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________________ (१०४) - अय भी संघपट्टका जिन दर्शनने सन्मुख थयेला डे तेमनुं विमुख पणुं करवू इत्यादि दोषे करीने जिन शासननी हानि करवाना कारणिक बे माटे वस्तुताए ए लिंगधारी जन मतना उछेदंक डे केमजे जे लिंगधारीउना अपराधे करीने चंडमाना किरण सर नजलुं जिन शासन तेने विषे लोक नपहास करे तथा जिन मार्गथी विपरीतपणुं पामे इत्या. दिक दोष प्रगट थाय ने तेथी सिद्धांतने विषे एवा पुरुषो अनंत संसारिक कह्या ले केमजे अतिशे महा पापी डे ए हेतु माटे. टीकाः-सांप्रतं कुपथवर्तिनां विधिपथं प्रत्येकांतिकीमात्यंतिकी निरुपमां च मनसोपुष्टता मुपलभ्य तमुत्पादं चेतरजनमनः कारण सामग्र्याथसंजावयं स्तहिलक्षणांतकुत्पादकारणसामग्री संतावनाकारणाह॥ अर्थः-हवे कुमार्गमा वर्तनार एवा लिंगधारीनना मननी विधि मार्ग प्रत्ये एकांतपणे अतिशय उपमाये रहित जे उष्टता एटले पुष्टपणुं.तेने देखीने ए प्रकारचं उष्टपणुं बीजा लोकना मनरुपी समस्त कारण ते थकी संन्नवतुं नथी एम धारीने ए प्रकारर्नु मुष्ट मन थq तेनी कारण सामग्री को प्रकारनी विलक्षण संजवे ने एवी संभावना करता सता ग्रंथकार संन्नावना धारवमे ए लिंगभारीउना मननी पुष्टताने कहे डे एटले एकांतपणे अतिसेज विधि मार्गना केवी एवा ए लिंगधारीनना मननी उपमा रहित जे पुष्टता ते शीशी वस्तु नेळी थने निपजी डे एम तर्क करता ग्रंथकार कहे तिनावः॥ .
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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