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अथ श्री संघपटक
टीका:-॥यमुक्तं उत्पद्यते हिसावस्था देशकालामयान् प्रति ॥ यस्य मेऽकार्य कार्य स्यात्कार्य कर्म च वर्जयेदिति॥॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं वे जे देश कालने रोगादि प्रत्ये मारी ते अवस्था उत्पन्न थाय ने जेसां न करवानुं करवा योग्य थाय ने ने करवा योग्यनो त्याग थाय रे ॥७॥
टीकाः-तथा श्रुतस्य सिद्धांतस्य पंथा मार्गस्तत्रावज्ञाऽमादरस्तेह्येवमाहुः नगवत्सिकांतो हि नैकांतेनैव विहितानुष्टाननिष्टः निषिकानुष्टाननिषेधनिष्टोवास्ति॥ विहितानामGि केषांचिदनुष्टानानां कचिनिबेधात् ॥ निषिकानामपि
क्वचिद्विधानात् ॥ अतोनास्थामास्थाय सिद्धांतव्यवस्थया - केवलया किमपि कर्तुं परिहर्तुं वा पार्यते ॥
अर्थः-वळी सिद्धांतनो जे मार्ग तेनो अनादर ते लिंगधारी एम कहे जे जे जगवाननो जे सिद्धांत ने ते अनेकांत ले ते एकांतपणे करवा योग्य जे अनुष्टानक्रिया तेने विषे तत्पर नथी. एटले एकांतपणे आ क्रिया तो करवीज एम सिद्धांत कहेतुं नथी. ने निषिक जे अनुष्टान तेनो निषेध करवामां पण तत्पर नथी. एटले एकांतपणे था क्रिया तो नज करवी एम सिद्धांत कहेतुं नथी केम जे करवा योग्य केटलांक अनुष्टान तेनो परा कोइ जगाए निषेध देखाय डे ए हेतु माटे ने निषेध करेला पण केटलांक अनुष्टान तेनु कोइ जगाए करवापणुं ए हेतु माटे. केवल सिझांतमां कहेढुं ते उपर आस्था राखीने कां पण करवा योग्य तया परिहवा योग्य पार पामोए एम नयो.. .