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________________ (४६) 4 अब श्री संघपट्टकः र्थ:- वात शास्त्रमां कही बे जे जितेंद्र जगवंसनी -- ा आराधन करवाथी निश्चे मोक्ष थाय ने तेज श्राज्ञा विराधवाथी दुःख जेनुं फळ बे एवो संसार थाय बे टीका:- अथवा जिनाज्ञापवादिकी आधाकर्मनोजनादिका क्रिया ॥ साप्यविधिक्रमेण संस्तरणादौ तद्ग्रहणादिना. शुनाय विधिक्रमेण वाऽसंस्तरणादौ तद्द्मणा दिना शुभायेति ॥ किंपुन रित्या दिवाक्यं काक्कायोज्यं ॥ श्रत्रच किमित्याक्षेपे पुनरपि वाक्यदे इतिप्रकरणे ॥ तेनैषाप्रकृता रात्रि जिनमजनादिका क्रियाविमंबनैव प्रवचनात्र चाजनैव लोकोपहासास्पदं ॥ नत्वेषा जिनाज्ञापीत्येवकारार्थः ॥ अर्थः- जे जिन भगवंतनी अपवाद मार्गे जे श्रधाकर्म नोजमादिकनुं करवुं ते रूप आज्ञा ते पण विधि क्रमे करीने निवादा दितां पाळ होय तो अशुभ जली थाय बे, ने जो विधि क्रमे करीने निर्वाहादि नहि यतां ग्रहण करेली होय तो शुभ मणी या तो रात्रिस्नात्रा दिकनुं शुं कहेतुं ए तो अशुन जणी थायज. एम ए वाक्य काकु अर्थवमे जोक. श्रा जगाए 'किं' एटला पदनो आप अर्थ करवो ने 'पुनरपि' ए पदनो वाक्य भेदरूप अर्थ करवो ने 'इति' अव्ययनो श्रा प्रकरणने विषे एटलो अर्थ करवो. तेणे करीने आ कहेवाने आरंभ करेली जे रात्रिए जिन स्नात्र आदिक करवानी क्रिया ते विश्वना मात्रज ते एटले प्रवचननी हलकाश करनारीज के तिरस्कार करावनारी डे ने लोकने उपहास करवानुं
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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