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________________ (२२४) ६ जय श्री संघपट्टकः सेवा निवासनी प्राप्ति न थाय. त्यारे शास्त्रमां कहेली यतना करीने मां निवास करवो पण ते विनानुं बीजुं समाधान न हतु तेमज या कामां पण तेज प्रकारनो श्राश्रय करो केम जे ए न्याय तो ते काले ने काले सरखो ढे ए प्रकारे शास्त्रमां कही एवी यतनाने करता एवा मुनीयोने स्त्रीयादिकना संबंध सहित एवा पण निवासमां रतां तेमने ब्रह्मचर्यनी गुप्तियादि दोष नही थाय ए प्रकारे लिंगधारीए जे परघरमां निवास करनार ने दोष देखा मया दता तेनुं खंगन कर्यु. टीका: - यद्यपि तात्पर्यवृत्या चैत्यवासप्रसाधनार्थे एकामूलगुणेसु मित्यवष्टजेन स्त्री संसक्ताधाकर्मिक वसत्यो: संजवे श्राधाक म्मिकमेव वसतिग्रहणमुपपादितं तदप्यनवगत जिनमत तत्वस्य तो वचः ॥ नत्र सामान्यस्त्री संसक्तवसत्यपक्षयाऽधाकर्मिक वसत्युपादानमुदितं किंतु तरुणयो षित् संसक्ति महसत्यपेक्षये खि बोद्धव्यं ॥ अर्थ:- जे चैत्यवासनी सिद्धि करवानी तात्पर्य वृत्तिए करीने एटले तमारे जे ते प्रकारे चैत्यवास सिद्ध करवो एवा अभिप्रायथी एका मूलगुणे ॥ ए गाधानुं श्रालंबन करीने एक तो स्त्रीना संबंध सहित निवास बे ने बीजा श्राधाकर्मिक निवास बे तेमां धाकर्मिक निवासनुं ग्रहण करवुं एवं जे तमे प्रतिपादन कर्यु ते तमारुं जिन मतना तत्वनुं अजाणपणुं बे. तेथी एवं वचन कहो वो ॥ केम जे ए जगाए सामान्य स्त्रीना संबंध सहित निवासनी अपेक्षाए कार्मिक निवासतुं प्रहण करवानुं कां कथं नयी ए तो जवान
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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