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भय भी संघपट्टक
मधुर स्वाध्यायनो शब्द तेने सांजलीने तथा केटलाक साधुनां असंख्य लावण्य शोन्नानां धारण करनार सुंदर शरीर तेमने देखीने विरहिशी जुवान स्त्रोयोने काम क्रीमा करवानी इच्छा थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय. ए प्रकारे स्त्रीयोने तथा साधुने परस्पर निरंतर रूपनुं देख गीतनुं सांजलq ए श्रादि कारणे करीने दुःखदायी महा कामदेव संबंधी विकारे करीने चारित्रनो नाश थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय माटे साधुए परघरमां निवास न करवो.
टीकाः ॥ यथोक्तं ॥ थीवडियं वियाणह इत्थोणं जथ्थ काणरूवाणि॥सहायन सुच्चंती, ताविय तेसिं न पेच्छेहि ॥बनवयस्स अगुत्ती, खजानासो यपीवुढी य ॥साधु तवोवणवासो, निवारणा तिथ्थ परिहाणी
अर्थः-ते शास्त्रमा कयु ने जे साधुने रहेवानुं स्थान स्त्री वर्जित जाणवू जे स्थाने स्त्रीयोनां रूप तथा शब्द न देखाय न संललाय तथा ते स्त्री पण ते साधुने न देखे एवं स्थान साधुने रहेवा योग्य ले केम जे एवी रीते न होय तो ब्रह्मवतनी गुप्ति न रहे तथा लजानो नाश थाय तथा प्रीतिनी वृद्धि थाय, माटे सा. धुने तपोवनमां निवास करवो जेथी तीर्थनी हानिनुं निवारण थाय.
टीका:-तथा लौकिका अप्याहः॥ शृण हृदयरहस्यं य प्रशस्यं मुनीनां, न खलु न खलु योषित्संनिधिः सं विधेयः॥ हरति हि हरिणादी दिप्रमदिकुरप्रप्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नतानां.
अर्थः सौकिकमां पण एम कहे जे जे, मुनिने पण वखा