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________________ (८८) • अथ श्री संघपटकः - मुनि चैत्यवास करे जे तेनी प्रवृत्तिनुं देखवापणुं ने माटे. जो ए चैत्यवास गीतार्थाने संमत न होत तो केम एक वाक्यपणे सर्व जगाये निरंतर तेमनो पसार प्रवर्ते ले ? एटले जो चैत्यवाप्त नज करवानो होत तो सर्वे गीतार्थोनुं वचन तथा प्रवर्तवू ते एक साथे मलतुं केम आवत ? टीकाः न च विशेषदोषोपलंनमंतरेण गीतार्थाचरितमप्रमाणीकर्तुं युक्तं ॥ नापि विरुधः साध्यविपर्ययाव्याप्तत्वात् ॥ नहि गीतार्थाचरितत्वं यत्य विधेयत्वेन व्याप्तं ॥ तथासति पर्युषणाया अपि चतुर्थ्यामकरणप्रसंगात् ॥ नाप्यनैकांतिकः वि. पदेऽगतत्वात् ॥ नहि गीतार्थाचरितत्वं यत्यविधयेप्यनुष्ठाने गतं ॥ प्राणातिपातादीनामपि गीतार्थाचरितत्वेन हि तत् स्यात् ॥ न चैवम स्ति - अर्थः-माटे विशेष दोषनी प्राप्ति विना गीतार्थ पुरुषतुं श्राचरण अप्रमाण करवू ते युक्त नथी. ते उपर न्याय शास्त्रनो विचार जे, चैत्यवास साधुने करवा योग्य ले. गीतार्थ पुरुष आचरण कर्यो ए हेतु माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगने विषे जे हेतु दे ते वि. रुद्ध नथी एटले खोटो नयी केम जे साधुने न करवा योग्य जे वस्तु तेमां गीतार्थना श्राचरण रूप जे हेतु ते होय नहीं माटे जे गीतार्थन श्राचरण ते साधुने करवा योग्य , ने जो एम न मानता हो तो चोथने विषे पर्युषणा पर्व करो गे तेने न करवानो प्रसंग प्राप्त थशे. वली अनुमान प्रयोगने विषे जे हेतु ले ते एकांतिक पण नथी एटले खाटो नथी केम जे यतिने न करवा योग्य जे अनुष्ठान मात्र ते रूप जे विपक्ष तेने विष गीतार्थाचरणरूप जे हेतु ते ठे
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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