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________________ जय श्री संचपट्टक (६०७) रखिलै रपुश्योच्चयैः पापराशिनि सर्वव्यालकुलैर शेषाशी विष संबोधैः समस्त विधुराधिव्याधिदुष्टग्रहैः कृत्स्न व्यसनचेतः पी कागद मंगला दिपापग्रहैरे निरखिलैर्दुष्ठैरेक सामग्री जावेन संजू क्रूरं सन्मार्गधातुकं मानसं चेतः प्रकारि निर्ममे ॥ अर्थः---समस्त कालकूट केरना समूहवमेज केवळ एवंमधारीजना मननी क्रूरता करवाने श्रसमर्थपणुं ने ए हेतु माटे पापना समूहवमे निपजान्युं बे. वळी एटलाजवने अतिशय क्रूर म थबुं त्यारे समस्त सर्पना समूहवमे निपजाव्युं ए प्रकारे आ आगळ वाक्य जे जे कहीए बीए तेनो अवकाश जाधव वे माठे समस्त पापना समूहवमे निपजाव्युं वे तथा समस्त महा केरी सर्पना समूहवमे निपजाव्युं बे तथा समस्त कष्ट तथा समस्त मं बनी पीका तथा समस्त रोग तथा पापग्रह ए सर्व श्रति कुष्ट - समी एकटी करीने ए लिंगधारीउनुं सारा मार्गने रचनाएं जब विपजाच्युं डे. टीका:- क्रूररूपस्य मनसो निर्माणं विधेयमत्र पत्तेनास्य मनस श्वरमनोभिः साजात्यमपिनिरस्तमित्येतदपि संवा मि । इतरमनो विलक्षणसामग्री जन्यत्वेन वैजात्योपयचेः अ नदि मृत्पिंमदमादितंतुवेसादि विसदृशसामग्री जन्ययोर्घट पष्टषोः साजास्यं नाम ॥ तथाच तन्मनसः कदाचिदनि शुभ तापतिः नहि जूनिंबस्य शर्कराजावः शिल्पिक्षसेनाप्याव येते ॥ तत्कस्यदेतो: स्वस्वसामम्या विजातीय सव बोपचे रिति ॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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