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________________ - अथ श्री संघपट्टकः - (४०९) AAAAAAAAM सृतास्वपि क्वचिच्चुनःपुचसंयमितरजोहरणवंदनं श्रूयते प्रत्युत दोजणनिमित्तागतमुनिवेषगीर्वाणादिदर्शने तदवंदनमेवोपखन्यत इति ॥ अर्थः-वळी जे लोक प्रवाद परंपराए करीने श्रेणीकादिक राजाए रजोहरण देखी वंदन कर्यु जे एम जे तुं कहुं बु ते पण शास्त्र विरुफ निर्मूळ ए लोक वातोनी परंपरा ते का प्रमाण नथी माटे ए तारूं कहेवू जूटुंडे शास्त्रमा अनेक प्रकारे श्रेणिक राजानी कथा विस्तारवंत तो पण कोइ जगाए कूतराना पूढनी पेठे काट्यु जे रजोहरण तेनुं वंदन संनळातुं नथी उलटुं एमज देखाय डे जे देवतादिकःमुनि वेष धरीने दोन पमामवा निमिते श्राव्या तेमनुं वंदन न कयु ए प्रकारे श्रागमने विषे प्रसिद्ध देखाय बे. टीकाः-यदप्यन्युपगमवादेन किंच नवत्वित्यादिना सांप्रतं सगुण निर्गुण विन्नागानवगमेन लिंगमात्रप्रणामप्रतिपादनं सदप्यविदितजिनागमस्य तेवचः ॥ यतोशेषविशेषविषय- तया जिनादिव बद्मस्थै रिदानी मा नाम निश्चाथि देहिनां मान साध्यवसाय स्तथाप्याकारेंगितबाह्य क्रियादिजिरंतरंगः प्राणि परिणामःसामान्यतया तैरपि निश्चेतुं शक्यत एव॥तथैवदर्शनात्॥ अर्थः-वळी जो पण लौकिकवादनो अंगिकार करीने एम कदाचित् वंदन होय, परंतु वर्तमानकाळमां सगुण निर्गुण विजाग जाएया विना केवळ लिंगमात्र देखीने प्रणाम करवो ए जे प्रतिपादन कयु तेतो जिन परमात्माना आगमने न जाणतो एवो जे પર
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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