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________________ (३६) 19. अथ श्री संबपट्टकः - वमे एने समुअमां खेंची नांखु ॥ ७० ॥ टीकाः-कर्णपालीललत्तार-प्राशुतारांशुन्नासुरा ॥ महछिस्फूजबर्जखिबृंहिता गजता यथा ॥ १ ॥ अर्थः-एम विचारीने आकाशमां मेघ पंक्ति विस्तारी, तेनुं पांच श्लोक वमे वर्णन करे . जे काननी मर्यादाने विष रह्या ने सुंदर अतिशे उंचा जे तारानां किरण, तेणे करीने देदीप्यमान ज. पाती एटखे मेघ पंक्तिरुप स्त्रीये कान सुधी सुंदर अतिशे तेजस्वी तारा रुपी मोती धारण कयों ने तेनी कांति वमेशोन्ने ले. ते उपर दृष्टांत, जे मोटाने बल पराक्रमने जणावता एवा ने शब्द जेने विषे एवी हाथीनी श्रेणी शोने तेम जणाती हाथीनी श्रेणी पण मोतीना समूह धारण करवाथी शोने ने ॥१॥ टीका:-लिना खनिमणिविनिरञ्जनाचलरिव ॥कुंजगुंजत्कुरंगारि-प्रतिश्रुन्मिश्रितांबरा ॥ २ ॥ अर्थः-वली ते मेघपंक्ति केवी ले ? तो खाणने विषे रहेला मणिनी कांतिवमे मिश्र थएली एवी अंजनाचलनी जूमि होय ने शुं ? एम जणाती. वली कुंजने विषे शब्द करता एवा जेसिंह एटले ज्यारे मेघ गर्जना करे त्यारे सिंह पण पोताना माथा उपर गर्जना थती सांजलीने अहंकारथी तेमना सामी गर्जना करे एवो स्वन्नाव ले माटे, तेमना पमबंदाना शब्दवमे मिश्रित थयु ने श्राकाश ते जे थकी एवी ॥ २ ॥ . टीकाः-अंतःस्थकालियव्याल-मौलिरत्नांशुकीलिता का "लिंदीवानिलोदंवधीचिको हलाकुला ॥ ७३ ।। .
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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