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________________ (१०) 8. अथ श्री संघपहा - 2 . अर्थः-ने प्रयोजन विना अन्निधेय होय नहीं: माटे अग्निधयना थाकर्षणे करीने प्रयोजन- पण थाकर्षण थयु केमके संतपुरुष प्रयोजन विना पदार्थ कहेवाने अर्थे प्रवर्तता नथी शाथी के तत्वहानिनो प्रसंग थाय माटे. एटले सत्पुरुषपणानी हानिने प्रसंग थाय ए हेतु माटे अथवा सार वस्तु (ज्ञान, दर्शन, चारित्र ) नी हानि न थाय एज ग्रंथ करवानुं प्रयोजन . टीकाः-तच्च विविध मनंतरं परंपरं च ॥ पुन स्तदपि कर्तृश्रोतृन्नेदा विविधं ॥ तत्र कर्तु रनंतरप्रयोजनं विनेयानां संघव्यवस्थाधिगम करणं श्रोतु श्चानंतरं संघव्यवस्था धिगमः परंपरं तु योरपि परमपदप्राप्तिः ॥ अर्थः-ते प्रयोजन के प्रकारनुं ने एक अनंतर ने बीजं परंपर. वळी ते पण कर्त्ता पुरूषने श्रोता पुरूषना नेदथी बे प्रकारनुं ने तेमां कर्ताने अनंतर प्रयोजन तो शिष्योने संघनी व्यवस्थानुं जाणपणुं करावq एज . ने श्रोताने अनंतर प्रयोजन ए ले के सं. घनी व्यवस्था जाणीने ते प्रमाणे प्रवर्तवु, ने वळी कर्ता तथा श्रोता वेने पण एथी मोक्षपदनी प्राप्ति थवी ते रूप परंपर प्रयोजन . टीकाः तथाऽस्य प्रकरणस्ये दमनिधेय मिति झापयता ज्ञापित एवास्योपायो पेयत्नावलक्षणः संबंधः ॥ . अर्थः-वळी या प्रकरणने आ कहवा योग्य . एमजणावता या ग्रंथकारे उपाय नावने उपेयनाव डे लक्षण जेनुं एवो संबंध जणाव्योज . टीकाः-तथाही दं प्रकरणं व्यवस्थितसंघव्यवस्थाधिगमो- पाय: उपेयं च तदधिगम इति ॥ .
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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