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________________ -4 अथ श्री संघपट्ट्कः (२५७) निंदित नहि होय. एतो अतिशय निंदा थवानोज प्रसंग डे केमजे लौकिक शास्त्र पण एम कहे बे जे पुत्र, पशु, बांधव तेमना सहित जो नरकमां जवानी इच्छा होय तो देवने विषे तथा ब्राह्मणने विषे अधिकार करने वळी जो तारी नरकमां जवानी मति होय तो एक वरस सुधी पुरोहितपणुं कर ने वळी ते करतां ए सर्वे नरकमां जवानां साधननुं शुं प्रयोजन वे एक ऋण दिनसुधी मठपतिपणुं कर. जेणे करीने कुटुंब सहित नरकनी प्राप्ति शीघ्र थाय इत्यादि महा निंदित अन्य दर्शनमां पण बे. टीका:-- इदानीं निगमयति ॥ इतियस्मादर्थे यस्मात् एव मित्युक्तक्रमेण व्रतवैरिशी चारित्रप्रतिपंथिनी इतिहेत्वार्थो जिनक्रमः सचाग्रे योदयति ॥ ममतां श्रर्थादिषु स्वीकारबुद्धिः इति तस्मातो र्नयुक्ता नोपपन्ना मुक्त्यर्थिनां निर्वाणानिलाषिणां मुनीनामिति वृत्तार्थः ॥ अर्थः- हवे ए वातनी समाप्ति करता सता कहे बे ॥ जे इति शब्दनो एवो अर्य करवो, एटले जे हेतु माटे पूर्वे को एक्रम थकी चारित्रनी वैरी एटले नाश करनारी ममता ने एटले द्रव्यादिकनो अंगिकार करवानी बुद्धि ए प्रकारनी ठे. ए हेतु माटे मुक्तिना वांचक मुनिने ए ममता करवी युक्त नथी, एम ए काव्यनो अर्थ बे. मसंयमादिदोषप्रदर्शनेनाप्रेक्षिताद्यासन टीका: - सांप्रत द्वारं निराकर्तुमाह ॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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