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अब श्री संघपह
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(३१)
-- अर्थः-वळी सुखनी श्राशाए जे करतुं तेणे करीने जगवते करेलो जे मार्ग ते सर्व नाश पामे माटे अहो श्रातो मोर्ट थाश्चर्य जे लाननी इछा करनारने मूळ धननो पण नाश थयों. तेम वळी जे पुर्वे तमे प्रतिपादन कर्यु जे रोगी पण सारा थाय त्यादि नावने कहेनार श्लोकनुं बळ लश्ने पोतानी कपोल कल्पित क्रिया सुकुमार ने एटले सुख समाधे थाय एवी . तेने मोकना अंगपणुं प्रतिपादन कर्यु ते पण शोजतुं नथी केमजे ते श्लोकनो अर्थ आगमने विषे या प्रकारनो कह्यो जे जे था जगाए सिद्धांतने विषे पूर्वना महंत मुनीनी क्रियानी अपेक्षाये जे सुकुमार क्रिया कहीले तेने मोक्षy अंगपणुं प्रतिपादन कयु ले तेणे करीने कां तारो मानेलो जे नत्सूत्र क्रियानास तेने मोदनुं अंगपणुं प्रतिपादन नपर प्रमाणे न थयुं.
टीकाः-श्रतो नवदनिमतक्रियाया उपदर्शितन्यायेन तविपर्ययप्रसाधनान्न तत्श्लोकबलेन. नवत्प्रकल्पितश्रुता प्रामाण्यसिद्धिः॥ एवंच लिंगदेशनया श्रुतस्य मूर्ध्नि पदकरणमसांप्रतमपि कृत्वा यदमी प्रत्यक्षगोचराः श्रावकजनाः सुदृढगबग्रहग्रंथयोदृष्टो रुदोषाअपि साक्षाकृतगुरुतरपूर्वोदित कुपथापराधा अपि ॥ अदृष्ट दोषाहि विवेकिनोपि कु पथादपि न निवर्तितुमीशते किं पुनरन्य इत्यपि शब्दार्थः ॥ ..
.... अर्थः-ए हेतु माटे तें मानेली जे क्रिया तेनो प्रथम देखा