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________________ -48 अथ भी संघपट्टकः त्वादिनातदेव शुजाय ॥ विध्यं विधिन्यां जगवदाज्ञाराधनानाराधनयोरेव मोहसंसारफलत्वात् ॥ ( २३५ ) अर्थः- हवे श्या माटे एम कहो तो एवी श्राशंका धारीनें त्तररूप कड़े ने जे जे हेतु माटे अविधिक्रम ने विधिक्रम थकी एटले सिद्धांतमां न कहेला प्रकारवमे ने सिद्धांतमां कहेला प्रकारवमे ज़िन जगवंतना शासनमां कहेलुं अनुष्टान पण अशुनने श्रर्थे तथा शुमने अर्थे एटले श्रेय जणी तथा श्रेय जणी थाय बे. अनुक्रमे या जगाए शब्दोनी योजना करवी. तेणे करीने या प्रकारे अर्थ थाय बे जे जिनपूजा तथा तप आदि श्रगम प्रसिद्ध जे बे ते जिन भगवंते मोक्ष साधनपणे कयुं बे. माटे वळी ते पण अविधि क्रमे करीने एटले यथाकाळे पवित्र थइने इत्यादि विधि कह्यो बे तेथी विपरीत जे कयुं ते सर्व अशुभ मणी थाय बे ने विधिक्रमे करीए तो एटले ऋण संध्याकाळे पवित्र थश्ने इत्यादि जे विधिक्रम तेणे करीने जे कर्यु ते शुन जणी थाय बे. एटले विधि ने अविधि जे भगवंतनी आज्ञा प्रमाणे आराधना करवी ने भगवंतनी श्राज्ञा विनानी आराधना करवी ते बेनेज मोक्षफळ तथा संसारफळ ए बेनुं पाप ए हेतु माटे. जावार्थ:- जे जगवंतनी श्राज्ञारूप जे जे विधि तेथे करीने जे आराधना करे बे तेने मोक्ष फळ याय डे ने जें जगवंतनी श्राज्ञा रही तरुप जे अविधि तेथे करीने जे श्राराधना करे बे तेने संसार भ्रमणरुप फळ याय बे टीकाः–यदाद ॥ जहचेवन्रमोरकफलाश्राणा श्रारा दियाजिüिदाणं || संसार डुरकफलया, तदचैव विरादिया होई ॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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