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________________ Mana (२०६ ) - अथ श्री संघपट्टकः - ण निग्गयाई तिख्खुत्तो मग्गिऊण असईयागीयत्याजयणाए व संति तो दव्वपमिबके ॥ रूवं बाजरणविहि वहालंकारनोयणे गंधे ॥ श्रानजनद्दनामयगीये सयणे य दव्वंमि ॥ अजाण निग्गयाई तिख्खुत्तो माग्गिएण असईए॥ गीयत्था जयगाए वसंति तोनावपमिबजे। जह कारणपुरिसेसु तह कारण इत्थियासुवि वसंती । थकाण वाससावय तेणेसुय कारणे वसइ ॥ टीकाः-ततोऽपोद्यकिंकृतमित्याह ॥ न्ययमि संयतानां निनिवास इति संबंधः। संयतानां निवासोऽवस्थानन्ययमि ॥ सं. यतवासस्य सामान्येन सर्वत्र प्रसृतस्य पाक्षिक्यांचैत्येपि प्राप्तावेक विषयतया व्यवस्थापने नियमः ॥ नियमः पाक्षिके सतीति वचनात् ॥ तेनैकविषयतया व्यवस्थापित इत्यर्थः विषयैक्यमेव दर्शयति ॥ अगारिधानिगृहस्थागारे ॥ अर्थः त्यारं पड़ी अपवाद कहीन शुं कर्यु तो त्यां कहे के साधुना निवासनो नियम को एटले सुविहित मुनिने रवाना स्थाननो नियम कयों केम जे सामान्यपणे सर्व स्थान कह्यां तेमां सर्व जगाए मुनिने रहेवामी प्राप्ति थ त्यारे एक पहें चैत्यमां पण रदेवानी प्राप्ति थइ ने नियम तो कोने कहेवाय ? जे घणी जगाउँमांथी एक जगाए रहेंवानुं स्थापन कर तेनुं नाम नियम कहीए ते नियम तो चैत्यवासादिक जोमे पक्ष होय त्यारे थाय प्रका
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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