SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - अथ श्री संघपट्टक (२९५) नावरणादिसंभारना ।। संप्रतिदि गुरुकर्मस्वा ज्जीवानां न प्रायेण प्रतिश्रोतसि प्रवृनिरुपलभ्यते॥ ॥ यमुक्तं ॥ अयोग्यनावातू गुरुकर्मयोगालोकप्रवाहस्पृहया उरापा ॥ प्रायोजनानामधुना प्रवृतिः प्रथि प्रतिश्रोतसि जैनचं ॥ अर्थः-कोने ए सद्धर्मनी प्राप्ति दुःख पामवा योग्य ने तो ज्ञानावरणादि जारे कर्मना समूहवाळा पुरुषोने ते वात घटे . केम जे या काळमां जारे कर्मी जीव ने ए हेतु माटे बहुधा प्रतिश्रोत मार्गमां तेमनी प्रवृत्ति देखाती नथी. जे माटे शास्त्रमा कडं जे जे श्री जिनेश्वर अगवंतना कहेला प्रतिश्रोत मार्गने विषे श्राकाळमां बहुधा लोकनी प्रवृत्ति थती नथी एटले उखे थाय . शाथी के अजोग्य नावथी तथा नारे कर्मनो योग ने तेथी तथा लोक प्रवाह नी स्पृहा जे. एटले लोक प्रवाह जे मार्गे चाले ले ते मार्गे श्वा राखे ३. ए हेतु माटे सहर्मनी प्राप्ति पुर्खन बे. . टीकाः-श्रागमेप्युक्तं ॥ बहुजणपवित्तिमित्तं, श्छतेहिं इहयोश्चेव ॥ धम्मो न उजियवोजेण तहिं बहुजणपवित्ती॥ तो प्राणाणुगयं जं,तंचैव बुहेण से वियवंतु॥ किमिदं बहुणाजदेणंहंदिन सेयस्थिणो बहुया ॥रयण स्थिणोतिथोवा तदायारोधि जहन लोग मि॥श्यसुधम्म रयणस्थिवाय गादढयरंनेया॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy