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4- अब श्री संघपटक
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॥ मूल काव्यम्॥
निर्वाहार्थिनमुजितं गुणलवैरझातशीलान्वयं,ताहग्वंशजतद्गुणेन गुरुणा स्वार्थाय मुंगीकृतम् ॥यनिख्यातगुणान्वयाअपि जना लग्नोग्रगच्छग्रहा,देवेन्यो धिकमर्चयंति महतो मोदस्य तनिनतम् ॥ १३ ॥
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टीका:-निर्वाहार्थिनं केवलं उदरजरणप्रयोजनंनप संसारनिस्तारकांक्षिणं, नजितं हीनं गुणलवैः क्षमादिलेशैरपि ॥ प्रवज्यायोग्यो हिपुरुषः कमादि गुणवान् भवति ॥ यमुक्त पक्काए जोग्गा,यारियदेसंमिजे समुप्पन्नाजाश्कुलेहिविसिला : तहखीणप्पायकम्ममला॥ एवंपयशएच्चियअवगयसंसारनिम्गुण, सहावा ॥ तत्तो तविरत्तापयणुकसायप्पहासाय.
अर्थः-जे आ प्रकारनो शिश्य केवल नदर लरवानुज जेने प्रयोजन के एवो पण संसरनो निस्तार करवानी जने इबा नथी.एवोने वळी क्षमादि गुणनो लेश करीने पण रहित एवोने प्रवज्या योग्य जे पुरुष ते तो कमादि गुणवाळो जोश्ए, जे माटे शास्त्रमा कोले जे.जे आर्य देशमां नत्पन्न थयो होय ने जाति तथा कुल ए बेसारां होय तशाजेनो कर्ममल बहुधानाश पामेलो होय ने जेणे संसारनो गुण रहित खजाव जाएयो बे ने जेना कषाय भोग थएसा एवा गुणवालों पुरुष दीक्षाने योग्य . .