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8. अथ श्री संघपट्टकः :टीकाः-चौलुक्यवंशमुक्तामाणिक्यचारुतत्वविचारचातुरी धुरीण विलसदंगरंगनृत्यन्नीत्यंगनारंजितजगजानसमाजश्रीदुलजराजमहाराजसन्नायां ॥
अर्थः-चौबुक्य राजाना वंशमां मोतीमाणिक्य समान शोलायमान ने तत्वविचारनी चतुराई करवामां घणो श्रेष्ट ने जेना सुंदर अंगने विष नीति रूपी स्त्रीविलास करी रही , तेणीए करीने जगतना जनसमूहने प्रसन्न करतो एवो श्री दुर्लनराज नामे मोटो राजा तेनी सन्नाने विषे.
टीकाः-अनपजल्पजलधिसमुबलदतुविकल्पकबोलमालाकवलितवहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्या संविग्नमुनिनिवहाग्रण्या सुविहितवसति पथप्रथनर विणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा॥. ..
. अर्थः-घणा वादरूपी समुज्थी उपलता मोटा विकल्परूपी कबोलोनी श्रेणीये करीने घणा प्रतिवादि पंमित समूहना तर्कनुं जक्षण करता एटले प्रतिवादीने हगवता जे पंमित ते मध्ये श्रेष्टने संवेगी साधु समूहमा अग्रेसर ने सुविहित पुरुषोना परघर निवास मार्गनो विस्तार करवाने अथवा शास्त्रमा कहेलो जे मुनिने थाप्रकारना स्थानकमा रहेवू इत्यादिक जे सिद्धांत मार्ग तेनो विस्तार प्रकाश करवाने सूर्य समान वादि सिंह श्री जिनेश्वरसूरि जे तेमणे.
टीकाः श्रुतयुक्तिनि बहुधा चैत्यवासव्यवस्थापनं प्रति प्रतिक्षिप्तेष्वपि लांपव्यानिनेवेशान्यां तन्निबंध मजहत्सु यथादेषु
अर्थः-लिंगधारीए करेखा चैत्यवासनास्थापनने घणा सि