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अब श्री. संघपहका
टीका:-प्रवज्याया:सर्व संगत्यागरूपाया दीक्षायाः प्रतिपंथिनं विरोधिनं विरोधश्चात्र वध्यघातकलक्षण स्तथाहि ॥अव्य संग्रहो मूळपरिणामः प्रव्रज्या तहिरतिपरिणाम स्तयोश्चात्र बलवता मूळ परिणामेनतहिरतिपरिणामो बाध्यतति ॥
" अर्थः-सर्व संगनो त्याग करवो ए रुप जेदीक्षा तेनो विरोधी एवो ऽव्यसंग्रह . श्रा जगाये विरोध केवो जाणवो के वध्यघातक ने लक्षण जेनें एवो जावो. हवे ते वध्यघातक लक्षण देखामे जे. जे अव्य संग्रह ते मू नो परिणाम डे ने प्रव्रज्या बे ते तो अव्यसंग्रहथी विरति पामवाना परिणाम रुप ले माटे ते बेमांबळवान एवो मुर्बानो परिणाम तेणे करीने ते अव्यसंग्रहथी विरती परिणाम बाध पामे ॥
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥ अर्थगृहीति मूळ,दीका तहिरतिपरिणतिःप्रोक्ता॥अनयोई रिमृगयो रिव,विरोधश्हं वध्य घातकतेति॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयुं जे जे अव्यनोजे संग्रह करवो ते मर्ग कहीए ने तेथी विरती पामवानी परिणति तेने दिदा कहीए ॥ ने ए मूर्गने दीक्षा ए बेने परस्पर एक बीजाने नाश करवापणुं रह्यं डे ॥ज्यां मूर्ग होय त्यां दोदा न होय, ने ज्यां दीक्षा होय त्यां मूळ न होय ने एक नाश पामवा योग्य थाय ने बीजें तेनो नाश करनार थाय तेने वध्यघातक कहीए, जेम मृगने सिंह ने तेम ॥ माटे दीक्षाने विषे धननो स्वीकार करयो ते संजवे नहि ।