--माटे गुणवाननुं वंदन कर, एजीक .पण केवल लिंगक्रिया मात्रने धारण करनारनुं वंदन कर, ए ठीक नथी. तेमज प्रथमथी जेना गुणदोष जाएया नथी एवा पण यतिनी नपासना करवी. पठी तेनो परिचय करते करते श्राज सुधी पण दोष दीगमां न आवे तो तेनी उपासना कर्या करवी ने जो दोष दीगमां भावे तो तेनो पण दूर थकीज त्याग करवो.
टीकाः-॥ यदाह ॥ अमुणियगुणदोसं पासिलं साहुवेसं, पढममसढनावालेहसुस्संजयं च ॥ पुणबकुसकुसीबुत्तिनमुस्सुतनासिं ? विसविसहरसंसगिंव उज्केड तुति ॥ अथ पावस्था दिवंदने कोदोषोयेनैवं सिद्धांतप्रतिषेध इतिचेत् अयशः कर्मबंधादि रितिब्रूमः
॥ तमुक्तं ॥
... पासत्थाई वंदमाणस्स नेय कित्तीन निजरा होइ ॥
कायकिलेसं एमेव कुणश्तहकम्मबंधं च ॥
अर्थः--हवे पासथ्थादिकने वंदन करवामां शो दोष जे. जेणे करीने ए प्रकारे सिद्धांतमा निषेध बे. एम जो तुं कहेतो होय तो तेनो उत्तर कहीए बीए जे तेथी अयश मळे तथा कर्मबंध थाय मावि दोष पासस्थाने बंबवामां रझा . ते शास्त्रमा कां ने जे
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अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- ननुन्नवत्वसदाचारगुरूसां वंदनादयशः कर्मबंधस्तुकुतस्त्यस्तत्कारणसंक्लेशाद्यनावादितिचेत् न ॥ तदने तदसत्क्रियानुमोदनेनाऽन्येषामपि बहूनां तद्विषय बहुमानोत्पांदनात्कर्मबंधोपपत्तेः ॥
(४०)
अर्थ :- लिंगधारी आशंका करे वे जे असत् श्राचरण कस्मारमा मोटा एवा जे पुरुष तेमनुं वंदन करवाथी, अथवा असत् श्राचरण करनार एवा जे गुरु तेमनुं वंदन करवायी अपयश चाय परंतु कर्म बंध तो क्यांथी याय कर्म जे ते कर्म बंधनां कारण एवां जे संक्लेश आदिक तेनो श्राव वे ए हेतु माटे. हवे सुविहित एनों उत्तर श्रापे डे जे, एम तमारे न बोलवु केम जे एवा असत् पुरुषनुं वंदन करे तो तेनी असत्क्रियानी अनुमोदना थाय तेथे करीने बीजा घणाक पुरुषो ते असत् पुरुषनुं बहु मान करे तेथी एने कर्म बंधनी उत्पत्ति थाय बे. ए माटे तेनुं वंदन न कर.
टीका :- ॥ यदाह ॥ किश्कंमंचपसंसा, सुहसीलजां मिकम्म बंधाय ॥ जेजे पमायठाणा तेते नववूहियाहोंति ॥ किंच तैः सार्द्ध संवास मात्रस्यापियथाक्रममसेव्यतागर्हितत्वापत्यादृष्टांताच्यां सिद्धांतेसु विहितानां निषेधप्रतिपादनात् ॥ यदुक्तं ॥ असु ठाणे प किया चंपगमालान की रईसी से || पासत्यागणे सुवह माणात अपुता ॥ पक्कणकुले वसंतो सनी पारो वि गर हिन होइ ॥ इयमर दिया सुविदिया, मज्जि वसंता कुसीजाणं ॥
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+ अब श्री संवाहका
(२१)
....... अर्थ-बळी ते लिंगधारीन संगाये निवास मात्रनो पक्ष सिद्धांतने विषे बे दृष्टांते करीने निषेध कर्यो बे. ए वात शास्त्रने विषे कही जे जे अनुक्रमे असेववापणुं तथा निंदितपणुं प्राप्त थाय माटे॥
- टीकाः-॥ प्रवेषस्तुतेष्वपिनकर्तव्यस्तस्यपुर्गतिनिबंधन त्वेनानिधानात्।। किंत्वहोकथममीमूढानवकोटिचरापमप्येतद्धि नमतमाणिक्यमासाद्य मुधाहारयंतीति तत्स्वरूपंसानुकंपविजा. वयनिर्विवेकिनिरुपेदैव तेषुविधेया.
अर्थः–ने द्वेषतो तेमने विषे पण न करवो केमजे ते ईपतो मुर्गतिनुं कारण एम शास्त्रमा कडं डे ए हेतु माटे. सारे शुं करवु ? तो, अहो था मूढ पुरुषो कोटाकोटि जन्मथी पण दुःखे माल थएवं जे जिनमत रूप माणिक्य रत्न तेने फोगट हारे .ए प्रकारे ते लिंगधारीननुं स्वरुप अनुकंपा सहित नावना करता एवा विवेकी पुरुषोए तेमनी नपेक्षा करवी.
टीका-यदुक्तं। इयरेसुवियपउँसो,नोकायव्वोन्नवाहिए सो॥ नवरं विवजाणिज्जो, विहिणा सश्धम्मनिरएणमिति ॥ तदेवं पार्श्वस्थादि वंदनस्य सुविहितानांझानादिहानिनिमित्तत्वा यवसितमेतकीनाचारायतयोऽनायतनमिति ॥
अर्थः-सुविहितने पासथ्यादिकनु वंकन करवाची शमादि
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(( ४२२ )
अथ श्री संघपट्टकः
गुणनी हानि थाय बे माटे दीन थाचारवाळा यतियो अनायतन बे एम निश्चय कर्यो .
टीका:- अधुनायतनं विचार्यते ॥ तत्रायतनं स्थानं गुपाना मितीहा पिगम्यं श्रथवा श्रायस्यतननान्निरुक्तविधिना यतनं ॥ वंदनादिना ज्ञानादिलान विस्तारकारण मित्यर्थः ॥ तदपि द्विधा ॥ द्रव्यभावनेदात्तत्रद्रव्यतो जिनजवन मनिश्रा - कृतं विधिचैत्यमायतनं ॥
अर्थ:-- दवे श्रायतननो विचार करीए बीए. त्यां श्रायतन एटले गुएानुं स्थान एम श्रही जाणवुं अथवा “ श्राय" जे लाज "तेनुं "तन" कहेतां विस्तार करनार माटे श्रायतन ए प्रकारनो शद निरुक्त विधि की सिद्ध थयो. एटले मोटा पुरुषना वचनथी सिद्ध थयो. वंदनादिके करीने ज्ञानादि लाजना विस्तारनुं कारण बे, एटलो अर्थ जाणवो. ते श्रायतन पण बे प्रकारना द्रव्य तथा
"
निश्राकृत एवं
नाव एबे दथी तेमां द्रव्यथी जिन जवन जिनजवन तथा विधि चैत्य ते श्रायतन जाणवुं.
टीका:- प्रव्यरूपस्य सतस्तस्य सिद्धांतोक्त विधिप्रवर्त्तनेन जव्यानां ज्ञानादिवृद्धिहेतुत्वात् ॥ अथ कोसौ विधिर्यत्प्रवृस्यातत् विधि चैत्य मित्युच्यते ॥ तत्र निर्मापणे विधिः प्रथममेव किंचिदनिहितः ॥ संप्रति निर्मापिते तस्मिन् प्रतिष्ठापितेच स एव दिग्मात्रम निधीयते ॥ यमुक्तं श्रीप्रकरणकारैरेव स्थानांतरे विभित्मविधिं प्रदर्शयङ्गिः
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अय श्री संघपट्टक
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. अर्थः-केम जे अव्य स्वरूप जे जिनन्नवन ते सिकांतमां कहेला विधिये करोने थएवँ होय तो तेणे करीने ज्ञानादिकनी वृ. दिनुं हेतुपणुं थाय . माटे हवे था शंका करी समाधान करे ले जे ए कीयो विधि ? जेनी प्रवर्तिये करीने ते चैत्य विधिचैत्य कहे. वाय जे ? तो त्यां कहीए बीए जे ते चैत्य नीपजाववाने विषे विधि जे ते प्रथमथीज कांश्क कह्यो बे. हवे ते चैत्य नीपजे ते तथा तेमां प्रतिष्टा करे बते तेज दिश मात्र या प्रकरणना करनार पुरुष बीजा को ग्रंथातररूपी स्थानमा विधिचैत्यनो विधि देखामतां या काव्य कयुं जे.
टीकाः-अत्रोत्सूत्रजनक्रमोनचनच स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयोनचनचस्त्रीणां प्रवेशो निशि ॥ जातिज्ञाति कदाग्रहोनच नच श्राद्धेषु तांबूल मित्याज्ञात्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्री जैनचैत्यालये । इह नखनु निषेधः कस्यचिदनादौ, श्रुतविधिबहुमानी त्वत्रसर्वोऽधिकारी ॥ त्रिचतुरजनदृष्टयाचात्र चैत्यार्थवृद्धि व्ययविनिमयरदाचैत्यकृत्यादि कार्य ॥ व्याख्या ॥ अत्रेति विधिचैत्ये नत्सूत्रजनानामुत्सूत्रनाषिणां . • यत्यादीनां क्रमो व्याख्यानं नंद्यादिकरणाधिकारो नास्ति किं. तदुत्सूत्रमितिचेत् नच्यते
अर्थः-श्रा विधि चैत्यने विषे, उत्सूत्र नाषक एवा जे लिंगधारी यति श्रादिक तेमनो “व्याख्यानतथानंदि" इत्यादिक करवानो अधिकार नथी. माटे ते नत्सूत्र केम थयु एम जोतुं कहेतो होय तो ते उत्तर कहीए बीए.
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19 जय श्री सघपट्टकः 8
टीकाः स्वमतिकल्पित मागमोत्ती त द्विसंवादि चानुष्टानं ॥ यदाह ॥ उस्सूत्तमणुवहं सच्छंद विगप्पियं अणुवाइति ॥ कथं पुनरेतदुत्सूत्रं जिनसदने जायते इति चेत् उच्यते ॥
( १२४ )
-
अर्थः- पोतानी बुद्धिये कल्पेलुं श्रने श्रागमथी रहित एवं जे ते विसंवादि अनुष्ठान ते यागम विरुद्ध क्रिया डे. ते शास्त्रमां कयुं ने जे ए प्रकारनं नत्सूत्र जिन मंदिरने विषे केम थाय ? एम जी तु कहेतो होय तो तेनो उत्तर कहीए बीए.
टीका:- एढ़िया स्ववित्तेन देववित्तेन वा नाटकादि हेतुकदेवजव्यवृद्धये यद्देवनिमित्तं स्थावरादिनिष्पादनं ॥ तथा महार्घाने सिविक्रयेण बहुदेव विषोत्पादनाय गृहिणा येदेवधनेन समर्धधान्य संग्रहणं ॥
अर्थः- जे गृहस्थोए पोताना धनवमे अथवा देव द्रव्ये क रीने जाऊं आदिक बे कारण जेनुं एवं देव द्रव्यनी वृद्धिने अर्थे जे देव निमित्त स्थावरादिकनुं नीपजावकुं एटले देव द्रव्यने वधाard as करीने जगाओ बंधावी जामां लेवां तेम वळी मोंघासने विषे वेचीने बहु द्रव्यनी उत्पत्ति करवा अर्थे गृहस्थ लोकोए जे देव धनवमे सोयासमा धान्यनो संग्रह करवो ते.
टीका:- तथा यद्देवहेतवे कूपवाटिकाक्षेत्रादि विधानं ॥ तथा ..शुल्क शाखादिषुद्दिश्य राज्यमाहानामा धिककरोत्था
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
( ४२५ )
दनादुत्पन्नेन प्रविणेनयद्गृहिणा देव पूजन विधान मित्थमेवमादी युत्सूत्रपदानि यतिदेशनया देवगृहेऽपि संजवंति ॥
अर्थ:-वळी जे देवने कारणे कुवा वाव इत्यादिक तथा खेतर इत्यादिनुं कर तथा कोइ वस्तुनी दाण लेवानी शाळाने विषे राजा कर लेबे तेमां कोइ प्रकारनो जाग राखीने अधिक कर वधारवार्थी उत्पन्न करेल जे द्रव्य तेथे करीने जे गृहस्थने देव पूजा करवी ते सर्वे ए प्रकारां उत्सूत्र पद बे ते यतिन । देशनाए करीने देवमंदिस्मां पण संजवे बे एटले थाय बे.
यदुक्तं ॥ नस्सुतं पुराइत्थं थावरपाओग कूव करणाई ॥ नृप्भूयगकर उप्पायणाइ धम्माहिगारंमि ॥ श्रत्र चादिशब्दा निशिबलिनयादिग्रहः । तत्र स्थावरादिनिर्मापणादीनां षट् काया दिरंजासंयत वासादिना महासावद्यत्वेन देवनिमित्तं सिद्धांते निवारितत्वात्सूत्रं ॥
जे माटे ए वात शास्त्रमां कही बे जे या जगाए आदि श aart रात्रिये नांद मांवो तथा बळिदान देवं इत्यादिकनो पण संग्रह करवो. तेमां जे जगा बंधावी तेमां बकाय या दिकनो श्रा रंग रह्यो . तथा श्रसंजतिनो निवास याय इत्यादि कारणवमे महा साक्यपणे देव निमित्त कराववानुं सिद्धांतमां निवारण कर्यु बे ए हेतु माटे उत्सूत्र .
टीका:- एतान्यतरेणापि च जक्तिमङ्गिः स्वद्रव्यव्ययेन च
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(४२६)
48. अथ श्री संघपट्टकः
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गवत्सपर्यापर्यापणात् ॥ उन्नतककरोत्पादनस्य च व्यवहारिणा मत्यंताप्रीतिजननापुत्सूत्रत्वं ॥ पराप्रीतिमात्रस्यापि जैनमते जगवड्रीमहावीरोदाहरणेन बहुधा निषेधात् ॥
अर्थः-एटलां वानां कर्या विना पण जक्तिवंत पुरुषो पोताना अव्यनो खर्च करीने जगवत् पूजा करवा समर्थ थाय . ए हेतु माटे नवो कर उत्पन्न करवो तेणे करीने वेपारी लोकोने अत्यंत श्रप्रीति नत्पन्न करवापर्यु एमां रथु डे माटे ए उत्सूत्र , केम जे जैन मतमां परने अप्रीति मात्रनुं पण जे उपजावद् तेनो महावीर स्वा. मिना दृष्टांते बहुधा निषेध मे ए हेतु माटे.
टीका-यमुक्तं ॥ धम्मत्थमुजएणं सवस्तापत्तियं न का. यत्वं ॥ इय संजमोवि सेनश्त्थय जयवं नदाहरणं ॥ सोतावसासमान तेसिंथप्पत्तियं मुणेऊणं ॥ परमं अबोहिबीयं त गइंतकालेवि ॥
टोका-निशिबलिनंद्यादिकस्योत्सूत्रत्वं प्रागेवनावितं॥ तथाचैवमायुसूत्रनाविणां तत्र व्याख्यानाद्यधिकारेणयावदु. सूत्रनाषिसंतानं यावजिनगृहंचतद्देशनया तत्र प्रवर्त्तमानानां संतानक्रमेण प्रजायमानानांचाद्धानांनवकूप प्रपातप्रसंग इति।
अर्थः-रात्रिए बलिदान श्राप, तथा नांद्य मांमवी इत्यादि. कनुं जे उत्सूत्रपणुं तेतो प्रथम देखामयुं हे. वळी इत्यादिक उत्सूत्र
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8. अथ श्री संघपट्टक
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(१२७)
भाषण करनारनुं ते स्थानमा व्याख्यान आदिक करवानो अधिकार थाय तेणे करीने जेटलो उत्सूत्रनापिनो संतान लेते तथा जेटलां जिन मंदिर ते सर्व जगामां तेनी देशनाए करीने प्रवर्तेला लोको तेमने तथा तेना अनुक्रमे तेमना शिष्यो प्रवर्ने तेमने तथा श्रावकने ए सर्वेने संसाररूप कूवामां पमवानो प्रसंग थशे. .
टीकाः-अतएव कथंचिदगत्यानपाश्रयेगतानां सुविहितानांमानुत्तद्देशनाकर्णनात्संशयादिना सत्पथविप्रतिपतिरिति तदनाकर्णनाय तत्प्रतिघातश्रवणस्थगनादयः प्रकाराः सि. कांते प्रदर्शिताः॥
अर्थः-ए हेतु मादे को प्रकारना अवश्य काम वास्ते ते. मना नपाश्रयमां गया जे सुविहित साधु तेमने तेमनी देशमा सां. जळवाथी संशयादिकवमे सन्मार्गर्नु विरुष्पणुं थाय ए हेतु माटे ते देशना न संजळाय तेने अर्थे तेनो विघात करवो, कान ढांकी देवा, कोर शब्द काने न पम्वा देवा इत्यादि प्रकार सिद्धांतमां दे. खामया बे.
टीकाः-यदाह ॥ एमेव अहाबंदे पमिहणणाजाण अजयपकना ॥ गणगिनिसामे सुवणाहरणाय गहिएणे ॥ तस्मा
प्रविधिचैत्ये तेषांक्रम इति॥ तथा नच स्नात्रं रजन्यां सदा॥ प्रा - गदर्शित दोषसंदोहात् सदेति सर्वकाल मित्यर्थः ॥ - तेन कदाचित्कस्य श्रीमहावीरमोककल्याणकस्नात्रस्याप्याधु:
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(R)
अथ श्री संघपट्टक
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निकरुढ्या रात्रौ कैश्चितिधियमानस्य निषेधो ज्ञापितः॥ एतेन प्रतिष्टाया श्राप रात्रौ निषेधः सूचितःतस्याः स्नात्रपुरःसरत्वात् ।
अर्थ:-ते हेतु माटे चैत्यमां ते लोकोनो पगज नथी एटखें प्रवेश नथी ए प्रकारनुं विधिकृत श्रीजिननु चैत्य डे एम संबंध ३. वळी रात्रिए स्नात्र कर तेना दोषनो समूह तो पूर्वे देखायो ने तेमां " सदा" शब्दनो “ सर्वे काळमां" एम अर्थ करवो तेणे करीने कोश्क वखत श्री महावीर स्वामीन मोक्ष कल्याणक संबंधि स्नात्र या काळनी रूढीए केटलाक रात्रिये करे ने तेनो पण निषेध जणाव्यो एटले देखायो. एणे करीने रात्रिये प्रतिष्टा करवी तेनो पण निषेध सुचव्यो एटले देखायो केमजे ते प्रतिष्टा पण प्रथम स्नान कर्या पडी थाय ने ए हेतु माटे.
टीकाः-तथा साधूनां ममतामदीय मेताजनगृहप्रतिमादिक मित्यादिकानास्ति ॥ गृहस्थस्यैव तनिर्मापणचिंतादावधिकारातथाच कथं जिनगृहादेर्यति ममकार विषयता ॥ आश्रयश्च तेषां नास्ति ॥ प्रागन्निहितदोषकलापात् ॥
- अर्थः-वळी ज्यां साधूने ममता नथी एटसे श्रा जिन मंदिर तथा प्रतिमा इत्यादि हमारो ने इत्यादिरूप ते ज्यां नथी के मजे ए चैत्यादिकनुं निपजावq तथा तेनी चिंता करवी इत्यादि. कने विषे गृहस्थनोज अधिकार ने ए हेतु माटे वळी जिनमंदिरनी ममतानो अवकाशज साधुने क्याथी होय ने ते जिनमंदिरमा रहे;
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अथ श्री संघपट्टका
पानो आश्रय पण क्याथी होय केमजे पूर्वे चैत्यवास करवामां दोपनो समूह कही आव्या बीए माटे.
टीकाः-तथा स्त्रीणांप्रवेशोनिशिनास्ति । अकाल चरित्रदोषप्रसंगात् ॥ तमुक्तं ॥ अजाणसावियाण य अकालचारित्त दोसजावा ॥ सरणं मि न गमणं दिवसतिजामे निसिकहंता॥
अर्थः–तथा वळी ज्या रात्रीए स्त्रीनो प्रवेश नथी ते वात शास्त्रमा कही ले जे.
टीकाः-लोकेपि कुलवधूनां यामिन्यां स्वगृहाइहिर्नि: गईतीनां महापवादानिधानात् ॥ तयुक्तं ॥ खगेहदेहली त्या
का निशि स्त्री यातिया बहिः॥ ज्ञेयाकुल स्थिते लोपात्कुखटाकु. सजापि सा ॥ दमनीतावपि कुलबालिकानां निशि खसंबहिनिगमे दमप्रतिपादनाच ॥
... अर्थः-लोकमां पण कुळवान स्त्रीनने रात्रिए पोताना घ. । रथी बारणे नीकळवामां मोटो अपवाद थाय एम कडं ले माटे ते शाखनुं वचन जे पोताना घरनो नमरो मूकीने जे स्त्री रात्रीए बारणे निकळे जे ते स्त्री कुळवान होय तो पण कुलमर्यादानो लोप करवाथी कुलटा जाणवी. एटले व्यभिचारिणी जाणवी वळी दंगनी. तिमां पण कुळवान स्त्री रात्रीए बारणे नीकळे तो तेनो देम करवो म प्रतिपादन कयु ए हेतु माटे.
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(४३० )
- अथ श्री संघपट्टकः
'टीका:- तएव यतिवसत्यादौ योषितामेकाकिनीनां दि वसेप्यनेकावर्णशंकाकलं कानुंपंगास्कं दितत्वेन प्रवेशस्य प्रतिषेधः ॥ एवं यदा लोकेपि रात्रौ स्त्रीणां गृह निर्गमो विरुद्धस्तदाकावार्त्ता जिन शासने || तस्मात्सर्वथा जिनवेश्मनि निशायां योषित्प्रवेशो ऽनुचितत्वान्नास्तीति ॥
अर्थ - एज कारण माटे साधु श्रादिकना निवासमां एकaal aari प्रवेश करे तो पण अनेक अवर्णवाद याय, तथा this inth. तथा कलंक यावे इत्यादि कारणथी ए परानवनुं स्थान वे माटे तेना प्रवेशना निषेध कर्यो बे ज्यारे एम लोकमां पण रात्रि स्त्रीने घरथी बारणे नीकळवानो निषेध वे तो जिन शास. नमां निषेध होय तेनी तो वातज शी कहेवी. ते माटे सर्वथा जिनमंदिरमां रात्रि स्त्रीनो प्रवेश अघटित ने ए हेतु माटे ते विधि चैत्यमांए नथी.
टीका: - जातिज्ञातिकदाग्रहश्चनास्ति ॥ तत्र जातिकदाग्रहएतज्ज्ञातीयाएव श्रावका छात्र भगवद् बिंबस्य दक्षिणा दिशिस्नात्राधिकारिणोनान्यजातीया इत्यादिकः ॥ ज्ञातिकदाग्रह अ स्मा निरस्मत्पूर्वजैवकारितमिदं जिनमंदिरं ततोऽस्मत् सगोत्रा एवात्र सर्वस्यामपि देव वित्तसमुद्गका दिचिंतायामधिकारियोनेतर इत्यादिकः ॥
अर्थः- - वळी ते विधिचैत्यने विषे जाति संबंधी तथा ज्ञाति संबंधी कोइ जानो कदाग्रह नथी तेमां जाति क्रद्राग्रह तो ए जे जे
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-18 अथ श्री संघपट्टक -
( ४३१ )
ज्ञातिना श्रावक या जगाए जगवद् बिंब संबंधी दक्षिणा दिक स्नात्र करवामां अधिकारी बे पण बीजी जातना अधिकारी नथी. इत्यादि ज्ञाति कदाग्रह ए बे जे अमोए तथा श्रमारा वृद्धोए श्रा जिनमंदिर कराव्यं वे ते माटे प्रमारा गोत्रनाज या सर्व देवद्रव्य मानकादिकनी चिंता करवामां अधिकारी ने पल बीजा अधिकारी नथी इत्यादि.
टीका: सच विधिचैत्ये न संगतः सर्वेषामेव धार्मिकश्राकानां गुणवतां तत्र सर्वाधिकारित्वा निधानादन्यथा जात्यादिनि श्रयाप्य निश्राकृतत्वानुपपत्ते रिति ॥
अर्थः-- ए प्रकारनो जाति ज्ञाति संबंधि कदाग्रह विधि चैत्यमां नथी, केम जे सर्व धर्मवंत, गुणवंत एवा श्राषकनोज त्यधिकार एम कयुं बे ने जो एम न होय तो ए विधिचैत्यने पण जात्यादिकनी निश्राए करीने निश्राकृतपणानी सिद्धि न थाय एटले ए विधिचैत्य निश्राकृत न कहेवाय.
टीकाः नच श्राद्वलोकस्य तांबूलन क्षणमस्ति ॥ नगवदाशातनापत्तेः ॥ तांबूलमिति च तंबोलपाणेत्यादि गाथोक्तानां पानभोजनादीना मुपलक्षणं ॥ तथा ॥ गब्दिकाद्यासन मप्याशातना विशेषत्वाडुपलक्ष्यते ॥ इत्येवं प्रकारा श्राज्ञावि धिः ॥ अत्रैषा निश्रितेकस्यापि यत्यादेर्निश्रया अधीनतया विनाकृते विधिकृते श्रुतोक्त विधि निष्पादिते श्री जिन चैस्थालये जिनजवन इति ॥
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अथ श्री संघपट्टकः 8
अर्थः-वळी त्यां श्रावक लोकने तांबूल नक्षण नथी केम जे तेथी जगवंतनी श्राशातना थाय ए हेतु माटे तांबूल शब्दे करीने तंबोल पान इत्यादि गाथामां कहेलां जे पान तथा जोजन इत्यादिक पण उपलक्षणयी ग्रहण करवां. वळी गादी श्रादिक प्रासन पण को प्रकारनी शातनानुं कारण बे माटे तेनो निषेध पण उपलक्षणथी जाणवो. ए प्रकारनी जे श्राज्ञा ते विधि बे. श्रा जगाए ए श्राज्ञा कोई यतिनी निश्रा विना करेलुं जे विधिचैत्य एटले सिद्धांत मां कला विधि प्रमाणे निपजाव्युं जे विधिचैत्य तेने विषे पूर्वे कथं ते न होय एम संबंध बे.
( ४३२ )
टीका:- तथा इद नखलु नैव निषेधो निवारणं कस्यापि कंदनपूजनादावुत्सूत्र जाषिणां तद्भक्तानां चापिवंदनादिकं विदतां न निषेधः क्रियते ॥ श्रद्धाजंगमास्तर्यादिदोषा प्रसंगात् ॥ श्रुत विधिवदुमानी सिद्धांतक्रमादरवान् तुः पुनरर्थे सर्वोयतिः श्राद्धो वा यथाक्रमं व्याख्यानादौ चैत्यचिंतायां चाधिकारी योग्यः सिद्धांत विधिविधुरस्य साध्वादेर्व्याख्यानादौ नतत्राषिकार इत्यर्थः ॥ त्रिचतुरजनदृष्ट्या विधि परश्राद्धत्रय चतुष्टय दृशात्र चैत्यद्रव्य वृध्यादिकं चैत्यचिंतनं कार्यं विधेयं नत्वेकाकिना निस्पृढेणापि ॥ लोकापवादादिदोषापत्ते रिति प्रासं गिक वृतइयार्थः ॥
अर्थ:-वळी या जगाए नत्सूत्र जापकनुं वंदन पूजन दिने विषे कोने पण श्रमो निषेध नथी करता, ने वंदनादिकने करनार एवा जे ते उत्सूत्र जापकना जक्त लोको तेमने पण निषेध
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8 अथ श्री संघपट्टका
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नवी करता केम जे श्रमानो जंग तथा मत्सरनी नत्पत्ति इत्यादिक कोषनो प्रसंग थाय ए हेतु माटे. वळी सिद्धांतना आदरवाळा जे सर्व यतिजन तथा श्रावक ते अनुक्रमे व्याख्यानादिकने विषे तथा चैत्य चिंताने विषे अधिकारी ने एटले योग्य जे. एटले सिद्धांतमा कहेला विधिनुं बहुमान करनार एवो जे यति ते व्याख्यान करवामां अधिकारी तथा एवो जेश्रावक ते चैत्यनी चिंता करवामां अधिकारी ने सिद्धांत विधिवमे रहित एवो जे साधु थादिक ते व्याख्यान आदि करवामां अधिकारी नथी एटलो अर्थ में ने त्रण चार लोकनी दृष्टिए एटले विधिने विषे तत्पर एवात्रण चार श्रावकनो दृष्टिए था जगाए चैत्य अव्यनी वृद्धि आदिक चैत्यचिंता ते वारवा योग्य डे पण एकाकी निस्पृह पुरुषने पण ए काम करवा योग्य नथी शाथी के लोकापवाद आदिक दोषनी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे ए प्रकारे प्रसंगे श्रावेलां बे काव्य तेनो अर्थ या प्रकारे करी देखायो.
टीकाः-एवं चैवं विधः सिद्धांतानिहितो विधिर्यत्र वर्तते तद विधिचैत्य मनिश्राकृतं अव्यतायतनं चोच्यते इतिजावतश्रायतनंतु ज्ञानादित्रय ब्राजिष्णवः पंचविधाचारचारवः सुविहितप्ताधवः ॥ शुजनावरूपागां सतां वंदनादिनानव्यानां ज्ञानादिलाज हेतुत्वात् ॥
अर्थः-ए प्रकारनो सिद्धांतमां कहेलो जे विधि ते जे जमाए करते ते विधिचैत्य अनिश्राकृत अव्यथो आयतन कहीए मेय ने जाव थकी आयतननो ज्ञान दर्शन चारित्र ए त्रणवमे शो
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( ४३४ )
* मय श्री संघपट्टकः
जता ने पांच प्रकारना जे ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार तेवमे शोजता एवा जे सुविहित साधु ते केमजे शुभ नावरूप एवा ने वंदनादिक वने जव्य जणाता एवा जे जे सत्पुरुष तेमने ज्ञानादि लान थवानुं कारणपहुं एमां रधुं ने ए हेतु माटे.
टीका: - यडुक्कं ॥ श्राययपि य विद्दन्वे जावेय होइ. नायचं ॥ दबंमि जिणहराई जावं मि य होइ तिविदंतु ||
टीका:- ननु जवत्वेवं द्रव्यन्नावजेदेना नायतनस्वरुपं तथापिजिनजवनं न क्वचिदनायतन मजिह्नितं ॥ सत्यमनौपाधिकमनायतनायतनयोः स्वरूपमिदमुदितं । श्रोपाधिकं त्वनायतन स्वरूप मेवं प्रतिपादित मागमे ॥ यत्र गतानां ज्ञानादित्रयव्याघातो जवति तद्वर्जयेन्मतिमान् ॥ श्रथ कगतानां तयाघ्रात इतिचेमुच्यते ॥
अर्थ :- लिंगधारी आशंका करे बे जे द्रव्यजाव नेदे करीने ए प्रकारे अनायतननुं स्वरूप हो, तो पण को जगाए जिनजवन छानायवन क नथी त्यारे सिद्धांती बोले ठे जे ए वात सत्यबे पण उपाधि थकी थयुंजे नायंतन ने श्रायतन ए बेनुं स्वरूप या प्रकारनुं बे शास्त्राने विषे तेमां उपाधि अनायतनना स्वरूपनुं या प्रकारे प्रतिपादन बे जे, जे जगाए गयेला ने ज्ञानादि त्रणनो विधात थाय तो ते स्थानको बुद्धिमान् पुरुषोए त्याग करवो ने हवे तुं जो एम कहेतो होय जे क्यां गएला ने ज्ञानादिकनो विघात थाय एम. जो
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4 अथ श्री संघप
ॐ पूतो होय तो तेनो उत्तर कहीए बीए.
टीकाः--यत्र. लिंगमात्रधारिणः साधवो वसंति यदाहु रोघ- : निर्युको श्रीबाहुस्वामिपादाः ॥ नाणस्स दसएस्सय चरणरस य जत्य होइ वाघान ॥व जिज्जवज्जनीरू श्रणाययण वज्जच खिप्यं || सुगमा || नवरं यत्रेत्यायतने स्थाने देवगृदादो ||
(४३९ )
·
अर्थः- जे जगाए लिंगमात्र धारण करनार साधु वसे बे ते जंघनिर्युक्तिमां कथं बेश्री नडबाहु स्वामीए जे ज्ञान दर्शन चारित्रः जे जगाए व्याघात एटले नाश थाय तो ते स्थानने अनायतन जाणी तत्काळ त्याग करवो ए प्रकारे ए गाथानो अर्थ सुगम बे तेमां श्र टलुं विशेष बे जे यत्र शब्दव आटलो अर्थ बे जे जे देवगृह आ दिक श्रायतन स्थानने विषे गये सते ज्ञानादिकनो विघात थाय एम पद संबंध करवो.
*
टीका:-नचा यतनशब्देना लयमात्रमेवोच्यते ॥ तद्देवरह मिति वाच्यं ॥ श्रायतनं देवानां ॥ तथा श्राययम नोगो इत्यनिधान कोशागमवचनाच्यां लोके लोकोत्तरे च सामान्य विशेषाज्यां देवगृहस्या निधानात् ॥
अर्थ - श्रायतन शब्दे करीने स्थानमात्र कहीए बीए एम जो कहता होतो ते न कहेतुं केमजे श्रायतन शब्दे करीने देवमंदिर कदे केमजे देवनुं जे स्थान तेने प्रायतन कहीए ते वात प्र निधान कोशमां कही बे जे देवस्थानक तेने श्रायतन कहीए तथा शास्त्रमां पप्पा कांबे जे जेनो लोग न थाय ते स्थान आयतन क
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(३९).
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अथ श्री संपट्टका
हीए. एम अन्निधान कोश तथा श्रागम ए बेनुं बचन छेम हेतु माटे लोकमां तथा लोकोत्तरमा सामान्यथी तथा विशेषथी आयतन सब्द देवमंदिरना अर्थने कहेनार .
टीकाः-अथ किं तदायतनं यत् ज्ञानादित्रयोपघातिमिमि'तत्वा दनायतनं जवतीत्याह॥जत्य साहम्मिया बहवे निन्नचित्ता श्रणारिया मूलगुणप्पमिसेवी श्रणाययणं तं वियाणादि ॥ सा. धर्मिका लिंगतः समान धर्माणो बहवो निन्नवृत्ता ब्रष्टाचारा . अनार्या मूलगुणप्रतिसे विनो निर्दयतया प्राणातिपातादि प्रसा का यत्र ते निवसंति तदनायतनं ॥
अर्थः-हवे ते अनायतन ते शुं तो तेनो विचार खखे ले जे झानादि त्रण, उपघातक ने ते अनायतन कहीए एम शाखमा कडुं ते वचन जे जे जगाए साधर्मिक एटले लिंगथी समान धर्मवाळा घणाक जुदां जुदां श्राचरण करता त्रष्टाचारीअनार्य लोक मूखगुणप्रतिसेवी एटले निर्दय पणे प्राणातिपात आदिकने विषे आसक्त लोको जे जगाए वसे ने ते अनायतन कहीए.
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टीका:-तथा जत्थ सादम्मिया बड़वे निन्नचित्ता प्रणारिया ॥ नत्तरगुणपमिसेवी अणाययणं तं वियाणादि सुगमा ॥ नवरं उत्तर गुणप्रतिसे विनोऽशुद्धपिमादिग्राहिणः॥ तथा ॥जस्थ साइम्मिया बहवे जिन्नचित्ता श्रणारिया॥लिंगवेस पनि उन्ना अपाययणं तं वियाणाहि ॥ सुगमा ॥ नवरं लिंगवेषमा- .. श्रेण प्रतिबन्ना आच्छादिताः प्राकृत लोकः सुविहितेन्योऽलक्ष्यमाण विशेषा इतियावत् ॥ इति वामतः ॥ आत्यंतरतः पुन
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-4 अथ श्री संघपट्टा
(१०)
सगुण प्रतिसेविनः उत्तर गुणप्रतिसे विनश्च यत्र तदनायतनमिति . 'माया त्रयार्थः॥ - अर्थः-जे जंगाए लिंग धरवाथी सरखा धर्मवाळा घणा. रहेता होय ने तेम जुदा जुदा चित्तवाळा होय ने अनार्यने लिंग तथा वेष ते बेवमे ढांकेला ज्यां ते श्रनायतन क्षेत्र जाणवू ए गाथा सुगम डे माटे एनी टीका टीकाकारे नथी करी तेमां आटटुं विशेष ले जे लिंग तथा वेष तेणे करोनेज ढांकेला ने एटले प्राकृत लोकोए सुविहित मुनिथकी जुदा जाएया नथी एटलो अर्थ. ए प्र. कारे बाहेरथी तथा अंतरथी मूलगुण प्रतिसेवि . तथा उत्तरगुण प्रतिसेवि ने ते जे जगाए रहेता होय ते श्रनायतन कहीए एम ए त्रण गाथानो अर्थ बे..
टीका-श्री हरिजप्रसूरिनि विवरणे प्रतिपादित इति॥ अस्य चायमाशयः ॥ नहि रुधादिगृहव त्स्वरूपेण जिननवन'मनायतनं ॥ किंतू पाधिवशात् ॥ उपाधिश्च तत्र लिंगिनिवासमा
अतमवोक्तं ॥ यत्र निवसंति तदनायतनमिति ॥ तथा च यदि वे जिमजवने निवसंति तदा तनिवासौपाधिकत्वाद् नवति जिन, . अवनस्या नायतनत्वं ॥
अर्थः-जे हरिनप्रसूरिए विवरण कर्यु ले तेमां प्रतिपादन कर्षको जिप्राय ए जे जे शिवमंदिरनी पेठे स्वरूपे करीने निनवन अनायतन नथी त्यारे शुं तो उपाधिना वशथी आना सन ने मां उपाधि शो ले तो लिंगधारीनो निवास रूपमा
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(५३८)
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जय श्री संघपट्टकः *
घि एज हेतु माटे कथु जे जे जगाए लिंगधारी रहे ने तेश्र. नायतन कहीए. वळी ते लिंगधारी जो जिनन्नवनमां रहे ले तो ते जिननवन पण तेमना निवासरूपी उपाधियी अनायतन याय .
टीकाः-उपाध्यपराधेन स्वरूपत श्रायतनस्यापि तस्याना श्रयणीयत्वात् ॥ दृश्यतेचो पाधिवैगुण्या उपाधिमतः सगुणस्याप्यन्नोग्यत्वं ॥ यथा जुजंगसंगा चंदनतरोरिति नवत्यौपाधिक मस्यानायतनत्वमिति ॥ श्रतएव नगवता नाबाहुस्वामिना नायतनस्वरूप विचारात्परतः श्रायतनविचार प्रक्रमे जावाय तन स्वरूपं प्रतिपिपादयिषता प्रथमं नामि नहोति विहंतु इत्यनेन ज्ञानदर्शनचा रित्रपवित्रमुनिलकणमनौपाधिक ना. वायतन स्वरूपमनिधाय तन्निवासोपाधिकत्वा तदाश्रयस्याप्यायतनत्व ॥ . . . . . . . ..
अर्थः-उपाधि जे लिंगधारी सेमना अपराधी स्वरूपथी आयतन एवं पण जिनन्नवन तेना आश्रयनुं न करवापणुं बे ए हेतु माटे ए जिनन्नवन अनायतन कहीए लोकमां एq देखाय जे जे उपाधिना दोषथी नपाधिवाळो गुणसहित होय तोपण तेनुं अजोग्य पर्छ जेम सर्पना संबंधथी चंदनवृक्ष, डे तेम माटे जिनमंदिरनुं नपाधिथी अनायतनपणुं थयु ३. एज कारण माटे नप्रबाहु स्वामीए अनायतनना स्वरूपनो विचार कर्या पडी श्रायतननो विचार श्रारंज करे सते नावायतनना स्वरूपने प्रतिपादन करवानी हाए प्रथम नावं मि इत्यादि गाथाए करीने ज्ञान,दर्शन, चारित्र ए त्रणव पवित्र ययेला जे मुनि ते ने लहर, जेनुं ने लिंगधारीरूपी उपाधि जेमांनी
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
( ४१९ )
एवं जाव श्रायतननुं स्वरूप कहोंने ते मुनि निवासरूपी नृपाधि जेमां रह्यो जे ते स्थानकने पण आयतन कही ए एम क. बे ते वचन कड़े ने जे.
टीकाः - जत्थ सादम्मिया बढ़वे सीलवंता बहुस्सुया || चरितायार संपन्ना श्राययणं तं वियाणा हि ॥ इत्यनेन प्रतिपादितं ॥ लिंगप्रवचनाभ्यां साधर्मिकाः शिलादिमंतः साधवो यत्र निवसंति तदायतन मिति तत्र व्याख्यानात्तत्कस्य हेतोः तडुपाधिसन्निधाना दुपाधिमतस्तद्रूपता जवत्तीति ज्ञापनार्थं ॥
अर्थः- जे जगाए साधर्मिक घणा रह्या होय ते केवा बे तो शीलवंत बे तथा बहुश्रुत बे तथा चारित्राचारवमे सहित बे एवं जे स्थानक तेने श्रायतन ए प्रकारनं जाणो. ए गाथावके आयतननुं स्वरूप प्रतिपादन कयुं, पढी तेनुं व्याख्यान ए प्रकारनं कर्यु; जे जे जगाए लिंग तथा प्रवचन एं बे वमे सरखा जाता ने शीलादि गुणवाळा साधु जे जगाए रहेता होय ते श्रायतन कहीए माटे ए प्रकारना व्याख्यान करवानुं शुं कारण बे तो ते लिंगधारी तथा ते प्रकारना सुविहित मुनि ते बे रूप ज़े उपाधि तेना संबंधी स्था.. न. पण एबे प्रकारनुं थाय बे एम जणाववा वास्ते ए प्रकारनुं जे व्याख्यान कर्यु जे नावार्थ: जे लिंगमात्र धारीना निवासथी जिनमंदिरादिक आयतन एटले श्राश्रय करवा योग्य एवां स्थानक पपा अनायतन चाय के एटले त्याग करवा योग्य थाय बे ने सुविहितना . निवासथी स्थानक मात्र श्रायतन याय दें एटले जव्य प्राणिने आश्रय करवा योग्य थाय बे.
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82.)
अथ श्री संघटक -
टीकाः - अतएव हरिनद्रसूरिणा जिनजवन किवापन भूभागं निरुपयतातत्पंचाशके कुत्सितलोकाकीर्णपाट कांतर्निर्मिते जिन साधूना भुपपातेन चारित्रजंगप्रसंगा तत्र तद्विधापनानावः प्रदर्शितः ॥
यडुक्कं ॥
संमिन बुढी कारवणे जिणहरस्स नय पूया ॥. सारा मणवार्ड किरिया नासोन जववाएं ॥
अर्थ:- एज कारण माटे हस्निप्रसूरिए जिनजवनने स्थापन करवा योग्य एवो पृथ्वीनो जाग तेनुं निरूपण करती वखत पंचाक नामा थने विषे कथं बे जे निंदित एवा जे लोक तेथे सहित एवो जे पायो तेमां निपजावेलुं जे जिनमंदिर तेने विषे साधुनुं श्रागमन थाय तेथे करीने साधुना चारित्रनो जंग थवानो प्रसंग आवे ते हेतु माटे ते पायाने विषे जिनमंदिर करवानो निषेध देखायो बे.
टीका:- नचै तावता तस्य ना नायतनत्वं ज्ञानादित्रयविघातदेतुत्वस्य तलक्षणस्य तत्राप्युपपद्यमानत्वात् ॥ तस्मात्सिद्ध . सुपाधिदोषा जिनजवनस्या प्यनायतनत्वं ज्ञानादित्रय विधात हेतुत्वस्य तल्लक्षणस्य तत्राप्युपपद्यमानत्वात् ॥ तस्मात्सिमुपाविदोषा जिनजवनस्याप्यनायतनत्वमिति ॥
.
अर्थः-वळी ए वात कही तेणे करीने ते जिनजवननुं श्रनायतनप न श्रव्यु एन नथी त्यारे शुं तो अनायतनपज प्रा. सुंबे मजे अनायतनतुं ए लक्षण जे जे ज्ञानादि अपना विधात
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-49. अथ श्री संघपट्टक
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(१४१)
- मे कारण होय ते अनायतन कहीए ते लक्षण तो ए जिन मंदिरमां पण आव्यु ए हेतु माटे नपाधिना दोषथी जिन जवननुं पण अनायतनपणुं सिक थाय डे. इति.
टीकाः-अनिश्रानिश्राकृतयो रन्येत रदेत दधिकृतं जिननवनं नविष्यतीति चेन्न तबक्षणानुपपत्तेः तबक्षण मंतरेण च लक्ष्यस्य तत्तया व्यवस्थापयितु मशक्यत्वात् ॥
अर्थः-प्रतिवादिने कहे के तु एम कहे जे जे अनिश्राकृत तथा निश्राकृत ए बेमांनु एक था जिननवन पण हशे पण एम तारे न कहेवू केम जे ए बेनुं पण लक्षण था जिनन्नवनमा मळतुं नथी श्रावतुं. ने ते लक्षण मळ्या विना लक्ष्य वस्तुनी स्था पना करवा समर्थ न थवाय ऐटले जे वस्तुमा वस्तुनुं लक्षण न होय तेने ते प्रकारनी न कहेवाय लिंगधारीए निवास करेलुं जिनमंदिर तेमां निश्राकृत, लक्षण पण मळतुं नथी आवतुं ने अनिश्राकृतनुं पण लक्षण मळतुं नथी आवतुं.
टीकाः-तथाहि ॥नैतदनिश्राकृतं ॥त्रोत्सूत्रेत्यादिना प्रागनिदितस्य तन्वक्षणस्य विधिरोधसोऽत्र विवक्षितचैत्येऽनवरतं प्रवहता सर्वथा तहिपरीतेनाऽविधिश्रोतसा समूलकाषं कषितत्वात् ॥
अर्थ-तेज कही देखामे वे जे ए जिनजवन अनिश्राकृ. त नथी केम जे अत्रोत्सूत्र इत्यादि पूर्वे कडं जे विधि सहित करवा
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(४२)
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अय श्री संघपटक
रुप अनिश्राकृतर्नु लक्षण तेनुं श्रा चैत्यने विषे निरंतर वहन थतो में सर्वथा लक्षणरहित जे अविधिनो प्रवाह तेणे करीने भूळमाथीज विधि लक्षणनुं जवापणं हे हेतु माटे.
टीकाः-नाप्येतन्निश्राकृतं ॥ निश्राकृतं हि तमुष्यते ॥ यत्र देशकालविप्रकर्षादिना सुविहितगुरु शिक्षादिविरहा बैथिस्यातिशयेन देशतः पार्श्वस्थावसनादिलाव मापनाना शुरूप्ररूपकाणामपि सातलोलतया तथाविधंविधि मनुपदिशता मप्रवर्त्तबता चचैत्वाइदिनिवासेपि तचिंतापराणां यतीनां निश्रा वर्तते।।
अर्थः-वळी ए चैत्य निश्राकृत पण नथी केमजे निश्राकृत तो तेने कहीए के जे देश काळना विपरीतपणादिक कारणे करीने तथा सुविहित गुरूनी शिक्षा इत्यादिकनो जे विरह ते थकी जे अतिशय शिथिलपणुं तेणे करीने तथा देशथकी पासथ्था, नसन्ना इत्यादिक जावेने पामेला ने शुद्ध प्ररूपक ने तो पण साता सुखने विषे लोलपीजे ए हेतु माटे ते प्रकारनो विधि मार्गने उपदेश न करता तथा न प्रवर्त्तावता ने चैत्यथी बारणे निवास करे ले तो पण ते त्पनी चिंता करवामां तत्पर एवा जे यति तेनी निश्रा जे जमाए वर्ने ले ते २ ते निश्राकृत कहीए.
टीकाः यत्रच श्राकानां श्रद्धावृद्धये सुविहितसूरयोपि ___कदाचिठ्याख्यानं विदधति॥नसन्नाविय तत्थेवेत्यादि तथाप्तरि. ति समोसरण मित्यादि प्राप्रतिपादित पचमात् ॥ नचोक्त
खण्णमच्या प्रकृतपत्वे किंचि सुमनत्यते
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अथ श्री संवपट्टकः
(३)
अर्थः- जे जगाए श्रावकनी श्रद्धा वधवाने वर्षे सुविहित सूरि पण कदाचित् व्याख्यान करे बे, 'उसन्नावि ' इत्यादि वचन - व ते वात प्रथम प्रतिपादन करी बे ए हेतु माटे ए वात सांजळीने लिंगधारी शंका करे बे जे था कह्युं जे लक्षण तेमांथी कां पण श्रा लिंगधारी निवास करेला चैत्यमां आवे बे ? त्यारे सुविदित कहे ने जे कांइ पण नथी श्रावतुं
टीकाः - तथा हितत्र ॥ सर्वदां तर्निवसद्भिरेव पार्श्वस्थादिचिः सकलचिंताविधाना ब्राद्धानां चात्यंतकुदेशनावासितानां विधिचथमात्सर्येण तडुत्सादायैव प्रत्यवस्थानाद दूरोत्सारित सुविदितानां तत्र व्याख्यान विधानं ॥ तथा च कथमेतन्निभाकृतं स्यात् ॥
अर्थः- तेज कही देखाने बे जे निरंतर चैत्यमांज निवास करता एवा जे पासथ्यादिक ते चैत्य संबंधि कार्यने करे तेमनी थात्यंत कुदेशनावके वासित थयेला एटले कुदेशना रूप थयेला जे श्रावक तेनी मध्ये विधि मार्ग साथे मत्सर थकीज जाणेशुं एम वृद्धि प्रामतो जे प्रविधि मार्ग तेने प्रवर्ताववाने अर्थे रह्या होय ने शुं एवा जे ते लिंगधारी तेथी सुविहितनुं व्याख्यान दूर गयुं ते माटे ए केम मिश्राकृत चैत्य कद्देवाय.
टीका:- तस्माद निश्रा निश्राकृतव्यतिरिक्तं लिंगिजियासितं तृतीय मेत दनायतनानिधानं चैत्य मयुपगंतव्य मिति ॥ नः नु नित्यच चिक्कृतसाधार्मिकमंगल चैत्यजेदा च्चतुर्विधं चैत्यं सि. द्धांते परिसंख्यायते ॥ नफिकृतस्य निनानिश्राकृतजेवन है
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(vi)
* अथ श्री संघपट्टक
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विध्यात्पंचविधं वा॥
अर्थः--ते हेतु माटे अनिश्राकृततथानिश्राकृत ए बेथी रहित लिंगधारीए निवास करेढुं त्रीजुश्रा अनायत नाम चैत्य ने एम जाणवू. त्यां आशंका करे जे जे सिद्धांतमां नित्य चैत्य नक्तिकृत चैत्य, तथा साधर्मिक चैत्य तथा मंगल चैत्य एवा नेदथी चार प्रकारनां चैत्य गणाव्यां दे अथवा तेमां नक्तिकृत चैत्य निश्राकृत, अनिश्रा. कृत एवा दे करीने बे प्रकारनुं तेथी पांच प्रकारनां चैत्य बे.
- टीकाः-नत्वनायतनाख्यस्य पंचमस्य षष्टस्य वाक्वचित्परि संख्यान मस्ति॥ यदि ह्यनायतन मप्यनिप्रेतं स्यात्तदातदपि नित्यचैत्यादिवत् परिसंख्यायेत ॥ न चैवं ॥ तस्माच्चत्वारि पंच
वा चैत्यानि ना नायतनमिति ॥ यथोक्तं॥नीयाइंसुरलोए नत्ति- कयाइंच जरहमाईणं॥ निस्सानिस्सकया साहम्मि य मंगलाई चेति चेन्न॥
अर्थः-तेमां लिंगधारी एम श्राशंका करी कहे जे श्रनायतन नामे पांचमुं अथवा बहुं कोइ जगाए चैत्य गएयु डे ने जो सिद्धांतकारने ए अनायतन चैत्य कहेवार्नु होय तो पण नित्यचैत्यादिकनी पेठे को जगाए गएयुज होत पण एम तो कोश जगाए गएयु नथी माटे सिकातकारने मते चार प्रकारनां अथवा पांच प्रकारनांज चैत्य जे. पण अनायतन नामर्नु चैत्य नथी ते शास्त्र, वचन जे नित्य चैत्य देवलोकने विषे तथा नक्तिकृते चैत्य जरत्यादिक के. त्रने विषे निश्राकृत तथा अनिश्राकृत तथा साधर्मिक चैत्य तथा मंगल चैत्य ए प्रकारे जे तेमां अनायतननुं नामज नथी. हवे सुवि
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अथ श्री संघपट्टक
हित एनो उत्तर श्रापे डे जे एम तारे न कहे.
टीका:-अन्यतीर्थिकपरिगृहीताईत्प्रतिमानां वंदनादि निषेधेन तस्याप्यागमे निमत्वात् ॥ कथ मन्यथा सम्यकप्रति पत्तिसमये श्राकानां नोमे कप्पश् अन्नतिथियपरिग्गिहियाणि अरिहंतचेईयाणि वंदित्तए वा नमंसित्त ए वा इत्यादिना जगवान् नप्रबाहुस्वामी नगवत्प्रतिकृतीनां बोटिकादि परिग्रहीतानां वंदनादिप्रतिषेध मनिदधीत॥न ह्यनायतनत्वं विना तत्प्रतिषधानिधानं शोनां बिनर्ति।तस्मा दस्त्यनायतनं सिद्धांतान्निहित मिति॥
अर्थः-केम जे अन्यदर्शनीए ग्रहण करेली जे अरिहंतनी प्रतिमा तेनुं वंदनादिक निषेध कहेवे करीने ते अनायतन चैत्यन पण श्रागमने विषे कहेवापणुं डे ए हेतु माटे ने जो एम न होय तो समकित अंगिकार करवाने समे श्रावकने 'नोकप्प' इत्यादि एटले अन्यदर्शनीए ग्रहण करेलां एवां जे अरिहंतनां चैत्य ते वं. दन करवां तथा नमस्कार करवां नथी कल्पतां इत्यादि वचने करीने नगवान् श्रीनप्रबाहु स्वामि बोटिकादिक अन्यदर्शनी तेमणे ग्रहण करेलां जे चैत्य तेमनुं वंदनादिक ते प्रत्ये निषेध केम कहेत नज कहेत. माटे जो अनायतन चैत्य नज होय तो ते चैत्यना वंदनादिकनो निषेध कर्यो ते न शोन्नत माटे अनायतन एटले अवंदनीक एवं चैत्य सिद्धांतमांज कहेवू .
टीकाः-नुक्तेष्वेवांतावा नैतत्पृथगस्ती तिचेन्न तदन्नावात् तथाहि न ताव नित्यचैत्येऽस्यांत वःकृतकत्वेन तदनावानुपपत्तेः ॥ विमानजवनसनातनशिलोचयादिष्वेव
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48 अथ श्री संघपट्टकः
नित्य चैत्यानां भावात् ॥ नापि निश्रानिश्राकृतयोः ॥ प्रायुक्तलक्षणस्ये हानुपपत्त्येव तदंतर्भावस्यापाकरणात् ॥
अर्थः- गणावेलां जे ए चैत्य तेमां श्रा अनायतन चै त्यनो पण अंतर्भाव थशे एथी जुडुं नहि पके एम जो तु कहेतो होय तो ते न कहेतुं केम जे तेज कही देखाने बे जे नित्य चैत्यने विषे ए अनायतन चैत्यनो अंतर्भाव नथी यतो केम जे ते तो नित्य शाश्वतां चैत्य वे ने या तो करेलुं बे माटे ने नित्य चैत्य तो विमान, जवन तथा सनातन पर्बत इत्यादिकने विषे रह्यां ए हेतु माटे ने निश्राकृत, अनिश्राकृत ए वे प्रकारना चैत्यनुं पण प्रथम कयुं बे ते या अनायतन चैत्यमां नथी माटे तेमां न गणीनेज जुदुं कही देखायुं बे माटे.
टीका :- नापि साधर्मिक चैत्ये ॥ यति मूर्त्तनुषं गिल्वेनैव तस्वाभिधानात् ॥
॥ यदुकं ॥
वारत्तगस्त पुत्तो पमिमंठाविंसुचेश् य हरंमि ॥ तत्प्रयत्थली देसी सादम्मिय चेश्यं तंतु ॥ नापिमंगले चैत्ये तस्य प्रतिनियत विषय तयैव प्रतिपादनात् ॥
॥ युक्तं ॥
रत पठाए महुरानयरी मंगलारंतु ॥ गेद्देसु चच्चारेसु य उन्नन गाम गद्येसु ॥
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अथ श्री संघपटक
• तस्मा देतेब्बत वात् परतीर्थिकपरिहीसाऽर्हचैत्यानामनायतन चैत्यत्वं सिक मिति ॥
अर्थः-साधर्मिक चैत्यने विषे पण ए अनायतन चैत्यनो अंतरजाव नथी केम जे तेमां तो साधुनी मूर्ति स्थापन करवी तेणे करीने कडेवापणुं जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे तथा मं. गल चैत्यमां पण एनो अंतर्नाव नथी. केम जे तेतो स्थान स्थान प्रत्ये नियमाए करीने तेनुं प्रतिपादन कर्यु जे जे माटे ते वात शासमां कहो ने ते हेतु माटे ए सर्व चैत्यमां अनायतन चैत्पनो अंतर्जाव नथी एटले ते थकी था अनायतन चैत्य जुदं पके जेए प्रकारे परतीथि लोकोए गृहण करेलां जे अरिहंतनां चैत्य तेनुं अनायतनपणुं सिम थयु.
टीकाः-नन्वेवं षष्टचैत्यान्युपगमे सूत्रोक्ता नित्यादिचैत्य पंचकसंख्या विरुद्धते ॥ तथाच सूत्रकृतां विरुवादित्वेनान्यत्रापितचसि विनेयानां समास्वासो नस्या देवं च बहु विशीयेतेतियेन ॥ अविरोधात् ॥
अर्थः-लिंगधारी आशंका करे ले जे जो एम बई अनायतन चैत्यमां न शोने तो सूत्रमा कहेली जे नित्यादि चैत्यनी पांच संख्या तेनो विरोध लागशे वळी सूत्र करनारने विरुवादि जाणीने बीजी जगाए पण तेमना वचनने विषे शिष्योने विश्वास जमी जशे एम विचारतां घणी हानी प्राप्त थशे. हवे सुविहित कहे जे जे एम तमारे न बोलq केम जे कोई प्रकारनो विरोध बेज नहि शी रीते तो.
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(४४८ ) - अय श्री संघपट्टकः
टीका:-"नीया सुरलोएश्त्यादौ देवकुलिक परिग्रहाधुपा. धिवशेना निश्राकृतादे रपि क्वचित्कदाचि दनायतनव्यपदेशादौपाधिकत्वेन तस्य पृथगपरिसंख्यानात् ॥ यहा॥ तत्पूजा
पामेव चैत्यानां संख्या निधानं ॥ अनायतनचत्यस्यत्वपूज्य... त्वेन पृथगपाग नदंतःपाः तस्याप्येवं प्रतिपधेरन्मंदमेधसः॥
अर्थः-नित्यादिचैत्य देवलोकमां ने इत्यादि वचनने विषे देवपूजारानुं ग्रहण करवू ए रूप जे उपाधि ते तो वशथी थनिश्रा. कृतादि चैत्यनो पण क्यारेक को जगाए अनायतन पणाना कहेवाथी उपाधिक संबंधी करीने तेने जुएं गएयुं नथी ए हेतु माटे अथवा तेमां पूजा करवा योग्य एवां जे चैत्य तेनीज संख्या कही ने अनायतन चैत्य तो अपूज्य डे ए हेतु माटे एनो पाठ जुदो न. णेलो ले केमजे जो ते पूजनिक चैत्य नेलू अपूजनिक जे अनाय. तन चैत्य तेनो पाठ नएयो होत तो केटलाक मंद बुहिवाळाने ए सर्व चैत्य पूजनिक मनात ए हेतु माटे नावार्थः पांच प्रकारनां चैत्य पूजनिक ले ने बहुं लिंगधारीए ग्रहण करेधुं अनायतन चैत्य ते अपूजनिक बे.
टोकाः-एक सूत्रनि र्दिष्टानां सहवा प्रवृत्तिः सहवानिवृतिरिति वेयाकरण न्यायात् ॥ तस्मात् ज्ञायते विशेष प्रतिपत्तयेतेन्यस्तस्यपार्थक्या जिधान मितिनागमोक्त चैत्य संख्या विरोपति ॥
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- अथ श्री संघपट्टक -
( ४४९ )
अर्थ - नेजे एक सूत्रमा देखामेलां तेमनी प्रवृत्ति तथा निवृत्ति ते वे संघाज थाय एम व्याकरण जवेला विद्वान लोकोनो न्याय के ए हेतु माटे एटले पूज्य तथा अपूज्य ए वे प्रकारनां चैत्य एक सूत्रमां संघाथे गणान्यां होय त्यारे सर्वे पूज्य थाय अथवा सर्वे प्रपूज्य चाय माटे पूजवा लायक पांच प्रकारनां चैत्य एक सूत्रमां गणाव्यां
बहु पूज्य जे लिंगधारीए ग्रहण करेलुं अनायतन चैत्यते जुडुं गणान्युं माटे ते पूज्य चैत्यथ। अपूज्य चैत्य जुड़ गणावतां शास्त्रमां कहेली जे पांचनी संख्या तेनो विरोध नहि घ्यावे.
टीकाः नन्वेतावता कुतीर्थपरिगृहीताई चैत्यानां सिध्यस्वनायतनत्वं नतु स्वयूथ्य पार्श्वस्थादिपरिगृहीताना मिति चेन्नतेषामपि सिद्धांतोक्तेना जावग्रामत्वेन तयात्वसिद्धेः ॥
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अर्थः- लिंगधारी श्राशंका करे बे जे या जे तमोए कयुं ते करीने कुतीर्थिक पुरुषोए ग्रहण करेलां जे अरिहंतनां चैत्य तेनुं अनायतनप सिद्ध थाय पण पोताना युथना एटले पोताना वर्गना जे पासथ्यादिक ते ग्रहण करेलां जे चैत्य तेमनुं अनायतनप तो न त्यारे सुविहित मुनि उत्तर आये बे जे जो एम तमारे कहेवानुं होय तो ते न कहेतुं म जे सिद्धांतमां जावग्राम को बे तेणे करीने ते लिंगधारीए ग्रहण करेला जे चैत्य तेनुं पण अनायतन पहुं सिद्ध थाय बे.
टीका ननु कोर्य जावमा मोनाम यदनावातिमांना मं नायतनत्वं प्रसाध्यते जवतेतिचेत् ॥ उव्यते ॥ ज्ञानदर्शनबा
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(४५०)
4. अथ श्री संघपट्टकः -
NAMMAM
रित्राणि नावग्रामो येन्योवा ज्ञानादीनामुत्पत्ति रिति॥अथ के. ते येन्यो ज्ञानाद्युत्पादः ॥ अवहिती नूय श्रूयतां ॥
. अर्थः-लिंगधारी प्रोजे जे ए लावग्राम कीयो के जेना विना प्रतिमानुं अनायतनपणुं तमो सिझ करो जो हवे सुविहित बोध्या जे जो एम तमे कहेता होतो तेनो नत्तर कहीए बीए में ज्ञान दर्शन तथा चारित्र ए नावग्राम के जेथी अथवा जेथी ज्ञानादिकनी उत्पत्ति थाय ते नावग्राम कहीए हवे लिंगधारी पूरे ने जे जेथी ज्ञानादिकनी उत्पत्ति थाय एवा ते कोण जे त्यारे सुविहित वोट्या जे तुं सावधान था सांजळ उत्तर आपीए बीए.'
टीकाः-तीर्थंकर मनः पर्यायावधिज्ञानिन चतुर्दशदशनवपूर्वधराः संविग्नास्तत्पालिकाश्च सारूपिणो गृहीताणुव्रताः प्रतिपन्नसम्यक्त्वाश्च श्रावकाः अहत् प्रतिमाश्च ॥ तीर्थंकरादयो हि देशनादि छारेण नव्यसत्वानां ज्ञानाद्युत्पादहेतुत्वेन नवंति नावग्रामः॥
__ अर्यः-जे तीर्थंकर तथा मनः पर्याय शानि तथा अवधि ज्ञान तथा चनद पूर्वधारी तथा दश पूर्वधारी तथा नव पूर्वधारी तथा संविग्न तथा तेमना पक्षपाति तथा सारूपी तथा ग्रहण कर्यु ने अणुव्रत ते जेमणे तथा ग्रहण कयु डे समकित जेमणे एवा जे श्रावक तथा अरिहंतनी प्रतिमा तथा तीर्थंकरादिक पण देशना. दिक हारे नव्य जीवोने ज्ञानादिकनी नुत्पत्तिनुं कारण जे ए हेतु माटे नावनाम ए सर्वेने कहीए बीए.
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बय श्री संघपट्टक
टीकाः-नन्वेवं तर्हि फलितमस्माकं मनोरथपादपे नातीथंकरादिवत्प्रतिमानामपि नावग्रामत्वेनाऽनायतनवासिके रितिचेन सम्यगुदृष्टिपरिगृहीताना मेव तासां नावग्रामत्वप्रतिपादनात् ॥
... अर्थः-लिंगधारी बोध्या जे ए प्रकारे जावग्राम कहेता होतो अमारा मनोरथ रूपी वृक्ष फळवाळु थयु. एटले अमाझं धायुं तेज तमारा कह्यामां आव्यु. जे तीर्थंकरा दिकनी पेज प्रतिमाने पण नावग्रामपणुं प्राप्त थयुं माटे अनायतन चैत्यनी बात असिक थई एटले खोटी थई, हवे सुविहित बोले ले जे एम तमारे न बोलq केम जे समकित दृष्टिवाळा पुरुषोए ग्रहण करेली जिनप्रतिमानेज नावग्रामपणानुं प्रतिपादन ए हेतु माटे सिंगधारीए निवास करेलां चैत्यनुं अनायतनपणुं सिह थाय .
.....टीकाः-श्रथ कथंचित् मिथ्याष्टिपरिगृहीतानां तासां तन्नन्नवति ज्ञानाद्यनावादिति चेन तदनावेपि तासां वीतरागत्वलिंगदर्शनेन कस्यचि त्सम्यक्त्वाद्युत्पादात् ॥
यमुक्तं ॥
दलिततमस मुच्चै स्वतो यस्य बिंबं गतमल मपि दृष्टेर्नालिकानां विबोधं ॥ प्रजनयति रजोनि धूसराणां नराणां निजगति स नमस्यः कस्य न स्याज्जिनेः॥
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(४५२)
8. अथ श्री संघपट्टक:
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अर्थः--हवे लिंगधारी बोले ले जे मिथ्यादृष्टिए ग्रहण करेली जे प्रतिमा तेने कोई प्रकारे जावग्रामपणुं नथी. केम जे ज्ञानादिकनो अन्नाव ए हेतु माटे एम जे तमो कहोगे ते न कहेवू. केमजे ते प्रतिमाउने नाव ग्राम पणुं नथी तोपण वीतराग पणानुं चिह्न देखवे करीने कोने समकित श्रादिक गुणनी उत्पत्ति दे. खाय जे. ए हेतु माटे, मान्य जे कारण माटे ए वात शास्त्रमांकही ले जे अज्ञान अंधकारनी नाश करनार अने देदिप्यमान अने मल रहित एवी जे जगवतनी प्रतिमा ते जेम सूर्य दृष्टिनो प्रकाश करे ले तेम रजोगुण वमे मलीन थएला पुरुषोने अज्ञान अंधारूं टाळीने अव. बोध उत्पन्न करे ने ए जिनराज त्रण जगतमां कया पुरुषने नमस्कार करवा योग्य नथी ? सर्वने नमस्कार करवा योग्य .
टीकाः--ततश्चायुघृतमितिवत् कारणे प्रतिमा लक्षणे ज्ञानादिलक्षणकार्योपचारेण तासामपि नावग्रामत्व मुपपत्स्यत इति चेन्न॥ एवं सति निहवादीनामपि नावग्रामत्वापत्ते स्तेषामपि प्रशांतरूपक्रिया दिदर्शनेन कस्यचित् सम्यत्वाद्युत्पत्तेः ॥
अर्थः-ते हेतु माटे घृत ने तेज आयुष्य ने एटले घृत रूपी कारण थकी आनखा रूपी कार्य नत्पन्न थाय बे एवाजेम न्याय लौकिक शास्त्रमा डे तेमज प्रतिमा रूपी कारण देखवाथी ज्ञानादि खक्षण जे कार्य तेनी उत्पति थाय. ए प्रकारे उपचार मात्रे करीने ते प्रतिमाने पण नाव ग्रामपणुं उत्पन्न थशे. एम जो तमे कहेता हो तो ते न कहेQ एम सुविहित बोले जे. जे एम कहीए तो निह. वादिकने पण जावग्रामपणुं प्राप्त थाय केम.जे तेमनुं पण प्रशांत
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अथ श्री संघपट्टक -
( ४५३)
रूप क्रियादिक देखवाथी कोइकने समकिता दिकनी उत्पत्ति यशे ए हेतु माटे.
टीका:- नचेदमिष्टं जवतो पि सर्वैरेव जिनमतवर्त्तिनि र्निह वाना माज्ञाबाह्यत्वेना जावग्रामतया वर्जनीयत्वान्युपगमात् ॥ एवं निवोदाहरणेन प्रतिमानामपि मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतानामावग्रामत्वेन वर्जनीयत्व मयुपेयम् ॥
अर्थ:-- सुविदित कहे बे के ए प्रकारनुं जे तमाहं कहेतुं ते तमारे पण वलन नथी ने सर्वे जिनमतवाळा पुरुषो एम जाये बेजे नित्र पुरुषो परमात्मानी श्राज्ञाथी बाहिर बे ए हेतु माटे अनावग्रामपणुं एमां रचुं बे तेथे करीने त्याग करवा योग्य बे एम सजा . ए प्रकारे निह्नव पुरुषोना दृष्टांते करीने मिथ्या दृष्टिए ग्रहण करेली जिन प्रतिमाने पण अनावग्रामपणुं वे ए देतु माटे वर्जवा योग्य बे एम जाणवुं.
टीका: - यक्तं ॥ चित्रं निसर्गसुनगापि परिप्रदेश, मि. थ्यादृशां जगवतः प्रतिमा तथापि ॥ सम्यग्दृशां प्रणमनादि विधा वजावमामत्वतो भवति निह्नववप्रिया ||
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कही बे जे स्वभाव थकीज सुंदर एवी जिन जगवंतनी प्रतिमा जे ते मिथ्या दृष्टिना परिग्रह मात्रे करीने पण ते प्रतिमाज ते सम्यग् दृष्टि पुरुषोने नमस्कार करवा दि विधिने विषे श्रावग्रामने उत्पन्न करनारी बे माटे तेनो निहवनी पेन याग करवो.
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(१४)
-19 अब श्री संघपटक
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टीका:-अमु मेवार्थ नावग्रामविचारप्रकमे शंकोत्तराच्या मूचतु स्तत्र जगवंतो कल्पनाष्यर्णिकारौ ॥नाणाइतिगं ना.. को जय एएसिं नुप्पत्ती लावग्रामो नाणदंसण चरिताणि ॥ ज वा एएसि नप्पत्ती हव॥ केय ते जनप्पत्ती हव ॥ उच्यते ॥ तिस्थगरा जिणचुइसदसजिन्ने संविग्ग तह असंविग्गे ॥ सारूविय वयसपमिमान नावगामा ॥ जा संमिनाविया पमिमा इयरी न नावगामो य ॥ जा. वो जश्नस्थि तहिं नणु कारणकजनवयारो ॥ थाह कहंमिल हिहिपरिग्गहियान नावगामोन हव ॥ नच्यते ॥ तत्र ज्ञानादिनावो नास्ति ॥ श्राद ॥ननुकारणे कार्योपचार इति कृत्वा।। तानवि दहणं कस्सवि संमुप्पान्होजा तो कहता जावगामो न जव ॥ श्रायरि नग॥ एवं खुनावगामे निहगमाईविज.. ह मयं तुनं ॥ एय मवच्चं कोणुहु वयविवरी वजाहि ॥
अर्थः-श्राज वात नगवान् कटपनाष्यकार तथा चूर्णिकारे जावग्रामना विचारना प्रस्तावे शंका अने उत्तरवमे जगावेली
ते श्रारीते ले के ज्ञानादि त्रण नावग्राम कहेवाय . अथवा जेनाथी एमनी उत्पति थाय ते पण नावग्राम कहेवाय. वारुं त्यारे कयी कयी बाबतोथी एमनी नत्पत्ति थाय ले तो कहे बे के तीर्थकर, सामान्यकेवळि, चनदपूर्वी, पूर्वधर, संविग्नसाधु, असंविग्नसारुपिक, व्रतधारीश्रावक, समकिती श्रावक तथा प्रतिमा ए बधाथी तेमनी उत्पनि थाय .त्यां प्रतिमा जे सम्यग्दृष्टिनी परिग्रहीत होय तो जावणाम के, पण मिथ्यादृष्टि परिग्रहीत होय ते नावग्राम नहि थाय.
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७ अथ श्री संघपट्टकः --
( ४५५ )
एम केम हो तो कहे बे के त्यां ज्ञानादिकनो जाव होतो नथी, माटे एम बे, कोइ बोलशे के त्यारे कारणमां कार्यनो नपचार केम नहि शके केमके तेमने जोइने पण कोइने ज्ञानादिक उपजे बे माटे ते पण जाग्राम थशे त्यां श्राचार्य जवाब आपे बे के एम जो जावग्रामपं यतुं होय तो तारा हिसाबे निहृवो पण जावग्राम गाशे, माटे यावी ए विपरीत वात कोण कहे ?
टीकाः ननु तथापि मिथ्यादृक् परिगृहीतचैत्याना म. नावग्रामत्वमेवोक्तं नत्वनायतनत्वं ॥ अजावयामाऽनायतन शब्दयोः पर्यायत्वानावा दिति चेन्न || जावग्रामशब्दस्य ज्ञानाद्युत्प तिकारणाद्यर्थत्वे नायतन पर्यायत्व सिद्धौ तद्विपक्षस्यार्थादेवानायतन पर्यायत्वसिद्धेः ॥
अर्थः- लिंगधारी शंका करे बे जे ए प्रकारे शास्त्र वचन ले तो पण मिथ्या दृष्टिए ग्रहण करेला जे चैत्य तेमने श्रावयामपशुंज कयुं पण अनायतपणुं तो नयीज कर्तुं ने अनावग्राम तथा अनायतन शब्द एबेने पर्यायपणानो अभाव बे ए हेतु माटे हवे सुविदित कहे वे जे एम जो तमे कहेता होतो ते न कहेतुं. केमजे जावग्राम शब्दने ज्ञानादिकनी उत्पत्ति थवारूप कारणादिकना अर्थ पणे करोने श्रायतन शब्दना पर्यायपणुं जेम सिद्ध थाय बे तेमज जावप्रामै शब्दथी उलटो जे अजावयाम शब्द तेने पण आयतन शब्दथी नलटो जे अनायतन शब्द तेने पण पर्यायपणुं सिद्ध यशेज.
दीकाः एवंच जगवत्कल्पनायार्थ मीमांसनेन कथं मि.
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(४६६ )
- अथ श्री संघपट्टकः 8-
याष्टिपरिगृहीतार्ह प्रतिमानां नायतनत्वं सिध्यतीति ॥ एतेन " पर तिथि परिग्गहिए मुत्तुं अरहंतचेइए सेसे अवंद माणो पा रंचिया रिहो होइ" त्ति विशेषकल्पचूप सूत्रमिद मधीयत इति यत्केचिडुच्यते ॥ तद्माम्यजन विप्रलंभन मिति मंतव्यं ॥
अर्थ:- ए प्रकारे भगवान् श्री कल्पजाप्य तेनो अर्थ वि. चार करवो तेथे करीने मिथ्या दृष्टिए ग्रहण करेली जे अरिहंतनी प्रतिमा तेनुं नाप केम सिद्ध नथी एतो अनायतनज बे. ए जे सर्व कथं तेथे करीने जे केटलाक जे विशेषकल्पचूर्णने विषे . परतित्थि ए प्रकारनुं सूत्र जणे ते ते प्रणसमजु मूर्ख लोकने बेतरवा सारु नये वे एम जाणवुं एटले लिंगधारीन पोतानां चैत्य वंदाववाने तथा अजाण लोकने ठगवा सारु पोताना कपोल कल्पित एवा जूना पाठ तेमां जेळवीने जणे बे ते पावनो ए अर्थ बे जे परतीर्थ ग्रहण करेला जे चैत्य तेने मूकीने शेष रह्यां जे चैत्य सेने वंदन करतो तो संसारपारने पामे बे ए प्रकारना पोताने गमता बीजा सूत्रयी विरुद्ध पाठ जलीने जोळा लोकने जमावे बे.
टीका:---एवं विध सूत्रस्य तत्र क्वाप्यनुपलंजात्॥ जा सम्मि नाविया इत्यादि कल्पनाप्य विरोधाच्च मिथ्यानिनिवेशेन च स्व. कपोल शिल्पिकल्पितै रेवं विधपावैर्मुग्धजनव्यामोहने महापापप्रसंगात् ॥
अर्थः- प्रकार सूत्र ते मंथमां कोई जगाए दीवामां
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49. अथ श्री संघपट्टका
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(१५७)
मावतुं नथी ए हेतु माटे ने कळी जा सम्मि इत्यादिक जे कल्पना ध्यनुं वचन तेनी साये विरोध श्रावे हे ए हेतु माटे ने वळी मि. भ्यानिनिवेशे करीने पोताना कपोल कल्पित ए प्रकारना जग पाठ कल्पीने अगसमजु जोळा लोकने मोह नपजाववे करीने ते सिंगधारीनने महा पापनो प्रसंग प्राप्त थाय बे.
टीका:- नन्वतावता पिप्रबंधेन तदवस्थमेव पार्श्वस्थादिपरिग्रहीतवैत्यानामायतनत्वं ॥परतोथिकानामेव मिथ्यादृष्टित्वापार्श्वस्थादीनांचस्वयथ्यत्वेनतदतावा दिति चेन्न॥ तेषामपिसि. दांते मिथ्यात्वप्रतिपादनात् ॥
. अर्थ-लिंगधारी बोले डे के तमे आटलो बधो वातनो प्र. बंध रच्यो, तेरो करीने जे अमारो वात हती तेनी तेज सिक रही. केमजे पासत्थादिके ग्रहण करेलां जे चैत्य तेनुं आयतनपर्दा डे ने जे अन्य दर्शनी के तेज मिथ्यादृष्टि डे ए हेतु माटे ते पासत्थादिक तो स्वदर्शनी ले तेणे करीने तेमने मिथ्यादृष्टि न कहेवाय ए हेतु माटे सुविहित बोले जे एम तमे कहेता हो तो ते न कडेवं केम जे सिद्धांतमां तो ते पासस्थाने पण मिथ्यात्व रूपे प्रतिपादन कर्या माटे.
टीका---तथा धुपदेशमालायां॥ सावज्जजोगपरिवज्जणाइसव्वुत्तमोजईधम्मो।बीयोसावग्गधम्मो तो संविग्ग पस्कपहो.
रीज वात उपदेश मालामां कही जे जे सावध
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अय श्री संघपट्टकः
योग्यनो त्याग करवो इत्यादि सर्वोत्तम यति धर्म ले तथा बीजो श्रावक धर्म ने तथा त्रीजो संविग्न पाक्षिक बे.
टीका:-इत्यनेनोत्तममध्यमजघन्यन्नेदेन मुक्तिपथप्रयं प्रदर्य संसारपथत्रयं दिदर्शयिषता ग्रंथकारेण प्रतिपादितं से सामिबदिछीगिहि लिंगकुलिंग दवलिंगेहिं जहतित्रीमुकपहा. संसारपहा तहा तिनि॥
अर्थः--ए वचने करिने नुत्तम मध्यम ने जघन्य एत्रण भेदे करीने त्रण प्रकारनो मोद मार्ग देखामीने संसार मार्च पण त्रण प्रकारनो डे एम देखामवानी बाये ग्रंथकारे या प्रकारे प्रति. पादन कर्यु २ जे बाकी रह्या ते गृहस्थ लिंगे करीने तथा कुलिंगे करीने तथा अव्यलिंगे करीने मिथ्यादृष्टि जाणवा. जेम ऋण प्रकारे मोक्ष मार्ग तेम ए त्रय प्रकारनो संसार मार्ग के.
टीकाः-अत्रसु साध्वादिव्यतिरिक्ता मिथ्यादृष्टयोरहि . विंगिजव्यलिंगिनो दर्शिताः ॥ तत्र गृहिलि गिनां हलधरगोपालादीनां सामाचार उत्तमः संसारपथः॥ तन्मिथ्यात्वस्यानानि ग्रहिकत्वेन संक्लेशानावेनचोत्तमत्वात् ॥ कुतीर्थिनां तनकानांच मध्यमः ॥ तन्मिथ्यात्वस्यानिग्रहिकत्वेन प्रथमापेक्षया निविमत्वात् ॥ अव्यालि गिनां पार्श्वस्थादीनांतु जघन्यस्तन्मिथ्यात्वस्यानिनिवेशिकत्वेन गोष्टामाहिलादिवदितिबकमूल. त्यात ॥ एवंच ग्रंथार्थपूर्वापरपालोचनेन कथं म तेषां महामि
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8. अथ श्री संघपटक
(५९)
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न्यारूपत्वं ॥
. अर्थ-या जगाए सारा साध्वादिकथी रहित गृहस्थ लिंगभारी तथा अव्यलिंगधारी ए बे प्रकारना मिथ्यादृष्टि देखाड्या.
मां गृहस्थ लिंगधारी जे हलधर गोपालादिक तेमनो समाचार जे ते उत्तम संसारनो मार्ग ले केमजे तेमना मिथ्यात्वनुं अनानिहित कपणुंडे ए हेतु माटे तथा संक्वेशनो अनाव जे ए हेतु माटे एमां उत्तमपणुं ले ने कुतीर्थिक एवा जे तेमना जक्त तेमनो मध्यम मिभ्यात्वानिनिवेश केमजे तेमना मिथ्यात्वने श्रनिग्रहिकपणुंडे ए हेतु माटे प्रथमनी अपेक्षाए तेनुं निविमपणुं ने एटले आकरापणुं ने ए हेतु माटे ने अव्य सिंगिजे पासथ्यादिक तेमनुं तो जघन्य डे केमजे तेने विषे मिथ्यात्वनुं श्रानिनिवेशिकपणुं ने ए हेतु माटे गोष्टामाहिलादिकनी पेठे बमूळपणुं माठे ए प्रकारे ग्रंथना अर्थर्नु पूर्वापर विचार कर तेणे करीने ते पासथ्था लिंगधारी। महा मिथ्यादृष्टि केम नथी ए तो महा मिथ्यादृष्टिज डे.
टीकाः--तथा च सिहं तत्परिगृहीताऽईच्छत्याना मनायततनत्वं तत्प्रदर्शितस्य सर्वस्याप्यधुनातनरूढ्या प्रत्यक्षस्य पथः
सारपथस्वेनाऽनायतनत्वात् ॥ तदेवमहामोहध्वांतमहिमायदेव मुदितेपि सकलनावानासनेनगवठचने तमोपहे मूदानां विवेक सोचन गोचरंविधुरयति ॥
अर्थः-माटे ते प्रकारना महा मिभ्यारष्टि एवा लिंगधाशए महण करेलां ने अरिहंतनां चैत्य समतुं अनायतपणुं सिक
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( ४६० )
** अथ श्री संघपट्टकः
युं ने तेम देखायो जे सर्वे या काळनी रुढीए प्रत्यक्ष मार्ग तेने संसार मार्गपणुंबे तेथे करीने अनायतनपणुं थयुं तेज कारण माटे ए प्रकारनो महा मोह अंधकारनो महिमा बे जे कारण माटे सकल नावने प्रगट करी देखानारने अज्ञान अंधकारने नाश करमार एवं जगवद्वचन ए प्रकारे उदय पामे सते पण जे मूढ पुरुषो नां विवेकरुपी लोचन धमतां नथी. अज्ञान अंधारुं जतुं नमी एज महा मोह महिमा देखाय बे.
टीकाः - अथवा तामसाना मियमेवगतिः ॥ किंच पंचक स्पेपि प्रश्न पूर्वमनायतन देशपरिहारेणायतनदेश विहारक्रमं प्रतिपादयताजाष्यकारेण ॥ जहियंतुचणाय यणान हुंति के पुयापायया या ॥ साहम्मिचिन्नचित्ता मूलूत्तरदोसपमिसेवी ॥ एएहिं जो देसो श्राइन्नो तढ्य अन्नतित्थिहिं ॥ मधवाद्गामा पुलिंददेसाणाययणा ॥ इत्यादिना सुविहितानां देशस्यापि पा र्श्वस्थादिकुदेशना निविम निगमितस्याऽनायतनत्वमुपदर्शितं ॥ किंपुनः सतत तन्निवासदूषितस्य जिनजवनस्य वक्तव्यं ॥ डु· रंतत्वात्तत्संसर्गस्येति ॥
अर्थः-- या टीकानो जावार्थ ऊपर श्रावी गयो बे माटे ते जुदो नयी लख्यो.
टीका:- ननु भवत्येवं जिनगृहानायतनत्व सिद्धिर्य दिजत्थसाद मियाइत्यादौयत्रेति जिनगृहादा वित्ययमर्थः स्यान्न चैवं किंतुयत्रे तिमादौ ॥ तथाचतदेवतद्वासां कितत्वादनायतनं
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अब श्री संघपट्टक
न जिननवन मिति चेन ॥ नाणस्सदसणस्सय इत्यादौ यत्रेति जिनगृहादावि त्यायतन इति वृत्तिकृद्व्याख्यानेनैकप्रकमात् ॥ जत्थसाहिम्मिया इत्यत्रापि तदर्थानुवृत्तेर्यत्रे त्यायतन इति व्याख्यानस्य न्याय प्राप्तत्वान्न यत्रेति मगदा वित्यर्थः॥
- अर्थः-लिंगधारी आशंका करे जे जे ए प्रकारे जिन गृ. हनी अनायतनपणानी सिकि थाय डे पण जो 'जत्थ साहिम्मिया' इत्यादिक गाथाने विष यत्र ए शब्दनो जिन गृहादिक ए प्रकारनो ए अर्थ होय. अपितु न होय त्यारे शो अर्थ होय तो यत्र शब्दनो मठादिक ए प्रकारनो अर्थ थशे त्यारे ए जिननवन तेमना निवासे सहित थशे तोपण अनायतन नहि थाय त्यारे सुविहित बोल्या जे एम तमे कहेता होतो ते न कहेवु केम जे 'नाणस्सदंसस्सय' इत्यादि स्थळने विषे यत्र कहेता जे आयतनने विषे एम वृति करनारे यत्र शब्दनी व्याख्या करी तेनी संघाये ए यत्र शब्दनो पण एक प्रक्रम ने ए हेतु माटे 'जत्थसाहम्मिया' ए जगाए पण तेज अर्थनी अनुवृत्ति श्रावशे ए हेतु माटे यत्र कहेता जे आयतनने विषे ए प्रकारनी व्याख्या करवी एज न्याय प्राप्त अर्थ थयो ने माटे यत्र शब्दनो मठादिरुप अर्थ नहि थाय.
... टीकाः-जवतुवायत्रेतिमगदौ तथापि किंमठादावेववसंति
अहोमठादावपीति विकल्पयुगलं जवन्मनोरथपथमयनपटिष्टमु. .. तिष्टते ॥ तत्र यद्यायः पद स्तदानवतोवाङमनस विसंवादेन
चैत्यवासान्युपगमनंगप्रसंगः इतरथा मगदावेवेत्यवधारणा. नुपपत्तेः ॥
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अब श्री संघपट्टक
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अर्थः-अथवा एम करतां यत्र शब्दनो अर्थ मठादि ए प्र. कारनों करो तोपण शें केवल मगदिकने विषेज ए लिंगधारी वसे ने के मगदिकने विषे पण वसे डे ए प्रकारना बे विकल्प तमारा मनोरथ मार्गने नाश करवाने समर्थ एवा नुत्पन्न थाय ने तेमां जो प्रथमनो पद ग्रहण करशो जे केवळ मठादिकने विषेज रहे ए प्रकारनुं बोलशो तो तमारी वाणीने मन ए बेर्नु विसंवादपणुं थशे एटले मननो अनिप्राय चैत्यमां रदेवानो ने मुखथी मगदिका रहेवार्नु कहेवाय. माटे परस्पर विसंवादपणुं थयु. तेणे करीने चैत्यवास जे तमोए अंगिकार को ले तेनो जंग थशे केम जे जो एम न होय तो 'मगदावेव ए जगाए केवळ निर्धारवाचक जे एव शब्द तेनी थसिद्धि थशे एटले एवकार शब्द व्यर्थ पमशे.
टीका:-अद्वितीयः ॥ तदानेनैवामृतंन्नक्षय ॥ मग्देवष्हयोरुनयत्रापितनिवाससिद्धेः सिर्फ नः समीहितं ॥ अथ म. गदावेववसंतिचैत्यवासान्युपगमस्त्वऽज्युपगममात्रमउवासतिध्यर्थ तंविना यतीनां चैत्यवासप्रयोजकत्वतःच्चता विधानाय.. पपत्तेरितिचेन्न॥ विकल्पासहत्वात् ॥
अर्थः बीजो पक्ष तमे कहेशो के अंगिकार करीशुं तो ते पकवमेज श्रमत नक्षण करो एटले बीजो पक्ष जे मगदिकने विषे पण त्यारे तो ते पक्ष अमृत नक्षण जेवो हितकारी ले मग्ने देव गृह ए बे जगाए तेमना निवासनी सिद्धि थइ तेथी श्रमारं वांच्छित सिक थयु हवे मगदिकने विषेज निवास करे ने चैत्यवासनो जे आलंबन तेतो अंगिकार मात्र डे मठमां जे निवास करवो
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40 अथ श्री संघपट्टक 8-
( ४१३ )
तेनी सिद्धिने छायें बे केम जे ते विना यतिने चैत्यवास संबंधी स्वतंत्र कर्तापन थाय तथा ते चैत्यनी जे चिंता पटले साल संजाल सुखवी तेनुं करवापणुं इत्यादिक सिद्धन थइ शके माटे एम जो तमे कहता होतो ते न कहेतुं केम जे विकल्प सहन नहीं थाय एवा ए • प्रकारनं सुविहितनुं वचन बे.
टीका:- तथादितदभ्युपगममात्रंप्रमाणमूल मप्रमाणमूलं वास्यात् ॥ प्रमाणमूलं चेन्मवादावेवेत्यवधारणव्याघातः ॥ तदज्युपगममात्रस्य प्रमाणमूलत्वे चैत्यवासस्यापितन्मूलत्वेन प्रमाण सिद्धेः ॥
छार्थः- तेज कही देखाने बे जे ते मठवासनुं जे श्रावन ते प्रमाण मूल बे के श्रप्रमाण मूल बे ने जो प्रमाण मूल बे तो 'मादौ एव' ए जगाए एवकार शब्दनो निरधारणवाचक जे कार्थ बे तेनो व्यामात बसे एटले नहि घटे ने ते मव्वासना अंगिकार करवानुं प्र मालपणुं जो होय तो चैत्यवासनुं पण तेना मूलपणे करोने प्रमा सिद्ध थाय पण तेतो नथी.
टीकाः - श्रप्रमाणमूलं चेत्यज्यतां तर्हि चैत्यवासानिनिवेशः ॥ समूलमुन्मूल्यतां तत्समर्थनाय विरचितानि वादस्थलानि ॥ समुत्सृज्यतामप्रमाणिक चैत्यवासाच्युपगममूलत्वेना प्रामायान्महासावद्यशय्यारूपमठवासाच्युपगमः ॥ अच्युपेयतां चाकर्मादिसकल दोषरहितपरगृवासेन सौविदित्यमिति ॥
अर्थः- ने जो चैत्यवास श्रममागमूस डे तो चैत्यवासनो
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अथ श्री संघपट्टकः
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आग्रह त्याग करो, ने ते चैत्यवासने सिद्ध करवाने रच्यां एवां विवादना जे स्थल तेने मूळमांथी उखेमी नाखो ने अप्रमाणिक एवं जे चैत्यवासनुं अंगिकार करवापणुं ते रुप जे मूल तेणे करीने अप्रमाणिकपणुंडे ए हेतु माटे महासावय निवासरुप जे मम्वास तेनो अंगिकार त्याग करो ने श्राधाकर्मादिक जे सकल दोष तेणे रहित एवो जे परग्रहवास तेणे करीने सुविहितपणुं अंगिकार करो.
टीकाः-तस्मामुक्तनीत्यायोति मगदावित्यर्थानुपपनेयथावृत्तिकृघ्याख्यान मेवसाधीय इति ॥ एवंचव मशविशितोपमानेन जिनबिंब स्यानायतनत्वसियुक्तमुदितं बमिश पिशितवादबमादर्य जैन मिति ॥ सांप्रतंप्रकृतमुपक्रम्यते॥
अर्थः ते कारण माटे कही एवी जे नीति तेणे करीने यत्र ए शब्दनो जे अर्थ ते मगदिरुप नहि थाय माटे जेम वृनिकारे एर्नु पूर्वे व्याख्यान कर्यु ले तेमज अतिशय श्रेष्ठ ले माटे बभीश मांसनी जे जिनबिंबने उपमा दीधी तेणे करीने जिनबिनुं अनायतनपणुं जे सिद्ध कयु ते युक्त कडं. हवे बनिश मांसनी पेठे जिननुं बिंब देखामीने लोकने लिंगधारी उगे ए प्रकारनुं चालतुं प्रकरण कहीए बीए.
टीकाः-तथा तन्नाम्नाजिननामधेयेन नगवनांमागारादि निमित्तमेत निर्माप्यते नास्मात्र मिसमिति व्यपदेशेन रम्यरूपान् रुचिररचनयादृढबंधतयाच मनोहराकारान् अपवरकाअंतर्यहाः मानलयविशेषास्ततो उंछस्तान् ॥
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4 अथ श्री संघपट्टक -
( ४६५ )
अर्थ:-वळी जिनना नामवमे एटले या तो जगवत संबंधी जंगार घर बे इत्यादि निमित्ते या निपजावीए बीए पण अमारा निमित्ते नथी निपजावता. ए प्रकारना मिषवमे सुंदर रुपवा - छाने सुंदर रचनाएं सहितं ने दृढ बंधपणे मनोहर एवा जरमा एटले अंतर मठ स्थानविशेष त्यार पछी ए पदोनो द्वंद्व समास करवो.
टीकाः - स्वेष्ट सिद्ध्यै वयमेष्वाजन्म सुखेन वत्स्याम इत्यामाभिमतनिष्पत्तये विधाप्य कारयित्वा तेहि शठाः स्वनिमित्तमपवरकादीन्निष्पादयं || मुग्धाश्च जानते जिननिमित्तमित्यहो ए तेषां जिनन क्तिरिति तेषु रज्यंते तैश्चोपजीव्यंत इतिवंचनप्रकारः ।
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अर्थः- तेश्रोरमाने पोतानी इष्ट सिद्धिने अर्थे एटले वांच्छित साधवाने एटले या स्थानने विषे आपणे जन्मारा सुधी सुखे निवास करीभुं ए प्रकारे पोताना मतनी सिद्धिने वीने ते पुरुष एटले लिंगधारी पोताना निमित्ते ए प्रकारना सुदर रहेवाना ओरमा निपजावे बे ने जोळा लोको एम जाऐ बे जे जिन निमित्त या निपजावे वे माटे अहो तो मोडं आश्चर्य जे श्रा मुनिओने या प्रकारनी परमात्मानी नक्ति ने एम धारीने तेमने विषे रीऊ पामे बे ने तेवा जोळा लोकोवमे ते लिंगधारीननी आजीविका चाले बे ए प्रकारे तेमने ठगवानो प्रकार बे.
टीकाः - तथा यात्राः पित्राद्युद्देशेन नवद्भिरत्राष्टा ह्निकाः कर्त्तव्याः ॥ श्रमुष्मिन्वा मासादावमुनाश्राद्धेन श्रीमतात्र देवआहे यात्राः कृतास्तस्माद्भवद्भिरपि तथैव विधेयाः ॥ तथा स्नानं
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( ४६६ )
- अथ श्री संघपट्टकः
श्रापादिषु पित्रा (दश्रेयसेयुष्माभिरत्रस्नानं कर्त्तव्यमित्युप देशव्याजेन यात्रास्नात्र विधापनं ततो द्वंद्वः ॥
अर्थ - वळी यात्राः कहेतां पित्रादिकनो उद्देश करीने श्रा जगाए तमारे हा महोत्सव करवो घटे वे अथवा या मासने विषे य श्रावके तथा श्रीमंत लोके या देवघरने विषे यात्रा करी
ते माटे तमारे पण तेज प्रकारे यात्रा करवी. इत्यादि यात्रानो उपदेश करवो. वळी स्नात्रं एटले श्रोद्धपादिकने विषे पित्रादिकना ने तमारे या जगाए स्नात्र उत्सव करवो घटे बे एवा मिषयकी जे स्नात्रनुं करावनुं ते ए सर्वे पदनो द्वंद्व समास करवो.
टीकाः - आदिशब्दाच्छ्रुतानुक्ताधुनाप्रवर्त्तित माणिक्यप्र स्तारिकादिपर्वग्रहः ॥ तदादय उपायामुग्ध विप्रलंजनप्रका रास्तैः ॥ ननु कथमेवं विधयात्रादीनां मुग्धजनप्रतारकत्वं यांवता यथातथा भगवत्पूजायाः कुशलानुबंधहेतुत्वादितिचेन ॥ एवं हिलोकोदाहरण मान जगवत्पूजाविधाने जगवहिलोकोदाहरणप्रामाएयेन तोऽप्रमाएयापादनेन मिथ्यात्वादिप्रसंगात् ॥
अर्थ :- आदि शब्दवमे सिद्धांतमांन कहेतुं ने दालमा ए लोको प्रवर्त्तीवेतुं जे 'माणिक्य प्रस्तारिकादिक पर्व' तेनुं पण प्र हा कर इत्यादिक जोळा लोकोने बेतरवाने जे उपाय तेथे करीने ए लोक ठगे बे ते वातमां लिंगधारी शंका करे बे जे ए प्रकारनी यात्रादिक वस्तुने मुग्धजननुं एटले जोळा लोकनुं बेतरवाप केम
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अथ श्री संघपट्टका
(१६७)
कहेवाय ? जे ते प्रकारे करी एवी पण जगवत्नी पूजाने कुशळ बांधवापणुं ने ए हेतु माटे हवे सुविहित बोल्या जे जो तमे एम कहेता होतो ते न कहेवू. केम जे ए प्रकारे लोकना उदाहरणना प्रमाणपणे करीने जगवत् पूजा करेसते जगवंतना अप्रमाणपणानुं प्रतिपादन थयुं तेणे करीने मिथ्यात्व आदिकनो प्रसंग प्राप्त थाय ए हेतु माटे. ... टीका-जिलुमि विजमाणे उचिए अणुजिघ्पूयणमजुत्त लोगाहरणं च तहा पयमे नगवंतवयणं मि॥ लोगो गुरुतरगो खलु एवं सजगवनवि इठोत्ति ॥ मिच्उत्तमोय एवं एसा श्रासायया परमा ॥
टीकाः--तथा नमसितकमुपयाचितकंनवतामिदानीमीह. गुपश्व समुपस्थितःसमुपस्थास्य मानवावर्तते तस्मानवनिस्तन्निवृत्तयेजिनगोत्रदेवताऽम्बिका दिशासनसुराणामियऽव्य मेषणीय मितिगृहिणः प्रति जिनााद्देशेन वित्तव्ययविधापन मितियावत्॥
अर्थः-वळी नमसितक एटले बळीदानादि निमित्त मागी लीधेनुं अव्यादि एटले तमारे आ कालमां आ प्रकारनो सपनव प्राप्त थयो ने अथवा उपभव प्राप्त थशे अथवा उपजव वर्ते ने ते हेतु माटे तमारे तेनी निवृत्तिने अर्थे जिन गोत्रनी देवता जे अंबिका ते आदिक शासन देवताने श्राटj अन्य एषणीय डे एटले श्रापवा योग्य जोश्शे. इत्यादिक गृहस्थो प्रत्ये जिनादिकना उद्देशे करीने अन्यनो खर्च कराववो एटलो अर्थ बे.
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(४६८)
- अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- निशाजागर उपसर्ग वर्गोपशमनाय प्रवचनघतादीनां पुरतोषल्या दिस्थापनगीतवाद्यला स्यपुरस्सरं सकल रात्रिजागरणं ततोद्वंद्वः ॥ श्रादिग्रहणादन्येषामपिशां तिकपौंष्टकानां संग्रहः ॥ तदादीनि बलानि बद्मानि लोकोपजीवनार्थ मागमान निहितत्वेन विलोजन निमित्तानीति यावत् ॥
अर्थः-- रात्रि जागरण एटले नृपसर्गना समूहने समाववाने कार्थे प्रवचन देवतादिकनी यागल बलीदान यादिकनुं स्थापन कर तथा गीत वाद्य नृत्यपूर्वक सकल रात्रिनुं जागरण करवुं. त्यापटी ए पदोनो द्वंद्व समास करवो. आदि शब्दना ग्रहण करवा बीजा पण शांतिक पौष्टिक स्तोत्र पाठमंत्र ते पण ग्रहण क रवा इत्यादिक बल लोक थकी पोतानी आजीविका करवाने करे बे एटले ए सर्व उपाय शास्त्रमां नथी कला ते करे ने माटे लोकने लोaraवानां निमित्त कारण बे एटलो अर्थ.
टीकाः तैः करणभूतै श्वशब्दउक्तंवचनप्रकारसमुच्चये भालुर्विवेक विकलधर्मेावान् ॥ विवेकिनोदि प्रायेण नैवं विधैः प्रतारयितुं पार्यते नामतः संज्ञामात्रेण जैनैर्जिन देवतै र्नतु क्रियया चष्टाचारत्वात्तेषां तेन लिंगिनिरित्यर्थः ॥
अर्थः- च शब्दनुं ग्रहण कर्यु बे माटे पूर्वे कथा एवा सर्व सगवाना प्रकारे करीने केवळ नाम मात्रवमे जैनी कहेवाता पथ क्रियावमे नहि. केम जे ते ब्रष्टाचारी बे माटे एवा जे ए लिंगधारी पुरुषो ते विवेक रहित ने धर्मनी इडावाळा ने श्रद्धालु एका लोकोने
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अथ श्री संघपट्टक
( ४६९ )
उगे बे ने जें विवेकी लोकों बे ते तो बहुधा ए प्रकारना उपायय उगाता नथी एटलो अर्थ बे.
टीकाः — शठैः प्रपंच प्रपंचनचतुरैः बलितइवेत्युपमानं ॥ यथा बलितः शाकिन्यादिनिर्वशीकृतस्तथाविधचैतन्यराहित्यात् सुखेन वंचयितुं शक्यते तथायमेष जनः श्राद्धलोको हाइति वि. षादे वच्यते विप्रलभ्यते ॥ महानयमस्मच्चेतसि विषादोयद्धर्माथिलो को धूर्तेः स्वार्थं वंचयित्वा दुर्गतौ पात्यत इति वृत्तार्थः॥ २१ ॥
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अर्थ :- प्रपंचनो विस्तार करवा चतुर एवा लिंगधारी शठ पुरुषो तेमणे ए लोक बदया होय ने शुं एम उपमान कर्यु एटले जेम बलेलो एटले जेम शाकली आदिके वश करेलो दोय ते पोतानुं जेतुं चेतनपएं हतुं तेणे रहित थयो तेथी ते सुखे बेतरवा योग्य थाय. तेम या श्रावक लोकने पण बेतरे बे. हा था तो महा खेद नरेली वात बे या तो अमारा चित्तमां मोटो विषाद श्रावे बे जे धर्मना अर्थी प्राणीउने धूर्त लोको पोताना स्वार्थने अर्थे बेतरी ने दुर्गतिमां नाखे: बे एटले बेतरीने नरकमां ढोळी पाने बे ए प्रकारे आ एकवीसमा काव्यनो अर्थ थयो.
टीकाः - इदानीमत्युच्छृंखलानांनामजैनानां दशमाश्चर्यानुभावादज्युदयं स्वविषादपुरस्सरं दर्शयन्नाह ॥
अर्थः- दवे अतिशे उच्छृंखल थयेला एवा पण केवळ नाम मात्र जैनी कहेवाता जे पुरुष तेमनो वशमाश्चर्षना महिमानी
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( ४७० )
- अथ श्री संघपट्टक
थयेलो जे उदय तेने पोताना विषाद सहित एटले खेद पूर्वक दे खाता सता कहे .
॥ मूल काव्यम् ॥
सर्वत्र स्थगिताश्रवाः स्वविषयव्यासक्तसर्वेप्रिया । वल्गौरव चंमदं तुरगाः पुष्यत्कषायोरगाः ॥ सर्वाकृत्यकृतोपि कष्टमधुनांत्याश्चर्यराजाश्रिताः । स्थित्वा सन्मुनिमूईसुद्धत धियस्तुष्यंति पुष्यंति च ॥१॥
टीका :- सर्वत्रलोक समक्ष समक्षं च श्राश्रवति संचिनो ति जीवः कर्म निरित्याश्रवाः पंचप्राणातिपातादयस्ततश्चास्थ गि
निरुद्धायाश्रवायैस्ते तथा ॥ किल यतीनां सप्तदशविधसंयममध्यात्पंचाश्रवद्वार निरोधः परमसंयमस्तेनैव तेषां पंचमहा व्रतधारित्व सिद्धेस्तत्व तिनिरंकुशत्वान्न तानि निरुषंति ॥
अर्थः- सर्व जगाए एटले लोकना देखतां प्राणातिपात श्रादिक पांच श्रव ते जेमले रोक्या नथी एटले पांच प्रकारना आश्रवने बाना तथा उघामा सेवन करनार जीव जे ते जेणे करीने कर्मनो संचय करे बे तेने याश्रव कहीए. ए प्रकारे श्राश्रव शब्दनी व्युत्पत्ति बे. वळी यतिने सत्तर प्रकारना संयममांथी पांच प्रकारना - यवनो निरोध करतो ते परम संयम कहीए तेसे करीनेज तेमने पांच महाव्रतनुं धारवाएं सिद्ध थाय ने पण ते लिंगधारी तो
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अथ श्री संघपट्टका
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(४७१)
inanananananananana.
तिशेज निरंकुश थया ने ए हेतु माटे ते महाव्रतने पण राखी शकता नथो.
टीका:-अनिरुधाना अपिकेचन लोकापवादजिया न प्रा. कटयेन तत्प्रतिसे विनो नवंति ॥ श्मेतुनित्रपतया सर्वत्र तान्य प्रतिहतप्रसरत्वेन सेवंत इति ॥ तथास्वविषयेष्वात्मग्राह्येषुरूपरसगंधस्पर्शशब्देषु व्यासक्तान्युपत्नोगप्रवणानि सर्वे पियाणि सकलकरणानि चर्रसनघ्राणत्वगश्रोत्राणि येषां ते तथा ॥ यतिना हि निगृहीतेंजियेण नवितव्यं ॥
..
.
" अर्थः-महाव्रतने न पाळनार एवा पण केटलाक लिंगधासे पुरुषो लोकापवादना जय थकी प्रगटपणे ते पांच महाव्रतने नाश करता नथी पण निर्दयपणुं सर्व जगाए ए हेतु माटे निरंतर महाव्रतने नथी सेवता ॥ एटले बाना निरंतर पंच महाब तना घातक कपटीए लिंगधारी पुरुषो . वली सर्व इंजिन एटले नेत्र, जिव्हा, नासिका, त्वचा, कान ए पांच इंजियो तेमना जे पोतपोताना विषय एटले ते इंजियोवमे अनुक्रमे ग्रहण करवा योग्य एवा जे रूप, रस, गंध, स्पर्श ने शब्द ए जे पंच विषय तेने विषे अतिशय आसक्त ए. टेले ते विषय नोगववामां प्रवीण एवी डे सर्व इंजिन ते जेम. नी, एवा लिंगधारी ने निश्चे साधुने तो सर्व इंजिन वश करवी घटे .
टीका:-अन्यथा प्रव्रज्याया जीवनमात्रतापत्तेः ॥यदाह ॥ प्रसंजितानिदोक्षित्वा,स्वानि येन सुखाशया॥विषयेषु हृषीकाणि,
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(४७२.)
1 अथ श्री संघपट्टकः
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प्रवज्या तस्य जीवन। लिंगिनस्त्वैहिकमेव,सुखं पुरस्कृत्य विषय विजियाणि व्यासंजंतो, यथेच्छं विचरंति ॥ तथा गौरवाएयात्म न्युत्कर्षप्रत्ययहेतवोऽध्यवसाय विशेषास्तानिच ऋजिरससातातिरेकहेतुत्वेन कारणेकार्योपचाराकिरससातसंझान्येव त्रीणि तैश्चमास्तत्साहाय्येनोध्धुराः॥
अर्थः - ने जो इंजियो वश न करे तो दीक्षा जे ते केवळ श्रांजीविकारुपपणाने पामे. जे हेतु माटे कडं जे जे जे पुरुष दीक्षा लश्न सुखनी आशाए विषयने विषे पोतानी इंजियो प्रवत्तीवे ने तेने दीक्षा जे ते आजीविकारुप थाय डे ने लिंगधारी तो आलोकज संख आंगळ करी एटले मुख्य करीने इंजियोने विषयमा अतिशय श्रासक्त करीने पोतानी श्यामां आवे तेम यथेष्ट एटले मनमा आवे तेम विचरे डे वळी गौरव एटले पोताने विषे उत्कर्ष जणाववानुं कारण एवा जे आत्माना अध्यवसाय विशेष ते गौरव कहीए ते ऋद्धि तथा रस तथा शाता तेनुं जे अतिशयपणुं तैना कारणजुत के ए हेतु माटे कारणने विषे कार्यनो नपचार करवाथ। रूकि गौरव तथा रस गौरव तथा शाता गौरव तेमणे करीने आकरा एवा जे दम एटले ते गौरवनी साहाय्ये करीने आकरा दम थाय ने.
टीका:-दमा दंग्यतेपुर्तिपातेन फुःखसंस्थाप्यते आत्माऽमीनिरितिदंमा अकुशलमनोवाकायास्तएव देहिनामुत्यथप्रवकत्याचपलत्वाच तुरंगाश्रश्वास्ततश्च वक्ष्गतोऽनियमिततया यसवाप्रसरतोगौरवचंकादंमतुरगायेषां ते तथा ॥
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अथ श्री संघपट्टक
( ४७३ )
अर्थः- केम जे दंग शब्दनो एम अर्थ थाय बे जे श्रात्माने दुर्गतिमां नाखवावमे दुःखित करे बे तेने दंग कही ए ते अकुशल एटले सारां नहि एवां जे मन वाणी ने शरीर तेज देहधार ने उन्मार्गमां प्रवर्त्तववाथी ने चपळपणाथी घोमा समान कह्या बे ते देतु माटे उबळता एटले नियम रहित मनमां आवे तेम गमन करता माटे गौरवव करा एवा वे मन वचन ने कायारूपी घोमा ते जेमना एवा एटले जेमनां मन वचन ने काया ते सर्वे नरूत बे एवा लिंगधारीन बे
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टीका: - यथा हि तुरगा निर्बलाश्रपि जातिस्वानाव्याद् वस्यंति यदातु गौरवेण बलोपचयेन दर्पिष्टास्तदा किं वक्तव्यं ॥ एवं मापि स्वरुपेणैव तावडुद्धुरा रुध्या दिगौरवत्रयसंकलितानां तेषां का कथा ॥
अर्थ:-जेम घोमा निर्बळ होय तो पण एनी जाति स्वनाबीज चंचळ होय तो ज्यारे गौरव बळवमे मदोन्मत थाय त्यारे तो शुं कहे. एम मन वचन ने काया ते रूप जे दंग ते पण स्व. रुपवने एटले पोतानी मेळेज उद्धत बे ते ज्यारे शद्धि गौरव रस गौरव ने साता गौरव ए त्रणवमे सहित थयां त्यारे तेना उद्धतपपानी शी वात कवी.
टीकाः न च यतीनां त्रयोल्लासनमुपपन्नं ॥ दुर्गतिदेतुत्वेन तस्यानुचितत्वात् ॥
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( ४७४ )
-4 अथ श्री संघपट्टकः 8
॥ यक्तं ॥
त्रयोमनोजा पितकायमा विनिर्मितासमतिपातदंगाः ॥ न जातु कार्या यतिना प्रचंकाः समीकृताकांरुकृतांतदंगाः॥ लिंगिनस्तु गौरवोद्धुरकंध रतया सततं तान्वगयंति ॥
अर्थ:-यतिने मन वचन ने काया तेमनुं जे उल्लास कर एटले गमे तेम छूटां मूकवां ते घटतुं नथी केम जे ए दुर्गतिमां वानां कारण बे हेतु माटे साधुने इंद्रियो ने अंतःकरणने मनमां श्रावे ते, जे चलाव ते पण घटित बे. जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे मन वचन तथा काया तेमनुं जे दमन कर ते सदूगतिमां जवानुं श्रालंबनरुप थाय बे ने यति पुरुषे ते मन वचन का याने प्रचंम न करवां एटले उन्मत्त गमे तेम चालनार न करवां केम जे जो एम करे तो तेज यमराजाना दंग जाणवा. एटले तेज मन वचन काया नाश करनार दुर्गति पमामनार दुःख देनार जावां ने ए लिंगधारी तो पोताने विषे गुरुपएं मानीने उंच खांध राखीने निरंतर ते त्रण प्रकारना गौरवने वळगी रह्या बे एटले ते गौरवनुं घं सेवन करवाथीज पोताने विषे मोठ्या माने बे ए जावडे.
टीकाः - तथा कषायाएव देयोपादेय वस्तुतत्व चैतन्यदा रित्वाडुरगानुजंगास्ततश्चधार्मिकजनसत्क्रियादर्शनास दनेन पुष्यंतः प्रबलीजवंतः कषायोरागायेषां ते तथा, यतीनां हि सौश्रामण्यवैफल्योत्पादनात्कषायाः कर्तुं न युज्यंते ॥ यदाहुः॥ मुक्त्यं गनायाः क्रयणेजरण्यं श्रामण्य मुच्चैर्गुणिनां शरण्यं ॥ कृतव्यपाया यतिनाकषायाः सस्यं । नरस्यंति यथा कुवाताः ॥
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अथ श्री संघपट्टक
( ४७५)
अर्थः- वळी कषाय जे ते त्याग तथा ग्रहण करवा योग्य एवीजे वस्तु तेनुं यथार्थ ज्ञानरुपी जे चैतन्य तेना नाश करनार बे ए हेतु सर्प माटे समान बे ने धर्मिष्ट लोकनी सारी क्रिया देखी न खमाय तेथे क प्रबळ थता बे कषायरुपी सर्प ते जेमना एवा ए लिंगधारी बे वळी निश्चे पोतानुं जे सारं साधुपएं तेने निष्फळ करे एवा कषाय
माटे करवा घटता नथी. जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे मुक्तिरूपी स्त्रीने वेचाथी लीधामां साधुपणुं राखतुं ते मूल्य ने एटले जेनी पासे साधुपणारुपी मूख्य बे तेने मुक्तिरुपी स्त्री मळे बे नेवळी साधुएं से ले गुण पुरुषोने शरण करवा योग्य बे ने जे कषाय बे ते यतिपणाने नाश करनार बे जेम विपरीत वायु बे ते धान्यने बगाने नाश करे a तेम ॥
ब्रे
टीकाः — यत्यान्नासास्तुगुणिषु निर्निमित्तकषायकलुषितांतः करणा एवोपलभ्यत इति ॥ एवंतावत् पंचाश्रव विरमणपंचें· प्रियनिग्रहमंत्रय विरतिकषाय चतुष्टयजयलक्षण सप्तदश विव संयमानावेन तेषां लोकोत्तरबाह्यत्वं प्रददानीं लोकलोकोतरबाह्यत्वमपिदर्शयतीत्याह ॥
अर्थः-- लिंगधारी तो गुणवाळा पुरुषोने विषे कारण विनाजं कषायवमे मलिन थयां बे अंतर ते जेमनां एवाज देखाय बे ए रीते पांच श्राश्रवथी विराम पामवुं तथा पांच इंडियोनो निग्रह करवो तथा ऋण दंथी विरति करवी तथा चार कषाय जीतवा ए बे लक्षण जेनुं एवो जे सत्तर प्रकारनो संयम ते ए लिंगधारी जने
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(४७६)
+ अथ श्री संघपट्टकः
विषे नथी माटे तेमने लोकोत्तर क्रिया थकी रहितपएं बे ते देखामयुं ने हवे लौकिक लोकोत्तर एबे थकी रहितपणुं लिंगधारी उनुं देखाने के.
टीकाः - सर्वाकृत्यकृतो पि लोकलोकोत्तर विरुद्धा ब्रह्म सेवनपुष्पफलाप जो गायसदाचार का रिणोपि ॥ यदा ॥ दगपाणं पुप्फफलं श्रणेस णिज्जं हित्य किच्चाई ॥ श्रजयापकी सेवंती जइवेसविरुंवगानवरं ॥
अर्थः- जे ए लिंगधारीन सेवन करवानुं काम करे वे तो पण एटले लोकने लोकोत्तरमां विरुद्ध एवां जे मैथुन सेववां तथा पुष्पफळ या दिकनो नपनोग करवो इत्यादि असत् प्राचरण करता एवा बे तोपण जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे.
टीका:- नाम जैना इति प्रकृतं ॥ कष्टं महदुःखमेतत् ॥ अधुना संप्रति स्थित्वा श्ररुह्य सन्सु निमूर्द्धसु सुविहितसाधुमस्तकेषु प्रतिपदमसूयया सुविहितानामसदोषारोपणेन लाघवो त्पादनमेव हितेषां तन्मूर्द्धस्ववस्थानं ॥ नुद्धत धियोनास्त्यस्मत्समो जगति संप्रति कश्चिदिति दप्पध्मातबुद्धयः तुष्यंति सुविहितं मन्या अप्येतेऽस्मा जिर्लघूकृता इत्याशयेन मोदते ॥ तुष्यंति च साध्वादिपरिखारेण श्राद्धादि पूजयाच वर्द्धते चः समुच्चये ॥
अर्थः-- ए लिंगधारी नाम जैनी कहेवाय वे एटले नाम मात्रव जैनी ने एम प्रसंगथी प्राप्त थयुं माटे अहो धातो मोटुं
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* अथ श्री संघपट्टकः
( ४७७ )
कष्ट, मोटुं दुःख बे जे हवे सुविहित साधुना मस्तक उपरथी आरोहल करीने पटले माथा उपर चमीने राजी थाय बे एटले पद पद प्रये इर्ष्याव असत् दोषनुं जे आरोपण करवुं तेथे करीने लघुपखार्नु जे उत्पादन करवुं तेज तेमना माथा उपर पग मुक्यो जाणवो ते नतबुद्धिवाला एम जाणे बे जे या काळमां जगतने विषे मारा जेवो कोइ नथी ए प्रकारे अहंकारवमे धमधमती बे बुद्धि ते जेमनी एवा ए लिंगधारी हर्ष पामे वे एटले सुविहितपणाने मानता एवा ए सुविहित साधु जे ते मोए लघु कर्या बे एटले एमनी हलकाश करी अर्थात् एमने मोए जीत्या बे एम मानीने राजी थाय बे ने पोतानी पासे पोताना जेवा जे लिंगधारी पुरुषो तेना परिवारवने पोतानी मोटप मानी राजी थाय बे ने श्रावकादिकनी पूजावसे अइंकारप धारण करे बे चकारनो ससुच्चय अर्थ बे एटले ए सर्व दोष एक एक लिंगधारी मां रह्या बे.
टीका:
कथमेवं विधा श्रपि सन्मुनिमुर्द्धावस्थानेन ते तुष्यंति पुष्यंति चेत्यत आह || अंत्याश्चर्यराजाश्रिताः पाश्चात्याश्चर्यपार्थिवानुगताय तइति हेतुगर्भविशेषणं ॥ एतदुक्तं जवति ॥ नह्येवंविधाकृत्य विधायिनो महामुनीनां मस्तकेष्ववस्थानं कर्तुं पारयति ॥
अर्थः- दवे ए प्रकारना लिंगधारीन डे तोपण सारा मुनिan Heart विषे निवास करवो तेणे करीने केम प्रसन्न थाय बे पुष्ट माये एटले राजी रहे बे एम जो कहेता होय तो तेनो उत्तर कहे बे जे वशमा आश्चर्य रूपी राजानो ध्याय करीने ए लिंगधारीच
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(७८)
49. अब श्री संघपट्टक
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पूजाय ले हरखाय ले. जे हेतु माटे दशमा श्राश्चर्य रुपी राजाने अनुसरता ए जे विशेषण ले ते हेतु गर्जित ३ एटले ए विशेषण कयु तेमां हेतु रह्यो डे ए वात शास्त्रमा कही जे ए प्रकारे अकार्यना करनारा लिंगधारी ते महामुनिना मस्तक उपर निवास करवा क्यारे पण पार पामेज नहि एटले समर्थ थायज नहि.
टीकाः-कथंचित्कुर्वाणाअपिवा न तोषं पोषंच ते प्राप्नुवं ति ॥ महामुनितिरस्कारमात्रेणापि तत्कारिणा मिदैव हा. निश्रवणात् ॥ यदाद ॥ इहेवहीलिया हाणि हसियारोवियवए. श्रकोसिया वहदितिमरणं दिति तामिया ॥परंचैवमनर्थकारिणो पिलिंगिनः सुविहितां स्तिरस्कृत्यापिनंदंति तन्नूनं दशमाश्चर्य महिमायं ॥
अर्थः-कोर प्रकारे पण महामुनिना मस्तक उपर पग स्थापनारा पुरुषो जे संतोष प्रत्ये तथा पुष्टि प्रत्ये न पामेकेमजे महामुनिना तिरस्कार मात्रवमे पण ते तिरस्कारने करनार पुरुषनी ए जगोएज हानि थाय डे एम संनळाय डे ए हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही डे परंतु ए प्रकारे अनर्थना करनार एवा पण सिंगधारी जे ते सुविहितनो तिरस्कार करीने पण आनंद पामे ने ते निश्चे दशमाश्चर्यनो महिमा डे.
टीका:-यमुच्यते ॥ नेकेन क्वणता सरोषपरुषंयत् कृष्ण : सनिने,दातुंतेन चंपेटमुखतधिया हस्तः समुत्सासितः॥ य
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- अथ श्री संघपट्टकः --
( ४७९ )
चाधोमुखमणि विदधता तेनापि तन्मर्षितं ॥ तन्मन्ये विषमं त्रियो बलवतः कस्यापि लीलायितं ॥ '
अर्थः- ते उपर दृष्टांत कयुं वे जे मदोन्मत्त घयेलों ने शब्द करतो एवो देको काळा सर्पना मुखने विषे लापट मारवाने ज़े रोष रहित कठोरपणे हाथ नगामे बे ने ते सर्प आंखो मीची नीचं मुख कर ते मकानो अपराध सहन करे बे ते बळवान एवो harse पण विष मंत्रवाळो पुरुष तेनुं लीलाचेष्टित डे एम हुं मानुं एटले कालो सर्प कानो मार खाय ते ते विषमंत्रवाळा पुरुषनो प्रभाव बे तेम सुविदित साधु जे ते लिंगधारी धोनुं अपमान सहन करे बे ते दशमाश्चर्यनो महिमा बे पण ए लिंगधारी श्रोनो महिमा नथी.
'टीका:- ततश्च यथानी चाय पिकेचन किंराजादेः स्वामिनोऽवष्टंनेन महतामपिमूर्द्धस्वारुह्यपुष्पंति ॥ एवमेतेपि दशमाश्चर्यमहिम्ना महामुनीन् परिभूयापि पुष्यंतीत्यपि शब्दार्थः ॥
अर्थः-वळी जेम केटलाक नीच नगरा पुरुषो ते राजादिक लोकमां मोटा कदेवाता होय तेनुं आलंबन करीने मोटा पुरुपना माथा उपर पण श्रारोहण करीने खुशी थाय एम श्रा लिंगधारी पण दशमा आश्चर्यना महिमावके ते मोटा मुनिने पण पराभव करीने हर्ष पामे वे एम श्रपिशब्दनो अर्थ बे.
टीका:- तथाच प्रकरणकारै रेवाऽन्यत्रा निहितं ॥ इद
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1४८०)
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अय श्री संघपट्टक:
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समपुरंत रयमासरासी, उसमसमयहं जोतुमसप्पलावे ॥ जमिहकवमकूमासाहुलिंगीगुणटेपरिनविय पहुत्तं जतिनंदंतिदूर एतच्च महत्कष्टं, नहिमहामुनीनामेवं परानवः कर्तुमुचित इति वृत्तार्थः ॥२॥
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अर्थः-वळी प्रकरणना करनार पुरुषेज बीजी जगाए कर्यु जे मोटा मुनिनो ए प्रकारे परानव करवो घटतो नथी ने ते करे ते मोटुं कष्ट . ए प्रकारे या बावीसमा काव्यनो अर्थ थयो
टीकाः-सांप्रतं तेषां प्रत्यहं सर्व विरतिरूपप्रत्याख्यान जंगकरणेन तपश्चरणाद्यन्नावं प्रतिपादयन्नाह ॥
अर्थः-हवे ते लिंगधारीउनुं निरंतर सर्व विरतीरुप पचखापर्नु जे नागवं तेणे करीने तप तथा चारित्र तेनो अनाव एटले नाश तेने प्रतिपादन करता सता कहे .
. ॥ मूल काव्यम् ॥
सरिंजपरिग्रहस्य गृहिणोप्येकाशनाद्येकदा। • प्रत्याख्यायनरक्षतो हदिनवेत्तीवानुतापस्सदा॥ षट्कृत्वस्त्रिविधंत्रिधेत्यनुदिनं प्रोच्यापिनंजति ये। तेषां तु कतपः क्वसत्यवचनं क्वझानिता व व्रत॥३॥
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- अथ श्री संघपट्टक - (५४१) टीका-सरिंजपरिग्रहस्य सकलसावधव्यापारधनधान्यादिसंग्रहतत्परस्य गृहिणोपिश्रामस्याप्यास्तां महामुनेरित्यपिशब्दार्थः ॥ एकाशनं अंतर्दिवसमेकवारनियमितजोजनः प्रत्याख्यानजेदस्तदादिर्यस्य निर्विकृतिकादेस्तदादिप्रत्याख्यान।।
अर्थ:-समस्त जे सावध वेपार धन्य धान्य श्रादिक तेनो जे संग्रह तेने विषे तत्पर एवो जेगृहस्थ श्रावक तेना पण अंतरमा एकासणुं प्रमुख पञ्चरकाण नागीने पश्चाताप थाय तो मोटा मुनिना अंतरमा पश्चात्ताप थाय तेमां शुं कहे, एम अपि शब्दनो अर्थ ने एकास' ते शुं तो दिवसमा एकवार नियम प्रमाणे जोजन कर एवो जे पञ्चरकानो नेद ते जे आदि ते जेने एवं जे निर्विकृतिकादिक ॥ एटले विमझ न वावरवी इत्यादिकनुं जे पञ्चरकाण तेने ॥
टीकाः-एकदा कदाचिदष्टम्यादितिथिषुप्रमादबाहुल्यन नित्यप्रत्याख्यानानावात् प्रत्याख्याय नियम्य तदपि कदाचित् कृतमेकासनादि न रक्षतोऽनाजोगसहसाकारा दिना न पालयतो जंजतश्त्यर्थः हदिचेतसि नवेजायेत तीब्रो निष्टुरोऽनुतापः ॥
अर्थः-क्यारेक करतो एवो श्रावक एटले अष्टमी श्रादिक तिथिने विषे पञ्चरकाण करतो केमजे घणा प्रमादथी नित्य पच्चरकाण करतो नथी एवो जे श्रावक ते पण क्यारेक करेलु एवं एकाशनादि तेने न पाळतो एटले अजाणे सहसात्कारादिकवझे नागतो एवो ए प्रमादी श्रावक तेना चित्तमां पण अतिशय आकरो पश्चात्ताप थाय जे में था शुंकयु.
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७ अथ श्री संघपट्टकः 8
टीका:-बहुना कालेन तावदद्यप्रत्याख्यानं कृतं ॥ तदपि मयामंदनाम्येन जग्नमतो धिग्मां कथं मे शुद्धिर्भविष्यतीत्येवं रूपः पश्चात्तापः सदा सर्वदा यावदू जंगप्रायश्चितं गुरुज्योनासादयति ॥ षट् कृत्वस्त्रीन् वारान् सायंतनप्रतिक्रमणे त्रींश्चप्रगेतन प्रतिक्रमणे इति षट्वारान् संख्याया वारेकृत्वस्तद्धितः ॥ त्रिविधं त्रिषेति ॥ अनेन सामायिक सूत्रमुपलक्षयति ॥ किलसाधवः सायं प्रातश्च प्रतिक्रमणे सामायिक सूत्रमुच्चारयतः त्रिविधं त्रिविधेनेति पठति ॥
(४८२ )
अर्थः- दो में घ काले आज पच्चरकाल कर्यु ते पण मंद जाग्यवालो हुं जे तेथे नाग्युं माटे मने धिक्कार ने मारी पाप शुद्धि केम थशे इत्यादि रूप पश्चात्ताप निरंतर करे बे ज्यां सुधी ए पञ्चकानुं प्रायश्चित गुरु थकी नथी पाम्यो त्यां सुधी पश्चाताप करे बे ने जे लिंगवारी ने ते तो उवार एटले सायंकाळना परिक मणा वखत त्रणवार ने प्रातःकालना पमिकमला वखत त्रणवार एम वार त्रिविध त्रिविध इत्यादि सामायिक सूत्रने निश्चे उच्चारण करता सता त्रण प्रकारे त्रिकरण शुद्धिए सावद्यनुं पञ्चस्का • करे. बे.
टीका: - यथा सवं सावज्जंयोगं पञ्चरका मि जावज्जीवाएतिविहंति विदेणं मषेणं वायाए कारण मित्यादि ॥ तत्र त्रिविधमिति तिस्रो विधायस्येति त्रिविधं कृतकारितानुमतलक्षणं त्रिधेति त्रिविधेन करणेन मनोवाक्कायरूपेण सावद्यंयोगं प्रत्याख्यामि ॥
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19. अथ श्री संघपट्टका - (४८३) इत्येवंरूपतया अनुदिनं प्रतिवासरं प्रोच्याप्यनिधाय प्रतिज्ञा पापीत्यर्थः ॥
अर्थः--जेम मन वचन काया ए त्रणे करीने त्रणे प्रकारे जावजीव सर्व सावययोगने हुँ पञ्चरकाण करुं बुं इत्यादि तेमा प्रण के प्रकार ते जेना तेने त्रिविध कढ़ीए एटलेत्रण प्रकारे करवं, करावq ने अनुमोदना करवी ए डे लक्षण जेनुं एवं मन, वचन कायाए करीने सावद्ययोगर्नु हुँ पञ्चरकाण करुंडे ए प्रकारे नित्य पञ्चकाण करीने पण एटले नित्य बोलीने प्रतिज्ञा करीने पण जागे ने एटसो अर्थ बे.
. टीका:--अप्रतिज्ञातानुष्टानस्यहि जंगेनापि न तथा दोष इत्यपिशब्दार्थः तिखमयंति ये लिंगमात्रवृत्तयस्तेषां तुहिपोलेदप्रदर्शनार्थः ॥ क्वशब्दाः सर्वेप्यक्षमाव्यंजकाकेपार्थाः ॥ तपोऽनशनादि ॥ नित्यप्रत्याख्यानस्य सर्वसावद्ययोगविरति रूपस्य सकललोकसमक्षमज्युपेतस्यनंगदर्शनेन नैमित्तिक प्र... त्याख्यानस्यापिकथंचिल्लोकपंक्त्या विदितस्योपवासादेनंगान. मानान्नास्त्येव तेषां क्वचित्तपः
न" नित्यप्रत्याख्या गदर्शनेन नागा:
अर्थः-ने जे अनुष्टान, पञ्चरकाण कयुं नथी तेनुं में ना. गर्बु तेणे करीने तेवो दोष लागतो नथी. जेवो पञ्चरकाण करीने तेने जागतां दोष लागे . ए प्रकारे अपि शब्दनो अर्थ डे जे खिगमात्र धारण करीने केवळ पोतानी आजीविका मात्र करे ले ते. मने तपतो क्याथीज होय. तु शब्द जे ते गृहस्थथकी ते लिंगधारी
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( ४८४ )
28 अथ भी संघपट्टकः
जुदा बे एम जगावे बे ने ' सर्वे क्व' शब्द बे ते अक्षमाने जपावे बे एटले तिरस्कार वे अर्थ ते जेनो एवा वे. अर्थात् ए लिंगधारीने तिरस्कार बे जेने तप नथी. तप एटले अनशनादिक जाणवुं ने सर्व लोकनी समक्ष अंगिकार करेलुं सर्व सावद्ययोग विरतिरुप जे नित्य पञ्चरका तेनुं नागवुं प्रत्यक्ष देखाय बे. तेथे करीने लोकपंrिe एटले लोकलज्जाए कर्यु एवं जे नैमित्तिक पच्चरकाण एटले कोइ तिथीने विषे उपवासादिक तेनुं पण अनुमाने जागवुं जपाय से माटे ते लिंगधारीने कांइ पण तपज नथी.
टीका: - यद्वा वस्तुगत्यापितपः कुर्वतांतेषांत पोनास्त्येव ॥ ताम लिवत् ॥ षट्कायोपमर्द्दिनां तपसो विफलत्वेना निधानात् ॥ कं सत्यवचनं ॥ तथ्यवाक् ॥ सर्वं सावधंयोगं न करोमित्याद्यनिधाय पुनस्तत्क्षणमेवतन्निषेवणात् प्रत्यक्षमृषावादिता प्रसंगेपिसत्यवचनाभावात् ॥
अर्थः- अथवा कदाचित् तपकरता एवा पण ते सिंगधारीजने वस्तुगतिए तप नथीज. तामली तापसनी पेठे. केमजे उ. कायनुं उपमर्द्दन करनार प्राणीउनुं तप निष्फळ याय के एम शास्त्रमां कदेवाएं बेए हेतु माटे. वळी ते पुरुषोने सत्य वचन पण क्यांथी ज "होय. जे सर्व सावध योग नदि करूं इत्यादि कहीने पण तत्काल ज ते सावय योगनुं सेवन करे बे माटे प्रत्यक्ष मृषावादप अद्याय हैने मृषावादना प्रसंगनो अंश मात्रथी पण सत्य वचन होय ते 'असत्य थाय बे ए हेतु माटे साक्षात् असत्य वचननी तो शी बात 'कवी. इति जाव ॥
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-48 अब भी संपपट्टकः
टीका:- ॥ यक्तं ॥
न करेमि त्तिजलित्ता तं चैव जिसेवई पुणो पावं ॥ पञ्चरकमुसावाई माया नियमी पसंगोय ॥
(४८५ )
एवं च यदा प्रव्रज्यावसरोक्तस्य सर्व विर तिविषयस्यतद्वचनस्यालीकत्वं तदा वस्त्वंतर विषयस्य तस्य का सत्यत्वसंभावनेति सर्वथा नृतनाषिणएवत इति ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कहीं बे जें पाप नहि करूं एम कही ने तेज पापने वळी सेवे छे ते प्रत्यक्ष मृषावादी बे ने बाह्य मा याने अभ्यंतर माया तेनो तेमने प्रसंग थाय बे माटे ज्यारे दीक्षा बसते सर्व सावध योगनी विरंतिरूप पोतानुं बोलेलुं वचन असत्य थयुं त्यारे बीजी वस्तु संबंधी जे तेमनुं बोलवु ते सत्य संनवेज क्यांथी माटे ए लिंगधारी सर्वथा असत्य जाषिज बे.
टीकाः क्व ज्ञानिता सिद्धांतरहस्यपरिचेतृत्वं ॥ ज्ञानस्य'हिफलं विरतिस्तस्याश्चसातशीलतया तेःसमूलमुन्मूलनात्तचा च कथंचित्सतो पिज्ञानस्याऽकिंचित्करत्वेन तदानासत्यावज्ञान गंधोपि तेषां नास्तीति ॥
स्वर्ण-वळी ते लिंगधारीउने सिद्धांतना रहस्यनुं जाणपएं क्यांची न होय केम जे ज्ञाननुं फळ तो विरति बे मे ते विरति तो खशीखपसे ते लिंगधारी उंए मूळमांथीज उखाकी नांली ने महे
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(४८६)
49. अब भी संपपट्टा
माटे वळी कोश्प्रकारचें कांइकझान हो तो पण ते ज्ञान कां करवा समर्थ नथी केम जे ए ज्ञान नथी ए तो ज्ञाननो श्रान्नास जणाय ने माटे ते लिंगधारीनने ज्ञाननो गंध पण नथी ए वात सिकथश्.
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥
सुबहुंपि सुयमहीयं किं काही चरण विप्पहीणस्त ॥ अंधस्स जद्द पलित्ता दीवसयसहस्सकोमीवि ॥
- अर्थः- ते वात शास्त्रमा कही जे जे अतिशय घणुं एवं ए पण जे शास्त्र, नण ते चारित्ररहित एवा पुरुषने शुं करी शकशे कंड पण नहि करी शके जेम आंधळानीथागळ सो हजार करोग एवा पण दीवा प्रदीप्त कर्या पण ते अंधने उपकार जणी नथी तेवू चारित्रहीण पुरुषर्नु नणवू बे.
टीका:-क्व व्रतंदीक्षादीक्षोपादानेपिप्रत्याख्यानजंगादलोकनाषणेन दीदायाअपार्थक्यापादानातं तेषांनास्तीति ॥यदाहम लोएवि जो ससूगो श्रलियं सहसा न जासई किंवि।
अहदिस्किवि अलियं नासर तो किंच दिकाए ।
अर्थः-वळी ते लिंगधारीउँने दीक्षा पण नथी केम जे दीक्षा ले ले तो पण पञ्चरकानुं नागवू तेथी तथा असत्य नाषण करवं तेथी दीक्षानुं निरर्थकपणुं श्राय ए हेतु माटे तेमने दीक्षा
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अथ श्री संघपट्टक
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नथी ते वात शास्त्रमा कही ले जे लोकने विषे सारो पुरुष होय ते पण सहसात्कारे कां जूटुं न बोले ने अहो आलिंगधारीए तो दीक्षा लीधी ले तो पण जुटुं बोले ने माटेए दीक्षावमे शुं? कंपणं नहि. ए दीक्षा लीधी ते न लीधा जेवीज थइ इति नाव ॥
टीका:-अत्रचासकृत्क्वशब्दोपादानेन लोके लोकोत्तरे च सत्तपःप्रवृतेस्तपस्त्वादिकं न संजवतीतिज्ञाप्यते ॥ तेनायमा. . शयः ॥ यदाकिलगृहिणोपिसंततं गृहारंजसंरंनरतत्वात् प्रमाद
जरनिर्जराअप्यन वगतसिहांततत्वाश्रपि कदाचित् प्रत्याख्यान जंगेनैवमनुतप्यते तदा सुतरां यतीनां सर्वसावद्ययोगविरतानां .. विदितागमसाराणां कथंचिहिरतिनंगे पश्चात्तापः प्रायश्चित्तग्रह. , श्च युक्त येतुनिःशूकतया तांनजतो मनाग्लज्जामपिनादधति तेषांनास्त्येव तपःप्रनृतीतिवृत्तार्थः २३॥
अर्थ:- जगाए वारंवारत्र शब्दनु जे ग्रहण करतेणे करीने लोकने विषे तथा लोकोत्तरने विषे ते लिंगधारीनन जे तप
दिक ते थकी तप आदिकपणुं संन्नवतुं नथी एम जणावे . एटले ए लिंगधारीउनु जे तप ते :निष्फळ डे अर्थात् एम जे तप नथी, व्रत नथी इत्यादि अर्थने क्व शब्द जणावे २ ते हेतु माटे आ श्र. जिप्राय प्रगट जणाय जे ज्यारे गृहस्थ डे ते पण निरंतर घरना मारलने विषे मग्न डे ते हेतु माटे प्रमादना समूहने विषे जरपुर पुमेला डे ने नथी जाएयु सिमांतनुं तत्व से जेमणे एवा ले तो पण क्यारेक पञ्चस्काणनुं नागवू थाय तो तेणे करीने अतिशय परितप्त थाय बे. त्यारे सर्व सावध योगथी विराम पामेला ने जाएयो
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(50)
अब श्री संघपट्टक
प्राममनो सारते.जेमणे एका यतिने लो कोइ प्रकारे विरतिनो अंग
से सके पश्चामाप वो जोइए तथा प्रायश्चितनुं ग्रहणः करतुं ते कुक ने जे निःशूकपणे ते तपादिकने नागता सतासगारमात्र सजा पामता नथी माटे ते लिंगधारीनने तप श्रादिक कांश्पण नथी ए प्रकारे श्रात्रेवीसमा काव्यनो अर्थ थयो. ॥३॥
टीकाः-इदानी तेषां लोकोपहासादिपुरः सरं जिनपयफ रिपपिस्वं वृत्तव्येन प्रकटयत्राह ॥
अर्थः-हवे ते लिंगधारीउनु लोकमां उपहासादिक थाय ते पूर्वक जिनमार्गथी जे नलटापणुं ने तेने बे काव्ये करीने प्रगट करी कहे .
॥मूल काव्यम् ॥ देवार्थव्यपतो यथारुचिकृते सर्व रम्ये मठे नित्यस्याः शुचिपहतूलिशयनाः सब्दिकाद्यासनाः ॥ सारंनाः सपरिग्रहाः सविषयाः सेाः सकांक्षाः सदा साधुव्याजविटा अहो सितपटाः कष्टं चरंति व्रतम् ॥३॥
इत्यायुक्त सोपहासवचसः स्युःप्रेक्ष्यलोकाः स्थिति, श्रुत्वान्येनिमुखाअपि श्रुतपथाबैमुख्यमातन्वते॥ नियोक्त्यासु सुहशोपिबिभ्रति मनः संदेवदोखाचलं, अषो से ननु सर्वथा जिनपथ प्रत्यर्थिनोमीततः॥५॥
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अथ भी संघपटुक
(WOR)
टीका-पेषां स्थितिं प्रेय लोकाः लोहासवचसः स्यु रि० वि संबंधः ॥ कषमित्याह ॥ अहोइति विस्मये सितपटा: श्वेतांबराः कष्टं दुष्करं चरत्यनुतिष्टंति व्रतं प्रवज्यां महदाश्वर्यमेतत् यत् सितपटाः कलावप्येवंविधंत्रतकष्टमनुजवंति ॥ नहि संप्रतितनैर्मानवैरल्पसत्वैरेवंविधं कष्टं कर्तुं शक्यते ॥
अर्थ:- जे लिंगधारी उनी स्थिति देखीने लोक जे ते उपहा सहित थाय ने एटले ए लिंगधारीचनी हांसी करे वे ए प्रकारको संबंध बे से कये प्रकारे करे छे तो त्यां कहे बे जे हो यात मोटुं श्राश्वर्य जे या श्वेतांबर यती लोक दुष्कर व्रत पाळे तु मा कळिकाळमां पण या प्रकारनुं दीक्षा कष्ट अनुभव करे तो मोटुं श्राश्वर्य श्री काळना अल्प बळना प्राथी एम. कारनुं कष्ट करवाने नथी समर्थ यता.
टीका: अथच सर्वैरप्येवंरूपं व्रतं कर्तुं पार्यतएव सुखदेतुवावित्युपहासः ॥ अथ कथमेवमुपहासस्तेषांतैः क्रियतइत्यतआइ ॥ साधुव्याजेन यतिबाना विटाः खिशाः नामी साधकस्तन कृपायोगात् ॥ किंतु तद्वाजेन विटाः सकल तक णोपपत्तेः ।
अर्थ-वे कहेवामां या प्रकारar लोकनो अभिप्राय बे जे सर्व लोक पण या प्रकारनुं व्रत करवाने समर्थज बे केम जे ए तो सुखनुं कारण वे ए देतु माटे. इत्यादि लिंगधारी बने देखने लोक इसे बे वली कीये प्रकारे लोक लिंगधारी जनुं उपहास करे ते को जे थातो साधुको मन लश्ने एटले उपस्थी सा.
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सबब श्री संघपहरू
धुनो वेष बनावीने जणाता विट पुरुष डे एटले वेश्यापति हैं नावार्थ जे खुम्चा, उच्चका, वंठेल, व्यभिचारी एवा ए पुरुष डे पण साधु नथी. केमजे साधुना लक्षणमांथी एके लक्षण श्रा लिंगधारीउमा देखातुं नथी त्यारे शुं देखाय ने तो केवल साधुनुं कपट करीने वर्तता व्य. निचारी पुरुषो देखाय ने केम जे समस्त व्यभिचारी पुरुषोनां . कष एमने विषे प्रत्यक्ष देखाय डे ए देतु माटे.
राउमा देखा
साधु कपट
खाय के
कप एमने
टीका:-तदेवाह॥देवार्थव्ययतो देवगृहाधिपत्येन तहवि. पस्यतदधीनत्वात् जिनवित्त विनियोगेन यथारुचिरुचेः स्वेच्छाया. अनतिक्रमेरोत्यव्ययोजावः स्वमनोनिलाषानुरूप मित्यर्थः कुते निष्पादित सर्व रम्ये सकसवसंतादिरूपताविनक्तकास विशेष मनोहरे मठे प्रतीते ॥ .. .. .....
अर्थः-सेज कही देखाम जे जे लिंगधारीउने देवमंदिरनु प्रधिपतिपणुं २ तेणे करीने देवजव्य ए लिंगधारीनने स्वाधीन के ते हेतु माटे जे प्रकारनी पोतानी इच्छा के एटले रुचि ले ते प्रकारे करावेलो ने सर्व वसंतादि ऋतुने विषे मनोहर एटले जे जे का. लमा जे जे वस्तुथी सुख थाय ते प्रकारे करावेलो जे सुंदर प्रसिद्ध मग तेने विषे.
टीका:- तथाह्यत्रजालिकाशुषिरविशच्छिशिरचारुमारुत विहितजीष्मग्रीष्मपृथुदवथुमथितशरीराप्यायनानि तुंगता संपादितसंचरिष्णुजनतोऽधूतरथ्यारजःसंपातनायनानि वातायनानि॥
अर्थः-ते सुंदरपणुं कही देखामे ले जे ए मउने विषेर
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मय श्री संघपट्टकः 8
( ४९१ )
टले पोताने रवाना स्थानने विषे या प्रकारनां सुंदर जालीयां मूकावे छे. ते केवां वे तो जे जाली यांना विमांथी प्रवेश करतो ने शीतल एवो जे सुंदर वायु तेथे करीने कर्यो बे खाकरा ग्रीष्म ऋतुना घणा घामथी व्याकुल धतुं जे शरीर तेनी पुष्टि ते जेमणे एवां ने वळी ते जालीयां केवां वे तो मारगमां चालनार लोकोए उमामी जे रस्तानी रज ते जेम न पके ए प्रकारे जेनुं उंचापणुं संपादन कर्यु बे एवां एटले देव द्रव्यवमे पोताने रहेवाना स्थानम नृष्णकालमां सुख थवाने वास्ते उंची बारीओ तथा जाली भोनो तालमेल बनावे बे इतिभावः ॥
टीका: - निरुद्धप्रावृषेण्यवरेण्यजलदपटल विगलद विरल सलिलधारासारा विचित्र चित्रशालिका सारा विटंको कित दंतकला वलनयः ॥
अर्थः-वळी वर्षाऋतु मां पोताना सुखने थार्थे ते जगाए सुंदर मेघथ की पकतुं जे घणुं जल तेनी धारार्जुना कलिया रोकावाने वास्ते उपर वादनवाळां बजां करावे .
टीकाः - अजवन् प्रालेय कण संवलितमनपवन स्पर्शलेशानिशी थिन्यामपि सुखप्रवेशा अपवरकदेशाः ॥ एवं च कथं न सर्वर्तुरम्यता मठस्य ॥
अर्थ:- बळी शिवाळामां हिमना कक्षीयावने मिश्रित प
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(२)
अब भी संप
पेली जे अति शीतल वा तैना स्पर्शनी बैंश जमा न याय ने रोत्रिए पण जेमां सुखनी प्रवेश डे एवा जेमा सुंदर जरका है. ऍ प्रकारनी पोतानो मठ सर्व काळमां सुखकारी केम न होय.
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टीका:- तथा च तत्र नित्यस्थाः सततवासिनः । सुविहितादि देवद्रव्योपजोग जयाद्यतिनिमित्तनिर्मितत्वेन महासावद्यत्वाच्च मठे न वसंत किंतुया चिते याह शिताह शि परगृहादावेव तत्रापिनानवरत वसति ॥
अर्थः- वळी ते स्थानकने विषे निरंतर निवास करता एवा लिंगधारी डे ने सुविदित साधु मे ते तो देवद्रव्यमी उपन्नोग थाएं जयथकी यतिने निमित्ते निपजान्यो में ए हेतु माटे ने महा सावधपणुं वे ए हेतु माटे त्यां नथी वसंता त्यारे क्यों वसें बे? तो मागी लीधेनुं जेतुं तेनुं पारकुं घर तेने विषेज निवास करे बे शमी पण निरंतर निवास नथी करता.
टीका:- नित्यवासित्वप्रसंगा नित्यवासस्य च यतीना श्री. द्धादिप्रतिबंध लाघवादिहेतुत्वेन प्रतिषेधात् ॥
॥ यक् ॥
परिबंधो लहुयत्तं न जणुवयारो न देस विन्नाणं ॥ "मोबोराह नए दोसा विहारानी
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पर भी सं
(३)
पर्थम जे नित्य निवासपानी असन बाय १ हेतु मोटे ने साधुने श्रावकादिकनों प्रतिबंध थाय तेथी लघुता आदिकनी प्रोति वाय ते वात शास्त्रमां कही वे जे जो साधु विहार में करे तो ते पक्षमा आटला दोष रह्या वे जे प्रतिबंध थाय तथा लघुता थाय तथा लोकोनो उपकार न थाय. तथा नाना प्रकारना देशनुं विज्ञान न थाय तथा आज्ञानुं आरधिन न थाये.
टीका:- उद्यत विहारस्यैव ममकारायुच्छेद निमित्तत्वेनानिधानात् ॥ यदाह ॥ श्रनिययवासी समुयाणच रिया श्रन्नीय ठंडे पयरिकयाय ॥ अप्पोवंदी कलह विवाणा य विहारच रिया इसिसत्या ॥
अर्थः- जे बिहारना उद्यमी है तेनैज ममत्वनो नाश याय हे ते शास्त्रमां कथं बे जे मुनिने विहार चर्या करवी ते प्रशस्त है पटले वखाणवा योग्य डे कैम जे एक जगाए नियमाए निवास यह न जाय तथा घणा घरनी गौचरी थाय तथा अज्ञात गोचरी थाप एटले
पनार तथा लेनार परस्पर नळखे नहि तथा शुद्ध अहार मळे तथा प्रतिरिक्तपणुं थाय. एटले स्त्री पशु नपुंसके रहित एवं स्थान मले तथा अप उपधि थाय तथा कलहनो त्याग याय ए सबै गुण मुनिने विहार करता प्राप्त ययि है.
टीकाः
सातपटतयाँ मै नियतस्थितयो भासंतीति कथं न जवंति विटाः ॥ तथा शुचयो निर्मजाः पर
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मा श्रीः संघपकास
ला. पट्टांशुकसंवीता हंसरुतादिमयाः शय्या विशेषाः ॥ यहा पट्टाः श्रीपादिदारु निर्मिता स्ताःशयनंशयनीयं येषां ते तथा॥ साधवोहि कंबलादिसंस्तारक एव शेरते न पट्टतूल्यादिषु तासां प्रमाजनाद्यशुझे विनूषासातशीलत्वव्यंजकत्वालोकोपहासहेतुत्वाच्च॥
- अर्थः-श्रा लिंगधारी तो सातासुखमां लंपट डे ए हेतु माटे मग्ने विषे नित्य निवास करी रह्या डे ने विलास करे ले माटे ए विट पुरुष एटले व्यभिचारी पुरुष केम न होय वळी निर्मळ सुंदर तलाश्च नारे. सारां वस्त्रना नबामे सहित तरेहवारनी शय्यान सुवानी सामग्रीमां जेमने देखाय डे एवा अथवा शीशम श्रादिक काष्टना पलंग सुवाना जेमने ले एवा. निश्चे साधु तो कांबली श्रादिकना संथारामां सुवे ते पण कां नारे नारे गोदमां तलाइ पलंग पाथरणां वगेरेमा सुता नथी केम जे तेवी वस्तुनुं पूजवू पमिलेहर्बु थर शकतुं नथी माटे अशुञ्जपणुं रहे जे ए हेतु माटे तथा शोनाने जणावनार ने तथा साता सुखशीलपणाने जणावनार डे ए हेतु माटे तथा लोकोमा उपहास थवानुं कारण ने ए हेतु माटे.
... टीकाः-एतेतु तत्र शयाना विटत्वं प्रकटयंति ॥ तथा
समन्दिकाद्यासनाः ॥ शोन्ननगब्दिकामसूरकादिविष्टरजाजः ।। गदिकायुपवेशने चदोषा मुनीनां प्रागेवोक्तासारंजा मठवाटिकाकृष्यादिमहासावधव्यापारकरणकारणप्रवणाः सपरिग्रहाः पहिवाणिज्यादिप्रयोजनने धन्यवान्यस्नेहादिनांगसंग्रह
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MAR
अर्थः-या लिंगधारी तो पवे कही एवी तलामा सवें ले माटे पोतानुं व्यजिचारीपणुं प्रगट कही आपे ने वळी सारी गा. दी जे मशरु, मुखमल, कीनखाप, साढी, गजीयाणी, सेला प्रा. दिकनी गादीयो श्रासन तकीया वगेरे वस्तुनो नपन्नोग करे लेने मुनियोने तो गादी आदिक आसन नपर बेसवाथी घणा दोष लागे ने ते पूर्वे करा वळी ते लिंगधारीश्रो श्रारंज सहित ने एटले मठ तथा वामीश्रो तथा खेती इत्यादिक जे महासावध वेपार तेनुं कर तथा करावq तेने विषे तत्पर डे वळी ते लिंगधारीओ परिग्रह सहित ने एटले गृहस्थनी पेठे वेपार श्रादिक प्रयोजनने कारणे धन तया धान्य तथा स्नेह एटले घी, तेल, दिवेल इत्यादिक वस्तु तया पात्र ते सर्वनो जे संग्रह करवो तेने विषे तत्पर ले ॥ ... टीका:-सविषयाश्चक्षुरादीजियानुकुलनर्तकीदर्शनतांबू. , सास्वादनचंदनायंगरागगंधर्वगीतश्रवणादिविषय सततानुषक्त चेतसः ॥ सेा विषयासक्तस्वात्कामुकवत् ॥ स्वानिमतां यो. : षितमन्येन सार्क मालापादि विवधानामवेक्ष्य तं प्रत्य. ऽक्षमानाजः ॥
अर्थः-वळी ते लिंगधारीयो विषय सहित ने एटले नेत्र श्रादिक इंजियोने अनुकुळ एटले इंजियोने आनंदकारी जे नाटिक करनारी स्त्रीरो तेनुं जे देखq तथा. तांबूलनुं नक्षण कर तथा चंदनादिकनो अंगराग करवो तथा गंधर्वनुं गीतगान सांनळवू इ. त्यादिक जे विषय तेने विषे निरंतर आसक्त ने चित्त ते जेमतुं एवा पळी ते लिंगधारीओ इयाए सहित डे एटखे कामी पुरुषनी पेठे : विषयासक्त वे ए हेतु माटे पोतानी मानेलीस्त्री तेने बीजा पुरुषनी
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( VRS)
श्री
आलापादिकां देखीने ते प्रत्ये कमाल न यता पद इर्ष्या करता एखा
टीका: कांकाः संनो विलासान्यासात् प्रतिज्ञां नवदवोपज्ञायमानखिसोत्कलिकाः ॥ श्रारंजादयश्चयतीनां बहुः दोषखानेकधा विविकास सर्वदा || विश्यायांना दि वाज्यालाका चित्सरमुवेर कि कस्मा विचेतो विकारमा प्रह हृष्यात 14
शार्थी ते लिंगधारी सहित संजोग करवानो तथा विलास करवाने के ए हेतु माहे कणे कृणे नवी नवी रमवानी, इष्ठाश्रो जेमने उठे बे एवा साधुने आर आदिकनी अनेक प्रकारे निषेध के कैमके एमां बहु दोष. पज के ए· हेतु माटे निरंतर विषयनो अनादि कालनो अभ्यास बे हेतु माटे क्यारेक कोइ पण सारा मुनिना चित्त प्रत्ये पण विकार मात्रने प्रगटः थकाएं बे माटे धुर्वे कझां जे कारण ते मुनिने सेववा योग्य नथी.
•
टीकाः यडुक्कं ॥
नव लिप नवि दोही । पाएखं तियांनि सो जीवो ॥ जोररहितं मया होदः ॥
छार्थ:-से वातः शाखमा कही. के. जे. प्रो, कोई जीव तो प्रथ नहि जे यार पसीने
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-18 अथ श्री संघपट्टक
विकार रहित सदाकाल एटले निरंतर होय ||
( ४९७ )
A
टीकाः - - नतु सर्वदा ॥ तदैव तेषां ज्ञानांकुशेन स्वचित्तमाकृष्य मिथ्याडुः कृतादिप्रायश्चित्तप्रतिपत्तेः ॥ एतेतु एगा गिय रस दोसा, इत्थी साणे तदेव पमिणीए ॥ जिरकविसो हिमहवय त म्हास बिइजए गम मित्याद्यागम निषिद्धैका किविचरणादिनाऽ त्युच्छृंखल तयाच सदैव मन्मयविकारनाज इतिसाधूक्तं साधुव्याज विटा इति ॥ २४ ॥
अर्थ:----माटे ज्ञानरुपी कुठावके पोताना चित्तनुं श्राकर्षण कररी मिथ्या दुःकृत यादिक प्रायश्चित्तनुं अंगीकार कर तेने सदाकाल करतो एवो. या लिंगधारी निरंतर काम विकारनेज जेबे केम जे शास्त्रमां निषेध कर्यु एवं जे एकाकि विहार करवाप इत्यादिकने अतिशय उत्शृंखलपणे एटले मदोन्मत्तपणे करे बे ते एका कि विहार उपर शास्त्रनुं वचन जे एकाकि विहार करनारने स्त्री संबंधी तथा श्वान एटले कुतरां सम्बन्धी तथा शत्रु सम्बन्धी दोष उत्पन्न याय के तथा निदानी शुद्धि यती नथी तथा महाव्रतनो जंग थाय बे माटे एका कि विहार करवानो त्याग करवो माटे जे लिंगधारी जने साधुना मिषथी जणाता व्यनिचारी पुरुष कला ते बे. ॥ २४ ॥
वात युक्त
टीकाः - इति उक्तप्रकाराणि श्रादिशब्दा दन्यान्यप्येवं प्रायाणि विश्वनाव्यंजकानि वचांसि गृहांते ॥ ततश्च इत्यादी
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(
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अथ श्री संघपटक
AAN
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न्युद्धतानि बहुजनबदनस्य मुअपितुमशक्यत्वा बिशांकलायो प्रटानि सर्वत्राऽस्खलितानीतियावत् ॥
अर्थः-एम पूर्वे कह्यां एवां आदि शब्दथी बीजां पण बहुधा एज प्रकारनां विमंबणाने जलावनारां वचन: ग्रहण करीएबीए ते हेतु माटे घमा उत लोकनां वचन थाय बे केमजे बहु लोकना मुखने रोकवा नथी समर्थ थता माटे निःशंकपणे अतिशय प्रसिक कोई जगाए स्खलना न पामतां एवां लोकनां वचन ए लिंगधारी. नने देखीने उत्पन्न थाय .
वीकार-मोपहासान्युत्प्रासनांजि क्यासि वचनानि येषां ते मचायुनवेचुर्लोकाः प्राकृतजनाः कुतोर्थिकनाविता जैन पपल्स रिसः प्रेदय साक्षात्कृत्य येषामिति पदं तूर्यपाद स्थित कलं वासयंदीपयति ॥ लेनः येषां स्थिति मित्यादि संबंध्यते॥
अर्थः पटले जे लिंगधारीनने साक्षात देखी कुतीर्थनी को भावना बळगी एवा प्राकृत मत्सरी लोक उपहास सहित के वचन ते जेमनां एवा थाय ने येषां ए पद या काव्यना चोधा वस्थामा स्यु बे. पण सकल वाक्यने दीपावे ते. हेतु मादे जे विं मधारी उनी अघटित स्थिति देखीने लोक उपहास करे के पर संबंध थाय .
· टीका:-स्थिति यत्यनुचितमसमंजसमाचारं ॥ स्वरूपेणैव बावन्सत्सरिणः सर्कस्याप्युपहासंकुति किंपुनः संमति निरतिश
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- मावी संपादक *
(१९)
पल्प जिनमासनस्थ समावि विमिन तथारू वैशमव्यवहारं बीस्य कथंकारं न कुर्यु रित्त्वर्थः।
अर्थः-मत्सरि पुरुष पोताना स्वनावेज पोतानी मर्यादाने न घटतो एवो प्राचार देखीने सर्वनुं उपहास करे ने तो सर्वोपरि जे जिनशासन तेनुं वर्तमानकाळे उपहास करे तेमां तो शुकडेवू तेमां पण लिंमधारीजनो ते प्रकारका हिंसक व्यवहार देखीने केम उपहास न करे एटलो अर्थ .
टीकाः-तथा श्रुत्वापाकये येषां स्थिति अन्ये चपरेड जिमुखाः शेषदर्शनेन्यः सकलोपपत्तिकलितमिदं जैनदर्शनं यत्योप्यत्रदर्शने झांतात्मानः क्रिया निष्ण श्चोपलज्यते ॥ ततोऽ स्माकमपीदमंगीकर्नु मुचित मिति चेतस्यज्युपगम विषयोत जिनशासना स्तेपि भासतां तदपरश्त्यपेरर्थः ॥
अर्थः-वळी जे विंगधारीडनी स्थिति देखीने पीनामा हटले जैन दर्शनने सन्मुख अयेखा लोक पप बिमुख भार पर अनळ संबंध डे ते एम जाणता इता जे सर्व दर्शनी साड कळानी सिद्धिये सहित था जैन दर्शन ने मजे बापाला यति पण शांत चित्तवाळा डे तथा क्रियानिष्ट देखाय ने ए हेतु माटे मारे पक्षा दर्शन श्रमिकार कर घहित एक पोताना चिबमे बिन सासननो अंगिकार करीमे रखा एकावासो पोकते विमुख बाब ले सो वीजा पाय मुमा से शुं कहां हम पारिशब्दको
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(५००.)
-+अथ श्री संघपट्टकः
टीकाः-श्रुतपथाज्जैनसिद्धांतमार्गात् वैमुख्यं एतावं. तमनेदसं वयमझाः स्याम यदेतदेव तात्विकं धर्मदर्शनं निर१. : पवादं । परंयत्राप्यवें विधासदाचारकारिणो विलोक्यते ॥
। तदालमनेन ताम्रहिरन्मयालंकारदेशीयेनांतर्निः सारेण बहिर्मा.:. त्रिमनोहरेण ॥ सर्वथा प्राक्स्वीकृत मेवास्माकं दर्शनं श्रेयः॥ ५. अहो जैना अन्यथावादिनोऽन्यथाकारिणश्त्या दिवचनसंदर्नेण. __ पराङमुखत्वं सर्वथा बहिर्नाव मिति यावत् ातन्वते दर्शयंति॥
.. अर्थः-जिनना सिद्धांत थकी विमुखपणुं शी रीते पामे जे तो ते कहे जे जे अमो श्राटला काळ सुधी अज्ञानीज इता. जे हेतु माटे श्रमो जाणता हता जे निर्बाध यथार्थ धर्म दर्शन तो आज जे पण जे दर्शनने विषे श्रा प्रकारना असत् आचरण करनारा लिंगधारीन देखाय बे माटे ए दर्शनवमे सयु श्रातो उपरथी सोनाए रसेदूं तांबाना श्राजूषण जेवू मांहेथी निःसार जे केवळ बारणेथी मनोहर जणातुं आ जैन दर्शन माटे सर्वथा पूर्वे अंगिकार करे आपणुं दर्शनज सारं अहो बातो माटुं आश्चर्य जे श्रा लोकतो बोले के जुदुं ने करे ले जुएं इत्यादि वचनना समुहने कहेता सता सर्वथा जैन दर्शनथी बहिर्नाव एटले जैन दर्शननो त्याग करी देखामे .
टीकाः–तथा येषां मिथ्योक्त्या मृषावचनेन ॥ तेहि स्खलिताचारत्वेन सर्वशंकितत्वात् असमंजसचेष्टितं प्रति केन चित् पृष्टा स्संतो मलिम्बुचवदलीकं नाते॥ यथा.कएवमाह। नवयमेवं विधकारिण इति ॥ ततश्च प्रत्यदोपलक्षितदोषापह
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1
X
अथ श्री संघपट्टक
वात्तादृशामेव बाहुल्येन दर्शनाच्च किमित्याह ॥
अर्थः-- वळी जे लिंगधारीनना मिथ्या वचने करीने संदेह उत्पन्न याय ने एम आगळ संबंध बे ते लिंगधारीज मिथ्या बोले ते कड़े मजे निचे ते पुरुषो पोताना आचारथी चष्ट बे ए हेतु माटे एमने देखीने सर्वने शंका उपजवापणुं रचुं ने ए हेतु माटे कोइ न करवानुं काम करेयुं देखीने कोइ पुरुषे पुढे सते चोरनी पेठे जुटुं बोले बे जे कोएा एम कदे वे श्रमो ए प्रकारनं करीए एवा नथी. त्यार पढी प्रत्यक्ष दीगे ने उळख्यो एवो जे दोष तेने जळव्यो ए देतु माटे तथा ते लिंगधारीन मध्ये बहुधा ते प्रकारनुं ओळववापणुं देखाय बे ए हेतु माटे शुं थाय बे ते कहे बे.
(५०१ )
टीका: — सुदृशोपि सम्यग्दृष्टयो जिनमतांतःस्थापि प्रायशः किंपुनरन्यइत्यपेरर्थः ॥ विति धारयति कुर्वती तियावत् मनश्वेतः संदेहइदं किमेवमन्यथावेत्युभयकोटयुल्लेख्यन वधारणज्ञानं सएवैकत्रानवस्थितरूपत्वसाधर्म्मीद्दोला मेंखा तया चल मेकत्राऽस्थास्नु ॥ यथादोलारूढं वस्तु तस्याश्चलत्वाचलमेवं सुदृशामपिमनः ॥
अर्थ :- जे समकित दृष्टि जिन मतमां रह्या बे ते पण
संशयनुं धारण करे बे तो बीजाने संशय थाय तेमां ते शुं कहेतुं ए अपि शब्दनो अर्थ बे. एटले ते लिंगधारीननुं मिथ्या वचन सांजळीने सम किती पुरुषोनुं मन पण संशय करे बे जे शुं श्राम हशे के बीजे प्रकारे हशे एम बे प्रकारना तर्कवने निश्चय रहित जे ज्ञान
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मप भी संगमहक
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तेने संदेह कहीए. तेहिज एक जगाए रहेतोनथी माटे हिंघोला स. मान चंचळ . एक चंचळ वस्तुने विषे रही जे वस्तु ते चंचळज काहीए. जेम हिंदोलो चंचळ ले तो तेने विषे रही जे बस्तु ते चंचकम होय तेम संदेहर्नु स्वरुप चंचळ ले तो तेने पामेझुं समकिन जिनुं मन ते पण चंचळज होय.
टीकाः-पूर्वह्यस्मानिर्जेनमतं वाक्क्रिययो रविसंवादि स्वसंधर्मकथादिष्वाकर्णित मिदानीत्वंशेनापिन तथोक्लग्यते। तस्किमिदं वास्तवमवास्तवं वेति संदेहाधिरूहत्वान जैनमते जढीमानं निबनाति ॥अथवा संदेइने करणनूतेन दोखावच तात्पर्य तु पूर्ववत् ॥ येषां नामजैनानां तेऽमी संप्रति सर्वत्रप्रसतत्वात्पुरोवर्तिनः नन्वित्यक्षमायां पार्श्ववर्तिसुहृदामंत्रणेवा ॥ सर्वथा सर्वेः प्रकारै र्जिनपथपत्यार्थिनो जगवन्यतात्पनीकानतु केनापि प्रकारेण वदनुकूलाश्रपि ।
अर्थः-तेशी रीते तो ते एम कहे जे जे पूर्वे तो समोए जैन मत जे ते वाणि तथा क्रिया तेने विषे विसंवाद रहित स्व. रुप जेनुं एवं धर्म कथादिकने विषे सांनळ्युं इतुं एटखे जेवू घाली. ए कहे तेज क्रियावमे दीवामां आवे एवं जैन मत ले एम सांजब्यु हतुं पण हालमां तो अंश मात्र पण तेम देखाटुनमी. एटले मुखे बोले जे जुउँ ने चाले डे जुडं माटे विसंवादि जैन दर्शन जप्यास में से माटे या ते शुं वस्तुताए एमज डे के नथी. ए प्रकारता संबेडू उपर मन चमेलुं ने माटे जैन मतने विषे समकिन हटियोवालं पण मन दृढपणे बंधातुं नथी अथवा संदेहे करीने समकिता र
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मय श्री संकपाका
Mamme
बंतुं पण मन हिंदोलानी पेठे चंचळ थाय ने एमातीपर्य तो पूर्वनी पे जाएवं जे नाम मात्र जैनी ले ते सर्व जगाएट पसरेला में ए हेतु माटे था समीप रहेला एम प्रत्यक्ष निर्देश कर्यो ? ननुः थव्ययनो अक्षमारुप अर्थ एटले अमो ए विपरितपणाने सहन करता नथीं अथवा पासे रहेला मित्रोनुं संबोधन कहेनारों ननु शब्द जाणवो ए लिंगधारी तो सर्व प्रकारे जिनमार्गना वैरी के एटसे जगवंतना मार्गना शत्रु ने पण कोइ प्रकारे जिन मानने अनुकूल नापी
... टीका:- जैनदर्शनोपहासतदनिमुखवैमुख्यापादनादिका जिनसाशनानुपचयहेतुत्वेन वस्तुतस्तेषां तडछेदकत्वात् ।। येवांचापसधेनः शशधरकर विशदे जगवलासने लोकोपहास कि पर्यासादयो दोषाः प्रापुःष्यंति तेऽनंतसंसारिणः सिद्धांते प्रति पादिता महापापीयस्त्वात् ॥
यमुक्तं ॥
दोसेंणजस्स अयसो आयासो पवयणेय अग्गहणं ॥ विप्परिणामो अप्पच्चोयकुबाय नप्पज्जे ।। पवयण मणुपेहंतस्स निबंधस्सतस्स लुहस्स ॥
बटु मोहस्स जगवया संसारोपंतश्रोन्नणिों ॥ तत इत्येतत्पदमग्रे वृत्तादौ संत्स्यतः इति वृत्तध्यार्थः ॥२५॥ - अर्थः-नसटा जैन दर्शन- उपहास. करावनारा देने के
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(१०४)
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अय भी संघपट्टका
जिन दर्शनने सन्मुख थयेला डे तेमनुं विमुख पणुं करवू इत्यादि दोषे करीने जिन शासननी हानि करवाना कारणिक बे माटे वस्तुताए ए लिंगधारी जन मतना उछेदंक डे केमजे जे लिंगधारीउना अपराधे करीने चंडमाना किरण सर नजलुं जिन शासन तेने विषे लोक नपहास करे तथा जिन मार्गथी विपरीतपणुं पामे इत्या. दिक दोष प्रगट थाय ने तेथी सिद्धांतने विषे एवा पुरुषो अनंत संसारिक कह्या ले केमजे अतिशे महा पापी डे ए हेतु माटे.
टीकाः-सांप्रतं कुपथवर्तिनां विधिपथं प्रत्येकांतिकीमात्यंतिकी निरुपमां च मनसोपुष्टता मुपलभ्य तमुत्पादं चेतरजनमनः कारण सामग्र्याथसंजावयं स्तहिलक्षणांतकुत्पादकारणसामग्री संतावनाकारणाह॥
अर्थः-हवे कुमार्गमा वर्तनार एवा लिंगधारीनना मननी विधि मार्ग प्रत्ये एकांतपणे अतिशय उपमाये रहित जे उष्टता एटले पुष्टपणुं.तेने देखीने ए प्रकारचं उष्टपणुं बीजा लोकना मनरुपी समस्त कारण ते थकी संन्नवतुं नथी एम धारीने ए प्रकारर्नु मुष्ट मन थq तेनी कारण सामग्री को प्रकारनी विलक्षण संजवे ने एवी संभावना करता सता ग्रंथकार संन्नावना धारवमे ए लिंगभारीउना मननी पुष्टताने कहे डे एटले एकांतपणे अतिसेज विधि मार्गना केवी एवा ए लिंगधारीनना मननी उपमा रहित जे पुष्टता ते शीशी वस्तु नेळी थने निपजी डे एम तर्क करता ग्रंथकार कहे तिनावः॥ .
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+अव श्री संघपहर
॥मूल काव्यम्॥ सर्वोत्कटकालकूटपटखैः सर्वैरपुण्योच्चयैः सर्वव्यालकुलैः समस्तविधुराधिव्याधिदुष्टग्रहैः॥ नूनं क्रूरमकारि मानसममुं उार्गमासेउषां दौरात्म्येन निजघ्नुषां जिनपथं वाचैषसेत्यूचुषां॥२६॥
टीकाः-ततः शब्दस्य प्राक्तनवृत्तस्थस्येह संबंधात्तेन य. . तोऽमी सर्वथासत्पथं प्रति कुष्टचेतसस्ततस्तस्माइतोः किमि- : त्याह॥ नूनमिति संन्नावनायां । अहमेवंसंन्नावयामि॥ यावंत्य- . तिष्टवस्तूनि जगति संति तावन्निईमार्गमासेषुषां करं मान समकारीति संबंधः॥
अर्थः-पूर्वना काव्यमां ततः ए शब्द रहेलो ने तेनो श्रा जगाए संबंध ले तेणे करीने जे हेतु माटे ए लिंगधारी सर्व प्रकारे सन्मार्ग प्रत्ये पुष्ट चितवाळा . ततः कहेतां ते देतु माटे शुं थयु ते कहे जे हुँ एम संभावना करुं हुं के जे जेटलो पुष्ट वस्तु जगतमा तेटली वस्तुवमे मुष्ट मार्गने पामेला एटले नन्मार्गे चालनारा एवा लिंगधारोन्नु क्रूर एटले महा थाकलं उष्ट मन कर्यु ३. एटले निपजाव्यु एम संबंध .
टीकाः कथमन्यथा तन्मनसोऽतीव क्रूरता ॥ इतर जन : मनः साधारणकारण सामग्रीतस्तदनुपपत्तेः कारणानुरूपत्वात् कार्यस्य ॥ नहि न्यग्रोधबीजास्पिचुमंद प्ररोहः॥ कैस्तेरित्याह॥
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49 अब भी संघपट्टका
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सर्वैः सकलैरुत्कटकालकूलपटले नूतनत्वादत्युग्रसद्योघाति विषनेदसमूहैः ॥ एक हिश्यादितिरनुत्कदैश्चकालकूदमकल स्तत्पदलै वा तादृक् क्रूरमनसोजनयितुम शक्यत्वादेवमुकं ॥ एव मुत्तरपदेष्वपि योज्यं ॥
अर्थ:-जो अतिशे क्रूर वस्तुवमे ते लिंगधारीननु मन न निपजाव्युं होत तो तेमना मननी अतिशेज करता क्याथी होत, केमजे बीमा लोकना मनने साधारण सामग्री होत तो एटले जे वस्तुथी बीजा सोकर्नु मन निपज्युं ने तेज वस्तु सामग्रीची ए लिंगधारीउनु मन नीपज्युं होत तो था प्रकारनी जे अतिशय क्रू. रता ते न होत माटे जे कारण होय तेज कार्य थाय . कारणना गुण कार्यमां आवे जे जेमके वमना बीजथी लींबमानो अंकुर नीपजतो नथी. हवे कीया कीया ते कारण जेथी ए लिंगधारीननु मन नीपज्युं तेने कहे जे जे समस्त आकरां जे कालकूट फेरनां क्सी तेणे करीने नवं ने अतिशे आकरूं ने तत्काल नाश करे एवा के विप तेना जे नेदना समूह तेणे करीने अतिशय आकरां जेन होय एकां जे केर तथा एक, बे ने त्रण आदिक जे कालकूट फेरना कमका अथवा दलीआं तेणे करीने ते ते प्रकारनु क्रूरपणुं नीपजार कुई थशाक्य ने एटले अतिशे क्रूरपणुं थव शकतुं नथी माटे समः स्त कालकूट फेर लश्ने ए लिंगधारीउनुं मन उत्पन्न थयुं वे जेथी तेने विषे अतिशेज क्रूरपणुं जणाय ने माटे सर्व पदनुं ग्रहण कर्यु बे, एम आयळनां पदने विषे पण योजना करवी एटले जोमवं.
टीकाः-सका काटकूलपटखैरेव केवलैः प्रकृतमनसः ईमशक्यत्वादपुण्योचयरित्यादि वाक्यावतारः ॥ ततः मार
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जय श्री संचपट्टक
(६०७)
रखिलै रपुश्योच्चयैः पापराशिनि सर्वव्यालकुलैर शेषाशी विष संबोधैः समस्त विधुराधिव्याधिदुष्टग्रहैः कृत्स्न व्यसनचेतः पी कागद मंगला दिपापग्रहैरे निरखिलैर्दुष्ठैरेक सामग्री जावेन संजू क्रूरं सन्मार्गधातुकं मानसं चेतः प्रकारि निर्ममे ॥
अर्थः---समस्त कालकूट केरना समूहवमेज केवळ एवंमधारीजना मननी क्रूरता करवाने श्रसमर्थपणुं ने ए हेतु माटे पापना समूहवमे निपजान्युं बे. वळी एटलाजवने अतिशय क्रूर म थबुं त्यारे समस्त सर्पना समूहवमे निपजाव्युं ए प्रकारे आ
आगळ वाक्य जे जे कहीए बीए तेनो अवकाश जाधव वे माठे समस्त पापना समूहवमे निपजाव्युं वे तथा समस्त महा केरी सर्पना समूहवमे निपजाव्युं बे तथा समस्त कष्ट तथा समस्त मं बनी पीका तथा समस्त रोग तथा पापग्रह ए सर्व श्रति कुष्ट - समी एकटी करीने ए लिंगधारीउनुं सारा मार्गने रचनाएं जब विपजाच्युं डे.
टीका:- क्रूररूपस्य मनसो निर्माणं विधेयमत्र पत्तेनास्य मनस श्वरमनोभिः साजात्यमपिनिरस्तमित्येतदपि संवा मि । इतरमनो विलक्षणसामग्री जन्यत्वेन वैजात्योपयचेः अ नदि मृत्पिंमदमादितंतुवेसादि विसदृशसामग्री जन्ययोर्घट पष्टषोः साजास्यं नाम ॥ तथाच तन्मनसः कदाचिदनि शुभ तापतिः नहि जूनिंबस्य शर्कराजावः शिल्पिक्षसेनाप्याव येते ॥ तत्कस्यदेतो: स्वस्वसामम्या विजातीय सव बोपचे रिति ॥
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१९०४)
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अब यो संघपट्टक
- अर्थः-था जगाए ए विंगधारीउनुं मन क्रूररुप निपजावेवं एम स्थापन कर्यु तेणे करीने.ए मननुं बीजा लोकना मननी साथे सजातिपणुं इतुं एटले सरखापणुं हतुं ते पण निवारण कयु माटे एम पण संन्नावना करुं बु जे बीजा लोकना मनथी को वि. बक्षण सामग्रीवमे ए मन नत्पन्न थयु ले माटे विजाति ,केम जे मृतिकाना पिंक तथा दंग इत्यादि कारणथी घट नत्पन्न थाय . तथा तांतणा तथा तेमनी मेळवणी करनार काष्ट इत्यादि सामग्री वके पट नत्पन्न थाय ने ते बेनी कारण सामग्री जुदी जुदी ले तो तेथी उत्पन्न थयुं जे कार्य ते पण जुडं जुईं ले विजाति ले पण सजाति नथी एटले सरखां नथ। एटले मृतिकादिकथी पट नुत्पन्न थता नथी ने तांतणावके घट स्त्पन्न थता नथी ने घटने पट न कहेवाय, ने पटने घट न कहेवाय निश्चे तेम ते लिंगधारीनना ममने क्यारे पण शुन्न नावनी प्राप्ति थती नथी. केमजे सेंकमो प्रकारनी चतुराय करे तो पण करीश्रातानी साकर करवाने समर्थ न थवाय. माटे पोतपोतानी सामग्रीथो विजातिपणे लिंगधारीनुं मन तथा लोकनुं मन ते कया हेतुथी सरखापणे जाणीए 'अपितु' को कारपथी जणाय एम नथी एटले कालकूटादि सामग्री थकी उत्पन्न थयेलुं जे सिंगधारीउनुं मन ते लोकना मन जेवू केम कहेवाय शतिनावः॥
टीकाः-अथवा मनःसिद्धमेव ॥ तस्य तु क्रूरत्वं विधेयं॥ तञ्च कालकूटादिनिः साध्यं ॥ अथास्मिन्पले करत्वस्यो. पाधिकत्वात् अपगमप्रसंगो वस्त्रादिषु महारंजनरागस्य तथा दर्शनादितिचेतन नपाधिकस्यापि धर्मस्य कयाचित्सामच्या जन्य
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जय श्री संघपट्टक
( १०९ )
-मानस्यानपगमदर्शनात् ॥ यथा पट्टांशुकादिषु नीली रागस्योपाधिकस्यापि न कदाचिदपगम इति ॥ तडुपपन्न मेतन्नूनं क्रूरभकारि मानसमिति ||
अर्थः:- अथवा लिंगधारीजना मनने विषे पोतानी मेळे क्रूरपणुं सिद्धज के केम जे ते मनने क्रूरपणुं जे ते तो विशेषण रूप ने एटले लिंगधारीनुं मन केवुं बे तो क्रूर बे ए प्रकारना विशे पणे सहित बे ते कालकूटादि जे हेतु तेथे करीने साध्य बे एटले अनुमान प्रयोगे करीने साधवा योग्य बे, हवे ए पहने विषे क्रूरप पाने उपाधिप ने ए हेतु माटे क्रूरपणाने नाश पामवानो प्रसंग थशे जेम वस्त्रादिकने विषे नारे रंगनो नाश थाय बे ते प्रकारे क्रूरपणानो नाश प्राप्त यशे त्यारे ए अनुमान प्रयोग खोटो थशे. केम जे जे देतु उपाधि सहित होय ते खोटो थाय बे माटे एम जो त शंका करता हो तो ते न करवी केम जे उपाधि संबंधी जे धर्म ते पण कोइ प्रकारनी सामग्रीव उत्पन्न थवापणुं ढे तेनो नाश नथी यतो. एम प्रत्यक्ष देखवामां आवे छे ए देतु माटे जेम hts वस्त्रादिकने विषे गलीनो रंग जो पण उपाधि बे तो पण क्यारेय नाश नथी थतो ए न्याये करीने लिंगधारी उनुं मन कालकूटा दिवमे क्रूर थयुं बे ते कोइ दिवस नाश पामे एवं नथी माटे ए वात सिद्ध थर जे लिंगधारीचनुं मन कालकूटादिकवके निपजेलुं बे माटे - तिशय क्रूर .
टीकाः - श्रमुं प्रत्यक्षं दुर्मार्गं कुपथं श्रासेदुषामभ्युपेयुषां ॥ बिंगिनां तदुक्तानां चेतिशेषः ॥ ननु जवतु तेषां क्रूरंमन
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(११०)
श्री संवाहक
समापिकिन छिन्नमित्यतयाह॥दौरात्म्येन दुष्टाशयत्वेन निजमुबामुधिविदुषां जिनपथं जगवत्प्रणीतं सत्पथं ॥ सनमाने. र्तिनामुपसर्गकरणेन वस्तुतो जिनमार्ग ब्रशस्तिहस्माकं बिन्नमित्यर्थः ॥
अर्थः-श्रा प्रत्यक्ष जगातो कुमार्ग तेने पामेला एषा किमधारी तथा तेमना नक्त ते बेनां मन महा क्रूर ले त्वां आशंका करी कहे जे जे तेमनां मन क्रूर ने तो पण तेमां अापणुं शुं वायु एरले आफ्णुं शुं गयु. ए जगाए उत्तर कहे जे दुष्ट बुझिएकरी ने अगवंते कहेला मार्गनो उछेद करवाने श्चता वस्तुतार नपसर्ग करीये जिनमार्ग तोकी पामता जिनमार्गथी उष्ट करता एका विंमधारीठए श्रापणुं घणुं डेयुं हे एटले भाषणुं अणुं बगामढुंखे. एटलो अर्थ:----
टीका:-अथ जिनपथं निघ्नतां तेषां हिजादीनामिव किंवा नांसर परिग्रहणमतांतरप्ररुपणा ॥ नेत्याह ॥काच वचमेक स्वमसिकल्पितमपौदेशिक नोजनादिमार्ग एष सम्ममेकस
जिनवणीतः पंथा नान्यः इति एवं प्रकारेण उचुक अनिदधुपां. ..मतेषां न दर्शनांसरस्थाःस्वमतंप्ररूपयंतिमाततस्वैर्जिनपयवर्तिनो ... जमस्य प्रतारयितुमशक्यत्वात् ॥ .. .
अर्थः--वळी शंका करी समाधान करे ले जे जिन मार्गने हसनार एका ते लिंगधारीउनी पोताना मानी जे अलवा ते सामादिकनी बेटे वीमा दर्शननो अंगिकार करो ओकरीने
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अथ श्री संघपट्टका
(५११)
मतांतरकी प्ररुपणा ले तो त्यां कहे जे जे न कहेतां ते ब्राह्मणादि कनी पेठे नथी, आ तो पोतानी कपोल कल्पनाथी पोलानी मलिए कस्पेढुं जे वचन तेणे करीने श्राधाकर्मादि आहारादिक ग्रहण कर ए प्रकारना मार्गने पण एम कहे जे जे आज जिनराजनो कहेलो मार्म ले पण बीजो नथी. ए प्रकारे कहे जे पण बीजा वर्शनमा रहेलां जे ब्राह्मणादिक ते पोताना मतने एम कहेता नथी जे आज जिनराजनो मार्ग ,माटे बीजा दर्शनमा रहेला लोको जिन मार्गमां स्टेला लोकने बेतवा समर्थ थता नथी ए हेतु माटे लिंगधारी नानी प्ररूपणा ते ब्राह्मणादिक अन्य दर्शनी जेवी केम कडेवाय ?
टीका:-कित्वस्मिन्नेव दर्शने वेषमात्रेण स्थिताः स्वप्ररुपितं कुमार्म जैनमार्गतया वदंतो मुग्धलोकं व्यामोदयंतीत्यर्थः ॥ए तावता संरंजेण सत्पथं प्रत्यतीवप्रत्यनीकत्वं तेषां प्रकटितं॥ह च सेत्यत्र सशब्दाद्विसर्जनीयलोपे संधिप्रतिषेधेपि तदःपादपूरणे संधिरिति विशेषलक्षणेन संधि विधानमिति वृत्तार्थः ॥२६॥
अर्थः–वळी शुं श्राज दर्शनने विषे वेष मात्र धारण करीने रहेला एवा लिंगधारीन पोताना प्ररुपण करेला एवा कुमार्गने जैनमार्गपणे कहेता एटले आ अमो कहीए बीए एज जैनमार्ग एम कहीने नोळा लोकने नमावे , मोह पमामे बे एटलो अर्थ. ए सिंगवारीनुं आटटुंबधुं कहे, तेणे करीने सन्मार्ग प्रत्ये एमनुं अतिमोज शत्रुपणुं ले तेने प्रगट करी आप्युं आ काव्यमां सेति ए जगार सम्दथी विसर्जनोयनो लोप करे सते संधिनो निषेध तो पण तत् शब्दनो जे संधि कर्यो ते पादपूरणे संधि ए सत्रमा
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(५१२)
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अब भी संपपटक
विशेष अरुण कथु ले तेणे करीने संधि कयों ए प्रकारे प्रा काव्यनो अर्थ थयो. ॥ २६ ॥
टीकाः-श्रत इत्यंतरापदं योरप्यनयोवृत्तयोः संबंधयोजनार्थ तच्चाग्रिमवृत्तस्यादौ योदयते ॥ इदानीं तेषां वचनमात्रमपि विवेकिनः श्रोतुं न युज्यत इत्याह ॥
अर्थः-श्रतः ए प्रकारचें पद बे काव्यनी बच्चे मूक्यु ले ते वे काव्यनो संबंध परस्पर जोमवाने अर्थे ने तेने श्रागडं काव्य कहेतां पहेलां जोमीशुं. हवे ते लिंगधारीन्नु वचन मात्र पण विवे. कीने सांनळ योग्य नथी एम कहे . एज कारण माटे ए लिंगधारीयो साचा मार्गथी अतिशेज विपरीत चाले ने ए हेतु माटे.
॥ मूल काव्यम् ॥ दुर्नेदस्फुरदुग्रकुग्रहतमः स्तोमास्तधीचक्षुषां । सिक्षांतषितां निरंतरमहामोदादहंमानिनां ॥ नष्टानां स्वयमन्यनाशनकृते बहोद्यमानां सदा मिथ्याचारवतां वचांसि कुरुते कणे सकर्णः कथं ॥२॥
टीकाः–यत एवनामैते जिनपथं प्रति दुष्टा श्रतोऽस्मादेतोः ॥किमित्याह ॥ तेषां वचांसि कुपथप्रतिपादकानि वचनानि कुरुते विधत्ते कर्णे स्वश्रवणे सकर्णःसश्रोतःश्रथच सहृदयः कथं केन प्रकारेण न कथंचिदित्यर्थः॥
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अयं श्री संघषक:
अर्थः-जेहेतु माटेए लिंगधारीन निश्चे जिनमार्ग प्रत्ये पुष्ट डे ए हेतु माटे शुं करवं ते कहे . जे ते लिंगधारीऊनां उन्मार्गने प्रतिपादन करनारां वचन पोताने काने सांनळे ते पुरुष कानवाको केम कहेवाय? वळी हृदय सहित पण कीये प्रकारे कहेवाय? केम जे जे हैयानो शून्य होय तेने हृदय सहित केम कहीए? कोइ प्रकारे न कहीए एटलो अर्थः ॥
टीकाः-नहि सकर्णस्य कर्णकटू निस्पृष्टपरमर्माणि वचनानि खलानां श्रोतुं युक्तानि॥किंतु कर्णयोरेतदेव फलं यत् पीयू. षवर्षका अपहसितमुक्ताः सतां सूक्तयः श्रूयंते ॥अथ च सक
पर्णस्य प्रेक्षावतःकुपथवर्तिनां नाषितानि कर्णे कर्तुं न युज्यते॥ - तच्वणस्य साधूनामपि मिथ्यात्व निबंधनत्वेनानिधानात्॥
अर्थः-कर्ण सहित जे पुरुष एटले सारा पुरुष सेमना कानने कमवां लागे ने पारका मर्मस्थानने स्पर्श करनारां जे खळ पुरुषोनां वचन ते सांनळवां घटित नथी. त्यारे शुं सांगळवं घटित डे तो काननू एज फळ ले जे अमृतने वरसतां ने मोतिने उपहास करतां एवा सत् पुरुषनां सारां वचन तेज सांजळका युक्त . हवे कान सहित जे बुद्धिवान पुरुष तेने कुमार्गमा रहेनार पुरुषोनां वचन काने सांजळवां घटित नथी. केम जे ते वचन साधु सांजळे तो तेने पण मिथ्यात्वनुं कारण थाय एम शास्त्रमा कहेधुंडे ए हेतुमाटे.
टीकाः ॥ यमुक्तं ॥ एबुच्चिय तेर्सि मुवस्सयंमि तुमिवससमाग साहू ॥ तेर्सि धम्मकहाए कुणा विधायं सइबलंमि ॥
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(५१४)
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अथ श्री संघपट्टकः
.. शहरा उए। कन्ने तस्सवणा मिलमे साइवि ॥
अवलोकि मुजो सट्ठो जीवाजीवाश्यणनियो॥
टीका:-कीरशामित्याह ॥ दुर्नेदो निवमत्वाद् दुरुच्छेदः स्फूरन्मनसि संततावस्थिततया जागरुक उग्रो दृढः कुग्रहश्चैत्यवासादिप्रतिष्ठापन विषयो मिथ्यानिनिवेश स एवतमस्तोमः सत्पथदर्शनांतर्बायकत्वादधतमसपटलं तेन अस्तं उन्नधीः प्रेक्षा सैवसत्पथ प्रकाशकत्वाच्चकुलॊचनं येषां ते तथा तेषां।यथा तमस्तोमेन तिरोहितं चतुःपंथानं न पश्यति तथा तेषामपि धीः कुग्रहेण तिरस्कृतत्वानसन्मार्ग मृगयते ॥
अर्थः--ते लिंगधारी केवा ने तो जेमना मनने विषे अ. तिशय गाढ रह्यो माटे महा दुःखथी नेदाय एवो ने निरंतर रह्यो डे माटे जागतो एवो जे महा आकरो कदाग्रह एटले चैत्यवास आदिकनुं जे स्थापन करवं तेने विषे जे मिथ्यानिनिवेश एटले मिथ्यात्व ते हिज अंधकारनो समूह केमजे साचा मार्गने जाणयानुं अंतर्ध्यान करे . ए हेतु माटे गाढ श्रांधळु करनार अतिशय अंधकार तेना समूह जेवं जे ए मिथ्यात्व तेणे करीने ढांक्यु ने बुद्धिरुपी नेत्र ते जेमनुं एवा लिंगधारीन डे साचा मार्गने प्रकाश करनारी बुद्धि माटे बुद्धिरुपी नेत्र कडं जेम: अंधकारवमे ढंकायेल नेत्र ते मार्गने न देखे तेम ते लिंगधारीननी बुद्धि कदाग्रहवमे तिरस्कार पामी ने ए हेतु माटे साचा मार्गने खोळती नथी..
टीका:-सिद्धांतद्विषतां तधिपर्यस्तार्थप्ररुपणया तदुच्छेद
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- अथ श्री संघपट्टकः
प्रवृत्तत्वादागमवैरिणां निरंतरमहामोहात् व्यसनातिरेकाऽविवेकात् श्रहमिति निपातोऽस्मदर्थे ॥ ततश्च वयमेव श्रेष्टा नास्म त्समः कश्चिदित्यात्मानं मन्यते ॥ ये ते श्रहंमानिनस्तेषां विवेकि नां दि गीरत्वेन महति गुणगणे सत्यप्यनुत्सेकात् ॥
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अर्थः-वळी ते लिंगधारी केवा ठे तो सिद्धांतना द्वेषी एटले सिद्धांतनो जे अर्थ तेथी विपरीत जे अर्थ: तेनी प्ररूपणा करे ए हेतु माटे सिद्धांतनो उच्छेद करवामां प्रवर्तेला बे ए हेतु माटे सिद्धांतना वैरीरुप बे. ते लिंगधारीज निरंतर महा मोहथी एम जाणे बे जे मोज श्रेष्ट बीए अमारा जेवो बीजो कोइ नथी ए प्रकारे विवेकथी पोताना आत्माने माने बे केम जे विवेकीने तो गंजीरप बे माटे मोटा गुणनो समूह बते पण गर्व नथी तो ए हेतु माटे.
टीका:- मूढानां तु तु तया स्तोके पितस्मिन् जगतो. पितृणतया मननात्
॥ तटुक्तं ॥
जह जंडुरस एक्के विदिषादोवि वावमाह त्या ॥ तह असुषिय परमया थेवेण विनुणाहुति H
अर्थः-ने मूढपुरुषने तो थोमो गुण दोय तोपण जगतने तृण समान माने बे ते वात शास्त्रमां कही बे जे.
टीकाः - तथा स्वयमात्मना नष्टाः सुखलोलतयाऽनवरत
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4. अथ श्री संघपटकः
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मन्याय्ये पथिप्रवर्चमाना जनपुरतःस्पं संस्थापयितुमशक्नुवंतः क्व धर्मः क्व संप्रति अतिन इत्यादि नास्तिक्यं प्रतिपन्नास्तेषां अन्येषामात्मव्यतिरिक्तानां नाशनकृते नास्तितापादननिमित्तं बडोद्यमानां । यदि ह्येतानप्यात्मना कथंचित्समी कुर्मस्तदा सुंदरं नवत्यऽन्यथैते धार्मिकंमन्याः परुषवाग् निरस्मान् संत क्षिष्यंती त्याशयेन तन्नाशनाय विहितप्रयत्नानां n:
अर्थः-वळी ए लिंगधारी पोतेज पोतानी मेळे नष्ट ले एटले सुखनी लालचे निरंतर अन्यायना मारगमां प्रवा ले ते लोकनी श्रागळ पोतानुं सारं स्थापन करवा असमर्थ डे एटले पोताना मुनिपणानुं वर्तन देखामी शकता नथी माटे एम बोले ने जे श्रा काळमां जैनमुनि क्याथी होय ने जैन धर्म पण क्याथी होय इत्यादि नास्तिपणाने पामेला ते पोते नाश पाम्या ने ने बीजाने नाश करवाने अर्थे एटले नास्तिपणानुं प्रतिपादन करवाने कारणे बांध्यो डे उद्यम ते जेमणे एवा ने एटले आ उत्कृष्टा कहेवाय माटे जो एमने आपणा बराबर को प्रकारे करीए तो सारु ने जो एम नहि करीए तो धर्मिष्टपणाने माननारा ए उत्कृष्टा सा. धु ते श्रापणने कगेर वाणीए करीने तिरस्कार करशे एवा श्राशये करीने तेमनो नाश करवामां उद्यमवंत ने एटले जे ते प्रकारे सुविहितने धर्म चष्ट कहेनारा ए लिंगधारी जे ए जावः
टीकाः-सदा सर्वदा मिथ्याचारा मुक्तिपथविपरीताचारा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायपुष्टयोगलक्षणाः अथवा लोक
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(५१७)
-48 अथ श्री संघपट्टका - प्रलंननहेतुक वायेजियसंयमपुरस्सरं विषयप्रणिहितमन स्कत्वं ॥
अर्थः-वळी ते निरंतर मिथ्याचारवाळा डे एटले मुक्ति मार्गथी विपरीत ने श्राचार ते जेमनो एवा डे मिथ्यात्व १, अवि. रति , प्रमाद ३, कषाय ४ ए रुपी जे उष्टयोग ते ने खकण ते जे. मर्नु एवा ए लिंगधारी ने अथवा लोकने उगवा कारणे बाहेरथी पोतानी इंजियोनो नियम कराववा पूर्वक विषयमा मनने जोकी राखनारा ले.
टीकाः-यदाद ॥बायें जियाणि संयम्य, य आस्ते मनसास्मरन् । इंजियार्थान् विमूढात्मा, मिथ्याचारः स नच्चताततश्च तहता तयुक्तानां दांनिकानां ह्यापातमधुरोपि वचनसंदर्भः प्रसंन्ननगर्नत्वेन परिणामे नूयोऽनर्थसंन्नारकारणत्वाहिषायते ॥
अर्थः-ते वात कही ले जे जे पुरुष उपरथी इंजियोने नियममा राखीने मनवमे विषयने संन्नारतो रहे डे ते मूढ पुरुष मिथ्याचारवाळो कहीए, ते हेतु माटे मिथ्याचारवाळा दंनि एवा ए लोकनो जे तत्काळ मधुर जणातो एवो पण वचननो समूह ते परिणामे घणा अनर्थ- कारण थाय . केमजे तेमा गर्नु उगवापणुं रघु डे ए हेतु माटे तेमनुं वचन विष जेवू ले एटले त्याग करवा योग्य .
टीकाः-॥ तक्तं ॥ पीयुषधारामिव दानिकाः प्राग् प्रखंजनीयां गिरमुगिरंति ॥
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
पुनर्विपाकेऽखिल दोषधात्री सैवातिशेते बत कालकूटं ॥ तस्तद्भाषितानि सुविहितैः सुश्रावकैश्च न श्रोतव्यानी ति तात्पर्य मिति वृतार्थः ॥ २१ ॥
११८ )
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कहीं वे जे दंनी पुरुष जे ते प्रथम तो श्रमृतनी धारा जेवी सर्वने लोभावनारी एवी वाली बोले बेपी परिणामे तेज वाणी समस्त दोषनी करनारी थाय बे माटे कालकूट जेर करतां पण दंजी पुरुषनी वाली प्रति अधिक बे माटे ते जी पुरुषनां वचन सुविहितने तथा सारा श्रावकने न सांजळवां एज तात्पर्य बे; ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो ॥ २७ ॥
टीका:- अधुना वितथा दिरुपधर्मदे शिनामपि तेषां कुपथस्य तथा विधमुग्धजनोपादेयतां सविषादं प्रतिपाद्यन्नाद ||
अर्थ — हवे ते मिथ्यादिरुप धर्मने उपदेश करता एवा पण ते लिंगधारीननो कुमार्ग ते प्रकारना जोळा लोकनें ग्रहण करवामां बेतेने विखवाद सहित प्रतिपादन करता सता एटले ए वात घणी खेद नरेली के एम प्रतिपादन करता सता ग्रंथकार कहे .
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49 अय श्री संघपट्टकः
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॥ मूल काव्यम् ॥
यत् किंचितिथं यदप्यनुचितं यल्लोकलोकोत्तरो। त्तीर्ण यद्नव देतुरेव नविनां यच्ास्त्रबाधाकरं ॥ तत्तम इति ब्रुवंति कुधियो मूढास्तदईन्मत। ज्रांत्या लांति च दाउरंतदशमाश्चर्यस्य विस्फूर्जितम्॥श्न॥
टीकाः-तत्तदितिवीप्सायां सर्वसंग्रहमाद ॥ धर्म सा- ... धनमनुष्टान मिह धर्मस्ततश्चधर्म इति सुकृतमिदमित्येवंरुप. तया ब्रुवंति वदंति कुधीयो जुर्मेधसो नाम जैनाः ॥ यत्किंइत्याद।। यत्किंचिदिति सामान्यतो निर्दिष्टं विशेष तोऽनिर्दिष्टनाम के वितथमली श्रेणिकराजरजोहरणवंदनादि न ह्येतदागमक्वचिद्विखितमस्ति येन सत्यं स्यात् परं लिंगिनः स्ववंधता ।। पादनायै तदपि धर्म इति नापते ॥
अर्थः-कही| ए सर्वे वातोनो संग्रह थाय ने ते कहे जे पुष्ट बुद्धिवाळा केवळ नाम मात्रथी जैनी कहेवाता एवा ए लिंगधारी जे ते आगळ कहीशुं ए सर्वेने थातो धर्म बे एप्रकारे बोले बे. तत् शब्दनुं बेवार नच्चारण कर तेथी श्रागळं कहे जे श्रा जगाए धर्म साधन करवानुं जे अनुष्टान तेने धर्म कहोए एटले धर्मरुपपणे स्थापन करे . ते शुंस्थापन करे ? तो जे कांश स्थापन करे ले ते कहीए जीए. जे कांश सामान्यथी देखामयुं होय ने विशेषथकी नाम न देखामयुं होय एवी जगाए जुटुं बोले ,
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(५२०)
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अथ श्री संघपट्टका
जे श्रेणिकराजाए रजोहरण देखीने वंदनादिक कयु. पण एम वि. चारता नथी जे ए वात श्रागमने विषे को जगाए लखी नथी, जे तेणे करीने ए वात साची थाय. परंतु ए लिंगधारी पोतानुं वंदनपणुं प्रतिपादन करवाने तेने पण धर्म ने ए प्रकारे बोले .
टीका:-यदाह ॥ श्री श्रेणिक क्षितिपतिः किल सारमेयलांगूल मूलनिहितं यतिवरवंदे ॥ जकत्या रजोहरणमित्यनृतं वदंति ही लिंगिनो वृषतया कुधीयः प्रलब्धं ॥
• अर्थः-ते कडं ले जे पुष्ट बुद्धिवाळा लिंगधारी जोळा सोकने नेतरवा सारु या प्रकारे जुटुं बोले ले जे श्री श्रेणिकराजा जे ते जेम को पुरुषे कूतरानुं पूंजमुंबगलमा धार्यु होय तेम रजोदरण मात्र ग्रहण करनारने नक्किए करीने साधुनी पेठेज वंदन कयु माटे ए प्रकारे हे श्रावक लोको तमारो धर्म एटले तमारे पण एज प्र: कारे वंदन करवु ए प्रकारनो धर्म कही देखामे ..
टीकाः-तथा यदपि अपि समुच्चये यच्चानुचितमयोग्य।.. पित्रायुद्देशेन यात्राकरणादि धर्मनिमित्तं हि कृत्यजातं जिनमदिरे कर्तुमुचितं नान्यत् ॥ पित्राद्युद्देशेन तु यात्रादि तत्र विधीय. मानं गुणबहुमान विकलकेवलस्नेह निबंधनत्वान्नधर्मः ॥ .परं तदपि लिंगिनो धर्मोय मित्यजिधाय स्वोपयोगाय विधापयंति॥..
अर्थः-यदपि ए जगाए अपि शब्द समुच्चय अर्थने विर्षे
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अथ श्री संघपक --
( १११)
बे. वळी ए. लिंगधारी जे अयोग्य वस्तु बे तेने पण धर्म रूपे स्था पन करे बे ते कहे बे. पिता श्रादिकने नद्देशीने यात्रा करवी एटले या चैत्यमां तमारा बाप दादाए यात्रा पूजा इत्यादिक कर्या बे माटे तमारे पण ए सर्वे करवां जोइए, इत्यादि उद्देश करोने जे यात्रादिक कराव तेने धर्मरुपे कही देखा बे ने जिन मंदिरने विषे जे जे कामकाज बे ते धर्म निमित्ते करवुं घटित बे पण बीजी रीते नथी तो पिता आदिको उद्देश करी पढी त्यां यात्रादिकनुं जे करतुं तेने, गुणनुं जे बहुमान तेथी रहितपएं बे केवळ पिता श्रादिकना स्ने: इनुं कारण बे, माटे तेमां धर्म नथी परंतु ते लिंगधारी या धर्म बे ए प्रकारे पोतानी मतलब सिद्ध करवा सारु स्थापन करी देखाने बे.
टीकाः – यदाह ॥
यात्राः प्रतीत्य पितरौ भवताऽत्रचैत्ये यात्र मासि विहिता धनिनामुना तत् ॥ कार्यास्त्वयापि च तथेति कथं गृहस्थै धर्मोऽयमित्यनुचितंरचयंति धूर्त्ताः ॥
अर्थः-- ते वात कही बें जे लिंगधारी गृहस्थोने धर्मोपदेश समजावे ने जे या चैत्यमां तमारा मा बापने उद्देशीने यात्रा करवी एटले तमारे या चैत्यमां असलथी तमारा वृद्धों करता आव्या बे माटे तमारे यात्रा आदि कर ए तमारो धर्मज बे. अथवा या मासने विषे या गृहस्थे श्रा जगाए जेम यात्रादिक कर्यु छे तेम गृहस्थोप कर ए धर्म बे इत्यादि घटती वातनी ए धूतारा गधारीन रचना करे बे.
जिं
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(५२२ ) ..
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अथ श्री संघपट्टकः
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टीका:-तथा यबोको जैनमार्गबहि—तः शिष्टजनः 'लोकोत्तरं जिनःप्रवचनं तान्यामुत्तीर्ण बाह्यं सूतक गृहनिदा ग्रहणादि एतहि लोकलोकोत्तरयो विरुद्धत्वान्न धर्मस्ते तु गाह्या दिहेतुनैतदपि धर्म इत्य निदधति॥
. अर्थः-वळी जे लोक कहेतां जैन मार्गथी रहित एवा सारा लोक तथा लोकोत्तर कहेतां जिनराजनुं प्रवचन ते बेथी जे रहित एटले जे लोकने लोकोत्तरथी विरुद्ध ते शुं तो सूतकीना घरनी निक्षादिकनुं ग्रहण कर इत्यादि ए वात निश्चे लोकने लोकोत्तर ए बेने विव विरुक ए हेतु माटे धर्म नथी. तोपण लिंगधारी सोनादि कारणे, करीने एने पण धर्मरुपे स्थापन करते देखामे डे.
टोकाः-यदाह ॥ जिका सूतकमंदिरे जगवतां पूजा मलिन्या स्त्रिया ॥ होनानां परमेष्टि संस्तव विधेर्य च्चिक्षणंदोक्षणं ॥ जैनें प्रतिमाविधापनमहो तबोक लोकोतर ॥ व्यावृते रथ हेतु मप्यधिषणाः श्रेयस्तया चकते ॥
अर्थः-ते वात कही ले जे सूतकोने घेर निका करवी तथा मलोन स्त्री जगवंतनी पूजा करे, तथा हीण जातिवाळाने परमेष्टि नगवंतना स्तोत्रमंत्रने विधि शिखयो, तथा तेमने दोक्षा थापवी, तथा तेमनी पासे जिनेनो प्रतिमानुं विधिविधान स्थापनादिकनुं कराव. ए प्रकारे ए बुझिहोण लिंगधारी लोक लो. कोत्तर थको ए सई विरुद्ध बे तेने पण धर्मनुं कारण बे ए प्रकारे
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-4 जय श्री संघपट्टकः 8
( ५२३ )
कहे वे एटले या श्रमारी कहेली सर्वे वात कल्याण करी बे, धर्मरुप बे एम बोले बे ए मोटुं आश्चर्य बे.
टीका:- तथा यद्भवदेतुरेव संसारकारणमेव जविनां देहिनां जिनमंदिरे जलक्री मादि ॥ एतद्धिमदनोद्दीपनत्वात् क्रीमामात्रत्वनातात्विकत्वाच्च संसारवर्द्धनमेव परमेतदपि लिंगिनो धर्मझना स्वावलोकन कुतुलेन कारयति ॥
अर्थः- वळी ए लिंगधारी जे देहधारीओने संसारनुं कारणज बेतेने पण धर्मरूपे स्थापे बे ते कहे बे. जे जगवतना मंदि - रने विषे जे जलक्री मादिकनुं करावनुं ते निश्चे कामनुं उद्दीपन क ना तु माटे, ने क्रीमा मात्रपएं बे ए हेतु माटे तात्विक नथी एटले करवा योग्य नथी, माटे संसार वधारवानुं कारण बे परंतु लिंगधारीयो तेने पण धर्मनुं मिष लइने पोताने जोवानुं जे कौतुक ते सारु करावे बे.
टीका:-यदाह ॥
श्रृंगैः प्रसूनसमये जलकेलि लीला ॥ मांदोलनं भगवदोकसि देवतानां ॥ धर्म बलाल गुरुरास मनस्यहासं संसृतिहेतुमज्ञाः ॥
निर्मापयंत्य
अर्थः--ते वात कही बे के ए अज्ञान लिंगधारीश्रो धर्मना मिषथी वसंत ऋतुमां पीचकारी खोव जलक्रीमा करावे बे. वळी भगवंतना मंदिरने विषे देवताना हिंदोला बंधावे बे वळी जेमा घणो
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(५४)
अथ श्री संघपटक
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हास्यविनोद रह्यो एवं जे मीमीयावमे रमव॒तेने करावे जे ए सर्वे संसारनां कारण ले तेने धर्मरुपे स्थापे ए मोटी खेद नरेली वीत .
टीकाः-तथा यत् शास्त्रबाधाकर सिद्धांतविरोधाधायकमौदेशिक जोजनादि॥यथाचौ देशिकादीनां शास्त्रबाधितत्वं तथा प्रागेवोपपादितं ॥ अथवा आषाढचतुर्मासकात्पंचाशत्तमदिन प्रतिपादितस्य पर्युषणापर्वणः श्रावणाद्याधिक्यवतिवर्षेऽसीति तमेऽह्नि विधान॥ . अर्थ-वळी शास्त्रबाधक एटले शास्त्र विरुङ जे श्राधाकमर्मादिक जोजनादि तेने पण धर्मरूपे स्थापन करे जे जे रीते श्राधा कर्मादिकने शास्त्र विरुद्धपणुं ते रीते प्रथम प्रतिपादन कयु . श्रथवा श्राषाढ चोमासाथी आरंजीने पचास दिवसर्नु पर्युषणा पर्वशास्त्रने विषे प्रतिपादन कर्यु ले ते पर्व ज्यारे श्रावणादि अधिक मास जे वरसमां श्रावे ने तारे अशी दिवसनु ए पर्व करे .
टीका:- यमुक्तं ॥ वृक्षौ लोकदिशा नन्नस्यनन्नसोः सत्यां श्रुतोक्तंदिनं पंचाशं परिहत्य ही शुचिन्नवात्पश्चाच्चतुर्मासकात् ।। तत्राशीतितमे कथं विदधते मूढा महं वार्षिकं कुमाहाहि गणय्य जैनवचसो बाधां मुनिव्यंसका ॥
....... अर्थ:- ते वात कही जे जे ज्यारे लोक रीतीए श्रावण जाद
रवी अधिक मास आवेडे त्यारे शास्त्रमा कहेच जे भाषाढ चौमा.
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अथ श्री संघपटक
साथी भारतीने पचास दिवसर्नु पर्युषणा पर्व एटले वार्षिक पर्व के तेने ए मूढ पुरुषो (लिंगधारी) एंशी दिवस- केम करे ? पोताना कदाग्रहथी जैन वचनने बाध श्रावे ने तेने न गणीने करे ले माटे ए प्रकारे ए पुरुषो मुनि मध्ये धूतारा जे.
... टोकाः-ननु ब्रुवंतु ते स्वमतिकल्पितं मार्ग तथापि वित
थादिस्वभावत्वात्तं न कोपि अहिष्यति तथा चोक्तोप्यनुक्तकल्पो लोकोपादाना नावेन प्रसराजावादित्यत आह ॥मूडा श्रज्ञानिनः तत्र धर्मव्याजेन लिंगिप्ररुपितं मतं अर्हन्मतन्त्रांत्या जैनमार्गोऽयमिति मिथ्याज्ञानेन लांति उपादाइते ॥ श्रयमर्थः ॥ यथोनय. गतचाकचक्यादि सदृश धर्मोपलं नात् परस्परव्यावर्तक देशजास्यादिलेदधर्मानुपलंनाञ्चरजतेऽपि शुक्तिकायांरजतमेतदिति धिया ब्रांताः प्रवर्त्तते ॥
अर्थः---आशंका करीने कहे जे जे ते लिंगधारीयो पोतानी बुद्धि कल्पित मारगने ए प्रकारे बोलो तो पण ए वाणी स्वजावथी जै असत्यादि दोष सहित ने माटे तेने कोइ पण नहि ग्रहण करे. वारे ए वाणी कही ते न कह्या जेवी कमजे लोके ते वाणीनुं ग्रहण में कडं तेणे करीने तेनो पसार नहि थाय ए हेतु माटे ए प्रकारनी
आशंकानो नत्तर जे मूढ अज्ञानी लोको जे ते धर्मनो मिष ग्रहण करीने लिंगधारीओए प्ररुपण कों जे मत तेने अरिहंतना मतमी ब्रांतिवम एटले आज जैन मार्ग ने ए प्रकारे मिथ्या ज्ञाने कराने ए सिंगधारीश्रोना मतने ग्रहण करे ले तेमां था प्रगट अर्थ जे जे जैम रुपाने विषे तथा बीपने विषे चकचकाट श्रादिक सरखो धर्म
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(५२६)
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अब श्री संघपट्टक
रह्यो एटले ए बे धोलासथी तथा उज्वलपणाथी सरखां जणाय डे ए हेतु माटे तथा परस्परनी निवृत्ति करे ए प्रकारनो को जाति श्रादिकनो नेद धर्म पण जणातो नथ एटले विजाति धर्मवमे वस्तु जुदी जणाय ने ते तो रुपाने विष तथा बीपने विषे धोलाश थादिक सदृश देखाय ने तेथी ब्रांति पामेला पुरुषने बीप देखीने था तो रुपुंडे ए प्रकारनी बुद्धिवमे ब्रांतिए करीने प्रवृत्तिले तेम जे लिंगधारीयोथे पोतानी मतिए कल्पेला मारगने विषे मूढ पुरुषोने था तो जैन मारग डे एवी ब्रांति थाय .
टीकाः---तथेहापि सन्मार्गा सन्मार्गगतजिनदेवतान्युप गमबाह्यावेषादिसमानधर्माऽवगमादन्योन्यव्यववेदक विध्यविधि प्रवृत्यादिविशेषधर्मानवगमाच्च वितथत्वादिना वस्तुतोऽनई. न्मतेपि प्रकृतमार्गेऽहन्मतमेतदितिबुद्ध्या मूढाःप्रवर्तत इति॥ न केवलमेतत्कुमार्ग वदंति।मूढास्तु तं गृहंत्यपीति च शब्दार्थः॥ हो ति विषादे
अर्थः---वळी सन्मार्गने विषे' तथा असन्मार्गने विषे जिन देवतानो अंगिकार रह्यो ने ते बेने विषे बाह्यथी वेषादि समान धर्म रह्यो । तेनुं ते ब्रांति पामेला पुरुषोने ज्ञान नथी, माटे एम कहे
जे श्राज जैन मार्ग बे ने वळी विधि मार्गने विषेतथा अविधि मा. गने विषे प्रवृत्ति श्रादिक जे परस्पर नेद जणावनारो विशेष धर्म तेनुं ते त्रांति पामेला पुरुषोने ज्ञान नथी माटे एम कहे जे जे आज जैन मार्ग वस्तुताए तो एमां असत्यपणुं श्रादिक दोष रह्या २ माटे ए अरिहंतनो मार्गज नथी पण हाल लोकनी प्रवृत्ति मार्गने विषे
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- अथ श्री संघपट्टकः
( ५२७)
आज अरिहंतनो मारग वे ए प्रकारनी बुद्धिए मूढ पुरुषोनी प्रवृत्ति बे, पण विधिमारगना जाण पुरुषोनी प्रवृति यती नथी केमजे तेजा पुरुषो तो सन्मार्गने विषे अंगिकार करेला जे जिन देवता तेनुंज ग्रहण करे बे ने विधि मारगने विषे प्रवृत्तिरूप जे विशेष धर्म तेव जैन मतने ओळखीने तेने विषे प्रवर्त्ते बे. वळी या जगाए च शब्द बेतेन या प्रकारे अर्थ बे जे वळी लोक प्रवाहे या जैनमत बे एम जालीने केला मुढ पुरुषो या कुमार्ग बे एम केवळ कही शकताज नथी, एटलुंज नहि किंतु एटले त्यारे शुं करे बे? तो ग्रहण पण करे बे. एटले पोते मानेतुं मुकता पण नथी अहो आ तो मोटी खेद नरेली वात वे एम हो शब्दनो अर्थ बे.
टीकाः -- पुरं तदशमाश्चर्यस्थ
दुःखावसानांत्याश्चर्यस्य विस्फूर्जितं विजृंजितमेतदिति ॥ कथमन्यथा कुपथस्थाप्येतस्य बहुमुग्धजनोपादेयतास्यादतः कष्टमेतद्यदद्याप्ययं कुमार्गोऽस्खलित प्रसरोनुवत इति वृत्तार्थः ॥ २८ ॥
अर्थ :---दुःख एज बे अंतेफळ जेनुं एवं पूर्वे सर्व क ते दशमा आश्चर्यं प्रगटपणुं बे एटले दशमा आश्चर्यनो महिमा बे ने जो एम न होत तो ए कुमार्गनुं घया लोक केम ग्रहण करत. ए हेतु माटे एमोटी कष्टकारी वात थइ बे जे हजु सुधी पण ए कुमार्ग एवो चाले बे जे जेनो पसार खलना पामतोज नथी. एक बीजा पठवा चाल्यो आवे बे ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ यो शव
टीका:--- सांप्रतं मुग्धजनान् प्रति खमतं मोक्षपयतयादि
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(५२८ )
- अथ श्री संघपट्टकः
शतः सत्पथगामिनश्च धार्मिकान् स्ववचनानुरोधित्वेना इतया श्रवजाना नस्यकस्य चिद्यथा द्वंदाचार्य ग्रामयोऽप्रस्तुत प्रशंसया स्वरुपमाह ॥
अर्थ:-.हवे या काळमां जोळा लोक प्रत्ये पोतानो मतः मोक मारगपणे उपदेश करतो ने पोतानी इवाए जेम फावे तेम चालतो ने लोकमां मोटो थर फरतो कोइक आचार्य ते पोते - ज्ञानी बे माटे पोताना वचनने अनुसारे न चालतां ने सारा मारगे चालता एवा धर्मिष्ट लोकोनी अवज्ञा करे बे एटले तमे मास कलाप्रमाणे चालो अज्ञानीनी पेठे शुं चालो बो एम अपमान करे तेनुं स्वरुप प्रस्तुत प्रशंसा नामे अलंकारे करीने कहे बे. ते छा लंकार स्वरुप पण ए प्रकारनुं बे जे जे वात चालती होय ते न कड़े ने ते वातने अनुसरतुं दृष्टांत कहीने तेनो उपनय चालती वात संघाथे मेळवे. जेम सर्वे ब्राह्मणोनुं टोलुं बेटुं बे ते मध्ये एक संतोपी. ब्राह्मण एक यजमाननी याचना करे बे ते जेटलुं प्रापे ते लइने संतोष पामीने कोइ मोटा राजा साहुकार आदिकनी कंडुपण याचना कतो नथी. तथा ते कोइ पराणे पे तो पण ले तो नथी तेने देखीने कोइक कवि बोल्यो जे सर्वे पक्षी मध्ये एक चातक पक्षीने धन्य बे जे एक इंद्र विना एटले मेव विना बीजानी याचना करतो नथी.. तेमज या काव्यमा अजाणपणे दैव छाए साचे मारगे चालता: श्रांधळाने जन्माराथी अांधळो परदेश | कोइ पुरुष इसे बे जे रे. मूर्खो ! मारा का परमाणे चालो इत्यादि यगळ टोकाकार कदेशे एवा जाव गर्जितनुं ग्रंथकार काव्य कहे बे.
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ॐ अथ श्री संघपट्टक:
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(१२९)
॥ मूल काव्यम् ॥ कष्टं नष्टदिशां नृणां यददृशां जात्यंधवैदेशिकः कांतारे प्रदिशत्यनीप्सितपुराध्वानं किलोत्कंधरः॥ एतत्कष्टतरं तु सोपि सुदृशः सन्मार्गगांस्तहिद स्तमाक्याननुवर्त्तिनो दसति यत्सावझमझानिवारणा
टीका---कष्टं कुःखमेतन्न श्चेतसि वर्तते यत्किमित्याह॥यदितिवाक्योपदेपे ॥ यत्नृणामहशांजात्यं धवैदेशिकः कांतारेऽ. जीप्सितपुराध्वानं प्रदिशतोति संबंधः ॥ तत्र नृणां पुंसां नष्ट दिशां अलोचनत्वाकांतारपातेन दिग्मूढत्वाच्च प्रनष्टप्राची प्रतीच्या दिककुन्दिग्नागपरिजेदानां ॥ अदृशां काचकामला दि. ना हविकलानां न तु जन्मांधानां ॥ जात्यंधो जन्माजिव्या. प्त्या लोचनरहितः॥
अर्थः---जे आ तो हमारा चित्तने विषे मोटुं दुःख वरते डे, ते शुं तो ते कहे जे यत् ए शब्दनो अर्थ वाक्यने आक्षेप करनारो डे, माटे जे दृष्टि रहित एटले आंधळा पुरुषोने जन्माराथोज अंध थएलो परदेशी पुरुष अटवीने विषे इचित नगरनो मारग दे. खामे ले एम संबंध जे. तेमां आंधळा पुरुष केवा तो नेत्र नयो माटे महा अटवीमां पमतेणे करीने दिग्मूढ थयेला एटले पुर्व दिशा तथा पश्चिम दिशा इत्यादि दिशाना विनागर्नु जे जाणवू तेयो ज्रष्ट थयेला, काच कामलादिक कारणथी दृष्टिगोचर थयेला पण जन्माराना बांधळा नहि.
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(५३०)
+ अब भी संघपहकः ।
टीकाः-ननु सोपि तद्देशजात इतरेभ्यःश्रवणादिना विज्ञाय कथंचिदिष्टपुरपथं देक्ष्यतीति तत्रोक्तं वैदेशिक इति ॥ विदेशे योजनशतव्यवहिते देशांतरे जातो वर्धितश्चेति वैदेशिकः ॥ स हि तद्देश स्वरुप मात्र स्याप्यननिज्ञ त्वात्कथं प्रकृतमार्ग जा. नीयादपि ॥ ततः कर्मधारयः॥
अर्थः-श्राशंका करे ले जे जन्मारानो बांधळो पण तेज देशनों होय तो बीजा लोकथसांजळवू इत्यादिके करीने जाणोने को प्रकारे इच्छित नगरनो मारग देखामशे तो त्यां विशेषण कह्यु 'जे ए' परदेशी एटले सो योजन वचमां मूकीने देशांतरमा उत्पन्न थयो ने ने वृद्धि पाम्यो माटे ते या देशना स्वरुप मात्रनो पण जाण नथी तो इडित नगरना मार्गमे शीरीते जाणी शके ?
टीका:---कांतारे जनसंचारशुन्येदुर्गवर्त्मनि लोकसंचार मार्गे हि कदाचित् मार्गज्रांतानां पांथोपि संचरिष्णुः सुपंथानं दर्शयेत् ॥ प्रकोण अयमेवास्य पुरस्य पंथानान्य इत्यवधारण पूर्व नतु संजावनामात्रेण दिशति प्रतिपादयति अनीप्सितपु. रावानं जिगमिषतनगरमार्गकिलेति वार्ताय उत्कंधरःउग्रीवः कंधरामुन्नमय्य जुजदंगमुदिप्य कथयति नतु वचनमात्रेण॥ किलमार्गोपदेष्टा तदनिशे मागानुयोक्तातु तदवनिझोनवतीति लोकस्थितिः अत्र नुपदेष्टाजात्यंधत्वादिना सर्वथा प्रस्तुतपथं न जानाति अनुयोक्तास्त्वदृशोपि तद्देश्यत्वपूर्वानुजूतानुसंधान वत्वादिना तदनिमुखा व लयंते अतस्तदुपदिष्टपंथाः कथमि
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4. अथ श्री संघपट्टका
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ष्टपुरगामुकः स्यादथ च सतमुपदिशतीति कष्टमेतत् ॥ तु पुनर्थे - इदंवदयमाणं पुनःकष्टतरं पूर्वस्मादपि कष्टान्महत्कष्टं यत्कि
मित्याद ॥
. अर्थः-सूना मार्गमां केमके चालु मार्गमां तो कोश वटेमाणु पण वखते रस्तो बतावी दीए त्यां पण संजावना मात्र करे नहि पण निर्धारण पूर्वक चित नगरनो मार्ग तेबतावे .शी रीते ते कहे जे के बांह्यो ऊंची करीने, इहां लोक रीति एवी के मार्गनो उपदेशक जाण होय अने मार्गमां चालनार घणे नागे अजाण होय, पण इहां तो नपदेशक तदन जन्मांध ले अने चालनारा जनो जो के श्रांधळा तो पण ते देशना जन्मेला अने पूर्वे जरा जोमिया होवाथी मार्गने अनिमुख पमता देखाय ने माटे एवा जन्मांधनो बतावेलो मार्ग शी रीते इष्ट नगर प्रत्ये पहोंचे. बता ते मार्ग बतावे ने ए एक कष्ट डे, पण आवळी तेना करतां पण वधतुं कष्ट ते कहे .
टीकाः-सोपि प्रागुक्तो मार्गदेष्टा सुदृशो निर्मलनयमान त एव समार्गगान् इष्टनगर सुगमपथ प्रस्थितान् तद्विदः सम्यक् सन्मार्गज्ञान् यत् हंसति स्मयते सावमिति क्रियाविशेषणं सावलं ॥ अज्ञानिव मार्गाननिझानिव यथा मार्गाननिझा मार्ग मुपैदिशतंः नपहस्यंते लोकेन ॥ तथै तेपि यथा किमेते बा"लिशावायसा श्वा जन्मानुझितस्वदेशा मार्गा मार्गस्वरुपं विदति।
अर्थः ते शु कहे डे ते वात कही देखामे जे ते पूर्व
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(१२)
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बय श्री संघपट्टका है
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कझो एवो पण मारगनो देखामनार जे ते एटले जन्मारानो अंध पुरुष जे ते इच्छित नगर प्रत्ये सुगम मारगवमे चालनार जे निर्मळ नेत्रवाळा पुरुषो तेने हसे बे. अवगणना पूर्वक हसे ए क्रिया विशेषण जाणवू एटले लोक जे ते मारगनो अजाण ने वळी मारग. नो उपदेश करनार तेमने जेम हसे ले तेम ए पण साचे मारगे चालनारने पण इसे जेम अहो आतो मूर्ख होय ने शुं जन्मारायी प्रारंन्नीने पोतानो देश पण जेमणे डोम्यो नथी ते पुरुषो मारग अमारगना स्वरुपने शुं जाणे !
टीकाः-अहमेव शैशवाद वेक्षितनिखिलजनपदो विदित सकलग्रामनगरसमाचारः सवं वेदिमति कुत एवं सतानुपहसतीत्यताह ॥ तछाक्यान नुवर्त्तिनो जात्यंधवचनाननुरोधिन इति हेतुगर्न विशेषणं ॥ ते हीष्टपुरस्य सम्यग्पंथानं जानं तस्तछाक्यं य महं कथयामि स तन्नगर मार्ग इत्येवं रुपं नानुमन्यते ॥ तथा च सरुष्टःसंस्तानुपहसतीति ॥ एवं च स्वयं सर्वथा ख्रीष्ट पुरपथमजाननपि यत्त ज्ञान् हसति॥ तन्महाकष्ट मित्य. प्रस्तुतप्रशंसानेदः॥
टीकाः-ए तो हुंज जाणुं केमजे नानपणथीज जेणे देशदेशांतर समस्त दीग डे ने समस्त ग्राम नगरना समाचार जेणे जाएया ने माटे सर्व हुँ जाणुं बुं; ए प्रकारे ए लिंगधारी सुविहितने कहे जे. ए जगाए थआशंका करी विशेषण श्रापे जे जे शा कारणे ते तेमनुं उपहास करे ले तो ते कहे जे जे ते जन्मांध पुरुषना वचनने अनुसरता नथी, माटे ए हेतु गर्न विशेषण ले केमजे नि.
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4 जय श्रीसंघपट्टकः
( १३३ )
श्वे ते पुरुषो वांच्छित नगरना मारगने सारी रीते जाणे बे माटे पूर्वे कथं ए रुपनुं तेमनुं वचन मानता नथी माटे ते जन्मांध पुरुष तेमनुं उपहास करे बे. माटे जन्मांध पोते सर्व प्रकारे वांच्छित नगरना मारगने जाणता नथी तोपल मार्गना जाण पुरुषोनुं उपहास करे ने ते मोटुं कष्ट बे ए प्रकारे अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकारनो जेद थयो .
टीका:- तथा ह्युपमानेन तुल्ये प्रस्तुते उपमेयेसति यद प्रस्तुतस्योपमानस्य प्रस्तुततुल्यस्य प्रशंसनमनिधान मित्येतदस्य लक्षणं तुल्ये तुल्यस्य वच इति वचनात् ॥
अर्थः-- ते कड़े बे जे जे उपमाननी संघाथे उपमेयनी तुल्यतानो प्रसंग थावे सते जे उपमाननुं प्रस्तुत उपमेय संघा - थे तुख्यतानुं कहे ए अलंकारनुं लक्षण बे. जे तुल्यपणुं सते तेने तुल्य वचन कहेतुं ए प्रकारे अलंकार शास्त्रनुं वचन बे.
टीकाः — एवं चाप्रस्तुतमुपमानं योजयित्वा प्रस्तुत मुपमेयमिदानीं योज्यते ॥ कष्टमेतत् ॥ यन्नृणां सत्पथेच्तुपुरुषाणां नष्ट दिशां श्रतिमुग्धतया सत्पथकुपथ विभागान निज्ञानां श्रदृशां सम्यग्ज्ञानदर्शन विकलानां जात्यंधः सिद्धांत रहस्य लेशानभिज्ञः सर्वथाऽगीतार्थः ॥ सोपि गीतार्थ संवासादैः कथं चिन्मोक्षपथकथनप्रवीणः स्यात्तत्राह ॥
अर्थः- ए प्रकारे प्रसंग विना कयुं जे उपमान तेनी यो
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(-५३४ )
4 अथ श्री संघपट्टकः --
जना करीने ते वात चालता प्रसंग साथे हवे योजना करे बे. जे
तो मोटुं कष्ट बे जे साचा मारगने इच्छनाराने सन्मार्गने कुमार्गमा विभागने जाणता नथी माटे श्रति नोळा एटले अांधळा लो. कमे जन्मांध पुरुष एटले सिद्धांतना रहस्यनो लेशमात्रने पण न जाणतो सर्वथा श्रगीतार्थ पुरुष जे ते कदापि ए श्रगीतार्थ पुरुष पण गीतार्थनी सोबत कोइ प्रकारे मोक्ष मारगने कड़ेवा चतुर दशे एवी आशंका धारीने ते जगाए विशेषण कहे बे.
टीकाः - वैदेशिको ग हिताचारत्वादाजन्मागम निकष विडुरगीतार्थ मुनिपुंगव संगमात्रवर्जितः ॥ एषचाधुनिक डुः संघ प्रवरो निःशंकं निःश्रेयसपथप्रत्यर्थिमार्ग प्रथनदी कितो यथानंद शिखामणिः कश्चिदाचार्यो मंतव्यः ॥ कांतारे महाटव्यां प्रदिशति श्रयमेव मडुपदिष्टो मोक्षमार्ग इति प्रज्ञापयति श्रभीप्सितपुराध्वानं मुक्तिमार्ग उत्कंधरो दर्शिताकार विकारः ॥
अर्थः- जन्मांध पुरुष केवो बे तो परदेशी एटले कोइक निंदित श्राचारवाळो बे, माटे श्रागमनी कसोटीना जाए गीतार्थ मुनिराजना संग मात्रथी रहित एवो आ हाल कालनो दुराचार | संघ मध्ये श्रेष्ठ ने निःशंकपणे मोक्ष मार्गनो शत्रुरूप जे मार्ग तेनो विस्तार करवाने दीक्षावाळो थयेलो एवो ने पोतानी वामां आवे तेम चालनार जे पुरुष ते मध्ये शिरोमणि एवो कोइक आचार्य जावो. ते मोटी खटवीने विषे कड़े बे जे आ हुं कहुं हुँ, उपदेश कलं बुं एज मोक्षमार्ग बे. एम अहंकारनो विकार देखामाने मोक मार्ग देखाये बे.
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48. अथ श्री संघपट्टका
(५३६)
टीका:-तथा च सोऽगीतार्थ उत्सूत्रनाषक अनिनिवेशिक मिथ्याष्टिकथंचिदपि सत्यं मुक्तिपथं नवेति नाप्यन्येन गीतार्थे न प्रतिपादितोपि प्रत्येति ॥ नरास्तु मुक्तिपथपर्यनुचोक्तार आजिग्रहिकादिमिथ्याहशस्तत्रापि किंचित्सन्मार्गानिलाषुका नपदेष्टरपेक्ष्या सारतरविनागेन किंचिदशास्तथा च तत् प्रज्ञा सोध्वा कथं तेषांमुक्तिपुर प्रापकःस्यात्तथापि सतेज्यस्तं प्रदर्शयतीति जवति कष्टं ।
अर्थः-वळी ते अगीतार्थ एटले उत्सूत्रनो नाषक श्र. निनिवेशिक मिथ्या अष्टिवाळो ए को प्रकारे पण मुक्ति मार्गने नथी जाणी शकतो ने को बीजो अगीतार्थ पुरुष तेणे करों होय तो पण ए नथी जाणी शकतो ने जे मुक्ति मारगने अनुः सरेला पुरुष ते तो आनिग्रहीकादि मिथ्याष्टिवाळा माटे तेमां पण कांक सन्मारगर्नु अनिलाष पणुं रथु डे माटे अतिशे सारना विजागे करोने उपदेश करनार पुरुषनो अपेक्षाये कांक जाणपणुं थाय ले माटे ते जन्माराना अंध पुरुषे कहे तो जे मारग ते तेमने मुक्ति नगर प्रत्ये पमामनार केम थाय ! नज थाय. तोपण तेजन्मांध पुरुष तेमने मारग देखा ए मोटुं कष्ट .
टीकाः-एतत्कष्टतरं वितिपूर्ववत् ॥ सोपि प्रागनिहितो यथाबंदाचार्यः सुदृशः सम्यग्ज्ञानदर्श नयुजः सन्मार्गगान् झानदर्शनवारित्रलदरानुक्तिपथप्रवृत्तान् तहिदो मुक्ति मार्गाविज्ञान् धार्मिकान् सुविहितसाधून् यत् इसति सावकमर ज्ञानिव ॥ यथा किममो अमोतार्था. मूर्खसिरोमण्यः सिहांत .
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8. अब श्री संघपट्टकः
रहस्यमवस्यति ॥ अहमेव सकलश्रुतपारावारपारदश्वा ॥ ततोयमहं ब्रवीमि समुक्तिमार्ग इति ॥
अर्थः-वळी श्रातो अतिशेज मोटुं कष्ट डे इत्यादि पूर्वनी पेठे जाणवू ते पूर्वे कह्यो एवो पोतानी श्छा प्रमाणे चालनारो कोशक आचार्य जे ते सारा ज्ञानदर्शने युक्त ने ज्ञानदर्शन चारित्र ले लक्षण जेनुं एवो जे मुक्तिमार्ग तेने विषे प्रवर्तेला ने मुक्ति मा. र्गना जाण एवा जे सुविहित साधु तेने इसे ले जेम अज्ञानिने अपमान सहित हसे ले तेम ते वात कहे जे जे अहो था अगोतार्थने मूर्ख शिरोमणि एवा डे ने सिद्धांत रहस्यने नाश करनारा ले ने हुंज समस्त सिद्धांत समुन्नो पारगामीळ माटे हुँ जे बोलुंडं एज मुक्ति मार्ग डे इत्यादि.
टीकाः-किमित्येवमुपहसती यत आह ॥ तहाक्यानभुवर्तिनोयतस्ते गीतार्थ । नुत्सूत्रं मुक्तिपथप्रतिपादकं तद्वाक्यं नानुरुध्यंत इति ॥ अतएव दुःखमासमयजिनशासन नविष्य दशुननाव सूचक दुस्वप्नाष्टकांतः स्थवानरफलं विवृएवताहरि जासूरिणानिहितं ॥
अर्थः-हवे ए केम एम उपहास कर ले तो त्यां कहे जे जे जे हेतु माटे ते गीतार्थ जे ते उत्सूत्र एवं मुक्ति मार्गने प्रतिपादन करनार तेमनुं जे वचन तेने अनुसरता नयो ते हेतु माटे एज का. रण माटे उखनासमयने विवे जिन शासनमां थशे एवा जे अशुन नाव तेनी सूचना करनार जे आठ मार्ग स्वप्न तेन मध्ये वानर फळ स्वमनो विस्तार करता हरिन सरिए कडु डे के.
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9. अथ श्रीसंघपट्टक:
टीका:बहु वानरमज्झगया-तव्वसहा असुश्णा विलिपंति॥ अप्पाणं अन्नेविय तहाविहं लोगहसणं च ॥ विरसाए मलिंपणया, तदन्नखिंसा न एयमसुत्ति ॥ मुनिणो यं एयस्सन, विवागमो नवरमायरिया ॥
टीका:-किल कस्यचित् पार्थिवस्य स्वदृष्टस्वप्नफलं पर्य: नुझुंजानस्य नगवान् श्रीमहावीरः समादिदेश॥ मयि मुक्तिमुपेयुष्याचार्या एवं विधानविष्यति॥यथा चापलादिना वानरयूथाधिपकल्पा आचार्या बहवः पुरीषतुल्योत्सूत्रप्ररूपणेनात्मानं पा.
वर्तिनश्च धेदयंति ॥ विरलतराश्च तन्मध्यानात्मानं नाप्यन्यानु सूत्रेण खेप्स्यति॥
अर्थः--निश्चे कोशक राजा पोते दीर्घ्य जे स्वप्न तेना फळने जाणवानो विचार करीने श्री महावीर स्वामिने पूछना लाग्या त्यारे जगवान् तेने कहे जे जे, हुँ मुक्ति पामे ते श्रा प्रकारना आचार्यों थशे ते कहे जे जे चपळपणुं इत्यादि गुणवमे घणा आचार्यों वानरना टोळानो जे अधिपति मोटो वानर तेना जेवा थशे. ते विष्टा जे जे उत्सूत्र तेना प्ररुपणे करीने पोताना आत्माने तथा बीजा पोतानी पासे रहेनार लोकोने खेप करशे तेमां अतिशे थोमा लोको पोताना आत्माने तथा बीजाने उत्सूत्रवमे नहि लीपे.
टीका:-तथा चात्मानमुत्सूत्रेणा दिहानांस्तानवलोक्य तेह
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( १३८ )
4 अथ श्री संघपट्टकः --
सिष्यंति ॥ अहो एते बालिशाः शुद्ध सिद्धांतदेशनामलयजर सेन सुर जिला ने ननात्मानं चर्चयं । [त। तदेतेषां यथोक्तागमार्थनाषकगीतार्थोपहसनंकुलधर्मः ॥ एवं च यत् स्वयमगीतार्थ निलयोपि गीतार्थानवमन्यते संप्रतितनरुढ्या तन्मदाकष्टमि त्युपमानोपमेययोस्तुल्यतया योजना ||
अर्थ:----वळी पोताना आत्माने नत्सूत्रवमे लेप नहि करनार एवा ते गीतार्थोने जोइने ते गोतार्थ पुरुषो एम कहे बे जे अहो मातो अतिशेज मूर्ख बे जे सिद्धांतनी देशनारूप जे मलयचंदननो सुगंधीमान रस तेथे करीने पोताना आत्माने चर्चता नथी माटे ए
गीतार्थ पुरुषो जेबे तेमने श्रागमना अर्थने जापण करनार एवा गीतार्थ पुरुषोनुं जे उपहास्य करवुं ते एमनो कुलधर्म बे ए प्रकारे जे पोतेज गतार्थतुं घर ढे तो पण या कालनी रूढिए करीने जे गीतार्थ पुरुषोनी गणना करे बे ते मोडुं कष्ट बे एम उपमान ने उपमेय वस्तुन तुल्यपणानी योजना करवी.
टीकाः अत्र च मुग्धजनपुरतो निरंकुशं स्वकल्पितं चैत्यावासादिकमुत्सूत्रपथं प्रथयन् विविविषयपारतंत्र्यप्ररूपणा निपुणान् सुगुरुसंप्रदायवर्त्तिनः सुविहितानसूययोपहसन् संप्रति वर्तमानः कुतंवा वागतया जंग्या कविना प्रतिपादित इति वृत्तार्थः ॥ २९ ॥
अर्थ:-..हां नो लोकोतासाने निरंकुश से कल्पित
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अथ श्री संघपट्टका
(५३९)
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चैत्य वासादि उत्सूत्र बतावनार अने विधिमार्गनी प्ररुपणा करवामा निपुर्ण श्रने सुगुरुना संप्रदायमा वर्तनार सुविहित जनोनी हांसो करनार एवा श्राज कालना श्राचार्यों कविए था नंगीथी बतावी थाप्या .
टीकाः-सांप्रतं श्रुतपथावाधार मुपसंजिहीर्षुः शुजिन मार्गस्य पुष्टोपचितसमुदितकारणकलापेन संप्रति उर्खनत्वं प्रतिपादयन्नाह ॥
- अर्थः-हवे सिद्धांत मार्गनी अवगणनानुं जे द्वार तेनी स. माप्ति करवाने श्चता ग्रंथकार जे ते पुष्ट पुरुषोए वृधि पमाड्या जे. घणांक कारण तेना समूहे करीने श्रा मुखम काळमां शुफजिनराजनो जे मार्ग तेनुं उर्खन्नपणुं एम प्रतिपादन करता उता मंथकार कहे .
मूल काव्यम्॥ सैषा हुँमावसर्पिण्यनुसमयहसद्भव्यनावानुलावा । त्रिंशश्चोग्रग्रहोऽयंखखनखमितिवर्षस्थितनस्मराशिः॥
अंत्यं चाश्चर्यमेतजिनमतहत येतत्समा कुषमाचे । त्येवं पुष्टेषु दुष्टेष्वनुकलमधुना दुर्खनो जैनमार्गः ॥३०॥
टीकाः-या श्रागमग्रंथेष्वागामितया लिखिताकएयते सा. एषा संप्रति काकस्या प्रत्यक्षवेपि तनवकार्याणा
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११४०)
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अथ श्री संघपट्टका
प्रत्यक्षोपलंनोपचारा देषेत्युक्तं ॥ अवसर्पति प्रतिक्षणमायुःशरी रप्रमाणादयो नावा हानिं गळंति प्राणिनामस्यामित्यक सर्पिणी सिझांतप्रसिकः कालविशेषः॥ टु सकलांगोपांगानों यथोक्तमानवैकल्पहेतुः षष्टं संस्थानं तेनोपलदित अवसर्पिणी हुमावसप्पिण। व्युत्पत्तिमात्रं चेदं॥
अर्थः-जे श्रागम ग्रंथोने विष हुँमावसर्पिणी आवशे, एम सखेखू संनळाय ने तेज था वर्तमान काळे प्रत्यक्ष जणाय बे. केमजे यद्यपि कालर्नु अप्रत्यक्षपणुं जणाय ने तो पण ते काळमां उत्पन्न यवानां जे कार्य तेनुं श्रा काळमां प्रत्यक्षपणुं ने ए हेतु माटे श्रा हुँ. मावसर्पिणी प्रत्यक्ष एम कडं. जेने विषे प्राणीनां श्रायुष्य तथा शरीरनुं प्रमाण इत्यादिक जाव हानिने पामे वे एवो अवसर्पिणी सिद्धांतमां प्रसिक काळ विशेष ले ने हुंम एटले समस्त अंग उपांगर्नु जेम शास्त्रमा कयुं ते प्रकारर्नु परिमाण हाल जणातुं नथी तेनुं कारणरुप जे बईसंस्थान तेणे करीने श्रा लेवाखमां का. वती एवी श्रा हुँमावसर्पिणी जे ए प्रकारे श्रा हुंमावसर्पिणी श. ग्दनी व्युत्पत्ति मात्र .
टीकाः--तत्वतस्त्वनंततमकालनाव्यसंयतपूजानिबंधनं . चैत्यवास्युत्पादहेतुः शुननावहानिकारणं कालनेदो हुंमा. बसार्पण॥ सा च नगवति मोदंगते जातेति ॥ समयः परमसू. क्ष्मः कालस्ततश्चानुसमयं प्रति नव्यानां मुक्तिगामिनां अथवा नव्याःशुना नावाःपरिणामा अनुन्नावाश्च प्रजावा मतिनिश्चयावा ततश्च हसंतोहीयमाना नव्यनावानुन्नावा यस्यां सा तथा।
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-42 जय श्री संघपट्टकः
(६१३.) .
माक्सर्पिएयां हि कालस्वानाव्याद्धर्मार्थिनामपि प्रायेण नावा यादृशा वर्त्तमान क्षणेन तादृशाः क्षणांतर इत्यादिक्रमेण प्रतिकां संक्लेशतारतज्याघ्राततयोपजायमाना नपलच्यते ॥
अर्थः---वस्तुताए तो प्रतिशे अनंतो काल जतां नारी जे श्रसंजतिनी पूजा तेनुं कारण ने चैत्यवासीनी उत्पत्तिनुं कारण ने 'शुभ जावनी हानिनुं कारण एवो जे कालभेद तेने ढुंगावसर्पिही कड़ीए, ते जगवंत मोक्ष गये बते थइ. परम सूक्ष्म एवो जे काल तेने समय कहीए. ते समय समय प्रत्ये मुक्ति जनार प्राणी ना पण जाव अथवा तेमना पण शुभ नाव एटले परिणाम तथा अनुभाव कहतां प्रजाव अथवा बुद्धिना निश्चय ते जेने विषे हानि पामे बे तेने हुंमावसर्पिणी काल कहीए. ते कालना स्वनावधीज धर्मार्थी प्राणीनुना पण नाव बहुधा एवा देखाय बे जे जेवा वर्त्तमान क्षणमां देखाय वे तेवाज बीजा क्षणमां नथी देखाता - त्यादि क्रमवमे कण कण प्रत्ये संक्वेशन तारतम्ययोगे सहित थ येला जणाय वे.
टीका:---- तथा च प्रकरणकारेणैव प्रकरणांतरे प्रदर्शितं ॥ कालस्स श्रइकिलिङ नणेण श्रइसे सिपुरिसविरहेण ॥ पायम जुग्गतेय, गुरुकम्मत्तेणय जियाल || किर मुणिय जिणमया बिदु, अंगी कयस रिसधम्ममग्गा वि ॥ पायमइसं कि लिहा, धम्म श्री वित्थ दीसंति ॥
अर्थ:----वळी प्रकरणना कर्ता पुरुषेज बीजा प्रकरण मां पण ए· बात देखामी बे जे.
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(५४२ )
- अथ श्री संघपट्टकः
टीका :-- अत्र च दूसदित्यनेन संयोगपरत्वेपि पूर्ववर्णस्य न गुरुत्वं ॥ बंदः शास्त्रे व्यवस्थितयानुवृत्त्या क्वचित्तनिषेधात् ॥
अर्थ:- या त्रीशमा काव्यमां दूसत् ए प्रकारना पदव संयोगनुं परपं सते पण पूर्व अरने गुरु संज्ञा थवाथी वृत्तनंग थयो एम न जावं. केम जे बंद शास्त्रमां विकल्पनी अनुवृत्ति ला वीने कोइ जगाए गुरु संज्ञानो निषेध कर्यो ने ए हेतु माटे.
टीकाः -- तथा त्रिंशः जिन सिद्धांतोक्ताष्टाशीतिग्रहमध्या त्रिंशतः पूरणः ॥ चः समुच्चये ॥ उग्रग्रहो जिनप्रवचनस्योदग्रो पसर्ग वर्गकारित्वाद्दारुणो ग्रहः ॥ अयमेव प्रत्योपलभ्यमानकार्यो जस्मराशिनामा खमाकाशं तस्य च शून्यत्वात्खमिति गणित व्यवहारे शून्यबिंदोः संज्ञाः ॥ नखाइति च विंशतेः संज्ञा ॥ नखानां विंशतिसंख्यत्वात्ततश्च खं च खं च नखाश्चेति द्वंद्वः ॥ तैः पश्चानुपू. off करचनया स्थापितैर्मितानी परिसंख्यातानि वर्षाणि संवत्सराः स्थितिरेकस्मिन् राशाववस्थानं यस्य स तथा ॥ एकराशौ वर्ष सहस्रप्रय स्थितिकइत्यर्थः ॥
अर्थ :--- त्रिशमो ग्रह एटले जिन सिद्धांतमां कहेला - व्याशी ग्रह ते मध्ये श्राजस्मग्रह त्रिशमो बे. चकार समुच्चय अर्थने जावे . ए स्मग्रह नग्रग्रह वे एटले अति आकरो ग्रह है. केमजे जिन प्रवचनने मोटा आकरा उपसर्गने करनार बे. माटे महा दारुण को बे ते या प्रत्यक्ष जेनुं कार्य जयाय डे एवो ज स्मराशिनामा ग्रह बे हजार वर्षनी स्थितिवाळो बे. ते वरसनी सं
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अथ श्री संघपट्टकः
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(५४३)
ख्या या प्रकारे करी जे जे ख केतां आकाश तेनुं शून्यपणुं २ माटे ख.शब्दवमे बिपु ग्रहण करवो एवो शास्त्र व्यवहार जे.बिंदु कहवो होय त्यारे तेनो संज्ञा ख शब्दवमे थाय . नख ए प्रकारे वीशनी संज्ञा . केम जे वीश नख मनुष्यने डे माटे. खंखं नख ए त्रण पदनो इंछ समास करवो. पळी पश्चानुपूर्वी ते अंक करीए एटले विपरीत करीए त्यारे बे हजार वर्ष सुधी एकराशि नपर जस्मग्रहनी स्थिति दे एम अर्थ थयो.
टीकाः–स हिग्रहो नगवनिर्वाणकालानंतरं वर्षसहस्रष्यं यावत् क्रूरत्वाद्नगवजन्मराशौ संक्रांतत्वाद् जगवंतं च मुक्त खेन पुःखीकर्तुमशक्तत्वात्तत्पश्तयैव प्रवचनस्य बाधां करिष्यति॥
अर्थः ते ग्रह जगवत् निर्वाण थया पडी बे हजार वर्ष सुधी जे. क्रूरपणे जगवत्नी जन्मराशीमां संक्रम्यो २ ते जगवंत मुक्ति गया जे माटे तेनने दुवो करवा समर्थ नथी थतो. ते हेतु माटे तेमना पक्षरूप जे प्रवचन तेने बाधा करे.
टोकाः-दृश्यते च लोकेपि कश्चित् कस्यचित् स्वप्रतिपक्ष स्य किंचिदपकर्तुमपारयो तरकारेणापि तस्यापकृतं नविष्य तोति मूढतथा मनति निधाय तय तालशं चापकुर्वाणः ॥
अर्थः-लोकमां पण एवी वात देखाय ले जे कोइक पुरुष कोक पोताना प्रतिमहि शत्रुने कार पण अाकार करवा न समई
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48. अथ श्री संघपट्टका
थाय तो ते पुरुष ते शत्रुना संबंधीनो अपकार करीने पण ते शत्रु नो अपकार कर्यो एम मूढपणे मनमा धारीने ते शत्रुना पक्षपाति नो तथा तेना जेवानो अपकार करे .
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥
त्वं विनिर्जितमनोनवरुपः, सा तु सुंदर नवत्यनुरक्ता ॥ पंचनियुगपदेव शरैस्तां, तामयत्यनुश या दिव कामः॥
अर्थः ते वात ग्रंथांतरमां कही जे राजिमतीनो त्याग करनार नेमिनाथ प्रत्ये राजिमतीनी सखीन वचन " जे हे सुंदर जेणे कामदेवर्नु रुप जीत्युं बे एवा तमो गे ने ते मारी सखी तो तमारे विषे अति आसक्त थडे माटे ते कामदेव तमने. परानव करवा न समर्थ थयो माटे पश्चात्तापथी एटले तमारं वेर वाळवा ते राजिमतीने पांच बाणवमे संघाथे तामन करे बे.
टीका:----तथा ॥ यस्य किंचिदपक मनमः, कायनिग्रह गृहीतविग्रहः॥ कांतवत्रसदृशाकृति कृती, राहु रिंमुमधुनापि बाधते ॥
अर्थ-जुवोने लोकमां पण ए वात प्रसिद्ध जे जे हरिनो केइ पण अपकार करवा न समर्थ थयेलो ने पोतानां शरीरने हरिए मादा कर्यु डे तेथी विरोध ग्रहण करतो एवो राहु जे ते इस्निा
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4 अथ श्री संघपट्टकः
(५४५ )
मुख सरखी जेनी प्राकृति बे एवा चंद्रने हजी सुधी पण पोमे बे. aौकिक शास्त्रमां एव वात बे जे देव दैत्योए मळी मंद्राचल पर्वतनो रवैया करी वासुकी नागनां नेत्रां करी अमृत कहा मयुं त्यारे देवतान | पंक्तिमा दरिए घाव अमृत पीरसवा मांगयुं त्यारे राहुए कपटथी सूर्य चंद्र ए वे देवता वच्चे पेली नचुं मुख करी अमृत पीधुं ने गळे नथी नता एवामांज हरिए सुदर्शन चक्राने एवं मायुं दैत्य जाणीने काप्युं त्यारे राहु हरिने कांइ पण अपकार करवा न समर्थ थयो त्यारे हरिना मुख जेवो चंद्रने जोइ तेने हजु सुधी पण ग्रहणरूपे थने पीमा करे ठे.
टीकाः तथा छत्यं दशमं चः पूर्ववत् श्राश्वयं अनंत तमकालजावित्वादद्भुतम संयतपूजाख्यं एतत् इदानीं प्रत्यक्षं जिनमतहतये श्रातप्रवचनां पञ्चाजनापादनाय ॥ तत्समानैः प्रागुक्तैस्त्रिभिः समा तुल्यबला पुष्यमा डुष्टाः लोकदुःखकारिण्यः समा वर्षाणि यस्यां सा तथा ॥
अर्थः- वळी बेल्लुं दशमं आश्चर्य, चकारनो अर्थ पूर्वन । पेठे जावो. ते संपति पूजा के नाम जेतुं एवं अद्भुत आश्चर्य तेनुं श्रतिशे अनंत काळ गयेथी थत्रापणुं वे ए हेतु माटे एने अ
तक बे ते हालमा प्रत्यक्ष जिनमतने नाश करवा हिलना पमानवा थयेलुं जणाय वे. पूर्वे कलां त्रण जे एक तो दुगावसपिणी तथा जन्मग्रह तथा दशमं आश्चर्य तेमणे समान एटले ए त्रण सरखो बलवंत दुष्यमा काल वर्ते बे. लोकने दुःखकारी बे वर्ष ते जेने विषे ते डुष्मा कहीए.
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(५४६)
-g. अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः-कालचक्रस्य षमरकस्य पंचमोऽरकः यथा प्राक्तना स्त्रयः समुदिता जिनमतं निघ्नंति तथा चतुर्थी पुष्यमापि॥
॥ यमुक्तं ॥
नत्कर्षवत्पुरुषसिंह वियोगतोऽमी, नस्मग्रहप्रभृतयोऽहित. वारणा ही ॥ जैनं मतं नुवि महावनमस्तशंका, नंक्तुं कथं सपदि संप्रति संप्रवृताः ॥
अर्थः-- जेना श्रारा ने एवं काल चक्र तेनो आ पांचमो आरो जे. जेम पूर्वना त्रण एटले हुँमावसर्पिणी तथा नस्मग्रह तथा दशमैं आश्चर्य ए सर्वे मळी जिनमतने हणे ने तेम चोथो था दु.
मा काल पण जिनमतने हणे . ते प्रकरणकारे का जे, नत्कर्षवाळा ने पुरुषोमां सिंहसमान एवा मोटा पुरुषोना वियोगथी आ नस्मग्रह आदि मदोन्मत्त हस्ति पृथ्वीमां जैनमतरुपी महा व. नने निश्चे नागवा शंका रहित हाल केम शीघ्र प्रवर्त्या ?
टीकाः-चः पूर्ववत् ॥इति प्रकरणे ॥ एषु प्रकृतेषु ढुमावसर्पिण्यादिषु एवं प्रदर्शितप्रकारेण प्रतिपदं सुविहितलाघवाs. संयतगौरवापादनलदणदुष्टकार्यदर्शनाद् उष्टेष्विव कुष्टेषु क्रूरेषु पुष्टेषु प्रकर्षकोटि प्राप्तेषु हुंमावसर्पियादिषु चतुर्बु नुकूलं प्रतिसमयं अधुना सांप्रतं उलनो पुरापो जैनमार्ग प्रतिपत्ति विघ्नकारियां हुँमावसपिण्यादीनां दुष्टत्वात् ॥ . . .
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49. अथ श्री संघपट्टकः
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(५४७)
अर्थः-चकारनो अर्थ पूर्वनी पेठे बे. ए प्रकारे हुँमावसपिणी आदिक आरंजेला प्रकरणने विषे पूर्वे देखामयु ए प्रकारे प. दोपदि सुविहितनुं लघुपणुं ने असंजतिनुं गौरवपणुं तेने करवा रुपी डे लक्षण जेनुं एवं जे दुष्ट कार्य तेना देखवाथी दुष्ट जेवा महा आकरा हूंमावसर्पिण आदिक चार दुष्ट मोटा उत्कर्षने पामे बते सांप्रत काले समेसमे जैन मार्ग पामवो घणो दुर्लन्न ले केम जे जैनमार्ग पामवामां विघ्नकारी हूंझावसर्षिण आदिकनुं पुष्टपणुं ले ए हेतु माटे.
टीकाः-तन्महिम्ना नूयोलोकस्य जवाजिनंदित्वात्कतिपयसात्विकजनोपादेय इति यावत् ॥ जैनमार्गः प्रतिश्रोतोरुप जगवत्पथः। एतन्मध्यादेकोपि पुष्टःपुष्टः स्वकार्यकरणसमर्थः किंपुनः संप्रति सर्वेऽपि मिलिताः॥ ततो यथा पुष्टेषु चरटादिषु प्रत्नविष्णुषु पुरादिमार्गो जिगमिषतां उर्गमो नवति तथा नगवन्मार्गोप्यधुनैतेषु सत्स्विति ॥
अर्थः--ते हुँमावसर्पिणी श्रादिकना महिमा वझे घणा लोकोने जवाजिनंदिपणुं थयु डे ए हेतु माटे, थोमाक सात्विक लोकोए जैन मार्ग ग्रहण कर्यो बे. केम जे जगवंतनो मार्ग ले ते प्रवाह मारगथी विपरीत . हुंमावसर्पिणो श्रादित्रण दुष्ट कारण मध्ये एक कारण पण जो पुष्ट थाय तो पोतानुं काम करवा समर्थ थाय . तो सांप्रत काळे सर्वे दुष्ट कारण एकगं मळ्यां तेमां शुं कहे ? ते हेतु माटे. जेम पुष्ट चौरादिक अति समर्थ थये बते नगरादिकनो मारग जवाने श्च्छनार लोकोने मुर्गम थाय बे एटले
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(986)
- अथ श्री संघपट्टकः 8
दुष्ट चौरादिना जयथी ते मार्गे जइ शकातुं नथी तेम जगवाननो मार्ग पण दालमां ए त्रणेनुं घणुं बळ थये बते सहज पमाय एवो नथी. महा दुःखी मार्गानुसारीपणुं पमाय बे ए जावः
टीकाः - श्रागमेप्युक्तम् ॥ दूसमहुंमावसर्पिणी जसमग्गपीयिं इमं तिथं ॥ | तेण कसाया जाया, कूरा इहसंजयालं पि॥
अर्थः- आगममां पण ए वात कही बे जे दुषमा काल डुंगावसर्पिणी रुप तथा जस्मग्रह तेणे या तीर्थ पीमयुं बे ते माटे संजतीने पण करा कषाय उत्पन्न याय बे.
टीकाः - अनुश्रोतोरुपस्तु जैनमार्ग इदानीमपि सुलनः येषामेव मावसर्पिण्यादीनां सन्मार्गप्रवृत्तिं प्रति प्रातिकूल्यं तेषामेवासन्मार्गप्रवृत्तिं प्रत्यानुकूल्यादिति ॥
अर्थ :- लोक प्रवाह रुप जैन मार्ग तो सांप्रत काळमां पण सुगम जे मावसर्पिणादिकने सन्मार्गमां प्रवृति करवा प्रत्ये प्रतिकूलपपुंज बे तेमनेज असन्मार्गमां प्रवृत्ति करावा प्रत्ये अनुकूल बे एटले सुखे करावे बे.
टीकाः - इत्थं यद्यपि लिंगिनिः प्रकटिता भूपृष्ट ऋत्स्नावनीरुयत्र मितावतः श्रुतपथावज्ञानसंज्ञान्वितैः ॥ कल्पेनापि - कलावता कलयितुं साकल्पतो दुःशका, संबोधाय तथापि मूढ मनसामेषा दिगादर्शितेति वृत्तार्थः ॥ ३० ॥
इति श्रुतावज्ञा नामे नवमो द्वार संपूर्ण थयो.
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-18 अथ श्री संघपट्टकः 8
( ५४९ )
टीका:- एवं तावदष्टादशनिर्वृत्तैः प्रबंधेन लिंगिनां श्रुतपथावज्ञा प्रतिपादिता ॥ संप्रति तैरेव धर्मतया प्रतिपादितं गुणिद्वेषधीरिति द्वारं निराकुर्वस्तेषां गुणिद्वेषं दर्शयन्नाद ||
अर्थः- ए प्रकारे दार वृत्तबंधि काव्यना विस्तारवमे लिंगधारियोनी करेली सिद्धांत मार्गनी अवज्ञा एटले अवहेलना ते कही देखामा. हवे सांप्रत काले ते लिंगधारीउए जे धर्मपणे प्रतिपादन करेलुं गुणि द्वेषधी एटले गुणि पुरुषोना उपर द्वेष बुद्धि राखे बे ते द्वारनुं खंगन करता बता ते लिंगधारीनने गुणिजन उपर द्वेष बे तेने देखामता बता कड़े बे.
मूल काव्यम्.
सम्यग्मार्गपुषः प्रशांतवपुषः प्रीतोल्लसच्चक्षुषः श्रामण्यर्द्धिमुपेयुषः स्मयजुषः कंदर्पकक्षप्लुषः ॥ सिद्धांताध्वनि तस्थुषः शमजुषः सत्पूज्यतां जग्मुषः सत्साधून् विदुषः खलाः कृतदुषः क्षाम्यंति नोद्यदुषः ३१
टीकाः - खलाः सत्साधून् न क्षाम्यंतीति संबंध॥ तत्र खला गुणी मत्सरिणः प्रकरणां गिनः कृतदुष इति ॥ दुषधातुः क्वि तोऽत्रदोषपर्यायस्ततश्च कृता विहिता दुषो दोषाः स्वयमनेकानर्था यैस्ते तथा ॥ तत्स्वभावत्वात्तेषां ॥ अथवा कृताचारो पिता दुषो दोषा यैस्ते तथा ॥
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(५५० )
- जय श्री संचपट्टकः --
अर्थ:- खल पुरुष साधु उपर कमा नथी राखता. खल ते कीया पुरुष जाणवा तो गुली पुरुषो उपर मत्सर राखनारा ते या प्रकरण वशथी लिंगधारी जाणवा. ते केवा बे? तो कर्या बे पोतानी मेळे अनेक प्रकारना अनर्थ ते जेम एवा बे. केम जे ए लिंगधारीने अनर्थ करवानोज स्वभाव होय ए हेतु माटे. अथवा गुणी पुरुषोने विषे यारोपण कर्या बे दोष ते जेमले एवा बे. विकार वाचक दुष घातुनुं दोष रूपी पर्याय शब्द वाचक दुष ए प्रकारनुं क्वित रूप बे.
टीका: --- निर्मलेष्वपि सन्मुनिगुणेषु लोकमध्ये लाघवापादनाय स्वधिया विहितदोषारोपा इत्यर्थः ॥ गुणवत्स्वसद्दोषारोपणस्य तेषां कुलनतत्वात् ॥
॥ तदुक्तं ॥
लाजार्थं मलिनांशुके कितवतां कष्ट क्रियाधां । येन, प्राहुदजिकताम निग्रहरुचौ पंक्त्यर्थतां कंतरि ॥ गुप्तांगे बकवृत्तितां च तपसा शस्ये नमस्येच्छुता मित्थं हंत न दुषयंति यतिनां ही लिंगिनः कान् गुणान् ॥
अर्थ :--- निर्मळ एवाय पण सारा मुनिना गुण विद्यमान ढ़ते लोकमां ते मुनियोनी लघुता प्रतिपादन करवा सारु पोतानी बुद्धि ahaja दोषनं आरोपण ते जेमणे एवा लिंगधारी बे. केम जे गुणीजनने विषे जूता दोषनं श्रारोपण कर ए प्रकारनं ए लिंग
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-49. अथ श्री संघपट्टकः
(५५१)
धारीऊना कुलनुं व्रत डे एटले लींगधारीउनी कुळ परंपरा ए प्रका. रनीज . ते शास्त्रमा कडं जे जे लिंगधारी गुण पुरुषना गुणने विषे आ प्रकारे दोषन आरोपण करे . जे गुण। पुरुषो जो मलीन वस्त्र राखे तो तेमां आवो दोष दे जे जे एतो लोजने अर्थे एवां वस्त्र राखे डे एटले कोश प्रकारनी वस्तु मळे ते सारु राखे ले पण एमना एवा नाव नथी.ने गुण। पुरुषो अनेक प्रकारनी कष्ट क्रिया करें तो तेमां कपटरुपी दोष पर . ने अनेक प्रकारना अनिग्रहनो रुचि राखे तो तेमां दंनरुपि दोष परवे . ने दना गुण राखे डे तेमां कीर्तिनी श्वारुपी दोप दे . एटले कमा गुण देखोने एम दोष दे जे जे एतो पोतानी लोकमां कोर्ति वधारवा सारु सहन करे ३. ने जो पोतानां अंगोपांग गोपवीने चाले तो तेमां एम दोष परवे डे जे एतो बगलानी पेठे बारणेथी एवं वर्तन देखामे पण अंतरथी एवा नथी.ने जो तपवमे प्रधानपणुं देखा तो एम दोष दे ले जे लोक नमस्कार करे, पूजे एटला सारु तप करे पण बीजी श्छा नथी. ए प्रकारे गुणि पुरुषोना सर्वे गुणमा लिंगधारोन दोष कल्पे . निश्चे एवा गुणी पुरुषोना एवा कया गुण जे जे जेमा लिंगधारीए दोष नथी दीधो? सर्वे गुणमां दोषy आरोपण करे . . .
... टीकाः---ते हि तद्गुणानसहानास्तानिंदंति ॥ ...
॥ तदुक्तम् ॥ बाणानिव गुणान् कर्ण-मागतानसहिष्णवः ॥ पीमापादनतोऽ श्रीमा निर्देति गुणीनां खलाः ॥
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(५५२)
43. अथ श्री संघपट्टका
अर्थ:---ते लिंगधारीन निश्चे ते मुनिना गुणने सहन करी शकता नथी, माटे तेमनी निंदा करे बे. ते वात कही ले जे गुणी पुरुषोना गुण लिंगधारीउना काने श्रावी पमे ले त्यारे तेमने बाण सरखा जणाय डे; तेनुं सहन करी शकता नथी. केम जे ते गुण एमने पीमाकारी थाय डे, माटे निर्लज थया बता खल पुरुषो गुणी पुरुषोनी निंदा करे .
टीकाः-उद्यमुषः निर्निमित्तं सुविहितदर्शनमात्रेणैव प्रकटितललाटतटकुट्यादिक्रोधविकाराः न काम्यंति न सहते द्विषतीत्यर्थः । अत्र देशेऽमीषां प्रचारेण वयं लोकस्यागौरवा नविष्याम इत्यादि बुद्ध्यामात्सर्यानत्रावस्थातुमेव तेषां न ददती त्यर्थः ॥ सत्साधून सुविहितयतीन् सत्साधुत्वमेवानुगुणवि. . शेषणैस्तेषां नावयति ॥
.. अर्थः-कारण विनाज सुविहितने देखवा मात्रथीज प्रगट कर्या डे ललाट उपर कुटी चमावी देवी इत्यादिक क्रोध विकार ते जेमणे एवा उता नथी सहन करता. एटले वेष करे . कारण के ते एम जाणे जे जे जो आ देशमां सुविहित मुनिनो प्रचार थशे तो आपणा उपरथी लोकनुं गौरवपणुं उतरी जशे. एटले लोक तेमनुं बहु मान करशे, इत्यादि बुझियो तेमना उपर मत्सरपणुं राखीने ते देशमां सुविहित साधुने रहेवाज देता नथी एटलो अर्थ. हवे सत्साधुपणानेज घटतां विशेषण आपी प्रगट करे .
टीका:--सम्यग्मार्गपुषः जगवत्प्रणीतज्ञानावित्रयरुप
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- अथ श्री संघपट्टकः -
( ५५३ )
मोक्षपथस्य व्यानां शुद्धोपदेशप्रतिबोधद्वारेण विस्ता रकान् ॥ एतेन तेषामुत्सूत्रनाषणप्रतिषेधमाह ॥
अर्थः- नगवंते कहेलो ज्ञान दर्शन चारित्ररुप जे मोक्ष मार्ग तेनो भव्य प्राणीनने शुद्ध उपदेशनो प्रतिबोध थाय ए द्वारे विस्तार करनारा . एणे करीने ते मुनियोने उत्सूत्र जाषण करवानो निषेध वे एटले मुनि नत्सूत्र जावण नथी करता एम ए विशेषणव जाव्यं ते कहे .
टीका:--- प्रशांतवपुषः बहिरलक्षितरागादिविकारशा रिराजः एतेनांतरम पिप्रबल रागाद्यनावं प्रकाशयति ॥ अंतस्तवे बहिः सर्वदा प्रशांतत्वानुपपत्तेः ॥
अर्थः-जे बायोथी नथी जाता रागादि विकार ते जेमां एवा शरीरने अंगीकार करता एटले जेनुं अंग जोतां रागादि विकार कोइ प्रकारे जगाता नथी. ए विशेषणे करोने अंतर संबंधी पण प्रबल रागादिकनो जाव के एम प्रकाश थाय बे. जो अंतरमां रागादिक होय तो निरंतर बारणेथी प्रशांतपणुं न रहे ए हेतु माटे.
टीका:- प्रीतोल्लसच्चक्षुषः द्विषानपि प्रतीत्य प्रसन्नोत्फुल्ललोचनान् । एतेन बहिः कोप विकारपरिहारमा विः करोति ॥ श्रामण्यद्धि प्राणातिपात विरमणादिपंचमात्रत विभूतिमुपेयुष श्रासेदुषः । एतेन दीक्षामूलं सर्वविरतिसंपदं दर्शयति ॥
७०
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१(१९४)
4. अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः-देषीने देखीने पण प्रसन्न अने प्रफुल्लित ने नेत्र ते जेमनां एवा सुविहित मुनि ने ए विशेषण बारणेथी कोप विका• रनो परिहार प्रगट करे .अंतरमां कोप विकार होय तो बहारथी निरंतर प्रशांतपणुं न रहे ए नाव जे. प्राणातिपात विरमणादि पंच महाव्रत रुप उकुराश्ने पामेला सुविहित मुनि डे ए विशेषण दीक्षा जेनुं मूल डे एवी सर्व विरतिरुप संपदाने देखामे बे.
टीका:-स्मयमुषः अहंकारतिरस्कारिणः॥ एतेन वाग्मित्वविछत्वादावलिमानहेतौ सत्यपि तदन्नावं प्रकटयति ॥ (सत्सू. त्रक्रियानिः) कंदर्पकरप्लुषः मन्मथशुष्कतृणदादिनः ॥ एतेन सर्वव्रतमध्ये निरपवादब्रह्मवतदाढ्यं दृढयति ॥
अर्थः-अहंकार ने तिरस्कार करनारा ए विशेषण अजिमा. नना कारण रुप जे सुंदरवाणीपणुं तथा विधानपणुं ते सते पण अहंकार नथी एम प्रगट करे . सत्सूत्रनी क्रियानवमे कामरुपी सूका तृणने बाळनारा ए विशेषण सर्व व्रत मध्ये अपवाद रहित एवु ब्रह्मवत ले तेनुं दृढपणुं सुचवे .
टीकाः-सिद्धांताध्वनि शुद्धागममार्गे तस्थुषः स्थितवत स्तत्परा नित्यर्थः ॥ एतेन स्वयमुत्सूत्रक्रिया निषेधं प्रतिपा:: दयति ॥ समयुष: समाजाजः ॥ एतेनांतरेपि क्रोध निरा. . सं ज्ञापयति ॥
अर्थः----सिधांत मार्गने विषे रहेला एटले. तत्पर एटलो
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अथ श्री संघपट्टकः
(६५५ )
अर्थ; ए विशेषण पोते नत्सूत्र क्रियानो निषेध करे ते ते प्रतिपादन करे बे ने क्षमावाळा ए विशेषण अंतरमां पण क्रोध नथी, एम जपावे बे.
टीकाः सत्पूज्यतां विवेकिजनसेव्यतां जग्मुषः प्राप्नुषः एतेन सकलश्रम गुणसंपत्तिमा विजीवयति ॥ निर्गुणानां वि वेकी लोकपूजनाऽसंजवात् ॥ विदुषः विचक्षणान् ॥ एतेन स्वसमयपरसमयसार विडुरतां विस्फारयति ॥
अर्थः- वळी विवेकी लोकोने सेववा योग्य पणाने पामेला ए विशेषण समस्त साधुगुणनी संपत्तिने प्रगट करे बे केम जे जे साधु गुण रहित बे तेनुं विवेकी लोको पूजन करे एम संजय मयी ए हेतु माटे. बळी विचक्षण एवा ए विशेषण पोताना सिद्धांतनो तथा अन्य दर्शनीना सिद्धांतनो जे सार तेनुं सारी पेठे जाएँ पपुं फोरवे बे, विस्तारे बे.
टीका:-न चैवं गुणशालिषु यतिषु द्वेषः कर्तुं युक्तः ॥ श्रीपीथसोपि तदुद्वेषस्य सकलगु लिगत गुणद्वेषरूपत्वेनानंर्तजव श्रमण निबंधनत्वात् ॥
॥ युक्तं ॥
सम्यक्त्वज्ञानशील स्पृश इह गुणिनः साधवोऽगाधमेधा । स्तेषु द्वेको गुणानां गुषित रजिदद्या वस्तुतः स्याद्गुणेषु ।।
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(५५६)
* अथ श्री संघपट्टकः
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सर्वस्थानां गुणाना मवगमनमतोऽहाय मिथ्यात्वमस्मा। तस्माद् भूयो नवाधिनमणमिति गुणिद्वेषधीर्वजनीया ॥ .
अर्थः-ए प्रकारे गुणवमे शोजता मुनिने विषे द्वेष करवो युक्त नथी केमजे अतिशय उंगे एवो पण ते मुनिनो क्षेष ले तेने सकल गुणीजनने विषे रहेलो जे शेष ते रुपपणुं डे ए हेतु माटे अनंत जव ब्रमणनिबंधनपणुं ने ए हतु माटे, एटले एथी अनंतो जव ब्रमण थाय एवो कर्मबंध थाय जे. ते वात शास्त्रमा कही जे श्रपार बुझिवाळा महागुणी साधु पुरुषो केवा ले तो समकितवाळा तथा ज्ञानवाळा तथा शीलवाळा तेवा मुनिनने विषे रहेला जे गुण तेने विषे जे वेष करवो ते वस्तुताए. गुण गुणीनुं अन्नेदपणुं ए हेतु माटे सर्वे गुणोजनना गुणनो अवगणना थमाटे एथी शीघ्र मिथ्यापणुं प्राप्त थाय ने तेथी वारंवार जव समुजमां नवज्रमणपणुं थाय ए हेतु माटे गुणी पुरुषो नपरथी केष बुद्धि त्याग करवी.. .
टीका:--सिकांतेऽप्यन्निहितं ॥ नरहेरवयविदेहे, पंनरस. वि कम्मलुमिया साहू ॥ एकंमिहीलियंमि, सबे ते हिलिया हुँ ती ॥ संतगुणडायणा खनु परपरिवाय हो अलियंच ॥धम्मे वि बहुमायो, साहुपन से य संसारो॥ ततःप्रेदावता गुणिषु. बहुमान एव कर्त्तव्यो न केष इति वृतार्थः॥३१॥
अर्थः-ते वात सिद्धांतमां पण कही जे जे जरत औरवत तथा विदेह तेमां पत्नरकर्मभूमियो . तेमां एक साधुनी जो दीखना करे तो सर्व साधुनी होलना करी एम थाय ने बता गुण आवा
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-9. अथ श्री संघपट्टका
(५५७)
Amarv -
दन करवू तथा पारको परिवाद करवो तथा जूटुं बोल तथा धर्म नुं बहुमान न करवु तथा साधुने विषे प्रवेष करवो ए संसार .ए हेतु माटे बुद्धिमान् पुरुषे गुणीने बहुमानज करवो पण द्वेष न करवो. एम था काव्यनो अर्थ . ॥ ३१ ॥
टीका:-अथ कथमेवंविधानपि सत्साधून खला न दा. म्यंति ॥ मिथ्यात्वप्राबल्यादिति ब्रुमः ॥ अत एव ततो मूढ जनस्य नाम जैनपथवर्तिनः स्वरुपं निरुपयन्नाह ॥
अर्थः---हवे ा प्रकारना सत्साधूने पण खल पुरुष केम सहन नथी करता? तो मिथ्यात्वना प्रबलपणाथी सहन करता नथी एम कहीए बीए, ए हेतु माटे प्रबल मिथ्यात्ववाळाने मूढजनने नाम मात्र वझे जनर्मागमा रहेनारा तेमनुं स्वरुप निरुपण करता बता कहे जे. .. .
॥मूल काव्यम् ॥ देवीयत्युरुदोषिणः दतमहादोषा न देवीयति । सर्वशीयति मूर्खमुख्यनिवदं तत्वज्ञमझीयति ॥ जन्मार्गीयति जैनमार्गमपथं सम्यक्पथीयत्यदो। मिथ्यात्वग्रहियो जनः स्वमगुणाग्रण्यं कृतार्थीयति॥३॥ ... टीका:-मिथ्यात्वमहिलो जन उरुदोषिणो देवीयतीला....
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(५५८)
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अथ श्री संघपट्टक:
'दिसंबंधः ॥ अहो ति विस्मये ग्रहः चैतसोऽसनिबंधः सोऽस्या
स्तीत्यस्त्यर्थे श्ल प्रत्ययस्तद्वितः॥श्ह मिथ्यात्वं प्रकरणादानिनि .. वेशिकं गृह्यते ॥ प्रायेण जैन मिथ्यादृष्टीनां गोहामाहिल
माइणेत्यादिनानिनिवेशिकस्यैव तस्य प्रतिपादनात्॥ ततश्च तेन ग्रहिलः प्रबल मिथ्यानिनिवेशग्रहगृहीत इत्यर्थः ॥
अर्थ-मिथ्यात्ववके घेलो थयेलो जन घणा दोषवाळाने देवता जेवो गणे ले. इत्यादि बाकाव्यमां संबंध . अहो ए प्रकारना अव्ययनो आश्चर्य अर्थ जे. एटले श्रावात अचरिज . चि. ननो कदाग्रह जेने एवा अर्थने विषे तद्धितनो श्लू प्रत्यय श्रावीने अहिल शब्द थयो . श्रा जगाए प्रकरण वशथी आनिनिवेशिक मिथ्यात्व ग्रहण करवू. बहुधा जैन मिथ्यादृष्टि लोकोनुं मोहामाहिल इत्यादि शास्त्र वचनवमे श्रान्तिनिवेशिक मिथ्यात्वनुंज पतिपादन कयु ले ते देतु माटे श्रान्तिनिवेशिक मिथ्यात्ववमे घेलो थयेलों एटले प्रबळ एवो जे मिथ्या अनिनिवेश ते रुपी जे ग्रह तेणे करीने घेरायलो एटलो अर्थ जे.
टीका-जनो धर्मध्वजितदनक्तश्राऊलोकः उरवो महांतो यतिजनस्यात्यर्थमनुचितत्वेन दोषा अपराधा रागद्वेषप्राणा. तिपातादय उरुदोषास्तछतः श्राचार्यादीनिति गम्यं ॥
अर्थः-ए प्रकारनो लिंगधारीनो लक श्रावकलोक जे ते मनिजमने अतिशय अनुचित एटले अघटता माटे जेने दोष कहेडे
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- अथ श्री संघपट्टकः
( ६६९ )
एवा रागद्वेष प्राणातिपात यदि मोटा दोष तेणे सहित एवा आचार्य प्रमुखने देव जेवा जाणे बे.
टीका :--- देवीयति देवानिव जिनानिवाचरति यादशा देवा नीरागातिशयादिमंतश्च तादृशा अमी तस्मादाराध्या इति देवैस्तानु पमिमीते ॥ न च तादृशां तडुपासनं समीचीनं॥तेषां महादोषवत्वेन देवोपमान विधानस्य महापातकहेतुत्वात् परं मिथ्यात्वस्य विपर्यसरूपत्वा द्विपरीतबुद्धिस्तादृशानपि तथोपमिनोति ॥ एवमुत्तरपदेष्वपि जावनीयम् ॥
अर्थ :----. एटले जिनदेव जेवा जाणे बे. जेवा जिनदेव वीत. रागी बे तथा छातिशयादिमंत बे तेवा या पण बे, माटे आराधना करवा योग्य वे ए हेतु माटे देवता संघाथे तेमनुं उपमान करे बे एवा दोषवंत पुरुषोनी उपासना करवी ते ठीक नथी. केमजे ते महादोषवाळा बे ए हेतु माटे तेमने देवनी उपमा करवी तेने म हापापनुं कारण बे. परंतु मिथ्यात्वनुं विपर्यास रुपपणुं बे. एटले विपरीत बुद्धि नृत्पन्न करवाएं बे तेथी तेवा दोषवर्तने पण देवनी उपमा देबे एम आगळ पदमां पण जावना करवी.
टीकाः - कतमहादोषान् प्रनष्टप्रागुक्तवृदपराधान् युगप्रधानादी निति शेषः प्रदेवीयति देवा निवाचरति ॥ नामीदेवसडशाः सदोषत्वान्निरतिशयत्वाच्च तस्मादनाराध्या इति ॥ अत्र च कीणप्राय महादोषाणां देवैरुपमानं सिद्धांतेप्युदितं ॥
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अथ श्री संघपट्टकः
अर्थ:- नाश पाम्या बे पूर्वे कहेला मोटा अपराध ते जेमना एवा एटले युग प्रधानादिक एटलुं उपरथी लेबुं. एवा मोटा पुरुषोने पण देव जेवा गणे बे. शुं कहे बे? तो ए युग प्रधानादिक जे ते देव सरखा नथी. केमजे दोष सहित बे ने अतिशय रहित बे माटे एमनी श्राराधना करवी. या जगाए प्राये जेमना दोष नाश पाम्या वे तेमने देवनी उपमा सिद्धांतमां पण कही बे.
( १६० )
टीकाः परुिवो तेयस्सी इत्यादावाचार्यगुणवक्तव्यतायां प्रतिरूपः सिद्धांततात्पर्यप रिछेददेशनातिशयवत्वादिना द्विपयबुद्धिजनकत्वात् तीर्थंकरप्रतिबिंबरुप इति व्याख्यानात् ॥ स च विपर्यस्तमतित्वात्तथा न करोति ॥
अर्थ:---- परुिव इत्यादि गाथा वमे श्राचार्यना छत्रीस गुणो कहेवाने अवसरे सिद्धांतना तात्पर्यनुं परिमाण करी केवा रुप अतिशयवाळायाचार्य बे इत्यादि सिद्धांत संबंधी बुद्धिनुं नत्पन्न थवा पणुं तेमने विषे रधुं बे, माटे ते प्राचार्य तीर्थंकर समान बे एम गाथानुं व्याख्यान बे. ते आचार्यने विपरीत बुद्धिवाळा पुरुषो देवनी उपमा नथी करता.
टीकाः - एवमदेवप्राये देवबुद्धिर्देवप्रायेचादेवबुद्धिरिति मिथ्यात्वरूपं प्रतिप्राद्यागुरौ गुरुबुद्धयादिरूपं तदाह ॥ सर्व ज्ञीयति सर्वज्ञमिव सर्व विदमिवाचरति मूर्ख मुख्य निवहं श्रज्ञचूकाम पिसमुहं स्वाभ्युपेतगच्च स्थितं यतिजनं यथा सर्वसदृशोऽयं मदीययति जनः किं किं शास्त्रजातं न वेत्ताति ॥
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49 अथ श्री संघपट्टक:
(AAR)
अर्थः-ए प्रकारे अदेव जेवाने विषे देवबुद्धि ने देव जेवाने विषे श्रदेवबुद्धि ए प्रकारे मिथ्यात्वनुं रूप प्रतिपादन करीने अगुरुने विषे गुरु बुद्धि करवी इत्यादि मिथ्यात्व स्वरूप ने तेने कहे बे. जे मोटा मूर्खना समूह ने तेने सर्वानी पेठे आचरण करे ले एटखे सर्वज्ञ जेवा जाणे . पोते अंगिकार करेला गबमां रदेलो यतिनो समूह तेने शानि विद्वान पंमित जाणे जे अमारा गबना यति लोको शुं शुं शास्त्र नथी जाणता? सर्व शास्त्र जाणे इत्यादि।
... टीकाः तत्वज्ञ षट्दर्शनतकर्कर्कशधियं स्वपरसमय नियमिं सूरिविशेषं अज्ञीयति अज्ञमिव बालिशमिवाचरति ॥ यथा न किंचिदप्येष जानाति ॥ अयमर्थः॥ नहि मूर्खशिरोमणेः सर्वझेनोपमानं युक्तं ॥ नापि तत्वज्ञस्याझेन ॥ अत्यंतमनुरुपत्वात् ॥ परं स मिथ्याज्ञानादेवमपि करोति ॥
अर्थ:---वळी तत्वनो जाण एटले बदर्शन संबंधी तर्क वि. चार करवामां तीखी जेनी बुद्धि बे, नावार्थ ए ले जे पोताना द. निनां जे शास्त्र तथा बीजा दर्शननां जे शास्त्र तेनो निर्णय करवामां सीमारुप, ए जेवा बीजा को नहि एवा सूरि विशेषने एटले एवा कोश् श्राचार्यने अज्ञानीनी पेठे जाणे हे एटले एप्राचार्य कांश पण जाणता नथी आ अर्थ सिकथयो. जे मुर्ख शिरोमलिनी सर्वज्ञ साथे जे नपमा करवी ते युक्त नथी. ने तत्वज्ञ पुरुषनी श्रज्ञानी साथे उपमा करवी ते पण युक्त नथी. केम जे अत्यंत श्रमोमपणुं हे ए हेतु माटे, परंतु ते मिथ्याज्ञानथी एम पण करे बे.
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(१२) ..
18. अथ श्री संघपट्टकः
टीका:-अधुना श्रमार्गे मार्गबुद्धयादिरूपं मिथ्यात्वं द. शयति।उन्मार्गयति ॥नन्मार्गमिव उत्पथमिवाचरति जैनमार्ग शुद्धं जगवत्पथं ॥ यथा नायं जगवत्प्रणीतो मार्गः किंतू त्सूत्र इति ॥ अपथं कुमार्ग प्राक् प्रतिपादितमौदेशिकनोजनादिकं स्वकल्पितं सम्यक् पथीयतिसम्यक् पथमिव सन्मार्गमिवाचरति॥
अर्थः-हवे अमार्गने विषे मार्ग बुद्धि थवारुप मिथ्यात्वने देखा ले जे शुद्ध जगवत्ना मार्गने नन्मार्गनी पेठे आचरे ले एटखे उन्मार्ग जेवो जाणे जे जे आतो नगवाननो कहेलो मार्ग नथी एतो नत्सूत्र मार्ग ने इत्यादि. वळी पूर्वे प्रतिपादन करेलुं जे पोतानुं कपोल कल्पित उद्देशिक नोजनादि तेने सारो मार्ग जाणे ३. सारा मार्गनी पेठे आचरण करे .
टीका:-त्रापि यनिमार्गस्य चंवत्प्रकाशकस्योन्मार्गेण तामसेनसादृश्यापादनमुन्मार्गस्य च सत्पथतुल्यतापादनंत मिथ्यात्वोदयादिति ॥ तथा स्वमात्मानं अगुणाग्रण्यं निर्गुण धुरंधुरंकृतार्थीयति कृतार्थमिव विहितसकलप्रयोजनमिवा चरति ॥ अत्रापि स्वस्य निर्गुणमुख्यस्य कृतार्थेन गुणिमुख्येनोपमानमा विद्यावत्वादिति ॥
अर्थः--श्रही पण जे जिनमार्ग चंछ सरखो प्रकाशवंत ले तेन नन्मार्गरूपी जे अंधकारनो मार्ग तेनी साथे सहशपणं प्रति. पादन करे ले ते मिथ्यात्वना उदयथो करे बे. वळी पोतानो श्रात्मा
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. अथ श्री संघपट्टका
जे गुण रहित पुरुषोमां धुरंधर ने एटले अग्रेसर ले तेने कृतार्थ जेवो जाणे ने एटले जाणे सकळ प्रयोजन करी रह्यो होय ने शुं एम संपूर्ण गुणवाळो माने जे. अहीं पण गुण रहितमां मुख्य एवो पोतानो आत्मा ले तेने गुणीजनमां मुख्य एवा महांत पुरुषोनी साये उपमा करवी तेनुं कारण पोताने विषे रहेलु श्रविद्यापणुं एज .
टीका:-एवं तावदोकोत्तरिकजन विषयं मिथ्यात्वस्वरूपं प्रदर्य बाह्यलोकविषयमपि प्रसंगात् किंचित्तदश्यते ॥ मिथ्या. त्वहिलो जनः अनियहिकादिमिथ्यात्वबान् जिनमतबहि—तो लोकः देवीयति देवानिवाचरति मुक्त्यर्थमाराध्यतया देव.. त्वेनान्युपैतीति यावत् ॥ नुरुदोषिणो रागादिमतो लोकप्रतीतान् देवान् ॥ कतमहादोषानू वीतरागान् लोकोत्तरविश्वतान् अदेवीयति अनाराध्यत्वेनाऽनुमन्यते ॥
अर्थः-ए प्रकारे प्रथम लोकोत्तर संबंधी जे पुरुष तेमने आश्रीने जे मिथ्यात्व तेनुं स्वरुप देखामीने बाहिर लोक एटले अन्यदर्शनी तेने श्राश्रीने जे मिथ्यात्व तेने प्रसंगवशथी कांक देखाके ले जे श्रानिग्रहिकादि मिथ्यात्ववाळो जिनमतथी बाहिर ययेलो एवो लोक जे ते रागादि घणा दोष जेमा रहेखा एवा लोकमां प्रसिकजे देव तेमने मोदाने अर्थे आराधवा योग्य देवपणे अंगिकार करे .माटे अदेवने विषे देवपणानी आचरणा करे ने ने जेमना दोष नाश पाम्या बे एवा वीतरागने अदेव जेवा गणे एटले आराधवापणे नथी मानता..
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१५५४)
9. अथ श्री संघपट्टका
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टीका:-श्रथ कथमेतन्मिथ्यात्वमितिचेत् ॥ मुच्यते ॥ घोषवतां देवत्वानावात् ॥ तथाहि ॥ साक्षात् कृतधर्मा निरीह स्वेन परोपचिकीर्षाप्रयुक्तो यो मुक्तिमार्गमुपदिशति स देवश्त्यास इति चोच्यते ॥ न च रागादिमत एतल्लक्षणं संगच्यते ॥ ता. चनस्य प्रबल विप्रलंचकवाक्यवछिसंवादित्वाहिसंवादकवच-. नाच प्रेक्षावतां प्रवृत्यनुपपत्तेः॥
अर्थः--इवे सिंगधारी पूजे जे जे ए मिथ्यात्व केम कहो हो? तो तेमो उत्तर कहे जे दोषवाळाने देवपणानो अनाव ने ए हेतु माटे. तेज देखामे जे जेणे धर्मनो साक्षात्कार को लेने को प्रकारनी वांछा विनाज परना नपकार करवानी जेनी श्छा वर्षे डे ने मुक्ति मार्गनो नपदेश करे ले ते देव कहीए तेने हितकारी पण कहीए. ने रागादिवाळानुं ए लक्षण संनवतुं नथी, केमजे रागादिवाळानुं वचन तो अतिशय उग पुरुषनां वचननी पेठे विसंवादि ले ए हेतु माटे, ने वळी एनां वचन परस्पर विरोधी ने ए हेतु माटे बकिवाननी प्रवृत्ति तेमां थती नथी.
.. टीकाः रागादिमतो हि विप्रलिप्सया नद्यास्तीरे गुम्मा
कंटपर्यस्तमास्ते धावत मिनका इत्यादिवत्कदाचिदन्यथा व्यक.. स्थितमर्थमन्यथापि ब्रुवाणा उपलभ्यते ॥ तथा च समचमात्... अवर्तमाना मिनकवनसमीहितमश्नुवीरन् ॥ माझा विधि
सा तथापि तस्य रागादिमत्वेनासाक्षात् कृतधर्मतया सम्यान . ... मुक्तिमार्गोपदेशाननुपपत्तेः॥...
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अथ श्री संघपट्टकः
(१९६५)
अर्थ:-रागादि दोषयुक्त पुरुष जे ते निश्चे बेतरवानी इच्छाए जे प्रकारनी वस्तु होय तेथी विपरीत कहेनारा देखीए बीए. जेम ali बेतरवा कोइए कयुं जे हे बोकरां! दोमो दोमो !! नदीने कांबे गोळनुं गाऊं त्रुटी पमयुं छे. एम गोळ खाधानी आशा उपजाबी छोकरां दोकाव्यां, तेम क्यारेक तो जे प्रकारे रहेली वस्तु बे तेथी बीजी प्रकारे पण कदेनारा ठग पुरुषो जणाय बे माटे तेवा पुरुषना वचनमां प्रवर्तेला पुरुषो गोळ खावा दोमेलां बोकरांनी पेठे पोतानुं बांबीत पामता नथी. कदाचित ए प्रकारनी उगवानी इहा न होय. परंतु ते पुरुषो रागादि दोषवाळा बे माटे तेमने धर्मनो साक्षात्कार नथी थयो तेथी सारी रीते मुक्ति मार्गनो उपदेश यतोज नथी.
टीका:- तथा त्वेव अस्मदादीनामपि रागादिमतां सा कात्कृतधर्मत्वेन सार्वज्ञ्यापत्तेः तथाच सिद्धं समीहितं किं मुक्त्यर्थं तदम्वेषणेन ॥ श्रार्के चेन्मधु विदेत्तत्किमर्थं पर्वतं व्रजेत् ॥ इष्ठस्यार्थस्य संसिद्धौ को विद्वान् यत्नमाचरेदिति लौकिक न्यायात् ॥ किं च परोपकारोपि परेषां संसारतारणलचणस्तसान संभवति ॥ रागादिमत्वेनास्मदा दि निस्तुल्ययोगक्षेमतया तस्य स्वयमतरितुः परतारकत्वानुपपत्तेः लोऽपि पोतादेःस्वयं तरि रेव परतारकत्वोपलं नात् ॥
अर्थः- ने जो रागादिक दोषवाळा पुरुषथी सारी रीते मुक्ति मार्गमो उपदेश यतो होत तो सगादि दोषकाळा आपणे पण डीए साटे आपयते पण धर्मनो साक्षात्कार वो जोइए ने
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48 अथ श्री संघपट्टका
सर्वज्ञपणुं पण प्राप्त थर्बु जोइए ने ज्यारे सर्वज्ञपणुं प्राप्त थयुं त्यारे तो आपणुं वांछित सर्वे सिक थयुं त्यारे तो मुक्तिने अर्थे वीतरा. गनां वचन खोळवानी जरुर न रही. केमजे जो श्राकमानां फुलमांथी मधनो स्वाद मळ्यो तो मध खोळवा पर्वतमां कोण जाय ! तेम पोतानो वांच्छित अर्थ सिद्ध थयो तो पड़ी कोण विधान पुरुष तेने वास्ते प्रयत्न करे? ए प्रकारे लौकिक न्याय ए हेतु माटे. वळी शुं? तो तेमणे करेलो परोपकार जेते पण संसारने तारण करनार संजवतो नथी. केमजे रागादि दोष युक्तपणावमे आपणी पेठेज ते पण योग केम करे एटले आपणी पेठे ते पण रागादि दोषे न. रेखा ले ते पोतेज तरता नथी तो तेमने विष बीजानुं तारणपणुं तो क्याथीज सिक थाय ! लोकमां पण जे नौका प्रमुख पोते त. रती होय तेज बीजाने तारती देखाय जे ए हेतु माटे.
टीकाः-ननु स्यादेतयदि रागादिमत्वं जवेत्तदेकवाक्यतया सकलपार्थिवादिविचारचतुरप्रधानपुरुषपूज्यतान्यथानुपपत्या तेषामसिझमिति चेत् न ॥ तत्प्रकृतिष्वंगनादि घटनावलोकनेन तत्सिः ॥ तेषां रागादीमंतरेण तत्प्रतिबिंबेषु तदक्षणाध्यारोपा संजवात् ॥ इतरथा तत्प्रतिबिंबत्वानुपपत्तेः॥ नपलादिना सक सतत्तुल्याकारनिर्मापणं हि तत्प्रतिबिंब नाम तन्नूनं ते रागादि मंत इति ॥
अर्थः-श्रा जगाए अन्यदर्शनी आशंका करे ले जे जो. अमारा रागादि देव दोष सहित होय तो जे समस्त पृथ्वी श्रादिसंबंधी
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48 अथ श्री संघपट्टकः
पदार्थनो विचार करवामां चतुर पुरुषो डे तेमां पोतानुं प्रधान पुरुपप बे, जेथी पूजनीकपणुं बे. ते पोतानां कहेलां वचननी एक वाक्यता ए हेतु माटे, एटले पोतानां वचनमां परस्पर बाधा नथी माटे. तथा अन्यथानुपपत्ति बे ए हेतु माटे, एटले एमणे कह्यां तेवांज पृथ्वी आदि पदार्थ बे माटे तेमनुं पूर्वे कथं एवं प्रसिद्धपणं नथी एटले सिप बे. जावार्थ:- जे अमारा देव रागादि दोष युक्त नथी माटे
मनुं कहे सत्य बे. हवे सिद्धांती तेमने जवाब दे बे जे तमारे एम न बोलवु . केमजे तमारा देवनी प्रतिमाने विषे अथवा प्रतिमानी जो स्त्री प्रमुखनी संघाथे घटना करेली बे तेने जोतां एमने विषे रागादि दोषनी प्रत्यक्ष सिद्धि थाय बे ने तेमने जो रागादि दोष न होय तो तेमनी प्रतीमार्जुने विषे रागादि दोषने जणावनार एवां अपनो रोपं कर्यो ढे ते संभवे नहि. रागादि दोष लक्षण विनानी तेमनी प्रतिमान घमातीज नथी. पाषाणादि प्रतिमायोने विषे पाषाणादिकना आकार प्रगट रागादिकने जलावनारा बे जेवा एमां दोष नरेला बे तेवा आकारनी तेमनो प्रतिमाओ के माटे निश्चे ते देव रागादि दोष सहितज बे.
टीकाः---॥ युक्तं ॥
लक्ष्यंते ललनांग संगम विधे रागोपरागोपगा, द्वेषश्लेषो जोति मदाद्धस्ते च शखमहात् ॥ श्रेयःकल्पलत्तास्त्रशास्त्ररचनान्मोद प्ररोहस्पृशो, ये देवा ननु संतुमंतु सहितास्ते वीतरागाः कथं ॥
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((१६८ )
-18 अथ श्री संघपट्टकः 8
अर्थः-- ते वात शास्त्रमां कही बे जे अन्यदर्शनीमा देव सीनो अंगसंग राखे दे तेथी रामरुपी प्रवके गळायेला जपाय डे बळी नऊत मदने जणावनार हस्तमुद्रा डे तेथी तथा दाथमां शख ग्रहण करे बे तेथी द्वेषवाळा ए देव वे एम जपाय बे. वळी कल्याणरूपी कल्पलताने नाश करे एवी शास्त्रनी रचना करवाथी मोहवाळा से एम जाता ए देवो क्रोधी होय तेथी ते वीतराग केम कहेवाब.
टीका :- यदपि पार्थिवादिपुरुष पूज्यतान्यथानुपपत्या तेषां वीतरागव्यप्रसाधनं तदप्य विद्याविलसितं ॥ यतो यत एव तेषा मध्यक्षेण रागादिलक्षणं लक्ष्यंतोऽपि ते तान् वीतरागतवाध्य वसाय पूजयंत्यत एवैतन्मिथ्यात्वमुच्यते ॥
अर्थः- ए देवोने विषे वीतरागपणुं स्थापन करे ते ते एम बोले ढे जे जो ए देवमां वीतरागपएं े तो राजा प्रमुख पुरुषो पूजे a नहि तो केम पूजे? ते माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगवके वी. तरागपणुं साधे बे तोपण ते सर्व विद्यानो विलास बे एम जाणवु. जे माटे तेमनां रागादि लक्षण प्रत्यक्ष जणाय ने तोपण तेमने विषे वीतरागपणानो निश्चय करी पूजे बे एज हेतु माटे एने मिथ्यात्व कहीए बीए.
टीका: तस्मिंस्तदिति प्रत्ययस्यैव तवकृणत्वात् ॥ तस्मान्न रागादिमंतो देवाः किंतु संप्रत्यपि बिंबादिषु रागादिलकण विरहृदर्शनेन वीतरागतयानुमीयमानव देव इति ॥
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अथ श्री संघपट्टका
(५६९)
॥ यमुक्तं ॥
यस्य संक्लेशजननो, रागो नास्त्येव सर्वथा ॥ न च षोऽपि सत्वेषु शमेंधनदवानलः॥
अर्थः-जेमां जे वस्तु नथी तेमां ते वस्तुनो निश्चय करवो तेने मिथ्यात्व कहीए. ए प्रकारे मिथ्यात्वनुं लक्षण ने ए हेतु माटे रागादि दोषवाळा होय ते देव न कहीए. त्यारे कोने देव कहीए ? तो तेनो नत्तर पोतेज करे जे जे हालमां पण प्रतिमादिकने विषे रागादि लक्षणनो विरह देखवे करीने वीतरागपणे जे अनुमान करेला तेज देव कहीए. ते वात शास्त्रमा कही ले जे, क्लेशने उत्पन्न करनार एवो रागादिक दोषं जेमां सर्वथा नथी. शांतीरूपी काष्टने बाळवा दावानल अग्नि समान एवो केष पण जेने को प्राणीमात्र प्रत्ये नथी.
टीका:-नच मोहोपिसंझाना बादनो ऽशूमवृत्तकृत् ॥ त्रैलोकख्यातमहिमा, महादेवः स नुच्यते ॥ एवं विधश्चमहादेवो ऽहन्नेव ॥
यमुक्तम् ॥
अर्हनेव च बलकणगणो रागादिलकहते देवः केवलमृद्धकेवलबलः स्याहीतरागस्ततः ॥
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(१७.)
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जय श्री संघपट्टका
गीर्वाणाः कथमन्यथा समुदिता नक्त्यान्वहंपूर्विका . मस्यैव प्रथयंति संसदि महाष्टप्रातिहाईणाम् ।।
अर्थः-जेने ज्ञाननो ढांकनार ने अशुद्ध आचरणनो कर. नार एवो मोह पण नथी, जेनो महिमा त्रण लोकमां विख्यात ले ते महादेव कहीए. ए प्रकारना महादेव तो एक अरिहंतज ने ते वात शास्त्रमा कही जे जे रागादि लाखो दोष नाश पामवाथी थ. रिहंत एज निर्मळ लक्षणना समूहरुप डे एटले सर्वे निर्मळ लक्षण अरिहंतमांज रह्यां ले. जेने केवळज्ञान- बळ वृद्धि पामेलु ले एवा देव तो एक वीतराग अरिहंतज . जो एम न होय तो देवताना समूह नक्तिवके समवसरणमां महा आदर सहित आठ महा प्रा. तिहार्यरूपी पूजा एज देवनी केम विस्तारे? माटे एज वितराग देवले.
टीकाः-तदेवं विधे पि वीतरागे अदेवबुद्धिरित्यहो महा मिथ्यात्वं तादयताऽदेवे देवताबुद्धिवेवादेवबुकिरिति मिथ्या. त्वस्वरूपं निरुपितं ॥ तथा सर्वशीयति सर्वविदयमित्य निमन्यते मूर्खमुख्यनिवहं अन्यपरतीर्थिकसमूहं प्राणातिपाताद्य निवृत्तं स्वगुरुतया निमतं ॥
अर्थः-माटे ए प्रकारना पण वीतरागने विषे अदेव बुद्धि एज मिथ्यात्व जाणवू.ए वात आश्चर्यकारी जे. ते शास्त्रों का जे अदेवने विषे देवबुद्धि ने देवने विषेष अदेवबुद्धि ए प्रकारे मिथ्यात्वतुं स्वरुप निरुपण कयं वळी मोटा मूर्खना समूहने या सर्वज्ञ
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- अब श्री संघपट्टका (१७१) एम माने एटले प्राणातिपातादिकथी निवृमि न पामेलो अन्यदर्शनीनो समूह तेने पोतानो गुरु करी माने .
टीकाः--अथ मूर्खेषु सर्वज्ञत्वानिमानो लवतु मिथ्यात्वं ये तु कुतीथिका अपि सकलानवधचातुर्विद्यविशारदाः प्रत्यक्ष सारदाकाराः श्रनल्पविकल्पजालजटिलजल्पविधौ गीर्वाण गीर्वीण विदारितप्रतिवादिकोविदलदाः संप्रत्यपि भूरिश उपमन्यते तेषु सर्वज्ञत्वाध्यवसायस्य कथं मिथ्यात्न मिति चेत्।। सत्यं ॥ तत्ज्ञानस्यैकांतान्युपगमविषयत्वेन वस्तुतोऽज्ञान स्वात् ॥
अर्थः---हवे प्रतिवादि पूने ले जे मूर्खने विषे सर्वज्ञापमानो अजिमान करवो ते मिथ्यात्व हो, परंतु जे कुतीर्थिक लेने पण समस्त निर्दोष एवी चारे विद्या तेमां चतुर होय ने साक्षात् सरस्वती जेवो जेमनो आकार ले ने घणा घणा विकल्पनो समूह तेणे करीने व्याप्त एवो जे बोलवानो प्रसंग तेने विषे संस्कृत भाषा रुपी बाणवमे नेयां ले पंमितनपी बद ते जेमणे एवा आ काळमां पण घणा पंमितो देखाय ने तेमने विषे सर्वज्ञपसानो निश्चय करवामां केम मिथ्यात्व कहोबो ? एम जो कहेता होय तो तीक. एम कही उत्तर करे ले जे ते झानने एकांतपणुं माटे वस्तुताए अहानपपुंज ने तेथी तेने मिथ्यात्व कहीए बीए.
टीकाः-न चैकांत एव साधीयानिति वाच्यं ॥ तदाहि ससुप एव जावः स्यात् असद्रूप एव वेति जवदनिमतद्योतकं कि.... कम्पमुगलमवतरति तत्र न तावदाया एकांतेन सत्वे हि घटस्य
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(१७२)
48 अथ श्री संघपट्टक
स्वरूपवत्पर रूपेणापि सत्वात्तद्रूपापत्या स्वरुपापगम प्रसंगःअनेक ... रुपत्वान्युपगमे वा जगद्वैचित्र्यनंगप्रसंगात् ॥
अर्थ-हवे सिद्धांती अन्यदर्शनीना एकांतमतने खंगन करे जे एकांत मत एज अति श्रेष्ठ जे एम तमारे न बोलवूकेमजे जो एम कहेतो होय तो तारा वांबितने जणावनार बे विकल्प प्राप्त थाय , ते कया. तो पदार्थ मात्र सजप ने अथवा असदूप ले ए तने प्रश्न पूबीए बीए. तेमां जो सदूपज पदार्थ मात्र २ एम प्रथम, विकल्प अंगिकार करे तो आ प्रकारे दूषण प्राप्त थाय जे एकांतपणे सद्रूप पदार्थ बते घटना स्वरुपनी पेठे पटना स्वरुपर्नु पण सद्रूपपणुंडे तेथी स्वरूपापगमनामा दोषनी प्राप्ति थशे एटले घटपटना स्वरूप, एकपणुं थशे. जो अनेक रूपपणानो अंगिकार करशे तो जगतनुं जे विचित्रपणुं तेना नाशनो प्रसंग थशे ए हेतु माटे.
:: टीकाः-एकस्मादेव घटादेः सकलपदार्थकार्यकारणो पपत्तस्तथा च घटो जलहरणवत्प्रावरणाद्यपि पटादिकार्य कुनि चैवं ॥ तस्मान सद्रूप एव जावाः ॥ नापिहितीयः ॥ ए. कांतासत्वस्वीकारे घटस्य पररूप वत्स्वरुपेणाप्यसत्वेन खरवि.. पाणवदत्यंतानावप्रसंगात् ॥ तथा च नोदकार्थी घटार्थ प्रयते त तस्यात्यतासत्वेन समस्तार्थक्रियाविरहात् ॥
- अर्थः-एक घटादिक पदार्थथी सकळ पदार्थनो कार्य
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अथ श्री संघपट्टका
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कारणनाव सिक थशे. वळी घट जेम जळ लाववारुपी कार्यने करे डे तेम उढवा पहेरवा प्रमुख पटादिक, पण कार्य करे. पण ते कार्य तो घटथी यतुं नथी, माटे सद्रूप एवाज पदार्थ डे एम एकांत पक्ष सिक न थयो. हवे बीजो विकल्प जे पदार्थ मात्र एकांतपणे अ. सद्रूप ले ते पण सिद्ध थतो नथी. केमजे जो एकांत असदूपनो अंगिकार करीए तो घटने पररूपनुं असत्पj डे तेमज पोताना रूपनुं पण असत्पणुं प्राप्त थशे. त्यारे गर्दनना शिंगमानी पेठे अत्यंत अन्नावनो प्रसंग थशे. त्यारे जळ नरवानुं जेने प्रयोजन .ते घटने अर्थे नहि प्रयत्न करे. केमजे ते घटना स्वरूपनो अत्यंत नाव बे, माटे समस्त अर्थ क्रियानो विरह प्राप्त थयो ए हेतु माटे..
टीकाः तस्मादेकांतेन सदसत्वान्युपगमे जावस्यार्थक्रिया नुपपत्तेरुजयरूपं वस्त्वज्युपगंतव्यम् न च सदसत्वयोरन्योन्य विरोधेनैकत्र समावेशाजावानोनयरुपता नावस्य संगबत इति वाच्यं ॥नावस्य स्वरुपेण सदसत्वान्युपगमे हि स्याधिरोधः खरू. पपररूपान्यां तु तदन्युपगमे कानुपपत्तिः॥
...: अर्थः----एकांतपणे पदार्थ- सद्रूपपणुं अंगिकार करे तो अथवा एकांतपणे पदार्थनुं असद्रूप अंगिकार करे तो पदार्थ मा. बनी अर्थ क्रिया न थाय. माटे वस्तु मात्र, सद्रूप तथा असद्रुप अंगिकार करवू. त्यारे प्रतिवादी बोल्यो जे जो एक वस्तुनुं सदूपपणुं तथा असद्रूपपणुं ए बे अंगिकार करशो तो एक बीजा साथे विरोध थवाथी एक वस्तुने विषे बेनो समावेश नहि थाय माटे बेस रुपनो अत्यंता नाव प्राप्त थशे. त्यारे सिद्धांतो बोम्योजे
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48 अथ श्री संघपट्टकः 8
एम तमारे न बोलवं. केमजे पदार्थनुं खरुपे करीने सदूपपणुं तथा अपपगिकार करीए तो तारो कड़ेलो विरोध प्राप्त थाय पण स्वरूप तथा पररूप ए बेवने सद्रूपपएं तथा सद्रूपपणुं ए बे अंगिकार करीए तो शी असिद्धि थाय ? एटले शो दोष आबे ? कोइ न खावे.
( १७१)
टीका: --- तथाहि ॥ घटः स्वरूपेण द्रव्यतः पार्थिवत्वेन सन्नात्वादिना || क्षेत्रत इत्यत्वेन न माथुरत्वादिना ॥ कालतो वर्तमान कालत्वेन नातीतादिकालत्वेन || जावतः श्यामत्वेन न रक्तत्वादिनेति ॥ इतरथाप्यत्वादिनापि तस्रूसत्वेऽनेकरूपत्वं स्वरुप विलोपो वाप्रसज्येत ॥ तस्मात् सदसद्रूपं वस्त्विति ॥
अर्थ:----तेज देखा बे जे घट स्वरुपे करीने द्रव्यथी पृथ्वी सबंधी सत् बे पण अन्यपणे नथी. तथा क्षेत्रथी आ क्षेत्रनो बे पण मथुरादि क्षेत्र संबंधी नथी. तथा काळथी वर्त्तमानकाळपणे वे पण श्रतीताद काळपणे नथी. तथा जावथी श्यामपणे बे पथ रक्तादिपणे नथी. एम न कहीए ने बीजी रीते कहीए तो ए घटनुं अनेक रूपपणुं अथवा पोताना रूपनो नाश ए वे दोषनो प्रसंग यावे देतु माटे सर्वे वस्तुनुं सद्रूपपणुं तथा सपद्रूप ए रीते सिद्ध ययुं.
टीका: --- किंचैकांतवादे सदसतोर विशेषप्रसंगः ॥ तथाहि नित्यैकांतवा दिनां सांख्यानां मते यथा असता मृतृपिंकेन घटोन जन्यते ॥ तथा सतापि न जन्येत ॥ सदेवकारणे कार्यमिति
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-48 अथ श्री संघपकः
( ५७५ )
सिद्धांतात् ॥ सतश्चोत्पादानुपपत्तेः ॥ क्षणिकैकां तिवा दिनामपि सौगतानां मते असते वसतापि कारणेन कार्यं न जन्येत अस देवकारणे कार्यमित्यभ्युपगमात् ॥ तथा च कारणे सर्वथा कार्यानन्वयान्मृत्पिंमादपि घटो नोत्पद्येत ॥ नृत्पादे वातंत्वा दिज्योप्युत्पद्येत ॥ श्रकारणत्वाविशेषादिति ॥
सद्रूप
अर्थ:---वळी एकांतपणे वस्तुनुं सद्रूपपणुं तथा पहुं अंगिकार करनारने मते कोइ प्रकारे विशेषनो प्रसंग नथी. एटले ए वे मतमां बराबर स्वदोषनो प्रसंग यावे बे, तेज देखामें बे. जे नित्य एकांतवादि एवा सांख्यमतने विषे जेम असत् एवा मृति. काना पिंक घट नथी नृत्पन्न थतो तेमज विद्यमान एवा पण मृत finah घट नहि उत्पन्न थाय. केमजे सत् एवुंज कार्य कारण
वो ते सांख्यमतवाळानो सिद्धांत बे ने जे सत् बे तेनी उत्पतिनी सिद्धिबे ए हेतु माटे क्षणिक एकांतवादि एवा पण बौमतने विषे असत् थकीज जेम कार्य उत्पन्न नथी यतुं एम सकारणथी पण कार्य नहि उत्पन्न याय. केमजे कारणने विषे असत् कुंज कार्य एम मनुं अंगिकार करवापणुं बे. वळी कारणने विषे सर्वथा कार्यनो अन्वय नथी एवो तेमनो मत बे माटे मृतिकाना पिंथी पण घटनी नृत्पत्ति नहियाय अथवा तो तंतु प्रभुखथी पण घटनी उत्पत्ति थवी जो ए. के मजे प्रकारणमां विशेषपणुं तेमना मतमां नथी माटे.
टीकाः अत्र च बहु वक्तव्यं ॥ तच्चाप्रकृतत्वान्नोच्यते ॥ एवं चाप्रमाशिकैकांत विषयतयोपपद्यते तत् ज्ञानस्याऽज्ञानत्वं ॥
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(५७६)
- अथ श्री संघपट्टकः
तथा वदेतुत्वया विकोपलं जत्व निष्फलत्वेच्यो पि ॥ यदाह ॥ सदसद विशेषणा | जब जह विनवलंजान ॥ नाणफलाभावा ॥ मिदिस्सि अन्ना ॥
अर्थः- श्र जगाए घणी वात ए संबंधी कदेवाय डे पण या प्रकरण बीजी वातनुं चाले वे माटे ते वातनो विस्तार नथी कता. हवे जे प्रमाणिक एवा एकांत मतने अंगिकार करनारनुं जे ज्ञान ते अज्ञान कहीए. केमजे ए ज्ञानने संसारनुं कारणप ढ़े तथा पोतानी इवामां आवे तेम अंगिकार करवाएं एमां रधुं बे ए हेतु माटे. तथा ए ज्ञाननुं निष्फळपणुं बे ए हेतु माटे ए त्रणे कारणे पण मिथ्या दृष्टिनुं ज्ञान ते अज्ञानज बे. ते वात शास्त्रमां कही बे जे मिथ्या दृष्टिना ज्ञानमां वस्तुनुं एकांत सद्रूप मानवामां तथा कां सद्रूप मानवामां विशेष नथी. तथा ते ज्ञान संसारनुं कारण बे तथा ते ज्ञान पोतानी इछा प्रमाणे कल्पेलुं ते तथा ते ज्ञाननुं फळ नथी माटे ए ज्ञान ते अज्ञानज बे.
टीकाः — एवं च सिद्धं तेषां वस्तुतो मूर्खत्वं ॥ तथा च तेषु सर्वज्ञत्वाध्यारोपो मिथ्यात्वमिति ॥ तत्वज्ञं समस्तशास्त्र रहस्य वेदिनं परमाईत पंचमहाव्रतधारिणं सर्वप्रायं सितांबर सूरिं श्रीयति मूर्खीयति ॥ एवं च तत्वज्ञे गुरावइत्वारोपो मिथ्यात्वविजृंजितं ॥
अर्थः--ए प्रकारे वस्तुताए तेमनुं मूखपणुं सिद्ध युं. वळी
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48 अथ श्री संघपट्टकः
(५७)
तेमने विषे सर्वज्ञपणानो आरोप करवो तेने मिथ्यात्व कहीए. ने तत्व पटले शास्त्र रहस्यनो जाप ने उत्कृष्टो श्राइत एटले सिंहतनां वचन प्रमाणे रहेनारो ने पंच महाव्रतधारी ने सर्वज्ञ जेवो जे श्वेतांबरसुरतेने मूर्ख जेवो जाये बे माटे तखना जाण एवा गुरुने विषे अज्ञानीपणानो प्रारोप करवो ते सर्व मिथ्यात्वनुं प्रकाशपणुं छे.
टीकाः एतावता चागुरौ गुरुभावना गुरौ चागुरुधीरिती मिथ्यात्वं लक्षितं ॥ उन्मार्गीयति उत्पयत्वेन मन्यते जैनमार्ग ॥ अपथं कुतीर्थिकमतं सम्यक्पथीयति सन्मार्गीयति ॥ अत्र च ॥ जैनमार्गस्योन्मार्गत्वं त्रयोबाह्यत्वादिना कुतीर्थ्यापथस्य च सत्पथत्वं तदंतर्भावा दिनाभ्युपगच्छंति मिथ्यादृशः ॥
अर्थः- ए करीने गुरुने विषे गुरुपणानी जावना ने गुरुने विषे गुरुपणानी बुद्धि एने मिथ्यात्व कहीए एम देखामयुं. जैनमार्गने उन्मार्गमां माने बे ने कुतीर्थी लोकोना मतने साचो मार्ग जाणे बे. या जगाए मिथ्यादृष्टिन जैनमार्गने उन्मार्गप स्थापन करे बेदी बाह्य र जतनुं बे इत्यादि कारणव ने कुतीर्थिनो जे उन्मार्ग बे तेने सन्मार्गपर्ण स्थापन करे व ते कुतीर्थीनो मारग वेदने नळतो आवे बे ए हेतु माटे.
टीका: - एतच्चासुंदरं ॥ त्रय्याः प्रामाण्येन हि तद्बाह्यतथा जैनपथस्योत्पथत्वं स्यान्न चैवमस्ति तस्यालोक लोकोत्तरविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाप्रामाण्यात् ॥ तथाहि धर्ममार्गस्य मूर्ख दया सर्वदर्शनेषु गीयते ॥ यदाद || पंचैतानि पवित्रालि,
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( १७८ )
-28 अथ श्री संघपट्टकः
सर्वेषां धर्मचारिणां ॥ श्रहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनं ॥ त्रय्याश्च यागादिषु बागा दिहिंसामुपदिशंत्याः कथं धर्ममार्गत्वं ॥
अर्थः- ए वात सुंदर बे एटले घटती बे केमजे जो वेदनुं प्रमाणपणं होयतो तेथे करीने निश्वे वेद बाह्य जैन धर्मनुं उन्मार्गप होय पण एम तो नथी. केमजे लोक विरुद्ध तथा लोकोतर विरुद्ध एवा प्रर्थनुं प्रतिपादन करवापणुं बे माटे वेदनुं छात्रमापं वे ए देतु माटे तेज देखाने बे. जे धर्म मार्गनुं मूल सर्व दर्शनमा एक दयानेज कयुं बे. ते वात शास्त्रमां कही बे जे धर्मना श्राचरण करनार सर्वे पुरुषोने या पांच वानां पवित्र बे एटले करवा योग्य बे, ते कयां? तो एक अहिंसा, बीजुं चोरी न करवी, त्रीजुं सत्य जाषण कर, चोथुं दान आपकुं, पांचमुं ब्रह्मचर्य राखतुं माटे यज्ञादिकने विषे बकर प्रमुखन हिंसा करवानुं नृपदेश करनार वेदमार्गने धर्ममार्गपणुं के मज होय ?
टीका:---अथ यी विदितत्वात्तहिंसाया धर्महेतुत्वेन स्वर्गफलत्वादव्यादतं तस्याधर्ममार्गत्वमिति चेत् न ॥ तस्या एव प्रामाण्यात् ॥ तथा हि त्रय्याः प्रामाण्यं यदद्भ्युपेयते जवता तत्कि मपौरुषेयत्वात् ईश्वर कर्तृकत्वात् उताव्याहतार्थप्रतिपादकत्वात् श्रादो स्विदव्य निचारिप्रमाजनकत्वात् ॥
अर्थ:-- हवे अन्यदर्शनी आशंका करे बे जे वेदमां कहेली हिंसा ते धर्मनुं कारण वे माटे निर्बंध एवं स्वर्ग फळ ते हिंसाथी प्राप्त थशे माटे वेदमां कहेली हिंसा ते धर्म मार्ग बे एम जो तारुं
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(१७९)
* अथ श्री संघपट्टकः
कहे होय तो ते न कदेवं, केमजे तेनुं श्रप्रमाणिकपणुंज ने ए हेतु माटे. तेज कही देखा बे जे वेदनुं प्रमाणिकपणुं तमो अंगिकार करो ढो ते शुं वेदवचन पुरुषे नथी कह्यां एम अपौरुषेय वचनपणुं एमां बे हेतु माटे. अथवा वेद ईश्वरे कर्या बे ए हेतु माटे. अथवा वेदमां परस्पर विरुद्ध अर्थ प्रतिपादन कर्यो नथी ए हेतु माटे. अथवा अव्यजिचारी प्रमाणनुं उत्पन्न करवापणुं एमां रचुं वे ए हेतु माटे.
टीकाः न तावदायः ॥ किल पुरुषाणां रागादिमत्वेन तद्वचनस्य प्रतारकवाक्य वदोषवत्ताशंकया दानोपादाना वि षयत्वेन त्रय्यास्तदद्भ्युपगमो भवतः ॥ एतच्चासंगतं ॥ वचन स्या पौरुषेयत्वासिद्धेः ॥ उच्यते इति वचनमित्यन्वर्थस्य विवक्षाप्र यत्नोदी रितकोष्टवाद्य निहन्यमानतात्वादिकारणकलाप मंतरेणानुपपत्तेः ताब्वादीनां च पुरुषमंतरेणासंभवात् ॥
अर्थः- दवे एः प्रकारे चार विकल्प उत्पन्न करी तेनुं खंमन करे बे जे प्रथमनो विकल्प पुरुषे वेद कर्या नथी तेनुं खंदन. जे पुरुषोने रागादि सहितपणुं बे तेणे करीने तेनां वचनने ग पुरुषनां वाक्यनी पेठे दोष सहितपणानी आशंका वने तमारे ते वेदनं अंगिकार करवाएं नथी ए आश्चर्य बे. केमजे तमारे तो हितका रीना वचननी पेठे अंगिकार करवाएं बे माटे ए वात असंगत बे. वेदवचन पुरुषनां कलां बे ए वात सिद्ध यती नथी. पुरुषनांज कलां बे. केमजे वचन शब्दनो ए अर्थ बे जे बोलीए तेने वचन कहीए. ए प्रकारे ए शब्दनोज घटतो अर्थ तेनी कड़ेवानी इलाव प्रयत्नथी उचारण थतो ने हृदयादि श्राव स्थानमां अफलातोज
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भी संप
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झाब्द तेनुं तानु आदिक जे नच्चारण स्थान ते प्रमुख जे. कारणनो समूह ते, विना तेन सिकि नथी. माढे पुरुष विना तालु. शादि स्थाननो संलव नथी ए हेतु माटे अपुरुषनो कहेलो वेद वे ए कान व्यर्थ पमी.
टीका-नापि द्वितीयः ॥ तस्य रागाविमत्वेन तमचन स्याप्रामाण्याशंकाकलं कितत्वात् ॥ रागादिमत्वं तस्यासिद्धमितिचेन्न अंगनादिसंबंधात्तदुपपत्तेः ॥ अभंगवस्थायां तदुपपत्तावपि परावस्थायां तदनावान चनस्य प्रामाएयमितिचेन ॥
अर्थः---हवे बीजो विकल्प जे वेद ईश्वरे करेलो ने तेनुं खंगन ॥जे ते तमारा ईश्वरने रागादि सहितपणुं २ माटे तेनुं वचन अप्रमाण ले एवी आशंकावमे कलंकित . त्यारे तमे कदेशो जे अ. मारा ईश्वरने रागादि नथी, तो एम न बोलयु. केमजे स्रीआदिकना संबंधयी रागादिक डे एम पोतानी मेळेज सिझ थाय ले. त्यारे तमे कद्देशो जे ए तो पूर्व अवस्थामां रागादिकनी उत्पत्ति ते पण पर अवस्थामा ते रागादिकनुं असिकपणुं माटे ईश्वर वचनरुपी वेदन प्रमाणपणुं . तो एम न कहे.
टीका:-नवदच्युपगमेन तस्यानादिसिमत्वावर्वापा. वस्थानिधानविरोधात् ॥ नवतु वा कथंचित्तस्यावस्थाप्यं तथापिपरावस्थायामपि शरीरपरिग्रहमंतरेण तावादि कारणाजावेन तस्य ऋषीप्रतिपादनासंजवात्कयं तस्यास्ततकर्तृकत्वं सिम्सेवा:
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बब मो. संघाहर
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अर्थः-केमजे तमारा मतने श्राश्रिते ईश्वरनी पूर्व अव. समा तथा पर अवस्था तेनुं जे कहे, तेमां विरोध बे. केमजे तमो ईश्वरने श्रनादि सिक मानो बो ए हेतु माटे. श्रथवा को प्रकारे ते ईश्वरनी बे अवस्था होय तो पण परावस्थामां पण शरीर परिग्रह कर्या विना अक्षरनुं उच्चारण करवामां कारणरूप तायुधादि स्थान विना वेदनुं प्रतिपादन करवानो संनव नथी. माटे वेदनुं ईश्वर कापणुं कम अंगिकार करीए?
टीकाः-नापि तृतीयः॥न हिंस्यात्सर्वजूतानीत्यनेनाविशेषेण हिंसानिषेधमनिधायानीष्टोमीयं पशुमालनेत वर्गकाम इत्यादिना तविधिमुपदिशंत्यास्तस्याः परस्पर विरुझार्थप्रतिपादनात् ॥ अथ स्वर्गादिफल विशेषोदेशेन हिंसाविधेरुपदेशा. न तेन सामान्यविधिविहितहिंसानिषेधव्याघातः ॥ अपवाद विषयं परिहत्योत्सर्गप्रवृत्तेरितिचेन विकल्पा सहत्वात्॥
अर्थः----हवे त्रीजो विकल्प जे परस्पर विरोध जणावनार तेनुं खंमन करे जे. जे वेदमा एम कयुं ले जे 'कोश् जीव प्राणी मा. अनी हिंसा न करवी.' ए प्रकारे हिंसानो निषेध कहीने वळी कछु जे जेने स्वर्गनी इहा होय ते अग्नि तथा सोम ने देव जेमनो एटले या संबंधी पशुतुं श्राखंबन करे.' इत्यादि वचनवमे हिंसानो विधि देखामनार वेदने परस्पर विरोधी अर्थने प्रतिपादन करवापणुं ने ए हेतु माटे. त्यारे अन्य दर्शनी बोल्यो जे स्वर्गादि फळ विशेष उहे. शोने हिंसा विधिनो उपदेश दे तेथो.सामान्य विधिवमे करेलो जे हिसानो निषेध ते प्रत्ये विरोध नथी, माटे अपवादनो परिहार करी
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(५८२)
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मय श्री संघपट्टक
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नुत्सर्गनी प्रवृत्ति थशे. त्यारे सिहांती बोख्या जे एम तमारे न बोलवं, केमजे विकल्प वमे सहन थाय एम नयी. एटले विरोध कल्प नत्पन्न करी एजें खंमन थाय .
टीकाः-न हिंस्यादित्यादिका हिश्रुतिः किं फलवती न वा न चेत् किमनयाऽजगलस्तनकरूपया फलोदेशाजावे प्रेक्षावत्प्रवृत्यनुपपत्तेः॥प्रयोजनमनुदिश्य न मंदोऽपि प्रवृर्तत इति न्यायात् ॥ फलवती चेत् केन फलेन किं स्वर्गादिना श्राहो शैहिकेन॥ नतोन्नयेन ॥
अर्थ:-जे न हिंसा करवी इत्यादिक जे श्रुति ते शुं फळ वाळी अथवा नथी? जो नथी तो बोकमीना गले स्तन थाय ने ने ते निरर्थक ले तेना जेवी निरर्थक एवी ए श्रुतिनुं शुं प्रयोजन ? केमजे ज्यारे फलनो उद्देश नथी एटले ए श्रुति करवानुं फळ नथी त्यारे बुद्धिवाननी प्रवृतिनो पण अन्नाव थशे, केमजे प्रयोजननो रदेश कर्या विना मंदबुद्धिवाळो पण नथी प्रवर्ततो. ए प्रकारनो न्याय ए हेतु माटे. ने जो ए श्रुति फळवाळी जे एम कहेशो तो कीया फळवाळी जे? शुं स्वर्गादि फळवाळी जे? अथवा था लोकना फळने कहेनारी ? अथवा आलोक परलोक संबंधी फळने कहेनारी ? :
टीका:-न प्रथमतृतीयौ ॥ विविदितश्रुतेरैहिकामु. मिकफलत्वे तयैव साध्यसिद्धेः कृतं निरपराधपशुवधानिधा-: यिना श्रुत्यंतरेण ॥ नापिहितीयः ॥ तदाहि ॥ प्रतिनियतफल
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अथ श्री संघपट्टकः ।
विषयतयोजयोरपि श्रुत्योः सामान्यविधिस्वं विशेषविधित्वं वा प्रसज्येत ॥ विनिगमनायां प्रमाणानावात् ॥
अर्थ:----प्रथमनो तथा त्रीजो ए बे विकल्प न ग्रहण कर. केम जे श्रागळ कहेली जे श्रुति तेथीज था लोक परलोकचें फळ सिक थशे. माटे अपराध विनाना पशुना वधने कहेनारी बीजी श्रुति ते वमे सयु. एटले बीजी श्रुति कहेवानुं शुं प्रयोजन ?वळी बीजो विकल्प पण नथी घटतो. केम जे बे श्रुतियोनुं फळ बरोबर नियमाये तो बे श्रुतियोनो पण सामान्य विधि अंगिकार करो अथवा विशेष विधि अंगिकार करो. केम जे एक श्रुति अंगिकार करवी एवा निश्चयनो अनाव के.
टीकाः न चैतद् नवतोप्यनिमत।तस्मान्न हिंस्या दित्यादि. श्रुत्यैव सकलसत्वान्नयदानप्रतिपादनखुर्खलितया ऽनायाससा. ध्यार्थया स्वर्गादिफल सिद्धेः किमनया यागकारिणां पिशितलोलता मात्रा निव्यंजिकयाऽमुत्र नरकपातका रिएया बहुवित्तव्ययायास साध्यार्थया पशुवधश्रुत्येति ॥
अर्थः-एक श्रुति एटले न हिंसा करवी कोश्नी, अथवा यज्ञमां हिंसा करवी, ए श्रुति ए बेमांथी एक मानवी एक न मानवी एवो तो तारो पण मत नथी. ते माटे समस्त प्राणी मात्रने अजयदान प्रापवानुं जे प्रतिपादन करवं तेमां दरिज एटले सर्वथा अजय दान कहेवा न समर्थ थती एवी ने प्रयास विना साध्य ने अर्थ जेनो एवी ने हिंसा करवी इत्यादि श्रुति तेणे करीनेज स्वर्गादि फलनी
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(५८)
49 अथ भी संघपट्टका
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सिकि थशे माटे यज्ञ करनारने मांस नक्षणनी लालच मात्रने ज. पावनारी ने परलोकमां नरकपात करावना ने घणा धननो खरच ने महा प्रयास तेणे करीने साध्य पदार्थने जणावनारी पशु मार. का श्रुतिनुं शुं प्रयोजन ?
टीकाः-नापिचतुर्थः ॥ यागादिविहितायां हिंसायाम: 'प्यहिंसाबुध्ध्युत्पादनेन रागादिमत्तयाऽनाप्तेष्वप्पाप्तबुझ्युत्पाद नेन च विपर्ययज्ञानजननात् ॥ तथा चोक्तं विप्रोत्तमेन परीक्षा पुरस्सरमन्युपेतजिनशासनेन श्रुतीनां परस्पर व्याहतार्थत्वा. दिक मीमांसमानेन प्रमाणिकचक्रचूमामणिना पमितधन पाखेन ॥
अर्थः-चोथो विकल्प पण घटतो नथी केमजे यज्ञादिकने विषे करेली जे हिंसा तेमां पण अहिंसा बुद्धिने उत्पन्न करनारी ए श्रति ले माटे.तथा पोतामा रहेला जे रागद्वेषादि दोष तेणे करीने अहितकारी एटले यज्ञने विषे हिंसाने कहेनार पुरुषो तेमने विषे हितकारी पणानी बुद्धि उत्पन्न करवा ते रूपो विपरीत ज्ञानने नुत्पन्न करवापणुं वेदमां रघु ने, ए हेतु माट ब्राह्मणमां श्रेष्ट परीक्षापूर्वक जिनशासननो अंगीकार ने श्रुतियोर्नु परस्पर विरुषार्थपणुं इत्यादि विचार करनार ने प्रमाणिक पुरुषना समूहनो मुकुटमणि समान पंकित धनपाल तेथे था प्रकारे कयुं .
टीका--स्पर्शोऽमेध्यक्षुजां गवामघहो वंद्या विसंज्ञा पुमाः
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अब भी संघपट्टक
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स्वर्ग'गगवाहिनोति च पितृन् विप्रोप्रनुक्काशनम् ॥
आप्ता उद्मपराः सुराः शिखिहुतं प्रीणाति देवान् दवि . श्वेत्थं वध्यु च फब्यु च श्रुतिगिरांकोवेत्ति लीलायितं ॥
अर्थः-अपवित्र वस्तुने लक्षण करनारी गायोनो स्पर्श पापने नाश करे डे, तथा संज्ञा रहित पीपळा प्रमुख वृक्ष वंदनीकडे, तथा क्करां मारवाथो स्वर्ग मळे , तथा ब्राह्मण लोकोए जोजन करे जे अन्न ते पित्रिलोकोने तृप्ति करे , तथा कपटी देव बे ते हितकारी , तथा अनिमा होम्युं जे हुतव्य ते देवताने प्रसन्न करेवे ए प्रकारे सुंदर अने वळा निष्फळ एवं वेदवाणीनुं बीलाचरण कोष जाणे?
टीकाः-एवं च त्रय्या अप्रामाएये कथं तस्या धर्ममार्गखं । तथा च सति तन्मूलस्य कुतोर्थिकपथस्यापि सन्मार्गत्व मपास्तं ॥ जिनमतस्यैव वनेकातरूपतया प्रवृत्तिनिवृत्याविरुप
सकललोकव्यवहारप्रवर्तकवेन प्रामाण्यं वत्प्रामाएयायुपग. • ममंतरेण वस्तुतस्तस्याप्यनुपपत्तेः॥
अर्थः-ए प्रकारे वेदनुं अप्रमाणपणुं बते धर्म मार्गपणं तेनुं होय? नज होय. ज्यारे वेदतुं अत्रमासपणुं थयुं त्यारे वेद ने मूळ जेतुं एवो कुतीर्थिक एटले अन्यदर्शन) तेना मारगर्नु पण खंगन थयु.ने जिनमतने तो अनेकांतरूपपणुंडे माटे प्रवृत्ति तथा निवृत्ति इत्यादिरूप जे सकल लोक व्यवहार तेनुं प्रवर्तकरपुं ते
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अथ श्री संघपट्टकः-
तेणे करीने प्रमाणिकपणुं . लोक व्यवहारर्नु प्रमाणिकपणु कर्यां विना वस्तुताए प्रमाण- पण अप्रमाणिकपणुं थाय.
टीकाः-यमुक्तं ॥ जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सबहा न नियम । तस्स नुवणेक गुरुणो, नमो अणेगंतवायस्स ॥
अर्थः-जे अनेकांत विना योगनो व्यवहार सर्वथा नथी नीपजतो,ते जगद्गुरु परमात्मानुं अनेकांत वाक्य तेने नमस्कार करुं बुं.
टीकाः--तथा च पूर्वापराऽव्याहतार्थप्रज्ञापकत्वादादि मध्यावसानेषु दोषवर्जितत्वान्निःश्रेयसपथत्वाञ्चेतरप्रतिक्षेपण तस्यैवसन्मार्गत्वं ॥
॥ यमुक्तं ॥ स्याच्छन्दयुग्नयसमुच्चयलीढसर्वे । नावावन्नासनमधोरप वर्गमार्गम् ॥ पूर्वापरयतिहतिव्युतमत्रिकोटि । दोषं मतं तु कुपयोपति कोऽत्र जैनम् ॥
अर्थः--वळी जैनमतमा पूर्वे कहेलो तथा पनी कहेंलो जे अर्थ तेनुं निर्बाधपणे प्ररुपकपणुं छे ए हेतु माटे, तथा आदि मध्य ने.अंत ने विषे दोष रहितपणुंडे ए हेतु माटे,तथा बीजामारग, खंमन कर तेणे करीन पोतानुज सत्यमार्गपणुं प्रतिपादन कयु बे माटे मोद सारग.
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-48 अथ श्री संघपट्टकः --
(१८७ ) पपुं जिनमतनुंज बे. ते शास्त्रमां कह्युं बे जे शब्द सहित जे नयनो समूह तेणे करीने व्याप्त एवा जे सर्वभाव तेनुं प्रगट करनार मोकुमारगरूप तथा पूर्व तथा अपर जे व्यवधान तेथे रहित तथा जेमां कोइ प्रकारनो दोष नथी एवा जिनमतने या जगतमां कोण कुमार्ग की शके ?
टीकाः — एवं च वास्तवे जैनमार्गे श्रश्रवास्तवत्वारोपः ॥ श्रवास्तवे च कुतीर्थ्यपथे वास्तवत्वसमारोपो मिथ्यात्वमहिम्ने ति। एतावता च तत्वे तत्वबुद्धिरतत्वे च तत्वबुद्धिरिति मिथ्यात्व लक्षणमा विजवितं ॥ स्वमगुणाग्रयमित्यादि तु पूर्ववत् ॥ तदाश्चर्यमेतन्मिथ्यात्वोपहता यदेवं विपर्ययेण सर्व मवसाय गुपिनो द्विषंतीति वृत्तार्थः ॥
अर्थ:--ए प्रकारे सर्वथा सत्य एवो जैन मार्ग छे तेने विषे असत्यपणानो जे आरोप करवो तथा यथार्थी एटले असत्य एवो अन्य दर्शनीनो जे मार्ग तेने विषे सत्यपणानो जे श्रारोप ते मिध्यात्वना महिमावके बे. एणे करीने तत्वने विषे तत्वनी बुद्धि करवी तथा अतत्वने विषे तत्वबुद्धि करवी एज मिथ्यात्वनुं लक्षण प्रगट कर्यु. तथा पोते गुण रहितना शिरोमणि बे तो पण पूर्वेकयुं ते प्रमाणे माने वे ए मोटुं श्राश्चर्य बे. पोते मिथ्यात्व व इणायेला बे तेथी एम विपरीतपणे सर्व जाणी गुणी पुरुषोनो द्वेष करे बे. ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो. ॥ ३२ ॥
टीकाः -- ननु किमिदानीं गुणिनिः प्रयोजनं संघ एव ज.
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((९८८ )
48 जय श्री सर्वपट्टकः
गवा निःशेषदोषमोषमः समाश्रीयतां ॥ जगक्तापि च तस्य महत्वेन नमरकृतत्वात्तथाच तदाज्ञया वर्तमानानां मोहः प्राणीनां संपश्यत इत्याशंक्याधुनातन संघवशवर्त्तिनो जव्यजन स्वाप पूर्व मोक्षाभावमुपदर्शयिषुराह ॥
अर्थ:-वितर्क करे बे जे या काळमां गुणी पुरुषोनुं शुं प्रयोजन बे ? केमजे संघ बे तेज महा ऐश्वर्यवाळो बे ने समग्रदोषने मूकाववा समर्थ बे माटे ते संघनो आश्रय करो. जगवान तीर्थंकरे पण तेनी मोटाइ जाणी नमस्कार कर्यों वे ए हेतु माटे. वळी ते संघनी आज्ञा प्रमाणे वर्तनार प्राणीनो मोक्ष थशे एवी आशंका कर। सांप्रत कालना संघने वश वर्त्तनार नव्यजनने तिरस्कार पूर्वक मोनोव देखावा इडता बता कदे बे.
॥ मूल काव्यम् ॥
संघत्राकृतचैत्यकूटपतितस्यातस्तरां ताम्यत स्तन्मुप्रादृढपाशबंधनवतः शक्तस्य न स्पंदितुं ॥ मुक्त्यै कल्पितदानशीलतपसो ऽप्पेतक्रमस्थायिनः संघव्याघ्रवशस्य जंतुदरिणत्रातस्य मोक्षः कुतः ॥३३॥
टीका: जंतवो धमार्थिनो जव्यसत्वाः त एवाऽचलत्वाम्मुग्धत्वात्सत्वर हितत्वाच्च दक्षिणा मृगास्तद्व्रातस्य तत्समुदायस्य ॥ क्षेत्पथप्रवृत्त जत्सूत्र प्रज्ञापकः श्रुताझा निरपेक्षः स्वष्टवचारी
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अथ श्री संघपट्टकः
(१८९ )
सातलोलुपः साधुसाध्वी श्रावका विकासमबायो भूयानिह संघ उच्यते स एव बलिष्टत्वात् क्रूरत्वात् व्याघ्रः॥ शार्दूलस्तशस्य तदधीनस्य दासवद्यत्रतत्र नियोज्यस्येति यावत् ॥
अर्थ :---.- धर्मना अर्थी एवा जन्य प्राणीरूपी जे मृगनो समूह, नव्य प्राणीने मृग जेवा शाथी कह्या? तो तेमनी नोळाशथी तथा बल रहितपणाथी, ते मृगने संघरूपी मोटा वाघे फाल्यो बे. ते संघ की यो? तो जैनमार्ग मुकी उन्मार्गे चालतो, तथा उत्सूत्रनी प्ररुपणा करतो, तथा शास्त्रनी श्राज्ञानी अपेक्षा न राखतो, पोतानी नजरमां श्रावे तेम चालतो, तथा शातासुखनो लालची एवो साधु साध्वी श्रावक श्राविकानो घणो जे समूह तेने संघ कहीए. तेज बळवानपणाथी तथा क्रूरपणाथी वाघ समान बे तेने प्राधीन थयेलो एटले दासनी पेठे ज्यां त्यां मोकलवा योग्य एवो जे पुरुष तेनो मोक्ष क्यांथी दोय ए प्रकारे संबंध बे.
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टीका: --- द्वितीयपके पास विषयीभूतस्य ॥ मोक्ष इति श्लिष्टं पदं ॥ तेन जंतुपदे मोको निर्वाणं ॥ हरिणपक्षे च बुटनं व्याजात्पलायनमिति यावत् ॥ कुतः कस्मान्नकथं चिदित्यर्थः ॥ ननु मुक्त्यनुगुणानुष्टानाभावात्तस्य मोक्षाजावः किमायातं संप्रस्येत्यत श्राह ॥
हवे बीजो पत्र एटले जेम कोइ पुरुषने वाघे मनबूत फाल्यो होय ते क्यांची मूकाय? तेम जन्य प्राणीरुपी हरिण संघरुपी
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(१९०)
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जय श्री संघपट्टक
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आकरा वाघे पकम्युं ने ते कयांथी मूकाय? एटले तेनो मोक्ष क्याथी थाय? हरिणपक्षे क्याथी बूटे? क्याथी नाशे? एवो अर्थ करवो. नाशवानो को नपाय नथी ए अर्थ बे.ते जगाए कोश्याशंका करे जे मुक्तिने अनुसरती क्रियानो अन्नाव डे माटे तेनो मोद नथी थतो तेमां संघनो शो वांकले तो ते जगाए विशेषण कहे .
टीकाः----मुक्त्यै निश्रेयसाथ कल्पितदानशीलतपसोपि स्वबुद्ध्या विहितजिनादिवितरणदेशचारित्रानशनादेरप्यास्तांतदितरस्येत्यपि शब्दार्थः।।कथं तर्हि मोक्षानाव इत्यत श्राह॥ संघाय लिंगिसमुदायाय देयानि कृतानि देये त्राचेतित्रा तजितः॥ ततश्च संघत्राकृतानि श्रावकलोकेन नक्त्या स्वअविणेन निर्माप्य सिंगिन्यस्तद्देशनयैव वा साद्यर्थसमपणेन तदायतीकृतानि चैत्यानि ॥
अर्थः---जे मुक्तिने अर्थे पोतानी बुद्धिए कह्यां ने एटले कर्या ने दान शील तथा तप ते जेणे. नावार्थ ए ले जे पोतानी बु. दिए कल्पना करी कयाँ ले जिनादिदान तथा देशचारित्र तथा अनशनादिक ते जेणे. एवानो पण मोद नथी तो बीजानो क्याथी होय? एम अपि शब्दनो अर्थ जे. केम मोक्षनो अनाव कहोडो? तो ते जगाए कहे जे जे लिंगिठना समूहने आपेसां जे चैत्य एटले श्रावक लोकोए नक्तिनावे पोताना अव्यवमे निपजावी लिंगधारीनी देशनाथी लिंगधारीने रहेवा सारु लिंगधारीने आप्यां एवां जे चैत्य एटले लिंगधारीउने श्राधीन करेलां जे चैत्यमंदिर.
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बब भी संवाहका
टीकाः- चैत्यानि जिनायतनानि तान्येव कूटा हरिणबंधन यंत्र विशेषाः ॥ अथ कथमिह चैत्यानां कुटनिरूपणं ॥ यावता दर्शनवंदनादिना नव्यानां रागद्वेषकषायाद्यरूषितशुन्नचिः तोत्पादनेन नवगुप्तमोचनहेतुर्जिनबिंबं जिनजवनं वा चैत्य मुच्यते ॥
अर्थः-ते जिनमंदिर रूपी जे कूट कहेतां हरिणने बांधवाना कोइ प्रकारना यंत्र विशेष. हवे तेमां को आशंका करे जे जिनमंदिरने नव्य जनरुपी हरिणने बांधवाना यंत्र विशेष केम क. होबो? एतो दर्शन वंदनादिके करीने नव्य प्राणीने रागद्वेष कषाया. दिके रहित शुन चित्तने नत्पन्न करे तेणे करीने संसाररुपी बंधी. खानाना घरथी मूकाववानुं कारण जिनबिंब तथा जनमंदिर तेने चैत्य कहीए.
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥ चित्तं मुषसत्थ मणो तत्तावो कम्म वाविजंतस्स ॥ तं चेश्यंति जनश, उषयारो होश जिणपमिमा।
टीकाः-कूटश्चबंधनहेतुरनिधीयते ॥ मोचनहेतुबंधन हेत्वोश्चमहवैषम्यं ॥ तथा चानयोरुपमानोपमेयत्नावाजावेन त - दनेदस्य रुपकलक्षणस्येदाऽनुपपत्तेः॥ कथं चैत्यानां कूटैरजेदापू • प्यरुपणनाव इति चेत्सत्यम् ॥
अर्थः---ने बंधन हेतु होय तेने कूट कहीए, मोचन हेतुने बंधन हेतु ते बेमा मोटु विषमपणुं वे एटले घणो आंतरो के मादे
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च भी संघपट्टका
ए बेने नपमान नाव तथा नपमेय नावनो अन्नाव ए हेतु माटे ते बेनो बन्नेद करी रुपकालंकार करो जो पण ते रुपकालंकार ब. क्षणनी था जगाए असिकि. तेथी चैत्यनुं तथा कूटर्नु अनेदपणाथी रुप्यन्नाव तथा रुपणनाव केम होय, एम जो तुं कहेतो होय तो तेनो उत्तर सिद्धांती कहे .
टोकाः--यानि चैत्यानि मुक्तिकृते सिद्धांतविधिना खिं. गिनां निश्रा निवासविरहेण आजैविधायते तानि संसार गुप्तिमोचन निबंधनानि नवंति ॥ एतानि तु प्रकृतचैत्यानि मुग्धान् प्रोत्साह्य स्व निवासाद्यर्थ कथमाजन्मामी श्राझा अ. स्माकं नोग्या नविष्यति इत्याशयेन तेषां तत्र ममकारोत्पादनेन नियमनार्थ लिंगिनिः कारितानि तत्कथमेतेषां मोचनहेतुत्व।
अर्थः-जे चैत्य मुक्तिने अर्थे सिद्धांत विधिवमे लिंगधारोनी निश्रा निवास विना श्रावके कराव्यां होय तेतो संसाररुपी बंधीखानाथी मूकावानुं कारण होय. चैत्य तो लिंगधारीए पोताने रदेवा सारु इत्यादि कारणे नोळा लोकने उत्साह पमामी करावेलां तेमां विंगंधारीउनो श्रा अभिप्राय जे आ श्रावक लोकने जन्मारा सुधी आपणे नोगववा योग्य कये प्रकारे थाय एम धारी ते चैत्यमंदिरने विषे श्रावकोने ममत्व नत्पन्न करी तेमने बांधी रा. खंवा सारु लिंगधारीउए करावेलां चैत्य तेमने संसारथी मूकाव. नार केम कहेवाय ?
टीकाः-प्रत्युत बंधन निबंधनत्वमेव पूर्वोक्त
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जब भी संवाहका
शमानं संगच्यते ॥ एवं चैत्यानां कूटैरत्यंत बंधनहेतुत्वसाम्येना नेदविवक्षणायुक्तौ रुप्येण रुपण नावति ॥ एतेन विविक्षत चैत्यानां बमिशपिशितवदित्युपमानेनाऽनायतनत्वं प्राक्प्रतिपादितमपि पुनर्विनयजनमनःप्रतीतिदाढर्यार्थ मिहापि तदेवव्यं जितमिति अष्टव्यं ॥
अर्थः-नुलटां बंधन, कारणज बे, पूर्व कहेला युक्तिव विचार करतां ए वात सिक . ए प्रकारे चैत्यने अत्यंत बंधननुं कारणपणुं तेणे करीने कूट जे मृगबंधन पास तेनी साथे समानपणुं कर्तुं. ते साथे अनेदपणानी युक्ति कहे सते रुपकालंकार कर वा योग्य वस्तुवमे रुपकालंकार थयो. एणे करीने या कहेवामामेला वनीशपिशित एटले मत्स कालवानो लोढानोआंकमो तेमां घालेला मांसने लक्षण करवा श्रावतां जे मत्स ते बंधन पामे तेम श्रावक खोको चैत्यमंदिरनो ममता करी बंधन पामे जे एम पूर्वे नपमा दीधी २ तेणे करीने अनायतनपणुं स्थाप्युं . तोपण फरीया जे आ कह्यु तेतो शिष्यनां मनने दृढ प्रतिति थाय ते सारु अहीं पण ते वात जणावी जे एम देख.
टीका-श्रायतनत्वे गर्हिततमैः पापोपकरणैः कूटैस्तेषां रूपणानुपपत्ते. ॥श्यांस्तु विशेषस्तत्र बिंबस्यैव तत्सूवितमि इविंबानां तदायतनाना च॥ तथा तत्रोपमानेन जिनेनैवोपमे. यस्याऽनायतनत्वमाविकृतं ॥ उपमानोपमेययोर्नेदेनैवोपमायाः प्रवृत्तेः ॥ इह त्वेवं नाम कूटैश्चैत्यानां साम्यं येनोनयथाप्य नेद विवक्षया कुटत्वेन रूपितानि चैत्यानि ॥
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( ५९४ )
वि श्री संघपट्टक
अर्थः- श्रति निंदित एवां पापनां नृपरणरूप जे मृग बंधन पास तेथे करीने चैत्यनुं श्रायतनप कहेतु. तेमां रूपकालंकारनी उत्पत्ति नयी यती, पूर्व करता आलु श्र जगाये विशेष कर्तुं बे. पूर्वे बिंबनी सूचना करी हती अने या जगाये तो बिंबोनी तथा तेनां स्थाननी अनायतनपणानी सूचना करी. वेळी पूर्वे नृपमान वस्तु जूदी राखी उपमेय पदनुं श्रनायतनपणुं प्रगट कयुं हतुं केम जे उपमानने उपमेय ए बेना नेदवमे उपमा अलंकारनी प्रवृत्ति चाय बे ए हेतु माटे आ जगाये तो छूट एवा नाम वमेज चैत्यनुं सरखाप कयुं. जेणेकरीने बे प्रकारे एटले नाम वने तथा अलंकार 'पने मृग बंधन पासनी साथे चैत्यनो श्रजेद कद्देवानी इच्छा बे माटे कूट शब्दे करी चैत्यमुं निरुपण कर्यु.
टीका: तथा च रूपकालंकारेणोपमानादभेदेनोपमेय 'स्यातिशयने ताद्रूप्यमनायतनत्वं प्रत्याख्याप्यते ॥ तथा च तक्षणं ॥ तद्रूपकमनेदो य उपमानोपमेययोरिति ॥ तद्युकमुक्तं चैत्यान्येवकूटा इसि ॥
अर्थः-वळी रूपकालंकारे करीने उपमानथी उपमेयनुं दप कहेतुं ते करोने अतिशे ते सरखं श्रनायतनप प्र त्याख्यान कयुं एटले जे मृगनी पेठे बंधन करमार चैत्य ने तेनुं पञ्चखाण करीए बीए. वळी ते रूपकालंकारमुं लक्षण या प्रकारनुं बे. जे उपमान पद तथा उपमेय पद ए बेनो जे अद करवो तेने रूपकालंकार कहीए. माटे चैत्य एज संघरूपी मृगने बंधन पास बे एम कयुं ते युक्त बे.
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श्री संघटक
टीका:-श्रत एव सिंगिपरिगृहीतचैत्यानां युगप्रवस्थी जिन वहनसूरिदेशना निशमनादनायतनत्वं निनीय श्री चित्रकूटे प्रजुन्नक्तश्रावकैः श्रीमहावीरजिननिकेतनं विधिचेत्यं विधिपथविकाशयिषया निर्मापयांबलूवे ॥ तथा चेतवर्ष सत्यापिका तत्रत्या प्रशस्तिः॥
__ अर्थः---एज कारण माटे वेष धारियोये गृहपा करेखां ने चैत्य तेनुं युगप्रधान एवा श्री जिनवबनसूरि तेमनी देशना सांजळवाथी अनायतनपणानुं निश्चय करी श्री चित्रकूटने विषे प्रानुन उक्त एवा श्रावक लोकोये श्री महावीर स्वामीनुं स्थान जे: विधिचैत्य तेने विधि मार्गनो प्रकाश करवो एवी लाए नोपजाब्युं, ते अर्थनुं सत्यपणुं स्थापन करनारो आ प्रकारनी त्यांनो प्रशस्ति , ते प्रशस्तिनां काव्यो था प्रमाणे डे.
“कुप्राचीर्णकुबोधकुग्रहहते स्वं धार्मिकं तन्वति । हिष्टानिष्टनिकृष्टधृष्ठमनसि क्लिष्टे जने नूयसि ॥ ताहगलोकपरिग्रहेण निविमोषोपरागग्रह । अस्तैस्तद्गुरुसास्कृतेषु च जिनावासेषु चूम्नाऽधुना ॥ तवद्वेष विशेष एष यद सन्मार्गे प्रवृतिः सदा । सेयं धर्मविरोधबोधविधुतिर्यत्सत्पथे साम्यधीः॥
तस्मात्सपथमुछिनावयिषुचिः कृत्यं कृतं स्यादिति। . श्रीवीरास्पदमाप्तसम्मतमिदं ते कारयांच किरे॥
टीका व्याख्या-जीरास्पदं श्रीमहावीरजिनगृहं प्रा.
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(१९९६)
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अथ श्री संघपट्टका
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तसंमतं सद्गुरुणामनुमतं इदं प्रत्यकं ते प्रायुक्ताः श्रावकाः कारयांचक्रिरे विरचयांबनूवुः ॥ श्रथ तत्रान्यदेवगृहसद्जावे. पि तद बहुमानादपर विधापनेन तेषां जगवदाशातना प्रसंगा. किमिति तत्कारयामासुरित्यत आह ॥
अर्थ:--हवे ए प्रशस्तिनां वे काव्य ले तेनी व्याख्या करे बे. जे श्री महावीरस्वामी, घर तेने सद्गुरुना अनुमतथी पूर्वे कहेला जे श्रावक तेमणे आ प्रत्यक्ष कराव्यु. ते जगाये आशंका करी उत्तर आपे जे जे त्यां बीजां देवमंदिर घणां हे तोपण बीजें देवमंदिर करावq तेणे करीने पूर्वे देवमंदिर करावेदूं होय तेनुं बहुमानपणुं रेहेतुं नथी, तेथी नगवंतनी आशातनानो प्रसंग थशे माटे शा वास्ते तेमणे नवु जिन मंदिर कराव्युं तेनो उत्तर कहे जे.
टीकाः-कुडाणां लिंगिनामाचीर्णानि सिद्धांतोक्तमपि श्रीमहावीरस्य षष्टंग पहारकस्याणकं खजनीयत्वान कर्तव्य मित्यादिका आचरणास्ततश्चाचीर्णानि च कुबोधश्च कुग्रहश्च तैईते दृषिते स्वं धार्मिकं तन्वति वयमेव धार्मिका इति सर्वत्र प्रत्याख्यापयति हिष्टं मात्सर्यवत् अनिष्टमपायकरणप्रवणं निकृष्टमधर्म धृष्टं पापं कुर्वतोऽनुपजायमानशंकं मनश्चित्तं यस्य स तथा
अर्थः जे लिंगधारीए करेली जे सिद्धांतमां कहे एवं पण श्री महावीरस्वामीनु नहुं कल्याणक:जे ग पहाररूप ते घणुं बजा पामवा योग्य २ ए हेतु माटे न करवं, इत्यादि थाचरणा तथा कुबोध तथा कदाग्रह तेणे करीने लोकने दोष पमाणे
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4 जय श्री संघपट्टकः
( ५९७ )
ते तथा अमेज धर्मनिष्ट बीए ए प्रकारनी वात सर्वत्र प्रसिद्ध करे बसे तथा मत्सर सहित अने अनि करवामां तत्पर तथा अभ्रम तथा पाप करतां पण जेने शंका थती नथी ए प्रकारनुं बे मन जेनुं एवो लोक थये ते
टीका:-- तस्मिन् क्लिष्टे धार्मिकान् प्रति छुराध्यवसाये एवं विधे संप्रति जूयसि प्रभूते जने लोके सति श्रथ यद्येवं विधो न्यान्खोकः संप्रति ततः किमायात मपरचैत्य विधापनस्येत्यत - या ॥ तादृक्लोकपरिग्रहेण प्रायुक्त विशेषणविशिष्टजनाधीनत्वेन निविद्वेषरागग्रदेष तीव्रगुणवन्मात्सर्योदग्रस्वमतानुरागानिनिवेशेन ग्रस्ता वशीकृता ये एतद्गुरवः प्रागनिहत जनाचार्यास्तत्सात्कृतेषु ॥
अर्थ:-- तथा धर्म निष्ट पुरुषो उपर क्रूर अध्यवसाय जेने वे ए प्रकारना या कालमां घणा लोक थये बते नवुं विधि चैत्य कराव्युं एम आगळ संबंध जाएावो. आशंका करी उत्तर कड़े बे. जै वे ए प्रकारना घणा लोक या काळमां थया तेथी बीजं चैत्य कराव्यामां शुं कारण प्राप्त थयुं ? तो तेनो उत्तर कहे बे. जे पूर्वे विशेषण कलां तेथे सहित एवा लोक साथै पराधीनपणुं ययुं तेथे करीने तथा जे आकरो गुणवान साथे मत्सर तेथे करीने मोटो पोताना मतनो अनुराग थयो तेथे करीने वश थयेला एवा पूर्वे कहेला लोकोना श्राचार्य तेमने सर्व चैत्य अर्पण करे बते नवुं चैत्य "करावयुं एम संबंध बे.
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अब श्री संघपट्टका
टीका:-देये साति तद्धितः ॥ ततश्चगुरुदक्षिणीकरणेन तदायतीकृतेषु जिनावासेषु चैत्यसदनेषु जूम्ना बाहुल्येन अधुना संजातेषु सत्सु ॥ ननु यदि संप्रति जिनालया दुष्टलोकपरिगृहीतालिंगिगुरुणामायत्ताश्च तत्किमेतावता वेषकारित्वादागमविरु. काधायित्वाच्च तेषामेव पातकं नविष्यति नवतां तु तत्रपूजावंदनादिकं कुर्वाणानां धर्मएवेत्यत आह
अर्थ:----यापवारुपी अर्थने विषे तकितनो सातिप्रत्यय - व्यो, तेथी एवो अर्थ थयो जे गुरु दक्षणा करवे करीने गुरुने स्वाधिन चैत्य मंदिर करे बते बहुधा आकालमां ए प्रकारे थये ते नर्बु चैत्य कराव्यु एम संबंध . ए जगाये आशंका करी समाधान करे
जे, जो आ कालमां जिनमंदिर पुष्ट लोकोए ग्रहण कर्या, लिंग धारी गुरुए पोताने स्वाधीन कयों ने एणे करीने तेमां शुं कारण कथु के जेथी नवं चैत्य कर पम्यु. केमजे क्षेष करवापणुं तथा श्रागमविरुक करवापणुं तेथी ते लोकोनेज पाप थशे. तमारे तो त्यां पूजा वंदनादिक करतां धर्मज थशे एवी आशंकानो उत्तर कहे..
टीकाः-तत्वषविशेषः सन्मार्गमात्सर्यप्रकर्ष एषः यदऽसन्मार्गे कुमार्गे प्रवृत्तिर्गमनपूजनव्यवहारः लिंगिपरिगृ. होतो हि जिनालयादिः सर्वोप्यसन्मार्गस्ततश्च सत्पथमवबुभ्यमाना अपि यनित्यमसन्मार्गे प्रवर्तते तन्नूनं तेषां सत्पथे द्वेषो मनसि विपरिवर्तते ॥
अर्थः-जे साचा मार्गने विषे जे अतिशे मत्सर से छोड़ने
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पर भी संवाहक
वर्ने ले माटे, एटले जे असत् मार्गने विषे प्रवर्तवू तथा जेब्रु पूजन करवू इत्यादि व्यवहार तथा लिंगधारीयोये ग्रहण करेलुं जे जिनमंदिरादि ते सर्व पण असत् मार्गज , ते हेतु माटे सत्य मार्गने जाणे ने तो पण जे नित्य असत्य मार्गे प्रवर्ते जे तेमना मनमां सत्य मार्गने विषे दोष विशेष वर्ते .
का:---कथमन्यथा तत्रैव प्रवृत्तिरतस्तत्र प्रवर्त्तमानानां ... धार्मिकाणामप्यविध्यनुमोदनमुग्धजनस्थिरीकरणादिना पाप: मेव ॥ सदा ग्रहणात् कदाचिदपवादेन तत्रापि प्रवृत्तिरतु...माता सेयं सैषा धर्मविरोधेन समर्मविशेषेण बोधविधतिःस. .बोधनाशो यत्सत्पथे सन्मार्गे कुपथेन साम्यधीस्तुल्यताबुद्धिः॥
अर्थ:-श्रने जो केषन वर्त्ततो होय तो त्यांज केम जवानी प्रवर्ति थाय? धार्मिक लोकने पण अविधि चैत्यमा जतां अविधिनी अनुमोदनाथी तथा मुग्ध लोकने त्यां जवा आववा विषे स्थिरपणं कखं इत्यादि कारणव पापज थाय डे ने ए धर्मी पुरुषने सत्य उ. पर थाग्रह रह्यो बे. तेथी कदापि अपवाद मार्गे श्रविधि चैत्यमा जवान शास्त्रमा श्राज्ञा ते आज्ञाथ। प्रवृत्ति साचा धर्म साथे केष थवे करीने साचा बोधने नाश करनार ले. केमजे सन्मार्ग अने कुमार्ग ए बेने विषे तुल्य बुद्धि एटले सरख बुधि थवाथी.
टीका:--सत्पथकुपथयाालोकतमसोरिव महदंतरं सत्पथ .. परिज्ञानेऽपि नित्यं कुपथप्रवृत्तौ तु तेषां सत्पथकुपथयोः साधारण्यं
चेतसि निविशमानं लक्ष्यते तथा च नूनं ते धर्मविद्वेषिणः सद्
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जब भी संपपका
बोधविधुराति॥ यस्मादेवं तस्मात् सत्पथं विधिमार्गमुहिनाव यिनिर्विधिचैत्यविधापनेन प्रकाशयनिरस्मानिः कृत्यं कृतव्यं कृतं विहितं स्यात्
अर्थः-सन्मार्ग अने कुमार्ग ए बेनुं अजवाळु अने अंधार एबेनी पेठे मोटुं श्रांतकं एटले क्यां प्रकाश अने क्या अंधकार ए बेनुं समानपणुं न होय, तेम क्या सन्मार्ग अने क्या कुमार्ग एये सरखां न होय. सन्मार्गनुं जाणपणुं थये ते पण जे निरंतर कुमा. र्गमां प्रवृत्ति करे तो तेना चिनने विषे सन्मार्गने कुमार्गने विषे साधारणपणुं रहेढुं जणाय डे, वळी ते पुरुषो साचा बोध विनाना बे. केमजे जे हेतु माटे अविधि मार्गमा प्रवृत्ति ले ते हेतु माटे विधि
चैत्यनें स्थापन करवू तेणे करीने विधि मार्गने प्रकाश करनार अ. .मोए ए करवा योग्य काम कयु ले.
टीका-विधिमार्गमासेषां ह्येतदेव कर्त्तव्यं यत् कुपथ पायोधिपातुकजविकोदिधीर्षया विधिमार्गस्य प्रकाशनं न चासो संप्रति पृथग्विधिचैत्यनिर्मापणं वनाप्रकाशयितुं शक्यते॥ शेष चैत्यानां प्रायेण सर्वेपामपिलिगिपरिग्रहेणाधिविना घातत्वात् ॥ ति देतो अस्माद्धेतोस्तेवो रास्पदमित्यादि पूर्वव्याख्यातमित्यानुषंगिकवृत्तघ्यार्थः
अर्थः-विधि मार्गने पामेला पुरुषोये निश्चे ए प्रकारनां कामज कर्यां जोइए, जेथी कुमार्गरूपो सनुममा पमता नव्य प्रापीने नकार करवानी खाए विधि मार्गनो प्रकाश थाय. मा कालमा
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19. अथ श्री संघपट्टका
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जुई विधि चैत्य कराव्या विना ए विधि मार्गनो प्रकाश करवा नथी समर्थ थता. बाकी रहेला सर्वे चैत्यमंदिर लिंगधारीए बहुधा प्र. हण कयों , तेणे करीने अविधि सहितपणुं देखाय जे ए हेतु माटे. इति शब्दनो हेतुरूपी अर्थ . नवं विधिचैत्य कराव्यु इत्यादि व्या. ख्यान पूर्वे कर्यु जे. ए प्रकारे चासता प्रकरणवशथी आवेलां वे काव्य तेनो अर्थ थयो.
टीकाः-सांप्रतं प्रकृतमुध्यते ॥ संघत्राकृतचैत्यकूटेषु पतितस्य प्रतिबद्धस्य कथंचित् सत्पथं प्रतिपरसोरपि तत्र गोष्टिकरवादिना स्वकारितप्रतिमाममत्वादिना वा नियमितत्वात्ततो नि गंतुमशक्तस्येति यावत्
अर्थः-हवे जे प्रकरण पूर्वे चालतुं श्रावे ते कहे , जे चैत्यरूपो मृगबंधननो पास तेने विषे पमेलो एटले बंधायेलो ते सन्मार्गने पामवा श्छे ले तो पण ते पुरुषने ते जग्याना लोको साथे गोठमी थवी इत्यादि कारणवमे अथवा पोतानी करावेली प्रति मानो ममत बंधावो इत्यादि कारणथी बंधायो २ ए हेतु माटे त्यांथा नीकळवा समर्थ नथी थतो.
टीका:-हितियपक्षपतितस्य बकस्यतथांतस्तरांताम्यतः सन्मार्गबहुमानित्वात्ततो निर्जिगमिषोरपि निर्गमाऽसानात् ॥ जविता कदाचित्तदिनं यत्रैतस्मादसत्पथादहं निर्गमिष्यामीत्येव मतिशयेनांतःकरणमध्ये चेतोमर्मणीति यावत् खिद्यमानस्य ॥
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अब भी संवपट्टका
अर्थ:-मृगपहे पतित शब्दनो बांधवारूपी अर्थ जे. वळी अंतःकरणने विष खेद पामतो एटले सन्मामने बहुमान करे ने तेषी असल्मार्गमाथी नीकळवा इछे , तो पण नीकळी शकतो नवी ने एम विचार करे जे जे, अहो! ते दिवस मारे क्यारे श्रावशे जे विषस असत् मार्गथी हुँ नीकलु ए प्रकारे अंतरमां खेद करतो.
टीका नन्वेवं चेन्निर्गतुंतस्य तापः तर्हि किं चैत्यैषु गोष्टिकवादिप्रतिबंधेनेत्यत आह न शक्तस्य न कमस्य स्यंदितुंचलितुं ततो निर्गमनाय बहिः श्चेष्टयोद्योगमात्रमपि कमिति यावत्।कुत इत्यत थाहातब्देन संघः परामृश्यते तस्य संघस्य मुखाश्चतुई. श्यारिकाः पर्वतिथय एतदाचार्यसंवादेन तपोनियमादिकृते प्र. माणीकर्तव्या नान्यथेत्येवमादिका व्यवस्था ॥ __ अर्थः--ए जगाए श्राशंका करि कहे जे जे, जो ए प्रकारे तेमने चैत्य बंधन पासथी निकळवा परिताप थतो होय तो चैत्यने -विषे गोष्टि करवादि प्रतिबंधवमे शं? कां नहीं. तेनो नत्तर कहे ले जे, त्यांथी निकळवा समर्थ नथ। थतो एटले बारणे निकळी इष्ट पुरुषनो याग मात्र करवा पण समर्थ नथी थतो. त्यां कहे ले जे तत् शब्द वझे संघ कहेवो. ते संघनी मुखाओ एटले चउदशी प्रमुख पर्व तिथियो ते तिथिो आचार्य पुरुषोना संवादे करीने जे नियमने अर्थे प्रमाण करवा योग्य ले तेज प्रमाणे ग्रहण करवी बीजी रीते न करवी. इत्यादिक जे लिंगधारिमोनो मर्यादा.
टीकाः-यदाह ॥ चैत्येऽस्मिन्नथवामुकत्र वसतो तिथ्यः क्रियंसे यथा,
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+ अथ श्री संवकर
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सर्वत्रैव चतुदशीप्रभूतया कार्यास्तथा नान्यथा ॥ जिका न वृतिनां न चात्र वसतिया तथामी यतो, निर्वास्या न च मंदिरं जगवतः सोढव्यमेतन्मते.
अर्थः-हवे ते लिंगधारिओनी बांधली मर्यादाओ कहे हैं, जोळा सोकने बंधनपासमा नांखवा लिंगधारिख कहे जे,मा. त्यमा अथवा आ स्थानमांज निरंतर चोदश प्रमुख तिथी कस्ती. हवे ए प्रकारचें माननार पुरुषो ए व्रतवाळाने एटले सुविहित नाम धरावी फरनार मुमिदने निक्षा तथा निवास ते न आपवो. त्यारे शुं करतुं ? तो तेमने कहामी मुकवा. एटखे देखो खांथी सुविहित मुनिने मारी कहामवा ए लावार्थ बे. जगवानतुं नवं मंदिर एटले नवु विधिचैत्य कराव्युंजे ते सहन करवा योग्य नथी,ते क्षमा करवा योग्य नथी. केम जे ए तो एमना मतनुं . ए प्रकारे लिंगधारी मर्यादा बांधे .
टीका:-एषां न केनचिददो सविधे विधेया,
धर्मश्रुतिर्वत गृहीतिरनीतिलाजां ॥ - देयं न चैत्यगृहवेशनमन्यथा वो,
ऽकामेन मूर्धनि पतिष्यति राजदंमः ।
घ की अनीलिमे नजगार एवा विधिवादी खोको पाले कोर क्वारे पण धर्म सांगळवा मजयो. तमासा न ग्रहण करईं, ने चैत्य घरमां पेलवा बम देखने को पत्रही कसेको समारे माये शोषितो राज कपको
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अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- एवमाद्याः स्वतोऽमुझे कुमुद्राः प्रवर्त्तिताः ॥ वराकान् मुग्धसारंगानू, हा बध्धुं वागुरा इव ॥
६०१ )
अर्थः- पोते शास्त्र मर्यादा रहित निरंकुशपणे वर्त्तता ने जोळा लोकोने जेगा करी पोतानी कपोल कल्पित मर्यादाउने प्रवनवनारा लिंगधारीन ए मुग्ध लोकरूपि हरिणनां रंक टोळांने बांवा ए प्रकारनी मर्यादारूपि पास प्रवर्त्तावे बे.
टीका:- ततश्च तन्मुद्वैव दृढं निविमं पाशोमृगादिबंधनार्थं दवरका दि निर्मित थि विशेषस्तेन बंधनं संयमनं तद्वतस्त दन्वितस्य स हि संघमुद्रामुदितस्ततो निर्गमनवार्त्तामपि कस्यापि पुरतो वक्तुं न शक्नोति किं पुनर्निर्गंतु मित्यर्थः
अर्थः- ते माटे संघरूपि एक बाप धरावी एहीज दृढपास जेम मृग बांधवाने सुतरनी दोरिनने गांठ्यो वाली पासला रचे बे तेम संघ नाम धारण करवादि पासमां नांखेला लोको त्यांथी नीकळवानी वातने पण कोइ पासे कड़ेवा समर्थ नथी थता तो बिचारा ए लिंगधा रिर्जना पासमांथी नीकळवा क्यांथीज समर्थ थाय? एटलो अर्थ बे.
टीकाः तथा एतस्य संघस्य क्रमस्तनिर्दिष्टा रात्रिस्नात्रादिका परिपाटी तत्स्था यिनस्तद्वर्त्तिनः द्वित्तीयपक्षे तु हरिणं प्रहारार्थमुक्किप्य सतिः पादक्रमस्तद्गोचरगतस्येति ॥ ततोऽयमर्थः ॥ यथा व्याघ्रमास विषयस्य तत्क्रमगोचर
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अथ श्री संघपट्टका
स्य तत्रापि कूटपतितस्य अन्यथा हि पलाय्यापि कविता मोक्षः संन्नाव्यते तत्रापि निर्जिगमिषया चेतसि ताम्यतोऽपि पाशसंयमि तत्वेनांगस्यदनमात्रमपि कर्तुमशक्तस्य हरिणवातस्य न कथं चित्ततो मोक्षः संनवति ॥
. अर्थः--वळी ए लोक केवा जे ? तो लिंगधारीए देखामी जे रात्रिस्नान करवादिक परिपाटी तेमां रहेला बे. हवे बीजे पदे एम अर्थ थाय ले जे हरिणने मारवा सारु तैयार थएलो जे वाघ तेनी नजरे पमेलो. स्पष्ट अर्थ था प्रकारे जे. जेम वाघे हरिणने मारवा सारु पग उंचो कयों होय ते पग तळे जे हरिण आव्युं ते मुकाशे, एटले त्यांथी बुटी नाशीने पोतानुं जीवित बचावशे एवी वात केम संन्नवे ? न ज संनवे. केमजे चारे पासथी वाघनां टोळांये पग नंचा करी विकट स्थानमां घेरी लीधेलो पाशमां पमेलो हरिण डे माटे. जो एम न होय तो कदाचित् नाशीने बुटे एवो सं. नव करीए पण ते तो नथी, माटे ते स्थानमां ते हरिण नीकळी जवानी इच्छाए घणो परिताप पामे ले तो पण पाशमां पोते बं. धायो , तेणे करीने अंग हलाववा पण समर्थ नथी थतो, तो त्यांची नाशी पोतानुं जीवित बचाववा क्यांथो समर्थ थाय ! एटखे त्यांची ते हरिपने को प्रकारे मुकाववानी वातज केम संजवे? ..
टीका:-एवमस्यापि चैत्यप्रतिबद्धस्य सन्मार्गस्पृह्या निर्गतुं मनसि खद्यमानस्यापि संघमुज्या कीलितत्वेन सत्पथान्यु. पगमं प्रत्युद्यतुमप्पशक्नुवतस्ततत्क्रममनतिक्रामतः संप्रतितन संपाशावश्यस्य जंतुसंदोहस्य निर्वाणं न संजायत इति ।
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(२०)
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अब भी संघाहक
अर्थ-ए प्रकारे था चैत्यमां बंधाएला लोकोने पण साचा मारगनी मनमा वांच्छा ले तेणे करीने तेमाथी नीकळवार्नु मन डे • माटे खेद पामतो एवो तो पण संघ एवी एने माथे बाप दीधी तेणे करीने बंधन पाम्यो,माटे साचा मारग प्रत्ये जवालो उद्योग करवा असमर्थ थएलो अने तेनी बांधेली मर्यादानने पण उबंधन करवा समर्थ न थत्तो एवो भने संघनी आज्ञाने वश थएलो श्रा काळना नव्य लोकनो समूह तेनो मोझ नथी थतो.
टीका:-अथ कथमिह संघस्य क्रूरतया व्याघ्रण रूपणं॥ ... तत्वे हि तस्य नगवन्नमस्कारो न घटा मिययात्॥श्रूयते चतीर्थ
प्रवर्त्तनाऽनेहसिनमो तित्थस्सेत्यायागमवचन प्रामाएयेन जगवतस्तनमस्कार विधानं तत्कथमेतकुपपद्यत इति चेत् न ॥
अर्थ:-हवे प्रतिवादी श्राशंका करे ने जे, अहीं संघने करपणावके वाघ जेवं वर्णन कर्यु ते केम घटे ? तत्वपणे विचारतां जो बाघ जेवो क्रूर संघ होय तो तेने नगवान् नमस्कार करे वे ते न घटे. सांजळीए बीए जे, तीर्थ प्रवर्त्ताववाने अवसरे " नमो सिण्यस्स" इत्यादि श्रागम वचनना प्रमाणपणाए करीने नगवान् तेसं घने नमस्कार करे , ते वात केम युक्त होय ? हवे तेनो उत्तर कहे जे जे, जो तमे ए प्रकारे कहेता होय तो ते न कहे.
हीका-सहानामभवणाद् संघेपि प्रकृते वक्ता संप तेः॥ अन्यो हि संको जगनमस्कार विषयोऽन्यश्चाधुलिको प्राक
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अथ श्री संचयकर
(for)
निमतः । तथाहि ॥ गुणगुणीनोः कथं चित्तादात्म्येवेन ज्ञानादि गुणसमुदायरूपः शुद्धपथप्रथनबद्धादरोऽनुवंघितनगवच्चासनः वादिः सिद्धांते संघ इत्य निधीयते ॥
ध्यर्थः केम जे सरखं नाम सांजळवाथी जे संघ नभी अने संघ नाम धरावे ते प्रकरणमां तने साचा संघनी जांति थह बे तिथी एम आशंका करुं सुं, ते संघ निश्वे जूदो बे के जेने भगवान् नमस्कार करे छे, छाने या तो हमणांनो जे संघ बे ते तो तमोए मानी लीधो छे. तेज कड़े बे जे, कोइ प्रकारे गुण तथा गुणी ए बेसुं एकप कहे तेथे करीने ज्ञानादि गुणनो समुदायरूप अने शुद्ध मानवी विस्तार करवामां जेसे आदर बांध्यो बे ने जगवाम्मी आज्ञा जेरो उलंबन करो नथी एवो जे साधु प्रमुख तेने सिद्धां मां संघ को बे.
टीका: पदाद ||
सोविनापदंसण चरणगुण विजुलियाण समषाणं ॥ समुदार्ज होइ संधो, गुणसंघात तिकानुषं ॥
अर्थः-ते कही देखा बे जे ज्ञान दर्शन चारित्र गुणव सोजतो साधुनो सर्वे समुदाय तेने संघ कहीए. ते कीये प्रकारे ? तो सुखसंघ ए प्रकारे करोने एटले जे संघना गुण शास्त्रमां का बे, वे गुण सहित तेने संघ कही९, पण एकला नाम मात्रे नथी कक्षेता.
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(६८)
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अथ श्री संघपट्टका
टीकाः-एवं विधश्च संघो जगवन्नमस्कारविषयः ॥ स हि जगवानमस्यदखंमाखंमलमौलिमालाललितक्रमकमलोपि ती. र्थस्य सादास्रष्टापि प्राक्तनजन्मनिवर्तितनावसंघवात्सल्या दाहत्यं मयावाप्तमिति कृतज्ञता प्रदिदर्शयिषया सबहुमानदर्शनाच लोकोप्येनं बहु मन्येत इति जिज्ञापयिषया च तं नमस्कुरुते॥
अर्थः-ए प्रकारना जे संघ होय तेने जगवान नमस्कार करे , ते सर्व इंजना मुकुटनी श्रेणीवमे शोजता डे चरण कमळ जेमना एवा ने तो पण तथा तीर्थना साक्षात् करनारा ठे तो पण एम विचारे जे जे पूर्व जन्मने विषे नीपजाव्युं जे नाव संघनुं सामिवात्सल्यपणुं तेथीथमोए अरिहंतपणुं पाम्युंडे ए प्रकारे कृतज्ञपणानी जे देखामवानी इला तेणे करीने तथा सत्पुरुषना बहुमानने देखामवा माटे तथा लोक पण ए संघर्नु बहुमान करे इत्यादि जणाववानी श्वा जे ए हेतु माटे ते संघने नमस्कार करे.
टीकाः--गुणसमुदा संघो पवयण तित्थं ति हुंति एगठा ॥
तित्थयरोवि हु एयं, नमए गुरुनावउँ चेव ॥ तप्पुधिया अरया, पूश्यपूया य विशयकम्मं च ॥ कयकिचोवि जह कहं कहेश नमए तहा तित्थं ॥
अर्थः-ए वात शास्त्रमा कही बे, जे ज्ञानादि गुणनो स. दाय तथा संघ तथा प्रवचन तथा तीर्थ ए सर्वे एक अर्थवाळा , टे तीर्थकर पण निश्च मोटा लावशी ए संघने नमस्कार करे बे.
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-46 अथ श्री संघपट्टका (६०९) __टीकाः-इतरथा कृतकृत्यत्वेन जगवतो यथाकथं चित्तत्रैव जवे मुक्तिसंजवाकिमनेनेति सांप्रतिकस्तु नवदनिप्रेत उन्मार्गप्रज्ञापकत्वेन सन्मार्गप्रणाशकत्वेन जिनाझासर्वस्वखुंटाकत्वेत यतिधर्ममाणिक्यकुट्टाकत्वेन च गुणसमुदायरूपत्वस्य संघलक्षण- . स्यानावान संघः
अर्थः-एम जो न होय तो जगवान कृतार्थ थएला .. एटले जे करवानुं ते करी रह्या , अने जे ते प्रकारे तेज नवमां मोद जवाना हे माटे तेमने संघ नमस्कार करवो तेणे करीने शुं? काइ पण विशेष नथी. आ काळनो तमारो मानेलो जे संघ ते शास्त्रमा कलां जे संघनां लक्षण तेणे रहित ले माटे संघ नथी, केम जे गुणनो समुदायरूप संघ होय, एवां लक्षण तमारा मानेला संघने विषे नयो, आ तो नन्मार्गनी प्ररुपणा करे , ए हेतु माटे, तथा सन्मार्गनो नाश करे ने ए हेतु माटे, तथा जिनराजनी श्राज्ञाना सर्वथा चोर डे एटले जिनराजनी आझाना घणुं छेदन करनारा ने ए हेतु माटे, तथा यति धर्मरूप माणिक्य मणिना कुटनार ए हेतु माटे तमारो मानेलो जे संघ ते संघ नथी.
टीका-यमुक्तं ॥
केश नम्मग्गठियं उस्सुत्तपरुवयं बहुं लोयं ॥ दहुं नणंति संघं संघसरूवं अयाणंता ॥ सुहसीलाओ सर्व दचारिणो वेरिणो सिवपहस्स ॥ आणानहाज बहु, जणा मा नणद संघोत्ति ॥
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(१०)
-19 अथ श्री संघपहकः
M
अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही जे जे, नन्मार्गमा रहेला तथा नरसूत्रना प्ररूपक एवा घणा लोकने देखी केटलाक पुरुषो संघन्य स्वरूपने नथी जाणता माटे तेमने संघ कहे .सुखशिलीया तथा स्वबंदचारी एटले पोतानी नजरमा श्रावे तेम चालता एवा तथा मोद मार्गना शत्रुरूप तथा वीतरागनी श्राझाथी भ्रष्ट थएला घणा लोकना समूह तेने संघ ए प्रकारे न कहे.
टीका:-परं बहुकीका संघातरूपत्वात्सोपि संघ इत्य निधया लोकेऽनिधीयत इति मुग्धनाम्ना विप्रलब्धोसि ॥
अर्थः-वळी घणां हामकांना समूहरूपपणुं ले ए हेतु माटे एटले तारो मानेलो संघ ते हामकांना संघ जेवो ले माटे लोकमां संघ ए प्रकारे कहे , ए हेतु माटे हे मुग्ध ! संघ एवा नामची तुं उगायो.
टीका:-यमुक्तं ॥
एको साहू एका वि साहुणी सावर्ड य सट्ठीय आणाजुत्तो संघो सेसो पुण अहिसंघाउँ ॥
श्रतः संघलक्षणाजावान्नायं बहुमानमर्हति तद्बहुमानादिका. रिणो जगवत्प्रत्यनीकादिनावेनानिधानात् ॥
अर्थः---ते वात शास्त्रमा कही के जे, तीर्थकरनी श्राज्ञाए
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
(६४१ )
युक्त एवो एक साधु अथवा एक साध्वी अथवा एक श्रावक अथवा एक श्राविका होय तेने संघ कहीए अने ते विना शेष जे साधु साध्वी, श्रावक, श्राविकानो समुदाय तेने हारुकाना समूह जेवो संघ कही ए ए हेतु माटे, तमारो मानेलो जे संघ तेमां संघनां लक्षण नथी माटे ए बहुमान करवा योग्य नथी. अने तेने जे बहुमानादिक करे बे, ते जगवंतनो सामावाळी श्रो शत्रु बे इत्यादि मित्राय व शास्त्रकारनुं श्रा प्रकारे कहेतुं थयुं बे.
टीका: - यदुक्तं ॥
आणाए अवतं जो नववू हिऊ मोहदोसे || तित्ययरस्स सुयस्स य, संघस्स य पञ्चणी ओ सो ॥ तथा ॥ जो साहिज्जे वह श्राणानंगे पयट्टमाषाणं ॥ मणवायाकाएहिं समादोसं तयं बिंति ॥
अर्थ :--- ते वात शास्त्रमां कही बे जे तीर्थंकरनी श्राज्ञामां जे न वर्त्ततो तथा मोहरूपी दोषवमे वृद्धि पामेलो ते पुरुष तीर्थंकरनो तथा सिद्धांतनो तथा संघनो प्रत्यनीक बे, एटले सामावाळी यो शत्रुरूप बे. वळी जे स्वाधीनपणे वर्त्ततो एटले स्वछंदपणे चालतो, तीर्थंकरनी आज्ञाना नाशमां प्रवर्त्ततो एटले श्रीकरनी श्राज्ञा विरुद्ध प्रवर्त्तेलो एवो जे पुरुष तेने मन वचन कायाना दोष सरखो के एम कर्तुं बे.
टीकाः - श्रतएव सुखसी लतानुरागादेरसंघम पि संघ इत्य निदधतां प्रायश्चित्तं प्रविप्रादितं सिद्धांते
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4. अथ श्री संघपट्टकः
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॥ यदाह ॥
अस्संघ संघ जे, नणंति रागेण अहव दोसेण ॥
डेमो वा मूलं वा, पचित्तं जायए तेसि ।। । तस्मादू युक्तं क्रूरतया प्रकृतसंघस्य व्याघ्रतया रूपणं ॥
अर्थः----ए हेतु माटे सुखशीलयापणाना अनुरागथी जे संघ नथी तेने संघ कहे , तेमने प्रायश्चित्त करवानुं शास्त्रमा प्रतिपादन करेलुं सिक थाय , ते शास्त्र वचन श्रा प्रकारे , जे आ संघने एटले जेमां शास्त्रे कहेला संघनां लक्षण नथी तेने जे संघ कहे , ( रागे करीने अथवा षे करीने) ते पुरुषने बेद प्रायश्चित्त अथवा मूल प्रायश्चित्त नत्पन्न थाय , माटे जेनुं आ प्रकरण चाले ले तेवा संघने क्रूरपणाथी वाघ जेवो निरूपण करवो ते युक्त .
टीकाः-तथाच सिमस्तशस्य प्राणिगणस्य मोदानावइति ॥ नन्वेवं तर्हि सिद्धांतोक्त लक्षणस्य संघस्य संप्रत्यनावादनवन्मते तीर्थोच्छेदः प्रसज्यत इति चेत् ॥
अर्थः-वली ते संघरूपि वाघने वश थयेला जे प्राणीनो समूह तेनो मोक्ष न थाय ए वात पण अर्थात् सिक थर. हवे ए जगोए प्रतिवादी आशंका करे जे जे, जो तमे कहोगे तेमज होय तो सिझांतमां कहेला जे लक्षण तेणे :सहित होय तेनेज संघ कहीए तो था कालमां तेवो संघ नथी, माटे तमारे मते तीर्थनो बच्छेद
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48. अथ श्री संघपट्टका
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(६
थशे एवो प्रसंग प्रातःथयो. हवे सिझांती लिंगधारीउने पूडे जे, जो तमो एम कहेता हो के, तीर्थनो उच्छेद थशे तो ते जगोए तमने पुडीए बीए.
टीकाः-श्रथ केनं प्रमाणेन नवता तदन्नावो निरणायि॥ किं प्रत्यदेण नतानुमानेन अहोस्विदागमेनेति त्रयः कपास्त्रि. कूटाचलकूटा श्च मंदैर्दुरारोहा प्ररोहंति ॥ तत्र न तावत्प्रत्यक्षण अर्वाग्दृशां प्रत्यकेण सर्वत्र तनावस्य निर्नेतुमशक्यत्वात्तथात्वे च सर्वसर्वज्ञत्वापत्तेः॥
अर्थः--जे हवे कया प्रमाणे करीने तमोए तीर्थनो उल्लेद थशे एवो निर्णय कों? शुं प्रत्यक्ष प्रमाणवमे कों? अथवा अनुमान प्रमाणवमे कर्यो? के आगम प्रमाणवमे कर्यो? ए प्रकारे त्रण विकल्प नुत्पन्न थाय नेते त्रिकूटाचल पर्वतनां त्रण शिखर होय नही ? एम मंद बुद्धिवालाथी:आरोहण न थाय एवा पुर्घट . एटले त्रण विकल्पनुं समाधान थाय एम नथी, तेमांप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाणवतमारीवात सिझनथी थती, केमजे जेनी दृष्टि अवराएली ने, एटले जेने अल्प ज्ञान ले ते पुरुषोने प्रत्यक्षपणे सर्व जगाए तीर्थनो नछेद थशे एवो निर्णय करवानुं सामर्थ्य नथी ए हेतु माटे, ने जो सर्व पदार्थनो निर्णय करवानुं सामर्थ्य होय तो सर्व लोकने सर्वज्ञपणानी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे एटले प्रत्यक्ष प्रमाणवके आपण जेवाथी तीर्थनो नछेद निर्णय करी शकाय तेम नथी.
टीका-ततश्च क्वचिद्देशकालादौ तथानूतस्यापि संघस्य सं
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
m नावनास्पदत्वान्न प्रत्यक्षेण तदन्नावोऽवसेयः ॥ अथानुमानेने ति द्वितीयः कल्पः ॥ तथापि किं तदनुमानं ॥
अर्थः--ते कारण माटे कोइ देशकालादिकने विषे ते प्रकारनो एटले शास्त्रमा कला गुणवाळो पण संघ एम संजावनानुं स्थान डे ए हेतु माटे, प्रत्यक्षपणे तीर्थनो अन्नाव के एम न जाणवू. हवे अनुमानवमे तीर्थनो नछेद कहेवो ए प्रकारनो बीजो विकल्प तमारे मते तो पण बोलो जे ते कयु अनुमान, एटले ते कये प्रकारे अनुमान प्रयोग करो डो? ते कही देखामो.
टीका:--जवविक्षितः संघः संप्रति नास्ति क्वचिदनुपलज्यमानत्वात् प्रध्वस्तघटवदित्यनुमानमस्तीतिचेत् नाऽसर्व विदा मनुपलंनोपलंजयोर्नियतविषयत्वादेकत्र तदनुपलंन्नेन सर्वत्र तदनाचा सके
अर्थः-सिझांति लिंगधारीनो अनिप्राय कही खंमन करे जे, तमो कहेता हो के तमारो कहेलो संघ था कालमां नथी, केमके कोइ जगाए देखातो नथी. ए हेतु माटे नाश पामेला घमानी पेठे ए प्रकारनो अनुमान प्रयोग के एम तमारे न धार, कमजे स. वज्ञ नथी तेमने वस्तुनी प्राप्ति थायज अथवा न ज थाय एवी नियम नथी. एक जगाए जे वस्तु न दोगी ते वस्तुनो सर्व जगाए अनाव हशे एम वात सिह नथी थती.
टीकाः-तथा सिद्धांतप्रामाएयेन परीक्षापुरःसरं मृगयमा
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- अथ श्री संघपट्टकः
(६१५.) मध्यस्थैः कैश्चिच्चारुविचारचातुरीतस्पैरप्पैरिदानीमपि नावसंघस्योपलंनादनुपलच्यमानत्वादित्य सिद्धो देतुः ॥ कुट्या दिव्य वहितानां जूनिखातादीनां च विद्यमानाना मप्यस्मदादिनिरनु पलंनादनैकांतिकश्च ॥ तस्मानानुमानेनापि तदनावावगमः
अर्थः-वळी सिद्धांतना प्रमाणपणावमे परीक्षा पूर्वक खोळता जे मध्यस्थ दृष्टिवाला सुंदर विचारनी चतुराइने रहेवाना घररूप एवा केटलाक पुरुषोए था कालमां पण नाव संघ एटले तीर्थकरनी श्राज्ञामा रहेतो साचो संघ दीगे जे ए हेतु माटे तमारो मानेलो जे न देखवारूप हेतु ते असिक थयो एटले खोटो थयो नीत आदिकना अंतराय मां रहेली जे वस्तु तथा पृथ्वीमां खोदी घालेली जे वस्तु ते विद्यमान तो पण आपण जेवानी ह. ष्टिमां नथी श्रावती माटे तमारा हेतुने अनेकांति नामे अनुमानमां दोष लाग्यो, माटे अनुमान प्रमाणवमे संघनो अनाव जणातो नथी.
टोका--नाप्यागमेनेति तृतीयः कपः॥ ते नहि सम्यग्झानदर्शनचारित्रमयस्य जगवदाज्ञाप्रज्ञापननिष्णातस्य नावसंघस्य बहुमुंमा दिवचनतोऽल्पीयस्तयादुःषमाकालेपि प्र
तिपादनात्.
अर्थः--श्रागम प्रमाणवमे पण संघ नथ। ए प्रकारनो बीजो विकल्प तेनुं खमन जे समकित ज्ञानदर्शन तथा चारित्रमय एवाने जगवाननी आज्ञानुं जे कदेवू तेमां चतुर एवो जे
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49. अथ श्री संघपट्टक:
नावसंघ तेनुं दुखम कालने विषे पण प्रतिपादन . माथा मुंमा लींगधारी जगतमां बहु प्रवर्त्या . इत्यादि शास्त्र वचननी अ. पेक्षाये अतिशे थोमा सुविहित जे एम कहेवापणुं शास्त्रनुं थयु माटे दुःखम कालमां पण जावसंघ एवं प्रतिपादन आव्यु ए हेतु माटे.
टीकाः-॥ ययुक्तं ॥
णेगंतेणं चिय लो-गनायसारेण एत्यहोयत्वं ॥ बहुमुंमाश्वयणान, आणाश्त्तो इह पमाणं ॥ निम्मलनाणपहाणो, दसणसुको चरित्तगुणजुत्तो॥ तित्थयराणाथिज्जो, वुच्चइ एया रिसो संघो ॥ आगमन्नशियं जोप-नवेश सददर कुण्इ जहसत्तिं ॥ तेलुकवंदणिज्जो, उसमकालेवि सो संघो ॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही ले जे, आ लोकमां एकांत. पणे लोक न्यायने अनुसारेज न वर्तवु एटले जेम घणा लोक वर्षे बे, एमज केवळ न वर्तवं. केम जे, माथामुंमानां वचन जगतमां घणां ने, माटे जे तीर्थकरनी आझाए युक्त ने ते प्रमाण , श्रा जगाए तथा निर्मल ज्ञान जेने प्रधान , जेनी दर्शन शुद्धिथडे, ने चारित्र गुणवमे संयुक्त एवो जे संघ ते तीर्थकरने पण पूज्य डे. वळी जे आगममां कडं जे तेम प्ररूपणा करे ने सबहे , पोतानी शक्ति प्रमाणे करे , ते संघ दुखम कालमां पण लोकने
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-498 अथ श्री संघपट्टकः -
(६१७)
वंदन करवा योग्य बे.
टीका:- अन्यथा दुप्पसदंतं चरण मित्यादेरादुः षमातं चारित्रानुवृत्तिप्रतिपादकस्य जगद्वचनस्य व्याघातापत्तेः ॥ जाव संघमंतरेण तावंतमनेदसं चारित्रानुवृत्तेरसंजवात्
अर्थ:----एम जो न होय तो शास्त्रमां कथं जे जे दुःपसह सूरिपर्यंत चारित्र बे, इत्यादि जे चारित्रनुं परंपरागत पणुं प्रतिप्रादन, कर्यु बे ते जगवत्वचननी हानी प्राप्त थाय ए हेतु माटे, नाव संघ विना तेटला काळ सुधी चारित्रनुं जे श्रावनुं तेनो संभव थाय नदी माटे.,
टीकाः - ननु जवतु सिद्धांत प्रामाण्यादिदानीमपि चावसंघोऽल्पी यांस्तथापि मया तावन्न दृश्यत इति चेन्न ॥ श्रवग्दर्शित्वेन मात्सर्येण वा भवतस्तद दर्शनस्यान्यथासिद्धत्वात् ॥ दृश्यते चकषायकलुषितचक्षुषां संन्निकर्षे पि निषेडुषो मनुष्यादेरनुपलंजः
अर्थः-- बळी लिंगधारीनी आशंका प्रगट करी समाधान करे बेजे, तमे कदेशो जे सिद्धांतना प्रमाणथी या कालमां पा नाव संघ प्रति प दशे तो पण हुं तो कोई जगाए देखतो नथी तो एम तमारे न बोलवु . केमजे तमारे विषे ब्रह्मस्थपणुं बे तथा म सरपणुं वे ते करीने तमारा दीगमां नाव संघ न श्राव्यों ते वात प्रमाण नथी. केमजे जे कषायवाळो थयो तेने समीपे बेठेसां मनुष्यादिक पण तेनी नजरे नथी श्रावतां एम देखीए बीए.
टीका:- ततो यदि त्वं शुद्धपथस्पृहयालुस्तदा मात्सर्यमु
७८
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(६१८)
अथ श्री संघपट्टकः
सार्य माध्यस्थमास्थाय सूक्ष्मप्रेक्षया परीक्षस्व जावसंघं येन क चित्प्रेक्षसे ॥ भैवमेव नास्तिकतामवलंव्य जवांजोधौ मंकी रिति ॥ तस्माद् भगवद्वचनान्यथानुपपत्या संप्रत्यप्यस्ति जावसंघः स एव प्रेक्षावता दुःसंघपरिहारेणाभ्युपेतव्य. ।
अर्थः- ते माटे जो शुद्ध मार्गनी स्पृहावाळो थयो होय तो मत्सरानो त्याग करी मध्यस्थपएं अंगिकार करी सूक्ष्म बुद्धिए परीक्षा कर, जेणे करोने को जगाए तुं नाव संघने देखीश. पण या प्रकारनं नास्तिकपणं अवलंबन करी संसार समुद्रमां मुबीश नहीं. माटे जगवंतनुं वचन अन्यथा थाय एटले व्यर्थ पके, ए देतु माटे या काळमा पण जाव संघ बे, अने बुद्धिवंत प्राणीए माठा संघनो परिहार कर तेज साचो संघ अंगीकार करवो.
टीका:- एतेन गुणिद्वेषधी प्रसाधनाय यडुक्कं मूलपूर्वपदे इदानीं । [ जगवद्विरहादित्यादि इति द्वेष एवैतेषु श्रेयानित्यतं तद् पिप्रतिक्षिप्त मवसेयं ॥ भगवद्विरदेपि सन्मार्गपरिज्ञानोपायानां बहुशस्तदागमेऽनिधानेन तदर्थिना तत्परिज्ञान सिद्धेः ॥ बहु जनप्रवृत्तेश्च मोक्षपथतयाच्युपगमे लौकिकधर्मस्यैवाच्युपगमापतेः ॥ तव्प्रवृत्तेस्तत्रैवा तिनूयस्त्वात् ॥ महाजनो येनेत्यादिना लौकिकन्यायेन तत्प्रवृत्तेः प्रामाण्यसमर्थनं त्वात्मकदर्थ न भव भवतः ॥
अर्थः- ए बात कही तेथे करीने गुयोजन नपर द्वेष बुद्धि एम सिद्ध करवाने जे पूर्वे मुळ पक्षमा या प्रकारे कधुं दतुं जे
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अथ श्री संघपट्टका -
आ कालमां नगवतना विरहथी' इत्यादि ग्रंथने श्रारंजी एमने विषे केष करवो एज श्रेय ले. त्यां सुधी ग्रंथ को हतो तेनुंपण खेमन थयुं एम जाणवू. गवतनो विरह थयो तो पण साचा मार्गने जाणवाना नपाय घणाज ते मोटा पुरुषना कहेला कह्या ले. तेणे करीने साचा मार्गना खप करनार पुरुषोने साचा मार्गनुं ज्ञान सिक थाय ने अने जे मार्गमां घणा जननी प्रवृत्ति थ, तेज साचो मार्ग . ए प्रकारे मोक्ष मार्गनो अंगीकार करोए तो लौकिक धर्मनी आपत्ति एटले प्राप्ति थाय. केम जे लौकिक मार्गने विषे लोकनी प्रवृत्ति अति घणीने ए हेतु माटे, 'महाजन जेमार्गे चाले ते मार्ग इत्यादिजे लौकिकन्याय तेणे करीने जे प्रवृत्ति तेनुंजे तमारेप्रमाणपj प्रतिपादन करवू ते तो नि:केवल आत्म क्लेशज डे, पण एर्नु प्रमापपणुं प्रतिपादन थाय एम नथी.
टीकाः-तथाहि महाजन इत्यत्र वृक्षप्रामाणिकपुरुष.. . वचन श्चेन्महच्छब्दस्तदा न विप्रतिपद्यामहे ॥ वृक्षप्रामाणिक ,
गणधरादिपुरुषशाईलपदकुएणस्यैव पथोऽस्मानिरपि मोक्षमार्ग त्वेनान्युपगमात् ॥ बह्वर्थश्चेत्तर्हि बहुजणपमिवत्तीत्यादिना खो- कोत्तरवचसैवास्य न्यायस्य बाधितत्वेनाऽनवकाशात् ॥ ...'
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अर्थः--'महाजन' ए वाक्यमा वृक्ष प्रामाणिक पुरुषने कहेनार जो महत् शब्द होय तो तेनो अंगीकार करीए बीए. केमजे, वृक्ष प्रामाणिक जे गणधरादि उत्तम पुरुष तेनोज मार्ग श्रमोःमो. क्षमार्गपणे अंगीकार करीए बीए ए हेतु माटे, एटले. “महाजनो येन ए वाक्यमां महाजन ए शब्दे करीने गणधर ए प्रकारे अर्थ
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(१२० )
48 अथ श्री संघपट्टकः 8
कहता हो तो ते वाक्य अमारे मान्य के अने महाजन शब्दे करीने 'घणा लोक' एम अर्थ करो तो " बहु जण पमी वत्ती " इत्यादिशास्त्र वचने करीनेज ए न्यायने बाध लाग्यो, माटे ए वाक्यनो अंगीकार नयी करता.
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टीकाः तथा यदि परग्रहवा सिनो महात्मानः सुविहिताः सत्पथकुपथ विभागज्ञापनायारक्त द्विष्टतया नव्येन्यः विदितदुर्वि हितगुणदोषा विजवकं यथावस्थितमागमार्थं व्याचक्षते ॥ नैतावता त नपालनमर्हति ॥ आत्मोत्कर्षपरापकर्ष विख्याप विषयैव तद्वाख्यानस्य सुहु विक्रममाण मित्यादिनात्मस्तुतिपरनिंदानावेन यतिनां दोषतया निधानात् ॥
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अर्थ:- वळी परघरवासी महात्मा सुविहित पुरुष सत्मार्ग कुमार्ग ए बेनो विजाग जणाववाने रागद्वेष र हित नव्य प्राणी प्रत्ये सुविदितना गुण तथा दुर्विहितना दोष जेम बे तेम प्रगट करनार एवो श्रागमनो अर्थ कहे बे. तेथे करीने ते सुविहित पुरुषो उन्नो देवा योग्य नथी. जो पोतानो उत्कर्ष जणाववानी इच्छायेज " सुहु विवज्जममाण" इत्यादि पोतानी स्तुति अने परनिंदाना भाव राखी ने कहेता होय तो दोषपएं कदेवाय पण ते तो तेमने नथी.
टीका:-- अन्यथा तीर्थकर गणधरादीनामप्यसंयतदोष -, प्रतिपादकमागमथं ग्रथ्नतां परनिंदकत्वेन दृषणापत्तेः ॥ ऐदंयुगीन संघप्रवृति परिहारेण च संघ बाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं न तु दुषणं ॥ तत्प्रवृत्तेरुत्सूत्रत्वेन तत्कारिणां दारुषडु
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अथ श्री संघपटक
(१२१)
गतिविपाकश्रुत्या तत्परिहारेण प्रकृतसंघबाह्यत्वस्यैव तेषां - चेतसि रुचितत्वात्तदंत वे तु तेषामपि तत्प्रवृत्तिवर्तिष्णुतयाऽ . . . नंतजवाटवीपर्यटनप्रसंगात् ॥
अर्थः--एम जो न होय तो तीर्थकर गणधर इत्यादिकने पण असंयतना दोष प्रतिपादन करनार एवा आगम ग्रंथने बांधतां परनिंदा थर तेणे करीने दोषनी प्राप्ति थशे. या काळना संघनी प्रवृत्तिनो परिहार करवो तेणे करीने सुविहितोने ए संघथी बाह्यपणुं प्राप्त थर्बु ते नूषण जे पण दूषण नथी. केमजे ते पुर्विहित संघनी प्रवृत्तिने उत्सूत्रपणुं प्राप्त थाय ने तेणे करीने उत्सूत्र प्रवृत्ति करनारने अति भाकरी दुर्गतिरुप फळ थाय ने, एम शास्त्रथी सांजळीए बीए. ए हेतु माटे ते नत्सूत्रनी प्रवृत्तिनो त्याग करीने श्रा काळना दुर्विहित संघथी बाहिरपणे रहेq एमज ते सुविहितना चितमा रुच्यु , अने जो दुर्वि हित संघमां जळी जाय तो ते सुविहितोने पण तेमना जेवी प्रवृत्तिमां वर्तवापणुं थाय तेणे करीने अनंत नव व्रमण करवानो प्रसंग थाय.
टीकाः-अत श्राधुनिकसंघबाह्यत्वेनैव तेषां गुणित्वं तथा च तेषूच्छेदबुद्धिमहापापीयसामेव जवति ॥ तस्मात्तेषु मुक्त्यर्थिनां प्रमोद एव विधातव्यो न तनीयस्यपिषधी रितिव्यवस्थितंय. दपि पूर्वपदे गौतमादिषु यतिशब्दप्रवृत्तित्वात्कथं निर्गुणेष्विदानीतनसाधुषु प्रवर्तत इत्याशंक्य यथा कल्पवृक्षगुणवैकल्पे निंबादिषु तरुशब्दप्रवृत्तिरित्यादिना दृष्टांतघ्येनेदानींतनमुनिषु यतिशब्दप्रवृर्तिसमर्थनं तदप्यऽसमीचीनं ॥
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(१२२)
49. अथ श्री संघपहकः--
अर्थः-ए हेतु माटे या काळना संघथी जु पनवं तेणे करीनेज सुविहितने गुणोपणुं बे, वळी ते गुणी पुरुषोने विषे महा पापी पुरुषोनेज तेमनो नाश करवो एवी बुद्धि थाय , माटे मु. किनी श्छा करनार पुरुषोए ते सुविहितने विषे प्रमोद राखवो एटले तेमने जोइ हरख पामवं, पण अल्प मात्र वेष बुद्धि न राखवी ए वात सिफ थइ. जो पण पूर्व पदने विषे गौतमादिकने विषे यति शब्दनुं प्रवृत्तिपणुं बे, तो पण निर्गुण एवा श्रा का. ळना साधुने विषे केम ते शब्द प्रवर्ने बे, ए प्रकारनी श्राशंका करीने जेम लीबमा आदि वृदने विषे कल्पवृदना गुण नथी, तो पण कल्पवृक्ष ए प्रकारना शब्दनी प्रवृत्ति के तेम. इत्यादि बे दृष्टांतवके था काळना मुनिने विषे यति शब्द- जे समर्थन कर्यु ते पण श्रघटित कर्यु.
टीकाः-प्रवर्तता हि नाम कल्पवृक्षगुणाऽयोगेपि निंबादिषु, तरुशब्दस्तत्प्रवृत्तिनिमितस्य शाखादिमत्वस्योनयत्राप्यनुगमात् ॥श्ह तु यतिशब्दप्रवृतिनिमित्तस्य लिंगिष्वनुपपत्तेः कथं तबब्दस्तत्र प्रवर्तते ॥
अर्थः-श्रथवा लींबमा श्रादिकने विषे निश्चे कल्पवृक्षना गुपनो योग नथी तो पण तेमने विष तरु शब्दनी प्रवृत्तिनुं निमित्त जे शाखादि सहितपणुं ते बे जगाए पण विद्यमान डे ए हेतु माटे, श्रहीं तो यति शब्दनी प्रवृत्ति कारण ते लिंगधारीयोने विषे देखातुं नथी. माटे तेमने विषे यति शब्द केम प्रवर्ने ?॥ .
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4. अथ श्री संघपट्टका - (६२३) टीका:-तथाहि यमुपरम इति पागद्यबत्युपरमति पापेन्यति पापोपरमो यहा यती प्रयत्न इति धातुपागत् यतते क्रियास्वितियतिरिति देत्रकालाद्यपेदोऽनुष्टानप्रयत्नो यतिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं ॥ ततश्च यः पापोपरतो यश्च बलकाला दिसामग्रीसमग्रः सततमशगेऽनुष्टाने समुतिटते योपि देशकालसंहननामयवैषम्यात्संपूर्णमनुष्टानमनुष्ठातुमपारयन्नपि निजशरीरशक्त्यादिकमगोपयन् शाग्यपरिहारेण क्रियासु यतते तत्रसर्वत्रापि यतिशब्दो गौतमा दिवत् प्रवर्तते प्रवृत्ति निमितस्यनावात्
अर्थ ते वात देखामे ले जे 'यमुपरमे ए प्रकारनो धातु तेनो अर्थ विराम पामवारूप के, जे पापथकी विराम पामे तेने यति कहीए, अथवा 'यति प्रयत्ने' ए धातुनो प्रयत्नरुपी अर्थ , तेथी जे क्रियाने विषे प्रयत्न करे तेने यति कहीए, ए प्रकारे केत्र कालादिकनी अपेक्षाये अनुष्टाननो प्रयत्न करवो, ते यति शब्दनी प्रवृ-: त्तिनुं कारण , माटे जे पापथी विराम पाम्यो, अने पोतानुं बळ तथा काळादि सामग्री तेणे सहित थयो अने निरंतर अशठपणे अनुष्टान करवामां तत्पर अने जे देश, काळ, बळ शरीर तेमन विषमपणुं नथी, माटे संपूर्ण अनुष्टान करवाने पार पामतो नथी तो पण पोतानी शरीर शक्ति आदिक गोपवतो नथी अने शठपणानो त्याग करी क्रियाने विषे प्रवर्ते जे ते सर्व जगाये पण यति शब्द गौतमादिकनी पेठे प्रवर्ते डे, केमजे त्यां यति शब्दनी प्रवृत्तिनुं का. रण रघु बे ए हेतु माटे.
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(१२४)
8 अथ श्री संघपट्टकः
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टीकाः-यमुक्तं ॥
मत्वा नवनर्गुण्यं, यबत्युपरमति येन पापेभ्यः ॥ कृतिकारणानुमितिजि-स्तेन यतिमुदाहरंति जिनाः
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही ने जे, संसारर्नु असारपणुं मानीने जे करवू कराव, अने अनुमोदQ ए त्रण प्रकारे पापथी वि. राम पाम्यो , तेने श्वेतांबर यति जिनराजे कह्यो .
टीकाः-तथा॥
नाणेण दसणेणं, चारित्तेणं तवेण विरिएण ॥ जे साहयंति मुरकं, ते साढूनावजश्णोति ॥ जो हुऊ उ असमथ्थो, रोगेण व पिबि जुरियदेहो ॥ सबमवि जहानणियं, कयाइ नतरिङ काउंजो ॥ सोविय निययपरकम, ववसाय धिईबलं अगूरंतो ॥ मोनूण कूमचरियं, जई जयतो अवस्सज॥ .
टोकाः-ये तु पापव्यावृत्ताः शक्तिमंत पि च सांप्रतिकरूढ्या सर्वथानुष्टानविकलास्तेषु प्रकटकपटकूटेषु प्रत्यक्षपापकूटेषु लिंगिपुरूढेषु निमित्ताजावाद्यति शब्दः प्रवर्त्तमानः कथं कदां घनीयात् ॥
अर्थः-वळी जे पोते शक्तिवाळा ले तोपण या काळे जे
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
( ११५ )
थली रुढी, तेणीए पापमां प्रवर्त्तेला ने सर्व प्रकारे क्रिया अनुष्टानथी रहित एवा ने प्रगटपणे कपटने रहेवानुं स्थळरूप अने प्रत्यक्ष पापरूप एवा ते लिंगधारीनने विषे जेम लींबाने विषे कल्पवृक्क शब्दनी प्रवृत्तिबे तेवी रीते पण यति शब्दनी प्रवृत्ति कोइ प्रकार पण प्रवर्त्तवानुं कारण न बते केम प्रवृर्त्ति शके एटले लिंगधारी मुनि एवो शब्द पण केमज कही शकाय ?
टीका: ---|| यक्तं ॥
इयसी लंगजुया खलु, दुरकंतकरा जिहिं पन्नता || जाव पहा या जइयो, न उ ने दव लिंगधरा ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कही बेजे, अढार हजार शीलांगरथ तेथे संयुक्त एकाने निचे दुःखनो अंत करनार एवा जाव, प्रधान एटले जाव जेने प्रधान बे एवा यति जिनराजे कला बेपा बीजा द्रव्यथ लिंग धरनार एवाने यति नथी का.
टीकाः - तस्मान्न निंबादिषु तरुशब्दप्रवृचिष्टांतावष्टजेन लिंगिषु यतिशब्द प्रवृत्तिरुपपद्यते ॥ यश्च यथा जात्यम पिगुरावैगुएये पिकाचे मणिशब्दप्रयोग इति द्वितीयदृष्टांतोपन्यासस्तत्र संप्रतिपत्तिरुत्तरम् ॥
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अर्थः- ए हेतु माटे लिंबमादिकने विषे वृक्ष शब्दनी प्रवृ तिनुं जे दृष्टांत तेनुं अवलंबन कर तेथे करीने लिंगधारीचने विषे
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(१२६ )
8. अथ श्री संघपट्टकः
यति शब्दनी प्रवृत्ति थाय ने, वळी जेम जातिवंत मणिना गुण जे. मां नथी एवो पण काचनो ककमो तेने विषे मणि शब्दनो प्रयोग थाय . ए प्रकारनुं बोजु दृष्टांत स्थापन कयु, ते जगाये युक्ति सहित उत्तर या प्रकारनो .
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टीकाः-काचो हिन वस्तुतो मणिशब्दवाच्यः॥परीक्षाशास्त्रप्रसिष्ठस्य तदसाधारणलक्षणस्य तत्प्रवृत्तिनिमित्तस्यतत्रानावात् ॥ नीलत्वादिकिरण निकुरंबकरंबितत्वादिबाह्यसाधारणधर्मदर्शनात्त्वाज्ञा स्तत्रापि मणिशब्दं प्रयुंजते ॥
, अर्थः जे काच डे ते निश्चे वस्तुताये मणि शब्दवमे कहेवा योग्य नथी. केमजे मणिनी परीक्षा करवानां जे शास्त्र तेमां प्रसिद्धपणे कहेलां जे मणिना असाधारण लक्षण तेनी प्रवृत्तिनुं कारण ते काचना ककमामां देखातां नथी ए हेतु माटे, नीलपणुं इत्यादि किरणनो जे समूह तेरी सहित पणुं ले इत्यादि बाह्ययी साधारण धर्म देखवाथअज्ञानी पुरुषोतो ते काचना ककमाने विवे परा मणि शब्दनो प्रयोग करे .
टीकाः-एव यत्यानाशेष्वप्युक्तन्यायेन यति' शब्द प्रवृ. त्ति निमित्तानावेपि बाहरजोदरणादिलिंगिनेपथ्यादिसाधारण धर्मोपलं नात् ब्रांता यतिशब्दं प्रवयंति ॥ तस्मात्सुविहितेष्वेवकालाय नुरुपं यतमानेषु वास्तवो यति शप्रयोग इतिवृतार्थः॥३३॥
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4. अथ श्री संघपट्टका
(१२७)
अर्थः-ए प्रकारे लिंगधारीउने विषेपण कह्या एवा न्याये करीने यति शब्दनी प्रवृत्तिनुं कारण नथी. तो पण बाह्यथी रजोहरणादि साधारण धर्मना अवलंबनथी ब्रांति पामेला पुरुषो लिंगधारिने विषे यति शब्द वीवे , ते हेतु माटे काळने अनुसरी प्रयत्न करनार सुविहित पुरुषोने विषे जे वस्तुताये यति शब्दनो प्रयोग घटे ३. ए प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ थयो ॥३३॥
टीकाः-तदेव मौदेशिकनोजनादिधारदशकेन लिंगितिः प्रज्ञापितस्य धर्मस्योत्पथत्वप्रकाशनेन जमानां चेतसि कोपावि
विं संजावयंस्तत्वमणपुरस्सरं तत्प्रदर्शनप्रयोजनमाविश्चिकीए॒राह ॥
अर्थः-ते हेतु माटे नद्देशिक नोजनादि दश झारे करीने लिंगधारीउए निरुपण कर्यो जे धर्म ते उन्मार्गपणाने प्रकाश करनार डे एम कर्दा. ए हेतु माटे. ते सांनळी जम पुरुषने चित्तमां क्रोधनो आवेश थयो हशे एम संन्नावना करनार ग्रंथकार ते अवसरे ते कही देखामवाना प्रयोजनने प्रगट करता बता था प्रकारे कहे .
मूलकाव्यम्:इत्थं मिथ्यापथकथनया तथ्ययापीद कश्चिन् । मेदं झासीदनुचितमयो मा कुपत्कोपि यस्मात्॥ जैनत्रांत्या कुपथपतितान् प्रेक्ष्य नूस्तत्प्रमोहा ।। पोहायेदं किमपि कृपया कल्पितं जल्पितं च ॥३६॥
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(16)
अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः -इत्थं प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण मिथ्यापथकथनया चैत्यवासीप्ररूपितोत्सूत्रमार्गप्रकटनया करणनूतया तथ्यया पि यथार्थयापि असत्यया हि तया कोपोत्पादाद्य पिकस्यापि संजाव्यत इत्यपि शब्दार्थः
अर्थः-पूर्वे प्रतिपादन कए प्रकारे मिथ्या मार्गनुं जे कहे एटले चैत्यवासीए प्ररूपणा करेलो जे मार्ग तेनुं उत्सूत्रपणे जे प्रगट करी देखामवं ते वात यथार्थ डे एटले सत्य , तो पण, एटले ते वात असत्य होय तो कोइने पण क्रोध श्रादि नत्पन्न थाय एम सं. भावना करीए बीए एटलो अपि शब्दनो अर्थ बे.
टीकाः-श्ह लोके प्रवचने वाकश्चिजिनशासनस्थो माझासीत् मामेस्त यत् इदं मिथ्यापथकुपथत्वप्रकटनं अनुचितमसंगति। यदि हीदं रागद्वेषाच्यामतथ्यं विधीयेत तदा नौचित्यं स्यानचैवमस्ति ॥अथो इत्यानंतर्येऽव्ययं ॥ तेनाऽनुचितझानानं तरं मा कुपत् मा क्रुधत् कोपि कश्चित् ॥
अर्थः-अहीं लोकने विषे अथवा प्रवचनने विषे कोई जिन शासनमा रहेलो जीव ते एम न मानशो जे आ मिथ्या मागर्नु कुमार्गपणुं प्रगट कर्यु ते अनुचित के एटले अघटतुं . केमजे जो राप केषवमे खोटी प्ररुपणा करीए तो अनुचितपणुं आवे, पण आ तो एम नथी. अनंतर अर्थने विषे “अथ” एटलो अव्यय जाणवो, ते हेतु माटे अनुचित्त जाएया पड़ी को पण प्राणी कोप न पामे.
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-4
अथ श्री संघपट्टका
(१२९)
टीकाः-यदि ह्येतदनुचितं स्यात्तदा तदज्ञानानंतरं कोपो. पि कर्तुं कथंचित् युज्येत ॥ न चैवं तस्मान्न कोपनीयं ॥ अथ ययेवं मिथ्यापथकथनेन परेषां कोपावि वशंका तदासौ न कथनीय एव ॥ परं संक्लेशहेतोः सत्यस्यापि वचनस्यावक्तव्य त्वेनानिधानात् ॥
अर्थः-जो आ कहे, निश्चे अनुचित होय तो ते जाणवा पडी को प्रकारे कोप पण करवो घटे, पण आ तो एम नथी माटे कोप न करवो. हवे जो एमज होय के मिथ्या मार्गनुं जे कहे तेणे करीने परने कोप नत्पन्न थशे एवी शंका रही , तो ए वात कहे. वीज नहीं. केम जे परप्रत्ये क्वेश उत्पन्न थवा, कारणरूप एवं सत्य वचन पण न बोलवू एम शास्त्र वचन डे.
टीका:-यमुक्तं
सच्चावि सा न वत्तवा, जन पावस्स श्रागमो ॥ श्त्यताह ॥ यस्माद्यतो हेतोर्जेनत्रांत्या साधुसाध्वीश्रावकश्राविका
चैत्यायाकारदर्शनादाईतमेतत्प्रवचन मिति मिथ्याज्ञानेन महि लिंग्यादयस्तत्वत आर्हता उक्तन्यायेन तेषां तथा त्वस्यापाकरणांत् ॥
अर्थः–ते कही देखामे वे जे, जेथी पाप खाने एवी सत्य
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(६३० )
-48 अथ श्री संघपट्टकः
वाणी होय तो ते पण न बोलवी. एवी आशंका करी तेनो उत्तर कहे बे. जे हेतु माटे या जैन बे एवी प्रांतिये करीने साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका तथा चैत्य इत्यादि बाह्यर्थी थाकार मात्रने देखी ने या अरिहंतनुं प्रवचन बे ए प्रकारे मिथ्या ज्ञाने करीने लिंगधारी श्रादिक पुरुषो तत्वर्थी जैनी नथी. केम जे पूर्वे कथं ए प्रकारे ते लिंगधारीने जैनी पणानुः खंगन कर्यु बे ए हेतु माटे.
टीकाः- ततो यथा हत्पूरपूरितोदराः संकलमुपला दिजालं कांचनतयाऽध्यवास्यति तथा तेपि जमाःकुवासनावासितांतःकरया वस्तुतोऽनार्हतमप्येतत् लिंगिवत्महितंमिति विपर्यस्यतीति नवति जैनचांतिः ॥
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अर्थः-जेम कोइक ते पाषाणना समूहने था सोनानो ढगलो बे ए प्रकारनो निश्चय करे तेम नवारी वासनावमे जेमनां अंतःकरण वासनावालां थयां ने एवा जम पुरुषो वस्तुताए श्रा लिंगधारी मार्ग अरिहंत संबंधी नथी. तो पण ते मार्गने छारिहंतनो जाये बे एज जैनपणानी जांति बे.
टीका:-तया कुपथपतितान् कुमार्गप्रस्थितान् नॄन् मानवान् प्रेक्ष्य अवलोक्य तत्प्रमोदापोहाय कुपथप तितनरप्रागुक्त प्रबल मिथ्याज्ञानापनोदाय इदं एतब्लिगिनां मिथ्यापथस्वरूपं किमपि दिग्मात्रं सकलस्य तस्यार्वाग्दार्शनिर्जिव्दाशतेनापि वक्तुमशक्यत्वात् ॥
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-49 अर्थ श्री संघपट्टकः
अर्थः-- तेथे करीने कुमार्गमां पमेला पुरुषोने जोइ तेमनो विशेष मोह नाश करवाने एटले पूर्वे कयुं ए प्रकारे प्रबल मिथ्या ज्ञानने नाश करवा या लिंगधारीनुं मिथ्या मार्गनुं स्वरुप कांइक दिशमात्र देखायुं छे. केमजे बद्मस्थ दृष्टीवाळा पुरुषोए तो सो जी जोवने पण लिंगधारी उनो कुमार्ग कही देखावा समर्थ थवातुं नथी ए हेतु माटे.
टीकाः कृपया कथममी मूढास्तीर्थाभावकदर्शिताः कुपथ स्वरूपं विज्ञाय तत्परिहारेण सत्यथमच्युपेत्य नवोदधिं तरिष्यंतीत्यनुकंपया कतिं व्यप्रतिपिपादविषया सकलं संकलय्य प्रथमं चेतसि मज्जितं ततो जल्पितं कररचनयादृग्धं ॥ तदंतरे परस्य पुरतः सम्यक् प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् ॥
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अर्थः- कृपाये करीने या प्रकारे कह्युं बे. कृपा ते शुं ? तो तीर्थना श्रावय। कदनाने पामेला था मूढ पुरुषो कुमार्गना स्वरूपने जाणतेनो परिहार करवो तेथे करीने सन्मार्ग पामी संसार समुद्रने तरशे ए प्रकारनी अनुकंपावके प्रथम चित्तमां संकलना करी व्यथुं प्रतिपादन करवानी इहावमे कल्पना करी कांबे, एटले करनी रचनावने कर्यु, केमजे ते विना बोजाना मोढ । श्रागळ सारी रीते प्रतिपादन करी शकातुं नयी ए हेतु माटे.
टीका:- च समुच्चये ॥ एतेन सच्चावीत्याद्यागमबलेन पर संक्लेशनिबंधनं सत्यमपि ववोन वचनीयमिति यदाशंकितं ॥ तदप्यपाकृतं यस्यागमस्यान्यविषयत्वात् ॥ तयाहि ॥ धर्मा
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(६१२)
अथ श्री संघपट्टका - योग्यप्रति हितैषिणापि सत्यमपि हितोपदेशवचनं न जाषणीय॥ तस्य कर्मबंधहेतुत्वात् ॥ तथा क्वचिदटव्यादौ तस्थुषा मुनिना देदृशुषा पिमृगं मृगयमाणस्य व्याधस्यानुयुजानस्यापि तस्य पुरतो मृगदर्शनं सत्यमपि नानिधातव्यम् ॥
अर्थः--चकारनो समुच्चयवाचक अर्थ जे. श्रा पूर्वेकडं तेणे करीने " सच्चीवी" इत्यादि आगम वचनना बळे करीने परने क्ले. शनुं कारण एवं सत्य वचन पण न बोलवू. ए प्रकारनी जे आशंका करी ती ते पण पुर करी, कमजे ए आगम वचननो विषय जदो ने ए हेतु माटे. ते जूदा विषयपणुं देखामे जे जे, जे पुरुष धर्मने अयोग्य ते प्रत्ये हितने श्वनार पुरुषे पण हितकारी नपदेश वचन सत्य ने तोपण न बोलवू. केमजे तेने कर्मबंधनुं कारणपणुं थाय ने ए हेतु माटे. ते कहे जे जे, कोइक अरण्य प्रमुख स्थळने विषेरदेला मनिये पारधीना जयथो नाशीने मृग संतायो , तेने पोते जाणे , तोपण मृगया करनार पारधीये मृग खोळतां मुनिने पूज्यु तोपण ते भागळ सत्य वचन पण न बोल्या, माटे एव। जगाए सत्य न बोलवू एम शास्त्रनो थन्निप्राय दे.
टीका-तद्विधात निमिशत्वात् ।। किंतु तत्र तहिपरीतंक क्तव्यं तद्धितत्वात् ॥ तदेव वचनं तत्र सत्यं ॥ नूतहितमितिवचनात्॥इत्येवमादिरस्यागमस्य विषयः॥ह तु पार्श्वस्थादि. मलिम्बुचैर्वशीकृत्योत्पथेन संसारपटली नोयमानं नोराजकमि. व जननिवदमवेदय केनापि महासत्वेन विधायमानस्य प्रकार
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अथ श्री संघपट्टकः
(६३२)
विज्रमं विचतस्तत्पथस्वजल्पनस्य तेषां संक्लेश देतुखेपि प्रवचनप्रजावना निमित्ततयाऽचिंत्य पुण्यसंचार कारणत्वेना जिधानात्तज्जल्पनमवश्यं कर्तव्यमेव ॥
अर्थः- केम जे ते सत्य वचन विघातनुं कारण वे ए हेतु माटे. त्यारे ते जगाए शुं करवुं ? तो तेथी उलटुं वचन बोलवु . केम जे ते जगाए ते उलढुं वचन बोलवु एज हितकारी बे. ते वचनज से जगाए सत्य बे, केम जे शास्त्रमां कह्युं बे जे, सत्य वचन ते कयुं ? तो तेनो उत्तर एम कयों बे जे, जे वचन प्राणी मात्रने हितकारी होय ते सत्य वचन जाणवुं. पूर्वे कयुं इत्यादि स्थळ एज ए आगमनो विषय बे. एटले एवी जगाए सत्य पण न बोलवु एम श्रनिप्राय छे. अहीं तो पासथ्यादि चोर पुरुषोए वश करीने उन्मार्गवके संसाररूपी पोताने रहेवानुं गाम ते प्रत्ये लइ जवा मांगेलो जेम जेने माथे राजा न होय तेवा जगतूने पोतानी नजरमां प्रावे त्यां खेंची जाय तेनी पेठे लोकना समूहने जोइ कोइ महा सत्ववंत प्राणीए ते सुंटाता लोकोनो पोकार सांजळी ते चोर लोकने क्लेशनुं कारण एवं पण ते चोरनुं नन्मार्गे वर्तवापणं प्रकाश करी देखामयुं, तेम प्रवचननी प्रजावना थाय एवा हेतुवमे चितवनमां न आवे एवा पुण्यन्ध समूहनुं कारण जाणी ते लिंगधारीजना स्वरूपनुं निरूपय कर्यु से शास्त्रमां करवानुं कथुं बे, माटे अवश्य करवा योग्यज बे.
टीकाः ॥डुकं ॥
सुहसीलतेय गहिए, नवपाहीं तेष जगमिय मया ॥ जो कुणइ कुवियत्तं, सो वन्नं कुबइ संघस्स ॥
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8. अथ श्री संघपट्टको
अतः कुपथपंकनिमज्जन्नरनिकरोद्धरणाय मया किंचिज्जपितमिदमितिसुष्टुक्तं जगवता प्रकरणकारेणेतिवृत्तार्थः ॥
अर्थः-ए हेतु माटे कुमार्गरूपी कादवने विषे बूमता लोकना समूहने देखी तेनो उझार करवाने अमोए था कांक कह्यु, माटे समर्थ एवा था प्रकरणना करनारे लिंगधारीनुं स्वरूप निरुपण कर्यु ते ठीकज कयु , ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो. ॥३४॥
टीकाः--अथ किमिति दिग्मात्रमेवान्निहितं यावता निः शेषदोषप्रकाशनेन हि मिथ्यापथः सुझानः सुत्यजश्च जवती त्याशंक्य तन्निरासद्योतकेन यत इति पदेनांतरापूर्य तदोषाणामानंत्येनानिधानाशक्यत्वं निदर्शनयाविर्भावयन्नाह ॥ यतः॥
- अर्थः-शा कारण माटे लिंगधारीना स्वरूपनुं निरुपण दिशमात्रज देखामयु? जेवू ने तेवु समस्त देखामयुं होय तो निश्चे मिथ्यामार्ग सुखेथी जाणवामां आवे तथा सुखेथो त्याग थाय एवी आशंका मनमां धरी तेनुं खंमन जलावनार 'यत' ए प्रकारनुं पदकचे . मुको तेनो उत्तर या प्रकारे , एम कहेतां ग्रंथकार जणावे ले जे. ते लिंगधारीउना समस्त दोष अनंता , ते सर्वे दोष कहेवार्नु . मारु सामर्थ्य नथी एप्रकारे निदर्शनाअलंकारवमे प्रगट करता बता श्रा प्रकारचें काव्य कहे .
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अथ श्री संघपट्टका
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॥ मूल काव्यम्॥
प्रोद्भूतेऽनंतकालात् कलिमलनिलये नामनेपथ्यतोऽर्हन, मार्गज्रांतिं दधानेऽथ च तदनिमरे तत्वतोऽस्मिन् पुरध्वो। कारुण्याद्यः कुवोधनृषु निरसिसिषुर्दोषसंख्यां विवदे, दंनोनोधेःप्रमित्सेत्ससकलगगनो लंघनवा विधित्सेत्॥३५॥
टीकाः-यत इति यस्मा तोरस्मिन् पुरध्वेऽनंतकालात् प्रोद्लुते यो दोषसंख्यां विविदित्यादि संबंधः॥ तत्र प्रोझते संजाते अनंतकालात् अनंतानेहसा अनंतोत्सर्पिएयवसपिणीपरीवर्तनेनास्यकुमार्गस्याश्चर्यदशकांतःपातित्वेन सिद्धांत पादु वप्रतिपादनात् ॥
अर्थः--जे हेतु माटे अनंतो काळ गया पठी उत्पन्न यएलो आ दुष्ट मार्ग तेने विषे जे दोष रह्या , तेनी संख्या करवा जे पुरुष इच्छे; इत्यादि संबंध जाणवो. तेमां अनंतो काळ गया पली ए. टले अनंती नत्सर्पिणी अवसर्पिणी काळ गये आ लिंगधारी नो करेलो कुमार्ग ते दश आश्चर्यमांनुं ए बेल्लु संजति पूजनरूप श्रा श्राश्चर्य , एम एनी नत्पत्ति सिद्धांतमां प्रतिपादन करी जे.
टीका:-कलिमल निलये सुष्यमापातकनिवासे पुष्यमाकालोह्यपरकालापेक्षया महापापः॥ ततश्चात्रातीवासमंजसप्र. वृनिदर्शनात्संनाव्यते सकलं पुष्यमामलं दुरध्वेऽस्मिनिवसति।
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(६३६)
-4 अथ श्री संघपट्टकः
अथवा कलिरेवकलद एव मलं किहंतस्य निलये ॥ तथानाम - निधानं यथा लिंग दर्शने पि लोका वक्तारो भवंति ॥ श्रमी जैना थामी सितांबर जिव इत्यादि ॥
अर्थः- कळीकाळ संबंधी पापनुं घररूप एटले दुःषमा काळनां पापने रहेवानुं स्थानरूप एवा दुःषमा काळवने बीजा का ळनी अपेक्षावने महा पाप बे, ते देतु माटे आ काळमां श्रतिशेज
घटती प्रवृत्ति देखवार्थी एम संभावना थाय बे जे, समस्त दुःषमा कानु पाप था दुष्ट मार्गने विषे निवास करी र े. अथवा कली कतां कलह एज जे मल तेनुं घररूप एवो आ लिंगधारी उनों मार्ग तेने विषे नाम एटले खनिधान जेम बाह्ययी लिंग देखे पण लोक एम कहे बे जे, श्र जैनी ने श्री श्वेतांबर निक्कु बेइत्यादि ॥
टीका :- नेपथ्यं रजोहरणादिवेषस्ततो द्वंद्वः ततश्च नामने पश्यतः सुविहितसाधरणान्नामश्रवणान्नेपथ्यदर्शनाच्चाऽर्हन्मार्ग चीतिं तात्विक जिनपथादृश्यं दधाने बिज्राणे || नन्वयं पंयास्तहि जिनमार्ग एव जविष्यतीत्यत श्राह ॥
अर्थ:---- नेपथ्य कहेतां रजोहरणादि वेष, पढी पूर्वे कां ते पदनो द्वंद्व समास करवो, वेश मात्रना नामथी सुविहित मु निना जेवुं एक नाम मात्र सांजळवाथी तथा देखवाथी अरिहंतना 'मार्गनी' जांतिने धारण करतो शास्त्रमां कहेलो जे जिनमत तेनी जांति उपजावतो. ए जगाए श्राशंका करी कहे बे, जे निश्चे ए
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-4 अथ श्री संघपट्टकः
(६३७)
लिंगधारी उनो मार्ग एज जिन मार्ग हशे एवी आशंका धाय बे तेनो उत्तर कहे ते जे,
टीका:- अथ चेति प्रतिकूलपक्षांतरद्योतकमव्ययं ॥ नन्वतः परमार्थतः तद निमरेऽईन्मार्गघातुके ॥ श्रयमर्थः ॥ यथाऽ निमराः प्रछन्नघातुकाः स्ववेषेण राजादिघातकर्त्तुमशक्नुवंतो वैषपरावर्त्तनेन राजादिकं व्यापादयंति । तथैतेपि गृहस्थवेषेणाईन्मार्गच्छेदनं तथाविधातुमपारयंतो यतिवेषेण विरुद्धप्ररूपपाचेष्टितादिनाऽईन्मार्गमुच्छिंदतीति जवत्यनिमराः ॥
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अर्थः- अथ च' एटलो विपरीत पक्षांतरने कहेनारो श्र 'व्यय बे. ए हेतु माटे निश्चे परमार्थथी विचारी जोतां ए लिंगधारीचं अरिहंतना मार्गने घात करनारा बे. तेमां प्रगटपणे श्रावो जावार्थ रह्यो बे जे, जेम राजादिकने बाना मारनारा घातकी पुरुषो ते पोसानो जेबो बे तेवो वेश राखी राजा प्रमुखने मारवा समर्थ नथी यंता त्यारे पोतानो वेष पलटी बीजो वेष करी राजादिकने मारे बे तेन श्रा लिंगधारीन पण गृहस्थना वेषवमे अरिहंतनो मार्ग बेदन कस्बा न समर्थ यया त्यारे यतिनो वेष धारण करी विरूद्ध प्ररूपणा करवी; इत्यादि उपायवमे अरिहंतना मार्गनों उच्छेद करे बे माटे ए घातकी बे.
टीकाः — ततश्च दुरध्व डुरध्ववर्त्तिनोरनेदोपचारादित्थमुपन्यासः ॥ श्रस्मिन् प्राग्वर्णितस्वरूपे डुरध्वे कुमार्गे कारुएयात् मास्मामी बुमन् जमा यस्मिन् कुपथपक इतिदयाध्यवसा
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(६८)
* अथ श्री संघपट्टका
यात् यःकश्चिन्महासत्वो नषुलिगिन्नावनानावितेषु मर्येषु कुबोधं कुदेशनोत्पादितमसत्पथे पि सत्पथमं निरसिसिषुर्बि जित्सुः॥ यदि हि कथंचिदमीषां मूढानां दुरध्वदोषसामस्त्यप्रदर्शनेनायं कुबोधो विध्वंसते तदामी नपकृता नवंतीत्याशयेन दोषसंख्यां दूषणेयत्तां विवकेत् अनिधित्सेत् ॥
अर्थः-ते हेतुमाटे दुष्ट एवो जे मार्ग अने जे पुष्ट मार्गमां रहेनार पुरुषों ए बेनो उपचारथी अन्नेद ने तेथी ए प्रकारे कडं.
आ पूर्व कह्यो एवो जे पुष्ट मार्ग तेने विषे जमपुरुषो बुमे , तेने देखी ए प्रकारनी करुणा श्रावी जे, आ पुरुषो कुमार्गरूपी कादवमां बुमे ले एवा अध्यवसायथी तेमने नफरवा आ कयु , एम संबंध जाणवो. लिंगधारीउनी नावनावमे सहित थएला तथा कुदेशनाथ) नुत्पन्न थएलो जे कुबोध एटले असत् मार्गने विषे पण था सत् मार्ग बे एवी ब्रांति तेने नाश करवा श्छता अने नय पामता एवा पुरुषो तेनी मध्ये कोश्क महासत्ववाळो पुरुष एम विचारे ले जे, को प्रकारे आ मूढ पुरुषोने इष्ट मार्ग संबंधी समस्त दोष देखामोए तो तेणे करीने एमनो कुबोध नाश पामे तो एमनो उपकार को कहेवाय एवा अनिप्रायवमे दोष संख्याने कदेवा इजे॥
टीकाः-एतावत् संख्या अत्र कुमार्गे दोषाः संतीति योवक्तुमिछेदत्यर्थः ॥ स पुमान् अंजोजलं अंनोधेरणवस्य प्रमिसेत् ॥ श्यदत्रांन इति चुलुकादिनिः संचिख्यासेत् ॥ जलविजलपमित्सानिदर्शनेन दुरध्वदोषाणामसंख्येयतासिध्या
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* अथ श्री संघपट्टको
anno
Anim
अपरितुष्यन् विवदिततदानंत्य चिख्यापयिषया निदर्शनांतरमाह ॥
अर्थः-एटले श्रा कुमार्गने विषे दोषनी आटली संख्या बे, एम जे कहेवा श्छे ले (एटलो अर्थडे) ते पुरुष समुजना जळनुं प्रमाण करे जे आ समुषमां आटवू जळ , एटखे अंजलि आदिकवमे कहेवा श्छे, जे समुज्नुं जळ बाटली अंजलियो प्रमाणे बे. समुजना जळनी प्रमाण करवानी श्वानुं दृष्टांत देखान्यु तेणे करीने उष्ट मार्गना दोष असंख्यातपणुं सिद्ध थयुं तेणे करीने संतोष न पामतां ग्रंथकार वळी ते दोषनुं अनंतपणुंडे एम कहेवानी श्चाए बीजुं दृष्टांत कहे . ..
टोकाः-सकलगगनोलंघनं पदयां समग्रांतरिक्षांतप्राप. णं वेति पक्षांतरे विधित्सेत् चिकीत् ॥ अयं च निदर्शना ना. मालंकारः ॥ यत्र प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः परस्परं संबंधा जावादुपमायां पर्यवसानं सा निदर्शनेति तनकणात् ॥
अर्थः-समस्त आकाशनुं नवंधन पगवमे करवा इले एवो डे, एम बीजा पक्षाने विष अर्थ थयो ए निदर्शनानामे अखंकार थयो. जे जगाए वर्णन करवा योग्य जे वस्तु तथा तेथी बीजी वस्तु ए बेनो परस्पर संबंध नथी ए हेतु माटे उपमाने विषे पर्यवसान थर्बु ते निदर्शनालंकारनुं लक्षण ले.
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(६१०)
48. अथ श्री संघपहक
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टीका:-॥ ययुक्तं॥ - अन्नवस्तुसंबंध उपमा परिकल्पक इति तदत्र प्राकरणिकाप्राकरणिकयोदुरध्वदोषदोषसंख्या विवक्षणजलधिजलप्रमित्सयोर्दुरव्वदोषसंख्याविवक्षणसकलगगनोवंधन विधित्स: यो पृथक्पृथग्विषयत्वादन्योन्यासंबच्योरुपमायां पर्यवसानं॥ सागरांनःप्रमित्सेव च सकलगगनोवंधन विधित्सेव वा प्रकृतपुरुषेण उरध्वदोषसंख्या विवदा ॥
अर्थः ते कडं ने जे, उपमानी परिकल्पना करनार वस्तुनो संबंध जेमां होय ते निदर्शनालंकार कहीए, माटे श्रा जगाए वर्णन करवा योग्य ने अवर्णन करवा योग्य एवा जे पुष्ट मार्गना दोष कहेवा ते तथा समुन्ना जलनुं मान करवू ते बेनुं अथवा इष्ट मार्गना दोषनी संख्यान कहेवु तथा सकल आकाश, नवंधन करवानी श्वा ए बेना विषय जूदा जूदा , ते हेतु माटे ए बेने परस्पर संबंध नथी तेथी नपमा अलंकारने विषे एर्नु पर्यवसान डे, केम जे समुफ जलनो प्रमाण करवानी इच्छा जेवी ने अथवा सकल
आकाशने उल्लंघन करवानी इच्छा जेवी तेवी पुरुषने आ चालतो लिंगधारीउनो करेलो दुष्ट प्रवादरूप मार्गना दोषनी संख्या करवानी इच्छा . एटले परमार्थ ए जे ए मार्गना दोषनी संख्या करी शकाय एवी नथी.
टीकाः-ततोऽयमर्थः ॥ ॥ यथा सागरांनोऽतिजूयस्त्वात् प्रमातुमशक्यं सकलगगनोखंयनं वानंत्याद्विधातुमशक्यं तथा दुरवस्य महामिथ्यात्वरूपस्य लोकोत्तरविरुवासमंजसचेष्टित.
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28 अथ श्री संघपट्टक:
(१)
शतसहस्रसंनृतत्वात्तद्दोषसंख्याप्यति बाहुल्याद्वक्तुमशक्येति ॥ तो दिग्मात्रमेवोदाहृतं ॥ तावन्मात्रेणापि केषां चित् पुण्यास्मानां मोहापोहेन सत्पथान्युपगमो जविष्यतीति भियेति वृत्तार्थः ॥ ३५ ॥
अर्थः- ते हेतु माटे या अर्थ सस्फुट बे जे, जेम सागरनुं जति बे माटे तेनुं प्रमाण करवा समर्थ नथी यवातुं श्राथवा समस्त प्रकाशनुं बल्लंघन करवा समर्थ नथी थवातुं. केमजे ते अनंतु ए हेतु माटे; तेम दुष्ट मार्गनुं महा मिथ्यात्वरूपपणुं बे ते लोकोत्तर विरुद्ध जे अघटीत अर्थ तेनां सेंकको तथा हजारो ते सहित बे माटे ते दोषनी संख्या पण अति घणी बे: माटे कही शकात नथी, ए कारण माटे या दिश मात्र देखामी बे तेथे करीने पण केटलाक पुण्यात्मा प्राणीने मोहनो नाश यशे तेथे करीने सन्मार्गनी प्राप्ति यशे, एवी बुद्धिये करीने या कयुं बे. ए प्रकारे काव्यनो कार्य थयो. ॥ ३५ ॥
टीका: ननूकन्यायेन लिंगिनचेद्यतयो न जवंति ॥ त दिन संत्येव क्वचित्संप्रतिश्रुतोक लक्षण नाजो यतयोऽदर्शनात् ॥ तथा च ज्ञानदर्शनाभ्यामेव जगवतीर्थमनुवर्त्तत इति मन्यमानं मूढंप्रति लिंगिन्यः पक्षांत्तरसंसूचकेन तथा शब्देनांतरापूर्य संप्रति वर्तमानतया कालो चितयतिल कराल कितान् सुविहि तयतीन् प्रतिपादयन्नाह ॥
अर्थ:-- तर्क करी कहे बे जे, पूर्वे को ए न्यायें-- करीने
१
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अब श्री संघपट्टका
लिंगधारि जो पति न होय तो आ कालमां कोई जगाये सिहांतमा क्षेत्रां लक्षण कह्यांबे, तेवा लक्षण वाळा यति नथीज केमके तेजा सकण वाळा पति कोइ जगौए देखाता नथो, ए हेतु माटे. वळी ज्ञान दर्शने करीने जे जगवतनुं तीर्थ व डे, एम जापता शिष्य प्रत्ये लिंगधारी विना शास्त्र लक्षणथी मळता आवता एवा सुविहित यतियो बे, ए प्रकारनो पक्षांतरने जणवनार तथा शब्द मध्ये मूकी वर्तमान काळमां उचित एवा यति लक्षणवमे सहित सुविहित यति डे एम प्रतिपादन करता सता कहे जे.
तथाच ॥ मलकाव्यम्:--
न सावद्याम्नाया न, बकुश कुशीलोचित यति। क्रिया मुक्ता युक्ता, न मदममताजीवन नयैः॥ न संक्वेशावेशा, न कदनिनिवेशा न कपट । प्रिया ये तेद्यापि स्युरिद, यतयः सूत्ररतयः ॥३६॥
टीका:-तथेति यथा संप्रति नयांसो लिंगिनः संति तथा तेन प्रकारेण विरलाःसुविहिता अपीत्येतदेवाह ॥ तेद्यापि स्युरिह यतय इति संबंधः ॥आम्नायो गुरुशिष्यप्रतिशिष्यादिक्रमेण संप्रदायः सावद्यः प्राग्वर्णितौदेशिकनोजनाद्युपत्नोगादेः सपाप
आम्नायो येषांते तथा नातेषां निषेधः। अधुनातनरुढ्यौदेशिकशोजनचेखवासादिना सावद्मसंप्रदायवंत्रो येन जति तथा ॥
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4 अथ श्री संघपका
Manual
अर्थः ते प्रकारे नथी एटले जेम वर्तमान काळे घणा लिंगधारी , ते प्रकारे सुविहित नथी. सुविहित विरल , पण सुविहितनी नास्ति नथी. जे हेतु माटे अद्यापि एटले श्रा काळमां पण सुविहित डे, ए प्रकारनो संबंध आ काव्यमां जाणवो. आम्नाय जे शिष्य तेना शिष्य इत्यादि क्रमनो संप्रदाय ते पूर्वे कयुंजे उद्दे शिक नोजनादिकनुं लोगवq तेणे करीने सावद्य थएलो एप्रकारको नथीथाम्नाय जेमनो एवा, एटले या काळनी रुढीये नदेशिक नोजन तथा चैत्यवास इत्यादिके करीने सावध संप्रदाय वाळा-जे मथी ते.
टीका-बकुशं शबलमतिचारपंकेन समसं प्रक्रमाचारित्रं ॥ ततश्च बकुशचारित्रयोगात्साधवोपि बकुशाः ॥ ते च हिधाः ॥ उपकरणदेहलेदात् ॥ तत्रोपकरणबकुशा येवर्षाप्रत्यासत्तिमंतरे णापि कदाचिठस्त्रादिकं धावंति श्लदणायंशुकादिच जिघृदंति . कदाचित् परिदधते च॥
अर्थः--॥ तथा बकुश केतां शबल एटले अतिचाररूपी कादववके मेलु थएवँ चारित्र, तेना योगथी साधु पण बकुश कहीए, ते साधु बे प्रकारना , तेमां एकतो उपकरण नेदयी अने बीजा देह नेदथी, तेमां नपकरण बकुश तेने कहीए जे वर्षाकाल समीप थया विना पण क्यारेक वस्त्रादिकने धुए तथा कीसारां इत्यादि गुण युक्त वस्त्रादिकने गृहण करवा श्वे. तथा क्यारे तेनुं धारण पण करे.
टीकाः-पात्रदंगकाद्यपि पृष्टं तैलादिनक्षणोत्याक्तितेज
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( ६४४ )
48 अथ श्री संघ पट्टकः
स्कं च धारयति ॥ उपकरणमप्यतिरिक्तं प्रार्थयते इति ॥ देहबकुशास्तु ये क चरणनखादीन् कदाचिन्निर्निमित्तं भूषयंतीति ॥ इमे - च द्विविधा अपि शिष्या दिपरिवारादिकां विनूर्ति तपःपांमित्यादिप्रनवं च यशः प्रार्थयते तदासादनेन च प्रमोदते बेदाश्चातिचारैर्बहुनिः शलिता पि कर्मक्षयार्थमुद्यता इत्यादि लक्षण युक्ता बकुशाः ॥
अर्थः- तथा पात्रां तथा दांगो इत्यादिक पण घशेलां तेलादिके चोपमेलां झळझळाट एवां करी धारण करे ने अधिक उपकरण पण प्रार्थना करी राखे हवे देह बकुश तो तेने कहीए, जे हाथपगना नखादिकने क्यारेक कारण विना पण शोजावे. ए बे प्रकारना बकुश पण शिष्यादि परिवाररूपी विजू तिने तथा तपथी उत्पन्न थलु तथा पंमितपणाथी नृत्पन्न थएलुं जे यश तेनी प्रार्थना करे थाने ते मळवाथी राजी थाय ने बेदने योग्य एवा घणा - तिचारवमे शबळ थया बे एटले युक्त थया बे तोपण कर्मकयने श्रर्थे यमवंत बे, इत्यादि लक्षण युक्त होय तेने बकुश कहीए.
टीकाः -- ॥ यदुक्तं ॥
उपकरणदेदचोरका इढीरस गारवासिया निश्चं ॥ बकुसबलबेयजुत्ता निग्गंथा बाउसा जगिया ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कही बे जे, उपकरणने तथा देहने चोखां राखे तथा क्यारेक ऋद्धिगारव तथा रसगारखे सहित
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अथ श्री संघपट्टका
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१९४५)
होय तथा नित्ये घणुं शबळ एटले घj मलिन बेद प्रायश्चित्त श्रावे त्यां सुधी मलिन चारित्र सहित एवा जे निग्रंथ ते बकुश कहीए.
टीकाः-तथा कुत्सितं शीलं बरणं येषां ते तथा॥ तेपिद्विधा ॥ आसेवनाकषायनदात् ॥ तत्रासेवनाकुशीला ये ज्ञान दर्शनचारित्रतपांसि किंचिदुपजीवंतिकषायकुशीलास्तु ये कोधादिनिः कषायैानादिगुणान् युंजंति अथवा कषायै निादीन् ये विराधयंति ॥ जवो दायोपस्थिता अपीत्यादि लक्षणनाजश्च कुशीला इति ततो बकुशाश्च कुशीलाश्चेति इंजः
अर्थः----वळी कुत्सित एटले निंदित डे चारित्र तेजेमनुं ते कुशील कहीए. ते कुशील बे प्रकारना . तेमां एक तो आसेवना कुशील तथा कषाय कुशील एवा जेदथी. तेमां श्रासेवना कुशील तेने कहीए जे, ज्ञान दर्शन चारित्रने तथा तपने का श्राजीविका रूपे धारण करे, अने कषाय कुशीलतो क्रोधादि कषाये करीने ज्ञा. नादिक गुणने जोमे (नेळवे) अथवा कषाये करीने ज्ञानादिक गुणनी जे विराधना करे अने संसारनो नछेद करवा तत्पर पण थएला इत्यादि लक्षणवाळा डे ते कुशील कहीए. त्यार पढो बकुश ने कुशील ए बे पदनो इंछ समास करवो.
टीकाः तेषामुचिता योग्या यतिक्रिया प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनप्रभृतिका साधुसमाचारी तया मुक्ता रहिताये न नवंति।प्रत्यहं यतिकृत्य पमिलेहणा पमज्जणा, निस्किरिया लोय मुंजणा चेव॥
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(६४६)
* अथ श्री संघपट्टका
पत्तगधुयण वियारा मिल मावस्सयाइयेत्यादि । दश विध चक्रवालादि सामाचा चारीरिण इत्यर्थः॥
अर्थः-तेमने योग्य एवी जे मुनिनी क्रिया पमिलेहण प्रमार्ज आदि साधु समाचारी तेणे रहित एवा जे नथी एटले नित्ये साधु समाचारीये युक्त जे. साधुने नित्य करवा योग्य एवी क्रिया जे प. मिलेदण इत्यादि. ..
तीर्थप्रयायुक्तयतिगवेषालातकपरिहारेण यह
टीकाः-अत्रच पुलाकनिग्रंथस्नातकपरिहारेण यद्दकुश कुशीलोचितक्रियायुक्तयतिगवेषणं ततैरेव सर्वतीर्थकराणां तीर्थप्रवृत्तेः सब जिणाणं जह्मा, बकुशकुशीलेहिं वट्टए तित्थ, मितिवचनात् ॥ तथा न युक्ता न स्पृष्टा मदो जात्यां दिनिरात्मो, स्कर्षप्रत्ययः ममता गृहस्थादिषु प्रतिबंधो ममैते योगदेमं वहंति ततो यद्यमीषां क्वाप्यनिष्टं न संपद्यते इत्यादि स्नेहेन तवसुख दुःखान्यां यतेरपि तत्तेति यावत् ॥
- अर्थः-श्रा जगाये पुलाक निर्मथ तथा स्नातक ए सर्वेनों त्याग करी जे बकुश कुशीलने योग्य एवी जे क्रिया तेणे युक्त एवा यति खोळी काढया तेनुं कारण ए जे जे, बकुश कुशीलवमेज सर्व तीर्थकरना तीर्थनी प्रवृत्ति थाय बे, ए हेतु माटे. ते कडुं जे, सर्व जिनना तीर्थने बकुश कुशील वृद्धि पमामे डे एवा वचनथी, वळी ते बकुश कुशील. केवा डे? तो पोताना उत्कर्षने जणावनार जात्यादिक जे मदते जेमने स्पर्श करी शकता नथी, तथा गहस्थादिकने.विषे प्रतिबंध एटले था श्रावक तो मारा मारो योग केम
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- अथ श्री संघपट्टकः --
(६४७ )
करे . ए प्रकारे गृहस्थादिकने विषे जे ममता, तेथी एम थाय बे जे श्रा श्रावकादिकनुं क्यारे पण अनिष्ट एटले माटुं न थान, इत्यादिक स्नेहे करीने यति पण ते श्रावकना सुखवमे सुखी याय बे, अने दुःखवमे दुःखी थाय बे. एटलो जात्रार्थ बे, माटे ते गृहस्थ साथै परिचय राखता नथी.
टीकाः - श्राजीवनं याजविका निर्वाहस्तस्माद् जयंतद्द्भावसंजावनया जी तिर्गृहि निर्विदितशैथिल्याः सिद्धांताध्य यनादिविरहिता वा गृहस्थ चंदोऽनुवृत्तिं विना निःस्पृहतया शुद्धं प्ररूपर्यंतो वा एतत्कृत निर्वाहाजावेन कथं वयं जीविष्याम इत्याव्यध्यवसाय इत्यर्थः ॥ ततश्च मदश्चेत्यादि द्वंद्वः ॥
अर्थः- आजीविका एटले निर्वाह तेथी जे जब तेनी संभावनाये करीने जे जय, एटले गृहस्थ लोकोये जाएयुं बे शिथि
प से जेमनुं, अथवा सिद्धांतनुं जे अध्ययनादि तेथे रहित अथवा गृहस्थनी अनुवृति विना निःस्पृहपणे शुद्ध प्ररूपणा करतां ए श्रावक निर्वाद नहीं करे तो आप केम जीवीए इत्यादि अध्यव साय, एटलो अर्थ जाणवो, त्यार पछी मद पद साथे द्वंद्व
समास थाय.
टीका:- तैर्महासत्वानां हि स्वजनधन पुत्र कलत्रादिसंगत्यागेन प्रव्रज्याग्राहिणां कुतस्त्यो गृहस्थादिषु ममताद्यवकाशः की बानामेव तद्द्भावात् । एवं च सति ममतादिनिर्वर्जिताः ॥ तथा संहेशः विनिवातया प्रतीयमानो रौप्रध्यवसाय
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(९४८)
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अथ श्री संघपटक
स्तस्य आवेशः आवेगःनत्कर्षों येषामिति व्यधिकरणो बहुव्रीहिः तथा येन नवंति।संज्वलनकषायोदयत्वेन तेषां तन्निबंधनप्रथमादिकषायोदयानावात् ॥
अर्थः—ते महा सत्ववंत पुरुषो स्वजन तथा धन तथा पुत्र तथा स्त्री इत्यादिक संगनो त्याग करीने प्रव्रज्या गृहण करे ने तेमने गृहस्थादिकने विषे ममतादिक थवानो अवकाशज थतो नथी एटले तेवा महांत पुरुषो गृहस्थादिकने विषे ममता करेज नहीं, एतो नपुंसकनेज गृहस्थादिकने विषे ममता थाय ए हेतु माटे. ए पुरुषो एवा ने तेथी ममतादिक वर्जित कह्या. वळी संक्लेश कहेतां अविजिन्न प्रवाह पणे जणातो जे रोज अध्यवसाय, तेना जे आवेश कहेता वेग ते जे जेमने ए प्रकारनो व्यधिकरण बहुव्रीहि समास करवो, ते प्रकारना जे नथी. केम जे ते बकुश कुशीलने संज्वलन कषायनो उदय हे पण ते मदादिना कारण जूत जे प्रथमादि कषाय एटले अनंतानुबंधि आदि कषाय तेनो उदयज नथी ए हेतु माटे.
टीकाः--न कदान्निनिवेशाः अनाजोगादिना अन्यथाकारं स्वयंप्रझते अन्युपगते बाबत्सितमानसाग्रहवंतो ये न जवंति तनिमित्तजनरंजनापरिणामालावात् ॥ ममताजीवन नयादयश्च साधुत्वबाधकत्वाद्यतोनां सर्वथा हेया एवेत्यतस्तेषामिह निषेधो विशेषण प्रदर्शितः ॥
अर्थः कुत्सित मानवाळा नथी पटले अजाणपणे अ
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** अथ श्री संघपट्टकः -
(que) न्यथा प्रकारे वस्तु कह्यामां आवे अथवा अंगिकार करवामां आवे तो जेमने कदाग्रह नथी. केमजे ते कदाग्रदनुं कारणरूप जे सिथ्याजिमान ते तेमने विषे नथी ए हेतु माटे. वळी ते बकुश कुशील केवा बे? तो जेमने कपट वाहालुं नथी एवा एटले माया प्र धान जे अनुष्टानी क्रिया तेने विषे तत्पर एवा नथी. केमजे ते माया कपट बे कारण जेतुं एवं जे लोकरंजन परिणाम तेनो अजाव बे, ममता तथा आजीविका तथा जय इत्यादिक साधुपखाना बाधक बे, ए माटे तिने सर्वथा प्रकारे ए त्याग करवा योग्यज बे ए हेतु माटे तेमनो निषेध था जगाए विशेषे करी देखायो ॥
टीकाः ॥ यक्तं ॥
एवं च संकिलिहा, माइहामि निच्च ताि ॥ श्राजो वियजयघत्था, मूढा नो साहूणो नेया ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कही बे जे ए प्रकारे माग -
ध्यवसायवाळा तथा.
टीकाः - य एवं गुणगणोपेतास्ते यतयः साधवः श्रद्यापि सुसाधुविरहितयाशं किते दुःषमा कालेपि श्रास्तां दुषमसुषमादावित्यपिशब्दार्थः स्युर्भवेयुः इड् प्रवचने सूत्ररतयः सिद्धां ताध्ययनाध्यापनव्याख्यानश्रवणपरायणाः अध्ययनादिकर्त्तव्यताविषयतयैव तेषां शास्त्रीय शिक्षाश्रवणात् ॥
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( ६५० )
4. अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः- जे ए प्रकारे गुणगणे सहित बे ते साधु बे. आ काळमां पण एटले सुसाधुनो विरह जेमां बे एवी आशंकाए सहित एवो आ दुषमा काळ तेने विषे पण सुसाधु होय तो डुषम सुखमादिक बीजा काळमां होय तेमां शुं कहेतुं ! ए प्रकारनो अपि शब्दनो अर्थ बे. या जिनशासनने विषे सूत्रने विषे प्रीतिवाळा एटले सिद्धांतनुं नवं भणाव, केहेतुं, सांजळ तेने विषे तत्पर एवा, केमजे सिद्धांतनुं जणवं इत्यादि तेमनी शिक्षा शास्त्रमां सांभळीए बीए ए हेतु माटे.
टीकाः -- ॥ यडुक्कं ॥ शास्त्राध्ययने चाध्यापने च संचिंतने तथात्मनि च ॥ धर्मकथने च सततं यत्नः सर्वात्मना कार्यः ॥ न तु लिंगिन इव प्रवर्ज्या दिनमारज्य व्यवहारमंत्रादिप्रयोगतत्पराः ॥ एतेन तेषामुन्मादायजावः प्रतिपादितः ॥ महात्मनां सूत्राद्यध्ययनादेरेवं फलत्वात् ॥ एतेन संत्येव संप्रति यथोक्तलक्षणनाजो यतयोऽदर्शनादित्यादि यदाशंकितं तदपास्तम् ॥
अर्थः- ते वात शास्त्रमां कही बे जे, साधुए शानुत्रं जयवं तथा जणाववुं तथा चिंतन करवुं तेने विषे तथा श्रात्मानो विचार करवो तथा धर्म संजळाववो तेने विषे सर्व प्रकारे निरंतर यत्न करवो. पण लिंगधारीना पेठे जे दिवसथी प्रवज्या लीधो ते दिवसने आरंभी व्यवहार करवो तथा मंत्रादिकनो प्रयोग करवो तेने वि तत्पर नयो यता ए ववन कर्तुं तेथे करोने ते सुविहित साधुने उन्माद आदि दोष नयी एम प्रतिपादन कर्यु. मोटा पुरुषाने
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48. अथ श्री संघपट्टका
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सुत्रादिकनुं जणइत्यादिकयो ए प्रकारनुं फलपणुं थाय ने ए हेतु माटे, ए कडं तेणे करीने आ काळमां पण शास्त्रमा कहेला जे लक्षण तेणे सहित एवा यति बेज. पूर्वे प्रतिवादिए निषेध कयों हतो जे आ काळमां शास्त्रोक्त लक्षणवाळा साधु नथी, केमजे ते देखाता नथी. इत्यादि जे आशंका करी हती तेनुं खंगन कयु.
टीकाः-कालादिदोषात् प्रायशस्तथाविधयतीनामदर्शने पि क्वापि तेन संतीत्यनाश्वासस्यकर्तुमयोग्यत्वात् ॥
॥ यमुक्तं ॥
कालाश्दोस कहवि, जवि दीसंति तारिसा न ज॥ सवत्थ तहवि न बित्ति नेव कुज्जा अणासासं॥
अर्थः-कालादि दोषथी बहुधा ते प्रकारना यतिनुं नाम देखामई को जगाए थतुं नथी तेणे करीने ते प्रकारना सुविहित साधु नथी ए प्रकारनो विश्वास राखवो ते अयुक्त ने ए हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही बे, जो कालादि दोषथी कदापि ते प्रकारना सत्पुरुषो देखवामां श्रावता नथी तोपण सर्व जगाए तेवा सत्पुरुपोनो विच्छेद थयो जे ए प्रकारनो अविश्वास न राखवो.
टीकाः-श्रातीर्थमागमे बकुशकुशीलानामनुवृतिश्रवथात् ॥ यदाह ॥न विणा तित्थं नियंहि नातित्था यनियंग्या॥ बकायसंजमायाव ताव अणुसज्जादुएहमिति ॥ बकुशकुशी-:
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(१५)
-40 अब भी सर्वपट्टका
सयोरनुवृतिरिति तत्र व्याख्यानात्॥तथाच ज्ञानदर्शनाच्यामेव संप्रति तीर्थमिति ब्रुवाणस्य नवतः प्रायश्चित्तापत्तेः ॥यदाह ॥ केसिंचिय अएसो, दंसणनाणे हि वट्टए तित्य। वुलेनं च चरितं, षयमाणे नारिया चउरो ॥ असद्ग्रहानद निचतश्चसंघबाह्यत्व प्रसंगात् ॥
यमुक्तं ॥ जो जण नत्थि धम्मो, नय सामश्यं न चेवय वयाई॥ सो समणसंघबज्जो, कायवो समणसंघेण ॥
अर्थः -ए वात शास्त्रमा कही जे जे असत् श्राग्रहथी ते वातने न श्छता जे पुरुषो तेने संघ बहार करवानो प्रसंग बे. ते वात शास्त्रमा कही जे, जो कोश एम कहे जे धर्म नथी, सामायिक नथी, व्रतादि मथी तो ते पुरुषने श्रमणसंघे श्रमण संघथी बाहार काढवो.
टीकाः-तस्मात्संत्यद्यापि विरलाः प्राग्वर्णितगुणा मुनयः पापदाह॥ताजासरासिगह विहु-रिए वि तह दरिकणेविश्ह रिरने॥ अलि चियजा तित्थं, विरलतरा केइ मुणिपवरा ॥ इतिवृ. तार्थः ॥ ३६ ॥
अर्थः-तेमाटे या काळमां पण पूर्वे जेना गुण वर्णन कर्या एका मुनि विरख दे. ते वात शास्त्रमा कही जे जे
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अथ श्री संघपट्टका -
(३५)
MAHARAMMAnd
टीका:--तदेवं पुषमायामपि सुविहितयतिसत्तां व्य.. वस्थाप्य सांप्रतं सामान्य विशेषगुणवत्तया तेषामेव वंदनीयतां प्रदर्शयन्नाह ।।
अर्थः-ते हेतु माटे फुःषमा कालमां पण सुविहित यति बे, एम स्थापन करी हवे सामान्य विशेष गुणयुक्तपणे तेमनुज वंदनीयपणुं ने एटले वंदन करवा योग्य ते सुविहित यतिज ने एम देखामता उता कहे . ॥३६ ॥
॥ मूलकाव्यम्॥
संविनाः सोपदेशाः श्रुतनिकषविदः क्षेत्रकाखाद्यपेक्षा । मुष्टानाः शूमार्गप्रकटनपटवः प्रास्तमिथ्याप्रवादाः॥ वंद्याःसत्साधवोऽस्मिन्नियमशमदमौचित्यगांनीर्यधैर्य स्थैर्योदाचार्यचर्याविनयनयदयादाक्ष्यदाक्षिण्य पुण्या॥३७॥
टीकाः-वंद्याः सत्ताधवोऽस्मिन्निति संबंधः ॥ संविना. मोक्षानिलाषुकाः नवनीरवो वा॥ नतु परलोकवैमुख्येनेहलोक प्रतियाः ॥ एवं विधा अपिस्व निस्तारका एव नविष्यति ॥ तथा च किं तैरित्यत आह.
। अर्थः-श्रा जगतमा जेसु साधु ले ते वंदनीक , ए प्रकारनो संबंध जाणवो. ते सुसाधु केवा बे? तो मोदना अनिलाषी श्र
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१६५४)
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अथ श्री संघपट्टकः
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थवा संसारथो नय पामता एवा पण परलोकना कार्यथी विमुख थइ था लोकमां बंधाएला नथी ए प्रकारना बे. तो पण पोताना तारक हशे ते माटे ते वमे शुं ? एवी आशंका करी उत्तर कहे .
टीकाः--सोपदेशाः धर्मदेशनातत्पराः नत्वालस्यसातशीलत्वादिना तमुखाःतं विना नव्योपकारान्नावात्तस्य चावश्यं यतिना विधेयत्वात्॥ अन्यथात्मंजरित्वमात्रप्रसंगात् ॥यथा कथंचित् तदनवमुक्तिगामुकेनापि कृतकृत्येन नगवता जवि. कोपचिकीर्षया तदादरणात् ___ अर्थः-जे सुसाधु केवा जे ? तो धर्म देशना करवामां तत्पर जे. पण आळस तथा सातासुख शीलपणुं इत्यादिके करी धर्म देशनाथी विमुख नथी, केमजे ते धर्म देशना विना जव्य पुरुषनो नपकार थतो नथी ए हेतु माटे, ने ते जव्य पुरुषनो नपकार यतिए अवश्य करवा योग्य , जो एम न होय तो ते यतिने नदरंजरीपपानोज प्रसंग आवे एटले ते यति पेटन्नराज कहेवाय पण परोपकारी न कहेवाय, केमजे तेज नवमां मुक्ति जनार श्रने करवा योग्य जे कार्य ते जेणे संपूर्ण कयु डे एवा जगवंते, नव्य प्राणीनो उपकार थशे एम धारी धर्म देशनानो आदर को बे ए हेतु माटे.
टीका:-ग्लानादिनाप्याचार्येण धर्मव्याख्यानमवश्यंकव्यमित्यागमेऽ निधानाच ॥
॥ यदाह ॥ दोचेव मत्तगाइ, खेले काश्यसदो सगस्सचिए । एवं विहोविनिबंवरकाणिजात नावत्यो ।
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- अथ श्री संघपट्टकः 8-
( ६६५ )
अर्थः श्राचार्यादिक ग्लान होय तो पण तेले धर्म व्याख्यान अवश्य कर, ए प्रकारे आगममां पण कयुं बे. ते श्रागम वचन या प्रकारे बे जे --
टीकाः - श्रुतनिकष विदः श्रागमरहस्य निपुणाः ॥ एतेन गीतार्थता धर्मकथा धिकारित्वमाह || गीतार्थस्य तदयोगात् ॥ यदा ॥
कुसुमयसुईण महणो विविबोर्ड जवियपुंमरीयाएं || धम्मो जिरापन्नतो, पकप्पजश्ण कहेयो ||
अर्थ:----- आगमनुं रहस्य जाणवामां अति माह्या, ए क तेथे करीने एमने विषे गीतार्थपएं बे ए हेतु माटे धर्म कथानुं अधिकारपणुं वे एम कहे बे, घने जे गीतार्थ नथी ते धर्म कथाना अधीकारी नथी.
टीका:- एवंविधा अपि स्वयं क्रिया शिथिला जविष्यतीत्यतथा ॥ त्रकालाद्यपेक्षं यस्मिन् क्षेत्रे मुष्मिन् काले यदि शब्दाबरीरबलादिग्रहः॥ एवं विधे च बले सति विधीयमानमेतदनुष्टानमस्माकमात्मसंयमशरीरयोर बाधकं जवीष्यतीति देश समयबलानुसार्यनुष्टानं विहार क्रमादिक्रियाकांमं येषां ते तथा।।
अर्थः- प्रकारना बे तो पण पोते सुविहित साधु क्रिया शिथिल हो, एवी शंकानो नाश करतासता कहें बे जे, या क्षेत्रने विषे या काळते विषे आदि शब्दवमे शरीर बळादिकनुं पण ग्रहण कर एटले या प्रकार बळवते करवा मांलुं आप अनुष्टान्
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49अथ श्री संघपट्टका
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धात्म संयम शरीरने बाधक नही करे, ए प्रकारे देश समय बळने श्रनुसरतुं जे अनुष्टान एटले विहार क्रमादि क्रियाकांम ते जेमने ने एवा.
टीका--तथा अनेन पदछयेन ज्ञान क्रियानयानुगामित्वं तेषां निवेदितं ॥ तत्प्रधानत्वादीक्षायाः केवलयोरनिष्टफलत्वा. निधानेन समुदितयोरेव तयोः पंग्बंधयोरिवेष्टफलसाधकतया तैरिष्टत्वात् ।।
॥ यदाह ॥ हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाण क्रिया ॥ पासंतो पंगुलो दह्रो धावमाणो य अंधन ॥
अर्थ---वळी ते सुविहित साधुने श्राबे पदवमे ज्ञान क्रि. याने अनुसरवापणुं ने एम देखामयं केमजे दिवाने ज्ञान क्रियान प्रधानपणुं ने ए हेतु माटे, एकलुं ज्ञान अने एकली क्रीयानुं श्रनिष्ट फल का डे भाटे ए बे एकां होय त्यारेज पांगलो ने अंध ए बेनी पेठे इष्ट फलनुं साधकपणुं तेमणे मान्युं . ते वात शास्त्रमा कही बे, जे किया विनानुं ज्ञान ते होन . अने ज्ञान विनानी क्रिया जे ते हीण . जेम पांगळो वनमां दावानलने देखतो हतो तो पण दग्ध थयो अने आंधळो दोमतो हतो तो पण दग्ध थयो तेम एकढुं ज्ञान अथवा एकली क्रिया ते ए प्रकार, . .
टीका:-संजोगसिद्धीए फलं वयंति,नहु एगचक्कण रहो पयााअंधो य पंगू य वणे समिच्चा ते संपत्ता नगरं पविठा।
अर्थ:--माटे बेना संयोगमां सिद्धि फल रह्यु के एम
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48 अथ श्री संघपट्टकः
मोटा पुरुष कहे बे. एक चक्रवमे रथ चाली शकतो नथी. आंधळो ने पांगळो वनमा एकता मळ्या तो नगरमां पेठा तेन ज्ञान क्रिया एबे एकने विषे दोय तो सिद्धि याय, ते उपर ए अंधपंगू न्याय जावो. आंधळा उपर पांगळो बेठो त्यारे आंधळाना पग ने पांगoानी खोए वे एकठां मळ्यां तो दावानळथी उगरो नगरमां सुखे पेवा.
'टीका:- एवंरूपा श्रपि कुतोपि कदाग्रहगरलोद्गारादुत्सूत्रं प्रज्ञापयोष्यतीत्यत श्राह ॥ शुद्धमार्गप्रकटनपटवः ॥ यथार्थ - श्रुतपथप्रकाशन चतुराः ॥ अलीयसोप्युत्सूत्रपदस्य दारुणं विपार्क विदंतः कथमपि ते तन्न वदंतीत्यर्थः
अर्थः- ए प्रकारना ते सुविदित साधु ने तोपण क्यारेक कदाग्रहरूपी केरना कारथी उत्सूत्र प्ररूपता दशे एवो आशंका करी तेनो उत्तर विशेषणद्वारा कदे बे. जे, ते सुविदित साधु केवा बे? तो यथार्थ सिद्धांतना मार्गना प्रकाश करवामां चतुर बे, अतिशे थोकुं पण उत्सूत्र पदनुं जाषण श्राय तो तेनो दारुण विपाक बे एम जाणे बे माटे कोइ प्रकारे परा ते उत्सूत्रने नयी बोलता ए. लो अर्थ बे.
टीकाः छतएव कथं चित् कर्मदोषाच्चरण करणाल सेनापि शुद्ध एव मार्गः प्ररूपणीयः ।।
॥ यटुक्कं ॥
हुज्ज दु वसणप्पत्तो, रशीदुबलाई असम्मत्यो || चरणकरणे असुडोसुद्धं मग्गं परू विज्जा |
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अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः- एज हेतु माटे कोइ प्रकारना कर्म दोषथी चरण करणमा बालसु होय तेणे पण शुद्ध मार्गनीज प्ररूपणा करवी, ते घात शाखमां कही बे जे.
(३२४ )
टीकाः तथाविधस्यापि शुद्धपथप्ररूपणात् प्रेत्य बोविप्राप्त्या कथंचित्संसारपारावार निस्तारात् ॥ अशुद्धपथप्ररूपकस्य पुष्कर क्रियाका रिपोप्यमुत्र बोधित्यानंतन व निर्व र्त्तनात् ॥ श्रतएव तादृशस्य दर्शनमात्रमपि श्रुते निवारितं ॥
अर्थ:- तेवो बे तोपण, एटले क्रियाचष्ट बे तोपण शुद्ध मार्गनो प्ररूपक बे, ए हेतु माटे मरण पाम्या पनी समकीत पामीने कोइ प्रकारे संसार समुद्रनो निस्तार करशे, श्रने अशुद्ध मार्गनो प्ररूपक डे, ने से जो डुब्कर एटले अति श्राकरी क्रियानो करनार ठे तो पण परलोकम, सनकील नाश थवाथी अनंता जव जमव करशे ए हेतु माटे, तेवानुं दर्शन मात्र पण सिद्धांतमां निवारण कर्तुं छे.
टीकाः ॥ यदाद ॥
उमग्गदेसणाए, चरणं नासिंति जिवरिंदाणं ॥ वावन्नदंसणा खलु, नहु लप्ना तारिसा दटुं ॥
अतः शुद्धपथमेव ते प्रथयंति ॥ एत एव प्रास्तमिथ्याप्रवादाः स्वपदे निराकृतोत्सूत्रोच्चावचवक्तव्यताः परपदे तु निरस्तप्रावा डुकमताः ॥ नंया यथाई द्वादशावर्त्तवंदनादिना प्रथमनीयाः ॥
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48 जय भी संघपट्टकः --
(३५९)
सत्साधवः सुविदितयतयः ॥ श्रस्मिन् जिनशासने दुष्यमाकाले वा ॥
अर्थः- ए देतु माटे शुद्ध मार्गने ते सुविहित साधु जे ते विस्तार पमाशे, माटे ते केवा ठे ? तो नाश कर्या बे मिथ्यात्वना खोटा वाद ते जेम एवा एटले पोताना पक्षमां जत्सूत्र संबंधी कां पण जावण ते जेमणे निवारण कर्यु बे एवा, धने परपक्षमा एटले अन्य दर्शनीमां ते ते दर्शन संबंधी प्रवाद एटले विपरीत बाद, ते जेमणे खंगन कर्या बे एवा समर्थ, वंदन करवा योग्य, एटले जेम घटे ते द्वादशावर्त्त वंदनादिकवने नमस्कार करवा योग्य एवा जिनशासनने विषे अथवा दुःषमा काळने विषे सुविहित यति वर्त्ते बे.
टीकाः ॥ यक्तं ॥
ते य बलकालदेसा सारिपा लिय विहारपरिहारा ॥ इसिसदोस विदु, बहुमाण मरिहति ॥
नियमो ऽव्याद्यनिग्रहः शमः कषायनिग्रहः दम इंडियव - शीकारः औचित्यं सर्वत्र योग्यतानुसारेण विनयादिप्रयोक्रत्वं, गांभीर्यमल दयहर्षदैन्या दिविकारत्वं ॥
अर्थः- वळी नियम कहतां द्रव्यादि श्रनिग्रह तथा क पायनिग्रह तथा इंडियोनुं वश करवुं तथा सर्व जगाए योग्यपणाने अनुसारे विनयादिकनुं करवापणुं तथा हर्ष तथा दीनतादिकना विकारनुं न जणावापj.
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(३६०)
-4 अथ श्री सब पट्टकः
टीकाः ॥ यक्तं ॥
यस्य प्रजावादाकाराः, क्रोधहर्षजयादिषु ॥ नावेषु नोपलक्ष्यते, तद्गांनीर्यमुदाहृतम् ॥
अर्थ:- तेज गंजीरपणुं बे तेनुं लक्षण शास्त्रमां कयुं जे जे कोष तथा हर्ष तथा जय इत्यादि जाव प्रगट थये बते जे गंजीरपणाना प्रभावी आकार jळख्यामां न श्रावे तेनुं नाम गंभीरपणुं कथुं बे.
टीका: - धैर्यं विपत्स्वपि चेतसोऽवैक्लव्यं । स्थैर्यं विमृश्यकार्य कारित्वं । श्रौदार्य विनेयादीनामध्यापनादिषु विपुलाशयता। श्रार्यचर्या सत्पुरुषक्रमवृत्तिता । विनयो गुर्वादिष्वन्युत्थानादिप्रतिपत्तिः । नयो लोकलोकोत्तरा विरुद्धवर्त्तित्वं । दया दुस्थितादिदर्शनातःकरणत्वं । दाक्ष्यं धर्मक्रियास्वनालस्यं । दाक्षिण्यं सरल चित्तता ॥ ततो द्वंद्वः एनिर्गुणैः पुण्याः पवित्रा मनोज्ञा वा साधवो वंदनायतीति वृत्तार्थः ॥ ३७ ॥
•
अर्थ:- तथा विपत्तिने विषे पण चित्तनुं य विकलपणुं तथा विचारीने कार्यं करवाएं तथा शिष्यादिकने जणाववादिकने विषे विशाळ आशयपणुं तथा सत्पुरुषनी रीते वर्त्तवाप तथा गुर्वादिकने विषे सन्मुख नवी ननुं धनुं इत्यादि विनय कर वाप तथा लोक लोकोत्तरने प्रविरुद्ध वर्त्तवापणुं तथा कोइनी दुदेशादिक देखने कोमळ अंतःकरण तथा धर्मक्रियाने विषे भाळत रहितपएं तथा सरळ चित्तपणुं, एटला गुणवमे पवित्र का
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अथ श्री संघपट्टक
थवा सुंदर एवा साधु जे ते वंदनादिक करवा योग्य , ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो. ॥ ३ ॥
टीका:- ॥ सांप्रतं प्रकरणकारः प्रकरणं समाप्नुवन्निष्ट देवतास्तवद्मनाऽवसानमंगलं सूचगंश्चक्रबंधन स्वनामधेयमाविर्विनावयिषुराद ॥
. अर्थ:-हवे प्रकरणना कर्ता पुरुष प्रकरणने समाप्त करता बता इष्टदेवनी स्तुतिना मिषथी बेवा मंगलाचरणन सूचना करता उता चक्रबंध काव्ये करीने पोतानुं नाम प्रगट करता बता कहे .
॥मूल काव्यम् ॥ वित्राजिष्णुमगर्वमस्मरमनाशादं श्रुतोल्लंघने। सझानधुमणि जिनं वरवपुः श्रीचंडिकानेश्वरम्॥ वंदे वर्ण्यमनेकधा सुरनरैः शक्रेण चैनश्चिदं। दंनारिं विषां सदा सुवचसानेकांतरंगप्रदम् ॥ ३८॥
टीकाः॥जिनं वंदे इति संबंधः॥वित्राजिष्णुं त्रिजुवना तिशायिचतुस्त्रिंशदतिशयवत्वेनात्यंतं शोनमानं ॥श्रगर्व नहि. ताहंकारं ॥ अस्मरं मथितमन्मथं ।। श्रुतोखंघने सिंहांताज्ञा तिक्रमे अनाशादं श्राशां मनोरथं ददाति पूरयति श्राशादः न श्राशादोऽनाशादस्तं श्रुताशतिक्रमकारिणः पुंसो नानुमंतार. मित्यर्थः॥ ..
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( ६६२)
-48 अथ श्री संघपट्टकः
अर्थ:---- जिनराजने वंदन करूं ढं ए प्रकारनो संबंध बे ते जिनराज केवा बे ? तो ऋण जगतने अतिक्रमण करे एवा चोत्री श अतिशय तेथे करीने अत्यंत शोभायमान एवा छाने नाश कयों बे हंकार जेम एवा, नयी काम ते जेमने एवा, अने सिद्धांतनी प्रज्ञा अतिक्रमण करनारनी आशाने न पूरनार एटले सिद्धांतनी ज्ञाने न माननार पुरुषनी न अनुमोदना करनार एटलो अर्थ.
टीकाः – सद्ज्ञानमणिं सद्ज्ञानेन केवलज्ञानेन लोका लोकावजासकत्वाद् ज्ञास्वंतं जिनं तीर्थंकरं ॥ तथा ॥ सब सुरा जरूवं, अंगुठपमायं विन विज्जा ॥ जिणा पायगुरुपदे न सोहए तं जहिंगालो |
अर्थ:- वळी जिनराज केवा बे तो केवलज्ञाने करीने देदीप्यमान, केमजे लोक तथा अलोकने प्रगट कही देखामनार बे, ए हेतु माटे वळी ॥
टीकाः - इत्यादिवचनेन वरा सर्वांगसुजगा वपुः श्रीः शरीरकांतिः सैव चंद्रिका जगतो जनप्रमोददायित्वात्कौमुदी तयानेश्वरं नक्षत्रनाथं । चंडिकया चंद्रवद्वपुः श्रिया स्त्री जगदाहादकमित्यर्थः वंदे स्तुवे ॥
अर्थः- इत्यादिक वचने करीने सर्वांग सुंदर एवी शरीरनी शोना एज चंद्रिका एटले चंद्रकांति जगत् जनने दर्ष नृत्पन्न करनार बे ए हेतु माटे, ते शरीरनी कांति चंद्रसमान एटले चंद्रमा पोतानी कांतिवने जेम लोकोने आनंद करे छे, तेम जिनराज पो
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-48 अथ श्री संघपट्टकः --
(६१)
तानी शरीरनी शोभाव मे ण जगतने आनंद करनार बे एटलो . ते निराजने ग्रंथ कर्त्ता कहे जे जे हुं वंदन करुबुं -
टीका:---वर्यं स्तुत्यं अनेकधा बहुधा असुरनरैः दानमानवैः शक्रेण मघो नाचः समुच्चये ॥ एनविदं कल्मषसर्व कथं ॥ दंजारिं शाव्यनिष्टापकं विदुषां विपश्चित्तां सदा सर्वदा सुवचसा मधुरगिरा ॥ अनेकांतरंगप्रदं किल जैनदर्शने त्रैलोक्यवर्त्ति सकलं वस्तुजातं सदसन्नित्यानित्यादिरूपतयाऽनेकांतात्मकमन्युपगम्यते.
अर्थः- वळी जिनराज केवा बे ? तो अनेक प्रकारे सुर तथा मनुष्य तथा इंड, तेमणे स्तुति करवा योग्य एवा चकारनो समुच्चय रूपी अर्थ बे, वळी ते जिनराज केवा बे ? तो सर्व पापना नाश करनारा छाने वळी शठपणाने नाश करनारा बे, वळी बे विद्वानने निरंतर मधुर वाणीए करीने अनेकांत मत रूपी रंगने आपनारा बे, जिनदर्शनने विषे त्रण लोकमां रहेली सर्व वस्तुना समूहने नित्यपएं तथा नित्यपणुं इत्यादि अनेकांतरूपपणे वस्तु स्वरूपने अंगीकार करनारा बे.
टीका:- तथैव प्रमाणोपपन्नत्वात् नतु परती र्थिक वत्सदेवासदेव वा ॥ नित्यमेवाऽनित्यमेव वेत्यादिरुप तयैकांतात्मकं ॥ तस्य विचारासहस्वात्॥ ततोऽनेकां तेऽनेकांतात्मक वस्तुवादे रंगमनुरागं प्रवृत्ते नृत्पादयति यः स तथा तं ॥ अनेकांतवादशी त्युत्पादकं
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(६६०)
- अथ श्री संघपट्टकः
तर्क शर्करा रसस्यंदिन्या वाचा तथा जगवान नेकांतवादं व्यु त्पादयति यथा विद्वांसः शेषदर्शनत्यागेन तत्रैव रज्यंत इत्यर्थः
-
अर्थ :- म जे तेमज प्रमाण पणे सहित बे ए हेतु माटे पण अन्य दर्शनीनी पेठे सत् अथवा असत् अथवा नित्य अथवा नित्य इत्यादि एक स्वरूप वस्तुनुं बे एम एकांतरूपपणं जैन दर्शनमां नथी केमजे विचार करतां तेनुं प्रमाण पणुं नथी थतुं. ते माटे अनेक रूप वस्तुना वादने विधे अनुरागने उत्पन्न करनार एटले कांत वादने विषे प्रीति नत्पन्न करनार तर्करूपी साकरना रसने करनारी वाणीवमे भगवान् अनेकांत वादने व्युत्पन्न करे छे जे प्रकारे विद्वान पुरुष समस्त दर्शननो त्याग करीने ते कांत वादने विषेज राजी थाय बे एटलो अर्थ ॥
टीका:- चक्रमिदं चक्रबंधः ॥ माघसमं यादृश्या वर्णन्यासपरिपाट्या माघकाव्यस्थचक्रं तथा माघकाव्यमिदं शिशुपालवध इत्येवं रूपो नाम निबंधः प्रादुर्भवति ॥ इहापि तादृश्ये वेति माघसमतार्थः ॥
अर्थः- चक्र बंध काव्य डे. ते माघ काव्यना जेतुं बे, जे प्रकारे अक्षर स्थापन करवानी परिपाटी माघकाव्यना चक्रबंधि श्लोकमा बे ते प्रकारे अहीं पण बे. शिशुपाल वध नामनो जे ग्रंथ बेतेने माघकाव्य कहे बे, तेना जेवो चक्रबंध के माटे माघ समान वो अर्थ थयो.
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अथ श्री संघपाका
टीकाः-॥ तथाहि ॥ प्रथमांवलयाकाराणि शांतराणि त्रीणिरेखायुगलानि व्यवस्थाप्यते॥तेषांच त्रीएयंतरालानिजवं. ति॥ ततः सर्वांतरनानिवृत्ताकारासंस्थाप्यते॥ तस्याश्चषट्सुदि। कुद्धाज्यां दुद्धाभ्यां रेखान्यांषरकाअंत्यवलयांत्यारेखांयावत् ॥ एवमेतत् षमकंचक्रनवति ॥
अर्थः-तेज देखामे जे जे प्रथम वलयने आकारे एटले गोलाकार अंतर सहित त्रण रेखा जुगल स्थापन करवां एमनां त्रण अंत्रराल थाय. त्यार पड़ी ते सर्वनी वच्चे नाजी गोळ आका. रनी स्थापन करवी, तेनी ब दिशाने विषे बेबे रेखावमे उ श्राराज करवी, बेसा वलय अने बेबी रेखा सुधी, ए प्रकारे करे उते बा. रानुं चक्र थाय .
टीकाः--ततएकस्य कस्यचिदरकस्यांतर्गतांत्यवलयांतरालेवृतस्य प्रथमाकरं लिख्यते ततोऽधस्ताहितीयमकरं ॥ तस्या धस्तान मध्य वलयांतरे तृतीयं ॥ततो धस्ताच्चतुर्थ पंचमे ततो धस्तादायवलयांतरालेषष्टं ॥
.
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___ अर्थः-त्यार पड़ी कोश्क एक श्रारानी अंतर्गत वलयनी बच्चे प्रथम अक्षर लखवो त्यार पड़ी तेनी नीचे बीजो अक्षर खखवो तेनी नीचे मध्यम वलयानी वच्चे त्रीजो अक्षर लखवो त्यार पनी नीचे चोथो पांचमो अक्षर लखवो. त्यार पली नीचला वलयनी बच्चे हो अक्षर लखवो.
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(६६६)
48 अथ श्री संघपट्टकैः
टीका:- ततोधस्तात् सप्तमाष्टमनवमानि ॥ ततोनाजींदशर्म ॥ तत प्रथमारक सन्मुखारकादावेकादश द्वादश त्रयोदशानि ॥ ततस्तदुपरिष्टादाद्यवलयांतराले चतुर्दशं ॥ ततस्तदुपरि पंचदशषोऽशे ॥ ततस्तदुप रिमध्ये वलयांतरासप्तदशं ॥ तदुपरिष्टादष्टादशं ॥ ततउपरिष्टात्यवसयांतराले एकोनवीशं ॥ एवं वृत्तस्य प्रथमपादोरकद्वये समाप्यते ॥ एवमनेनक्रमेण द्वितीयवृतीयपादावप्यवशिष्टारकचतुष्टय इति ॥ नानेरकरं त्रिराव
॥ ततस्तृतीयपादस्यात्याक्षरं चतुर्थपादाद्याक्षरतया पुनरावयर कशून्यांत्य वलयांतरे चतुर्थपादस्य द्वितीयतृतीये करे व्यवस्थाप्येते ॥ तदनंतरंप्रथमारकांतः स्ववृत्तप्रथमाक्षरं चतुर्थपादास्वतुर्याकरतयावर्त्यतत्पुरतारकशून्यांत वलयांतरे पंचमषष्टे - हरे लिख्यते ॥ अनेनक्रमेण तावन्नेयं यावतृतीयपादस्यांत्याक्षरं तच्चतृतीयवारमावृत्तंचतुर्थपादस्यांत्याक्षरतयाज्ञातव्यं ॥ इहचनामबंधमत पुनरावृत्तवर्णानुस्वारा यथो संजवं तद्वेगपंचमतयाप्रमवर्णेषुयोज्याः ॥ श्रत्र जिनवल्लनेनगणने दचक्रे तिनामबंधः ॥ स्थापनाचेयं ॥ एतच्चैवं चक्रादर न्यासस्वरूपं व्यक्त मपिमुग्ध बोधनाय किंचिद्दर्शित मितिवृतार्थः ॥ ३८ ॥
•
अर्थः-- इत्यादि चक्रबंधी चित्रमां अक्षर लखवानी रीत जावी. या काव्यमा जिनवल्लजगणीए आ ग्रंथ रच्यो बे एप्र. कारे नाम बंध बे, तेन । स्थापना लख्या प्रमाणे बे. या चक्राकरनुं 'स्वरूप प्रगट ने तोपण बाळजीवना बोध सारु कांइक देखामयुं बे ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ यो ॥ ३८ ॥
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* अथ श्री संघपट्टका - (8) टीकाः-एवंचानेन प्रकरेणन सप्रपंचं मिथ्यापथस्वरूमे प्रकटिते प्रनुश्री जिनवान्नसूरयः किमित्येवं प्रकष्ठवृत्याटिगिनो नवनिषिता इति केनाप्युपालब्झास्तस्यच प्रति वचनं तस्मैवकमाणवृत्त शयेनोपन्यस्तं अतस्तदपि पातित्वा प्रकृतानु दत्रैव प्रकरणांतरे निबऊं ॥ तदिदानी व्याख्यायत इत्याह ॥
अर्थः--ए प्रकारे या प्रकरणे करीने प्रपंच सहित मिश्यामार्गर्नु स्वरुप प्रगट करे उते एटले समर्थ श्री जिन वचसूरी जे ते शा वास्ते पृकष्ट वृत्तिये करीने लिंगधारीउने दोषवाला करे , एम कोश्के उलंनो आप्यो त्यारे तेनो उत्तर आगळ कहीशुं एवां बे काव्यो वझे कह्यो माटे ते पण आ चालता प्रकरणने उपयोगी डे माटे बीजा प्रकरणमां कहेलां बे काव्य तेने या प्रकरणमा हवे कहे .
॥ मूल काव्यम्॥ जिनपतिमत उर्गे कालतः साधु वेषै। • विषयि निरनि भूते जस्मक म्लेच्छ सैन्यैः ॥
स्व वशजम जनानां शृंखलेवस्वगच्छे। स्थितिरिय मधुनातैर प्रथि स्वार्थ सिध्यै ॥३॥
टीका:---जिनपतिमतमेव जगत्रबाशतमेव मिश्यात्वादि .. बैरिवार रका कमरवाहक मूलनेनप्रति परिक्षामा प्रति...
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अब श्री सघ पट्टा
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मत्वेन पुरारोहत्वाञ्चपुगंप्राकारस्तस्मिन् अनिजूते नपछुते विमंबिते इत्यर्थः ॥ साधु वेषै लिगिन्निः
अर्थः-नगवतनुं शासन ने तेज मिथ्यात्वादि वैरीनासमूहथी रक्षा करवा समर्थ डेए हेतु माटे, तथा बफ मूल माटे शत्रु मात्र कय करवा समर्थ नथी थता ए हेतु माटे उन्नतिवाळो ने माटे दुःखे श्रारोहण करवा योग्य बे, एवो जे जिनमत रूपी पुर्ग एटले किटलो ते लिंगधारीए परानव करे बते एटले विमं. बना पमामे बते एटलो अर्थ ले.
टीका:-नस्मकोजस्मराशिग्रहः स एवाईबासन रतानां नानाविध बाधा विधायित्वात् म्लेचस्तु रुष्कवाधिपस्तस्य सैन्यास्त दनुवर्ति चेष्टितत्वात् सैनिकास्तै विवियितिः कामुकैः द्वितीयपके वशीकृत बाह्यदेशेः अथ कथमेवं विधस्यापि जिनमत पुगस्य विषयिनीरपि लिंगिजिरा निन्नव इत्यताह ॥
अर्थः-लस्मराशीनासाग्रह एज अरिहंतना शासनमां आशक्त पुरुषोने नाना प्रकारनी पीमाना करनार , माटे म्लेड जेवो , तेनी सेनामा रहेनारा एटले नस्मगृहरूप म्लेड राजाने अनुसरी रहेनारा, एवा अने विषय बुब्ध एवा लिंगधारीए जिनमत रुपी उर्गनो पराजव को हवे म्लेच राज पदे एम अर्थडे जे, वश कर्या ने बाह्यदेश जेमणे एवा जेनी सेनाना लोक जे एवं म्खेड राज . हवे आ प्रकारनो जिनेश्वर जगवंतना मतरूपी मोटो
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* अथ श्री संघपट्टकः
( ६६९)
किल्लो, ते विषय एवा पण लिंगधारीउए केम पराजव कर्यों तेनो उत्तर कहे .
टीका:- कालतो दुःषमा समय दोषात् अनिनुयं तेहि कालवशान्महातेजस्विनोपि ॥
॥ यमुक्तं ॥
समाईतं यस्य करैसिपि जिस्त मो दिगंतेष्विपिना वतिष्ठते ॥ सएष सूर्यस्तमसा जिनूयते स्पृशंति किं कालवशेननापदः ॥
अर्थः- जे दुःखमा काळ दोषेथी पराभव याय बे महा तेजस्वी पण काळवशथी पराजव पामे ते कचुंबे जे, जेना विस्तारवंत किरण धकार दिशामां पल रहेवा समर्थ नथी यतुं ते सूर्य काळे करीने अंधकारवमे पराजव पामे बे, केमजे तेजस्वीने पण काळवशे करीने आपत्ति शुं नथी स्पर्श करती ? एटले शुं आपत्काळ नथी श्रावतो. थावेज बे.
टीकाः - ॥ ततश्च स्ववशज रुजनानांसम्यक्त्वाधारो पण व्याजेनात्मायत्तीकृत मुग्ध लोकानां स्वगन स्थितिः एते वयं संप्रदायागता युष्माकं गुरवस्तस्मात्कदाचिदपिन् मोक्तव्या इत्यादिका प्राक् प्रतिपादिता निजगह मुद्राश्यंएषा अधुनाइदानीं तनैः साधुवेषेः ॥ प्रथिसर्वत्रैक मत्येन श्रतानि ॥
अर्थः- ते माटे पोताने वश एवा जमलोकने सम किता दि
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६७० )
- अथ श्री संघपट्टकः --
यारोपण करवाना मिषयी पोताने आधीन कर्या एवा जे जोळा लोक तेमने पोताना गहनी स्थिति एटले आ श्रमो परंपरागतनुं तमारा गुरु बीए माटे क्यारे पण न मूकत्रा इत्यादि पूर्वे प्रतिपादन करी एव जे पोताना गछनी मुद्रा ते हालना साधु वेषधारोर्जए विस्तारी बे एटले सर्व जगाए एकमत करो विस्तार पमामी बे.
टीकाः ॥ स्वार्थ सिद्धयैकथमस्माकमेवैते नोग्याजविष्यं तीति निजकार्य निष्पत्तये ॥ त्रार्थेऽनुरुपनुपमानमाह ॥ श्रृख लेव निगमश्व ॥ एतडुक्तं जवति ॥ यथाम्ले सैन्याः कस्मिश्चिदपिडुर्गे स्वनुजबलेन गृहीतेद्र विणाद्यर्थं तदंतर्दर्त्तिनागरिकलोक संयमनाश्रृंखलां प्रसारयंति ॥ तथैते पिलिंगनः स्वोपनोगार्थं मुग्धजन नियमनातगड स्थितिं प्रथयमा सुरितिवृतार्थ ॥ ३ ॥
अर्थ :----|| पोताना स्वार्थनी सिद्धिने अर्थे एटले आजोळा लोक प्रापणेज जोगवना योग्य केम करीए तो थाय ? एवं वीचारी गन स्थिति विस्तारी ए जगाए घटनुं नृपमान कड़े बे, जे बेमीdना जेवी गुड मुद्रा बे, ते कयुं बे जे जेम म्लेबनी सेनाना योद्धा कोइ दुर्गभूमि पटले विकट स्थान पाताना भूजबळवमे ग्रहण करे व्यादिकने तेमां रहेला नगरना लोकने बांधवा सारु शृंखला विस्तारे बे तेम या लिंगधारीयो पोताना उपजोगने चोळा लोकने बांधवा सारु गछ स्थितिने विस्तारे बे या प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ पूरो थयो ॥ ३० ॥
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
(६७१)
टीका: -- ॥ ननुय दितेग स्थितिं सर्वत्र विस्तार यामासुरेतावतापि किमित्यतश्राह ॥
अर्थः- आशंका करे बे जे जो ते लिंगधारी सर्व जगाए पोताना गहनी स्थितिउने विस्तारे बे तेथे करीने शुं ययुंए जमाए तेनो उत्तर कड़े बे.
॥ मूल काव्यम् ॥
संप्रत्य प्रति मे कुसंघव पुषि प्रोज्जूंजिते जस्मक लेना तुच्छबले दूरंत दशमाश्चर्ये च विस्फूर्जति ॥ प्रौढ जग्मुषि मोदराज कटके लोकैस्तदाज्ञापरे रेकीय सदागमस्य कथया पीच्छं कदर्थ्यामदे ॥४०॥
टीकाः - मोहराजकटकेप्रौढिजग्मु पिलोकैर्वयं कदर्थ्यामहइति संबंध ॥ संप्रत्यधुता प्रोज्जूंनिते अभ्युदिते नस्मकम्ले - बाबले || स्मराशितुरुष्कवाधिप सारसैन्ये प्रतिमे तेज स्वितयाऽनन्य साधारणे ॥
अर्थ ः— मोहराजनुं लश्कर मोटी उन्नति पाने उ लोकश्रम कदर्थना करीए बीए एम संबंध बे, आ काळमां जस्मक ग्रहरूप लेह राजा तेनुं मोटुं सैन्य डे, जेना तेजस्वी पणानी बी. जाने उपमा नथी माटे असाधारण के.
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(६७२)
अथ भी संघपट्टको
टीका:-कुसंघ एवप्रावर्णितनिर्गुण साध्वादि समुदाय एववपुः शरीर स्वरुपं यस्यतत्तथा ॥ तस्मिन् नस्मक म्लेचस्य हिः संघएव स्वसैन्यं ॥ ततो यथा म्लेछोऽश्वादि साधने नपरजनपदमनि जवति एवं जस्मकोपि प्रबल दुःसंघ बलेन जग. वडासन मालिन्योत्पादनेन तिरस्कुरुते ॥
अर्थः-कुसंघ एटले पूर्वे वर्णन कर्यो एवो गुण रहित साधु आदिकनो समूह एज डे स्वरुप ते जेनुं एवो जस्मक ग्रहरुपी म्लेजनुं सैन्य दुःसंघ एज माटे जेम म्लेच अश्व आदि साधने करीने शत्रुना देशनो परानव करे ने ए प्रकारे नस्मकग्रह पण बलिष्ट एवो कुसंघनो समूह तेणे करीने नगवंतना शासनने मलिनपj उत्पन्न करवे करीने तिरस्कार करे .
टीकाः–तथा दुरंत दशमाश्चर्ये उष्टा संयत पूजाख्यां त्याश्चर्येचः समुच्चये विसूर्जति प्रन्नविष्णौ ॥ एवंच सति प्रौढी स्फाति जग्मुषि मोह एव मिथ्याज्ञान मेव लिंगिप्राप्त संसार मार्गस्यादि कारणत्वादति पुर्जयत्वा प्रागादि प्रजवत्वाच राजा प्रार्थिवस्तस्य कटके अनीके ॥
अर्थः-वळी दुष्ट एवा असंजतिनी पूजा नामनुं दशमुं आश्चर्य प्रबलपणे प्रगट थये ते मोह राजानुं सैन्य मोटी उन्नति पाम्यु. मोह ते मिथ्याज्ञानज , ते लिंगधारीए कहेला जे संसार मार्ग तेनुं श्रादि कारण ले तथा अति दुःखवमे जिताय एवो बे, तथा रागादिनुं कारण , ए हेतु माटे मोह एज राजा ले तेनुं सै. न्य लिंगधारीनरूपी विस्तार पामे बते.
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-48 अथ श्री संघपट्टकः
( ६७३ )
टीका :- प्रागुक्तस्य जस्मकादेः सर्वस्यापि मोदराजपरिभूतत्वेन तत्कटक कल्पत्वात् ॥ श्रयमर्थः ॥ मोदो हिं दुष्टमौलराज कल्पस्तस्य च दुःसंघलक्षणचतुरंगबलकलितो जस्म को म्लेच्छाख्यमहासामंत कल्पः ॥ दशमाश्चर्य तु स्वत एवातिप्रबलत्वात्सादायांतर निरपेक्षमेव द्वितीयमदासामंतप्रख्यं ॥
अर्थ :- पूर्वेकयुं जे जस्मक ग्रहादि सर्वे ते पण मोह राजानुं नृपकरणरूप बे माटे तेन। सेनाने तुल्यपणुं बे ए देतु माटे ग्रा अर्थ स्फुट बे. निश्चे मोहराजा बे ते दुष्ट मूल उतराग बे ते पृष्ट संघ बे लक्षण जेनुं एवं चतुरंग सैन्य सहित बे, जस्मग्रह बे नामे महा चक्रवर्ति राजा सरखो बे, छाने दशमं आश्चर्य तो पोतानी मेळेज अति प्रबल बे माटे बीजानी सहायतानी अपे क्षा कर्या विनाज बीजा मोटा चक्रवर्ति राजा सरीखो बे.
टीकाः ततो यथा कश्चिन्महाराजाधिराजो म्लेच्छादि मझासमेतैर्जू मंगलं साधयति तथा श्रयमपि मोहराजो जस्मका दि निर्जिनशासनमनिनवतीति ॥ ततो लोकैः कुसंघ जनैः तदाज्ञापरैम राजशासनमनतिक्रामं द्भिः मूढत्वादविमृश्यका रिजिरित्यर्थः एकीनूय दुष्टत्वेनैकमत्यं विधाय ॥
अर्थः- ते देतु माटे जेम कोइ महाराजाधिराज बे ते म्लेक्षादि मोहराजावके पृथ्वी मंगलने साधे बे तेम श्रा मोहराजा पण
८५
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(६७४)
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अथ श्री संघपट्टकः ।
जस्मकादि ग्रहवझे जीनशासननो परान्नव करे , माटे मोहराजानी आझामां तत्पर एवा कुसंघ लोको एकग थइने एटले कुसंघ जे ते मूढ माटे मोडराजानी आझार्नु उखंघन करतो नथो थने अणविचार्यु करे ले ते सर्व पुरुषोए पोतानो एकमत करीने.
टीका:--इत्थं सकलजनप्रती तैराकोशतर्जनहीलादिनिः प्रकारः राजवञ्चसेन वयं कदर्थ्यामहे पीमयामहे उपह. न्यामह इत्यर्थः ॥ केन हेतुनेत्याह । सदागमस्य लिंगिप्रथिन मिथ्यापथोत्पथत्वप्रतिपादकस्य शुद्ध सिद्धांतस्य कथयापि धर्मदेशनाद्वारा विचारमात्रेणापि ॥ यदि हि पक्षप्रतिपक्ष परिग्रहेण साधनदूषणोपन्यासैः प्रकृतविषये परैः सहवाद मुपक्रमामहे ॥
अर्थः-सकल लोकने प्रसिद्ध एवा निंदा तथा तिरस्कार तथा हीलनादि प्रकारे करीने तथा राज तेजवमे पीमीए बीए, शा हेतु माटे पीमीए बीए ? तेनो नत्तर कहे , जे लिंगधारीए विस्तार्यों जे मिथ्यामार्ग तेने उन्मागपणुं , ए प्रकारे प्रतिपादन करनार जे शुद्ध सिद्धांत तेनी कथाए करीने एटले धर्म देशनाधारे विचार करवा मात्रे करीने पद अने प्रतिपक्षनुं ग्रहण करी अनुमानादि प्रमाणनुं कहे तेणे करीने आवातमा पर साथे वाद विवाद करवानो उपक्रम करीए बीए.
टीकाः--॥ तदा नविद्मस्ते किमपि कुवीरनित्यपि श.
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अथ श्री संघपट्टका
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ब्दार्थः ॥ तथा च वयं शुभसिद्धांतविचारजव्येन्योऽनुजिघक्षयोपदिशंतो नाल्पीयांसमप्युजालंजामहामः ॥ ....
अर्थः-ते वखत ते कांश करशे एम पण नथी जाणता एम श्रपि शब्दनो अर्थ रह्यो डे, एटले था अमे जे जे लिंगधारी संबंधि खमन कयुं ते सांजळो ते विवाद करवा श्रावशे तो तेमने सिकांतनी साखे जवाब आपीशुं पण तेथी जय पामता नथी. वळी शुद्ध सिद्धांततना विचारने जव्य प्राणी प्रत्ये अनुग्रहनी श्वाए उपदेश करतां लगार मात्र पण नलंजो पामवा योग्य अमो नथी.
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥ नेत्रैर्निरीय विषकंटक सर्प कीटान् ॥ सम्यग्यथा व्रजत तान् परिहृत्य सर्वान् ॥ कुझान कुश्रुत कृष्टि कुमार्ग दोषान् सम्यग् ॥ विचार यत कोत्र परापवादः ॥ इति वृत्तार्थः॥
अर्थः–ते वात शास्त्रमा कही जे जे, चालq ते नेत्रे जोश विष, कांटा, सर्प, कीमा, इत्या दिनो परिहार करी सारे मार्गे चालो. कुज्ञान, कुसिकांत, कुदृष्टि, कुमागे ते संबंधि सर्व दोषने सारी पेठे विचारो एम अमारूं कहे , तेमां लोकोपवाद शो ले ? को प्रकारनो जणातो नथी.ए प्रकारे था बेरा काव्यनोअर्थ संपूर्ण थयो ॥४॥
टीकाः ॥सूरिःश्रीजिनववनोऽजनि बुधश्चांके कुले,तेज
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अथ श्री संघपहक
सा संपूर्णोनयदेवसूरिचरणांजोजालिलीलायितः॥ चित्रं राजसजासुयस्य कृतिनां कर्णे सुधाऽर्दिनं तन्वाना विबुधैर्गुरोरपि, कवेः कैर्न स्तुताः सूक्तयः ॥ १॥
- अर्थ:----चंऽकुलमां श्री जिनवखनसूरि थया. ते केवा ? तो पंमित एवा तथा तेज प्रतापवमे संपूर्ण तथा अजयदेवसुरीना चरणरुपी-कमळने विषे उमर लीलानुं श्राचरण करता एटले ते. मना अंतेवासी शिष्य एवा गुरु एवा, अने कवि एवा जे जिनवअनसूरि तेमनी जे सुंदर वाणीयो ते राजसजानने विषे, पंमितोना कानने विषे अमृतवृष्टिने विस्तार करती देखाय . माटे तेनो स्तुतिकोणे नथी करी ? एटले सर्व पंमितोए तेमनी वाणी वखाणी.
टीका:-॥हित्वा वाङमयपारदृश्वतिसकं यंदीप्रलोकंपृण प्रज्ञानामपिरंजयंति गुणिनां चित्राणि चेतांस्यहो ॥ खुंटाक्य श्युततंचंडमहसामद्याप्यविद्यामुषः कस्यान्यस्य मनोरमा:सकल दिक् कूलं कषाःकीर्तयः॥॥ .
अर्थः-वळी शास्त्रना पारंगामी, पुरुषोमां तिलक समान, एवा जे जिनवानसूरि तेनो त्याग करी बीजा कया कविनी संपूर्ण चषकांतिने खुंटनारी एटले संपूर्ण चंद्रकांति समान एवी अने हजु सुधी पण अविद्यानो नाश करती अने सकळ दिशामां व्यापती एवी सुंदर कीर्ति बे? अर्थात् एवी को गुरुनी कीर्तियो नथी, केमजे खोकने दीपावनार अने खोकने प्रसन्न करे एवो बुधिळ जे.
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अथ श्री संघपट्टकः
(1919)
मनी एवा गुणी पुरुषोनां पण नाना प्रकारना चित्तने रंजन करे बे मोडं आश्चर्य ॥ २ ॥
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टीकाः ॥ माधुर्य शार्क रितशर्करयारयाद्यं, पीयुषवर्षमिव तर्क गिरा किरंतं || विद्यानुरक्तवनिताज नितास्यलास्यं हित्वा - परत्र न मेना विदुषामरंस्त ॥ ३ ॥
अर्थ :- मधुरताव साकरनी मीठाशना गर्वने कमका करती एटले यति मीठी एवी तर्कवाणी व अमृतरसने ढोळताज होयने शुं ? ने सरस्वती रूप अनुरागिणी स्त्रीये नत्पन्न करी बे मुखचातुर्यता ते जेनी एवा जे जिनवल्लनसूरी तेनो त्याग करी वि द्वान लोकनां मन बीजे ठेकाणे न रमतां हवां ॥ ३॥
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टीकाः - ॥ जज्ञे श्री जिनदत्तयत्यधिपतिः शिष्यस्ततस्त स्यय, सिद्धांताहि विधिपारतंत्र्य विषया जिख्यामनिख्यान्वितः ॥ श्रासाद्य त्रिपदीं विधुर्ब लिमिव व्यध्वं वृषध्वंसनं ॥ चिछेद प्रतिपंथिनं सुमनसां व्यक्तक्रमप्रक्रमः ॥ ४ ॥
अर्थः-- यार पढी ते जिन वल्लजसूरिना शिष्य शोजाये सहित जिनदत्तसूरी थया जे जिनदत्तसूरि विधिना पारंगामीपणारूमी जेनुं नाम बे एवी त्रिपदीने सिद्धांतथी पामीने सत्पुरुषनो धर्मनाशक एवो जे उन्मार्ग तेनो प्रगटपणे पाद विहार शत्रुरूप, करता उता (वेदता हवा) ते उपर दृष्टांत अन्य दर्शननुं कडे बे जे. जेम विष्णुये उन्मार्गे चालनार बलि राजानो बछेद कर्यो तेम ए
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अथ श्री संघपट्टकः
वात श्रन्यदर्शनोना शास्त्रमां बे जे एक समे दैत्यनो अधिपति बलिराजा महा बळवान थयो तेणे इंद्रने जीती इंद्रासन उपरथी काढी मुक्यो, पढी ते गादी उपर बलिराजा इंद्र थयो, तेणे पोताना ईप्रासननी दृढताने अर्थे पोताने अर्थे पृथ्वी उपर घ्यावी नर्मदा नदी नपर यज्ञ करवा मांझ्या त्यारे जगत्पालक विष्णुये ते अन्याय जोइ अवतार लीधो पढी वामणु रूप करी ब्रह्मचारीनो वेष जे दंग क मंगल, कौपीन, मृगचर्म, इत्यादि धारण करी कपटथी बलिराजाना यज्ञमां गया अने त्रण मगलां पृथ्वी मागी, पढी पोतानुं वीराट रूप प्रगट करी बे मगलांमां सर्व जगत् जरी लीधुं अने त्रीजुं मगलंबळी राजाथी न पायुं त्यारे तेना उपर पग मूकी पाताळमां चांपी घाय, एनी सर्वे राज्यसमृद्धि इंडने पीने पाठो इंद्रासने बेसाय इत्यादि सविस्तर कथा वामनपुराणथी जावी.
टीकाः ॥ लावण्यावसथो यथा पतिरपां नो पर्वतको नितः श्रृंगीव सदां सुवर्ण सुजगो नोच्चैः सुरागाश्रयः ॥ यः कल्पडुरिव तार्पित फलो नोद्यत्सदापल्लवः, साम्यं यस्य तथापिशस्य यश सस्तैः कुर्वते बालिशाः ॥ ५ ॥
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अर्थः- वळी ते केवा बे ? तो लावण्य मात्रने रहेवानुं घर रुप, जेम जलने रहेवानुं घर समुद्र बे तेम तेमां घालुं विशेष जे समुद्र मंथन कर्तुं त्यारे पर्वतवमे समुद्रने कोन थयो छे, अने o आचार्य को जगाए कोन पाम्या नथी. वळी उंचा मेरुपर्वतना जेवो सुंदर बे वर्ण जेमनो एवा बे, देवताने मेरुपर्वत सारा रंगनो एटले रागनो आश्रय बे
प्रसन्न करे एवो ने या आचार्य
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+ अथ श्री संघपट्टका
रागने रहेवानो आश्रय नथी एटलं विशेष. वळी सारा पल्लव वाळो जे कल्पवृक्ष तेना जेवा, पण तेमां बाटलुं विशेष डे जे आ
आचार्यने को दिवस आपत्तिनो लव पण नत्पन्न थयो नथी, तो पण बाळ पुरुषोते, वखाणवा योग्य जे यश ते जेमनो एवा था आचार्य तेमनी पूर्वे कही एवी नपमान तेमने करे ॥ ५ ॥
टीकाः तस्य श्रीजिनचं सूरि रनवनिष्पावतं, सस्ततो धाम्नायेन वितन्वता कुवलयामोदं बुधानं दिना ॥ सर्वस्याः सु. जगं नविष्णुमवनेः शुक्ल द्वितीयेऽवत्केनो मंदिदृववस्तनु कलमौन्मुख्यमापादिताः ॥६॥
अर्थः-त्यार पड़ी जिनदत्तसूरिना मोटा शिष्य श्री जिनचंजसरि थया. पंमितने आनंद पमामनार एवा, जेणे पोताना प्र. तापे करीने समस्त पृथ्वीना लोकने आनंद विस्तार्यो. तथा तेनुं सालं नाग्य विस्तायु, तेमनी सुंदर अजवाळी या पदनी बीजना चंडमानी पेठे शिघ्रपणे जोवाने कोण पुरुषो नुत्साहवंत थया नहि ? अर्थात् सर्वे पण थया ॥ ६ ॥
टीका:--विश्वत्रयेप्यजय्य श्री मदनेकांतहृद्ययासूक्तया ॥ वरवर्णिन्या प्रीयत-यस्य जनो नवविलासिन्या ॥ ७ ॥
अर्थः-वळी त्रण जगतमा जेने जीतवा समर्थ नथी एवं अनेकांत मननी सुंदर संसारमा विलास न करतो एवी निर्दोष पाखीव जेणे लोक प्रसन्न कर्या बे एवा ॥ ७ ॥
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________________ (100) + अथ श्री संघपष्टका टीकाः----अंतःसंसदमर्ककर्कशलसतर्कदणुतव्याहृतिसृक्प्रावाऊकगर्वचर्वणचणप्रखन्मनीषाजुषः // शिष्यस्तस्य यतीश्वरो जिनपतिर्जग्रंथसग्रंथधोपॅथत्याग्यपि संघपट्ट विवृत्तिं स्पष्टानिधेयामिमान् // 7 // अर्थः-सजाने विषे सूर्य जेवा आकरा अने शेजता एवा जे तर्क तेणे करीने प्रयास करी एवी जे नक्ति तेने उत्पन्न करनार एवा जे वादि लोको तेमनो जे गर्व तेने नाश करवा समर्थ एवी देदीप्यमान जे बुद्धि तेणे सहित एवा जे जिनचंउसूरि तेमना शिष्य जिनपति नामे यतिना अधिपति थया ते निग्रंथ डे तोपण ग्रंथ एटले शास्त्र अथवा आग्रंथ तेने रचता हवा, एटले विचार करवा योग्य एवी अने प्रगटपणे जेनो अर्थ डे एवी संघपट्टकनी आ प्रकारनी टीकाने करता हवा // 7 // ए प्रकारे जिनवानसूरिना शिष्य श्री जिनदत्तसूरि तेमना शिष्य श्री जिनचं सूरि तेमना शिष्य श्रीजिनपतिसूरि तेमनी करेली टीका समाप्त थ. ॥अक्षर गणनया 102400 श्लोक बंधन 3200 इति प्रमाणं // BRURBRBRBRBanane 1 ॥इति संघपट्टक वृत्तिः समाप्ता // Bernaannnnn