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________________ 28 अथ श्री संघपट्टकः - (??) अर्थः तेज देखा बे जे, निर्धार करेली जे संघनी व्यवस्था तेनुं जाप करवानो उपाय ते या प्रकरण ग्रंथ बे, ( ते कारण बे ) ने ते संघनी व्यवस्था जाणवी ते उपेय ( कार्य ) बे. टीका: - या द्वितीयवृत्तवर्त्तिना “ सुधीरित्युच्यसेत्वंमये " स्यनेनाभिधेयस्य तद विनाजावेनच प्रयोजनसबंधयोः स्वयमेव प्रकरणकृता प्रतिवादनात् नानर्थकता प्रकरणस्येति ॥ “ अर्थ:-अथवा बीजा काव्यमां " हुं तने सारी बुद्धिवान एवो जाणीने संघ व्यवस्था प्रत्ये कहुं हुं, " ए प्रकारनुं कहेतुं जे वाक्य तेथे करीने प्रयोजन तथा संबंध ग्रंथकारे पोतेज प्रतिपादन. कयां बे, केमजे निधेयनुं प्रयोजन संबंध विना थवाप नथी. नथी. माटे या प्रकरणनुं अनर्थकपणुं नथी. टीका:- ाथ वृत्तव्याख्या ॥ स्तुमः प्रणुमः अस्मद्य प्रयुज्यमानेपयुत्तमपुरुष प्रयोगप्रतिपादना द्वय मितिकर्तृपदं स्वय मिह योज्यम् ॥ अर्थ:- हवे प्रथम काव्यनी व्याख्या कहे ते जे नमस्कार करीए बीए व्याकरण शास्त्रमां कधुं बे के अस्मत् शब्दनो प्रयोग न करयो होय तो पण क्रियापदमां उत्तम पुरुषना प्रयोगनुं प्रतिपादन करवाथी " वयं " ए प्रकारनुं कर्त्तापद, उपरथी लेवाय माटे वहीं पोतानी मेळे अध्याहार करें। जोगवुं. तेथी अमो नमस्कार करीए बीए ए प्रकारे अर्थ थयो. टीका:- कं देवं दिवे स्तुत्यर्थस्यापि भावात् दीव्यते स्तूयते शक्रादिनि रिति देवः ॥ सचात्र प्रकरणादा विष्टदेवतास्त्वनस्तवा
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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