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48. अथ श्री संघपहक
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टीका:-॥ ययुक्तं॥ - अन्नवस्तुसंबंध उपमा परिकल्पक इति तदत्र प्राकरणिकाप्राकरणिकयोदुरध्वदोषदोषसंख्या विवक्षणजलधिजलप्रमित्सयोर्दुरव्वदोषसंख्याविवक्षणसकलगगनोवंधन विधित्स: यो पृथक्पृथग्विषयत्वादन्योन्यासंबच्योरुपमायां पर्यवसानं॥ सागरांनःप्रमित्सेव च सकलगगनोवंधन विधित्सेव वा प्रकृतपुरुषेण उरध्वदोषसंख्या विवदा ॥
अर्थः ते कडं ने जे, उपमानी परिकल्पना करनार वस्तुनो संबंध जेमां होय ते निदर्शनालंकार कहीए, माटे श्रा जगाए वर्णन करवा योग्य ने अवर्णन करवा योग्य एवा जे पुष्ट मार्गना दोष कहेवा ते तथा समुन्ना जलनुं मान करवू ते बेनुं अथवा इष्ट मार्गना दोषनी संख्यान कहेवु तथा सकल आकाश, नवंधन करवानी श्वा ए बेना विषय जूदा जूदा , ते हेतु माटे ए बेने परस्पर संबंध नथी तेथी नपमा अलंकारने विषे एर्नु पर्यवसान डे, केम जे समुफ जलनो प्रमाण करवानी इच्छा जेवी ने अथवा सकल
आकाशने उल्लंघन करवानी इच्छा जेवी तेवी पुरुषने आ चालतो लिंगधारीउनो करेलो दुष्ट प्रवादरूप मार्गना दोषनी संख्या करवानी इच्छा . एटले परमार्थ ए जे ए मार्गना दोषनी संख्या करी शकाय एवी नथी.
टीकाः-ततोऽयमर्थः ॥ ॥ यथा सागरांनोऽतिजूयस्त्वात् प्रमातुमशक्यं सकलगगनोखंयनं वानंत्याद्विधातुमशक्यं तथा दुरवस्य महामिथ्यात्वरूपस्य लोकोत्तरविरुवासमंजसचेष्टित.