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(४४८ ) - अय श्री संघपट्टकः
टीका:-"नीया सुरलोएश्त्यादौ देवकुलिक परिग्रहाधुपा. धिवशेना निश्राकृतादे रपि क्वचित्कदाचि दनायतनव्यपदेशादौपाधिकत्वेन तस्य पृथगपरिसंख्यानात् ॥ यहा॥ तत्पूजा
पामेव चैत्यानां संख्या निधानं ॥ अनायतनचत्यस्यत्वपूज्य... त्वेन पृथगपाग नदंतःपाः तस्याप्येवं प्रतिपधेरन्मंदमेधसः॥
अर्थः-नित्यादिचैत्य देवलोकमां ने इत्यादि वचनने विषे देवपूजारानुं ग्रहण करवू ए रूप जे उपाधि ते तो वशथी थनिश्रा. कृतादि चैत्यनो पण क्यारेक को जगाए अनायतन पणाना कहेवाथी उपाधिक संबंधी करीने तेने जुएं गएयुं नथी ए हेतु माटे अथवा तेमां पूजा करवा योग्य एवां जे चैत्य तेनीज संख्या कही ने अनायतन चैत्य तो अपूज्य डे ए हेतु माटे एनो पाठ जुदो न. णेलो ले केमजे जो ते पूजनिक चैत्य नेलू अपूजनिक जे अनाय. तन चैत्य तेनो पाठ नएयो होत तो केटलाक मंद बुहिवाळाने ए सर्व चैत्य पूजनिक मनात ए हेतु माटे नावार्थः पांच प्रकारनां चैत्य पूजनिक ले ने बहुं लिंगधारीए ग्रहण करेधुं अनायतन चैत्य ते अपूजनिक बे.
टोकाः-एक सूत्रनि र्दिष्टानां सहवा प्रवृत्तिः सहवानिवृतिरिति वेयाकरण न्यायात् ॥ तस्मात् ज्ञायते विशेष प्रतिपत्तयेतेन्यस्तस्यपार्थक्या जिधान मितिनागमोक्त चैत्य संख्या विरोपति ॥