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________________ - अथ श्री संघपट्टकः -- wwwwwwwwwwwwwwwwwww __ अर्थः-श्रने सिद्धांतनी कसोटी समान, श्रने रख्या अनेक आगमना उझारथी श्रेष्ट शास्त्र जेणे एवाश्री हरिन सूरी तेमनी प्रवृत्ति संजयाय ने जे हरिजप्रसूरिए चैत्यवास कयों हतो केम जे पोताना रचेला ग्रंथोने विषे चैत्यवासनुं प्रतिपादन कर तेणे करीने चैत्यवासनी प्रवृत्ति ते तेमणेजे सत्य थापी जे ए हेतु माटे चैत्यवास करवो वली था तेमना ग्रंथनु वचन , जे जिनबि. बनी प्रतिष्टाने अर्थे अथवा जिन कर्मतुल्य, तथा जिनबिंबनी प्र. तिष्टा डे त्यां साधु निवास डे इत्यादि___टीकाः देयं तु न साधुन्यस्तिष्ठति यथा च ते तथा कार्य। श्रदयनीव्या ह्येवं, शेयमिदं वंशतरकांममिति अर्थः-चैत्य साधुने श्रापी न दे, जेवी रीते ते साधु रहे तेम करवू अक्षय नीवीये करीने एटले मूल धननो नाश न थवा देवो, ए प्रकारे जे करवू ते वंशतरकांम जाणवू एटले वंश परंपराए चादयुं जाय. टीकाः-तथा समरादित्यकथायामपि जिनलवनांतर्गतप्रति'श्रयस्थितायाः साध्व्याः केवलोत्पादप्रतिपादनात् ॥ तथाधु-: निकमुनीनां बहूनां चैत्यवासप्रवृत्तिदर्शनात् ॥ यदि पयं. गीतार्थानां नानुमत: स्यात्तदा कथमकवाक्यतया सर्वत्रा तिहतप्रसरः प्रवर्त्तते अर्थ:-वली समरादित्यनी कथामां पण जिनजवनना अंतगत जे प्रतिश्रय तेमा रहेली जे साध्वी तेने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं के एम प्रतिपादन कर्यु ले ए.रेतु माटे. वली आधुनिक घणा
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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