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________________ - अथ श्री संघपट्टक जेम निर्धन पुरुषना मनोरथ सफळ न थाय तेम ॥ ६६ ॥ टीका :- गंरुस्थल गलाननी रशीकरवर्षुकाः ॥ सव्रिताचंशुंमाढ्यास्तेन स्तंबेरमास्ततः ॥ ६७ ॥ (३५) अर्थः- त्यापटी गंगस्थल थकी नीकळतुं जे मदनुं जल तेना बिंदवाने वरसता ने श्राकरा डे शुंडादक जेना एवा हाथी विकुर्व्या ॥ ६७ ॥ टीका:- उदामान: प्रचौ तेऽपि तेजस्विनि तमोपड़े | बहुमंदधामानो दीपाः प्राजातिका इव ॥ ६० ॥ अर्थ:-ते मोटा हाथ पण तेजवंत ने अज्ञान अंधकारने नाश करनार एवा प्रजुने विषे जेम प्रजातकालना दीवा निस्तेज थाय तेम प्रतापरहित थया ॥ ६८ ॥ टीका:-इत्यादि निर्महाजीमैर्कमरैः समरैरिव ॥ शत्रुयति जिने जिष्णौ मेघमासीत्यचिंतयत् ॥ ६ए ॥ अर्थः- पूर्वे का ए यदि संग्रामनी पेठे मोटा जयंकर एवा उपद्रवव जीतवानुं जेने शील बे एवा जिनपार्श्वनाथजी कोन न पामे उसे मेघमाली देव एम विचारतो हवो ॥ ६५ ॥ टीका: - कथमेष मया होज्यो दीप्रोकंप्रः सुमेरुवत् ॥ श्रा ज्ञातं सलिलौधेन प्रक्षिपामि सरस्वति ॥ ७० ॥ अर्थः- जे मेरु पर्वतनी पेठे देदीप्यमान छाने कंपे नहीं एवा या जगवंतने हुं कीये प्रकारे दोन पमाऊं एम विचार करतां अरे एमां शुं डे ? एम अवगणना पूर्वक विचार कर्यो जे पाणी ना प्रवाह
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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