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________________ - अथ श्री संघपट्टकः - ( ५५३ ) मोक्षपथस्य व्यानां शुद्धोपदेशप्रतिबोधद्वारेण विस्ता रकान् ॥ एतेन तेषामुत्सूत्रनाषणप्रतिषेधमाह ॥ अर्थः- नगवंते कहेलो ज्ञान दर्शन चारित्ररुप जे मोक्ष मार्ग तेनो भव्य प्राणीनने शुद्ध उपदेशनो प्रतिबोध थाय ए द्वारे विस्तार करनारा . एणे करीने ते मुनियोने उत्सूत्र जाषण करवानो निषेध वे एटले मुनि नत्सूत्र जावण नथी करता एम ए विशेषणव जाव्यं ते कहे . टीका:--- प्रशांतवपुषः बहिरलक्षितरागादिविकारशा रिराजः एतेनांतरम पिप्रबल रागाद्यनावं प्रकाशयति ॥ अंतस्तवे बहिः सर्वदा प्रशांतत्वानुपपत्तेः ॥ अर्थः-जे बायोथी नथी जाता रागादि विकार ते जेमां एवा शरीरने अंगीकार करता एटले जेनुं अंग जोतां रागादि विकार कोइ प्रकारे जगाता नथी. ए विशेषणे करोने अंतर संबंधी पण प्रबल रागादिकनो जाव के एम प्रकाश थाय बे. जो अंतरमां रागादिक होय तो निरंतर बारणेथी प्रशांतपणुं न रहे ए हेतु माटे. टीका:- प्रीतोल्लसच्चक्षुषः द्विषानपि प्रतीत्य प्रसन्नोत्फुल्ललोचनान् । एतेन बहिः कोप विकारपरिहारमा विः करोति ॥ श्रामण्यद्धि प्राणातिपात विरमणादिपंचमात्रत विभूतिमुपेयुष श्रासेदुषः । एतेन दीक्षामूलं सर्वविरतिसंपदं दर्शयति ॥ ७०
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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