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________________ १(१९४) 4. अथ श्री संघपट्टकः अर्थः-देषीने देखीने पण प्रसन्न अने प्रफुल्लित ने नेत्र ते जेमनां एवा सुविहित मुनि ने ए विशेषण बारणेथी कोप विका• रनो परिहार प्रगट करे .अंतरमां कोप विकार होय तो बहारथी निरंतर प्रशांतपणुं न रहे ए नाव जे. प्राणातिपात विरमणादि पंच महाव्रत रुप उकुराश्ने पामेला सुविहित मुनि डे ए विशेषण दीक्षा जेनुं मूल डे एवी सर्व विरतिरुप संपदाने देखामे बे. टीका:-स्मयमुषः अहंकारतिरस्कारिणः॥ एतेन वाग्मित्वविछत्वादावलिमानहेतौ सत्यपि तदन्नावं प्रकटयति ॥ (सत्सू. त्रक्रियानिः) कंदर्पकरप्लुषः मन्मथशुष्कतृणदादिनः ॥ एतेन सर्वव्रतमध्ये निरपवादब्रह्मवतदाढ्यं दृढयति ॥ अर्थः-अहंकार ने तिरस्कार करनारा ए विशेषण अजिमा. नना कारण रुप जे सुंदरवाणीपणुं तथा विधानपणुं ते सते पण अहंकार नथी एम प्रगट करे . सत्सूत्रनी क्रियानवमे कामरुपी सूका तृणने बाळनारा ए विशेषण सर्व व्रत मध्ये अपवाद रहित एवु ब्रह्मवत ले तेनुं दृढपणुं सुचवे . टीकाः-सिद्धांताध्वनि शुद्धागममार्गे तस्थुषः स्थितवत स्तत्परा नित्यर्थः ॥ एतेन स्वयमुत्सूत्रक्रिया निषेधं प्रतिपा:: दयति ॥ समयुष: समाजाजः ॥ एतेनांतरेपि क्रोध निरा. . सं ज्ञापयति ॥ अर्थः----सिधांत मार्गने विषे रहेला एटले. तत्पर एटलो
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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