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________________ 49 अथ श्री संषपदक (१७) टीकाः-सम्यग् ज्ञान दर्शनचारित्रनुवृत्तिं विनाच जिनगृह बिबसलावेपितीर्थोचित्तिः ॥ श्रतएव जिनांतरेषु केषुचिलत्रयपवित्रमुनि विरहात् कापि जिनबिंबसंनवेपि तीर्थोच्छेदः प्रत्यपादि ॥ स्वमतिकल्पिता चेयं प्रकृतातीर्थाव्यवच्छि. तिरागमविसंवादित्वाखैयेव ॥ अर्थः-ते माटे एम सिद्धांत थयो जे सारी ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी अनुवृत्ति एटले परंपरा ते विना जिनगृह बिंब होय तो पण तीर्थनो उच्छेद थाय माटेज केटलाक जिननां श्रांतरां तेने विषे रत्नत्रयवते पवित्र एवा मुनिनो विरहथी को जगाए पण जिन विंबनो संनव ले तोपण तीर्थनो नच्छेद शास्त्रमा पतिपादन कर्यो , माटे आ चैत्यवास ते तीर्थनो न नच्छेद ते तो पोतानी मति कस्पेलो ने शास्त्र विरुद्ध २ माटे त्याग करवा योग्य . टीकाः-यदाह ॥ नय समइवियप्पेणं, जहातहा कयमिणं फलंदेश॥ अवि श्रागमाणुबाया रोगतिगिच्छाविहाणं व ॥ किंच नवतु जिनगृहाद्यनुवृत्ति स्तीर्थाव्यवित्तिस्तथापिन यति चैत्यवासजिनगृहाधनुवृत्त्योः श्यामत्वचैत्रतनयत्वयो वि प्रयोज्यप्रयोजकनावः ॥ नहि यतिचैत्यांतवासप्रयुक्ता तदनुवृत्तिः॥ तदंतर्वसनिरपि यतिलि रतिसातशीलतया तब्बीर्णजीर्णोकारादिचिंतामकुर्वाणै स्तदनुवृत्तेरनुपपत्ते स्तस्मात्तचिंताप्रयुक्ता तदनुवृत्तिस्तांच श्राद्धैरेव कुर्वनिस्तदनुवृत्तिः कथं न स्यात् ॥ अर्थ:-जिनघर श्रादिकनी अनुवृत्ति करवी एज तीर्थनो उ
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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