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________________ __e. अथ श्री संघपट्टका - के मूलकाव्यं रह किल कलिकालव्यालय कत्रांतराखस्थितजुषि गततत्वप्रीतिनीतिप्रचारे ॥ प्रसरदनवबोधप्रस्फुरस्कापथौघ. स्थगितसुगतिसर्गे संप्रति प्राणिवर्गे ॥३॥ प्रोत्सर्पघ्नस्मराशिग्रहसखदशमाश्चर्यसाम्राज्यपुष्य. मिथ्यात्वध्यांतर जगति विरलतां याति जैनेज्मार्गे ॥ संविष्टद्विष्टमूढप्रखलजमजनाम्नायरक्तैर्जिनोक्तिप्रत्यर्थी साधुधेर्विषयिनिरजितः सोयमप्राथि पंथाः ॥४॥ टीकाः-एवं विषे प्राणिवर्गे सति साधुवेषैः सोयं पंथा श्र. प्राथीति संबंधः । श्रप्राचि श्रतानि । यत्रचामाथीति प्रथेरिनंतस्य इचि वेत्यनेन सानुबंधत्वारिकल्पीय-हस्वनिर्मु तपके रुपम्॥ - अर्थः-प्राणीनो समूह, श्रागल कहीशुंए प्रकारनो थये इते, साधु वेष धारी पुरुषोए था मार्ग विस्तार्यो . था ठेकाणे व्याकरण विचार जे प्राधि एवं जे रूप थयुं ते तो इनंत एवो जे प्रथम धातु, तेनुं “चिवा" ए सूत्रे करीने जे पदे विकल्प-हस्वता नथी चती ते पके अप्राथि ए, सिक रूप थाय ॥ टीका:-कोऽसौ पंथा मार्गः स्वमनीषिकाकरिफ्तं मतासोऽयं स इति सकलजनप्रतिको ऽयमिति इदानी प्रत्यकोपलन्यमानः कथमप्राथि ? अनितः समंताद् जूरिदेशेष्वित्यर्थः॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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