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________________ - अथ श्री संघपट्टकः अर्थः-त्यार पढ़ी जगवानना मस्तक उपर खालसरदित अंतरावरहित पाणीनी धारान पामी ते जाणे दुःसह बाणवृष्टि मी होय नहि शुं एम जाती ॥ ७६ ॥ (,३८.) टीका:- जिनदेहं ततः स्पृष्टाव ते लुवं तिस्म भूतले ॥ अंतः समुच्चरध्यानमरुता विधुता इव ॥ ७७ ॥ अर्थ:-त्यार पनी ते जलधारा पार्श्वनाथजीना देहना स्पर्श करीने भूतलमां लोटी पकी एटले पृथ्वीमां पसरी, ते जाणे अंतरने विषे रुके प्रकारे चालतु जे ध्यान ते रूपी वायुवमे तिरस्कार पामी होय ने शुं ? एम देवल (नीचे) पमी ॥ 99 ॥ टीका:- नीरन्धं नीरधाराभिः पातुका जिः समंततः ॥ एकावे इवाभूतां युगांतश्व रोदसी ॥ ७८ ॥ अर्थ:- त्यारपटी घामपणे निरंतर चारे पास पकती पाणीनी धाराए जेम युगांत कालमां आकाश पृथ्वी एक समुद्रमय थाय तेम सर्व जलमय थयुं ॥ ७८ ॥ टीका:- सोऽजितो जिनमप्पूरोऽज्रियः क्षीरोदसोदरः ॥ बजार तनुजा भिन्नः कालोदजल धिश्रियम् ॥ ७९ ॥ अर्थ :- जिननी चारे पास मेघमांथी पकतो ने कीर समुद्र जेवो ते पाणीनो समूह पार्श्वनाथजीनी काली कांतिवने मि श्र थयो माटे तेथे कालोद नामे समुद्रनी शोना धारण करी ॥१९॥ टीका:- समालकालजीमूत निष्टयूंतः पयसां रयः ॥ स वरीवृध्ध्यते स्मोध्वं भारं जारं जुवं तथा ॥ ७० ॥ यथा जगवतः कंठमारुरोह निरंकुशः। संपद्यते ऽपकाराय नीचगामी सुपेक्षितः 10 १ |
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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