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________________ ( २९६) 49 अथ श्री संघपट्टकः - बहुगुणविहवेण जन एए लब्नंति ता कहमिमेसुं॥ एयदरिदाणं तह, सुमिणेवि पयट्टई चिंता॥ टीकाः-जातायामपि कथंचित्किंचिन्नव्यत्वपरिपाकात्मा {तायामाप सद्धर्मबुझौ पुर्खनोदुरासदः शुज गुरुर्यथार्थसिद्धांत प्ररुपणनिपुणोलोकप्रवाहबहिर्भूतेचतोवृत्तिःप्रतिवादिमददो ददमः कालाद्यपेक्षानुष्टानपटिष्टःसूरिः ॥ अयमर्थः ॥ सद्धर्म मनोरथजावेपि समुपदेश गुरुविना नासावासाद्यते ॥ अर्थः-कोर प्रकारे कांक जव्यपणानी परिपाक अवस्थाने विषे सद्धर्म बुद्धि थये सते पण शुनगुरु मलवो उर्लन . तोजथार्थ सिद्धांतनी प्ररुपणा करवामां कुशळ बे ने जेना चित्तनी वृत्ति लोकप्रवाह थकी रहित डे, ने जे गुरु प्रतिवादिना मदने नास करवामां समर्थ डे ने वळी काळादिकनी अपेक्षाए अनुष्टान क्रिया करवामां अतिसे माह्यो डे एवौ गुरु एटले आयार्य ते मळवो उर्लन . श्रा अर्थ प्रगट जे जे सधर्म करवानो मनोरथ थये उते पण सारो उपदेष्टा गुरु मख्या विना सद्धर्म पमातो नथी. टीकाः-यदुक्तं ॥ धम्मायरियेण विणा, अलहंता,सिकिसाहणोवायं ॥ अरएव तुंबलग्गा नमंति संसारचक्रमि।सच प्रायेण सांप्रतमुत्सत्रन्नाषकाचार्यप्राचुर्येण तथाविधोनाल्पजाग्यलय। अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही जे जे धर्माचार्य मळ्या विना सिद्धि पासवानां साधननो उपाय न पामता जीव संसार चक्रमां
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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