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________________ - अथ श्री संघपट्टकः 8 आलए विहारेणं ठाणाचंकमणेषय | सक्का सुविहियानाऊंनासावेण एणय | ( ४११ ) टीका :- लोकेप्याकारें गिता दिजिरेव पार्थिवादी नामांतर प्रसादादिनाव परिच्छेदन विज्ञानुजी विप्रभृतीनां विज्ञप्त्या दि प्रवृत्तिदर्शनात् ॥ एवमनभ्युपगमेच जगद्व्यवहारोच्छेदप्रसंगात् ॥ किंच माजूद तिगूढाशयतया बकवृत्तीनां केषांचिच्छद्मस्थैर्मान साध्यवसायावसायः ॥ अर्थः- लोकने विषे पण बाह्य आकार चेष्टादिके करी - नेज राजा श्रादिकना अंतरनी प्रसन्नता या दिक जे जाव तेने जाणीने चतुर एवा जे सेवक यादिक पुरुषो तेमनी राजाने विज्ञप्ति करवी एटले अरज करवी इत्यादिकनी प्रवृत्ति देखाय बे एटले चतुर सेवक बाह्य श्राकारथी राजानी अंतरनी खुशी वर्तिने कोई कामकाज कहे होय ते कड़े बे इत्यादि व्यवहार प्रत्यक्ष देखाय बे ने जो एम नहि मानो तो जगतना व्यवहारने उच्छेद थवानो प्रसंग श्राव. ए हेतु माटे वळी केटलाक गूढ निप्रायवाळा बे ए हेतु माटे बगलानी पेठे उपरथी सारी प्रवृत्ति देखामता तेमना मननो श्रध्यवसायनो निश्चय बद्मस्थ पुरुषोवते कलनामां कदापि नहि. आवे तो पण बीजाना तो कलनामां आवशे माटे ते दांजिक पुरुपोना जिप्राय जागवानो उपाय देखाने बे. टीकाः तथा च तदनवसायात् क्रियतां तेषामंगारमई का दिवां जिकानामपिवंदनं ॥ येषांत्वाधु निकन्यायेन प्रकटप्रति
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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