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________________ -42 जय श्री संघपट्टकः (६१३.) . माक्सर्पिएयां हि कालस्वानाव्याद्धर्मार्थिनामपि प्रायेण नावा यादृशा वर्त्तमान क्षणेन तादृशाः क्षणांतर इत्यादिक्रमेण प्रतिकां संक्लेशतारतज्याघ्राततयोपजायमाना नपलच्यते ॥ अर्थः---वस्तुताए तो प्रतिशे अनंतो काल जतां नारी जे श्रसंजतिनी पूजा तेनुं कारण ने चैत्यवासीनी उत्पत्तिनुं कारण ने 'शुभ जावनी हानिनुं कारण एवो जे कालभेद तेने ढुंगावसर्पिही कड़ीए, ते जगवंत मोक्ष गये बते थइ. परम सूक्ष्म एवो जे काल तेने समय कहीए. ते समय समय प्रत्ये मुक्ति जनार प्राणी ना पण जाव अथवा तेमना पण शुभ नाव एटले परिणाम तथा अनुभाव कहतां प्रजाव अथवा बुद्धिना निश्चय ते जेने विषे हानि पामे बे तेने हुंमावसर्पिणी काल कहीए. ते कालना स्वनावधीज धर्मार्थी प्राणीनुना पण नाव बहुधा एवा देखाय बे जे जेवा वर्त्तमान क्षणमां देखाय वे तेवाज बीजा क्षणमां नथी देखाता - त्यादि क्रमवमे कण कण प्रत्ये संक्वेशन तारतम्ययोगे सहित थ येला जणाय वे. टीका:---- तथा च प्रकरणकारेणैव प्रकरणांतरे प्रदर्शितं ॥ कालस्स श्रइकिलिङ नणेण श्रइसे सिपुरिसविरहेण ॥ पायम जुग्गतेय, गुरुकम्मत्तेणय जियाल || किर मुणिय जिणमया बिदु, अंगी कयस रिसधम्ममग्गा वि ॥ पायमइसं कि लिहा, धम्म श्री वित्थ दीसंति ॥ अर्थ:----वळी प्रकरणना कर्ता पुरुषेज बीजा प्रकरण मां पण ए· बात देखामी बे जे.
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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