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-4 अथ श्री संघपट्टा
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सगुण प्रतिसेविनः उत्तर गुणप्रतिसे विनश्च यत्र तदनायतनमिति . 'माया त्रयार्थः॥ - अर्थः-जे जंगाए लिंग धरवाथी सरखा धर्मवाळा घणा. रहेता होय ने तेम जुदा जुदा चित्तवाळा होय ने अनार्यने लिंग तथा वेष ते बेवमे ढांकेला ज्यां ते श्रनायतन क्षेत्र जाणवू ए गाथा सुगम डे माटे एनी टीका टीकाकारे नथी करी तेमां आटटुं विशेष ले जे लिंग तथा वेष तेणे करोनेज ढांकेला ने एटले प्राकृत लोकोए सुविहित मुनिथकी जुदा जाएया नथी एटलो अर्थ. ए प्र. कारे बाहेरथी तथा अंतरथी मूलगुण प्रतिसेवि . तथा उत्तरगुण प्रतिसेवि ने ते जे जगाए रहेता होय ते श्रनायतन कहीए एम ए त्रण गाथानो अर्थ बे..
टीका-श्री हरिजप्रसूरिनि विवरणे प्रतिपादित इति॥ अस्य चायमाशयः ॥ नहि रुधादिगृहव त्स्वरूपेण जिननवन'मनायतनं ॥ किंतू पाधिवशात् ॥ उपाधिश्च तत्र लिंगिनिवासमा
अतमवोक्तं ॥ यत्र निवसंति तदनायतनमिति ॥ तथा च यदि वे जिमजवने निवसंति तदा तनिवासौपाधिकत्वाद् नवति जिन, . अवनस्या नायतनत्वं ॥
अर्थः-जे हरिनप्रसूरिए विवरण कर्यु ले तेमां प्रतिपादन कर्षको जिप्राय ए जे जे शिवमंदिरनी पेठे स्वरूपे करीने निनवन अनायतन नथी त्यारे शुं तो उपाधिना वशथी आना सन ने मां उपाधि शो ले तो लिंगधारीनो निवास रूपमा