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________________ -48 अथ श्री संघपट्टकः ( ११५ ) थली रुढी, तेणीए पापमां प्रवर्त्तेला ने सर्व प्रकारे क्रिया अनुष्टानथी रहित एवा ने प्रगटपणे कपटने रहेवानुं स्थळरूप अने प्रत्यक्ष पापरूप एवा ते लिंगधारीनने विषे जेम लींबाने विषे कल्पवृक्क शब्दनी प्रवृत्तिबे तेवी रीते पण यति शब्दनी प्रवृत्ति कोइ प्रकार पण प्रवर्त्तवानुं कारण न बते केम प्रवृर्त्ति शके एटले लिंगधारी मुनि एवो शब्द पण केमज कही शकाय ? टीका: ---|| यक्तं ॥ इयसी लंगजुया खलु, दुरकंतकरा जिहिं पन्नता || जाव पहा या जइयो, न उ ने दव लिंगधरा ॥ अर्थः- ते वात शास्त्रमां कही बेजे, अढार हजार शीलांगरथ तेथे संयुक्त एकाने निचे दुःखनो अंत करनार एवा जाव, प्रधान एटले जाव जेने प्रधान बे एवा यति जिनराजे कला बेपा बीजा द्रव्यथ लिंग धरनार एवाने यति नथी का. टीकाः - तस्मान्न निंबादिषु तरुशब्दप्रवृचिष्टांतावष्टजेन लिंगिषु यतिशब्द प्रवृत्तिरुपपद्यते ॥ यश्च यथा जात्यम पिगुरावैगुएये पिकाचे मणिशब्दप्रयोग इति द्वितीयदृष्टांतोपन्यासस्तत्र संप्रतिपत्तिरुत्तरम् ॥ ----- अर्थः- ए हेतु माटे लिंबमादिकने विषे वृक्ष शब्दनी प्रवृ तिनुं जे दृष्टांत तेनुं अवलंबन कर तेथे करीने लिंगधारीचने विषे
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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