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________________ -48 अथ श्री संघपट्टकः (६७१) टीका: -- ॥ ननुय दितेग स्थितिं सर्वत्र विस्तार यामासुरेतावतापि किमित्यतश्राह ॥ अर्थः- आशंका करे बे जे जो ते लिंगधारी सर्व जगाए पोताना गहनी स्थितिउने विस्तारे बे तेथे करीने शुं ययुंए जमाए तेनो उत्तर कड़े बे. ॥ मूल काव्यम् ॥ संप्रत्य प्रति मे कुसंघव पुषि प्रोज्जूंजिते जस्मक लेना तुच्छबले दूरंत दशमाश्चर्ये च विस्फूर्जति ॥ प्रौढ जग्मुषि मोदराज कटके लोकैस्तदाज्ञापरे रेकीय सदागमस्य कथया पीच्छं कदर्थ्यामदे ॥४०॥ टीकाः - मोहराजकटकेप्रौढिजग्मु पिलोकैर्वयं कदर्थ्यामहइति संबंध ॥ संप्रत्यधुता प्रोज्जूंनिते अभ्युदिते नस्मकम्ले - बाबले || स्मराशितुरुष्कवाधिप सारसैन्ये प्रतिमे तेज स्वितयाऽनन्य साधारणे ॥ अर्थ ः— मोहराजनुं लश्कर मोटी उन्नति पाने उ लोकश्रम कदर्थना करीए बीए एम संबंध बे, आ काळमां जस्मक ग्रहरूप लेह राजा तेनुं मोटुं सैन्य डे, जेना तेजस्वी पणानी बी. जाने उपमा नथी माटे असाधारण के.
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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