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________________ अथ श्री संचयकर (for) निमतः । तथाहि ॥ गुणगुणीनोः कथं चित्तादात्म्येवेन ज्ञानादि गुणसमुदायरूपः शुद्धपथप्रथनबद्धादरोऽनुवंघितनगवच्चासनः वादिः सिद्धांते संघ इत्य निधीयते ॥ ध्यर्थः केम जे सरखं नाम सांजळवाथी जे संघ नभी अने संघ नाम धरावे ते प्रकरणमां तने साचा संघनी जांति थह बे तिथी एम आशंका करुं सुं, ते संघ निश्वे जूदो बे के जेने भगवान् नमस्कार करे छे, छाने या तो हमणांनो जे संघ बे ते तो तमोए मानी लीधो छे. तेज कड़े बे जे, कोइ प्रकारे गुण तथा गुणी ए बेसुं एकप कहे तेथे करीने ज्ञानादि गुणनो समुदायरूप अने शुद्ध मानवी विस्तार करवामां जेसे आदर बांध्यो बे ने जगवाम्मी आज्ञा जेरो उलंबन करो नथी एवो जे साधु प्रमुख तेने सिद्धां मां संघ को बे. टीका: पदाद || सोविनापदंसण चरणगुण विजुलियाण समषाणं ॥ समुदार्ज होइ संधो, गुणसंघात तिकानुषं ॥ अर्थः-ते कही देखा बे जे ज्ञान दर्शन चारित्र गुणव सोजतो साधुनो सर्वे समुदाय तेने संघ कहीए. ते कीये प्रकारे ? तो सुखसंघ ए प्रकारे करोने एटले जे संघना गुण शास्त्रमां का बे, वे गुण सहित तेने संघ कही९, पण एकला नाम मात्रे नथी कक्षेता.
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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